।। मौके का सदुपयोग क्रांति ला सकता है ।।1 उल्टाडांगा जंक्शन रोड कोलकाता, यह वह स्थान है जहाँ अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ (इस्कॉन) का बीजारोपण सन् 1922 में हुआ था और कालान्तर में जिसकी स्थापना सन् 1965 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में हुई। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज जी (श्रील प्रभुपाद के आध्यात्मिक गुरु) ने श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य सन्देश का प्रचार करने हेतु इस स्थान पर स्थित एक भवन का चुनाव किया था। समस्त गौड़ीय वैष्णवों के लिए यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ हुई एक मुलाकात ने कालान्तर में श्री चैतन्य महाप्रभु के भविष्यवाणी जिसमे उन्होंने श्री कृष्ण नाम एवं वैदिक संस्कृति का प्रचार पृथ्वी के हर नगर एवं हर गाँव में होना कहा है को सार्थक किया।अभय चरण डे एक 24 वर्षीय नवविवाहित गृहस्थ थे और एक वर्ष पूर्व ही 1921 में बोस लैबोरेट्रीज जो की एक विख्यात औषधी निर्माता कंपनी थी के मेनेजर के पद पर पदस्थ हुए थे। एक दोपहर अभय के बचपन के मित्र श्रीमान नरेंद्र मुलिक बोस लैबोरेट्रीज के कार्यालय पहुँचे और अभय को एक गौड़ीय वैष्णव सन्यासी जो मायापुर से आए हुए थे एवं 1 उल्टाडांगा जंक्शन रोड पर स्थित अपने आश्रम में श्री चैतन्य महाप्रभु के शिक्षाओं पर व्याख्यान दे रहे थे के बारे में बताया। इन वैष्णव सन्यासी का नाम नरेंद्र ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर बताया और कहा की वे अन्य तथाकथित साधुओं से भिन्न हैं। अभय चरण डे जिनका जन्म एवं पालन पोषण एक वैष्णव परिवार में हुआ था, वैष्णव सिद्धांत एवं शिष्टाचार में अपने पिता द्वारा प्रशिक्षित थे एवं कोलकाता के सुप्रसिध्ध स्कॉटिश चर्चेस कॉलेज से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। साधुओं के भेष में ढोंगियों के अपने पुराने अनुभव के कारण अभय ऐसे ही किसी साधू से मिलने को इच्छुक नहीं थे जिनके बारे में वो कुछ भी जानते न हों। अपने मित्र मंडली में अभय सबके प्रिय थे और सभी मित्र अभय को अपना नेता मानते थे। नरेंद्र एवं अन्य मित्र जो श्रील भक्ति सिद्धांत से पहले भेंट कर चुके थे, उनके साधुत्व की प्रमाणिकता पर अपने मित्र अभय की पुष्टि चाहते थे अतः नरेंद्र ने अभय के बार बार मना करने पर भी उनसेे केवल एक बार उन साधू से भेंट करने की विनती की। अंततः अभय अपने मित्र के प्रस्ताव पर सहमत हुए और दोनों मित्र संध्या बेला में 1 उल्टाडांगा रोड स्थित आश्रम पहुंचे। एक ब्रह्मचारी भक्त दोनों मित्रों को आश्रम के द्वितीय मंजिल के छत पर ले गए जहाँ श्रील भक्ति सिद्धांत भक्तों के एक समूह को श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं पर व्याख्यान दे रहे थे। वैष्णव शिष्टाचार से परिचित होने के कारण दोनों मित्रों ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज को दंडवत प्रणाम किया। दोनों अभी प्रणाम करके पूरी तरह उठे भी नहीं थे कि श्रील भक्ति सिद्धान्त ने उनसे विनय पुर्वक कहा, तुम पढ़े लिखे सुशिक्षित नवयुवक श्री चैतन्य महाप्रभु के सन्देश को अंग्रेजी भाषा में पुरे विश्व में प्रचारित क्यों नहीं करते। श्रील भक्ति सिद्धांत अंग्रेजी एवं बंगला भाषाओँ का प्रयोग कर व्याख्यान दे रहे थे एवं बीच बीच में श्रीमद् भागवत महापुराण से श्लोक उद्धृत कर रहे थे। उन्होंने आगे कहा, समस्त जगत के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु एवं उनके भक्तों सा उदार एवं हितकर्ता कोई और नहीं हो सकता क्योंकि अन्य विचार किसी न किसी निज स्वार्थ से प्रेरित हो सकते हैं। पहली मुलाकात में ही ऐसे अप्रत्याशित निर्देश एवं वचन से अभय को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा ये सन्यासी ऐसा कैसे बोल सकते हैं। जब सारे संसार में भौतिकता की उथल पुथल मची है,औद्योगिक क्रांति हो रही है, पूरा भारतवर्ष अंग्रेजों से देश को स्वंतंत्र करने में लगा है तब ऐसे समय में इस छोटे से आश्रम में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती के शास्त्र सम्मत उदगार अभय को अत्यंत विस्मयकारी प्रतीत हुए । वेदिक साहित्य एवं दर्शन से परिचित होने के कारण अभय मन ही मन हर्षित भी हुए, परंतु गाँधीवादी विचारधाराओं से प्रेरित होने के कारण उन्होंने समय की आवश्यकता को देखते हुए श्र ील भक्ति सिद्धांत से कहा; अभी भारतवर्ष अंग्रेजो के अधीन है अतः ऐसे समय में श्री चैतन्य महाप्रभु के सन्देश को कौन सुनेगा? वर्त्तमान समय में हम सबको मिलकर देश को स्वतन्त्र कराना चाहिए क्योंकि हम अगर स्वतन्त्र होंगे तभी कृष्ण भावना का अनुशीलन एवं प्रचार कर सकेंगे। अभय के वचन यद्यपि उद्दंडता पुर्वक नहीं कहे गए थे फिर भी उन वाक्यों में चुनौती थी। श्रील भक्ति सिद्धांत ने गंभीर शब्दों में उत्तर दिया," कृष्ण भावनामृत के अनुशीलन एवं प्रचार को भारतीय राजनीति में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, यह इस बात पर निर्भर नहीं करती कि देश में किसका शाशन है, यह तो आत्मा का विषय है एवं केवल एक देश तक सिमित न हो कर सम्पूर्ण विश्व का कल्याण करने वाली है"। श्रील भक्ति सिद्धांत ने कहा, तुम्हे क्या लगता है क्या अंग्रेजो से स्वतंत्रता प्राप्त कर तुम स्वतंत्र हो जाओगे ? आत्मा न तो भारतीय है न ब्रिटिश और न अमेरिकन, आत्मा यानि हम सब जीव तो श्री कृष्ण के शाश्वत अंश हैं और अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर हम इस भौतिक संसार में अनंत काल से मन एवं इन्द्रयों के विषयों को संतुष्ट करने हेतु संघर्षरत हैं। आत्मा का अस्तित्व परम सत्य है और अन्य समस्त भौतिक उपाधियों से परे है। हर वो जीव जिन्हें यह मनुष्य देह मिला है चाहे वह अमेरिकन हो या भारतीय या जापानी सबको श्री कृष्ण से अपने शाश्वत सम्बन्ध का पुनः स्मरण करने हेतु शास्त्रों के वचन अनुसार प्रमाणित गुरु के शासन में कृष्णभावनामृत का अभ्यास करना चाहिए जिससे जीव भौतिक प्रकिति के बन्धनों से मुक्त हो कर जन्म मृत्यु के चक्र से परे भगवद् धाम में प्रवेश पा सकेगा। यह वास्तविक स्वतंत्रता है जो नित्य आनंद समुद्र का वर्धन करने वाली है।श्रील भक्तिसिद्धांत के इन शास्त्रोचित वचनों को सुनकर अभय ने जीवन में अपने आप को पहली बार पराजित महसूस किया। परंतु इस पराजय से अभय अत्यंत प्रसन्न थे और मन ही मन उन्होंने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज को अपना आधात्मिक गुरु स्वीकार कर लिया था। आश्रम से बाहर आकर अभय ने गहरी सांस ली और मन ही मन श्री भगवान् को इस मौके को प्रदान करने हेतु धन्यवाद दिया। नरेंद्र के पूछे जाने पर अभय ने उत्तर दिया कि श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी अत्यंत योग्य एवं सक्षम हाथों में है। इस मुलाकात के बाद अभय ने श्री गौड़ीय मठ से अपना संपर्क बनाये रखा और सन् 1932 के नवम्बर मास में जय ॐ विष्णुपाद परमहंस अष्टोत्तरशत कृष्णकृपा श्रीमूर्ति श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर त्रिदंडि स्वामी महाराज जी से प्रयाग में विधिवत् दीक्षा प्राप्त की। प्रथम मुलाकात में ही अभय के ह्रदय में श्रील भक्तिसिद्धांत के प्रति पूर्ण शरणागति के भाव प्रकट हुए परंतु गृहस्थ आश्रम के सीमाओं में होने के कारण अभय ने पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करते हुए अपने गुरु महाराज के निर्देशों को पूर्ण करने का निश्चय किया। कालान्तर में जो हुआ वह इतिहास है, "न भूतो न भविष्यति" जो न पहले कभी हुआ था और न कभी होगा। अभय ने अपने मित्र नरेंद्र के माध्यम से श्री कृष्ण द्वारा प्रदत्त मौके का पूर्ण सदुपयोग करते हुए, श्रील भक्ति सिद्धांत के निर्देशो को अपने ह्रदय में ज्वलंत रखा और समय आने पर पुरे संसार को श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य सन्देशों से अवगत करा सभी को सुप्त कृष्ण प्रेम को पुनः जागृत करने का अवसर प्रदान किया। अभय ने कालान्तर में पारिवारिक कार्यों से मुक्त हो संन्यास आश्रम में प्रवेश लिया और उनका दीक्षित नाम हुआ जय ॐ विष्णुपाद परमहंस अष्टोत्तरशत कृष्णकृपा श्रीमूर्ति अभय चरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी महाराज जिन्हें हम श्रील प्रभुपाद के नाम से जानते हैं। श्रील प्रभुपाद ने सन् 1965 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में इस्कॉन की स्थापना कर अपने प्रिय गुरु महाराज के प्रथम निर्देश का पालन किया एवं श्री चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी को सार्थक किया। आज इस्कॉन 600 से ज्यादा मंदिरों, प्रचार केंद्रों, कृषि समुदायों की एक विश्वव्यापी संस्था है और भारतियों के साथ अमेरिकन, जापानीज, चीनी, युरोपियन, अफ्रीकन , ऑस्ट्रेलियन लोग इन केंद्रों पर दी जा रही वैदिक शिक्षाओं का लाभ उठा रहे हैं। इस्कॉन का उद्देश्य श्रीमद् भागवतम्, श्रीमद् भगवद् गीता, श्री चैतन्य चरितामृतं तथा अन्य समस्त वैदिक साहित्य का यथारूप प्रचार करना है। इस्कॉन श्रील प्रभुपाद द्वारा संपूर्ण मानवता एवम् अन्यान्य जीवों के लिए प्रदत्त एक अप्रतिम उपहार है । इस्कॉन के माध्यम से श्री भगवान् एवं श्रील प्रभुपाद हमें उनसे पुनः जुड़ने का एक मौका प्रदान कर रहे हैं, आईये हम सब इस मौके का सदुपयोग करें और दूसरों को भी मौका दें।"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरेहरे राम हरे राम राम राम हरे हरे"श्री चैतन्य महाप्रभु की जय !श्रील प्रभुपाद की जय!
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