Priya Sakhi Devi Dasi's Posts (52)

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भक्ति का मतलब

है सम्पूर्ण समर्पण

हर कार्य हो बस

प्रभु चरणों में अर्पण


शंका शक

विचलन

भटकन


बस प्रभु का

श्रवन

स्मरण

और कीर्तन



मोह

माया

ही कोई

बंधन


नित्य प्रतिपल

बस प्रभु का

अभिनन्दन


उनकी उपस्थिति

का आभास

कराये

कण - कण


उनकी लीलाओं

का आस्वादन

उनके नाम

का भजन


उनके लिए

रुदन

उनके लिए

क्रंदन


व्याकुल हो

हर क्षण

उनके लिए

अंतर्मन


खुली आँखों से

दर्शन

स्वप्न में भी हो

उन्ही से मिलन

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जप ले मन मेरे कृष्णा कृष्णा

भर ले मन में कृष्णा कृष्णा


सुबह शाम हो इसी नाम से

जोड़ ले इसे हर एक काम से


मुख में बस यही नाम हो

जिह्वा का बस यही काम हो


दीन - दुनिया में क्या रखा है

कोई बैरी कोई सखा है


एक ही सच है इस जगत का

एक ही रिश्ता भगवान - भक्त का


बाकी रिश्ते धुंध का पानी

जुड़ना - टूटना है उसकी निशानी


नयी हो या हो पुरानी

एक दिन होती ख़त्म कहानी


इन बंधनों में जंजालों में

व्यर्थ का फंसना कैसी बुद्धिमानी


ठुकराकर कोई भगा दे

इससे पहले खुद ही आजा

प्रभु का द्वार खुला सदा

फिर आने में कैसी लज्जा


थाम कर तो देखे जरा

एक बार इनके चरण कमल

हर कष्ट मिट जाता

बन जाता इंसान विमल


शुद्धता मन में ,शुद्धता तन में

भर जाए भक्ति अन्तः करण में

एक स्थिति हो जाती साधु की

फिर ही माया ही तृष्णा


हर जन, हर कण में दिखे

हर जगह ही कृष्णा कृष्णा

जप ले मन मेरे कृष्णा कृष्णा

भर ले मन में कृष्णा कृष्णा

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कभी - कभी सोचता है मन
गोलोक
कितना पावन होगा
जहाँ बैठे होंगे खुद
मोहन
कितना मनभावन होगा

मोहन की मुस्कान
मुरली की तान
उनके घुंघुरू भी
करते होंगे गान

पिताम्बर भी करती होंगी
बातें कान्हा के मोर - मुकुट से
इठलाती होगी वैजयंती माला
मै तो लिपटी हूँ खुद कान्हा से

गैया चराते गोपाल
उनकी सेवा में लगे
सहस्रों लक्ष्मियाँ
आध्यात्मिक प्रकाश से
प्रकाशित
दिव्य अलौकिक दुनिया

कुछ भी जड़ नही
हर चीज होगी चेतन
जल और वायु भी
होंगे वहां के पावन

कितने नसीबवाले होंगे
जिन्हें मिला होगा
ये दुर्लभ आध्यात्मिक जग

कितना सुखद होगा
वो अहसास
भक्त का सिर
स्वयं भगवान का पग

उनके चरणों की सेवा
मोहन का दर्शन
जहाँ होंगे खुद रसराज
वहाँ कितना होगा आकर्षण

निहारते - निहारते संवारे को
आँखें थकती नही होंगी
साथ में राधिका भी तो
वहाँ दर्शन देती होंगी

जुगल जोड़ी की ये छटा
कैसे आँखों में समाती होगी
आत्मा की हर प्यास
इससे तृप्त हो जाती होगी

साक्षात कृष्ण हो सामने
भक्त क्या कर पाता होगा
उन्हें देखने के बाद भी
क्या सुध-बुध रह जाता होगा

नज़री क्या साँवरे के मुख से
कभी हट पाती होंगी
जब भी नज़र उस मोहनी
सूरत पे जाती होगी

कुंठा, कलह
मिलन , विरह

प्रेम की लहरी,
सुख का सागर

आनंद ही आनंद
इस जगत में जाकर

जिसकी कल्पना मात्र से
मेरा रोम - रोम पुलक रहा
बेचैन हो रही आत्मा
दिल दर्शन को तड़प रहा


वो गोलोक कैसा होगा
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अब घर लौट चले

कब से भटक रहे है हम
पग -पग पे ठोकरे खाते

कभी यहाँ तो कभी वहाँ
कहाँ- कहाँ हम पटके जाते

चैन मिले न मन को कही
शांति को हम तरस जाते



आत्मा बेचारी तड़पती रहती
इसकी प्यास कहाँ बुझा पाते

प्यासी आकांक्षा के साथ हम
बार - बार धरती पे ही आते

कभी ये शरीर कभी वो शरीर
शरीर के साथ दुःख में समाते

आखिर कब तक भटकेंगे हम यूं ही
अपने घर हम क्यों न लौट जाते

इससे पहले कि इस जीवन की भी शाम ढले
चलो हम अब अपने परमपिता के घर लौट चले
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माला करना है बड़ा आसान
इसका न है कोई कर्मकांड
जब भी चाहो ले लो नाम
इसका न है कोई कडा विधान

क्या पिता का नाम लेने में
करनी होती है कोई तैयारी
उसी सहजता से लेनी है
अब परमपिता की है बारी

तुलसी की माला हो और
उसमे मनके एक सौ आठ
सबसे ऊपर होता है सुमेरू
जहाँ होती माले की गाँठ

जहाँ से प्रारंभ होती माला वो
होता सुमेरू के बाद पहला मनका
सबसे पहले पढ़ते हैं क्षमा मंत्र फिर
यही से शुरू होता जाप महामंत्र का

एक-एक कर जब मनके सारे
हरि कीर्तन से ख़त्म हो जाते है
तब जाके एक बार फिर हम
सुमेरू पे वापस लौट कर आते हैं

यहाँ रखना होता है एक ध्यान
सुमेरू को हम पार नही है करते
दूसरी माला को करने के लिए
माला को दूसरी तरफ हैं पलटते

क्योंकि सुमेरू होते है साक्षात कृष्ण
फिर उन्हें हम कैसे लाँघ सकते है
एक सौ आठ मनके हैं उनकी गोपियाँ
जिनके चरण दबा कृष्ण तक पहुँचते हैं

इसी तरह करनी होती है हमें माला
पूरे दिन कभी भी बस सोलह बार
इतनी सी मेहनत तो करनी होती
और हो जाता भवसागर भी पार

इसे करने की विधि है बहुत सरल
ना कोई खर्च न ही कोई बंदिश
किसी धर्म का किसी जात का
इसमें किसी से हैं न कोई रंजिश

फिर आज से ही शुरू करे हम
सोलह माला का अपना अभ्यास
क्योंकि वक़्त बितता जा रहा
पर हमें नही हो पाता है आभास
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महामंत्र

हरे कृष्णा ! हरे कृष्णा! कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम ! हरे राम ! राम राम हरे हरे

सोलह अक्षरों का ये मंत्र, महामंत्र कहलाता है
कलयुग के दोषों से बस यही हमें बचाता है

शास्त्रों ने कहा इसके अतिरिक्त कोई उपाय नही
कलयुग में और कुछ भी हो सकता सहाय नही

सतयुग में तपस्या से पास हरि के जाते थे
त्रेता में यज्ञों से उन्हें हम पास बुलाते थे

द्वापर में करते थे लोग अर्चा-विग्रह की पूजा
कलयुग में महामंत्र के सिवा उपाय नही दूजा

इस घोर कल्मष के युग में प्रभु की कृपा है
वो बस हरी कीर्तन से ही हमें मिल जाते है

कोई फर्क नही है उनमे और उनके नाम में
महामंत्र से प्रभु को जिह्वा पे हम नचाते हैं

चित्त को हमारे शुद्ध करता है ये हरि कीर्तन
जप-जप के हरि नाम चमक जाता मन दर्पण

बड़ा ही सरल और सटीक तरिका है जीने का
न गवाए हम मौका इस अमृत्व को पीने का

बिना देर किये जहाँ हैं वही से कर दे शुरुआत
कर ले कमाई कुछ जब तक मौत करे आघात

फिर चिंता न हो कि कब मौत से पाला पड़े
जब भी प्राण छूटे दिखे बस प्रभु सामने खड़े

हरे कृष्णा ! हरे कृष्णा! कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम ! हरे राम ! राम राम हरे हरे
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बड़ी लगन से चली ढूँढने
अपने श्याम सुन्दर को
मनभावन मनमोहन
श्यामल नन्द्कुंवर को

वृन्दावन उन्हें बड़ा प्रिय है
वहां ही वो रमते हैं
मन ने कहा बावरी
हम भी वही चलते है

कुञ्ज गली में छुप के ढूंढा
कहीं दिख जाए वो माखनचोर
कहीं किसी घर में दिख जाये
छाछ पे नाचता नंदकिशोर

सुबह से हो गयी शाम
पर आये नही घनश्याम
न बंशी बजी न गैया दौडी
न ही लौटे वन से वनचारी

कुञ्ज वनों में भी पुकारा
निधिवन को छान डाला
न गोपियाँ सज रही थी
न संवर रही थी वृषभानु दुलारी

शायद सांवरे इतने सुलभ नही
तभी तो छुप गए हमसे रासबिहारी

गैया दिखी दिख गए ग्वाले
दिखी वो कदम्ब की डाल
कहा लोगो ने यही पे तो
खेला करते थे गोपाल

पर मेरी निगोड़ी अँखियाँ को
वहां भी नही दिखे मुरारी

घाट पे ढूंढा ,वन में ढूँढा
फिर दिखी यमुना माई
जाके पूछा कालिया को ढूँढने
क्या आये थे यहाँ कन्हाई

शांत रहे लहरें मैया की
यहाँ फिर से मेरी आशा हारी

गोवर्धन से जाकर पूछा
मेरे प्रभु का पता बता दो
कब आयेंगे फिर तुम्हे उठाने
मुझे बस इतना बतला दो

पर गोवर्धन पे जाके भी
मुझे मिले नही गिरधारी

वृन्दावन की रज से पूछा
पंछी और बन्दर से पूछा
डाल हिला पेडों से पूछा
क्या इधर से गये है बिहारी

पर वृन्दावन आकर भी
मुझे मिले नही वनवारी
उनकी क्या गलती मै ही
हूँ तुच्छ अकिंचन नारी

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आत्मा का घर ही तो है
ये हमारी सुन्दर-सी काया
मिट्टी के इस घर पे ही
हमने कितना लेप लगाया

रगड़ - रगड़ घर को चमकाया
भाँति - भाँति से इसे सजाया
इसी घर के आगे -पीछे बस
कर दिया हमने जीवन जाया

ख़त्म हुआ जब सांसों का किराया
आत्मा ने कर्मों का झोला उठाया
किसी काम की न रह गयी काया
जिसके लिए हमने जीवन गंवाया

हर दिन ही कई घर खाली होते
रह जाता यही सब जमा - बकाया
अपनी तो साँसें चल रही है अभी
यही कह हमने दिल को बहलाया
कैसी है ये प्रभु की माया !!!
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आत्मा का आनंद

जन्म के बाद मरण है निश्चित
मरण के बाद फिर एक जन्म
फिर होगा एक नया शरीर
जैसे किये होंगे हमने कर्म

जन्म-मृत्यु के अनवरत चक्र में
विलाप का विषय है ही कहाँ
जन्म भी तो मृत्यु किसी -की
मृत्यु भी तो है एक जन्म यहाँ

न ही जन्म पे सुख है कोई
न ही मरण है दुःख की बात
आत्मा के लिए तो दोनों ही
हमेशा की होती काली रात

आत्मा का सबसे बड़ा कष्ट है
किसी भी देह को धारण करना
चौरासी लाख योनियों के
अंतहीन सफ़र में भटकना

जिस दिन इस चक्र से मुक्ति मिल जाती है
आत्मा परमात्मा के चरणों में पहुँच जाती है
आनंद के सागर में नित गोते वो लगाती है
जिस दिन कृष्ण के चरणों में चली जाती है

आत्मा का पडाव है
परमात्मा के चरण
आत्मा का आनंद है
अपने राधारमण
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आहार,निद्रा,भय और मैथुन
ये तो पशु भी है करते
गौर करे तो हम भी बस
दिन-रात इसी में लगे है रहते

सुबह से शाम मेहनत करते
हेतु होता है बस भोग ही भोग
ये जीवन आप में है एक दुःख
उसपे पाले है और कितने रोग

रोग ही तो है ये भोग की प्रवृति
और अस्थायी से इतनी आसक्ति
रोग इस कदर है फ़ैल चुका कि
कडवी लगती है हमें प्रभु भक्ति

जितनी जकड़ी बीमारी है होती
उतनी ही दवा कडवी है लगती
माया से जकडे बद्ध जीवों को
भक्ति भी ऐसी ही है लगती

जितनी कडवी भक्ति हमें लगे
उतनी ही हमें आवश्यकता है
मुक्ति के लिए भक्ति करनी ही होगी
ये हर इंसान की विवशता है

जिसने जितनी जल्दी माना
उतनी ही जल्दी त्राण वो पाया
जो इसे समझ न पाया उसे तो
माया ने बड़ा ही नाच है नचाया

भक्ति है एक मात्र सहारा
भवसागर से उबरने का
सावरिया के चरण कमल को
प्रेम से पकड़ने का

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आनंद घन है श्याम
आनंद ही यहाँ बरसता है
उनके सानिध्य में आकर
कहाँ कोई यहाँ तरसता है

आनंद की धुन
सुनाये उनकी मुरली
आनंद से भर जाए
एकबार जिसने सुनली

आनंद का ऐसा सागर वो
जिसके हर लहर में आनंद है
इसके पास से भी गुजर जाए
तो भी मिलता परमानन्द है

उनका ध्यान होते ही
आनंद उमड़ आता है
नाम लेते ही ह्रदय में
आनंद भर जाता है

आनंद देने और लेने के सिवा
उन्हें कुछ और आता ही नही
कितना भी आनंद बांटे वो
उनका बूँद भर भी जाता नही

उनको आनंद पहुचाने में भी
आनंद आता है
छूकर आनंद पारसमणि को हरकोई
आनंदित हो जाता है

आनंद का आनंद-प्रदान ही
उनका निज स्वभाव है
समझ लो वहाँ कृष्ण नही
जहाँ आनंद का अभाव है
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पसीने से तरबतर
गला भी सूखने लगता है
छटपटाहट में जान जाने को होती है

ऐसी समस्या कि
दिल बैठने लगता है
आँखों में बस आसूं की लड़ी होती है

कभी इतनी खुशी कि
हँसी फ़ैल जाती बरबस होठों पे
जो सोचा भी न था
वो भी क़दमों तले आ जाता है

हर रात को अक्सर
हमारे साथ ये बातें होती है
कभी हँसते कभी रोते
सुबह हमारी आँखें खुलती हैं

हँसी आती खुद पे
अरे ! ये तो सपना था
और मैंने कई रिश्ते बनाकर
एक जिन्दगी भी जी ली इसमें

जिसे हम अंधाधुंध जिए जा रहे है
वो जीवन भी तो एक सपना है
जिस दिन आँखें खुल जायेंगी
उस दिन कहाँ कोई फिर अपना है
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