मूल:
नलिनीदलगतसलिलं तरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकं शोकहतं च समस्तम्॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़मते।
हिन्दी:
जीवन यह अत्यन्त चपल है, नलिनी-दल-जल-तुल्य तरल है।
दुःख-व्याधि-अभिमान-संकुलित, शोक-निहत यह लोक सकल है॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते।
पहले पांडित्य-मोह, फ़िर वित्त-मोह, उसके बाद स्त्री-मोह - इन तीनों का खण्डन करके इस चौथे श्लोक में श्री शंकराचार्य बताते हैं कि मनुष्य का सांसारिक जीवन किस प्रकार होता है।
वह कहते हैं कि मनुष्य का जीवन उसी प्रकार

