12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।। 2 ।।

राज-विद्या– विद्याओं का राजा;राज-गुह्यम्– गोपनीय ज्ञान का राजा;पवित्रम्– शुद्धतम;इदम्– यह;उत्तमम्– दिव्य;प्रत्यक्ष– प्रत्यक्ष अनुभव से;अवगमम्– समझा गया;धर्म्यम्– धर्म;सु-सुखम्– अत्यन्त सुखी;कर्तुम्– सम्पन्न करने में;अव्ययम्– अविनाशी।

भावार्थ : यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है। यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।

तात्पर्य : भगवद्गीता का यह अध्याय विद्याओं का राजा (राजविद्या) कहलाता है, क्योंकि यह पूर्ववर्ती व्याख्यायित समस्त सिद्धान्तों एवं दर्शनों का सार है। भारत के प्रमुख दार्शनिक गौतम, कणाद, कपिल, याज्ञवल्क्य, शाण्डिल्य तथा वैश्वानर हैं। सबसे अन्त में व्यासदेव आते हैं, जो वेदान्तसूत्र के लेखक हैं। अतः दर्शन या दिव्यज्ञान के क्षेत्र में किसी प्रकार का अभाव नहीं है। अब भगवान् कहते हैं कि यह नवम अध्याय ऐसे समस्त ज्ञान का राजा है, यह वेदाध्ययन से प्राप्त ज्ञान एवं विभिन्न दर्शनों का सार है। यह गुह्यतम है, क्योंकि गुह्य या दिव्यज्ञान में आत्मा तथा शरीर के अन्तर को जाना जाता है। समस्त गुह्यज्ञान के इस राजा (राजविद्या) की पराकाष्ठा है, भक्तियोग ।

सामान्यतया लोगों को इस गुह्यज्ञान की शिक्षा नहीं मिलती। उन्हें बाह्य शिक्षा दी जाती है। जहाँ तक सामान्य शिक्षा का सम्बन्ध है उसमें राजनीति, समाजशास्त्र, भौतिकी, रसायनशास्त्र, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, इंजीनियरी आदि में मनुष्य व्यस्त रहते हैं। विश्वभर में ज्ञान के अनेक विभाग हैं और अनेक बड़े-बड़े विश्वविद्यालय हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश कोई ऐसा विश्वविद्यालय या शैक्षिक संस्थान नहीं है, जहाँ आत्म-विद्या की शिक्षा दी जाती हो। फिर भी आत्मा शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है, आत्मा के बिना शरीर महत्त्वहीन है। तो भी लोग आत्मा की चिन्ता न करके जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं।

भगवद्गीता में द्वितीय अध्याय से ही आत्मा की महत्ता पर बल दिया गया है। प्रारम्भ में ही भगवान् कहते हैं कि यह शरीर नश्वर है और आत्मा अविनश्वर। (अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः) यही ज्ञान का गुह्य अंश है-केवल यह जान लेना कि यह आत्मा शरीर से भिन्न है, यह निर्विकार, अविनाशी और नित्य है। इससे आत्मा के विषय में कोई सकारात्मक सूचना प्राप्त नहीं हो पाती। कभी-कभी लोगों को यह भ्रम रहता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है और जब शरीर नहीं रहता या मनुष्य को शरीर से मुक्ति मिल जाती है तो आत्मा शून्य में रहता है और निराकार बन जाता है। किन्तु यह वास्तविकता नहीं है। जो आत्मा शरीर के भीतर इतना सक्रिय रहता है वह शरीर से मुक्त होने के बाद इतना निष्क्रिय कैसे हो सकता है? यह सदैव सक्रिय रहता है। यदि यह शाश्वत है, तो यह शाश्वत सक्रिय रहता है और वैकुण्ठलोक में इसके कार्यकलाप अध्यात्मज्ञान के गुह्यतम अंश हैं। अतः आत्मा के कार्यों को यहाँ पर समस्त ज्ञान का राजा, समस्त ज्ञान का गुह्यतम अंश कहा गया है।

यह ज्ञान समस्त कार्यों का शुद्धतुम रूप है, जैसा कि वैदिक साहित्य में बताया गया है। पद्मपुराण में मनुष्य के पापकर्मों का विश्लेषण किया गया है और दिखाया गया है कि ये पापों के फल हैं। जो लोग सकामकर्मों में लगे हुए हैं वे पापपूर्ण कर्मों के विभिन्न रूपों एवं अवस्थाओं में फँसे रहते हैं। उदाहरणार्थ, जब बीज बोया जाता है तो तुरन्त वृक्ष नहीं तैयार हो जाता, इसमें कुछ समय लगता है। पहले एक छोटा सा अंकुर रहता है, फिर यह वृक्ष का रूप धारण करता है, तब इसमें फूल आते हैं, फल लगते हैं और तब बीज बोने वाले व्यक्ति फूल तथा फल का उपभोग कर सकते हैं। इसी प्रकार जब कोई मनुष्य पापकर्म करता है, तो बीज की ही भाँति इसके भी फल मिलने में समय लगता है। इसमें भी कई अवस्थाएँ होती हैं। भले ही व्यक्ति में पापकर्मों का उदय होना बन्द हो चुका को, किन्तु किये गये पापकर्म का फल तब भी मिलता रहता है। कुछ पाप तब भी बीज रूप में बचे रहते हैं, कुछ फलीभूत हो चुके होते हैं, जिन्हें हम दुख तथा वेदना के रूप में अनुभव करते हैं।

जैसा की सातवें अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में बताया गया है जो व्यक्ति समस्त पापकर्मों के फलों (बन्धनों) का अन्त करके भौतिक जगत् के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है, वह भगवान् कृष्ण की भक्ति में लग जाता है। दूसरे शब्दों में, जो लोग भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, वे समस्त कर्मफलों (बन्धनों) से पहले से मुक्त हुए रहते हैं। इस कथन की पुष्टि पद्मपुराण में हुई है –

अप्रारब्धफलं पापं कूटं बीजं फलोन्मुखम् ।
क्रमेणैव प्रलियेत विष्णुभक्तिरतात्मनाम् ।।

जो लोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके सारे पापकर्म चाहे फलीभूत हो चुके हो, सामान्य हों या बीज रूप में हों, क्रमशः नष्ट हो जाते हैं। अतः भक्ति की शुद्धिकारिणी शक्ति अत्यन्त प्रबल है और पवित्रम् उत्तमम् अर्थात् विशुद्धतम कहलाती है। उत्तम का तात्पर्य दिव्य है। तमस् का अर्थ यह भौतिक जगत् या अंधकार है और उत्तम का अर्थ भौतिक कार्यों से परे हुआ। भक्तिमय कार्यों को कभी भी भौतिक नहीं मानना चाहिए यद्यपि कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त भी सामान्य जनों की भाँति रत रहते हैं। जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होता है, वही जान सकता है कि भक्तिमय कार्य भौतिक नहीं होते। वे ध्यात्मिक होते हैं और प्रकृति के गुणों से सर्वथा अदूषित रहते हैं।

कहा जाता है कि भक्ति की सम्पन्नता इतनी पूर्ण होती है कि उसके फलों का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। हमने अनुभव किया है कि जो व्यक्ति कृष्ण के पवित्र नाम (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे) का कीर्तन करता है उसे जप करते समय कुछ दिव्य आनन्द का अनुभव होता है और वह तुरन्त ही समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है। ऐसा सचमुच दिखाई पड़ता है। यही नहीं, यदि कोई श्रवण करने में ही नहीं अपितु भक्तिकार्यों के सन्देश को प्रचारित करने में भी लगा रहता है या कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्यों में सहायता करता है, तो उसे क्रमशः आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव होता रहता है। आध्यात्मिक जीवन की यह प्रगति किसी पूर्व शिक्षा या योग्यता पर निर्भर नहीं करती। यह विधि स्वयं इतनी शुद्ध है कि इसमें लगे रहने से मनुष्य शुद्ध बन जाता है।

वेदान्तसूत्र में (..३६) भी इसका वर्णन प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात् के रूप में हुआ है, जिसका अर्थ है कि भक्ति इतनी समर्थ है कि भक्तिकार्यों में रत होने मात्र से बिना किसी संदेह के प्रकाश प्राप्त हो जाता है। इसका उदाहरण नारद जी के पूर्वजन्म में देखा जा सकता है, जो पहले दासी के पुत्र थे। वे न तो शिक्षित थे, न ही राजकुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु जब उनकी माता भक्तों की सेवा करती रहती थीं, नारद भी सेवा करते थे और कभी-कभी माता की अनुपस्थिति में भक्तों की सेवा स्वयं करते रहते थे। नारद स्वयं कहते हैं-

उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैःसकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिषः ।

एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस-स्तद्धर्म एवात्मरुचिः प्रजायते ।।

श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में (..२५) नारद जी अपने शिष्य व्यासदेव से अपने पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि पूर्णजन्म में बाल्यकाल में वे चातुर्मास में शुद्धभक्तों (भागवतों) की सेवा किया करते थे जिससे उन्हें संगति प्राप्त हुई। कभी-कभी वे ऋषि अपनी थालियों में उच्छिष्ट भोजन छोड़ देते और यह बालक थालियाँ धोते समय उच्छिष्ट भोजन को चखना चाहता था। अतः उसने उन ऋषियों से अनुमति माँगी और जब उन्होंने अनुमति दे दी तो बालक नारद उच्छिष्ट भोजन को खाता था। फलस्वरूप वह अपने समस्त पापकर्मों से मुक्त हो गया। ज्यों-ज्यों वह उच्छिष्ट खाता रहा त्यों-त्यों वह ऋषियों के समान शुद्ध-हृदय बनता गया। चूँकि वे महाभागवत भगवान् की भक्ति का आस्वाद श्रवण तथा कीर्तन द्वारा करते थे अतः नारद ने भी क्रमशः वैसी रूचि विकसित कर ली। नारद आगे कहते हैं –

तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायताम् अनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः ।

ताः श्रद्धया मेSनुपदं विशृण्वतः प्रियश्रवस्यंग ममाभवद् रूचि: ।।

ऋषियों की संगति करने से नारद में भी भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन की रूचि उत्पन्न हुई और उन्होंने भक्ति की तीव्र इच्छा विकसित की। अतः जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है – प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात् – जो भगवद्भक्ति के कार्यों में केवल लगा रहता है उसे स्वतः सारी अनुभूति हो जाती है और वह सब समझने लगता है। इसी का नाम प्रत्यक्ष अनुभूति है।

धर्म्यम् शब्द का अर्थ है “धर्म का पथ”। नारद वास्तव में दासी के पुत्र थे। उन्हें किसी पाठशाला में जाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। वे केवल माता के कार्यों में सहायता करते थे और सौभाग्यवश उनकी माता को भक्तों की सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ था। बालक नारद को भी यह सुअवसर उपलब्ध हो सका कि वे भक्तों की संगति करने से ही समस्त धर्म के परमलक्ष्य को प्राप्त हो सके। यह लक्ष्य है – भक्ति, जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है (स वै पुंसां परो धमों यतो भक्तिरधोक्षजे)सामान्यतः धार्मिक व्यक्ति यह नहीं जानते कि धर्म का परमलक्ष्य भक्ति की प्राप्ति है जैसा कि हम पहले ही आठवें अध्याय के अन्तिम श्लोक की व्याख्या करते हुए क चुके हैं (वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव) सामान्यतया आत्म-साक्षात्कार के लिए वैदिक ज्ञान आवश्यक है। किन्तु यहाँ पर नारद न तो किसी गुरु के पास पाठशाला में गये थे, न ही उन्हें वैदिक नियमों की शिक्षा मिली थी, तो भी उन्हें वैदिक अध्ययन के सर्वोच्च फल प्राप्त हो सके। यह विधि इतनी सशक्त है कि धार्मिक कृत्य किये बिना भी मनुष्य सिद्धि-पद को प्राप्त होता है। यह कैसे सम्भव होता है? इसकी भी पुष्टि वैदिक साहित्य में मिलती है--आचार्यवान् पुरुषो वेद। महान आचार्यों के संसर्ग में रहकर मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक समस्त ज्ञान से अवगत हो जाता है, भले ही वह अशिक्षित हो या उसने वेदों का अध्ययन न किया हो।
भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम्) होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि भक्ति में श्रवणं कीर्तनं विष्णोः रहता है, जिससे मनुष्य भगवान् की महिमा के कीर्तन को सुन सकता है, या प्रामाणिक आचार्यों द्वारा दिये गये दिव्यज्ञान के दार्शनिक भाषण सुन सकता है। मनुष्य केवल बैठे रहकर सीख सकता है, ईश्वर को अर्पित अच्छे स्वादिष्ट भोजन का उच्छिष्ट खा सकता है। प्रत्येक दशा में भक्ति सुखमय है। मनुष्य गरीबी की हालत में भी भक्ति कर सकता है। भगवान् कहते हैं – पत्रं पुष्पं फलं तोयं – वे भक्त से हर प्रकार की भेंट लेने को तैयार रहते हैं। चाहे पत्र हो, पुष्प हो, फल हो या थोडा सा जल, जो कुछ भी संसार के किसी भी कोने में उपलब्ध हो, या किसी व्यक्ति द्वारा, उसकी सामाजिक स्थिति पर विचार किये बिना, अर्पित किये जाने पर भगवान् को वह स्वीकार है, यदि उसे प्रेमपूर्वक चढ़ाया जाय। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं। भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदल का आस्वादन करके सनत्कुमार जैसे मुनि महान भक्त बन गये। अतः भक्तियोग अति उत्तम है और इसे प्रसन्न मुद्रा में सम्पन्न किया जा सकता है। भगवान् को तो वह प्रेम प्रिय है, जिससे उन्हें वस्तुएँ अर्पित की जाती हैं।

यहाँ कहा गया है कि भक्ति शाश्वत है। यह वैसी नहीं है, जैसा कि मायावादी चिन्तक साधिकार कहते हैं। यद्यपि वे कभी-कभी भक्ति करते हैं, किन्तु उनकी यह भावना रहती है कि जब तक मुक्ति न मिल जाये, तब तक उन्हें भक्ति करते रहना चाहिए, किन्तु अन्त में जब वे मुक्त हो जाएँगे तो ईश्वर से उनका तादात्म्य हो जाएगा। इस प्रकार की अस्थायी सीमित स्वार्थमय भक्ति शुद्ध भक्ति नहीं मानी जा सकती। वास्तविक भक्ति तो मुक्ति के बाद भी बनी रहती है। जब भक्त भगवद्धाम को जाता है तो वहाँ भी वह भगवान् की सेवा में रत हो जाता है। वह भगवान् से तदाकार नहीं होना चाहता।

जैसा कि भगवद्गीता में देखा जाएगा, वास्तविक भक्ति मुक्ति के बाद प्रारम्भ होती है। मुक्त होने पर जब मनुष्य ब्रह्मपद पर स्थिर होता है (ब्रह्मभूत) तो उसकी भक्ति प्रारम्भ होती है (समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्)कोई भी मनुष्य कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग या अन्य योग करके भगवान् को नहीं समझ सकता। इन योग-विधियों से भक्तियोग की दिशा किंचित प्रगति हो सकती है, किन्तु भक्ति अवस्था को प्राप्त हुए बिना कोई भगवान् को समझ नहीं पाता। श्रीमद्भागवत में इसकी भी पुष्टि हुई है कि जब मनुष्य भक्तियोग सम्पन्न करके विशेष रूप से किसी महात्मा से श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता सुनकर शुद्ध हो जाता है, तो वह समझ सकता है कि ईश्वर क्या है। इस प्रकार भक्तियोग या कृष्णभावनामृत समस्त विद्याओं का राजा और समस्त गुह्यज्ञान का राजा है। यह धर्म का शुद्धतम रूप है और इसे बिना कठिनाई के सुखपूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि इसे ग्रहण करे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.