अध्याय दो – हृदय में भगवान (2.2)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस ब्रह्माण्ड के प्राकट्य के पूर्व, ब्रह्माजी ने विराट रूप के ध्यान द्वारा भगवान को प्रसन्न करके विलुप्त हो चुकी अपनी चेतना पुनः प्राप्त की। इस तरह वे सृष्टि का पूर्ववत पुनर्निर्माण कर सके।
2 वैदिक ध्वनियों (वेदवाणी) को प्रस्तुत करने की विधि इतनी मोहनेवाली है कि यह व्यक्तियों की बुद्धि को स्वर्ग जैसी व्यर्थ की वस्तुओं की ओर ले जाती है। बद्धजीव ऐसी स्वर्गिक मायामयी वासनाओं के स्वप्नों में मँडराते रहते हैं, लेकिन ऐसे स्थानों में वे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं कर पाते।
3 अतएव प्रबुद्ध व्यक्ति को उपाधियों वाले इस जगत में रहते हुए जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसे बुद्धिमत्तापूर्वक स्थिर रहना चाहिए और अवांछित वस्तुओं के लिए कभी कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह व्यावहारिक रूप में यह अनुभव करने में सक्षम होता है कि ऐसे सारे प्रयास कठोर श्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते।
4 जब लेटने के लिए विपुल भूखण्ड पड़े हैं, तो चारपाइयों तथा गद्दों की क्या आवश्यकता है? जब मनुष्य अपनी बाँह का उपयोग कर सकता है, तो फिर तकिये की क्या आवश्यकता है? जब मनुष्य अपनी हथेलियों का उपयोग कर सकता है, तो तरह-तरह के बर्तनों की क्या आवश्यकता है? जब पर्याप्त ओढ़न अथवा वृक्ष की छाल उपलब्ध हो, तो फिर वस्त्र की क्या आवश्यकता है?
5 क्या सड़कों पर चिथड़े नहीं पड़े रहते हैं? क्या दूसरों का पालन करने के लिये जीवित रहने वाले वृक्ष अब दान में भिक्षा नहीं देते? क्या सूख जाने पर नदियाँ अब प्यासे को जल प्रदान नहीं करतीं? क्या अब पर्वतों की गुफाएँ बन्द हो चुकी हैं? या सबसे ऊपर क्या अब सर्वशक्तिमान भगवान पूर्ण शरणागत आत्माओं की रक्षा नहीं करते? तो फिर विद्वान मुनिजन उनकी चापलूसी क्यों करते हैं, जो अपनी गाढ़ी कमाई की सम्पत्ति के कारण प्रमत्त हो गए हैं ?
6 मनुष्य को इस प्रकार स्थिर होकर, उनकी (भगवान की) सर्वशक्तिमत्ता के कारण अपने हृदय में स्थित परमात्मा की सेवा करनी चाहिए। चूँकि वे सर्वशक्तिमान भगवान सनातन एवं असीम हैं, अतएव वे जीवन के चरम लक्ष्य हैं और उनकी पूजा करके मनुष्य बद्ध जीवन के कारण को दूर कर सकता है।
7 निपट भौतिकतावादी के अतिरिक्त ऐसा कौन होगा, जो जनसमान्य को अपने कर्मों से मिलने वाले फलों के कारण क्लेशों की नदी में गिरते हुए देखकर भी, ऐसे विचार की उपेक्षा करे और केवल क्षणभंगुर नामों को ग्रहण करें?
8 अन्य लोग शरीर के हृदय-प्रदेश में वास करनेवाली एवं केवल एक बित्ता (आठ इंच) परिमाण के चार हाथोंवाले तथा उनमें से प्रत्येक में क्रमश: कमल, रथ का चक्र, शंख तथा गदा धारण किये हुए भगवान का ध्यान करते हैं।
9 उनका मुख उनकी प्रसन्नता को व्यक्त करता है। उनकी आँखें कमल की पंखड़ियों के समान हैं और उनका वस्त्र कदम्ब पुष्प के केसर के समान पीले रंग का तथा बहुमूल्य रत्नों से जटित है। उनके सारे आभूषण स्वर्ण से निर्मित तथा रत्नों से जटित हैं। वे देदीप्यमान मुकुट तथा कुण्डल धारण किये हुए हैं।
10 उनके चरणकमल महान योगियों के कमल-सदृश हृदयों के गुच्छों के ऊपर रखे हैं। उनके वक्षस्थल पर कौस्तुभ मणि है, जिसमें सुन्दर बछड़ा अंकित है और उनके कंधों पर अन्य रत्न हैं। उनका पूर्ण स्कन्ध-प्रदेश ताजे फूलों की माला से सज्जित है।
11 उनकी कमर अलंकृत करधनी से भलीभाँति सुशोभित है और उनकी अंगुलियों में बहुमूल्य रत्नों से जटित अँगूठियाँ हैं। उनके नूपुर, उनके कंकण, उनके घुँघराले नीले रंग की आभा वाले चिकने बाल तथा उनका सुन्दर मुस्कान – युक्तमुख – ये सभी अत्यन्त सुहावने हैं।
12 भगवान की भव्य लीलाएँ तथा उनके हास्यमय मुख की उल्लासमयी चितवन उनके व्यापक वरदानों के संकेत हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि जब तक ध्यान द्वारा उसका मन भगवान पर स्थिर रखा जा सके, तब तक मन को उनके इसी दिव्य रूप में एकाग्र करे।
13 ध्यान की प्रक्रिया भगवान के चरणकमलों से प्रारम्भ करते हुए उसे उनके हँसते मुखमण्डल तक ले आए। इस तरह पहले ध्यान को चरणकमल पर एकाग्र करे, फिर पिंडलियों पर, तब जाँघों पर और क्रमशः ऊपर की ओर उठता जाये। मन जितना ही एक-एक करके भगवान के विभिन्न अंगो पर स्थिर होगा, बुद्धि उतनी ही अधिक परिष्कृत होगी।
14 जब तक स्थूल भौतिकतावादी व्यक्ति दिव्य तथा भौतिक दोनों ही जगतों के द्रष्टा परमेश्वर की प्रेमाभक्ति विकसित न कर ले, तब तक उसे अपने कर्तव्यों को पूरा कर लेने के बाद भगवान के विराट रूप का स्मरण या ध्यान करना चाहिए।
15 हे राजन, जब भी योगी मनुष्यों के इस ग्रह को छोड़ने की इच्छा करे, तो वह उचित काल या स्थान की तनिक भी इच्छा न करते हुए, सुविधापूर्वक अविचल भाव से आसन लगा ले और प्राणवायु को नियमित करके मन द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करे।
16 तत्पश्चात योगी को चाहिए कि वह अपनी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने मन को जीवात्मा में तदाकार करे और फिर जीवात्मा को परम आत्मा में विलीन कर दे। ऐसा करने के बाद, पूर्णतया तुष्ट जीव, तुष्टि की चरमावस्था को प्राप्त होता है, जिससे वह अन्य सारे कार्यकलाप बन्द कर देता है।
17 उस लब्धोपशान्ति की दिव्य अवस्था में विनाशकारी काल की सर्वोपरिता नहीं रह पाती, जो उन देवताओं का भी नियामक है, जिन्हें संसारी प्राणियों के ऊपर शासन करने की शक्ति प्रदान की गई है। (तो फिर स्वयं देवताओं के विषय में तो कहना ही क्या?) इस अवस्था में न तो भौतिक सतोगुण, रजोगुण या तमोगुण रहते हैं, न ही मिथ्या अहंकार न भौतिक कारणार्णव अथवा न भौतिक प्रकृति ही रह पाती है।
18 योगीजन ईश्वर-विहीन प्रत्येक वस्तु से बचना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें उस परम स्थिति का पता है, जिसमें प्रत्येक वस्तु भगवान विष्णु से सम्बन्धित है। अतएव वह शुद्ध भक्त, जो कि भगवान से पूर्ण ऐक्य रखता है, जटिलताएँ उत्पन्न नहीं करता, अपितु भगवान के चरणकमलों को हृदय में धारण करके उनकी प्रत्येक क्षण पूजा करता है।
19 वैज्ञानिक ज्ञान के बल पर मनुष्य को परम अनुभूति में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाना चाहिए और इस तरह समस्त भौतिक इच्छाओं को शमन करने में समर्थ हो जाना चाहिए। इसके बाद मनुष्य को वायु-द्वार (गुदा) को पाँव की एड़ी से बन्द करके तथा प्राणवायु को एक-एक करके क्रमश: छह प्रमुख स्थानों (चक्रों) में एक-एक करके ऊपर ले जाना चाहिए और तब भौतिक शरीर का त्याग कर देना चाहिए।
20 ध्यानमग्न भक्त को चाहिए कि वह प्राणवायु को धीरे-धीरे नाभि से हृदय में, हृदय से छाती में और वहाँ से तालु के निचले भाग तक ले जाये। उसे बुद्धि से समुचित स्थानों को ढूँढ निकालना चाहिए।
21 तत्पश्चात भक्तियोगी को अपनी प्राणवायु दोनों भौहों के मध्य लाना चाहिए और तब प्राणवायु के सातों बाहिर्द्वारों को बन्द करके, उसे भगवदधाम वापस जाने को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। यदि वह भौतिक भोग की सारी इच्छाओं से मुक्त है, तब उसे ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचना चाहिए तथा भगवान के पास चले जाने पर अपने सारे भौतिक बन्धनों को त्याग देना चाहिए।
22 तथापि हे राजन, यदि योगी में अत्यधिक भोगों की इच्छा बनी रहती है, जैसे कि सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक जाने की, या अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त करने की, अथवा वैहासयों के साथ बाह्य अन्तरिक्ष में यात्रा करने की, या लाखों ग्रहों में से किसी एक में स्थान प्राप्त करने की इत्यादि, तो उसे भौतिकता में ढले मन तथा इन्द्रियों को अपने साथ-साथ ले जाना होता है।
23 अध्यात्मवादियों का सम्बन्ध आध्यात्मिक शरीर से होता है। फलस्वरूप अपनी भक्ति, तपस्या, योगशक्ति तथा दिव्य ज्ञान के बल पर वे भौतिक जगत के भीतर तथा बाहर अबाध रूप से विचरण कर सकते हैं। किन्तु सकाम-कर्मी या निपट भौतिकतावादी इस तरह मुक्त रूप से कभी विचरण नहीं कर सकते।
24 हे राजन, जब योगी सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक पहुँचने के लिए प्रकाशमान सुषुम्णा द्वारा आकाश-गंगा के ऊपर से गुजरता है, तो वह सर्वप्रथम अग्निदेव के ग्रह वैश्वानर पर जाता है, जहाँ वह सारे कल्मषों से परिशुद्ध हो जाता है। तब वह भगवान हरि से तादात्म के लिए उससे भी ऊपर शिशुमार चक्र को जाता है।
25 यह शिशुमार चक्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के घूमने की कीली है और यह विष्णु (गर्भोदकशायी विष्णु) की नाभि कहलाती है। केवल योगी ही इस शिशुमार चक्र को पार करता है और ऐसे लोक (महर्लोक) को प्राप्त करता है, जहाँ भृगु जैसे परिशुद्ध हो चुके महर्षि 4,30,00,00,000 (चार अरब तीस करोड़) सौर वर्षों की आयु भोगते हैं। यह लोक उन सन्तों द्वारा भी पूजित है, जो अध्यात्मपद को प्राप्त हैं।
26 सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अन्तिम संहार के समय (ब्रह्मा के जीवन के अन्त में), अनन्त के मुख से (ब्रह्माण्ड के नीचे से) अग्नि की ज्वाला फूट निकलती है। योगी ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों को भस्म होकर राख होते हुए देखता है और वह शुद्धात्माओं द्वारा प्रयुक्त होनेवाले वायुयानों के द्वारा सत्यलोक के लिए प्रस्थान करता है। सत्यलोक में जीवन की अवधि दो परार्ध अर्थात 1,54,80,00,00,00,000 (एक नील चौवन खरब अस्सी अरब) सौर वर्ष आँकी जाती है।
27 सत्यलोक में न तो शोक है, न बुढ़ापा, न मृत्यु। वहाँ किसी प्रकार की वेदना नहीं है, जिसके कारण किसी तरह की चिन्ता भी नहीं है। हाँ कभी-कभी चेतना के कारण उन लोगों पर दया उमड़ती है, जो भक्तियोग से अवगत न होने से भौतिक जगत के दुर्लंघ्य कष्टों को भोग रहे हैं।
28 सत्यलोक पहुँचकर भक्त विशेष रूप से अपने सूक्ष्म शरीर से, अपने स्थूल शरीर जैसी पहचान में निर्भय होकर समाविष्ट हो जाने में सक्षम होता है और क्रमश: वह भूमि से जल, अग्नि, तेज तथा वायु की अवस्थाएँ पार करता हुआ अन्त में आकाश की अवस्था में पहुँच पाता है।
29 इस प्रकार भक्त विभिन्न इन्द्रियों के सूक्ष्म विषयों को पार कर जाता है, यथा सूँघने से सुगन्धि को, चखने से स्वाद को, स्वरूप देखने से दृष्टि को, सम्पर्क द्वारा स्पर्श को, आकाशीय पहचान से कान के कम्पनों को तथा भौतिक कार्य-कलापों से इन्द्रियों को।
30 इस तरह से भक्त स्थूल तथा सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार के स्तर में प्रवेश करता है। उस अवस्था में वह भौतिक गुणों (रजो तथा तमो गुणों) को इस उदासीन बिन्दु में विलीन कर देता है और इस तरह वह सतोगुणी अहंकार को प्राप्त होता है। इसके पश्चात सारा अहंकार महत तत्त्व में विलीन हो जाता है और वह शुद्ध आत्म-साक्षात्कार के बिन्दु तक आता है।
31 केवल विशुद्धात्मा ही पूर्ण आनन्द तथा तुष्टि के साथ अपनी वैधानिक अवस्था में भगवान के साथ संगति करने की पूर्णता प्राप्त कर सकता है। जो कोई भी ऐसी भक्तिमयी पूर्णता को पुनः जागृत करने में समर्थ होता है, वह इस भौतिक जगत के प्रति फिर से आकृष्ट नहीं होता और इसमें लौटकर कभी नहीं आता।
32 हे महाराज परीक्षित, आप इतना जान लें कि मैंने आपकी समुचित जिज्ञासा के प्रति जो भी वर्णन किया है, वह वेदों के कथनानुसार है और वही सनातन सत्य है। इसे साक्षात भगवान कृष्ण ने ब्रह्मा से कहा था, क्योंकि वे ब्रह्मा द्वारा समुचित रूप से पूजे जाने पर उनसे प्रसन्न हुए थे।
33 जो लोग भौतिक विश्व में भटक रहे हैं, उनके लिए भगवान कृष्ण की प्रत्यक्ष भक्ति से बढ़कर मोक्ष का कोई अधिक कल्याणकर साधन नहीं है।
34 महापुरुष ब्रह्मा ने ध्यानपूर्वक तथा अत्यन्त मनोयोग से वेदों का तीन बार अध्ययन किया और उनकी भलीभाँति संवीक्षा कर लेने के बाद, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षण (रति) ही धर्म की सर्वोच्च सिद्धि है।
35 आत्मा के साथ भगवान श्रीकृष्ण प्रत्येक जीव में उपस्थित हैं और जब हम देखते हैं तथा बुद्धि की सहायता लेते हैं, तब हमें इस तथ्य का अनुभव होता है और इसकी परिकल्पना की पुष्टि होती है।
36 हे राजन, अतएव यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य सर्वत्र तथा सदैव पुरुषोत्तम भगवान का श्रवण करे, गुणगान करे तथा स्मरण करे।
37 जो लोग भक्तों के अत्यन्त प्रिय भगवान कृष्ण की अमृत-तुल्य कथा को कर्णरूपी पात्रों से भर-भर कर पीते हैं, वे भौतिक भोग के नाम से विख्यात दूषित जीवन-उद्देश्य को पवित्र कर लेते हैं और इस प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर के चरणकमलों में भगवदधाम को वापस जाते हैं।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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