कालयवन द्वारा मथुरा पर आक्रमण 3.3.10 - श्रील प्रभुपाद !
अध्याय तीन – वृन्दावन से बाहर भगवान की लीलाएँ (3.3)
1 श्री उद्धव ने कहा: तत्पश्चात भगवान कृष्ण श्री बलदेव के साथ मथुरा नगरी आये और अपने माता पिता को प्रसन्न करने के लिए जनता के शत्रुओं के अगुवा कंस को उसके सिंहासन से खींच कर अत्यन्त बलपूर्वक भूमि पर घसीटते हुए वध कर दिया।
2 भगवान ने अपने शिक्षक सांदीपनी मुनि से केवल एक बार सुनकर सारे वेदों को उनकी विभिन्न शाखाओं समेत सीखा और गुरुदक्षिणा के रूप में अपने शिक्षक के मृत पुत्र को यमलोक से वापस लाकर दे दिया।
3 राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के सौन्दर्य तथा सम्पत्ति से आकृष्ट होकर अनेक बड़े-बड़े राजकुमार तथा राजा उससे ब्याह करने के लिए एकत्र हुए। किन्तु भगवान कृष्ण अन्य आशावान अभ्यर्थियों को पछाड़ते हुए उसी तरह उसे उठा ले गये जिस तरह गरुड़ अमृत ले गया था।
4 बिना नथ वाले सात बैलों का दमन करके भगवान ने स्वयंवर की खुली स्पर्धा में राजकुमारी नाग्नजिती का हाथ प्राप्त किया। यद्यपि भगवान विजयी हुए, किन्तु उनके प्रत्याशियों ने राजकुमारी का हाथ चाहा, अतः युद्ध हुआ। अतः शस्त्रों से अच्छी तरह लैस, भगवान ने उन सबों को मार डाला या घायल कर दिया, परन्तु स्वयं उन्हें कोई चोट नहीं आई।
5 अपनी प्रिय पत्नी को प्रसन्न करने के लिए भगवान स्वर्ग से पारिजात वृक्ष ले आये जिस तरह कि एक सामान्य पति करता है। किन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपनी पत्नियों के उकसाने पर (क्योंकि वह स्त्रीवश था) लड़ने के लिए दलबल सहित भगवान का पीछा किया।
6 धरित्री अर्थात पृथ्वी के पुत्र नरकासुर ने सम्पूर्ण आकाश को निगलना चाहा जिसके कारण युद्ध में वह भगवान द्वारा मार दिया गया। तब उसकी माता ने भगवान से प्रार्थना की। इससे नरकासुर के पुत्र को राज्य लौटा दिया गया और भगवान उस असुर के घर में प्रविष्ट हुए।
7 उस असुर के घर में नरकासुर द्वारा हरण की गई सारी राजकुमारियाँ दुखियारों के मित्र भगवान को देखते ही चौकन्नी हो उठीं। उन्होंने अतीव उत्सुकता, हर्ष तथा लज्जा से भगवान की ओर देखा और अपने को उनकी पत्नियों के रूप में अर्पित कर दिया।
8 वे सभी राजकुमारियाँ अलग-अलग भवनों में रखी गई थीं और भगवान ने एकसाथ प्रत्येक राजकुमारी के लिए उपयुक्तयुग्म के रूप में विभिन्न शारीरिक अंश धारण कर लिये। उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा विधिवत उनके साथ पाणिग्रहण कर लिया।
9 अपने दिव्य स्वरूपों के अनुसार ही अपना विस्तार करने के लिए भगवान ने उनमें से हर एक से ठीक अपने ही गुणों वाली दस-दस सन्तानें उत्पन्न कीं।
10 कालयवन, मगध के राजा तथा शाल्व ने मथुरा नगरी पर आक्रमण किया, किन्तु जब नगरी उनके सैनिकों से घिर गई तो भगवान ने अपने जनों की शक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से उन सबों को स्वयं नहीं मारा।
11 शम्बर, द्विविद, बाण, मुर, बल्वल जैसे राजाओं तथा दन्तवक्र इत्यादि बहुत से असुरों में से कुछ को उन्होंने स्वयं मारा और कुछ को अन्यों के (यथा बलदेव इत्यादि) द्वारा वध करवाया ।
12 तत्पश्चात, हे विदुर, भगवान ने शत्रुओं को तथा लड़ रहे तुम्हारे भतीजों के पक्ष के समस्त राजाओं को कुरुक्षेत्र के युद्ध में मरवा दिया। वे सारे राजा इतने विराट तथा बलवान थे कि जब वे युद्धभूमि में विचरण करते तो पृथ्वी हिलती प्रतीत होती।
13 कर्ण, दु:शासन तथा सौबल की कुमंत्रणा के कपट-योग के कारण दुर्योधन अपनी सम्पत्ति तथा आयु से विहीन हो गया। यद्यपि वह शक्तिशाली था, किन्तु जब वह अपने अनुयायियों समेत भूमि पर लेटा हुआ था और उसकी जाँघें टूटी थीं। भगवान इस दृश्य को देखकर प्रसन्न नहीं थे।
14 [कुरुक्षेत्र युद्ध की समाप्ति पर भगवान ने कहा] अब द्रोण, भीष्म, अर्जुन तथा भीम की सहायता से अठारह अक्षौहिणी सेना का पृथ्वी का भारी बोझ कम हुआ है। किन्तु यह क्या है? अब भी मुझी से उत्पन्न यदुवंश की विशाल शक्ति शेष है, जो और भी अधिक असह्य बोझ बन सकती है।
15 जब वे नशे में चूर होकर, मधु-पान के कारण ताम्बे जैसी लाल-लाल आँखें किये, परस्पर लड़ेंगे-झगड़ेंगे तभी वे विलुप्त होंगे अन्यथा यह सम्भव नहीं है। मेरे अन्तर्धान होने पर यह घटना घटेगी।
16 इस तरह अपने आप सोचते हुए भगवान कृष्ण के पुण्य मार्ग में प्रशासन का आदर्श प्रदर्शित करने के लिए संसार के परम नियन्ता के पद पर महाराज युधिष्ठिर को स्थापित किया।
17 महान वीर अभिमन्यु द्वारा अपनी पत्नी उत्तरा के गर्भ में स्थापित पुरु के वंशज का भ्रूण द्रोण के पुत्र के अस्त्र द्वारा भस्म कर दिया गया था, किन्तु बाद में भगवान ने उसकी पुनः रक्षा की।
18 भगवान ने धर्म के पुत्र महाराज युधिष्ठिर को तीन अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने भगवान कृष्ण का निरन्तर अनुगमन करते हुए अपने छोटे भाइयों की सहायता से पृथ्वी की रक्षा की और उसका भोग किया।
19 उसी के साथ-साथ भगवान ने समाज के वैदिक रीति-रिवाजों का दृढ़ता से पालन करते हुए द्वारकापुरी में जीवन का भोग किया। वे सांख्य दर्शन प्रणाली के द्वारा प्रतिपादित वैराग्य तथा ज्ञान में स्थित थे।
20 वे वहाँ पर लक्ष्मी देवी के निवास, अपने दिव्य शरीर, में सदा की तरह के अपने सौम्य तथा मधुर मुसकान युक्त मुख, अपने अमृतमय वचनों तथा अपने निष्कलंक चरित्र से युक्त रह रहे थे।
21 भगवान ने इस लोक में तथा अन्य लोकों में (उच्च लोकों में), विशेष रूप से यदुवंश की संगति में अपनी लीलाओं का आनन्द लिया। रात्रि में विश्राम के समय उन्होंने अपनी पत्नियों के साथ दाम्पत्य प्रेम की मैत्री का आनन्द लिया।
22 इस तरह भगवान अनेकानेक वर्षों तक गृहस्थ जीवन में लगे रहे, किन्तु अन्त में नश्वर यौन जीवन से उनकी विरक्ति पूर्णतया प्रकट हुई।
23 प्रत्येक जीव एक अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होता है और इस तरह उसका इन्द्रिय भोग भी उसी अलौकिक शक्ति के नियंत्रण में रहता है। इसलिए कृष्ण के दिव्य इन्द्रिय-कार्यकलापों में वही अपनी श्रद्धा टिका सकता है, जो भक्ति-मय सेवा करके भगवान का भक्त बन चुका है।
24 एक बार यदुवंशी तथा भोजवंशी राजकुमारों की क्रीड़ाओं से महामुनिगण क्रुद्ध हो गये तो उन्होंने भगवान की इच्छानुसार उन राजकुमारों को शाप दे दिया।
25 कुछेक महीने बीत गये तब कृष्ण द्वारा विमोहित हुए समस्त वृष्णि, भोज तथा अन्धक वंशी, जो कि देवताओं के अवतार थे, प्रभास गये। किन्तु जो भगवान के नित्य भक्त थे वे द्वारका में ही रहते रहे।
26 वहाँ पहुँचकर उन सबों ने स्नान किया और उस तीर्थ स्थान के जल से पितरों, देवताओं तथा ऋषियों का तर्पण करके उन्हें तुष्ट किया। उन्होंने राजकीय दान में ब्राह्मणों को गौवें दीं।
27 ब्राह्मणों को दान में न केवल सुपोषित गौवें दी गई, अपितु उन्हें सोना, चाँदी, बिस्तर, वस्त्र, पशुचर्म के आसन, कम्बल, घोड़े, हाथी, कन्याएँ तथा आजीविका के लिए पर्याप्त भूमि भी दी गई।
28 तत्पश्चात उन्होंने सर्वप्रथम भगवान को अर्पित किया गया अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन उन ब्राह्मणों को भेंट किया और तब अपने सिरों से भूमि का स्पर्श करते हुए उन्हें सादर नमस्कार किया। वे गौवों तथा ब्राह्मणों की रक्षा करते हुए भलीभाँति रहने लगे।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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