jagdish chandra chouhan's Posts (549)

Sort by

10861985471?profile=RESIZE_710x

अध्याय पाँच – भगवान ऋषभदेव द्वारा अपने पुत्रों को उपदेश (5.5)

1 भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा: हे पुत्रों इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं। मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने को तपस्या में लगाये। ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है, जो भौतिक आनन्द से परे है और अनवरत चलने वाला है।

2 आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत महापुरुषों की सेवा करके ही मनुष्य भव-बन्धन से मुक्ति का मार्ग प्राप्त कर सकता है। ये महापुरुष निर्विशेषवादी तथा भक्त होते हैं। ईश्वर से तदाकार होने अथवा भगवान का संग प्राप्त करने के इच्छुक प्रत्येक मनुष्य को महात्माओं की सेवा करनी चाहिए। ऐसे कर्मों में रुचि न रखने वाले लोग, जो स्त्री प्रेमी व्यक्तियों की संगति करते हैं उनके लिए नरक का द्वार खुला रहता है। महात्मा समभाव वाले होते हैं। वे एक जीवात्मा तथा दूसरे में कोई अन्तर नहीं देखते। वे अत्यन्त शान्त होते हैं और भक्ति में पूर्णतया लीन रहते हैं। वे क्रोधरहित होते हैं और सभी के कल्याण के लिए कार्य करते हैं। वे कोई निंद्य आचरण नहीं करते। ऐसे व्यक्ति महात्मा कहलाते हैं।

3 जो लोग कृष्णचेतना को पुनरुज्जीवित करने तथा अपना ईश्वर-प्रेम बढ़ाने के इच्छुक हैं, वे ऐसा कुछ नहीं करना चाहते जो श्रीकृष्ण से सम्बन्धित न हो। वे उन लोगों से मेलजोल नहीं बढ़ाते जो अपने शरीर-पालन, भोजन, शयन, मैथुन तथा स्वरक्षा में व्यस्त रहते हैं। वे गृहस्थ होते हुए भी अपने घरबार के प्रति आसक्त नहीं होते। वे पत्नी, सन्तान, मित्र अथवा धन में भी आसक्त नहीं होते, किन्तु साथ ही वे अपने कर्तव्यों के प्रति अन्यमनस्क नहीं रहते। ऐसे पुरुष अपने जीवन-निर्वाह के लिए जितना चाहिए उतना ही धन संग्रह करते हैं।

4 जब मनुष्य इन्द्रियतृप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मान बैठता है, तो वह भौतिक रहन-सहन के पीछे प्रमत्त होकर सभी प्रकार के पापकर्मों में प्रवृत्त होता है। वह नहीं जानता कि अपने विगत पापकर्मों के ही कारण उसे यह क्षणभंगुर शरीर प्राप्त हुआ है, जो दुखों की खान है। वास्तव में जीवात्मा को भौतिक देह नहीं मिलनी चाहिए थी, किन्तु इन्द्रियतृप्ति के लिए ऐसा हुआ है। अतः मैं मानता हूँ कि बुद्धिमान प्राणी के लिए यह शोभा नहीं देता कि वह पुनः इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में प्रवृत्त हो, जिससे एक के बाद दूसरा शरीर उसे प्राप्त होता रहता है।

5 जब तक जीव को आत्म-तत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती तब तक उसे अज्ञानजन्य कष्ट भोगने पड़ते हैं और उसकी पराजय होती रहती है। कर्म का फल पाप अथवा पुण्य कुछ भी हो सकता है। यदि मनुष्य किसी कर्म में व्यस्त रहता है, तो उसका मन सकाम कर्म में रंगा हुआ कहा जाता है। जब तक मन अशुद्ध रहता है, चेतना अस्पष्ट रहती है और जब तक मनुष्य सकाम कर्मों में लगा रहता है, तब तक उसे देह धारण करनी पड़ती है।

6 जब जीवात्मा तमोगुण से आच्छादित रहता है, तो वह न तो आत्मा को और न परम-आत्मा को समझता है और उसका मन सकाम कर्म के वशीभूत रहता है। अतः जब तक उसकी मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होती, तब तक उसे देह-बन्धन को स्वीकार करने से छुटकारा नहीं मिल पाता।

7 भले कोई कितना ही विद्वान तथा चतुर क्यों न हो, यदि वह यह नहीं समझ पाता कि इन्द्रियतृप्ति के लिए की जाने वाली चेष्टाएँ व्यर्थ ही समय की बरबादी है, तो वह पागल है। वह आत्म-हित को भूलकर इस संसार में विषय-वासना-प्रधान तथा समस्त भौतिक क्लेशों के आगार अपने घर में आसक्त रहकर प्रसन्न रहना चाहता है। इस प्रकार मनुष्य मूर्ख पशु के ही तुल्य होता है।

8 स्त्री तथा पुरुष के मध्य का आकर्षण भौतिक अस्तित्व का मूल नियम है। इस भ्रान्त धारणा के कारण स्त्री तथा पुरुष के हृदय परस्पर जुड़े रहते है। फलस्वरूप मनुष्य अपने शरीर, घर, सन्तान, स्वजन तथा धन के प्रति आकृष्ट होता है। इस प्रकार वह जीवन के मोहों को बढ़ाता है और "मैं तथा मेरा" के रूप में सोचता है।

9 जब पूर्व कर्मफलों के कारण भौतिक जीवन में फँसे हुए व्यक्ति के हृदय की मजबूत गाँठ ढीली पड़ जाती है, तो वह घर, स्त्री तथा सन्तान के प्रति अपनी आसक्ति से विमुख होने लगता है। इस तरह उसका मोह (मैं तथा मेरा) टूट जाता है, वह मुक्त हो जाता है और उसे दिव्य लोक की प्राप्ति होती है।

10-13 हे पुत्रों तुम्हें सिद्ध गुरु अर्थात परमहंस को ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार तुम मुझ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान पर अपनी श्रद्धा तथा प्रेम रखो। तुम्हें इन्द्रियतृप्ति से घृणा करनी चाहिए तथा ग्रीष्म एवं शीत ऋतु के समान आनन्द तथा पीड़ा की द्वैतता को सहना चाहिए। उन जीवात्माओं की कष्टमय दशा को समझने का प्रयास करो, जो स्वर्ग में भी दुखी रहती हैं। सत्य का दार्शनिक तौर पर अन्वेषण करो। फिर भक्ति के निमित्त समस्त प्रकार की तपस्या करो। इन्द्रियसुख के लिए प्रयत्नों का परित्याग करके ईश्वर की सेवा में लगो। भगवान की कथा का श्रवण करो और सदैव भक्तों की संगति करो। ईश्वर का कीर्तन और गुणगान करो और सबों को आध्यात्मिक स्तर पर समभाव से देखो। शत्रुता त्याग कर क्रोध तथा शोक का दमन करो। स्वयं को देह तथा घर के साथ न जोड़ते हुए शास्त्रों का अध्ययन करो। एकान्त वास करो और प्राणवायु (श्वास), मन तथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करने का अभ्यास करो। वैदिक साहित्य अर्थात शास्त्रों पर पूर्ण श्रद्धा रखो और सदैव ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करो। अपने कर्तव्यों को करते हुए व्यर्थ की बातें करने से बचो। सदैव भगवान का चिन्तन करते हुए सही स्रोत से ज्ञान प्राप्त करो। इस प्रकार उत्साह एवं धैर्यपूर्वक भक्तियोग का अभ्यास करते रहने से तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा और अहंकार जाता रहेगा।

14 हे पुत्रों, तुम्हें मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करना चाहिए। अत्यन्त सावधान रहना। इन विधियों से तुम लोग सकर्म-अभिलाषा की अविद्या से छूट सकोगे और तुम्हारे हृदय में स्थित बन्धनरूपी ग्रंथि पूर्णतया कट जाएगी। तदनन्तर और अधिक उन्नति के लिए तुम्हें साधनों का परित्याग कर देना चाहिए, अर्थात तुम्हें मुक्ति-क्रिया में ही आसक्त नहीं हो जाना चाहिए।

15 यदि किसी मनुष्य को घर लौटने अर्थात ईश्वर के धाम वापस जाने की अभिलाषा हो, तो उसे चाहिए कि वह भगवान के अनुग्रह को जीवन का परम लक्ष्य माने। यदि वह पिता है, तो अपने पुत्रों को, यदि गुरु है, तो अपने शिष्यों को और यदि राजा है, तो अपनी प्रजा को, इसी प्रकार शिक्षा दे जैसा कि मैंने उपदेश दिया है। उसे चाहिए कि क्रोधरहित इन्हें शिक्षा देते रहें, भले ही शिष्य, पुत्र अथवा प्रजा उनकी आज्ञा का पालन करने में कभी-कभी असमर्थ क्यों न रहें। कर्म-मूढ़ो को जो पाप एवं पुण्य कर्मों में लगे रहते हैं, चाहिए कि वे सभी प्रकार से भक्ति में लगें। उन्हें सकाम कर्म से सदैव बचना चाहिए। यदि शिष्य, पुत्र या प्रजा, जो दिव्य दृष्टि से रहित हो, उसे कर्म के बन्धन में डाला जाये तो भला वह कैसे लाभान्वित होगा? यह अन्धे मनुष्य को अँधेरे कुएँ तक ले जाने और उसे गिरने देने जैसा है।

16 भौतिकतावादी व्यक्ति अज्ञानवश अपना सच्चा हित नहीं समझ पाता जो जीवन का कल्याणकारी मार्ग है। वह भौतिक सुख की कामेच्छाओं से बँधा रहता है और उसकी सारी योजनाएँ इसी एक कार्य के लिए तैयार होती हैं। ऐसा व्यक्ति क्षणिक सुख के लिए वैरपूर्ण समाज की सृष्टि करता है और अपनी मानसिकता के कारण वह दुख के सागर में कूद पड़ता है। ऐसे मूर्ख व्यक्ति को इसका ज्ञान भी नहीं होता।

17 यदि कोई अज्ञानी है और संसार-पथ में लिप्त है, तो भला उसे कोई विद्वान, दयालु तथा आत्मज्ञानी पुरुष सकाम कर्म करने तथा भौतिक संसार में और अधिक फँसने के लिए क्योंकर प्रवृत्त करेगा? यदि कोई अन्धा व्यक्ति उल्टी राह पर जा रहा हो, तो ऐसा कौन-सा सज्जन पुरुष होगा, जो उसे संकट के पथ पर और आगे जाने देगा? वह इस विधि को क्यों सही मानने लगा? कोई भी बुद्धिमान अथवा दयालु व्यक्ति ऐसा नहीं होने देगा।

18 “जो अपने आश्रित को बारम्बार के जन्म-मृत्यु के पथ से न उबार सके उसे कभी भी गुरु, पिता, पति, माँ या आराध्य देव नहीं बनना चाहिए।"

19 मेरा दिव्य शरीर (सच्चिदानन्द विग्रह) मानव सदृश दिखता है, किन्तु यह भौतिक मनुष्य शरीर नहीं है। यह अकल्पनीय है। मुझे प्रकृति द्वारा बाध्य होकर किसी विशेष प्रकार का शरीर नहीं धारण करना पड़ता, मैं अपनी इच्छानुकूल शरीर धारण करता हूँ। मेरा हृदय भी दिव्य है और मैं सदैव अपने भक्तों का कल्याण चाहता रहता हूँ। इसलिए मेरे हृदय में भक्ति पूरित है, जो भक्तों के लिए है। मैंने अधर्म को हृदय से बहुत दूर भगा दिया है। मुझे अभक्ति के कार्य बिल्कुल अच्छे नहीं लगते। इन दिव्य गुणों के कारण सामान्य रूप से लोग मेरी उपासना भगवान ऋषभदेव के रूप में करते हैं, जो सर्व–जीवात्माओं में श्रेष्ठ है।

20 मेरे प्रिय पुत्रों, तुम सभी मेरे हृदय से उत्पन्न हो जो समस्त दिव्य गुणों का केन्द्र है। अतः तुम्हें संसारी तथा ईर्ष्यालु मनुष्यों के समान नहीं होना है। तुम अपने सबसे बड़े भाई भरत को मानो, क्योंकि वह भक्ति में श्रेष्ठ है। यदि तुम लोग भरत की सेवा करोगे तो उसकी सेवा में मेरी सेवा सम्मिलित होगी और तुम स्वयमेव प्रजा पर शासन करोगे।

21-22 दो प्रकार की प्रकट शक्तियों (आत्मा तथा जड़ पदार्थ) में से जीवशक्ति (वनस्पति, घास, वृक्ष तथा पौधे) जड़ पदार्थ (पत्थर, पृथ्वी इत्यादि) से श्रेष्ठ है। इन अचर पौधों तथा वनस्पतियों की तुलना में रेंगने वाले कीट तथा सरीसृप श्रेष्ठ हैं। कीटों तथा सरीसृपों से पशु श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनमें बुद्धि है। पशुओं से मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों से भूत-प्रेत क्योंकि उनके कोई भौतिक शरीर नहीं होता। भूत-प्रेतों से गन्धर्व और गन्धर्वों से सिद्ध श्रेष्ठ होते हैं। सिद्धों से किन्नर और किन्नरों से असुर श्रेष्ठ हैं। असुरों से देवता और देवताओं में स्वर्ग का राजा इन्द्र श्रेष्ठ है। इन्द्र से भी श्रेष्ठ ब्रह्मा के पुत्र, जैसे कि राजा दक्ष और ब्रह्मा के इन पुत्रों में भगवान शिव सर्वश्रेष्ठ हैं। शिव ब्रह्मा के पुत्र हैं इसलिए ब्रह्मा श्रेष्ठ माने जाते हैं किन्तु वे मुझ भगवान के अधीन हैं। चूँकि मैं ब्राह्मणों को पूज्य मानता हूँ इसलिए ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं।

23 हे पूज्य ब्राह्मणों, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, इस संसार में ब्राह्मणों के तुल्य या उनसे श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है। मैं उनसे तुलना योग्य किसी को नहीं पाता। वैदिक नियमों के अनुसार यज्ञ करने के पीछे जो मेरे उद्देश्य है, उसे जब लोग समझ लेते हैं, तो वे मेरे निमित्त अर्पित भोग अत्यन्त श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक ब्राह्मण-मुख के द्वारा मुझे प्रदान करते हैं। इस प्रकार प्रदत्त भोजन को मैं अत्यन्त प्रसन्न होकर ग्रहण करता हूँ। निस्सन्देह इस प्रकार से प्रदत्त भोजन को मैं अग्निहोत्र में होम किये भोजन की अपेक्षा अधिक प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता हूँ।

24 वेद मेरे शाश्वत दिव्य शब्दावतार हैं, इसलिए वे शब्द-ब्रह्म हैं। इस जगत में ब्राह्मण समस्त वेदों का सम्यक अध्ययन करते हैं और उनको आत्मसात कर लेते हैं, इसलिए उन्हें साक्षात मूर्तरूप वेद माना जाता है। ब्राह्मण सतोगुणी होते हैं फलस्वरूप उनमें शम, दम एवं सत्य के गुण पाये जाते हैं। वे वेदों का मूल अर्थ वर्णन करते हैं और अनुग्रहवश समस्त बद्धजीवों को वेदों के उद्देश्य का उपदेश देते हैं। वे तपस्या तथा तितिक्षा का अभ्यास करते हैं और जीवात्मा तथा परम ईश्वर के पदों का अनुभव करते हैं। ये ही ब्राह्मणों के आठ गुण (सत्त्व, शम, दम, सत्य, अनुग्रह, तपस्या, तितिक्षा तथा अनुभव) हैं। अतः समस्त जीवों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं।

25 मैं ब्रह्मा तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र से भी अधिक ऐश्वर्यवान, शक्तिमान तथा श्रेष्ठ हूँ। मैं स्वर्गलोक में प्राप्त होने वाले समस्त सुखों को तथा मोक्ष को देने वाला हूँ। तो भी ब्राह्मण मुझसे भौतिक सुख की कामना नहीं करते। वे अत्यन्त पवित्र तथा निस्पृह हैं। वे मात्र मेरी ही भक्ति में लगे रहते हैं। भला उन्हें अन्य किसी से भौतिक लाभों के लिए याचना करने की क्या आवश्यकता है?

26 हे पुत्रों, तुम्हें चराचर किसी जीवात्मा से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। यह जानते हुए कि मैं उनमें स्थित हूँ, प्रत्येक क्षण उनका समादर करना चाहिए। इस प्रकार तुम मेरा आदर करो।

27 मन, दृष्टि, वचन तथा समस्त ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रियों का वास्तविक कार्य मेरी सेवा में लगे रहना है। जब तक जीवात्मा की इन्द्रियाँ इस प्रकार सेवारत नहीं रहतीं, तब तक जीवात्मा को यमराज के पाश सदृश सांसारिक बन्धन से निकल पाना दुष्कर है।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार सबके हितैषी परमेश्वर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया। यह आदर्श प्रस्तुत करने के लिए कि गृहस्थ जीवन से विरक्त होने के पूर्व पिता अपने पुत्रों को किस प्रकार शिक्षा दे, उन्होंने उन्हें शिक्षा दी, यद्यपि वे सभी पूर्णतया शिक्षित तथा शिष्ट थे। इन उपदेशों से सकाम कर्मों से न बँधने वाले तथा अपनी भौतिक कामनाओं को नष्ट करने के बाद भक्ति में लीन रहने वाले संन्यासी भी लाभ उठाते हैं। ऋषभदेव ने अपने एक सौ पुत्रों को शिक्षा दी जिनमें से सबसे बड़ा भरत था, जो परम भक्त तथा वैष्णवों का अनुयायी था। भगवान ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को सिंहासन पर इसलिए बिठाया कि वह सारे संसार पर शासन करे। इसके पश्चात घर में रहते हुए भगवान ऋषभदेव पागल के सदृश निर्वस्त्र तथा बाल बिखेरे रहने लगे। तब यज्ञ-अग्नि को अपने में लीन करके विश्व का भ्रमण करने के लिए उन्होंने ब्रह्मावर्त को छोड़ दिया।

29 अवधूत रूप धारण करके भगवान ऋषभदेव अन्धे, बहरे तथा गूँगे, जड़, भूत अथवा पागल के समान मनुष्य-समाज में घूमने लगे। यद्यपि लोग उन्हें इन नामों से पुकारते, किन्तु वे मूक बने रहते और किसी से कुछ नहीं बोलते थे।

30 ऋषभदेव नगरों, गाँवों, खानों, किसानों की बस्तियों, घाटियों, बागों, सैनिक छावनियों, गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों, यात्रियों के विश्रामालयों, पर्वतों, जंगलों तथा आश्रमों के बीच घूमने लगे। जहाँ भी वे जाते, उन्हें दुष्ट जन उसी प्रकार घेर लेते जिस प्रकार जंगली हाथी को मक्खियाँ घेर लेती हैं। उन्हें डराया धमकाया और मारा जाता, उन पर पेशाब किया जाता और थूका जाता। यहाँ तक कि कभी-कभी उन पर पत्थर, विष्ठा और धूल फेंकी जाती और कभी-कभी तो लोग उनके समक्ष अपानवायु निकालते। इस प्रकार लोग उन्हें भला-बुरा कहते और अत्यधिक यातना देते, किन्तु उन्होंने कभी भी इसकी परवाह नहीं की, क्योंकि वे यह समझते थे कि इस शरीर का यही अन्त है। वे आत्म-पद पर स्थित थे और सिद्ध होने से ऐसे भौतिक तिरस्कारों की तनिक भी परवाह नहीं करते थे। अर्थात उन्हें इसका पूर्ण ज्ञान हो चुका था कि पदार्थ (देह) तथा आत्मा पृथक-पृथक हैं। उनमें देहात्म-बुद्धि न थी। अतः वे किसी पर क्रुद्ध हुए बिना सारे संसार में अकेले ही घूमने लगे।

31 भगवान ऋषभदेव के हाथ, पाँव तथा वक्षस्थल अत्यन्त दीर्घ थे। उनके कंधे, मुख तथा अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सुगठित तथा सुकोमल थे। उनका मुख उनकी सहज मुस्कान से मण्डित था और उनके खुले हुए लाल-लाल नेत्र ऐसे प्रतीत होते थे मानो प्रातःकालीन ओस कणों से युक्त नव विकसित कमलपुष्प की पंखड़ियाँ हों। इस कारण वे और भी अधिक सुन्दर दिखते थे उनकी पुतलियाँ इतनी मनोहर थीं कि देखने वालों का सारा सन्ताप हर लेती थीं। उनके कपोल, कान, गर्दन, नाक तथा अन्य अंग अतीव सुन्दर थे। उनके मन्द हास से उनका मुख इतना आकर्षक प्रतीत होता था कि विवाहित नारियों का भी मन खींच जाता था। उनके सिर के चारों ओर घुँघराली भूरी जटाएँ थीं। उनके सिर के बाल छितरे थे, उनका शरीर धूल-धूसरित और उपेक्षित था। ऐसा प्रतीत होता था मानो उन्हें किसी भूत ने सता रखा हो।

32 जब ऋषभदेव ने देखा कि जनता उनकी योग-साधना में विघ्न रूप है, तो उन्होंने इसकी प्रतिक्रिया में अजगर का सा आचरण (वृत्ति) ग्रहण कर लिया। वे एक ही स्थान पर लेटे रहने लगे। वे लेटे ही लेटे खाते, पीते, पेशाब तथा मल त्याग करते और उसी पर लोट-पोट करते। यहाँ तक कि वे अपने सारे शरीर को अपने ही मल-मूत्र से सान लेते जिससे कि उनके विरोधी उन्हें विचलित न करें।

33 इस अवस्था में रहने के कारण जनता ने ऋषभदेव को परेशान नहीं किया। उनका मल-मूत्र इतना सुगन्धित था कि अस्सी मील तक का प्रदेश इसकी सुगन्ध से सुरभित हो गया। इस प्रकार ऋषभदेव ने गायों, हिरणों तथा कौवों की वृत्ति का अनुगमन किया। कभी वे इधर-इधर चलते तो कभी एक स्थान पर बैठे रहते। कभी वे लेट जाते।

34 इस प्रकार वे गाय, हिरण तथा कौवे के समान ही आचरण करते। उन्हीं के समान वे खाते-पीते तथा मल-मूत्र का त्याग करते। इस प्रकार वे लोगों को धोखे में रखे रहे।

35 हे राजा परीक्षित, श्रीकृष्ण के अंश भगवान ऋषभदेव ने समस्त योगियों को योगसाधना प्रदर्शित करने के उद्देश्य से अनेक विचित्र कार्य किये। वे मुक्ति के स्वामी थे और दिव्य आनन्द में सतत लीन रहते थे। जो हजारों गुणा बढ़ गया था। वसुदेव के पुत्र वासुदेव कृष्ण उनके आदि कारण हैं। उनके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं, फलतः भगवान ऋषभदेव रोने, हँसने तथा थरथराने के प्रिय लक्षण प्रकट करने लगे। वे दिव्य प्रेम में सदैव निमग्न रहते। फलस्वरूप सभी योग शक्तियाँ अपने आप उनके पास पहुँचती – यथा मन की गति से आकाश-गमन, प्रकट और अदृश्य होना, अन्यों के शरीर में प्रवेश कर जाना तथा दूरस्थ वस्तुओं को देख पाना। यद्यपि वे इन सबको कर सकने में समर्थ थे, किन्तु उन्होंने इन शक्तियों का प्रयोग नहीं किया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10861969486?profile=RESIZE_584x

अध्याय चार – भगवान ऋषभदेव के लक्षण (5.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जन्म से ही महाराज नाभि के पुत्र में भगवान के लक्षण प्रकट थे, यथा चरणतल के चिन्ह (ध्वज, वज्र इत्यादि)। यह पुत्र सबों के साथ समभाव रखनेवाला और अत्यन्त शान्त स्वभाव का था। यह अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में कर सकता था और परम ऐश्वर्यवान होने के कारण उसे भौतिक सुख की लिप्सा नहीं थी। इन समस्त गुणों से सम्पन्न होने के कारण महाराज नाभि का पुत्र दिनों-दिन शक्तिशाली बनता गया। फलतः समस्त नागरिकों, विद्वान ब्राह्मणों देवताओं तथा मंत्रियों ने चाहा कि ऋषभदेव पृथ्वी के शासक बनें।

2 जब महाराज नाभि का पुत्र प्रकट हुआ, तो उसमें महाकवियों द्वारा वर्णित समस्त उत्तम गुण दिखाई पड़े यथा ईश्वर के लक्षणों से युक्त सुगठित शरीर, शौर्य, बल, सुन्दरता, नाम, यश, प्रभाव तथा उत्साह। जब उसके पिता महाराज नाभि ने इन समस्त गुणों को देखा, तो उसे मनुष्यों में श्रेष्ठतम अथवा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति मानकर उसका नाम ऋषभ रख दिया।

3 भौतिक रूप से महान ऐश्वर्यशाली स्वर्ग का राजा इन्द्र राजा ऋषभदेव से ईर्ष्या करने लगा। अतः उसने भारतवर्ष नामक लोक पर जल बरसाना बन्द कर दिया। उस समय समस्त योगों के स्वामी भगवान ऋषभदेव इन्द्र का प्रयोजन समझ गये और थोड़ा मुस्काये। तब उन्होंने अपने शौर्य तथा योगमाया से अजनाभ नाम से विख्यात अपने देश में अत्यधिक वर्षा की।

4 अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर राजा नाभि दिव्य आनन्द के कारण विह्वल और पुत्र के प्रति अत्यन्त वत्सल हो उठे। उन्होंने गदगद वाणी से उसे "मेरे प्रिय पुत्र! मेरे प्यारे!“ शब्दों से सम्बोधित किया। ऐसी बुद्धि योगमाया से उत्पन्न हुई जिसके कारण उन्होंने परम पिता भगवान को अपने पुत्र रूप में स्वीकार किया। ईश्वर भी अपनी परमेच्छा के कारण उनके पुत्र बने और सबों के साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे वे कोई सामान्य मनुष्य हो। इस प्रकार वे अपने दिव्य पुत्र का बड़े ही लाड़-प्यार से लालन-पालन करने लगे और वे दिव्य आनन्द, हर्ष तथा भक्ति से भावविभोर हो गये।

5 राजा नाभि ने समझ लिया था कि उनका पुत्र ऋषभदेव नागरिकों, प्रशासकों तथा मंत्रियों में अत्यन्त लोकप्रिय है। अतः उन्होंने वैदिक धर्म-पद्धति अनुसार जनता की रक्षा के उद्देश्य से अपने पुत्र को संसार के सम्राट के रूप में अभिषिक्त कर दिया और उसे विद्वान ब्राह्मणों के हाथों में सौंप दिया जो शासन चलाने में उसका मार्गदर्शन कर सकें। फिर महाराज नाभि अपनी पत्नी मेरुदेवी के साथ हिमालय पर्वत स्थित बद्रीकाश्रम में गये और वहाँ पर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक एवं निपुणता के साथ तपस्या में लग गये। पूर्ण समाधि में उन्होंने कृष्ण के ही अंश रूप भगवान नर-नारायण की उपासना की, अतः कालक्रम में महाराज नाभि को वैकुण्ठ प्राप्त हुआ।

6 हे महाराज परीक्षित, महाराज नाभि के यशोगान में प्राचीन मुनियों ने दो श्लोक रचे। उनमें से एक यह है "महाराज नाभि जैसी सिद्धि अन्य कौन प्राप्त कर सकता है? उनके कर्मों तक कौन पहुँच सकता है? जिनकी भक्ति के कारण भगवान ने उनका पुत्र बनना स्वीकार किया।"

7 [दूसरी स्तुति इस प्रकार है]“ महाराज नाभि से बढ़कर ब्राह्मणों का उपासक (भक्त) कौन हो सकता है? चूँकि राजा ने योग्य ब्राह्मणों को पूजा से पूर्णतया संतुष्ट कर दिया था। इसलिए अपने ब्रह्म-तेज से उन्होंने महाराज नाभि को भगवान नारायण का साक्षात दर्शन करा दिया।

8 "महाराज नाभि के बदरिकाश्रम प्रस्थान के पश्चात परम ईश ऋषभदेव ने अपने राज्य को ही अपना कर्मक्षेत्र समझा। अतः उन्होंने सर्वप्रथम गुरुओं के निर्देश में ब्रह्मचर्य स्वीकार करके अपना दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए गृहस्थ के कर्तव्यों की शिक्षा दी। वे गुरुकुल में वास करने भी गये। शिक्षा पूरी होने पर उन्होंने गुरु-दक्षिणा दी और तब गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुए। उन्होंने जयन्ती नामक पत्नी ग्रहण की और उससे एक सौ पुत्र उत्पन्न किये जो उनके ही समान बलवान तथा योग्य थे। उनकी पत्नी जयन्ती स्वर्ग के राजा इन्द्र द्वारा उन्हें भेंट में दी गई थी। ऋषभदेव तथा जयन्ती ने श्रुति तथा स्मृति शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट अनुष्ठानों का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया।

9 ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था, जो श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न महान भक्त था। उसी के सम्मान में इस लोक को भारतवर्ष कहते हैं।

10 भरत के अतिरिक्त उनके निन्यानवे पुत्र और भी थे। इनमें से नौ बड़े पुत्रों के नाम कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ तथा कीकट थे।

11-12 इन पुत्रों के अतिरिक्त कवि, हवि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्लायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस तथा करभाजन भी हुए। ये सभी परम भक्त एवं श्रीमदभागवत के प्रामाणिक उपदेशक थे। ये भक्त भगवान वासुदेव के प्रति अपनी उत्कट भक्ति के कारण महिमा-मण्डित थे। मन की पूर्ण तुष्टि के लिए मैं (शुकदेव गोस्वामी) इन नौ भक्तों के चरित्रों का वर्णन आगे चलकर नारद-वसुदेव संवाद प्रसंग के अन्तर्गत करूँगा।

13 उपर्युक्त उन्नीस पुत्रों के अतिरिक्त ऋषभदेव तथा जयन्ती से इक्यासी पुत्र और थे। ये अपने पिता की आज्ञानुसार अति सुसंस्कृत, शालीन, उज्ज्वल कर्मों वाले तथा वैदिक ज्ञान तथा अनुष्ठानिक कार्यों में निपुण हुए। इस प्रकार ये सभी पूर्ण रूप से योग्य ब्राह्मण बन गये।

14 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अवतार होने से भगवान ऋषभदेव पूर्ण स्वतंत्र थे क्योंकि उनका यह स्वरूप शाश्वत तथा दिव्य आनन्दमय था। उन्हें भौतिक तापों के चार नियमों (जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि) से कोई सरोकार न था, न ही वे भौतिक दृष्टि से आसक्त थे। वे समानदर्शी थे। अन्यों को दुखी देखकर दुखी होते थे। वे समस्त जीवात्माओं के शुभचिन्तक थे। यद्यपि वे महान पुरुष परमेश्वर तथा सर्व-नियन्ता थे, तो भी वे ऐसा आचरण कर रहे थे, मानो कोई सामान्य बद्धजीव हो। अतः उन्होंने दृढ़तापूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए तदनुसार कर्म किया। कालान्तर में वर्णाश्रम धर्म के नियम उपेक्षित हो चुके थे, फलतः अपने निजी गुणों तथा आचरण से उन्होंने अज्ञानी जनता को वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत कर्तव्य करना सिखाया। इस प्रकार उन्होंने सामान्य लोगों को गृहस्थाश्रम में प्रशिक्षित किया जिससे वे धार्मिक तथा आर्थिक उन्नति कर सकें और यश, सन्तान, आनन्द तथा अन्त में शाश्वत जीवन प्राप्त कर सकें। अपने उपदेशों से उन्होंने लोगों को गृहस्थाश्रम में रहते हुए वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करते हुए परिपूर्ण बनने की शिक्षा दी।

15 महापुरुष जैसा जैसा आचरण करते हैं, सामान्यजन उसी का अनुकरण करते हैं।

16 यद्यपि भगवान ऋषभदेव समस्त गुह्य वैदिक ज्ञान से परिचित थे, जिसमें सभी करणीय कर्मों से सम्बन्धित जानकारी सम्मिलित हैं, तो भी वे अपने को क्षत्रिय मान कर ब्राह्मणों के उन उपदेशों का अनुकरण करते थे, जिनका सम्बन्ध साम (मन पर नियंत्रण), दम (इन्द्रियों पर नियंत्रण), तितिक्षा (सहनशीलता) इत्यादि से था। इस प्रकार उन्होंने वर्णाश्रम-धर्म पद्धति से जनता पर शासन किया। इसके अनुसार ब्राह्मण क्षत्रियों को शिक्षा देता है और क्षत्रिय वैश्यों तथा शूद्रों के माध्यम से राज्य चलाता है।

17 भगवान ऋषभदेव ने शास्त्रों के अनुसार सभी यज्ञों को सौ सौ बार सम्पन्न किया और इस प्रकार से भगवान विष्णु को सभी प्रकार से तुष्ट किया। सभी अनुष्ठान उत्तम कोटि की सामग्री से तथा उचित समय में और पवित्र स्थानों पर युवा तथा श्रद्धालु पुरोहितों द्वारा सम्पन्न हुए। इस प्रकार भगवान विष्णु की पूजा की गई और समस्त देवताओं को प्रसाद वितरित किया गया। सारे अनुष्ठान तथा उत्सव सफल हुए ।

18 कोई भी व्यक्ति 'आकाश-कुसुम' जैसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता क्योंकि उसे पता रहता है कि ऐसी वस्तुएँ विद्यमान नहीं हैं। जब भगवान ऋषभदेव इस भारतवर्ष-भूमि में राज्य कर रहे थे तो सामान्य जनता को भी किसी समय या किसी प्रकार से किसी वस्तु की इच्छा नहीं रह गई थी। कोई भी 'आकाश-कुसुम' नहीं चाहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सभी लोग पूर्णतया संतुष्ट थे, अतः किसी को किसी भी प्रकार की वस्तु माँगने की आवश्यकता नहीं थी। सभी लोग राजा के अतीव स्नेह में मग्न थे। चूँकि यह स्नेह निरन्तर बढ़ता गया इसलिए वे किसी भी वस्तु की याचना करने के इच्छुक नहीं थे।

19 एक बार भगवान ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त नामक देश में पहुँचे। वहाँ पर विद्वान ब्राह्मणों की एक बड़ी सभा हो रही थी और राजा के सभी पुत्र बड़े ही मनोयोग से ब्राह्मणों का उपदेश सुन रहे थे। उस सभा में, समस्त नागरिकों के समक्ष ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को शिक्षा दी, यद्यपि वे पहले से ही अच्छे आचरण वाले, भक्त और योग्य थे। उन्होंने इसलिए शिक्षा दी, जिससे वे भविष्य में अच्छी तरह संसार का शासन चला सकें। वे इस प्रकार बोले।

 

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

Read more…

10861960893?profile=RESIZE_710x

अध्याय तीन – राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव का जन्म (5.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: आग्नीध्र के पुत्र महाराज नाभि ने सन्तान की इच्छा की, इसलिए उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं स्वामी भगवान विष्णु की अत्यन्त मनोयोग से स्तुति एवं आराधना प्रारम्भ की। उस समय तक महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी ने किसी सन्तान को जन्म नहीं दिया था, अतः वह भी अपने पति के साथ भगवान विष्णु की आराधना करने लगी।

2 यज्ञ में भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के सात दिव्य साधन है-- 1- बहुमूल्य सामग्रियों या खाद्य पदार्थों का अर्पण (द्रव्य), 2-देश-अनुरूप कार्य करना, 3- काल अनुरूप कार्य करना, 4- स्तुति अर्पण (मंत्र), 5-पुरोहित लगाना (ऋत्विक), 6- पुरोहितों को दान देना (दक्षिणा) तथा 7- विधि-नियमों का पालन करना। किन्तु सदैव ही इन सामग्रियों से भगवान को प्राप्त नहीं किया जा सकता, तो भी ईश्वर अपने भक्त पर वत्सल रहते हैं। अतः जब भक्त महाराज नाभि ने शुद्ध मन से अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्ति सहित प्रवर्ग्य यज्ञ करते हुए ईश्वर की आराधना और प्रार्थना की तो अपने भक्तों पर वत्सलता के कारण परम कृपालु भगवान राजा नाभि के समक्ष अपने दुर्जेय तथा चतुर्भुजी आकर्षक रूप में प्रकट हुए। इस प्रकार से भगवान ने अपने भक्त की मनोकामना पूर्ण करने के लिए उसके समक्ष अपना मनोहर रूप प्रकट किया। यह रूप भक्तों के मन तथा नेत्रों को प्रमुदित करने वाला है।

3 भगवान विष्णु राजा नाभि के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। वे अत्यन्त तेजोमय थे और समस्त महापुरुषों में सर्वोत्तम प्रतीत होते थे। वे अधोभाग में रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे, उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह था, जो सदैव शोभा देता है। उनके चारों हाथों में शंख, कमल, चक्र तथा गदा थे उनके गले में वनपुष्पों की माला तथा कौस्तुभमणि थी। वे मुकुट, कुण्डल, कंकण, करधनी, मुक्ताहार, बाजूबन्द, नूपुर तथा अन्य रत्नजटित आभूषणों से शोभित थे। भगवान को अपने समक्ष देखकर राजा नाभि, उनके पुरोहित तथा पार्षद वैसा ही अनुभव कर रहे थे जिस प्रकार किसी निर्धन को सहसा अथाह धनराशि प्राप्त हो जाए। उन्होंने भगवान का स्वागत किया, आदरपूर्वक प्रणाम किया तथा स्तुति करके वस्तुएँ भेंट कीं।

4-5 ऋत्विज-गण इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगे – हे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं। यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किंचित सेवा स्वीकार करें। हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमें शिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं। जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अतः वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिक अवधारणाओं से परे हैं। आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि की कल्पना के परे हैं। भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है? इस भौतिक जगत में हम केवल नाम तथा गुण देख पाते हैं। हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जाति के पाप धुल जाते हैं। यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थिति को अंशमात्र ही जान सकते हैं।

6 हे परमेश्वर, आप सभी प्रकार से पूर्ण हैं। जब आपके भक्त गदगद वाणी से आपकी स्तुति करते हैं तथा आह्लादवश तुलसीदल, जल, पल्लव तथा दूब के अंकुर चढ़ाते हैं, तो आप निश्चय ही परम संतुष्ट होते हैं।

7 हमने आपकी पूजा में आपको अनेक वस्तुएँ अर्पित की हैं और आपके लिए अनेक यज्ञ किये है, किन्तु हम सोचते हैं कि आपको प्रसन्न करने के लिए इतने सारे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं है।

8 आप में प्रतिक्षण प्रत्यक्षतया, स्वयमेव, निरन्तर एवं असीमत जीवन के समस्त लक्ष्यों एवं ऐश्वर्यों की वृद्धि हो रही है। दरअसल, आप स्वयं ही असीम सुख तथा आनन्द से युक्त हैं। हे ईश्वर, हम तो सदा ही भौतिक सुखों के फेर में रहते हैं। आपको इन समस्त याज्ञिक आयोजनों की आवश्यकता नहीं है। ये तो हमारे लिए हैं जिससे हम आपका आशीर्वाद पा सकें। ये सारे यज्ञ हमारे अपने कर्मफल के लिए किये जाते हैं और वास्तव में आपको इनकी कोई आवश्यकता ही नहीं है।

9 हे ईशाधीश, हम धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से पूर्णतया अनजान हैं क्योंकि हमें जीवन-लक्ष्य का ठीक से पता नहीं है। आप यहाँ हमारे समक्ष साक्षात इस प्रकार प्रकट हुए हैं जिस प्रकार कोई व्यक्ति जानबूझकर अपनी पूजा कराने के लिए आया हो। किन्तु ऐसा नहीं है, आप तो इसलिए प्रकट हुए हैं जिससे हम आपके दर्शन कर सकें। आप अपनी अगाध तथा अहैतुकी करुणावश हमारा उद्देश्य पूरा करने, हमारा हित करने तथा अपवर्ग का लाभ प्रदान करने हेतु प्रकट हुए हैं। हम अपनी अज्ञानता के कारण आपकी ठीक से उपासना भी नहीं कर पा रहे हैं, तो भी आप पधारे हैं।

10 हे पूज्यतम, आप समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ हैं और राजर्षि नाभि की यज्ञशाला में आपका प्राकट्य हमें आशीर्वाद देने के लिए हुआ है। चूँकि हम आपको देख पाये हैं इसलिए आपने हमें सर्वाधिक मूल्यवान वर प्रदान किया है।

11 हे ईश्वर, समस्त विचारवान मुनि तथा साधु पुरुष निरन्तर आपके दिव्य गुणों का गान करते रहते हैं। इन मुनियों ने अपनी ज्ञान अग्नि से अपार मलराशि को पहले ही दग्ध कर दिया है और इस संसार से अपने वैराग्य को सुदृढ़ किया है। इस प्रकार वे आपके गुणों को ग्रहण कर आत्मतुष्ट हैं। तो भी जिन्हें आपके गुणों के गान में परम आनन्द आता है उनके लिए भी आपका दर्शन दुर्लभ है।

12 हे ईश्वर, सम्भव है कि हम कँपकपाने, भूखे रहने, गिरने, जम्हाई लेने या ज्वर के कारण मृत्यु के समय शोचनीय रुग्ण अवस्था में रहने के कारण आपके नाम का स्मरण न कर पाएँ। अतः हे ईश्वर, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप भक्तों पर वत्सल रहते हैं। आप हमें अपने पवित्र नाम, गुण तथा कर्म को स्मरण कराने में सहायक हों जिससे हमारे पापी जीवन के सभी पाप दूर हो जाँय।

13-14 हे ईश्वर, आपके समक्ष ये महाराज नाभि हैं जिनके जीवन का परम लक्ष्य आपके ही समान पुत्र प्राप्त करना है। हे भगवन, इनकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी है, जो एक अत्यन्त धनवान पुरुष के पास थोड़ा सा अन्न माँगने के लिए जाता है। पुत्रेच्छा से ही वे आपकी उपासना कर रहे हैं यद्यपि आप उन्हें कोई भी उच्चस्थ पद प्रदान कर सकने में समर्थ हैं – चाहे वह स्वर्ग हो या भगवद्धाम का मुक्ति-लाभ।

14 हे ईश्वर, जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरणकमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसे माया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी। दरअसल, ऐसा कौन है जो विष तुल्य भौतिक सुख की तरंगों में न बहा हो! आपकी माया दुर्जेय है। न तो इस माया के पथ को कोई देख सकता है, न इसकी कार्य-प्रणाली को ही कोई बता सकता है।

15 हे ईश्वर, आप अनेक अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ हैं। इस यज्ञ के करने का हमारा एकमात्र लक्ष्य पुत्र प्राप्त करना था, अतः हमारी बुद्धि अधिक प्रखर नहीं है। हमें जीवन-लक्ष्य निर्धारित करने का कोई अनुभव नहीं है। निस्सन्देह भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये गये इस तुच्छ यज्ञ में आपको आमंत्रित करके हमने आपके चरणकमलों के प्रति महान अपराध किया है। अतः हे सर्वेश, आप अपनी अहैतुकी कृपा तथा समदृष्टि के कारण हमें क्षमा करें।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भारतवर्ष के सम्राट, राजा नाभि द्वारा पूजित ऋत्विजों ने गद्य में (सामान्यतः पद्य में) ईश्वर की स्तुति की और वे सभी उनके चरणकमलों पर झुक गये। देवताओं के अधिपति, परमेश्वर उनसे अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे इस प्रकार बोले।

17 भगवान बोले- हे ऋषियों, मैं आपकी स्तुतियों से परम प्रसन्न हुआ हूँ। आप सभी सत्यवादी हैं। आप लोगों ने राजा नाभि के लिए मेरे समान पुत्र की प्राप्ति के लिए स्तुति की है, किन्तु ऐसा कर पाना अति दुर्लभ है। चूँकि मैं अद्वितीय परम पुरुष हूँ और मेरे समान अन्य कोई नहीं है, अतः मुझ जैसा पुरुष पाना सम्भव नहीं है। तो भी आप सभी सुयोग्य ब्राह्मण है, आपका वचन मिथ्या सिद्ध नहीं होना चाहिए। मैं सुयोग्य ब्राह्मणों को अपने मुख के समान उत्तम मानता हूँ।

18 चूँकि मुझे अपने तुल्य और कोई नहीं मिल पा रहा, इसलिए मैं स्वयं ही अंश रूप में आग्नीध्र के पुत्र महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से अवतार लूँगा।

19 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: ऐसा कहकर भगवान अदृश्य हो गये। राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी अपने पति के पास में ही बैठी थीं, फलस्वरूप परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उसे वे सुन रही थीं।

20 हे विष्णुदत्त परीक्षित महाराज, उस यज्ञ के ऋषियों से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए। फलस्वरूप उन्होंने स्वयं धर्माचरण करके दिखलाने(जैसा कि ब्रह्मचारी,संन्यासी, वानप्रस्थ तथा गृहस्थ करते हैं) और महाराज नाभि की मनोकामना को पूरा करने का निश्चय किया। अतः वे अपने गुणातीत आद्य सत्व रूप में मेरुदेवी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10861953695?profile=RESIZE_584x

अध्याय दो – महाराज आग्नीध्र का चरित्र (5.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले–अपने पिता महाराज प्रियव्रत के इस प्रकार आध्यात्मिक जीवन पथ अपनाने के लिए तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र ने उनकी आज्ञा का पूरी तरह पालन किया और धार्मिक नियमों के अनुसार उन्होंने जम्बूद्वीप के वासियों को अपने ही पुत्रों के समान सुरक्षा प्रदान की।

2 एक बार महाराज आग्नीध्र ने सुयोग्य पुत्र प्राप्त करने तथा पितृलोक का वासी बनने की कामना से भौतिक सृष्टि के स्वामी भगवान ब्रह्मा की आराधना की। वे मन्दाराचल की घाटी में गये जहाँ स्वर्गलोक की सुन्दरियाँ विहार करने आती हैं। वहाँ उन्होंने वाटिका से फूल तथा अन्य आवश्यक सामग्री एकत्र की और फिर कठिन तप तथा उपासना में लग गये।

3 इस ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान तथा आदि पुरुष भगवान ब्रह्मा ने राजा आग्नीध्र की अभिलाषा जानकर अपनी सभा की श्रेष्ठ अप्सरा को, जिसका नाम पूर्वचित्ति था, चुनकर राजा के पास भेजा।

4 श्री ब्रह्मा द्वारा भेजी गई अप्सरा उस उपवन के निकट विचरने लगी जहाँ राजा ध्यान में लगकर आराधना कर रहा था। वह उपवन सघन वृक्षों तथा स्वर्णिम लताओं के कारण अत्यन्त रमणीय था। उस स्थल पर मयूर जैसे अनेक पक्षियों के जोड़े और सरोवर में बत्तख तथा हंस सुमधुर कूजन कर रहे थे। इस प्रकार वह उपवन वृक्षों, निर्मल जल, कमल पुष्प तथा सुमधुर कूजन करते विविध पक्षियों के कारण अत्यन्त सुन्दर लग रहा था।

5 ज्योंही अत्यन्त मनोहर गति तथा हावभाव से युक्त पूर्वचित्ति उस पथ से निकली त्योंही प्रत्येक पग पर चरण-नूपुरों की झनकार होने लगी। यद्यपि राजकुमार आग्नीध्र अधखुले नेत्रों से योग साध कर इन्द्रियों को वश में कर रहे थे, किन्तु कमल सदृश नेत्रों से वे उसे देख सकते थे। तभी उन्हें उसके कंगनों की मधुर झनकार सुनाई दी। उन्होंने अपने नेत्रों को कुछ और खोला, तो देखा कि वह उनके बिलकुल निकट थी।

6-16 वह अप्सरा सुन्दर तथा आकर्षक फूलों को मधुमक्खी के समान सूँघ रही थी। वह अपनी चपल गति, लज्जा, विनय, चितवन तथा मुख से निकलने वाली मधुर ध्वनि और अपने अंगों की गति से मनुष्यों तथा देवताओं के मन तथा ध्यान को आकर्षित करने वाली थी। जब वह बोलती, तो उसके मुख से अमृत झरता था। उसके श्वास लेने पर श्वास का स्वाद लेने के लिए भौंरे मदान्ध होकर उसके कमलवत नेत्रों के चारों ओर मँडराने लगते। संक्षेप में पूर्वचित्ति नामक स्वर्ग कन्या आकर्षक वेष बनाकर विविध प्रकार के स्त्रियोचित हाव-भावों के साथ महाराज आग्नीध्र के समक्ष आई। उस कन्या की गति, हावभाव, मुस्कान, मृदु वचन तथा चंचल चितवन उन्हें सम्मोहक लगी।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले- महाराज आग्नीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान और स्त्रियों को रिझा करके अपने पक्ष में कर लेने की कला में अत्यन्त निपुण थे। अतः उन्होंने उस स्वर्गकन्या को अपनी वाकपटुता से प्रसन्न करके उसको अपने पक्ष में कर लिया।

18 आग्नीध्र की बुद्धि, तरुणाई, सौन्दर्य, ऐश्वर्य तथा उदारता से आकर्षित होकर पूर्वचित्ति जम्बूद्वीप के राजा तथा समस्त वीरों के स्वामी आग्नीध्र के साथ कई हजार वर्षों तक रही और उसने भौतिक तथा स्वर्गिक दोनों प्रकार के सुखों का भरपूर भोग किया।

19 राजाओं में श्रेष्ठ महाराज आग्नीध्र को पूर्वचित्ति के गर्भ से नौ पुत्र प्राप्त हुए जिनके नाम नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल थे।

20 पूर्वचित्ति ने प्रति वर्ष एक-एक करके इन नौ पुत्रों को जन्म दिया, किन्तु जब वे बड़े हो गये, तो वह उन्हें घर पर छोड़कर ब्रह्मा की उपासना करने के लिए उनके पास उपस्थित हुई।

21 अपनी माता के अनुग्रह से आग्नीध्र के नवों पुत्र अत्यन्त बलिष्ठ एवं सुगठित शरीर वाले हुए। उनके पिता ने प्रत्येक को जम्बूद्वीप का एक-एक भाग दे दिया। इन राज्यों के नाम पुत्रों के नामों के अनुसार पड़े। इस प्रकार आग्नीध्र के सभी पुत्र पिता से प्राप्त राज्यों पर राज्य करने लगे।

22 पूर्वचित्ति के चले जाने पर, राजा आग्नीध्र उसी के विषय में सोचते रहते। अतः वैदिक आज्ञाओं के अनुसार राजा मृत्यु के पश्चात उसी लोक में गये जहाँ उनकी पत्नी थी। यह लोक पितृलोक कहलाता है जहाँ कि पितरगण अत्यन्त आनन्द से रहते हैं।

23 अपने पिता के प्रयाण के पश्चात नवों भाइयों ने मेरु की नौ पौत्रियों के साथ विवाह कर लिया, जिनके नाम मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा तथा देववीति थे।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10861938293?profile=RESIZE_400x

अध्याय एक – महाराज प्रियव्रत का चरित्र (5.1) 

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा-- हे मुनिवर, परम आत्मदर्शी भगवदभक्त राजा प्रियव्रत ने ऐसे गृहस्थ जीवन में रहना क्यों पसन्द किया, जो कर्म-बन्धन (सकाम कर्म) का मूल कारण तथा मानव जीवन के उद्देश्य को पराजित करने वाला है?

2 भक्तजन निश्चय ही मुक्त पुरुष होते हैं। अतः हे विप्रवर, वे सम्भवतः गृहकार्यों में दत्तचित्त नहीं रह सकते।

3 जिन सिद्ध महात्माओं ने भगवान के चरणकमलों की शरण ली है वे उन चरणकमलों की छाया से पूर्णतया तृप्त हैं। उनकी चेतना कभी भी कुटुम्बीजनों में आसक्त नहीं हो सकती।

4 राजा ने आगे पूछा, हे विप्रवर, मेरा सबसे बड़ा सन्देह यही है कि राजा प्रियव्रत जैसे व्यक्ति के लिए, जो अपनी पत्नी, सन्तान तथा घर के प्रति इतने आसक्त थे, कृष्णभक्ति में सर्वोच्च अविचल सिद्धि प्राप्त कर पाना कैसे सम्भव हो सका?

5 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तुम्हारा कथन सही है। ब्रह्मा के समान सिद्ध पुरुषों के द्वारा दिव्य श्लोकों से प्रशंसित भगवान की कीर्ति परम भक्तों तथा मुक्त पुरुषों के लिए अत्यन्त मनोहारी है। जो भगवान के चरणकमलों के अमृततुल्य मधु में अनुरक्त है तथा जिसका मन सदैव उनकी कीर्ति में लीन रहता है, वह भले ही कभी कभी किसी बाधा से रुक जाये, किन्तु जिस परम पद को उसने प्राप्त किया है उसे वह कभी नहीं छोड़ता।

6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, राजकुमार प्रियव्रत महान भक्त थे क्योंकि उन्होंने अपने गुरु नारद के चरणकमलों को प्राप्त कर दिव्य ज्ञान में उच्चतम सिद्धि प्राप्त की। परम ज्ञान के कारण वे आत्म-विषयों की चर्चा में सदैव संलग्न रहे और उन्होंने अपना ध्यान किसी ओर नहीं मोड़ा। इसके बाद राजकुमार के पिता ने आदेश दिया कि वह संसार पर राज्य करने का भार ग्रहण करे। उन्होंने प्रियव्रत को आश्वस्त करना चाहा कि शास्त्रों के अनुसार यह उसका कर्तव्य है, किन्तु प्रियव्रत ने तो निरन्तर भक्तियोग की साधना में रत रहकर भगवान का स्मरण करते हुए समस्त इन्द्रियों को ईश्वर की सेवा में अर्पित कर रखा था। अतः पिता की आज्ञा अनुलंघ्य होने पर भी राजकुमार ने उसका स्वागत नहीं किया। इस प्रकार उन्होंने अपने अन्तःकरण में यह प्रश्न किया कि संसार पर राज्य करने के उत्तरदायित्व को स्वीकार करके कहीं वे अपनी भक्ति से पराड्मुख तो नहीं हो जायेंगे?

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले: इस ब्रह्माण्ड के आदि जीव एवं सर्वशक्तिमान देवता ब्रह्माजी हैं, जो इस सृष्टि की समस्त गतिविधियों के विकास के लिए उत्तरदायी हैं। भगवान से प्रत्यक्ष जन्म लेकर वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करते हैं, क्योंकि वे सृष्टि का उद्देश्य जानते हैं। ऐसे परम शक्तिशाली देवता ब्रह्माजी अपने पार्षदों तथा मूर्तिमान वेदों सहित अपने सर्वोच्च लोक से उस स्थान पर उतरे जहाँ राजकुमार प्रियव्रत ध्यान कर रहे थे।

8 ज्योंही भगवान ब्रह्मा अपने वाहन हंस पर आरूढ़ होकर नीचे उतरे, तो सिद्धलोक, गन्धर्वलोक, साध्यलोक तथा चारणलोक के समस्त वासी तथा मुनि एवं अपने-अपने विमानों में उड़ते हुए देवताओं ने आकाशमण्डल के नीचे एकत्र होकर उनका स्वागत किया और पूजा की। विभिन्न लोकों के वासियों से आदर तथा स्तवन पाकर भगवान ब्रह्मा ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों प्रकाशमान नक्षत्रों से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रमा हो। तब ब्रह्माजी का विशाल हंस गन्धमादन की घाटी में प्रियव्रत के पास पहुँचा जहाँ वे बैठे हुए थे।

9 नारद मुनि के पिता भगवान ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। नारद ने ज्योंही विशाल हंस को देखा, वे तुरन्त समझ गये कि ब्रह्माजी आए हैं, अतः वे स्वायम्भुव मनु तथा अपने द्वारा उपदेश दिये जाने वाले उनके पुत्र प्रियव्रत सहित अविलम्ब खड़े हो गये। तब उन्होंने हाथ जोड़कर आदरपूर्वक भगवान की आराधना प्रारम्भ की।

10 हे राजा परीक्षित, चूँकि ब्रह्माजी सत्यलोक से भूलोक में उतर चुके थे, अतः नारद मुनि, राजकुमार प्रियव्रत तथा स्वायम्भुव मनु ने आगे बढ़कर पूजन सामग्री अर्पित की और वैदिक विधि के अनुसार अत्यन्त शिष्ट वाणी से उनकी प्रशंसा की। तब इस ब्रह्माण्ड के प्रथम पुरुष ब्रह्मा प्रियव्रत पर सदय मुस्कान-युक्त दृष्टि डालते हुए इस प्रकार बोले।

11 इस ब्रह्माण्ड के परम पुरुष भगवान ब्रह्मा ने कहा: हे प्रियव्रत, मैं जो कुछ कहूँ उसे ध्यान से सुनो। परमेश्वर से ईर्ष्या न करो क्योंकि वे हमारे प्रयोगात्मक परिमापों से परे हैं। हम सबों को, जिसमें शिवजी, तुम्हारे पिता तथा महर्षि नारद भी सम्मिलित हैं, परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। हम उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते।

12 भगवान की आज्ञा को कोई न तो तपोबल, वैदिक शिक्षा, योगबल, शारीरिक बल या बुद्धिबल से टाल सकता है, न ही कोई अपने धर्म की शक्ति या भौतिक ऐश्वर्य से अथवा किसी अन्य उपाय से, न स्वयं या न पराई सहायता से परमात्मा के आदेशों को चुनौती दे सकता है। ब्रह्मा से लेकर एक चींटी तक, किसी भी जीवात्मा के लिए ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है।

13 हे प्रियव्रत, भगवान की आज्ञा से ही सभी जीवात्माएँ जन्म, मृत्यु, कर्म, शोक, मोह, भविष्य के संकटों के प्रति भय, सुख तथा दुख के हेतु विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करती हैं।

14 हे बालक, हम सभी अपने गुण तथा कर्म के अनुसार वैदिक आज्ञा द्वारा वर्णाश्रम विभागों में बँधे हुए हैं। इन विभागों से बच पाना कठिन है, क्योंकि ये वैज्ञानिक विधि से व्यवस्थित हैं। अतः हमें वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों का पालन उन बैलों के समान करना चाहिए जो नाक में बँधी नकेल खींचने वाले चालक के आदेश पर चलने के लिए बाध्य हैं।

15 हे प्रियव्रत, भगवान विभिन्न गुणों के साथ हमारे संसर्ग के अनुसार हमें विशिष्ट शरीर प्रदान करते हैं और हम सुख तथा दुख प्राप्त करते हैं। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह जिस रूप में है वैसे ही रहे और भगवान द्वारा उसी प्रकार मार्गदर्शन प्राप्त करे जिस प्रकार एक अन्धा व्यक्ति आँख वाले व्यक्ति से प्राप्त करता है।

16 मुक्त होते हुए भी मनुष्य पूर्व कर्मों के अनुसार प्राप्त देह को स्वीकार करता है। किन्तु वह भ्रान्तिरहित होकर कर्मवश प्राप्त सुख तथा दुख को उसी प्रकार मानता है, जिस प्रकार जागृत मनुष्य सुप्तावस्था में देखे गये स्वप्न को। इस तरह वह दृढप्रतिज्ञ रहता है और भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के वशीभूत होकर दूसरा शरीर पाने के लिए कभी कार्य नहीं करता।

17 जो मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत है, भले ही वह वन-वन विचरण करता रहे, तो भी उसे बन्धन का भय बना रहता है क्योंकि वह मन तथा ज्ञानेन्द्रियाँ – इन छह सपत्नियों के साथ रह रहा होता है। किन्तु आत्मतुष्ट विद्वान जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, उसे गृहस्थ जीवन में कोई क्षति नहीं पहुँचा पाता।

18 गृहस्थाश्रम में रहकर जो मनुष्य अपने मन तथा पाँचों इन्द्रियों को विधिपूर्वक जीत लेता है, वह उस राजा के समान है, जो अपने किले (दुर्ग) में रहकर अपने बलशाली शत्रुओं को पराजित करता है। गृहस्थाश्रम में प्रशिक्षित हो जाने पर तथा कामेच्छाओं को क्षीण करके मनुष्य बिना किसी भय के कहीं भी घूम सकता है।

19 ब्रह्माजी ने आगे कहा: हे प्रियव्रत, कमलनाभ ईश्वर के चरणकमल के कोश में शरण लेकर छहों ज्ञान-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो। तुम भौतिक सुख-भोग स्वीकार करो, क्योंकि भगवान ने तुम्हें विशेष रूप से ऐसा करने की आज्ञा दी है। इस तरह तुम भौतिक संसर्ग से मुक्त हो सकोगे और अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते हुए भगवान की आज्ञाएँ पूरी कर सकोगे।

20 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार तीनों लोकों के गुरु ब्रह्माजी द्वारा भलीभाँति उपदेश दिये जाने पर अपना पद छोटा होने के कारण प्रियव्रत ने नमस्कार करते हुए उनका आदेश शिरोधार्य किया और अत्यन्त आदरपूर्वक उसका पालन किया।

21 इसके पश्चात मनु ने ब्रह्माजी को संतुष्ट करते हुए विधिवत पूजा की। प्रियव्रत तथा नारद ने भी किसी प्रकार का विरोध दिखाये बिना ब्रह्माजी की ओर देखा। प्रियव्रत से उसके पिता की मनौती स्वीकार कराकर ब्रह्माजी अपने धाम सत्यलोक को चले गये। जिसका वर्णन भौतिक मन तथा वाणी के परे है।

22 इस प्रकार ब्रह्माजी की सहायता से स्वायम्भुव मनु का मनोरथ पूर्ण हुआ। उन्होंने महर्षि नारद की अनुमति से अपने पुत्र को समस्त भूमण्डल के पालन का भार सौंप दिया और इस तरह स्वयं भौतिक कामनाओं के अति दुस्तर तथा विषमय सागर से निवृत्ति प्राप्त कर ली।

23 भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए महाराज प्रियव्रत सांसारिक कार्यों में अनुरक्त रहने लगे, किन्तु उन्हें सदैव भगवान के उन चरणकमलों का ध्यान बना रहा जो समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्ति दिलाने वाले हैं। यद्यपि महाराज प्रियव्रत समस्त भौतिक कल्मषों से विमुक्त थे, किन्तु अपने बड़ों का मान रखने के लिए ही वे इस संसार पर शासन करने लगे।

24 तदनन्तर महाराज प्रियव्रत ने प्रजापति विश्वकर्मा की कन्या बर्हिष्मती से विवाह किया। उससे उन्हें दस पुत्र प्राप्त हुए जो सुन्दरता, चरित्र, उदारता तथा अन्य गुणों में उन्हीं के समान थे। उनके एक पुत्री भी हुई जो सबसे छोटी थी। उसका नाम ऊर्जस्वती था।

25 महाराज प्रियव्रत के दस पुत्रों के नाम थे – आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र तथा कवि। ये अग्निदेव के भी नाम हैं।

26 इन दस पुत्रों में से तीन – कवि, महावीर तथा सवन – पूर्ण ब्रह्मचारी रहे। इस प्रकार बालपन से ब्रह्मचर्य जीवन की शिक्षा प्राप्त करने के कारण वे सर्वोच्च सिद्धि अर्थात परमहंस आश्रम से पूर्णतया परिचित थे।

27 जीवन प्रारम्भ से ही संन्यास आश्रम में रहकर ये तीनों अपनी इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करते हुए महान सन्त हो गये। उन्होंने अपने मन को उन भगवान के चरणकमलों में सदैव केन्द्रित रखा, जो समस्त जीवात्माओं के विश्रामस्थल (आश्रय) हैं और वासुदेव नाम से विख्यात हैं। जो भवस्थिति से भयभीत हैं उनके लिए भगवान वासुदेव ही एकमात्र शरण हैं। भगवान के चरणकमलों का निरन्तर ध्यान धारण करने के कारण महाराज प्रियव्रत के ये तीनों पुत्र शुद्ध भक्ति से सिद्ध बन गये। वे अपनी भक्ति के बल से परमात्मा के रूप में प्रत्येक के हृदय में निवास करने वाले भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन कर सके और इसका अनुभव कर सके कि उनमें तथा भगवान में, गुण के अनुसार, कोई अन्तर नहीं है।

28 महाराज प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम उत्तम, तामस तथा रैवत थे। बाद में इन्होंने मन्वन्तर कल्पों का भार सँभाला।

29 इस प्रकार से कवि, महावीर तथा सवन के परमहंस अवस्था में भलीभाँति प्रशिक्षित हो जाने पर महाराज प्रियव्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक ब्रह्माण्ड पर शासन किया। जिस समय वे अपनी बलशाली भुजाओं से धनुष की डोरी खींचकर तीर चढ़ा लेते थे उस समय धार्मिक जीवन के नियमों को न मानने वाले उनके विपक्षी विश्व पर शासन करने के उनके अद्वितीय शौर्य से डरकर न जाने कहाँ भाग जाते थे। वे अपनी पत्नी बर्हिष्मती को अगाध प्यार करते थे और समय बीतने के साथ ही उनका प्रणय भी बढ़ता गया। अपनी स्त्रियोचित वेषभूषा, उठने-बैठने, हँसी तथा चितवन से महारानी बर्हिष्मती उन्हें शक्ति प्रदान करती थी। इस प्रकार महात्मा होते हुए भी वे अपनी पत्नी के स्त्री-उचित व्यवहार में खो गये। वे उसके साथ सामान्य पुरुष-सा आचरण करते, किन्तु वे वास्तव में महान आत्मा थे।

30 इस प्रकार सुचारु रूप से राज्य करते हुए राजा प्रियव्रत एक बार परम बलशाली सूर्यदेव की परिक्रमा से असंतुष्ट हो गये। सूर्यदेव अपने रथ पर आरूढ़ होकर सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते हुए समस्त लोकों को प्रकाशित करते हैं, किन्तु जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, तो दक्षिण भाग को कम प्रकाश मिलता है और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है, तो उत्तर भाग को कम प्रकाश मिलता है। राजा प्रियव्रत को यह स्थिति नहीं भायी इसलिए उन्होंने संकल्प किया कि ब्रह्माण्ड के उस भाग में जहाँ रात्रि है, वहाँ वे दिन कर देंगे। उन्होंने एक प्रकाशमान रथ पर चढ़कर सूर्यदेव की कक्ष्या का पीछा करके अपनी इच्छा पूर्ण की। वे ऐसे विस्मयजनक कार्यकलाप इसीलिए कर पाये, क्योंकि उन्होंने भगवान की उपासना के द्वारा शौर्य अर्जित किया था।

31 जब प्रियव्रत ने अपना रथ सूर्य के पीछे हाँका, तो उनके रथ के पहियों की परिधि से जो चिन्ह बन गये वे ही बाद में सात समुद्र हो गये और भूमण्डल सात द्वीपों में विभाजित हो गया।

32 सात द्वीपों के नाम हैं-जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक तथा पुष्कर। प्रत्येक द्वीप अपने से पहले वाले द्वीप से आकार में दुगुना है और एक तरल पदार्थ से घिरा है, जिसके आगे दूसरा द्वीप है।

33 ये सातों समुद्र क्रमश: खारे जल, ईख के रस, सुरा, घृत, दुग्ध, मट्ठा तथा मीठे पेय जल से पूर्ण हैं। सभी द्वीप इन सागरों से पूर्णतया घिरे हैं और प्रत्येक समुद्र घिरे हुए द्वीप के समान चौड़ा है। रानी बर्हिष्मती के पति महाराज प्रियव्रत ने इन द्वीपों का एकक्षत्र राज्य अपने पुत्रों को दे दिया जिनके नाम क्रमशः आग्नीध्र, इध्मजिव्ह, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि तथा वीतिहोत्र थे। इस प्रकार अपने पिता के आदेश से ये सभी राजा बन गये।

34 उसके बाद राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य से कर दिया, जिसके गर्भ से देवयानी नामक पुत्री उत्पन्न हुई।

35 हे राजन, जिस भक्त ने भगवान के चरणारविन्दों की धूलि में शरण ली है, वह षड विकारों अर्थात भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु के प्रभाव तथा मन समेत छहों इन्द्रियों को जीत सकता है। किन्तु भगवान के शुद्ध भक्त के लिए यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं क्योंकि चारों वर्णों से बाहर का व्यक्ति अर्थात अस्पृश्य व्यक्ति भी भगवान के नाम का एक बार उचार कर लेने मात्र से भौतिक बन्धनों से तुरन्त छूट जाता है।

36 इस प्रकार अपने पूर्ण पराक्रम तथा प्रभाव से भौतिक ऐश्वर्य का भोग करते हुए महाराज प्रियव्रत एक बार यह सोचने लगे कि यद्यपि मैं महामुनि नारद के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुका था और वास्तव में कृष्णभावनामृत के मार्ग पर था, किन्तु मैं अब न जाने क्यों फिर से भौतिक कार्यों के बन्धन में फँस गया हूँ। इस प्रकार उनका मन अशान्त हो उठा। वे विरक्त होकर बोलने लगे।

37 राजा ने अपनी भर्त्सना इस प्रकार की – ओह ! इन्द्रियभोग के कारण मैं कितना धिक्कारा जाने योग्य हो गया हूँ। मैं अब भौतिक सुख के अंधकूप में गिर गया हूँ। बहुत हुआ! अब मुझे और भोग नहीं चाहिए। तनिक मेरी ओर देखो – मैं कैसे अपनी पत्नी के हाथों में नाचने वाला बन्दर बन गया हूँ। इसलिए मुझे धिक्कार है।

38 भगवान के अनुग्रह से महाराज प्रियव्रत का विवेक पुनः जागृत हो उठा। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति अपने आज्ञाकारी पुत्रों में बाँट दी। अपनी पत्नी को और प्रभूत ऐश्वर्यशाली राज्य सहित सब कुछ त्याग कर वे सभी प्रकार की आसक्ति से रहित हो गये। विमल हो जाने से उनका हृदय भगवान की लीलाओं का स्थल बन गया। इस प्रकार वे कृष्णभावनामृत के पथ पर पुनः लौट आये और महामुनि नारद के अनुग्रह से जिस पद को प्राप्त किया था उसको फिर से धारण किया।

39 महाराज प्रियव्रत के कर्मों से सम्बन्धित अनेक श्लोक प्रसिद्ध हैं – ”जो कुछ महाराज प्रियव्रत ने किया उसे भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता था। उन्होंने रात्रि के अंधकार को दूर किया और अपने रथ के पहियों की नेमी से सात समुद्र बना दिये।"

40 "विभिन्न लोगों में पारस्परिक झगड़ों को रोकने के लिए महाराज प्रियव्रत ने नदियों, पर्वतों के किनारों तथा वनों के द्वारा राज्यों की सीमाएँ निर्धारित कीं, जिससे कोई एक दूसरे की सम्पत्ति में प्रवेश न कर सके।"

41 “नारद मुनि के महान अनुयायी तथा भक्त महाराज प्रियव्रत ने अपने सकाम कर्मों तथा योग से प्राप्त किए गये समस्त ऐश्वर्य को, चाहे वह स्वर्गलोक, अधोलोक अथवा मानव समाज का हो, नरक तुल्य समझा।"

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10861127699?profile=RESIZE_710x

अध्याय इकतीस – प्रचेताओं को नारद का उपदेश (4.31)

1 महान सन्त मैत्रेय ने आगे कहा: तत्पश्चात प्रचेता हजारों वर्षों तक घर में रहे और आध्यात्मिक चेतना में पूर्ण ज्ञान विकसित किया। अन्त में उन्हें भगवान के आशीर्वादों की याद आई और वे अपनी पत्नी को अपने सुयोग्य पुत्र के जिम्मे छोड़कर घर से निकल पड़े।

2 प्रचेतागण पश्चिम दिशा में समुद्रतट की ओर गये जहाँ जाजलि ऋषि निवास कर रहे थे। उन्होंने वह आध्यात्मिक ज्ञान पुष्ट कर लिया जिससे मनुष्य समस्त जीवों के प्रति समभाव रखने लगता है। इस तरह वे कृष्णभक्ति में पटु हो गये।

3 योगासन का अभ्यास कर लेने पर प्रचेताओं ने प्राणवायु, मन, वाणी तथा बाह्य दृष्टि को वश में करना सीख लिया। इस तरह प्राणायाम विधि से वे भौतिक आसक्ति से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये। सीधे बैठकर वे परब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर सके। जब वे यह प्राणायाम कर रहे थे तो देवताओं तथा असुरों दोनों द्वारा पूजित वन्दित नारद मुनि उन्हें देखने आये।

4 प्रचेताओं ने ज्यों ही देखा कि नारद मुनि आये हुए हैं, वे नियमानुसार तुरन्त अपने आसनों से खड़े हो गये। यथा अपेक्षित तुरन्त उन्हें नमस्कार किया तथा उनकी पूजा करने लगे और जब उन्होंने देखा कि वे ठीक से आसन ग्रहण कर चुके हैं, तो उन्होंने उनसे प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया।

5 सभी प्रचेता नारद मुनि को सम्बोधित करने लगे: हे ऋषि, हे ब्राह्मण, आशा है कि आपको यहाँ आने में किसी प्रकार की बाधा नहीं हुई होगी। यह हमारा परम सौभाग्य है कि हमें आपके दर्शन हो रहे हैं। सूर्य के चलने से लोग रात के अंधकार के भय से मुक्ति पाते हैं – यह भय चोरों तथा उचक्कों से उत्पन्न होता है। उसी प्रकार आपका भ्रमण सूर्य के ही समान है, क्योंकि आप समस्त प्रकार के भय को भगाने वाले हैं।

6 हे स्वामी, हम आपको बता दें कि गृहस्थी में अत्यधिक आसक्त रहने के कारण हम शिवजी तथा भगवान विष्णु से प्राप्त उपदेशों को प्रायः भूल चुके हैं।

7 हे स्वामी, हमें दिव्य ज्ञान से प्रकाशित कीजिये जो उस प्रकाश स्तम्भ की तरह कार्य कर सके जिससे हम अविद्या रूपी संसार-सागर को पार कर सकें।

8 ऋषि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, प्रचेताओं द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर भगवान के विचारों में निरन्तर लीन रहने वाले परम भक्त नारद ने उत्तर दिया।

9 महर्षि नारद ने कहा: जब कोई जीवात्मा परम नियन्ता भगवान की भक्ति करने के लिए जन्म लेता है, तो उसका जन्म, उसके सारे सकाम कर्म, उसकी आयु, उसका मन तथा उसकी वाणी सभी यथार्थ में सिद्ध हो जाते हैं।

10 सुसंस्कारी मनुष्य के तीन प्रकार के जन्म होते हैं। पहला जन्म शुद्ध माता-पिता से होता है, जिसे 'शौक्र' कहते हैं। दूसरा जन्म गुरु से दीक्षा लेते समय होता है और यह 'सावित्र' कहलाता है। तीसरा जन्म 'याज्ञिक' कहलाता है और यह भगवान विष्णु की पूजा का अवसर मिलने पर होता है। ऐसे जन्म लेने के अवसर प्राप्त होने पर भी यदि किसी को किसी देवता की भी आयु मिल जाये और वह वस्तुत: भगवान की सेवा में रत न हो तो सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार कर्म चाहे सांसारिक हों या आध्यात्मिक, यदि वे भगवान को प्रसन्न करने हेतु न हों तो वे व्यर्थ हैं।

11 भक्ति के बिना कठिन तपस्या, सुनने, बोलने की शक्ति, चिन्तन शक्ति, उच्च ज्ञान, बल तथा इन्द्रियों की शक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

12 वे दिव्य विधिविधान, पूर्ण पुरषोत्तम भगवान का साक्षात्कार करने में सहायक नहीं होते, व्यर्थ हैं, चाहे वह योगाभ्यास हो या पदार्थ का वैश्लेषिक अध्ययन, कठिन तपस्या, संन्यास ग्रहण करना या कि वैदिक साहित्य का अध्ययन हो। भले ही ये आध्यात्मिक प्रगति के महत्वपूर्ण पक्ष क्यों न हो, किन्तु जब तक कोई भगवान हरि को नहीं जान लेता ये सारी विधियाँ व्यर्थ हैं।

13 यथार्थ रूप में भगवान ही समस्त आत्म-साक्षात्कार के मूल स्रोत हैं। फलतः समस्त शुभ कार्यों – कर्म, ज्ञान, योग तथा भक्ति – का लक्ष्य भगवान हैं।

14 जिस तरह वृक्ष की जड़ को सींचने से तना, शाखाएँ तथा टहनियाँ पुष्ट होती हैं और जिस तरह पेट को भोजन देने से शरीर की इन्द्रियाँ तथा अंग प्राणवान बनते हैं उसी प्रकार भक्ति द्वारा भगवान की पूजा करने से भगवान के ही अंग रूप सभी देवता स्वतः तुष्ट हो जाते हैं।

15 वर्षा काल में सूर्य से जल उत्पन्न होता है और कालक्रम में अर्थात ग्रीष्म – काल में वही जल सूर्य द्वारा पुनः सोख लिया जाता है। इसी प्रकार समस्त चर तथा अचर जीव इस पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं और कुछ काल के पश्चात वे पुनः पृथ्वी में धूल के रूप में मिल जाते हैं। इसी प्रकार से प्रत्येक वस्तु श्रीभगवान से उद्भूत होती है और कालक्रम से पुनः उन्हीं में लीन हो जाती है।

16 जिस प्रकार सूर्य-प्रकाश सूर्य से अभिन्न है, उसी प्रकार यह दृश्य जगत भी भगवान से अभिन्न है। अतः भगवान इस भौतिक सृष्टि के भीतर सर्वत्र व्याप्त हैं। जब इन्द्रियाँ चेतन रहती है, तो वे शरीर के अंगस्वरूप प्रतीत होती हैं, किन्तु जब शरीर सोया रहता है, तो सारी क्रियाएँ अव्यक्त होती हैं। इसी प्रकार सारा दृश्य जगत भिन्न प्रतीत होने पर भी परम पुरुष से अभिन्न है।

17 हे राजाओं, आकाश में कभी बादल, कभी अंधकार और कभी प्रकाश रहता है। इनका प्राकट्य एक क्रम से होता रहता है। इसी तरह सतो, रजो तथा तमोगुण परब्रह्म में क्रमशः शक्ति रूप में प्रकट होते हैं। कभी वे प्रकट होते हैं, तो कभी लुप्त होते हैं।

18 चूँकि परमेश्वर समस्त कारणों के कारण हैं, अतः वे समस्त जीवों के परमात्मा हैं और वे निकटवर्ती तथा सुदूर कारण हैं। चूँकि वे भौतिक प्रसर्जनों से विलग हैं, अतः वे उनकी अन्योन्य क्रियाओं से मुक्त हैं और प्रकृति के स्वामी हैं। अतः तुम्हें उनसे गुणात्मक रूप से अपने आपको अभिन्न मानते हुए उनकी सेवा करनी चाहिए।

19 समस्त जीवों पर दया करने से, येन-केन प्रकार से संतुष्ट रहने से तथा इन्द्रियों को वश में करने से मनुष्य भगवान जनार्दन को बहुत शीघ्र संतुष्ट कर सकता है।

20 समस्त इच्छाओं के दूर हो जाने से भक्तगण समस्त मानसिक विकारों (कल्मष) से मुक्त हो जाते हैं। इस तरह वे भगवान का निरन्तर चिन्तन कर सकते हैं और उनको भावपूर्वक सम्बोधन कर सकते हैं। भगवान अपने को अपने भक्तों के वश में जानते हुए उन्हें क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते, जिस प्रकार सिर के ऊपर का आकाश कभी अदृश्य नहीं होता।

21 भगवान उन भक्तों को अत्यन्त प्रिय होते हैं जिनके पास कोई भौतिक सम्पत्ति नहीं है, किन्तु जो भगवद्भक्ति को ही अपना धन मानकर प्रसन्न रहते हैं। दरअसल भगवान ऐसे भक्ति के कार्यों का आनन्द लेते हैं। जो लोग अपनी शिक्षा, सम्पत्ति, कुलीनता और सकाम कर्म इत्यादि भौतिक वस्तुओं के मद से फूले रहते हैं, वे कभी-कभी भक्तों का उपहास करते हैं। ऐसे लोग यदि भगवान की पूजा करते भी हैं, तो वे उसे कभी स्वीकार नहीं करते।

22 यद्यपि श्री भगवान आत्मनिर्भर हैं, किन्तु वे भक्तों पर आश्रित हो जाते हैं। वे न तो लक्ष्मीजी की परवाह करते हैं और न उन राजाओं तथा देवताओं की जो लक्ष्मीजी के कृपाभाजन बनना चाहते हैं। ऐसा कौन होगा जो वास्तव में कृतज्ञ होते हुए भगवान की पूजा न करे?

23 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र नारद मुनि ने प्रचेताओं से भगवान के साथ इन सम्बन्धों का वर्णन किया। तत्पश्चात वे ब्रह्मलोक को चले गए।

24 नारद के मुख से संसार के समस्त दुर्भाग्य को दूर करने वाली भगवान की महिमा को सुनकर प्रचेतागण भी भगवान के प्रति आसक्त हो उठे। वे भगवान के चरणकमलों का ध्यान करते हुए चरम गन्तव्य को चले गए।

25 हे विदुर, मैंने तुम्हें वह सब कुछ सुना दिया है, जो तुम नारद तथा प्रचेताओं के भगवतकथा सम्बन्धी वार्तालाप के विषय में जानना चाह रहे थे। जहाँ तक सम्भव था मैंने तुम्हें बता दिया है।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे श्रेष्ठ राजन (राजा परीक्षित), यहाँ तक मैंने स्वायम्भुव मनु के प्रथम पुत्र उत्तानपाद के वंश का वर्णन किया है। अब मैं स्वायम्भुव मनु के द्वितीय पुत्र प्रियव्रत के वंशजों के कार्यकलापों का वर्णन करने का प्रयास करूँगा। कृपया ध्यानपूर्वक सुनें।

27 यद्यपि महाराज प्रियव्रत ने नारद मुनि से उपदेश प्राप्त किया था, तो भी वे पृथ्वी पर राज्य करने में संलग्न हुए। भौतिक सम्पत्ति का पूर्ण भोग कर चुकने के बाद उन्होंने उसे अपने पुत्रों में बाँट दिया। तब उन्हें वह पद प्राप्त हुआ जिससे वे भगवदधाम को लौट सके।

28 हे राजन, इस प्रकार मैत्रेय मुनि से भगवान तथा उनके भक्तों की दिव्य कथाएँ सुनकर विदुर भावविभोर हो उठे। आँखों में आँसू भरकर वे तुरन्त अपने गुरु के चरणकमलों पर गिर पड़े। तब उन्होंने अपने अन्तःकरण में भगवान को स्थिर कर लिया।

29 श्रीविदुर ने कहा: हे परम योगी, हे भक्तों में महान, आपने अहैतुकी कृपा से मुझे इस अंधकार रूपी संसार से मोक्ष का पथ प्रदर्शित किया है। इस भौतिक संसार से मुक्त पुरुष इस पथ पर चलकर इस संसार से भगवान के धाम को वापस जा सकता है।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार मैत्रेय मुनि को नमस्कार करके और उनसे अनुमति लेकर भौतिक इच्छाओं से रहित विदुर ने अपने परिजनों से मिलने के लिए हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया।

31 हे राजन जो लोग श्रीभगवान के प्रति पूर्णत: समर्पित राजाओं से सम्बन्धित इन कथाओं को सुनते हैं, वे बिना कठिनाई के दीर्घायु, सम्पत्ति, ख्याति, सौभाग्य (क्षेम) तथा अन्त में भगवदधाम जाने का अवसर प्राप्त करते हैं।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (चतुर्थ स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

Read more…

8252159871?profile=RESIZE_710x

अध्याय तीस – प्रचेताओं के कार्यकलाप (4.30)

1 विदुर ने मैत्रेय से जानना चाहा: हे ब्राह्मण, आपने पहले मुझसे प्राचीनबर्हि के पुत्रों के विषय में बतलाया था कि उन्होंने शिव द्वारा रचे हुए गीत के जप से भगवान को प्रसन्न किया। तो उन्हें इस प्रकार क्या प्राप्त हुआ?

2 हे बार्हस्पत्य (बृहस्पति के शिष्य), राजा बर्हिषत के पुत्रों ने, जिन्हें प्रचेता कहते हैं, उन्होंने भगवान शिवजी से भेंट करने के बाद क्या प्राप्त किया, जो मोक्षदाता भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं? वे वैकुण्ठलोक तो गये ही, किन्तु इसके अतिरिक्त उन्होंने इस जीवन में, अथवा अन्य जीवनों में इस संसार में क्या प्राप्त किया?

3 मैत्रेय ऋषि ने कहा: प्राचीनबर्हि के पुत्र प्रचेताओं ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए समुद्र जल के भीतर कठिन तपस्या की। भगवान शिव द्वारा प्रदत्त मंत्र का बारम्बार उच्चारण करके वे भगवान विष्णु को प्रसन्न करने में समर्थ हुए।

4 प्रचेताओं द्वारा दस हजार वर्षों तक कठिन तपस्या किए जाने के बाद भगवान तपस्या का फल देने के लिए उनके समक्ष अत्यन्त मनोहर रूप में प्रकट हुए। इससे प्रचेताओं को अपना श्रम सार्थक प्रतीत हुआ।

5 गरुड़ के कंधे पर आसीन भगवान मेरु पर्वत की चोटी पर छाये बादल के समान प्रतीत हो रहे थे। भगवान का दिव्य शरीर आकर्षक पीताम्बर से ढका था और उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से सुशोभित थी। भगवान के शारीरिक तेज से ब्रह्माण्ड का सारा अंधकार दूर हो रहा था।

6 भगवान का मुख अत्यन्त सुन्दर था और उनका सिर चमकीले मुकुट तथा सुनहरे आभूषणों से सुशोभित था। यह मुकुट झिलमिला रहा था और सिर पर अत्यन्त सुन्दर ढंग से लगा था। भगवान की आठ भुजाएँ थी और प्रत्येक भुजा में एक विशेष आयुध था। वे देवताओं, ऋषियों तथा अन्य पार्षदों से घिरे हुए थे। ये सब उनकी सेवा कर रहे थे। भगवान का वाहन गरुड़ अपने पंखों को फड़फड़ा कर वैदिक स्तोत्रों से भगवान की महिमा का इस प्रकार गान कर रहा था मानो वह किन्नर लोक का वासी हो।

7 भगवान के गले के चारों ओर घुटनों तक पहुँचने वाली फूलों की माला लटक रही थी, उनकी आठ बलिष्ठ तथा लम्बी भुजाएँ उस माला से विभूषित थी, जो लक्ष्मीजी की सुन्दरता को चुनौती दे रही थीं। दयापूर्ण चितवन तथा मेघ-गर्जना के समान वाणी से भगवान ने राजा प्राचीनबर्हिषत के पुत्रों को सम्बोधित किया जो उनकी शरण में आ चुके थे।

8 भगवान ने कहा: हे राजपुत्रों, मैं तुम लोगों के परस्पर मित्रतापूर्ण सम्बन्धों से अत्यधिक प्रसन्न हूँ। तुम सभी एक ही कार्य – भक्ति – में लगे हो। मैं तुम लोगों की मित्रता से इतना अधिक प्रसन्न हूँ कि मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ। अब तुम जो वर चाहो माँग सकते हो।

9 भगवान ने आगे कहा: जो प्रतिदिन संध्या समय तुम्हारा स्मरण करेंगे वे अपने भाइयों के प्रति तथा अन्य समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखेंगे।

10 जो लोग शिवजी द्वारा प्रणीत स्तुति से प्रातः तथा सायंकाल मेरी प्रार्थना करेंगे, उन्हें मैं वर प्रदान करूँगा। इस तरह वे अपनी इच्छाओं को पूरा करने के साथ-साथ सद्बुद्धि भी प्राप्त कर सकेंगे।

11 चूँकि तुम लोगों ने अपने अन्तःकरण से प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता की आज्ञा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य की है, उसका पालन किया है। अतः तुम्हारे आकर्षक गुण संसार-भर में सराहे जाएँगे।

12 तुम सबको एक उत्तम पुत्र प्राप्त होगा जो भगवान ब्रह्माजी से किसी भी प्रकार न्यून नहीं होगा। फलस्वरूप वह सारे ब्रह्माण्ड में अत्यन्त प्रसिद्ध होगा और उससे उत्पन्न पुत्र तथा पौत्र तीनों लोकों को भर देंगे।

13 हे राजा प्राचीनबर्हिषत के पुत्रों, प्रम्लोचा नामक अप्सरा ने कण्डु की कमलनयनी कन्या को जंगली वृक्षों की रखवाली में छोड़ दिया और फिर वह स्वर्गलोक को चली गई। यह कन्या कण्ड़ू ऋषि तथा प्रम्लोचा नामक अप्सरा के संयोग से उत्पन्न हुई थी।

14 तत्पश्चात वृक्षों के संरक्षण में रखा गया वह शिशु भूख से रोने लगा। उस समय वन के राजा अर्थात चन्द्रलोक के राजा ने दयावश अपनी अँगुली (तर्जनी) शिशु के मुख में रखी जिससे अमृत निकलता था। इस प्रकार उस शिशु का पालनपोषण चन्द्र राजा की कृपा से हुआ।

15 चूँकि तुम मेरी आज्ञा का पालन करने वाले हो, अतः मैं तुम्हें उस कन्या के साथ तुरन्त विवाह करने के लिए कहता हूँ क्योंकि वह अत्यन्त योग्य है, सुन्दरी है और उत्तम गुणों वाली है। अपने पिता की आज्ञा के अनुसार तुम उससे सन्तति उत्पन्न करो।

16 तुम सभी भाई भक्त तथा अपने पिता के आज्ञाकारी पुत्र होने के कारण समान स्वभाव वाले हो। यह लड़की भी उसी तरह की है और तुम सबके प्रति समर्पित है। अतः यह लड़की तथा तुम प्राचीनबर्हिषत के सारे पुत्र एक ही नियम से बँधे होकर समान पद पर स्थित हो।

17 तब भगवान ने सभी प्रचेताओं को आशीर्वाद दिया: हे राजकुमारों, मेरे अनुग्रह से तुम संसार की तथा स्वर्ग की सभी सुविधाओं को भोग सकते हो। तुम उन्हें बिना किसी बाधा के पूर्ण समर्थ रहते हुए दस लाख दिव्य वर्षों तक भोग सकते हो।

18 तत्पश्चात तुम मेरे प्रति शुद्ध भक्ति विकसित करोगे और समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाओगे। उस समय तथाकथित स्वर्गलोक तथा नरकलोक में भौतिक भोगों से विरक्त होकर तुम मेरे धाम को लौटोगे।

19 जो लोग भक्ति के शुभ कार्यों में लगे होते हैं, वे यह भलीभाँति समझते हैं कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ही समस्त कर्मों के परम भोक्ता हैं। अतः जब भी ऐसा व्यक्ति कोई कार्य करता है, तो कर्मफल भगवान को अर्पित कर देता है और भगवान की कथाओं में व्यस्त रहते हुए ही सारा जीवन बिताता है। ऐसा व्यक्ति गृहस्थाश्रम में रहकर भी कर्मफलों से प्रभावित नहीं होता।

20 सदैव भक्ति कार्यों में संलग्न रहकर भक्तजन स्वयं को ताजा तथा अपने कार्यों में सदैव नवीन (नया नया) अनुभव करते हैं। भक्त के हृदय के भीतर सर्वज्ञाता परमात्मा प्रत्येक वस्तु को अधिकाधिक नया बनाता रहता है। परम सत्य के पक्षधर (ब्रह्मवादी) इसे ब्रह्मभूत कहते हैं। ऐसी ब्रह्मभूत अर्थात मुक्त अवस्था में मनुष्य कभी मोहग्रस्त नहीं होता। न ही वह पश्चाताप करता है, न वृथा ही हर्षित होता है। यह ब्रह्मभूत अवस्था के कारण होता है।

21 मैत्रेय ऋषि ने कहा: भगवान के इस प्रकार कहने पर प्रचेताओं ने उनकी प्रार्थना की। भगवान जीवन की समस्त सिद्धियों को देने वाले और परम कल्याणकर्ता हैं। वे परम मित्र भी हैं, क्योंकि वे भक्तों के समस्त कष्टों को हरते हैं। प्रचेताओं ने आनन्दातिरेक से गदगद वाणी में प्रार्थना करनी प्रारम्भ की। वे भगवान का साक्षात दर्शन करने से शुद्ध हो गये।

22 प्रचेताओं ने कहा: हे भगवन, आप समस्त प्रकार के क्लेशों को हरने वाले हैं। आपके उदार दिव्य गुण तथा पवित्र नाम कल्याणप्रद हैं। इसका निर्णय पहले ही हो चुका है। आप मन तथा वाणी से भी अधिक वेग से जा सकते हैं। आप भौतिक इन्द्रियों द्वारा नहीं देखे जा सकते। अतः हम आपको सादर बारम्बार नमस्कार करते हैं।

23 हे भगवन, हम आपको प्रणाम करने की याचना करते हैं। जब मन आप में स्थिर होते हैं, तो यह द्वैतपूर्ण संसार भौतिक सुख का स्थान होते हुए भी व्यर्थ प्रतीत होता है। आपका दिव्य रूप दिव्य आनन्द से पूर्ण है। अतः हम आपका अभिवादन करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूप में आपका प्राकट्य इस दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के उद्देश्य से होता है।

24 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपका अस्तित्व समस्त भौतिक प्रभावों से पूर्णतया स्वतंत्र है। आप सदैव अपने भक्तों के क्लेशों को हर लेते हैं, क्योंकि आपका मस्तिष्क जानता है कि ऐसा किस प्रकार करना चाहिए। आप परमात्मा रूप में सर्वत्र रहते हैं। अतः आप वासुदेव कहलाते हैं। आप वसुदेव को अपना पिता मानते हैं और आप कृष्ण नाम से विख्यात हैं। आप इतने दयालु हैं कि अपने समस्त प्रकार के भक्तों के प्रभाव को बढ़ाते हैं।

25 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपकी ही नाभि से कमल पुष्प निकलता है, जो समस्त जीवों का उद्गम है। आप सदैव कमल की माला से सुशोभित रहते हैं और आपके चरण सुगन्धित कमल पुष्प के समान हैं। आपके नेत्र भी कमल पुष्प की पंखड़ियों के सदृश हैं, अतः हम आपको सदा ही सादर नमस्कार करते हैं।

26 हे भगवन, आपके द्वारा धारण किया गया वस्त्र कमल पुष्प के केसर के समान पीले रंग का है, किन्तु यह किसी भौतिक पदार्थ का बना हुआ नहीं है। प्रत्येक हृदय में निवास करने के कारण आप समस्त जीवों के समस्त कार्यों के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। हम आपको पुनः पुनः सादर नमस्कार करते हैं।

27 हे भगवन, हम बद्धजीव देहात्मबुद्धि के कारण सदैव अज्ञान से घिरे रहते हैं, अतः हमें भौतिक जगत के क्लेश ही सदैव प्रिय लगते हैं। इन क्लेशों से हमारा उद्धार करने के लिए ही आपने इस दिव्य रूप में अवतार लिया है। यह हम-जैसे कष्ट भोगने वालों पर आपकी अनन्त अहैतुकी कृपा का प्रमाण है। तो फिर उन भक्तों के विषय में क्या कहें जिनके प्रति आप सदैव कृपालु रहते हैं?

28 हे भगवन, आप समस्त अमंगल के विनाशकर्ता हैं। आप अपने अर्चा-विग्रह विस्तार के द्वारा अपने दीन भक्तों पर दया करने वाले हैं। आप हम सबों को अपना शाश्वत दास समझें।

29 जब भगवान अपनी सहज दयाभाव से अपने भक्त के विषय में सोचते हैं तो उस विधि से ही नवदीक्षित भक्तों की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं। जीव के अत्यन्त तुच्छ होने पर भी भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं। भगवान जीव के सम्बन्ध में प्रत्येक बात, यहाँ तक कि उसकी समस्त इच्छाओं, को भी जानते रहते हैं। यद्यपि हम अत्यन्त तुच्छ जीव हैं फिर भी भगवान हमारी इच्छाओं को क्यों नहीं जानेंगे?

30 हे जगत के स्वामी, आप भक्तियोग के वास्तविक शिक्षक हैं। हमें सन्तोष है कि हमारे जीवन के परमलक्ष्य आप हैं और हम प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों। यही हमारा अभीष्ट वर है। हम आपकी पूर्ण प्रसन्नता के अतिरिक्त और कुछ भी कामना नहीं करते।

31 अतः हे स्वामी, हम आपसे वर देने के लिए प्रार्थना करेंगे, क्योंकि आप समस्त दिव्य प्रकृति से परे हैं और आपके ऐश्वर्यों का कोई अन्त नहीं है। अतः आप अनन्त नाम से विख्यात हैं।

32 हे स्वामी, जब भौंरा दिव्य पारिजात वृक्ष के निकट पहुँच जाता है, तो वह उसे कभी नहीं छोड़ता क्योंकि उसे ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी प्रकार जब हमने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है, तो हमें और क्या वर माँगने की आवश्यकता है?

33 हे स्वामी, हमारी प्रार्थना है कि जब तक हम अपने सांसारिक कल्मष के कारण इस संसार में रहें और एक शरीर से दूसरे में तथा एक लोक से दूसरे लोक में घूमते रहे, तब तक हम उनकी संगति में रहें जो आपकी लीलाओं की चर्चा करने में लगे रहते हैं। हम जन्म-जन्मान्तार विभिन्न शारीरिक रूपों में और विभिन्न लोकों में इसी वर के लिए प्रार्थना करते हैं।

34 एक क्षण की भी शुद्ध भक्त की संगति के सामने स्वर्गलोक जाने अथवा पूर्ण मोक्ष पाकर ब्रह्मतेज (कैवल्य) की कोई तुलना नहीं की जा सकती है। शरीर को त्याग कर मरने वाले जीवों के लिए सर्वश्रेष्ठ वर तो शुद्ध भक्तों की संगति है।

35 जब भी दिव्य लोक की कथाओं की चर्चा चलती है, श्रोतागण, भले ही क्षण-भर के लिए क्यों न हो, समस्त भौतिक तृष्णाएँ भूल जाते हैं। यही नहीं, आगे से वे एक दूसरे से न तो वैर करते हैं, न किसी कुण्ठा या भय से ग्रस्त होते हैं।

36 जहाँ भक्तों के बीच भगवान के पवित्र नाम का श्रवण तथा कीर्तन चलता रहता है, वहाँ भगवान नारायण उपस्थित रहते हैं। संन्यासियों के चरम लक्ष्य भगवान नारायण ही हैं और नारायण की पूजा उन व्यक्तियों द्वारा इस संकीर्तन आन्दोलन के माध्यम से की जाती है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त हो चुके हैं। वे बारम्बार भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं।

37 हे भगवन, आपके पार्षद तथा भक्त संसार-भर में तीर्थस्थानों तक को पवित्र करने के लिए भ्रमण करते रहते हैं। जो इस संसार से भयभीत हैं, क्या ऐसा कार्य इन सबके लिए रुचिकर नहीं होता?

38 हे भगवन, हम भाग्यशाली हैं कि आपके अत्यन्त प्रिय तथा अभिन्न मित्र शिवजी की क्षणमात्र की संगति से हम आपको प्राप्त कर सके हैं। आप इस संसार के असाध्य रोग का उपचार करने में समर्थ सर्वश्रेष्ठ वैद्य हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमें आपके चरणकमलों का आश्रय प्राप्त हो सका।

39-40 हे भगवन, हमने वेदों का अध्ययन किया है, गुरु बनाया है और ब्राह्मणों, भक्तों तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक उन्नत वरिष्ठ पुरुषों को सम्मान प्रदान किया है। हमने अपने किसी भी भाई, मित्र या अन्य किसी से ईर्ष्या नहीं की। हमने जल के भीतर रहकर कठिन तपस्या भी की है और दीर्घकाल तक भोजन ग्रहण नहीं किया। हमारी ये सारी आध्यात्मिक सम्पदाएँ आपको प्रसन्न करने के लिए सादर समर्पित हैं। हम आपसे केवल यही वर माँगते हैं, अन्य कुछ भी नहीं।

41 हे भगवन, तप तथा ज्ञान के कारण सिद्धिप्राप्त बड़े-बड़े योगी तथा शुद्ध सत्व में स्थित लोगों के साथ-साथ मनु, ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुष भी आपकी महिमा तथा शक्तियों को पूरी तरह नहीं समझ पाते। फिर भी वे यथाशक्ति आपकी प्रार्थना करते हैं। उसी प्रकार हम इन महापुरुषों से काफी क्षुद्र होते हुए भी अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रार्थना कर रहे हैं।

42 हे भगवन, आपके न तो शत्रु हैं न मित्र। अतः आप सबों के लिए समान हैं। आप पापकर्मों के द्वारा कलुषित नहीं होते और आपका दिव्य रूप सदैव भौतिक सृष्टि से परे है। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप वासुदेव कहलाते है। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

43 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, इस प्रकार प्रचेताओं द्वारा सम्बोधित तथा पूजित होकर शरणागतों के रक्षक भगवान ने कहा, “तुमने जो कुछ माँगा है, वह पूरा हो।"

44 तत्पश्चात कभी न पराजित होने वाले भगवान ने विदा ली। प्रचेतागण उनसे विलग नहीं होना चाह रहे थे, क्योंकि उन्होंने जी-भर कर उन्हें नहीं देखा था। तत्पश्चात सभी प्रचेता समुद्र के जल से बाहर निकल आये। तब उन्होंने देखा कि पृथ्वी (स्थल) पर सारे वृक्ष बढ़कर काफी ऊँचे हो चुके हैं मानो वे स्वर्ग के मार्ग को रोकना चाहते हों। इन वृक्षों ने सारे पृथ्वीतल को आच्छादित कर रखा था। उस समय प्रचेता अत्यन्त कुपित हुए।

45 हे राजन, प्रलय के समय शिवजी क्रोध में आकर अपने मुख से अग्नि तथा वायु छोड़ते हैं। प्रचेताओं ने भी पृथ्वीतल को पूर्णत: वृक्षरहित करने के लिए अपने मुखों से अग्नि तथा वायु निकाली।

46 यह देखकर कि पृथ्वी के सारे वृक्ष जलकर राख हो रहे हैं, ब्रह्माजी तुरन्त राजा बर्हिष्मान के पुत्रों के पास आये और उन्होंने तर्कपूर्ण शब्दों से उन्हें शान्त किया।

47 बचे हुए वृक्षों ने प्रचेताओं से डरकर ब्रह्मा की राय से अपनी कन्या को लाकर तुरन्त उन्हें दे दिया।

48 ब्रह्मा के आदेश से समस्त प्रचेताओं ने उस कन्या को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इस कन्या के गर्भ से ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने जन्म लिया। दक्ष को मारिष के गर्भ से इसलिए जन्म लेना पड़ा, क्योंकि उसने महादेवजी (शिवजी) की आज्ञा का उल्लंघन तथा अनादर किया था। फलतः उसे दो बार शरीर त्याग करना पड़ा।

49 उसका पूर्व शरीर विनष्ट हो चुका था, किन्तु उसी दक्ष ने परमेश्वर की प्रेरणा से चाक्षुष मन्वन्तर में समस्त मनोवांछित जीवों की सृष्टि की।

50-51 जन्म लेने के बाद अपनी अद्वितीय शारीरिक कान्ति के कारण दक्ष ने अन्य सबों की शारीरिक कान्ति को ढाँप दिया। चूँकि वह सकाम कार्य करने में अत्यन्त पटु (दक्ष) था, इसलिए उसका नाम दक्ष पड़ा। इसलिए ब्रह्मा ने उसे जीवों को उत्पन्न करने तथा उनके पालन के कार्य में लगा दिया। समय आने पर दक्ष ने अन्य प्रजापतियों को भी उत्पत्ति तथा पालन के कार्य में नियुक्त कर दिया।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

8252060868?profile=RESIZE_710x

अध्याय उन्तीस -- नारद तथा प्राचीनबर्हि के मध्य वार्तालाप

1-5 राजा प्राचीनबर्हि ने उत्तर दिया: हे प्रभु, हम आपके कहे गये राजा पुरञ्जन के रुपक आख्यान (अन्योक्ति) का सारांश पूर्ण रूप से नहीं समझ सके। वास्तव में जो आध्यात्मिक ज्ञान में निपुण हैं, वे तो समझ सकते हैं, किन्तु हम जैसे सकाम कर्मों में अत्यधिक लिप्त पुरुषों के लिए आपके आख्यान का तात्पर्य समझ पाना अत्यन्त कठिन है। नारद मुनि ने कहा – तुम जानो कि पुरञ्जन रूपी जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न रूपों में देहान्तर करता रहता है, जो एक, दो, तीन, चार या अनेक पाँव वाले या पाँवविहीन हो सकते हैं। इन विभिन्न प्रकार के रूपों में देहान्तर करने वाला जीव तथाकथित भोक्ता के रूप में पुरञ्जन कहा जाता है। जिस पुरुष को मैंने अविज्ञात कहा है, वह जीव का स्वामी तथा शाश्वत मित्र परमेश्वर है। चूँकि जीव भगवान को भौतिक नामों, गुणों या कर्मों द्वारा नहीं जान सकते, फलतः वह बद्धजीव के लिए सदैव अज्ञात रहता है। जब जीव समग्ररूप से प्रकृति के गुणों का भोग करने की इच्छा करता है, तो वह अनेक शारीरिक रूपों में से उस शरीर को चुनता है, जिसमें नौ द्वार, दो हाथ तथा दो पाँव होते हैं। इस प्रकार वह मनुष्य या देवता बनना श्रेयस्कर मानता है। नारद मुनि ने कहा: इस प्रसंग में उल्लिखित प्रमदा शब्द भौतिक बुद्धि या अविद्या के लिए प्रयुक्त है। इसे इसी रूप में समझो। जब मनुष्य ऐसी बुद्धि का आश्रय ग्रहण करता है तो वह अपने को शरीर समझ बैठता है। "मैं" तथा "मेरी" की भौतिक बुद्धि से प्रभावित होकर वह अपनी इन्द्रियों से दुख तथा सुख का अनुभव करने लगता है। इस प्रकार जीव बन्धन में पड़ जाता है।

6 पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँचों कर्मेन्द्रियाँ पुरञ्जनी के नर मित्र हैं। जीव को इन इन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने तथा कार्य में प्रवृत्त होने में सहायता मिलती है। इन्द्रियों के व्यापार उसकी सखियाँ हैं और वह सर्प जिसे पाँच फनों वाला बताया गया है, पाँच प्रकार की क्रियाओं के भीतर कार्यशील प्राणवायु है।

7-8 ग्यारहवाँ सेवक, जो अन्यों का नायक है, मन कहलाता है। यह कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों – इन दोनों का नायक है। पञ्चाल राज्य वह वातावरण है, जिसमें पाँच इन्द्रिय-पदार्थों (विषयों) का भोग किया जाता है। इस पञ्चाल राज्य के भीतर शरीर रूपी नगरी है, जिसमें नौ द्वार (छिद्र) हैं। आँखें, नथुने तथा कान – इन द्वारों की जोड़ियाँ एक स्थान पर स्थित हैं। मुँह, शिश्न तथा गुदा भी अन्य द्वार हैं। इन नौ द्वारों वाले शरीर में स्थित होकर जीव बाहयतः भौतिक जगत में कार्य करता है और रूप तथा स्वाद जैसे इन्द्रियविषयों का भोग करता है।

9-10 दो आँखें, दो नथुने तथा मुँह ये पाँचों सामने स्थित हैं। दाहिना कान दक्षिणी द्वार है और बायाँ कान उत्तरी द्वार। पश्चिम की ओर स्थित दो छिद्र या द्वार गुदा तथा शिश्न कहलाते हैं। खद्योत तथा आविर्मुखी नाम से जिन दो द्वारों का वर्णन किया गया है वे एक ही स्थान पर अगल-बगल स्थित दो नेत्र हैं। विभ्राजित नामक नगरी को रूप समझना चाहिए। इस प्रकार दोनों नेत्र सदैव विभिन्न प्रकार के रूपों को देखने में व्यस्त रहते हैं।

11-12 नलिनी तथा नालिनी नामक दोनों द्वार दो नासाछिद्र (नथुने) हैं और सुगन्ध को सौरभ नामक नगरी ही कहा गया है। अवधूत नामक मित्र घ्राणेन्द्रिय है। मुख्या नामक द्वार मुख है और विपण वाकशक्ति है। रसज्ञ ही स्वाद की इन्द्रिय (जीभ) है। आपण नामक नगरी जीभ के बोलने के कार्य की सूचक है और बहुदन तरह-तरह के व्यंजनों का सूचक है। दायाँ कान पितृहू द्वारा कहलाता है और बायाँ कान देवहू द्वार।

13-15 नारद मुनि ने आगे कहा: दक्षिण पञ्चाल कही जाने वाली नगरी सकाम कर्म में भोग की विधि अर्थात प्रवृत्ति-मार्ग को बताने वाले शास्त्रों की सूचक है। उत्तर पञ्चाल नामक अन्य नगरी निवृत्ति मार्ग – सकाम कर्म को घटाने तथा ज्ञान को बढ़ाने वाला मार्ग – बताने वाले शास्त्रों के लिए प्रयुक्त है। जीव को ज्ञान की प्राप्ति दो कानों द्वारा होती है और कुछ लोग पितृलोक तथा कुछ देवलोक को जाते हैं। यह सब दोनों कानों द्वारा सम्भव होता है। ग्रामक नामक पुरी, जहाँ निचले आसुरी द्वार (शिश्न) से पहुँचा जाता है, स्त्री-संसर्ग के लिए है जो उन सामान्य पुरुषों के लिए अत्यन्त मोहक है जो निरे मूर्ख एवं धूर्त हैं। जननेन्द्रिय दुर्मद कहलाती है और गुदा निर्ऋति कहलाती है। जब यह कहा जाता है की पुरञ्जन वैशस जाता है, तो उसका अर्थ है कि वह नरक जाता है। उसके साथ लुब्धक रहता है, जो गुदा नामक कर्मेन्द्रिय है। इसके पूर्व मैंने दो अन्धे साथियों का भी उल्लेख किया था। इन्हें हाथ तथा पाँव समझना चाहिए। जीव हाथ तथा पाँव की सहायता से सभी प्रकार के कार्य करता और इधर-उधर जाता है।

16-17 अन्तःपुर हृदय का सूचक है। विषूचिन (सर्वत्र जाते हुए) मन को बताने वाला है। जीव मन के भीतर प्रकृति के गुणों का भोग करता है। ये सारे प्रभाव कभी मोह उत्पन्न करते हैं, तो कभी सन्तोष तथा उल्लास। पहले यह बताया जा चुका है कि रानी मनुष्य की बुद्धि है। सोते समय या जागते हुए बुद्धि विभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। दूषित बुद्धि के कारण जीव कुछ सोचता है और अपनी बुद्धि के कार्य-कारणों का केवल अनुकरण करता है।

18-20 नारद मुनि ने आगे कहा: जिसे मैंने रथ कहा था, वह वास्तव में शरीर है। इन्द्रियाँ ही वे घोड़े हैं, जो रथ को खींचते हैं। ज्यों-त्यों वर्षानुवर्ष समय बीतता जाता है, ये घोड़े बिना किसी अवरोध के दौड़ते हैं, किन्तु वास्तव में वे कोई प्रगति नहीं कर पाते। पाप तथा पुण्य इस रथ के दो पहिये हैं। प्रकृति के तीनों गुण इस रथ की ध्वजाएँ हैं। पाँच प्रकार के प्राण जीव के बन्धन बनते हैं और मन को रस्सी (रज्जु) माना जाता है। बुद्धि इस रथ का सारथी है। हृदय रथ में बैठने का स्थान है और हर्ष तथा पीड़ा जैसे द्वन्द्व जुए हैं। सातों तत्त्व (धातुएँ) इस रथ के ओहार (आवरण) हैं, पाँचों कर्मेन्द्रियाँ उसकी पाँच प्रकार की बाह्य गतियाँ हैं और ग्यारहों इन्द्रियाँ सैनिक हैं। इन्द्रिय-सुख में मग्न रहने के कारण रथ पर आसीन जीव झूठी अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए इतराता है और जन्म-जन्मान्तर तक इन्द्रियसुख के पीछे दौड़ता रहता है।

21-25 जिसे पहले चण्डवेग अर्थात शक्तिशाली काल कहा गया था वह दिन तथा रात से बना है जिनके नाम गन्धर्व और गन्धर्वी हैं। शरीर की आयु दिन तथा रात के बीतने से क्रमश: घटती जाती है जिनकी संख्या 360 है। जिसे कालकन्या कहा गया है, उसे वृद्धावस्था (जरा) समझना चाहिए। कोई भी वृद्धावस्था नहीं स्वीकार करना चाहता, किन्तु यवनराज, जो साक्षात मृत्यु है, जरा (वृद्धावस्था) को अपनी बहन के रूप में स्वीकार करता है। यवनेश्वर (यमराज) के अनुचर मृत्यु के सैनिक कहलाते हैं, जो शरीर तथा मन सम्बन्धी विविध क्लेश माने जाते हैं। प्रज्वार दो प्रकार के ज्वरों का सूचक है – अत्यधिक ताप तथा अत्यधिक शीत – जैसे टाइफाइड तथा निमोनिया। शरीर के भीतर लेटा हुआ जीव विविध क्लेशों द्वारा, जो दैविक, भौतिक और अपने ही शरीर तथा मन से सम्बन्धित है, विचलित होता रहता है। समस्त प्रकार के क्लेशों के होते हुए भी जीव इस संसार को भोगने की इच्छा से अनेकानेक योजनाओं में बह जाता है। निर्गुण (दिव्य) होकर भी जीव अपने अज्ञान के कारण अहंकारवश (मैं तथा मेरा) इन भौतिक कष्टों को स्वीकार करता है। इस प्रकार वह इस शरीर के भीतर सौ वर्षो तक रहता है।

26-27 जीव की यह प्रकृति है कि उसे अपना अच्छा या बुरा भाग्य चुनने की कुछ-कुछ छूट है, किन्तु जब वह अपने परम स्वामी भगवान को भुला देता है, तो वह अपने को प्रकृति के गुणों के हवाले कर देता है। इस तरह प्रकृति के गुणों के वशीभूत होकर वह अपने को शरीर मान बैठता है। कभी वह तमोगुण, तो कभी रजोगुण और कभी सतोगुण के अधीन होता है। इस प्रकार जीव प्रकृति के गुणों के अधीन रहकर विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त करता है।

28-31 जो सतोगुणी हैं, वे वैदिक आदेशों के अनुसार पुण्यकर्म करते हैं और इस तरह वे उच्चलोकों को जाते हैं जहाँ देवों का निवास है। जो रजोगुणी हैं, वे मनुष्य लोक में विभिन्न प्रकार के उत्पादक काम करते हैं। इसी प्रकार तमोगुणी पुरुष विभिन्न प्रकार के कष्ट उठाते हैं और पशु जगत में वास करते हैं। भौतिक प्रकृति के गुणों से आच्छादित होकर जीवात्मा कभी नर, कभी नारी, कभी नपुंसक, कभी मनुष्य, कभी देवता, कभी पक्षी, पशु इत्यादि बनता है। इस प्रकार वह भौतिक जगत में घूमता रहता है। वह प्रकृति के गुणों के अधीन अपने कर्मों के कारण विभिन्न प्रकार के शरीर स्वीकार करता रहता है। यह जीव ठीक उस कुत्ते के तुल्य है, जो भूख से परेशान भोजन पाने के लिए द्वार-द्वार जाता है। अपने प्रारब्ध के अनुसार वह कभी दण्ड पाता है और खदेड़ दिया जाता है, अथवा कभी-कभी खाने को थोड़ा भोजन भी पा जाता है। इसी प्रकार, जीव भी अनेकानेक इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने भाग्य के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकता रहता है। कभी वह उच्च स्थान प्राप्त करता है, तो कभी निम्न स्थान। कभी वह स्वर्ग को जाता है, कभी नरक को, तो कभी मध्य लोकों को और ऐसा चलता रहता है।

32-33 सारे जीव मन तथा शरीर सम्बन्धी दुखों से छुटकारा पाने का प्रयास करते हैं । तो भी इन नियमों का प्रतिकार करने के प्रयासों के बावजूद वे प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध रहते हैं । मनुष्य बोझ को सिर पर लेकर ढो सकता है और जब यह उसे भारी लगने लगे तो कभी-कभी वह बोझ को कंधे पर रखकर अपने सिर को विश्राम देता है । इस तरह वह बोझ से छुटकारा पाने के लिए प्रयास करता है । फिर भी, वह इस बोझ से मुक्त होने के लिए चाहे जो भी विधि निकाले, वह उस बोझ को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने से अधिक और कुछ नहीं कर सकता ।

34 नारद ने आगे कहा: हे शुद्ध हृदय पुरुष, कोई भी व्यक्ति कर्मों के फल का निराकरण कृष्णभक्ति से रहित अन्य कर्म करके नहीं कर सकता। ऐसे सारे कर्म हमारे अज्ञान के कारण हैं। जब हम कोई कष्टप्रद स्वप्न देखते हैं, तो हम किसी कष्टप्रद व्यामोह के द्वारा छुटकारा नहीं पा सकते। स्वप्न का निवारण तो जागकर ही किया जा सकता है। इसी प्रकार हमारा भौतिक अस्तित्व हमारे अज्ञान तथा मोह के कारण है। जब तक हममें कृष्णभक्ति नहीं जग जाती, ऐसे स्वप्नों से छुटकारा नहीं मिल सकता। समस्त समस्याओं को हल कर लेने के लिए हमें कृष्णचेतना को जागृत करना होगा।

35-37 कभी-कभी हमें इसलिए कष्ट होता है, क्योंकि हमें स्वप्न में शेर या सर्प दिख जाता है, किन्तु वास्तव में वहाँ न तो शेर होता है, न सर्प। इस प्रकार हम अपनी सूक्ष्म अवस्था में कोई परिस्थिति उत्पन्न कर लेते हैं और उसके परिणामों को भोगते हैं। इन कष्टों का निवारण तब तक नहीं हो सकता जब तक कि हम अपने स्वप्न से जाग नहीं जाते। जीव का वास्तविक हित इसमें है कि वह उस अविद्या से निकले जिसके कारण उसे बारम्बार जन्म तथा मृत्यु सहनी पड़ती है। इसका एकमात्र निवारण है भगवान के प्रतिनिधि के माध्यम से उनकी ही शरण ग्रहण करना। जब तक मनुष्य भगवान वासुदेव की भक्ति नहीं करता, तब तक वह न तो इस भौतिक जगत से पूर्णत: विरक्त हो सकता है और न अपने असली ज्ञान को ही प्रकट कर सकता है।

38-40 हे राजर्षि, जो श्रद्धावान है, जो भगवान की महिमा का निरन्तर श्रवण करता रहता है, जो सदैव कृष्णचेतना के अनुशीलन तथा भगवान के कार्यकलापों को सुनने में लगा रहता है, वह शीघ्र ही भगवान का साक्षात्कार करने के योग्य हो जाता है। हे राजन, जिस स्थान में शुद्ध भक्त विधि-विधानों का पालन करते हुए तथा इस प्रकार से नितान्त सचेष्ट रहते हुए एवं उत्सुकतापूर्वक भगवान के गुणों का श्रवण तथा कीर्तन करते रहते हैं उस स्थान में यदि किसी को अमृत के निरन्तर प्रवाह को सुनने का अवसर प्राप्त हो तो वह जीवन की आवश्यकताएँ – भूख तथा प्यास – भूल जायेगा और समस्त प्रकार के भय, शोक तथा मोह के प्रति निश्चेष्ट हो जायेगा।

41-45 चूँकि बद्धजीव सदैव भूख तथा प्यास जैसी शारीरिक आवश्यकताओं से विचलित होता रहता है, अतः उसे भगवान की अमृतवाणी सुनने का अनुराग उत्पन्न करने के लिए बहुत कम समय मिल पाता है। समस्त प्रजापतियों के पिता परम शक्तिशाली ब्रह्माजी, शिव, मनु, दक्ष तथा मानवजाति के अन्य शासक, प्रथम कोटि के ब्रह्मचारी सनक, सनातन इत्यादि चारों परम साधू; अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह क्रतु, भृगु तथा वसिष्ठ जैसे महर्षि तथा स्वयं मैं (नारद) – ये सभी महान ब्राह्मण हैं, जो वैदिक साहित्य पर अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं। हम सब तप, ध्यान तथा ज्ञान के कारण अत्यन्त शक्तिशाली हैं। तो भी भगवान को साक्षात देखते हुए और अन्वेषण करने पर भी हम उनके विषय में पूर्णत: नहीं जानते। अनन्त वैदिक ज्ञान के अनुशीलन तथा वैदिक मंत्रों के लक्षणों से विभिन्न देवताओं की पूजा के बावजूद देव-पूजा से परम शक्तिशाली भगवान को समझने में कोई सहायता नहीं मिलती।

46-47 जब मनुष्य पूर्णत: भक्ति में लगा रहता है, तो अहैतुकी कृपा प्रदर्शित करनेवाले भगवान उस पर कृपा करते हैं। ऐसे अवसर पर जागृत भक्त सारे भौतिक कार्यों तथा वेदों में वर्णित अनुष्ठानों को त्याग देता है। हे राजा बर्हिष्मान, तुम्हें अज्ञानवश कभी भी वैदिक अनुष्ठानों या सकाम कर्मों को अपनाना नहीं चाहिए, भले ही वे कर्णप्रिय क्यों न हों, अथवा आत्म सिद्धि के लक्ष्य प्रतीत होते हों। तुम्हें चाहिए कि इन्हें कभी भी जीवन का चरम लक्ष्य न समझो।

48-50 अल्पज्ञानी मनुष्य वैदिक अनुष्ठानों को ही सब कुछ मान बैठते हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि वेदों का प्रयोजन अपने निजी धाम (घर) को जानना है जहाँ भगवान निवास करते हैं। अपने असली धाम में रुचि न रखकर वे मोहग्रस्त होकर, अन्य धामों की खोज करते रहते हैं। हे राजन, सारा संसार कुशों के तीखे अग्र भागों से ढका है और इस कारण तुम्हें अभिमान हो गया है क्योंकि तुमने यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं का वध किया है। अपनी मूर्खतावश तुम्हें यह ज्ञात नहीं है कि भगवान को प्रसन्न करने का एकमात्र उपाय भक्ति है। तुम इस तथ्य को नहीं समझ सकते। तुम्हें वे ही कार्य करने चाहिए जिनसे भगवान प्रसन्न हों। हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि हम कृष्णचेतना के स्तर तक ऊपर उठ सकें। भगवान श्रीहरि इस संसार के समस्त देहधारी जीवों के परमात्मा तथा प्रदर्शक हैं। वे प्रकृति के समस्त भौतिक कार्यों के परम नियामक हैं। वे हमारे श्रेष्ठ सखा भी है, अतः प्रत्येक व्यक्ति को उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए। ऐसा करने से जीवन कल्याणमय हो जाएगा।

51-55 जो भक्ति में लगा हुआ है, वह इस संसार से रंचमात्र भी नहीं डरता। इसका कारण यह है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान परम आत्मा हैं और सबके मित्र हैं। जो इस रहस्य को जानता है, वही वास्तव में शिक्षित है और ऐसा शिक्षित व्यक्ति ही संसार का गुरु हो सकता है। जो वस्तुतः प्रामाणिक गुरु अर्थात कृष्ण का प्रतिनिधि है, वह कृष्ण से अभिन्न होता है। महर्षि नारद ने आगे कहा: हे महापुरुष, तुमने जो कुछ मुझसे पूछा है मैंने उसका समुचित उत्तर दे दिया है। अब एक अन्य आख्यान सुनो जो साधु पुरुषों द्वारा स्वीकृत है और अत्यन्त गुह्य है। हे राजा, उस हिरण की खोज करो जो एक सुन्दर उद्यान में अपनी हिरणी के साथ घास चरने में मस्त है। वह हिरण अपने कार्य (चरने) में अत्यधिक अनुरक्त है और उस उद्यान के भौरों की मधुर गुंजार का आनन्द ले रहा है। उसकी स्थिति को समझने का प्रयास करो। उसे इसका पता नहीं कि उसके सामने भेड़िया है, जो अन्यों के मांस को खाकर अपना पेट पालन करने का आदी है। हिरण के पीछे शिकारी है, जो उसे तीक्ष्ण बाणों से बेधने के लिए तैयार है। इस प्रकार हिरण की मृत्यु निश्चित है। हे राजन, स्त्री उस पुष्प के समान है, जो प्रारम्भ में अत्यन्त आकर्षक एवं अन्त में अत्यन्त घृणा योग्य हो जाता है। जीव कामेच्छाओं के कारण स्त्री संगति करता है, रति-सुख प्राप्त करता है, इस प्रकार वह रसनेन्द्रिय से लेकर जनेन्द्रिय तक इन्द्रियतृप्ति का जीवन बिताता है और अपने को गृहस्थ जीवन में अत्यन्त सुखी मानता है। अपनी स्त्री के साथ रहते हुए वह सदैव ऐसे विचारों में मग्न रहता है। वह अपनी पत्नी तथा बच्चो की बातें सुनने में आनन्द का अनुभव करता है। ये उन भौंरों की मधुर गुंजार के तुल्य होती हैं, जो प्रत्येक फूल से मधु एकत्र करते रहते हैं। वह भूल जाता है कि उसके समक्ष काल खड़ा है, जो दिन-रात बीतने के साथ ही उसकी आयु का हरण करता जा रहा है। उसे न तो धीरे-धीरे हो रही अपनी आयु-क्षय दिखती है और न उसे यमराज की ही परवाह रहती है, जो पीछे से उसे मारने का प्रयत्न करते रहते हैं। तुम इसे समझने का प्रयास करो। तुम अत्यन्त शोचनीय स्थिति में हो और चारों ओर से संकट से घिरे हो। हे राजन, तुम हिरण की अन्योक्ति की स्थिति को समझने का प्रयास करो। तुम अपने प्रति पूर्ण सचेत रहो और कर्म के द्वारा स्वर्गलोक जाने के श्रवण-सुख को त्याग दो। गृहस्थ जीवन त्याग दो, क्योंकि यह विषयभोगों से तथा ऐसी वस्तुओं की कथाओं से पूर्ण है। तुम मुक्त पुरुषों की कृपा से भगवान की शरण ग्रहण करो। इस प्रकार से इस संसार के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग करो।

56-59 राजा ने कहा: हे ब्राह्मण, आपने जो कुछ कहा है उसे मैंने अत्यन्त मनोयोग से सुना है और सम्यक विचार के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जिन आचार्यों (शिक्षकों) ने मुझे कर्मकाण्ड में प्रवृत्त किया, वे इस गुह्य ज्ञान को नहीं जानते थे, और यदि वे इससे अवगत थे तो फिर उन्होंने मुझे क्यों नहीं बताया? हे ब्राह्मण, आपके आदेशों तथा मुझे कर्मकाण्ड में प्रवृत्त करने वाले मेरे गुरुओं के उपदेशों में विरोधाभास जान पड़ता है। मैं अब भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य के अन्तर को समझ सकता हूँ। मुझे पहले इनके विषय में कुछ संशय थे, किन्तु आपने कृपा करके इन संशयों को मिटा दिया है। अब मैं समझ सकता हूँ कि बड़े बड़े ऋषि भी जीवन के वास्तविक उद्देश्य के विषय में कैसे मोहग्रस्त होते हैं। निस्सन्देह, इन्द्रियतृप्ति का कोई सवाल ही नहीं उठता। इस जीवन में जीव जो कुछ भी करता है, उसका फल वह अगले जीवन में भोगता है। वेदवादियों का कथन है कि मनुष्य अपने पूर्व कर्मों के फल का भोग करता है। किन्तु व्यावहारिक रूप में यह देखा जाता है कि पिछले जन्म में जिस शरीर ने कर्म किया था वह तो नष्ट हो चुका होता है। अतः उस कर्म का भोग एक भिन्न शरीर द्वारा किस प्रकार सम्भव है?

60-65 नारद मुनि ने कहा: इस जीवन में जीव स्थूल शरीर में कर्म करता है। यह शरीर मन, बुद्धि तथा अहंकार से निर्मित सूक्ष्म शरीर द्वारा कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है। इस स्थूल शरीर के विनष्ट होने पर भी सूक्ष्म शरीर फल भोगने या कष्ट उठाने के लिए बना रहता है। अतः इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वप्न देखते समय जीव अपने वास्तविक शरीर को त्याग देता है और अपने मन तथा बुद्धि के कार्यों से वह दूसरे शरीर में, यथा देवता या कुत्ते के शरीर में, प्रवेश करता है। इस स्थूल शरीर को त्याग कर जीव इस लोक में अथवा अन्य लोक में किसी पशु या देवता के शरीर में प्रवेश करता है। इस प्रकार वह अपने पिछले जीवन के कर्मफलों को भोगता है। जीव इस देहात्मबुद्धि के अन्तर्गत कार्य करता है कि, “मैं यह हूँ, मैं वह हूँ, यह मेरा कर्तव्य है, अतः मैं इसे करूँगा।" ये सब मानसिक संस्कार है और ये सारे कर्म अस्थायी हैं; फिर भी भगवान के अनुग्रह से जीव को अपने समस्त मनोरथ पूरे करने का अवसर प्राप्त होता है। इसलिए उसे दूसरा शरीर प्राप्त होता है। जीव की मानसिक स्थिति को दो प्रकार की इन्द्रियों – कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों – द्वारा समझा जा सकता है। इसी प्रकार किसी मनुष्य की मानसिक स्थिति से उसके पूर्वजन्म की स्थिति को समझा जा सकता है। कभी-कभी हमें ऐसी वस्तु का अचानक अनुभव होता है जिसे हमने इस शरीर में देख या सुनकर कभी अनुभव नहीं किया। कभी-कभी हमें ऐसी वस्तुएँ अचानक स्वप्न में दिख जाती है। अतः हे राजन, सूक्ष्म मानसिक आवरण वाला यह जीव अपने पूर्व शरीर के कारण सभी प्रकार के विचार तथा प्रतिबिम्ब विकसित करता रहता है। मेरी बात को तुम निश्चय समझो। जब तक पूर्व शरीर में कोई वस्तु देखी हुई नहीं रहती, तब तक मन के द्वारा उसकी कल्पना करने की सम्भावना नहीं उठती।

66-67 हे राजन, तुम्हारा कल्याण हो। यह मन प्रकृति के साहचर्य के अनुसार जीव द्वारा विशेष प्रकार का शरीर धारण करने का कारण है। मनुष्य अपने मानसिक संघटन के अनुसार यह जान सकता है कि पूर्वजन्म में वह कैसा था और भविष्य में वह कैसा शरीर धारण करेगा। इस प्रकार मन भूत (गत) तथा भावी शरीरों की सूचना देता है। कभी-कभी स्वप्न में हम ऐसी वस्तु देखते हैं, जिसको हम इस जीवन में न तो अनुभव किये होते और न सुने होते हैं, किन्तु ये सभी घटनाएँ विभिन्न कालों, स्थानों तथा परिस्थितियों में अनुभव की गई होती हैं।

68-70 जीव का मन विभिन्न स्थूल शरीरों में रहा करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए व्यक्ति की इच्छाओं के अनुसार मन विविध विचारों को अंकित करता रहता है। ये मन में विभिन्न मिश्रणों के रूप में प्रकट होते हैं। अतः कभी-कभी ये प्रतिबिम्ब ऐसी वस्तुओं के रूप में प्रकट होते हैं, जो पहले न तो कभी सुनी गई और न देखी गई होती हैं। कृष्णचेतना का अर्थ है ऐसी मानसिक दशा में भगवान के साथ निरन्तर साहचर्य जिससे कि भक्त इस दृश्य जगत को वैसा ही देख सके जैसा कि भगवान देख सकते हैं। ऐसा देख पाना सदैव सम्भव नहीं होता, लेकिन यह राहु नामक अंधग्रह के समान प्रकट होता है, जो पूर्ण चन्द्र होने पर ही देखा जाता है। जब तक बुद्धि, मन, इन्द्रियों, विषयों तथा भौतिक गुणों के प्रतिफलों से बना हुआ सूक्ष्म भौतिक शरीर रहता है तब तक मिथ्या अहंकार और स्थूल शरीर भी रह जाते हैं।

71-75 जब जीव गाढ़ निद्रा, मूर्छा, किसी गम्भीर क्षति से उत्पन्न गहन आघात, मृत्यु के समय या प्रखर ज्वर की अवस्था में रहता है, तो प्राणवायु का संचरण रुक जाता है। उस समय जीव आत्मा से शरीर की पहचान करने का ज्ञान खो देता है। जब मनुष्य तरुण होता है, तो दसों इन्द्रियाँ तथा मन पूरी तरह दिखाई पड़ते हैं, किन्तु माता के गर्भ या बाल्यकाल में इन्द्रियाँ तथा मन उसी तरह ढके रहते हैं जिस तरह अमावस्या की रात्रि के अंधकार से पूर्ण-चन्द्रमा ढका रहता है। जब जीव स्वप्न देखता है, तो वास्तव में इन्द्रियविषय उपस्थित नहीं रहते। किन्तु इन्द्रियविषयों के साथ मनुष्य का सम्पर्क होने से वे प्रकट हो जाते है। इसी प्रकार अविकसित इन्द्रियों वाले जीव का भौतिक रूप से अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता, भले ही वह इन्द्रियविषयों के सम्पर्क में न हो। पाँच इन्द्रिय विषय, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन – ये सोलह भौतिक विस्तार हैं। ये सब जीव के साथ संयोजित रहते हैं और प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा प्रभावित होते हैं। इस प्रकार बद्धजीव के अस्तित्व को समझा जाता है। सूक्ष्म शरीर की क्रियाओं से जीव स्थूल शरीरों को विकसित करता और त्यागता रहता है। यह आत्मा का देहान्तरण कहलाता है। इस प्रकार आत्मा विभिन्न प्रकार के हर्ष, शोक, भय, सुख तथा दुख का अनुभव करता है।

76-80 इल्ली (कीटविशेष) एक पत्ती को छोड़ने के पहले दूसरी पत्ती को पकड़कर एक से दूसरी पत्ती में जाती है। इसी प्रकार जीव को अपना शरीर त्यागने के पूर्व अपने पूर्व कर्म के अनुसार अन्य शरीर को ग्रहण करना होता है। इसका कारण यह है कि मन सभी प्रकार की इच्छाओं का आगार (भण्डार) है। जब तक हम इन्द्रियसुखों का भोग करना चाहते हैं तब तक हम भौतिक कार्यों की सृष्टि करते रहते हैं। जब जीव भौतिक क्षेत्र में कर्म करता है, तो वह इन्द्रियों को भोगता है और ऐसा करने से वह भौतिक कर्मों की एक और शृंखला को जन्म देता है। इस प्रकार जीवात्मा बद्ध आत्मा के रूप में जकड़ जाता है। तुम्हें यह सदैव जानना चाहिए कि भगवान की इच्छा से ही इस दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार होता है। फलतः इस दृश्य जगत के अन्तर्गत सारी वस्तुएँ भगवान के अधीन हैं। इस पूर्ण ज्ञान से प्रकाश प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सदैव भगवदभक्ति में लगे रहना चाहिए। मैत्रेय ऋषि ने कहा: महान सन्त तथा परम भक्त नारद ने इस प्रकार राजा प्राचीनबर्हि के समक्ष भगवान तथा जीव की स्वाभाविक स्थिति की व्याख्या प्रस्तुत की। राजा को आमंत्रित करते हुए नारद मुनि सिद्धलोक को वापस चले गये।

81-82 अपने मंत्रियों की उपस्थिति में राजर्षि प्राचीनबर्हि ने अपने पुत्रों को नागरिकों की रक्षा करने के लिए आदेश छोड़ा। तब उन्होंने घर छोड़ दिया और तपस्या हेतु कपिलाश्रम नामक तीर्थस्थान के लिए प्रस्थान किया। कपिलाश्रम में तपस्या करके राजा प्राचीनबर्हि ने समस्त भौतिक उपाधियों से पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर ली। वह भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगा रहा और गुणात्मक दृष्टि से भगवान के ही समान आध्यात्मिक पद पर पहुँच गया।

83-85 हे विदुर, जो कोई जीव के आध्यात्मिक अस्तित्व को समझने से सम्बद्ध, नारद द्वारा कहे गये इस आख्यान को सुनता है या ऐसे अन्यों को सुनाता है, वह देहात्मबुद्धि की अवधारणा से मुक्त हो जाएगा। नारद मुनि द्वारा उद्बोधित यह आख्यान (कथा) भगवान की दिव्य ख्याति से पूर्ण है। अतः जब इस आख्यान का वर्णन किया जाता है, तो वह इस भौतिक जगत को पवित्र कर देता है। वह जीव के हृदय को पवित्र करता है और उसे आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त करने में सहायक होता है। जो कोई इस दिव्य आख्यान को सुनाता है, वह समस्त भौतिक बन्धनों से मुक्त हो जाएगा और उसे इस भौतिक जगत में भटकना नहीं पड़ेगा। यहाँ पर अधिकार पूर्वक वर्णित राजा पुरञ्जन का रूपक मैंने अपने गुरु से सुना था। यह आध्यात्मिक ज्ञान से पूर्ण है। यदि कोई इस रुपक के उद्देश्य को समझ ले तो वह निश्चय ही देहात्मबुद्धि से छुटकारा पा जाएगा और मृत्यु के पश्चात जीवन को ठीक से समझ सकेगा। यदि आत्मा के देहान्तर को ठीक से न समझ पाये तो वह इस आख्यान को पढ़कर उसे अच्छी तरह समझ सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

 

10861081463?profile=RESIZE_584x

अध्याय अट्ठाईस – अगले जन्म में पुरञ्जन को स्त्री-योनि की प्राप्ति (4.28)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजा प्राचीनबर्हिषत, तत्पश्चात यवनराज साक्षात भय, प्रज्वार, काल-कन्या तथा अपने सैनिकों सहित सारे संसार में विचरने लगा।

2 एक बार भयानक सैनिकों ने पुरञ्जन-नगरी पर बड़े वेग से आक्रमण किया। यद्यपि यह नगरी भोग की सारी सामग्री से परिपूर्ण थी, किन्तु इसकी रखवाली एक बूढ़ा सर्प कर रहा था।

3 धीरे-धीरे कालकन्या ने घातक सैनिकों की सहायता से पुरञ्जन की नगरी के समस्त वासियों पर आक्रमण कर दिया और उन्हें सभी प्रकार से निकम्मा बना दिया।

4 जब कालकन्या ने शरीर पर आक्रमण किया, तो यवनराज के घातक सैनिक विभिन्न द्वारों से नगरी में घुस आये। फिर वे सभी नागरिकों को अत्यधिक कष्ट देने लगे।

5 जब इस प्रकार वह नगरी सैनिकों तथा कालकन्या के द्वारा विपदाग्रस्त हो गई तो अपने परिवार की ममता में लिप्त राजा पुरञ्जन यवनराज तथा कालकन्या के आक्रमण से संकट में पड़ गया।

6 कालकन्या द्वारा आलिंगन किए जाने से धीरे-धीरे राजा पुरञ्जन का सारा शारीरिक सौन्दर्य जाता रहा। अत्यधिक विषयासक्त होने से उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई और उसका सारा ऐश्वर्य नष्ट हो गया। सभी कुछ खो जाने पर गन्धर्वों तथा यवनों ने उसे बलपूर्वक जीत लिया।

7 तब राजा पुरञ्जन ने देखा कि उसकी नगरी अस्त-व्यस्त हो गई है और उसके पुत्र, पौत्र, नौकर तथा मंत्री सभी क्रमशः उसके विरोधी बनते जा रहे हैं। उसने यह भी देखा कि उसकी पत्नी स्नेहशून्य एवं अन्यमनस्क हो रही है।

8 जब राजा पुरञ्जन ने देखा कि उसके परिवार के सभी प्राणी, उसके सम्बन्धी, अनुचर, दास, मंत्री तथा अन्य सभी उसके विरुद्ध हो गए हैं, तो वह अत्यन्त चिन्तित हुआ। किन्तु उसे इस स्थिति से छूटने का कोई उपाय न दिखाई दिया, क्योंकि वह कालकन्या द्वारा बुरी तरह परास्त कर दिया गया था।

9 कालकन्या के प्रभाव से सारी वस्तुएँ बासी पड़ गई थीं। अपनी कामेच्छाओं के बने रहने के कारण राजा पुरञ्जन अत्यन्त दीन बन चुका था। उसे अपने जीवन-लक्ष्य का भी पता न था। वह अब भी अपनी पत्नी तथा बच्चों के प्रति अत्यन्त आसक्त था और उनके पालन के सम्बन्ध में चिन्तित था।

10 राजा पुरञ्जन की नगरी गन्धर्व तथा यवन सैनिकों द्वारा जीत ली गई और यद्यपि राजा इस नगरी को त्यागना नहीं चाहता था, किन्तु परिस्थितिवश उसे ऐसा करना पड़ा, क्योंकि कालकन्या ने उसे कुचल दिया था।

11 ऐसी दशा में यवनराज के बड़े भाई प्रज्वार ने अपने छोटे भाई भय को प्रसन्न करने के लिए नगरी में आग लगा दी।

12 जब सारी नगरी जलने लगी तो सारे नागरिक तथा राजा के नौकर, उसके परिवार के सदस्य, पुत्र, पौत्र, पत्नियाँ तथा अन्य सम्बन्धी अग्नि की चपेट में आ गए। इस प्रकार राजा पुरञ्जन अत्यन्त दुखी हो गया।

13 जब नगरी की रखवाली करने वाले सर्प ने देखा कि नागरिकों पर कालकन्या का आक्रमण हो रहा है, तो वह यह देखकर अत्यन्त सन्तप्त हुआ कि यवनों ने आक्रमण करके उसके घर में आग लगा दी है।

14 जिस प्रकार जंगल में आग लगने पर वृक्ष के कोटर में रहने वाला सर्प उस वृक्ष को छोड़ना चाहता है, उसी प्रकार वह नगर अधीक्षक सर्प भी अग्नि के प्रचण्ड ताप के कारण नगरी छोड़ने के लिए इच्छुक हो उठा।

15 गन्धर्वों तथा यवन सैनिकों द्वारा उस सर्प के शरीर के अंग जर्जर कर दिए गए, उन्होंने उसकी शारीरिक शक्ति को परास्त कर दिया। जब उसने शरीर त्यागना चाहा तो उसके शत्रुओं ने रोक लिया। अपने प्रयास में विफल होने के कारण वह जोर से चीत्कार करने लगा।

16 तब राजा पुरञ्जन अपनी पुत्रियों, पुत्रों, पौत्रों, पुत्रवधुओं, जामाता, नौकरों तथा अन्य पार्षदों के साथ-साथ अपने घर, घर के सारे साज-सामान तथा जो कुछ भी संचित धन था, उन सबके विषय में सोचने लगा।

17 राजा पुरञ्जन अपने परिवार के प्रति तथा "मैं" और "मेरे" विचार में अत्यधिक आसक्त था। चूँकि वह अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक मोहित था, इसलिए वह पहले से दीन बन चुका था। वियोग के समय वह अत्यन्त दुखी हो गया।

18 राजा पुरञ्जन अत्यन्त चिन्तित होकर सोचने लगा, “हाय! मेरी पत्नी इतने सारे बच्चों से परेशान होगी। जब मैं यह शरीर छोड़ दूँगा तो यह किस प्रकार परिवार के इन सभी सदस्यों का पालन करेगी? हाय! वह परिवार के पालन के विचार से अत्यधिक कष्ट पाएगी।"

19 राजा पुरञ्जन अपनी पत्नी के साथ अपने पुराने व्यवहारों को सोचने लगा। उसे याद आया कि उसकी पत्नी तब तक भोजन नहीं करती थी, जब तक वह स्वयं खा नहीं लेता था; वह तब तक नहीं नहाती थी जब तक वह नहीं नहा लेता था और वह उस पर सदा इतनी अधिक अनुरक्त थी कि यदि वह कभी झिड़क देता था और उस पर नाराज हो जाता था, तो वह मौन रहकर उसके दुर्व्यवहार को सह लेती थी।

20 राजा पुरञ्जन सोचता रहा कि उसके मोहग्रस्त होने पर किस तरह उसकी पत्नी उसे अच्छी सलाह देती थी और उसके घर से बाहर चले जाने पर वह कितनी दुखी हो जाती थी। यद्यपि वह अनेक पुत्रों एवं वीरों की माता थी तो भी राजा को डर था कि वह गृहस्थी का भार नहीं ढो सकेगी।

21 राजा पुरञ्जन आगे भी चिन्तित रहने लगा:जब मैं इस संसार से चला जाऊँगा तो मेरे ऊपर पूर्णतः आश्रित पुत्र तथा पुत्रियाँ किस प्रकार अपना जीवन निर्वाह करेंगी? उनकी स्थिति जहाज में चढ़े हुए उन यात्रियों के समान है जिनका जहाज सागर के बीच में ही टूट जाता है।

22 यद्यपि राजा पुरञ्जन को अपनी पत्नी तथा बच्चों के भाग्य के विषय में पश्चाताप नहीं करना चाहिए था फिर भी उसने अपनी दीन बुद्धि के कारण ऐसा किया। उसी समय, भय नामक यवनराज उसे बन्दी करने के लिए तुरन्त निकट आ धमका।

23 जब यवनगण राजा पुरञ्जन को पशु की भाँति बाँधकर उसे अपने स्थान को ले जाने लगे तो राजा के अनुचर अत्यन्त शोकाकुल हो उठे। उन्हें भी विलाप करते हुए राजा के साथ-साथ जाना पड़ा।

24 वह सर्प भी, जिसे यवनराज के सैनिकों ने बन्दी बनाकर पहले ही नगरी के बाहर कर दिया था, अन्यों के साथ अपने स्वामी के पीछे-पीछे चल पड़ा। ज्योंही इन सबों ने नगरी को छोड़ दिया त्योंही वह नगरी तहस-नहस (ध्वस्त) होकर धूल में मिल गई।

25 जब राजा पुरञ्जन शक्तिशाली यवन द्वारा बलपूर्वक घसीटा जा रहा था, तब भी अपनी निरी मूर्खता के कारण वह अपने मित्र तथा हितेषी परमात्मा का स्मरण नहीं कर सका।

26 उस घोर निर्दयी राजा पुरञ्जन ने विविध यज्ञों में अनेक पशुओं का वध किया था। अब वे सारे पशु इस अवसर का लाभ उठाकर उसे अपने सींगों से बेधने लगे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसे फरसों से टुकड़े-टुकड़े करके काटा जा रहा है।

27 स्त्रियों की दूषित संगति के कारण जीवरूप राजा पुरञ्जन निरन्तर संसार के समस्त कष्टों को सहता है और अनेकानेक वर्षो तक समस्त प्रकार की स्मृति से शून्य होकर भौतिक जीवन के अंधकार क्षेत्र में पड़ा रहता है।

28 चूँकि राजा पुरञ्जन ने अपनी पत्नी का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया था, अतः वह अगले जन्म में अच्छे कुल की एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री बनी। उसने राजा विदर्भ के घर में राजा की कन्या रूप में अगला जन्म लिया।

29 यह निश्चय हुआ कि राजा विदर्भ की कन्या वैदर्भी का विवाह अत्यन्त शक्तिशाली पुरुष मलयध्वज के साथ किया जाये जो पाण्डुदेश का रहने वाला था। उसने अन्य राजकुमारों को पराजित करके राजा विदर्भ की कन्या के साथ विवाह कर लिया।

30 राजा मलयध्वज के एक पुत्री हुई जिसके आँखें श्यामल थीं। उसके सात पुत्र भी हुए जो आगे चलकर द्रविड़ नामक देश के शासक बने। इस प्रकार उस देश में सात राजा हुए।

31 हे राजा प्राचीनबर्हिषत, मलयध्वज राजा के पुत्रों ने लाखों पुत्रों को जन्म दिया और ये सब एक मनु की अवधि के अन्त तक तथा उसके बाद भी सारे संसार का पालन करते रहे।

32 भगवान कृष्ण के परम भक्त मलयध्वज की पहली कन्या का विवाह अगस्त्य मुनि के साथ हुआ। उससे एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम दृढ़च्युत था जिससे इध्मवाह नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

33 इसके पश्चात राजर्षि मलयध्वज ने अपना सारा राज्य अपने पुत्रों मे बाँट दिया। तब वे पूरे मनोयोग से भगवान कृष्ण की पूजा करने के लिए कुलाचल नामक एकान्त स्थान में चले गये।

34 जिस प्रकार रात्रि में चाँदनी चन्द्रमा का अनुसरण करती है, उसी तरह राजा मलयध्वज के कुलाचल जाते ही मादक नेत्रों वाली उसकी अनुरक्त पत्नी अपने घर, पुत्र के होते हुए भी समस्त भोगों को तिलाञ्जलि देकर उसके साथ हो ली।

35-36 कुलाचल प्रान्त में चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी तथा वटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं। राजा मलयध्वज नित्य ही इन पवित्र नदियों में जाकर स्नान करता था। इस प्रकार उसने बाहर तथा अंदर से अपने को पवित्र कर लिया था। वह स्नान करता और कन्द, बीज, पत्तियाँ, फूल, जड़ें, फल, घास खाता तथा जल पीता था। इस प्रकार वह कठिन तपस्या करने लगा। अन्त में वह अत्यन्त कृश काय हो गया।

37 तपस्या के द्वारा राजा मलयध्वज धीरे-धीरे शरीर तथा मन से शीत तथा गर्मी, सुख तथा दुख, वायु तथा वर्षा, भूख तथा प्यास, अच्छा तथा बुरा इन द्वैतभावों के प्रति समान दृष्टि वाला हो गया। इस प्रकार उसने सभी द्वन्द्वों पर विजय प्राप्त कर ली।

38 पूजा से, तप साधना से तथा नियमों के पालन से राजा मलयध्वज ने अपनी इन्द्रियों, प्राण तथा चेतना को जीत लिया। इस प्रकार उसने हर वस्तु को परब्रह्म (कृष्ण) रूपी केन्द्रबिन्दु पर स्थिर कर लिया।

39 इस प्रकार देवों की गणना के एक सौ वर्षों तक वे एक ही स्थान पर अचल बने रहे। इसके बाद उन्हें भगवान कृष्ण के प्रति भक्तिमयी आसक्ति उत्पन्न हुई और वे उसी स्थिति में स्थिर रहे।

40 आत्मा और परमात्मा में अन्तर कर सकने के कारण राजा मलयध्वज ने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया। आत्मा एक-स्थानिक है, जबकि परमात्मा सर्वव्यापी है। यह भौतिक देह आत्मा नहीं है, अपितु आत्मा इस भौतिक देह का साक्षी है – उन्हें इसका पूरा-पूरा ज्ञान हो गया।

41 इस प्रकार राजा मलयध्वज को पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई, क्योंकि शुद्ध अवस्था में उसे साक्षात भगवान ने उपदेश दिया था। ऐसे दिव्य ज्ञान के द्वारा वह प्रत्येक वस्तु को समस्त दृष्टिकोणों से समझ सकता था।

42 इस प्रकार राजा मलयध्वज परमात्मा को अपने पास बैठा हुआ और स्वयं आत्मा रूप को परमात्मा के निकट बैठा हुआ देख सकता था। चूँकि वे दोनों साथ-साथ थे, अतः उनके स्वार्थों का भिन्न होना आवश्यक न था। इस प्रकार निश्चय ही वह शान्त हो गया।

43 राजा विदर्भ की कन्या अपने पति को परमेश्वर रूप में सर्वेसर्वा मानती थी। उसने सारे इन्द्रिय-सुख त्याग दिये और पूर्णतः विरक्त होकर वह अपने परम ज्ञानी पति के सिद्धान्तों का पालन करने लगी। इस प्रकार वह उसकी सेवा में लगी रही।

44 राजा विदर्भ की पुत्री पुराने वस्त्र पहनती थी। वह तपस्या के कारण अत्यन्त दुर्बल हो गई थी। वह अपने बाल नहीं सँवारती थी जिससे उसमें लटें पड़ गई थी। यद्यपि वह सदैव अपने पति के निकट रहती थी, किन्तु वह अत्यन्त मौन थी तथा अविचलित अग्नि की लपट के समान अक्षुब्ध (शान्त) थी।

45 राजा विदर्भ की पुत्री सुस्थिर मुद्रा में आसन लगाये अपने पति की तब तक पूर्ववत सेवा करती रही, जब तक उसे यह पता नहीं लग गया कि उसने इस शरीर से कूच कर दिया है।

46 जब वह अपने पति के चरण दबा रही थी तो उसे अनुभव हुआ कि उसके पाँव अब गरम नहीं हैं, अतः वह समझ गई कि उसने पहले ही इस शरीर को त्याग दिया है। अकेली छूट जाने पर उसे अत्यधिक चिन्ता हुई। अपने पति के साथ से विरहित वह अपने को उस मृगी के समान अनुभव करने लगी जो अपने पति से बिछुड़ गई हो।

47 जंगल में अकेली तथा विधवा हो जाने पर विदर्भ की पुत्री विलाप करने लगी; उसके आँसू निरन्तर झड़ रहे थे और वह जोर-जोर से रो रही थी।

48 हे राजर्षि, उठिये, देखिये, “जल से घिरी हुई पृथ्वी चोरों एवं तथाकथित राजाओं से भरी पड़ी है।" यह संसार अत्यधिक भयभीत है। आपका कर्तव्य है कि आप उसकी रक्षा करें।

49 इस प्रकार वह परम आज्ञाकारिणी पत्नी अपने मृत पति के चरणों पर गिर पड़ी और उस एकान्त वन में करुण क्रंदन करने लगी। उसकी आँखों से आँसू झर रहे थे।

50 तब उसने लकड़ियों से चिता बनाकर और अग्नि लगाकर उसमें अपने पति के शव को रख दिया। इस सबके बाद वह दारुण विलाप करने लगी और अपने पति के साथ अग्नि में भस्म होने के लिए स्वयं भी तैयार हो गयी।

51 हे राजन, एक ब्राह्मण, जो राजा पुरञ्जन का पुराना मित्र था उस स्थान पर आया और रानी को मृदुल वाणी से सान्त्वना देने लगा।

52 ब्राह्मण ने इस प्रकार पूछा: तुम कौन हो? तुम किसकी पत्नी या पुत्री हो? यहाँ लेटा हुआ पुरुष कौन है? ऐसा प्रतीत होता है कि तुम इस मृत शरीर के लिए विलाप कर रही हो। क्या तुम मुझे नहीं पहचानती हो ? मैं तुम्हारा शाश्वत सखा हूँ। तुम्हें स्मरण होगा कि पहले तुमने मुझसे कई बार परामर्श किया है।

53 ब्राह्मण ने आगे कहा: हे मित्र, यद्यपि इस समय तुम मुझे तुरन्त नहीं पहचान सकते हो, किन्तु क्या तुम्हें स्मरण नहीं है कि भूतकाल में तुम मेरे अन्तरंग मित्र थे? दुर्भाग्यवश तुमने मेरा साथ छोड़ कर इस भौतिक जगत के भोक्ता का पद स्वीकार किया था।

54 हे मित्र, मैं और तुम दोनों हंसों के तुल्य हैं। हम एक ही मानसरोवर रूपी हृदय में साथ-साथ रहते हैं, यद्यपि हम हजारों वर्षों से साथ साथ रह रहे हैं। किन्तु फिर भी हम अपने मूल निवास से बहुत दूर हैं।

55 हे मित्र, तुम मेरे वही मित्र हो। जबसे तुमने मुझे छोड़ा है, तुम अधिकाधिक भौतिकतावादी हो गए हो और मेरी ओर न देखकर तुम इस संसार में, जिसे किसी स्त्री ने निर्मित किया है, विभिन्न रूपों में घूमते रहे हो।

56 उस नगर (शरीर) में पाँच उद्यान, नौ द्वार, एक पालक (रक्षक), तीन कमरे, छह परिवार, पाँच बाजार, पाँच तत्त्व तथा एक स्त्री है, जो घर की स्वामिनी है।

57 हे मित्र, पाँच उद्यान पाँच प्रकार के इन्द्रियसुख के विषय हैं और इसका रखवाला प्राण है, जो नौ द्वारो से आता जाता है। तीन प्रकोष्ठ तीन प्रमुख अवयव – अग्नि, जल तथा पृथ्वी – हैं। मन समेत पाँचों इन्द्रियों का समुच्चय इसके छह परिवार हैं।

58 पाँच बाजार पाँचों कर्मेन्द्रियाँ हैं। वे पाँच शाश्वत तत्त्वों की संयुक्त शक्ति से अपना व्यापार करती हैं। इस सारी कर्मठता के पीछे आत्मा काम करता है। आत्मा पुरुष है और वही वास्तविक भोक्ता है। किन्तु इस समय शरीर रूप नगर के भीतर छिपा होने के कारण वह ज्ञानशून्य है।

59 हे मित्र, जब तुम भौतिक इच्छा रूपी स्त्री के साथ ऐसे शरीर में प्रवेश करते हो तो तुम इन्द्रियसुख में अत्यधिक लिप्त हो जाते हो। इसीलिए तुम्हें अपना आध्यात्मिक जीवन भूल गया है। अपनी भौतिक अवधारणाओं के कारण तुम्हें नाना कष्ट उठाने पड़ रहे हैं।

60 वास्तव में न तो तुम विदर्भ की पुत्री हो और न यह पुरुष (मलयध्वज) तुम्हारा हितेच्छु पति है। न ही तुम पुरञ्जनी के वास्तविक पति थे। तुम तो इस नव द्वारों वाले शरीर में केवल बन्दी थे

61 तुम कभी अपने को पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक मानते हो। यह सब शरीर के कारण है, जो माया द्वारा उत्पन्न है। यह माया मेरी शक्ति है और वास्तव में हम दोनों – तुम और मैं – विशुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप हैं। तुम इसे समझने का प्रयास करो। मैं वास्तविक स्थिति बताने का प्रयत्न कर रहा हूँ।

62 हे मित्र, मैं परमात्मा और तुम आत्मा होकर भी हम गुणों में भिन्न नहीं हैं, क्योंकि हम दोनों आध्यात्मिक हैं। वास्तव में, हे मित्र, तुम मुझसे अपनी स्वाभाविक स्थिति में भी गुणात्मक रूप से भिन्न नहीं हो। तुम इस विषय पर तनिक विचार करो। जो वास्तव में महान विद्वान हैं और जिन्हें ज्ञान है वे तुममें तथा मुझमें कोई गुणात्मक अन्तर नहीं पाते।

63 जिस प्रकार मनुष्य अपने शरीर के प्रतिबिम्ब को दर्पण में अपने से अभिन्न देखता है जबकि दूसरे लोग वास्तव में दो शरीर देखते हैं, उसी प्रकार अपनी इस भौतिक अवस्था में जिसमें जीव प्रभावित होकर भी प्रभावित नहीं होता, ईश्वर तथा जीव में अन्तर होता है।

64 इस प्रकार दोनों हंस हृदय में एकसाथ रहते हैं। जब एक हंस दूसरे को उपदेश देता है, तो वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहता है। इसका अर्थ है कि वह अपनी मूल कृष्णचेतना को प्राप्त कर लेता है, जिसे उसने भौतिक आसक्ति के कारण खो दिया था।

65 हे राजा प्राचीनबर्हि, समस्त कारणों के कारण भगवान परोक्ष रूप से समझे जाने के लिए सुविख्यात हैं। इस प्रकार मैंने तुमसे पुरञ्जन की कथा कही। वास्तव में यह आत्म-साक्षात्कार के लिए उपदेश है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10861044466?profile=RESIZE_710x

अध्याय सत्ताईस – राजा पुरञ्जन की नगरी पर चण्डवेग का धावा और कालकन्या का चरित्र (4.27)

1 महर्षि नारद ने आगे कहा: हे राजन, अनेक प्रकार से अपने पति को मोहित करके अपने वश में करती हुई राजा पुरञ्जन की पत्नी उसे सारा आनन्द प्रदान करने लगी और उसके साथ विषयी जीवन व्यतीत करने लगी।

2 रानी ने स्नान किया और शुभ वस्त्रों तथा आभूषणों से अपने को सुसज्जित किया। भोजन करने तथा परम संतुष्ट होने के बाद वह राजा के पास आई। उस अत्यन्त सुसज्जित तथा आकर्षक मुख वाली को देखकर राजा ने उसका तन्मयता से अभिनन्दन किया।

3 रानी पुरञ्जनी ने राजा का आलिंगन किया और राजा ने भी उसे बाहों मे भर लिया। इस प्रकार एकान्त में वे विनोद करते रहे और राजा पुरञ्जन अपनी सुन्दर स्त्री पर इतना मोहित रहने लगा कि उसे अच्छे-बुरे का विचार न रहा। वह भूल गया कि रात तथा दिन बीतने का अर्थ है व्यर्थ ही आयु का घटते जाना।

4 इस प्रकार अत्यधिक मोहग्रस्त होने से मनस्वी होते हुए भी राजा पुरञ्जन अपनी पत्नी की भुजाओं के तकिये पर अपना सिर रखे सदैव लेटा रहता था। इस प्रकार वह उस रमणी को ही अपने जीवन का सर्वस्व मानने लगा। अज्ञान के आवरण से ढका होने के कारण उसे आत्म-साक्षात्कार का स्वयं का अथवा भगवान का कोई ज्ञान न रहा।

5 हे राजा प्राचीनबर्हिषत, इस प्रकार राजा पुरञ्जन काम तथा पापमय कर्मफलों से पूरित हृदय से अपनी पत्नी के साथ भोग-विलास करने लगा और इस तरह आधे ही क्षण में उनका नव जीवन तथा युवावस्था बीत गयी।

6 तब नारद मुनि ने राजा प्राचीनबर्हिषत को सम्बोधित करते हुए कहा: हे विराट, इस प्रकार राजा पुरञ्जन के अपनी पत्नी पुरञ्जनी के गर्भ से 1100 पुत्र उत्पन्न हुए। किन्तु इस कार्य में उसका आधा जीवन व्यतीत हो गया।

7 हे प्रजापति राजा प्राचीनबर्हिषत, इस तरह राजा पुरञ्जन की 110 कन्याएँ भी उत्पन्न हुईं। ये सब-की-सब अपने पिता तथा माता के समान यशस्विनी थी; इनका आचरण भद्र था, ये उदार थीं और अन्य उत्तम गुणों से युक्त थीं।

8 तत्पश्चात पञ्चाल देश के राजा पुरञ्जन ने अपने पैतृक कुल की वृद्धि के लिए अपने पुत्रों का विवाह योग्य वधुओं के साथ और अपनी कन्याओं का विवाह योग्य वरों के साथ कर दिया।

9 इन अनेक पुत्रों में से प्रत्येक के कई सौ पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार राजा पुरञ्जन के पुत्रों तथा पौत्रों से सारा पञ्चाल देश भर गया।

10 ये पुत्र तथा पौत्र एक प्रकार से पुरञ्जन के घर, खजाना, नौकर, सचिव एवं दूसरे सारे साज-सामान समेत सारी धन-सम्पदा को लूटने वाले थे। राजा पुरञ्जन का इन वस्तुओं से प्रगाढ़ सम्बन्ध था।

11 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजा प्राचीनबर्हिषत, तुम्हारी ही तरह राजा पुरञ्जन भी अनेक इच्छाओं में उलझा हुआ था। इसलिए उसने देवताओं, पितरों तथा सामाजिक नेताओं की पूजा विविध यज्ञों द्वारा की, किन्तु ये सारे यज्ञ नृशंस थे, क्योंकि उनके पीछे पशुओं के वध की भावना काम कर रही थी।

12 इस प्रकार राजा पुरञ्जन कर्मकाण्ड में तथा अपने परिवार के प्रति अनुरक्त रहकर और दूषित चेतना होने से अन्ततः ऐसे बिन्दु पर पहुँच गया जिसे भौतिक वस्तुओं में बुरी तरह अनुरक्त लोग बिल्कुल नहीं चाहते।

13 हे राजन, गन्धर्वलोक में चण्डवेग नाम का एक राजा है। उसके अधीन 360 अत्यन्त शक्तिशाली गन्धर्व सैनिक हैं।

14 चण्डवेग के साथ-साथ गन्धर्विनियों की संख्या सैनिकों के ही समान थी और वे बारम्बार इन्द्रियसुख की सारी सामग्री लूट रही थीं।

15 जब राजा गन्धर्वराज (चण्डवेग) तथा उसके सेवक पुरञ्जन की नगरी को लूटने लगे तो पाँच फनों वाले एक सर्प ने नगरी की रखवाली करनी शुरू कर दी।

16 वह पाँच फनों वाला सर्प, जो राजा पुरञ्जन की पुरी का रक्षक था, गन्धर्वों से एक सौ वर्षों तक लड़ता रहा। वह उनसे अकेला ही लड़ा यद्यपि उनकी संख्या 720 थी।

17 चूँकि उसे अकेले इतने सैनिकों से लड़ना था, जो सारे के सारे महावीर थे, अतः पाँच फनों वाला सर्प क्षीण पड़ने लगा। यह देखकर कि उसका अभिन्न मित्र क्षीण पड़ रहा है, राजा पुरञ्जन तथा उस नगरी में रहने वाले उसके सारे मित्र तथा नागरिक अत्यन्त चिन्तित हो उठे।

18 राजा पुरञ्जन पञ्चाल नामक नगरी से कर एकत्र करता और विषय-भोग में लगा रहता। स्त्रियों के पुरी तरह वश में होने से वह समझ ही नहीं पाया कि उसका जीवन बीता जा रहा है और वह मृत्यु के निकट पहुँच रहा है।

19 हे राजा प्राचीनबर्हिषत, इस समय काल की कन्या तीनों लोकों में पति की खोज कर रही थी। यद्यपि उसे ग्रहण करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ, किन्तु वह घूमती रही।

20 काल की कन्या (जरा) बड़ी अभागिन थी। फलतः लोग उसे दुर्भगा कहते थे। किन्तु एक बार वह एक महान राजा पर प्रसन्न हो गई और चूँकि राजा ने उसे स्वीकार कर लिया था, इसलिए उसने उसे वरदान दिया।

21 एक बार जब मैं सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक से इस पृथ्वी पर आ रहा था, तो संसार भर का भ्रमण करते हुए काल की कन्या से मेरी भेंट हुई। वह मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर मुझपर मोहित हो गई और उसने प्रस्ताव रखा कि मैं उसे अपना लूँ।

22 महर्षि नारद ने आगे कहा: जब मैंने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी तो वह मुझपर अत्यन्त क्रुद्ध हुई और मुझे घोर शाप देने लगी। चूँकि मैंने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी, अतः उसने कहा कि तुम किसी एक स्थान पर अधिक काल तक टिक नहीं सकोगे।

23 इस प्रकार जब वह मेरी ओर से निराश हो गई तो मेरी अनुमति से वह यवनों के राजा के पास गई जिसका नाम भय था और उसे ही अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया।

24 यवनों के राजा के पास पहुँचकर काल-कन्या ने उसे वीर रूप में सम्बोधित करते हुए कहा: महाशय, आप अछूतों में श्रेष्ठ हैं। मैं आपको प्रेम करती हूँ और आपको पति रूप में ग्रहण करना चाहती हूँ। मैं जानती हूँ कि यदि कोई आपसे दोस्ती करता है, तो वह निराश नहीं होता।

25 जो लोकरीति के अनुसार अथवा शास्त्रों के आदेशानुसार दान नहीं देता और जो इस प्रकार के दान को ग्रहण नहीं करता, उन दोनों को ही तमोगुणी समझना चाहिए। ऐसे लोग मूर्खों के पथ का अनुसरण करते हैं। निश्चित ही उन्हें अन्त में पछताना पड़ता है।

26 काल कन्या ने आगे कहा: हे भद्र, मैं आपकी सेवा के लिए उपस्थित हूँ। कृपया मुझे स्वीकार करके मेरे ऊपर दया करें। पुरुष का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि दुखी व्यक्ति पर अनुकम्पा करे।

27 कालकन्या का कथन सुनकर यवनराज हँसने लगा और विधाता का गुप्त कार्य पूरा करने की युक्ति खोजने लगा। तब उसने काल-कन्या को इस प्रकार सम्बोधित किया।

28 यवनराज ने उत्तर दिया: मैंने बहुत सोच-विचार के बाद तुम्हारे लिए एक पति निश्चित किया है। वास्तव में सबों की दृष्टि में तुम अशुभ तथा उत्पाती हो। चूँकि तुम्हें कोई भी पसंद नहीं करता, अतः तुम्हें कोई पत्नी रूप में कैसे स्वीकार कर सकता है?

29 यह संसार सकाम कर्मों का प्रतिफल है। अतः तुम सभी लोगों पर अलक्षित रहकर आक्रमण कर सकती हो। मेरे सैनिकों के बल की सहायता से तुम बिना किसी विरोध के उनका संहार कर सकती हो।

30 यवनराज ने कहा: यह मेरा भाई प्रज्वार है। तुम्हें मैं अपनी बहिन के रूप में स्वीकार करता हूँ। मैं तुम दोनों का तथा अपने भयंकर सैनिकों का उपयोग इस संसार के भीतर अदृश्य रूप से करूँगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10860275259?profile=RESIZE_584x

अध्याय छब्बीस – राजा पुरञ्जन का आखेट के लिए जाना और रानी का क्रुद्ध होना (4.26)

1-3 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, एक बार राजा पुरञ्जन ने अपना विशाल धनुष लिया और सोने का कवच धारण करके तरकस में असंख्य तीर भरकर वह अपने ग्यारह सेनापतियों के साथ अपने रथ पर बैठ गया, जिसे पाँच तेज घोड़े खींच रहे थे और पञ्चप्रस्थ नामक वन में गया। उसने अपने साथ उस रथ में दो विस्फोटक तीर ले लिये। यह रथ दो पहियों तथा एक घूमते हुए धुरे पर स्थित था। रथ पर तीन ध्वजाएँ, एक लगाम, एक सारथी, एक बैठने का स्थान, दो काठी (जुए), पाँच आयुध तथा सात आवरण थे। यह रथ पाँच भिन्न-भिन्न शैलियों से गति कर रहा था और उसके सामने पाँच अवरोध थे। रथ की सारी साज सज्जा सोने की बनी थी।

4 यद्यपि राजा पुरञ्जन के लिए अपनी रानी को एक पल भर भी छोड़ना कठिन था। तो भी उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि अपनी पत्नी की परवाह किये बिना वह बड़े गर्व से धनुष-बाण लेकर जंगल चला गया।

5 उस समय राजा पुरञ्जन अपनी आसुरी वृत्तियों के प्रभाव में आ गया था, जिसके कारण उसका हृदय कठोर तथा दयाशून्य हो गया था, अतः उसने अपने तीखे बाणों से बिना सोचे-बिचारे अनेक निर्दोष जंगली पशुओं का वध कर दिया।

6 यदि राजा मांस खाने का अत्यधिक इच्छुक हो तो वह यज्ञ के लिए शास्त्रों में दिये गये आदेशों के अनुसार वन जाकर केवल वध्य पशुओं का वध करे। किसी को वृथा ही या बिना रोकटोक पशुओं के वध की अनुमति नहीं है। वेद उन मूर्ख पुरुषों के द्वारा अन्धाधुंध पशुवध को नियमित करते हैं, जो तमोगुण तथा अविद्या द्वारा प्रभावित रहते हैं।

7 नारद मुनि ने राजा प्राचीनबर्हिषत से आगे कहा: हे राजा, जो व्यक्ति शास्त्रानुमोदित कर्मों का आचरण करता है, वह सकाम कर्मों में लिप्त नहीं होता।

8 अन्यथा जो मनुष्य मनमाना कर्म करता है, वह मिथ्या अभिमान के कारण नीचे गिर जाता है और इस तरह प्रकृति के तीन गुणों में फँस जाता है। इस प्रकार से जीव अपनी वास्तविक बुद्धि से रहित हो जाता है और जन्म-मृत्यु के चक्र में सदा-सदा के लिए खो जाता है। इस प्रकार वह मल के एक सूक्ष्म जीवाणु से लेकर ब्रह्मलोक में उच्च पद तक ऊपर-नीचे आता-जाता रहता है।

9 जब राजा पुरञ्जन इस प्रकार आखेट करने लगा तो तीक्ष्ण बाणों से भिदकर जंगल में अनेक पशु अत्यधिक पीड़ा से अपना प्राण त्यागने लगे। राजा के इन विनाशकारी निर्दयतापूर्ण कार्यों को देखकर दयालु पुरुष अत्यन्त खिन्न हो गए और वे यह सारा वध सहन नहीं कर सके।

10 इस प्रकार राजा पुरञ्जन ने अनेक पशुओं का वध किया जिसमें खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, श्याम हिरण, साही तथा अन्य शिकारी जानवर शामिल थे। लगातार शिकार करते रहने से राजा अत्यधिक थक गया।

11 इसके बाद अत्यन्त थका-माँदा, भूखा एवं प्यासा राजा अपने राजमहल लौट आया। लौटने के बाद उसने स्नान किया और यथोचित भोजन किया। तब उसने विश्राम किया इस तरह सारी थकान से मुक्त हो गया।

12 तत्पश्चात राजा पुरञ्जन ने अपने शरीर में उपयुक्त आभूषण धारण किये। उसने अपने शरीर पर चन्दन का लेप किया और फूलों की माला पहनी। इस प्रकार वह पूर्णत: तरोताजा (विश्रान्त) हो गया। इसके बाद वह अपनी रानी की खोज करने लगा।

13 भोजन कर लेने तथा अपनी भूख और प्यास बुझा लेने के बाद पुरञ्जन को मन में कुछ प्रफुल्लता हुई और उसे अपनी पत्नी को ढूँढने की इच्छा हुई जिसने उसे गृहस्थ जीवन में प्रसन्न कर रखा था।

14 उस समय राजा पुरञ्जन कुछ-कुछ उत्सुक हुआ और उसने रनिवास की स्त्रियों से पूछा: हे सुन्दरियों, तुम सब अपनी स्वामिनी सहित पहले के समान प्रसन्न तो हो?

15 राजा पुरञ्जन ने कहा: मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मेरे घर का सारा साज-सामान पहले की भाँति मुझे अच्छा क्यों नहीं लग रहा ? मैं सोचता हूँ कि यदि घर में माता अथवा पति-परायण पत्नी न हो तो घर पहियों से विहीन रथ की तरह प्रतीत होता है। ऐसा कौन मूर्ख है, जो ऐसे व्यर्थ के रथ पर बैठेगा?

16 कृपया मुझे उस सुन्दरी का पता बताओ जो मुझे सदैव संकट के समुद्र में डूबने से उबारती है। वह मुझे पग-पग पर सद्बुद्धि प्रदान करके बचाती है।

17 सभी स्त्रियों ने राजा को सम्बोधित किया: हे प्रजा के स्वामी, हम यह नहीं जानती कि आपकी प्रिया ने क्यों ऐसी स्थिति बना रखी है। हे शत्रुओं के संहारक! कृपया देखें। वे बिना बिस्तर के जमीन पर लेटी हुई हैं। हम नहीं समझ पा रहीं कि वे ऐसा क्यों कर रही हैं।

18 महर्षि नारद ने कहा: हे राजा प्राचीनबर्हि, जैसे ही राजा पुरञ्जन ने अपनी रानी को अवधूत की भाँति पृथ्वी पर लेटे देखा, वह तुरन्त मोहग्रस्त हो गया।

19 दुखित हृदय से राजा अपनी पत्नी से अत्यन्त मीठे शब्द कहने लगा। यद्यपि वह दुखी था और उसे प्रसन्न करने का प्रयास कर रहा था, किन्तु उसने अपनी प्राणप्रिया पत्नी के हृदय में क्रोध का एक भी लक्षण नहीं देखा।

20 चूँकि राजा मनाने में अत्यन्त निपुण था, अतः उसने रानी को धीरे-धीरे मनाना प्रारम्भ किया। पहले उसने उसके दोनों पाँव छूये, फिर उसका आलिंगन किया और अपनी गोद में बैठाकर इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।

21 राजा पुरञ्जन ने कहा: हे सुन्दरी, जब स्वामी किसी मनुष्य को दास रूप में स्वीकार तो कर लेता है, किन्तु उसके अपराधों के लिए उसे दण्ड नहीं देता तो उस दास को समझना चाहिए कि वह अभागा है।

22 हे तन्वंगी, जब कोई स्वामी अपने सेवक को दण्ड देता है, तो उसे परम अनुग्रह समझ कर स्वीकार कर लेना चाहिए । जो क्रुद्ध होता है, वह अत्यन्त मूर्ख है और वह यह नहीं जानता कि ऐसा करना तो उसके मित्र का कर्तव्य होता है।

23 हे प्रिये, तुम अत्यन्त सुन्दर दाँतों वाली हो। तुम अपने आकर्षक अंगों के कारण अत्यन्त मनस्वी लगती हो। तुम अपना क्रोध त्याग कर मुझ पर कृपा करो और अत्यन्त प्यार से तनिक मुस्कराओ। जब मैं तुम्हारे सुन्दर मुखमण्डल की मुसकान, तुम्हारे नीले रंग वाले बाल एवं तुम्हारी उन्नत नासिका को देखूँगा तथा तुम्हारे मीठे वचनों को सुनूँगा तो तुम मुझे और भी सुन्दर लगोगी और अपनी ओर आकृष्ट करती प्रतीत होओगी। तुम मेरी अत्यन्त आदरणीया स्वामिनी हो।

24 हे वीरपत्नी, मुझे बताओ कि क्या किसी ने तुम्हें अपमानित किया है? मैं ऐसे व्यक्ति को यदि वह ब्राह्मण कुल का नहीं है, दण्ड देने के लिए तैयार हूँ, मैं मुररिपु (श्रीकृष्ण) के दास के अतिरिक्त तीनों लोको में किसी को भी क्षमा नहीं करूँगा। तुम्हें अपमानित करके कोई स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण नहीं कर सकता, क्योंकि मैं उसे दण्ड देने के लिए तैयार हूँ।

25 प्रिये, आज तक मैंने कभी भी तुम्हारे मुख को तिलक से रहित नहीं देखा, न ही मैंने तुम्हें कभी खिन्न तथा कान्ति या स्नेह से रहित देखा है। न ही मैंने तुम्हारे नेत्रों को अश्रुओं से सिक्त देखा है। न ही मैंने तुम्हारे बिम्बा फलों के समान लाल-लाल होंठों को कभी लालिमा से रहित देखा है।

26 हे रानी, मैं अपनी पापपूर्ण इच्छाओं के कारण तुमसे बिना पूछे शिकार करने जंगल चला गया। अतः मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझसे अपराध हुआ। फिर भी मुझे अपना अन्तरंग समझ कर तुम्हें अत्यन्त प्रसन्न होना चाहिए। भला ऐसी कौन सुन्दरी होगी जो अपने पति को त्याग देगी और उससे मिलना अस्वीकार कर देगी?

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10860263052?profile=RESIZE_710x

अध्याय पच्चीस - राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन (4.25)

1 महर्षि मैत्रेय ने विदुर से आगे कहा: हे विदुर, शिवजी ने इस प्रकार से राजा बर्हिषत के पुत्रों को उपदेश दिया। राजकुमारों ने भी शिवजी की अगाध भक्ति के साथ श्रद्धापूर्वक पूजा की। अन्त में वे राजकुमारों की दृष्टि से ओझल हो गये।

2 सभी प्रचेतागण दस हजार वर्षों तक जल के भीतर खड़े रहकर शिवजी द्वारा दिये गये स्तोत्र का जप करते रहे।

3 जब राजकुमार जल के भीतर कठिन तपस्या कर रहे थे तो उनके पिता विभिन्न प्रकार के सकाम कर्म सम्पन्न करने में रत थे। उसी समय समस्त आध्यात्मिक जीवन के ज्ञाता तथा शिक्षक परम सन्त नारद ने राजा पर अत्यन्त कृपालु होकर उन्हें आध्यात्मिक जीवन के विषय में उपदेश देने का निश्चय किया।

4 नारद मुनि ने राजा प्राचीन बर्हिषत से पूछा: हे राजन, तुम इन सकाम कर्मों के द्वारा कौन सी इच्छा पूरी करना चाहते हो? जीवन का मुख्य उद्देश्य तो समस्त कष्टों से छुटकारा पाना तथा सुख भोगना है, किन्तु इन दोनों को सकाम कर्म द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।

5 राजा ने उत्तर दिया: हे महात्मन नारद, मेरी बुद्धि सकाम कर्मों में उलझी हुई है, अतः मुझे अपने जीवन के चरम लक्ष्य का ज्ञान नहीं रह गया है। कृपा करके मुझे विशुद्ध ज्ञान प्रदान कीजिये जिससे मैं सकाम कर्मों के बन्धन से छुटकारा पा सकूँ ।

6 जो तथाकथित सुन्दर जीवन अर्थात सन्तान तथा स्त्री में फँस कर गृहस्थ के रूप में रहने तथा सम्पत्ति के पीछे लगे रहने में ही रुचि रखते हैं, वे इन्हीं वस्तुओं को जीवन का चरम लक्ष्य मान बैठते हैं। ऐसे लोग जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किये बिना इस संसार में ही विभिन्न देहों में घूमते रहते हैं।

7 नारद मुनि ने कहा: हे प्रजापति, हे राजन, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।

8 ये सारे पशु तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिससे वे उन पर किये गए आघातों का बदला ले सकें। तुम्हारी मृत्यु के बाद वे अत्यन्त क्रोधपूर्वक तुम्हारे शरीर को लोहे के समान अपने सींगों से बेध डालेंगे।

9 इस सम्बन्ध में मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाना चाहता हूँ जो पुरुञ्जन नामक राजा के चरित से सम्बन्धित है। इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

10 हे राजन, प्राचीन काल में पुरुञ्जन नामक एक राजा था, जो अपने महान कार्यों के लिए विख्यात था। उसके एक मित्र था जिसका नाम अविज्ञात (अज्ञात) था। अविज्ञात के कार्यों को कोई नहीं समझ सकता था।

11 राजा पुरुञ्जन अपने रहने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने लगा और इस तरह वह सारा संसार घूम आया। फिर भी कड़ी दौड़-धूप के बाद भी उसे अपनी इच्छा के अनुकूल कोई स्थान नहीं मिला। अन्त में वह अत्यन्त खिन्न और निराश हो उठा।

12 राजा पुरञ्जन की इन्द्रियभोग की लालसाएँ असीम थीं, अतः वह सारे संसार में ऐसा स्थान खोजने के लिए भ्रमण करता रहा जहाँ उसकी इच्छाएँ पूरी हो सकें। किन्तु हाय! उसे सर्वत्र अभाव की अनुभूति ही प्रतीत हुई।

13 एक बार, इस प्रकार से विचरण करते हुए, उसने हिमालय पर्वत के दक्षिण में, भारतवर्ष नामक देश में एक नगर देखा जिसमें चारों ओर नौ दरवाजे थे और जो समस्त सुलक्षणों से युक्त था।

14 वह नगर चारों ओर दीवालों तथा उद्यानों से घिरा था और इसके भीतर मीनारें, नहरें, खिड़कियाँ तथा झरोखे थे। वहाँ के घर सोने, चाँदी तथा लोहे के बने गुम्बदों से अलंकृत थे।

15 उस नगर के घरों की फर्श नीलम, स्फटिक, हीरे, मोती, पन्ना तथा लाल से निर्मित थीं। घरों की कान्ति के कारण यह नगर भोगवती नामक स्वर्गीय नगरी के समान लग रहा था।

16 उस नगर में अनेक सभाभवन, चौराहे, सड़कें, खान-पान-गृह, द्यूतक्रीड़ा-स्थल, बाजार, विश्रामालय, झण्डियाँ, पताकाएँ तथा सुन्दर उद्यान थे। वह नगर इन सबसे घिरा था।

17 उस नगर के बाहर एक सुन्दर सरोवर के चारों ओर अनेक सुन्दर वृक्ष तथा लताएँ थीं। उस सरोवर में पक्षियों तथा भौंरों के झुण्ड के झुण्ड थे, जो सदैव कूजते तथा गुंजार करते थे।

18 सरोवर के तट पर खड़े हुए वृक्षों की शाखाएँ उन जलकणों को ग्रहण कर रही थीं जो हिमाच्छादित पर्वत से गिरने वाले झरनों से वासन्ती वायु द्वारा ले जाये जा रहे थे।

19 ऐसे वातावरण में वन के पशु भी मुनियों के समान ही अहिंसक एवं ईर्ष्याहीन हो गए थे, अतः वे किसी पर आक्रमण नहीं करते थे। यही नहीं, सर्वत्र कोयलें कूक रही थीं। उस रास्ते से निकलने वाले किसी भी पथिक को मानो उस सुन्दर उद्यान में विश्राम करने का निमंत्रण दिया जा रहा हो।

20 उस अद्भुत उद्यान में विचरण करते हुए राजा पुरञ्जन ने अचानक एक सुन्दर स्त्री देखी जो अनायास ही चली आ रही थी। जिसके साथ दस नौकर थे और प्रत्येक नौकर के साथ सैकड़ों पत्नियाँ थीं।

21 वह स्त्री पाँच फनों वाले एक सर्प द्वारा चारों ओर से रक्षित थी। वह अत्यन्त सुन्दरी तथा तरुणी थी और उपयुक्त पति खोजने के लिए अत्यधिक उत्सुक प्रतीत हो रही थी।

22 उस स्त्री की नाक, दाँत तथा मस्तक सभी अतीव सुन्दर थे। उसके कान भी समान रूप से सुन्दर थे और चमचमाते कुण्डलों से सुशोभित थे।

23 उस स्त्री की कमर अत्यन्त सुन्दर थी, वह पीली साड़ी और सुनहरी करधनी पहने थी। चलते समय उसके नूपुर खनक रहे थे। वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो स्वर्ग की निवासिनी हो।

24 वह स्त्री हाथी के समान चलती हुई लज्जावश, अपनी साड़ी के अंचल से अपने वक्षस्थल को बारम्बार ढकने का प्रयास कर रही थी।

25 वीर पुरञ्जन उस सुन्दर रमणी की भौंहों तथा मुख की मुसकान से अत्यधिक आकृष्ट हुआ, जब वह लजाती हुई हँसी तो पुरञ्जन को और भी सुन्दर लगी, अतः वह उसको सम्बोधित करने से अपने को रोक न सका।

26 हे कमलनयनी, कृपा करके मुझे बताओ की तुम कहाँ से आ रही हो, कौन हो और किसकी पुत्री हो? तुम अत्यन्त साध्वी लगती हो। यहाँ आने का तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तुम क्या करना चाह रही हो? कृपया ये सारी बातें मुझसे कहो।

27 हे कमलनयनी, तुम्हारे साथ के ग्यारह बलिष्ठ अंगरक्षक और ये दस विशिष्ट सेवक कौन है? इन दस सेवकों के पीछे-पीछे ये स्त्रियाँ कौन हैं तथा तुम्हारे आगे-आगे चलने वाला यह सर्प कौन है?

28 हे सुन्दर बाला, तुम साक्षात लक्ष्मी या भगवान शिव की पत्नी भवानी अथवा ब्रह्मा की पत्नी अर्थात विद्या की देवी सरस्वती के समान हो। यद्यपि तुम अवश्यमेव इनमें से एक हो, किन्तु मैं तुम्हें इस वन में अकेले विचरण करते देख रहा हूँ। निस्सन्देह, तुम मुनियों की भाँति मौन हो। ऐसा तो नहीं है कि तुम अपने पति को खोज रही हो? चाहे तुम्हारा पति जो कोई भी हो, किन्तु जिस तन्मयता से तुम उसे खोज रही हो यह देखकर उसे सारे ऐश्वर्य प्राप्त हो जाएँगे। मैं सोचता हूँ कि तुम लक्ष्मी हो, किन्तु तुम्हारे हाथ में कमल पुष्प नहीं है, अतः मैं पूछ रहा हूँ कि तुमने उसे कहाँ फेंक दिया?

29 हे परम सौभाग्यशालिनी, ऐसा लगता है कि मैंने जिन स्त्रियों के नाम गिनाये हैं उनमें से तुम कोई नहीं हो, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारे पाँव पृथ्वी का स्पर्श कर रहे हैं। किन्तु यदि तुम इस लोक की कोई सुन्दरी हो, तो जिस प्रकार लक्ष्मीजी विष्णु के साथ वैकुण्ठलोक की श्रीवृद्धि करती हैं, उसी प्रकार तुम भी मेरी संगति करके इस नगरी की सुन्दरता बढ़ाओ। तुम्हें ज्ञात हो कि मैं महान वीर हूँ और इस लोक का अत्यन्त पराक्रमी राजा हूँ।

30 सचमुच तुम्हारी चितवन ने आज मेरे मन को अत्यन्त विचलित कर दिया है। अतः हे सुन्दरी, मैं तुमसे कृपा की याचना करता हूँ।

31 हे सुन्दरी, सुन्दर भौंहों तथा आँखों से युक्त तुम्हारा मुख अत्यन्त सुन्दर है, जिस पर नीले केश बिखरे हुए हैं। साथ ही तुम्हारे मुख से मधुर ध्वनि निकल रही है। फिर भी तुम लज्जा से इतनी आवृत हो कि मेरी ओर देख नहीं पा रही। अतः हे सुन्दरी, मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम हँसो और अपना सिर उठाकर मुझे देखो तो।

32 नारद ने आगे कहा: हे राजन, जब राजा उस सुन्दरी का स्पर्श करने तथा उसका भोग करने के लिए अत्यधिक मोहित एवं अधीर हो उठा तो वह बाला भी उसके शब्दों से आकृष्ट हुई और उसने हँसते हुए उसकी याचना स्वीकार कर ली। इस समय तक वह राजा के प्रति निश्चय ही आकृष्ट हो चुकी थी।

33 उस युवती ने कहा: हे मनुष्यश्रेष्ठ, मैं नहीं जानती कि मुझे किसने उत्पन्न किया है? मैं तुम्हें यह ठीक-ठाक नहीं बता सकती। न ही मैं अपने या दूसरों के गोत्र के नामों को जानती हूँ।

34 हे वीर, हम इतना ही जानते हैं कि हम इस स्थान में हैं। हम यह नहीं जानते कि आगे क्या होगा। दरअसल, हम इतने मूर्ख हैं कि यह भी जानने का प्रयत्न नहीं करते कि हमारे रहने के लिए किसने इतना सुन्दर स्थान बनाया है?

35 हे भद्र पुरुष, ये सारे पुरुष तथा स्त्रियाँ जो मेरे साथ हैं, मेरे मित्र हैं और यह साँप सदैव जागता रहता है तथा मेरे सोते समय भी इस पुरी की रक्षा करता है। मैं इतना ही जानती हूँ, इसके आगे कुछ भी नहीं जानती।

36 हे शत्रुसंहारक, तुम यहाँ पर आये, यह मेरे लिए अत्यन्त सौभाग्य की बात है। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने की उत्कण्ठा है, अतः मैं तथा मेरे सभी मित्र तुम्हारी इच्छाओं को पूरा करने का भरसक प्रयास करेंगे।

37 हे स्वामी, मैंने तुम्हारे लिए ही इस नौ द्वारों वाली नगरी की व्यवस्था की है, जिससे सभी प्रकार से तुम्हारी इन्द्रिय-तुष्टि हो सके। तुम यहाँ सौ वर्षों तक रह सकते हो और तुम्हें भोग की सारी सामग्री प्रदान की जायेगी।

38 भला मैं अन्यों के साथ कैसे रमण करने की अपेक्षा कर सकती हूँ, क्योंकि न तो उन्हें रति का ज्ञान है, न वे जीवित अवस्था में अथवा मरने के बाद इस जीवन का भोग करना जानते हैं? ऐसे मूर्ख व्यक्ति पशुतुल्य हैं क्योंकि वे इन्द्रिय-भोग की क्रिया को न इस जीवन में और न ही मृत्यु के उपरान्त जानते हैं।

39 सुन्दरी ने आगे कहा: इस संसार में गृहस्थ जीवन में ही धर्म, अर्थ, काम तथा पुत्र-पौत्र इत्यादि सन्ततियाँ उत्पन्न करने का सारा सुख है। इसके पश्चात चाहे तो मोक्ष तथा भौतिक यश भी प्राप्त किया जा सकता है। गृहस्थ ही यज्ञ के फल का रस ग्रहण कर सकता है, जिससे उसे श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है। योगियों (यतियों) के लिए यह भौतिक सुख अज्ञात जैसा है। वे ऐसे सुख की कल्पना भी नहीं कर सकते।

40 अधिकारियों के अनुसार गृहस्थ जीवन न केवल अपने को वरन समस्त पितरों, देवताओं, ऋषियों, साधु पुरुषों तथा अन्य सबों को अच्छा लगने वाला है। इस प्रकार गृहस्थ जीवन अत्यन्त उपयोगी है।

41 हे वीर पुरुष, इस संसार में ऐसी कौन (स्त्री) होगी जो तुम जैसे पति को स्वीकार नहीं करेगी? तुम इतने प्रसिद्ध, उदार, सुन्दर तथा सुलभ हो।

42 हे महाबाहु, इस संसार में ऐसा कौन है, जो सर्प के शरीर जैसी तुम्हारी भुजाओं से आकृष्ट न हो जाये? वास्तव में तुम अपनी मोहक मुस्कान तथा अपनी छेड़छाड़ युक्त दया से हम जैसी अनाथ स्त्रियों के सन्ताप को दूर करते हो। हम सोचती हैं कि तुम केवल हमारे हित के लिए ही पृथ्वी पर विचरण कर रहे हो।

43 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, वे दोनों--स्त्री तथा पुरुष – एक दूसरे का पारस्परिक सौहार्द द्वारा समर्थन करते हुए उस नगरी में प्रविष्ट हुए और उन्होंने एक सौ वर्षों तक जीवन का सुख भोगा ।

44 राजा पुरञ्जन की महिमा तथा महिमामय कार्यों का गान अनेक चारण किया करते थे। ग्रीष्म ऋतु में जब बहुत गर्मी पड़ती तो वह जलाशय में प्रवेश करता था। उसके चारों ओर अनेक स्त्रियाँ होती थीं और वह उनके संग आनन्द उठाता।

45 उस नगरी के नौ द्वारों में से सात तो भूतल पर थे और दो पृथ्वी के नीचे थे। कुल नौ द्वार बनाए गए थे और ये सभी द्वार भिन्न-भिन्न स्थानों को जाते थे। इन सारे द्वारों का उपयोग उस नगरी का अधीक्षक करता था।

46 हे राजन, नौ द्वारों में से पाँच पूर्व की ओर, एक उत्तर तथा एक दक्षिण दिशा को और दो पश्चिम की ओर जाते थे। अब मैं इन विभिन्न द्वारों के नाम बताने का प्रयास करूँगा।

47 खद्योता तथा आविर्मुखी नाम के दो द्वार पूर्व के ओर स्थित थे, किन्तु वे दोनों एक स्थान पर ही बनाये गये थे। राजा इन दोनों द्वारों से होकर विभ्राजित नामक नगर में अपने मित्र द्युमान के साथ जाया करता था।

48 इसी प्रकार पूर्व में नलिनी तथा नालिनी नामक (अन्य) दो द्वार थे और ये भी एक स्थान पर बनाये गये थे। इन द्वारों से राजा अपने मित्र अवधूत के साथ सौरभ नगर को जाया करता था।

49 पूर्व दिशा में स्थित पाँचवें द्वार का नाम मुख्या अर्थात मुख्य था। इस द्वार से वह रसज्ञ तथा विपण नामक दो मित्रों साथ बहूदन तथा आपण नामक दो स्थानों को जाता था।

50 नगर के दक्षिणी द्वार का नाम पितृहू था, जिससे होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र श्रुतधर के साथ दक्षिण-पञ्चाल नामक नगर देखने जाया करता था।

51 उत्तर दिशा में देवहू नामक द्वार था जिससे होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र श्रुतधर के साथ उत्तर-पञ्चाल नामक स्थान को जाया करता था।

53 पश्चिम दिशा में आसुरी नामक एक द्वार था, जिससे होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र दुर्मद के साथ ग्रामक नाम की नगरी को जाया करता था।

53 पश्चिम दिशा का दूसरा द्वार निर्ऋति कहलाता था। पुरञ्जन इस द्वार से होकर अपने मित्र लुब्धक के साथ वैशस नामक स्थान को जाया करता था।

54 इस नगरी के अनेक निवासियों में निर्वाक तथा पेशस्कृत नामक दो व्यक्ति थे। यद्यपि राजा पुरञ्जन आँख वाले व्यक्तियों (दिठियारों) का शासक था, किन्तु वह इन दोनों अन्धों के साथ रहता था। वह उनके साथ जहाँ-तहाँ जाता और नानाविध कार्य किया करता था।

55 कभी-कभी वह अपने एक मुख्य दास (मन) विषूचीन के साथ अपने अन्तःपुर जाया करता था। उस समय उसे पत्नी तथा पुत्रों से मोह, सन्तोष तथा हर्ष उत्पन्न होते थे।

56 इस प्रकार विभिन्न प्रकार के मानसिक ऊहापोह तथा सकाम कर्मों में फँसा रहकर राजा पुरञ्जन पूर्ण रूप से भौतिक बुद्धि के वश में हो गया और ठगा गया। वह दरअसल अपनी रानी की समस्त इच्छाओं को पूरा किया करता था।

57-61 जब रानी मद्यपान करती तो राजा पुरञ्जन भी मदिरा पीने में व्यस्त रहता। जब रानी भोजन करती तो वह भी उसके साथ-साथ खाता; जब वह चबाती तो वह भी साथ-साथ चबाता। जब रानी गाती तो राजा भी गाता। इसी प्रकार जब रानी रोती तो वह भी रोता और जब-जब रानी हँसती तो वह भी हँसता। जब रानी अनाप-शनाप बोलती तो वह भी उसी तरह बोलता करता और जब रानी चलती तो वह उसके पीछे हो लेता। जब रानी शान्त भाव से खड़ी होती तो वह भी खड़ा रहता और जब रानी बिस्तर में लेट जाती तो वह भी लेट जाता। जब रानी बैठती तो वह भी बैठ जाता और जब रानी कुछ सुनती तो वह भी वही सुनता। जब रानी कोई वस्तु देखती तो वह भी उसी को देखता और जब रानी कुछ सूँघती तो राजा भी उसी को सूँघने लगता। जब रानी कुछ छूती तो राजा भी उसे छूता था। जब उसकी प्रिय रानी शोकमग्न होती तो बेचारा राजा भी शोक में उसका साथ देता। इसी तरह रानी को जब सुख मिलता उसका भोग राजा भी करता और जब रानी संतुष्ट हो जाती तो राजा भी तुष्टि का अनुभव करता।

62 इस प्रकार राजा पुरञ्जन अपनी सुन्दर पत्नी के द्वारा बन्दी बना हुआ था और ठगा जा रहा था। वास्तव में वह संसार में अपने सम्पूर्ण अस्तित्व में ठगा जा रहा था। बेचारा वह मूर्ख राजा अपनी इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी के वश में उसी प्रकार रहता जिस प्रकार कोई पालतू जानवर अपने स्वामी की इच्छानुसार नाचता रहता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10860255876?profile=RESIZE_400x

अध्याय चौबीस – शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान (4.24)

1-10 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: महाराज पृथु का सबसे बड़ा पुत्र विजिताश्व, जिसकी ख्याति अपने पिता की ही तरह थी, राजा बना और उसने अपने छोटे भाइयों को पृथ्वी की विभिन्न दिशाओं पर राज्य करने का अधिकार सौंप दिया, क्योंकि वह अपने भाइयों को अत्यधिक चाहता था। महाराज विजिताश्व ने संसार का पूर्वी भाग अपने भाई हर्यक्ष को, दक्षिणी भाग धूम्रकेश को, पश्चिमी भाग वृक को तथा उत्तरी भाग द्रविण को प्रदान किया। पूर्वकाल में महाराज विजिताश्व ने स्वर्ग के राजा इन्द्र को प्रसन्न करके उनसे अन्तर्धान की पदवी प्राप्त की थी। उनकी पत्नी का नाम शिखण्डिनी था जिससे उन्हें तीन उत्तम पुत्र हुए। महाराज अन्तर्धान के तीनों पुत्रों के नाम थे पावक, पवमान तथा शुचि। पूर्वकाल में ये तीनों अग्निदेव थे, परन्तु वसिष्ठ ऋषि के शाप से वे महाराज अन्तर्धान के पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए; फलतः वे अग्निदेवों के ही समान शक्तिमान थे और फिर से अग्निदेवों के रूप में स्थित होने के कारण उन्होंने योगशक्ति का पद प्राप्त किया।    महाराज अन्तर्धान के नभस्वती नामक एक दूसरी पत्नी थी जिससे उन्हें हविर्धान नामक एक अन्य पुत्र की प्राप्ति हुई। चूँकि महाराज अन्तर्धान अत्यन्त उदार थे, अतः उन्होंने यज्ञ से अपने पिता के घोड़े को चुराते हुए इन्द्रदेव को मारा नहीं। जब भी परम शक्तिशाली अन्तर्धान को प्रजा से कर लेना, प्रजा को दण्ड देना या उस पर कठोर जुर्माना लगाना होता तो ऐसा करने को उनका जी नहीं चाहता था। फलतः उन्होंने ऐसे कार्यों से मुख मोड़ लिया और वे विभिन्न प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करने में व्यस्त रहने लगे। यद्यपि महाराज अन्तर्धान यज्ञ करने में व्यस्त रहते थे, किन्तु स्वरूपसिद्ध व्यक्ति होने के नाते वे भक्तों के समस्त भय को दूर करने वाले भगवान की भक्ति भी करते रहे। इस प्रकार भगवान की पूजा करते हुए महाराज अन्तर्धान समाधि में लीन रहकर सरलतापूर्वक भगवान के ही लोक को प्राप्त हुए। महाराज अन्तर्धान के पुत्र हविर्धान की पत्नी का नाम हविर्धानी था जिसने छह पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम थे बर्हिषत, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य तथा जितव्रत। मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, हविर्धान का अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र बर्हिषत विभिन्न प्रकार के यज्ञादि, कर्मकाण्ड तथा योगाभ्यास में अत्यन्त कुशल था। अपने महान गुणों के कारण वह प्रजापति कहलाया। महाराज बर्हिषत ने संसार भर में अनेक यज्ञ किए। उन्होंने कुश घासों को बिखेर कर उनके अग्रभागों को पूर्व की ओर रखा।

11-20   महाराज बर्हिषत (आगे प्राचीनबर्हि नाम से विख्यात) को परम देवता ब्रह्माजी ने समुद्र की कन्या शतद्रुती के साथ विवाह करने का आदेश दिया था। उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सुन्दर थे और वह अत्यन्त युवा थी। वह समुचित परिधानों से अलंकृत थी। जब वह विवाह-मण्डप में आकर प्रदक्षिणा करने लगी तो अग्निदेव उस पर इतने मोहित हो गये कि उन्होंने उसे संगी बनाकर उसके साथ भोग करना चाहा जिस तरह पहले भी उन्होंने शुकी के साथ करना चाहा था ।   जब शतद्रुती का इस तरह विवाह हो रहा था, तो असुर, गन्धर्वलोक के वासी, बड़े-बड़े साधु, सिद्धलोक, पृथ्वीलोक तथा नागलोक के वासी, सभी परम विद्वान होते हुए भी उसके नूपुरों की झनकार से मोहित हो रहे थे। राजा प्राचीनबर्हि ने शतद्रुती के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये। वे सभी समान रूप से धर्मात्मा थे और प्रचेता नाम से विख्यात हुए। जब इन सभी प्रचेताओं को उनके पिता ने विवाह करके सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया तो सबों ने समुद्र में प्रवेश किया और दस हजार वर्षों तक तपस्या की। इस प्रकार उन्होंने समस्त तपस्या के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की उपासना की। जब प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रों ने तपस्या करने के उद्देश्य से घर छोड़ दिया तो उन्हें शिवजी मिले, जिन्होंने अत्यन्त कृपा करके उन्हें परम सत्य के विषय में उपदेश दिया। प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रों ने उनके उपदेशों को अत्यन्त सावधानी तथा मनोयोग से जपते तथा पूजा करते हुए उनके विषय में ध्यान किया।    विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे ब्राह्मण, प्रचेतागण रास्ते में शिवजी से क्यों मिले? कृपया मुझे बताएँ कि उनसे किस प्रकार भेंट हुई, भगवान शिव उनसे किस प्रकार इतने प्रसन्न हो गये और उन्होंने क्या उपदेश दिया? निस्सन्देह, ऐसी बातें महत्वपूर्ण हैं और मैं चाहता हूँ कि आप कृपा करके मुझसे इनका वर्णन करें। विदुर ने आगे कहा: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, देहधारियों के लिए शिवजी के साथ साक्षात सम्पर्क कर पाना अत्यन्त कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि भी जिन्हें भौतिक आसक्ति से कोई लेनदेन नहीं होता, उनका समागम पाने के लिए ही, ध्यान में लीन रहने के बावजूद भी उनका संसर्ग प्राप्त नहीं कर पाते। शिवजी जो अत्यन्त शक्तिशाली देवता हैं और वे आत्माराम हैं, जिनका नाम भगवान विष्णु के ही बाद आता है । यद्यपि उन्हें इस भौतिक जगत में किसी वस्तु की कोई आकांक्षा नहीं है, किन्तु वे संसारी लोगों के कल्याण कार्य में सदैव व्यस्त रहते हैं और अपनी घोर शक्तियों-यथा देवी काली तथा देवी दुर्गा – के साथ रहते हैं। ऋषि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, अपनी साधु प्रकृति के कारण प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रों ने अपने पिता के वचनों को शिरोधार्य किया और पिता की आज्ञा पूरी करने के उद्देश्य से वे पश्चिम दिशा की ओर चले गये। चलते-चलते प्रचेताओं ने एक विशाल जलाशय देखा जो समुद्र के समान विशाल दिखता था। इसका जल इतना शान्त था मानो किसी महापुरुष का मन हो और इसके जलचर इतने बड़े जलाशय की संरक्षण में अत्यन्त शान्त तथा प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे।

21-30  उस विशाल सरोवर में विभिन्न प्रकार के कमल पुष्प थे। कुछ नीले थे तो कुछ लाल, कुछ रात्रि में खिलने वाले थे तो कुछ दिन में और इन्दीवर जैसे कुछ कमल शाम को खिलने वाले थे। इन सब फूलों से सारा सरोवर पुष्पों की खान सा प्रतीत हो रहा था। फलस्वरूप सरोवर के तटों पर हंस, सारस, चक्रवाक, कारण्डव तथा अन्य सुन्दर जलपक्षी खड़े हुए थे। उस सरोवर के चारों ओर तरह-तरह के वृक्ष तथा लताएँ थी और उन पर मतवाले भौंरें गूँज रहे थे। भौरों की मधुर गूँज से वृक्ष अत्यन्त उल्लसित लग रहे थे और कमल पुष्पों का केसर वायु में बिखर रहा था। इस सबसे ऐसा वातावरण उत्पन्न हो रहा था मानो कोई उत्सव हो रहा हो। जब राजा के पुत्रों ने मृदंग तथा पणव के साथ-साथ अन्य राग-रागिनियों की कर्णप्रिय ध्वनि सुनी तो वे अत्यन्त विस्मित हुए।   प्रचेतागण भाग्यवान थे कि उन्होंने प्रमुख देव शिवजी को उनके पार्षदों सहित जल से बाहर आते देखा। उनकी शारीरिक कान्ति तपे हुए सोने के समान थी, उनका कण्ठ नीला था और उनके तीन नेत्र थे जिनसे वे भक्तों पर कृपादृष्टि डाल रहे थे। उनके साथ अनेक गन्धर्व गायक थे, जो उनका गुणगान कर रहे थे। ज्योंही प्रचेताओं ने शिवजी को देखा उन्होंने तुरन्त ही कौतूहलवश उन्हें नमस्कार किया और वे उनके चरणों पर गिर पड़े। शिवजी प्रचेताओं से अत्यन्त प्रसन्न हुए, क्योंकि सामान्यतः शिवजी पवित्र तथा सदाचारी पुरुषों के रक्षक हैं। राजकुमारों से अत्यन्त प्रसन्न होकर वे इस प्रकार बोले। शिवजी ने कहा: तुम सभी प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। मैं जानता हूँ कि तुम क्या करने जा रहे हो, अतः मैंने तुम पर कृपा करने के लिए ही अपना दर्शन दिया है। शिवजी ने आगे कहा: जो व्यक्ति प्रकृति तथा जीवात्मा में से प्रत्येक के अधिष्ठाता भगवान कृष्ण के शरणागत हैं, वह वास्तव में मुझे अत्यधिक प्रिय है। जो व्यक्ति अपने वर्णाश्रम धर्म को समुचित रीति से एक सौ जन्मों तक निबाहता है, वह ब्रह्मा के पद को प्राप्त करने के योग्य हो जाता है और इससे अधिक योग्य होने पर वह शिवजी के पास पहुँच सकता है। किन्तु जो व्यक्ति अनन्य भक्तिवश सीधे भगवान कृष्ण या विष्णु की शरण में जाता है, वह तुरन्त वैकुण्ठलोक में पहुँच जाता है। शिवजी तथा अन्य देवता इस संसार के संहार के बाद ही इन लोक को प्राप्त कर पाते हैं। तुम सभी भगवान के भक्त हो, अतः तुम मेरे लिए भगवान के समान पूज्य हो। इस प्रकार से मैं यह जानता हूँ कि भक्त भी मेरा आदर करते हैं और मैं उन्हें प्यारा हूँ। इस प्रकार भक्तों को मेरे समान अन्य कोई प्रिय नहीं हो सकता है।

31-40  अब मैं केवल एक मंत्र का उच्चारण करूँगा जो न केवल दिव्य, पवित्र तथा शुभ है वरन जीवन-उद्देश्य को प्राप्त करने के इच्छुक हर एक के लिए यही श्रेष्ठ स्तुति भी है। जब मैं इस मंत्र का उच्चारण करूँ तो तुम सब सावधानी से ध्यानपूर्वक सुनना। महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: भगवान नारायण के परम भक्त महापुरुष शिवजी अहैतुकी कृपावश हाथ जोड़कर खड़े हुए राजा के पुत्रों से कहते रहे। शिवजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की इस प्रकार स्तुति की: हे भगवान, आप धन्य हैं। आप सभी स्वरूपसिद्धों में महान हैं चूँकि आप उनका सदैव कल्याण करने वाले हैं, अतः आप मेरा भी कल्याण करें। आप अपने सर्वात्मक उपदेशों के कारण पूज्य हैं। आप परमात्मा हैं, अतः पुरुषोत्तम स्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ। हे भगवान, आपकी नाभि से कमल पुष्प निकलता है, इस प्रकार से आप सृष्टि के उद्गम हैं। आप इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं के नियामक हैं। आप सर्वव्यापी वासुदेव भी हैं। आप परम शान्त हैं और स्वयंप्रकाशित होने के कारण आप छह प्रकार के विकारों से विचलित नहीं होते।   हे भगवान, आप सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों के उद्गम, समस्त संघटन और संहार के स्वामी, संकर्षण नामक अधिष्ठाता तथा समस्त बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।  हे परम अधिष्ठाता अनिरुद्ध रूप भगवान, आप इन्द्रियों तथा मन के स्वामी हैं। अतः मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। आप अनन्त तथा साथ ही साथ संकर्षण कहलाते हैं, क्योंकि अपने मुख से निकलने वाली धधकती हुई अग्नि से आप सारी सृष्टि का संहार करने में समर्थ हैं। हे भगवान अनिरुद्ध, आपके आदेश से स्वर्ग तथा मोक्ष के द्वार खुलते हैं। आप निरन्तर जीवों के शुद्ध हृदय में निवास करते हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप स्वर्ण सदृश वीर्य के स्वामी हैं और इस प्रकार आप अग्नि रूप में चातुर्होत्र इत्यादि वैदिक यज्ञों में सहायता करते हैं। अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे भगवन, आप पितृलोक तथा सभी देवताओं के भी पोषक हैं। आप चन्द्रमा के प्रमुख श्रीविग्रह और तीनों वेदों के स्वामी हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आप समस्त जीवात्माओं की तृप्ति के मूल स्त्रोत हैं। हे भगवान, आप विराट स्वरूप हैं जिसमें समस्त जीवात्माओं के शरीर समाहित हैं। आप तीनों लोकों के पालक हैं, फलतः आप मन, इन्द्रियों, शरीर तथा प्राण का पालन करनेवाले हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवान, आप अपनी दिव्य वाणी (शब्दों) को प्रसारित करके प्रत्येक वस्तु का वास्तविक अर्थ प्रकट करने वाले हैं। आप भीतर-बाहर सर्वव्याप्त आकाश हैं और इस लोक में तथा इससे परे किये जाने वाले समस्त पुण्यकर्मों के परम लक्ष्य हैं। अतः मैं आपको पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।

41-50  हे भगवान, आप पुण्यकर्मों के फलों के दृष्टा हैं। आप प्रवृत्ति, निवृत्ति तथा उनके कर्म-रूपी परिणाम (फल) हैं। आप अधर्म से जनित जीवन के दुखों के कारणस्वरूप हैं, अतः आप मृत्यु हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।  हे भगवान, आप आशीर्वादों के समस्त प्रदायकों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे प्राचीन तथा समस्त भोक्ताओं में परम भोक्ता हैं। आप समस्त सांख्य योग-दर्शन के अधिष्ठाता हैं। आप समस्त कारणों के कारण भगवान कृष्ण हैं। आप सभी धर्मों में श्रेष्ठ हैं, आप परम मन हैं और आपका मस्तिष्क (बुद्धि) ऐसा है, जो कभी कुण्ठित नहीं होता। अतः मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। हे भगवान, आप कर्ता, करण और कर्म--इन तीनों शक्तियों के नियामक हैं। अतः आप शरीर, मन तथा इन्द्रियों के परम नियन्ता हैं। आप अहंकार के परम नियन्ता रुद्र भी हैं। आप वैदिक आदेशों के ज्ञान तथा उनके अनुसार किए जाने वाले कर्मों के स्रोत हैं। हे भगवान, मैं आपको उस रूप में देखने का इच्छुक हूँ, जिस रूप में आपके अत्यन्त प्रिय भक्त आपकी पूजा करते हैं। आपके अन्य अनेक रूप हैं, किन्तु मैं तो उस रूप का दर्शन करना चाहता हूँ जो भक्तों को विशेष रूप से प्रिय है। आप मुझ पर अनुग्रह करें और मुझे वह स्वरूप दिखलाएँ, क्योंकि जिस रूप की भक्त पूजा करते हैं वही इन्द्रियों की इच्छाओं को पूरा कर सकता है।   भगवान की सुन्दरता वर्षाकालीन श्याम मेघों के समान है। उनके शारीरिक अंग वर्षा जल के समान चमकीले हैं। दरअसल, वे समस्त सौन्दर्य के समष्टि (सारसर्वस्व) हैं। भगवान की चार भुजाएँ हैं, सुन्दर मुख है और उनके नेत्र कमलदलों के तुल्य हैं। उनकी नाक उन्नत, उनकी हँसी मोहने वाली, उनका मस्तक तथा उनके कान सुन्दर और आभूषणों से सज्जित हैं। भगवान अपने मुक्त तथा दयापूर्ण हास्य तथा भक्तों पर तिरछी चितवन के कारण अनुपम सुन्दर लगते हैं। उनके बाल काले तथा घुँघराले हैं। हवा में उड़ता उनका वस्त्र कमल के फूलों में से उड़ते हुए केशर-रज के समान प्रतीत होता है। उनके झिलमलाते कुण्डल, चमचमाता मुकुट, कंकण, वनमाला, नूपुर, करधनी तथा शरीर के अन्य आभूषण शंख, चक्र, गदा तथा कमल पुष्प से मिलकर उनके वक्षस्थल पर पड़ी कौस्तुभमणि की प्राकृतिक शोभा को बढ़ाते हैं। भगवान के कंधे सिंह के समान हैं। इन पर मालाएँ, हार एवं घुँघराले बाल पड़े हैं, जो सदैव झिलमिलाते रहते हैं। इनके साथ ही साथ कौस्तुभमणि की सुन्दरता है और भगवान के श्याम वक्षस्थल पर श्रीवत्स की रेखाएँ हैं, जो लक्ष्मी के प्रतीक हैं। इन सुवर्ण रेखाओं की चमाहट सुवर्ण कसौटी पर बनी सुवर्ण लकीरों से कहीं अधिक सुन्दर है। दरअसल ऐसा सौन्दर्य सुवर्ण कसौटी को मात करने वाला है। भगवान का उदर (पेट) त्रिवली के कारण सुन्दर लगता है। गोल होने के कारण उनका उदर वटवृक्ष के पत्ते के समान जान पड़ता है और जब वे श्वास-प्रश्वास लेते हैं, तो इन सलवटों का हिलना-जुलना अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। भगवान की नाभि के भीतर की कुण्डली इतनी गहरी है मानो सारा ब्रह्माण्ड उसी में से उत्पन्न हुआ हो और पुनः उसी में समा जाना चाहता हो।

51-60 भगवान की कटि का अधोभाग श्यामल रंग का है और पीताम्बर से ढका है। उसमें सुनहली, जरीदार करधनी है। उनके एक समान चरणकमल, पिण्डलियाँ, जाँघें तथा घुटने अनुपम सुन्दर हैं। निस्सन्देह, भगवान का सम्पूर्ण शरीर अत्यन्त सुडौल प्रतीत होता है। हे भगवन, आपके दोनों चरणकमल इतने सुन्दर हैं मानो शरत ऋतु में उगने वाले कमल पुष्प के खिलते हुए दो दल हों। दरअसल आपके चरणकमलों के नाखूनों से इतना तेज निकलता है कि वह बद्ध जीव के सारे अंधकार को तुरन्त छिन्न कर देता है। हे स्वामी, मुझे आप अपना वह स्वरूप दिखलायें जो किसी भक्त के हृदय के अंधकार को नष्ट कर देता है। मेरे भगवन, आप सबों के परम गुरु हैं, अतः आप जैसे गुरु के द्वारा अज्ञान के अंधकार से आवृत सारे बद्धजीव प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। हे भगवन, जो लोग अपने जीवन को परिशुद्ध बनाना चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्त विधि से आपके चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए। जो अपने वर्ण के अनुरूप कार्य को पूरा करने की धुन में हैं और जो भय से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें भक्तियोग की इस विधि का अनुसरण करना चाहिए। हे भगवन, स्वर्ग का राजा इन्द्र भी जीवन के परम लक्ष्य – भक्ति – को प्राप्त करने का इच्छुक रहता है। इसी प्रकार जो अपने को आपसे अभिन्न मानते हैं (अहं ब्रह्मास्मि), उनके भी एकमात्र लक्ष्य आप ही हैं। किन्तु आपको प्राप्त कर पाना उनके लिए अत्यन्त कठिन है जबकि भक्त सरलता से आपको पा सकता है। हे भगवन, शुद्ध भक्ति कर पाना तो मुक्त पुरुषों के लिए भी कठिन है, किन्तु आप हैं कि एकमात्र भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः जीवन-सिद्धि का इच्छुक ऐसा कौन होगा जो आत्म-साक्षात्कार की अन्य विधियों को अपनाएगा?  उनके भृकुटि – विस्तार – मात्र से जो दुर्जेय काल तत्क्षण सारे ब्रह्माण्ड का संहार कर सकता है, वही दुर्जेय काल आपके चरणकमलों की शरण में गये भक्त के निकट तक नहीं पहुँच पाता। संयोग से भी यदि कोई क्षण भर के लिए भक्त की संगति पा जाता है, तो उसे कर्म और ज्ञान के फलों का तनिक भी आकर्षण नहीं रह जाता। तब उन देवताओं के वरदानों में उसके लिए रखा ही क्या है, जो जीवन और मृत्यु के नियमों के अधीन हैं?   हे भगवन, आपके चरणकमल समस्त कल्याण के कारण हैं और समस्त पापों के कल्मष को विनष्ट करने वाले हैं। अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे अपने भक्तों की संगति का आशीर्वाद दें, क्योंकि आपके चरणकमलों की पूजा करने से वे पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं और बद्धजीवों पर अत्यन्त कृपालु हैं। मेरी समझ में तो आपका असली आशीर्वाद यही होगा कि आप मुझे ऐसे भक्तों की संगति करने की अनुमति दें। जिसका हृदय भक्तियोग से पूर्णरूप से पवित्र हो चुका हो तथा जिस पर भक्ति देवी की कृपा हो, ऐसा भक्त कभी भी अंधकूप सदृश माया द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता। इस प्रकार समस्त भौतिक कल्मष से रहित होकर ऐसा भक्त आपके नाम, यश, स्वरूप, कार्य इत्यादि को अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक समझ सकता है। हे भगवन, निर्गुण ब्रह्म सूर्य के प्रकाश अथवा आकाश की भाँति सर्वत्र फैला हुआ है और जो सारे ब्रह्माण्ड भर में फैला है तथा जिसमें सारा ब्रह्माण्ड दिखाई देता है, वह निर्गुण ब्रह्म आप ही हैं।

61-70  हे भगवन, आपकी शक्तियाँ अनेक हैं और वे नाना रूपों में प्रकट होती हैं। आपने ऐसी ही शक्तियों से इस दृश्य जगत की उत्पत्ति की है और यद्यपि आप इसका पालन इस प्रकार करते हैं मानो यह चिरस्थायी हो, किन्तु अन्त में आप इसका संहार कर देते हैं। यद्यपि आप कभी भी ऐसे परिवर्तनों द्वारा विचलित नहीं होते, किन्तु जीवात्माएँ इनसे विचलित होती रहती हैं, इसलिए वे इस दृश्य जगत को आपसे भिन्न अथवा पृथक मानती हैं। हे भगवन, आप सर्वदा स्वतंत्र हैं और मैं तो इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। हे भगवन, आपका विराट रूप, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार (जो भौतिक हैं) तथा आपके अंश रूप सर्व नियामक परमात्मा इन सभी पाँच तत्त्वों से बना है। भक्तों के अतिरिक्त अन्य योगी-यथा कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी – अपने-अपने पदों में अपने-अपने कार्यों द्वारा आपकी पूजा करते हैं। वेदों में तथा शास्त्रों में जो वेदों के निष्कर्ष हैं, कहा गया है कि केवल आप ही पूज्य हैं। सभी वेदों का यही अभिमत है।   हे भगवन, आप कारणों के कारण एकमात्र परम पुरुष हैं। इस भौतिक जगत की सृष्टि के पूर्व आपकी भौतिक शक्ति सुप्त रहती है, किन्तु जब आपकी शक्ति गतिमान होती है, तो आपके तीनों गुण—सत्त्व, रज तथा तमो गुण – क्रिया करते हैं। फलस्वरूप समष्टि भौतिक शक्ति अर्थात अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा विभिन्न देवता एवं ऋषिगण प्रकट होते हैं। इस प्रकार भौतिक जगत की उत्पत्ति होती है। हे भगवन, आप अपनी शक्तियों के द्वारा सृष्टि कर लेने के बाद सृष्टि में चार रूपों में प्रवेश करते हैं। आप जीवों के अन्तःकरण में स्थित होने के कारण उन्हें जानते हैं और यह भी जानते हैं कि वे किस प्रकार इन्द्रिय-भोग कर रहे हैं। इस भौतिक जगत का तथाकथित सुख ठीक वैसा ही है जैसा कि शहद के छत्ते में मधु एकत्र होने के बाद मधुमक्खी द्वारा उसका आस्वाद।   हे भगवन, आपकी परम सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु संसार की गतिविधियों को देखकर कि समय आने पर सब कुछ विनष्ट हो जाता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। काल का वेग अत्यन्त प्रचण्ड है और प्रत्येक वस्तु किसी अन्य वस्तु के द्वारा विनष्ट होती जा रही है – जैसे एक पशु दूसरे पशु द्वारा निगल लिया जाता है। काल प्रत्येक वस्तु को उसी प्रकार तितर-बितर कर देता है, जिस प्रकार आकाश में बादलों को वायु छिन्न-भिन्न कर देती है। हे भगवन, इस संसार के सारे प्राणी कुछ--कुछ योजना बनाने में पागल हैं तथा यह या वह करते रहने की इच्छा से काम में जुटे रहते हैं। अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है। जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है, किन्तु आप नित्य सतर्क रहते हैं और समय आने पर आप उस पर उसी प्रकार टूट पड़ते हैं जिस प्रकार सर्प चूहे पर झपटता है और आसानी से निगल जाता है।  हे भगवन, कोई भी विद्वान पुरुष जानता है कि आपकी पूजा के बिना सारा जीवन व्यर्थ है। भला यह जानते हुए वह आपके चरणकमलों की उपासना क्यों त्यागेगा? यहाँ तक कि हमारे गुरु तथा पिता ब्रह्मा ने बिना किसी भेदभाव के आपकी आराधना की और चौदहों मनुओं ने उनका अनुसरण किया। हे भगवन, जो वास्तव में विद्वान मनुष्य हैं, वे सभी आपको परब्रह्म एवं परमात्मा के रूप में जानते हैं। यद्यपि सारा ब्रह्माण्ड भगवान रुद्र से भयभीत रहता है, क्योंकि वे अन्ततः प्रत्येक वस्तु को नष्ट करने वाले हैं, किन्तु विद्वान भक्तों के लिए आप निर्भय आश्रय हैं।   हे राजपुत्रों, तुम लोग विशुद्ध हृदय से राजाओं की भाँति अपने-अपने नियत कर्म करते रहो। भगवान के चरणकमलों पर अपने मन को स्थिर करते हुए इस स्तुति (स्तोत्र) का जप करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि इससे भगवान तुम पर अत्यधिक प्रसन्न होंगे। अतः हे राजकुमारों, भगवान सबके हृदयों में स्थित हैं। वे तुम लोगों के भी हृदयों में हैं, अतः भगवान की महिमा का जप करो और निरन्तर उसी का ध्यान करो।

71-79  हे राजपुत्रों, मैंने स्तुति के रूप में तुम्हें पवित्र नाम-जप की योगपद्धति बतला दी है। तुम सब इस स्तोत्र को अपने मनों में धारण करते हुए इस पर दृढ़ रहने का व्रत लो जिससे तुम महान मुनि बन सको। तुम्हें चाहिए कि मुनि की भाँति मौन धारण करके तथा ध्यानपूर्वक एवं आदर सहित इसका पालन करो। सर्वप्रथम समस्त प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा ने हमें यह स्तुति सुनायी थी। भृगु आदि प्रजापतियों को भी इसी स्तोत्र की शिक्षा दी गई थी, क्योंकि वे संतानोत्पत्ति करना चाह रहे थे। जब ब्रह्मा द्वारा हम सब प्रजापतियों को प्रजा उत्पन्न करने का आदेश हुआ तो हमने भगवान की प्रशंसा में इस स्तोत्र का जप किया जिससे हम समस्त अविद्या से पूरी तरह से मुक्त हो गये। इस तरह हम विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति कर पाये। भगवान कृष्ण के भक्त जिसका मन सदैव उन्हीं में लीन रहता है और जो अत्यन्त ध्यान तथा आदरपूर्वक इस स्तोत्र का जप करता है, उसे शीघ्र ही जीवन की परम सिद्धि प्राप्त होगी।   इस संसार में उपलब्धि के अनेक प्रकार हैं, किन्तु इन सबों में ज्ञान की उपलब्धि सर्वोपरि मानी जाती है, क्योंकि ज्ञान की नौका में आरूढ़ होकर ही अज्ञान के सागर को पार किया जा सकता है। अन्यथा यह सागर दुस्तर है। यद्यपि भगवान की भक्ति करना एवं उनकी पूजा करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु यदि कोई मेरे द्वारा रचित एवं गाये गये इस स्तोत्र को केवल पाठ करता है, तो वह सरलतापूर्वक भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है।  समस्त शुभ आशीर्वादों में से सर्वप्रिय वस्तु भगवान हैं। जो मनुष्य मेरे द्वारा गाये गये इस गीत को गाता है, वह भगवान को प्रसन्न कर सकता है। ऐसा भक्त भगवान की भक्ति में स्थिर होकर परमेश्वर से मनवांछित फल प्राप्त कर सकता है। जो भक्त प्रातःकाल उठकर हाथ जोड़कर शिवजी के द्वारा गाई गई इस स्तुति का जप करता है और अन्यों को सुनाता है, वह निश्चय ही समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।   हे राजकुमारों, मैंने तुम्हें जो स्तुति गाकर सुनाई वह परमात्मा स्वरूप भगवान को प्रसन्न करने के निमित्त थी। मैं तुम्हें इस स्तुति को गाने की सलाह देता हूँ, क्योंकि यह बड़ी-से-बड़ी तपस्या के समान प्रभावशाली है। इस प्रकार जब तुम सब परिपक्व हो जाओगे तो तुम्हारा जीवन सफल होगा और तुम्हें सारे अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त हो सकेंगे।

 

Read more…

10860243896?profile=RESIZE_400x

अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में तपस्या हेतु वन में गए हुए राजा पृथु ने भगवान के चरणकमलों का ध्यान करते हुए अपने भौतिक शरीर को त्याग दिया। साथ आयी हुई रानी अर्चि भी अपने पतिदेव के चरणों का ध्यान करते हुए अग्नि में जलकर सती हो गयीं। देवताओं ने उनकी प्रशंसा में पुष्पवृष्टि की।   श्रीमद भागवतम 4.23.18-26 श्रील प्रभुपाद

अध्याय तेईस – महाराज पृथु का भगवदधाम गमन (4.23)

1-3 अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में, जब महाराज पृथु ने देखा कि मैं वृद्ध हो चला हूँ तो उस महापुरुष ने, जो संसार का राजा था, अपने द्वारा संचित सारे ऐश्वर्य को जड़ तथा जंगम जीवों में बाँट दिया। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के लिए धार्मिक नियमों के अनुसार आजीविका (पेंशन) की व्यवस्था कर दी और भगवान के आदेशों का पालन करके, उनकी पूर्ण सहमति से उन्होंने अपने पुत्रों को अपनी पुत्री-स्वरूपा पृथ्वी को सौंप दिया। तब महाराज पृथु अपनी प्रजा को, जो राजा के वियोग के कारण बिलख रही थी, त्याग कर तपस्या करने के लिए पत्नीसहित वन को चले गये।

4 पारिवारिक जीवन से निवृत्त होकर महाराज पृथु ने वानप्रस्थ जीवन के नियमों का कड़ाई से पालन किया और वन में कठिन तपस्या की। वे इन कार्यों में उसी गम्भीरता से जुट गये जिस तरह पहले वे शासन चलाने तथा हर एक पर विजय पाने के लिए जुट जाते थे।

5 तपोवन में महाराज पृथु कभी वृक्षों के तने तथा जड़ें खाते रहे तो कभी फल तथा सूखी पत्तियाँ। कुछ सप्ताह तक उन्होंने केवल जल पिया। अन्त में वे केवल वायु ग्रहण करके उसी से निर्वाह करने लगे।

6 वानप्रस्थ के नियमों तथा ऋषियों-मुनियों के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए पृथु महाराज ने ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नियों का सेवन किया, वर्षा ऋतु में वे वर्षा की झड़ी में बाहर ही रहे और जाड़े की ऋतु में गले तक जल के भीतर खड़े रहे। वे भूमि पर बिना बिस्तर के सोते रहे।

7 अपनी वाणी तथा इन्द्रियों को वश में करने, उनका वेग रोक देने तथा अपने शरीर के भीतर प्राण-वायु को वश में करने के लिए महाराज पृथु ने ये सारी कठिन तपस्याएँ साधीं। यह सब उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए किया। इसके अतिरिक्त उनका कोई अन्य प्रयोजन न था।

8 इस प्रकार कठिन तपस्या करने से महाराज पृथु क्रमशः आध्यात्मिक जीवन में स्थिर और सकाम कर्म की समस्त इच्छाओं से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये। उन्होंने मन तथा इन्द्रियों को वश में करने के लिए प्राणायाम योग का भी अभ्यास किया जिससे वे सकाम कर्म की समस्त इच्छाओं से पूर्णरूप से मुक्ति पा गये।

9 इस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ महाराज पृथु ने आध्यात्मिक उन्नति के उस पथ का अनुसरण किया जिसका उपदेश सनत्कुमार ने किया था; अर्थात उन्होंने भगवान कृष्ण की पूजा की।

10 इस प्रकार महाराज पृथु निरन्तर कठोरता से विधि-विधानों का पालन करते हुए पूर्णरूप से भक्ति में लग गये। इससे भगवान कृष्ण के प्रति इनमें प्रेम तथा भक्ति का उदय हुआ और वे स्थिर हो गये।

11 निरन्तर भक्ति करते रहने से महाराज पृथु का मन शुद्ध हो गया, अतः वे भगवान के चरणारविन्द का निरन्तर चिन्तन करने लगे। इससे वे पूरी तरह से विरक्त हो गये और पूर्णज्ञान प्राप्त करके समस्त संशयों से परे हो गये। इस तरह वे मिथ्या अहंकार तथा जीवन के भौतिक बोध से मुक्त हो गये।

12 जब महाराज पृथु देहात्मबुद्धि से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को परमात्मा रूप में प्रत्येक के हृदय में स्थित देखा। इस प्रकार उनसे सारे आदेश पाने में समर्थ होने पर उन्होंने योग तथा ज्ञान की अन्य सारी विधियाँ त्याग दीं। ज्ञान तथा योग की सिद्धियों में भी उनकी रुचि नहीं रह गई, क्योंकि उन्होंने पूरी तरह यह अनुभव किया कि जीवन का चरम लक्ष्य तो श्रीकृष्ण की भक्ति है और जब तक योगी तथा ज्ञानी कृष्णकथा के प्रति आकृष्ट नहीं होते, संसार सम्बन्धी उनके सारे भ्रम (मोह) कभी भी दूर नहीं हो सकते।

13 समय आने पर जब पृथु महाराज को अपना शरीर त्याग करना था उन्होंने अपने मन को दृढ़तापूर्वक श्रीकृष्ण के चरणकमलों में स्थिर कर लिया और इस प्रकार से ब्रह्मभूत अवस्था में स्थित होकर उन्होंने भौतिक शरीर त्याग दिया।

14 जब महाराज पृथु ने विशेष यौगिक आसन साधा तो उन्होंने अपनी एड़ियों से अपना गुदाद्वार बन्द कर लिया और दोनों एड़ियों को दबाया, फिर धीरे-धीरे प्राणवायु को नाभिचक्र से होते हुए वे हृदय तथा कण्ठ तक ऊपर की ओर ले गये और अन्त में उसे दोनों भौहों के मध्य पहुँचा दिया।

15 इस प्रकार पृथु महाराज अपने प्राणवायु को धीरे धीरे ब्रह्मरन्ध्र तक ऊपर ले गये जिससे उनकी समस्त सांसारिक आकांक्षाएँ समाप्त हो गई। उन्होंने धीरे-धीरे प्राणवायु को समष्टि वायु में, अपने शरीर को समष्टि पृथ्वी में और अपने शरीर की अग्नि (तेज) को समष्टि अग्नि में लीन कर दिया।

16 इस प्रकार पृथु महाराज ने अपनी इन्द्रियों के छिद्रों को आकाश में और अपने शरीर के द्रवों, यथा रक्त तथा विभिन्न स्रावों को समष्टि जल में, पृथ्वी को जल में, फिर जल को अग्नि में, अग्नि को वायु में और वायु को आकाश में मिला दिया (लीन कर दिया)

17 उन्होंने स्थितियों के अनुसार मन को इन्द्रियों में और इन्द्रियों को इन्द्रियपदार्थों (तन्मात्राओं) में और अहंकार को समष्टि भौतिक शक्ति, महत तत्त्व, में लीन कर दिया।

18 तब पृथु महाराज ने जीवात्मा की सम्पूर्ण उपाधि माया के परम प्रभु (नियन्ता) को सौंप दी। ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति की आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वे जीवात्मा की उन समस्त उपाधियों से मुक्त हो गये, जिनसे वे घिरे थे। इस प्रकार कृष्णभावना की अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप-स्थिति) में रहकर उन्होंने प्रभु (इन्द्रियों के नियन्ता) के रूप में अपने शरीर को त्याग दिया।

19 पृथु महाराज की पत्नी महारानी अर्चि अपने पति के साथ वन को गई थीं। महारानी होने के कारण उनका शरीर अत्यन्त कोमल था। यद्यपि वे वन में रहने के योग्य न थीं, किन्तु उन्होंने स्वेच्छा से अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श किया।

20 यद्यपि महारानी अर्चि ऐसे कष्टों को सहने की अभ्यस्त न थीं, तो भी वन में रहने के अनुष्ठानादि में उन्होंने ऋषियों की तरह अपने पति का साथ दिया। वे भूमि पर शयन करतीं और केवल फल, फूल और पत्तियाँ खातीं। चूँकि वे इन कार्यों के लिए उपयुक्त न थीं, अतः वे अत्यन्त दुर्बल हो गई। फिर भी अपने पति की सेवा करने से उन्हें जो आनन्द प्राप्त होता था उसके कारण उन्हें किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता था।

21 जब महारानी अर्चि ने अपने पति को, जो उनके तथा पृथ्वी के प्रति अत्यन्त दयालु थे, जीवन के लक्षणों से रहित देखा तो उन्होंने थोड़ा विलाप किया और फिर पर्वत की चोटी पर चिता बनाकर अपने पति के शरीर को उस पर रख दिया।

22 इसके पश्चात महारानी ने आवश्यक दाह-कृत्य किये और जलांजलि दी। फिर नदी में स्नान करके उन्होंने आकाश स्थित विभिन्न लोकों के विभिन्न देवताओं को नमस्कार किया। तब अग्नि की प्रदक्षिणा की और अपने पति के चरणकमलों का ध्यान करते हुए उन्होंने अग्नि की लपटों में प्रवेश किया।

23 महान राजा पृथु की पतिव्रता पत्नी अर्चि के इस वीरतापूर्ण कार्य को देखकर हजारों देवपत्नियों ने प्रसन्न होकर अपने पतियों सहित रानी की स्तुति की।

24 उस समय देवता मन्दर पर्वत की चोटी पर आसीन थे। उनकी पत्नियाँ चिता की अग्नि पर फूलों की वर्षा करने लगीं और एक दूसरे से (इस प्रकार) बातें करने लगीं।

25 देवताओं की पत्नियों ने कहा: महारानी अर्चि धन्य हैं। हम देख रही हैं कि राज राजेश्वर पृथु की इस महारानी ने अपने पति की मन, वाणी तथा शरीर से उसी प्रकार सेवा की है, जिस प्रकार ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु की करती हैं।

26 देवों की पत्नियों ने आगे कहा: जरा देखो तो कि वह सती नारी अर्चि किस प्रकार अपने अचिन्त्य पुण्य कर्मों के प्रभाव से अब भी अपने पति का अनुगमन करती हुई ऊपर की ओर, जहाँ तक हम देख सकती हैं, चली जा रही हैं।

27 इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का जीवन-काल लघु है, किन्तु जो भक्ति में अनुरक्त हैं, वे भगवान के धाम वापस जाते हैं, क्योंकि वे सचमुच मोक्ष के मार्ग पर होते हैं। ऐसे लोगों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

28 जो मनुष्य इस संसार में अत्यन्त संघर्षमय कार्यों को सम्पन्न करने में लगा रहता है, और जो मनुष्य का शरीर पाकर–जो कि दुखों से मोक्ष प्राप्त करने का एक अवसर होता है–कठिन सकाम कार्यों को करता रहता है, तो उसे ठगा गया तथा अपने ही प्रति ईर्ष्यालु समझना चाहिए।

29 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, जब देवताओं की पत्नियाँ इस प्रकार परस्पर बातें कर रही थीं तो अर्चि ने उस लोक को प्राप्त कर लिया था जहाँ उनके पति सर्वोत्कृष्ट स्वरूपसिद्ध महाराज पृथु पहुँच चुके थे।

30 मैत्रेय ने आगे कहा: भक्तों में महान महाराज पृथु अत्यन्त शक्तिशाली थे और उनका चरित्र अत्यन्त उदार तथा महान था। मैंने यथासम्भव तुमसे उसका वर्णन किया है।

31 जो व्यक्ति श्रद्धा तथा ध्यानपूर्वक राजा पृथु के महान गुणों को पढ़ता है, या स्वयं सुनता है अथवा अन्यों को सुनाता है, वह अवश्य ही महाराज पृथु के लोक को प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में, ऐसा व्यक्ति भी वैकुण्ठलोक अर्थात भगवान के धाम को वापस जाता है।

32 यदि कोई पृथु महाराज के गुणों को सुनता है और यदि वह ब्राह्मण है, तो वह ब्रह्मशक्ति में निपुण हो जाता है; यदि वह क्षत्रिय है, तो संसार का राजा बन जाता है; यदि वह वैश्य है, तो अन्य वैश्यों तथा अनेक पशुओं का स्वामी हो जाता है और यदि शूद्र हुआ तो वह उच्चकोटि का भक्त बन जाता है।

33 चाहे नर हो या नारी, जो कोई भी महाराज पृथु के इस वृत्तांत को अत्यन्त आदरपूर्वक सुनता है, वह यदि निःसन्तान है, तो सन्तान युक्त और यदि निर्धन है, तो वह धनवान बन जाता है।

34 जो इस वृत्तान्त को तीन बार सुनता है, वह यदि समाज में सम्मानित नहीं है, तो अत्यन्त विख्यात हो जाएगा और यदि निरक्षर है, तो परम विद्वान बन जाएगा। दूसरे शब्दों में, पृथु महाराज का वृत्तान्त सुनने में इतना शुभ है कि वह समस्त दुर्भाग्य को दूर भगाता है।

35 पृथु महाराज के चरित्र को सुनकर मनुष्य महान बन सकता है, अपनी जीवन-अवधि (आयु) बढ़ा सकता है, स्वर्ग को जा सकता है और इस कलिकाल के कल्मषों का नाश कर सकता है। साथ ही वह धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के हितों में उन्नति कर सकता है। अतः सभी प्रकार से यही अच्छा है कि जो लोग ऐसी वस्तुओं में रुचि रखते हैं, वे पृथु महाराज के जीवन तथा चरित्र के विषय में पढ़ें तथा सुनें।

36 यदि विजय तथा शासन शक्ति का इच्छुक कोई राजा अपने रथ पर चढ़कर प्रस्थान करने के पूर्व पृथु महाराज के चरित्र का तीन बार जप करता है, तो उसके अधीन सारे राजा उसके आदेश से ही सारा कर उसी प्रकार लाकर रखते हैं जिस प्रकार महाराज पृथु के अधीन राजा उनको दिया करते थे।

37 शुद्ध भक्त भक्तियोग की विविध विधियों का पालन करते हुए कृष्ण-चेतना में पूर्णतया लीन होने के कारण दिव्य पद पर स्थित हो सकते है, किन्तु तो भी भक्ति करते समय उसे पृथु महाराज के जीवन तथा चरित्र के विषय में सुनना, दूसरों को सुनने की प्रेरणा देना तथा पढ़ना चाहिए।

38 मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: हे विदुर, मैंने यथासम्भव पृथु महाराज के चरित्र के विषय में बतलाया है, जो मनुष्य के भक्तिभाव को बढ़ाने वाला है। जो कोई भी इसका लाभ उठाता है, वह भी महाराज पृथु की तरह ही भगवान के धाम को वापस जाता है।

39 जो भी महाराज पृथु के कार्यकलापों के वृत्तांत को नियमित रूप से अत्यन्त श्रद्धापूर्वक पढ़ता, कीर्तन करता तथा वर्णन करता है, उसका अविचल विश्वास तथा अनुराग निश्चय ही भगवान के चरणकमलों के प्रति नित्यप्रति बढ़ता जाता है। भगवान के चरणकमल वह नौका है, जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञान के सागर को पार करता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

 

10860228474?profile=RESIZE_584x

अध्याय बाईस – चारों कुमारों से पृथु महाराज की भेंट (4.22)

1 महामुनि मैत्रेय ने कहा: जिस समय सारे नागरिक परम शक्तिमान महाराज पृथु की इस प्रकार स्तुति कर रहे थे उसी समय वहाँ पर सूर्य के समान तेजस्वी चारों कुमार आये।

2 समस्त योगशक्तियों के स्वामी चारों कुमारों के देदीप्यमान तेज को देखकर राजा तथा उनके पार्षदों ने उन्हें आकाश से उतरते ही पहचान लिया।

3 चारों कुमारों को देखकर पृथु महाराज उनके स्वागत के लिए आतुर हो उठे। अतः अपने पार्षदों सहित वे तुरन्त इस तरह तेजी से उठकर खड़े हो गये मानो कोई बद्धजीव प्रकृति के गुणों द्वारा तुरन्त आकृष्ट हो उठा हो।

4 जब वे महान ऋषिगण शास्त्रविहित ढंग से उनके द्वारा किये गये स्वागत को स्वीकार कर राजा द्वारा प्रदत्त आसनों पर बैठ गये तो राजा उनके गौरव के वशीभूत होकर तुरन्त नतमस्तक हुआ। इस प्रकार उसने चारों कुमारों की पूजा की ।

5 तत्पश्चात राजा ने कुमारों के चरणकमलों के धोये हुए जल को लेकर अपने बालों पर छिड़का। ऐसे शिष्ट आचरण से राजा ने आदर्श पुरुष की तरह यह प्रदर्शित किया कि आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्ति का किस प्रकार सम्मान करना चाहिए ।

6 चारों मुनि शिवजी से भी ज्येष्ठ थे और जब वे सोने के बने हुए सिंहासन पर बैठा दिये गये तो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वेदी पर अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही हो। महाराज पृथु ने उनसे अत्यन्त शिष्टता तथा सम्मानपूर्वक बड़े ही संयमित स्वर में कहा।

7 राजा पृथु ने कहा: हे साक्षात कल्याणमूर्ति महामुनियों, आपका दर्शन तो योगियों के लिए भी निस्सन्देह दुर्लभ है। मैं नहीं जानता कि मुझसे ऐसा कौन-सा पुण्य बन पड़ा है, जिससे आप मेरे समक्ष इतनी सहजता से प्रकट हुए हैं।

8 जिस पर ब्राह्मण तथा वैष्णव प्रसन्न हो जाते हैं, वह व्यक्ति इस संसार में तथा साथ ही मृत्यु के बाद भी दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर सकता है। यही नहीं, ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के साथ-साथ रहने वाले कल्याणकारी शिव तथा भगवान विष्णु का भी उस व्यक्ति को अनुग्रह प्राप्त हो जाता है।

9 पृथु महाराज ने आगे कहा: यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरण करते रहते हैं, किन्तु लोग आपको नहीं जान पाते, जिस प्रकार वे प्रत्येक हृदय में वास करने वाले और प्रत्येक वस्तु के साक्षी परमात्मा को नहीं जान पाते। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव भी परमात्मा को नहीं जान पाते।

10 कोई भी व्यक्ति जो कम धनवान हो तथा गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहा हो, वह भी अतीव धन्य हो जाता है, जब उसके घर में साधु पुरुष उपस्थित होते हैं। गृह स्वामी तथा सेवक, जो सामान्य अतिथियों को जल, आसन तथा स्वागत सामग्री प्रदान करने में लगे रहते हैं, वे धन्य हो जाते हैं और वह घर भी धन्य हो जाता है।

11 इसके विपरीत जिस गृहस्थ के घर में भगवान के भक्तों के चरण नहीं पड़ते और जहाँ उन चरणों के प्रक्षालन के लिए जल नहीं रहता, वह घर समस्त ऐश्वर्य तथा धन-सम्पन्न होते हुए भी ऐसे वृक्ष के तुल्य माना जाता है, जिसमें केवल विषैले सर्प रहते हैं।

12 महाराज पृथु ने चारों कुमारों को ब्राह्मणश्रेष्ठ सम्बोधित करके स्वागत किया और उन्हें कहा कि आपने जन्म से ही ब्रह्मचर्य व्रत का दृढ़ता से पालन किया है और यद्यपि आप मुक्ति के अनुभवी नहीं है, तो भी आप स्वयं को छोटे-छोटे बालकों के समान रखते हैं।

13 पृथु महाराज ने मुनियों से ऐसे व्यक्तियों के विषय में पूछा जो अपने पूर्व कर्मों के कारण इस विपत्तिमय संसार में फँसे हुए हैं। क्या ऐसे व्यक्तियों को, जिनका एकमात्र लक्ष्य इन्द्रियतृप्ति है, सौभाग्य प्राप्त हो सकता है?

14 पृथु महाराज ने आगे कहा: हे महाशयों, आपसे आपकी कुशल तथा अकुशल पूछने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप नित्य आध्यात्मिक आनन्द में लीन रहते हैं। आप में कुशल तथा अकुशल की मानसिक वृत्तियाँ पाई ही नहीं जाती है।

15 मैं पूर्ण रूप से आश्वस्त हूँ कि आप जैसे महापुरुष इस संसार की अग्नि में सन्तप्त होनेवाले व्यक्तियों के एकमात्र मित्र हैं। अतः मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में हम किस प्रकार जल्दी से जल्दी जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त कर सकते हैं।

16 भगवान अपने अंश-रूप जीवों को ऊपर उठाने के लिए सतत इच्छुक रहते हैं और उन्हीं के विशेष लाभ हेतु सारे संसार में आप जैसे स्वरूपसिद्ध पुरुषों के रूप में भ्रमण करते रहते हैं।

17 महर्षि मैत्रेय ने कहा: इस प्रकार ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ सनत्कुमार पृथु महाराज की अत्यन्त सारगर्भित, युक्तियुक्त तथा श्रुतिमधुर वाणी सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसे और कहने लगे।

18 सनत्कुमार ने कहा: हे राजा पृथु, आपने मुझसे बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा है। ऐसे प्रश्न, विशेष रूप से आप-जैसे पर-हितकारी द्वारा उठाये जाने के कारण समस्त जीवात्माओं के लिए अत्यन्त लाभप्रद हैं। यद्यपि आप सब कुछ जानते हैं, किन्तु आप ऐसे प्रश्नों को इसीलिए पूछ रहे हैं, क्योंकि यह साधु पुरुषों का आचरण है। ऐसी बुद्धि आपके सर्वथा अनुरूप है।

19 जब भक्तों का समागम होता है, तो उनकी विवेचनाएँ, प्रश्न तथा उत्तर वक्ता तथा श्रोता दोनों ही के लिए निर्णायक होते हैं। इस प्रकार ऐसा समागम प्रत्येक व्यक्ति के वास्तविक सुख के हेतु लाभप्रद है।

20 सनत्कुमार ने आगे कहा: हे राजन, भगवान के चरणकमलों के गुणानुवाद के प्रति आपका पहले से ही झुकाव है। ऐसी आसक्ति दुर्लभ होती है, किन्तु एक बार भगवान में अविचल श्रद्धा हो जाने पर यह अन्तःस्थल की समस्त कामवासनाओं को स्वतः ही धो डालती है।

21 भलीभाँति विचार करने के बाद शास्त्रों में यह निश्चित किया गया है कि मानव समाज के कल्याण का चरम लक्ष्य देहात्मबुद्धि से विरक्ति एवं प्रकृति के गुणों से परे दिव्य परमेश्वर के प्रति सुदृढ़ आसक्ति है।

22 भक्ति करने, भगवान के प्रति जिज्ञासा करने, जीवन में भक्तियोग का व्यवहार करने, पूर्ण पुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान की पूजा करने तथा भगवान की महिमा का श्रवण एवं कीर्तन करने से परमेश्वर के प्रति आसक्ति बढ़ाई जा सकती है। ये सारे कार्य अपने आप में परम पवित्र हैं।

23 ऐसे लोगों की संगति न करके, जो केवल इन्द्रियतृप्ति एवं धनोपार्जन के फेर में रहते हैं, मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करनी चाहिए। उसे न केवल ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए, वरन जो उनका संग करते हैं उनसे भी बचना चाहिए। मनुष्य को अपना जीवन इस प्रकार ढालना चाहिए कि जिसमें उसे भगवान हरि की महिमा का अमृत पान किये बिना चैन न मिले। इस प्रकार इन्द्रियभोग से विरक्ति उत्पन्न होने पर मनुष्य उन्नति कर सकता है।

24 आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह अहिंसक हो, महान आचार्यों के पदचिन्हों का अनुगमन करे, भगवान की लीलाओं के अमृत का सदैव स्मरण करे, बिना किसी भौतिक कामना के यम-नियमों का पालन करे और ऐसा करते हुए दूसरों की निन्दा न करे। भक्त को अत्यन्त सादा जीवन बिताना चाहिए और विरोधी तत्त्वों की द्वैतता (द्वन्द्व) से विचलित नहीं होना चाहिए। उसे चाहिए कि वह उन्हें सहन करना सीखे।

25 भक्त को चाहिए कि भगवान के दिव्य गुणों के निरन्तर श्रवण द्वारा भक्ति-अनुशीलता में उत्तरोत्तर वृद्धि करे। ये लीलाएँ भक्तों के कानों के आभूषण सदृश हैं। भक्ति करने तथा भौतिक गुणों को पार करने से मनुष्य सहज ही अध्यात्म में भगवान में स्थिर हो सकता है।

26 गुरु की कृपा से तथा ज्ञान एवं विराग (विरक्ति) के जागृत होने से भगवान के प्रति आसक्ति में स्थिर हो जाने पर जीवात्मा जो शरीर के अन्तःस्थल में स्थित तथा पाँच तत्त्वों से आच्छादित है अपने भौतिक परिवेष को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार काष्ठ से उत्पन्न अग्नि काष्ठ को ही भस्मसात कर देती है।

27 जब मनुष्य समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित और भौतिक गुणों से मुक्त हो जाता है, तो वह अन्तः तथा बाह्य रूप से किये गये कार्यों में अन्तर नहीं देखता है। उस समय आत्म-साक्षात्कार के पूर्व विद्यमान आत्मा तथा परमात्मा का अन्तर विनष्ट हो जाता है। स्वप्न टूटने पर स्वप्न तथा स्वप्न देखने वाले के बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता।

28 जब आत्मा इन्द्रियतृप्ति के हेतु रहता है, तो वह नाना प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न करता है, जिसके कारण उसको उपाधियाँ दी जाती है। किन्तु जब मनुष्य दिव्य स्थिति में रहता है, तो वह भगवान की इच्छाओं को पूरा करने के अतिरिक्त और किसी कार्य में रुचि नहीं दिखाता।

29 विभिन्न निमित्त कारणों के फलस्वरूप ही मनुष्य अपने तथा दूसरों में अन्तर देखता है, जिस प्रकार कि जल, तेल या दर्पण में एक ही पदार्थ के प्रतिबिम्ब भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखते हैं।

30 जब मनुष्य का मन तथा इन्द्रियाँ सुख-भोग के हेतु विषय-वस्तुओं के प्रति आकर्षित होते हैं, तो मन विचलित हो जाता है। परिणाम स्वरूप लगातार विषय-वस्तुओं का चिन्तन करने से मनुष्य की असली कृष्णचेतना वैसे ही खो जाती है, जैसे कि जलाशय के किनारे उगे हुए बड़ी बड़ी कुश जैसी घास के द्वारा चूसे जाने के कारण जलाशय का जल।

31 जब मनुष्य अपनी मूल चेतना से इधर-उधर हटता है, तो वह न तो अपनी पूर्वस्थिति को स्मरण रख पाता है और न वर्तमान स्थिति को पहचान पाता है। स्मरण-शक्ति के नष्ट हो जाने पर जितना भी ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह एक झूठी आधार-शिला पर टिका रहता है। जब ऐसी घटना घटती है, तो पण्डित जन कहते हैं कि आत्मा का विनाश हो गया।

32 आत्म-साक्षात्कार की अपेक्षा अन्य विषयों को अधिक रुचिकर सोचना – मनुष्य के अपने हित के लिए – इससे बड़ी बाधा कोई नहीं होती है।

33 धन कमाने तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए उसके उपयोग के विषय में निरन्तर सोचते रहने से मानव-समाज के प्रत्येक व्यक्ति का पुरुषार्थ विनष्ट होता है। जब कोई ज्ञान तथा भक्ति से शून्य हो जाता है, वह वृक्षों तथा पत्थरों की सी जड़ योनियों में प्रवेश करता है।

34 जो अज्ञान के सागर को पार करने की प्रबल इच्छा रखते हैं, उन्हें कभी भी तमोगुण के साथ साथ नहीं जुड़ना चाहिए, क्योंकि सुखवादी कार्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के मार्ग में अत्यन्त बाधक हैं।

35 चारों पुरुषार्थ अर्थात – धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष – में से मोक्ष को अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। अन्य तीन तो प्रकृति के कठोर नियम अर्थात काल (मृत्यु) द्वारा नाशवान है।

36 हम उच्चतर जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को जीवन की निम्नतर अवस्थाओं से अलग करते हुए वरदानस्वरूप ग्रहण करते हैं, किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रकार के भेदभाव भौतिक प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया के प्रसंग में ही विद्यमान रहते हैं। वस्तुतः जीवन की इन अवस्थाओं का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि ये परम नियन्ता द्वारा विनष्ट कर दी जाएँगी।

37 सनत्कुमार ने राजा को उपदेश दिया-- अतः हे राजा पृथु, उन भगवान को समझने का प्रयास करो जो प्रत्येक हृदय में प्रत्येक जीव के साथ निवास कर रहे हैं, चाहे वह चर हो या अचर। प्रत्येक जीव स्थूल भौतिक शरीर से तथा प्राण एवं बुद्धि से निर्मित सूक्ष्म शरीर से पूर्णतया आवृत है।

38 भगवान इस शरीर के भीतर कारण तथा कार्य के एकाकार रूप में अपने को प्रकट करते हैं, किन्तु जो विवेक रस्सी में सर्प के भ्रम को दूर करने वाला है, यदि उससे किसी ने माया को पार कर लिया है, तो वही यह समझ सकता है कि परमात्मा भौतिक सृष्टि से परे हैं और शुद्ध अन्तरंगा शक्ति में स्थित हैं। भगवान समस्त भौतिक कल्मष से परे हैं और एकमात्र उन्हीं की शरण में जाना चाहिए।

39 जो भक्तजन नित्य ही भगवान के चरणकमलों के अंगुष्ठों की सेवा में रत रहते हैं, वे सकाम कर्म की जोर से बँधी गाँठ जैसी इच्छाओं को सरलता से लाँघ जाते हैं। चूँकि ऐसा कर पाना दु:साध्य है, अतः भक्तजन – ज्ञानी तथा योगी – इन्द्रियतृप्ति की तरंगों को रोकने का प्रयास करके भी ऐसा नहीं कर पाते। अतः तुम्हें आदेश है कि तुम वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण की भक्ति में लग जाओ।

40 अज्ञान के सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि उसमें अनेक भयानक मगरमच्छ भरे पड़े हैं। जो भक्त नहीं हैं, वे इस समुद्र को पार करने के लिए कठिन तपस्या करते हैं, किन्तु हम तुम्हारे लिए बता रहे हैं कि तुम एकमात्र भगवान के चरणकमलों का आश्रय लो, वे समुद्र को पार करने के लिए नाव के समान हैं। यद्यपि सागर को लाँघना कठिन है, किन्तु भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करके तुम सभी संकटों को पार कर जाओगे।

41 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र कुमारों में से एक के द्वारा जो पूर्ण आत्मज्ञानी था, पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करके राजा ने उनकी निम्नलिखित शब्दों से आराधना की।

42 राजा ने कहा: हे ब्राह्मण, हे शक्तिमान, पहले भगवान विष्णु ने मुझ पर अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की थी और यह संकेत किया था कि आप मेरे घर पधारेंगे। आप लोग उसी आशीर्वाद की पुष्टि करने के लिए यहाँ पर आये हैं।

43 हे ब्राह्मण, आपने तो भगवान के आदेश का सम्यक पालन किया है, क्योंकि आप उन्हीं के समान उदार भी हैं। अतः यह मेरा कर्तव्य है कि आपको कुछ अर्पित करूँ, किन्तु मेरे पास जो कुछ भी है, वह साधु पुरुषों के भोजन में से बचा-खुचा प्रसाद ही है। मैं आपको क्या दूँ?

44 राजा ने आगे कहा: अतः हे ब्राह्मणों, मेरे प्राण, पत्नी, बच्चे, घर, घर का साज-सामान, मेरा राज्य, सेना, पृथ्वी तथा विशेष रूप से मेरा राजकोष – ये सब आपको अर्पित है।

45 चूँकि केवल ऐसा व्यक्ति, जो वैदिक ज्ञान के अनुसार पूर्ण रूप से शिक्षित हो, सेनापति, राज्य का शासक, दण्डदाता तथा सारे लोक का स्वामी होने का पात्र होता है, अतः पृथु महाराज ने कुमारों को सर्वस्व अर्पित कर दिया।

46 क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र केवल ब्राह्मणों की कृपा से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। केवल ब्राह्मण ही ऐसे हैं, जो अपनी ही सम्पत्ति का भोग करते हैं, अपने कपड़े पहनते हैं और अपना ही धन दान में देते हैं।

47 पृथु महाराज ने आगे कहा: जिन व्यक्तियों ने भगवान के सम्बन्ध में आत्म-साक्षात्कार के पथ को बताकर अपार सेवा की हो और जिनकी व्याख्याएँ पूर्ण विश्वास एवं वैदिक साक्ष्य द्वारा हमारे उत्थान के लिए की जाती हों, भला उनसे उऋण होने के लिए अंजुली-भर जल के अतिरिक्त और क्या अर्पित किया जा सकता है? ऐसे महापुरुषों को उनके ही कार्यों के द्वारा संतुष्ट किया जा सकता है, जो उनकी अपार कृपावश मानव समाज के बीच में संवितरित हुए हैं।

48 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: महाराज पृथु द्वारा इस प्रकार पूजित होकर भक्ति में प्रवीण ये चारों कुमार अत्यन्त गदगद हुए। दरअसल वे आकाश में दिखाई पड़े और उन्होंने राजा के शील की प्रशंसा की और सभी लोगों ने उनके दर्शन किये।

49 महाराज पृथु अपने तत्त्वज्ञान में पूर्ण रूप से स्थित होने के कारण महापुरुषों में प्रमुख थे। वे आध्यात्मिक ज्ञान में सफलता प्राप्त व्यक्ति की भाँति परम संतुष्ट थे।

50 आत्मतुष्ट होने के कारण महाराज पृथु समय, स्थान, शक्ति तथा आर्थिक स्थिति के अनुसार जितनी पूर्णता से सम्भव हो सकता था अपने कर्तव्यों को पूरा करते थे। इन सारे कार्यों के द्वारा उनका एकमात्र उद्देश्य परम सत्य को प्रसन्न करना था। इस प्रकार उन्होंने अपने कर्तव्यों का भलीभाँति निर्वाह किया।

51 महाराज पृथु ने अपने आपको पृकृति से परे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के शाश्वत दास के रूप में समर्पित कर दिया था। फलस्वरूप उनके कर्मों के सारे फल भगवान को समर्पित थे। वे अपने आपको सदैव सर्वेश्वर भगवान के दास के रूप में समझते रहे।

52 महाराज पृथु, जो अपने सारे साम्राज्य की सम्पत्ति के कारण अत्यन्त ऐश्वर्यवान थे, घर में एक गृहस्थ की भाँति रहते थे। चूँकि वे अपने ऐश्वर्य का उपयोग अपनी इन्द्रियतृप्ति के हेतु कभी नहीं करना चाहते थे, अतः वे विरक्त बने रहे, जिस प्रकार कि सूर्य सभी परिस्थितियों में अप्रभावित रहता है।

53 भक्ति की मुक्त अवस्था में स्थित होकर पृथु महाराज ने न केवल समस्त सकाम कर्मों को सम्पन्न किया, अपितु अपनी पत्नी अर्चि से पाँच पुत्र भी उत्पन्न किये। निस्सन्देह, उनके सारे पुत्र उनकी निजी इच्छानुसार उत्पन्न हुए थे।

54 विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण तथा वृक नामक पाँच पुत्र उत्पन्न करने के बाद भी पृथु महाराज इस लोक पर राज्य करते रहे। उन्होंने अन्य समस्त लोकों पर शासन करने वाले देवों के समस्त गुणों को आत्मसात किया। चूँकि महाराज पृथु भगवान के पूर्ण भक्त थे, अतः वे सभी नागरिकों को उनकी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार प्रसन्न रखते हुए भगवान की सृष्टि की रक्षा करना चाहते थे। अतः पृथु महाराज उन्हें अपनी वाणी, मन, कर्म तथा सौम्य आचरण से सभी प्रकार प्रसन्न रखते थे।

56 महाराज पृथु चन्द्र के राजा सोमराज के समान विख्यात हो गये। वे सूर्यदेव के समान शक्तिशाली तथा कर-संग्रहकर्ता भी थे। सूर्य ताप तथा प्रकाश बाँटता है, किन्तु साथ ही समस्त लोकों के जल को खींच लेता है।

57 महाराज पृथु इतने प्रबल तथा शक्तिमान थे कि उनके आदेशों का उल्लंघन करना मानो अग्नि को जीतना था। वे इतने बलशाली थे कि उनकी उपमा स्वर्ग के राजा इन्द्र से दी जाती थी जिसकी शक्ति अजेय है। दूसरी ओर महाराज पृथु पृथ्वी के समान सहिष्णु भी थे और मानव समाज की विभिन्न इच्छाएँ पूरी करने में वे स्वयं स्वर्ग के समान थे।

58 जिस प्रकार वर्षा से हर एक की इच्छाएँ पूरी होती हैं उसी तरह महाराज पृथु सबों को तुष्ट रखते थे। वे समुद्र के समान थे, क्योंकि कोई उनकी गहराई (गम्भीरता) को नहीं समझ सकता था और उद्देश्य की दृढ़ता में वे पर्वतराज मेरु के समान थे।

59 महाराज पृथु की बुद्धि तथा शिक्षा मृत्यु के अधीक्षक यमराज के बिलकुल समान थी। उनका ऐश्वर्य हिमालय पर्वत से तुलनीय था, जहाँ सभी बहुमूल्य हीरे, जवाहरात तथा धातुएँ संचित हैं। उनके पास स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कुबेर के समान विपुल सम्पत्ति थी। वरुण देवता के ही समान उनके रहस्यों का किसी को पता न था।

60 महाराज पृथु अपनी शारीरिक बल तथा ऐन्द्रिय शक्ति में वायु के समान बलशाली थे, जो कहीं भी तथा सर्वत्र आ जा सकता है। अपनी असह्यता में वे शिवजी या सदाशिव के अंश सर्वशक्तिमान रुद्र के समान थे।

61 वे शारीरिक सुन्दरता में कामदेव के समान तथा विचारशीलता में सिंह के समान थे। वात्सल्य में वे स्वायम्भुव मनु के समान थे अपनी नियंत्रण-क्षमता में ब्रह्माजी के समान थे।

62 पृथु महाराज के निजी आचरण में समस्त उत्तम गुण प्रकट होते थे। अपने आत्म-ज्ञान में वे ठीक बृहस्पति के समान थे। आत्म-नियंत्रण (इन्द्रियजय) में वे साक्षात भगवान के समान थे। जहाँ तक भक्ति का प्रश्न था, वे भक्तों के परम अनुयायी थे। वे गो-रक्षा के प्रति आसक्त और गुरु तथा ब्राह्मणों की सारी सेवा करते थे। वे परम सलज्ज थे और उनका आचरण अत्यन्त भद्र था। जब वे किसी परोपकार में लग जाते तो इस प्रकार कार्य करते थे मानो अपने लिए ही कार्य कर रहे हों।

63 सारे ब्रह्माण्ड भर में--उच्चतर, निम्नतर तथा मध्य लोकों में–पृथु महाराज की कीर्ति उच्च स्वर से घोषित की जा रही थी। सभी महिलाओं तथा साधु पुरुषों ने उनकी महिमा को सुना जो भगवान रामचन्द्र की महिमा के समान मधुर थी।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10859201680?profile=RESIZE_584x

अध्याय इक्कीस – महाराज पृथु द्वारा उपदेश (4.21)

1 महर्षि मैत्रेय ने विदुर से कहा: जब राजा ने अपनी नगरी में प्रवेश किया, तो उसके स्वागत के लिए नगरी को मोतियों, पुष्पहारों, सुन्दर वस्त्रों तथा सुनहरे द्वारों से सुन्दर ढंग से सजाया गया था और सारी नगरी अत्यन्त सुगन्धित धूप से सुवासित थी।

2 नगर की गलियाँ, सड़कें तथा छोटे उद्यान चन्दन तथा अरगजा के सुगन्धित जल से सींच दिये गये थे और सर्वत्र समूचे फलों, फूलों, भिगोए हुए अन्नों, विविध खनिजों तथा दीपों के अलंकरणों से सजे थे। सभी माँगलिक वस्तुओं के दृश्य उपस्थित कर रहे थे।

3 चौराहों पर फलों तथा फूलों के गुच्छे एवं केले के खम्भे तथा सुपारी की टहनियाँ लगाई गई थी। यह सारी सजावट मिलकर अत्यन्त आकर्षक लग रही थी।

4 जब राजा ने नगर में प्रवेश किया, तो समस्त नागरिकों ने दीप, पुष्प तथा दधि जैसे अनेक माँगलिक द्रव्यों से उनका स्वागत किया। राजा की अगवानी अनेक सुन्दर कन्याओं ने भी की जिनके शरीर विविध आभूषणों से सुशोभित थे और जिनके कुण्डल परस्पर टकरा रहे थे।

5 जब राजा ने महल में प्रवेश किया, तो शंख तथा दुन्दुभियाँ बजने लगीं, पुरोहित-गण वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने लगे और बन्दीजन विभिन्न प्रकार से स्तुतिगान करने लगे। किन्तु इतने स्वागत-समारोह का राजा पर रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा।

6 नगर के भद्र तथा सामान्य जनों ने राजा का हार्दिक स्वागत किया और राजा ने उन्हें भी मनवांछित आशीर्वाद दिया।

7 राजा पृथु महानतम से भी महान महापुरुष थे, अतः वे सबों के पूज्य थे। उन्होंने पृथ्वी पर शासन करते हुए अनेक प्रशंसनीय कार्य किए और अत्यन्त उदार बने रहे। ऐसी महान सफलता प्राप्त कर तथा सारे विश्व में अपनी कीर्ति फैलाकर अन्त में भगवान के चरणकमलों को प्राप्त हुए।

8 सूत गोस्वामी ने आगे कहा: हे ऋषियों के नायक शौनकजी, संसार भर में अत्यन्त योग्य, महिमामण्डित तथा जगत भर में प्रशंसित आदि राजा पृथु के विविध कार्यों के विषय में मैत्रेय ऋषि को इस प्रकार कहते हुए सुनकर महान भक्त विदुर ने अत्यन्त विनीत भाव से उनकी पूजा की और उनसे निम्नानुसार प्रश्न किया।

9 विदुर ने कहा: हे ब्राह्मण मैत्रेय, यह जानकर अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि ऋषियों तथा ब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक किया। सभी देवताओं ने उन्हें अनेक उपहार दिये और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु से शक्ति प्राप्त करके अपने प्रभाव का विस्तार किया। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी का अत्यधिक विकास किया।

10 पृथु महाराज के कर्म इतने महान थे और उनकी शासन-प्रणाली इतनी उदार थी कि आज भी सभी राजा तथा विभिन्न लोकों के देवता उनके चरण-चिन्हों पर चलते हैं। भला ऐसा कौन होगा जो उनके कीर्तिमय कार्यों को सुनना नहीं चाहेगा? उनके कर्म इतने पवित्र तथा शुभ हैं कि मैं उनके सम्बन्ध में पुनः पुनः सुनना चाहता हूँ।

11 मैत्रेय ऋषि ने विदुर से कहा: हे विदुर, राजा पृथु गंगा तथा यमुना इन दो महान नदियों के मध्यवर्ती भूभाग में रहते थे। वे अत्यन्त ऐश्वर्यवान थे, अतः ऐसा प्रतीत होता था मानो अपने पूर्व पुण्यों के फल को कम करने के लिए ही प्रारब्ध से प्राप्त सम्पत्ति का भोग कर रहे थे।

12 महाराज पृथु चक्रवर्ती राजा थे और इस भूमण्डल के सातों द्वीपों पर शासन करने के लिए राजदण्ड धारण करने वाले थे। उनके अटल आदेश का उल्लंघन साधुजनों, ब्राह्मणों और वैष्णवों के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता था।

13 एक बार राजा पृथु ने एक महान यज्ञ सम्पन्न करने का व्रत लिया जिसमें ऋषि, ब्राह्मण, स्वर्गलोक के देवता तथा बड़े-बड़े राजर्षि एकत्र हुए।

14 उस महान सभा में महाराज पृथु ने सर्वप्रथम समस्त सम्माननीय अतिथियों की उनके पदों के अनुसार यथा-योग्य पूजा की। फिर वे उस सभा के मध्य में खड़े हो गये। ऐसा प्रतीत हुआ मानो तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा का उदय हुआ हो।

15 राजा पृथु का शरीर अत्यन्त ऊँचा और पुष्ट था और उनका रंग गोरा था। उनकी बाहें पूर्ण तथा चौड़ी और नेत्र उदीयमान सूर्य के समान चमकीले थे। उनकी नाक सीधी, मुख अत्यन्त सुन्दर तथा व्यक्तित्व सौम्य था। मुस्कान से युक्त उनके मुख में दाँत सुन्दर ढंग से लगे थे।

16 महाराज पृथु की छाती चौड़ी थी, उनकी कमर अत्यन्त स्थूल तथा उनका उदर बल पड़े हुए होने के कारण वट वृक्ष की पत्तियों की रचना के समान लग रहा था। उनकी नाभि भँवर जैसी तथा गहरी, उनकी जाँघें सुनहरे रंग की तथा उनके पंजे उभरे हुए थे।

17 उनके सिर के काले तथा चिकने बाल अत्यन्त सुन्दर तथा घुँघराले थे और शंख जैसी गर्दन शुभ रेखाओं से अलंकृत थी। वे अत्यन्त मूल्यवान धोती पहने थे और शरीर के ऊपरी भाग में सुन्दर सी चादर ओढ़े थे।

18 चूँकि महाराज को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीक्षित किया जा रहा था, अतः उन्हें अपने बहुमूल्य वस्त्र उतारने पड़े थे, जिससे उनका प्राकृतिक शारीरिक सौन्दर्य दृष्टिगोचर हो रहा था। उन्हें काला मृग चर्म पहने तथा उँगली में कुश-वलय (पैती) पहने देखकर अच्छा लग रहा था, क्योंकि इससे उनकी शारीरिक कान्ति बढ़ गई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि यज्ञ के पूर्व महाराज पृथु समस्त विधि-सम्मत कृत्य सम्पन्न कर चुके थे।

19 सभा के सदस्यों को प्रोत्साहित करने तथा उनकी प्रसन्नता को बढ़ाने के लिए राजा पृथु ने, ओस से नम आकाश में तारों के समान नेत्रों से, उन पर दृष्टि फेरी और फिर गम्भीर वाणी में उनसे कहा।

20 महाराज पृथु की वाणी अत्यन्त सुन्दर, अलंकारिक भाषा से युक्त, सुस्पष्ट तथा श्रुतिमधुर थी। उनके शब्द अत्यन्त गम्भीर तथा अर्थवान थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो बोलते समय परम सत्य सम्बन्धी अपनी निजी अनुभूति व्यक्त कर रहे थे जिससे वहाँ पर उपस्थित सभी लोग लाभ उठा सकें।

21 राजा पृथु ने कहा: हे सभासदों, आप सब का कल्याण हो। जितने भी महापुरुष इस सभा में उपस्थित हुए हैं, वे मेरी प्रार्थना को ध्यानपूर्वक सुनें। जो भी व्यक्ति वास्तव में कुछ जानने का इच्छुक हो वह भद्रजनों की इस सभा के समक्ष अपना निश्चय प्रस्तुत करे।

22 राजा पृथु ने आगे कहा: भगवत्कृपा से मैं इस लोक का राजा नियुक्त हुआ हूँ और मैं प्रजा के ऊपर शासन करने, उसे विपत्ति से बचाने तथा वैदिक आदेश से स्थापित सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक की स्थिति के अनुसार उसे आजीविका प्रदान करने के लिए यह राजदण्ड धारण कर रहा हूँ।

23 महाराज पृथु ने कहा: मेरा विचार है कि राजा के कर्तव्य-पालन करने से मैं वैदिक ज्ञान के वेत्ताओं द्वारा वर्णित अभीष्ट उद्देश्य प्राप्त कर सकूँ गा। यह गन्तव्य निश्चय ही भगवान की प्रसन्नता से प्राप्त होता है, जो समस्त नियति का दृष्टा है।

24 कोई राजा जो अपनी प्रजा को वर्ण तथा आश्रम के अनुसार अपने-अपने कर्तव्यों को करने की शिक्षा न देकर उनसे केवल कर और उपकर वसूल करता है, उसे प्रजा द्वारा किये गए अपवित्र कार्यों के लिए दण्ड भोगना होता है। ऐसी अवनति के साथ ही राजा की अपनी सम्पदा भी जाती रहती है।

25 पृथु महाराज ने आगे कहा: अतः प्रिय प्रजाजनों, तुम्हें अपने राजा की मृत्यु के बाद उसके कल्याण के लिए वर्ण तथा आश्रम की अपनी-अपनी स्थितियों के अनुसार अपने-अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन करना चाहिए और उसके साथ ही अपने हृदयों में भगवान का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए। ऐसा करने से तुम अपने हितों की रक्षा कर सकोगे और अपने राजा की मृत्यु के उपरान्त उसके कल्याण के लिए अनुग्रह प्रदान कर सकोगे।

26 मैं समस्त शुद्ध अन्तःकरण वाले देवताओं, पितरों तथा साधुपुरुषों से प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरे प्रस्ताव का समर्थन करें, क्योंकि मृत्यु के पश्चात किसी भी कर्म का फल इसके कर्ता, आदेशकर्ता तथा समर्थक के द्वारा समान रूप से भोग्य होता है।

27 माननीय देवियों तथा सज्जनों, शास्त्रों के प्रामाणिक कथनों के अनुसार कोई ऐसा परम अधिकारी होना चाहिए जो हमें अपने-अपने वर्तमान कार्यों के अनुसार पुरस्कृत कर सके। अन्यथा इस जीवन में तथा मृत्यु के बाद के जीवन में कुछ लोग असामान्य सुन्दर तथा शक्तिमान क्योंकर हो सकते हैं?

28-29 इसकी पुष्टि न केवल वेदों के साक्ष्य से होती है, अपितु मनु, उत्तानपाद, ध्रुव, प्रियव्रत तथा मेरे पितामह अंग एवं महाराज प्रह्लाद तथा बलि जैसे अन्य महापुरुषों तथा सामान्य व्यक्तियों के व्यक्तिगत आचरण द्वारा होती है। ये सभी आस्तिक थे और गदाधारी भगवान के अस्तित्व में विश्वास करने वाले थे।

30 यद्यपि धर्म के पथ पर साक्षात मृत्यु के दौहित्र तथा मेरे पिता वेन जैसे शोचनीय पुरुष मोहग्रस्त हो जाते हैं, किन्तु ऊपर जिन समस्त महापुरुषों का उल्लेख हुआ है, वे यह स्वीकार करते हैं कि चतुर्वर्गों–धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष – का अथवा स्वर्ग के एकमात्र दाता पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर हैं।

31 भगवान के चरणकमलों की सेवा के लिए अभिरुचि होने से सन्तप्त मनुष्य अपने मन में असंख्य जन्मों से संचित मल को शीघ्र ही धो सकते हैं। जिस प्रकार भगवान के चरणकमलों के अँगूठों से निकलने वाला गंगाजल सब मलों को धो देता है, उसी प्रकार इस विधि से मन तुरन्त ही स्वच्छ हो जाता है और धीरे-धीरे आध्यात्मिकता अथवा कृष्णचेतना का विकास होता है।

32 जब भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों की शरण में आ जाता है, तो उसका सारा अज्ञान या कपोल कल्पनाएँ धुल जाते हैं और उसमें वैराग्य प्रकट होने लगता है। यह तभी सम्भव है, जब वह भक्तियोग के अभ्यास से परिपुष्ट हो ले। एक बार भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर लेने पर भक्त कभी भी इस संसार में लौटना नहीं चाहता, जो तीन प्रकार के तापों (क्लेशों) से भरा हुआ है।

33 पृथु महाराज ने अपने प्रजाजनों को उपदेश दिया: तुम सबों को अपने मन, वचन, देह तथा कर्मों के फल सहित सदैव खुले मन से भगवान की भक्ति करनी चाहिए। तुम सब अपनी सामर्थ्य तथा वृत्तिपरक कार्यों के अनुसार पूरे विश्वास तथा बिना हिचक के भगवान के चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहो। तब निश्चय ही तुम्हें अपने-अपने जीवन-उद्देश्य प्राप्त करने में सफलता प्राप्त होगी।

34 भगवान दिव्य हैं। वे इस भौतिक जगत द्वारा कलुषित नहीं होते। यद्यपि वे घनीभूत आत्मा हैं जिसमें कोई भौतिक विविधता नहीं है, किन्तु फिर भी बद्धजीव के लाभ हेतु वे विभिन्न भौतिक तत्त्वों, अनुष्ठानों तथा मंत्रों द्वारा यज्ञकर्ता के मनोरथों एवं उद्देश्यों के अनुसार विविध नामों से देवताओं को समर्पित होने वाले यज्ञों को स्वीकार करते हैं।

35 भगवान सर्वव्यापी हैं, किन्तु वे प्रकृति, काल, अभिलाषा तथा वृत्तिपरक कर्मों के संयोग से उत्पन्न विभिन्न प्रकार के शरीरों में भी प्रकट होते हैं। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की चेतनाएँ विकसित होती हैं, जिस प्रकार विभिन्न आकार-प्रकार वाले काष्ठ खण्डों में एक सी ही अग्नि विभिन्न रूपों में प्रकट होती है।

36 भगवान समस्त यज्ञों के फल के स्वामी तथा भोक्ता हैं। साथ ही वे परम गुरु भी हैं। इस भूतल के आप सभी नागरिक, जिनका मुझसे सम्बन्ध है और जो अपने कर्मों द्वारा भगवान की पूजा कर रहे हैं, मुझ पर परम अनुग्रह कर रहे हैं। अतः हे नागरिकों, मैं तुम सबको धन्यवाद देता हूँ।

37 ब्राह्मण तथा वैष्णव अपनी सहिष्णुता, तपस्या, ज्ञान तथा शिक्षा जैसे गुणों के द्वारा स्वयं ही महिमामण्डित होते हैं। इन दिव्य ऋद्धियों के कारण वैष्णव राजकुल से अधिक शक्तिशाली होते हैं। अतः यह सलाह दी जाती है कि राजकुल इन दोनों कुलों पर अपना शौर्य (विक्रम) प्रदर्शित न करें और उनको अपमानित करने से बचें।

38 पुरातन, शाश्वत तथा समस्त महापुरुषों में अग्रणी भगवान ने अपनी स्थिर ख्याति के ऐश्वर्य को ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के चरणकमलों की उपासना के द्वारा प्राप्त किया जो समग्र ब्रह्माण्ड को पवित्र करने वाला है।

39 अनन्तकाल तक स्वतंत्र रहने वाले तथा प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान उन लोगों से अत्यधिक प्रसन्न रहते हैं, जो उनके चरणचिन्हों का अनुसरण करते हैं और बिना किसी हिचक के ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के वंशजों की सेवा करते हैं क्योंकि वे सदैव ब्राह्मणों तथा वैष्णवों को परम प्रिय हैं और ये सदा ही उनको प्रिय हैं।

40 ब्राह्मणों तथा वैष्णवों की नियमित सेवा करते रहने से मनुष्य के हृदय का मैल दूर होता है और इस प्रकार परम शान्ति तथा भौतिक आसक्ति से मुक्ति मिलती है और वह संतुष्ट हो जाता है। इस संसार में ब्राह्मणों की सेवा से बढ़कर कोई सकाम कर्म नहीं, क्योंकि इससे देवता प्रसन्न होते हैं जिनके लिए अनेक यज्ञों की संस्तुति की जाती है।

41 यद्यपि भगवान अनन्त विभिन्न देवताओं के नामों से अग्नि में अर्पित हवियों को खाते हैं, किन्तु वे अग्नि के माध्यम से खाने में उतनी रुचि नहीं दिखाते जितनी कि विद्वान साधुओं तथा भक्तों के मुख से भेंट को स्वीकार करने में, क्योंकि तब उन्हें भक्तों की संगति त्यागनी नहीं होती।

42 ब्राह्मण-संस्कृति में ब्राह्मणों का दिव्य स्थान शाश्वत रूप से बनाए रखा जाता है, क्योंकि वेदों के आदेशों को श्रद्धा, तप, शास्त्रीय निर्णय, मन तथा इन्द्रिय-निग्रह एवं ध्यान के साथ स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार जीवन का वास्तविक लक्ष्य ठीक उसी तरह से प्रकाशमान हो उठता है, जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में किसी का मुँह भलीभाँति प्रतिबिम्बित होता है।

43 यहाँ पर समुपस्थित हे आर्यगण, मैं आपका आशीर्वाद चाहता हूँ कि मैं आजीवन अपने मुकुट में ऐसे ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के चरणकमलों की धूलि धारण करता रहूँ। जो ऐसी चरण-धूलि धारण करता है, वह शीघ्र ही पापमय जीवन से उत्पन्न समस्त कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और अन्ततः समस्त उत्तम तथा वांछित गुणों से परिपूर्ण हो जाता है।

44 जो कोई भी ब्राह्मणत्व के गुणों को अर्थात सदाचार, कृतज्ञता तथा अनुभवी लोगों का आश्रय प्राप्त कर लेता है, उसे संसार का सारा ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है। अतः मेरी यही चाह है कि श्रीभगवान अपने पार्षदों सहित ब्राह्मण कुल, गौओं तथा मुझ पर प्रसन्न रहें।

45 मैत्रेय ऋषि ने कहा: राजा पृथु को इस प्रकार सम्भाषण करते सुनकर सभी देवताओं, पितृलोक के वासियों, ब्राह्मणों तथा उस सभा में उपस्थित साधु पुरुषों ने अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करते हुए साधुवाद दिया।

46 उन सबों ने घोषित किया कि वेदों का यह निर्णय पूरा हुआ कि पुत्र के कर्म से मनुष्य स्वर्गलोकों को जीत सकता है, क्योंकि ब्राह्मणों के शाप से मारा गया अत्यन्त पापी वेन अब अपने पुत्र महाराज पृथु के द्वारा नारकीय जीवन के गहन अंधकार से उबारा गया था।

47 इसी प्रकार हिरण्यकशिपु अपने पापकर्मों से भगवान की सत्ता (श्रेष्ठता) का उल्लंघन करता हुआ नारकीय जीवन के गहनतम क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ, किन्तु अपने महान पुत्र प्रह्लाद महाराज की कृपा से उसका भी उद्धार हो सका और वह भगवान के धाम वापस चला गया।

48 तभी साधु ब्राह्मणों ने पृथु महाराज को इस प्रकार सम्बोधित किया – हे वीरश्रेष्ठ, हे पृथ्वी के पिता, आप दीर्घजीवी हों, क्योंकि आपमें समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी अच्युत भगवान के प्रति अत्यधिक श्रद्धा है।

49 श्रोताओं ने आगे कहा: हे राजा पृथु, आपकी कीर्ति परम शुद्ध है, क्योंकि आप ब्राह्मणों के स्वामी भगवान की महिमाओं का उपदेश दे रहे हैं। हमारे बड़े भाग हैं कि हमने आपको स्वामी रूप में प्राप्त किया जिससे हम अपने आपको भगवान के प्रत्यक्ष आश्रय में समझ रहे हैं।

50 हे नाथ! अपनी प्रजा पर शासन करना तो आपका वृत्तिपरक धर्म है। यह आप-जैसे महापुरुष के लिए कोई आश्चर्यजनक कार्य नहीं है, क्योंकि आप अत्यन्त दयालु हैं और अपनी प्रजा के हितों के प्रति अत्यन्त प्रेम रखते हैं। यही आपके चरित्र की महानता है।

51 नागरिकों ने आगे कहा: आज आपने हमारी आँखें खोल दी हैं और हमें बताया है कि इस अंधकार के सागर को किस प्रकार पार किया जाये। अपने पूर्वकर्मों तथा दैवी व्यवस्था के कारण हम सकाम कर्मों के जाल में फँसे हुए हैं और हमारा जीवन-लक्ष्य ओझल हो चुका है, जिसके कारण हम इस ब्रह्माण्ड में भटक रहे हैं।

52 हे स्वामी! आप विशुद्ध सत्त्व-स्थिति को प्राप्त हैं, अतः आप परमेश्वर के सक्षम प्रतिनिधि हैं। आप अपने तेज से ही महिमावान हैं और इस तरह ब्राह्मण संस्कृति को पुनर्स्थापित करते हुए सारे संसार का पालन करते हैं तथा अपने क्षात्र धर्म का निर्वाह करते हुए प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

 

12258779467?profile=RESIZE_400x

अध्याय बीस – महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान विष्णु का प्राकट्य (4.20)

1 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, महाराज पृथु द्वारा निन्यानवे अश्वमेध यज्ञों के सम्पन्न किये जाने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे यज्ञस्थल में प्रकट हुए। उनके साथ राजा इन्द्र भी था। तब भगवान विष्णु ने कहना प्रारम्भ किया।

2 भगवान विष्णु ने कहा: हे राजा पृथु, स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तुम्हारे सौवें यज्ञ में विघ्न डाला है। अब वह मेरे साथ तुमसे क्षमा माँगने के लिए आया है, अतः उसे क्षमा कर दो।

3 हे राजन, जो व्यक्ति परम बुद्धिमान तथा दूसरों का शुभचिन्तक होता है, वह मनुष्यों में श्रेष्ठ समझा जाता है। सिद्ध पुरुष कभी दूसरों से बैर नहीं करता। जो अग्रगण्य बुद्धिमान हैं, वे यह भलीभाँति जानते हैं कि यह भौतिक शरीर आत्मा से भिन्न है।

4 यदि तुम जैसे पुरुष, जो पूर्व आचार्यों के आदेशों के अनुसार कार्य करने के कारण इतने उन्नत हैं, मेरी माया से मोहग्रस्त हो जाय तो तुम्हारी समस्त सिद्धि को समय का अपव्यय मात्र ही समझा जाएगा।

5 जो लोग जीवन की देहात्मबुद्धि की अवधारणा से भलीभाँति परिचित हैं, जो यह जानते हैं की यह शरीर मोह से उत्पन्न अज्ञान, आकांक्षाओं तथा कर्मों से रचित है, वे इस शरीर के प्रति कभी भी आसक्त नहीं होते।

6 जो देहात्मबुद्धि के प्रति रंचमात्र भी आसक्त नहीं है, भला ऐसा अत्यन्त बुद्धिमान पुरुष किस प्रकार घर, सन्तान, सम्पत्ति तथा ऐसी ही अन्य शारीरिक बातों से देहात्मबुद्धि के द्वारा प्रभावित हो सकता है?

7 आत्मा एक, शुद्ध, अभौतिक तथा स्वयं-तेजमय है। वह समस्त उत्तम गुणों का आगार एवं सर्व-व्यापक है। वह किसी भौतिक आवरण से रहित और समस्त कार्यों का साक्षी है। वह अन्य जीवात्माओं से सर्वथा भिन्न तथा समस्त देहधारियों से परे है।

8 ऐसा व्यक्ति जो परमात्मा तथा आत्मा के पूर्णज्ञान को प्राप्त होता है, भौतिक प्रकृति में रहते हुए भी उसके गुणों से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि वह सदैव मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति में स्थित रहता है।

9 भगवान विष्णु ने आगे कहा: हे राजा पृथु, जब कोई अपना वृत्तिपरक कर्म करता हुआ, किसी भौतिक लाभ के उद्देश्य के बिना मेरी सेवा में लगा रहता है, तो वह अपने अन्तःकरण में उत्तरोत्तर संतुष्टि प्राप्त करता है।

10 जब हृदय समस्त भौतिक कल्मषों से शुद्ध हो जाता है, तो भक्त का मन विशद तथा पारदर्शी हो जाता है और वह वस्तुओं को समान रूप में देख सकता है। जीवन की इस अवस्था में शान्ति मिलती है और मनुष्य मेरे समान पद के सच्चिदानन्द-विग्रह रूप में स्थित हो जाता है।

11 जो कोई भी यह जानता है कि पाँच तत्त्वों, कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों तथा मन से निर्मित यह शरीर केवल स्थिर आत्मा द्वारा संचालित होता है, वह भौतिक बन्धन से मुक्त होने योग्य है।

12 भगवान विष्णु ने राजा पृथु से कहा: हे राजन, तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया से ही यह भौतिक जगत निरन्तर परिवर्तनशील है। यह शरीर पाँच तत्त्वों, इन्द्रियों, इन्द्रियों के नियामक देवताओं तथा आत्मा द्वारा विक्षुब्ध किये जाने वाले मन से मिलकर बना है। चूँकि आत्मा इन स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों के इस मेल से सर्वथा भिन्न है, अतः मेरा भक्त जो मित्रता तथा प्रेम के द्वारा मुझसे दृढ़तापूर्वक बँधा है, यह भलीभाँति जानते हुए, कभी भी भौतिक सुख तथा दुख से विचलित नहीं होता।

13 हे वीर राजा, स्वयं समभाव रखते हुए अपने से उत्तम, मध्यम तथा निम्न स्तर के लोगों से समानता का व्यवहार करो, क्षणिक सुख या दुख से विचलित न हो। अपने मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखो। मेरी व्यवस्था से तुम जिस किसी भी परिस्थिति में रखे जाओ, उस दिव्य स्थिति में रहकर राजा का कर्तव्य पूरा करो, क्योंकि तुम्हारा एकमात्र कर्तव्य अपने राज्य के नागरिकों को संरक्षण प्रदान करना है।

14 राजा का निर्दिष्ट धर्म है कि वह राज्य के सारे नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करे। ऐसा करने से राजा को अगले जन्म में प्रजा के पुण्यों का छठा भाग प्राप्त होता है। किन्तु जो राजा अथवा प्रशासक प्रजा से केवल कर वसूल करता है और नागरिकों को समुचित सुरक्षा प्रदान नहीं करता तो उसके पुण्य प्रजा छीन लेती है और सुरक्षा न प्रदान करने के बदले में उसे प्रजा के पापकर्मों का भागी होना पड़ता है।

15 भगवान विष्णु ने आगे कहा: हे राजा पृथु, यदि तुम विद्वान ब्राह्मणों से शिष्य परम्परा द्वारा प्राप्त आदेशों के अनुसार प्रजा का संरक्षण करते रहोगे और उनके द्वारा निर्दिष्ट धार्मिक नियमों का अनुसरण मनोरथों से अनासक्त रहकर करते रहोगे तो तुम्हारी सारी प्रजा सुखी रहेगी और तुमसे स्नेह रखेगी और तब तुम्हें शीघ्र ही सनकादि (सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार) चारों कुमारों जैसे मुक्त पुरुषों के दर्शन हो सकेंगे।

16 हे राजन, मैं तुम्हारे उच्च गुणों तथा उत्तम आचरण से मुग्ध और प्रभावित हूँ; अतः तुम मुझसे मनचाहा वर माँग सकते हो। जो उत्तम गुणों तथा शील से युक्त नहीं है, वह मात्र यज्ञ, कठिन तपस्या अथवा योग के द्वारा मेरी कृपा प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु जो समस्त परिस्थितियों में समभाव बनाए रखता है, मैं उसके अन्तःकरण में सदैव संतुलित रहता हूँ।

17 महान सन्त मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, इस प्रकार समस्त विश्व को जीतने वाले महाराज पृथु ने भगवान के आदेशों को शिरोधार्य किया।

18 राजा इन्द्र जो सामने खड़ा था, अपने कार्यों से अत्यन्त लज्जित हुआ और राजा पृथु के चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिए उनके समक्ष गिर पड़ा। किन्तु पृथु महाराज ने अत्यन्त हर्षातिरेक में उसे तुरन्त हृदय से लगा लिया और यज्ञ के अश्व को चुराने के कारण उत्पन्न समस्त ईर्ष्या त्याग दी।

19 राजा पृथु ने अपने ऊपर कृपालु भगवान के चरण-कमलों की प्रभूत पूजा की। इस प्रकार भगवान के चरणकमलों की आराधना करते हुए भक्ति में महाराज पृथु का आनन्द क्रमशः बढ़ता गया।

20 भगवान प्रस्थान करने ही वाले थे, किन्तु वे राजा पृथु के व्यवहार के प्रति इतने वत्सल हो चले थे कि वे गये नहीं। अपने कमलनेत्रों से महाराज पृथु के आचरण को देखकर वे रुक गये, क्योंकि वे सदा ही अपने भक्तों के हितैषी हैं।

21 नेत्रों में अश्रु भर आने तथा वाणी रुद्ध हो जाने आदि से राजा महाराज पृथु न तो ठीक से भगवान को देख सके और न भगवान को सम्बोधित करके कुछ बोल सके। उन्होंने केवल अपने हृदय के भीतर भगवान का आलिंगन किया और हाथ जोड़े हुए उसी तरह खड़े रहे।

22 भगवान अपने चरणकमलों से पृथ्वी को स्पर्श करते हुए खड़े थे और उनके हाथ का अगला भाग सर्पों के शत्रु गरुड़ के उन्नत कन्धे पर था। महाराज पृथु नेत्रों से अश्रु पोंछते हुए भगवान को देखने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो राजा उन्हें देखकर अघा नहीं रहा था। इस प्रकार राजा ने निम्नलिखित स्तुतियाँ अर्पित कीं।

23 हे प्रभो, आप वर देने वाले देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आपसे ऐसे वर क्यों माँगेगा जो प्रकृति के गुणों से मोहग्रस्त जीवात्माओं के निमित्त हैं? ऐसे वरदान तो नरक में वास करने वाली जीवात्माओं को भी अपने जीवन-काल में स्वतः प्राप्त होते रहते हैं। हे भगवन, आप निश्चित ही अपने साथ तादात्म्य प्रदान कर सकते हैं। किन्तु मैं ऐसा वर नहीं चाहता।

24 हे भगवान, मैं आपसे तादात्म्य के वर की इच्छा नहीं करता, क्योंकि इसमें आपके चरणकमलों का अमृत रस नहीं है। मैं तो दस लाख कान प्राप्त करने का वर माँगता हूँ जिससे मैं आपके शुद्ध भक्तों के मुखारविन्दों से आपके चरणकमलों की महिमा का गान सुन सकूँ ।

25 हे भगवान, महान पुरुष आपका महिमा-गान उत्तम श्लोकों द्वारा करते हैं। आपके चरणकमलों की प्रशंसा केसर कणों के समान है। जब महापुरुषों के मुखों से निकली दिव्य वाणी आपके चरणकमलों की केसर-धूलि की सुगन्ध का वहन करती है, तो विस्मृत जीवात्मा आपसे अपने सम्बन्ध को स्मरण करता है। इस प्रकार भक्तगण क्रमशः जीवन के वास्तविक मूल्य को समझ पाते हैं। अतः हे भगवान, मैं आपके शुद्ध भक्त के मुख से आपके विषय में सुनने का अवसर प्राप्त करने के अतिरिक्त किसी अन्य वर की कामना नहीं करता।

26 हे अत्यन्त कीर्तिमय भगवान, यदि कोई शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर आपके कार्यकलापों की कीर्ति का एक बार भी श्रवण करता है, तो जब तक कि वह पशु तुल्य न हो, वह भक्तों की संगति नहीं छोड़ता, क्योंकि कोई भी बुद्धिमान पुरुष ऐसा करने की लापरवाही नहीं करेगा। आपकी महिमा के कीर्तन और श्रवण की पूर्णता तो धन की देवी लक्ष्मीजी द्वारा तक स्वीकार की गई थीं जो आपके अनन्त कार्यकलापों तथा दिव्य महिमा को सुनने की इच्छुक रहती थीं।

27 अब मैं भगवान के चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहना और कमलधारिणी लक्ष्मीजी के समान सेवा करना चाहता हूँ, क्योंकि भगवान समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। मुझे भय है कि लक्ष्मीजी तथा मेरे बीच झगड़ा छिड़ जाएगा, क्योंकि हम दोनों एक ही सेवा में एकाग्र भाव से लगे होंगे।

28 हे जगदीश्वर, लक्ष्मीजी विश्व की माता हैं, तो भी मैं सोचता हूँ कि उनकी सेवा में हस्तक्षेप करने तथा उसी पद पर जिसके प्रति वे इतनी आसक्त हैं कार्य करने से, वे मुझसे क्रुद्ध हो सकती हैं। फिर भी मुझे आशा है कि इस भ्रम के होते हुए भी आप मेरा पक्ष लेंगे क्योंकि आप दीनवत्सल हैं और भक्त की तुच्छ सेवाओं को भी बहुत करके मानते हैं। अतः यदि वे रुष्ट भी हो जाँय तो आपको कोई हानि नहीं होगी, क्योंकि आप आत्मनिर्भर हैं, अतः उनके बिना भी आपका काम चल सकता है।

29 बड़े-बड़े साधु पुरुष जो सदा ही मुक्त रहते हैं, आपकी भक्ति करते हैं, क्योंकि भक्ति के द्वारा ही इस संसार के मोहों से छुटकारा पाया जा सकता है। हे भगवन, मुक्त जीवों द्वारा आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने का एकमात्र कारण यही हो सकता है कि ऐसे जीव आपके चरणकमलों का निरन्तर ध्यान धरते हैं।

30 हे भगवन, आपने अपने विशुद्ध भक्त से जो कुछ कहा है, वह निश्चय ही अत्यन्त मोह में डालने वाला है। आपने वेदों में जो लालच दिये हैं, वे शुद्ध भक्तों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। सामान्य लोग वेदों की अमृतवाणी से बँधकर कर्मफल से मोहित होकर पुनः पुनः सकाम कर्मों में लगे रहते हैं।

31 हे भगवन, आपकी माया के कारण इस भौतिक जगत के सभी प्राणी अपनी वास्तविक स्वाभाविक स्थिति भूल गये हैं और वे अज्ञानवश समाज, मित्रता तथा प्रेम के रूप में निरन्तर भौतिक सुख की कामना करते हैं। अतः आप मुझे किसी प्रकार का भौतिक लाभ माँगने के लिए न कहें, बल्कि जिस प्रकार पिता अपने पुत्र द्वारा माँगने की प्रतीक्षा किये बिना उसके कल्याण के लिए सब कुछ करता है, उसी प्रकार से आप भी जो मेरे हित में हो मुझे प्रदान करें।

32 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा कि पृथु महाराज की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माण्ड के साक्षी भगवान ने राजा को इस प्रकार सम्बोधित किया: हे राजन, तुम्हारी मुझमें निरन्तर भक्ति बनी रहे। ऐसे शुद्ध उद्देश्य से, जिसे तुमने बुद्धिमत्तापूर्वक व्यक्त किया है, दुर्लंघ्य माया को पार किया जा सकता है।

33 हे प्रजा के पालक राजा, अब से मेरी आज्ञा का पालन करने में सावधानी बरतना और किसी भी प्रकार दिग्भ्रमित मत होना। जो भी श्रद्धापूर्वक इस प्रकार मेरी आज्ञा का पालन करता है उसका सर्वत्र मंगल होता है।

34 मैत्रेय ने विदुर से कहा कि भगवान ने महाराज पृथु द्वारा की गई सारगर्भित प्रार्थना की भूरी-भूरी प्रशंसा की। इस प्रकार राजा द्वारा समुचित रूप से पूजित होकर भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया और प्रस्थान का निश्चय किया।

35-36 राजा पृथु ने देवताओं, ऋषियों, पितृलोक, गन्धर्वलोक, सिद्धलोक, चारणलोक, पन्नगलोक, किन्नरलोक, अप्सरालोक तथा पृथ्वीलोक और पक्षियों के लोक के वासियों की पूजा की। उन्होंने यज्ञस्थल पर उपस्थित अन्य अनेक जीवों की पूजा की। उन्होंने इन सबकी तथा भगवान के पार्षदों की मधुर वचन तथा यथासम्भव धन के द्वारा, हाथ जोड़कर पूजा की। इस उत्सव के बाद भगवान विष्णु के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए वे सभी अपने-अपने लोकों को चले गये।

37 राजा तथा वहाँ पर उपस्थित पुरोहितों के मनों को मोहित करने के बाद अच्युत भगवान परव्योम में अपने धाम वापस चले गये।

38 तत्पश्चात राजा पृथु ने समस्त देवों के परम स्वामी भगवान को सादर नमस्कार किया। यद्यपि वे भौतिक दृष्टि से देखे जाने की वस्तु नहीं हैं, फिर भी भगवान ने महाराज पृथु के नेत्रों के समक्ष अपने को प्रकट किया। भगवान को नमस्कार करके राजा अपने घर चले आये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

 

10859173656?profile=RESIZE_584x

अध्याय उन्नीस – राजा पृथु के एक सौ अश्वमेध यज्ञ (4.19)

1 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, राजा पृथु ने उस स्थान पर जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती है, एक सौ अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किए। यह भूखण्ड ब्रह्मावर्त कहलाता है, जो स्वायम्भुव मनु द्वारा शासित था।

2 जब स्वर्ग के राजा सर्वाधिक शक्तिशाली इन्द्र ने यह देखा तो उसने विचार किया कि सकाम कर्मों में राजा पृथु उससे बाजी मारने जा रहा है। अतः वह राजा पृथु द्वारा किये जा रहे यज्ञ-महोत्सव को सहन न कर सका।

3 भगवान विष्णु हर प्राणी के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित है। वे समस्त लोकों के स्वामी तथा समस्त यज्ञ-फलों के भोक्ता हैं। वे राजा पृथु द्वारा किये गये यज्ञों में साक्षात उपस्थित थे।

4 जब भगवान विष्णु यज्ञस्थल में प्रकट हुए तो उनके साथ ब्रह्माजी, शिवजी तथा सभी लोकपाल एवं उनके अनुचर भी थे। जब वे वहाँ प्रकट हुए तो गन्धर्वलोक निवासियों, ऋषियों तथा अप्सरालोक के निवासियों – सभी ने मिलकर प्रशंसा की।

5 भगवान के साथ में सिद्धलोक तथा विद्याधरलोक के वासी, दिति की समस्त सन्तानें, असुर तथा यक्षगण थे। उनके साथ सुनन्द तथा नन्द इत्यादि उनके प्रमुख पार्षद भी थे।

6 भगवान विष्णु के साथ भगवान की सेवा में सदैव लगे रहनेवाले परम भक्तगण अर्थात कपिल, नारद तथा दत्तात्रेय नामक ऋषि और साथ ही साथ सनत्कुमार इत्यादि योगेश्वर उस यज्ञ में सम्मिलित हुए।

7 हे विदुर, उस महान यज्ञ में सारी भूमि दूध देनेवाली कामधेनु बन गई और इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने से जीवन की समस्त आवश्यकताएँ पूरी होने लगीं।

8 बहती हुई नदियाँ समस्त प्रकार के स्वाद—मीठा, खट्टा, चटपटे इत्यादि – प्रदान करने लगीं तथा बड़े-बड़े वृक्ष प्रचुर मात्रा में फल तथा मधु देने लगे। गायें पर्याप्त हरी घास खाकर प्रभूत मात्रा में दूध, दही, घी तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ देने लगीं।

9 सामान्य जनों तथा समस्त लोकों के प्रमुख देवों ने राजा पृथु को तरह-तरह के उपहार लाकर प्रदान किये। समुद्र अमूल्य रत्नों से तथा पर्वत रसायनों एवं उर्वरकों से पूर्ण थे। चारों प्रकार के खाद्य पदार्थ प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होते थे।

10 राजा पृथु पुरुषोत्तम भगवान पर आश्रित थे जिन्हें अधोक्षज कहा जाता है। राजा पृथु ने इतने यज्ञ सम्पन्न किये थे कि ईश्वर की कृपा से उनका अत्यधिक उत्कर्ष हुआ था। किन्तु उनका यह ऐश्वर्य स्वर्ग के राजा इन्द्र से न सहा गया और उसने इसमें विघ्न डालने की चेष्टा की।

11 जिस समय महाराज पृथु अन्तिम अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे, तो इन्द्र ने अदृश्य होकर यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया। उसने राजा पृथु के प्रति ईर्ष्या भाव से ही ऐसा किया।

12 घोड़े को ले जाते समय राजा इन्द्र ने ऐसा वेश धारण कर रखा था जिससे वह मुक्त पुरुष जान पड़े। वास्तव में उसका यह वेश ठगी के रूप में था, क्योंकि इससे झूठे ही धर्म का बोध हो रहा था। इस प्रकार जब इन्द्र आकाश मार्ग में पहुँचा तो अत्री मुनि ने उसे देख लिया और समझ गये कि स्थिति क्या है।

13 जब अत्री मुनि ने राजा पृथु के पुत्र को राजा इन्द्र की चाल बतायी तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और “ठहरो! ठहरो!” कहते हुए इन्द्र को मारने के लिए उसका पीछा करने लगा।

14 राजा इन्द्र ने संन्यासी का कपट-वेश धारण कर रखा था, उसके सिर पर जटा-जूट था और सारा शरीर राख से पुता था। ऐसे वेश में देखकर राजा पृथु के पुत्र ने इन्द्र को धर्मात्मा तथा पवित्र संन्यासी समझा, अतः उसने उस पर अपने बाण नहीं छोड़े।

15 जब अत्री मुनि ने देखा कि राजा पृथु के पुत्र ने इन्द्र को नहीं मारा वरन उससे धोखा खाकर वह लौट आया है, तो मुनि ने पुनः उसे स्वर्ग के राजा को मारने का आदेश दिया, क्योंकि उनके विचार से इन्द्र राजा पृथु के यज्ञ में विघ्न डालकर समस्त देवताओं में सबसे अधम बन चुका था।

16 इस प्रकार सूचित किये जाने पर राजा वेन के पौत्र ने तुरन्त इन्द्र का पीछा करना प्रारम्भ किया, जो तेजी से आकाश से होकर भाग रहा था। वह उस पर अत्यन्त कुपित हुआ और उसका पीछा करने लगा मानो गृद्धराज रावण का पीछा कर रहा हो।

17 जब इन्द्र ने देखा कि पृथु का पुत्र उसका पीछा कर रहा है, तो उसने तुरन्त ही अपना कपट-वेष त्याग दिया और घोड़े को छोड़कर वह उस स्थान से अन्तर्धान हो गया। महाराज पृथु का महान वीर पुत्र घोड़े को लेकर अपने पिता के यज्ञस्थल में लौट आया।

18 हे विदुर महाशय, जब ऋषियों ने राजा पृथु के पुत्र का आश्चर्यजनक पराक्रम देखा तो सबों ने उसका नाम विजिताश्व स्वीकार किया।

19 हे विदुर, स्वर्ग का राजा तथा अत्यन्त शक्तिशाली होने के कारण इन्द्र ने तुरन्त यज्ञस्थल पर घोर अंधकार फैला दिया। इस प्रकार पूरे स्थल को प्रच्छन्न करके उसने पुनः वह घोड़ा हर लिया जो बलि-स्थल पर काष्ठ-यंत्र के समीप सोने की जंजीर से बँधा था।

20 अत्री मुनि ने राजा पृथु के पुत्र को पुनः दिखलाया कि इन्द्र आकाश से होकर भागा जा रहा है। परम वीर पृथु-पुत्र ने पुनः उसका पीछा किया। किन्तु जब उसने देखा कि उसने हाथ में जो दण्ड धारण कर रखा है उस पर खोपड़ी लटक रही है और वह पुनः संन्यासी वेष में है, तो उसने उसे मारना उचित नहीं समझा।

21 जब अत्री मुनि ने पुनः आदेश दिया तो राजा पृथु का पुत्र अत्यन्त कुपित हुआ और उसने अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया। यह देखकर राजा इन्द्र ने तुरन्त संन्यासी का वह कपट वेष त्याग दिया और घोड़े को छोड़कर अदृश्य हो गया।

22 तब परम वीर पृथु-पुत्र विजिताश्व पुनः घोड़ा लेकर अपने पिता के यज्ञस्थल पर लौट आया। उसी काल से, कुछ अल्पज्ञानी पुरुष छद्म संन्यासी का वेष धारण करने लगे हैं। राजा इन्द्र ने ही इसका सूत्रपात किया था।

23 इन्द्र ने घोड़े को चुरा ले जाने की इच्छा से संन्यासी के जो जो रूप धारण किये, वे नास्तिकवाद दर्शन के प्रतीक हैं।

24-25 इस प्रकार पृथु महाराज के यज्ञ से घोड़े को चुराने के लिए राजा इन्द्र ने कई प्रकार के संन्यास धारण किये। कुछ संन्यासी नग्न रहते हैं और कभी-कभी लाल वस्त्र धारण करते हैं – वे कापालिक कहलाते हैं। ये इनके पापकर्मों के प्रतीक मात्र हैं। ऐसे तथाकथित संन्यासी पापियों द्वारा अत्यन्त समादृत होते हैं, क्योंकि वे नास्तिक होते हैं और अपने को सही ठहराने के लिए तर्क प्रस्तुत करने में अत्यन्त पटु होते हैं। किन्तु हमें ज्ञान होना चाहिए कि ऐसे लोग ऊपर से धर्म के समर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में होते नहीं। दुर्भाग्यवश मोहग्रस्त व्यक्ति इन्हें धार्मिक मानकर इनकी ओर आकृष्ट होकर अपना जीवन विनष्ट कर लेते हैं।

26 अत्यन्त पराक्रमी महाराज पृथु ने तुरन्त अपना धनुष-बाण ले लिया और वे इन्द्र को मारने के लिए सन्नद्ध हो गये, क्योंकि इन्द्र ने इस प्रकार के अनियमित संन्यास का सूत्रपात किया था।

27 जब पुरोहितों तथा अन्य सबों ने महाराज पृथु को अत्यन्त कुपित तथा इन्द्र वध के लिए उद्यत देखा तो उन्होंने प्रार्थना की: हे महात्मा, उसे मत मारें, क्योंकि यज्ञ में केवल यज्ञ-पशु का ही वध किया जा सकता है। शास्त्रों में ऐसे ही आदेश दिये गये हैं।

28 हे राजन, आपके यज्ञ में विघ्न डालने के कारण इन्द्र का तेज वैसे ही घट चुका है। हम अभूतपूर्व वैदिक मंत्रों के द्वारा उसका आवाहन करेंगे। वह अवश्य आएगा। इस प्रकार हम अपने मंत्र-बल से उसे अग्नि में गिरा देंगे, क्योंकि वह आपका शत्रु है।

29 हे विदुर, राजा को यह सलाह दे चुकने पर, यज्ञ करने में जुटे हुए पुरोहितों ने क्रोध में आकर स्वर्ग के राजा इन्द्र का आवाहन किया। वे अग्नि में आहुति डालने ही वाले थे कि वहाँ पर ब्रह्माजी प्रकट हुए और उन्होंने यज्ञ आरम्भ करने से रोक दिया।

30 ब्रह्माजी ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया: हे याजको, आप स्वर्ग के राजा इन्द्र को नहीं मार सकते, यह कार्य आपका नहीं है। आपको जान लेना चाहिए कि इन्द्र भगवान के ही समान हैं। वस्तुतः वे भगवान के सबसे अधिक शक्तिशाली सहायक हैं। आप इस यज्ञ द्वारा समस्त देवताओं को प्रसन्न करना चाह रहे हैं, किन्तु आपको ज्ञात होना चाहिए कि ये समस्त देवता स्वर्ग के राजा इन्द्र के ही अंश हैं। तो फिर आप इस महान यज्ञ में उनका वध कैसे कर सकते हैं?

31 राजा पृथु के महान यज्ञ में विघ्न डालने तथा आपत्ति उठाने के उद्देश्य से राजा इन्द्र ने ऐसे साधन अपनाये हैं, जो भविष्य में धार्मिक जीवन के सुपथ को नष्ट कर सकते हैं। मैं इस ओर आप लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहा हूँ। यदि आप और अधिक विरोध करेंगे तो वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके अनेक अधार्मिक पद्धतियों को फैलाएगा।

32 ब्रह्माजी ने अन्त में कहा:बस, महाराज पृथु के निन्यानवे यज्ञ ही रहने दो।" फिर वे महाराज पृथु की ओर मुड़े और उनसे कहा – आप मोक्ष मार्ग से भलीभाँति परिचित हैं, अतः आपको और अधिक यज्ञ करने से क्या मिलेगा?

33 ब्रह्माजी ने कहा: आप दोनों का कल्याण हो क्योंकि आप तथा इन्द्र दोनों ही भगवान के अंश हैं। अतः आपको इन्द्र पर क्रुद्ध नहीं होना चाहिए; वह आपसे अभिन्न है।

34 हे राजन, दैवी व्यवधानों के कारण उचित रीति से आपके यज्ञ सम्पन्न न होने पर आप तनिक भी क्षुब्ध तथा चिन्तित न हों। कृपया मेरे वचनों को अति आदर भाव से ग्रहण करें। सदैव स्मरण रखें कि प्रारब्ध से जो कुछ घटित होता है उसके लिए हमें अधिक दुखी नहीं होना चाहिए। ऐसी पराजयों को सुधारने का जितना ही प्रयत्न किया जाता है, उतना ही हम भौतिकतावादी विचार के घने अंधकार में प्रवेश करते हैं।

35 ब्रह्माजी ने आगे कहा: इन यज्ञों को बन्द कीजिये क्योंकि इनके कारण इन्द्र अनेक अधर्म कर रहा है। आपको भलीभाँति ज्ञात होना चाहिए कि देवताओं में भी अनेक अवांछित कामनाएँ होती हैं।

36 जरा देखिये कि राजा इन्द्र यज्ञ के घोड़े को चुरा कर किस प्रकार यज्ञ में विघ्न डाल रहा था! उसके द्वारा प्रचारित मनोहर पापमय कार्य सामान्य जनों द्वारा आगे बढ़ाये जाते रहेंगे।

37 हे वेन-पुत्र राजा पृथु, आप भगवान विष्णु के अंश हैं। राजा वेन के उत्पाती कार्यों के कारण धर्म प्रायः लुप्त हो चुका था। आपने उचित समय पर भगवान विष्णु के रूप में अवतार लिया। निस्सन्देह, आप धर्म की रक्षा के लिए ही राजा वेन के शरीर से प्रकट हुए हैं।

38 हे प्रजा-पालक, विष्णु द्वारा प्रदत्त अपने इस अवतार के उद्देश्य पर विचार कीजिये। इन्द्र द्वारा सर्जित अधर्म अनेक अवांछित धर्मों की जननी है। अतः आप तुरन्त ही इन पाखण्डों का अन्त कर दीजिये।

39 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: जब परम गुरु ब्रह्माजी ने राजा पृथु को इस प्रकार उपदेश दिया तो उन्होंने यज्ञ करने की अपनी उत्सुकता त्याग दी और अत्यन्त स्नेहपूर्वक राजा इन्द्र से सन्धि कर ली।

40 इसके पश्चात पृथु महाराज ने स्नान किया, जो प्रथानुसार यज्ञ के अन्त में किया जाता है, और महिमायुक्त कार्यों से अत्यन्त प्रसन्न देवताओं से आशीष तथा वर प्राप्त किये।

41 आदिराज पृथु ने उस यज्ञ में उपस्थित समस्त ब्राह्मणों को अत्यन्त सम्मानपूर्वक सभी प्रकार की भेंटे प्रदान कीं। इन ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर राजा को अपनी ओर से हार्दिक शुभाशीष दिये।

42 समस्त ऋषियों तथा ब्राह्मणों ने कहा: हे शक्तिशाली राजा, आपके आमंत्रण पर सभी वर्ग के जीवों ने इस सभा में भाग लिया है। वे पितृलोक तथा स्वर्गलोकों से आये हैं, साथ ही सामान्यजन एवं ऋषिगण भी इस सभा में उपस्थित हुए हैं। अब वे सभी आपके व्यवहार तथा आपके दान से अत्यन्त संतुष्ट हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10859156274?profile=RESIZE_710x

अध्याय अठारह – पृथु महाराज द्वारा पृथ्वी का दोहन (4.18)

1 मैत्रेय ने विदुर को सम्बोधित करते हुए आगे कहा: हे विदुर, जब पृथ्वी ने स्तुति पूरी करली तब भी राजा पृथु शान्त नहीं हुए थे, उनके होंठ क्रोध से काँप रहे थे। यद्यपि पृथ्वी डरी हुई थी, किन्तु उसने धैर्य धारण करके राजा को आश्वस्त करने के लिए इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।

2 हे भगवन, आप अपने क्रोध को पूर्णतः शान्त करें और जो कुछ मैं निवेदन कर रही हूँ, उसे धैर्यपूर्वक सुनें। कृपया इस ओर ध्यान दें। मैं भले ही दीन हूँ, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति सभी स्थानों से ज्ञान के सार को ग्रहण करता है, जिस प्रकार भौंरा प्रत्येक फूल से मधु संचित करता है।

3 मानव समाज को इस जीवन में ही नहीं वरन अगले जन्म में भी लाभ पहुँचाने के लिए बड़े-बड़े ऋषियों तथा मुनियों ने जनता की सम्पन्नता के अनुकूल विभिन्न विधियों की संस्तुति की है।

4 जो कोई प्राचीन ऋषियों द्वारा बताये गए नियमों तथा आदेशों का पालन करता है, वह व्यावहारिक कार्यों में उनका उपयोग कर सकता है। ऐसा व्यक्ति सरलता से जीवन तथा सुखों का भोग कर सकता है।

5 ऐसा मूर्ख पुरुष जो कोई मनोकल्पना द्वारा अपने निजी साधन तथा माध्यम तैयार करता है और साधुओं द्वारा स्थापित दोषहीन आदेशों को मान्यता नहीं प्रदान करता, वह अपने प्रयासों में बार-बार असफल होता है।

6 हे राजन, प्राचीनकाल में ब्रह्मा ने जिन बीजों, मूलों, जड़ी-बूटियों तथा अन्नों की सृष्टि की थी वे अब उन अभक्तों द्वारा उपभोग किये जा रहे हैं, जो समस्त आत्म-ज्ञान से शून्य हैं।

7 हे राजन, अभक्तों द्वारा अन्न तथा जड़ी-बूटियों का उपयोग तो किया ही जा रहा है, मेरी भी ठीक से देखभाल नहीं की जा रही। मेरी उन राजाओं द्वारा उपेक्षा हो रही है, जो उन चोरों को दण्ड नहीं दे रहे जो अन्न का उपयोग इन्द्रियतुष्टि के लिए कर रहे हैं। फलस्वरूप मैंने उन समस्त बीजों को छिपा लिया है, जो यज्ञ सम्पन्न करने के निमित्त हैं।

8 मेरे भीतर दीर्घकाल से भीगे रहने के कारण सारे धान्य-बीज निश्चित रूप से जीर्ण हो चुके हैं। अतः आप तुरन्त आचार्यों अथवा शास्त्रों द्वारा बताई गई मानक विधि से उन्हें निकालने की व्यवस्था करें।

9-10 हे परम वीर, जीवात्माओं के रक्षक, यदि आप जनता को प्रचुर अन्न देकर उनके कष्टों का निवारण करना चाहते हैं और यदि आप मुझे दुहकर उनका पोषण करना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको उपयुक्त बछड़ा तथा दूध रखने के लिए दोहनी की व्यवस्था करनी होगी। साथ ही दुहनेवाले का भी प्रबन्ध करना होगा। चूँकि मैं अपने बछड़े के प्रति अत्यन्त वत्सला हूँगी, अतः मुझसे दुग्ध प्राप्त करने की आपकी मनोकामना पूरी हो जाएगी।

11 हे राजन, मैं आपको बता रही हूँ कि आपको समस्त भूमण्डल की सतह समतल बनानी होगी। वर्षा ऋतु न रहने पर भी इससे मुझे सहायता मिलेगी। राजा इन्द्र की कृपा से वर्षा होती है। इससे वर्षा का जल भूमण्डल पर टिका रहेगा जिससे पृथ्वी सदैव आर्द्र (नम) रहेगी और इस प्रकार से यह सभी तरह के उत्पादन के लिए शुभ होगा।

12 पृथ्वी के कल्याणकारी तथा प्रिय वचनों को राजा ने अंगीकार कर लिया। तब उन्होंने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाया और गोरूप पृथ्वी से समस्त औषधियों और अन्न का दोहन करके उन्हें अपनी अंजुली में भर लिया।

13 अन्य लोगों ने, जो महाराज पृथु के ही समान बुद्धिमान थे, पृथ्वी में से सार निकाल लिया। निस्सन्देह, प्रत्येक व्यक्ति ने राजा पृथु के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए इस अवसर का लाभ उठाया और पृथ्वी से अपनी मनोवांछित वस्तुएँ प्राप्त कीं।

14 समस्त ऋषियों ने बृहस्पति को बछड़ा बनाया और इन्द्रियों को दोहनी। उन्होंने शब्द, मन तथा श्रवण को पवित्र करनेवाले समस्त प्रकार के वैदिक ज्ञान को दुह लिया।

15 समस्त देवताओं ने स्वर्ग के राजा इन्द्र को बछड़ा बनाया और उन्होंने पृथ्वी में से सोम रस अर्थात अमृत दुह लिया। इस प्रकार वे मानसिक, शारीरिक तथा ऐन्द्रिय शक्ति में अत्यन्त बलशाली हो गये।

16 दिति के पुत्रों तथा असुरों ने असुर-कुल में उत्पन्न प्रह्लाद महाराज को बछड़ा बनाया और उन्होंने अनेक प्रकार की सुरा तथा आसव निकाल कर उसे लोहे की पात्र में रख दिया।

17 गन्धर्व लोक तथा अप्सरालोक के निवासियों ने विश्वावसु को बछड़ा बनाया और कमल पुष्प के पात्र में दूध दुहा। इस दूध ने मधुर संगीत-कला तथा सुन्दरता का रूप धारण किया।

18 श्राद्ध कर्म के मुख्य देवता एवं पितृलोक के भाग्यशाली निवासियों ने अर्यमा को बछड़ा बनाया। उन्होंने अत्यन्त श्रद्धा सहित मिट्टी के कच्चे पात्र में कव्य (पितरों को दी जानेवाली बलि) दुह लिया।

19 तत्पश्चात सिद्धलोक तथा विद्याधरलोक के वासियों ने कपिल मुनि को बछड़ा बनाया और सम्पूर्ण आकाश को पात्र बना कर अणिमादि सारी योगशक्तियाँ दुह लीं। निस्सन्देह, विद्याधरलोक के वासियों ने आकाश में उड़ने की कला प्राप्त की।

20 किम्पुरुष-लोक के वासियों ने भी मय दानव को बछड़ा बनाया और उन्होंने योगशक्तियाँ दुह लीं जिनसे मनुष्य किसी दूसरे की दृष्टि से तुरन्त ओझल हो सकता है और अन्य किसी रूप में पुनः प्रकट हो सकता है।

21 तब मांसाहार के आदी यक्षों, राक्षसों, भूतों तथा पिशाचों ने श्री शिव के अवतार रुद्र (भूतनाथ) को बछड़ा बनाया और रक्त से निर्मित पेय पदार्थों को दुहकर उन्हें कपालों से बने पात्रों में रखा।

22 तत्पश्चात फनवाले तथा बिना फनवाले साँपों, नागों, बिच्छुओं तथा विषैले पशुओं ने पृथ्वी के दूध के रूप में अपना-अपना विष दुह लिया और इस विष को साँप के बिलों में रख दिया। उन्होंने तक्षक को बछड़ा बनाया था।

23-24 गायों जैसे चौपाये पशुओं ने शिव के वाहन बैल को बछड़ा और जंगल को दुहने का पात्र बनाया। इस प्रकार उन्हें खाने के लिए ताजी हरी घास मिल गई। बाघों जैसे हिंस्र पशुओं ने सिंह को बछड़ा बनाया और इस प्रकार वे दूध के रूप में मांस प्राप्त कर सके। पक्षियों ने गरुड़ को वत्स बनाया और पृथ्वी से चर कीटों तथा अचर घासों तथा पौधों के रूप में दूध प्राप्त किया।

25 वृक्षों ने बरगद के पेड़ को बछड़ा बनाकर अनेक सुस्वादु रसों को दूध के रूप में दुह लिया। पर्वतों ने हिमालय को बछड़ा तथा पर्वत शृंगों को पात्र बनाकर नाना प्रकार की धातुएँ दुहीं।

26 पृथ्वीलोक ने सबों को अपना-अपना भोजन प्रदान किया है। राजा पृथु के काल में, पृथ्वी पूर्ण रूप से राजा के अधीन थी। अतः पृथ्वी के सभी वासी अपना-अपना बछड़ा उत्पन्न करके तथा विभिन्न प्रकार के पात्रों में अपने विशिष्ट प्रकार के दूध को रखकर अपना भोजन प्राप्त कर सके।

27 हे कुरुश्रेष्ठ विदुरजी, इस प्रकार राजा पृथु तथा अन्नभोजियों ने विभिन्न प्रकार के बछड़े उत्पन्न किये और अपने-अपने खाद्य-पदार्थों को दुह लिया। इस तरह उन्होंने विभिन्न प्रकार के खाद्य-पदार्थ प्राप्त किये जो दूध का प्रतीक हैं।

28 तत्पश्चात राजा पृथु पृथ्वी से अत्यन्त प्रसन्न हो गये क्योंकि उसने विभिन्न जीवात्माओं के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन की पूर्ति की। इस प्रकार पृथ्वी के प्रति राजा स्नेहिल हो उठा, मानों वह उसकी पुत्री हो।

29 फिर राजाधिराज महाराज पृथु ने अपने बाण की शक्ति से पर्वतों को तोड़कर भूमण्डल के समस्त ऊबड़-खाबड़ स्थानों को समतल कर दिया। उनकी कृपा से भूमण्डल की पूरी सतह प्रायः सपाट हो गई।

30 राजा पृथु अपनी सारी प्रजा के लिए पिता तुल्य था। वह उन्हें उचित जीविका देने में प्रत्यक्ष रूप से व्यस्त था। उसने भूमण्डल की सतह को समतल करके जितने भी निवास – स्थानों की आवश्यकता थी उनके लिए विभिन्न स्थल नियत कर दिए।

31 इस प्रकार राजा ने अनेक प्रकार के गाँवों, बस्तियों, नगरों की स्थापना की और अनेक किले, ग्वालों की बस्तियाँ, पशुशालाएँ, छावनियाँ, खानें, खेतिहर बस्तियाँ तथा पहाड़ी गाँव बनवाये।

32 राजा पृथु के शासन के पूर्व विभिन्न नगरों, ग्रामों, गोचरों इत्यादि की सुनियोजित व्यवस्था न थी। सब कुछ तितर-बितर था और हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार अपना वास-स्थान बनाता था। किन्तु राजा पृथु के काल से नगरों तथा ग्रामों की योजनाएँ बनने लगीं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10859140870?profile=RESIZE_584x

भगवान कृष्ण को अवतारी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है, “जिनसे समस्त अवतार उद्भूत होते हैं।" भगवद गीता (10.8) में भगवान कृष्ण कहते हैं – अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते – मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का उद्गम हूँ, हर वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। -तात्पर्य श्रीमद भागवतम (4.17.6-7) ~श्रील प्रभुपाद~!

अध्याय सत्रह – महाराज पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना (4.17)

1 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: इस प्रकार उन गायकों ने जो महाराज पृथु की महिमा का गायन कर रहे थे, उनके गुणों तथा वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन किया। अन्त में महाराज पृथु ने सम्मानपूर्वक उन्हें अनेक भेंटें प्रदान कीं और उनकी यथेष्ट पूजा की।

2 राजा पृथु ने ब्राह्मण तथा अन्य जातियों के समस्त नायकों, अपने नौकरों, मंत्रियों, पुरोहितों, नागरिकों, सामान्य देशवासियों, प्रशंसकों तथा अन्य सभी का सम्मान किया। इस प्रकार सभी अत्यन्त प्रसन्न हो गये।

3 विदुर ने मैत्रेय ऋषि से पूछा: हे ब्राह्मण, जब धरती माता अनेक रूप धारण कर सकती है, तो फिर उसने गाय का ही रूप क्यों ग्रहण किया? और जब राजा पृथु ने उसको दुहा तो कौन बछड़ा बना और दुहने का पात्र क्या था?

4 पृथ्वी की सतह स्वभावतः कहीं ऊँची है, तो कहीं नीची। तो फिर राजा पृथु ने पृथ्वी की सतह को कैसे समतल बनाया, और स्वर्ग के राजा इन्द्र ने यज्ञ के घोड़े को क्यों चुराया?

5 महान साधु राजा, महाराज पृथु, ने परम वैदिक विद्वान सनत्कुमार से ज्ञान प्राप्त किया। अपने जीवन में इस ज्ञान को व्यवहृत करने के लिए ज्ञान प्राप्त करके उस राजा ने इच्छित गन्तव्य किस प्रकार प्राप्त किया?

6-7 पृथु महाराज भगवान कृष्ण की शक्तियों के शक्त्यावेश अवतार थे। फलतः उनके कार्यों से सम्बन्धित कोई भी कथा सुनने में मनभावन लगती है और कल्याणकर होती है। मैं तो आपका तथा अधोक्षज भगवान का भी भक्त हूँ। अतः आप उन राजा पृथु की सभी कथाएँ सुनाएँ जिन्होंने राजा वेन के पुत्र के रूप में गोरूप धरती का दोहन किया।

8 सूत गोस्वामी ने आगे कहा- जब विदुर को भगवान कृष्ण के विविध अवतारों के कार्यकलापों को सुनने की प्रेरणा प्राप्त हुई तो मैत्रेय ने विदुर की प्रशंसा की क्योंकि वे स्वयं उनसे प्रोत्साहित और अत्यधिक प्रसन्न थे। तब मैत्रेय ने इस प्रकार कहा।

9 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर जब ब्राह्मणों तथा ऋषियों ने राजा पृथु को राजसिंहासन पर बिठा दिया तथा उन्हें नागरिकों का रक्षक घोषित किया तो उस समय अन्न का अभाव था। नागरिक भूख के मारे सूखकर काँटा हो गये थे, अतः वे राजा के समक्ष आये और उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति कह सुनाई।

10-11 हे राजन, जिस प्रकार वृक्ष के कोटर में लगी आग वृक्ष को धीरे-धीरे सुखा देती है, उसी प्रकार हम जठराग्नि (भूख) से सूख रहे हैं। आप शरणागत जीवों के रक्षक हैं और आप हमें वृत्ति (जीविका) देने के लिए नियुक्त हुए हैं। अतः हम सभी आपके संरक्षण में आये हैं। आप केवल राजा ही नहीं हैं, आप भगवान के अवतार भी हैं। वास्तविक रूप में आप राजाओं के राजा हैं। आप हमें सभी प्रकार की जीविकाएँ प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि आप हमारी जीविका के स्वामी हैं। अतः हे राजराजेश्वर, उचित अन्न वितरण के द्वारा हमारी भूख को शान्त करने की व्यवस्था कीजिये। आप हमारी रक्षा करें जिससे हम अन्न के अभाव से मरें नहीं।

12 नागरिकों के इस शोकालाप को सुनकर तथा उनकी दयनीय स्थिति देखकर राजा ने दीर्घकाल तक इस विषय पर विचार किया कि क्या वह मूलभूत कारणों को खोज सकता है?

13 ऐसा निश्चय करके, राजा ने अपना धनुष-बाण उठाया और पृथ्वी की ओर उसी प्रकार लक्षित किया जिस प्रकार शिवजी क्रोध से सारे जगत का विनाश कर देते हैं।

14 जब पृथ्वी ने देखा कि राजा पृथु उसे मारने के लिए धनुष-बाण धारण कर रहे हैं, तो वह भय के मारे काँपने लगी। उसके बाद वह उसी प्रकार भागी जिस प्रकार शिकारी द्वारा पीछा किये जाने पर हिरणी तेजी से भागती है। राजा के भय से पृथ्वी ने गाय का रूप धारण कर लिया और भागने लगी।

15 यह देखकर महाराज पृथु अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उनकी आँखें प्रातःकालीन सूर्य की भाँति लाल-लाल हो गई। अपने धनुष पर बाण चढ़ाये वे जहाँ-जहाँ गोरूप पृथ्वी दौड़कर जाती, वहीं-वहीं उसका पीछा करते रहे।

16 गोरूप पृथ्वी स्वर्ग तथा पृथ्वी के बीच अन्तरिक्ष में इधर-उधर दौड़ने लगी और जहाँ भी वह जाती, राजा अपना धनुष-बाण लिए उसका पीछा करते रहे।

17 जिस प्रकार मनुष्य मृत्यु के क्रूर हाथों से बच नहीं सकता, उसी प्रकार गोरूप पृथ्वी वेन के पुत्र से नहीं बच सकी। अन्त में पृथ्वी भयभीत होकर और दुखित हृदय से असहायावस्था में पीछे की ओर मुड़ी।

18 परम ऐश्वर्यवान राजा पृथु को धर्म के ज्ञाता तथा शरणागतों के आश्रय के रूप में सम्बोधित करते हुए उसने कहा--कृपया मुझे बचाइये। आप समस्त जीवात्माओं के रक्षक हैं। अब आप इस लोक के राजा के रूप में पदस्थ हैं।

19 गोरूप पृथ्वी राजा से अनुनय-विनय करती रही – मैं अत्यन्त दीन हूँ और मैंने कोई पापकर्म नहीं किया। तो फिर आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं? आप धर्म के नियमों को जाननेवाले हैं, तो फिर आप क्यों मुझसे द्वेष रख रहे हैं और क्यों एक स्त्री को मारने के लिए इस प्रकार उद्यत हैं?

20 यदि स्त्री कोई पापकर्म भी करे तो मनुष्य को उस पर हाथ नहीं उठाना चाहिए। हे राजन, आप तो इतने दयालु हैं कि आपके विषय में क्या कहा जाये? आप रक्षक हैं और दीनवत्सल हैं।

21 गोरूप पृथ्वी ने आगे कहा: हे राजन, मैं एक सुदृढ़ नाव के तुल्य हूँ और समस्त संसार की सारी सामग्री मुझी पर टिकी है। यदि आप मुझे छिन्न कर देंगे तो फिर आप अपने को तथा अपनी प्रजा को डूबने से किस प्रकार बचा पायेंगे?

22 राजा पृथु ने पृथ्वी को उत्तर दिया: हे पृथ्वी, तुमने मेरी आज्ञा तथा नियमों का उल्लंघन किया है। तुमने हमारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों में देवता के रूप में अपना अंश ग्रहण किया है, किन्तु बदले में पर्याप्त अन्न नहीं उत्पन्न किया। इस कारण मैं तुम्हारा वध कर दूँगा।

23 यद्यपि तुम नित्य ही हरी घास चरती हो, किन्तु तुम हमारे उपयोग के लिए अपने थन को दूध से भरती नहीं हो। चूँकि तुम जान-बुझ कर अपराध कर रही हो, अतः तुम्हारे द्वारा गाय का रूप धारण करने के कारण तुम्हें दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता।

24 तुमने इस तरह अपनी बुद्धि गँवा दी है कि मेरी आज्ञा के होते हुए भी तुम जड़ी-बूटियों तथा अन्नों के बीज नहीं दे रही हो, जिन्हें पूर्वकाल में ब्रह्मा ने उत्पन्न किया था और जो तुम्हारे भीतर छिपे हुए हैं।

25 अब मैं अपने बाणों से तुम्हारा खण्ड-खण्ड कर दूँगा और तुम्हारे मांस से क्षुधार्त नागरिकों को, जो अन्न के अभाव में त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, संतुष्ट करूँगा। इस प्रकार मैं अपने राज्य की प्रजा का बिलखना दूर करूँगा।

26 ऐसा कोई भी क्रूर व्यक्ति–चाहे वह पुरुष, स्त्री या नपुंसक हो–जो अपनी निजी भरण-पोषण में ही रुचि रखता है और दूसरे जीवों पर दया नहीं दिखाता, राजा द्वारा वध्य है। ऐसा वध कभी भी वास्तविक वध नहीं माना जाता। तुम गर्व से अत्यन्त फुली हुई हो और प्रायः उन्मत सी हो गई हो।

27 इस समय तुमने अपनी योगशक्ति से गाय का रूप धारण कर रखा है, तो भी मैं तुम्हें अनाज के दानों की भाँति खण्ड-खण्ड कर दूँगा और अपने योग-बल से सारी जनता को धारण करूँगा (सँभाल लूँगा)

28 इस समय पृथु महाराज ठीक यमराज जैसे बन गये और उनका सारा शरीर अत्यन्त क्रोधित प्रतीत होने लगा। दूसरे शब्दों में, वे साक्षात क्रोध लग रहे थे। उनके शब्द सुनकर पृथ्वी काँपने लगी। उसने आत्म-समर्पण कर दिया और हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगी।

29 पृथ्वी ने कहा: हे भगवन, आपकी स्थिति दिव्य है और आपने अपनी माया के द्वारा तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया से स्वयं को नाना रूपों तथा योनियों में विस्तारित कर रखा है। अन्य कुछ स्वामियों से भिन्न आप सदैव दिव्य स्थिति में रहते हैं और भौतिक सृष्टि द्वारा प्रभावित नहीं होते जो विभिन्न भौतिक अन्योन्य क्रियाओं से प्रभावित है। फलतः आप भौतिक कर्मों से मोहग्रस्त नहीं होते।

30 पृथ्वी ने आगे कहा: हे भगवन, आप भौतिक सृष्टि के पूर्ण संचालक हैं। आपने इस दृश्य जगत की तथा तीन गुणों की उत्पत्ति की है, अतः आपने मुझ पृथ्वी को बनाया है, जो समस्त जीवात्माओं की आश्रय है। फिर भी हे भगवान, आप परम स्वतंत्र हैं। अब जबकि चूँकि आप मेरे समक्ष उपस्थित होकर मुझे अपने हथियारों से मारने के लिए उद्यत हैं। आप मुझे बताएँ कि मैं किसकी शरण गहूँ और मुझे शरण दे भी कौन सकता है?

31 आपने सृष्टि के प्रारम्भ में अपनी अकल्पनीय शक्ति से इन समस्त जड़ तथा चेतन जीवों को उत्पन्न किया है। अब आप उसी शक्ति से जीवात्माओं की रक्षा करने के लिए उद्यत हैं। आप धर्म के नियमों के परम रक्षक हैं। आप मुझ गोरूप को मारने के लिए इतने उत्सुक क्यों हैं?

32 हे भगवन, यद्यपि आप एक हैं, तो भी अपनी अकल्पनीय शक्तियों से आपने अपने को अनेक रूपों में विस्तारित कर रखा है। आपने इस ब्रह्माण्ड की रचना ब्रह्मा के माध्यम से की है। अतः आप प्रत्यक्ष: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। जो लोग अधिक अनुभवी नहीं हैं वे आपके दिव्य कार्यों को नहीं समझ सकते क्योंकि वे व्यक्ति आपकी माया से आवृत हैं।

33 हे भगवन, आप अपनी शक्तियों द्वारा भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों, इनके नियामक देवों, बुद्धि, अहंकार तथा प्रत्येक वस्तु के आदि कारण हैं। अपनी शक्ति से आप सम्पूर्ण दृश्य जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। आपकी ही शक्ति से प्रत्येक वस्तु कभी प्रकट होती है और कभी प्रकट नहीं होती है। अतः आप समस्त कारणों के कारण पुरषोत्तम भगवान हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ।

34 हे भगवन, आप अजन्मा हैं। एक बार आपने आदि सूकर (वराह) रूप में मुझे ब्रह्माण्ड के नीचे के जल से बाहर निकाला था। आपने संसार के पालन हेतु अपनी शक्ति से सभी भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों तथा मन की उत्पत्ति की है।

35 हे भगवन, इस प्रकार आपने एक बार जल-राशि से मेरा उद्धार किया, जिससे आपका नाम धराधर, अर्थात पृथ्वी को धारण करनेवाला पड़ा। तो भी आप इस समय, महान वीर के रूप में अपने तीखे बाणों से मुझे मारने के लिए उद्यत हैं। किन्तु मैं तो जल की नाव के सदृश हूँ, जो प्रत्येक वस्तु को तैराये रखती है।

36 हे भगवन, मैं भी आपकी त्रिगुणात्मक शक्ति से उत्पन्न हूँ, फलतः मैं आपकी गतिविधियों से भ्रमित हूँ। जब आपके भक्तों के कार्यकलाप समझ के परे हैं, तो फिर आपकी लीलाओं के विषय में क्या कहा जाये? इस प्रकार प्रत्येक वस्तु हमें विरोधाभासी और आश्चर्यजनक लगती है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…