हम सभी जीव यथा ब्रह्मदेव से लेकर जीवाणु कीटाणु तक सब श्री भगवान के शाश्वत अंश हैं। गुणात्मक दृष्टि से जीव और भगवान में 80 % तक समानता हो सकती है परंतु मात्रात्मक दृष्टि से दोनों में विभिन्नता है। भगवान विभु अर्थात अत्यंत विशाल हैं और जीव अणु अर्थात क्षुद्र है। इस कारण जीव भगवान के समान है भी और नहीं भी है जैसे सूर्य और सूर्य की किरणें, जैसे समुद्र का एक बूंद जल और विशाल समुद्र, जैसे अग्नि एवं अग्निकण, जैसे स्वर्ण और स्वर्णकण। वह सिद्धांत जिसके अंतर्गत जीव और भगवान में समानता और असमानता का एक साथ होना प्रकाशित किया जाता है अचिन्त्य भेदाभेद तत्व कहलाता है जो स्वंय भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। भेद और अभेद का एक साथ होना वास्तव में अचिन्त्य है अर्थात हमारी मानसिक चिंतन से परे है। भगवान की अनंत शक्तियाँ हैं उनमे से अंतरंग शक्ति(योगमाया), बहिरंग शक्ति(महामाया) एवं तटस्थ शक्ति (जीव) एक वर्गीकरण हैै । भगवान शक्तिमान हैं और हम सब उनकी शक्ति हैं, शक्ति सदैव शक्तिमान के अधीन है अतः हम सभी जीव भगवान के अधीन हैं।भगवान स्वराट अर्थात पूर्ण स्वतन्त्र हैं और उनका विभिन्नाँश (भगवान से अलग भगवान का अंश जिस प्रकार दूध गाय का अंश है) होने के कारण हम सभी जीवों में भी अल्प स्वतंत्रता है तथापि जीव कभी भी पूर्ण स्वतंत्र नहीं है। जीव की अल्प स्वतंत्रता बस इतनी है कि वह तटस्थ शक्ति होने के कारण भगवान की योगमाया शक्ति या महामाया शक्ति में से किसी एक के प्रति आकर्षित होने का चुनाव कर सकता है। योगमाया शक्ति का आश्रय जीव के निज स्वभाव (कृष्ण दास) के अनुकूल है और महामाया शक्ति का आश्रय जीव के निज स्वभाव के प्रतिकूल है।योगमाया शक्ति पर आश्रित जीव का एकमात्र उद्देश्य श्री कृष्ण की सेवा है और इसके विपरीत महामाया शक्ति पर आश्रित जीव का एकमात्र उद्देश्य कृष्ण को भूलकर मन, इन्द्रियों एवं अहंकार के साथ स्वतंत्र भोग करने की इच्छा का होना है। जीव की स्वतंत्र भोग इच्छा अस्वाभाविक है जो कि उसकी अल्प स्वतंत्रता के दुरुपयोग का परिणाम है। योगमाया शक्ति भगवान के आध्यात्मिक सृष्टि में कार्यरत है और इस पर आश्रित जीव भगवान के निज धाम में वास करते हैं। हम समस्त जीव जिन्होंने भगवान की महामाया शक्ति का आश्रय लिया है उनकी स्वतंत्र भोग इच्छा को क्रियान्वित करने हेतु भगवान अपनी अध्यक्षता में महामाया शक्ति के माध्यम से इस भौतिक सृष्टि की रचना करते हैं। भगवान का विस्मरण होने एवं महामाया शक्ति के दोहन करने के क्रम में हम सभी अनंत काल से इस संसार में जन्म मृत्यु के चक्र में पड़े हैं और अलग अलग योनियों में घूमते हुए नाना प्रकार के दुख झेल रहे हैं। हम सब उस नालायक पुत्र के समान हैं जो अपने सर्व ऐश्वर्यवान पिता का अहंकारवश त्याग कर मनमाने प्रकार से भोग करना चाहता है लेकिन सिवाय हताशा और निराशा के उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता। भगवान एक करुणामय पिता के समान हैं जो उत्सुकता से हमारा स्वागत अपने निज धाम में करना चाहते हैं और हमें वापस ले जाने हेतु हर युग में वे स्वयं आते हैं या अपने शुद्ध भक्तों को भेजते हैं। (क्रमशः)
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