"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसा: श्रीयः ज्ञान वैराग्ययोश चैव सन्नम भग इतिंगना"(विष्णु पुराण 6.5.47)।उपरोक्त श्लोक में पराशर मुनि जो श्रील व्यासदेव के पिता हैं श्री भगवान के बारे में कहते हैं कि छः ऐश्वर्य यथा धन, बल,यश, रूप, ज्ञान एवं वैराग्य परम पुरुषोत्तम भगवान में पूर्ण मात्रा में विद्यमान होते हैं अतः श्री भगवान सर्व आकर्षक हैं। वैसे तो भगवान के अनंत नाम हैं यथा राम, नृसिंह, वामन, हरि, विष्णु इत्यादि परंतु श्रीकृष्ण नाम जिसका तात्पर्य है सर्व आकर्षक; भगवान की समग्र व्याख्या करता है। ब्रह्मा जी श्री ब्रह्म संहिता(5.1) में बताते हैं," ईश्वरः परमः कृष्ण सच्चिदानंदविग्रह, अनादिरादिरगोविन्दः सर्वकारणकारणम्" अर्थात, सच्चिदानंदविग्रह श्रीकृष्ण ही परमेश्वर(अन्य समस्त ईश्वरों के ईश्वर) हैं, वे गोविंद आनादि(जिनका कोई प्रारम्भ या स्रोत न हो) सबके आदि(सबके स्रोत) तथा समस्त कारणों के कारण हैं। श्रीकृष्ण अवतारी हैं और समस्त अवतारों के स्रोत हैं। यद्यपि अन्य समस्त अवतार श्री कृष्ण से अभिन्न हैं परंतु श्रीकृष्ण उस प्रधान दीपक के समान हैं जो प्रथमतः स्वयं प्रज्वलित होकर अन्यान्य दीपकों को प्रज्वलित करता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध (1.3.28) में श्रील व्यासदेव 24 प्रमुख अवतारों का वर्णन करने के बाद यह निष्कर्ष देतें हैं," एते चांशकला पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम्", अर्थात यहां वर्णित अवतार गण उन महापुरुष के या तो अंश हैं या अंश के अंश हैं लेकिन श्री कृष्ण तो स्वयं परम पुरुषोत्तम भगवान हैं। हम समस्त जीव यथा ब्रह्मदेव से लेकर जीवाणु तक उन्हीं भगवान श्री कृष्ण के शाश्वत अंश हैं और अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर भगवान की महामाया शक्ति के अधीन तुच्छ इन्द्रीय तर्पण हेतु अनादिकाल से संघर्षरत हैं। अपने निज धाम में नित्य सानिध्य लाभ का आकर्षण प्रदान करने हेतु अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक,मायाधीश, श्री राधापति भगवान श्री कृष्ण स्वयं ब्रह्मा के एक दिन में एकबार वैवस्वत मनु के शासन में 28 वें द्वापर युग में प्रकट होतें हैं। अन्य युगों में भगवान के अंश या अंशावतार प्रकट होते हैं तथा भगवान के प्रिय पार्षद गण भी भगवान के ही इच्छा से इस संसार में प्रकट होते हैं। यह भौतिक संसार एक दुर्ग के सदृश है जिसकी स्वामिनी दुर्गा देवी हैं जो भगवान के निर्देशानुसार ही सेवारत हैं। विभिन्न देवता गण इस सृष्टि के अलग अलग विभागों का संचालन भगवान की ही आज्ञा से करते है। यद्यपि भगवान सर्व सक्षम हैं परंतु रसों का परस्पर आदान प्रदान करने हेतु तथा कर्म चक्र में योग्यता अनुसार पुण्यवान जीवों को वे देवता पद पर पदस्थ करते हैं। यह वैसा ही है जैसे प्रधान मंत्री एक होतें हैं लेकिन अलग अलग मंत्रालयों के केबिनेट मंत्री अनेक होते हैं। भगवान इस भौतिक सृष्टि में समस्त जीवों पर कृपा करने हेतु प्रकट होते हैं और शास्त्रों में वर्णित देवताओं की उपासना जीवों पर भगवान की विशेष करुणा का ही परिचायक है।जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि हम सभी जीव भगवान से विमुख होकर स्वतंत्र भाव से मन एवं इन्द्रियों को संतुष्ट करने के प्रयास में लगे हुए हैं और अपने अनुभव से हमने कुछ साक्षात्कार भी किया है कि भौतिक आनंद प्राप्ति के कठिन प्रयास में हमें छणिक तुच्छ सुख और अपार हताशा एवं निराशा ही हाथ लगती है। भगवान सर्वज्ञ हैं और हमारी दयनीय स्थिति को देखकर अपने निज धाम जो आनंद का आगार है में पुनः हमारा स्वागत करने के लिये अत्यंत तत्पर हैं। भगवान उस ऐश्वर्यवान राजा के समान हैं जिनके अनेक पुत्रों में से एक पुत्र उन्हें अहंकार वश त्यागकर स्वच्छंद भोग के लिए दूर चला गया है परंतु कुछ दिनों के छणिक आनंद भोग के बाद इधर उधर ठोकर खाकर अपमानित और लज्जित जीवन जीने के लिए विवश है। राजा अपने पुत्र से अत्यंत प्रेम करते हैं और हृदय से चाहते हैं कि उनका पुत्र वापस आ जाये जिससे उसके सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा;परंतु पुत्र भ्रम वश अपने वर्तमान दयनीय स्थिति में ही संतुष्ट रहना चाहता है। पुत्र को वापस बुलाने हेतु राजा अनेक प्रयास करते हैं यथा स्वयं उस क्षेत्र में जाते हैं,अपने अंतरंग पार्षदों को भेजते हैं, अन्य मंत्रियों को भेजते हैं । पार्षदों और मंत्रियों को भेजने का उद्देश्य पुत्र की आवश्यकताओं की पूर्ति, कुसंग से पुत्र को दूर रखना तथा क्रमशः राजा के सद्गुणों का ज्ञान देकर पुत्र को पुनः पिता से मिलाप कराना है। हम सबकी स्थिति उस राजकुमार पुत्र के समान है जो ईर्ष्यावश सर्वाकर्षक भगवान को त्यागकर स्वच्छंद भोग हेतु भौतिक प्रकृति का आश्रय लिए हुए है और अनंत काल से जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़कर नाना प्रकार के दुख झेलने हेतु बाध्य हैं।राजा के पार्षद गण भगवान के शुद्ध भक्त के समान हैं तथा मंत्रीगण देवताओं के समान हैं। शुद्ध भक्तों का संग तथा शास्त्रों में वर्णित देवताओं की उपासना का उद्देश्य अंततः श्री भगवान से हमारे संबंध को पुनः जागृत करना है। सभी देवता श्री भगवान के सेवक हैं और उनके संग लाभ से सुकृति प्राप्त होती है जो कालांतर में श्री भगवान का सानिध्य प्रदान कराती है। देवताओं की उपस्थिति वास्तव में श्री भगवान की हम जीवों पर करुणा का परिचय कराती है। अतः देवताओं की वास्तविक स्थिति को जानकर ही उनका संग करना उचित है। देवताओं के संग का उद्देश्य अगर कोई भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र ही माने तो वह व्यक्ति अल्प बुद्धि वाला है। वास्तव में अगर किसी भाग्यवान जीव को भगवान के शुद्ध भक्तों की कृपा से साक्षात श्री भगवान की आराधना का अधिकार प्राप्त हो जाय तो उसे अलग से देवताओं की उपासना करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा भाग्यवान जीव यद्यपि समस्त देवताओं के प्रति परम आदर भाव रखता है लेकिन उसके जीवन का एकमात्र धेय श्री भगवान की सेवा ही होती है जो सबके स्वामी हैं जिससे जीवन का वास्तविक उद्देश्य "कृष्ण प्रेम" प्राप्त हो सके।"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरेहरे राम हरे राम राम राम हरे हरे"श्रील प्रभुपाद की जय!
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