jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय उन्तीस – भगवान कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या (3.29)

1-2 देवहूति ने जिज्ञासा की: हे प्रभु, आप सांख्य दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण प्रकृति तथा आत्मा के लक्षणों का अत्यन्त वैज्ञानिक रीति से पहले ही वर्णन कर चुके हैं। अब मैं आपसे प्रार्थना करूँगी कि आप भक्ति के मार्ग की व्याख्या करें, जो समस्त दार्शनिक प्रणालियों की चरम परिणति है।

3 देवहूति ने आगे कहा: हे प्रभु, कृपया मेरे तथा जन-साधारण दोनों के लिए जन्म-मरण की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करें, जिससे ऐसी विपदाओं को सुनकर हम इस भौतिक जगत के कार्यों से विरक्त हो सकें।

4 कृपया काल का भी वर्णन करें जो आपके स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है और जिसके प्रभाव से सामान्य जन पुण्यकर्म करने में प्रवृत्त होते हैं।

5 हे भगवान, आप सूर्य के समान हैं, क्योंकि आप जीवों के बद्धजीवन के अंधकार को प्रकाशित करने वाले हैं। उनके ज्ञान-चक्षु बन्द होने से वे आपके आश्रय के बिना उस अंधकार में लगातार सुप्त पड़े हुए हैं, फलतः वे अपने कर्मों के कार्य-कारण प्रभाव से झूठे ही व्यस्त रहते हैं और अत्यन्त थके हुए प्रतीत होते हैं।

6 श्री मैत्रेय ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, अपनी महिमामयी माता के शब्दों से प्रसन्न होकर तथा अत्यधिक अनुकम्पा से द्रवित होकर महामुनि कपिल इस प्रकार बोले।

7 भगवान कपिल ने उत्तर दिया: हे भामिनि, साधक के विभिन्न गुणों के अनुसार भक्ति के अनेक मार्ग हैं।

8 ईर्ष्यालु, अहंकारी, हिंस्र तथा क्रोधी और पृथकतावादी व्यक्ति द्वारा की गई भक्ति तमोगुण प्रधान मानी जाती है।

9 मन्दिर में एक पृथकतावादी द्वारा भौतिक भोग, यश तथा ऐश्वर्य के प्रयोजन से की जानेवाली विग्रह-पूजा रजोगुणी भक्ति है।

10 जब भक्त भगवान की पूजा करता है और अपने कर्मों की त्रुटि से मुक्त होने के लिए अपने कर्मफलों को अर्पित करता है, तो उसकी भक्ति सात्विक होती है।

11-12 जब मनुष्य का मन प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के भीतर वास करने वाले भगवान के दिव्य नाम तथा गुणों के श्रवण की ओर तुरन्त आकृष्ट हो जाता है, तो निर्गुण भक्ति का प्राकट्य होता है। जिस प्रकार गंगा का पानी स्वभावतः समुद्र की ओर बहता है, उसी प्रकार ऐसा भक्तिमय आह्लाद बिना रोक-टोक के परमेश्वर की ओर प्रवाहित होता है।

13 शुद्ध भक्त सालोक्य, साष्ट्रि, सामीप्य, सारूप्य या एकत्व में से किसी प्रकार का मोक्ष स्वीकार नहीं करते, भले ही ये भगवान द्वारा क्यों न दिये जा रहे हों।

14 जैसा कि मैं बता चुका हूँ, भक्ति का उच्च पद प्राप्त करके मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव को लाँघ सकता है और दिव्य पद पर स्थित हो सकता है, जिस तरह भगवान हैं।

15 भक्त को अपने नियत कार्यों को सम्पन्न करना चाहिए, जो यशस्वी हों और बिना किसी भौतिक लाभ के हों। उसे अधिक हिंसा किये बिना अपने भक्ति कार्य नियमित रूप से करने चाहिए।

16 भक्त को नियमित रूप से मन्दिर में मेरी प्रतिमा का दर्शन करना, मेरे चरणकमल स्पर्श करना तथा पूजन सामग्री एवं प्रार्थना अर्पित करना चाहिए। उसे सात्त्विक भाव से वैराग्य दृष्टि रखनी चाहिए और प्रत्येक जीव को आध्यात्मिक दृष्टि से देखना चाहिए।

17 भक्त को चाहिए कि गुरु तथा आचार्यों को सर्वोच्च सम्मान प्रदान करते हुए भक्ति करे। उसे दीनों पर दयालु होना चाहिए और अपनी बराबरी के व्यक्तियों से मित्रता करनी चाहिए, किन्तु उसके सारे कार्यकलाप नियमपूर्वक तथा इन्द्रिय-संयम के साथ सम्पन्न होने चाहिए।

18 भक्त को चाहिए कि आध्यात्मिक बात ही सुने और अपने समय का सदुपयोग भगवान के पवित्र नाम के जप में करे। उसका आचरण सुस्पष्ट एवं सरल हो। किन्तु वह ईर्ष्यालु न हो। वह सबों के प्रति मैत्रीपूर्ण होते हुए भी ऐसे व्यक्तियों की संगति से बचे जो आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत नहीं हैं।

19 जब मनुष्य इन समस्त लक्षणों से पूर्णतया सम्पन्न होता है और इस तरह उसकी चेतना पूरी तरह शुद्ध हो लेती है, तो वह मेरे नाम या मेरे दिव्य गुण के श्रवण मात्र से तुरन्त ही आकर्षित होने लगता है।

20 जिस प्रकार वायु का रथ गन्ध को उसके स्रोत से ले जाता है और तुरन्त घ्राणेन्द्रिय तक पहुँचाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति निरन्तर कृष्णभावनाभावित भक्ति में संलग्न रहता है, वह सर्वव्यापी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

21 मैं प्रत्येक जीव में परमात्मा रूप में स्थित हूँ। यदि कोई 'परमात्मा सर्वत्र है' इसकी उपेक्षा या अवमानना करके अपने आपको मन्दिर के विग्रह-पूजन में लगाता है, तो यह केवल स्वाँग या दिखावा है।

22 जो मन्दिरों में भगवान के विग्रह का पूजन करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि परमात्मा रूप में परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हैं, वह अज्ञानी है और उसकी तुलना उस व्यक्ति से की जाती है, जो राख़ में आहुतियाँ डालता है।

23 जो मुझे श्रद्धा अर्पित करता है, किन्तु अन्य जीवों से ईर्ष्यालु है, वह इस कारण पृथकतावादी है। उसे अन्य जीवों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने के कारण कभी भी मन की शान्ति प्राप्त नहीं हो पाती।

24 हे माते, भले ही कोई पुरुष सही अनुष्ठानों तथा सामग्री द्वारा मेरी पूजा करता हो, किन्तु यदि वह समस्त प्राणियों में मेरी उपस्थिति से अनजान रहता है, तो वह मन्दिर में मेरे विग्रह की कितनी ही पूजा क्यों न करे, मैं उससे कभी प्रसन्न नहीं होता।

25 मनुष्य को चाहिए कि अपने निर्दिष्ट कर्म करते हुए, भगवान के अर्चाविग्रह का तब तक पूजन करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में तथा साथ ही साथ अन्य जीवों के हृदय में मेरी उपस्थिति का अनुभव न हो जाय।

26 जो भी अपने में तथा अन्य जीवों के बीच भिन्न दृष्टिकोण के कारण तनिक भी भेदभाव करता है उसके लिए मैं मृत्यु की प्रज्ज्वलित अग्नि के समान महान भय उत्पन्न करता हूँ।

27 अतः दान तथा सत्कार के साथ ही साथ मैत्रीपूर्ण आचरण से तथा सबों पर एक सी दृष्टि रखते हुए मनुष्य को मेरी पूजा करनी चाहिए, क्योंकि मैं सभी प्राणियों में उनके आत्मा के रूप में निवास करता हूँ।

28 हे कल्याणी माँ, जीवात्माएँ अचेतन पदार्थों से श्रेष्ठ हैं और इनमें से जो जीवन के लक्षणों से युक्त हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इनकी अपेक्षा विकसित चेतना वाले पशु श्रेष्ठ हैं और इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं जिनमें इन्द्रिय अनुभूति विकसित हो चुकी है।

29 इन्द्रियवृत्ति (अनुभूति) से युक्त जीवों में से जिन्होंने स्वाद की अनुभूति विकसित कर ली है वे स्पर्श अनुभूति विकसित किये हुए जीवों से श्रेष्ठ हैं। इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं जिन्होंने गन्ध की अनुभूति विकसित कर ली है और इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं जिनकी श्रवणेन्द्रिय विकसित है।

30 ध्वनि सुन सकने वाले प्राणियों की अपेक्षा वे श्रेष्ठ हैं, जो एक रूप तथा दूसरे रूप में अन्तर जान लेते हैं। इनसे भी अच्छे वे हैं जिनके ऊपरी तथा निचले दाँत होते हैं और इनसे भी श्रेष्ठ अनेक पाँव वाले जीव हैं, इनसे भी श्रेष्ठ चौपाये और चौपाये से भी बढ़कर मनुष्य हैं।

31 मनुष्यों में वह समाज सर्वोत्तम है, जो गुण तथा कर्म के अनुसार विभाजित किया गया है और जिस समाज में बुद्धिमान जनों को ब्राह्मण पद दिया जाता है, वह सर्वोत्तम समाज है। ब्राह्मणों में से जिसने वेदों का अध्ययन किया है, वही सर्वोत्तम है और वेदज्ञ ब्राह्मणों में भी वेद के वास्तविक तात्पर्य को जानने वाला सर्वोत्तम है।

32 वेदों का तात्पर्य समझने वाले ब्राह्मण की अपेक्षा वह मनुष्य श्रेष्ठ है, जो सारे संशयों का निवारण कर दे और उससे भी श्रेष्ठ वह है, जो ब्राह्मण-नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करता है। उससे भी श्रेष्ठ है समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त व्यक्ति। इससे भी श्रेष्ठ वह शुद्ध भक्त है, जो निष्काम भाव से भक्ति करता है।

33 अतः मुझे उस व्यक्ति से बड़ा कोई नहीं दिखता जो मेरे अतिरिक्त कोई अन्य रुचि नहीं रखता, जो अनवरत मुझे ही अपने समस्त कर्म अपना सारा जीवन – सब कुछ अर्पित करता है।

34 ऐसा पूर्ण भक्त प्रत्येक जीव को प्रणाम करता है, क्योंकि उसका दृढ़ विश्वास है कि भगवान प्रत्येक जीव के शरीर के भीतर परमात्मा या नियामक के रूप में प्रविष्ट रहते हैं।

35 हे माता, हे मनुपुत्री, जो भक्त इस प्रकार से भक्ति तथा योग का साधन करता है उसे केवल भक्ति से ही परम पुरुष का धाम प्राप्त हो सकता है।

36 वह पुरुष जिस तक प्रत्येक जीव को पहुँचना है, उस भगवान का शाश्वत रूप है, जो ब्रह्म तथा परमात्मा कहलाता है। वह प्रधान दिव्य पुरुष है और उसके कार्यकलाप आध्यात्मिक हैं।

37 विभिन्न भौतिक रूपान्तरों को उत्पन्न करने वाला काल भगवान का ही एक अन्य स्वरूप है। जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि काल तथा भगवान एक ही हैं वह काल से भयभीत रहता है।

38 समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान विष्णु कालस्वरूप हैं तथा समस्त स्वामियों के स्वामी हैं। वे प्रत्येक के हृदय में प्रविष्ट करने वाले हैं, वे सबके आश्रय हैं और प्रत्येक जीव का दूसरे जीव के द्वारा संहार कराने का कारण हैं।

39 भगवान का न तो कोई प्रिय है, न ही कोई शत्रु या मित्र है। किन्तु जो उन्हें भूले नहीं है, उन्हें वे प्रेरणा प्रदान करते हैं और जो उन्हें भूल चुके हैं उनका क्षय करते हैं।

40 भगवान के ही भय से वायु बहती है, उन्हीं के भय से सूर्य चमकता है, वर्षा का देवता पानी बरसाता है और उन्हीं के भय से नक्षत्रों का समूह चमकता है।

41 भगवान के भय से वृक्ष, लताएँ, जड़ी-बूटियाँ तथा मौसमी पौधे और फूल अपनी-अपनी ऋतु में फूलते और फलते हैं।

42 भगवान के भय से नदियाँ बहती हैं तथा सागर कभी भरकर बाहर नहीं बहते। उनके ही भय से अग्नि जलती है और पृथ्वी अपने पर्वतों सहित ब्रह्माण्ड के जल में डूबती नहीं।

43 भगवान के ही नियंत्रण में अन्तरिक्ष में आकाश सारे लोकों को स्थान देता है, जिनमें असंख्य जीव रहते हैं। उन्हीं के नियंत्रण में ही सकल विराट शरीर अपने सातों कोशों सहित विस्तार करता है।

44 भगवान के भय से ही प्रकृति के गुणों के अधिष्ठाता देवता सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं। इस भौतिक जगत की प्रत्येक निर्जीव तथा सजीव वस्तु उनके ही अधीन है।

45 शाश्वत काल खण्ड का न आदि है और न अन्त। वह इस पातकी संसार के स्रष्टा भगवान का प्रतिनिधि है। वह दृश्य जगत का अन्त कर देता है, एक को मार कर दूसरे को जन्म देता है और इसका सृजन कार्य करता है। इसी तरह मृत्यु के स्वामी यम को भी नष्ट करके ब्रह्माण्ड का विलय कर देता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अट्ठाईस – भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश (3.28)

1 भगवान ने कहा: हे माता, हे राजपुत्री, अब मैं आपको योग विधि बताऊँगा जिसका उद्देश्य मन को केन्द्रित करना है। इस विधि का अभ्यास करने से मनुष्य प्रसन्न रहकर परम सत्य के मार्ग की ओर अग्रसर होता है।

2 मनुष्य को चाहिए कि वह यथाशक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करे और उन कर्मों को करने से बचे, जो उसे नहीं करने हैं। उसे ईश्वर की कृपा से जो भी प्राप्त हो उसी से संतुष्ट रहना चाहिए और गुरु के चरणकमलों की पूजा करनी चाहिए।

3 मनुष्य को चाहिए कि परम्परा गत धार्मिक प्रथाओं का परित्याग कर दे और उन प्रथाओं में अनुरक्त हो जो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली हैं। उसे स्वल्प भोजन करना चाहिए और सदैव एकान्तवास करना चाहिए जिससे उसे जीवन की चरम सिद्धि प्राप्त हो सके।

4 मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे, चोरी से बचे और अपने निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे। वह विषयी जीवन से बचे, तपस्या करे, स्वच्छ रहे, वेदों का अध्ययन करे और भगवान के परमस्वरूप की पूजा करे।

5 मनुष्य को इन विधियों अथवा अन्य किसी सही विधि से अपने दूषित तथा चंचल मन को वश में करना चाहिए, जिसे भौतिक भोग के द्वारा सदैव आकृष्ट किया जाता रहता है और इस तरह अपने आप को भगवान के चिन्तन में स्थिर करना चाहिए।

6 शरीर के भीतर के षटचक्रों में से किसी एक में प्राण तथा मन को स्थिर करना और इस प्रकार से अपने मन को भगवान की दिव्य लीलाओं में केन्द्रित करना समाधि या मन का समाधान कहलाता है।

7 इन विधियों से या अन्य किसी सही विधि से मनुष्य को अपने दूषित तथा भौतिक भोग के द्वारा सदैव आकृष्ट होने वाले चंचल मन को वश में करना चाहिए और इस तरह अपने आपको भगवान के चिन्तन में स्थिर करना चाहिए।

8 अपने मन तथा आसनों को वश में करने के बाद मनुष्य को चाहिए कि किसी एकान्त तथा पवित्र स्थान में अपना आसन बिछा दे, उस पर शरीर को सीधा रखते हुए सुखपूर्वक आसीन होकर श्वास नियंत्रण (प्राणायाम) का अभ्यास करे।

9 योगी को चाहिए कि प्राणवायु के मार्ग को निम्नलिखित विधि से श्वास लेकर इस प्रकार से स्वच्छ करे – पहले बहुत गहरी श्वास अन्दर ले, फिर उस श्वास को धारण किये रहे और अन्त में श्वास बाहर निकाल दे या फिर इस विधि को उलट कर योगी पहले श्वास निकाले, फिर श्वास रोके रखे और अन्त में श्वास भीतर ले जाय। ऐसा इसलिए किया जाता है, जिससे मन स्थिर हो और बाहरी अवरोधों से मुक्त हो सके।

10 जो योगी ऐसे प्राणायाम का अभ्यास करते हैं, वे तुरन्त समस्त मानसिक उद्वेगों से उसी तरह मुक्त हो जाते हैं जिस प्रकार हवा की फुहार से अग्नि में रखा सोना सारी अशुद्धियों से रहित हो जाता है।

11 प्राणायाम विधि के अभ्यास से मनुष्य अपने शारीरिक दोषों को समूल नष्ट कर सकता है और अपने मन को एकाग्र करने से वह सारे पापकर्मों से मुक्त हो सकता है। इन्द्रियों को वश में करने से मनुष्य भौतिक संसर्ग से अपने को मुक्त कर सकता है और भगवान का ध्यान करने से वह भौतिक आसक्ति के तीनों गुणों से मुक्त हो सकता है।

12 जब इस योगाभ्यास से मन पूर्णतया शुद्ध हो जाय, तो मनुष्य को चाहिए कि अधखुलीं आँखों से नाक के अग्रभाग में ध्यान को केन्द्रित करे और भगवान के स्वरूप को देखे।

13 भगवान का मुख उत्फुल्ल कमल के समान है और लाल लाल आँखें कमल के कोश (भीतरी भाग) के समान हैं। उनका श्यामल शरीर नीलकमल की पंखड़ियों के समान है। वे अपने तीन हाथों में शंख, चक्र तथा गदा धारण किये हैं।

14 उनकी कटि पीले पद्म-केशर के सदृश चमकदार वस्त्र से आवरित है। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह (श्वेत बालों का गुच्छा) है। उनके गले में चमचमाती कौस्तुभ मणि शोभित हो रही है।

15 वे अपने गले में वनपुष्पों की आकर्षक माला भी धारण करते हैं जिसकी सुगन्धि से मतवाले भौंरों के झुण्ड माला के चारों ओर गुंजार करते हैं। वे मोती की माला, मुकुट, एक जोड़ी कंकण, बाजूबन्द तथा नूपुर से अत्युत्तम ढंग से सुसज्जित हैं।

16 उनकी कमर तथा कूल्हे पर करधनी पड़ी है और वे भक्तों के हृदय-कमल पर खड़े हुए हैं। वे देखने में अत्यन्त मोहक हैं और उनका शान्त स्वरूप देखने वाले भक्तों के नेत्रों को तथा आत्माओं को आनन्दित करने वाला है।

17 भगवान शाश्वत रूप से अत्यन्त सुन्दर हैं और प्रत्येक लोक के समस्तवासियों द्वारा पूजित हैं। वे चिर-युवा रहते हैं और अपने भक्तों को आशीष देने के लिए उत्सुक रहते हैं।

18 भगवान का यश वन्दनीय है, क्योंकि उनका यश भक्तों के यश को बढ़ाने वाला है। अतः मनुष्य को चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तथा उनके भक्तों का ध्यान करे। मनुष्य को तब तक भगवान के शाश्वत रूप का ध्यान करना चाहिए जब तक मन स्थिर न हो जाय।

19 इस प्रकार भक्ति में सदैव तल्लीन रहकर योगी अपने अन्तर में भगवान को खड़े रहते हुए, चलते, लेटे या बैठे हुए देखता है, क्योंकि परमेश्वर की लीलाएँ सुन्दर तथा आकर्षक होती हैं।

20 भगवान के नित्य रूप में अपना मन स्थिर करते समय योगी को चाहिए कि वह भगवान के समस्त अंगों पर एक ही साथ विचार न करके, भगवान के एक-एक अंग पर मन को स्थिर करे।

21 भक्त को चाहिए कि सर्वप्रथम वह अपना मन भगवान के चरणकमलों में केन्द्रित करे जो वज्र, अंकुश, ध्वजा तथा कमल चिन्हों से सुशोभित रहते हैं। सुन्दर माणिक से उनके नाखूनों की शोभा चन्द्रमण्डल से मिलती-जुलती है और हृदय के गहन तम को दूर करने वाली है।

22 पूज्य शिवजी भगवान के चरणकमलों के प्रक्षालित जल से उत्पन्न गंगा नदी के पवित्र जल को अपने सिर पर धारण करके और भी पूज्य हो जाते हैं। भगवान के चरण उस वज्र के तुल्य हैं, जो ध्यान करने वाले भक्त के मन में संचित पाप के पहाड़ को ध्वस्त करने के लिए चलाया जाता है। अतः मनुष्य को दीर्घकाल तक भगवान के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए।

23 योगी को चाहिए कि वह सभी देवताओं द्वारा पूजित तथा सर्वोपरि जीव ब्रह्मा की माता, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मीजी के कार्यकलापों में अपने हृदय को स्थिर कर दे। वे सदैव दिव्य भगवान के पाँवों तथा जंघाओं को चाँपती (दबाती) हुई देखी जा सकती हैं। इस प्रकार वे सावधानी के साथ उनकी सेवा करती हैं।

24 फिर ध्यान में योगी को अपना मन भगवान की जाँघों पर स्थित करना चाहिए जो समस्त शक्ति की आगार हैं। वे अलसी के फूलों की कान्ति के समान सफेद-नीली हैं और जब भगवान गरुड़ पर चढ़ते हैं, तो ये जाँघें अत्यन्त भव्य लगती है। योगी को चाहिए कि वह भगवान के गोलाकार नितम्बों का ध्यान धरे, जो करधनी से घिरे हुए है और यह करधनी भगवान के एड़ी तक लटकते पीताम्बर पर टिकी हुई है।

25 तब योगी को चाहिए कि वह भगवान के उदर के मध्य में स्थित चन्द्रमा जैसी नाभि का ध्यान करे। उनकी नाभि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आधारशिला है जहाँ से समस्त लोकों से युक्त कमलनाल प्रकट हुआ। यह कमल आदि जीव ब्रह्मा का वासस्थान है। इसी तरह योगी को अपना मन भगवान के स्तनाग्रों पर केन्द्रित करना चाहिए जो श्रेष्ठ मरकत मणि की जोड़ी के सदृश है और जो उनके वक्षस्थल को अलंकृत करने वाली मोतीमाला की दुग्धवल किरणों के कारण श्वेत प्रतीत होती है ।

26 फिर योगी को भगवान के वक्षस्थल का ध्यान करना चाहिए जो देवी महालक्ष्मी का आवास है। भगवान का वक्षस्थल मन के लिए समस्त दिव्य आनन्द तथा नेत्रों को पूर्ण सन्तोष प्रदान करने वाला है। तब योगी को अपने मन में सम्पूर्ण विश्व द्वारा पूजित भगवान की गर्दन का ध्यान धारण करना चाहिए। भगवान की गर्दन उनके वक्षस्थल पर लटकने वाले कौस्तुभ मणि की सुन्दरता को बढ़ाने वाली है।

27 इसके बाद योगी को भगवान की चारों भुजाओं का ध्यान करना चाहिए जो प्रकृति के विभिन्न कार्यों का नियंत्रण करने वाले देवताओं की समस्त शक्तियों के स्रोत हैं। फिर योगी चमचमाते उन आभूषणों पर मन केन्द्रित करे जो मन्दराचल के घूमने से रगड़ गए थे। उसे चाहिए कि भगवान के चक्र (सुदर्शन चक्र) का भी ठीक से चिन्तन करे जो एक हजार आरों से तथा असह्य तेज से युक्त है। साथ ही वह शंख का ध्यान करे जो उनकी कमल-सदृश हथेली में हंस सा प्रतीत होता है।

28 फिर योगी को चाहिए कि वह प्रभु की कौमोदकी नामक गदा का ध्यान करे जो उन्हें अत्यन्त प्रिय है। यह गदा शत्रुतापूर्ण सैनिक असुरों को चूर-चूर करने वाली है और उनके रक्त से सनी हुई है। योगी को भगवान के गले में पहनी हुई सुन्दर माला का भी ध्यान करना चाहिए जिस पर मधुर गुंजार करते हुए भौंरे मँडराते रहते हैं। भगवान की मोती की माला का भी ध्यान करना चाहिए जो उन शुद्ध आत्माओं की सूचक है, जो भगवान की सेवा में लगे रहते हैं।

29 तब योगी को भगवान के कमल-सदृश मुखमण्डल का ध्यान करना चाहिए, जो इस जगत में उत्सुक भक्तों के लिए अनुकम्पावश अपने विभिन्न रूप प्रकट करते हैं। उनकी नाक अत्यन्त उन्नत है और उनके स्वच्छ गाल उनके मकराकृत कुण्डलों के हिलने से प्रकाशमान हो रहे हैं।

30 तब योगी भगवान के सुन्दर मुखमण्डल का ध्यान करता है, जो घुँघराले बालों, कमल जैसे नेत्रों तथा नाचती भौंहों से सुशोभित है। इसकी शोभा (छटा) के आगे भौंरों से घिरा कमल तथा तैरती हुई मछलियों की जोड़ी मात खा जाती है।

31 योगी को चाहिए कि भगवान के नेत्रों की कृपापूर्ण चितवन का ध्यान पूर्ण समर्पण भाव से करे, क्योंकि उससे भक्तों के अत्यन्त भयावह तीन प्रकार के कष्टों का शमन होता है। प्रेमभरी मुसकान से युक्त उनकी चितवन विपुल प्रसाद से पूर्ण है।

32 इसी प्रकार योगी को भगवान श्री हरि की उदार मुसकान का ध्यान करना चाहिए जो घोर शोक से उत्पन्न उनके अश्रुओं के समुद्र को सुखाने वाली है, जो उनको नमस्कार करते हैं। उसे भगवान की चाप सदृश भौंहों का भी ध्यान करना चाहिए जो मुनियों की भलाई के लिए कामदेव को मोहने के लिए भगवान की अन्तरंगा शक्ति से प्रकट है।

33 योगी को चाहिए कि प्रेम में डूबा हुआ भक्तिपूर्वक अपने अन्तरतम में भगवान विष्णु के अट्टहास का ध्यान करे। उनका यह अट्टहास इतना मोहक है कि इसका सरलता से ध्यान किया जा सकता है। भगवान के हँसते समय उनके छोटे-छोटे दाँत चमेली की कलियों जैसे दिखते हैं और उनके होठों की कान्ति के कारण गुलाबी प्रतीत होते हैं। एक बार अपना मन उनमें स्थिर करके, योगी को कुछ और देखने की कामना नहीं करनी चाहिए।

34 इस मार्ग का अनुसरण करते हुए धीरे-धीरे योगी में भगवान हरि के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार भक्ति करते हुए अत्यधिक आनन्द के कारण शरीर में रोमांच होने लगता है और गहन प्रेम के कारण शरीर अश्रुओं की धारा से नहा जाता है। यहाँ तक कि धीरे-धीरे वह मन भी भौतिक कर्म से विमुख हो जाता है, जिसे योगी भगवान को आकृष्ट करने के साधन रूप में प्रयुक्त करता है, जिस प्रकार मछली को आकृष्ट करने के लिए कँटिया प्रयुक्त की जाती है।

35 इस प्रकार जब मन समस्त भौतिक कल्मष से रहित और विषयों से विरक्त हो जाता है, तो यह दीपक की लौ के समान हो जाता है। उस समय मन वस्तुतः परमेश्वर जैसा हो जाता है और उनसे जुड़ा हुआ अनुभव किया जाता है, क्योंकि यह भौतिक गुणों के पारस्परिक प्रवाह से मुक्त हो जाता है।

36 इस प्रकार उच्चतम दिव्य अवस्था में स्थित मन समस्त कर्मफलों से निवृत्त होकर अपनी महिमा में स्थित हो जाता है, जो सुख तथा दुख के सारे भौतिक बोध से परे है। उस समय योगी को परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का बोध होता है। उसे पता चलता है कि सुख तथा दुख तथा उनकी अन्तःक्रियाएँ, जिन्हें वह अपने कारण समझता था, वास्तव में अविद्याजनित अहंकार के कारण थीं।

37 अपना असली स्वरूप प्राप्त कर लेने के कारण पूर्णतया सिद्ध जीव को इसका कोई बोध नहीं होता है कि यह भौतिक देह किस तरह हिल-डुल रही है या काम कर रही है, जिस तरह कि नशा किया हुआ व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह अपने शरीर में वस्त्र धारण किये है अथवा नहीं।

38 ऐसे मुक्त योगी के इन्द्रियों सहित शरीर का भार भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं और यह शरीर तब तक कार्य करता रहता है जब तक इसके दैवाधीन कर्म समाप्त नहीं हो जाते। इस प्रकार अपनी स्वाभाविक स्थिति के प्रति जागरूक तथा योग की चरम सिद्धावस्था, समाधि, में स्थित मुक्त भक्त शरीर के गौण फलों को निजी कहकर स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार वह अपने शारीरिक कार्यकलापों को स्वप्न में सम्पन्न कार्यकलाप सदृश मानता है।

39 परिवार तथा सम्पत्ति के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण मनुष्य पुत्र तथा सम्पत्ति को अपना मानने लगता है और भौतिक शरीर के प्रति स्नेह होने से वह सोचता है कि यह मेरा है। किन्तु वास्तव में जिस तरह मनुष्य समझ सकता है कि उसका परिवार तथा उसकी सम्पत्ति उससे पृथक हैं, उसी तरह मुक्त आत्मा समझ सकता है कि वह तथा उसका शरीर एक नहीं है।

40 प्रज्वलित अग्नि ज्वाला से, चिनगारी से तथा धुएँ से भिन्न है, यद्यपि ये सभी उससे घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं, क्योंकि वे एक ही प्रज्ज्वलित काष्ठ से उत्पन्न होते हैं।

41 परब्रह्म कहलाने वाला भगवान दृष्टा है। वह जीवात्मा या जीव से भिन्न है, जो इन्द्रियों, पंचतत्त्वों तथा चेतना से संयुक्त है।

42 योगी को चाहिए कि समस्त जीवों में उसी एक आत्मा को देखे, क्योंकि जो कुछ भी विद्यमान है, वह सब परमेश्वर की विभिन्न शक्तियों का प्राकट्य है। इस तरह से भक्त को चाहिए कि वह समस्त जीवों को बिना भेदभाव के देखे। यही परमात्मा का साक्षात्कार है।

43 जिस प्रकार अग्नि काष्ठ के विभिन्न प्रकारों में प्रकट होती है उसी प्रकार प्रकृति के विभिन्न गुणों की विभिन्न परिस्थितियों के अन्तर्गत शुद्ध आत्मा अपने आपको विभिन्न शरीरों में प्रकट करता है ।

44 इस प्रकार माया के दुर्लंघ्य सम्मोहन को जीतकर योगी स्वरूपसिद्ध स्थिति में रह सकता है। यह माया इस जगत में अपने आपको कार्य कारण रूप में उपस्थित करती है, अतः इसे समझ पाना अत्यन्त कठिन है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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केवल वही, जिसने भगवान कृष्ण के चरणकमलों की शरण ले ली है -- (मामेव ये प्रपद्यन्ते) माया के चंगुल से छूट जाता है।   

(तात्पर्य 3.27.19 -- श्रील प्रभुपाद)

अध्याय सत्ताईस – प्रकृति का ज्ञान (3.27)

1 भगवान कपिल ने आगे कहा: जिस प्रकार सूर्य जल पर पड़ने वाले प्रतिबिम्ब से भिन्न रहता है उसी तरह जीवात्मा शरीर में स्थित होकर भी प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहता है, क्योंकि वह अपरिवर्तित रहता है और किसी प्रकार की इन्द्रियतुष्टि का कर्म नहीं करता।

2 जब आत्मा प्रकृति के जादू तथा अहंकार के वशीभूत होता है और शरीर को स्व (आत्मा) मान लेता है, तो वह भौतिक कार्यकलापों में लीन रहने लगता है और अहंकारवश सोचता है कि मैं ही प्रत्येक वस्तु का कर्ता हूँ।

3 अतः बद्धजीव भौतिक प्रकृति के गुणों के साथ अपनी संगति के कारण उच्चतर तथा निम्नतर विभिन्न योनियों में देहान्तर करता रहता है। जब तक वह भौतिक कार्यों से मुक्त नहीं हो लेता उसे अपने दोषपूर्ण कार्य के फलस्वरूप यह स्थिति स्वीकार करते रहनी पड़ती है।

4 वास्तव में जीवात्मा इस संसार से परे है, किन्तु प्रकृति पर अधिकार जताने की अपनी मनोवृत्ति के कारण उसके संसार-चक्र की स्थिति कभी रुकती नहीं और वह सभी प्रकार की अलाभकर स्थितियों से प्रभावित होता है, जिस प्रकार स्वप्न में होता है।

5 प्रत्येक बद्धजीव का कर्तव्य है कि वह भौतिक सुखोपभोग के प्रति आसक्त अपनी दूषित चेतना को विरक्तिपूर्वक अत्यन्त गम्भीर भक्ति में लगावे। इस प्रकार उसका मन तथा चेतना पूरी तरह वश में हो जाएँगे।

6 मनुष्य को योग पद्धति की संयम आदि विधियों के अभ्यास द्वारा श्रद्धालु बनना चाहिए और मेरे कीर्तन तथा श्रवण द्वारा अपने आपको शुद्ध भक्ति के पद तक ऊपर उठाना चाहिए।

7 भक्तिमय सेवा सम्पन्न करने में मनुष्य को प्रत्येक जीव को समभाव से, किसी के प्रति शत्रुता एवं घनिष्ठता से रहित होकर देखना होता है। उसे ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना होता है, गम्भीर होना होता है और कर्म फलों को भगवान को अर्पित करते हुए अपने नित्य कर्म करने होते हैं।

8 भक्त को चाहिए कि बहुत कठिनाई के बिना जो कुछ वह कमा सके उसी से संतुष्ट रहे। जितना आवश्यक हो उससे अधिक उसे नहीं खाना चाहिए। उसे एकान्त स्थान में रहना चाहिए और सदैव विचारवान, शान्त, मैत्रीपूर्ण, उदार तथा स्वरूपसिद्ध होना चाहिए।

9 मनुष्य को आत्मा तथा पदार्थ के ज्ञान के द्वारा देखने की शक्ति बढ़ानी चाहिए और उसे व्यर्थ ही शरीर के रूप में अपनी पहचान नहीं करनी चाहिए, अन्यथा वह शारीरिक सम्बन्धों में खींचा चला जाएगा।

10 मनुष्य को भौतिक चेतना की अवस्थाओं से परे दिव्य स्थिति में रहना चाहिए और अन्य समस्त जीवन-बोधों से विलग रहना चाहिए। इस प्रकार अहंकार से मुक्त होकर उसे अपने आपको उसी तरह देखना चाहिए जिस प्रकार वह आकाश में सूर्य को देखता है।

11 मुक्त जीव को उस परमेश्वर का साक्षात्कार होता है, जो दिव्य है और अहंकार में भी प्रतिबिम्बित के रूप में प्रकट होता है। वे भौतिक कारण के आधार हैं तथा प्रत्येक वस्तु में प्रवेश करने वाले हैं। वे अद्वितीय हैं और माया के नेत्र हैं।

12 जिस प्रकार आकाश में स्थित सूर्य को सर्वप्रथम जल में पड़े प्रतिबिम्ब से और फिर कमरे की दीवाल पर पड़े दूसरे प्रतिबिम्ब से देखा जाता है, उसी तरह परमेश्वर की उपस्थिति महसूस की जाती है।

13 इस प्रकार स्वरूपसिद्ध आत्मा सर्वप्रथम त्रिविध अहंकार में और तब शरीर, इन्द्रियों एवं मन में प्रतिबिम्बित होता है।

14 यद्यपि ऐसा लगता है कि भक्त पाँचों तत्त्वों, भोग की वस्तुओं, इन्द्रियों तथा मन और बुद्धि में लीन है, किन्तु वह जागृत रहता है और अंधकार से रहित होता है।

15 जीवात्मा स्पष्ट रूप से द्रष्टा के रूप में अपने अस्तित्व का अनुभव कर सकता है, किन्तु प्रगाढ़ निद्रा के समय अहंकार के दूर हो जाने के कारण वह अपने को उस तरह विनष्ट हुआ मान लेता है, जिस प्रकार सम्पत्ति के नष्ट होने पर मनुष्य अपने को विनष्ट हुआ समझता है।

16 जब मनुष्य परिपक्व ज्ञान के द्वारा अपने व्यक्तित्व का अनुभव करता है, तो अहंकारवश वह जिस स्थिति को स्वीकार करता है, वह उसे प्रकट हो जाती है।

17 श्री देवहूति ने पूछा: हे ब्राह्मण, क्या कभी प्रकृति आत्मा का परित्याग करती है? चूँकि इनमें से कोई एक दूसरे के प्रति शाश्वत रूप से आकर्षित रहता है, तो उनका पृथकत्व (वियोग) कैसे सम्भव है?

18 जिस प्रकार पृथ्वी तथा इसकी गन्ध या जल तथा इसके स्वाद का कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता उसी तरह बुद्धि तथा चेतना का कोई पृथक अस्तित्व नहीं हो सकता।

19 अतः समस्त कर्मों का कर्ता न होते हुए भी जीव तब तक कैसे स्वतंत्र हो सकता है जब तक प्रकृति उस पर अपना प्रभाव डालती रहती है और उसे बाँधे रहती है।

20 यदि चिन्तन तथा मूल सिद्धान्तों की जाँच-परख से बन्धन के महान भय से बच भी लिया जाय तो भी यह पुनः प्रकट हो सकता है, क्योंकि इसके कारण का अन्त नहीं हुआ होता है।

21 भगवान ने कहा: यदि कोई गम्भीरतापूर्वक मेरी सेवा करता है और दीर्घकाल तक मेरे विषय में या मुझसे सुनता है, तो वह मुक्ति पा सकता है। इस प्रकार अपने-अपने नियत कार्यों के करने से कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी और मनुष्य पदार्थ के कल्मष से मुक्त हो जाएगा।

22 यह भक्ति दृढ़तापूर्वक पूर्ण ज्ञान से तथा दिव्य दृष्टि से सम्पन्न करनी चाहिए। मनुष्य को प्रबल रूप से विरक्त होना चाहिए, तपस्या में लगना चाहिए और आत्मलीन होने के लिए योग करना चाहिए।

23 प्रकृति के प्रभाव ने जीवात्मा को ढककर रखा है मानो जीवात्मा सदैव प्रज्ज्वलित अग्नि में रह रहा हो। किन्तु भक्ति करने से यह प्रभाव उसी प्रकार दूर किया जा सकता है, जिस प्रकार अग्नि उत्पन्न करने वाले काष्ठ-खण्ड स्वयं भी अग्नि द्वारा भस्म हो जाते हैं।

24 प्रकृति पर अधिकार जताने की इच्छा के दोषों को ज्ञात करके और फलस्वरूप उस इच्छा को त्याग करके जीवात्मा स्वतंत्र हो जाता है और अपनी कीर्ति में स्थित हो जाता है।

25 स्वप्नावस्था में मनुष्य की चेतना प्रायः ढकी रहती है और उसे अनेक अशुभ वस्तुएँ दिखती हैं, किन्तु उसके जागने पर तथा पूर्ण चेतन होने पर ऐसी अशुभ वस्तुएँ उसे विभ्रमित नहीं कर सकतीं।

26 प्रकृति का प्रभाव किसी प्रबुद्ध मनुष्य को हानि नहीं पहुँचा सकता, भले ही वह भौतिक कार्यकलापों में ही व्यस्त क्यों न रहता हो, क्योंकि वह परम सत्य की सच्चाई को जानता है और उसका मन भगवान में ही स्थिर रहता है।

27 मनुष्य जब इस तरह अनेकानेक वर्षों तथा अनेक जन्मों तक भक्ति एवं आत्म-साक्षात्कार में लगा रहता है, तो उसे किसी भी लोक में, यहाँ तक कि सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक में भी भोग से पूर्ण विरक्ति हो जाती है और उसमें चेतना पूर्णतया विकसित हो जाती है।

28-29 मेरा भक्त मेरी असीम अहैतुकी कृपा से वस्तुतः स्वरूपसिद्ध हो जाता है और इस तरह समस्त संशयों से मुक्त होकर वह अपने गन्तव्य धाम की ओर अग्रसर होता है, जो मेरी शुद्ध आनन्द की आध्यात्मिक शक्ति के अधीन है। जीव का यही चरम सिद्धि-गन्तव्य (स्व-संस्थान) है। इस शरीर को त्यागने के बाद योगी भक्त उस दिव्य धाम को जाता है जहाँ से वह फिर कभी नहीं लौटता।

30 जब सिद्ध योगी का ध्यान योगशक्ति की गौण वस्तुओं की ओर, जो बहिरंगा शक्ति के प्राकट्य हैं, आकृष्ट नहीं होता तब मेरी ओर उसकी प्रगति असीमित होती है और इस तरह उसे मृत्यु कभी भी परास्त नहीं कर सकती।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय छब्बीस – प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त (3.26)

1 भगवान कपिल ने आगे कहा: हे माता, अब मैं तुमसे परम सत्य की विभिन्न कोटियों का वर्णन करूँगा जिनके जान लेने से कोई भी पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त हो सकता है।

2 आत्म-साक्षात्कार की चरम सिद्धि ज्ञान है। मैं तुमको वह ज्ञान बताऊँगा जिससे भौतिक संसार के प्रति आसक्ति की ग्रंथियाँ कट जाती हैं।

3 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान परमात्मा है और उनका आदि नहीं है। वे प्रकृति के गुणों और इस भौतिक जगत के अस्तित्व से परे हैं। वे सर्वत्र दिखाई पड़ने वाले हैं, क्योंकि वे प्रकाशवान हैं और उनकी प्रकाशवान कान्ति से सम्पूर्ण सृष्टि का पालन होता है।

4 उस महान से महानतम श्रीभगवान ने सूक्ष्म भौतिक शक्ति को अपनी लीला के रूप में स्वीकार किया जो त्रिगुणमयी है और विष्णु से सम्बन्धित है। अपने तीन गुणों से अनेक प्रकारों में विभक्त यह भौतिक प्रकृति जीवों के स्वरूपों को उत्पन्न करती है और इसे देखकर सारे जीव माया के ज्ञान-आच्छादक गुण से मोहग्रस्त हो जाते हैं।

6 अपनी विस्मृति के कारण दिव्य जीवात्मा प्रकृति के प्रभाव को अपना कर्मक्षेत्र मान बैठता है और इस प्रकार प्रेरित होकर त्रुटिवश अपने को कर्मों का कर्ता मानता है।

7 भौतिक चेतना ही मनुष्य के बद्धजीवन का कारण है, जिसमें परिस्थितियाँ जीव पर हावी हो जाती हैं। यद्यपि आत्मा कुछ भी नहीं करता और ऐसे कर्मों से परे रहता है, किन्तु इस प्रकार वह बद्धजीवन से प्रभावित होता है।

8 बद्धजीव के शरीर, इन्द्रियों तथा इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवों का कारण भौतिक प्रकृति है। इसे विद्वान मनुष्य जानते हैं। स्वभाव से दिव्य, ऐसे आत्मा के सुख तथा दुख जैसे अनुभव स्वयं आत्मा द्वारा उत्पन्न होते हैं।

9 देवहूति ने कहा: हे भगवान, आप परम पुरुष तथा उनकी शक्तियों के लक्षण कहें, क्योंकि वे दोनों इस प्रकट तथा अप्रकट सृष्टि के कारण हैं।

10 भगवान ने कहा: तीनों गुणों का अप्रकट शाश्वत संयोग ही प्रकट अवस्था का कारण है और प्रधान कहलाता है। जब यह प्रकट अवस्था में होता है, तो इसे प्रकृति कहते हैं।

11 पाँच स्थूल तत्त्व, पाँच सूक्ष्म तत्त्व, चार अन्तःकरण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ इन चौबीस तत्त्वों का यह समूह प्रधान कहलाता है।

12 पाँच स्थूल तत्त्वों के नाम हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश (शून्य)। सूक्ष्म तत्त्व भी पाँच हैं--गन्ध, स्वाद, रंग, स्पर्श तथा शब्द (ध्वनि)

13 ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को मिलाकर इनकी संख्या दस है। वे हैं--श्रवणेन्द्रिय, स्वादेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, दृश्येन्द्रिय , घ्राणेन्द्रिय , वागेन्द्रिय , कार्य करने की इन्द्रियाँ, चलने की इन्द्रियाँ, जननेन्द्रियाँ तथा मलत्याग इन्द्रियाँ।

14 आन्तरिक सूक्ष्म इन्द्रियाँ मन, बुद्धि, अहंकार तथा कलुषित चेतना के रूप में चार प्रकार की जानी जाती हैं। उनके विभिन्न कार्यों के अनुसार ही इनमें भेद किया जा सकता है क्योंकि ये विभिन्न लक्षणों को बताने वाली हैं।

15 इन सबको सुयोग्य ब्रह्म माना जाता है। इन सबको मिलाने वाला तत्त्व काल है, जिसे पच्चीसवें तत्त्व के रूप में गिना जाता है।

16 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का प्रभाव काल में अनुभव किया जाता है, क्योंकि यह भौतिक प्रकृति के सम्पर्क में आने वाले मोहित आत्मा के अहंकार के कारण मृत्यु का भय उत्पन्न करता है।

17 हे स्वायम्भुव--पुत्री, हे माता, जैसा कि मैंने बतलाया काल ही श्रीभगवान है, जिससे उदासीन (समभाव) एवं अप्रकट प्रकृति के गतिमान होने से सृष्टि प्रारम्भ होती है।

18 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हुए अपने आपको भीतर से परमात्मा रूप में और बाहर काल-रूप में रखकर विभिन्न तत्त्वों का समन्वयन करते हैं।

19 जब भगवान अपनी अन्तरंगा शक्ति से प्रकृति में व्याप्त होते हैं, तो प्रकृति समग्र विराट बुद्धि को उत्पन्न करती है, जिसे हिरण्मय कहते हैं। यह तब घटित होता है जब प्रकृति बद्धजीवों के गन्तव्यों द्वारा क्षुब्ध की जाती है।

20 इस प्रकार तेजस्वी महत तत्त्व, जिसके भीतर सारे ब्रह्माण्ड समाये हुए हैं, जो समस्त दृश्य जगत का मूल है और जो प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होता, अपनी विविधता प्रकट करके उस अंधकार को निगल जाता है, जिसने प्रलय के समय तेज को ढक लिया था।

21 सतोगुण, जो भगवान के ज्ञान की स्वच्छ, सौम्य अवस्था है और जो सामान्यतः वासुदेव या चेतना कहलाता है, महत तत्त्व में प्रकट होता है।

22 महत तत्त्व के प्रकट होने के बाद ये वृत्तियाँ एकसाथ प्रकट होती हैं। जिस प्रकार जल पृथ्वी के संसर्ग में आने के पूर्व अपनी स्वाभाविक अवस्था में स्वच्छ, मीठा तथा शान्त रहता है उसी तरह विशुद्ध चेतना के विशिष्ट लक्षण शान्तत्व, स्वच्छत्व तथा अविकारित्व हैं।

23-24 महत तत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है, जो भगवान की निजी शक्ति से उद्भूत है। अहंकार में मुख्य रूप से तीन प्रकार की क्रियाशक्तियाँ होती हैं--सत्त्व, रज तथा तम। इन्हीं तीन प्रकार के अहंकार से मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा स्थूल तत्त्व उत्पन्न हुए।

25 स्थूल तत्त्वों का स्रोत, इन्द्रियाँ तथा मन--ये ही तीन प्रकार के अहंकार हैं, क्योंकि अहंकार ही उनका कारण है। यह संकर्षण के नाम से जाना जाता है, जो कि एक हजार सिरों वाले साक्षात भगवान अनन्त हैं।

26 यह अहंकार कर्ता, करण (साधन) तथा कार्य (प्रभाव) के लक्षणों वाला होता है। सतो, रजो तथा तमो गुणों के द्वारा यह जिस प्रकार प्रभावित होता है उसी के अनुसार यह शान्त, क्रियावान या मन्द लक्षण वाला माना जाता है।

27 सत्त्व के अहंकार से दूसरा विकार आता है। इससे मन उत्पन्न होता है, जिसके संकल्पों तथा विकल्पों से इच्छा का उदय होता है।

28 जीवात्मा का मन इन्द्रियों के परम अधिष्ठाता अनिरुद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। उसका नील-श्याम शरीर शरदकालीन कमल के समान है। योगीजन उसे शनै-शनै प्राप्त करते हैं।

29 हे सती, रजोगुणी अहंकार में विकार होने से बुद्धि का जन्म होता है। बुद्धि के कार्य हैं दिखाई पड़ने पर पदार्थों की प्रकृति के निर्धारण में सहायता करना और इन्द्रियों की सहायता करना।

30 सन्देह, विपरीत ज्ञान, सही ज्ञान, स्मृति तथा निद्रा, ये अपने भिन्न-भिन्न कार्यों से निश्चित किये जाते हैं और ये ही बुद्धि के स्पष्ट लक्षण हैं।

31 रजोगुणी अहंकार से दो प्रकार की इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं--ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ। कर्मेन्द्रियाँ प्राणशक्ति पर और ज्ञानेन्द्रियाँ बुद्धि पर आश्रित होती हैं।

32 जब तामसी अहंकार भगवान की काम-शक्ति से प्रेरित होता है, तो सूक्ष्म शब्द तत्त्व प्रकट होता है और शब्द से आकाश तथा उससे श्रवणेंद्रिय उत्पन्न होती हैं।

33 जो लोग विद्वान हैं और वास्तविक ज्ञान से युक्त हैं, वे शब्द की परिभाषा इस प्रकार करते हैं अर्थात वह जो किसी पदार्थ के विचार (अर्थ) को वहन करता है, ओट में खड़े वक्ता की उपस्थिति को सूचित करता है और आकाश का सूक्ष्म रूप होता है।

34 समस्त जीवों को उनके बाह्य तथा आन्तरिक अस्तित्व के लिए अवकाश (स्थान) प्रदान करना, जैसे कि प्राणवायु, इन्द्रिय एवं मन का कार्यक्षेत्र--ये आकाश तत्त्व के कार्य तथा लक्षण हैं।

35 ध्वनि उत्पन्न करने वाले आकाश में काल की गति से विकार उत्पन्न होता है और इस तरह स्पर्श तन्मात्र प्रकट होता है। इससे फिर वायु तथा स्पर्श इन्द्रिय उत्पन्न होती है।

36 कोमलता, कठोरता, शीतलता तथा उष्णता--ये स्पर्श को बताने वाले लक्षण हैं, जिन्हें वायु के सूक्ष्म रूप में लक्षित किया जाता है।

37 गतियों, मिश्रण, शब्द को पदार्थों तथा अन्य इन्द्रिय बोधों तक पहुँचाने एवं समस्त इन्द्रियों के समुचित कार्य करते रहने के लिए सुविधाएँ प्रदान कराने में वायु की क्रिया लक्षित होती है।

38 वायु तथा स्पर्श तन्मात्राओं की अन्तःक्रियाओं से मनुष्य को भाग्य के अनुसार विभिन्न रूप दिखते हैं। ऐसे रूपों के विकास के फलस्वरूप अग्नि उत्पन्न हुई और आँखें विविध रंगीन रूपों को देखती हैं।

39 हे माता, रूप के लक्षण आकार - प्रकार, गुण तथा व्यष्टि से जाने जाते हैं। अग्नि का रूप उसके तेज से जाना जाता है।

40 अग्नि अपने प्रकाश के कारण पकाने, पचाने, शीत नष्ट करने, भाप बनाने की क्षमता के कारण एवं भूख, प्यास, खाने तथा पीने की इच्छा उत्पन्न करने के कारण अनुभव की जाती है।

41 अग्नि तथा दृष्टि की अन्तःक्रिया से दैवी व्यवस्था के अन्तर्गत स्वाद तन्मात्र उत्पन्न होता है। इस स्वाद से जल उत्पन्न होता है और स्वाद ग्रहण करने वाली जीभ भी प्रकट होती है।

42 यद्यपि मूल रूप से स्वाद एक ही है, किन्तु अन्य पदार्थों के संसर्ग से यह कसैला मधुर, तीखा, कड़वा, खट्टा तथा नमकीन--कई प्रकार का हो जाता है।

43 जल की विशेषताएँ उसके द्वारा अन्य पदार्थों को गीला करने, विभिन्न मिश्रणों के पिण्ड बनाने, तृप्ति लाने, जीवन पालन करने, वस्तुओं को मुलायम बनाने, गर्मी भगाने, जलागारों की निरन्तर पूर्ति करते रहने तथा प्यास बुझाकर तरोताजा बनाने में हैं।

44 स्वाद अनुभूति और जल की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप दैवी विधान से गन्ध तन्मात्रा उत्पन्न होती है। उससे पृथ्वी तथा घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न होते हैं जिससे हम पृथ्वी की सुगन्धि का बहुविध अनुभव कर सकते हैं।

45 यद्यपि गन्ध एक है, किन्तु सम्बद्ध पदार्थों के अनुपातों के अनुसार अनेक प्रकार की हो जाती है, यथा--मिश्रित, दुर्गन्ध, सुगन्धित, मृदु, तीव्र, अम्लीय इत्यादि।

46 परब्रह्म के स्वरूपों को आकार प्रदान करके, आवास स्थान बनाकर, जल रखने के पात्र बनाकर, पृथ्वी के कार्यों के लक्षणों को देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, पृथ्वी समस्त तत्त्वों का आश्रय स्थल है।

47 वह इन्द्रिय जिसका विषय शब्द है श्रवणेन्द्रिय और जिसका विषय स्पर्श है, वह त्वगिन्द्रिय कहलाती है।

48 वह इन्द्रिय जिसका विषय अग्नि का विशेष गुण रूप है, वह नैत्रेन्द्रिय है। जिस इन्द्रिय का विषय जल का विशेष स्वाद है, वह रसनेन्द्रिय कहलाती है। जिस इन्द्रिय का विषय पृथ्वी का विशिष्ट गुण गन्ध है, वह घ्राणेन्द्रिय कही जाती है।

49 चूँकि कारण अपने कार्य में भी विद्यमान रहता है, अतः पहले के लक्षण (गुण) दूसरे में भी देखे जाते हैं। इसीलिए केवल पृथ्वी में ही सारे तत्त्वों की विशिष्टताएँ पाई जाती हैं ।

50 जब ये सारे तत्त्व मिले नहीं थे, तो सृष्टि के आदि कारण श्रीभगवान ने काल, कर्म तथा गुणों के सहित सात विभागों वाली अपनी समग्र भौतिक शक्ति (महत तत्त्व) के साथ ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया।

51 भगवान की उपस्थिति के कारण उत्प्रेरित होने तथा परस्पर मिलने से इन सात तत्त्वों से एक जड़ अंडा उत्पन्न हुआ जिससे विख्यात विराट पुरुष प्रकट हुआ।

52 यह अंडाकार ब्रह्माण्ड भौतिक शक्ति का प्राकट्य कहलाता है। जल, वायु, अग्नि, आकाश, अहंकार तथा महत-तत्त्व की इसकी परतें (स्तर) क्रमशः मोटी होती जाती है। प्रत्येक परत अपने से पूर्ववाली से दसगुनी मोटी होती है और अन्तिम बाह्य परत 'प्रधान' से घिरी हुई है। इस अंडे के भीतर भगवान हरि का विराट रूप रहता है, जिनके शरीर के अंग चौदहों लोक हैं।

53 विराट-पुरुष, श्रीभगवान उस सुनहले अंडे में स्थित हो गए जो जल में पड़ा था और उन्होंने उसे कई विभागों में बाँट दिया।

54 सर्वप्रथम उनके मुख प्रकट हुआ और फिर वागेन्द्रिय और इसी के साथ अग्नि देव प्रकट हुए जो इस इन्द्रिय के अधिष्ठाता देव हैं। तब दो नथुने प्रकट हुए और उनमें घ्राणेन्द्रिय तथा प्राण प्रकट हुए।

55 घ्राणेन्द्रिय के बाद उसका अधिष्ठाता वायुदेव प्रकट हुआ। तत्पश्चात विराट रूप में दो चक्षु और उनमें चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई। इसके अनन्तर चक्षुओं का अधिष्ठाता सूर्यदेव प्रकट हुआ। फिर उनके दो कान और उनमें कर्णेन्द्रिय तथा दिशाओं के अधिष्ठाता दिग्देवता प्रकट हुए।

56 तब भगवान के विराट रूप, विराट पुरुष ने अपनी त्वचा प्रकट की और उस पर बाल (रोम), मूँछ तथा दाढ़ी निकल आए। तत्पश्चात सारी जड़ी-बूटियाँ प्रकट हुईं और तब जननेन्द्रियाँ भी प्रकट हुई।

57 तत्पश्चात वीर्य (प्रजनन क्षमता) और जल का अधिष्ठाता देव प्रकट हुआ। फिर गुदा और उसकी इन्द्रिय और उसके भी बाद मृत्यु का देवता प्रकट हुआ जिससे सारा ब्रह्माण्ड भयभीत रहता है।

58 तत्पश्चात भगवान के विराट रूप के दो हाथ प्रकट हुए और उन्हीं के साथ वस्तुओं को पकड़ने तथा गिराने की शक्ति आई। फिर इन्द्र देव प्रकट हुए। तदनन्तर दो पाँव प्रकट हुए, उन्हीं के साथ चलने-फिरने की क्रिया आई और इसके बाद भगवान विष्णु प्रकट हुए।

59 विराट शरीर की नाड़ियाँ प्रकट हुईं और तब लाल रक्त-कणिकाएँ या रक्त प्रकट हुआ। इसके पीछे नदियाँ (नाड़ियों की अधिष्ठात्री) और तब उस शरीर में पेट प्रकट हुआ।

60 तत्पश्चात भूख तथा प्यास की अनुभूतियाँ उत्पन्न हुई और इनके साथ ही समुद्र का प्राकट्य हुआ। फिर हृदय प्रकट हुआ और हृदय के साथ-साथ मन प्रकट हुआ।

61 मन के बाद चन्द्रमा प्रकट हुआ। फिर बुद्धि और बुद्धि के बाद ब्रह्माजी प्रकट हुए। तब अहंकार, फिर शिवजी और शिवजी के बाद चेतना तथा चेतना का अधिष्ठाता देव प्रकट हुए।

62 इस तरह जब देवता तथा विभिन्न इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव प्रकट हो चुके, तो उन सबों ने अपने-अपने उत्पत्ति स्थान को जगाना चाहा। किन्तु ऐसा न कर सकने के कारण वे विराट-पुरुष को जगाने के उद्देश्य से उनके शरीर में एक-एक करके पुनः प्रविष्ट हो गये।

63 अग्निदेव ने वागेन्द्रिय से उनके मुख में प्रवेश किया, किन्तु विराट-पुरुष उठा नहीं। तब वायुदेव ने घ्राणेन्द्रिय से होकर उनके नथुनों में प्रवेश किया, तो भी विराट-पुरुष नहीं जागा।

64 तब सूर्यदेव ने चक्षुरिन्द्रिय से विराट-पुरुष की आँखों में प्रवेश किया, तो भी वह उठा नहीं। इसी तरह दिशाओं के अधिष्ठाता देवों ने श्रवणेन्द्रिय से होकर उनके कानों में प्रवेश किया, किन्तु तो भी वह नहीं उठा।

65 त्वचा तथा जड़ी-बूटियों के अधिष्ठाता देवों ने शरीर के रोमों से त्वचा में प्रवेश किया, किन्तु तो भी विराट-पुरुष नहीं उठा। तब जल के अधिष्ठाता देव ने वीर्य के माध्यम से जननांग में प्रवेश किया, किन्तु विराट पुरुष नहीं जागा।

66 मृत्यु-देव ने अपान-इन्द्रिय से उनकी गुदा में प्रवेश किया, किन्तु विराट पुरुष में कोई गति नहीं आई। तब इन्द्रदेव ने हाथों में पकड़कर गिराने की शक्ति के हाथों में प्रवेश किया, किन्तु इतने पर भी विराट पुरुष उठा नहीं।

67 भगवान विष्णु ने गति की क्षमता के साथ उनके पाँवों में प्रवेश किया, किन्तु तब भी विराट-पुरुष ने खड़े होने से इनकार कर दिया। तब नदियों ने रक्त-नाड़ियों तथा संचरण शक्ति के माध्यम से रक्त में प्रवेश किया, किन्तु तो भी विराट-पुरुष हिला डुला नहीं।

68 सागर ने भूख तथा प्यास के सहित उसके पेट में प्रवेश किया, किन्तु तो भी विराट-पुरुष ने उठने से इनकार कर दिया। चन्द्रदेव ने मन के साथ उसके हृदय में प्रवेश किया, किन्तु विराट-पुरुष को जगाया न जा सका।

69 ब्रह्मा भी बुद्धि के साथ उसके हृदय में प्रविष्ट हुए, किन्तु तब भी विराट-पुरुष उठने के लिए राजी न हुआ। रुद्र ने भी अहंकार समेत उसके हृदय में प्रवेश किया, किन्तु तो भी वह टस से मस न हुआ।

70 किन्तु जब चेतना का अधिष्ठाता, अन्तःकरण का नियामक, तर्क के साथ हृदय में प्रविष्ट हुआ तो उसी क्षण विराट-पुरुष कारणार्णव से उठ खड़ा हुआ।

71 जब मनुष्य सोता रहता है, तो उसकी सारी भौतिक सम्पदा यथा – प्राणशक्ति, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि – उसे उत्प्रेरित नहीं कर सकतीं। वह तभी जागृत हो पाता है जब परमात्मा उसकी सहायता करता है।

72 अतः मनुष्य को समर्पण, वैराग्य तथा एकाग्र भक्ति के माध्यम से प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति के द्वारा इसी शरीर में परमात्मा को विद्यमान समझ कर उसका चिन्तन करना चाहिए यद्यपि वे इससे अलग रहते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पच्चीस – भक्तियोग की महिमा (3.25)

1 श्री शौनक ने कहा: यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अजन्मा हैं, किन्तु उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति से कपिल मुनि के रूप में जन्म धारण किया। वे सम्पूर्ण मानव जाति के लाभार्थ दिव्य ज्ञान का विस्तार करने के लिए अवतरित हुए।

2 शौनक ने आगे कहा: स्वयं भगवान से अधिक जानने वाला कोई अन्य नहीं है। न तो कोई उनसे अधिक पूज्य है, न अधिक प्रौढ़ योगी। अतः वे वेदों के स्वामी हैं और उनके विषय में सुनते रहना इन्द्रियों को सदैव वास्तविक आनन्द प्रदान करने वाला है।

3 अतः कृपया उन भगवान के समस्त कार्यकलापों एवं लीलाओं का संक्षेप में वर्णन करें, जो स्वतंत्र हैं और अपनी अन्तरंगा शक्ति से इन सारे कार्यकलापों को सम्पन्न करते हैं।

4 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: परम शक्तिमान ऋषि मैत्रेय व्यासदेव के मित्र थे। दिव्य ज्ञान के विषय में विदुर की जिज्ञासा से प्रोत्साहित एवं प्रसन्न होकर मैत्रेय ने इस प्रकार कहा।

5 मैत्रेय ने कहा: जब कर्दम मुनि वन चले गये तो भगवान कपिल अपनी माता देवहूति को प्रसन्न करने के लिए बिन्दु सरोवर के तट पर रहते आये।

6 अपनी माँ देवहूति को परम सत्य का चरम लक्ष्य दिखला सकने में समर्थ कपिल जब उसके समक्ष फुरसत से बैठे थे तो देवहूति को वे शब्द याद आये जो ब्रह्मा ने उससे कहे थे, अतः वह कपिल से इस प्रकार प्रश्न पूछने लगी।

7 देवहूति ने कहा: हे प्रभु, मैं अपनी इन्द्रियों के विक्षोभ से ऊबी हुई हूँ और इसके फलस्वरूप मैं अज्ञान रूपी अंधकार के गर्त में गिर गई हूँ।

8 हे प्रभो, आप ही अज्ञान के इस घने अंधकार से बाहर निकलने के एकमात्र साधन हैं, क्योंकि आप ही मेरे दिव्य नेत्र हैं जिसे मैंने आपके अनुग्रह से अनेकानेक जन्मों के पश्चात प्राप्त किया है।

9 आप श्रीभगवान हैं, जो समस्त जीवों के मूल तथा परमेश्वर हैं। आप ब्रह्माण्ड के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य की किरणें विस्तारित करने के लिए उदित हुए हैं।

10 हे प्रभु, अब प्रसन्न हों और मेरे महा मोह को दूर करें। अहंकार के कारण मैं आपकी माया में व्यस्त रही और मैंने अपने आपको शरीर रूप में तथा फलस्वरूप शारीरिक सम्बन्धों के रूप में पहचाना।

11 देवहूति ने आगे कहा: मैंने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है, क्योंकि आप ही एकमात्र व्यक्ति हैं जिनकी शरण ग्रहण की जा सकती है। आप वह कुल्हाड़ी हैं जिससे संसार रूपी वृक्ष काटा जा सकता है। अतः मैं आपको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि समस्त योगियों में आप महानतम हैं। मैं आपसे पुरुष तथा स्त्री और आत्मा तथा पदार्थ के सम्बन्ध के विषय में जानना चाहती हूँ।

12 मैत्रेय ने कहा: दिव्य साक्षात्कार के लिए अपनी माता की कल्मषरहित इच्छा को सुनकर भगवान ने मन-ही-मन उनके प्रश्नों के लिए धन्यवाद दिया और इस प्रकार मुस्कान-युत मुख से उन्होंने आत्म साक्षात्कार में रुचि रखने वाले अध्यात्मवादियों के मार्ग की व्याख्या की।

13 भगवान ने उत्तर दिया: जो योग पद्धति भगवान तथा व्यक्तिगत जीवात्मा को जोड़ती है, जो जीवात्मा के चरम लाभ के लिए है और जो भौतिक जगत में समस्त सुखों तथा दुखों से विरक्ति उत्पन्न करती है, वही सर्वोच्च योग पद्धति है।

15 हे परम पवित्र माता, अब मैं आपको वही प्राचीन योग पद्धति समझाऊँगा, जिसे मैंने पहले महान ऋषियों को समझाया था। यही हर प्रकार से उपयोगी एवं व्यावहारिक है। जीवात्मा की चेतना जिस अवस्था में प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा आकृष्ट होती है, वह बद्धजीवन कहलाती है। किन्तु जब वही चेतना श्रीभगवान के प्रति आसक्त होती है, तो मनुष्य मोक्ष की चेतना में स्थित हो जाता है।

16 जब मनुष्य शरीर को "मैं" तथा भौतिक पदार्थों को "मेरा" मानने के झूठे भाव से उत्पन्न काम तथा लोभ के विकारों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तो उसका मन शुद्ध हो जाता है। उस विशुद्धावस्था में वह तथाकथित भौतिक सुख तथा दुख की अवस्था को लाँघ जाता है।

17 उस समय जीव अपने आपको संसार से परे, सदैव स्वयंप्रकाशित, अखण्डित एवं सूक्ष्म आकार में देख सकता है।

18 आत्म-साक्षात्कार की उस अवस्था में मनुष्य ज्ञान तथा भक्ति में त्याग के अभ्यास से प्रत्येक वस्तु को सही रूप में देख सकता है, वह इस संसार के प्रति अन्यमनस्क हो जाता है और उस पर भौतिक प्रभाव अत्यल्प प्रबलता के साथ काम कर पाते हैं।

19 किसी भी प्रकार का योगी जब तक श्रीभगवान की भक्ति में प्रवृत्त नहीं हो जाता, तब तक आत्म-साक्षात्कार में पूर्णता नहीं प्राप्त की जा सकती, क्योंकि भक्ति ही एकमात्र शुभ मार्ग है।

20 प्रत्येक विद्वान व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि सांसारिक आसक्ति ही आत्मा का सबसे बड़ा बन्धन है। किन्तु वही आसक्ति यदि स्वरूपसिद्ध भक्तों के प्रति हो जाय तो मोक्ष का द्वार खुल जाता है।

21 साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।

22 ऐसा साधु अविचलित भाव से भगवान की कट्टर भक्ति करता है। भगवान के लिए वह संसार के अन्य समस्त सम्बन्धों यथा पारिवारिक सम्बन्ध तथा मैत्री का परित्याग कर देता है।

23 निरन्तर मेरे अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कीर्तन तथा श्रवण में संलग्न रहकर साधुगण किसी प्रकार का भौतिक कष्ट नहीं पाते, क्योंकि वे सदैव मेरी लीलाओं तथा कार्यकलापों के विचारों में ही निमग्न रहते हैं।

24 हे माते, हे साध्वी, ये उन महान भक्तों के गुण हैं, जो समस्त आसक्तियों से मुक्त हैं। तुम्हें ऐसे पवित्र पुरुषों की संगति करनी चाहिए, क्योंकि ऐसी संगति भौतिक आसक्ति के समस्त कुप्रभावों को हरने वाली है।

25 शुद्ध भक्तों की संगति में श्रीभगवान की लीलाओं तथा उनके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा हृदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन में मनुष्य धीरे-धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है। तब असली समर्पण तथा भक्तियोग का शुभारम्भ होता है।

26 इस प्रकार भक्तों की संगति में सचेत होकर भक्ति करते हुए भगवान के कार्यकलापों के विषय में निरन्तर सोचते रहने से मनुष्य को इस लोक में तथा परलोक में इन्द्रियतृप्ति के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है। कृष्णभावनामृत की यह विधि योग की सरलतम विधि है। जब मनुष्य भक्तियोग के मार्ग में सही-सही स्थित हो जाता है, तो वह अपने चित्त (मन) को नियंत्रित करने में सक्षम होता है।

27 इस तरह प्रकृति के गुणों की सेवा में न लगकर, अपितु कृष्णभक्ति विकसित करके, वैराग्य युक्त ज्ञान प्राप्त करके तथा योग के अभ्यास से, जिसमें मनुष्य का मन सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की भक्तिमय सेवा में स्थिर रहता है, मनुष्य इसी जीवन में मेरा साहचर्य (संगति) प्राप्त कर लेता है, क्योंकि मैं परम पुरुष अर्थात परम सत्य हूँ।

28 भगवान का यह वचन सुनकर देवहूति ने पूछा: मैं किस प्रकार के भक्तियोग का विकास और अभ्यास करूँ जिससे मुझे आपके चरणकमलों की सेवा तत्काल एवं सरलता से प्राप्त हो सके?

29 आपने जैसा बताया है कि योग पद्धति का उद्देश्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्राप्त करने और सांसारिक अस्तित्व (माया) के पूर्णतया विनाश के लिए है, तो कृपया मुझे उस योग पद्धति की प्रकृति बतलाएँ। उस अलौकिक योग को यथार्थ रूप में कितनी विधियों से समझा जा सकता है?

30 मेरे पुत्र कपिल, आखिर मैं एक स्त्री हूँ। परम सत्य को समझ पाना मेरे लिए अत्यन्त कठिन है, क्योंकि मेरी बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं है। यद्यपि मैं इतनी बुद्धिमान नहीं हूँ। किन्तु फिर भी, यदि आप मुझे कृपा करके समझाएँगे तो मैं उसे समझ कर दिव्य सुख का अनुभव कर सकूँ गी।

31 श्री मैत्रेय ने कहा: अपनी माता का कथन सुनकर कपिल उसका प्रयोजन समझ गये और उसके प्रति दयार्द हो उठे, क्योंकि उन्होंने उसके शरीर से जन्म लिया था। उन्होंने सांख्य दर्शन का वर्णन किया जो शिष्य परम्परा से प्राप्त भक्ति तथा यौगिक साक्षात्कार का एक मिलाजुला रूप है।

32 भगवान कपिल ने कहा: ये इन्द्रियाँ दैवों के प्रतीकात्मक प्रतिनिधि हैं और इनका स्वाभाविक झुकाव वैदिक आदेशों के अनुसार कर्म करने में है। जिस प्रकार इन्द्रियाँ देवताओं की प्रतीक हैं, उसी प्रकार मन भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का प्रतिनिधि है। मन का प्राकृतिक कार्य सेवा करना है। जब यह सेवा-भाव किसी हेतु के बिना श्रीभगवान की सेवा में लगा रहता है, तो यह सिद्धि से कहीं बढ़कर है।

33 भक्ति जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उसी प्रकार विलय कर देती है, जिस प्रकार जठराग्नि खाये हुए भोजन को पचा देती है।

34 जो भक्ति कार्यों में संलग्न है और जो मेरे चरणकमलों की सेवा में निरन्तर लगा रहता है, ऐसा शुद्ध भक्त कभी भी मुझसे तदाकार (एकात्म) होना नहीं चाहता। ऐसा भक्त जो अविचलित होकर लगा रहता है सदैव मेरी लीलाओं तथा कार्य-कलापों का गुणगान करता है।

35 हे माता, मेरे भक्त नित्य ही उदीयमान प्रभात के सूर्य सदृश नेत्रों से युक्त मेरे प्रसन्न मुखमण्डल वाले रूप का अवलोकन करते हैं। वे मेरे विभिन्न मित्रवत रूपों को देखना चाहते हैं और साथ ही मुझसे अनुकूल सम्भाषण करना चाहते हैं।

36 भगवान के मुसकाते तथा आकर्षक स्वरूप को देखकर तथा उनके अत्यन्त मोहक शब्दों को सुनकर शुद्ध भक्त अपनी अन्य समस्त चेतना खो बैठते हैं। उनकी इन्द्रियाँ अन्य समस्त कार्यों से मुक्त होकर भक्ति में तल्लीन हो जाती हैं।

37 इस प्रकार अनिच्छित ही सही उसे अनायास मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार मेरे ही विचारों में निमग्न रहने के कारण भक्त को स्वर्गलोक में प्राप्य श्रेष्ठ वर (जिसमें सत्यलोक सम्मिलित है) की भी इच्छा नहीं रह जाती। उसमें योग से प्राप्त होने वाली अष्ट सिद्धियों की भी कामना नहीं रह जाती, न ही वह ईश्वर के धाम पहुँचना चाहता है। तथापि न चाहते हुए भी, इसी जीवन में भक्त प्रदान किए गये उन समस्त वरदानों को भोगता है।

38 भगवान ने आगे कहा: हे माते, जो भक्त ऐसा दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त कर लेते हैं, वे उससे कभी वंचित नहीं होते। ऐसे ऐश्वर्य को न तो आयुध, न काल-परिवर्तन ही विनष्ट कर सकता है। चूँकि भक्तगण मुझे अपना मित्र, सम्बन्धी, पुत्र, शिक्षक, शुभचिन्तक तथा परमदेव मानते हैं, अतः किसी काल में भी उनसे यह ऐश्वर्य छीना नहीं जा सकता।

39-40 इस प्रकार जो भक्त मुझ सर्वव्यापी, जगत के स्वामी की अनन्य भाव से पूजा करता है, वह स्वर्ग जैसे उच्चतर लोकों में भेजे जाने अथवा इसी लोक में धन, सन्तति, पशु, घर अथवा शरीर से सम्बन्धित किसी भी वस्तु के साथ सुख पूर्वक रहने की समस्त कामनाओं को त्याग देता है। मैं उसे जन्म और मृत्यु के सागर के उस पार ले जाता हूँ।

41 यदि कोई मुझको छोड़कर अन्य की शरण ग्रहण करता है, तो वह जन्म तथा मृत्यु के विकट भय से कभी छुटकारा नहीं पा सकता, क्योंकि मैं सर्वशक्तिमान, परमेश्वर अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, समस्त सृष्टि का आदि स्रोत तथा समस्त आत्माओं का भी परमात्मा हूँ।

42 यह मेरी श्रेष्ठता है कि मेरे ही भय से हवा बहती है, मेरे ही भय से सूर्य चमकता है और मेघों का राजा इन्द्र मेरे ही भय से वर्षा करता है। मेरे ही भय से अग्नि जलती है और मेरे ही भय से मृत्यु इतनी जानें लेती है।

43 योगीजन दिव्य ज्ञान तथा त्याग से युक्त होकर एवं अपने शाश्वत लाभ के लिए मेरे चरणकमलों में शरण लेते हैं और चूँकि मैं भगवान हूँ, अतः वे भयमुक्त होकर भगवद्धाम में प्रवेश पाने के लिए पात्र हो जाते हैं।

44 अतः जिन व्यक्तियों के मन भगवान में स्थिर हैं, वे भक्ति का तीव्र अभ्यास करते हैं। जीवन की अन्तिम सिद्धि प्राप्त करने का यही एकमात्र साधन है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चौबीस – कर्दम मुनि का वैराग्य (3.24)

1 भगवान विष्णु के वचनों का स्मरण करते हुए कर्दम मुनि ने वैराग्यपूर्ण बातें करने वाली, स्वायम्भुव मनु की प्रशंसनीय पुत्री देवहूति से इस प्रकार कहा।

2 मुनि ने कहा: हे राजकुमारी, तुम अपने आपसे निराश न हो। तुम निस्सन्देह प्रशंसनीय हो। अविनाशी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान शीघ्र ही पुत्र रूप में तुम्हारे गर्भ में प्रवेश करेंगे।

3 तुमने पवित्र व्रत धारण किये हैं। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। अब तुम ईश्वर की पूजा अत्यन्त श्रद्धा, संयम, नियम, तप तथा अपने धन के दान द्वारा करो।

4 तुम्हारे द्वारा पूजित होकर श्रीभगवान मेरे नाम तथा यश का विस्तार करेंगे। वे तुम्हारे पुत्र बनकर तथा तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देकर तुम्हारे हृदय में पड़ी गाँठ को छिन्न कर देंगे।

5 श्री मैत्रेय ने कहा: देवहूति में अपने पति कर्दम के आदेश के प्रति अत्यन्त श्रद्धा तथा सम्मान था, क्योंकि वे ब्रह्माण्ड में मनुष्यों के उत्पन्न करने वाले प्रजापतियों में से एक थे। हे मुनि, इस प्रकार वह ब्रह्माण्ड के स्वामी घट-घट के वासी श्रीभगवान की पूजा करने लगी।

6 अनेक वर्षों बाद मधुसूदन अर्थात मधु नामक असुर के संहारकर्ता, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कर्दम मुनि के तेज में प्रविष्ट होकर देवहुति के गर्भ में उसी प्रकार प्रकट हुए जिस प्रकार किसी यज्ञ की काष्ठ में से अग्नि उत्पन्न होती है।

7 पृथ्वी पर उनके अवतरित होते समय, आकाश में देवताओं ने वाद्ययंत्रों के रूप में जल बरसाने वाले मेघों से वाद्यसंगीत की-सी ध्वनियाँ बजायी। स्वर्गिक गवैये गन्धर्वगण भगवान की महिमा का गान करने लगे और अप्सराओं के नाम से प्रसिद्ध स्वर्गिक नर्तकियाँ आनन्द विभोर होकर नाचने लगीं।

8 भगवान के प्राकट्य के समय आकाश में मुक्त रूप से विचरण करनेवाले देवताओं ने फूल बरसाये। सभी दिशाएँ, सभी सागर तथा सबों के मन परम प्रसन्न हुए।

9 सर्वप्रथम सृजित जीव ब्रह्मा मरीचि तथा अन्य मुनियों के साथ कर्दम के आश्रम गये, जो सरस्वती नदी के चारों ओर से घिरा था।

10 मैत्रेय ने आगे कहा: हे शत्रुओं के संहारक, ज्ञान प्राप्त करने में प्रायः स्वच्छन्द, अजन्मा ब्रह्माजी समझ गये कि श्रीभगवान का एक अंश अपने कल्मषरहित अस्तित्व में, सांख्ययोग रूप में समस्त ज्ञान की व्याख्या के लिए देवहूति के गर्भ से प्रकट हुआ है।

11 अवतार रूप में भगवान के अभिप्रेत कार्यकलापों के लिए प्रमुदित इन्द्रियों तथा विशुद्ध हृदय से परमेश्वर की पूजा करके, ब्रह्माजी ने कर्दम तथा देवहूति से इस प्रकार कहा।

12 ब्रह्माजी ने कहा: प्रिय पुत्र कर्दम, चूँकि तुमने मेरे उपदेशों का आदर करते हुए उन्हें बिना किसी द्वैत के स्वीकार किया है, अतः तुमने मेरी समुचित तरह से पूजा की है। तुमने मेरे सारे उपदेशों का पालन किया है, ऐसा करके तुमने मेरा सम्मान किया है।

13 पुत्रों को अपने पिता की ऐसी ही सेवा करनी चाहिए। पुत्र को चाहिए कि अपने पिता या गुरु के आदेश का पालन सम्मानपूर्वक "जो आज्ञा" कहते हुए करे।

14 तब ब्रह्माजी ने कर्दम मुनि की नवों कन्याओं की प्रशंसा यह कहकर की--तुम्हारी सभी तन्वंगी कन्याएँ निस्सन्देह साध्वी हैं। मुझे विश्वास है कि वे अनेक प्रकार से अपने वंशों द्वारा इस सृष्टि का वर्धन करेंगी।

15 अतः आज तुम इन पुत्रियों को उनके स्वभाव तथा उनकी रुचियों के अनुसार श्रेष्ठ मुनियों को प्रदान कर दो और इस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में अपना सुयश फैलाओ।

16 हे कर्दम मुनि, मुझे ज्ञात है कि अब आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी अन्तरंगा शक्ति से अवतार रूप में प्रकट हुए हैं। वे जीवात्माओं के सभी मनोरथों को पूरा करने वाले हैं और उन्होंने अब कपिल मुनि का शरीर धारण किया है।

17 सुनहले बाल, कमल की पंखुड़ियों जैसे नेत्र तथा कमल के पुष्प से अंकित कमल के समान चरणोंवाले कपिल मुनि अपने योग तथा शास्त्रीय ज्ञान के व्यवहार से इस भौतिक जगत में कर्म की इच्छा को समूल नष्ट कर देंगे।

18 तब ब्रह्माजी ने देवहूति से कहा: हे मनुपुत्री, जिन श्रीभगवान ने कैटभ असुर का वध किया है, वे ही अब तुम्हारे गर्भ में आए हैं। वे तुम्हारे समस्त संशय तथा अज्ञान की गाँठ को नष्ट कर देंगे। तब वे सारे विश्व का भ्रमण करेंगे।

19 तुम्हारा पुत्र समस्त सिद्धगणों का अग्रणी होगा। वह वास्तविक ज्ञान का प्रसार करने में दक्ष आचार्यों द्वारा मान्य होगा और मनुष्यों में वह कपिल नाम से विख्यात होगा। देवहूति के पुत्र-रूप में वह तुम्हारे यश को बढ़ायेगा।

20 श्रीमैत्रेय ने कहा: कर्दम मुनि तथा उनकी पत्नी देवहूति से इस प्रकार कह कर ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्माजी, जिन्हें हंस भी कहा जाता है, अपने वाहन हंस पर चढ़कर चारों कुमारों तथा नारद सहित तीनों लोकों में से सर्वोच्च लोक को वापस चले गये।

21 हे विदुर ब्रह्माजी, कर्दम मुनि ने अपनी नवों पुत्रियों को ब्रह्मा द्वारा दिये गये आदेशों के अनुसार नौ ऋषियों को प्रदान कर दिया, जिन्होंने इस संसार के मनुष्यों का सृजन किया।

22-23 कर्दम मुनि ने अपनी पुत्री कला को मरीचि को और दूसरी कन्या अनुसूया को अत्री को समर्पित कर दिया। श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति तथा अरुन्धती नामक कन्याएँ क्रमशः अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु और वसिष्ठ को प्रदान की गई।

24 उन्होंने शान्ति अथर्वा को प्रदान की। शान्ति के कारण यज्ञ अच्छी तरह सम्पन्न होने लगे। इस प्रकार उन्होंने अग्रणी ब्राह्मणों से उन सबका विवाह कर दिया और पत्नियों सहित उन सबका पालन करने लगे।

25 हे विदुर, इस प्रकार विवाहित होकर ऋषियों ने कर्दम से विदा ली और वे प्रसन्नतापूर्वक अपने अपने आश्रम को चले गये।

26 जब कर्दम मुनि ने समझ लिया कि सब देवताओं के प्रधान पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु ने अवतार लिया है, तो वे एकान्त स्थान में जाकर उन्हें नमस्कार करते हुए इस प्रकार बोले।

27 कर्दम मुनि ने कहा: ओह! इस ब्रह्माण्ड के देवता लम्बी अवधि के बाद कष्ट में पड़ी हुई उन आत्माओं पर प्रसन्न हुए हैं, जो अपने कुकृत्यों के कारण भौतिक बन्धन में पड़े हुए हैं।

28 परिपक्व योगीजन योग समाधि में अनेक जन्म लेकर एकान्त स्थानों में रहकर श्रीभगवान के चरणकमलों को देखने का प्रयत्न करते रहते हैं।

29 हम जैसे सामान्य गृहस्थों की उपेक्षा का ध्यान न करते हुए वही श्रीभगवान अपने भक्तों की सहायता के लिए ही हमारे घरों में प्रकट होते हैं।

30 कर्दम मुनि ने कहा: सदैव अपने भक्तों का मानवर्धन करने वाले मेरे प्रिय भगवान, आप अपने वचनों को पूरा करने तथा वास्तविक ज्ञान का प्रसार करने के लिए ही मेरे घर में अवतरित हुए हैं।

31 हे भगवन, यद्यपि आपका कोई भौतिक रूप नहीं है, किन्तु आपके अपने ही अनन्त रूप हैं। वे सचमुच ही आपके दिव्य रूप हैं और आपके भक्तों को आनन्दित करनेवाले हैं।

32 हे भगवान, आपके चरणकमल ऐसे कोष के समान हैं, जो परम सत्य को जानने के इच्छुक बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों का सदैव आदर प्राप्त करने वाला है। आप ऐश्वर्य, वैराग्य, दिव्य यश, ज्ञान और सौन्दर्य से ओत-प्रोत हैं अतः मैं आपके चरणकमलों की शरण में हूँ।

33 मैं कपिल के रूप में अवतरित होने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की शरण लेता हूँ, जो स्वतंत्र रूप से शक्तिमान तथा दिव्य हैं, जो परम पुरुष हैं तथा पदार्थ और काल को मिलाकर सबों के भगवान हैं, जो त्रिगुणमय सभी ब्रह्माण्डों के पालनकर्ता हैं और प्रलय के पश्चात भौतिक प्रपंचों को अपने में लीन कर लेते हैं।

34 समस्त जीवात्माओं के स्वामी मुझे आप से आज कुछ पूछना है। चूँकि आपने मुझे अब पितृ-ऋण से मुक्त कर दिया है और मेरे सभी मनोरथ पूरे हो चुके हैं, अतः मैं संन्यास-मार्ग ग्रहण करना चाहता हूँ। इस गृहस्थ जीवन को त्याग कर मैं शोकरहित होकर अपने हृदय में सदैव आपको धारण करते हुए सर्वत्र भ्रमण करना चाहता हूँ।

35 भगवान कपिल ने कहा: मैं जो भी प्रत्यक्ष रूप से या शास्त्रों में कहता हूँ वह संसार के लोगों के लिए सभी प्रकार से प्रामाणिक है। हे मुने, चूँकि मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं तुम्हारा पुत्र बनूँगा, अतः उसी को सत्य करने हेतु मैंने अवतार लिया है।

36 इस संसार में मेरा प्राकट्य विशेष रूप से सांख्य दर्शन का प्रतिपादन करने के लिए हुआ है। यह दर्शन उन व्यक्तियों के द्वारा आत्मसाक्षात्कार हेतु परम समादृत है, जो अनावश्यक भौतिक कामनाओं के बन्धन से मुक्ति चाहते हैं।

37 आत्म-साक्षात्कार का यह मार्ग, जिसको समझ पाना दुष्कर है, अब कालक्रम से लुप्त हो गया है। इस दर्शन को पुनः मानव समाज में प्रवर्तित करने और व्याख्या करने के लिए ही मैंने कपिल का यह शरीर धारण किया है--ऐसा जानो।

38 अब मेरे द्वारा आदिष्ट तुम मुझे अपने समस्त कार्यों को अर्पित करके जहाँ भी चाहो जाओ। दुर्जेय मृत्यु को जीतते हुए शाश्वत जीवन के लिए मेरी पूजा करो।

39 तुम अपनी बुद्धि के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर मेरा दर्शन करोगे, जो समस्त जीवात्माओं के हृदयों के भीतर वास करने वाला परम स्वतः प्रकाशमान आत्मा है। इस प्रकार तुम समस्त शोक व भय से रहित शाश्वत जीवन प्राप्त करोगे।

40 मैं इस परम ज्ञान को, जो आत्म जीवन का द्वार खोलने वाला है, अपनी माता को भी बताऊँगा, जिससे वह भी समस्त सकाम कर्मों के बन्धनों को तोड़कर सिद्धि तथा आत्म दर्शन प्राप्त कर सके। इस प्रकार वह भी समस्त भौतिक भय से मुक्त हो जाएगी।

41 श्रीमैत्रेय ने कहा: इस प्रकार अपने पुत्र कपिल द्वारा सम्बोधित किये जाने पर मानव समाज के जनक श्रीकर्दम मुनि ने उनकी परिक्रमा की और अच्छे तथा शान्त मन से उन्होंने तुरन्त जंगल के लिए प्रस्थान कर दिया।

42 कर्दम मुनि ने मौन व्रत धारण करना स्वीकार किया जिससे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का चिन्तन कर सकें और एकमात्र उन्हीं की शरण में जा सकें। बिना किसी संगी के वे संन्यासी रूप में पृथ्वी भर में भ्रमण करने लगे, अग्नि अथवा आश्रय से उनका कोई सम्बन्ध न रहा।

43 उन्होंने अपना मन परब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में स्थिर कर दिया जो कार्य-कारण से परे हैं, जो तीनों गुणों को प्रकट करने वाले हैं किन्तु उन तीनों गुणों से अतीत हैं और जो केवल अटूट भक्तियोग के द्वारा देखे जा सकते हैं।

44 इस प्रकार वे अहंकार से रहित और भौतिक ममता से मुक्त हो गये। अविचलित, समदर्शी तथा अद्वैतभाव से वे अपने को भी देख सके (आत्मदर्शी) वे अन्तर्मुखी हो गये और उसी तरह परम शान्त बन गये जिस प्रकार लहरों से अविचलित समुद्र।

45 इस प्रकार वे बद्ध जीवन से मुक्त हो गये और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित सर्वज्ञ परमात्मा श्रीभगवान वासुदेव की दिव्य सेवा में तल्लीन हो गये।

46 उन्हें दिखाई पड़ने लगा कि सबों के हृदय में श्रीभगवान स्थित हैं और प्रत्येक जीव उनमें स्थित है, क्योंकि वे प्रत्येक के परमात्मा हैं।

47 वे समस्त द्वेष तथा इच्छा से रहित, अकल्मष भक्ति करने के कारण समदर्शी होने से अन्त में भगवान के धाम को प्राप्त हुए।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तेईस – देवहूति का शोक (3.23)

1 मैत्रेय ने कहा: अपने माता-पिता के चले जाने पर अपने पति की इच्छाओं को समझनेवाली पतिव्रता देवहूति अपने पति की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी जिस प्रकार भवानी अपने पति शंकरजी की करती हैं।

2 हे विदुर, देवहूति ने अत्यन्त आत्मीयता और आदर के साथ, इन्द्रियों को वश में रखते हुए, प्रेम तथा मधुर वचनों से अपने पति की सेवा की।

3 बुद्धिमानी तथा तत्परता के साथ कार्य करते हुए उसने समस्त काम, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप तथा मद को त्यागकर अपने शक्तिशाली पति को प्रसन्न कर लिया।

4-5 पतिपरायणा मनु की पुत्री अपने पति को विधाता से भी बड़ा मानती थी। इस प्रकार वह उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ किये रहती थी। दीर्घकाल तक सेवा करते रहने से धार्मिक व्रतों को रखने के कारण वह अत्यन्त क्षीण हो गई। उसकी दशा देखकर देवर्षि-श्रेष्ठ कर्दम को उस पर दया आ गई और वे अत्यन्त प्रेम से गदगद वाणी में बोले।

6 कर्दम मुनि ने कहा: हे स्वायम्भुव मनु की मानिनी पुत्री, आज मैं तुम्हारी अत्यधिक अनुरक्ति तथा प्रेमपूर्ण सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ। चूँकि देहधारियों को शरीर अत्यन्त प्रिय है, अतः मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुमने मेरे लिये अपने शरीर को उपेक्षित कर रखा है।

7 कर्दम मुनि ने आगे कहा: मैंने तप, ध्यान तथा कृष्णभक्ति का अपना धार्मिक जीवन बिताते हुए भगवान का आशीर्वाद प्राप्त किया है। यद्यपि तुम्हें भय तथा शोक से रहित इन उपलब्धियों (विभूतियों) का अभी तक अनुभव नहीं है, किन्तु इन सबों को मैं तुम्हें प्रदान करूँगा, क्योंकि तुम मेरी सेवा में लगी हुई हो। अब उन्हें देखो तो। मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि प्रदान कर रहा हूँ जिससे तुम देख सको कि वे कितनी सुन्दर हैं।

8 कर्दम मुनि ने कहा: भगवान की कृपा के अतिरिक्त अन्य भोगों से कौन सा लाभ है? सभी भौतिक उपलब्धियाँ श्रीभगवान विष्णु के भृकुटि-चालन से ही ध्वंस हो जाने वाली हैं। तुमने अपने पति की भक्ति करके वे दिव्य भेंटें प्राप्त की हैं और उनका भोग कर रही हो जो राजमद तथा भौतिक सम्पत्ति से गर्वित मनुष्यों के लिए भी दुर्लभ हैं।

9 समस्त प्रकार के दिव्य ज्ञान में अद्वितीय, अपने पति को बोलते हुए सुनकर निष्पाप देवहूति अत्यन्त प्रसन्न हुई, उसका मुख किंचित संकोच भरी चितवन और मधुर मुस्कान से खिल उठा और वह अत्यन्त विनय एवं प्रेमवश गदगद वाणी में (रुद्ध कण्ठ से) बोली।

10 श्री देवहूति ने कहा: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मेरे प्रिय पति, मैं जानती हूँ कि आपने सिद्धि प्राप्त कर ली है और समस्त अचूक योगशक्ति के स्वामी हैं, क्योंकि आप दिव्य प्रकृति योगमाया के संरक्षण में हैं। किन्तु आपने एक बार वचन दिया था कि अब हमारा शारीरिक संसर्ग होना चाहिए, क्योंकि तेजस्वी पति वाली साध्वी पत्नी के लिए सन्तान बहुत बड़ा गुण है।

11 देवहूति ने आगे कहा: हे प्रभु, मैं कामवेदना से पीड़ित हो रही हूँ। अतः आप शास्त्रों के अनुसार जो भी व्यवस्था की जानी हो करें, जिससे यह मेरा दुर्बल शरीर आपके योग्य हो जाय। हाँ स्वामी, इस कार्य के लिए उपयुक्त घर के विषय में भी विचार करें।

12 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, अपनी प्रिया की इच्छा को पूरा करने के लिए कर्दम मुनि ने अपनी योगशक्ति का प्रयोग किया और तुरन्त ही एक हवाई महल (विमान) उत्पन्न कर दिया जो उनकी इच्छानुसार यात्रा कर सकता था।

13 यह सभी प्रकार के रत्नों से जटित, बहुमूल्य मणियों के खम्भों से सुशोभित तथा इच्छित फल प्रदान करने वाली विस्मयजनक संरचना (महल) थी। यह सभी प्रकार के साज-सामान तथा सम्पदा से सुसज्जित था, जो दिन-प्रति-दिन बढ़ने वाले थे।

14-15 यह प्रासाद (दुर्ग) सभी प्रकार की सामग्री से सुसज्जित था और यह सभी ऋतुओं में सुखदायक था। यह चारों ओर से पताकाओं, बन्दनवारों तथा नाना-विधिक रंगों की कला-कृतियों से सजाया गया था। यह आकर्षक पुष्पों के हारों से, जिससे मधुर गुंजार करते भौंरे आकृष्ट हो रहे थे तथा लिनेन, रेशमी तथा अन्य तन्तुओं से बने पर्दों से शोभायमान था।

16 यह प्रासाद शय्याओं, पलंगों, पंखों तथा आसनों से युक्त सात पृथक-पृथक मंजिलों (तल्लों) वाला होने से अत्यन्त मनोहर लग रहा था।

17 दीवालों में जहाँ तहाँ कलापूर्ण संरचना होने से उनकी सुन्दरता बढ़ गई थी। उसकी फर्श मरकत मणि की थी और चबूतरे मूँगे के बने थे।

18 वह महल अतीव सुन्दर था, उसके द्वारों की देहलियाँ मूँगे की थी और दरवाजे हीरों से जटित थे। इन्द्र नीलमणि के बने गुम्बदों पर सोने के कलश रखे हुए थे।

19 वह हीरों की दीवालों में जड़े हुए मनभावने माणिक से ऐसा प्रतीत होता था मानो नेत्रों से युक्त हो।

20 वह विचित्र चँदोवों और अत्यधिक मूल्यवान सोने के तोरणों से सुसज्जित था। उस प्रासाद में जहाँ तहाँ जीवित हंसों तथा कबूतरों के साथ ही कृत्रिम हंस तथा कबूतर इतने सजीव थे कि असली हंस उन्हें अपने ही तुल्य सजीव पक्षी समझ कर अपनी गर्दनें ऊपर उठा रहे थे। इस प्रकार वह प्रासाद इन पक्षियों की ध्वनि से गूँज रहा था।

21 उस प्रासाद में क्रीड़ास्थल, विश्रामघर, शयनगृह, आँगन तथा चौकें थीं जो नेत्रों को सुख देने वाली थीं। इन सबसे स्वयं मुनि को विस्मय हो रहा था।

22 जब उन्होंने देखा कि देवहूति इतने विशाल, ऐश्वर्ययुक्त प्रासाद (भवन) को अप्रसन्न हृदय से देख रही है, तो कर्दम मुनि को उसकी भावनाओं का पता चला, क्योंकि वे किसी के हृदय की बात जान सकते थे। अतः उन्होंने अपनी पत्नी को स्वयं ही इस प्रकार सम्बोधित किया।

23 प्रिये देवहूति, तुम इतनी भयभीत क्यों हो? पहले स्वयं भगवान विष्णु द्वारा निर्मित बिन्दु-सरोवर में स्नान करो, जो मनुष्य की समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाला है और तब इस विमान पर चढ़ो।

24 कमललोचना देवहूति ने अपने पति की आज्ञा मान ली। मैले-कुचैले वस्त्रों तथा सिर पर बालों के जटों के कारण वह आकर्षक नहीं दिख रही थी।

25 उसके शरीर पर धूल की मोटी पर्त चढ़ी थी और उसके स्तन कान्तिहीन हो गए थे। किन्तु उसने सरस्वती नदी के पवित्र जल से भरे सरोवर में डुबकी लगाई।

26 उसने सरोवर के भीतर एक घर में एक हजार कन्याएँ देखीं जो सब की सब अपनी किशोरावस्था में थीं और कमलों के समान सुगन्धित थीं।

27 उसे देखकर वे तरुणियाँ सहसा उठ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर कहा, “हम आपकी दासी हैं। कृपा करके बताएँ कि हम आपके लिए क्या करें?”

28 देवहूति के प्रति अत्यन्त सम्मान प्रदर्शित करने वाली कन्याएँ उसे बाहर लाई और बहुमूल्य तेलों तथा उबटनों को लगाकर नहलाया और उसे महीन, निर्मल, नये वस्त्र पहनने को दिये।

29 तब उन्होंने उसे उत्तम तथा बहुमूल्य आभूषणों से सजाया जो चमचमा रहे थे। फिर उन्होंने सर्वगुण सम्पन्न भोजन तथा मधुर मादक पेय पदार्थ आसवम प्रदान किया।

30 तब उसने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखा। उसका शरीर समस्त प्रकार के मल से रहित हो गया था और वह माला से सज्जित की गई थी। वह निर्मल वस्त्र पहने थी और शुभ तिलक से विभूषित थी। दासियाँ उसकी अत्यन्त आदरपूर्वक सेवा कर रही थीं।

31 सिर सहित उसका सारा शरीर नहलाया गया और उसके अंग-प्रत्यंग को आभूषणों से सजाया गया। उसने लटकन से युक्त हार (हार-हुमेल) पहना था। उसकी कलाइयों में चुड़ियाँ थीं और उसकी एड़ियों में सोने के खनकते पायल थे।

32 उसने कमर में अनेक रत्नों से जटित सोने की करधनी पहन रखी थी; वह बहुमूल्य मोतियों के हार तथा मंगल-द्रव्यों से सुसज्जित थी।

33 उसका मुखमण्डल सुन्दर दाँतों तथा मनोहर भौहों से चमक रहा था। उसके नेत्र सुन्दर स्निग्ध कोरों से स्पष्ट दिखाई पड़ने के कारण कमल कली की शोभा को मात करते थे। उसका मुख काले घुँघराले बालों से घिरा हुआ था।

34 जब उसने ऋषियों में अग्रगण्य अपने परम प्रिय पति कर्दम मुनि का स्मरण किया, तो वह अपनी समस्त दासियों सहित वहाँ प्रकट हो गई जहाँ मुनि थे।

35 अपने पति की उपस्थिति में अपने चारों ओर एक हजार दासियाँ और पति की योगशक्ति देखकर वह अत्यन्त चकित थी।

36-37 मुनि ने देखा देवहूति ने स्नान कर लिया है और चमक रही है मानो वह उनकी पहले वाली पत्नी नहीं है। उसने राजकुमारी जैसा अपना पूर्व सौन्दर्य पुनः प्राप्त कर लिया था। वह श्रेष्ठ वस्त्रों से आच्छादित सुन्दर वक्षस्थलों वाली थी। उसकी आज्ञा के लिए एक हजार गन्धर्व कन्याएँ खड़ी थीं। हे शत्रुजित, मुनि को उसकी चाह उत्पन्न हुई और उन्होंने उसे हवाई-प्रासाद में चढ़ा लिया।

38 अपनी प्रिया पर अत्यधिक अनुरक्त रहने तथा गन्धर्व-कन्याओं द्वारा सेवित होने पर भी मुनि की महिमा कम नहीं हुई, क्योंकि उनको अपने पर नियंत्रण प्राप्त था।

39 उस हवाई-प्रासाद में कर्दम मुनि अपनी प्रिया के साथ इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो आकाश में नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा हो, जिससे रात्रि में जलाशयों में कुमुदिनियाँ खिलती हैं। उस हवाई-प्रासाद में आरूढ़ हो वे मेरु पर्वत की सुखद घाटियों में भ्रमण करते रहे जो शीतल, मन्द तथा सुगन्ध वायु से अधिक सुन्दर होकर कामेच्छा को उद्वेलित करने वाली थी। इन घाटियों में देवताओं का धनपति कुबेर सुन्दरियों से घिरा रहकर और सिद्धों द्वारा प्रशंसित होकर आनन्द लाभ उठाता है। कर्दम मुनि भी अपनी पत्नी तथा उन सुन्दर कन्याओं से घिरे हुए वहाँ गये और अनेक वर्षों तक सुख-भोग किया।

40 अपनी पत्नी से संतुष्ट होकर वे उस विमान में न केवल मेरु पर्वत पर ही वरन वौश्रंभक, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्रक तथा चैत्ररथ्या में और मानसरोवर के तट पर भी विहार करते रहे।

41 वे रास्ते में विभिन्न लोकों से होकर उसी तरह यात्रा करते रहे जिस प्रकार वायु प्रत्येक दिशा में अबाध रूप से चलती रहती है। उसी महान तथा कान्तिमान हवाई-प्रासाद में, जो उनकी इच्छानुसार उड़ सकता था, बैठकर वे देवताओं से बाजी मार ले गये।

42 जिन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के चरण-कमलों की शरण प्राप्त कर ली है उन दृढ़प्रतिज्ञ मनुष्यों के लिए कौन सी वस्तु दुर्लभ है? उनके चरण तो गंगा जैसी पवित्र नदी के उदगम हैं, जिनसे सांसारिक जीवन के समस्त अनिष्ट दूर हो जाते हैं।

43 अपनी पत्नी को अनेक आश्चर्यों से पूर्ण ब्रह्माण्ड गोलक तथा इसकी रचना दिखलाकर परमयोगी कर्दम मुनि अपने आश्रम को लौट आये।

44 अपने आश्रम लौटने पर उन्होंने मनु की पुत्री देवहूति के सुख के लिए, जो रति सुख के लिए अत्यधिक उत्सुक थी, अपने आपको नौ रूपों में विभक्त कर लिया। इस प्रकार उन्होंने उसके साथ अनेक वर्षों तक विहार किया, जो एक क्षण के समान व्यतीत हो गये।

45 उस विमान में, देवहूति अपने पति के साथ उत्कृष्ट एवं कामेच्छा बढ़ाने वाली सेज में स्थित रह कर जान भी न पाई कि कितना समय कैसे बीत गया।

46 रति सुख के उत्कट इच्छुक पति-पत्नी योग शक्तियों के बल पर विहार करते रहे और एक सौ वर्ष अल्प काल के समान व्यतीत हो गये।

47 शक्तिमान कर्दम मुनि सबों के मन की बात जानने वाले थे और जो कुछ माँगे उसे वही प्रदान कर सकते थे। आत्मा के ज्ञाता होने के कारण वे देवहूति को अपनी अर्धांगिनी मानते थे। उन्होंने अपने आपको नौ रूपों में विभक्त किया।

48 उसके तुरन्त बाद उसी दिन देवहूति ने नौ कन्याओं को जन्म दिया जिनके अंग अंग सुन्दर थे और उनसे लाल कमल की सी सुगन्धी निकल रही थी।

49 जब उसने देखा कि उसके पति गृह-त्याग करने ही वाले हैं, तो वह बाहर से हँसी, किन्तु हृदय में अत्यन्त विकल और सन्तप्त थी।

50 वह खड़ी थी और मणितुल्य नाखूनों से मण्डित अपने पैर से पृथ्वी को कुरेद रही थी। उसका सिर झुका था और वह अपने आँसुओं को रोककर धीरे-धीरे मोहक वाणी से बोली।

51 देवहूति ने कहा: हे स्वामी, आपने जितने वचन दिये थे वे सब पूर्ण हुए, किन्तु मैं आपकी शरणागत हूँ इसलिए मुझे अभयदान भी दें।

52 हे ब्राह्मण, जहाँ तक आपकी पुत्रियों का प्रश्न है, वे स्वयं ही अपने योग्य वर ढूँढ लेंगी और अपने अपने घर चली जाएँगी। किन्तु आपके संन्यासी होकर चले जाने पर मुझे कौन सान्त्वना देगा?

53 अभी तक हमने अपना सारा समय परमेश्वर के ज्ञान के अनुशीलन की उपेक्षा करके इन्द्रियतृप्ति में ही व्यर्थ गँवाया है।

54 आपकी दिव्य स्थिति (पद) से परिचित न होने के कारण ही मैं इन्द्रियों के विषयों में लिप्त रह कर आपको प्यार करती रही। तो भी मैंने आपके लिए जो आकर्षण (अनुराग) उत्पन्न कर लिया है, वह मेरे समस्त भय को दूर करे।

55 इन्द्रियतृप्ति हेतु संगति निश्चय ही बन्धन का मार्ग है। किन्तु जब वही संगति किसी साधु पुरुष से की जाती है, तो भले ही वह अनजाने में की जाय, मुक्ति के मार्ग पर ले जाने वाली है।

56 जिस पुरुष के कर्म से न तो धार्मिक जीवन का उत्कर्ष होता है, न जिसके धार्मिक विधि-विधानों से उसे वैराग्य प्राप्त हो पाता है और वैराग्य प्राप्त पुरुष यदि श्रीभगवान की भक्ति को प्राप्त नहीं होता, तो उसे जीवित होते हुए भी मृत मानना चाहिए।

57 हे स्वामी, मैं निश्चित रूप से श्रीभगवान की अलंघ्य माया द्वारा बुरी तरह से ठगी हुई हूँ, क्योंकि भवबन्धन से मुक्ति दिलाने वाली आपकी संगति में रह कर भी मैंने मुक्ति की चाहत नहीं की।

स्व कर्मणा तमभ्यर्चया – मनुष्य को चाहिए कि अपने धनधान्य से वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करने का प्रयत्न करे।

भगवान की सेवा करने के अनेक प्रकार हैं और कोई भी व्यक्ति अपनी सामर्थ्य भर भगवान की सेवा कर सकता है।”

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बाईस – कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय (3.22)

1 श्रीमैत्रेय ने कहा : सम्राट के अनेक गुणों तथा कार्यों की महानता का वर्णन करने के पश्चात मुनि शान्त हो गये और राजा ने संकोचवश उन्हें इस प्रकार से सम्बोधित किया।

2 मनु ने कहा: वेदस्वरूप ब्रह्मा ने वैदिक ज्ञान के विस्तार हेतु अपने मुख से आप जैसे ब्राह्मणों को उत्पन्न किया है, जो तप, ज्ञान तथा योग से युक्त और इन्द्रियतृप्ति से विमुख हैं।

3 ब्राह्मणों की रक्षा के लिए सहस्र-पाद विराट पुरुष ने हम क्षत्रियों को अपनी सहस्र भुजाओं से उत्पन्न किया। अतः ब्राह्मणों को उनका हृदय और क्षत्रियों को उनकी भुजाएँ कहते हैं।

4 इसीलिए ब्राह्मण तथा क्षत्रिय एक दूसरे की और साथ ही स्वयं की रक्षा करते हैं। कार्य-कारण रूप तथा निर्विकार होकर भगवान स्वयं एक दूसरे के माध्यम से उनकी रक्षा करते हैं।

5 अब आपके दर्शन मात्र से मेरे सारे सन्देह दूर हो चुके हैं, क्योंकि आपने कृपापूर्वक अपनी प्रजा की रक्षा के लिए उत्सुक राजा के कर्तव्य की सुस्पष्ट व्याख्या की है।

6 यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन हो सके क्योंकि जिन लोगों ने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में नहीं किया उन्हें आपके दर्शन दुर्लभ हैं। मैं आपके चरणों की धूलि को सिर से स्पर्श करके और भी कृतकृत्य हुआ हूँ।

7 सौभाग्य से मुझे आपके द्वारा उपदेश प्राप्त हुआ है और इस प्रकार आपने मेरे ऊपर महती कृपा की है। मैं भगवान को धन्यवाद देता हूँ कि मैं अपने कान खोलकर आपके विमल शब्दों को सुन रहा हूँ।

8 हे मुनि, कृपापूर्वक मुझ दीन की प्रार्थना सुनें, क्योंकि मेरा मन अपनी पुत्री के स्नेह से अत्यन्त उद्विग्न है।

9 मेरी पुत्री प्रियव्रत तथा उत्तानपाद की बहन है। वह आयु, शील, गुण आदि में अपने अनुकूल पति की तलाश में है।

10 जब से इसने नारद मुनि से आपके उत्तम चरित्र, विद्या, रूप, वय (आयु) तथा अन्य गुणों के विषय में सुना है तब से यह अपना मन आपमें स्थिर कर चुकी है।

11 अतः हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप इसे स्वीकार करें, क्योंकि मैं इसे श्रद्धापूर्वक अर्पित कर रहा हूँ। यह सभी प्रकार से आपकी पत्नी होने और आपकी गृहस्थी के कार्यों को चलाने में सर्वथा योग्य है।

12 स्वतः प्राप्त होने वाली भेंट का निरादर नितान्त विरक्त पुरुष के लिए भी प्रशंसनीय नहीं है, फिर विषयासक्त के लिए तो कहना ही क्या है।

13 जो स्वतः प्राप्त भेंट का पहले अनादर करता है और बाद में कंजूस से वर माँगता है, वह अपने विस्तीर्ण यश को खो देता है और अन्यों द्वारा अवमानना से उसका मान भंग होता है।

14 स्वायम्भुव मनु ने कहा: हे विद्वान, मैंने सुना है कि आप ब्याह के इच्छुक हैं। कृपया मेरे द्वारा दान में दी जाने वाली (अर्पित) कन्या को स्वीकार करें, क्योंकि आपने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं ले रखा है।

15 महामुनि ने उत्तर दिया: निस्सन्देह मैं विवाह का इच्छुक हूँ और आपकी कन्या ने न किसी से विवाह किया है और न ही किसी दूसरे को वचन दिया है। अतः वैदिक पद्धति के अनुसार हम दोनों का विवाह हो सकता है।

16 आप अपनी पुत्री की, वेदों द्वारा स्वीकृत विवाह-इच्छा की पूर्ति करें। उसको कौन नहीं ग्रहण करना चाहेगा? वह इतनी सुन्दर है कि उसकी शारीरिक कान्ति ही उसके आभूषणों की सुन्दरता को मात कर रही है।

17 मैंने सुना है कि आपकी कन्या को महल की छत पर गेंद खेलते हुए देखकर महान गन्धर्व विश्वासु मोहवश अपने विमान से गिर पड़ा, क्योंकि वह अपने नूपुरों की ध्वनि तथा चंचल नेत्रों के कारण अत्यन्त सुन्दरी लग रही थी।

18 ऐसा कौन है, जो स्त्रियों में शिरोमणि, स्वायम्भुव मनु की पुत्री और उत्तानपाद की बहन का समादर नहीं करेगा? जिन लोगों ने कभी श्रीलक्ष्मी जी के चरणों की पूजा नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन तक नहीं हो सकता, फिर भी यह स्वेच्छा से मेरी अर्धांगिनी बनने आई है।

19 अतः इस कुँवारी को मैं अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करूँगा, किन्तु इस शर्त के साथ कि जब यह गर्भ धारण कर चुकेगी तो मैं परम सिद्ध पुरुषों के समान भक्ति-योग को स्वीकार करूँगा। इस विधि को भगवान विष्णु ने बताया है और यह द्वेष रहित है।

20 मेरे लिए तो सर्वोच्च अधिकारी अनन्त श्रीभगवान हैं जिनसे यह विचित्र सृष्टि उद्भूत होती है और जिन पर इसका भरण तथा विलय आश्रित है। वे उन समस्त प्रजापतियों के मूल हैं, जो इस संसार में जीवात्माओं को उत्पन्न करने वाले महापुरुष हैं।

21 श्री मैत्रेय ने कहा: हे योद्धा विदुर, कर्दम मुनि ने केवल इतना ही कहा और कमलनाभ पूज्य भगवान विष्णु का चिन्तन करते हुए वह मौन हो गये। वे उसी मौन में हँस पड़े जिससे उनके मुखमण्डल पर देवहूति आकृष्ट हो गई और वह मुनि का ध्यान करने लगी।

22 रानी (शतरूपा) तथा देवहूति दोनों के दृढ़ संकल्प को स्पष्ट रूप से जान लेने पर सम्राट (मनु) ने अपनी पुत्री को समान गुणों से युक्त मुनि कर्दम को अर्पित कर दिया।

23 महारानी शतरूपा ने वर-वधू (बेटी-दामाद) को प्रेमपूर्वक अवसर के अनुकूल अनेक बहुमूल्य भेंटे, यथा आभूषण, वस्त्र तथा गृहस्थी की वस्तुएँ प्रदान कीं।

24 इस प्रकार अपनी पुत्री को योग्य वर को प्रदान करके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होकर स्वायम्भुव मनु का मन वियोग के कारण विचलित हो उठा और उन्होंने अपनी प्यारी पुत्री को दोनों बाहों में भर लिया।

25 सम्राट अपनी पुत्री के वियोग को न सह सके, अतः उनके नेत्रों से बारम्बार अश्रु झरने लगे और उनकी पुत्री का सिर भीग गया। वे विलख पड़े 'मेरी माता, मेरी प्यारी बेटी।'

26-27 तब महर्षि से आज्ञा लेते हुए और उनकी अनुमति पाकर राजा अपनी पत्नी के साथ रथ में सवार हुआ और अपने सेवकों सहित अपनी राजधानी के लिए चल पड़ा। रास्ते भर वे साधु पुरुषों के लिए अनुकूल सरस्वती नदी के दोनों ओर सुहावने तटों पर उनके शान्त एवं सुन्दर आश्रमों की समृद्धि को देखते रहे।

28 राजा का आगमन जानकर उनकी प्रजा अपार प्रसन्नता से ब्रह्मावर्त से बाहर निकल आई और वापस आते हुए अपने राजा का गीतों, स्तुतियों तथा वाद्य संगीत से सम्मान किया।

29-30 सभी प्रकार की सम्पदा में धनी बर्हिष्मति नगरी का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि जब भगवान ने अपने आपको वराह रूप में प्रकट किया, तो भगवान विष्णु का बाल (रोम) उनके शरीर से नीचे गिर पड़ा। जब उन्होंने अपना शरीर हिलाया तो जो बाल नीचे गिरा वह सदैव हरे भरे रहने वाले उन कुश तथा काँस में बदल गया जिनके द्वारा ऋषियों ने भगवान विष्णु की तब पूजा की थी जब उन्होंने यज्ञों को सम्पन्न करने में बाधा डालने वाले असुरों को हराया था।

31 मनु ने कुश तथा काँस की बनी आसनी बिछाई और श्रीभगवान की अर्चना की जिनकी कृपा से उन्हें पृथ्वी मण्डल का राज्य प्राप्त हुआ था।

32 जिस बर्हिष्मति नगरी में मनु पहले से रहते थे उसमें प्रवेश करने के पश्चात वे अपने महल में गए जो सांसारिक त्रय-तापों को नष्ट करने वाले वातावरण से परिव्याप्त था।

33 स्वायम्भुव मनु अपनी पत्नी तथा प्रजा सहित जीवन का आनन्द उठाते रहे और उन्होंने धर्म के विरुद्ध अवांछित नियमों से विचलित हुए बिना अपनी इच्छाओं की पूर्ति की। गन्धर्वगण अपनी भार्याओं सहित सम्राट की कीर्ति का गान करते और सम्राट प्रतिदिन उषाकाल में अत्यन्त प्रेमभाव से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की लीलाओं का श्रवण करते थे।

34 इस प्रकार स्वायम्भुव मनु साधु-सदृश राजा थे। भौतिक सुख में लिप्त रहकर भी वे निम्नकोटि के जीवन की ओर आकृष्ट नहीं थे, क्योंकि वे निरन्तर कृष्णभावनामृत के वातावरण में भौतिक सुख का भोग कर रहे थे।

35 फलतः धीरे-धीरे उनके जीवन का अन्त-समय आ पहुँचा आया; किन्तु उनका दीर्घ जीवन, जो मन्वन्तर कल्प से युक्त है, व्यर्थ नहीं गया क्योंकि वे सदैव भगवान की लीलाओं के श्रवण, चिन्तन, लेखन तथा कीर्तन में व्यस्त रहे।

36 उन्होंने निरन्तर वासुदेव का ध्यान करते और उन्हीं का गुणानुवाद करते इकहत्तर चतुर्युग (71x43,20,000 = 30,67,20,000 तीस करोड़ सतसठ लाख बीस हजार वर्ष) पूरे किए। इस प्रकार उन्होंने तीनों लक्ष्यों को पार कर लिया।

37 अतः हे विदुर, जो व्यक्ति भगवान कृष्ण के शरणागत हैं, भला वे किस प्रकार शरीर, मन, प्रकृति, अन्य मनुष्यों तथा जीवित प्राणियों से सम्बन्धित कष्टों में पड़ सकते हैं।

38 कुछ मुनियों के पूछे जाने पर उन्होंने (स्वायम्भुव मनु ने) समस्त जीवों पर दया करके मनुष्य के सामान्य पवित्र कर्तव्यों तथा वर्णों और आश्रमों का उपदेश दिया।

39 मैंने तुमसे आदि सम्राट स्वायम्भुव मनु के अद्भुत चरित्र का वर्णन किया। उनकी ख्याति वर्णन के योग्य है। अब ध्यान से उनकी पुत्री देवहूति के अभ्युदय का वर्णन सुनो।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इक्कीस – मनु-कर्दम संवाद (3.21)

1 विदुर ने कहा: स्वायम्भुव मनु की वंश परम्परा अत्यन्त आदरणीय थी। हे पूज्य ऋषि, मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस वंश का वर्णन करें जिसकी सन्तति-वृद्धि मैथुनधर्म के द्वारा हुई।

2 स्वायम्भुव मनु के दो पुत्रों--प्रियव्रत तथा उत्तानपाद--ने धार्मिक नियमानुसार सप्त द्वीपों वाले इस संसार पर राज्य किया।

3 हे पवित्र ब्राह्मण, हे पापविहीन पुरुष, आपने उनकी पुत्री के विषय में कहा है कि वे प्रजापति ऋषि कर्दम की पत्नी देवहूति थीं।

4 उस महायोगी ने, जिसे अष्टांग योग के सिद्धान्तों में सिद्धि प्राप्त थी, इस राजकुमारी से कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं? कृपा करके आप मुझे यह बताएँ, क्योंकि मैं इसे सुनने का इच्छुक हूँ।

5 हे ऋषि, कृपा करके मुझे बताएँ कि ब्रह्मा के पुत्र दक्ष तथा रुचि ने स्वायम्भुव मनु की अन्य दो कन्याओं को पत्नी रूप में प्राप्त करके किस प्रकार सन्तानें उत्पन्न कीं?

6 महान ऋषि मैत्रेय ने उत्तर दिया -- भगवान ब्रह्मा से लोकों में सन्तान उत्पन्न करने का आदेश पाकर पूज्य कर्दम मुनि ने सरस्वती नदी के तट पर दस हजार वर्षों तक तपस्या की।

7 समाधिकाल में कर्दम मुनि ने समाधि में अपनी भक्ति द्वारा शरणागतों को तुरन्त समस्त वर देने वाले श्रीभगवान की आराधना की।

8 तब सत्य-युग में कमल-नयन पूर्ण पुरषोत्तम भगवान ने प्रसन्न होकर कर्दम मुनि को अपने दिव्य रूप का दर्शन कराया, जिसे वेदों के माध्यम से ही जाना जा सकता है।

9 कर्दम मुनि ने भौतिक कल्मष से रहित, सूर्य के समान तेजमय, श्वेत कमलों तथा कुमुदिनियों की माला पहने श्रीभगवान के नित्य रूप का दर्शन किया। भगवान ने निर्मल पीला रेशमी वस्त्र धारण कर रखा था और उनका मुख-कमल घुँघराले नीले चिकने बालों के गुच्छों से सुशोभित था।

10 मुकुट तथा कुण्डलों से आभूषित श्रीभगवान अपने तीन हाथों में अपने विशिष्ट शंख, चक्र तथा गदा और चौथे में श्वेत कुमुदिनी धारण किये हुए थे। उन्होंने प्रसन्न तथा हासयुक्त मुद्रा में समस्त भक्तों के चित्त को चुराने वाली चितवन से देखा।

11 अपने वक्षस्थल पर सुनहरी रेखा धारण किये तथा अपने गले में प्रसिद्ध कौस्तुभमणि लटकाये हुए वे गरुड़ के कन्धों पर अपने चरणकमल रखे हुए आकाश (वायु) में खड़े थे।

12 जब कर्दम मुनि ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का साक्षात दर्शन किया, तो वे अत्यधिक तुष्ट हुए, क्योंकि उनकी दिव्य इच्छा पूर्ण हुई थी। वे भगवान के चरणकमलों को नमस्कार करने के लिए नतमस्तक होकर पृथ्वी पर लेट गये। उनका हृदय स्वाभाविक रूप में भगवत्प्रेम से पूरित था। उन्होंने हाथ जोड़कर स्तुतियों द्वारा भगवान को तुष्ट किया।

13 कर्दम मुनि ने कहा: हे परम पूज्य भगवान, समस्त अस्तित्वों के आगार आपका दर्शन प्राप्त करके मेरी दर्शन की साध पूरी हो गई। महान योगीजन बारम्बार जन्म लेकर गहन ध्यान में आपके दिव्य रूप का दर्शन करने की आकांक्षा करते रहते हैं।

14 आपके चरण-कमल सांसारिक अज्ञान के सागर को पार करने के लिए सच्चे पोत (नाव) के तुल्य हैं। माया के वशीभूत केवल अज्ञानी पुरुष ही इन चरणों की पूजा इन्द्रियों के क्षुद्र तथा क्षणिक सुख की प्राप्ति हेतु करते हैं जिनकी प्राप्ति नरक में सड़ने वाले व्यक्ति भी कर सकते हैं। तो भी, हे भगवान, आप इतने दयालु हैं कि उन पर भी आप अनुग्रह करते हैं।

15 अतः मैं भी ऐसी समान स्वभाव वाली कन्या से विवाह करने की इच्छा लेकर आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ, जो मेरे विवाहित जीवन में मेरी कामेच्छाओं को पूरा करने में कामधेनु के समान सिद्ध हो सके। आपके चरण प्रत्येक वस्तु के देने वाले हैं, क्योंकि आप कल्पवृक्ष के समान हैं।

16 हे भगवान, आप समस्त जीवात्माओं के स्वामी तथा नायक हैं। आपके आदेश से सभी बद्धजीव मानो डोरी से बँधकर अपनी-अपनी इच्छाओं की तुष्टि में निरन्तर लगे रहते हैं। उन्हीं का अनुसरण करते हुए, हे धर्ममूर्ते, शाश्वत काल रूप आपको मैं भी अपनी आहुति (बलि) अर्पण करता हूँ।

17 फिर भी जिन पुरुषों ने रूढ़ सांसारिकता तथा इनके पशुतुल्य अनुयायियों का परित्याग कर दिया है और जिन्होंने परस्पर विचार विनिमय के द्वारा आपके गुणों तथा कार्यकलापों के मादक अमृत (सुधा) का पान करके आपके चरणकमलों की छत्र-छाया ग्रहण की है वे भौतिक देह की मूल आवश्यकताओं से मुक्त हो सकते हैं।

18 आपका तीन नाभिवाला (काल) चक्र अमर ब्रह्म की धुरी के चारों ओर घूम रहा है। इसमें तेरह तीलियाँ (अरे), 360 जोड़, छह परिधियाँ तथा उस पर अनन्त पत्तियाँ (पत्तर) पिरोयी हुई हैं। यद्यपि इसके घूमने से सम्पूर्ण सृष्टि की जीवन-अवधि घट जाती है, किन्तु यह प्रचण्ड वेगवान चक्र भगवान के भक्तों की आयु का स्पर्श नहीं कर सकता।

19 हे भगवान, आप अकेले ही ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं। हे श्रीभगवान, इन ब्रह्माण्डों की सृष्टि करने की इच्छा से, आप उनकी सृष्टि करते, उन्हें पालते और फिर अपनी शक्तियों से उनका अन्त कर देते हैं। ये शक्तियाँ आपकी दूसरी शक्ति योगमाया के अधीन हैं, जिस प्रकार एक मकड़ी अपनी शक्ति से जाला बुनती है और पुनः उसे निगल जाती है।

20 हे भगवान, इच्छा के न होते हुए भी आप स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों की इस सृष्टि को हमारी ऐन्द्रिय तुष्टि के लिए प्रकट करते हैं। आपकी अहैतुकी कृपा हमें प्राप्त हो, क्योंकि आप अपने नित्य रूप में तुलसीदल की माला से विभूषित होकर हमारे समक्ष प्रकट हुए हैं।

21 मैं आपके चरणकमलों में निरन्तर सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी शरण ग्रहण करना श्रेयस्कर है, क्योंकि आप अकिंचनों पर समस्त आशीर्वादों की वृष्टि करने वाले हैं। आपने इन भौतिक लोकों को अपनी ही शक्ति से विस्तार दिया है, जिससे समस्त जीवात्माएँ आपकी अनुभूति के द्वारा सकाम कर्मों से विरक्ति प्राप्त कर सकें।

22 मैत्रेय ने कहा: इन शब्दों से प्रशंसित होने पर गरुड़ के कन्धों पर अत्यन्त मनोहारी रूप से दैदीप्यमान भगवान विष्णु ने अमृत के समान मधुर शब्दों में उत्तर दिया। उनकी भौंहें ऋषि की ओर स्नेहपूर्ण हँसी से देखने के कारण चंचल हो रही थीं।

23 भगवान ने कहा: जिसके लिए तुमने आत्मा संयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे मन के उस भाव को पहले ही जानकर मैंने उसकी व्यवस्था कर दी है।

24 भगवान ने आगे कहा: हे ऋषि, हे जीवात्माओं के अध्यक्ष, जो लोग मेरी पूजा द्वारा भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, विशेष रूप से तुम जैसे पुरुष जिन्होंने अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर रखा है, उन्हें निराश होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

25 भगवान ब्रह्मा के पुत्र सम्राट स्वायम्भुव मनु जो अपने सुकृत्यों के लिए विख्यात हैं, ब्रह्मावर्त में स्थित होकर सात समुद्रों वाली पृथ्वी पर शासन करते हैं।

26 हे ब्राह्मण, धार्मिक कृत्यों में दक्ष सुप्रसिद्ध सम्राट अपनी पत्नी शतरूपा सहित तुम्हें देखने के लिए परसों यहाँ आएँगे।

27 उनके एक श्याम नेत्रों वाली तरुणी कन्या है। वह विवाह के योग्य है, वह उत्तम आचरण वाली तथा सर्वगुण सम्पन्न है। वह भी अच्छे पति की तलाश में है। महाशय, उसके माता-पिता तुम्हें देखने आएँगे। तुम उसके सर्वथा अनुरूप हो जिससे वे अपनी कन्या को तुम्हारी पत्नी के रूप में अर्पित कर देंगे।

28 हे ऋषि, वह राजकुमारी उसी प्रकार की होगी जिस प्रकार की तुम इतने वर्षों से अपने मन में सोचते रहे हो। वह शीघ्र ही तुम्हारी हो जाएगी और वह जी भर तुम्हारी सेवा करेगी।

29 वह तुम्हारा तेज धारण करके नौ पुत्रियाँ उत्पन्न करेगी और यथासमय इन कन्याओं से ऋषि सन्तानें उत्पन्न करेंगे।

30 मेरी आज्ञा का अच्छी तरह से पालन करने के कारण स्वच्छ हृदय होकर तुम अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पित करके अन्त में मुझे ही प्राप्त करोगे।

31 समस्त जीवों पर दया करते हुए तुम आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकोगे; फिर सबको अभयदान देकर अपने सहित सम्पूर्ण जगत को मुझमें और मुझको अपने में स्थित देखोगे।

32 हे ऋषि, मैं तुम्हारी नवों कन्याओं सहित तुम्हारी पत्नी देवहूति के माध्यम से अपने स्वांश को प्रकट करूँगा और उसे उस दर्शनशास्त्र (सांख्य दर्शन) का उपदेश दूँगा जो परम तत्त्वों या श्रेणियों से सम्बद्ध है।

33 मैत्रेय ने आगे कहा: इस प्रकार कर्दम मुनि से बातें करने के बाद, इन्द्रियों के कृष्ण-भावनामृत में लीन रहने पर प्रकट होने वाले भगवान उस बिन्दु नामक सरोवर से, जो सरस्वती नदी के द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ था, अपने लोक को चले गये।

34 खड़े हुए कर्दम मुनि के देखते-देखते भगवान, वैकुण्ठ जानेवाले मार्ग से प्रस्थान कर गये, जिस मार्ग की प्रशंसा सभी महान मुक्त आत्माएँ करती हैं। मुनि खड़े-खड़े, भगवान के वाहन गरुड़ के फड़फड़ाते पंखों से गुंजादित, सामवेद के मंगलाचरण जैसी लगने वाली ध्वनि को सुनते रह गये।

35 तब भगवान के चले जाने पर पूज्य साधु कर्दम भगवान द्वारा बताये उस समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दु सरोवर के तट पर ही ठहरे रहे।

36 स्वायम्भुव मनु अपनी पत्नी सहित स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित अपने रथ पर आरूढ़ हुए। अपनी पुत्री को भी उस पर चढ़ाकर वे समस्त भूमण्डल का भ्रमण करने लगे।

37 हे विदुर, वे मुनि की कुटी में पहुँचे, जिसने अपनी तपस्या का व्रत भगवान द्वारा पहले से बताये गये दिन ही समाप्त किया था।

38-39 सरस्वती नदी के बाढ़-जल से भरने वाले पवित्र बिन्दु सरोवर का सेवन ऋषियों का समूह करता था। इसका पवित्र जल न केवल कल्याणकारी था वरन अमृत के समान मीठा भी था। यह बिन्दु सरोवर कहलाता था क्योंकि यहीं पर जब भगवान शरणागत ऋषि पर दयार्द्र हो उठे थे, उनके नेत्रों से आँसुओं की बूँदें गिरी थीं।

40 सरोवर के तट पवित्र वृक्षों तथा लताओं के समूहों से घिरे थे, जो सभी ऋतुओं में फलों तथा फूलों से लदे रहते थे और जिनमें पवित्र पशु तथा पक्षी अपना-अपना बसेरा बनाते थे और विविध प्रकार से कूजन करते थे। यह स्थान वृक्षों के कुन्जों की शोभा से विभूषित था।

41 यह प्रदेश मतवाले पक्षियों के स्वर से प्रतिध्वनित था। मतवाले भौंरें मँडरा रहे थे, प्रमत्त मोर गर्व से नाच रहे थे और प्रमुदित कोयलें एक दूसरे को पुकार रही थीं।

42-43 बिन्दु-सरोवर कदम्ब, चम्पक, अशोक, करंज, वकूल, आसन, कुन्द, मन्दार, कुटज तथा नव-आम्र के पुष्पित वृक्षों से सुशोभित था। वायु कारण्डव, प्लव, हंस, कुररी, जलपक्षी, सारस, चक्रवाक तथा चकोर के कलरव से गुंजायमान थे।

44 इसके तटों पर हिरण, सूकर, साही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, शेर, बन्दर, नेवला तथा कस्तूरी मृगों की बहुलता थी।

45-47 उस पवित्र स्थान में आदि राजा स्वायम्भुव मनु अपनी पुत्री सहित प्रविष्ट हुए और उन्होंने जाकर देखा कि अभी-अभी पवित्र अग्नि में आहुति देकर वे मुनि अपने आश्रम में आसन लगाए थे। उनका शरीर अत्यन्त आभावान था। यद्यपि वे दीर्घ काल तक कठोर तपस्या में लगे हुए थे, किन्तु वे तनिक भी क्षीण नहीं थे, क्योंकि भगवान ने उन पर कृपा-कटाक्ष किया था और उन्होंने भगवान के चन्द्रमा के समान स्निग्ध अमृतमय शब्दों का पान किया था। मुनि लम्बे थे, उनकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं मानो कमल-दल हों और उनके सिर पर जटा-जूट था। वे चिथड़े पहने थे। स्वायम्भुव मनु उनके पास गए और उन्होंने देखा कि वे धूलधूसरित हैं मानो बिना तराशा हुआ कोई मणि हो।

48 राजा को अपने आश्रम में आकर प्रणाम करते देखकर उस मुनि ने आशीर्वाद देकर सत्कार किया और यथोचित सम्मान सहित उसका स्वागत किया।

49 मुनि से सम्मान पाकर राजा स्वायम्भुव मनु बैठ गए और शान्त बने रहे। तब भगवान के आदेशों का स्मरण करते हुए कर्दम मुनि अपनी मधुर वाणी से राजा को प्रमुदित करते हुए इस प्रकार बोले।

50 हे भगवान, आपका यह भ्रमण (यात्रा) निश्चित रूप से सज्जनों की रक्षा तथा असुरों के वध के उद्देश्य से सम्पन्न हुआ है, क्योंकि आप श्री हरि की रक्षक-शक्ति से समन्वित हैं।

51 जब भी आवश्यक होता है, आप सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म, वरुण का अंश धारण करते हैं। आप भगवान विष्णु के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं, अतः आपको सभी प्रकार से नमस्कार है।

52-54 यदि आप अपने विजयी रत्नजटित रथ पर जिसकी उपस्थिति मात्र से अपराधी भयभीत हो उठते हैं सवार न हों, यदि आप अपने धनुष की प्रचण्ड टनकार न करें और यदि आप तेजवान सूर्य की भाँति संसार भर में एक विशाल सेना लेकर विचरण न करें जिसके पदाघात से पृथ्वी मण्डल हिलने लगता है, तो स्वयं भगवान द्वारा बनाई गई समस्त वर्णों तथा आश्रमों की व्यवस्था चोरों तथा डाकुओं द्वारा छिन्न-भिन्न हो जाय।

55 यदि आप संसार की स्थिति के विषय में सोचना छोड़ दें (निश्चिन्त हो जाय) तो अधर्म बढ़ेगा, क्योंकि धन लोलुप व्यक्ति निर्द्वन्द्व हो जाएँगे। ऐसे दुराचारियों के आक्रमणों से यह संसार विनष्ट हो जाएगा।

56 तो भी, हे पराक्रमी राजा, मैं आपसे यहाँ आने का कारण पूछ रहा हूँ। वह चाहे जो भी हो, हम बिना हिचक के उसको पूरा करेंगे ।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय बीस – मैत्रेय – विदुर संवाद (3.20)

1 श्री शौनक ने पूछा- हे सूत गोस्वामी, जब पृथ्वी अपनी कक्षा में पुनः स्थापित हो गई तो स्वायम्भुव मनु ने बाद में जन्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को मुक्ति-मार्ग प्रदर्शित करने के लिए क्या-क्या किया?

2 शौनक ऋषि ने विदुर के बारे में जानना चाहा, जो भगवान कृष्ण का महान भक्त एवं सखा था और जिसने भगवान के लिए ही अपने उस ज्येष्ठ भाई का साथ छोड़ दिया था जिसने अपने पुत्रों के साथ मिलकर भगवान की इच्छा के विरुद्ध षड्यंत्र किया था।

3 विदुर वेदव्यास के आत्मज थे और उनसे किसी प्रकार से कम न थे। इस तरह उन्होंने पूर्ण मनोभाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों को स्वीकार किया और वे उनके भक्तों के प्रति अनुरक्त थे।

4 तीर्थस्थलों की यात्रा करने से विदुर सारी विषय वासना से शुद्ध हो गये। अन्त में वे हरद्वार पहुँचे जहाँ आत्मज्ञान के ज्ञाता एक महर्षि से उनकी भेंट हुई जिससे उन्होंने कुछ प्रश्न किये। अतः शौनक ऋषि ने पूछा कि मैत्रेय से विदुर ने और क्या-क्या पूछा?

5 शौनक ने विदुर तथा मैत्रेय के बीच होने वाले वार्तालाप के सम्बन्ध में प्रश्न किया कि भगवान की निर्मल लीलाओं के अनेक आख्यान रहे होंगे। ऐसे आख्यानों को सुनना गंगाजल में स्नान करने के सदृश है क्योंकि इससे सभी पाप-बन्धन छूट सकते हैं।

6 हे सूत गोस्वामी, आपका मंगल हो, कृपा करके भगवान के कार्यों को कह सुनाइये क्योंकि वे उदार एवं स्तुति के योग्य हैं। ऐसा कौन भक्त है, जो भगवान की अमृतमयी लीलाओं को सुनकर तृप्त हो जाये?

7 नैमिषारण्य के ऋषियों द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर रोमहर्षण के पुत्र सूत गोस्वामी ने, जिनका मन भगवान की दिव्य लीलाओं में लीन था, कहा: अब जो मैं कहता हूँ, कृपया उसे सुनें।

8 सूत गोस्वामी ने आगे कहा: भरत के वंशज विदुर भगवान की कथा सुन कर परम प्रफुल्लित हुए क्योंकि भगवान ने अपनी दैवी शक्ति से सूकर का रूप धारण करके पृथ्वी को समुद्र के गर्भ से खेल-खेल में ऊपर लाने (लीला) तथा हिरण्याक्ष को उदासीन भाव से मारने का कार्य किया था। फिर विदुर मैत्रेय से इस प्रकार बोले।

9 विदुर ने कहा: हे पवित्र मुनि, आप हमारी समझ में न आने वाले विषयों को भी जानते हैं, अतः मुझे यह बताएँ कि जीवों के आदि जनक प्रजापतियों को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्मा ने जीवों की सृष्टि के लिए क्या किया?

10 विदुर ने पूछा- प्रजापतियों (मरीचि तथा स्वायम्भुव मनु जैसे जीवों के आदि जनक) ने ब्रह्मा के आदेश के अनुसार किस प्रकार सृष्टि की और इस दृश्य जगत का किस प्रकार विकास किया?

11 क्या उन्होंने इस जगत की सृष्टि अपनी-अपनी पत्नियों के सहयोग से की अथवा वे स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करते रहे? या कि उन्होंने संयुक्त रूप से इसकी रचना की?

12 मैत्रेय ने कहा: जब प्रकृति के तीन तत्त्वों के सहयोग का सन्तुलन जीवात्मा की अदृश्य क्रियाशीलता, महाविष्णु तथा कालशक्ति के द्वारा विक्षुब्ध हुआ तो समग्र भौतिक तत्त्व (महत-तत्त्व) उत्पन्न हुए।

13 जीव के भाग्य (दैव) की प्रेरणा से रजोगुण प्रधान महत-तत्त्व से तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। फिर अहंकार से पाँच-पाँच तत्त्वों के अनेक समूह उत्पन्न हुए।

14 अलग-अलग रहकर ब्रह्माण्ड की रचना करने में असमर्थ होने के कारण वे परमेश्वर की शक्ति के सहयोग से संगठित हुए और फिर एक चमकीले अंडे का सृजन करने में सक्षम हुए।

15 यह चमकीला अंडा एक हजार वर्षों से भी अधिक काल तक अचेतन अवस्था में कारणार्णव के जल में पड़ा रहा। तब भगवान ने इसके भीतर गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश किया।

16 गर्भोदकशायी भगवान विष्णु की नाभि से हजार सूर्यों की दीप्ति सदृश प्रकाशमान एक कमल पुष्प प्रकट हुआ। यह कमल पुष्प समस्त बद्धजीवों का आश्रय है और इस पुष्प से प्रकट होने वाले पहले जीवात्मा सर्वशक्तिमान ब्रह्मा थे।

17 जब गर्भोदकशायी भगवान ब्रह्मा के हृदय में प्रवेश कर गये तो ब्रह्मा को बुद्धि आई और इस बुद्धि से उन्होंने ब्रह्माण्ड की पूर्ववत सृष्टि प्रारम्भ कर दी।

18 ब्रह्मा ने सबसे पहले अपनी छाया से बद्धजीवों के अज्ञान के आवरण (कोश) उत्पन्न किये। इनकी संख्या पाँच है और ये तामिस्र, अंध तामिस्र, तमस, मोह तथा महामोह कहलाते हैं।

19 क्रोध के कारण ब्रह्मा ने उस अविद्यामय शरीर को त्याग दिया। इस अवसर का लाभ उठाकर यक्ष तथा राक्षसगण उस रात्रि रूप में स्थित शरीर पर अधिकार जमाने के लिए कूद-फाँद मचाने लगे। रात्रि भूख तथा प्यास की स्रोत है।

20 भूख तथा प्यास से अभिभूत होकर वे चारों ओर से ब्रह्मा को खा जाने के लिए दौड़े और चिल्लाए, “उसे मत छोड़ो, उसे खा जाओ।"

21 देवताओं के प्रधान ब्रह्माजी ने घबराकर उनसे कहा, “मुझे खाओ नहीं, मेरी रक्षा करो। तुम मुझसे उत्पन्न हो और मेरे पुत्र हो चुके हो। अतः तुम लोग यक्ष तथा राक्षस हो।"

22 तब उन्होंने प्रमुख देवताओं की सृष्टि की जो सात्त्विक प्रभा से चमचमा रहे थे। उन्होंने देवताओं के समक्ष दिन का तेज फैला दिया जिस पर देवताओं ने खेल-खेल में ही अधिकार जमा लिया।

23 ब्रह्माजी ने अपने नितम्ब प्रदेश से असुरों को उत्पन्न किया जो अत्यन्त कामी थे। अत्यन्त कामलोलुप होने के कारण वे उनके निकट आ गये।

24 पहले तो पूज्य ब्रह्माजी उनकी मूर्खता पर हँसे, किन्तु उन निर्लज्ज असुरों को अपना पीछा करते देखकर वे क्रुद्ध हुए और भयभीत होकर हड़बड़ी में भागने लगे।

25 वे भगवान श्री हरि के पास पहुँचे जो समस्त वरों को देने वाले तथा अपने भक्तों एवं अपने चरणों की शरण ग्रहण करने वालों की पीड़ा को हरने वाले हैं। वे अपने भक्तों की तुष्टि के लिए असंख्य दिव्य रूपों में प्रकट होते हैं।

26 भगवान के पास जाकर ब्रह्माजी ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया--हे भगवान, इन पापी असुरों से मेरी रक्षा करें, जिन्हें आपकी आज्ञा से मैंने उत्पन्न किया था। ये विषय-वासना की भूख से क्रोधोन्माद में आकर मुझ पर आक्रमण करने आये हैं।

27 हे भगवान, केवल आप ही दुखियों के कष्ट दूर करने और आपके चरणों की शरण में न आने वालों को यातना देने में समर्थ हैं।

28 सबों के मनों को सपष्ट रूप से देख सकने वाले भगवान ने ब्रह्मा की वेदना समझ ली और वे उनसे बोले, “तुम अपना यह अशुद्ध शरीर त्याग दो।" भगवान से आदेश पाकर ब्रह्मा ने अपना शरीर त्याग दिया।

29 ब्रह्मा द्वारा परित्यक्त शरीर ने सन्ध्या का रूप धारण कर लिया जो काम को जगाने वाली दिन-रात की सन्धि वेला है। असुर जो स्वभाव से कामुक होते हैं और जिनमें रजोगुण का प्राधान्य होता है उसे सुन्दरी मान बैठे जिसके चरण-कमलों से नूपुरों की ध्वनि निकल रही थी, जिसके नेत्र मद से विस्तीर्ण थे और जिसका कटि भाग महीन वस्त्र से ढका था और जिस पर मेखला चमक रही थी।

30 उसकी नाक तथा दाँतों की बनावट सुन्दर थी, उसके होठों पर आकर्षक हँसी नाच रही थी और वह असुरों को क्रीड़ापूर्ण चितवन से देख रही थी।

31 काले-काले केशसमूह से विभूषित वह मानो लज्जावश अपने को छिपा रही थी। उस बाला को देखकर सभी असुर विषय-वासना की भूख से मोहित हो गये।

32 असुरों ने उसकी प्रशंसा की--अहा! कैसा रूप, कैसा अप्रतिम धैर्य, कैसा उभरता यौवन, हम कामपीड़ितों के बीच वह इस प्रकार विचर रही है मानो काम-भाव से सर्वथा रहित हो।

33 तरुणी स्त्री के रूप में प्रतीत होने वाली संध्या के विषय में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क करते हुए दुष्ट-बुद्धि असुरों ने उसका अत्यन्त आदर किया और उससे प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले।

34 हे सुन्दरी बाला, तुम कौन हो? तुम किसकी पत्नी या पुत्री हो और तुम हम सबों के समक्ष किस प्रयोजन से प्रकट हुई हो? हम अभागों को तुम अपने सौन्दर्य रूपी अमूल्य सामग्री से क्यों तरसा रही हो?

35-37 तुम चाहे जो भी हो, हम भाग्यशाली हैं कि तुम्हारा दर्शन कर रहे हैं। हे सुन्दरी, जब तुम धरती से उछलती गेंद को अपने हाथों से बार-बार मारती हो तो तुम्हारे चरण-कमल एक स्थान पर नहीं रुके रहते। तुम्हारी कमर थक जाती है और स्वच्छ दृष्टि मन्द पड़ जाती है। कृपया अपने सुन्दर बालों को ठीक से गूँथ तो लो। जिनकी बुद्धि पर पर्दा पड़ चुका है, ऐसे असुरों ने संध्या को हावभाव करने वाली आकर्षक सुन्दरी मानकर उसको पकड़ लिया।

38 तब गम्भीर भावपूर्ण हँसी हँसते हुए पूज्य ब्रह्मा ने अपनी कान्ति से, जो अपने सौन्दर्य का मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्वों व अप्सराओं के समूह को उत्पन्न किया।

39 तत्पश्चात ब्रह्मा ने वह चाँदनी सा दीप्तिमान तथा सुन्दर रूप त्याग दिया और विश्वावसु तथा अन्य गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक उसे अपना लिया।

40 तब पूज्य ब्रह्मा ने अपनी तन्द्रा से भूतों तथा पिशाचों को उत्पन्न किया, किन्तु जब उन्हें दिगम्बर एवं बिखरे बाल वाले देखा तो उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं।

41 जीवों के स्रष्टा ब्रह्मा द्वारा उस अँगड़ाई रूप में फेंके जाने वाले शरीर को, भूत-पिशाचों ने अपना लिया। इसी को निद्रा भी कहते हैं जिसमें लार चू जाती है। जो लोग अशुद्ध रहते हैं उन पर ये भूत-प्रेत आक्रमण करते हैं और उनका यह आक्रमण उन्माद (पागलपन) कहलाता है।

42 जीवात्माओं के स्रष्टा, पूज्य ब्रह्मा ने अपने आपको इच्छा तथा शक्ति से पूर्ण मानकर अपने अदृश्य रूप, अपनी नाभि, से साध्यों तथा पितरों के समूह को उत्पन्न किया।

43 पितृगण ने अपने अस्तित्व के स्रोत उस अदृश्य शरीर को स्वयं धारण कर लिया। इस अदृश्य शरीर के माध्यम से ही श्राद्ध के अवसर पर कर्मकाण्ड में पटु लोग साध्यों तथा पितरों (दिवंगत पूर्वजों के रूप में) को पिण्डदान करते हैं।

44 तब दृष्टि से अदृश्य रहने की अपनी क्षमता के कारण ब्रह्माजी ने सिद्धों तथा विद्याधरों को उत्पन्न किया और उन्हें अपना अन्तर्धान नामक विचित्र रूप प्रदान किया।

45 एक दिन समस्त जीवात्माओं के सृजक ब्रह्मा ने जल में अपनी परछाई देखी और आत्मप्रशंसा करते हुए उन्होंने उस प्रतिबिम्ब (परछाई) से किन्नरों तथा किम्पुरुषों की सृष्टि की।

46 किम्पुरुषों तथा किन्नरों ने ब्रह्मा द्वारा त्यक्त उस छाया-शरीर को ग्रहण कर लिया इसीलिए वे अपनी पत्नियों सहित प्रत्येक प्रातःकाल उनके कर्म का स्मरण करके उनकी प्रशंसा का गान करते हैं।

47 एक बार ब्रह्माजी अपने शरीर को पूरी तरह फैलाकर लेटे थे। वे अत्यधिक चिन्तित थे कि उनकी सृष्टि का कार्य आगे नहीं बढ़ रहा है, अतः उन्होंने रोष में आकर उस शरीर को भी त्याग दिया।

48 हे विदुर, उस शरीर से जो बाल गिरे वे सर्पों में परिणत हो गए। उनके हाथ-पैर सिकोड़ कर चलने से उस शरीर से क्रूर सर्प तथा नाग उत्पन्न हुए जिनके फण फैले हुए होते हैं।

49 एक दिन स्वयंजन्मा प्रथम जीवात्मा ब्रह्मा ने अनुभव किया कि उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य प्राप्त कर लिया है। उस समय उन्होंने अपने मन से मनुओं को उत्पन्न किया, जो ब्रह्माण्ड के कल्याण-कार्यों की वृद्धि करने वाले हैं।

50 आत्मवान स्रष्टा ने उन्हें अपना मानवी रूप दे दिया। मनुओं को देखकर, उनसे पूर्व उत्पन्न देवता, गन्धर्व आदि ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा की स्तुति करने लगे।

51 उन्होंने स्तुति की--हे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा, हम प्रसन्न हैं, आपने जो भी सृष्टि की है, वह सुन्दर है। चूँकि इस मानवी रूप में अनुष्ठान-कार्य पूर्णतया स्थापित हो चुके हैं, अतः हम हवि में साझा कर लेंगे।

52 फिर आत्म-भू जीवित प्राणी ब्रह्मा ने अपने आपको कठोर तप, पूजा, मानसिक एकाग्रता तथा भक्ति-तल्लीनता से सुसज्जित करके एवं निष्काम भाव से अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए महर्षियों को अपने पुत्रों (प्रजा) के रूप में उत्पन्न किया।

53 ब्रह्माण्ड के अजन्मा स्रष्टा (ब्रह्मा) ने इन पुत्रों में से प्रत्येक को अपने शरीर का एक-एक अंश प्रदान किया जो गहन चिन्तन, मानसिक एकाग्रता, नैसर्गिक शक्ति, तपस्या, पूजा तथा वैराग्य के लक्षणों से युक्त था।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय उन्नीस – असुर हिरण्याक्ष का वध (3.19)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: स्रष्टा ब्रह्मा के निष्पाप, निष्कपट तथा अमृत के समान मधुर वचनों को सुनकर भगवान जी भरकर हँसे और उन्होंने प्रेमपूर्ण चितवन के साथ उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

2 ब्रह्मा के नथुने से प्रकट भगवान उछले और सामने निर्भय होकर विचरण करने वाले असुर शत्रु हिरण्याक्ष की ठोड़ी पर उन्होंने अपनी गदा से प्रहार किया।

3 किन्तु असुर की गदा से टकराकर भगवान की गदा उनके हाथ से छिटक गई और घूमती हुई जब वह नीचे गिरी तो अत्यन्त मनोरम लग रही थी। यह अद्भुत दृश्य था, क्योंकि गदा विचित्र ढंग से प्रकाशमान थी।

4 यद्यपि हिरण्याक्ष को अपने निरस्त्र शत्रु पर बिना किसी रुकावट के वार करने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ था, किन्तु उसने युद्ध-धर्म का आदर किया जिससे कि श्रीभगवान का रोष बढ़ जाए।

5 ज्योंही भगवान की गदा भूमि पर गिर गई और देखने वाले देवताओं तथा ऋषियों के समूह में हाहाकार मच गया, त्योंही श्रीभगवान ने असुर की धर्मप्रियता की प्रशंसा की और फिर अपने सुदर्शन चक्र का आवाहन किया।

6 जब चक्र भगवान के हाथों में घूमने लगा और वे अपने वैकुण्ठवासी पार्षदों के मुखिया से, जो दिति के नीच पुत्र हिरण्याक्ष के रूप में प्रकट हुआ था, खेलने लगे तो अपने-अपने विमानों से देखने वाले देवता इत्यादि प्रत्येक दिशा से विचित्र-विचित्र शब्द निकालने लगे। उन्हें भगवान की वास्तविकता ज्ञात न थी, अतः वे उद्घोष करने लगे "आपकी जय हो, कृपा करके उसे मार डालें, अब उसके साथ अधिक खिलवाड़ न करें।"

7 जब असुर ने कमल की पंखड़ियों जैसे नेत्र वाले श्रीभगवान को सुदर्शन चक्र से युक्त अपने समक्ष खड़ा देखा तो क्रोध के मारे उसके अंग तिलमिला उठे। वह साँप की तरह फुफकारने लगा और अत्यन्त क्रोध में अपने ही होंठ चबाने लगा।

9 भयावनी दाढ़ों वाला वह असुर श्रीभगवान को इस प्रकार घूर रहा था मानो वह उन्हें भस्म कर देगा। उसने हवा में उछलकर भगवान पर अपनी गदा तानी और तभी जोर से चीखा, “तुम मारे जा चुके।"

9 हे साधु विदुर, समस्त यज्ञों की बलि के भोक्ता श्रीभगवान ने अपने सूकर रूप में अपने शत्रु के देखते-देखते, खेल-खेल में उसकी उस गदा को अपने बाएँ पाँव से नीचे गिरा दिया यद्यपि वह तूफान के वेग से उनकी ओर आ रही थी।

10 तब भगवान ने कहा,तुम अपना शस्त्र उठा लो और मुझे जीतने के इच्छुक हो तो पुनः प्रयत्न करो।" इन शब्दों से ललकारे जाने पर असुर ने अपनी गदा भगवान पर तानी और पुनः जोर से गरजा।

11 जब भगवान ने गदा को अपनी ओर आते देखा तो वे वहीं पर दृढ़तापूर्वक खड़े रहे और उसे अनायास उसी प्रकार पकड़ लिया जिस प्रकार पक्षीराज गरुड़ किसी सर्प को पकड़ ले।

12 इस प्रकार अपने पुरुषार्थ को व्यर्थ हुआ देखकर, वह महान असुर अत्यन्त लज्जित हुआ और उसका तेज जाता रहा। अब वह श्रीभगवान द्वारा लौटा दी जाने वाली गदा को ग्रहण करने में संकोच कर रहा था।

13 अब उसने प्रज्ज्वलित अग्नि के समान लपलपाता त्रिशूल निकाला और समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान पर फेंका, जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी पवित्र ब्राह्मण पर दुर्भावनावश अपनी तपस्या का प्रयोग करे।

14 उस परम योद्धा असुर के द्वारा पूरे बल से फेंका गया वह त्रिशूल आकाश में तेजी से चमक रहा था। किन्तु श्रीभगवान ने अपने तेज धार वाले सुदर्शन चक्र से उसके खण्ड-खण्ड कर दिये मानो इन्द्र ने गरुड़ के पंख काट दिए हो।

15 जब श्रीभगवान के चक्र से उसका त्रिशूल खण्ड-खण्ड हो गया तो असुर अत्यन्त क्रोधित हुआ। अतः वह भगवान की ओर लपका और तेज गर्जना करते हुए उनके चौड़े वक्षस्थल पर, जिस पर श्रीवत्स का चिन्ह था, अपनी कठोर मुष्टिका से प्रहार किया। फिर वह अदृश्य हो गया।

16 हे विदुर, असुर द्वारा इस प्रकार प्रहार किये जाने पर आदि वराह रूप भगवान के शरीर का कोई अंग तनिक भी हिला-डुला नहीं मानो किसी हाथी पर फूलों की माला से प्रहार किया गया हो।

17 किन्तु असुर ने योगेश्वर श्रीभगवान पर अनेक कपटपूर्ण चालों का प्रयोग किया। यह देखकर सभी लोग भयभीत हो उठे और सोचने लगे कि ब्रह्माण्ड का संहार निकट है।

18 सभी दिशाओं से प्रचण्ड वायु बहने लगी और धूल तथा उपलवृष्टि से अंधकार फैल गया, प्रत्येक दिशा से पत्थर गिरने लगे मानो वे मशीनगनों द्वारा फेंके जा रहे हों।

19 बिजली तथा गर्जना से युक्त आकाश में बादलों के समूह घिर आने से नक्षत्रगण विलुप्त हो गए। आकाश से पीब, बाल, रक्त, मल, मूत्र तथा हड्डियों की वर्षा होने लगी।

20 हे अनघ विदुर, पर्वतों से नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र निकलने लगे और त्रिशूल धारण किये हुए नग्न राक्षसिनियाँ अपने खुले केश लटकाते हुए प्रकट हो गई।

21 यक्षों तथा राक्षस आततायियों के समूह के समूह अत्यन्त क्रूर एवं अशिष्ट नारे लगा रहे थे, जिनमें से अनेक या तो पैदल थे, या घोड़े, हाथियों अथवा रथों पर सवार थे।

22 तब समस्त यज्ञों के भोक्ता श्रीभगवान ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा जो असुर द्वारा प्रदर्शित समस्त इन्द्रजाल की शक्तियों (मायाजाल) को तहस-नहस करने में समर्थ था।

23 उसी क्षण, हिरण्याक्ष की माता दिति के हृदय में सहसा एक थरथराहट हुई। उसे अपने पति कश्यप के वचनों का स्मरण हो आया और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा।

24 जब असुर ने देखा उसकी मायाशक्ति विलुप्त हो गई है, तो वह एक बार फिर श्रीभगवान केशव के सामने आया और उन्हें रौंद देने की इच्छा से तमतमाते हुए अपने बाहुओं में भर कर उनको जकड़ लेना चाहा। किन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने भगवान को अपने बाहु-पाश से बाहर खड़े देखा।

25 तब वह असुर भगवान को कठोर मुक्कों से मारने लगा किन्तु भगवान अधोक्षज ने उसकी कनपटी में उस तरह थप्पड़ मारा जिस प्रकार मरुतों के स्वामी इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था।

26 सर्वजेता भगवान ने यद्यपि अत्यन्त उपेक्षापूर्वक प्रहार किया था, किन्तु उससे असुर का शरीर चकराने लगा। उसकी आँखे बाहर निकल आई। उसके हाथ तथा पैर टूट गये, सिर के बाल बिखर गये और वह अंधड़ से उखड़े हुए विशाल वृक्ष की भाँति मृत होकर गिर पड़ा।

27 उस भूमि पर लेटे भयावने दाँतों वाले तथा अपने होंठों को काटते हुए उस असुर को देखने के लिए ब्रह्मा तथा अन्य देवता आ गये। उसके मुखमण्डल का तेज अब भी अमलिन था। ब्रह्मा ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ओह! ऐसी भाग्यशाली मृत्यु किसकी हो सकती है।

28 ब्रह्मा ने आगे कहा- योगीजन योगसमाधि में अपने मिथ्या भौतिक शरीरों से छूटने के लिए जिसका एकान्त में ध्यान करते हैं, उन श्रीभगवान के पादाग्र से इस पर प्रहार हुआ है। दिति के पुत्रों में शिरोमणि इसने भगवान का मुख देखते-देखते अपने मर्त्य शरीर का त्याग किया है।

29 भगवान के इन दोनों पार्षदों को शापवश असुर-परिवारों में जन्म लेना पड़ा। ऐसे कुछ जन्मों के पश्चात ये अपने-अपने स्थानों में लौट जायेंगे।

30 देवताओं ने भगवान को सम्बोधित करते हुए कहा: हम आपको नमस्कार करते हैं। आप समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं और आपने शुद्ध सात्विक भाव में विश्व की स्थिति बनाये रखने के लिए वराह रूप धारण किया है। यह हमारा सौभाग्य है कि समस्त लोकों को कष्ट देने वाला असुर आपके हाथों मारा गया और हे भगवान, अब हम आपके चरणकमलों की भक्ति करने के लिए स्वतंत्र हैं ।

31 श्री मैत्रेय ने आगे कहा: इस प्रकार अत्यन्त भयानक असुर हिरण्याक्ष को मारकर आदि वराह-रूप भगवान हरि अपने धाम वापस चले गये जहाँ निरन्तर उत्सव होता रहता है। ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं ने भगवान की प्रशंसा की।

32 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, मैंने तुम्हें कह सुनाया कि भगवान किस प्रकार प्रथम सूकर के रूप में अवतरित हुए और अद्वितीय शौर्य वाले असुर को महान युद्ध में मार डाला मानो वह कोई खिलौना रहा हो। मैंने अपने पूर्ववर्ती गुरु से इसे जिस रूप में सुना था, वह तुम्हें सुना दिया।

33 श्री सूत गोस्वामी ने आगे कहा: हे शौनक, मेरे प्रिय ब्राह्मण, भगवान के परम भक्त, क्षत्ता (विदुर) को कौषारव (मैत्रेय) मुनि के आधिकारिक स्रोत से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की लीलाओं का वर्णन सुनकर दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ और वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ।

34 मनुष्य चाहें तो अमर यश वाले भक्तों के कार्यकलापों को सुनकर आनन्द उठा सकते हैं, फिर श्रीवत्सधारी श्रीभगवान की लीलाओं के श्रवण का कहना ही क्या!

35 वह गजराज जिस पर मगरमच्छ ने आक्रमण कर दिया था और जिसने तब भगवान के चरणकमलों का ध्यान किया, उसे भगवान ने तुरन्त उबार लिया। उस समय उसके साथ की हथिनियाँ चिंघाड़ रही थीं, किन्तु भगवान ने आसन्न संकट से उनको बचा लिया।

36 ऐसा कौन कृतज्ञ जीव होगा जो श्रीभगवान जैसे परम स्वामी की प्रेमाभक्ति नहीं करना चाहेगा? वे विमल भक्तों पर, जो उन्हीं पर अपनी रक्षा के लिए आश्रित रहते हैं, सरलता से प्रसन्न हो जाते हैं, किन्तु किसी अनुचित व्यक्ति को उन्हें प्रसन्न कर पाने में कठिनाई होती है।

37 हे ब्राह्मणों जगत के उद्धार हेतु आदि सूकर रूप में प्रकट होने वाले भगवान द्वारा हिरण्याक्ष वध के इस अद्भुत आख्यान को जो कोई सुनता, गाता, या इसमें रस लेता है, वह ब्रह्महत्या जैसे पापमय कर्मों के फल से भी तुरन्त मुक्त हो जाता है।

38 यह परम पवित्र आख्यान (चरित्र) अद्वितीय यश, सम्पत्ति, ख्याति, आयुष्य तथा मनवांछित फल देने वाला है। युद्ध भूमि में यह मनुष्य के प्राणों तथा कर्मेन्द्रियों की शक्ति वर्धित करने वाला है। हे शौनक, जो अपने अन्तकाल में इसे सुनता है, वह भगवान के परम धाम को जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अठारह – भगवान वराह तथा असुर हिरण्याक्ष के मध्य युद्ध (3.18)

1 मैत्रेय ने आगे कहा : उस घमण्डी तथा अभिमानी दैत्य ने वरुण के शब्दों की तनिक भी परवाह नहीं की। हे विदुर, उसे नारद से श्रीभगवान के बारे में पता लगा और वह अत्यन्त वेग से समुद्र की गहराइयों में पहुँच गया।

2 वहाँ उसने सर्वशक्तिमान श्रीभगवान को उनके वराह रूप में, अपनी दाढ़ों के अग्रभाग पर पृथ्वी को ऊपर की ओर धारण किये तथा अपनी लाल लाल आँखों से उसके समस्त तेज को हरते हुए देखा। इस पर वह असुर हँस पड़ा और बोला, “ओह कैसा उभयचर पशु है?”

3 असुर ने भगवान को सम्बोधित करते हुए कहा: सूकर का रूप धारण किये हुए हे देवश्रेष्ठ, थोड़ा सुनिए तो। यह पृथ्वी हम अधोलोक के वासियों को सौंपी जा चुकी है, अतः तुम इसे मेरी उपस्थिति में मुझसे बचकर नहीं ले जा सकते।

4 हमारे शत्रुओं ने हमारे वध के लिए तुम्हें पाला है और तुमने अदृश्य रहकर कुछ असुरों को मार दिया है। तुम्हारी शक्ति केवल योगमाया है, अतः आज मैं तुम्हें मारकर अपने बन्धुओं का शोक दूर कर दूँगा।

5 असुर ने आगे कहा: जब मेरी भुजाओं से फेंकी गई गदा द्वारा तुम्हारा सिर फट जाएगा और तुम मर जाओगे तो वे देवता तथा ऋषि जो तुम्हें भक्तिवश नमस्कार करते तथा भेंट चढ़ाते हैं, स्वतः मृत हो जाएँगे जिस प्रकार बिना जड़ के वृक्ष नष्ट हो जाते हैं।

6 यद्यपि भगवान असुर के तीर सदृश बेधने वाले दुर्वचनों से अत्यन्त पीड़ित हुए थे, किन्तु उन्होंने इस पीड़ा को सह लिया। वे अपनी दाढ़ों के अग्रभाग पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर जल में से निकलकर उसी प्रकार बाहर आ गये जिस प्रकार घड़ियाल द्वारा आक्रमण किये जाने पर हाथी अपनी सहचरी हथिनी के साथ बाहर आ जाता है।

7 सुनहले बालों तथा भयावने दाँतों वाले उस असुर ने जल से निकलते हुए भगवान का उसी प्रकार पीछा किया जिस प्रकार कोई घड़ियाल हाथी का पीछा कर रहा हो। उसने बिजली के समान कड़क कर कहा, “क्या तुम अपने ललकारने वाले प्रतिद्वन्द्वी के समक्ष इस प्रकार भागते हुए लज्जित नहीं हुए हो?” निर्लज्ज प्राणियों के लिए कुछ भी निन्दनीय नहीं है।

8 भगवान ने पृथ्वी को लाकर जल की सतह पर अपनी दृष्टि के सामने रख छोड़ा और अपनी निजी शक्ति को उसमें स्थानान्तरित कर दिया जिससे वह जल पर तैरती रहे। शत्रु के देखते-देखते, ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और अन्य देवताओं ने उन पर फूलों की वर्षा की।

9 शरीर में प्रचुर आभूषण, कंकण तथा सुन्दर स्वर्णीय कवच धारण किये हुए वह असुर एक बड़ी सी गदा लिए भगवान का पीछा कर रहा था। भगवान ने उसके भेदने वाले दुर्वचनों को तो सहन कर लिया, किन्तु प्रत्युत्तर में उन्होंने अपना प्रचण्ड क्रोध व्यक्त किया।

10 भगवान ने कहा – सचमुच हम जंगल के प्राणी हैं और तुम जैसे ही शिकारी कुत्तों का हम पीछा कर रहे हैं। जो मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो चुका है, वह तुम्हारी आत्मश्लाघा से नहीं डरता, क्योंकि तुम मृत्यु-बन्धन के नियमों से बँधे हुए हो।

11 निस्सन्देह, मैंने रसातल – वासियों की धरोहर चुरा ली है और सारी शर्म खो दी है। यद्यपि तुम्हारी शक्तिशाली गदा से मुझे कष्ट हो रहा है, किन्तु मैं जल में कुछ काल तक और रहूँगा क्योंकि तुम जैसे पराक्रमी शत्रु से शत्रुता ठान कर अन्यत्र जाने के लिए मेरे पास कोई ठौर भी नहीं है।

12 तुम पैदल सेना के नायक की तरह हो अतः तुम शीघ्र ही हमें हराने का प्रयत्न करो। तुम अपनी बकवास बन्द कर दो और हमारा वध करके अपने सम्बन्धियों की चिन्ताओं को मिटा दो। कोई भले ही गर्वित हो, किन्तु यदि वह जो अपने दिये वचनों (प्रतिज्ञा) को पूरा नहीं कर पाता, सभा में आसन प्राप्त करने का पात्र नहीं है।

13 श्रीमैत्रेय ने कहा: जब श्रीभगवान ने उस राक्षस को इस प्रकार ललकारा तो वह क्रुद्ध और क्षुब्ध हुआ और क्रोध से इस प्रकार काँपने लगा, जिस प्रकार छेड़ा गया हुआ विषधर सर्प।

14 क्रोध के मारे सारे अंगों को कँपाते तथा फुफकारता हुआ वह राक्षस तुरन्त भगवान के ऊपर झपट पड़ा और उसने अपनी शक्तिशाली गदा से उन पर प्रहार किया।

15 किन्तु भगवान ने एक ओर सरक कर शत्रु द्वारा अपने वक्षस्थल पर चलाई गई गदा के प्रखर प्रहार को उसी प्रकार झुठला दिया जिस प्रकार सिद्ध योगी मृत्यु को चकमा दे देता है।

16 श्री भगवान अपना क्रोध प्रदर्शित करते हुए उस राक्षस की ओर झपटे जो क्रोध के कारण अपने होंठ चबा रहा था। उसने फिर से अपनी गदा उठाई और उसे बारम्बार घुमाने लगा।

17 तब भगवान ने अपनी गदा से शत्रु की दाहिनी भौंह पर प्रहार किया, किन्तु वह असुर युद्ध में कुशल था, इसलिए, हे भद्र विदुर, उसने अपनी गदा की चाल से अपने आपको बचा लिया।

18 इस प्रकार असुर हिरण्याक्ष तथा भगवान हरि ने एक दूसरे को जीतने की इच्छा से क्रुद्ध होकर अपनी अपनी विशाल गदाओं से एक-दूसरे पर प्रहार किया।

19 दोनों योद्धाओं में तीखी स्पर्धा थी, दोनों के शरीरों पर एक दूसरे की नुकीली गदाओं से चोटें लगी थीं और अपने-अपने शरीर से बहते हुए रक्त की गन्ध से वे अधिकाधिक क्रुद्ध हो चले थे। जीतने की उत्कण्ठा से वे तरह-तरह की चालें चल रहे थे और उनकी यह मुठभेड़ वैसी ही प्रतीत होती थी जैसे किसी गाय के लिए दो बलवान साँड लड़ रहे हों।

20 हे कुरुवंशी, वराह रूप में प्रकट श्री भगवान तथा असुर के मध्य विश्व के निमित्त होने वाले इस भयंकर युद्ध को देखने के लिए ब्रह्माण्ड के परम स्वतंत्र देवता ब्रह्मा अपने अनुयायियों सहित आये।

21 युद्धस्थल में पहुँचकर हजारों ऋषियों तथा योगियों के नायक ब्रह्माजी ने असुर को देखा, जिसने अभूतपूर्व शक्ति प्राप्त कर ली थी जिससे कोई भी उससे युद्ध नहीं कर सकता था। तब ब्रह्मा ने आदि सूकर रूप धारण करने वाले नारायण को सम्बोधित किया ।

22-23 ब्रह्माजी ने कहा: हे भगवन, यह राक्षस, देवताओं, ब्राह्मणों, गौवों तथा आपके चरणकमलों में समर्पित निष्कलुष व्यक्तियों के लिए निरन्तर चुभने वाला काँटा बना हुआ है। उन्हें अकारण सताते हुए यह भय का कारण बन गया है। मुझसे वरदान प्राप्त करने के कारण यह असुर बना है और समस्त भूमण्डल में अपनी जोड़ के योद्धा की तलाश में इस अशुभ कार्य के लिए घूमता रहता है।

24 ब्रह्माजी ने आगे कहा: हे भगवन, इस सर्पतुल्य असुर से खेल करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह सदैव मायावी करतब में दक्ष तथा अभिमानी है, साथ ही निरंकुश एवं अत्यधिक दुष्ट भी।

25 ब्रह्माजी ने आगे कहा: हे भगवान, आप अच्युत हैं। कृपा करके इस पापी असुर को इसके पूर्व कि आसुरी घड़ी आए और यह अपने अनुकूल दूसरा भयंकर शरीर धारण कर सके, आप इसका वध कर दें। निस्सन्देह आप इसे अपनी अन्तरंगा शक्ति से मार सकते हैं।

26 हे भगवन, संसार को आच्छादित करने वाली अत्यन्त अँधेरी सन्ध्या वेला निकट आ रही है चूँकि आप सभी आत्माओं के आत्मा हैं, अतः आप इसका वध करके देवताओं को विजयी बनाएँ।

27 विजय के लिए सर्वाधिक उपयुक्त अभिजित नामक शुभ मुहूर्त (घड़ी) का योग दोपहर से हो चुका है और अब बीतने ही वाला है, अतः अपने मित्रों के हित में आप इस दुर्जय शत्रु का अविलम्ब सफाया कर दें।

28 सौभाग्य से यह असुर स्वेच्छा से आपके पास आया है और आपके द्वारा ही इसकी मृत्यु विहित है, अतः आप इसे अपने ढंग से युद्ध में मारिये और लोकों में शान्ति स्थापित कीजिये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सत्रह – हिरण्याक्ष की दिग्विजय (3.17)

1 श्रीमैत्रेय ने कहा: विष्णु से उत्पन्न ब्रह्मा ने जब अंधकार का कारण कह सुनाया, तो स्वर्गलोक के निवासी देवता समस्त भय से मुक्त हो गये। इस प्रकार वे सभी अपने-अपने लोकों को वापस चले गये।

2 साध्वी दिति अपने गर्भ में स्थित सन्तानों से देवों के प्रति किये जाने वाले उपद्रव को लेकर अत्यधिक शंकालु थी और उसके पति ने भी यही भविष्यवाणी की थी। अतः उसने एक सौ वर्षों के गर्भकाल के पश्चात जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया।

3 दोनों असुरों के जन्म के समय स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक तथा इन दोनों के मध्य के लोकों में अनेक प्राकृतिक उपद्रव हुए जो अत्यन्त भयावने एवं विस्मयपूर्ण थे।

4 पृथ्वी पर पर्वत काँपने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो सर्वत्र अग्नि ही अग्नि हो। उल्काओं, पुच्छल तारों तथा वज्रों के साथ-साथ शनि जैसे अनेक अशुभ ग्रह दिखाई देने लगे।

5 बारम्बार साँय-साँय करती तथा विशाल वृक्षों को उखाड़ती हुई अत्यन्त दुस्सह-स्पर्शी हवाएँ बहने लगीं। उस समय अंधड़ उनकी सेनाएँ और धूल के मेघ ध्वजाएँ लग रही थीं।

6 आकाश के नक्षत्रों को मेघों की घटाओं ने घेर लिया और उनमें कभी कभी बिजली चमक जाती तो लगता मानो ज़ोर से हँस रही हो। चारों और अंधकार का राज्य था और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।

7 उत्ताल तरंगों से युक्त सागर मानो शोक में जोर जोर से विलाप कर रहा था और उसमें रहने वाले प्राणियों में हलचल मची थी। नदियाँ तथा सरोवर भी विक्षुब्ध हो उठे और कमल मुरझा गये।

8 सूर्य तथा चन्द्रमा के चारों ओर ग्रहण लगने के समय जैसे अमंगलसूचक मण्डल बार-बार दिखाई पड़ने लगे। बिना बादलों के गरजने की ध्वनि और पर्वत की गुफाओं से रथों जैसी घरघराहट सुनाई पड़ने लगी।

9 गाँवों के भीतर सियारिनें अपने मुखों से दहकती आग उगलती हुई अमंगल सूचक शब्द करने लगीं। इस रोने में सियार तथा उल्लू भी साथ हो लिये।

10 जहाँ तहाँ कुत्ते अपनी गर्दन ऊपर उठा उठाकर शब्द करने लगे मानो कभी वो गा रहे हों और कभी विलाप कर रहे हों।

11 हे विदुर, झुण्ड के झुण्ड गधे कठोर खुरों से पृथ्वी पर प्रहार करते हुए तथा जोर जोर से रेंकते हुए इधर उधर दौड़ने लगे।

12 गधों के रेंकने से भयभीत होकर पक्षी अपने घोसलों से निकलकर चीख चीख कर उड़ने लगे और गोशालाओं तथा जंगलों में पशु मल-मूत्र त्यागने लगे।

13 भयभीत होने के कारण गौवें दूध के स्थान पर रक्त देने लगीं, बादलों से पीब बरसने लगा, मन्दिरों में देवों के विग्रहों से आँसू निकलने लगे और वृक्ष बिना आँधी के ही गिरने लगे।

14 मंगल तथा शनि जैसे क्रूर ग्रह बृहस्पति, शुक्र तथा अनेक शुभ नक्षत्रों को लाँघकर तेजी से चमकने लगे। टेढ़े मेढ़े रास्तों में घूमने के कारण ग्रह आपस में टकराने लगे।

15 इस प्रकार के अनेक अपशकुनों को देखकर ब्रह्मा के चारों ऋषि-पुत्र जिन्हें जय तथा विजय के पतन एवं दिति के पुत्रों के रूप में जन्म लेने का ज्ञान था, उनके अतिरिक्त सभी लोग भयभीत हो उठे। उन्हें इन उत्पातों के मर्म का पता न था और वे सोच रहे थे कि ब्रह्माण्ड का प्रलय होने वाला है।

16 पुराकाल में प्रकट इन दोनों असुरों के शरीर में शीघ्र ही असामान्य लक्षण प्रकट होने लगे, उनके शारीरिक ढाँचे इस्पात के समान थे और वे दो विशाल पर्वतों के समान बढ़ने लगे।

17 उनके शरीर इतने ऊँचे हो गये कि उनके स्वर्ण-मुकुटों के शिखर मानो आकाश को चूम रहे हों। उनके कारण सभी दिशाएँ अवरुद्ध हो जाती थीं और जब वे चलते तो उनके प्रत्येक पग पर पृथ्वी हिलती थी। उनके बाहुओं में चमकीले बाजूबन्द सुशोभित थे। उनकी कमर में परम सुन्दर करधनियाँ बँधी थीं और जब वे खड़े होते तो ऐसा लगता मानो उनकी कमर से सूर्य ढक गया हो।

18 जीवात्माओं के स्रष्टा कश्यप ने अपने जुड़वाँ पुत्रों का नामकरण किया। जो पहले उत्पन्न हुआ उसका नाम उन्होंने हिरण्याक्ष रखा और जिसको दिति ने पहले गर्भ में धारण किया था उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा।

19 ज्येष्ठ पुत्र हिरण्यकशिपु को तीनों लोकों में किसी से भी अपनी मृत्यु का भय न था, क्योंकि उसे ब्रह्मा से वरदान प्राप्त हुआ था। इस वरदान के कारण यह अत्यन्त दम्भी तथा अभिमानी हो गया था और तीनों लोकों को अपने वश में करने में समर्थ था।

20 छोटा भाई हिरण्याक्ष अपने कार्यों से अपने अग्रज भ्राता को प्रसन्न रखने के लिए उद्यत रहता था। हिरण्यकशिपु को प्रसन्न रखने के उद्देश्य से ही उसने अपने कंधे पर गदा रखी और लड़ने की इच्छा से पूरे ब्रह्माण्ड में घूम आया।

21 हिरण्याक्ष के आवेग को नियंत्रण कर पाना कठिन था। उसके पैरों में सोने के नूपुरों की झनकार हो रही थी, उसके गले में विशाल माला सुशोभित थी और वह अपनी विशाल गदा को अपने एक कंधे पर धारण किये था।

22 उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्मा द्वारा प्राप्त वरदान ने उसे दम्भी बना दिया था। उसे न तो किसी से अपनी मृत्यु का भय था और न उस पर किसी का अंकुश था। अतः देवता उसे देखकर ही भयभीत हो उठते थे और अपने को उसी प्रकार छिपा लेते जिस तरह गरुड़ के भय से सर्प छिप जाते हैं।

23 पहले अपनी शक्ति के मद से चूर रहने वाले इन्द्र तथा अन्य देवताओं को अपने समक्ष न पाकर तथा यह देखकर कि उसकी शक्ति के सम्मुख वे सभी छिप गये हैं, उस दैत्यराज ने गम्भीर गर्जना की।

24 स्वर्गलोक से लौटने के बाद मतवाले हाथी के समान उस महाबली असुर ने भयानक गर्जना करते हुए गहरे समुद्र में क्रीड़ावश डुबकी लगाई।

25 समुद्र में उसके प्रवेश करते ही वरुण के सैनिक समस्त जलचर प्राणी डर गये और बहुत दूर भाग गये। इस प्रकार बिना वार किये ही हिरण्याक्ष ने अपनी धाक जमा ली।

26 हे विदुर, वह महाबली हिरण्याक्ष अनेकानेक वर्षों तक समुद्र में घूमता हुआ वायु से दोलायमान उत्ताल तरंगों पर अपनी लोहे की गदा से बारम्बार प्रहार करता हुआ वरुण की राजधानी विभावरी में जा पहुँचा।

27 विभावरी वरुण की पुरी है और वरुण समस्त जलचरों का स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के अधःक्षेत्रों का रक्षक है, जहाँ सामान्य रूप से असुर वास करते हैं। वहाँ पहुँचकर हिरण्याक्ष नीच पुरुष के समान वरुण के चरणों पर गिर पड़ा और उसकी हँसी उड़ाने के लिए उसने मुस्कुराते हुए कहा, “हे परमेश्वर, मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये।"

28 आप समस्त गोलक के रक्षक तथा अत्यन्त कीर्तिवान शासक हैं। आपने अहंकारी तथा मोहग्रस्त वीरों के दर्प को दल कर तथा इस संसार के सभी दैत्यों तथा दानवों को जीत कर भगवान के हेतु एक बार राजसूय यज्ञ सम्पन्न किया था।

29 अत्यन्त दम्भी शत्रु के द्वारा इस प्रकार उपहास किये जाने पर जल के पूज्य स्वामी को क्रोध तो आया, किन्तु तर्क के बल पर वे उस क्रोध को पी गये और उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया – हे प्रिय, युद्ध के लिए अत्यधिक बूढ़ा होने के कारण अब मैं युद्ध से दूर रहता हूँ।

30 तुम युद्ध में इतने कुशल हो कि मुझे भगवान विष्णु के अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखता, जो तुम्हें युद्ध में तुष्टि प्रदान कर सके। अतः हे असुरश्रेष्ठ, तुम उन्हीं के पास जाओ, जिनकी तुम जैसे योद्धा भी बढ़ाई करते हैं।

31 वरुण ने आगे कहा: उनके पास पहुँचते ही तुम्हारा सारा अभिमान दूर हो जाएगा और तुम युद्धभूमि में कुत्तों से घिरकर चिर निद्रा में सो जाओगे। तुम जैसे दुष्टों को मार भगाने तथा सत्पुरुषों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही वे वराह जैसे विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सोलह – वैकुण्ठ के दो द्वारपालों जय-विजय, को मुनियों द्वारा शाप (3.16)

1 ब्रह्माजी ने कहा: इस तरह मुनियों को उनके मनोहर शब्दों के लिए बधाई देते हुए भगवद्धाम में निवास करनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने इस प्रकार कहा ।

2 भगवान ने कहा: जय तथा विजय नामक मेरे इन परिचरों ने मेरी अवज्ञा करके आपके प्रति महान अपराध किया है ।

3 हे मुनियों, आप लोगों ने उन्हें जो दण्ड दिया है उसका मैं अनुमोदन करता हूँ, क्योंकि आप मेरे भक्त हैं।

4 मेरे लिए ब्राह्मण सर्वोच्च तथा सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति है। मेरे सेवकों द्वारा दिखाया गया अनादर वास्तव में मेरे द्वारा प्रदर्शित हुआ है, क्योंकि वे द्वारपाल मेरे सेवक हैं। इसे मैं अपने द्वारा किया गया अपराध मानता हूँ, इसलिए मैं घटी हुई इस घटना के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ।

5 किसी सेवक द्वारा किये गये गलत कार्य से सामान्य तौर पर लोग उसके स्वामी को दोष देते हैं जिस तरह शरीर के किसी भी अंग पर श्वेत कुष्ठ के धब्बे सारे चमड़ी को दूषित बना देते हैं।

6 सम्पूर्ण संसार में कोई भी व्यक्ति, यहाँ तक कि चण्डाल भी जो कुत्ते का मांस पका कर और खा कर जीता है, वह भी तुरन्त शुद्ध हो जाता है यदि वह मेरे नाम, यश आदि के गुणगान रूपी अमृत में कान से सुनते हुए स्नान करता है। अब आप लोगों ने निश्चित रूप से मेरा साक्षात्कार कर लिया है, अतएव मैं अपनी ही भुजा को काटकर अलग करने में तनिक संकोच नहीं करूँगा, यदि इसका आचरण आपके प्रतिकूल लगे।

7 भगवान ने आगे कहा: चूँकि मैं अपने भक्तों का सहायक हूँ, इसलिए मेरे चरणकमल इतने पवित्र बन चुके हैं कि वे तुरन्त ही सारे पापों को धो डालते हैं और मुझे ऐसा स्वभाव प्राप्त हो चुका है कि देवी लक्ष्मी मुझे छोड़ती नहीं, यद्यपि उसके प्रति मेरा कोई लगाव नहीं है और अन्य लोग उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हैं तथा उसकी रंचमात्र कृपा पाने के लिए भी पवित्र व्रत रखते हैं।

8 यज्ञाग्नि में, जो मेरे ही निजी मुखों में से एक है, यज्ञकर्ताओं के द्वारा डाली गई आहुतियों में मुझे उतना स्वाद नहीं मिलता जितना कि घी से सिक्त उन व्यंजनों से जो उन ब्राह्मणों के मुख में अर्पित किये जाते हैं जिन्होंने अपने कर्मों के फल मुझे अर्पित कर दिये हैं और जो मेरे प्रसाद से सदैव तुष्ट रहते हैं।

9 मैं अपनी अबाधित अन्तरंगा शक्ति का स्वामी हूँ तथा गंगा जल मेरे पाँवों को धोने से निकलता हुआ जल है। वही जल जिसे शिवजी अपने सिर पर धारण किए हुए हैं, उनको तथा तीनों लोकों को पवित्र करता है। यदि मैं वैष्णव के पैरों की धूल को अपने सिर पर धारण करूँ, तो मुझे ऐसा करने से कौन मना करेगा?

10 ब्राह्मण, गौवें तथा निस्सहाय प्राणी मेरे ही शरीर हैं। जिन लोगों की निर्णय शक्ति अपने पाप के कारण क्षतिग्रस्त हो चुकी है वे इन्हें मुझसे पृथक रूप में देखते हैं। वे क्रुद्ध सर्पों के समान हैं और वे पापी पुरुषों के अधीक्षक यमराज के गीध जैसे दूतों की चोचों से क्रोध में नोच डाले जाते हैं।

11 दूसरी ओर ऐसे लोग जो हृदय में पुलकित रहते हैं और अमृततुल्य हँसी से आलोकित अपने कमलमुखों से ब्राह्मणों द्वारा कटु वचन बोलने पर भी उनका आदर करते हैं, वे मुझे मोह लेते हैं। वे ब्राह्मणों को मुझ जैसा ही मानते हैं और प्रियवचनों से उनकी प्रशंसा करके उन्हें उसी तरह शान्त करते हैं जिस तरह पुत्र अपने क्रुद्ध पिता को प्रसन्न करता है या मैं तुम लोगों को शान्त कर रहा हूँ।

12 मेरे इन सेवकों ने अपने स्वामी के मनोभाव को न जानते हुए आपके प्रति अपराध किया है, इसलिए मैं इसे अपने प्रति किया गया अनुग्रह मानूँगा यदि आप यह आदेश दें कि वे मेरे पास शीघ्र ही लौट आयें तथा मेरे धाम से उनका निर्वासन-काल शीघ्र ही समाप्त हो जाय ।

13 ब्रह्मा ने आगे कहा: यद्यपि मुनियों को क्रोध रूपी सर्प ने डस लिया था, किन्तु उनकी आत्माएँ भगवान की उस मनोहर तथा तेजपूर्ण वाणी को सुनकर अघाई नहीं थीं जो वैदिक मंत्रों की शृंखला के समान थी।

14 भगवान की उत्कृष्ट वाणी इसके गहन आशय तथा इससे अत्यधिक गहन महत्व के कारण समझी जाने में कठिन थी। मुनियों ने उसे कान खोलकर सुना तथा उस पर मनन भी किया। किन्तु सुनकर भी वे यह नहीं समझ पाये कि भगवान क्या करना चाह रहे हैं।

15 तो भी चारों ब्राह्मण मुनि उन्हें देखकर अतीव प्रसन्न थे और उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीरों में रोमांच का अनुभव किया। तब उन भगवान से जिन्होंने अपनी योगमाया से परम पुरुष की बहुमुखी महिमा को प्रकट किया था, वे इस प्रकार बोले।

16 ऋषियों ने कहा: हे भगवन, हम यह नहीं जान पा रहे कि आप हमारे लिए क्या करना चाहते हैं, क्योंकि आप सबों के परम शासक होते हुए भी हमारे पक्ष में बोल रहे हैं मानो हमने आपके साथ कोई अच्छाई की हो।

17 हे प्रभु, आप ब्राह्मण संस्कृति के परम निदेशक हैं। ब्राह्मणों को सर्वोच्च पद पर आपके द्वारा माना जाना अन्यों को शिक्षा देने के लिए आपका उदाहरण है। वस्तुतः आप न केवल देवताओं के लिए, अपितु ब्राह्मणों के लिए भी परम पूज्य विग्रह हैं।

18 आप सारे जीवों की शाश्वत वृत्ति के स्रोत हैं और भगवान के नाना स्वरूपों द्वारा आपने सदैव धर्म की रक्षा की है। आप धार्मिक नियमों के परम लक्ष्य हैं और हमारे मत से आप अक्षय तथा शाश्वत रूप से अपरिवर्तनीय हैं।

19 भगवान की कृपा से योगीजन तथा अध्यात्मवादी समस्त भौतिक इच्छाओं को छोड़कर अज्ञान को पार कर जाते हैं। इसलिए यह सम्भव नहीं कि कोई परमेश्वर पर अनुग्रह कर सके।

20 जिनके चरणों की धूल अन्य लोग अपने सिरों पर धारण करते हैं, वही लक्ष्मीदेवी आपकी पूर्व निर्धारित सेवा में रहती हैं, क्योंकि वे उन भौंरों के राजा के धाम में स्थान सुरक्षित करने के लिए उत्सुक रहती हैं, जो आपके चरणों पर किसी धन्य भक्त के द्वारा अर्पित तुलसीदलों की ताजी माला पर मँडराता है।

21 हे प्रभु, आप अपने शुद्ध भक्तों के कार्यों के प्रति अत्यधिक अनुरक्त रहते हैं फिर भी आप उन लक्ष्मीजी से कभी अनुरक्त नहीं रहते जो निरन्तर आपकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगी रहती हैं। अतएव आप उस पथ की धूल द्वारा कैसे शुद्ध हो सकते हैं जिन पर ब्राह्मण चलते हैं, और अपने वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह के द्वारा आप किस तरह महिमामण्डित या भाग्यशाली बन सकते हैं?

22 हे प्रभु, आप साक्षात धर्म हैं। अतः आप तीनों युगों में अपने को प्रकट करते हैं और इस तरह ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं जिसमें चर तथा अचर प्राणी रहते हैं। आप शुद्ध सत्त्व रूप तथा समस्त आशीषों को प्रदान करने वाली कृपा से देवताओं तथा द्विजों के रजो तथा तमो गुणों को भगा दें।

23 हे प्रभु, आप सर्वोच्च द्विजों के रक्षक हैं। यदि आप पूजा तथा मृदु वचनों को अर्पित करके उनकी रक्षा न करें तो निश्चित है कि पूजा का शुभ मार्ग उन सामान्यजनों द्वारा परित्यक्त कर दिया जाएगा जो आपके बल तथा प्रभुत्व पर कर्म करते हैं।

24 प्रिय प्रभु, आप नहीं चाहते कि शुभ मार्ग को विनष्ट किया जाय, क्योंकि आप समस्त शिष्टाचार के आगार हैं। आप सामान्य लोगों के लाभ हेतु अपनी बलवती शक्ति से दुष्ट तत्त्व को विनष्ट करते हैं। आप तीनों सृष्टियों के स्वामी तथा पूरे ब्रह्माण्ड के पालक हैं। अतएव आपके विनीत व्यवहार से आपकी शक्ति घटती नहीं, प्रत्युत इस विनम्रता द्वारा आप अपनी दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं।

25 हे प्रभु, आप इन दोनों निर्दोष व्यक्तियों को या हमें भी जो दण्ड देना चाहेंगे उसे हम बिना द्वैत के स्वीकार करेंगे। हम जानते हैं कि हमने दो निर्दोष व्यक्तियों को शाप दिया है।

26 भगवान ने उत्तर दिया: हे ब्राह्मणों, यह जान लो कि तुमने उनको जो दण्ड दिया है, वह मूलतः मेरे द्वारा निश्चित किया गया था, अतः वे आसुरी परिवार में जन्म लेने के लिए पतित होंगे। किन्तु वे क्रोध द्वारा वर्धित मानसिक एकाग्रता द्वारा मेरे विचार में मुझसे दृढ़तापूर्वक संयुक्त होंगे और शीघ्र ही मेरे पास लौट आयेंगे।

27 ब्रह्माजी ने कहा: वैकुण्ठ के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को आत्मज्योतित वैकुण्ठलोक में देखने के बाद मुनियों ने वह दिव्य धाम छोड़ दिया।

28 मुनियों ने भगवान की प्रदक्षिणा की, उन्हें नमस्कार किया तथा दिव्य वैष्णव ऐश्वर्य को जान लेने पर वे अत्यधिक हर्षित होकर लौट आये।

29 तब भगवान ने अपने सेवकों जय तथा विजय से कहा: इस स्थान से चले जाओ, किन्तु डरो मत। तुम लोगों की जय हो। यद्यपि मैं ब्राह्मणों के शाप को निरस्त कर सकता हूँ, किन्तु मैं ऐसा करूँगा नहीं। प्रत्युत इसे मेरा समर्थन प्राप्त है।

30 वैकुण्ठ से यह प्रस्थान लक्ष्मीजी ने पहले ही बतला दिया था। वे क्रुद्ध थीं, क्योंकि जब उन्होंने मेरा धाम छोड़ा और वे फिर लौटीं तो तुमने उन्हें द्वार पर रोक लिया जब मैं सो रहा था।

31 भगवान ने जय तथा विजय नामक दोनों वैकुण्ठवासियों को आश्वस्त किया: क्रोध में योगाभ्यास द्वारा तुम ब्राह्मणों की अवज्ञा करने के पाप से मुक्त हो जाओगे और अत्यल्प अवधि में मेरे पास वापस आ जाओगे ।

32 वैकुण्ठ के द्वार पर इस प्रकार बोलकर भगवान अपने धाम लौट गये जहाँ पर अनेक स्वर्गिक विमान तथा सर्वोपरि सम्पत्ति तथा चमक-दमक रहती है।

33 किन्तु वे दोनों द्वारपाल, जो कि देवताओं में सर्वश्रेष्ठ थे, जिनकी कान्ति तथा सौन्दर्य ब्राह्मणों के शाप से उतर गए थे, खिन्न हो गये और भगवान के धाम वैकुण्ठ से नीचे गिर गये।

34 तब, जब जय तथा विजय भगवान के धाम से गिरे तो अपने भव्य विमानों में बैठे हुए सारे देवताओं ने निराश होकर उत्कट हाहाकार किया ।

35 ब्रह्मा ने आगे कहा: भगवान के उन दो प्रमुख द्वारपालों ने अब दिति के गर्भ में प्रवेश किया है और कश्यप मुनि के तेज से वे आवृत हो चुके हैं।

36 यह इन जुड़वें असुरों का तेज है, जिसने तुम सबों को विचलित किया है, क्योंकि इसने तुम्हारी शक्ति को कम कर दिया है। किन्तु मेरी शक्ति में कोई इसका उपचार नहीं है, क्योंकि भगवान स्वयं ही यह सब करना चाहते हैं।

37 हे प्रिय पुत्रों, भगवान प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं और वे ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए उत्तरदायी हैं। उनकी अद्भुत सृजनात्मक शक्ति योगमाया योगेश्वरों तक से आसानी से नहीं समझी जा सकती। सबसे प्राचीन पुरुष भगवान ही हमें बचा सकते हैं। किन्तु इस विषय पर विचार-विमर्श करने से हम उनकी ओर से और क्या कर सकते हैं ?

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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चारों चिरकुमारों (सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार) को पार्षदों के साथ श्रीभगवान का दर्शन 3.15.38-45  ~~श्रील प्रभुपाद~~

अध्याय पन्द्रह – ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन (3.15)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, महर्षि कश्यप की पत्नी दिति यह समझ गई कि उसके गर्भ में स्थित पुत्र देवताओं के विक्षोभ के कारण बनेंगे। अतः वह कश्यप मुनि के तेज को अपने गर्भ में एक सौ वर्षों तक निरन्तर धारण किये रही, क्योंकि यह अन्यों को कष्ट देने वाला था।

2 दिति के गर्भधारण करने से सारे लोकों में सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश मन्द हो गया और विभिन्न लोकों के देवताओं ने उस बल से विचलित होकर ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्मा से पूछा, “सारी दिशाओं में अंधकार का यह विस्तार कैसा?”

3 भाग्यवान देवताओं ने कहा: हे महान, जरा इस अंधकार को तो देखो, जिसे आप अच्छी तरह जानते हैं और जिससे हमें चिन्ता हो रही है। चूँकि काल का प्रभाव आपको छू नहीं सकता, अतएव आपके समक्ष कुछ भी अप्रकट नहीं है।

4 हे देवताओं के देव, हे ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले, हे अन्यलोकों के समस्त देवताओं के शिरोमणि, आप आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही जगतों में सारे जीवों के मनोभावों को जानते हैं।

5 हे बल तथा विज्ञानमय ज्ञान के आदि स्रोत, आपको नमस्कार है। आपने भगवान से पृथक्कृत रजोगुण स्वीकार किया है। आप बहिरंगा शक्ति की सहायता से अप्रकट स्रोत से उत्पन्न हैं। आपको नमस्कार।

6 हे प्रभु, ये सारे लोक आपके भीतर विद्यमान हैं और सारे जीव आपसे उत्पन्न हुए हैं। अतएव आप इस ब्रह्माण्ड के कारण हैं और जो भी अनन्य भाव से आपका ध्यान करता है, वह भक्तियोग प्राप्त करता है।

7 जो लोग श्वास प्रक्रिया को साध कर मन तथा इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और इस प्रकार जो अनुभवी प्रौढ़ योगी हो जाते हैं उनकी इस जगत में पराजय नहीं होती। ऐसा इसलिए है, क्योंकि योग में ऐसी सिद्धि के कारण, उन्होंने आपकी कृपा प्राप्त कर ली है।

8 ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सारे जीव वैदिक आदेशों से उसी प्रकार संचालित होते हैं जिस तरह एक बैल अपनी नाक से बँधी रस्सी (नथुनी) से संचालित होता है। वैदिक ग्रन्थों में निर्दिष्ट नियमों का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। उस प्रधान पुरुष को हम सादर नमस्कार करते हैं, जिसने हमें वेद दिये हैं।

9 देवताओं ने ब्रह्मा की स्तुति की: कृपया हम पर कृपादृष्टि रखें, क्योंकि हम कष्टप्रद स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं; अंधकार के कारण हमारा सारा काम रुक गया है।

10 जिस तरह ईंधन अग्नि को वर्धित करता है उसी तरह दिति के गर्भ में कश्यप के तेज से उत्पन्न भ्रूण ने सारे ब्रह्माण्ड में पूर्ण अंधकार उत्पन्न कर दिया है।

11 श्री मैत्रेय ने कहा: इस तरह दिव्य ध्वनि से समझे जाने वाले ब्रह्मा ने देवताओं की स्तुतियों से प्रसन्न होकर उन्हें तुष्ट करने का प्रयास किया।

12 ब्रह्माजी ने कहा: मेरे मन से उत्पन्न चार पुत्र सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार तुम्हारे पूर्वज हैं। कभी कभी वे बिना किसी विशेष इच्छा के भौतिक तथा आध्यात्मिक आकाशों से होकर यात्रा करते हैं।

13 इस तरह सारे ब्रह्माण्डों का भ्रमण करने के बाद वे आध्यात्मिक आकाश में भी प्रविष्ट हुए, क्योंकि वे समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त थे। आध्यात्मिक आकाश में अनेक आध्यात्मिक लोक हैं, जो वैकुण्ठ कहलाते हैं, जो पुरुषोत्तम भगवान तथा उनके शुद्धभक्तों के निवास-स्थान हैं और समस्त भौतिक लोकों के निवासियों द्वारा पूजे जाते हैं।

14 वैकुण्ठलोकों में सारे निवासी पुरुषोत्तम भगवान के समान आकृतिवाले होते हैं। वे सभी इन्द्रिय-तृप्ति की इच्छाओं से रहित होकर भगवान की भक्ति में लगे रहते हैं।

15 वैकुण्ठलोकों में भगवान रहते हैं, जो आदि पुरुष हैं और जिन्हें वैदिक वाड्मय के माध्यम से समझा जा सकता है। वे कल्मषरहित सतोगुण से ओतप्रोत हैं, जिसमें रजो या तमो गुणों के लिए कोई स्थान नहीं है। वे भक्तों की धार्मिक प्रगति में योगदान करते हैं ।

16 उन वैकुण्ठलोकों में अनेक वन हैं, जो अत्यन्त शुभ हैं। उन वनों के वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, जो सभी ऋतुओं में फूलों तथा फलों से लदे रहते हैं, क्योंकि वैकुण्ठलोकों में हर वस्तु आध्यात्मिक तथा साकार होती हैं।

17 वैकुण्ठलोकों के निवासी अपने विमानों में अपनी पत्नियों तथा प्रेयसियों के साथ उड़ानें भरते हैं और भगवान के चरित्र तथा उन कार्यों का शाश्वत गुणगान करते हैं, जो समस्त अशुभ गुणों से सदैव विहीन होते हैं। भगवान के यश का गान करते समय वे सुगन्धित तथा मधु से भरे हुए पुष्पित माधवी फूलों की उपस्थिति तक का उपहास करते हैं।

18 जब भौंरों का राजा भगवान की महिमा का गायन करते हुए उच्च स्वर से गुनगुनाता है, तो कबूतर, कोयल, सारस, चक्रवाक, हंस, तोता, तीतर तथा मोर का शोर अस्थायी रूप से बन्द पड़ जाता है। ऐसे दिव्य पक्षी केवल भगवान की महिमा सुनने के लिए अपना गाना बन्द कर देते हैं।

19 यद्यपि मन्दार, कुन्द, कुरबक, उत्पल, चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेशर, बकुल, कुमुदिनी तथा पारिजात जैसे फूलने वाले पौधे दिव्य सुगन्ध से पूरित हैं फिर भी वे तुलसी द्वारा की गई तपस्या से सचेत हैं, क्योंकि भगवान तुलसी को विशेष वरीयता प्रदान करते हैं और स्वयं तुलसी की पत्तियों की माला पहनते हैं।

20 वैकुण्ठनिवासी वैदूर्य, मरकत तथा स्वर्ण के बने हुए अपने अपने विमानों में यात्रा करते हैं। यद्यपि वे सुन्दर हँसीले मुखों वाली अपनी-अपनी प्रेयसियों के साथ रहते हैं, किन्तु वे उनके हँसी मज़ाक तथा उनकी सुन्दर मोहकता से कामोत्तेजित नहीं होते।

21 वैकुण्ठलोकों की महिलाएँ इतनी सुन्दर हैं कि जैसे देवी लक्ष्मी स्वयं है। ऐसी दिव्य सुन्दरियाँ जिनके हाथ कमलों के साथ क्रीड़ा करते हैं तथा पाँवों के नूपुर झनकार करते हैं कभी कभी उन संगमरमर की दीवालों को जो थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुनहले किनारों से अलंकृत हैं, इसलिए बुहारती देखी जाती है कि उन्हें भगवान की कृपा प्राप्त हो सके।

22 लक्ष्मियाँ अपने उद्यानों में दिव्य जलाशयों के मूँगे से जड़े किनारों पर तुलसीदल अर्पित करके भगवान की पूजा करती हैं। भगवान की पूजा करते समय वे उभरे हुए नाकों से युक्त अपने अपने सुन्दर मुखों के प्रतिबिम्ब को जल में देख सकती हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो भगवान द्वारा मुख चुम्बित होने से वे और भी अधिक सुन्दर बन गई हैं।

23 यह अतीव शोचनीय है कि अभागे लोग वैकुण्ठलोकों के विषय में चर्चा नहीं करते, अपितु ऐसे विषयों में लगे रहते हैं, जो सुनने के लायक नहीं होते तथा मनुष्य की बुद्धि को सम्भ्रमित करते हैं। जो लोग वैकुण्ठ के प्रसंगों का त्याग करते हैं तथा भौतिक जगत की बातें चलाते हैं, वे अज्ञान के गहनतम अंधकार में फेंक दिये जाते हैं।

24 ब्रह्माजी ने कहा: हे प्रिय देवताओं, मनुष्य जीवन इतना महत्वपूर्ण है कि हमें भी ऐसे जीवन को पाने की इच्छा होती है, क्योंकि मनुष्य रूप में पूर्ण धार्मिक सत्य तथा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यदि इस मनुष्य जीवन में कोई व्यक्ति भगवान तथा उनके धाम को नहीं समझ पाता तो यह समझना होगा कि वह बाह्य प्रकृति के प्रभाव से अत्यधिक ग्रस्त है।

25 आनन्दभाव में जिन व्यक्तियों के शारीरिक लक्षण परिवर्तित होते हैं और जो भगवान की महिमा का श्रवण करने पर गहरी-गहरी साँस लेने लगते हैं तथा प्रस्वेदित हो उठते हैं, वे भगवद्धाम को जाते हैं भले ही वे ध्यान तथा अन्य अनुष्ठानों की तनिक भी परवाह न करते हों। भगवद्धाम भौतिक ब्रह्माण्डों के ऊपर है और ब्रह्मा तथा अन्य देवतागण तक इसकी इच्छा करते हैं।

26 इस तरह सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार नामक महर्षियों ने अपने योग बल से आध्यात्मिक जगत के उपर्युक्त वैकुण्ठ में पहुँच कर अभूतपूर्व सुख का अनुभव किया। उन्होंने पाया कि आध्यात्मिक आकाश अत्यधिक अलंकृत विमानों से, जो वैकुण्ठ के सर्वश्रेष्ठ भक्तों द्वारा चालित थे, प्रकाशमान था और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा अधिशासित था।

27 भगवान के आवास वैकुण्ठपुरी के छह द्वारों को पार करने के बाद और सजावट से तनिक भी आश्चर्यचकित हुए बिना, उन्होंने सातवें द्वार पर एक ही आयु के दो चमचमाते प्राणियों को देखा जो गदाएँ लिए हुए थे और अत्यन्त मूल्यवान आभूषणों, कुण्डलों, हीरों, मुकुटों, वस्त्रों इत्यादि से अलंकृत थे।

28 दोनों द्वारपाल ताजे फूलों की माला पहने थे, जो मदोन्मत्त भौंरों को आकृष्ट कर रही थीं और उनके गले के चारों ओर तथा उनकी चार नीली बाहों के बीच में पड़ी हुई थीं। अपनी कुटिल भौहों, अतृप्त नथनों तथा लाल लाल आँखों से वे कुछ कुछ क्षुब्ध प्रतीत हो रहे थे।

29 सनक इत्यादि मुनियों ने सभी जगहों के दरवाजों को खोला। उन्हें अपने पराये का कोई विचार नहीं था। उन्होंने खुले मन से स्वेच्छा से उसी तरह सातवें द्वार में प्रवेश किया जिस तरह वे अन्य छह दरवाजों से होकर आये थे, जो सोने तथा हीरों से बने हुए थे।

30 चारों बालक मुनि, जिनके पास अपने शरीरों को ढकने के लिए वायुमण्डल के अतिरिक्त कुछ नहीं था, पाँच वर्ष की आयु के लग रहे थे यद्यपि वे समस्त जीवों में सबसे वृद्ध थे और उन्होंने आत्मा के सत्य की अनुभूति प्राप्त कर ली थी। किन्तु जब द्वारपालों ने, जिनके स्वभाव भगवान को तनिक भी रुचिकर न थे, इन मुनियों को देखा तो उन्होंने उनके यश का उपहास करते हुए अपने डंडों से उनका रास्ता रोक दिया, यद्यपि ये मुनि उनके हाथों ऐसा बर्ताव पाने के योग्य न थे।

31 इस तरह सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति होते हुए भी जब चारों कुमार अन्य देवताओं के देखते देखते श्री हरि के दो प्रमुख द्वारपालों द्वारा प्रवेश करने से रोक दिये गये तो अपने सर्वाधिक प्रिय स्वामी श्रीहरि को देखने की परम उत्सुकता के कारण उनके नेत्र, क्रोधवश सहसा लाल हो गये।

32 मुनियों ने कहा: ये दोनों व्यक्ति कौन हैं जिन्होंने ऐसी विरोधात्मक मनोवृत्ति विकसित कर रखी है। ये भगवान की सेवा करने के उच्चतम पद पर नियुक्त हैं और इनसे यह उम्मीद की जाती है कि इन्होंने भगवान जैसे ही गुण विकसित कर रखे होंगे? ये दोनों व्यक्ति वैकुण्ठ में किस तरह रह रहे हैं? इस भगवद्धाम में किसी शत्रु के आने की सम्भावना कहाँ है? पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का कोई शत्रु नहीं है। भला उनका कौन ईर्ष्यालु हो सकता है? शायद ये दोनों व्यक्ति कपटी हैं, अतएव अपनी ही तरह होने की, अन्यों पर शंका करते हैं।

33 वैकुण्ठलोक में वहाँ के निवासियों तथा भगवान में उसी तरह पूर्ण सामंजस्य है, जिस तरह अन्तरिक्ष में वृहत तथा लघु आकाशों में पूर्ण सामंजस्य रहता है। तो इस सामंजस्य के क्षेत्र में भय का बीज क्यों है? ये दोनों व्यक्ति वैकुण्ठवासियों की तरह वेश धारण किये हैं, किन्तु उनका यह असामंजस्य कहाँ से उत्पन्न हुआ ?

34 अतएव हम विचार करें कि इन दो संदूषित व्यक्तियों को किस तरह दण्ड दिया जाय। जो दण्ड दिया जाय वह उपयुक्त हो क्योंकि इस तरह से अन्ततः उन्हें लाभ दिया जा सकता है। चूँकि वे वैकुण्ठ जीवन के अस्तित्व में द्वैध (अन्तर-भाव/द्विधा/असमंजस/) पाते हैं, अतः वे संदूषित हैं, और इन्हें इस स्थान से भौतिक जगत में भेज दिया जाना चाहिए जहाँ जीवों के तीन प्रकार के शत्रु होते हैं।

35 जब वैकुण्ठलोक के द्वारपालों ने, जो कि सचमुच ही भगवद्भक्त थे, यह देखा कि वे ब्राह्मणों द्वारा शापित होने वाले हैं, तो वे तुरन्त बहुत भयभीत हो उठे और अत्यधिक चिन्तावश ब्राह्मणों के चरणों पर गिर पड़े, क्योंकि ब्राह्मण के शाप का निवारण किसी भी प्रकार के हथियार से नहीं किया जा सकता ।

36 मुनियों द्वारा शापित होने के बाद द्वारपालों ने कहा: यह ठीक ही हुआ कि आपने हमें आप जैसे मुनियों का अनादर करने के लिए दण्ड दिया है। किन्तु हमारी प्रार्थना है कि हमारे पछतावे पर आपकी दया के कारण हममें उस समय भगवान की विस्मृति का मोह न आए जब हम नीचे-नीचे जा रहे हों।

37 नाभि से उगे कमल के कारण पद्मनाभ कहलाने वाले तथा सदाचारियों की प्रसन्नता के रूप भगवान को उन सन्तों के प्रति अपने ही दासों के द्वारा किये गये अपमान का उसी क्षण पता चल गया। वे अपनी प्रेयसी लक्ष्मी सहित उस स्थान पर उन चरणों से चलकर गये जिसकी खोज संन्यासी तथा महामुनि करते हैं ।

38 सनक इत्यादि मुनियों ने देखा कि भगवान विष्णु जो भावमय समाधि में पहले उनके हृदयों के ही भीतर दृष्टिगोचर होते थे अब वे साकार रूप में उनके नेत्रों के सामने दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जब वे छाता तथा चामर जैसी साज-सामग्री सहित अपने संगियों के साथ आगे आये तो श्वेत चामर के बालों के गुच्छे धीमे धीमे हिल रहे थे, मानो दो श्वेत हंस हों तथा अनुकूल हवा से छाते से लटक रही मोतियों की झालरें हिल रही थीं मानो श्वेत पूर्णचन्द्रमा से अमृत की बूँदें टपक रही हों, अथवा हवा के झोंके से बर्फ पिघल रही हो ।

39 भगवान सारे आनन्द के आगार हैं। उनकी शुभ उपस्थिति हर एक के आशीष के लिए है और उनकी स्नेहमयी मुस्कान तथा चितवन हृदय के अन्तरतम को छू लेती है। भगवान के सुन्दर शरीर का रंग श्यामल है और उनका चौड़ा वक्षस्थल लक्ष्मीजी का विश्रामस्थल है, जो समस्त स्वर्गलोकों के शिखर रूपी सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत को महिमामण्डित करने वाली हैं। इस तरह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो भगवान स्वयं ही आध्यात्मिक जगत के सौन्दर्य तथा सौभाग्य का विस्तार कर रहे हों।

40 वे करधनी से अलंकृत थे, जो उनके विशाल कूल्हों को आवृत्त किये हुए पीत वस्त्र पर चमचमा रही थी। वे ताजे फूलों की माला पहने थे, जो गुंजरित भौंरों से लक्षित थी। उनकी सुन्दर कलाइयों पर कंगन सुशोभित थे और वे अपना एक हाथ अपने वाहन गरुड़ के कन्धे पर रखे थे तथा दूसरे हाथ से कमल का फूल घुमा रहे थे।

41 उनका मुखमण्डल गालों से सुस्पष्ट हो रहा था, जो उनके बिजली को मात करने वाले मकराकृत कुण्डलों की शोभा को बढ़ा रहे थे। उनकी नाक उन्नत थी और उनका सिर रत्नजटित मुकुट से आवृत था। उनकी बलिष्ठ भुजाओं के मध्य एक मोहक हार लटक रहा था और उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से विभूषित थी।

42 नारायण का अनुपम सौन्दर्य उनके भक्तों की बुद्धि द्वारा कई गुना वर्धित होने से इतना आकर्षक था कि वह अतीव सुन्दरी लक्ष्मी देवी के गर्व को भी पराजित कर रहा था। हे देवताओं, इस तरह प्रकट हुए भगवान मेरे द्वारा, शिवजी द्वारा तथा तुम सबों के द्वारा पूजनीय हैं। मुनियों ने उन्हें अतृप्त आँखों से आदर अर्पित किया और प्रसन्नतापूर्वक उनके चरणकमलों पर अपना सिर झुकाया।

43 जब भगवान के चरणकमलों के अँगूठों से तुलसीदल की सुगन्ध ले जाने वाली मन्द वायु उन मुनियों के नथुनों में प्रविष्ट हुई तो उन्हें शरीर तथा मन दोनों में परिवर्तन का अनुभव हुआ यद्यपि वे निर्विशेष ब्रह्म ज्ञान के प्रति अनुरक्त थे।

44 उन्हें भगवान का सुन्दर मुख नीले कमल के भीतरी भाग जैसा प्रतीत हुआ और भगवान की मुसकान खिले हुए चमेली के फूल सी प्रतीत हुई। मुनिगण भगवान का मुख देखकर पूर्णतया संतुष्ट थे और जब उन्होंने उनको अधिक देखना चाहा तो उन्होंने उनके चरणकमलों के नाखूनों को देखा जो पन्ना जैसे थे। इस तरह वे भगवान के शरीर को बारम्बार निहार रहे थे, अतः उन्होंने अन्त में भगवान के साकार रूप का ध्यान किया।

45 यही भगवान का वह रूप है, जिसका ध्यान योगविधि के अनुयायी करते हैं और ध्यान में यह योगियों को मनोहर लगता है। यह काल्पनिक नहीं, अपितु वास्तविक है जैसा कि महान योगियों ने सिद्ध किया है। भगवान आठ प्रकार की सिद्धियों से पूर्ण हैं, किन्तु अन्यों के लिए ये पूर्णरूप से सम्भव नहीं हैं।

46 कुमारों ने कहा: हे प्रिय प्रभु, आप धूर्तों के समक्ष प्रकट नहीं होते यद्यपि आप हर एक के हृदय के भीतर आसीन रहते हैं। किन्तु जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है, हम आपको अपने समक्ष देख रहे हैं यद्यपि आप अनन्त हैं। हमने आपके विषय में अपने पिता ब्रह्मा के द्वारा अपने कानों से जो कथन सुने हैं, वे अब आपके कृपापूर्ण प्राकट्य से वस्तुतः साकार हो गए हैं। हम जानते हैं कि आप परम सत्य अर्थात परमेश्वर हैं, जो अपने दिव्य रूप को अकलुषित (विशुद्ध) सतोगुण में प्रकट करते हैं। आपका यह दिव्य शाश्वत रूप आपकी कृपा से ही अविचल भक्ति के द्वारा उन मुनियों द्वारा समझा जाता है जिनके हृदय भक्तिमयी विधि से शुद्ध किये जा चुके हैं।

48 वे व्यक्ति जो वस्तुओं को यथारूप में समझने में अत्यन्त पटु और सर्वाधिक बुद्धिमान हैं अपने को भगवान के शुभ कार्यों तथा उनकी लीलाओं की कथाओं को सुनने में लगाते हैं, जो कीर्तन तथा श्रवण के योग्य होती हैं। ऐसे व्यक्ति सर्वोच्च भौतिक वर की, अर्थात मुक्ति की भी परवाह नहीं करते, स्वर्गलोक के भौतिक सुख जैसे कम महत्वपूर्ण वरों के विषय में तो कुछ कहना ही नहीं।

49 हे प्रभु, हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि जब तक हमारे हृदय तथा मन आपके चरणकमलों की सेवा में लगे रहें, हमारे शब्द (आपके कार्यों के कथन से) सुन्दर बनते रहें जिस तरह आपके चरणकमलों पर चढ़ाये गये तुलसीदल सुन्दर लगने लगते हैं तथा जब तक हमारे कान आपके दिव्य गुणों के कीर्तन से सदैव पूरित होते रहें, तब तक आप जीवन की जिस किसी भी नारकीय स्थिति में हमें जन्म दे सकते हैं।

50 अतः हे प्रभु, हम भगवान के रूप में आपके नित्य स्वरूप को सादर नमस्कार करते हैं जिसे आपने इतनी कृपा करके हमारे समक्ष प्रकट किया है। आपका परम नित्य स्वरूप अभागे अल्पज्ञ व्यक्तियों द्वारा नहीं देखा जा सकता, किन्तु हम इसे देखकर अपने मन में तथा दृष्टि में अत्यधिक तुष्ट हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय चौदह – संध्या समय दिति का गर्भ-धारण (3.14)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महर्षि मैत्रेय से वराह रूप में भगवान के अवतार के विषय में सुनकर दृढ़संकल्प विदुर ने हाथ जोड़कर उनसे भगवान के अगले दिव्य कार्यों के विषय में सुनाने की प्रार्थना की, क्योंकि वे (विदुर) अब भी तुष्ट अनुभव नहीं कर रहे थे।

2 विदुर ने कहा: हे मुनिश्रेष्ठ, मैंने शिष्य-परम्परा से यह सुना है कि आदि असुर हिरण्याक्ष उन्हीं यज्ञ रूप भगवान (वराह) द्वारा मारा गया था।

3 हे ब्राह्मण, जब भगवान अपनी लीला के रूप में पृथ्वी ऊपर उठा रहे थे, तब उस असुरराज तथा भगवान वराह के बीच, युद्ध का क्या कारण था?

4 मेरा मन अत्यधिक जिज्ञासु बन चुका है, अतएव भगवान के आविर्भाव की कथा सुन कर मुझे तुष्टि नहीं हो रही है। इसलिए आप इस श्रद्धावान भक्त से और अधिक कहें।

5 महर्षि मैत्रेय ने कहा: हे योद्धा, तुम्हारे द्वारा की गई जिज्ञासा एक भक्त के अनुरूप है, क्योंकि इसका सम्बन्ध भगवान के अवतार से है। वे मर्त्यो को जन्म-मृत्यु की श्रंखला से मोक्ष दिलाने वाले हैं।

6 इन कथाओं को मुनि (नारद) से सुनकर राजा उत्तानपाद का पुत्र (ध्रुव) भगवान के विषय में प्रबुद्ध हो सका और मृत्यु के सिर पर पाँव रखते हुए वह भगवान के धाम पहुँच गया।

7 वराह रूप भगवान तथा हिरण्याक्ष असुर के मध्य युद्ध का यह इतिहास मैंने बहुत वर्षों पूर्व तब सुना था जब यह देवताओं के अग्रणी ब्रह्मा द्वारा अन्य देवताओं के पूछे जाने पर वर्णन किया गया था।

8 दक्ष-कन्या दिति ने सन्तान उत्पन्न करने के उद्देश्य से कामातुर होकर संध्या के समय अपने पति मरीचि पुत्र कश्यप से प्रार्थना की।

9 सूर्य अस्त हो रहा था और मुनि भगवान विष्णु को, जिनकी जीभ यज्ञ की अग्नि है, आहुति देने के बाद समाधि में आसीन थे।

10 उस स्थान पर सुन्दरी दिति ने अपनी इच्छा व्यक्त की: हे विद्वान, कामदेव अपने तीर लेकर मुझे बलपूर्वक उसी तरह सता रहा है, जिस तरह उन्मत्त हाथी एक केले के वृक्ष को झकझोरता है।

11 अतएव आपको मुझ पर पूर्ण दया दिखाते हुए मेरे प्रति कृपालु होना चाहिए। मुझे पुत्र प्राप्त करने की चाह है और मैं अपनी सौतों का ऐश्वर्य देखकर अत्यधिक व्यथित हूँ। इस कृत्य को करने से आप सुखी हो सकेंगे।

12 एक स्त्री अपने पति के आशीर्वाद से संसार में आदर पाती है और सन्तानें होने से आप जैसा पति प्रसिद्धि पाएगा, क्योंकि आप जीवों के विस्तार के निमित्त ही हैं।

13 बहुत काल पूर्व अत्यन्त ऐश्वर्यवान हमारे पिता दक्ष ने, जो अपनी पुत्रियों के प्रति अत्यन्त वत्सल थे, हममें से हर एक को अलग अलग से पूछा कि तुम किसे अपने पति के रूप में चुनना चाहोगी।

14 हमारे शुभाकांक्षी पिता दक्ष ने हमारे मनोभावों को जानकर अपनी तेरहों कन्याएँ आपको समर्पित कर दीं और तब से हम सभी आपकी आज्ञाकारिणी रही हैं।

15 हे कमललोचन, कृपया मेरी इच्छा पूरी करके मुझे आशीर्वाद दें। जब कोई त्रस्त होकर किसी महापुरुष के पास पहुँचता है, तो उसकी याचना कभी भी व्यर्थ नहीं होनी चाहिए।

16 हे वीर (विदुर), इस तरह कामदेव के वेग से बैचेन, असहाय एवं बड़बड़ाती हुई दिति को मरीचिपुत्र ने समुचित शब्दों से शान्त किया।

17 हे भीरु, तुम्हें जो भी इच्छा प्रिय हो उसे मैं तुरन्त तृप्त करूँगा, क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त मुक्ति की तीन सिद्धियों का स्रोत और कौन है?

18 जिस तरह जहाजों के द्वारा समुद्र को पार किया जा सकता है उसी तरह मनुष्य पत्नी के साथ रहते हुए भवसागर की भयावह स्थिति से पार हो सकता है।

19 हे आदरणीया – पत्नी इतनी सहायताप्रद होती है कि वह मनुष्य की अर्धांगिनी कहलाती है, क्योंकि वह समस्त शुभ कार्यों में हाथ बँटाती है। पुरुष अपनी पत्नी पर जिम्मेदारियों का सारा भार डालकर निश्चिन्त होकर विचरण कर सकता है।

20 जिस तरह किले का सेनापति आक्रमणकारी लुटेरों को बहुत आसानी से जीत लेता है उसी तरह पत्नी का आश्रय लेकर मनुष्य उन इन्द्रियों को जीत सकता है, जो अन्य आश्रमों में अजेय होती हैं।

21 हे घर की रानी, हम न तो तुम्हारी तरह कार्य करने में सक्षम हैं, न ही तुमने जो कुछ किया है उससे उऋण हो सकते हैं, चाहे हम अपने जीवन भर या मृत्यु के बाद भी कार्य करते रहें। तुमसे उऋण हो पाना उन लोगों के लिए भी असम्भव है, जो निजी गुणों के प्रशंसक होते हैं।

22 यद्यपि मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं हो सकता, किन्तु मैं सन्तान उत्पन्न करने के लिए तुम्हारी इच्छा को तुरन्त तुष्ट करूँगा। किन्तु तुम केवल कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा करो जिससे अन्य लोग मेरी भर्त्सना न कर सकें।

23 यह विशिष्ट वेला अतीव अशुभ है, क्योंकि इस वेला में भयावने दिखने वाले भूत तथा भूतों के स्वामी के नित्य संगी दृष्टिगोचर होते हैं।

24 इस वेला में भूतों के राजा शिवजी, अपने वाहन बैल की पीठ पर बैठकर उन भूतों के साथ विचरण करते हैं, जो अपने कल्याण के लिए उनका अनुगमन करते हैं।

25 शिवजी का शरीर लालाभ (लाल रंग का) और निष्कलुष है, किन्तु वे उस पर राख़ पोते रहते हैं। उनकी जटा श्मशान भूमि की बवंडर की धूल से धूसरित रहती है। वे तुम्हारे पति के छोटे भाई हैं-और वे अपने तीन नेत्रों से देखते हैं।

26 शिवजी किसी को भी अपना सम्बन्धी नहीं मानते फिर भी ऐसा कोई भी नहीं है, जो उनसे सम्बन्धित न हो। वे किसी को न तो अति अनुकूल, न ही निन्दनीय मानते हैं। हम उनके उच्छिष्ट भोजन की सादर पूजा करते हैं और वे जिसका तिरस्कार (त्याग/त्याज्य/rejected) करते हैं उसको हम शीश झुकाकर स्वीकार करते हैं।

27 यद्यपि भौतिक जगत में न तो कोई भगवान शिव के बराबर है, न उनसे बढ़कर है और अविद्या के समूह को छिन्न-भिन्न करने के लिए उनके अनिंद्य चरित्र का महात्माओं द्वारा अनुसरण किया जाता है फिर भी वे सारे भगवदभक्तों को मोक्ष प्रदान करने के लिए ऐसे बने रहते हैं जैसे कोई पिशाच हो।

28 अभागे मूर्ख व्यक्ति यह न जानते हुए कि वे अपने में मस्त रहते हैं उन पर हँसते हैं। ऐसे मूर्ख व्यक्ति अपने उस शरीर को जो कुत्तों द्वारा खाये जाने योग्य है वस्त्र, आभूषण, माला तथा लेप से सजाने में लगे रहते हैं।

29 ब्रह्मा जैसे देवता भी उनके द्वारा अपनाये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं। वे उस भौतिक शक्ति के नियन्ता हैं, जो भौतिक जगत का सृजन करती है। वे महान हैं, अतएव उनके पिशाचवत गुण मात्र विडम्बना हैं।

30 मैत्रेय ने कहा: इस तरह दिति अपने पति द्वारा सूचित की गई, किन्तु वह कामदेव द्वारा विवश कर दी गई। उसने गणिका के समान निर्लज्ज होकर उस महान ब्राह्मण ऋषि का वस्त्र पकड़ लिया ।

31 अपनी पत्नी के मन्तव्य को समझकर उन्हें वह निषिद्ध कार्य करना पड़ा और तब पूज्य प्रारब्ध को नमस्कार करके वे उसके साथ एकान्त स्थान में लेट गये। तत्पश्चात उस ब्राह्मण ने जल में स्नान किया और समाधि में नित्य तेज का ध्यान करते हुए तथा मुख के भीतर पवित्र गायत्री मंत्र का जप करते हुए अपनी वाणी को वश में किया।

33 हे भारत, इसके बाद दिति अपने पति के निकट गई। उसका मुख दोषपूर्ण कृत्य के कारण झुका हुआ था। उसने इस प्रकार कहा।

34 सुन्दरी दिति ने कहा: हे ब्राह्मण, कृपया ध्यान रखे कि समस्त जीवों के स्वामी भगवान शिव द्वारा मेरा यह गर्भ नष्ट न किया जाय, क्योंकि मैंने उनके प्रति महान अपराध किया है।

35 मैं उन क्रुद्ध शिवजी को नमस्कार करती हूँ जो एक ही साथ अत्यन्त उग्र महादेव तथा समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं। वे सर्वकल्याणप्रद तथा क्षमाशील हैं, किन्तु उनका क्रोध उन्हें तुरन्त ही दण्ड देने के लिए चलायमान कर सकता है।

36 शिवजी मेरी बहिन सती के पति, मेरे बहनोई हैं। वे समस्त स्त्रियों के आराध्य देव भी हैं, वे हम पर प्रसन्न हों।

37 मैत्रेय ने कहा: तब महर्षि कश्यप ने अपनी पत्नी को सम्बोधित किया जो इस भय से काँप रही थी कि उसके पति का अपमान हुआ है। वह समझ गई कि उन्हें संध्याकालीन प्रार्थना करने के नैत्यिक कर्म से विरत होना पड़ा है, फिर भी वह संसार में अपनी सन्तानों का कल्याण चाहती थी।

38 विद्वान कश्यप ने कहा: तुम्हारा मन दूषित होने, मुहूर्त विशेष के अपवित्र होने, मेरे निर्देशों की तुम्हारे द्वारा उपेक्षा किये जाने तथा तुम्हारे द्वारा देवताओं की अवहेलना होने से सारी बातें अशुभ थीं।

39 हे अभिमानी स्त्री! तुम्हारे निन्दित गर्भ से दो अभद्र पुत्र उत्पन्न होंगे। अरी अभागिन! वे तीनों लोकों के लिए निरन्तर शोक का कारण बनेंगे।

40 वे दीन, निर्दोष जीवों का वध करेंगे, स्त्रियों को सताएँगे तथा महात्माओं को क्रोधित करेंगे।

41 उस समय ब्रह्माण्ड के स्वामी पुरुषोत्तम भगवान जो कि समस्त जीवों के हितैषी हैं अवतरित होंगे और उनका इस तरह वध करेंगे जिस तरह इन्द्र अपने वज्र से पर्वतों को ध्वस्त कर देता है।

42 दिति ने कहा: यह तो अति उत्तम है कि मेरे पुत्र भगवान द्वारा उनके सुदर्शन चक्र से उदारतापूर्वक मारे जायेंगे। हे मेरे पति, वे ब्राह्मण-भक्तों के क्रोध से कभी न मारे जाँय।

43 जो व्यक्ति ब्राह्मण द्वारा तिरस्कृत किया जाता है या जो अन्य जीवों के लिए सदैव भयप्रद बना रहता है, उसका पक्ष न तो पहले से नरक में रहने वालों द्वारा, न ही उन योनियों में रहने वालों द्वारा लिया जाता है, जिसमें वह जन्म लेता है।

44-45 विद्वान कश्यप ने कहा: तुम्हारे शोक, पश्चात्ताप, समुचित वार्तालाप के कारण तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में तुम्हारी अविचल श्रद्धा एवं शिवजी तथा मेरे प्रति तुम्हारी प्रशंसा के कारण – तुम्हारे पुत्र (हिरण्यकशिपु) का एक पुत्र (प्रह्लाद) भगवान द्वारा अनुमोदित भक्त होगा और उसकी ख्याति भगवान के ही समान प्रचारित होगी।

46 उसके पदचिन्हों का अनुसरण करने के लिए सन्त पुरुष शत्रुता से मुक्त होने का अभ्यास करके उसके चरित्र को आत्मसात करना चाहेंगे जिस तरह शुद्धिकरण की विधियाँ निम्न गुण वाले सोने को शुद्ध कर देती हैं ।

47 हर व्यक्ति उनसे प्रसन्न रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भगवान सदैव ऐसे भक्त से तुष्ट रहते हैं, जो उनके अतिरिक्त और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता ।

48 भगवान का सर्वोच्च भक्त विशाल बुद्धि तथा विशाल प्रभाव वाला होगा और महात्माओं में सबसे महान होगा। परिपक्व भक्तियोग के कारण वह निश्चय ही दिव्य भाव में स्थित होगा और इस संसार को छोड़ने पर वैकुण्ठ में प्रवेश करेगा।

49 वह समस्त सद्गुणों का अतीव सुयोग्य आगार होगा, वह प्रसन्न रहेगा और अन्यों के सुख में सुखी, अन्यों के दुख में दुखी होगा तथा उसका एक भी शत्रु नहीं होगा। वह सारे ब्रह्माण्डों के शोक का उसी तरह नाश करने वाला होगा जिस तरह ग्रीष्मकालीन सूर्य के बाद सुहावना चन्द्रमा।

50 तुम्हारा पौत्र भीतर तथा बाहर से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का दर्शन कर सकेगा जिनकी पत्नी सुन्दरी लक्ष्मीजी हैं। भगवान भक्त द्वारा इच्छित रूप धारण कर सकते हैं और उनका मुखमण्डल सदैव कुण्डलों से सुन्दर ढंग से अलंकृत रहता है।

51 मैत्रेय मुनि ने कहा: यह सुनकर कि उसका पौत्र महान भक्त होगा और उसके पुत्र भगवान कृष्ण द्वारा मारे जायेंगे, दिति मन में अत्यधिक हर्षित हुई।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तेरह – भगवान वराह का प्राकट्य (3.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, मैत्रेय मुनि से इन समस्त पुण्यतम कथाओं को सुनने के बाद विदुर ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की कथाओं के विषय में और अधिक पूछताछ की, क्योंकि इनका आदरपूर्वक सुनना उन्हें पसंद था।

2 विदुर ने कहा: हे मुनि, ब्रह्मा के प्रिय पुत्र स्वायम्भुव ने अपनी अतीव प्रिय पत्नी को पाने के बाद क्या किया?

3 हे पुण्यात्मा श्रेष्ठ, राजाओं का आदि राजा (मनु) भगवान हरि का महान भक्त था, अतएव उसके शुद्ध चरित्र तथा कार्यकलाप सुनने योग्य हैं। कृपया उनका वर्णन करें। मैं सुनने के लिए अतीव उत्सुक हूँ।

4 जो लोग अत्यन्त श्रमपूर्वक तथा दीर्घकाल तक गुरु से श्रवण करते हैं उन्हें शुद्धभक्तों के चरित्र तथा कार्यकलापों के विषय में शुद्धभक्तों के मुख से ही सुनना चाहिए। शुद्ध भक्त अपने हृदयों के भीतर सदैव उन भगवान के चरणकमलों का चिन्तन करते हैं, जो अपने भक्तों को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं।

5 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण विदुर की गोद में अपना चरणकमल रखकर प्रसन्न थे, क्योंकि विदुर अत्यन्त विनीत तथा भद्र थे। मैत्रेय मुनि विदुर के शब्दों से अति प्रसन्न थे और अपनी आत्मा से प्रभावित होकर उन्होंने बोलने का प्रयास किया।

6 मैत्रेय मुनि ने विदुर से कहा: मानवजाति के पिता मनु अपनी पत्नी समेत अपने प्राकट्य के बाद वेदविद्या के आगार ब्रह्मा को नमस्कार करके तथा हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोले।

7 आप सारे जीवों के पिता तथा उनकी जीविका के स्रोत हैं, क्योंकि वे सभी आपसे उत्पन्न हुए हैं। कृपा करके हमें आदेश दें कि हम आपकी सेवा किस तरह कर सकते हैं।

8 हे आराध्य, आप हमें हमारी कार्यक्षमता के अन्तर्गत कार्य करने के लिए अपना आदेश दें जिससे हम इस जीवन में यश के लिए तथा अगले जीवन में प्रगति के लिए उसका पालन कर सकें।

9 ब्रह्माजी ने कहा: हे प्रिय पुत्र, हे जगत के स्वामी, मैं तुम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हारे तथा तुम्हारी पत्नी दोनों ही के कल्याण की कामना करता हूँ। तुमने मेरे आदेशों के लिए अपने हृदय से बिना सोचे विचारे अपने आपको मेरे शरणागत कर लिया है।

10 हे वीर, तुम्हारा उदाहरण पिता-पुत्र सम्बन्ध के सर्वथा उपयुक्त है। बड़ों की इस तरह की पूजा अपेक्षित है। जो ईर्ष्या की सीमा के परे है और विवेकी है, वह अपने पिता के आदेश को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है और अपनी पूरी सामर्थ्य से उसे सम्पन्न करता है।

11 चूँकि तुम मेरे अत्यन्त आज्ञाकारी पुत्र हो इसलिए मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम अपनी पत्नी के गर्भ से अपने ही समान योग्य सन्तानें उत्पन्न करो। तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की भक्ति के सिद्धान्तों का पालन करते हुए सारे जगत पर शासन करो और इस तरह यज्ञ सम्पन्न करके भगवान की पूजा करो।

12 हे राजन, यदि तुम भौतिक जगत में जीवों को उचित सुरक्षा प्रदान कर सको तो मेरे प्रति वह सर्वोत्तम सेवा होगी। जब परमेश्वर तुम्हें बद्धजीवों के उत्तम रक्षक के रूप में देखेंगे तो इन्द्रियों के स्वामी निश्चय ही तुम पर अतीव प्रसन्न होंगे।

13 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जनार्दन (कृष्ण) ही समस्त यज्ञ फलों को स्वीकार करने वाले हैं। यदि वे तुष्ट नहीं होते तो प्रगति के लिए किया गया मनुष्य का श्रम व्यर्थ है। वे चरम आत्मा हैं, अतएव जो व्यक्ति उन्हें तुष्ट नहीं करता वह निश्चय ही अपने ही हितों की उपेक्षा करता है।

14 श्री मनु ने कहा: हे सर्वशक्तिमान प्रभु, हे समस्त पापों के संहर्ता (संहारकर्ता), मैं आपके आदेशों का पालन करूँगा। कृपया मुझे मेरा तथा मुझसे उत्पन्न जीवों के बसने के लिए स्थान बतलाएँ।

15 हे देवताओं के स्वामी, विशाल जल में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर उठाने का प्रयास करें, क्योंकि यह सारे जीवों का वासस्थान है। यह आपके प्रयास तथा भगवान की कृपा से ही सम्भव है।

16 श्री मैत्रेय ने कहा: इस प्रकार पृथ्वी को जल में डूबी हुई देखकर ब्रह्मा दीर्घकाल तक सोचते रहे कि इसे किस प्रकार उठाया जा सकता है।

17 ब्रह्मा ने सोचा: जब मैं सृजन कार्य में लगा हुआ था, तो पृथ्वी बाढ़ से आप्लावित हो गई और समुद्र के गर्त में चली गई। हम लोग तो सृजन के इस कार्य में लगे हैं भला कर ही क्या सकते हैं? सर्वोत्तम यही होगा कि सर्वशक्तिमान हमारा निर्देशन करें।

18 हे निष्पाप विदुर, जब ब्रह्माजी विचारमग्न थे तो उनके नथुने से सहसा एक वराह (सूकर) का लघुरूप बाहर निकल आया। इस प्राणी की माप अँगूठे के ऊपरी हिस्से से अधिक नहीं थी ।

19 हे भरतवंशी, तब ब्रह्मा के देखते ही देखते वह वराह विशाल काय हाथी जैस अद्भुत विराट स्वरूप धारण करके आकाश में स्थित हो गया।

20 आकाश में अद्भुत सूकर जैसा रूप देखने से आश्चर्यचकित ब्रह्माजी मरीचि जैसे महान ब्राह्मणों तथा चारों कुमारों एवं मनु के साथ अनेक प्रकार से तर्क-वितर्क करने लगे।

21 क्या सूकर के बहाने से यह कोई असामान्य व्यक्तित्व आया है? यह अति आश्चर्यप्रद है कि वह मेरी नाक से निकला है।

22 प्रारम्भ में यह सूकर अँगूठे के सिरे से बड़ा न था, किन्तु क्षण भर में वह शिला के समान विशाल बन गया। मेरा मन विक्षुब्ध है। क्या वह पुरुषोत्तम भगवान विष्णु हैं?

23 जब ब्रह्माजी अपने पुत्रों के साथ विचार-विमर्श कर रहे थे तो पुरुषोत्तम भगवान विष्णु ने विशाल पर्वत के समान गम्भीर गर्जना की।

24 सर्वशक्तिमान भगवान ने पुनः असाधारण वाणी से ऐसी गर्जना करके ब्रह्मा तथा अन्य उच्चस्थ ब्राह्मणों को जीवन्त कर दिया, जिससे सारी दिशाओं में गूँज उठीं।

25 जब जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक के निवासी महर्षियों तथा चिन्तकों ने भगवान सूकर की कोलाहलपूर्ण वाणी सुनी, जो सर्वकृपालु भगवान की सर्वकल्याणमय ध्वनि थी तो उन्होंने तीनों वेदों से शुभ मंत्रों का उच्चारण किया।

26 हाथी के समान क्रीड़ा करते हुए वे महान भक्तों द्वारा की गई वैदिक स्तुतियों के उत्तर में पुनः गर्जना करके जल में प्रविष्ट हुए। भगवान वैदिक स्तुतियों के लक्ष्य हैं, अतएव वे जान गये कि भक्तों द्वारा स्तुतियाँ उन्हीं के लिए की जा रही है।

27 पृथ्वी का उद्धार करने के लिए जल में प्रवेश करने के पूर्व भगवान वराह अपनी पूँछ फटकारते तथा अपने कड़े बालों को हिलाते हुए आकाश में उड़े। उनकी चितवन चमकीली थी और उन्होंने अपने खुरों तथा चमचमाती सफेद दाढ़ों से आकाश में बादलों को बिखरा दिया।

28 वे साक्षात परम प्रभु विष्णु थे, अतएव दिव्य थे, फिर भी सूकर का शरीर होने से उन्होंने पृथ्वी को उसकी गन्ध से खोज निकाला। उनकी दाढ़ें अत्यन्त भयावनी थीं। उन्होंने स्तुति करने में व्यस्त भक्त-ब्राह्मणों पर अपनी दृष्टि दौड़ाई। इस तरह वे जल में प्रविष्ट हुए।

29 दानवाकार पर्वत की भाँति जल में गोता लगाते हुए भगवान वराह ने समुद्र के मध्यभाग को विभाजित कर दिया और दो ऊँची लहरें समुद्र की भुजाओं की तरह प्रकट हुई जो उच्च स्वर से आर्तनाद कर रही थीं मानो भगवान से प्रार्थना कर रही हों, “हे समस्त यज्ञों के स्वामी, कृपया मेरे दो खण्ड न करें। कृपा करके मुझे संरक्षण प्रदान करें।"

30 भगवान वराह तीरों जैसे नुकीले अपने खुरों से जल में प्रविष्ट हुए और उन्होंने अथाह समुद्र की सीमा पा ली। उन्होंने समस्त जीवों की विश्रामस्थली पृथ्वी को उसी तरह पड़ी देखा जिस तरह वह सृष्टि के प्रारम्भ में थी और उन्होंने उसे स्वयं ऊपर उठा लिया ।

31 भगवान वराह ने बड़ी ही आसानी से पृथ्वी को अपनी दाढ़ों में ले लिया और वे उसे जल से बाहर निकाल लाये। इस तरह वे अत्यन्त भव्य लग रहे थे। तब उनका क्रोध सुदर्शन चक्र की तरह चमक रहा था और उन्होंने तुरन्त उस असुर (हिरण्याक्ष) को मार डाला, यद्यपि वह भगवान से लड़ने का प्रयास कर रहा था।

32 तत्पश्चात भगवान वराह ने उस असुर को जल के भीतर मार डाला जिस तरह एक सिंह हाथी को मारता है। भगवान के गाल तथा जीभ उस असुर के रक्त से उसी तरह रँगे गये जिस तरह हाथी नीललोहित पृथ्वी खोदने से लाल हो जाता है।

33 तब हाथी की तरह क्रीड़ा करते हुए भगवान ने पृथ्वी को अपने सफेद टेढ़े दाँतों के किनारे पर अटका लिया। उनके शरीर का वर्ण तमाल वृक्ष जैसा नीलाभ हो गया और तब ब्रह्मा इत्यादि ऋषि उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान समझ सके और उन्होंने सादर नमस्कार किया।

34 सारे ऋषि अति आदर के साथ बोल पड़े "हे समस्त यज्ञों के अजेय भोक्ता, आपकी जय हो! जय हो! आप साक्षात वेदों के रूप में विचरण कर रहे हैं और आपके शरीर के रोमकूपों में सारे सागर समाये हुए हैं। आपने किन्हीं कारणों से (पृथ्वी का उद्धार करने के लिए) अब सूकर का रूप धारण किया है।

35 हे प्रभु, आपका स्वरूप यज्ञ सम्पन्न करके पूजा के योग्य है, किन्तु दुष्टात्माएँ इसे देख पाने में असमर्थ हैं। गायत्री तथा अन्य सारे वैदिक मंत्र आपकी त्वचा के सम्पर्क में हैं। आपके शरीर के रोम कुश हैं, आपकी आँखें घृत हैं और आपके चार पाँव चार प्रकार के सकाम कर्म हैं।

36 हे प्रभु, आपकी जीभ यज्ञ का पात्र (स्रक) है, आपका नथुना यज्ञ का अन्य पात्र (स्रुवा) है। आपके उदर में यज्ञ का भोजन-पात्र (इडा) है और आपके कानों के छिद्रों में यज्ञ का अन्य पात्र (चमस) है। आपका मुख ब्रह्मा का यज्ञ पात्र (प्राशित्र) है, आपका गला यज्ञ पात्र है, जिसका नाम सोमपात्र है तथा आप जो भी चबाते हैं वह अग्निहोत्र कहलाता है।

37 हे प्रभु, इसके साथ ही साथ सभी प्रकार की दीक्षा के लिए आपके बारम्बार प्राकट्य की आकांक्षा है। आपकी गर्दन तीनों इच्छाओं का स्थान है और आपकी दाढ़ें दीक्षा-फल तथा सभी इच्छाओं का अन्त हैं, आपकी जिव्हा दीक्षा के पूर्व-कार्य हैं, आपका सिर यज्ञ रहित अग्नि तथा पूजा की अग्नि है तथा आपकी जीवनी-शक्ति समस्त इच्छाओं का समुच्चय है।

38 हे प्रभु, आपका तेज (वीर्य) सोम नामक यज्ञ है। आपकी वृद्धि प्रातःकाल सम्पन्न किये जाने वाले कर्मकाण्डिय अनुष्ठान हैं। आपकी त्वचा तथा स्पर्श अनुभूति अग्निष्टोम यज्ञ के सात तत्त्व हैं। आपके शरीर के जोड़ बारह दिनों तक किये जाने वाले विविध यज्ञों के प्रतीक हैं। अतएव आप सोम तथा असोम नामक सभी यज्ञों के लक्ष्य हैं और आप एकमात्र यज्ञों से बँधे हुए हैं।

39 हे प्रभु, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं और वैश्विक-प्रार्थनाओं, वैदिक मंत्रों तथा यज्ञ की सामग्री द्वारा पूजनीय हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। आप समस्त दृश्य तथा अदृश्य भौतिक कल्मष से मुक्त शुद्ध मन द्वारा अनुभवगम्य हैं। हम आपको भक्ति-योग के ज्ञान के परम गुरु के रूप में सादर नमस्कार करते हैं।

40 हे पृथ्वी के उठाने वाले, आपने जिस पृथ्वी को पर्वतों समेत उठाया है, वह उसी तरह सुन्दर लग रही है, जिस तरह जल से बाहर आने वाले क्रुद्ध हाथी के द्वारा धारण की गई पत्तियों से युक्त एक कमलिनी।

41 हे प्रभु, जिस तरह बादलों से अलंकृत होने पर विशाल पर्वतों के शिखर सुन्दर लगने लगते हैं उसी तरह आपका दिव्य शरीर सुन्दर लग रहा है, क्योंकि आप पृथ्वी को अपनी दाढ़ों के सिरे पर उठाये हुए हैं।

42 हे प्रभु, यह पृथ्वी चर तथा अचर दोनों प्रकार के निवासियों के रहने के लिए आपकी पत्नी है और आप परम पिता हैं। हम उस माता पृथ्वी समेत आपको सादर नमस्कार करते हैं जिसमें आपने अपनी शक्ति स्थापित की है, जिस तरह कोई दक्ष यज्ञकर्ता अरणी काष्ठ में अग्नि स्थापित करता है।

43 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो जल के भीतर से पृथ्वी का उद्धार कर सकता है? किन्तु यह आपके लिए बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि ब्रह्माण्ड के सृजन में आपने अति अद्भुत कार्य किया है। अपनी शक्ति से आपने इस अद्भुत विराट जगत की सृष्टि की है।

44 हे परमेश्वर, निस्सन्देह, हम जन, तप तथा सत्य लोकों जैसे अतीव पवित्र लोकों के निवासी हैं फिर भी हम आपके शरीर के हिलने से आपके कंधों तक लटकते बालों के द्वारा छिड़के गए जल की बूँदों से शुद्ध बन गये हैं।

45 हे प्रभु, आपके अद्भुत कार्यों की कोई सीमा नहीं है। जो भी व्यक्ति आपके कार्यों की सीमा जानना चाहता है, वह निश्चय ही मतिभ्रष्ट है। इस जगत में हर व्यक्ति प्रबल योगशक्तियों से बँधा हुआ है। कृपया इन बद्धजीवों को अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान करें।

46 मैत्रेय मुनि ने कहा: इस तरह समस्त महर्षियों तथा दिव्यात्माओं के द्वारा पूजित होकर भगवान ने अपने खुरों से पृथ्वी का स्पर्श किया और उसे जल पर रख दिया।

47 इस प्रकार से समस्त जीवों के पालनहार भगवान विष्णु ने पृथ्वी को जल के भीतर से उठाया और उसे जल के ऊपर तैराते हुए रखकर वे अपने धाम को लौट गये।

48 यदि कोई व्यक्ति भगवान वराह की इस शुभ एवं वर्णनीय कथा को भक्तिभाव से सुनता है अथवा सुनाता है, तो हर एक के हृदय के भीतर स्थित भगवान अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।

49 जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता। दिव्य उपलब्धि के द्वारा मनुष्य अन्य प्रत्येक वस्तु को नगण्य मानता है। जो व्यक्ति दिव्य प्रेमाभक्ति में अपने को लगाता है, वह हर व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान के द्वारा सर्वोच्च सिद्धावस्था तक ऊपर उठा दिया जाता है।

50 मनुष्य के अतिरिक्त ऐसा प्राणी कौन है, जो इस जगत में विद्यमान हो और जीवन के चरम लक्ष्य के प्रति रुचि न रखता हो? भला कौन ऐसा है, जो भगवान के कार्यों से सम्बन्धित उन कथाओं के अमृत से मुख मोड़ सके जो मनुष्य को समस्त भौतिक तापों से उबार सकती हैं?

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बारह – कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि (3.12)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: हे विद्वान विदुर, अभी तक मैंने तुमसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के काल-रूप की महिमा की व्याख्या की है। अब तुम मुझसे समस्त वैदिक ज्ञान के आगार ब्रह्मा की सृष्टि के विषय में सुन सकते हो।

2 ब्रह्मा ने सर्वप्रथम आत्मप्रवंचना, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मिथ्या स्वामित्व का भाव तथा मोहमय शारीरिक धारणा या अपने असली स्वरूप की विस्मृति जैसी अविद्यापूर्ण वृत्तियों की संरचना की।

3 ऐसी भ्रामक सृष्टि को पापमय कार्य मानते हुए ब्रह्माजी को अपने कार्य में अधिक हर्ष का अनुभव नहीं हुआ, अतएव उन्होंने भगवान के ध्यान द्वारा अपने आपको परिशुद्ध किया। तब उन्होंने सृष्टि की दूसरी पारी की शुरुआत की।

4 सर्वप्रथम ब्रह्मा ने चार महान मुनियों को उत्पन्न किया जिनके नाम सनक, सनन्द, सनातन तथा सनत्कुमार हैं। वे सब भौतिकवादी कार्यकलाप ग्रहण करने के लिए अनिच्छुक थे, क्योंकि उर्ध्वरेता होने के कारण वे अत्यधिक उच्चस्थ थे।

5 पुत्रों को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्मा ने उनसे कहा, “पुत्रों, अब तुम लोग सन्तान उत्पन्न करो।" किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव के प्रति अनुरक्त होने के कारण उन्होंने अपना लक्ष्य मोक्ष बना रखा था, अतएव उन्होंने अपनी अनिच्छा प्रकट की।

6 पुत्रों द्वारा अपने पिता के आदेश का पालन करने से इनकार करने पर ब्रह्मा के मन में अत्यधिक क्रोध उत्पन्न हुआ जिसे उन्होंने व्यक्त न करके दबाए रखना चाहा।

7 यद्यपि उन्होंने अपने क्रोध को दबाए रखने का प्रयास किया, किन्तु वह उनकी भौंहों के मध्य से प्रकट हो ही गया जिससे तुरन्त ही नीललोहित रंग का बालक उत्पन्न हुआ।

8 जन्म के बाद वह चिल्लाने लगा: हे भाग्यविधाता, हे जगद्गुरु, कृपा करके मेरा नाम तथा स्थान बतलाईये।

9 कमल के फूल से उत्पन्न हुए सर्वशक्तिमान ब्रह्मा ने उसकी याचना स्वीकार करते हुए मृदु वाणी से उस बालक को शान्त किया और कहा: मत चिल्लाओ। जैसा तुम चाहोगे मैं वैसा ही करूँगा।

10 ब्रह्मा ने कहा: हे देवताओं में प्रधान, सभी लोगों के द्वारा तुम रुद्र के नाम से जाने जाओगे, क्योंकि तुम इतनी उत्सुकतापूर्वक चिल्लाये हो।

11 हे बालक, मैंने तुम्हारे निवास के लिए पहले से निम्नलिखित स्थान चुन लिये हैं: हृदय, इन्द्रियाँ, प्राणवायु, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तपस्या ।

12 ब्रह्माजी ने कहा: हे बालक रुद्र, तुम्हारे ग्यारह अन्य नाम भी हैं – मन्यु, मनु, महिनस, महान, शिव, ऋतुध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव तथा धृतव्रत ।

13 हे रुद्र, तुम्हारी ग्यारह पत्नियाँ भी हैं, जो रुद्राणी कहलाती हैं और वे इस प्रकार हैं – धी, धृति, रसला, उमा, नियुत, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, स्वधा तथा दीक्षा।

14 हे बालक, अब तुम अपने तथा अपनी पत्नियों के लिए मनोनीत नामों तथा स्थानों को स्वीकार करो और चूँकि अब तुम जीवों के स्वामियों में से एक हो अतः तुम व्यापक स्तर पर जनसंख्या बढ़ा सकते हो।

15 नील-लोहित शारीरिक रंग वाले अत्यन्त शक्तिशाली रुद्र ने अपने ही समान स्वरूप, बल तथा उग्र स्वभाव वाली अनेक सन्तानें उत्पन्न कीं।

16 रुद्र द्वारा उत्पन्न पुत्रों तथा पौत्रों की संख्या असीम थी और जब वे एकत्र हुए तो वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को निगलने लगे। जब जीवों के पिता ब्रह्मा ने यह देखा तो वे इस स्थिति से भयभीत हो उठे।

17 ब्रह्मा ने रुद्र से कहा: हे देवश्रेष्ठ, तुम्हें इस प्रकार के जीवों को उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने अपने नेत्रों की दहकती लपटों से सभी दिशाओं की सारी वस्तुओं को विध्वंस करना शुरू कर दिया है और मुझ पर भी आक्रमण किया है।

18 हे पुत्र, अच्छा हो कि तुम तपस्या में स्थित होओ जो समस्त जीवों के लिए कल्याणप्रद है और जो तुम्हें सारे वर दिला सकती है। केवल तपस्या द्वारा तुम पूर्ववत ब्रह्माण्ड की रचना कर सकते हो।

19 एकमात्र तपस्या से उन भगवान के भी पास पहुँचा जा सकता है, जो प्रत्येक जीव के हृदय के भीतर हैं किन्तु साथ ही साथ समस्त इन्द्रियों की पहुँच के बाहर हैं।

20 श्री मैत्रेय ने कहा: इस तरह ब्रह्मा द्वारा आदेशित होने पर रुद्र ने वेदों के स्वामी अपने पिता की प्रदक्षिणा की। हाँ कहते हुए उन्होंने तपस्या करने के लिए वन में प्रवेश किया।

21 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने पर ब्रह्मा ने जीवों को उत्पन्न करने की सोची और सन्तानों के विस्तार हेतु उन्होंने दस पुत्र उत्पन्न किये।

22 इस तरह मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा दसवें पुत्र नारद उत्पन्न हुए।

23 नारद ब्रह्मा के शरीर के सर्वोच्च अंग मस्तिष्क से उत्पन्न पुत्र हैं। वसिष्ठ उनकी श्वास से, दक्ष अँगूठे से, भृगु उनके स्पर्श से तथा क्रतु उनके हाथ से उत्पन्न हुए।

24 पुलस्त्य ब्रह्मा के कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि आँखों से, मरीचि मन से तथा पुलह नाभि से उत्पन्न हुए।

25 धर्म ब्रह्मा के वक्षस्थल से प्रकट हुआ जहाँ पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण आसीन हैं और अधर्म उनकी पीठ से प्रकट हुआ जहाँ जीव के लिए भयावह मृत्यु उत्पन्न होती है।

26 काम तथा इच्छा ब्रह्मा के हृदय से, क्रोध उनकी भौंहों के बीच से, लालच उनके ओठों के बीच से, वाणी की शक्ति उनके मुख से, समुद्र उनके लिंग से तथा निम्न एवं गर्हित कार्यकलाप समस्त पापों के स्रोत उनकी गुदा से प्रकट हुए।

27 महान देवहूति के पति कर्दम मुनि ब्रह्मा की छाया से प्रकट हुए। इस तरह सभी कुछ ब्रह्मा के शरीर से या मन से प्रकट हुआ।

28 हे विदुर, हमने सुना है कि ब्रह्मा के वाक नाम की पुत्री थी जो उनके शरीर से उत्पन्न हुई थी जिसने उनके मन को यौन की ओर आकृष्ट किया यद्यपि वह उनके प्रति कामासक्त नहीं थी।

29 अपने पिता को अनैतिकता के कार्य में इस प्रकार मुग्ध पाकर मरीचि इत्यादि ब्रह्मा के सारे पुत्रों ने अतीव आदरपूर्वक यह कहा।

30 हे पिता, आप जिस कार्य में अपने को उलझाने का प्रयास कर रहे हैं उसे न तो किसी अन्य ब्रह्मा द्वारा न किसी अन्य के द्वारा, न ही पूर्व कल्पों में आपके द्वारा, कभी करने का प्रयास किया गया, न ही भविष्य में कभी कोई ऐसा दुस्साहस ही करेगा। आप ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च प्राणी हैं, अतः आप अपनी पुत्री के साथ संसर्ग क्यों करना चाहते हैं और अपनी इच्छा को वश में क्यों नहीं कर सकते?

31 यद्यपि आप सर्वाधिक शक्तिमान जीव हैं, किन्तु यह कार्य आपको शोभा नहीं देता क्योंकि सामान्य लोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए आपके चरित्र का अनुकरण करते हैं।

32 हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने आत्मस्थ होकर अपने ही तेज से इस ब्रह्माण्ड को प्रकट किया है। वे समस्त कल्याण हेतु धर्म की रक्षा करें!

33 अपने समस्त प्रजापति पुत्रों को इस प्रकार बोलते देख कर समस्त प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा अत्यधिक लज्जित हुए और तुरन्त ही उन्होंने अपने द्वारा धारण किये हुए शरीर को त्याग दिया। बाद में वही शरीर अंधकार में भयावह कुहरे के रूप में सभी दिशाओं में प्रकट हुआ।

34 एक बार जब ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि विगत कल्प की तरह लोकों की सृष्टि कैसे की जाय तो चारों वेद, जिनमें सभी प्रकार का ज्ञान निहित है, उनके चारों मुखों से प्रकट हो गये।

35 अग्नि यज्ञ को समाहित करने वाली चार प्रकार की साज-सामग्री प्रकट हुई। ये प्रकार हैं यज्ञकर्ता, होता, अग्नि तथा उपवेदों के रूप में सम्पन्न कर्म। धर्म के चार सिद्धान्त (सत्य, तप, दया, शौच) एवं चारों आश्रमों के कर्तव्य भी प्रकट हुए।

36 विदुर ने कहा; हे तपोधन महामुनि, कृपया यह बतलाएँ कि ब्रह्मा ने किस तरह और किसकी सहायता से उस वैदिक ज्ञान की स्थापना की जो उनके मुख से निकला था।

37 मैत्रेय ने कहा: ब्रह्मा के सामने वाले मुख से प्रारम्भ होकर क्रमशः चारों वेद –ऋक, यजुः, साम और अथर्व--आविर्भूत हुए। तत्पश्चात इसके पूर्व अनुच्चरित वैदिक स्त्तोत्र, पौरोहित्य अनुष्ठान, पाठ की विषयवस्तु तथा दिव्य कार्यकलाप एक-एक करके स्थापित किये गये।

38 उन्होंने औषधि विज्ञान, सैन्य विज्ञान, संगीत कला तथा स्थापत्य विज्ञान की सृष्टि भी वेदों से की। ये सभी सामने वाले मुख से प्रारम्भ होकर क्रमशः प्रकट हुए।

39 तब उन्होंने अपने सारे मुखों से पाँचवें वेद – पुराणों तथा इतिहासों – की सृष्टि की, क्योंकि वे सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्य को देख सकते थे।

40 ब्रह्मा के पूर्वी मुख से विभिन्न प्रकार के समस्त अग्नि यज्ञ (षोडशी, उक्थ, पूरीषि, अग्निष्टोम, आप्तोर्याम, अतिरात्र, वाजपेय तथा गोसव) प्रकट हुए।

41 शिक्षा, दान, तपस्या तथा सत्य को धर्म के चार पाँव कहा जाता है और इन्हें सीखने के लिए चार आश्रम हैं जिनमें वृत्तियों के अनुसार जातियों (वर्णों) का अलग-अलग विभाजन रहता है। ब्रह्मा ने इन सबों की क्रमबद्ध रूप में रचना की।

42 तत्पश्चात द्विजों के लिए यज्ञोपवीत संस्कार (सावित्र) का सूत्रपात हुआ और उसी के साथ वेदों की स्वीकृति के कम से कम एक वर्ष बाद तक पालन किये जाने वाले नियमों (प्राजापत्यम), यौनजीवन से पूर्ण विरक्ति के नियम (बृहत), वैदिक आदेशों के अनुसार वृत्तियाँ (वार्ता), गृहस्थ जीवन के विविध पेशेवर कर्तव्य (संचय), परित्यक्त अन्नों को बीन कर (शिलोञ्छ) तथा किसी का सहयोग लिए बिना (अयाचित) जीविका चलाने की विधि का सूत्रपात हुआ।

43 वानप्रस्थ जीवन के चार विभाग हैं – वैखानस, वाल-खिल्य, औदुम्बर तथा फेनप। संन्यास आश्रम के चार विभाग हैं – कुटीचक, बह्वोद, हंस तथा निष्क्रिय । ये सभी ब्रह्मा से प्रकट हुए थे।

44 तर्कशास्त्र विज्ञान, जीवन के वैदिक लक्ष्य, कानून तथा व्यवस्था, आचार संहिता तथा भूः भूवः स्वः नामक विख्यात मंत्र--ये सब ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए और उनके हृदय से प्रणव ॐकार प्रकट हुआ।

45 तत्पश्चात सर्वशक्तिमान प्रजापति के शरीर के रोमों से उष्णीक अर्थात साहित्यिक अभिव्यक्ति की कला उत्पन्न हुई। प्रमुख वैदिक मंत्र गायत्री जीवों के स्वामी की चमड़ी से उत्पन्न हुआ, त्रिष्टूप उनके माँस से, अनुष्टुप उनकी शिराओं से तथा जगती छन्द उनकी हड्डियों से उत्पन्न हुआ।

46 पंक्ति श्लोक लिखने की कला का उदय अस्थिमज्जा से हुआ और एक अन्य श्लोक बृहती लिखने की कला जीवों के स्वामी के प्राण से उत्पन्न हुई।

47 ब्रह्मा की आत्मा स्पर्श अक्षरों के रूप में, उनका शरीर स्वरों के रूप में, उनकी इन्द्रियाँ ऊष्म अक्षरों के रूप में, उनका बल अन्तःस्थ अक्षरों के रूप में और उनके ऐन्द्रिय कार्यकलाप संगीत के सप्त स्वरों के रूप में प्रकट हुए।

48 ब्रह्मा दिव्य ध्वनि के रूप में भगवान के साकार स्वरूप हैं, अतएव वे व्यक्त तथा अव्यक्त की धारणा से परे हैं। ब्रह्मा परम सत्य के पूर्ण रूप हैं और नानाविध शक्तियों से समन्वित हैं।

49 तत्पश्चात ब्रह्मा ने दूसरा शरीर धारण किया जिसमें यौन जीवन निषिद्ध नहीं था और इस तरह वे आगे सृष्टि के कार्य में लग गये।

50 हे कुरुपुत्र, जब ब्रह्मा ने देखा अत्यन्त तेजवान ऋषियों के होते हुए भी जनसंख्या में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई तो वे गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे कि जनसंख्या किस तरह बढ़ायी जाय।

51 ब्रह्मा ने अपने आप सोचा: हाय यह विचित्र बात है कि मेरे सर्वत्र फैले हुए रहने पर भी ब्रह्माण्ड भर में जनसंख्या अब भी अपर्याप्त है। इस दुर्भाग्य का कारण एकमात्र भाग्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

52 जब वे इस तरह विचारमग्न थे और अलौकिक शक्ति को देख रहे थे तो उनके शरीर से दो अन्य रूप उत्पन्न हुए। वे अब भी ब्रह्मा के शरीर के रूप में विख्यात हैं।

53 ये दोनों पृथक हुए शरीर यौन सम्बन्ध में एक दूसरे से संयुक्त हो गये।

54 इनमें से जिसका नर रूप था वह स्वायम्भुव मनु कहलाया और नारी शतरूपा कहलायी जो महात्मा मनु की रानी के रूप में जानी गई।

55 तत्पश्चात उन्होंने शारीरिक संसर्ग द्वारा क्रमशः एक एक करके जनसंख्या की पीढ़ियों में वृद्धि की।

56 हे भरतपुत्र, समय आने पर उसने (मनु ने) शतरूपा से पाँच सन्तानें उत्पन्न कीं – दो पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद एवं तीन कन्याएँ आकूति, देवहूति तथा प्रसूति।

57 पिता मनु ने अपनी पहली पुत्री आकूति रुचि मुनि को दी, मझली पुत्री देवहूति कर्दम मुनि को और सबसे छोटी पुत्री प्रसूति दक्ष को दी। उनसे सारा जगत जनसंख्या से पूरित हो गया।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय ग्यारह – परमाणु से काल की गणना (3.11)

1 भौतिक अभिव्यक्ति का अनन्तिम कण जो कि अविभाज्य है और शरीर रूप में निरूपित नहीं हुआ हो, परमाणु कहलाता है। यह सदैव अविभाज्य सत्ता के रूप में विद्यमान रहता है यहाँ तक कि समस्त स्वरूपों के विलीनीकरण (लय) के बाद भी। भौतिक देह ऐसे परमाणुओं का संयोजन ही तो है, किन्तु सामान्य मनुष्य इसे गलत ढंग से समझता है।

2 परमाणु अभिव्यक्त ब्रह्माण्ड की चरम अवस्था है। जब वे विभिन्न शरीरों का निर्माण किये बिना अपने ही रूपों में रहते हैं, तो वे असीमित एकत्व (कैवल्य) कहलाते हैं। निश्चय ही भौतिक रूपों में विभिन्न शरीर हैं, किन्तु परमाणु स्वयं में पूर्ण अभिव्यक्ति का निर्माण करते हैं।

3 काल को शरीरों के पारमाणविक संयोग की गतिशीलता के द्वारा मापा जा सकता है। काल उन सर्वशक्तिमान भगवान हरि की शक्ति है, जो समस्त भौतिक गति का नियंत्रण करते हैं यद्यपि वे भौतिक जगत में दृष्टिगोचर नहीं हैं।

4 परमाणु काल का मापन परमाणु के अवकाश विशेष को तय कर पाने के अनुसार किया जाता है। वह काल जो परमाणुओं के अव्यक्त समुच्चय को प्रच्छन्न करता है महाकाल कहलाता है।

5 स्थूल काल की गणना इस प्रकार की जाती है: दो परमाणु मिलकर एक द्विगुण परमाणु (अणु) बनाते हैं और तीन द्विगुण परमाणु (अणु) एक षट परमाणु बनाते हैं। यह षटपरमाणु उस सूर्य प्रकाश में दृष्टिगोचर होता है, जो खिड़की के परदे के छेदों से होकर प्रवेश करता है। यह आसानी से देखा जा सकता है कि षटपरमाणु आकाश की ओर ऊपर जाता है।

6 तीन त्रसरेणुओं के समुच्चयन में जितना समय लगता है, वह त्रुटि कहलाता है और एक सौ त्रुटियों का एक वेध होता है । तीन वेध मिलकर एक लव बनाते हैं ।

7 तीन लवों की कालावधि एक निमेष के तुल्य है, तीन निमेष मिलकर एक क्षण बनाते हैं, पाँच क्षण मिलकर एक काष्ठा और पन्द्रह काष्ठा मिलकर एक लघु बनाते हैं।

8 पन्द्रह लघु मिलकर एक नाडिका बनाते हैं जिसे दण्ड भी कहा जाता है। दो दण्ड से एक मुहूर्त बनता है और मानवीय गणना के अनुसार छह या सात दण्ड मिलकर दिन या रात का चतुर्थांश बनाते हैं।

9 एक नाडिका या दण्ड के मापने का पात्र छह पल भार (14 औंस) वाले ताम्र पात्र से तैयार किया जा सकता है, जिसमें चार माशा भार वाले तथा चार अंगुल लम्बे सोने की सलाई से एक छेद बनाया जाता है। जब इस पात्र को जल में रखा जाता है, तो इस पात्र को लबालब भरने में जो समय लगता है, वह एक दण्ड कहलाता है।

10 यह भी गणना की गई है कि मनुष्य के दिन में चार प्रहर या याम होते हैं और रात में भी चार प्रहर होते हैं। इसी तरह पन्द्रह दिन तथा पन्द्रह रातें पखवाड़ा कहलाती हैं और एक मास में दो पखवाड़े (पक्ष) उजाला (शुक्ल) तथा अँधियारा (कृष्ण) होते हैं ।

11 दो पक्षों को मिलाकर एक मास होता है और यह अवधि पितृलोकों का पूरा एक दिन तथा रात है। ऐसे दो मास मिलकर एक ऋतु बनाते हैं और छह मास मिलकर दक्षिण से उत्तर तक सूर्य की पूर्ण गति को बनाते हैं।

12 दो सौर गतियों से देवताओं का एक दिन तथा एक रात बनते हैं और दिन-रात का यह संयोग मनुष्य के एक पूर्ण पंचांग वर्ष के तुल्य है। मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष की है।

13 सारे ब्रह्माण्ड के प्रभावशाली नक्षत्र, ग्रह, तारे तथा परमाणु पर ब्रह्म के प्रतिनिधि दिव्य काल के निर्देशानुसार अपनी अपनी कक्षाओं में चक्कर लगाते हैं।

14 सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र तथा आकाश के तारों के पाँच भिन्न-भिन्न नाम हैं और उनमें से प्रत्येक का अपना संवत्सर है।

15 हे विदुर, सूर्य अपनी असीम ऊष्मा तथा प्रकाश से सारे जीवों को जीवन देता है। वह सारे जीवों की आयु को इसलिए कम करता है कि उन्हें भौतिक अनुरक्ति के मोह से छुड़ाया जा सके। वह स्वर्गलोक तक ऊपर जाने के मार्ग को लम्बा (प्रशस्त) बनाता है। इस तरह वह आकाश में बड़े वेग से गतिशील है, अतएव हर एक को चाहिए कि प्रत्येक पाँच वर्ष में एक बार पूजा की समस्त सामग्री के साथ उसको नमस्कार करे ।

16 विदुर ने कहा: मैं पितृलोकों, स्वर्गलोकों के निवासियों तथा मनुष्यों की आयु को समझ पाया हूँ। कृपया अब मुझे उन महान विद्वान जीवों की जीवन अवधि के विषय में बतायें जो कल्प की परिधि के परे हैं।

17 हे आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली, आप उस नित्य काल की गतियों को समझ सकते हैं, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का नियंत्रक स्वरूप है। चूँकि आप स्वरूपसिद्ध व्यक्ति हैं, अतः आप योग दृष्टि की शक्ति से हर वस्तु देख सकते हैं।

18 मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, चारों युग – सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि युग कहलाते हैं। इन सबों के कुल वर्षों का योग देवताओं के बारह हजार वर्षों के बराबर है।

19 सतयुग की अवधि देवताओं के 4800 वर्ष के तुल्य है; त्रेतायुग की अवधि 3600 दैवी वर्षों के तुल्य, द्वापर युग की 2400 वर्ष तथा कलियुग की अवधि 1200 दैवी वर्षों के तुल्य है।

20 प्रत्येक युग के पहले तथा बाद के सन्धिकाल, जो कि कुछ सौ वर्षों के होते हैं, जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, दक्ष ज्योतिर्विदों के अनुसार युग-संध्या या दो युगों के सन्धिकाल कहलाते हैं। इन अवधियों में सभी प्रकार के धार्मिक कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।

21 हे विदुर, सतयुग में मानव जाति ने उचित तथा पूर्णरूप से धर्म के सिद्धान्तों का पालन किया, किन्तु अन्य युगों में ज्यों ज्यों अधर्म प्रवेश पाता गया त्यों त्यों धर्म क्रमशः एक एक अंश घटता गया।

22 तीन लोकों (स्वर्ग, मर्त्य तथा पाताल) के बाहर चार युगों को एक हजार से गुणा करने से ब्रह्मा के लोक का एक दिन होता है। ऐसी ही अवधि की ब्रह्मा की रात होती है, जिसमें ब्रह्माण्ड का स्रष्टा सो जाता है।

23 ब्रह्मा की रात्रि के अन्त होने पर, ब्रह्मा के दिन के समय तीनों लोकों का पुनः सृजन प्रारम्भ होता है और वे एक के बाद एक लगातार चौदह मनुओं के जीवन काल तक विद्यमान रहते हैं।

24 प्रत्येक मनु चतुर्युगों के इकहत्तर से कुछ अधिक समूहों का जीवन भोग करता है।

25 प्रत्येक मनु के अवसान के बाद क्रम से अगला मनु अपने वंशजों के साथ आता है, जो विभिन्न लोकों पर शासन करते हैं। किन्तु सात विख्यात ऋषि तथा इन्द्र जैसे देवता एवं गन्धर्व जैसे उनके अनुयायी मनु के साथ साथ प्रकट होते हैं।

26 ब्रह्मा के दिन के समय सृष्टि में तीनों लोक—स्वर्ग, मर्त्य तथा पाताल लोक चक्कर लगाते हैं तथा मनुष्येतर पशु, मनुष्य, देवता तथा पितृगण समेत सारे निवासी अपने अपने सकाम कर्मों के अनुसार प्रकट तथा अप्रकट होते रहते हैं।

27 प्रत्येक मनु के बदलने के साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विभिन्न अवतारों के रूप में यथा मनु इत्यादि के रूप में अपनी अन्तरंगा शक्ति प्रकट करते हुए अवतीर्ण होते हैं। इस तरह प्राप्त हुई शक्ति से वे ब्रह्माण्ड का पालन करते हैं।

28 दिन का अन्त होने पर तमोगुण के नगण्य अंश के अन्तर्गत ब्रह्माण्ड की शक्तिशाली अभिव्यक्ति रात के अँधेरे में लीन हो जाती है। नित्यकाल के प्रभाव से असंख्य जीव उस प्रलय में लीन रहते हैं और हर वस्तु मौन रहती है।

29 जब ब्रह्मा की रात शुरू होती है, तो तीनों लोक दृष्टिगोचर नहीं होते और सूर्य तथा चन्द्रमा तेज विहीन हो जाते हैं जिस तरह कि सामान्य रात के समय होता है।

30 संकर्षण के मुख से निकलने वाली अग्नि के कारण प्रलय होता है और इस तरह भृगु इत्यादि महर्षि तथा महर्लोक के अन्य निवासी उस प्रज्ज्वलित अग्नि की ऊष्मा से, जो नीचे के तीनों लोकों में लगी रहती है, व्याकुल होकर जनलोक को चले जाते हैं।

31 प्रलय के प्रारम्भ में सारे समुद्र उमड़ आते हैं और भीषण हवाएँ उग्र रूप से चलती हैं। इस तरह समुद्र की लहरें भयावह बन जाती हैं और देखते ही देखते तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं।

32 परमेश्वर अर्थात भगवान हरि अपनी आँखें बन्द किए हुए अनन्त के आसन पर जल में लेट जाते हैं और जनलोक के निवासी हाथ जोड़ कर भगवान की महिमामयी स्तुतियाँ करते हैं।

33 इस तरह ब्रह्माजी समेत प्रत्येक जीव के लिए आयु की अवधि के क्षय की विधि विद्यमान रहती है। विभिन्न लोकों में काल के सन्दर्भ में हर किसी जीव की आयु केवल एक सौ वर्ष तक होती है।

34 ब्रह्मा के जीवन के एक सौ वर्ष दो भागों में विभक्त हैं प्रथमार्ध तथा द्वितीयार्ध या परार्ध। ब्रह्मा के जीवन का प्रथमार्ध समाप्त हो चुका है और द्वितीयार्ध अब चल रहा है।

35 ब्रह्मा के जीवन के प्रथमार्ध के प्रारम्भ में ब्राह्म-कल्प नामक कल्प था जिसमें ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। वेदों का जन्म ब्रह्मा के जन्म के साथ साथ हुआ।

36 प्रथम ब्राह्म कल्प के बाद का कल्प पाद्म कल्प कहलाता है, क्योंकि उस काल में विश्वरूप कमल का फूल भगवान हरि के नाभि रूपी जलाशय से प्रकट हुआ।

37 हे भरतवंशी, ब्रह्मा के जीवन के द्वितीयार्ध में प्रथम कल्प वाराह कल्प भी कहलाता है, क्योंकि उस कल्प में भगवान सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे।

38 जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ब्रह्मा के जीवन के दो भागों की अवधि भगवान के लिए एक निमेष (एक सेकेण्ड से भी कम) के बराबर परिगणित की जाती है। भगवान अपरिवर्तनीय तथा असीम हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त कारणों के कारण हैं।

39 नित्य काल निश्चय ही परमाणु से लेकर ब्रह्मा की आयु के परार्धों तक के विभिन्न आयामों का नियन्ता है, किन्तु तो भी इसका नियंत्रण सर्वशक्तिमान (भगवान) द्वारा होता है। काल केवल उनका नियंत्रण कर सकता है, जो सत्यलोक या ब्रह्माण्ड के अन्य उच्चतर लोकों तक में देह में अभिमान करने वाले हैं।

40 यह दृश्य भौतिक जगत चार अरब मील के व्यास तक फैला हुआ है, जिसमें आठ भौतिक तत्त्वों का मिश्रण है, जो सोलह अन्य कोटियों में, भीतर-बाहर निम्नवत रूपान्तरित हैं।

41 ब्रह्माण्डों को ढके रखने वाले तत्त्वों की परतें पिछले वाली से दस गुनी अधिक मोटी होती हैं और सारे ब्रह्माण्ड एकसाथ सम्पुञ्जित होकर परमाणुओं के विशाल संयोग जैसे प्रतीत होते हैं।

42 इसलिए भगवान श्रीकृष्ण समस्त कारणों के आदि कारण कहलाते हैं। इस प्रकार विष्णु का आध्यात्मिक धाम निस्सन्देह शाश्वत है और यह समस्त अभिव्यक्तियों के उद्गम महाविष्णु का भी धाम है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दस – सृष्टि के विभाग (3.10)

1 श्री विदुर ने कहा: हे महर्षि, कृपया मुझे बतायें कि लोकवासियों के पितामह ब्रह्मा ने भगवान के अन्तर्धान हो जाने पर किस तरह से अपने शरीर तथा मन से जीवों के शरीरों को उत्पन्न किया?

2 हे महान विद्वान, कृपा करके मेरे सारे संशयों का निवारण करें और मैंने आपसे जो कुछ जिज्ञासा की है उसे आदि से अन्त तक मुझे बताएँ।

3 सूत गोस्वामी ने कहा: हे भृगुपुत्र, महर्षि मैत्रेय मुनि विदुर से इस तरह सुनकर अत्यधिक प्रोत्साहित हुए। हर वस्तु उनके हृदय में थी, अतः वे प्रश्नों का एक एक करके उत्तर देने लगे।

4 परम विद्वान मैत्रेय मुनि ने कहा: हे विदुर, इस तरह भगवान द्वारा दी गई सलाह के अनुसार ब्रह्मा ने एक सौ दिव्य वर्षों तक अपने को तपस्या में संलग्न रखा और अपने को भगवान की भक्ति में लगाये रखा।

5 तत्पश्चात ब्रह्मा ने देखा कि वह कमल जिस पर वे स्थित थे तथा वह जल जिसमें कमल उगा था प्रबल प्रचण्ड वायु के कारण काँप रहे हैं।

6 दीर्घकालीन तपस्या तथा आत्म-साक्षात्कार के दिव्य ज्ञान ने ब्रह्मा को व्यावहारिक ज्ञान में परिपक्व बना दिया था, अतः उन्होंने वायु को पूर्णत: जल के साथ पी लिया।

7 तत्पश्चात उन्होंने देखा कि वह कमल, जिस पर वे आसीन थे, ब्रह्माण्ड भर में फैला हुआ है और उन्होंने विचार किया कि उन समस्त लोकों को किस तरह उत्पन्न किया जाय जो इसके पूर्व उसी कमल में लीन थे।

8 इस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की सेवा में लगे ब्रह्माजी कमल के कोश में प्रविष्ट हुए और चूँकि वह सारे ब्रह्माण्ड में फैला हुआ था, अतः उन्होंने इसे ब्रह्माण्ड के तीन विभागों में और उसके बाद चौदह विभागों में बाँट दिया।

9 परिपक्व दिव्य ज्ञान में भगवान की अहैतुकी भक्ति के कारण ब्रह्माजी ब्रह्माण्ड में सर्वोच्च पुरुष हैं। इसीलिए उन्होंने विभिन्न प्रकार के जीवों के निवास स्थान के लिए चौदह लोकों का सृजन किया।

10 विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे प्रभु, हे परम विद्वान ऋषि, कृपा करके नित्यकाल का वर्णन करें जो अद्भुत अभिनेता परमेश्वर का दूसरा रूप है। नित्य काल के क्या लक्षण हैं? कृपा करके हमसे विस्तार से कहें।

11 मैत्रेय ने कहा: नित्यकाल ही प्रकृति के तीनों गुणों की अन्योन्य क्रियाओं का आदि स्रोत है। यह अपरिवर्तनशील तथा सीमारहित है और भौतिक सृजन की लीलाओं में यह भगवान के निमित्त रूप में कार्य करता है।

12 यह विराट जगत भौतिक शक्ति के रूप में अप्रकट तथा भगवान के निर्वेशेष स्वरूप काल द्वारा भगवान से विलग किया हुआ है। यह विष्णु की उसी भौतिक शक्ति के प्रभाव के अधीन भगवान की वस्तुगत अभिव्यक्ति के रूप में स्थित है।

13 यह विराट जगत जैसा अब है वैसा ही रहता है। यह भूतकाल में भी ऐसा ही था और भविष्य में इसी तरह रहेगा।

14 उस एक सृष्टि के अतिरिक्त जो गुणों की अन्योन्य क्रियाओं के फलस्वरूप स्वाभाविक रूप से घटित होती है नौ प्रकार की अन्य सृष्टियाँ भी हैं। नित्य काल, भौतिक तत्त्वों तथा मनुष्य के कार्य के गुण के कारण प्रलय तीन प्रकार का है।

15 नौ सृष्टियों में से पहली सृष्टि महत तत्त्वसृष्टि अर्थात भौतिक घटकों की समग्रता है, जिसमें परमेश्वर की उपस्थिति के कारण गुणों में परस्पर क्रिया होती है। द्वितीय सृष्टि में मिथ्या अहंकार उत्पन्न होता है, जिसमें से भौतिक घटक, भौतिक ज्ञान तथा भौतिक कार्यकलाप प्रकट होते हैं।

16 इन्द्रिय विषयों का सृजन तृतीय सृष्टि में होता है और इनसे तत्त्व उत्पन्न होते हैं। चौथी सृष्टि है ज्ञान तथा कार्य-क्षमता (क्रियाशक्ति) का सृजन।

17 पाँचवी सृष्टि सतोगुण की अन्योन्य क्रिया द्वारा बने अधिष्ठाता देवों की है, जिसका सार समाहार मन है। छठी सृष्टि जीव के अज्ञानतापूर्ण अंधकार की है। जीव अज्ञान से, भौतिक वस्तुओं के स्वामी होने की मिथ्या भावना से बद्ध है।

18 उपर्युक्त समस्त सृष्टियाँ भगवान की बहिरंगा शक्ति की प्राकृतिक सृष्टियाँ हैं। अब मुझसे उन ब्रह्माजी द्वारा की गई सृष्टियों के विषय में सुनो जो रजोगुण के अवतार हैं और सृष्टि के मामले में जिनका मस्तिष्क भगवान जैसा ही है।

19 सातवीं सृष्टि अचर प्राणियों की है, जो छह प्रकार के हैं: फूलरहित फलवाले वृक्ष, फल पकने तक जीवित रहने वाले पेड़-पौधे, लताएँ, नलीदार पौधे; बिना आधार वाली लताएँ तथा फलफूल वाले वृक्ष।

20 सारे अचर पेड़-पौधे ऊपर की ओर बढ़ते हैं। वे अचेतप्राय होते हैं, किन्तु भीतर ही भीतर उनमें पीड़ा की अनुभूति होती है। वे नाना प्रकारों में प्रकट होते हैं।

21 आठवीं सृष्टि निम्नतर जीवयोनियों की है और उनकी अट्ठाईस विभिन्न जातियाँ हैं। वे सभी अत्यधिक मूर्ख तथा अज्ञानी होती हैं। वे गन्ध से अपनी इच्छित वस्तुएँ जान पाती हैं, किन्तु हृदय में कुछ भी स्मरण रखने में अशक्य होती हैं।

22 हे शुद्धतम विदुर, निम्नतर पशुओं में गाय, बकरी, भैंस, काला बारहसिंगा, सूकर, नीलगाय, हिरण, मेंढा तथा ऊँट ये सब दो खुरों वाले हैं।

23 घोड़ा, खच्चर, गधा, गौर, शरभ-भैंसा तथा चँवरी गाय इन सबों में केवल एक खुर होता है। अब मुझसे उन पशुओं के बारे में सुनो जिनके पाँच नाखून होते हैं।

24 कुत्ता, सियार, बाघ, लोमड़ी, बिल्ली, खरगोश, सजारु (स्याही), सिंह, बन्दर, हाथी, कछुवा, मगर, गोसाप (गोह) इत्यादि के पंजों में पाँच नाखून होते हैं। वे पंचनख अर्थात पाँच नाखूनों वाले पशु कहलाते हैं।

25 कंक, गीध, बगुला, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चक्रवाक, कौवा, उल्लू इत्यादि पक्षी कहलाते हैं।

26 मनुष्यों की सृष्टि क्रमानुसार नौवीं है। यह ऐसी योनि (जाति) है जो अपना आहार उदर में संचित करते हैं। मानव जाति में रजोगुण की प्रधानता होती है। मनुष्यगण दुखी जीवन में भी सदैव व्यस्त रहते हैं, किन्तु वे अपने को सभी प्रकार से सुखी समझते हैं।

27 हे श्रेष्ठ विदुर, ये अन्तिम तीन सृष्टियाँ तथा देवताओं की सृष्टि (दसवीं सृष्टि) वैकृत सृष्टियाँ हैं, जो पूर्ववर्णित प्राकृत (प्राकृतिक) सृष्टियों से भिन्न हैं। कुमारों का प्राकट्य दोनों ही सृष्टियाँ हैं।

28-29 देवताओं की सृष्टि आठ प्रकार की है – (1) देवता (2) पितरगण (3) असुरगण (4) गन्धर्व तथा अप्सराएँ (5) यक्ष तथा राक्षस (6) सिद्ध, चारण तथा विद्याधर, (7) भूत, प्रेत तथा पिशाच (8) किन्नर – अति मानवीय प्राणी, देवलोक के गायक इत्यादि। ये सब ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं।

30 अब मैं मनुओं के वंशजों का वर्णन करूँगा। स्रष्टा ब्रह्मा जो कि भगवान के रजोगुणी अवतार हैं भगवान की शक्ति के बल से प्रत्येक कल्प में अचूक इच्छाओं सहित विश्व प्रपंच की सृष्टि करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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