अध्याय आठ – भगवान कृष्ण द्वारा अपने मुख के भीतर विराट रूप का प्रदर्शन (10.8)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, तब यदुकुल के पुरोहित एवं तपस्या में बढ़े चढ़े गर्गमुनि को वसुदेव ने प्रेरित किया कि वे नन्द महाराज के घर जाकर उन्हें मिलें।
2 जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि को अपने घर में उपस्थित देखा तो वे उनके स्वागत में दोनों हाथ जोड़े उठ खड़े हुए। यद्यपि गर्गमुनि को नन्द महाराज अपनी आँखों से देख रहे थे किन्तु वे उन्हें अधोक्षज मान रहे थे अर्थात वे भौतिक इन्द्रियों से दिखाई पड़ने वाले सामान्य पुरुष न थे।
3 जब अतिथि रूप में गर्गमुनि का स्वागत हो चुका और वे ठीक से आसन ग्रहण कर चुके तो नन्द महाराज ने भद्र तथा विनीत शब्दों में निवेदन किया; महोदय, भक्त होने के कारण आप सभी प्रकार से परिपूर्ण हैं। फिर भी आपकी सेवा करना मेरा कर्तव्य है। कृपा करके आज्ञा दें कि मैं आपके लिए क्या करूँ?
4 हे महानुभाव, हे महान भक्त, आप जैसे पुरुष अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु दीनचित्त गृहस्थों के लिए ही स्थान-स्थान पर जाते रहते हैं। अन्यथा इस तरह जगह-जगह घूमने में उन्हें कोई रुचि नहीं रहती।
5 हे सन्त पुरुष, आपने ज्योतिष ज्ञान को संकलित किया है, जिससे कोई भी मनुष्य अदृश्य भूत और वर्तमान बातों को समझ सकता है। इस ज्ञान के बल पर कोई भी मनुष्य यह समझ सकता है कि पिछले जीवन में उसने क्या किया और वर्तमान जीवन पर उसका कैसा प्रभाव पड़ेगा। आप इसे जानते हैं।
6 हे प्रभु, आप ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं विशेषतया, क्योंकि आप ज्योतिष शास्त्र से भलीभाँति अवगत हैं। अतएव आप सहज ही हर व्यक्ति के आध्यात्मिक गुरु हैं। ऐसा होते हुए चूँकि आप कृपा करके मेरे घर आए हैं अतएव आप मेरे दोनों पुत्रों का संस्कार करें।
7 गर्गमुनि ने कहा: हे नन्द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ। यह सर्वविदित है। अतः यदि मैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं।
8-9 कंस बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ होने के साथ ही अत्यन्त पापी है। अतः देवकी की पुत्री योगमाया से यह सुनने के बाद कि उसके मारने वाला बालक अन्यत्र कहीं जन्म ले चुका है और यह सुन चुकने पर कि देवकी के आठवे गर्भ से पुत्री उत्पन्न नहीं हो सकती और यह जानते हुए कि वसुदेव से आपकी मित्रता है जब कंस यह सुनेगा कि यदुकुल के पुरोहित मेरे द्वारा संस्कार कराया गया है, तो इन सब बातों से उसे निश्चित रूप से सन्देह हो जायेगा कि कृष्ण देवकी तथा वसुदेव का पुत्र है। तब वह कृष्ण को मार डालने के उपाय करेगा और यह महान विपत्ति सिद्ध होगी।
10 नन्द महाराज ने कहा: हे महामुनि यदि आप सोचते हैं कि आपके द्वारा संस्कार विधि सम्पन्न कराये जाने से कंस सशंकित होगा तो चुपके से वैदिक मंत्रोच्चार करें और मेरे घर की इस गोशाला में ही यह द्विज संस्कार पूरा करें जिससे और तो और मेरे सम्बन्धी तक न जान पायें क्योंकि यह संस्कार अत्यावश्यक है।
11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि से विशेष प्रार्थना की कि वे जो कुछ पहले से करना चाहते थे उसे करें, तो उन्होंने एकान्त स्थान में कृष्ण तथा बलराम का नामकरण संस्कार सम्पन्न किया।
12 गर्गमुनि ने आगे कहा: यह रोहिणी-पुत्र अपने दिव्य गुणों से – सम्बन्धियों तथा मित्रों को सभी तरह का सुख प्रदान करेगा। अतः यह राम कहलाएगा और असाधारण शारीरिक बल का प्रदर्शन करने के कारण यह बलराम कहलायेगा। चूँकि यह दो परिवारों – वसुदेव तथा नन्द महाराज के परिवारों – को जोड़ने वाला है, अतः यह संकर्षण भी कहलायेगा।
13 आपका यह पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है। भूतकाल में उसने तीन विभिन्न रंग—गौर, लाल तथा पीला धारण किये और अब वह श्याम (काले) रंग में उत्पन्न हुआ है। [अन्य द्वापर युग में वह शुक (तोता) के रंग में (भगवान रामचन्द्र के रूप में) उत्पन्न हुआ। अब ऐसे सारे अवतार कृष्ण में एकत्र हो गए हैं ]।
14 अनेक कारणों से आपका यह सुन्दर पुत्र पहले कभी वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट हुआ था। अतएव जो विद्वान हैं, वे इस बालक को कभी-कभी वासुदेव कहते हैं।
15 तुम्हारे इस पुत्र के अपने दिव्य गुणों एवं कर्मों के अनुसार विविध रूप तथा नाम हैं। ये सब मुझे ज्ञात हैं किन्तु सामान्य लोग उन्हें नहीं जानते।
16 यह बालक गोकुल के ग्वालों के दिव्य आनन्द को बढ़ाने हेतु सदैव शुभ कर्म करेगा। इसकी ही कृपा से तुम लोग सारी कठिनाईयों को पार कर सकोगे।
17 हे नन्द महाराज, जैसा कि इतिहास बतलाता है – जब अनियमित अशक्त शासन था, इन्द्र को अपदस्थ कर दिया गया था और लोग चोरों द्वारा सताये जा रहे थे उस समय लोगों की रक्षा करने तथा उनकी समृद्धि के लिए यह बालक प्रकट हुआ और इसने चोर-उचक्कों का दमन कर दिया।
18 देवताओं के पक्ष में सदैव भगवान विष्णु के रहने से असुरगण देवताओं को हानि नहीं पहुँचा सकते। इसी तरह कोई भी व्यक्ति या समुदाय जो कृष्ण के प्रति अनुरक्त है अत्यन्त भाग्यशाली है। चूँकि ऐसे लोग कृष्ण से अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतएव वे कंस के संगियों यथा असुरों (या आन्तरिक शत्रु तथा इन्द्रियों) द्वारा कभी परास्त नहीं किये जा सकते।
19 अतएव हे नन्द महाराज, निष्कर्ष यह है कि आपका यह पुत्र नारायण के सदृश है। यह अपने दिव्य गुण, ऐश्वर्य, नाम, यश तथा प्रभाव से नारायण के ही समान है। आप इस बालक का बड़े ध्यान और सावधानी से पालन करें।
20 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब नन्द महाराज को कृष्ण के विषय में उपदेश देकर गर्गमुनि अपने घर चले गये तो नन्द महाराज अत्यधिक प्रसन्न हुए और अपने को परम भाग्यशाली समझने लगे।
21 कुछ समय बीतने के बाद राम तथा कृष्ण दोनों भाई अपने घुटनों तथा हाथों के बल व्रज के आँगन में रेंगने लगे और इस तरह बालपन के खेल का आनन्द उठाने लगे।
22 जब कृष्ण तथा बलराम अपने पैरों के बल व्रजभूमि में गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न कीचड़ वाली जगहों में रेंगते थे तो उनका रेंगना सरी सृपों के रेंगने जैसा लगता था और उनके पैरों के घुँघरुओं की आवाज अत्यन्त मनोहर लगती थी। वे अन्य लोगों के घुँघरुओं की आवाज से अत्यधिक प्रसन्न होकर उनके पीछे पीछे चल देते मानो अपनी माताओं के पास जा रहे हों। किन्तु जब वे यह देखते कि वे दूसरे लोग हैं, तो भयभीत होकर, अपनी असली माताओं – यशोदा तथा रोहिणी, के पास लौट आते।
23 दोनों बालक गोबर तथा गोमूत्र मिले कीचड़ से सने हुए अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे और जब वे दोनों अपनी माताओं के पास गये तो यशोदा तथा रोहिणी दोनों ने बड़े प्यार से उन्हें उठा लिया, छाती से लगाया और दूध पिलाया। स्तन-पान करते हुए दोनों बालक मुसका रहे थे और उनकी दँतुलियाँ दिख रही थीं। उनके सुन्दर छोटे-छोटे दाँत देखकर उनकी माताओं को परम आनन्द हुआ।
24 ग्वालबालाएँ नन्द महाराज के घर के भीतर राम तथा कृष्ण दोनों बालकों की लीलाएँ देखकर हर्षित होतीं। बच्चे बछड़ों की पूँछ के पिछले भाग पकड़ लेते तो बछड़े उन्हें इधर-उधर घसीटते। जब स्त्रियाँ ये लीलाएँ देखतीं, तो निश्चय ही अपना कामकाज करना बन्द कर देतीं और हँसने लगतीं तथा इन घटनाओं का आनन्द लूटतीं।
25 कृष्ण तथा बलराम दोनों ही इतने चंचल थे कि माता यशोदा तथा रोहिणी अपने-अपने गृहकार्यों में व्यस्त रहते हुए उन्हें –गायों, आग, पंजे तथा दाँत वाले पशुओं (यथा – बन्दरों, कुत्तों, बिल्लियों ), काँटों, जमीन पर रखी तलवारों तथा अन्य हथियारों से होने वाली दुर्घटनाओं से बचाने का प्रयत्न करती रहतीं।
26 हे राजा परीक्षित, थोड़े ही समय में राम तथा कृष्ण दोनों ही उठकर खड़े होने लगे और कुछ-कुछ चलने लगे।
27 तत्पश्चात भगवान कृष्ण, बलराम सहित, ग्वालों के अन्य बच्चों के साथ खेलने लगे और वे सब मिलकर गोपियों को तथा विशेष रूप से यशोदा तथा रोहिणी को परमानन्द प्रदान करते।
28 कृष्ण की अति आकर्षक बाल-सुलभ चंचलता को देखकर पड़ोस की सारी गोपियाँ कृष्ण की क्रीड़ाओं के विषय में बारम्बार सुनने के लिए माता यशोदा के पास पहुँचती और उनसे इस प्रकार कहतीं।
29 हे सखी यशोदा, आपका बेटा कभी कभी हमारे घरों में गौवें दुहने के पहले आ जाता है और बछड़ों को खोल देता है और जब घर का मालिक क्रोध करता है, तो आपका बेटा केवल मुसका देता है। कभी कभी वह कोई ऐसी युक्ति निकालता है, जिससे वह स्वादिष्ट दही, मक्खन तथा दूध चुरा लेता है और तब उन्हें खाता-पीता है। जब बन्दर एकत्र होते हैं, तो वह उनमें ये सब बाँट देता है और जब उनके पेट भर जाते हैं और वे अधिक नहीं खा पाते तो वह बर्तनों को तोड़ जाता है। कभी कभी, यदि उसे घर से मक्खन या दूध चुराने का अवसर नहीं मिलता तो वह घरवालों पर क्रोधित होता है और बदला लेने के लिए वह छोटे-छोटे बच्चों को चिकुटी काटकर भड़का जाता है और जब बच्चे रोने लगते हैं, तो कृष्ण भाग लेता है।
30 जब दूध तथा दही की मटकी को छत से लटकते छींके में ऊँचा रख दिया जाता है और कृष्ण तथा बलराम उस छींके तक नहीं पहुँच पाते तो वे पीढ़ों (लकड़ी की चौकी) को जुटाकर तथा मसाले पीसने की ओखली को उलटकर उस पर चढ़कर उस तक पहुँच जाते हैं। बर्तन के भीतर क्या है, वे अच्छी तरह जानते हैं अतः उसमें छेद कर देते हैं। जब सयानी गोपिकाएँ कामकाज में लगी रहती है, तो कभी-कभी कृष्ण तथा बलराम अँधेरी कोठरी में चले जाते हैं और अपने शरीर में पहने हुए मूल्यवान आभूषणों की मणियों की चमक से उस स्थान को प्रकाशित करके चोरी कर जाते हैं।
31 जब कृष्ण नटखटपन करते पकड़े जाते हैं, तो घर के मालिक उससे कहते, “अरे चोर" और उस पर बनावटी क्रोध प्रकट करते, तब कृष्ण उत्तर देते "मैं चोर नहीं हूँ। चोर तुम हो।" कभी-कभी कृष्ण क्रोध में आकर हमारे साफ-सुथरे घरों में मल-मूत्र विसर्जन कर देता है। किन्तु हे सखी यशोदा, अब वही दक्ष चोर तुम्हारे सामने अच्छे लड़के की तरह बैठा है। कभी-कभी सभी गोपियाँ कृष्ण को भयातुर आँखें किए बैठे देखती थीं, ताकि माता डाँटे फटकारे नहीं और जब वे कृष्ण का सुन्दर मुखड़ा देखतीं तो उसे डाँटने की बजाय वे उनके मुखड़े को देखती ही रह जातीं और दिव्य आनन्द का अनुभव करतीं। माता यशोदा इस खिलवाड़ पर मन्द-मन्द मुसकातीं और उनका मन अपने भाग्यशाली दिव्य बालक को डाँटने को करता ही नहीं था।
32 एक दिन जब कृष्ण अपने छोटे साथियों के साथ बलराम तथा अन्य गोप-पुत्रों के साथ खेल रहे थे तो उनके सारे साथियों ने एकत्र होकर माता यशोदा से शिकायत की कि ”कृष्ण ने मिट्टी खाई है।”
33 कृष्ण के साथियों से यह सुनकर, हितैषिणी माता यशोदा ने कृष्ण के मुख के भीतर देखने तथा डाँटने के लिए उन्हें हाथों से ऊपर उठा लिया। वे डरी डरी आँखों से अपने पुत्र से इस प्रकार बोलीं।
34 हे कृष्ण, तुम इतने चंचल क्यों हो कि एकान्त स्थान में तुमने मिट्टी खा ली? यह शिकायत तुम्हारे बड़े भाई बलराम समेत तुम्हारे संगी-साथियों ने की है। यह क्योंकर हुआ?
35 श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया; “हे माता, मैंने मिट्टी कभी नहीं खाई। मेरी शिकायत करने वाले ये सारे मित्र झूठे हैं। यदि आप सोचती हैं कि वे सच बोल रहे हैं, तो आप मेरे मुँह के भीतर प्रत्यक्ष देख सकती हैं।
36 माता यशोदा ने कृष्ण को धमकाया: “यदि तुमने मिट्टी नहीं खाई है, तो अपना मुँह पूरी तरह खोलो।” इस पर नन्द तथा यशोदा के पुत्र कृष्ण ने मानवी बालक की तरह लीला करने के लिए अपना मुँह खोला। यद्यपि समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान कृष्ण ने अपनी माता के वात्सल्य-प्रेम को ठेस नहीं लगाई, फिर भी उनका ऐश्वर्य स्वत: प्रदर्शित हो गया क्योंकि कृष्ण का ऐश्वर्य किसी भी स्थिति में विनष्ट नहीं होता अपितु उचित समय पर प्रकट होता है।
37-39 जब कृष्ण ने माता यशोदा के आदेश से अपना पूरा मुँह खोला तो उन्होंने कृष्ण के मुख के भीतर सभी चर-अचर प्राणी, बाह्य आकाश, सभी दिशाएँ, पर्वत, द्वीप, समुद्र, पृथ्वीतल, बहती हवा, अग्नि, चन्द्रमा तथा तारे देखे। उन्होंने गृह, जल, प्रकाश, वायु, आकाश तथा अहंकार के रूपान्तर द्वारा सृष्टि देखी। उन्होंने इन्द्रियाँ, मन, तन्मात्राएँ, तीनों गुण (सतो, रजो तथा तमो) भी देखे। उन्होंने जीवों की आयु, प्राकृतिक स्वभाव तथा कर्मफल देखे। उन्होंने इच्छाएँ और विभिन्न प्रकार के चर-अचर शरीर देखे। विराट जगत के इन विविध पक्षों के साथ ही स्वयं को तथा वृन्दावन-धाम को देखकर वे अपने पुत्र के स्वभाव से सशंकित तथा भयभीत हो उठीं।
40 [माता यशोदा अपने में ही तर्क करने लगीं]: क्या यह सपना है या बहिरंगा शक्ति की मोहमयी सृष्टि है? कहीं यह मेरी ही बुद्धि से तो प्रकट नहीं हुआ? अथवा यह मेरे बालक की कोई योगशक्ति है?
41 अतएव मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करती हूँ और उन्हें नमस्कार करती हूँ जो मनुष्य की कल्पना, मन, कर्म, विचार तथा तर्क से परे हैं, जो इस विराट जगत के आदि-कारण हैं, जिनसे यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पालित है और जिनसे हम इस जगत के अस्तित्व का अनुभव करते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार ही कर सकती हूँ क्योंकि वे मेरे चिन्तन, अनुमान तथा ध्यान से परे हैं। वे मेरे समस्त भौतिक कर्मों से भी परे हैं।
42 यह तो भगवान की माया का प्रभाव है, जो मैं मिथ्या ही सोचती हूँ कि नन्द महाराज मेरे पति हैं, कृष्ण मेरा पुत्र है और चूँकि मैं नन्द महाराज की महारानी हूँ इसलिए गौवों तथा बछड़ों की सम्पत्ति मेरे अधिकार में है और सारे ग्वाले तथा उनकी पत्नियाँ मेरी प्रजा हैं। वस्तुतः मैं भी भगवान के नित्य अधीन हूँ। वे ही मेरे अनन्तिम आश्रय हैं।
43 माता यशोदा भगवान की कृपा से असली सत्य को समझ गई लेकिन अन्तरंगा शक्ति, योगमाया के प्रभाव से परम प्रभु ने उन्हें प्रेरित किया कि वे अपने पुत्र के गहन मातृ-प्रेम में लीन हो जाँय।
44 कृष्ण ने अपने मुँह के भीतर जिस विराट रूप को दिखलाया था, योगमाया के उस भ्रम को तुरन्त ही भूलकर माता यशोदा ने अपने पुत्र को पूर्ववत अपनी गोद में ले लिया और अपने दिव्य बालक के प्रति उनके हृदय में और अधिक स्नेह उमड़ आया।
45 भगवान की महिमा का अध्ययन तीनों वेदों, उपनिषदों, सांख्य योग के ग्रन्थों तथा अन्य वैष्णव साहित्य के माध्यम से किया जाता है। फिर भी माता यशोदा परम पुरुष को अपना सामान्य बालक मानती रहीं।
46 माता यशोदा के परम सौभाग्य को सुनकर परीक्षित महाराज ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: हे विद्वान ब्राह्मण, भगवान द्वारा माता यशोदा का स्तन-पान किया गया। उन्होंने तथा नन्द महाराज ने भूतकाल में कौन-से पुण्यकर्म किये जिनसे उन्हें ऐसी प्रेममयी सिद्धि प्राप्त हुई?
47 यद्यपि कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी से इतने प्रसन्न थे कि वे उनके पुत्र रूप में अवतरित हुए किन्तु वे दोनों ही कृष्ण की उदार बाल-लीलाओं का आनन्द नहीं उठा पाये। ये लीलाएँ इतनी महान हैं कि इनका उच्चार करने मात्र से संसार का कल्मष दूर हो जाता है। किन्तु नन्द महाराज तथा यशोदा ने इन लीलाओं का पूर्ण आनन्द प्राप्त किया अतएव उनकी स्थिति वसुदेव तथा देवकी से सदैव श्रेष्ठतर है।
48 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान ब्रह्माजी के आदेश का पालन करने के लिए वसुओं में श्रेष्ठ द्रोण ने अपनी पत्नी धरा समेत ब्रह्मा से इस प्रकार कहा।
49 द्रोण तथा धरा ने कहा: कृपा करके हमें अनुमति दें कि हम पृथ्वी पर जन्म लें जिससे परब्रह्म परम नियन्ता तथा समस्त लोकों के स्वामी भगवान भी प्रकट हों और भक्ति का प्रसार करें जो जीवन का चरम लक्ष्य है और जिसे ग्रहण करके इस भौतिक जगत में उत्पन्न होने वाले लोग सरलता से भौतिकतावादी जीवन की दुखमय स्थिति से उबर सकें।
50 जब ब्रह्मा ने कहा, “हाँ, ऐसा ही हो" तो परम भाग्यशाली द्रोण जो भगवान के समान था, व्रजपुर वृन्दावन में विख्यात नन्द महाराज के रूप में और उनकी पत्नी धरा माता यशोदा के रूप में प्रकट हुए।
51 हे भारत श्रेष्ठ महाराज परीक्षित, तत्पश्चात जब भगवान कृष्ण नन्द महाराज तथा यशोदा के पुत्र बने तो उन दोनों ने निरन्तर, अचल दिव्य वात्सल्य-प्रेम बनाए रखा तथा उनके सानिध्य में वृन्दावन के अन्य सभी निवासी, गोप तथा गोपियों ने कृष्ण-भक्ति-संस्कृति का विकास किया।
52 इस तरह ब्रह्मा के वर को सत्य करने के लिए भगवान कृष्ण बलराम समेत व्रजभूमि वृन्दावन में रहे। उन्होंने विभिन्न बाल-लीलाएँ प्रदर्शित करते हुए नन्द तथा वृन्दावन के अन्य वासियों के दिव्य आनन्द को वर्धित किया।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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