अध्याय पच्चीस - राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन (4.25)
1 महर्षि मैत्रेय ने विदुर से आगे कहा: हे विदुर, शिवजी ने इस प्रकार से राजा बर्हिषत के पुत्रों को उपदेश दिया। राजकुमारों ने भी शिवजी की अगाध भक्ति के साथ श्रद्धापूर्वक पूजा की। अन्त में वे राजकुमारों की दृष्टि से ओझल हो गये।
2 सभी प्रचेतागण दस हजार वर्षों तक जल के भीतर खड़े रहकर शिवजी द्वारा दिये गये स्तोत्र का जप करते रहे।
3 जब राजकुमार जल के भीतर कठिन तपस्या कर रहे थे तो उनके पिता विभिन्न प्रकार के सकाम कर्म सम्पन्न करने में रत थे। उसी समय समस्त आध्यात्मिक जीवन के ज्ञाता तथा शिक्षक परम सन्त नारद ने राजा पर अत्यन्त कृपालु होकर उन्हें आध्यात्मिक जीवन के विषय में उपदेश देने का निश्चय किया।
4 नारद मुनि ने राजा प्राचीन बर्हिषत से पूछा: हे राजन, तुम इन सकाम कर्मों के द्वारा कौन सी इच्छा पूरी करना चाहते हो? जीवन का मुख्य उद्देश्य तो समस्त कष्टों से छुटकारा पाना तथा सुख भोगना है, किन्तु इन दोनों को सकाम कर्म द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।
5 राजा ने उत्तर दिया: हे महात्मन नारद, मेरी बुद्धि सकाम कर्मों में उलझी हुई है, अतः मुझे अपने जीवन के चरम लक्ष्य का ज्ञान नहीं रह गया है। कृपा करके मुझे विशुद्ध ज्ञान प्रदान कीजिये जिससे मैं सकाम कर्मों के बन्धन से छुटकारा पा सकूँ ।
6 जो तथाकथित सुन्दर जीवन अर्थात सन्तान तथा स्त्री में फँस कर गृहस्थ के रूप में रहने तथा सम्पत्ति के पीछे लगे रहने में ही रुचि रखते हैं, वे इन्हीं वस्तुओं को जीवन का चरम लक्ष्य मान बैठते हैं। ऐसे लोग जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किये बिना इस संसार में ही विभिन्न देहों में घूमते रहते हैं।
7 नारद मुनि ने कहा: हे प्रजापति, हे राजन, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
8 ये सारे पशु तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिससे वे उन पर किये गए आघातों का बदला ले सकें। तुम्हारी मृत्यु के बाद वे अत्यन्त क्रोधपूर्वक तुम्हारे शरीर को लोहे के समान अपने सींगों से बेध डालेंगे।
9 इस सम्बन्ध में मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाना चाहता हूँ जो पुरुञ्जन नामक राजा के चरित से सम्बन्धित है। इसे ध्यानपूर्वक सुनो।
10 हे राजन, प्राचीन काल में पुरुञ्जन नामक एक राजा था, जो अपने महान कार्यों के लिए विख्यात था। उसके एक मित्र था जिसका नाम अविज्ञात (अज्ञात) था। अविज्ञात के कार्यों को कोई नहीं समझ सकता था।
11 राजा पुरुञ्जन अपने रहने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने लगा और इस तरह वह सारा संसार घूम आया। फिर भी कड़ी दौड़-धूप के बाद भी उसे अपनी इच्छा के अनुकूल कोई स्थान नहीं मिला। अन्त में वह अत्यन्त खिन्न और निराश हो उठा।
12 राजा पुरञ्जन की इन्द्रियभोग की लालसाएँ असीम थीं, अतः वह सारे संसार में ऐसा स्थान खोजने के लिए भ्रमण करता रहा जहाँ उसकी इच्छाएँ पूरी हो सकें। किन्तु हाय! उसे सर्वत्र अभाव की अनुभूति ही प्रतीत हुई।
13 एक बार, इस प्रकार से विचरण करते हुए, उसने हिमालय पर्वत के दक्षिण में, भारतवर्ष नामक देश में एक नगर देखा जिसमें चारों ओर नौ दरवाजे थे और जो समस्त सुलक्षणों से युक्त था।
14 वह नगर चारों ओर दीवालों तथा उद्यानों से घिरा था और इसके भीतर मीनारें, नहरें, खिड़कियाँ तथा झरोखे थे। वहाँ के घर सोने, चाँदी तथा लोहे के बने गुम्बदों से अलंकृत थे।
15 उस नगर के घरों की फर्श नीलम, स्फटिक, हीरे, मोती, पन्ना तथा लाल से निर्मित थीं। घरों की कान्ति के कारण यह नगर भोगवती नामक स्वर्गीय नगरी के समान लग रहा था।
16 उस नगर में अनेक सभाभवन, चौराहे, सड़कें, खान-पान-गृह, द्यूतक्रीड़ा-स्थल, बाजार, विश्रामालय, झण्डियाँ, पताकाएँ तथा सुन्दर उद्यान थे। वह नगर इन सबसे घिरा था।
17 उस नगर के बाहर एक सुन्दर सरोवर के चारों ओर अनेक सुन्दर वृक्ष तथा लताएँ थीं। उस सरोवर में पक्षियों तथा भौंरों के झुण्ड के झुण्ड थे, जो सदैव कूजते तथा गुंजार करते थे।
18 सरोवर के तट पर खड़े हुए वृक्षों की शाखाएँ उन जलकणों को ग्रहण कर रही थीं जो हिमाच्छादित पर्वत से गिरने वाले झरनों से वासन्ती वायु द्वारा ले जाये जा रहे थे।
19 ऐसे वातावरण में वन के पशु भी मुनियों के समान ही अहिंसक एवं ईर्ष्याहीन हो गए थे, अतः वे किसी पर आक्रमण नहीं करते थे। यही नहीं, सर्वत्र कोयलें कूक रही थीं। उस रास्ते से निकलने वाले किसी भी पथिक को मानो उस सुन्दर उद्यान में विश्राम करने का निमंत्रण दिया जा रहा हो।
20 उस अद्भुत उद्यान में विचरण करते हुए राजा पुरञ्जन ने अचानक एक सुन्दर स्त्री देखी जो अनायास ही चली आ रही थी। जिसके साथ दस नौकर थे और प्रत्येक नौकर के साथ सैकड़ों पत्नियाँ थीं।
21 वह स्त्री पाँच फनों वाले एक सर्प द्वारा चारों ओर से रक्षित थी। वह अत्यन्त सुन्दरी तथा तरुणी थी और उपयुक्त पति खोजने के लिए अत्यधिक उत्सुक प्रतीत हो रही थी।
22 उस स्त्री की नाक, दाँत तथा मस्तक सभी अतीव सुन्दर थे। उसके कान भी समान रूप से सुन्दर थे और चमचमाते कुण्डलों से सुशोभित थे।
23 उस स्त्री की कमर अत्यन्त सुन्दर थी, वह पीली साड़ी और सुनहरी करधनी पहने थी। चलते समय उसके नूपुर खनक रहे थे। वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो स्वर्ग की निवासिनी हो।
24 वह स्त्री हाथी के समान चलती हुई लज्जावश, अपनी साड़ी के अंचल से अपने वक्षस्थल को बारम्बार ढकने का प्रयास कर रही थी।
25 वीर पुरञ्जन उस सुन्दर रमणी की भौंहों तथा मुख की मुसकान से अत्यधिक आकृष्ट हुआ, जब वह लजाती हुई हँसी तो पुरञ्जन को और भी सुन्दर लगी, अतः वह उसको सम्बोधित करने से अपने को रोक न सका।
26 हे कमलनयनी, कृपा करके मुझे बताओ की तुम कहाँ से आ रही हो, कौन हो और किसकी पुत्री हो? तुम अत्यन्त साध्वी लगती हो। यहाँ आने का तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तुम क्या करना चाह रही हो? कृपया ये सारी बातें मुझसे कहो।
27 हे कमलनयनी, तुम्हारे साथ के ग्यारह बलिष्ठ अंगरक्षक और ये दस विशिष्ट सेवक कौन है? इन दस सेवकों के पीछे-पीछे ये स्त्रियाँ कौन हैं तथा तुम्हारे आगे-आगे चलने वाला यह सर्प कौन है?
28 हे सुन्दर बाला, तुम साक्षात लक्ष्मी या भगवान शिव की पत्नी भवानी अथवा ब्रह्मा की पत्नी अर्थात विद्या की देवी सरस्वती के समान हो। यद्यपि तुम अवश्यमेव इनमें से एक हो, किन्तु मैं तुम्हें इस वन में अकेले विचरण करते देख रहा हूँ। निस्सन्देह, तुम मुनियों की भाँति मौन हो। ऐसा तो नहीं है कि तुम अपने पति को खोज रही हो? चाहे तुम्हारा पति जो कोई भी हो, किन्तु जिस तन्मयता से तुम उसे खोज रही हो यह देखकर उसे सारे ऐश्वर्य प्राप्त हो जाएँगे। मैं सोचता हूँ कि तुम लक्ष्मी हो, किन्तु तुम्हारे हाथ में कमल पुष्प नहीं है, अतः मैं पूछ रहा हूँ कि तुमने उसे कहाँ फेंक दिया?
29 हे परम सौभाग्यशालिनी, ऐसा लगता है कि मैंने जिन स्त्रियों के नाम गिनाये हैं उनमें से तुम कोई नहीं हो, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारे पाँव पृथ्वी का स्पर्श कर रहे हैं। किन्तु यदि तुम इस लोक की कोई सुन्दरी हो, तो जिस प्रकार लक्ष्मीजी विष्णु के साथ वैकुण्ठलोक की श्रीवृद्धि करती हैं, उसी प्रकार तुम भी मेरी संगति करके इस नगरी की सुन्दरता बढ़ाओ। तुम्हें ज्ञात हो कि मैं महान वीर हूँ और इस लोक का अत्यन्त पराक्रमी राजा हूँ।
30 सचमुच तुम्हारी चितवन ने आज मेरे मन को अत्यन्त विचलित कर दिया है। अतः हे सुन्दरी, मैं तुमसे कृपा की याचना करता हूँ।
31 हे सुन्दरी, सुन्दर भौंहों तथा आँखों से युक्त तुम्हारा मुख अत्यन्त सुन्दर है, जिस पर नीले केश बिखरे हुए हैं। साथ ही तुम्हारे मुख से मधुर ध्वनि निकल रही है। फिर भी तुम लज्जा से इतनी आवृत हो कि मेरी ओर देख नहीं पा रही। अतः हे सुन्दरी, मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम हँसो और अपना सिर उठाकर मुझे देखो तो।
32 नारद ने आगे कहा: हे राजन, जब राजा उस सुन्दरी का स्पर्श करने तथा उसका भोग करने के लिए अत्यधिक मोहित एवं अधीर हो उठा तो वह बाला भी उसके शब्दों से आकृष्ट हुई और उसने हँसते हुए उसकी याचना स्वीकार कर ली। इस समय तक वह राजा के प्रति निश्चय ही आकृष्ट हो चुकी थी।
33 उस युवती ने कहा: हे मनुष्यश्रेष्ठ, मैं नहीं जानती कि मुझे किसने उत्पन्न किया है? मैं तुम्हें यह ठीक-ठाक नहीं बता सकती। न ही मैं अपने या दूसरों के गोत्र के नामों को जानती हूँ।
34 हे वीर, हम इतना ही जानते हैं कि हम इस स्थान में हैं। हम यह नहीं जानते कि आगे क्या होगा। दरअसल, हम इतने मूर्ख हैं कि यह भी जानने का प्रयत्न नहीं करते कि हमारे रहने के लिए किसने इतना सुन्दर स्थान बनाया है?
35 हे भद्र पुरुष, ये सारे पुरुष तथा स्त्रियाँ जो मेरे साथ हैं, मेरे मित्र हैं और यह साँप सदैव जागता रहता है तथा मेरे सोते समय भी इस पुरी की रक्षा करता है। मैं इतना ही जानती हूँ, इसके आगे कुछ भी नहीं जानती।
36 हे शत्रुसंहारक, तुम यहाँ पर आये, यह मेरे लिए अत्यन्त सौभाग्य की बात है। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने की उत्कण्ठा है, अतः मैं तथा मेरे सभी मित्र तुम्हारी इच्छाओं को पूरा करने का भरसक प्रयास करेंगे।
37 हे स्वामी, मैंने तुम्हारे लिए ही इस नौ द्वारों वाली नगरी की व्यवस्था की है, जिससे सभी प्रकार से तुम्हारी इन्द्रिय-तुष्टि हो सके। तुम यहाँ सौ वर्षों तक रह सकते हो और तुम्हें भोग की सारी सामग्री प्रदान की जायेगी।
38 भला मैं अन्यों के साथ कैसे रमण करने की अपेक्षा कर सकती हूँ, क्योंकि न तो उन्हें रति का ज्ञान है, न वे जीवित अवस्था में अथवा मरने के बाद इस जीवन का भोग करना जानते हैं? ऐसे मूर्ख व्यक्ति पशुतुल्य हैं क्योंकि वे इन्द्रिय-भोग की क्रिया को न इस जीवन में और न ही मृत्यु के उपरान्त जानते हैं।
39 सुन्दरी ने आगे कहा: इस संसार में गृहस्थ जीवन में ही धर्म, अर्थ, काम तथा पुत्र-पौत्र इत्यादि सन्ततियाँ उत्पन्न करने का सारा सुख है। इसके पश्चात चाहे तो मोक्ष तथा भौतिक यश भी प्राप्त किया जा सकता है। गृहस्थ ही यज्ञ के फल का रस ग्रहण कर सकता है, जिससे उसे श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है। योगियों (यतियों) के लिए यह भौतिक सुख अज्ञात जैसा है। वे ऐसे सुख की कल्पना भी नहीं कर सकते।
40 अधिकारियों के अनुसार गृहस्थ जीवन न केवल अपने को वरन समस्त पितरों, देवताओं, ऋषियों, साधु पुरुषों तथा अन्य सबों को अच्छा लगने वाला है। इस प्रकार गृहस्थ जीवन अत्यन्त उपयोगी है।
41 हे वीर पुरुष, इस संसार में ऐसी कौन (स्त्री) होगी जो तुम जैसे पति को स्वीकार नहीं करेगी? तुम इतने प्रसिद्ध, उदार, सुन्दर तथा सुलभ हो।
42 हे महाबाहु, इस संसार में ऐसा कौन है, जो सर्प के शरीर जैसी तुम्हारी भुजाओं से आकृष्ट न हो जाये? वास्तव में तुम अपनी मोहक मुस्कान तथा अपनी छेड़छाड़ युक्त दया से हम जैसी अनाथ स्त्रियों के सन्ताप को दूर करते हो। हम सोचती हैं कि तुम केवल हमारे हित के लिए ही पृथ्वी पर विचरण कर रहे हो।
43 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, वे दोनों--स्त्री तथा पुरुष – एक दूसरे का पारस्परिक सौहार्द द्वारा समर्थन करते हुए उस नगरी में प्रविष्ट हुए और उन्होंने एक सौ वर्षों तक जीवन का सुख भोगा ।
44 राजा पुरञ्जन की महिमा तथा महिमामय कार्यों का गान अनेक चारण किया करते थे। ग्रीष्म ऋतु में जब बहुत गर्मी पड़ती तो वह जलाशय में प्रवेश करता था। उसके चारों ओर अनेक स्त्रियाँ होती थीं और वह उनके संग आनन्द उठाता।
45 उस नगरी के नौ द्वारों में से सात तो भूतल पर थे और दो पृथ्वी के नीचे थे। कुल नौ द्वार बनाए गए थे और ये सभी द्वार भिन्न-भिन्न स्थानों को जाते थे। इन सारे द्वारों का उपयोग उस नगरी का अधीक्षक करता था।
46 हे राजन, नौ द्वारों में से पाँच पूर्व की ओर, एक उत्तर तथा एक दक्षिण दिशा को और दो पश्चिम की ओर जाते थे। अब मैं इन विभिन्न द्वारों के नाम बताने का प्रयास करूँगा।
47 खद्योता तथा आविर्मुखी नाम के दो द्वार पूर्व के ओर स्थित थे, किन्तु वे दोनों एक स्थान पर ही बनाये गये थे। राजा इन दोनों द्वारों से होकर विभ्राजित नामक नगर में अपने मित्र द्युमान के साथ जाया करता था।
48 इसी प्रकार पूर्व में नलिनी तथा नालिनी नामक (अन्य) दो द्वार थे और ये भी एक स्थान पर बनाये गये थे। इन द्वारों से राजा अपने मित्र अवधूत के साथ सौरभ नगर को जाया करता था।
49 पूर्व दिशा में स्थित पाँचवें द्वार का नाम मुख्या अर्थात मुख्य था। इस द्वार से वह रसज्ञ तथा विपण नामक दो मित्रों साथ बहूदन तथा आपण नामक दो स्थानों को जाता था।
50 नगर के दक्षिणी द्वार का नाम पितृहू था, जिससे होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र श्रुतधर के साथ दक्षिण-पञ्चाल नामक नगर देखने जाया करता था।
51 उत्तर दिशा में देवहू नामक द्वार था जिससे होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र श्रुतधर के साथ उत्तर-पञ्चाल नामक स्थान को जाया करता था।
53 पश्चिम दिशा में आसुरी नामक एक द्वार था, जिससे होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र दुर्मद के साथ ग्रामक नाम की नगरी को जाया करता था।
53 पश्चिम दिशा का दूसरा द्वार निर्ऋति कहलाता था। पुरञ्जन इस द्वार से होकर अपने मित्र लुब्धक के साथ वैशस नामक स्थान को जाया करता था।
54 इस नगरी के अनेक निवासियों में निर्वाक तथा पेशस्कृत नामक दो व्यक्ति थे। यद्यपि राजा पुरञ्जन आँख वाले व्यक्तियों (दिठियारों) का शासक था, किन्तु वह इन दोनों अन्धों के साथ रहता था। वह उनके साथ जहाँ-तहाँ जाता और नानाविध कार्य किया करता था।
55 कभी-कभी वह अपने एक मुख्य दास (मन) विषूचीन के साथ अपने अन्तःपुर जाया करता था। उस समय उसे पत्नी तथा पुत्रों से मोह, सन्तोष तथा हर्ष उत्पन्न होते थे।
56 इस प्रकार विभिन्न प्रकार के मानसिक ऊहापोह तथा सकाम कर्मों में फँसा रहकर राजा पुरञ्जन पूर्ण रूप से भौतिक बुद्धि के वश में हो गया और ठगा गया। वह दरअसल अपनी रानी की समस्त इच्छाओं को पूरा किया करता था।
57-61 जब रानी मद्यपान करती तो राजा पुरञ्जन भी मदिरा पीने में व्यस्त रहता। जब रानी भोजन करती तो वह भी उसके साथ-साथ खाता; जब वह चबाती तो वह भी साथ-साथ चबाता। जब रानी गाती तो राजा भी गाता। इसी प्रकार जब रानी रोती तो वह भी रोता और जब-जब रानी हँसती तो वह भी हँसता। जब रानी अनाप-शनाप बोलती तो वह भी उसी तरह बोलता करता और जब रानी चलती तो वह उसके पीछे हो लेता। जब रानी शान्त भाव से खड़ी होती तो वह भी खड़ा रहता और जब रानी बिस्तर में लेट जाती तो वह भी लेट जाता। जब रानी बैठती तो वह भी बैठ जाता और जब रानी कुछ सुनती तो वह भी वही सुनता। जब रानी कोई वस्तु देखती तो वह भी उसी को देखता और जब रानी कुछ सूँघती तो राजा भी उसी को सूँघने लगता। जब रानी कुछ छूती तो राजा भी उसे छूता था। जब उसकी प्रिय रानी शोकमग्न होती तो बेचारा राजा भी शोक में उसका साथ देता। इसी तरह रानी को जब सुख मिलता उसका भोग राजा भी करता और जब रानी संतुष्ट हो जाती तो राजा भी तुष्टि का अनुभव करता।
62 इस प्रकार राजा पुरञ्जन अपनी सुन्दर पत्नी के द्वारा बन्दी बना हुआ था और ठगा जा रहा था। वास्तव में वह संसार में अपने सम्पूर्ण अस्तित्व में ठगा जा रहा था। बेचारा वह मूर्ख राजा अपनी इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी के वश में उसी प्रकार रहता जिस प्रकार कोई पालतू जानवर अपने स्वामी की इच्छानुसार नाचता रहता है।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏