पग -पग पे ठोकरे खाते
कभी यहाँ तो कभी वहाँ
कहाँ- कहाँ हम पटके जाते
चैन मिले न मन को कही
शांति को हम तरस जाते
आत्मा बेचारी तड़पती रहती
इसकी प्यास कहाँ बुझा पाते
प्यासी आकांक्षा के साथ हम
बार - बार धरती पे ही आते
कभी ये शरीर कभी वो शरीर
शरीर के साथ दुःख में समाते
आखिर कब तक भटकेंगे हम यूं ही
अपने घर हम क्यों न लौट जाते
इससे पहले कि इस जीवन की भी शाम ढले
चलो हम अब अपने परमपिता के घर लौट चले
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