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अध्याय सात – विशिष्ट कार्यों के लिए निर्धारित अवतार (2.7)

1 ब्रह्माजी ने कहा: जब अनन्त शक्तिशाली भगवान ने लीला के रूप में ब्रह्माण्ड के गर्भोदक नामक महासागर में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर उठाने के लिए वराह का रूप धारण किया, तो सबसे पहला असुर (हिरण्याक्ष) वहाँ आया । भगवान ने उसे अपने अगले दाँत से विदीर्ण कर दिया।

2 सर्वप्रथम प्रजापति की पत्नी आकूती के गर्भ से सुयज्ञ उत्पन्न हुआ; फिर सुयज्ञ ने अपनी पत्नी दक्षिणा से सुयम इत्यादि देवताओं को उत्पन्न किया। सुयज्ञ ने इन्द्रदेव के रूप में तीनों ग्रह मण्डलों (ऊर्ध्व, निम्न तथा मध्य लोकों) के महान क्लेश कम कर दिए थे, फलतः ब्रह्माण्ड के दुख दूर करने से मानवजाति के महान पिता स्वायम्भुव मनु ने उसे हरि नाम से पुकारा ।

3 इसके पश्चात भगवान कपिल रूप में अवतरित हुए और प्रजापति ब्राह्मण कर्दम तथा उनकी पत्नी देवहूति के पुत्र रूप में अन्य नौ स्त्रियों (बहनों) के साथ जन्म लिया। उन्होंने अपनी माता को आत्म-साक्षात्कार के विषय में शिक्षा दी, जिससे वे उसी जीवन काल में भौतिक गुण रूपी कीचड़ से विमल हो गई और उन्होंने मुक्ति प्राप्त की, जो कपिल का मार्ग है।

4 अत्री महर्षि ने भगवान से सन्तान के लिए प्रार्थना की और उन्होंने प्रसन्न होकर स्वयं ही अत्री के पुत्र दत्तात्रेय (दत्त, अत्री का पुत्र) के रूप में अवतरित होने का वचन दिया और भगवान के चरणकमलों की कृपा से अनेक यदु, हैहय इत्यादि अत्यन्त पवित्र हुए और उन्होंने भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही वर प्राप्त किये।

5 विभिन्न लोकों की उत्पत्ति करने के लिए मुझे तपस्या करनी पड़ी और तब भगवान मुझसे प्रसन्न होकर चारों कुमारों ( सनक, सनत्कुमार, सनन्दन तथा सनातन) के रूप में अवतरित हुए। पिछली सृष्टि में आध्यात्मिक सत्य (आत्मज्ञान) का विनाश हो चुका था, किन्तु इन चारों कुमारों ने इतने स्पष्ट ढंग से उसकी व्याख्या की कि मुनियों को तुरन्त सत्य का साक्षात्कार हो गया।

6 उन्होंने अपनी तपस्या तथा आत्मसंयम की विधि प्रदर्शित करने के लिए धर्म की पत्नी तथा दक्ष की पुत्री मूर्ति के गर्भ से नर तथा नारायण जुड़वें रूपों में जन्म लिया। कामदेव की सखियाँ, स्वर्ग की सुन्दरियाँ, उनका व्रत भंग करने आई, किन्तु वे असफल रहीं, क्योंकि उन्हें भगवान के शरीर से अपने समान अनेक सुन्दरियाँ उत्पन्न होती दिखाई पड़ीं।

7 शिव जैसे महापुरुष अपनी रोषपूर्ण चितवन से वासना (काम) को जीतकर उसे दण्डित तो कर सकते हैं, किन्तु वे स्वयं अपने क्रोध के अत्यधिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते। ऐसा क्रोध कभी भी उनके (भगवान के) हृदय में प्रवेश नहीं कर पाता, क्योंकि वे इन सब बातों से परे हैं। तो फिर भला उनके मन में काम को आश्रय कैसे प्राप्त हो सकता है?

8 राजा की उपस्थिति में सौतली माता के कटु वचनों से अपमानित होकर राजकुमार ध्रुव, बालक होते हुए भी, वन में कठिन तपस्या करने लगे और भगवान ने उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्हें ध्रुवलोक प्रदान किया, जिसकी पूजा ऊपर तथा नीचे के लोकों में सभी मुनि करते हैं।

9 महाराज वेन कुमार्गगामी हो गया, अतः ब्राह्मणों ने वज्रशाप से उसे दण्डित किया। इस प्रकार राजा वेन अपने सत्कर्मों तथा ऐश्वर्य के सहित भस्म हो गया और नरक के पथ पर जाने लगा। किन्तु भगवान ने अपनी अहैतुकी कृपा से, उसके पुत्र पृथु के रूप में अवतरित होकर शापित राजा वेन को नरक से उबारा और पृथ्वी का दोहन करके उससे सभी प्रकार की उपजें प्राप्त कीं।

10 राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के पुत्र के रूप में भगवान प्रकट हुए और ऋषभदेव कहलाये। अपने मन को समदर्शी बनाने के लिए उन्होंने जड़योग साधना की। इस अवस्था को मुक्ति का सर्वोच्च सिद्ध पद भी माना जाता है। जिसमें मनुष्य अपनी आत्मा में स्थित रहकर पूर्ण रूप से संतुष्ट रहता है।

11 मेरे (ब्रह्मा) द्वारा सम्पन्न किये गए यज्ञ में भगवान हयग्रीव अवतार के रूप में प्रकट हुए। वे साक्षात यज्ञ हैं और उनके शरीर का रंग सुनहला है। वे साक्षात वेद भी हैं और समस्त देवताओं के परमात्मा हैं। जब उन्होंने श्वास ली, तो उनके नथुनों से समस्त मधुर वैदिक स्तोत्रों की ध्वनियाँ प्रकट हुईं।

12 कल्प के अन्त में भावी वैवस्वत मनु, सत्यव्रत, देखेंगे कि मत्स्य अवतार के रूप में श्रीभगवान पृथ्वी पर्यन्त सभी प्रकार के जीवात्माओं के आश्रय हैं। तब कल्प के अन्त में, जल के मेरे भय से, सभी वेद मेरे (ब्रह्मा के) मुँह से निकलते हैं तथा भगवान उस विशाल जल राशि का आनन्द उठाते हुए वेदों की रक्षा करते हैं।

13 तब आदि भगवान मथानी की तरह उपयोग में लाये जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए धुरी (आश्रय स्थल) के रूप में कच्छप रूप में अवतरित हुए। देवता तथा असुर अमृत निकालने के उद्देश्य से मन्दराचल को मथानी बनाकर क्षीर सागर का मन्थन कर रहे थे। यह पर्वत आगे-पीछे घूम रहा था, जिससे भगवान कच्छप की पीठ पर रगड़ पड़ रही थी तब वे अधजगी निद्रा में थे और खुजलाहट का अनुभव कर रहे थे, उनकी पीठ रगड़ी जाने लगी।

14 श्रीभगवान ने देवताओं के अदम्य भय को मिटाने के लिए नृसिंह-देव का अवतार ग्रहण किया। उन्होंने असुरों के उस राजा (हिरण्यकशिपु) को अपनी जाँघों पर रखकर अपने नाखूनों से विदीर्ण कर डाला, जो हाथ में गदा लेकर भगवान को ललकार रहा था। उस समय उनकी भौहें क्रोध से फड़क रही थीं और उनके दाँत तथा उनका मुख भयावने लग रहे थे।

15 अत्यन्त बलशाली मगर के द्वारा नदी के भीतर पाँव पकड़ लिये जाने से हाथियों का नायक अत्यन्त पीड़ित था, उसने अपनी सूँड में कमल का फूल लेकर भगवान को इस प्रकार सम्बोधित किया, “हे आदि भोक्ता, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे उद्धारक, हे तीर्थ के समान विख्यात! आपके पवित्र नाम जो जपे जाने के योग्य हैं, उनके श्रवण मात्र से ही सभी लोग पवित्र हो जाते हैं।

16 हाथी की पुकार सुनकर श्रीभगवान को लगा कि उसे उनकी अविलम्ब सहायता की आवश्यकता है, क्योंकि वह घोर संकट में था। तब भगवान पक्षीराज गरुड़ के पंखों पर आसीन होकर अपने आयुध चक्र से सज्जित होकर वहाँ पर तुरन्त प्रकट हुए। उन्होंने हाथी की रक्षा करने के लिए अपने चक्र से मगर के मुँह के खण्ड-खण्ड कर दिये और हाथी को सूँड से पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया।

17 भगवान समस्त भौतिक गुणों से परे होते हुए भी अदिति के पुत्रों (आदित्यों) के गुणों से कहीं बढ़कर थे। वे अदिति के सबसे छोटे पुत्र के रूप में प्रकट हुए और क्योंकि उन्होंने ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रहों को पार किया, अतः वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। उन्होंने तीन पग भूमि माँगने के बहाने से बलि महाराज की सारी भूमि ले ली। उन्होंने याचना इसीलिए की क्योंकि बिना याचना के, सन्मार्ग पर चलने वाले से कोई उसकी अधिकृत सम्पत्ति नहीं ले सकता।

18 अपने सिर पर भगवान के कमल-पाद प्रक्षालित जल को धारण करने वाले बलि महाराज ने अपने गुरु द्वारा मना किये जाने पर भी अपने वचन के अतिरिक्त मन में अन्य कुछ धारण नहीं किया। राजा ने भगवान के तीसरे पग को पूरा करने के लिए अपना शरीर भी समर्पित कर दिया। ऐसे महापुरुष के लिए अपने बाहुबल से जीते गए स्वर्ग के साम्राज्य का भी कोई महत्त्व नहीं था।

19 हे नारद, तुम्हें श्रीभगवान ने अपने हंसावतार में ईश्वर के विज्ञान तथा दिव्य प्रेममयी सेवा के विषय में शिक्षा दी थी। वे तुम्हारी अगाध भक्ति से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे। उन्होंने तुम्हें भक्ति का पूरा विज्ञान भी अत्यन्त सुबोध ढंग से समझाया था, जिसे केवल भगवान वासुदेव के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति ही समझ सकते हैं।

20 भगवान ने मनु-अवतार लिया और वे मनुवंश के वंशज बन गये। उन्होंने अपने शक्तिशाली सुदर्शन चक्र से दुष्ट राजाओं का दमन करके उन पर शासन किया। समस्त परिस्थितियों में अबाध रहते हुए, उनका शासन उनकी महिमामयी कीर्ति से मण्डित था। जो तीनों लोकों तथा ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च सत्यलोक तक फैली हुई थी।

21 अपने धन्वन्तरी अवतार में भगवान अपने साक्षात यश के द्वारा निरन्तर रुग्ण रहने वाले जीवात्माओं के रोगों का तुरन्त उपचार कर देते हैं और उनके कारण ही सभी देवता दीर्घायु प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भगवान सदा के लिए महिमामण्डित हो जाते हैं। उन्होंने यज्ञों में से भी एक अंश निकाल लिया और उन्होंने ही विश्व में औषधि विज्ञान (आयुर्वेद) का प्रवर्तन किया ।

22 जब शासक वर्ग जो क्षत्रिय नाम से जाने जाते थे, परम सत्य के पथ से भ्रष्ट हो गये और नरक भोगने के पात्र हो गये, तब भगवान ने परशुराम ऋषि का अवतार लेकर उन अवांछित राजाओं का उच्छेद किया, जो पृथ्वी के लिए कंटक बने हुए थे। इस तरह उन्होंने अपने तीक्ष्ण फरसे के द्वारा क्षत्रियों का इक्कीस बार उच्छेदन किया।

23 इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों पर अहैतुकी कृपा के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपने पूर्ण अंशों सहित महाराज इक्ष्वाकु के कुल में अपनी अन्तरंगा शक्ति, सीताजी, के स्वामी के रूप में प्रकट हुए। वे अपने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा से वन गये और अपनी पत्नी तथा छोटे भाई के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहे। भौतिक रूप से अत्यन्त शक्तिशाली दस सिरों वाले रावण ने उनके प्रति महान अपराध किया और जिससे अन्ततः वह विनष्ट हो गया।

24 दूरस्थ अपनी घनिष्ठ संगिनी (सीता) के वियोग से दुखी श्रीरामचन्द्र ने अपने शत्रु रावण की नगरी पर हर (शिव) के जैसे ज्वलित लाल-लाल नेत्रों से दृष्टि डाली। अपार समुद्र ने उन्हें भय से काँपते हुए मार्ग दे दिया, क्योंकि उसके परिवार के सभी जलचर सदस्य यथा मगरमच्छ, सर्प तथा घड़ियाल भगवान के रक्त नेत्रों की क्रोधाग्नि से जले जा रहे थे।

25 जब रावण युद्ध कर रहा था, तो उसकी छाती से टकराकर स्वर्ग के राजा इन्द्र के हाथी की सूँड खण्ड-खण्ड हो गई और ये खण्ड बिखरकर चारों दिशाओं को चकाचौंध करने लगे। अतः रावण को अपने शौर्य पर गर्व होने लगा और वह अपने को समस्त दिशाओं का विजेता समझ कर सैनिकों के बीच इतराने लगा। किन्तु भगवान श्रीरामचन्द्र द्वारा अपने धनुष पर टनकार करने पर उसकी वह प्रसन्नता की हँसी उसकी प्राणवायु के साथ ही सहसा बन्द हो गई।

26 जब पृथ्वी पर ईश्वर में श्रद्धा न रखने वाले परस्पर लड़ने वाले राजाओं का भार बढ़ जाता है, तब भगवान संसार का कष्ट कम करने के लिए अपने पूर्ण अंश समेत अवतरित होते हैं। वे सुन्दर काले-काले केशों से युक्त अपने आदि रूप में आते हैं और अपनी दिव्य महिमा के विस्तार के लिए ही अलौकिक कार्य करते हैं। कोई उनकी महानता का अनुमान नहीं लगा सकता ।

27 भगवान श्रीकृष्ण के परमेश्वर होने में कोई सन्देह नहीं है, अन्यथा जब वे अपनी माता की गोद में थे, तो पूतना जैसी राक्षसी का वध किस तरह कर सकते थे; तीन मास की आयु में ही अपने पाँव से छकड़े को कैसे पलट सकते थे और जब घुटने के बल चल रहे थे तभी गगनचुम्बी अर्जुन वृक्षों के जोड़े को समूल कैसे उखाड़ सकते थे? ये सभी कार्य स्वयं भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए असम्भव है।

28 जब ग्वालों तथा उनके पशुओं ने यमुना नदी का विषैला जल पी लिया और जब भगवान ने (अपने बचपन में) अपनी कृपादृष्टि से ही उन्हें जीवित कर दिया, तब यमुना नदी के जल को शुद्ध करने के लिए ही वे उसमें मानो खेल-खेल में कूद पड़े। उन्होंने विषैले कालिय नाग को दण्ड दिया, जो अपनी लपलपाती जीभ से विष की लहरें निकाल रहा था। भला परमेश्वर के अतिरिक्त ऐसा महान कार्य करने में और कौन समर्थ है?

29 कालिय नाग को दण्डित करने के दिन ही रात्रि के समय, जब ब्रजभूमि के समस्त निवासी निश्चिन्त होकर सो रहे थे, तो सूखी पत्तियों के कारण जंगल में अग्नि धधक उठी और ऐसा लगा मानो उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। किन्तु आँखें बन्द करके बलरामजी के साथ भगवान ने उन सबको बचा लिया। ऐसे हैं भगवान के अलौकिक कार्यकलाप !

30 जब गोपी (कृष्ण की पालक माता यशोदा) अपने पुत्र के दोनों हाथों को रस्सियों से बाँधने का प्रयास कर रही थी, तो उसने देखा कि रस्सी हमेशा छोटी पड़ जाती थी, अतः हार कर जब उसने प्रयास करना बन्द कर दिया, तब भगवान कृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया तो माता यशोदा को मुख के भीतर सारे ब्रह्माण्ड स्थित दिखे। यह देखकर उसे सन्देह हुआ, किन्तु वह अपने पुत्र की योगशक्ति को अलग प्रकार से समझ रही थी।

31 भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पालक पिता नन्द महाराज को वरुण के भय से बचाया और ग्वालबालों को पर्वत की गुफा में से मुक्त किया, जहाँ मय के पुत्र ने उन्हे बन्दी बना रखा था। यही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण ने वृन्दावन के समस्त वासियों को, जो दिन भर काम में व्यस्त रहकर रात में थक कर निश्चिन्त सोते थे, परव्योम में सर्वोच्च लोक का भागी बना दिया। ये सारे कार्य दिव्य हैं और इनके ईश्वरत्व को सिद्ध करनेवाले हैं।

32 जब वृन्दावन के ग्वालों ने कृष्ण के आदेश से स्वर्ग के राजा इन्द्र को यज्ञ प्रदान करना बन्द कर दिया, तब सारी ब्रजभूमि लगातार सात दिनों तक होने वाली वर्षा से बह जाने के भय से संकटग्रस्त हो गई। तब केवल सात वर्ष की आयु के श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों पर अपनी अहैतुकी कृपावश केवल अपने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। ऐसा उन्होंने वर्षा से पशुओं की रक्षा करने के लिए ही किया।

33 जब भगवान वृन्दावनवासियों की पत्नियों में अपने मधुर तथा सुरीले गीतों द्वारा माधुर्य-रस जागृत करते हुए वृन्दावन में रासलीला में मग्न थे, तब कुबेर के एक धनी अनुचर शंखचूड़ नामक राक्षस द्वारा गोपियों का हरण किये जाने पर भगवान ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

34-35 प्रलम्ब, धेनुक, बक, केशी, अरिष्ट, चाणुर, मुष्टिक, कुवलयापीड हाथी, कंस, यवन, नरकासुर तथा पौण्डरक जैसे असुर; शाल्व, द्विविद वानर तथा बल्वल, दन्तवक्र, सातों साँड़, शम्बर, विदूरथ तथा रुक्मी जैसे सिपहसालार तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, सृञ्जय तथा केकय जैसे वीर योद्धा, साक्षात हरि से अथवा बलदेव, अर्जुन, भीम आदि नामों की आड़ में स्वयं श्रीभगवान से भीषण युद्ध करेंगे और इस प्रकार से मारे गये सभी असुर या तो निर्विशेष ब्रह्मज्योति को प्राप्त होंगे या वैकुण्ठ ग्रहों में स्थित भगवान के धाम को प्राप्त होंगे।

36 सत्यवती के पुत्र (व्यासदेव) के रूप में अवतरित होकर स्वयं भगवान वैदिक साहित्य के संग्रह को अल्पजीवी अल्पज्ञों के लिए कठिन समझकर वैदिक ज्ञानरूपी वृक्ष को युग विशेष की परिस्थितियों के अनुसार शाखाओं में विभाजित कर देंगे।

37 जब नास्तिक लोग वैदिक विज्ञान में अत्यन्त दक्ष बनकर महान विज्ञानी मय के द्वारा निर्मित श्रेष्ठ प्रक्षेपास्त्रों में चढ़कर आकाश में अदृश्य उड़ते हुए विभिन्न ग्रहों के निवासियों का संहार करेंगे, तो भगवान बुद्ध रूप में अत्यन्त आकर्षक वेष धारण करके उनके मस्तिष्कों को मोह लेंगे और उन्हें उपधर्मों का उपदेश देंगे।

38 तत्पश्चात कलियुग के अन्त में, जब तथाकथित सन्तों तथा तीन उच्च वर्गों के सम्माननीय मनुष्यों के घरों में भी ईश्वर की कथा नहीं होगी और जब सरकार की शक्ति निम्न कुल में उत्पन्न शूद्रों अथवा उनसे भी निम्न लोगों में से चुने गये मंत्रियों के हाथों में चली जाएगी और जब यज्ञ विधि के विषय में कुछ भी, यहाँ तक कि शब्द के द्वारा भी, ज्ञात नहीं रहेंगे तो उस समय भगवान परम दण्डदाता के रूप में प्रकट होंगे।

39 सृष्टि के प्रारम्भ में तपस्या, मैं (ब्रह्मा) तथा जन्म देने वाले ऋषि प्रजापति रहते हैं; फिर सृष्टि के पालन के समय पर भगवान विष्णु, नियामक देवता तथा विभिन्न ग्रहों के राजा रहते हैं। किन्तु अन्त काल में अधर्म बचा रहता है और रहते हैं शिवजी तथा क्रोधी नास्तिक इत्यादि। वे सब के सब परम शक्ति रूप भगवान की शक्ति के विभिन्न प्रतिनिधियों के रूप हैं।

40 भला ऐसा कौन है, जो विष्णु के पराक्रम का पूरी तरह से वर्णन कर सके? यहाँ तक कि वह विज्ञानी भी, जिसने ब्रह्माण्ड के समस्त अणुओं के कणों की गणना की होगी, वह भी ऐसा नहीं कर सकता। वे ही एकमात्र ऐसे हैं, जिन्होंने त्रिविक्रम के रूप में जब अपने पाँव को बिना प्रयास के सर्वोच्च लोक, सत्यलोक से भी आगे प्रकृति के तीनों गुणों की साम्यावस्था तक बढ़ाया था, तो सारा ब्रह्माण्ड हिलने लगा था।

41 न तो मैं न तुमसे पहले उत्पन्न हुए मुनिगण ही सर्वशक्तिमान भगवान को भलीभाँति जानते हैं। अतः जो हमारे बाद उत्पन्न हुए हैं, वे उनके विषय में क्या जानेंगे? यहाँ तक कि भगवान के प्रथम अवतार शेष भी, जो अपने एक सहस्त्र मुखों से भगवान के गुणों का वर्णन करते रहते हैं, ऐसे ज्ञान का अन्त नहीं पा सके हैं।

42 किन्तु यदि भगवान की सेवा में निश्छल भाव से आत्मसमर्पण करने से परमेश्वर की किसी पर विशेष कृपा होती है, तो वह माया के दुर्लंघ्य सागर को पार कर सकता है और भगवान को जान पाता है। किन्तु जिसे अन्त में कुत्तों तथा सियारों का भोजन बनना है, ऐसे इस शरीर के प्रति जो आसक्त हैं, वे ऐसा नहीं कर पाते।

43-45 हे नारद, यद्यपि भगवान की शक्तियाँ अज्ञेय तथा अपरिमेय हैं, फिर भी शरणागत जीव होने के नाते हम समझ सकते हैं कि वे योगमाया की शक्तियों के द्वारा किस प्रकार कार्य करते हैं। इसी प्रकार भगवान की शक्तियाँ इन सभी को भी ज्ञात हैं – सर्वशक्तिमान शिव, नास्तिक कुल के महान राजा प्रह्लाद महाराज, स्वायम्भुव मनु, उनकी पत्नी शतरूपा, उनके पुत्र तथा पुत्रियाँ यथा प्रियव्रत, उत्तानपाद, आकूति, देवहूति तथा प्रसूति; प्राचीनबर्हि, ऋभू, वेन के पिता अंग, महाराज ध्रुव, इक्ष्वाकु, ऐल, मुचूकुन्द, महाराज जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, नाहुष, मान्धाता, अलर्क, शतधनु, अनु, रन्तीदेव, भीष्म, बलि, अमूर्त्तरय, दिलीप, सौभरी, उतङ्क, शिबी, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिषेण, विभीषण, हनुमान, श्रील शुकदेव गोस्वामी, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर, श्रुतदेव इत्यादि ।

46 पापी जीवन बिताने वाले समुदायों में से भी शरणागत लोग, जैसे स्त्री, शूद्र, हूण (पर्वती लोग) तथा शबर (साइबेरिया वासी), यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी, भगवदविज्ञान के विषय में जान सकते हैं। वे भगवान के शुद्ध भक्तों की शरण में जाकर तथा भक्तिपथ पर उनके पदचिन्हों का अनुसरण करके माया के चंगुल से छूट जाते हैं।

47 परब्रह्म के रूप में जिनकी अनुभूति की जाती है, वे शोकरहित असीम आनन्द से युक्त हैं। यह निश्चय ही परम भोक्ता भगवान की अनन्तिम अवस्था है। वे शाश्वत रूप में सारे विघ्नों से रहित तथा निर्भय हैं। वे पदार्थ नहीं, अपितु परिपूर्ण चेतना हैं। वे संदूषण मुक्त हैं, भेदरहित हैं और समस्त कारणों तथा कार्यों का आदि कारण हैं, जिनमें सकाम कर्मों के लिए न तो यज्ञ करना होता है और न जिनके सामने माया ठहरती है।

48 ऐसी दिव्य अवस्था में न तो कृत्रिम रीति से मन को वश में करने की, न ही मानसिक तर्क या ध्यान करने की आवश्यकता रहती है, जैसा कि ज्ञानियों तथा योगियों द्वारा किया जाता है। मनुष्य ऐसी विधियों को उसी प्रकार त्याग देता है, जिस प्रकार स्वर्ग का राजा इन्द्र कुँ आ खोदने का कष्ट नहीं उठाता।

49 जो कुछ भी कल्याणकर है उसके परम स्वामी भगवान हैं, क्योंकि जीवात्मा जो भी कर्म करता है, चाहे वे भौतिक अवस्था में अथवा आध्यात्मिक अवस्था में किये जाँय, सबका फल देनेवाले भगवान हैं। इस प्रकार वे ही अन्तिम लाभ प्रदान करने वाले हैं। प्रत्येक व्यक्तिगत जीवात्मा अजन्मा है, अतः इस भौतिक तत्त्वमय शरीर के विनष्ट होने के बाद भी, जीवात्मा उसी प्रकार बना रहता है, जिस प्रकार शरीर के भीतर वायु होती है।

50 हे प्रिय पुत्र, मैंने तुम्हें संक्षेप में प्रकट जगतों के स्रष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विषय में बतलाया है। गोचर तथा तात्त्विक अस्तित्व का कारण भगवान हरि के अतिरिक्त और कोई नहीं है।

51 हे नारद, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने ही मुझे श्रीमदभागवत नामक यह भगवान का विज्ञान संक्षिप्त रूप में बतलाया था और यह उनकी विभिन्न शक्तियों का संग्रह है। अब तुम स्वयं इस ज्ञान का विस्तार करो।

52 कृपया तुम इस भगवदविज्ञान का संकल्पपूर्वक इस विधि से वर्णन करो, जिससे कि सभी मनुष्य, प्रत्येक जीव के परमात्मा तथा समस्त शक्तियों के आधारस्वरूप भगवान हरि के प्रति दिव्य भक्ति उत्पन्न कर सकें।

53 विभिन्न शक्तियों से सम्बन्धित भगवान के कार्यकलापों का वर्णन, उनकी प्रशंसा तथा उनका श्रवण परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार होना चाहिए। यदि नियमित रूप से श्रद्धा तथा सम्मानपूर्वक ऐसा किया जाता है, तो मनुष्य निश्चित रूप से भगवान की भ्रामक शक्ति माया से उबर जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
  • 🙏🙏🙏🌺🌺🌺👌👌👌🌹🌹🌹👍👍👍🌼🌼🌼
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