Subudhi Madhav Das's Posts (7)

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Yes, if the purpose of mediatation, practice of spirituality, schools and hospitals is just to flaunt or show off and if it they are driven with some mundane motives then the devotees must stay aloof from such practices as this certainly deviates from the objectives of ISKCON.Such pseudo spiritualists, transcendentalists, meditators, monists,
philosophers and philanthropists should certainly be avoided. However, beauty of Krsna consciousness is in its versatility and if the motive is to bring everyone closure to Krsna without compromising with core principles, then that act of mediatation, schools and hospitals all serve the same purpose of connecting to divine.Every entity has an unique disposition and has unique relationship with Krsna and therefore circumscribing the evolutionary process of Krsna Consciousness may not be always favourable for one's spiritual development. When the principles are intact one is sure to be dragged to success by the guidance of divine and there may be many many definitions of success in Krsna Consciousness.We must remember that our devotion to Krsna is not dependent on externals rather all externals are simply meant to favorably facilitate advancement in Krsna Consciousness. Our individual preferences in Krsna Consciousness should not be much exalted so as to undermine even the core principles of spiritual advancement and to lead one towards fanaticism.

"If one sincerely takes shelter of the holy name of Krishna by chanting Hare Krishna, he will achieve spiritual perfection within the compass of his normal daily activities"(Srila Bhakti Vinod Thakur).

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नवरात्रि के पावन उत्सव पर सभी को बधाई। माँ दुर्गा जो इस भौतिक जगत रूपी दुर्ग की स्वामिनी हैं, भगवान श्री कृष्ण की बहिरंगा शक्ति महामाया हैं। जैसा ब्रह्म संहिता में वर्णन आता है," सृष्टि स्थिति प्रलय साधन शक्ति रेका, छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा, इच्छानुरूपम अपि यस्य च चेस्टते सा गोविंदम आदि पुरुषं तमहं भजामि"। महामाया दुर्गा भगवान की अंतरंग शक्ति की छाया स्वरूप हैं और भगवान की ही इच्छा से इस जगत में समस्त जीवों को भगवान से विमुख कर उन्हें स्वतंत्र भोग करने की सुविधा प्रदान करती हैं। महामाया शक्ति दो प्रकार से कार्य करती हैं यथा आवरणात्मिका एवं प्रक्षेपात्मिका। प्रथम प्रकार में वे समस्त जीवों के चित् को माया द्वारा आवरित कर उनके निज स्वरूप जो भगवान का दासत्व है का विस्मरण कराती हैं जिससे जीव भगवान को भूलकर संसार में निरंतर स्वतंत्र भोगरत होता है। दूसरे प्रकार में महामाया शक्ति भगवान की भक्ति में लगे साधकों को नाना प्रकार के प्रलोभन और समस्या देकर उन्हें भक्ति मार्ग से प्रक्षेपित अर्थात दूर करती हैं। हम यह प्रश्न कर सकते हैं कि दुर्गा देवी जो स्वयं वैष्णवी हैं इस प्रकार क्यों कार्य करती हैं। वस्तुतः दुर्गा देवी ऐसा कर भगवान की विशेष सेवा करती है और वो सेवा है उन जीवो की इच्छा को पूर्ण करना जो अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर भगवान से विमुख होकर स्वयं भोगोन्मुख होना चाहते हैं। भक्तों के जीवन में माया देवी नाना प्रकार के प्रलोभन एवं समस्याओं के माध्यम से उनकी श्रद्धा की परीक्षा लेती हैं और अगर कोई दृढ़ता पूर्वक जीवन के हर मोड़ पर भगवान एवं भगवद भक्ति के अनुकूल कार्यों का चुनाव करता है, तो वे स्वयं उस जीव को भगवान का सानिध्य लाभ कराती हैं।भगवान की शक्ति होने के कारण दुर्गा देवी जीवों की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। आईये हम सब शक्ति दुर्गा देवी से शक्तिमान श्रीकृष्ण के भक्ति प्रसाद की याचना करें। इस प्रकार की याचना दुर्गा देवी को परम आनंद प्रदान करती है और वे भक्तों की हर परिस्थिति में रक्षा करती हैं। इस संदर्भ में श्रीमद भागवत महापुराण में वर्णित जड़भरत जी की लीला उल्लेखनीय है। जड़भरत भगवान के शुद्ध भक्त थे और भगवान की विशेष अनुग्रह से उन्हें अपना पूर्व जन्म जो राजा भरत के रूप में था का स्मरण था। उन्हें यह स्मरण था कि किस प्रकार जीवन के अंतिम क्षणों में एक हिरण के प्रति आसक्त होने कारण उन्हें अगला जन्म हिरण के रूप में लेना पड़ा था। जड़भरत दुबारा वह भूल नहीं करना चाहते थे अतः प्रमत्त अवधूत की भांति इधर उधर घूमते थे और हृदय में पूर्णतः श्री कृष्ण को शरणागत थे। एकबार वन में विचरित करते हुए उन्हें कुछ हत्यारे लुटेरों ने पकड़ लिया जो एक ऐसे सुगठित शरीर वाले मनुष्य की तलाश में थे जिसे महाकाली को बलि स्वरूप अर्पित किया जा सके। उन लुटेरों को जड़भरत बलि हेतु अत्यंत उपयुक्तपात्र लगे अतः उन्हें पकड़कर लुटेरों के मुखिया के समक्ष एक गुफा में ले जाया गया जहां महाकाली के विग्रह के समक्ष बलि की पूरी तैयारी थी। जैसे ही लुटेरों के मुखिया ने महाकाली का आह्वाहन कर जड़भरत की बलि देने हेतु खड़ग उठाया, महाकाली स्वयं आक्रामक हो प्रकट हुईं और खड़ग से मुखिया समेत समस्त लुटेरों का वध कर जड़भरत को अभय प्रदान किया। जड़भरत भगवान के शुद्ध भक्त थे अतः महाकाली ने उनपर विशेष रूप से अनुग्रह किया।।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे।।
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"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसा: श्रीयः ज्ञान वैराग्ययोश चैव सन्नम भग इतिंगना"(विष्णु पुराण 6.5.47)।उपरोक्त श्लोक में पराशर मुनि जो श्रील व्यासदेव के पिता हैं श्री भगवान के बारे में कहते हैं कि छः ऐश्वर्य यथा धन, बल,यश, रूप, ज्ञान एवं वैराग्य परम पुरुषोत्तम भगवान में पूर्ण मात्रा में विद्यमान होते हैं अतः श्री भगवान सर्व आकर्षक हैं। वैसे तो भगवान के अनंत नाम हैं यथा राम, नृसिंह, वामन, हरि, विष्णु इत्यादि परंतु श्रीकृष्ण नाम जिसका तात्पर्य है सर्व आकर्षक; भगवान की समग्र व्याख्या करता है। ब्रह्मा जी श्री ब्रह्म संहिता(5.1) में बताते हैं," ईश्वरः परमः कृष्ण सच्चिदानंदविग्रह, अनादिरादिरगोविन्दः सर्वकारणकारणम्" अर्थात, सच्चिदानंदविग्रह श्रीकृष्ण ही परमेश्वर(अन्य समस्त ईश्वरों के ईश्वर) हैं, वे गोविंद आनादि(जिनका कोई प्रारम्भ या स्रोत न हो) सबके आदि(सबके स्रोत) तथा समस्त कारणों के कारण हैं। श्रीकृष्ण अवतारी हैं और समस्त अवतारों के स्रोत हैं। यद्यपि अन्य समस्त अवतार श्री कृष्ण से अभिन्न हैं परंतु श्रीकृष्ण उस प्रधान दीपक के समान हैं जो प्रथमतः स्वयं प्रज्वलित होकर अन्यान्य दीपकों को प्रज्वलित करता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध (1.3.28) में श्रील व्यासदेव 24 प्रमुख अवतारों का वर्णन करने के बाद यह निष्कर्ष देतें हैं," एते चांशकला पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम्", अर्थात यहां वर्णित अवतार गण उन महापुरुष के या तो अंश हैं या अंश के अंश हैं लेकिन श्री कृष्ण तो स्वयं परम पुरुषोत्तम भगवान हैं। हम समस्त जीव यथा ब्रह्मदेव से लेकर जीवाणु तक उन्हीं भगवान श्री कृष्ण के शाश्वत अंश हैं और अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर भगवान की महामाया शक्ति के अधीन तुच्छ इन्द्रीय तर्पण हेतु अनादिकाल से संघर्षरत हैं। अपने निज धाम में नित्य सानिध्य लाभ का आकर्षण प्रदान करने हेतु अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक,मायाधीश, श्री राधापति भगवान श्री कृष्ण स्वयं ब्रह्मा के एक दिन में एकबार वैवस्वत मनु के शासन में 28 वें द्वापर युग में प्रकट होतें हैं। अन्य युगों में भगवान के अंश या अंशावतार प्रकट होते हैं तथा भगवान के प्रिय पार्षद गण भी भगवान के ही इच्छा से इस संसार में प्रकट होते हैं। यह भौतिक संसार एक दुर्ग के सदृश है जिसकी स्वामिनी दुर्गा देवी हैं जो भगवान के निर्देशानुसार ही सेवारत हैं। विभिन्न देवता गण इस सृष्टि के अलग अलग विभागों का संचालन भगवान की ही आज्ञा से करते है। यद्यपि भगवान सर्व सक्षम हैं परंतु रसों का परस्पर आदान प्रदान करने हेतु तथा कर्म चक्र में योग्यता अनुसार पुण्यवान जीवों को वे देवता पद पर पदस्थ करते हैं। यह वैसा ही है जैसे प्रधान मंत्री एक होतें हैं लेकिन अलग अलग मंत्रालयों के केबिनेट मंत्री अनेक होते हैं। भगवान इस भौतिक सृष्टि में समस्त जीवों पर कृपा करने हेतु प्रकट होते हैं और शास्त्रों में वर्णित देवताओं की उपासना जीवों पर भगवान की विशेष करुणा का ही परिचायक है।जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि हम सभी जीव भगवान से विमुख होकर स्वतंत्र भाव से मन एवं इन्द्रियों को संतुष्ट करने के प्रयास में लगे हुए हैं और अपने अनुभव से हमने कुछ साक्षात्कार भी किया है कि भौतिक आनंद प्राप्ति के कठिन प्रयास में हमें छणिक तुच्छ सुख और अपार हताशा एवं निराशा ही हाथ लगती है। भगवान सर्वज्ञ हैं और हमारी दयनीय स्थिति को देखकर अपने निज धाम जो आनंद का आगार है में पुनः हमारा स्वागत करने के लिये अत्यंत तत्पर हैं। भगवान उस ऐश्वर्यवान राजा के समान हैं जिनके अनेक पुत्रों में से एक पुत्र उन्हें अहंकार वश त्यागकर स्वच्छंद भोग के लिए दूर चला गया है परंतु कुछ दिनों के छणिक आनंद भोग के बाद इधर उधर ठोकर खाकर अपमानित और लज्जित जीवन जीने के लिए विवश है। राजा अपने पुत्र से अत्यंत प्रेम करते हैं और हृदय से चाहते हैं कि उनका पुत्र वापस आ जाये जिससे उसके सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा;परंतु पुत्र भ्रम वश अपने वर्तमान दयनीय स्थिति में ही संतुष्ट रहना चाहता है। पुत्र को वापस बुलाने हेतु राजा अनेक प्रयास करते हैं यथा स्वयं उस क्षेत्र में जाते हैं,अपने अंतरंग पार्षदों को भेजते हैं, अन्य मंत्रियों को भेजते हैं । पार्षदों और मंत्रियों को भेजने का उद्देश्य पुत्र की आवश्यकताओं की पूर्ति, कुसंग से पुत्र को दूर रखना तथा क्रमशः राजा के सद्गुणों का ज्ञान देकर पुत्र को पुनः पिता से मिलाप कराना है। हम सबकी स्थिति उस राजकुमार पुत्र के समान है जो ईर्ष्यावश सर्वाकर्षक भगवान को त्यागकर स्वच्छंद भोग हेतु भौतिक प्रकृति का आश्रय लिए हुए है और अनंत काल से जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़कर नाना प्रकार के दुख झेलने हेतु बाध्य हैं।राजा के पार्षद गण भगवान के शुद्ध भक्त के समान हैं तथा मंत्रीगण देवताओं के समान हैं। शुद्ध भक्तों का संग तथा शास्त्रों में वर्णित देवताओं की उपासना का उद्देश्य अंततः श्री भगवान से हमारे संबंध को पुनः जागृत करना है। सभी देवता श्री भगवान के सेवक हैं और उनके संग लाभ से सुकृति प्राप्त होती है जो कालांतर में श्री भगवान का सानिध्य प्रदान कराती है। देवताओं की उपस्थिति वास्तव में श्री भगवान की हम जीवों पर करुणा का परिचय कराती है। अतः देवताओं की वास्तविक स्थिति को जानकर ही उनका संग करना उचित है। देवताओं के संग का उद्देश्य अगर कोई भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र ही माने तो वह व्यक्ति अल्प बुद्धि वाला है। वास्तव में अगर किसी भाग्यवान जीव को भगवान के शुद्ध भक्तों की कृपा से साक्षात श्री भगवान की आराधना का अधिकार प्राप्त हो जाय तो उसे अलग से देवताओं की उपासना करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा भाग्यवान जीव यद्यपि समस्त देवताओं के प्रति परम आदर भाव रखता है लेकिन उसके जीवन का एकमात्र धेय श्री भगवान की सेवा ही होती है जो सबके स्वामी हैं जिससे जीवन का वास्तविक उद्देश्य "कृष्ण प्रेम" प्राप्त हो सके।"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरेहरे राम हरे राम राम राम हरे हरे"श्रील प्रभुपाद की जय!
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।। मौके का सदुपयोग क्रांति ला सकता है ।।1 उल्टाडांगा जंक्शन रोड कोलकाता, यह वह स्थान है जहाँ अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ (इस्कॉन) का बीजारोपण सन् 1922 में हुआ था और कालान्तर में जिसकी स्थापना सन् 1965 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में हुई। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज जी (श्रील प्रभुपाद के आध्यात्मिक गुरु) ने श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य सन्देश का प्रचार करने हेतु इस स्थान पर स्थित एक भवन का चुनाव किया था। समस्त गौड़ीय वैष्णवों के लिए यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ हुई एक मुलाकात ने कालान्तर में श्री चैतन्य महाप्रभु के भविष्यवाणी जिसमे उन्होंने श्री कृष्ण नाम एवं वैदिक संस्कृति का प्रचार पृथ्वी के हर नगर एवं हर गाँव में होना कहा है को सार्थक किया।अभय चरण डे एक 24 वर्षीय नवविवाहित गृहस्थ थे और एक वर्ष पूर्व ही 1921 में बोस लैबोरेट्रीज जो की एक विख्यात औषधी निर्माता कंपनी थी के मेनेजर के पद पर पदस्थ हुए थे। एक दोपहर अभय के बचपन के मित्र श्रीमान नरेंद्र मुलिक बोस लैबोरेट्रीज के कार्यालय पहुँचे और अभय को एक गौड़ीय वैष्णव सन्यासी जो मायापुर से आए हुए थे एवं 1 उल्टाडांगा जंक्शन रोड पर स्थित अपने आश्रम में श्री चैतन्य महाप्रभु के शिक्षाओं पर व्याख्यान दे रहे थे के बारे में बताया। इन वैष्णव सन्यासी का नाम नरेंद्र ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर बताया और कहा की वे अन्य तथाकथित साधुओं से भिन्न हैं। अभय चरण डे जिनका जन्म एवं पालन पोषण एक वैष्णव परिवार में हुआ था, वैष्णव सिद्धांत एवं शिष्टाचार में अपने पिता द्वारा प्रशिक्षित थे एवं कोलकाता के सुप्रसिध्ध स्कॉटिश चर्चेस कॉलेज से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। साधुओं के भेष में ढोंगियों के अपने पुराने अनुभव के कारण अभय ऐसे ही किसी साधू से मिलने को इच्छुक नहीं थे जिनके बारे में वो कुछ भी जानते न हों। अपने मित्र मंडली में अभय सबके प्रिय थे और सभी मित्र अभय को अपना नेता मानते थे। नरेंद्र एवं अन्य मित्र जो श्रील भक्ति सिद्धांत से पहले भेंट कर चुके थे, उनके साधुत्व की प्रमाणिकता पर अपने मित्र अभय की पुष्टि चाहते थे अतः नरेंद्र ने अभय के बार बार मना करने पर भी उनसेे केवल एक बार उन साधू से भेंट करने की विनती की। अंततः अभय अपने मित्र के प्रस्ताव पर सहमत हुए और दोनों मित्र संध्या बेला में 1 उल्टाडांगा रोड स्थित आश्रम पहुंचे। एक ब्रह्मचारी भक्त दोनों मित्रों को आश्रम के द्वितीय मंजिल के छत पर ले गए जहाँ श्रील भक्ति सिद्धांत भक्तों के एक समूह को श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं पर व्याख्यान दे रहे थे। वैष्णव शिष्टाचार से परिचित होने के कारण दोनों मित्रों ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज को दंडवत प्रणाम किया। दोनों अभी प्रणाम करके पूरी तरह उठे भी नहीं थे कि श्रील भक्ति सिद्धान्त ने उनसे विनय पुर्वक कहा, तुम पढ़े लिखे सुशिक्षित नवयुवक श्री चैतन्य महाप्रभु के सन्देश को अंग्रेजी भाषा में पुरे विश्व में प्रचारित क्यों नहीं करते। श्रील भक्ति सिद्धांत अंग्रेजी एवं बंगला भाषाओँ का प्रयोग कर व्याख्यान दे रहे थे एवं बीच बीच में श्रीमद् भागवत महापुराण से श्लोक उद्धृत कर रहे थे। उन्होंने आगे कहा, समस्त जगत के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु एवं उनके भक्तों सा उदार एवं हितकर्ता कोई और नहीं हो सकता क्योंकि अन्य विचार किसी न किसी निज स्वार्थ से प्रेरित हो सकते हैं। पहली मुलाकात में ही ऐसे अप्रत्याशित निर्देश एवं वचन से अभय को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा ये सन्यासी ऐसा कैसे बोल सकते हैं। जब सारे संसार में भौतिकता की उथल पुथल मची है,औद्योगिक क्रांति हो रही है, पूरा भारतवर्ष अंग्रेजों से देश को स्वंतंत्र करने में लगा है तब ऐसे समय में इस छोटे से आश्रम में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती के शास्त्र सम्मत उदगार अभय को अत्यंत विस्मयकारी प्रतीत हुए । वेदिक साहित्य एवं दर्शन से परिचित होने के कारण अभय मन ही मन हर्षित भी हुए, परंतु गाँधीवादी विचारधाराओं से प्रेरित होने के कारण उन्होंने समय की आवश्यकता को देखते हुए श्र ील भक्ति सिद्धांत से कहा; अभी भारतवर्ष अंग्रेजो के अधीन है अतः ऐसे समय में श्री चैतन्य महाप्रभु के सन्देश को कौन सुनेगा? वर्त्तमान समय में हम सबको मिलकर देश को स्वतन्त्र कराना चाहिए क्योंकि हम अगर स्वतन्त्र होंगे तभी कृष्ण भावना का अनुशीलन एवं प्रचार कर सकेंगे। अभय के वचन यद्यपि उद्दंडता पुर्वक नहीं कहे गए थे फिर भी उन वाक्यों में चुनौती थी। श्रील भक्ति सिद्धांत ने गंभीर शब्दों में उत्तर दिया," कृष्ण भावनामृत के अनुशीलन एवं प्रचार को भारतीय राजनीति में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, यह इस बात पर निर्भर नहीं करती कि देश में किसका शाशन है, यह तो आत्मा का विषय है एवं केवल एक देश तक सिमित न हो कर सम्पूर्ण विश्व का कल्याण करने वाली है"। श्रील भक्ति सिद्धांत ने कहा, तुम्हे क्या लगता है क्या अंग्रेजो से स्वतंत्रता प्राप्त कर तुम स्वतंत्र हो जाओगे ? आत्मा न तो भारतीय है न ब्रिटिश और न अमेरिकन, आत्मा यानि हम सब जीव तो श्री कृष्ण के शाश्वत अंश हैं और अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर हम इस भौतिक संसार में अनंत काल से मन एवं इन्द्रयों के विषयों को संतुष्ट करने हेतु संघर्षरत हैं। आत्मा का अस्तित्व परम सत्य है और अन्य समस्त भौतिक उपाधियों से परे है। हर वो जीव जिन्हें यह मनुष्य देह मिला है चाहे वह अमेरिकन हो या भारतीय या जापानी सबको श्री कृष्ण से अपने शाश्वत सम्बन्ध का पुनः स्मरण करने हेतु शास्त्रों के वचन अनुसार प्रमाणित गुरु के शासन में कृष्णभावनामृत का अभ्यास करना चाहिए जिससे जीव भौतिक प्रकिति के बन्धनों से मुक्त हो कर जन्म मृत्यु के चक्र से परे भगवद् धाम में प्रवेश पा सकेगा। यह वास्तविक स्वतंत्रता है जो नित्य आनंद समुद्र का वर्धन करने वाली है।श्रील भक्तिसिद्धांत के इन शास्त्रोचित वचनों को सुनकर अभय ने जीवन में अपने आप को पहली बार पराजित महसूस किया। परंतु इस पराजय से अभय अत्यंत प्रसन्न थे और मन ही मन उन्होंने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज को अपना आधात्मिक गुरु स्वीकार कर लिया था। आश्रम से बाहर आकर अभय ने गहरी सांस ली और मन ही मन श्री भगवान् को इस मौके को प्रदान करने हेतु धन्यवाद दिया। नरेंद्र के पूछे जाने पर अभय ने उत्तर दिया कि श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी अत्यंत योग्य एवं सक्षम हाथों में है। इस मुलाकात के बाद अभय ने श्री गौड़ीय मठ से अपना संपर्क बनाये रखा और सन् 1932 के नवम्बर मास में जय ॐ विष्णुपाद परमहंस अष्टोत्तरशत कृष्णकृपा श्रीमूर्ति श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर त्रिदंडि स्वामी महाराज जी से प्रयाग में विधिवत् दीक्षा प्राप्त की। प्रथम मुलाकात में ही अभय के ह्रदय में श्रील भक्तिसिद्धांत के प्रति पूर्ण शरणागति के भाव प्रकट हुए परंतु गृहस्थ आश्रम के सीमाओं में होने के कारण अभय ने पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करते हुए अपने गुरु महाराज के निर्देशों को पूर्ण करने का निश्चय किया। कालान्तर में जो हुआ वह इतिहास है, "न भूतो न भविष्यति" जो न पहले कभी हुआ था और न कभी होगा। अभय ने अपने मित्र नरेंद्र के माध्यम से श्री कृष्ण द्वारा प्रदत्त मौके का पूर्ण सदुपयोग करते हुए, श्रील भक्ति सिद्धांत के निर्देशो को अपने ह्रदय में ज्वलंत रखा और समय आने पर पुरे संसार को श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य सन्देशों से अवगत करा सभी को सुप्त कृष्ण प्रेम को पुनः जागृत करने का अवसर प्रदान किया। अभय ने कालान्तर में पारिवारिक कार्यों से मुक्त हो संन्यास आश्रम में प्रवेश लिया और उनका दीक्षित नाम हुआ जय ॐ विष्णुपाद परमहंस अष्टोत्तरशत कृष्णकृपा श्रीमूर्ति अभय चरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी महाराज जिन्हें हम श्रील प्रभुपाद के नाम से जानते हैं। श्रील प्रभुपाद ने सन् 1965 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में इस्कॉन की स्थापना कर अपने प्रिय गुरु महाराज के प्रथम निर्देश का पालन किया एवं श्री चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी को सार्थक किया। आज इस्कॉन 600 से ज्यादा मंदिरों, प्रचार केंद्रों, कृषि समुदायों की एक विश्वव्यापी संस्था है और भारतियों के साथ अमेरिकन, जापानीज, चीनी, युरोपियन, अफ्रीकन , ऑस्ट्रेलियन लोग इन केंद्रों पर दी जा रही वैदिक शिक्षाओं का लाभ उठा रहे हैं। इस्कॉन का उद्देश्य श्रीमद् भागवतम्, श्रीमद् भगवद् गीता, श्री चैतन्य चरितामृतं तथा अन्य समस्त वैदिक साहित्य का यथारूप प्रचार करना है। इस्कॉन श्रील प्रभुपाद द्वारा संपूर्ण मानवता एवम् अन्यान्य जीवों के लिए प्रदत्त एक अप्रतिम उपहार है । इस्कॉन के माध्यम से श्री भगवान् एवं श्रील प्रभुपाद हमें उनसे पुनः जुड़ने का एक मौका प्रदान कर रहे हैं, आईये हम सब इस मौके का सदुपयोग करें और दूसरों को भी मौका दें।"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरेहरे राम हरे राम राम राम हरे हरे"श्री चैतन्य महाप्रभु की जय !श्रील प्रभुपाद की जय!
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।। भोग प्रवृति की अधिकता सदैव अवांछित है परंतु श्री भगवान के प्रति सेवा भाव तो जीव का स्वभाव है ।।भोग प्रवृत्ति की अधिकता सदैव अवांछित होती है जो भव बन्धन का कारण है इसके विपरीत श्री भगवान के प्रति सेवा भाव की अधिकता तो जीव का स्वभाव है जो किसी भी स्थिति में वर्जनीय नहीं है। परंतु जब तक हम सभी भगवान के साथ अपने दिव्य संबंध में स्थित नही हो जाते, संसार के साथ हमारा संतुलित संबंध भी आवश्यक है। हम सभी जीव भगवान के सनातन अंश हैं और अनादि काल से अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर भगवान से विमुख हो स्वतंत्र भोग की इच्छा के कारण इस संसार चक्र में घूम रहे हैं। हम सभी ने अनंत बार 84 लाख योनियों में से हर योनि का शरीर धारण किया है। संसार भोग की जो इच्छा जीवन पर्यंत होती है और जिसे लिए हुए हम शरीर त्यागते हैं, प्रकृति(महामाया दुर्गा देवी) उस इच्छा की पूर्ति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त शरीर हमें प्रदान कर देती हैं। मान लीजिये कोई व्यक्ति अगर जीवन पर्यन्त मांसाहार के प्रति आकर्षित है तो प्रकृति द्वारा उस व्यक्ति को अगला शरीर एक मांसाहारी पशु का मिल सकता है। अब चुनाव हम सभी को करना है, हम या तो भगवान के साथ अपने संबंध को जान कर, समझकर, साक्षात्कार कर पुनः भगवद धाम में भगवान का सान्निध्य प्राप्त कर शाश्वत आनंदमय जीवन को प्राप्त हो सकते हैं या फिर बार बार जन्म मृत्यु के चक्र में पड़ कर निरानंद एवं अशाश्वत जीवन के दुख , संघर्ष एवं संताप को गले लगा सकते हैं। कोई तर्क कर सकता है कि यह सभ बकवास है, कल किसने देखा है, खाओ पियो और मजा करो,व्यर्थ की चिंता मत करो और वर्तमान में जियो। यह तर्क उस बालक के हठ के समान है जो वर्तमान में जीना चाहता है, खूब खेलना कूदना और मस्ती करना चाहता है और अपने भविष्य जो उसने अभी नही देखा है के प्रति सजग नहीं होना चाहता । ऐसा बालक बुद्धिमान नही है या फिर नादान है यद्यपि वह पूरी तरह अपनी सोच पर दृढ़ है, लेकिन उसके माता पिता उसके भविष्य के प्रति सजग होते हैं और वे यह जानते हैं कि बालक अगर अभी अपना वर्तमान नही सुधारेगा, पढ़ाई नही करेगा, संतुलित दिनचर्या नही रखेगा तो उसका भविष्य चिन्ताजनक हो सकता है। इसी प्रकार गुरु, साधु और शास्त्र माता पिता के समान हैं जो बार बार हमे भविष्य को सुधारने हेतु प्रेरित करते हैं जिससे हम पुनः भगवान के सानिध्य को प्राप्त कर सकेंगे। एक बुद्धिमान मनुष्य अपने लोक और परलोक दोनो को संतुलित करके जीवन व्यतीत करता है जिससे लोक छूटने के बाद परलोक सुनिश्चित हो सके। ऐसा करने के क्रम में वह अपने शरीर और शरीर से संबंधित संबंधों का पूर्ण आदर करते हुए भी उनसे आसक्त नही होता और वह संसार में रह कर भी संसार मल से उसी प्रकार विरक्त रहता है जैसे कमल पत्र जल में हो कर भी जल से अछूता रहता है। संसार चक्र में घूमते हुए हम सभी को पुनः एक बार यह मानव देह मिला है जो अत्यंत दुर्लभ है अतः सभी मनुष्य शरीर धारियों को चाहिए कि इस संसार में अपनी स्थिति और उसके कारण पर प्रमाणित साधुओं से मार्ग दर्शन लें, गहन चिंतन मनन करें और भगवान के साथ शाश्वत आनंदमय जीवन हेतु यथाशिघ्र प्रयास प्रारम्भ करें। हरिनाम जप हमारी चेतना रूपी दर्पण पर पड़े धूल को साफ करने की संस्तुत विधि है। हरिनाम के प्रति हमारा आकर्षण जिस मात्रा का होगा उस अनुपात में भगवद वाणी हमें प्रकाशित होगी। परम पिता श्री भगवान की कृपा को आकर्षित करने हेतु हरिनाम जप उस बालक के रुदन के समान है जो शीघ्र ही माता का ध्यान आकर्षित करती है। कृपया प्रतिदिन नियमित होकर हरिनाम जप करें और सभी मित्रजनों, परिजनों, अपरिचितों को यथा संभव प्रेरित करें। ध्यान रहे शरीर जन्य हमारे वर्तमान सम्बंध तो शरीर के साथ समाप्त हो जाएंगे लेकिन भगवान का अंश होने के कारण हमारे आध्यात्मिक संबंध शाश्वत हैं और हम सब भगवान के जितने समीप होंगे हमारे संबंधों की मधुरता उतनी प्रगाढ़ होगी।।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।श्रील प्रभुपाद की जय !
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इस संसार का उद्देश्य भौतिक विषय सुख के हर प्रयास में हमें ज्यादा से ज्यादा हताश और निराश करना है। यह बात विचित्र प्रतीत हो सकती है लेकिन सत्य है। श्रील प्रभुपाद ने अमेरिका में एक बार हिप्पियों को संबोधित करते हुए कहा कि सम्पूर्ण अमेरिकी समाज आपकी निंदा यह कह कर करता है कि आप सब हताश एवं निराश लोग हैं। लेकिन, मैं आपकी प्रशंशा करता हूँ क्योंकि, निराशा को प्राप्त होना ही इस भौतिक सृष्टि का उद्देश्य है और संसार के प्रति निराशा भगवान के प्रति आकर्षण उत्पन्न कर सकती है। श्री भगवान का सनातन अंश होने के कारण आध्यात्मिक जीव कभी भी सांसारिक विषयों में शाश्वत आनंद प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसा अनुभव हम प्रतिदिन करते हैं जब हमें क्षणिक इन्द्रीय सुख के साथ ढेर सारी असुविधाएं भी प्राप्त होती हैं। भौतिक इन्द्रिय सुख की नई नई योजना बनाने के क्रम में अंततः मृत्यु के रूप में हमें निराशा ही हाथ लगती है और ना जाने कितनी इच्छाएं मृत्यु के साथ अधूरी रह जाती हैं। इन इच्छाओं की पूर्ति हेतु जीव इस संसार में पुनः जन्म लेता है और उसकी इच्छा के अनुरूप ही उसे मनुष्य, पशु या किसी अन्य योनि का शरीर धारण करना पड़ता है। जीव अपने वास्तविक स्वरूप जो कि भगवान का शाश्वत अंश होने के कारण उनकी सेवा करना है को भूलने के कारण अनंत काल से संसार चक्र में पड़ कर निराशा को प्राप्त होता रहा है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि इस निराशा का मूल कारण जान कर , इसे श्री भगवान की अनुकंपा समझ कर अपने को भगवान की सेवा में स्थित करे । निराश व्यक्ति का एक मात्र आश्रय भगवान स्वयं है।इस प्रकार के समझ या बुद्धि को प्राप्त करने का तरीका श्री हरिनाम जप है जो भगवान की अहैतुकी कृपा को आकर्षित करता है।।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
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हम सभी जीव यथा ब्रह्मदेव से लेकर जीवाणु कीटाणु तक सब श्री भगवान के शाश्वत अंश हैं। गुणात्मक दृष्टि से जीव और भगवान में 80 % तक समानता हो सकती है परंतु मात्रात्मक दृष्टि से दोनों में विभिन्नता है। भगवान विभु अर्थात अत्यंत विशाल हैं और जीव अणु अर्थात क्षुद्र है। इस कारण जीव भगवान के समान है भी और नहीं भी है जैसे सूर्य और सूर्य की किरणें, जैसे समुद्र का एक बूंद जल और विशाल समुद्र, जैसे अग्नि एवं अग्निकण, जैसे स्वर्ण और स्वर्णकण। वह सिद्धांत जिसके अंतर्गत जीव और भगवान में समानता और असमानता का एक साथ होना प्रकाशित किया जाता है अचिन्त्य भेदाभेद तत्व कहलाता है जो स्वंय भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। भेद और अभेद का एक साथ होना वास्तव में अचिन्त्य है अर्थात हमारी मानसिक चिंतन से परे है। भगवान की अनंत शक्तियाँ हैं उनमे से अंतरंग शक्ति(योगमाया), बहिरंग शक्ति(महामाया) एवं तटस्थ शक्ति (जीव) एक वर्गीकरण हैै । भगवान शक्तिमान हैं और हम सब उनकी शक्ति हैं, शक्ति सदैव शक्तिमान के अधीन है अतः हम सभी जीव भगवान के अधीन हैं।भगवान स्वराट अर्थात पूर्ण स्वतन्त्र हैं और उनका विभिन्नाँश (भगवान से अलग भगवान का अंश जिस प्रकार दूध गाय का अंश है) होने के कारण हम सभी जीवों में भी अल्प स्वतंत्रता है तथापि जीव कभी भी पूर्ण स्वतंत्र नहीं है। जीव की अल्प स्वतंत्रता बस इतनी है कि वह तटस्थ शक्ति होने के कारण भगवान की योगमाया शक्ति या महामाया शक्ति में से किसी एक के प्रति आकर्षित होने का चुनाव कर सकता है। योगमाया शक्ति का आश्रय जीव के निज स्वभाव (कृष्ण दास) के अनुकूल है और महामाया शक्ति का आश्रय जीव के निज स्वभाव के प्रतिकूल है।योगमाया शक्ति पर आश्रित जीव का एकमात्र उद्देश्य श्री कृष्ण की सेवा है और इसके विपरीत महामाया शक्ति पर आश्रित जीव का एकमात्र उद्देश्य कृष्ण को भूलकर मन, इन्द्रियों एवं अहंकार के साथ स्वतंत्र भोग करने की इच्छा का होना है। जीव की स्वतंत्र भोग इच्छा अस्वाभाविक है जो कि उसकी अल्प स्वतंत्रता के दुरुपयोग का परिणाम है। योगमाया शक्ति भगवान के आध्यात्मिक सृष्टि में कार्यरत है और इस पर आश्रित जीव भगवान के निज धाम में वास करते हैं। हम समस्त जीव जिन्होंने भगवान की महामाया शक्ति का आश्रय लिया है उनकी स्वतंत्र भोग इच्छा को क्रियान्वित करने हेतु भगवान अपनी अध्यक्षता में महामाया शक्ति के माध्यम से इस भौतिक सृष्टि की रचना करते हैं। भगवान का विस्मरण होने एवं महामाया शक्ति के दोहन करने के क्रम में हम सभी अनंत काल से इस संसार में जन्म मृत्यु के चक्र में पड़े हैं और अलग अलग योनियों में घूमते हुए नाना प्रकार के दुख झेल रहे हैं। हम सब उस नालायक पुत्र के समान हैं जो अपने सर्व ऐश्वर्यवान पिता का अहंकारवश त्याग कर मनमाने प्रकार से भोग करना चाहता है लेकिन सिवाय हताशा और निराशा के उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता। भगवान एक करुणामय पिता के समान हैं जो उत्सुकता से हमारा स्वागत अपने निज धाम में करना चाहते हैं और हमें वापस ले जाने हेतु हर युग में वे स्वयं आते हैं या अपने शुद्ध भक्तों को भेजते हैं। (क्रमशः)
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