।। भोग प्रवृति की अधिकता सदैव अवांछित है परंतु श्री भगवान के प्रति सेवा भाव तो जीव का स्वभाव है ।।भोग प्रवृत्ति की अधिकता सदैव अवांछित होती है जो भव बन्धन का कारण है इसके विपरीत श्री भगवान के प्रति सेवा भाव की अधिकता तो जीव का स्वभाव है जो किसी भी स्थिति में वर्जनीय नहीं है। परंतु जब तक हम सभी भगवान के साथ अपने दिव्य संबंध में स्थित नही हो जाते, संसार के साथ हमारा संतुलित संबंध भी आवश्यक है। हम सभी जीव भगवान के सनातन अंश हैं और अनादि काल से अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर भगवान से विमुख हो स्वतंत्र भोग की इच्छा के कारण इस संसार चक्र में घूम रहे हैं। हम सभी ने अनंत बार 84 लाख योनियों में से हर योनि का शरीर धारण किया है। संसार भोग की जो इच्छा जीवन पर्यंत होती है और जिसे लिए हुए हम शरीर त्यागते हैं, प्रकृति(महामाया दुर्गा देवी) उस इच्छा की पूर्ति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त शरीर हमें प्रदान कर देती हैं। मान लीजिये कोई व्यक्ति अगर जीवन पर्यन्त मांसाहार के प्रति आकर्षित है तो प्रकृति द्वारा उस व्यक्ति को अगला शरीर एक मांसाहारी पशु का मिल सकता है। अब चुनाव हम सभी को करना है, हम या तो भगवान के साथ अपने संबंध को जान कर, समझकर, साक्षात्कार कर पुनः भगवद धाम में भगवान का सान्निध्य प्राप्त कर शाश्वत आनंदमय जीवन को प्राप्त हो सकते हैं या फिर बार बार जन्म मृत्यु के चक्र में पड़ कर निरानंद एवं अशाश्वत जीवन के दुख , संघर्ष एवं संताप को गले लगा सकते हैं। कोई तर्क कर सकता है कि यह सभ बकवास है, कल किसने देखा है, खाओ पियो और मजा करो,व्यर्थ की चिंता मत करो और वर्तमान में जियो। यह तर्क उस बालक के हठ के समान है जो वर्तमान में जीना चाहता है, खूब खेलना कूदना और मस्ती करना चाहता है और अपने भविष्य जो उसने अभी नही देखा है के प्रति सजग नहीं होना चाहता । ऐसा बालक बुद्धिमान नही है या फिर नादान है यद्यपि वह पूरी तरह अपनी सोच पर दृढ़ है, लेकिन उसके माता पिता उसके भविष्य के प्रति सजग होते हैं और वे यह जानते हैं कि बालक अगर अभी अपना वर्तमान नही सुधारेगा, पढ़ाई नही करेगा, संतुलित दिनचर्या नही रखेगा तो उसका भविष्य चिन्ताजनक हो सकता है। इसी प्रकार गुरु, साधु और शास्त्र माता पिता के समान हैं जो बार बार हमे भविष्य को सुधारने हेतु प्रेरित करते हैं जिससे हम पुनः भगवान के सानिध्य को प्राप्त कर सकेंगे। एक बुद्धिमान मनुष्य अपने लोक और परलोक दोनो को संतुलित करके जीवन व्यतीत करता है जिससे लोक छूटने के बाद परलोक सुनिश्चित हो सके। ऐसा करने के क्रम में वह अपने शरीर और शरीर से संबंधित संबंधों का पूर्ण आदर करते हुए भी उनसे आसक्त नही होता और वह संसार में रह कर भी संसार मल से उसी प्रकार विरक्त रहता है जैसे कमल पत्र जल में हो कर भी जल से अछूता रहता है। संसार चक्र में घूमते हुए हम सभी को पुनः एक बार यह मानव देह मिला है जो अत्यंत दुर्लभ है अतः सभी मनुष्य शरीर धारियों को चाहिए कि इस संसार में अपनी स्थिति और उसके कारण पर प्रमाणित साधुओं से मार्ग दर्शन लें, गहन चिंतन मनन करें और भगवान के साथ शाश्वत आनंदमय जीवन हेतु यथाशिघ्र प्रयास प्रारम्भ करें। हरिनाम जप हमारी चेतना रूपी दर्पण पर पड़े धूल को साफ करने की संस्तुत विधि है। हरिनाम के प्रति हमारा आकर्षण जिस मात्रा का होगा उस अनुपात में भगवद वाणी हमें प्रकाशित होगी। परम पिता श्री भगवान की कृपा को आकर्षित करने हेतु हरिनाम जप उस बालक के रुदन के समान है जो शीघ्र ही माता का ध्यान आकर्षित करती है। कृपया प्रतिदिन नियमित होकर हरिनाम जप करें और सभी मित्रजनों, परिजनों, अपरिचितों को यथा संभव प्रेरित करें। ध्यान रहे शरीर जन्य हमारे वर्तमान सम्बंध तो शरीर के साथ समाप्त हो जाएंगे लेकिन भगवान का अंश होने के कारण हमारे आध्यात्मिक संबंध शाश्वत हैं और हम सब भगवान के जितने समीप होंगे हमारे संबंधों की मधुरता उतनी प्रगाढ़ होगी।।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।श्रील प्रभुपाद की जय !
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