jagdish chandra chouhan's Posts (537)

Sort by

10894552655?profile=RESIZE_584x

अध्याय पच्चीस – प्रकृति के तीन गुण तथा उनसे परे (11.25)

1 भगवान ने कहा : हे पुरुषश्रेष्ठ, मैं तुमसे वर्णन करूँगा कि जीव किस तरह किसी भौतिक गुण की संगति से विशेष स्वभाव प्राप्त करता है। तुम उसे सुनो।

2-5 मन तथा इन्द्रिय संयम, सहिष्णुता, विवेक, नियत कर्म का पालन, सत्य, दया, भूत तथा भविष्य का सतर्क अध्ययन, किसी भी स्थिति में सन्तोष, उदारता, इन्द्रियतृप्ति का परित्याग, गुरु में श्रद्धा, अनुचित कर्म करने पर व्यग्रता, दान, सरलता, दीनता तथा अपने में सन्तोष – ये सतोगुण के लक्षण है। भौतिक इच्छा, महान उद्योग, मद, लाभ में भी असन्तोष, मिथ्या अभिमान, भौतिक उन्नति के लिए प्रार्थना, अन्यों से अपने को विलग तथा अच्छा मानना, इन्द्रियतृप्ति, लड़ने की छटपटाहट, अपनी प्रशंसा सुनने की चाह, अन्यों का मजाक उड़ाने की प्रवृत्ति, अपने बल का विज्ञापन तथा उस बल के द्वारा अपने कर्मों को सही बताना – ये रजोगुण के लक्षण हैं। असह्य क्रोध, कंजूसी, शास्त्रीय आधार के बिना बोलना, उग्र घृणा, परोपजीवन (परावलम्बी), दिखावा, अति थकान, कलह, शोक, मोह, दुख, उदासी, अत्यधिक निद्रा, झूठी आशा, भय तथा आलस्य – ये तमोगुणी लक्षण हैं। अब इन तीनों के मिश्रण के बारे में सुनो।

6 हे उद्धव, मैं तथा मेरा मनोवृत्ति में तीनों गुणों का सम्मिश्रण रहता है। इस जगत के सामान्य व्यवहार, जो मन, अनुभूति के विषयों (तन्मात्राओं), इन्द्रियों तथा शरीर की प्राणवायु द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, भी गुणों के सम्मिश्रण पर आधारित होते हैं।

7 जब मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम में अपने आपको लगाता है, तो उसके उद्यम से प्राप्त श्रद्धा, सम्पत्ति तथा यौन-सुख प्रकृति के तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया को प्रदर्शित करते हैं।

8 जब मनुष्य पारिवारिक जीवन में अनुरक्त होने से इन्द्रियतृप्ति चाहता है और इसके फलस्वरूप जब वह धार्मिक तथा वृत्तिपरक कार्यों में स्थित हो जाता है, तो प्रकृति के गुणों का मिश्रण प्रकट होता है।

9 आत्मसंयम जैसे गुणों को प्रदर्शित करनेवाला व्यक्ति प्रधानतः सतोगुणी माना जाता है। इसी तरह रजोगुणी व्यक्ति अपनी विषयवासना से पहचाना जाता है तथा तमोगुणी व्यक्ति क्रोध जैसे गुण से पहचाना जाता है।

10 कोई व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, यदि अपने नियत कार्यों को बिना किसी आसक्ति के मुझे अर्पित करते हुए मेरी पूजा करता है, तो वह सतोगुणी समझा जाता है।

11 जब कोई व्यक्ति भौतिक लाभ पाने की आशा से अपने नियत कर्मों द्वारा मेरी पूजा करता है, उसका स्वभाव रजोगुणी समझना चाहिए और जब कोई व्यक्ति अन्यों के साथ हिंसा करने की इच्छा से मेरी पूजा करता है, वह तमोगुण में स्थित होता है।

12 प्रकृति के तीनों गुण (सतो, रजो तथा तमो) जीव को तो प्रभावित करते हैं, किन्तु मुझे नहीं। उसके मन में प्रकट होकर ये जीव को भौतिक शरीरों तथा अन्य उत्पन्न वस्तुओं से अनुरक्त होने के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह जीव बँध जाता है।

13 जब प्रदीप्त, शुद्ध तथा शुभ सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण पर हावी होता है, तो मनुष्य सुख, प्रतिभा, ज्ञान तथा अन्य गुणों से युक्त हो जाता है।

14 जब अनुरक्ति, विलगाव तथा कर्मठता का कारणरूप रजोगुण, तमोगुण तथा सतोगुण को जीत लेता है, तो मनुष्य प्रतिष्ठा तथा सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए कठिन श्रम करने लगता है। इस तरह रजोगुण में मनुष्य चिन्ता तथा संघर्ष का अनुभव करता है।

15 जब तमोगुण, रजोगुण तथा सतोगुण को जीत लेता है, तो वह मनुष्य की चेतना को ढक लेता है और उसे मूर्ख तथा आलसी बना देता है। तमोगुणी मनुष्य शोक तथा मोह में पड़कर अत्यधिक सोता है, झूठी आशा करने लगता है और अन्यों के प्रति हिंसा प्रदर्शित करता है।

16 जब चेतना निर्मल हो जाती है और इन्द्रियाँ पदार्थ से विरक्त हो जाती हैं, तो मनुष्य भौतिक शरीर के भीतर निर्भीकता तथा भौतिक मन से विरक्ति का अनुभव करता है। इस स्थिति को सतोगुण की प्रधानता समझना चाहिए क्योंकि इसमें मनुष्य को मेरा साक्षात्कार करने का अवसर मिलता है।

17 तुम्हें रजोगुण का पता उसके लक्षणों से यथा – अत्यधिक कर्म के कारण बुद्धि का विकृत होना, अनुभव करनेवाली इन्द्रियों की संसारी वस्तुओं से अपने को छुड़ाने में असमर्थता, कर्मेन्द्रियों की अस्वस्थ दशा तथा मन की अस्थिरता से – लगा लेना चाहिये।

18 जब मनुष्य की उच्चतर जागरूकता काम न दे और अन्त में लुप्त हो जाय तथा इस तरह मनुष्य अपना ध्यान एकाग्र न कर सके, तो उसका मन विनष्ट हो जाता है और अज्ञान तथा विषाद प्रकट करता है। तुम इस स्थिति को तमोगुण की प्रधानता समझो।

19 सतोगुण की वृद्धि होने के साथ साथ, देवताओं की शक्ति भी बढ़ती जाती है। जब रजोगुण बढ़ता है, तो असुरगण प्रबल हो उठते हैं और तमोगुण की वृद्धि से हे उद्धव! अत्यन्त दुष्ट लोगों की शक्ति बढ़ जाती है।

20 यह जान लेना चाहिए कि जागरूक चैतन्यता सतोगुण से आती है, नींद रजोगुणी स्वप्न देखने से तथा गहरी स्वप्नरहित नींद तमोगुण से आती है। चेतना की चतुर्थ अवस्था इन तीनों में व्याप्त रहती है और दिव्य होती है।

21 वैदिक संस्कृति के प्रति समर्पित विद्वान पुरुष सतोगुण से उत्तरोत्तर उच्च पदों को प्राप्त होते हैं। किन्तु तमोगुण मनुष्य को सिर के बल निम्न से निम्नतर जन्मों में गिरने के लिए बाध्य करता है। रजोगुण से मनुष्य मानव शरीरों में से होकर निरन्तर देहान्तरण करता रहता है।

22 जो लोग सतोगुण में रहते हुए इस जगत से प्रयाण करते हैं, वे स्वर्गलोक जाते हैं; जो रजोगुण में रहते हुए छोड़ते हैं, वे मनुष्य-लोक में रह जाते हैं और तमोगुण में मरने वाले नरक-लोक में जाते हैं। किन्तु जो प्रकृति के सारे गुणों से मुक्त हैं, वे मेरे पास आते हैं।

23 फल का विचार किये बिना जो कर्म मुझे अर्पित किया जाता है, वह सतोगुण माना जाता है। फल की भोगेच्छा से सम्पन्न कर्म रजोगुणी है और हिंसा तथा ईर्ष्या से प्रेरित कर्म तमोगुणी होता है।

24 परम ज्ञान सात्त्विक होता है; द्वैत पर आधारित ज्ञान राजसी होता है और मूर्खतापूर्ण भौतिकतावादी ज्ञान तामसिक है। किन्तु जो ज्ञान मुझ पर आधारित होता है, वह दिव्य माना जाता है।

25 जंगल का वास सतोगुणी, कस्बे का वास रजोगुण, जुआघर का वास तमोगुणी तथा मेरे धाम का वास दिव्य होता है।

26 आसक्तिरहित कर्ता सात्विक होता है; रागान्ध कर्ता राजसी तथा अच्छे-बुरे भेद को पूरी तरह भुला देनेवाला कर्ता तामसिक है। किन्तु जिस कर्ता ने मेरी शरण ले रखी है, वह प्रकृति के गुणों से परे माना जाता है।

27 आध्यात्मिक जीवन की दिशा में लक्षित श्रद्धा सात्विक होती है; सकाम कर्म पर आधारित श्रद्धा राजसी होती है और अधार्मिक कृत्यों में वास करने वाली श्रद्धा तामसी होती है किन्तु मेरी भक्ति में जो श्रद्धा की जाती है, वह शुद्धरूप से दिव्य होती है।

28 जो भोजन लाभप्रद, शुद्ध तथा बिना कठिनाई के उपलब्ध हो सके, वह सात्विक होता है; जो भोजन इन्द्रियों को तुरन्त आनन्द प्रदान करता हो वह राजसी है और जो भोजन गंदा हो तथा कष्ट उत्पन्न करनेवाला हो, वह तामसी है।

29 आत्मा से उत्पन्न सुख सात्विक है; इन्द्रियतृप्ति पर आधारित सुख राजसी है और मोह तथा दीनता पर आधारित सुख तामसी है। किन्तु मेरे भीतर पाया जाने वाला सुख दिव्य है।

30 इसलिए भौतिक वस्तु, स्थान, कर्मफल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, चेतना की दशा, जीव योनि तथा मृत्यु के बाद का गन्तव्य–ये सभी प्रकृति के तीन गुणों पर आधारित होते हैं।

31 हे पुरुषश्रेष्ठ, भौतिकवादिता की सारी दशाएँ भोक्ता आत्मा तथा भौतिक प्रकृति की अन्योन्य क्रिया से सम्बन्धित हैं। चाहे वे देखी हुई हों, सुनी हुईं हो या मन के भीतर सोची-विचारी गई हों, वे किसी अपवाद के बिना प्रकृति के गुणों से बनी हुई होती है।

32 हे सौम्य उद्धव, बद्ध जीवन की ये विभिन्न अवस्थाएँ प्रकृति के गुणों से पैदा हुए कर्म से उत्पन्न होती हैं। जो जीव इन गुणों को, जो मन से प्रकट होते हैं, जीत लेता है, वह भक्तियोग द्वारा अपने आपको मुझे अर्पित कर देता है और इस तरह मेरे प्रति शुद्ध प्रेम प्राप्त करता है।

33 इसलिए इस मनुष्य जीवन को, जो पूर्ण ज्ञान विकसित करने की छूट देता है, प्राप्त करके बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे अपने को प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त कर लें और एकमात्र मेरी भक्ति में लग जायें।

34 समस्त भौतिक संगति से मुक्त तथा मोह से मुक्त बुद्धिमान साधु को चाहिए कि अपनी इन्द्रियों का दमन करे और मेरी पूजा करे। उसे चाहिए कि सतोगुणी वस्तुओं में ही अपने को लगाकर रजो तथा तमोगुणों को जीत ले।

35 तब भक्ति में स्थिर होकर साधु को चाहिए कि गुणों के प्रति अन्यमनस्क रहकर सतोगुण को जीत ले। इस तरह अपने मन में शान्त एवं प्रकृति के गुणों से मुक्त आत्मा, अपने बद्ध जीवन के कारण का ही परित्याग कर देता है और मुझे पा लेता है।

36 मन की सूक्ष्म बद्धता तथा भौतिक चेतना से उत्पन्न गुणों से मुक्त हुआ जीव मेरे दिव्य स्वरूप का अनुभव करने से पूर्णतया तुष्ट हो जाता है। वह न तो बहिरंगा शक्ति में भोग को ढूँढता है, न ही अपने मन में ऐसे भोग का चिन्तन या स्मरण करता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10894539093?profile=RESIZE_710x

अध्याय चौबीस --- सांख्य दर्शन (11.24)

1 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : अब मैं तुमसे सांख्य विज्ञान का वर्णन करूँगा जिसे प्राचीन विद्वानों ने पूर्णतया स्थापित किया है। इस विज्ञान को समझ लेने से मनुष्य तुरन्त भौतिक द्वैत के भ्रम को त्याग सकता है।

2 प्रारम्भ में कृतयुग की कालावधि में सारे लोग आध्यात्मिक विवेक में अत्यन्त निपुण होते थे और इससे भी पूर्व, संहार के समय एकमात्र दृष्टा का अस्तित्व था, जो दृश्य पदार्थ से अभिन्न था।

3 द्वैत से मुक्त रहते हुए तथा सामान्य वाणी एवं मन के लिए दुर्गम होने के कारण, उस एक परम सत्य ने अपने को दो कोटियों में विभक्त कर लिया ये हैं – भौतिक प्रकृति तथा जीव – जो उस प्रकृति के स्वरूपों को भोगने का प्रयास करते हैं।

4 इन दो प्रकार के स्वरूपों में से एक तो भौतिक प्रकृति है, जिसमें दोनों सूक्ष्म कारण विद्यमान हैं और जो पदार्थ को व्यक्त करती है। दूसरा है जीव की चेतना जिसे भोक्ता कहते हैं।

5 जब भौतिक प्रकृति मेरी चितवन से विक्षुब्ध हो गई, तो बद्धजीवों की शेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए तीन गुण—सतो, रजो तथा तमो – प्रकट हुए।

6 इन गुणों से महत तत्त्व के साथ साथ आदि सूत्र उत्पन्न हुआ। महत तत्त्व के रूपान्तर से मिथ्या अहंकार उत्पन्न हुआ जो जीवों के मोह का कारण है।

7 मिथ्या अहंकार जो भौतिक अनुभूति (तन्मात्रा), इन्द्रियों तथा मन का कारण है, आत्मा तथा पदार्थ दोनों को घेर लेता है और सतो, रजो तथा तमो – इन तीन गुणों में प्रकट होता है।

8 तमोगुणी अहंकार से सूक्ष्म शारीरिक अनुभूतियाँ (तन्मात्राएँ) उत्पन्न हुई जिनसे सूक्ष्म तत्त्व उत्पन्न हुए। रजोगुणी अहंकार से इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई तथा सतोगुणी अहंकार से ग्यारह देवता उत्पन्न हुए।

9 मेरे द्वारा प्रेरित ये सारे तत्त्व सुसम्बद्ध रूप में काम करने के लिए परस्पर जुड़ गये तथा उन्होंने ब्रह्माण्ड को जन्म दिया जो मेरा सर्वोत्तम आवास है।

10 मैं उस अंडे के भीतर प्रकट हुआ जो कारणार्णव जल में तैर रहा था और मेरी नाभि से विश्वकमल निकला जो स्वयंभू ब्रह्मा का जन्मस्थल है।

11 रजोगुण से युक्त ब्रह्माण्ड की आत्मा ब्रह्माजी ने मेरी कृपा से महान तपस्या की और इस तरह भूर (भू:), भुवर (भुव:) तथा स्वर (स्व:) नामक तीन लोकों तथा उनके अधिष्ठाता देवताओं की रचना की।

12 स्वर्ग की स्थापना देवताओं के निवास रूप में, भुवर्लोक की भूतप्रेतों के निवास रूप में तथा पृथ्वीलोक की स्थापना मनुष्यों तथा अन्य मर्त्य प्राणियों के स्थान के रूप में की गई। वे योगी जो मोक्ष के लिए उद्यमशील रहते हैं, इन तीनों विभागों से परे भेज दिये जाते हैं।

13 ब्रह्मा ने पृथ्वी के अधोभाग को असुरों तथा नागों के लिए बनाया। इस तरह प्रकृति के तीनों गुणों के अन्तर्गत सम्पन्न होनेवाले विभिन्न प्रकार के कर्मों के लिए संगत फलों के रूप में तीनों लोकों के गन्तव्य व्यवस्थित किये गये।

14 योग, महान तप तथा संन्यास जीवन से महर्लोक, जनोलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक के शुद्ध गन्तव्य प्राप्त किये जाते हैं। किन्तु भक्तियोग से मेरा दिव्य धाम प्राप्त होता है।

15 कालशक्ति के रूप में कर्म करते हुए मुझ परम सृष्टा द्वारा इस जगत में सकाम कर्म के सारे फलों को व्यवस्थित किया गया है। इस तरह प्राणी प्रकृति के गुणों के प्रबल प्रवाह की सतह पर कभी ऊपर उठता है, तो कभी फिर से डूब जाता है।

16 इस जगत में जो भी स्वरूप विद्यमान दिखते हैं – चाहे वे छोटे हों या बड़े, दुबले हों या मोटे – उनमें भौतिक प्रकृति तथा इसका भोक्ता आत्मा दोनों रहते हैं। स्वर्ण तथा मिट्टी मूलतः अवयव रूप में विद्यमान हैं। स्वर्ण से सोने के गहने यथा कंगन तथा बालियाँ और मिट्टी से बर्तन तथा तश्तरियाँ बनाई जा सकती हैं।

17 स्वर्ण तथा मिट्टी जो कि मूल अवयव हैं, वे उनसे बनने वाले पदार्थों के पहले से विद्यमान रहते हैं और जब अन्त में इन पदार्थों को नष्ट किया जाता है, तो वे मूल अवयव-स्वर्ण तथा मिट्टी-बने रहते हैं। इस तरह प्रारम्भ तथा अन्त में अवयव वर्तमान तो रहते ही हैं, वे बीच में भी कंगन, बाली, पात्र अथवा तश्तरी के रूप में उपस्थित रहते हैं, जिन्हें हम ये नाम सुविधा के लिए देते हैं। इसलिए हम यह समझ सकते हैं कि चूँकि अवयवरूपी कारण पदार्थ की सृष्टि के पूर्व तथा पदार्थ के विनाश के बाद विद्यमान रहता है, वही अवयवरूपी कारण व्यक्त अवस्था में भी उपस्थित रहेगा और इस पदार्थ को उसके असली रूप में पुष्ट करेगा।

18 किसी आवश्यक अवयव से बनी हुई भौतिक वस्तु रूपान्तर द्वारा अन्य भौतिक वस्तु उत्पन्न करती है। इस तरह एक उत्पन्न वस्तु अन्य उत्पन्न वस्तु का कारण एवं आधार बनती है। इस तरह कोई विशेष वस्तु इस हेतु असली कहलाती है क्योंकि वह उस दूसरी वस्तु के मूल स्वभाव से युक्त होती है, जो इसकी आदि तथा अन्तिम अवस्था होती है।

19 भौतिक ब्रह्माण्ड को असली माना जा सकता है क्योंकि इसका आदि अवयव तथा इसकी अन्तिम अवस्था प्रकृति है। महाविष्णु प्रकृति के विश्राम स्थल हैं, जो काल की शक्ति से प्रकट होते हैं। इस तरह प्रकृति, सर्वशक्तिमान विष्णु तथा काल मुझ सर्वोपरि परम सत्य से अभिन्न है।

20 जब तक भगवान प्रकृति पर दृष्टिपात करते रहते हैं तब तक भौतिक जगत विद्यमान रहता है और सृजन के महान तथा विविध प्रवाह को प्रसव द्वारा सतत प्रकट करता रहता है।

21 मैं विश्वरूप का आधार हूँ जो लोकों के बारम्बार सृजन, पालन तथा संहार के माध्यम से अनन्त विविधता को प्रदर्शित करता है। मेरे विश्वरूप में सारे लोक अपनी सुप्त अवस्था में रहते हैं और मेरा यह विश्वरूप पाँच तत्त्वों के समन्वयकारी संयोग से नाना प्रकार के जगतों को प्रकट करता है।

22-27 संहार के समय जीव का मर्त्य शरीर भोजन में लीन हो जाता है। भोजन अन्न में लीन होता है और अन्न पुनः पृथ्वी में लीन हो जाते हैं। पृथ्वी अपने सूक्ष्म अनुभूति गन्ध में लीन हो जाती है। गन्ध जल में और जल अपने गुण स्वाद में लीन हो जाता है। स्वाद अग्नि में और अग्नि रूप में लीन हो जाती है। रूप स्पर्श में और स्पर्श आकाश में लीन हो जाता है। आकाश अन्ततः ध्वनि अनुभूति में लीन होता है। सारी इन्द्रियाँ अपने उद्गम रूप अधिष्ठाता देवों में लीन हो जाती हैं। हे सौम्य उद्धव, ये इन्द्रियाँ नियामक मन में लीन होती हैं, जो सात्विक अहंकार में लीन हो जाता है। शब्द तमोगुणी अहंकार में एकाकार हो जाते हैं और सर्वशक्तिमान तथा समस्त शारीरिक तत्त्वों में प्रथम जाना जाने वाला, अहंकार समग्र प्रकृति में लीन हो जाता है। तीन गुणों की धात्री समग्र प्रकृति गुणों में लीन हो जाती है। तब ये गुण प्रकृति के अव्यक्त रूप में लीन होते हैं और यह अव्यक्त रूप काल में लीन हो जाता है। काल परमेश्वर में लीन हो जाता है, जो सर्वज्ञ महापुरुष के रूप में – समस्त जीवों के आदि प्रेरक के रूप में रहते हैं। समस्त जीवन का उद्गम मुझ अजन्मा परमात्मा में – जो अपने भीतर स्थित रहकर अकेला रहता है, लीन हो जाता है। उन्हीं से समस्त सृजन तथा संहार प्रकट होते हैं।

28 जिस तरह उदय होता सूर्य आकाश के अंधकार को हटा देता है, उसी तरह विश्वसंहार का यह विज्ञान गम्भीर अध्येताओं के मन से भ्रामक द्वैत को हटा देता है। यदि किसी तरह हृदय के भीतर भ्रम प्रवेश कर भी जाता है, तो वह वहाँ ठहर नहीं सकता।

29 इस तरह भौतिक तथा आध्यात्मिक वस्तु के पूर्ण दृष्टा मैंने यह सांख्य ज्ञान कहा है, जो सृष्टि तथा संहार के वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा संशय को नष्ट करता है।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

10894326093?profile=RESIZE_710x

अध्याय तेईस – अवन्ती ब्राह्मण का गीत (11.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भक्तो में श्रेष्ठ श्री उद्धव ने दाशार्ह प्रमुख भगवान मुकुन्द से इस तरह सादर अनुरोध किया, तो पहले उन्होंने अपने सेवक के कथन की उपयुक्तता स्वीकार की। भगवान, जिनके यशस्वी कार्य (लीलाएँ) ही श्रवण करने योग्य हैं, ने उद्धव से इस प्रकार कहा।

2 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे बृहस्पति-शिष्य, इस जगत में कोई भी ऐसा साधु पुरुष नहीं है, जो असभ्य व्यक्तियों के अपमानजनक शब्दों से विचलित हुए अपने मन को फिर से स्थिर कर सके।

3 पैने बाण छाती को बेधकर हृदय तक पहुँचने पर उतना कष्ट नहीं देते जितने कि असभ्य पुरुषों द्वारा बोले जाने वाले कटु, अपमानजनक शब्दतीर जो हृदय के भीतर तक धँस जाते हैं।

4 हे उद्धव, इस सम्बन्ध में एक अत्यन्त पावन कथा कही जाती है जिसे अब मैं तुमसे कहूँगा। तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो।

5 एक बार किसी संन्यासी को दुर्जनों द्वारा नाना प्रकार से अपमानित किया गया। किन्तु उसने धैर्यपूर्वक स्मरण किया कि वह अपने ही विगत कर्मों का फल भोग रहा है। मैं तुमसे यह इतिहास तथा उसने जो कुछ कहा था उसे सुनाऊँगा।

6 अवन्ती देश में कोई एक ब्राह्मण रहता था, जो अत्यन्त धनी तथा व्यापार-कार्य में लगा हुआ था, किन्तु वह अत्यन्त कंजूस, कामी, लालची तथा क्रोधी था।

7 उसका घर धर्म तथा वैध इन्द्रियतृप्ति से विहीन होने से, उसमें पारिवारिक जनों तथा अतिथियों का ठीक से, यहाँ तक कि वाणी से भी, आदर नहीं होता था। वह समुचित अवसरों पर अपने शरीर की भी इन्द्रियतृप्ति नहीं होने देता था।

8 चूँकि वह हृदय से कठोर तथा कंजूस था, इसलिए उसकी पत्नी, पुत्रियाँ, पुत्र, नौकर तथा सम्बन्धी, उसके प्रति वैरभाव रखने लगे। ऊब जाने के कारण वे उससे कभी भी स्नेहपूर्ण व्यवहार नहीं करते थे।

9 इस तरह पाँच पारिवारिक यज्ञों के अधिष्ठाता देव उस ब्राह्मण से क्रुद्ध हो उठे जो कि कंजूस होने के कारण अपनी सम्पत्ति की रखवाली यक्ष की तरह करता था और जिसका न इस जगत में, न ही उस लोक में कोई अच्छा गन्तव्य था और जो धर्म तथा विषयभोग से पूरी तरह विहीन हो गया था।

10 हे वदान्य उद्धव, इन देवताओं की उपेक्षा करने से उसके पुण्य तथा उसकी सारी सम्पत्ति का भण्डार खाली हो गया। उसके परिश्रम युक्त प्रयास द्वारा संचित भण्डार पूरी तरह क्षय हो गया।

11 हे उद्धव, इस तथाकथित ब्राह्मण का कुछ धन उसके सम्बन्धियों ने, कुछ चोरों ने, कुछ भाग्य ने, कुछ काल के फेर ने, कुछ सामान्य जनों ने तथा कुछ सरकारी अधिकारियों ने हथिया लिया।

12 अन्त में जब उसकी सम्पत्ति पूरी तरह नष्ट हो गई, तो वह ब्राह्मण जिसने कभी भी धर्म या इन्द्रियभोग नहीं किया था, अपने पारिवारिक जनों से उपेक्षित किया जाने लगा। इस प्रकार वह असहनीय चिन्ता का अनुभव करने लगा।

13 अपनी सारी सम्पत्ति खो जाने से उसे महान पीड़ा तथा शोक हुआ। उसका गला आँसुओं से रुँध गया और वह दीर्घकाल तक अपनी सम्पत्ति के बारे में सोचता रहा। तब उसके मन में वैराग्य की प्रबल अनुभूति जागृत हुई।

14 ब्राह्मण इस प्रकार बोला: हाय! क्या दुर्भाग्य है मेरा! मैंने उस धन के लिए इतना कठिन परिश्रम करते हुए व्यर्थ ही अपने को कष्ट पहुँचाया जो न तो धर्म के लिए था, न ही भौतिक भोग के लिए था।

15 सामान्यतया कंजूसों की सम्पत्ति उन्हें कभी कोई सुख नहीं दे पाती। इस जीवन में यह उनका आत्म-पीड़न करती है और उनके मरने पर उन्हें नरक भेजती है।

16 प्रसिद्ध व्यक्ति की जो भी शुद्ध ख्याति होती है और गुणवान में जो भी प्रशंसनीय गुण रहते हैं, वे किंचित मात्र लालच से उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह आकर्षक शारीरिक सौन्दर्य रंचमात्र श्वेत कुष्ठ से नष्ट हो जाता है।

17 सभी मनुष्यों को सम्पत्ति की कमाई, प्राप्ति, वृद्धि, रक्षा, व्यय, हानि तथा उपभोग में भारी श्रम, भय, चिन्ता तथा भ्रम का अनुभव होता है।

18-19 चोरी, हिंसा, असत्य भाषण, दुहरा बर्ताव, काम, क्रोध, चिन्ता, दर्प, झगड़ा-लड़ाई, शत्रुता, अविश्वास, ईर्ष्या, स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न संकट, जुआ खेलना तथा नशा करना – ये पन्द्रह दुर्गुण सम्पत्ति-लोभ के कारण मनुष्यों को दूषित बनानेवाले हैं। यद्यपि ये दुर्गुण हैं किन्तु लोग भ्रमवश इनको महत्त्व देते हैं। इसलिए जिस व्यक्ति को जीवन का असली लाभ उठाना हो, वह अवांछित भौतिक सम्पत्ति से अपने को अलग रखे।

20 यहाँ तक कि मनुष्य के सगे भाई, पत्नी, माता-पिता तथा मित्र जो उससे प्रेम से बद्ध थे, तुरन्त ही अपना स्नेह-सम्बन्ध तोड़ लेते हैं और एक कौड़ी के कारण शत्रु बन जाते हैं।

21 ये सम्बन्धी तथा मित्रगण थोड़े-से भी धन के लिए अत्यन्त उद्वेलित हो उठते हैं और क्रोध से आग-बबूला हो जाते है। प्रतिद्वन्द्वी बनकर वे तुरन्त सारी सदभावनाएँ त्याग देते हैं और क्षण-भर में ही उसका परित्याग करके उसकी हत्या तक की नौबत आ जाती हैं।

22 जो लोग देवताओं द्वारा भी प्रार्थित मनुष्य जीवन प्राप्त करते हैं और उस मनुष्य जन्म में सर्वोत्तम ब्राह्मण पद को प्राप्त होते हैं, वे अत्यन्त भाग्यशाली हैं। यदि वे इस महत्त्वपूर्ण अवसर की अवहेलना करते हैं, तो वे निश्चय ही अपने निजी हित का हनन करते हैं और विकट दुखद अन्त को प्राप्त होते हैं।

23 ऐसा मर्त्य व्यक्ति कौन होगा जो इस मनुष्य जीवन को जो कि स्वर्ग तथा मोक्ष का द्वार है, प्राप्त करके भौतिक सम्पत्ति रूपी व्यर्थ के धाम के प्रति अनुरक्त होगा?

24 जो व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को उचित भागीदारों – देवताओं, ऋषियों, पितरों, सामान्य जीवों में, अपने निकट सम्बन्धियों, ससुराल वालों और स्वयं में वितरित नहीं कर देता, वह मात्र यक्ष की तरह अपनी सम्पत्ति को बनाये रखता है और अधोगति को प्राप्त होगा।

25 विवेकशील व्यक्ति अपने धन, यौवन तथा बल को सिद्धि प्राप्त करने हेतु लगाने में सक्षम होते हैं। किन्तु मैंने आकुल होकर अपनी सम्पत्ति के संवर्धन के, व्यर्थ के प्रयास में ही इनको लुटा दिया है। अब वृद्ध हो चुकने पर मैं क्या प्राप्त कर सकता हूँ?

26 बुद्धिमान मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए व्यर्थ के सतत प्रयासों से कष्ट क्यों भोगे? निस्सन्देह, यह सारा संसार किसी की मायाशक्ति से अत्यधिक मोहग्रस्त है।

27 जो व्यक्ति मृत्यु के चंगुल में जकड़ा हो, उसके लिए धन या उस धन को देने वाले, इन्द्रियतृप्ति अथवा इन्द्रियतृप्ति प्रदान करने वाले या किसी प्रकार का सकाम कर्म जो उसे इस भौतिक जगत में फिर से जन्म दिलाये, इन सबसे क्या लाभ है?

28 समस्त देवों से युक्त भगवान हरि अवश्य ही मुझ पर प्रसन्न हैं। उन्होंने ही मुझे इस कष्टमय स्थिति तक पहुँचाया है और वैराग्य का अनुभव करने के लिए बाध्य कर दिया है, जो इस भवसागर को पार कराने की नाव है।

29 यदि मेरे जीवन का कोई समय शेष है, तो मैं तपस्या करूँगा और अपने शरीर की आवश्यकताओं को कम से कम कर दूँगा। अब मैं और अधिक भ्रम में न पड़कर जीवन के समग्र आत्म-हित में लगकर अपने आप में तुष्ट रहूँगा।

30 इस तरह इन तीनों लोकों के अधिष्ठाता देवता मुझ पर कृपा करें। निस्सन्देह, महाराज खटवांग को क्षण-भर में वैकुण्ठलोक प्राप्त हो गया था।

31 भगवान कृष्ण ने कहा: वह दृढ़ संकल्प वाला सर्वोत्तम अवन्ती ब्राह्मण अपने हृदय की इच्छारूपी ग्रंथियों को खोलने में समर्थ हो गया। तब उसने शान्त तथा मौन संन्यासी साधु की भूमिका ग्रहण कर ली।

32 वह अपनी बुद्धि, इन्द्रियों तथा प्राणवायु को, वश में रखते हुए पृथ्वी पर विचरण करने लगा। भिक्षा माँगने के लिए वह विविध नगरों तथा ग्रामों में अकेले ही यात्रा करता। उसने अपने उच्च आध्यात्मिक पद का प्रचार नहीं किया, इसलिए अन्य लोग उसे पहचान नहीं पाते थे।

33 हे दयालु उद्धव, उस वृद्ध को, मलिन भिखारी के रूप में देखकर उधमी व्यक्ति अनेक प्रकार से उसे अपमानित करने लगे।

34 इनमें से कुछ लोग तो उसका संन्यासी दण्ड छीन लेते और कुछ उस जलपात्र को, जिसे वह भिक्षापात्र के रूप में काम में ला रहा था। कोई उसका मृगचर्म आसन, तो कोई उसकी जपमाला ले लेता और कोई उसकी फटी-पुरानी गुदड़ी चुरा लेता; वे इन वस्तुओं को उसे दिखा-दिखाकर वापस करने का बहाना करते किन्तु उन्हें पुनः छिपा देते।

35 जब वह भिक्षा द्वारा एकत्र किये गये भोजन को खाने के लिए नदी के तट पर बैठता, तो ऐसे पापी धूर्त आकर उस पर पेशाब कर देते और उसके सिर पर थूकने का दुस्साहस करते।

36 यद्यपि उसने मौन व्रत धारण कर रखा था, किन्तु वे उससे बोलवाने का प्रयास करते और यदि वह न बोलता तो उसे लाठियों से पीटते थे। लोग उसे यह कहकर प्रताड़ित करते कि यह आदमी चोर है। अन्य लोग उसे रस्सी से बाँध देते और चिल्लाते, “इसे बाँध दो! इसे बाँध दो!”

37 वे यह कहकर उसकी आलोचना और अपमान करते "यह व्यक्ति तो ढोंगी और ठग है। यह व्यक्ति धर्म को इसलिए पेशा बनाये हुए है क्योंकि इसने अपनी सारी सम्पत्ति गँवा दी है और इसके परिवार वालों ने इसे बाहर निकाल दिया है।

38-39 कुछ लोग यह कहकर उसका मजाक उड़ाते, “जरा देखो न इस अत्यन्त शक्तिशाली ऋषि को! यह हिमालय पर्वत की तरह धैर्यवान है। यह अपने मौनव्रत से महान संकल्प करके अपना लक्ष्य पाने के लिए एक बगुले की भाँति बना हुआ है।" अन्य लोग उसके ऊपर अपानवायु छोड़ते और कुछ लोग इस द्विज ब्राह्मण को जंजीरों से बाँधकर पालतू पशु की तरह बन्दी बनाकर रखते।

40 वह ब्राह्मण समझ गया कि उसका सारा कष्ट – अन्य जीवों, प्रकृति की उच्च शक्तियों तथा अपने ही शरीर से जन्य – दुर्निवार है क्योंकि यह विधाता द्वारा निश्चित हुआ है।

41 इन निम्न कोटियों के व्यक्तियों द्वारा, जो उसे पतित करने का प्रयास कर रहे थे, अपमानित होने पर भी, वह अपने आध्यात्मिक कर्म में अडिग बना रहा। सतोगुण में अपना संकल्प स्थिर करके, वह निम्नलिखित गीत गाने लगा।

42 ब्राह्मण ने कहा: न तो ये लोग मेरे सुख तथा दुख के कारण हैं, न ही देवता, मेरा शरीर, ग्रह, मेरे विगत कर्म या काल ही। प्रत्युत यह तो एकमात्र मन है, जो सुख तथा दुख का कारण है जो भौतिक जीवन को निरन्तर घुमाता रहता है।

43 शक्तिशाली मन भौतिक गुणों को कार्यशील बनाता है, जिससे सतो, तमो तथा रजोगुण से सम्बद्ध विभिन्न प्रकार के भौतिक कार्यकलाप विकसित होते हैं, इनमें से प्रत्येक गुणवाले कार्यों से संगत जीवन दशाएँ (गतियाँ) उत्पन्न होती हैं।

44 परमात्मा यद्यपि भौतिक शरीर के भीतर संघर्षशील मन के साथ उपस्थित रहता है, किन्तु वह प्रयास नहीं करता (निष्क्रिय रहता है) क्योंकि वह पहले से ही दिव्य प्रकाश से समन्वित होता है। वह मेरे मित्र की भाँति कार्य करते हुए अपने दिव्य पद से केवल साक्षी बनता है। दूसरी ओर अत्यन्त सूक्ष्म आत्मा रूप, मैं इस मन को अपना चुका हूँ जो भौतिक जगत के प्रतिबिम्ब को परावर्तित करनेवाला दर्पण है। इस तरह मैं इन्द्रियविषयों का भोग करने में लगा हूँ और प्रकृति के गुणों के सम्पर्क के कारण बँधा हुआ हूँ।

45 दान, धर्म, यम तथा नियम, शास्त्रों का श्रवण, पुण्यकर्म तथा शुद्ध बनाने वाले व्रत – इन सबका अन्तिम लक्ष्य मन को वश में लाना है। निस्सन्देह, परमेश्वर में मन की एकाग्रता ही सर्वोच्च योग है।

46 यदि किसी का मन पूर्णतया स्थिर तथा शान्त हो, तो आप मुझे यह बतायें कि मनुष्य को कर्मकाण्डी दान तथा अन्य पुण्यकर्म करने की क्या आवश्यकता है? और यदि किसी का मन असंयत रहता है, अज्ञान में डूबा रहता है, तो फिर उसके लिए इन कार्यों से क्या लाभ?

47 सारी इन्द्रियाँ अनन्तकाल से मन के वश में रही हैं और मन कभी भी किसी अन्य के बहकावे में नहीं आता। वह बलवानों से भी बलवान है और उसकी देवतुल्य शक्ति भयावह है। इसलिए जो अपने मन को वश में कर सकता है, वह सभी इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।

48 अनेक लोग इस दुर्जेय शत्रुरूपी मन को, जिसके वेग असह्य हैं और जो हृदय को सताता है जीत न पाने पर, पूर्णतया विमोहित हो जाते हैं और अन्यों से व्यर्थ ही कलह की ठान लेते हैं। इस तरह वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अन्य लोग या तो उनके मित्र हैं अथवा उनके शत्रु हैं या फिर उनसे उदासीन रहनेवाले हैं।

49 जो लोग अपनी पहचान इस शरीर से करते हैं, जो भौतिक मन की उपज है, उनकी बुद्धि मारी जाती है और वे 'मैं' तथा 'मेरा' के रूप में सोचते हैं। अपने इस भ्रम के कारण कि, “यह मैं हूँ किन्तु वह अन्य कोई है" वे लोग अनन्त अंधकार में भटकते रहते हैं।

50 यदि आप यह कहते हैं कि ये लोग ही मेरे सुख तथा दुख के कारण हैं, तो फिर ऐसी धारणा होने पर आत्मा के लिए स्थान कहाँ रहता है? यह सुख तथा दुख आत्मा का नहीं होता अपितु भौतिक शरीरों की अन्योन्य क्रियाओं का है। यदि किसी व्यक्ति की जीभ अपने ही दाँतों से कट जाये, तो इस पीड़ा के लिए वह किस पर क्रोध करे?

51 यदि आप कहें कि शारीरिक इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता दुख के देनेवाले हैं, तो भी ऐसा दुख आत्मा पर कैसे लागू हो सकता है? यह कर्म करना तथा उसके द्वारा प्रभावित होना, परिवर्तनशील इन्द्रियों तथा उनके अधिष्ठाता देवों की अन्योन्य क्रिया मात्र है। यदि शरीर का कोई अंग दूसरे अंग पर आक्रमण करे तो उस शरीर का धारक व्यक्ति किस पर क्रोध करे?

52 यदि आत्मा ही सुख तथा दुख का कारण होता, तो हम अन्यों को दोष न दे पाते, क्योंकि तब सुख तथा दुख आत्मा के स्वभाव होते। इस मत के अनुसार आत्मा से भिन्न अन्य कुछ विद्यमान नहीं होता और यदि हमें आत्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अनुभव करना पड़ता तो वह मोह होता। इसलिए कोई अपने ऊपर या अन्यों पर क्रोध क्यों करे क्योंकि इस मत के अनुसार सुख तथा दुख का वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है।

53 यदि हम इस संकल्पना की परीक्षा करें कि ग्रह ही सुख तथा दुख के तुरन्त कारणरूप हैं, तो भी नित्य आत्मा से उसका सम्बन्ध कहाँ है? आखिर, ग्रहों का प्रभाव केवल उन्हीं वस्तुओं पर पड़ता है जिनका जन्म हो चुका है। इसके अतिरिक्त कुशल ज्योतिषियों ने बतलाया है कि किस तरह विभिन्न ग्रह एक-दूसरे को केवल पीड़ा पहुँचाते हैं। इसलिए, जीव जो कि इन ग्रहों तथा शरीर से पृथक है, वह अपना क्रोध किस पर प्रकट करे?

54 यदि हम यह मान लें कि सकाम कर्म सुख तथा दुख का कारण है, तो भी हम आत्मा की बात नहीं करते। भौतिक कर्म का भाव तब उदय होता है जब कोई चेतनकर्ता और भौतिक शरीर होता है, जो ऐसे कर्म के फल के रूप में सुख तथा दुख के विकारों को प्राप्त होता है। चूँकि शरीर में जीवन नहीं होता, इसलिए यह न तो सुख-दुख का असली प्रापक हो सकता है न ही आत्मा जो अन्ततः पूर्णतया आध्यात्मिक है और शरीर से पृथक रहता है। चूँकि कर्म का न तो शरीर पर, न ही आत्मा पर कोई परम आधार है, तो फिर कोई किस पर क्रोध करे?

55 यदि हम काल को सुख तथा दुख का कारण मान लें, तो भी यह अनुभव आत्मा पर लागू नहीं हो सकता क्योंकि काल भगवान की आध्यात्मिक शक्ति की अभिव्यक्ति है और जीव भी उसी शक्ति के अंश हैं, जो काल के माध्यम से प्रकट होती है। यह निश्चित है कि आग अपनी लौ या चिंगारियों को नहीं जलाती, न ही शीत अपने ही रूप ओलों को हानि पहुँचाती है। वस्तुतः आत्मा दिव्य है और भौतिक सुख-दुख के अनुभव से परे हैं। इसलिए कोई किस पर क्रोध प्रकट करे?

56 मिथ्या अहंकार मायामय जगत को स्वरूप प्रदान करता है और इस तरह वह भौतिक सुख तथा दुख का अनुभव करता है। किन्तु आत्मा भौतिक प्रकृति से परे है। वह किसी भी स्थान, किसी भी दशा में या किसी भी व्यक्ति के माध्यम से भौतिक सुख तथा दुख द्वारा प्रभावित नहीं होता। जो व्यक्ति इसे समझ लेता है उसे भौतिक सृष्टि से डरने की कोई बात नहीं।

57 मैं कृष्ण के चरणकमलों की सेवा में दृढ़ रहकर अविद्या के दुर्लंघ्य सागर को पार कर जाऊँगा। इसकी पुष्टि पिछले आचार्यों द्वारा की गई है, जो परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की भक्ति में स्थिर थे।

58 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा :अपनी सम्पत्ति नष्ट होने से इस तरह विरक्त हुए इस साधु ने अपनी खिन्नता त्याग दी। उसने संन्यास ग्रहण करके घर त्याग दिया और पृथ्वी पर विचरण करने लगा। वह मूर्ख धूर्तों द्वारा अपमानित किये जाने पर भी अपने कर्तव्य में अविचल बना रहा और उसने यह गीत गाया।

59 मनुष्य का अपना ही मानसिक भ्रम आत्मा को सुख तथा दुख का अनुभव कराता है, अन्य कोई नहीं। मित्रों, निरपेक्ष लोगों तथा शत्रुओं के विषय में उसकी धारणा तथा इस धारणा के चारों ओर जिस भौतिक जीवन का वह निर्माण करता है, सभी मात्र अज्ञान के कारण उत्पन्न होते हैं।

60 हे उद्धव, तुम्हें चाहिए कि अपनी बुद्धि मुझ पर स्थिर करके अपने मन को पूरी तरह से वश में लाओ। योग के विज्ञान का सार यही है।

61 जो कोई भी संन्यासी के इस गीत को सुनता या अन्यों को सुनाता है, जिसमें परम पुरुष विषयक वैज्ञानिक ज्ञान प्रस्तुत हुआ है तथा इस तरह जो कोई पूरे मनोयोग से इसका ध्यान करता है, वह फिर कभी भौतिक सुख-दुख के द्वैत से अभिभूत नहीं होगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10894320699?profile=RESIZE_584x

अध्याय बाईस - भौतिक सृष्टि के तत्त्वों की गणना (11.22)

1-3 उद्धव ने पूछा : हे प्रभु, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, ऋषियों ने सृष्टि के तत्त्वों की कितनी संख्या बतलाई है? मैंने आपके मुख से कुल अट्ठाईस का वर्णन सुना है – ईश्वर, जीवात्मा, महत तत्त्व, मिथ्या अहंकार, पाँच स्थूल तत्त्व, दस इन्द्रियाँ, मन, पाँच सूक्ष्म इन्द्रियविषय तथा तीन गुण। किन्तु कुछ विद्वान छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं जबकि अन्य लोग इनकी संख्या पच्चीस या सात, नौ, छह, चार या ग्यारह और कुछ लोग सत्रह, सोलह या तेरह बतलाते हैं। जब ये ऋषि ऐसे विविध प्रकारों से सर्जक तत्त्वों की गणना कर रहे थे, तो उनके मन में क्या था? हे परम शाश्वत, कृपा करके मुझे यह बतायें।

4 भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया : चूँकि सारे तत्त्व सभी जगह उपस्थित रहते हैं इसलिए यह युक्तियुक्त है कि विभिन्न विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी व्याख्या भिन्न भिन्न विधियों से की है। ऐसे सभी दार्शनिकों ने मेरी योगशक्ति का आश्रय लेकर ही ऐसा कहा है, अतएव वे सत्य का खण्डन किये बिना कुछ भी कह सकते हैं।

5 जब दार्शनिकजन तर्क करते हैं, “तुम जिस तरह इस विशेष प्रसंग की व्याख्या करना चाहते हो, मैं उसे उस रूप में नहीं करना चाहता” तो इसमें मेरी दुर्लंघ्य शक्तियाँ ही उनकी विश्लेषणात्मक असहमतियों को प्रेरणा देती हैं।

6 मेरी शक्तियों की अन्योन्य क्रिया से विभिन्न मत (वाद) उत्पन्न होते हैं। किन्तु जिन लोगों ने अपनी बुद्धि मुझ पर स्थिर कर ली है और अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, उनके मतभेद दूर हो जाते हैं और इस तरह तर्क (वाद-विवाद) का कारण ही मिट जाता है।

7 हे पुरुषश्रेष्ठ, चूँकि सूक्ष्म तथा स्थूल तत्त्व एक-दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं, इसलिए दार्शनिकजन विभिन्न प्रकार के विश्लेषण द्वारा मूलभूत भौतिक तत्त्वों की गणना कर सकते हैं।

8 सारे सूक्ष्म तत्त्व वस्तुतः अपने स्थूल कार्यों के भीतर उपस्थित रहते हैं। इसी तरह सारे स्थूल तत्त्व वस्तुतः अपने सूक्ष्म कारणों के भीतर उपस्थित रहते हैं क्योंकि भौतिक सृष्टि सूक्ष्म से स्थूल तत्त्वों की क्रमागत अभिव्यक्ति के रूप में होती है। इस तरह हम किसी एक तत्त्व में सारे भौतिक तत्त्वों को पा सकते हैं।

9 इसलिए इनमें से चाहे जो भी विचारक बोल रहा हो और इसकी परवाह न करते हुए कि वे अपनी गणनाओं में भौतिक तत्त्वों को उनके पिछले सूक्ष्म कारणों में सम्मिलित करें अथवा उनके परवर्ती प्रकट कार्यों के भीतर करें, मैं उनके मतों को प्रामाणिक मान लेता हूँ क्योंकि विभिन्न सिद्धान्तों में से हर एक की तार्किक व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है।

10 चूँकि अनादि काल से अज्ञान से आवृत व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार करने में सक्षम नहीं होता है, अतएव ऐसा कोई अन्य व्यक्ति होना चाहिए जो परम सत्य को पूरी तरह जानता हो और उसे यह ज्ञान प्रदान कर सकता हो।

11 सतोगुणी ज्ञान के अनुसार जीव तथा परम नियन्ता में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। उनमें गुणात्मक अन्तर का अनुमान लगाना व्यर्थ की कल्पना है।

12 मूलतः प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था के रूप में विद्यमान रहती है और ये गुण दिव्य आत्मा के न होकर एकमात्र प्रकृति के होते हैं। ये गुण–सतो, रजो तथा तमो–इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के प्रभावशाली कारण हैं।

13 इस जगत में सतोगुण को ज्ञान, रजोगुण को सकाम कर्म तथा तमोगुण को अज्ञान माना जाता है। काल को भौतिक गुणों की उद्वेलित अन्तःक्रिया के रूप में देखा जाता है और आदि सूत्र अर्थात महत तत्त्व से समग्र कार्यात्मक मनोवृत्ति प्रकट होती है।

14 मैं नौ मूल तत्त्वों का वर्णन भोक्ता आत्मा, प्रकृति, महत तत्त्व की आदि अभिव्यक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के रूप में कर चुका हूँ।

15 हे उद्धव, श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, गन्ध तथा स्वाद – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और वाणी, हाथ, जननेन्द्रिय, गुदा तथा पाँव – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। मन इन दोनों कोटियों में आता है।

16 ध्वनि, स्पर्श, स्वाद, गन्ध तथा रूप ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं और गति, वाणी, उत्सर्ग तथा शिल्प--ये कर्मेन्द्रियों के विषय हैं।

17 सृष्टि के प्रारम्भ में सतो, रजो तथा तमोगुणों के द्वारा प्रकृति इस ब्रह्माण्ड में समस्त सूक्ष्म कारणों तथा स्थूल अभिव्यक्तियों से युक्त होकर अपना रूप ग्रहण करती है। भगवान भौतिक अभिव्यक्ति की पारस्परिक क्रिया में प्रविष्ट नहीं होते, अपितु प्रकृति पर केवल दृष्टिपात करते हैं।

18 जब महत तत्त्व इत्यादि भौतिक तत्त्व रूपान्तरित होते हैं, तो वे भगवान के दृष्टिपात से विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त करते हैं। वे प्रकृति की शक्ति के मिलने-जुलने से विश्व रूपी अंडा (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न करती हैं।

19 कुछ दार्शनिकों के अनुसार तत्त्व सात हैं। ये हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश। इसी के साथ चेतन आत्मा तथा परमात्मा भी सम्मिलित हैं, जो भौतिक तत्त्वों तथा सामान्य आत्मा दोनों ही के आधाररूप हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण-वायु तथा अन्य सारे भौतिक कार्य इन्हीं सात तत्त्वों से उत्पन्न हैं।

20 अन्य दार्शनिकों का कहना है कि तत्त्व छह हैं – पाँच तो भौतिक तत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश) हैं तथा छठा तत्त्व भगवान है। वही भगवान जो अपने से निकले हुए तत्त्वों से युक्त होकर इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और तब स्वयं उसके भीतर प्रवेश करते हैं।

21 कुछ दार्शनिक चार मूलभूत तत्त्वों की उपस्थिति का अनुमोदन करते हैं जिनमें से अग्नि, जल तथा पृथ्वी – ये तीन तत्त्व एक चौथे तत्त्व आत्मा से उद्भूत है। एक बार अस्तित्व में आने पर ये तत्त्व विराट जगत उत्पन्न करते हैं जिसमें सारा भौतिक सृजन होता है।

22 कुछ लोग सत्रह मूलभूत तत्त्वों के अस्तित्व की गणना करते हैं – ये हैं पाँच स्थूल तत्त्व, पाँच इन्द्रियविषय, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, मन तथा सत्रहवाँ आत्मा।

23 सोलह तत्त्वों की गणना करने पर पिछले सिद्धान्त से केवल इतना ही अन्तर होता है कि आत्मा की पहचान मन से कर ली जाती है। यदि हम पाँच भौतिक तत्त्वों, पाँच इन्द्रियों, मन, आत्मा तथा परमेश्वर की कल्पना करें, तो तत्त्वों की संख्या तेरह होती है।

24 ग्यारह की गणना में आत्मा, स्थूल तत्त्व तथा इन्द्रियाँ आती हैं। आठ स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों के साथ परमेश्वर को मिलने पर नौ की संख्या हो जाती है।

25 इस तरह दर्शनिकों ने भौतिक तत्त्वों का विश्लेषण अनेक प्रकार से किया है। उनके सारे प्रस्ताव युक्तियुक्त हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त तर्क के साथ प्रस्तुत किया गया है। निस्सन्देह ऐसी तार्किक प्रखरता की आशा वास्तविक विद्वानों से ही की जाती है।

26 श्री उद्धव ने पूछा: हे कृष्ण, यद्यपि स्वभाव से प्रकृति तथा जीव भिन्न हैं, किन्तु उनमें कोई अन्तर नहीं दिखता क्योंकि वे एक-दूसरे के भीतर निवास करते पाये जाते हैं। इस तरह आत्मा प्रकृति के भीतर और प्रकृति आत्मा के भीतर प्रतीत होती है।

27 हे कमलनयन कृष्ण, हे सर्वज्ञ, कृपया आप अपने उन शब्दों से मेरे हृदय के इस महान संशय को छिन्न-भिन्न कर दें जो आपकी परम तर्कपटुता को दिखलाने वाले हैं।

28 आपसे ही जीवों का ज्ञान उदय होता है और आपकी शक्ति द्वारा वह ज्ञान हर लिया जाता है। दरअसल, आपके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति आपकी माया की असली प्रकृति को नहीं जान सकता।

29 भगवान ने कहा : हे पुरुषश्रेष्ठ, प्रकृति तथा इसका भोक्ता स्पष्ट रूप से पृथक पृथक हैं। यह व्यक्त सृष्टि प्रकृति के गुणों के उद्वेलन पर आधारित होने के कारण निरन्तर रूपान्तरित होती रहती है।

30 हे उद्धव, मेरी माया तीन गुणों वाली है और वह उन्हीं के माध्यम से कार्य करती है। सृष्टि की विविधताओं को उनकी अनुभूति करने के लिए वह चेतना की विविधताओं समेत प्रकट करती है। भौतिक परिवर्तन का व्यक्त परिणाम तीन रूपों में समझा जाता है – आध्यात्मिक, अधिदैविक तथा अधिभौतिक।

31 दृष्टि, दृश्यरूप तथा आँख के छिद्र के भीतर सूर्य का बिम्ब–ये तीनों मिलकर एक दूसरे को प्रकट करने का कार्य करते हैं। किन्तु आकाश में स्थित आदि सूर्य स्वतः प्रकट है। इसी तरह समस्त जीवों का आदि कारण परमात्मा, जो सबों से पृथक है, अपने ही दिव्य अनुभव के प्रकाश से, समस्त प्रकट होनेवाली वस्तुओं के परम स्रोत के रूप में कार्य करता है।

32 इसी तरह से त्वचा, कान, आँखें, जीभ तथा नाक जैसी इन्द्रियाँ तथा सूक्ष्म शरीर के कार्यों – यथा बद्ध चेतना, मन, बुद्धि तथा अहंकार – की व्याख्या इन्द्रिय अनुभूति के विषय तथा अधिष्ठाता देव के तीन गुना अन्तर के रूप में की जा सकती है।

33 जब प्रकृति के तीनों गुण विक्षुब्ध उद्वेलित होते हैं, तो जो विकार उत्पन्न होता है, वह अहंकार तत्त्व की तीन अवस्थाओं में प्रकट होता है – ये हैं सात्विक, तामस तथा राजस। यह अहंकार जो महत तत्त्व से उत्पन्न होता है और जो स्वयं भी अव्यक्त प्रधान से उत्पन्न है, समस्त भौतिक मोह तथा द्वैत का कारण बन जाता है।

34 दार्शनिकों का यह काल्पनिक तर्क कि, “यह जगत सत्य है, अथवा यह जगत सत्य नहीं है" परमात्मा के अपूर्ण ज्ञान पर आधारित है और भौतिक द्वैत को समझने के लिए ही है। यद्यपि ऐसा विवाद व्यर्थ है किन्तु जिन व्यक्तियों ने अपने वास्तविक आत्म रूप मुझसे, अपना ध्यान हटा लिया है, वे इसे त्याग पाने में असमर्थ हैं।

35-36 श्री उद्धव ने कहा : हे परम स्वामी, सकाम कर्मियों की बुद्धि निश्चय ही आपसे विमुख होती है। अतः कृपा करके यह बतायें कि ऐसे लोग किस तरह अपने भौतिकतावादी कार्यों से उच्च तथा निम्न शरीर ग्रहण करते हैं और फिर उनका त्याग करते हैं? हे गोविन्द, यह विषय मूर्खों की समझ में आनेवाला नहीं है। वे इस जगत में माया से ठगे जाने पर भी इस तथ्य से अवगत नहीं हो पाते।

37 भगवान कृष्ण ने कहा: मनुष्यों का भौतिक मन सकाम कर्मों के फल से निरूपित होता है। वह पाँच इन्द्रियों के साथ एक शरीर से दूसरे शरीर में विचरण करता है। यद्यपि आत्मा मन से भिन्न है, किन्तु वह उसका अनुगमन करता है।

38 सकाम कर्मों के फलों से बँधा हुआ मन सदैव उन इन्द्रिय-विषयों का ध्यान करता है, जो इस जगत में दिखते हैं और उन विषयों का भी जो वैदिक विद्वानों से सुने जाते हैं। फलस्वरूप मन अपनी अनुभूति की वस्तुओं के साथ उत्पन्न और विनष्ट होता प्रतीत होता है। इस तरह भूत तथा भविष्य में अन्तर करने की इसकी क्षमता जाती रहती है।

39 जब जीव वर्तमान शरीर से दूसरे शरीर में जाता है, जो उसके अपने कर्म से उत्पन्न होता है, तो वह नये शरीर की आनन्दप्रद तथा पीड़ादायक अनुभूतियों में लीन हो जाता है और पहले वाले शरीर के अनुभव को पूरी तरह भूल जाता है। इस तरह से पूर्व भौतिक पहचान की पूर्ण विस्मृति, जो किसी न किसी बहाने उत्पन्न होती है, मृत्यु कहलाती है।

40 हे परम दानी उद्धव, जिसे जन्म कहा जाता है, वह नवीन शरीर के साथ मनुष्य की पूर्ण पहचान ही है। मनुष्य नया शरीर उसी तरह स्वीकार करता है, जिस तरह कोई स्वप्न के अनुभव या मनोविलास को सत्य मान लेता है।

41 जिस प्रकार मनुष्य स्वप्न या दिवास्वप्न का अनुभव करते हुए अपने पहले के स्वप्नों या दिवास्वप्नों को स्मरण नहीं रख पाता, उसी तरह अपने वर्तमान शरीर में स्थित मनुष्य इसके पूर्व विद्यमान होने पर भी यही सोचता है कि वह अभी हाल ही में अस्तित्व में आया है।

42 चूँकि मन, जो कि इन्द्रियों का आश्रय स्थल है, नवीन शरीर के साथ अपनी पहचान कर लेता है अतएव उच्च, मध्यम तथा निम्न – ये तीन भौतिक श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होने लगती हैं मानो आत्मा की असलियत के भीतर उपस्थित हों। इस तरह आत्मा बाह्य तथा अन्तः द्वैत उत्पन्न करता है, जिस तरह मनुष्य कुपुत्र को जन्म दे।

43 हे उद्धव, भौतिक शरीर काल के अदृश्य तीव्र वेग से निरन्तर उत्पत्ति तथा विनाश को प्राप्त होते रहते हैं। सूक्ष्म प्रकृति होने से काल को कोई देख नहीं पाता।

44 समस्त भौतिक शरीरों के रूपान्तर की विभिन्न अवस्थाएँ उसी तरह बदलती रहती हैं जिस तरह दीपक की लौ, नदी की धारा या वृक्ष के फल बदलते रहते हैं।

45 यद्यपि दीपक की ज्योति में प्रकाश की असंख्य किरणों का सृजन, रूपान्तर और क्षय होता रहता है, किन्तु मोहग्रस्त व्यक्ति जब क्षण-भर के लिए इस प्रकाश को देखता है, तो वह यह झूठी बात कहेगा, “यह दीपक का वही प्रकाश है।" जिस तरह प्रवाहित नदी के जल को जो निरन्तर बहकर आगे बढ़ता जाता है, किसी एक बिन्दु को देखकर कोई यह मिथ्या कहे, “यह नदी का वही जल है।" इसी तरह यद्यपि मनुष्य का शरीर निरन्तर परिवर्तित होता रहता है, किन्तु जो लोग अपने जीवन को व्यर्थ गँवाते हैं, वे झूठे ही यह सोचते और कहते हैं कि शरीर की प्रत्येक विशेष अवस्था उस व्यक्ति की असली पहचान है।

46 मनुष्य न तो पूर्वकर्म के बीज से जन्म लेता है न ही अमर होते हुए वह मरता है। मोह के कारण जीव जन्म लेता तथा मरता प्रतीत होता है, जिस तरह काष्ठ के संसर्ग से अग्नि जलती और फिर बुझती प्रतीत होती है।

47 गर्भस्थापन, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, युवावस्था, अधेड़ आयु, बुढ़ापा तथा मृत्यु – शरीर की ये नौ अवस्थाएँ हैं।

48 यद्यपि भौतिक शरीर आत्मा से भिन्न है, किन्तु भौतिक संगति के कारण उत्पन्न अज्ञान से मनुष्य झूठे ही अपनी पहचान उच्च तथा निम्न शारीरिक अवस्थाओं से करता है। कभी-कभी भाग्यशाली व्यक्ति ऐसी मनोकल्पना को त्यागने में समर्थ होता है।

49 अपने पिता या पितामह की मृत्यु से मनुष्य अपनी मृत्यु का अनुमान लगा सकता है और अपने पुत्र के जन्म से वह अपने जन्म की अवस्था समझ सकता है। इस तरह जो व्यक्ति यथार्थरुप से भौतिक शरीरों की उत्पत्ति को समझ लेता है, वह इन द्वैतों में नहीं पड़ता।

50 जो व्यक्ति बीज से वृक्ष को जन्म लेते देखता है और परिपक्वता प्राप्त करने पर उस वृक्ष की मृत्यु को भी देखता है, वह निश्चित रूप से वृक्ष से पृथक रहकर स्पष्ट साक्षी बन जाता है। इसी तरह भौतिक शरीर के जन्म तथा मृत्यु का साक्षी शरीर से पृथक रहता है।

51 अज्ञानी व्यक्ति अपने को प्रकृति से अलग न समझ पाने से प्रकृति को सत्य समझता है। इसके सम्पर्क से वह पूर्णतया मोहित हो जाता है और संसार-चक्र में प्रवेश करता है।

52 अपने सकाम कर्म के कारण घूमने के लिए बाध्य हुआ, बद्ध आत्मा सतोगुण के सम्पर्क से ऋषियों या देवताओं के बीच जन्म लेता है। रजोगुण के सम्पर्क से वह असुर या मनुष्य बनता है और तमोगुण की संगति से वह भूतप्रेत या पशुजगत में जन्म लेता है।

53 जिस तरह नाचते तथा गाते हुए व्यक्तियों को देखकर कोई व्यक्ति उनका अनुकरण करता है, उसी तरह आत्मा सकाम कर्मों का कर्ता न होते हुए भी, भौतिक बुद्धि द्वारा मोहित हो जाता है और उसके गुणों का अनुकरण करने के लिए बाध्य होता है।

54-55 हे दशार्ह वंशज, आत्मा का भौतिक जीवन, इन्द्रियतृप्ति का उसका अनुभव वास्तव में उसी तरह झूठा होता है, जिस तरह क्षुब्ध जल में प्रतिबिम्बित वृक्षों का हिलना-डुलना या आँखों को चारों ओर घुमाने से पृथ्वी का घूमना या कल्पना अथवा स्वप्न का जगत होता है ।

56 जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति पर अपना ध्यान जमाये रखता है, उसके लिए भौतिक जीवन वास्तविक न होते हुए भी उसी तरह हट नहीं पाता जिस तरह स्वप्न के अरुचिकर अनुभव हटाये नहीं हटते।

57 इसलिए हे उद्धव, तुम भौतिक इन्द्रियों से इन्द्रियतृप्ति भोगने का प्रयास मत करो। यह देखो कि किस तरह भौतिक द्वैत पर आधारित भ्रम मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार से रोकता है।

58-59 जो व्यक्ति जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को पाना चाहता है उसे दुर्जनों द्वारा उपेक्षित होने, अपमानित किये जाने, उपहास या ईर्ष्या किये जाने पर या फिर अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा बारम्बार मारे-पीटे जाने, बाँधे जाने या उसकी निजी जीविका छीने जाने, अपने पर थूके जाने या अपने ऊपर पेशाब किए जाने जैसी सारी कठिनाइयों के बावजूद, अपने आप को आध्यात्मिक पद पर सुरक्षित रखने के लिए, अपनी बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए।

60 श्री उद्धव ने कहा: हे श्रेष्ठ वक्ता, कृपा करके मुझे बतायें कि मैं इसे किस तरह ठीक से समझूँ।

61 हे विश्वात्मा, मनुष्य का व्यक्तित्व भौतिक जीवन में बन्धन अत्यन्त प्रबल है; अतः अज्ञानी पुरुषों द्वारा किये गये अपराधों को सह पाना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी अत्यन्त कठिन है। केवल आपके वे भक्त, जो आपकी प्रेमाभक्ति में निरत है और जिन्होंने आपके चरणकमलों में रहते हुए शान्ति प्राप्त कर ली है। वे ऐसे अपराधों को सह पाने में सक्षम है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10894299076?profile=RESIZE_400x

अध्याय इक्कीस – भगवान कृष्ण द्वारा वैदिक पथ की व्याख्या (11.21)

1 भगवान ने कहा : जो मुझे प्राप्त करने वाली उन विधियों को, जो भक्ति, वैश्लेषिक दर्शन (ज्ञान) तथा नियत कर्मों के नियमित निष्पादन (कर्म-योग) से युक्त हैं, त्याग देता है और भौतिक इन्द्रियों से चलायमान होकर क्षुद्र इन्द्रियतृप्ति में लग जाता है, वह निश्चय ही बारम्बार संसार-चक्र में फँसता जाता है।

2 यह निश्चित मत है कि अपने-अपने पद पर निष्ठा (स्थिरता) वास्तविक शुद्धि कहलाती है और अपने पद से विचलन अशुद्धि है।

3 हे निष्पाप उद्धव, यह समझने के लिए कि जीवन में क्या उचित है, मनुष्य को किसी एक पदार्थ का मूल्यांकन उसकी विशेष कोटि के भीतर ही करना चाहिए। इस तरह धर्म का विश्लेषण करते समय मनुष्य को शुद्धि तथा अशुद्धि पर विचार करना चाहिए। इसी प्रकार अपने सामान्य व्यवहार में मनुष्य को अच्छे तथा बुरे में अन्तर करना चाहिए और अपनी शारीरिक दीर्घजीविता (अतिजीवन) के लिए उसे पहचानना चाहिए कि क्या शुभ है और क्या अशुभ है।

4 मैंने जीवन की यह शैली उन लोगों के लिए प्रकट की है, जो संसारी धार्मिक सिद्धान्तों का भार वहन कर रहे हैं।

5 पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश – ये पाँच मूलभूत तत्त्व भगवान से उद्भूत होते हैं जिनसे ब्रह्मा से लेकर जड़ प्राणियों तक समस्त बद्धजीवों के शरीर बने हैं।

6 हे उद्धव, यद्यपि सारे शरीर इन्हीं पाँच तत्त्वों से बने हैं और इसीलिए समान हैं, किन्तु वैदिक ग्रन्थ ऐसे शरीरों की कल्पना भिन्न भिन्न नामों तथा रूपों में करते हैं जिससे जीव अपने जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर सकें।

7 हे सन्त उद्धव, मैंने भौतिकतावादी कर्मों पर प्रतिबन्धित करने के लिए यह सुनिश्चित कर दिया है कि देश, काल तथा सारी भौतिक वस्तुओं में से कौन उचित है और कौन अनुचित है।

8 स्थानों में से वे स्थान दूषित माने जाते हैं, जो धब्बेदार बारहसिंगों से रहित हैं, जो ब्राह्मणों के प्रति भक्ति से रहित है, जहाँ धब्बेदार बारहसिंगे होते हैं, किन्तु जो सम्माननीय व्यक्तियों से रहित होते हैं तथा कीकट जैसे प्रदेश एवं वे स्थान जहाँ स्वच्छता तथा संस्कारों की अवहेलना की जाती है, जहाँ पृथ्वी बंजर होती है।

9 कोई काल विशेष तब शुद्ध माना जाता है जब वह अपनी प्रकृति से अथवा उपयुक्त साज-सामग्री प्राप्त होने से मनुष्य के नियत कर्तव्य को करने के लिए उपयुक्त हो। वह काल जो किसी के कर्तव्य में बाधक हो अशुद्ध माना जाता है।

10 किसी वस्तु की शुद्धि या अशुद्धि की स्थापना दूसरी वस्तु के सम्प्रयोग से, शब्दों से, अनुष्ठानों (संस्कारों) से, काल के प्रभाव से अथवा आपेक्षिक महत्त्व से की जाती है।

11 अशुद्ध वस्तुएँ किसी व्यक्ति पर पाप लगा सकती हैं अथवा नहीं भी लगा सकतीं जो व्यक्ति की शक्ति अथवा दुर्बलता, बुद्धि, सम्पत्ति, स्थान तथा भौतिक स्थिति पर निर्भर करता है।

12 अन्न, लकड़ी के पात्र, अस्थि से बने पदार्थ, धागे, द्रव, अग्नि से प्राप्त वस्तुएँ, चमड़े तथा मिट्टी से बनी वस्तुएँ – ये सब काल, वायु, अग्नि, पृथ्वी तथा जल के द्वारा अलग अलग से अथवा उनके मिले जुले रूप से शुद्ध हो जाती हैं।

13 कोई शुद्ध करनेवाला पदार्थ तब उपयुक्त माना जाता है जब उसके लगाने से किसी दूषित वस्तु की दुर्गन्ध या गन्दी परत हट जाय और वह अपनी पूर्व प्रकृति को प्राप्त कर ले।

14 स्नान, दान, तप, आयु, निजी बल (सामर्थ्य), संस्कार, नियत कर्म तथा इन सबसे ऊपर मेरे स्मरण द्वारा आत्मशुद्धि की जा सकती है। ब्राह्मण तथा अन्य द्विजातियों को अपना विहित कर्म करने के पूर्व ठीक से शुद्ध हो लेना चाहिए।

15 मंत्र तब शुद्ध होता है, जब उसका समुचित ज्ञान के साथ उच्चारण किया जाय तथा कोई कर्म तब शुद्ध बनता है, जब वह मुझे अर्पित किया जाय। इस तरह स्थान, काल, वस्तु, कर्ता, मंत्र तथा कर्म की शुद्धि से मनुष्य धार्मिक बनता है और इन छहों की उपेक्षा करने से, वह अधार्मिक माना जाता है।

16 कभी पुण्य पाप बनता है और कभी वैदिक आदेशों के बल पर पाप पुण्य बन जाता है। ऐसे विशिष्ट नियमों से पुण्य और पाप का स्पष्ट अन्तर मिट जाता है।

17 जिन कर्मों से एक उच्चासिन व्यक्ति नीचे गिरता है, उन्हीं के द्वारा वे व्यक्ति नीचे नहीं गिरते जो पहले से गिरे हुए (पतित) हैं। निस्सन्देह, जमीन पर लेटा रहनेवाला व्यक्ति और नीचे कैसे गिर सकता है? यह भौतिक संगति, जो मनुष्य के अपने स्वभाव द्वारा निर्देशित होती है, सद्गुण मानी जाती है।

18 किसी पापपूर्ण या भौतिकतावादी कर्म से अपने को दूर रखकर, मनुष्य उसके बन्धन से मुक्त हो जाता है। ऐसा त्याग मनुष्यों के धार्मिक तथा कल्याणप्रद जीवन की आधारभूमि है और यह सारे शोक, मोह तथा भय को दूर कर देता है।

19 जो व्यक्ति भौतिक इन्द्रियविषयों को अभीष्ट मान लेता है, वह निश्चित रूप से उनमें आसक्त हो जाता है। ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और यही काम लोगों में कलह उत्पन्न करता है।

20 कलह से असह्य क्रोध उत्पन्न होता है और उससे अज्ञान का अंधकार उत्पन्न होता है। यह अज्ञान तुरन्त ही मनुष्य की विस्तृत चेतना पर हावी हो जाता है।

21 हे साधु उद्धव, असली बुद्धि से विहीन व्यक्ति को हर वस्तु से विहीन माना गया है। वह जीवन के वास्तविक लक्ष्य से हटकर उसी तरह मन्द (जड़) पड़ जाता है, जिस तरह कि मृत मनुष्य।

22 इन्द्रियतृप्ति में लीन रहने के कारण मनुष्य स्वयं या दूसरों को पहचान नहीं पाता। वह वृक्ष की भाँति अज्ञान में व्यर्थ ही जीवित रहकर धौंकनी की तरह श्वास मात्र लेता रहता है।

23 फल प्रदान करने का वादा करनेवाले श्रुति के वचन मनुष्यों को परम कल्याण दिये जाने की संस्तुति नहीं करते अपितु वे लाभप्रद धार्मिक कर्म करने के लिए प्रलोभन मात्र हैं, जिस तरह कि बच्चे को लाभप्रद औषधी पीने के हेतु, मिश्री देने का प्रलोभन दिया जाता है।

24 निस्सन्देह इन्द्रियतृप्ति, दीर्घायु, इन्द्रिय-कर्म, बल, यौन-शक्ति, मित्रों एवं परिवार के प्रति सारे मनुष्य जन्म से ही आसक्त हैं और इन वस्तुओं में आसक्ति ही वास्तविक जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में बाधक है।

25 अपने स्वार्थ से अनजान लोग भौतिक संसार के मार्ग में विचरण कर रहे हैं और धीरे धीरे अंधकार की ओर अग्रसर हो रहे हैं। भला वेद उन्हें और अधिक इन्द्रियतृप्ति के प्रति क्यों प्रोत्साहित करने लगे यदि वे मूर्खजन विनीत भाव से वैदिक आदेशों पर ध्यान दें।

26 विकृत बुद्धि वाले लोग वैदिक ज्ञान के इस वास्तविक उद्देश्य को नहीं समझ पाते, प्रत्युत वे फलों का वादा करनेवाले वेदों के अलंकारमय कथनों को परम वैदिक सत्य कहकर प्रचार करते हैं। किन्तु जो वेदों के वास्तविक ज्ञाता हैं, वे वेदों का तात्पर्य इस तरह नहीं बताते।

27 काम, क्रोध तथा लोभ से पूरित मनुष्यगण मात्र फूलों को ही जीवन का वास्तविक फल मान बैठते हैं। अग्नि की चमक से मोहग्रस्त होकर तथा इसके धुएँ से घुटकर, वे अपनी असली पहचान नहीं जान पाते।

28 हे उद्धव, वैदिक अनुष्ठानों का आदर करने से प्राप्त इन्द्रियतृप्ति के प्रति समर्पित लोग, यह नहीं समझ सकते कि मैं हर एक के हृदय में स्थित हूँ और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मुझसे अभिन्न नहीं है और मुझी से उद्भूत है। निस्सन्देह, वे उन व्यक्तियों के समान हैं जिनकी आँखें कुहरे से ढकी रहती हैं।

29-30 जो लोग इन्द्रियतृप्ति के वशीभूत हैं, वे मेरे द्वारा बताये गए वैदिक ज्ञान के गुह्य मत को नहीं समझ सकते। वे हिंसा में आनन्द का अनुभव करते हुए अपनी ही इन्द्रियतृप्ति के लिए यज्ञ में निरपराध पशुओं का निष्ठुरता से वध करते हैं और इस तरह वे देवताओं, पितरों तथा भूत-प्रेतों के नायकों की पूजा करते हैं। किन्तु वैदिक यज्ञविधि में हिंसा की ऐसी उत्कट इच्छा को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।

31 जिस तरह कोई मूर्ख व्यापारी व्यर्थ की व्यापारिक सट्टेबाजी में अपनी असली सम्पत्ति गँवा देता है, उसी तरह मूर्ख व्यक्ति जीवन की वास्तविक मूल्यवान वस्तुओं को त्यागकर स्वर्ग जाने के पीछे पड़े रहते हैं, जो सुनने में मोहक तो है किन्तु स्वप्न सदृश असत्य है। ऐसे मोहग्रस्त लोग अपने हृदयों में यह कल्पना करते हैं कि वे सारे भौतिक वर प्राप्त कर सकेंगे।

32 रजो, सतो तथा तमोगुण में स्थित लोग इन्द्र इत्यादि विशिष्ट देवताओं तथा अन्य अर्चाविग्रहों की पूजा करते हैं, जो उन्हीं रजो, सतो या तमोगुण को प्रकट करते हैं, किन्तु वे मेरी समुचित पूजा करने में विफल रहते हैं।

33-34 देवताओं के उपासक सोचते हैं, “हम इस जीवन में देवताओं की पूजा करेंगे और अपने यज्ञों के बल पर हम स्वर्ग जाकर वहाँ भोग करेंगे। भोग समाप्त होने पर हम इस जगत में लौट आयेंगे और राज-परिवारों में वैभवशाली गृहस्थों के रूप में जन्म लेंगे।" ऐसे लोग अत्यधिक घमण्डी तथा लालची होने से, वेदों के अलंकारयुक्त शब्दों से मोहित हो जाते हैं। वे मुझ भगवान की कथाओं के प्रति आकृष्ट नहीं होते।

35 तीन काण्ड वाले वेद अन्तत: यह बतलाते हैं कि जीव ही शुद्ध आत्मा है। किन्तु वैदिक ऋषि-मुनि तथा मंत्र गुह्य रूप से बतलाते हैं और मैं भी ऐसे गोपनीय वर्णनों से प्रसन्न होता हूँ।

36 वेदों की दिव्य ध्वनि को समझ पाना अत्यन्त कठिन है और वह प्राण, इन्द्रियों तथा मन के भीतर विभिन्न स्तरों में प्रकट होती है। यह वैदिक ध्वनि समुद्र के समान असीम, अगाध तथा अथाह है।

37 मैं सारे जीवों के भीतर असीम, अपरिवर्तनीय तथा सर्वशक्तिमान भगवान के रूप में निवास करते हुए, सारे जीवों के भीतर ॐकार के रूप में वैदिक ध्वनि सुस्थापित करता हूँ। वह उसी तरह सूक्ष्म अनुभव की जाती है, जिस तरह कि कमलनाल का एक तन्तु।

38-40 जिस प्रकार मकड़ी अपने हृदय से अपना जाला निकाल कर मुखमार्ग से बाहर उगलती है, उसी तरह भगवान गूँजती हुई आदि प्राणवायु के रूप में अपने को प्रकट करते हैं। इस प्राणवायु में सारे पवित्र वैदिक छन्द तथा दिव्य आनन्द भरे रहते हैं। इस तरह प्रभु अपने हृदय के आकाश से अपने मन के द्वारा महान तथा असीम वैदिक ध्वनि को उत्पन्न करते हैं, जो स्पर्श जैसी नाना प्रकार की ध्वनियों को जन्म देती है। यह वैदिक ध्वनि हजारों दिशाओं में फूटती है और ॐकार वर्ण से विस्तृत विभिन्न अक्षरों से अलंकृत होती है – यथा व्यंजन, स्वर, ऊष्म तथा अन्तस्थ । तत्पश्चात अनेक मौखिक भेदों से वेद का विस्तार होता है और विभिन्न छन्दों में अभिव्यक्ति होती है जिनमें प्रत्येक छन्द पिछले वाले से चार वर्ण अधिक होता है। अन्त में भगवान वैदिक ध्वनि के अपने स्वरूप को अपने ही भीतर समेट लेते हैं।

41 वैदिक छन्द हैं – गायत्री, उष्णीक, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती, अतिछन्द, अत्याष्टि, अतिजगती तथा अतिविराट।

42 सारे जगत में मेरे अतिरिक्त अन्य कोई वैदिक ज्ञान के गुह्य प्रयोजन को नहीं समझता। अतः लोग यह नहीं जानते कि कर्मकाण्ड के अनुष्ठानिक आदेशों में वेद किस बात की संस्तुति कर रहे हैं अथवा उपासनाकाण्ड में प्राप्य पूजा के सूत्रों से कौन-सी वस्तु सूचित होती है अथवा वेदों के ज्ञानकाण्ड में विभिन्न संकल्पनाओं के माध्यम से किसकी विषद व्याख्या की गई है।

43 मैं वेदों द्वारा आदिष्ट अनुष्ठानिक यज्ञ हूँ और मैं ही उपास्य देव हूँ। मैं ही विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों द्वारा प्रस्तुत किया जाता हूँ और दार्शनिक विश्लेषण द्वारा निषेध किया जानेवाला भी मैं ही हूँ। इस तरह दिव्य ध्वनि मुझे समस्त वैदिक ज्ञान के अनिवार्य अर्थ के रूप में स्थापित करती है। सारे वेद समस्त भौतिक द्वैत का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करते हुए उसे मेरी ही मोहक शक्ति मानकर, अन्त में इस द्वैत का पूर्णतया निषेध करते हैं और अपने आप को तुष्ट करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10894292664?profile=RESIZE_400x

अध्याय बीस - शुद्ध भक्ति ज्ञान एवं वैराग्य से आगे निकल जाती है (11.20)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, आप परमेश्वर हैं और इस तरह विधियों तथा निषेधों से युक्त वैदिक वाड्मय आपका आदेश है। ऐसा वाड्मय कर्म के गुण तथा दोषों पर दृष्टि एकाग्र करता है।

2 वैदिक वाड्मय के अनुसार, वर्णाश्रम में उच्च तथा निम्न कोटि के परिवार के पवित्र और पापमय गुणों के कारण हैं। पाप तथा पुण्य किसी स्थिति विशेष यथा – भौतिक अवयव, स्थान, आयु तथा काल में, वैदिक विश्लेषण के संदर्भ बिन्दु हैं। निस्सन्देह, वेदों से भौतिक स्वर्ग तथा नरक के अस्तित्व प्रकट होते हैं, जो निश्चित रूप से पाप तथा पुण्य पर आधारित हैं।

3 पाप तथा पुण्य के बीच के अन्तर को जाने बिना भला कोई किस तरह आपके उन आदेशों को जो कि वैदिक वाड्मय के रूप में हैं, समझ सकता है, जो मनुष्य को पुण्य करने का आदेश देते हैं और पाप करने से मना करते हैं? इतना ही नहीं, अन्ततोगत्वा मोक्ष प्रदान करनेवाले ऐसे प्रामाणिक वैदिक वाड्मय के बिना, मनुष्य किस तरह जीवन-सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं?

4 हे प्रभु, प्रत्यक्ष अनुभव से परे वस्तुओं को – यथा आध्यात्मिक मोक्ष या स्वर्ग-प्राप्ति, अन्य भौतिक भोग जो हमारी वर्तमान क्षमता से परे हैं तथा सभी वस्तुओं के साध्य-साधन को समझने के लिए – पितरों, देवताओं तथा मनुष्यों को वैदिक वाड्मय से मार्गदर्शन लेना चाहिए क्योंकि ये सर्वोच्च प्रमाण तथा ईश्वरी ज्ञान हैं।

5 हे प्रभु, पाप तथा पुण्य में दिखाई पड़ने वाला अन्तर आपके वैदिक ज्ञान से उत्पन्न होता है और वह स्वयमेव उत्पन्न नहीं होता। यदि वही वैदिक वाड्मय बाद में पाप तथा पुण्य के ऐसे अन्तर को निरस्त कर दे, तो निश्चित रूप से भ्रम उत्पन्न होगा।

6 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे उद्धव, चूँकि मेरी इच्छा है कि मनुष्य सिद्धि प्राप्त करे, अतएव मैंने उत्थान के तीन मार्ग प्रस्तुत किये हैं–ज्ञान, कर्म तथा भक्ति-मार्ग। इन तीनों के अतिरिक्त ऊपर उठने का अन्य कोई साधन नहीं है।

7 तीनों मार्गों में से ज्ञान-योग अर्थात दार्शनिक चिन्तन का मार्ग उन लोगों के लिए संस्तुत किया गया है, जो भौतिक जीवन से ऊब चुके हैं और सामान्य सकाम कर्मों से विरक्त हैं। जो लोग भौतिक जीवन से ऊबे नहीं है और जिन्हें अब भी अनेक इच्छाएँ पूरी करनी हैं, उन्हें कर्म-योग के माध्यम से मोक्ष की खोज करनी चाहिए।

8 यदि कहीं कोई सौभाग्यवश मेरी महिमा के सुनने तथा कीर्तन करने में श्रद्धा उत्पन्न कर लेता है, तो ऐसे व्यक्ति को जो भौतिक जीवन से न तो अत्यधिक ऊबा रहता है न आसक्त रहता है मेरी प्रेमाभक्ति के मार्ग द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए।

9 जब तक मनुष्य सकाम कर्म से तृप्त नहीं हो जाता और श्रवणम् कीर्तनं विष्णो: द्वारा भक्ति के लिए रुचि जागृत नहीं कर लेता, तब तक उसे वैदिक आदेशों के विधानों के अनुसार कर्म करना होता है।

10 हे उद्धव, जो व्यक्ति वैदिक यज्ञों द्वारा समुचित पूजा करके, किन्तु ऐसी पूजा का फल न चाहकर, अपने नियत कर्तव्य में स्थित रहता है, वह स्वर्गलोक नहीं जाता है; इसी तरह निषिद्ध कार्यों को न करने से वह नरक नहीं जाएगा।

11 जो व्यक्ति अपने नियत कर्म में दृढ़ रहता है, जो पापमय कार्यों से मुक्त होता है और भौतिक कल्मष से रहित होता है, वह इसी जीवन में या तो दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है या दैववश मेरी भक्ति पाता है।

12 स्वर्ग तथा नरक दोनों ही के निवासी पृथ्वीलोक पर मनुष्य का जन्म पाने की आकांक्षा रखते हैं क्योंकि मनुष्य-जीवन दिव्य ज्ञान तथा भगवतप्रेम की प्राप्ति को सुगम बनाता है, जबकि न तो स्वर्गिक, न ही नारकीय शरीर पूर्णत: ऐसा अवसर सुलभ कराते हैं।

13 जो मनुष्य विद्वान हो उसे न तो कभी स्वर्गलोक जाने, न नरक में निवास करने की इच्छा करनी चाहिए। दरअसल, मनुष्य को पृथ्वी पर भी स्थायी निवास की कामना नहीं करनी चाहिए क्योंकि भौतिक देह में ऐसी तल्लीनता से मनुष्य अपने वास्तविक आत्म-हित के प्रति मूर्खतावश उपेक्षा बरतने लगता है।

14 यह जानते हुए कि यद्यपि भौतिक शरीर मर्त्य है, तो भी यह उसे जीवन-सिद्धि प्रदान कर सकता है, विद्वान व्यक्ति को मृत्यु आने के पूर्व इस अवसर का लाभ उठाने में मूर्खतावश उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिए।

15 जब साक्षात मृत्यु रूपी क्रूर पुरुषों द्वारा उस वृक्ष को काट दिया जाता है, जिसमें किसी पक्षी का घोंसला बना था, तो वह पक्षी बिना किसी आसक्ति के उस वृक्ष को त्याग देता है और इस तरह वह अन्य स्थान में सुख का अनुभव करता है।

16 यह जानते हुए कि मनुष्य की आयु दिन-रात बीतने के साथ क्षीण होती जा रही है, उसे भय से काँपना चाहिए। इस तरह सारी भौतिक आसक्ति तथा इच्छा त्याग कर, वह भगवान को समझने लगता है और पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है।

17 जीवन का समस्त लाभ प्रदान करनेवाला मानव शरीर प्रकृति के नियमों द्वारा स्वतः प्राप्त होता है यद्यपि यह अत्यन्त दुर्लभ है। इस मानव शरीर की तुलना बड़े जतन से निर्मित नाव से की जा सकती है, जिसका माझी गुरु है और भगवान के आदेश वे अनुकूल हवाएँ हैं, जो उसे आगे बढ़ाती हैं। इन सारे लाभों पर विचार करते हुए जो मनुष्य अपने जीवन का उपयोग संसाररूपी सागर को पार करने में नहीं करता, उसे अपनी ही आत्मा का हन्ता माना जाना चाहिए।

18 भौतिक सुख के लिए समस्त प्रयासों से ऊबकर तथा निराश होकर, योगी जब इन्द्रियों को पूरी तरह नियंत्रित करके विरक्ति उत्पन्न कर ले, तब उसे आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा अपने मन को अविचल भाव से आध्यात्मिक धरातल पर स्थिर करना चाहिए।

19 जब भी आध्यात्मिक धरातल पर एकाग्र मन सहसा अपनी आध्यात्मिक पद से भटके, तो मनुष्य को चाहिए कि वह सावधानी से नियत साधनों के सहारे उसे अपने वश में कर ले।

20 मनुष्य को चाहिए कि मानसिक कार्यों के वास्तविक लक्ष्य को दृष्टि से ओझल न होने दे, प्रत्युत प्राणवायु तथा इन्द्रियों पर विजय पाकर तथा सतोगुण से सुदृढ़ हुई बुद्धि का उपयोग करके, मन को अपने वश में कर ले।

21 एक कुशल घुड़सवार तेज घोड़े को पालतू बनाने की इच्छा से सर्वप्रथम घोड़े को कुछ देर उसकी राह चलने देता है, तब लगाम खींच कर धीरे धीरे उसे इच्छित राह पर ले आता है। इसी प्रकार सर्वोत्कृष्ट योगिविधि वह है, जिससे मनुष्य मन की गतियों तथा इच्छाओं का सावधानी से अवलोकन करता है और क्रमशः उन्हें पूर्ण वश में कर लेता है।

22 जब तक मनुष्य का मन आध्यात्मिक तुष्टि प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे समस्त भौतिक वस्तुओं की नश्वर प्रकृति का, चाहे वे विराट विश्व की हों, पृथ्वी की हों या सूक्ष्म हों, वैश्लेषिक अध्ययन करते रहना चाहिये। उसे सृजन का अनुलोम विधि से और संहार का प्रतिलोम विधि से निरन्तर अवलोकन करना चाहिए।

23 जब कोई व्यक्ति इस जगत के नश्वर तथा मोहमय स्वभाव से ऊब उठता है और इस तरह उससे विरक्त हो जाता है, तो उसका मन अपने गुरु के आदेशों से मार्गदर्शन पाकर, इस जगत के स्वभाव के बारे में बारम्बार विचार करता है और अन्त में पदार्थ के साथ अपनी झूठी पहचान को त्याग देता है।

24 मनुष्य को चाहिए कि योग-प्रणाली के विभिन्न यमों तथा संस्कारों द्वारा, तर्क तथा आध्यात्मिक शिक्षा द्वारा अथवा मेरी पूजा और उपासना द्वारा, योग के लक्ष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के स्मरण में अपने मन को लगाये। इस कार्य के लिए वह अन्य साधनों का प्रयोग न करे।

25 यदि क्षणिक असावधानी से कोई योगी अकस्मात कोई गर्हित (निन्दित) कर्म कर बैठता है, तो उसे चाहिए कि वह योगाभ्यास द्वारा उस पाप को कभी भी किसी अन्य विधि का प्रयोग किए बिना भस्म कर डाले।

26 यह दृढ़तापूर्वक घोषित है कि योगियों का अपने-अपने आध्यात्मिक पदों पर निरन्तर बने रहना असली पुण्य है और जब कोई योगी अपने नियत कर्तव्य की अवहेलना करता है, तो वह पाप होता है। जो पाप तथा इस पुण्य के मानदण्ड को, इन्द्रियतृप्ति के साथ समस्त पुरानी संगति को सच्चे दिल से त्यागने की इच्छा से अपनाता है, वह भौतिकतावादी कर्मों को वश में कर लेता है, जो स्वभावतः अशुद्ध होते हैं।

27-28 मेरे यश की कथाओं में श्रद्धा उत्पन्न करके, सारे भौतिक कार्यों से ऊबकर और यह जानते हुए भी कि सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति दुखदायी है, किन्तु इन्द्रियभोग त्याग पाने में असमर्थ, मेरे भक्त को चाहिए कि वह सुखी रहे और अत्यन्त श्रद्धा तथा पूर्ण विश्वास के साथ मेरी पूजा करे। कभी कभी इन्द्रियभोग में लगे रहते हुए भी, मेरा भक्त जानता है कि समस्त प्रकार की इन्द्रियतृप्ति का परिणाम दुख है और वह ऐसे कार्यों के लिए सच्चे दिल से पश्चाताप करता है।

29 जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति मेरे द्वारा बताई गई प्रेमाभक्ति के द्वारा निरन्तर मेरी पूजा करने में लग जाता है, तो उसका हृदय दृढ़तापूर्वक मुझमें स्थित हो जाता है। इस तरह उसके हृदय के भीतर की सारी भौतिक इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं।

30 जब मैं उसे भगवान के रूप में दिखता हूँ, तो उसके हृदय की गाँठ खुल जाती है, सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं तथा सकाम कर्मों की शृंखला समाप्त हो जाती है।

31 इसलिए वह भक्त जो मुझ पर अपना मन स्थिर करके मेरी प्रेमाभक्ति में लगा रहता है, उसके लिए ज्ञान का अनुशीलन तथा वैराग्य सामान्यतया इस जगत में सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के साधन नहीं हैं।

32-33 इन सारी वस्तुओं को जो सकाम कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान, धर्म तथा जीवन को पूर्ण बनानेवाले अन्य सारे साधनों से प्राप्त की जाती हैं, मेरा भक्त मेरे प्रति भक्ति से अनायास प्राप्त कर लेता है। यदि मेरा भक्त किसी न किसी तरह स्वर्ग जाने, मोक्ष या मेरे धाम में निवास करने की इच्छा करता है, तो वह ऐसे वर सरलता से प्राप्त कर लेता है।

34 चूँकि मेरे भक्तगण साधुवत आचरण तथा गम्भीर बुद्धि वाले होते हैं, इसलिए वे अपने आपको पूरी तरह मुझमें समर्पित कर देते हैं और मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहते। सच तो यह है कि यदि मैं उन्हें जन्म-मृत्यु से मुक्ति भी प्रदान करता हूँ, तो वे इसे स्वीकार नहीं करते।

35 कहा जाता है कि पूर्ण विरक्ति मुक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, इसलिए जिसकी कोई निजी इच्छा नहीं होती और जो निजी लाभ के पीछे नहीं भागता, वह मेरी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकता है।

36 इस जगत के अच्छे तथा बुरे से उत्पन्न भौतिक पुण्य तथा पाप मेरे शुद्ध भक्तों के अन्तःकरण में नहीं रह सकते क्योंकि वे भौतिक लालसा से मुक्त होने के कारण सभी परिस्थितियों में आध्यात्मिक चेतना को स्थिर बनाए रखते हैं। निस्सन्देह, ऐसे भक्तों ने भौतिक बुद्धि से अतीत मुझ भगवान को पा लिया है।

37 जो लोग मेरे द्वारा सिखलाये गये, मुझे प्राप्त करने के इन नियमों का गम्भीरता से पालन करते हैं, वे मोह से छुटकारा पा लेते हैं और मेरे धाम में पहुँचने पर वे परम सत्य को भलीभाँति समझ जाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

10894222462?profile=RESIZE_400x

अध्याय उन्नीस - आध्यात्मिक ज्ञान की सिद्धि (11.19)

1 भगवान ने कहा : जिस स्वरूपसिद्ध व्यक्ति ने प्रकाश पाने के बिन्दु तक शास्त्रीय ज्ञान का अनुशीलन किया है और जो भौतिक ब्रह्माण्ड को मात्र मोह समझकर, निर्वेशेष चिन्तन से मुक्त हो गया है, उसे चाहिए कि वह उस ज्ञान को तथा उसे प्राप्त करनेवाले साधनों को मुझे समर्पित कर दे।

2 विद्वान स्वरूपसिद्ध दार्शनिकों के लिए मैं ही पूजा का एकमात्र लक्ष्य, इच्छित जीवन-लक्ष्य, उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन तथा समस्त ज्ञान का स्थापित निष्कर्ष हूँ। चूँकि मैं उनके सुख का तथा दुख से विमुक्ति का कारण हूँ, अतः ऐसे विद्वान व्यक्ति एकमात्र मुझे ही जीवन का प्रभावशाली उद्देश्य या प्रिय लक्ष्य बनाते हैं।

3 जिन्होंने दार्शनिक तथा अनुभूत ज्ञान द्वारा पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली है, वे मेरे चरणकमलों को परम दिव्य वस्तु मानते हैं। इस प्रकार का विद्वान योगी मुझे अत्यन्त प्रिय होता है और इस पूर्ण ज्ञान से वह मुझे धारण किये रखता है।

4 जो सिद्धि आध्यात्मिक ज्ञान के एक अंशमात्र से उत्पन्न होती है, वह तपस्या करने, तीर्थस्थानों में जाने, मौन प्रार्थना करने, दान देने अथवा अन्य पुण्यकर्मों में लगने से प्राप्त नहीं की जा सकती।

5 इसलिए हे उद्धव, तुम ज्ञान के द्वारा अपने वास्तविक स्व को जानो। तत्पश्चात अपने वैदिक ज्ञान की स्पष्ट अनुभूति से आगे बढ़ते हुए प्रेमाभक्ति के भाव से मेरी पूजा करो।

6 बड़े बड़े मुनि वैदिक ज्ञान तथा आध्यात्मिक प्रबुद्धता रूपी यज्ञ के द्वारा यह जानते हुए अपने अन्तःकरण में मेरी पूजा करते थे कि मैं ही समस्त यज्ञों का परम स्वामी तथा प्रत्येक हृदय में परमात्मा रूप हूँ। इस तरह से इन मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की।

7 हे उद्धव, प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित भौतिक शरीर तथा मन तुमसे लिपटे रहते हैं, किन्तु वास्तव में, वे माया हैं क्योंकि वे वर्तमान काल में ही प्रकट होते हैं। इनका कोई आदि या अन्त नहीं है। इसलिए यह कैसे सम्भव हो सकता है कि शरीर की विभिन्न अवस्थाएँ – यथा जन्म, वृद्धि, प्रजनन, पालन, जरा तथा मृत्यु – तुम्हारी नित्य आत्मा से कोई सम्बन्ध रखते हों? इन अवस्थाओं का सम्बन्ध एकमात्र भौतिक देह से है, जिसका न तो इसके पूर्व अस्तित्व था और न रहेगा। शरीर केवल वर्तमान काल में रहता है।

8 श्री उद्धव ने कहा : हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड स्वरूप, कृपा करके मुझे ज्ञान की वह विधि बतलाइये जो स्वतः विरक्त तथा सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति लाने वाली है, जो दिव्य है और महान आध्यात्मिक दार्शनिकों में परम्परा से चली आ रही है। महापुरुषों द्वारा खोजा जाने वाला यह ज्ञान आपके प्रति प्रेमाभक्ति को बताने वाला है।

9 हे प्रभु, जो व्यक्ति जन्म तथा मृत्यु के भयावह मार्ग में सताया जा रहा है और तीनों तापों से निरन्तर त्रस्त रहता है, उसके लिए मुझे आपके दो चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्भव आश्रय नहीं दिख रहा। ये उस सुखदायक छाते के तुल्य हैं, जो अमृत की वर्षा करता है।

10 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, कृपा कीजिये और इस निराश जीव को ऊपर उठाइये जो अँधेरे भवकूप में गिर गया है जहाँ कालरूपी सर्प ने उसे डस लिया है। ऐसी गर्हित अवस्था होते हुए भी यह बेचारा जीव अत्यन्त क्षुद्र भौतिक सुख भोगने की उत्कट इच्छा पाले हुए है। हे प्रभु, आप अपने उस उपदेशामृत को छिड़क कर मेरी रक्षा कीजिये, जो आध्यात्मिक मुक्ति के लिए जागृत करनेवाला है।

11 भगवान ने कहा : हे उद्धव, जिस तरह तुम मुझसे पूछ रहे हो, उसी तरह राजा युधिष्ठिर ने जिन्हें अजातशत्रु कहा जाता है, महानतम धर्म-धारक भीष्मदेव से पूछा था और हम सभी ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।

12 जब कुरुक्षेत्र का भीषण युद्ध समाप्त हो गया, तो राजा युधिष्ठिर अपने प्रिय हितैषियों की मृत्यु से विह्वल थे। इस तरह अनेक धार्मिक सिद्धान्तों के विषय में उपदेश सुनकर, अन्त में उन्होंने मोक्ष-मार्ग के विषय में जिज्ञासा की थी।

13 अब मैं तुमसे भीष्मदेव के मुख से सुने वैदिक ज्ञान, विरक्ति, आत्म-अनुभूति, श्रद्धा तथा भक्ति के उन धार्मिक सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा।

14 मैं स्वयं उस ज्ञान को निश्चित करता हूँ जिससे मनुष्य सारे जीवों में नौ, ग्यारह, पाँच तथा तीन तत्त्वों का सम्मेल देखता है और अन्त में इन अट्ठाईस तत्त्वों के भीतर केवल एक तत्त्व देखता है।

15 जब कोई व्यक्ति एक ही कारण से उत्पन्न 28 पृथक पृथक भौतिक तत्त्वों को न देखकर, एक कारण रूप भगवान को देखता है, उस समय मनुष्य का प्रत्यक्ष अनुभव विज्ञान कहलाता है।

16 आदि, अन्त तथा मध्य ये तीन अवस्थाएँ तो भौतिक सृष्टि की हैं। जो इन सारी भौतिक अवस्थाओं में एक सृजन (आदि) से दूसरे सृजन (अन्त) तक साथ-साथ लगा रहता है और जब सारी अवस्थाओं का प्रलय हो जाता है, तो भी जो अकेला बचता है, वही एक शाश्वत है।

17 वैदिक ज्ञान, प्रत्यक्ष अनुभव, परम्परागत विद्या (ऐतिह्यम्) तथा तार्किक अनुमान – इन चार प्रकार के प्रमाणों से मनुष्य भौतिक जगत की अस्थिर दशा को समझकर, इस जगत के द्वैत से विरक्त हो जाता है।

18 बुद्धिमान पुरुष यह समझे कि कोई भी भौतिक कर्म निरन्तर रूपान्तरित होता रहता है, यहाँ तक कि ब्रह्मलोक में भी केवल दुख ही दुख है। निस्सन्देह, बुद्धिमान व्यक्ति यह समझ सकता है कि जिस तरह सारी दृश्य वस्तुएँ क्षणिक हैं, उसी तरह ब्रह्माण्ड के भीतर सारी वस्तुओं का आदि और अन्त है।

19 हे निष्पाप उद्धव, चूँकि तुम मुझे चाहते हो इसलिए मैं तुम्हें भक्ति की विधि पहले ही बतला चुका हूँ। अब मैं तुमसे पुनः अपनी प्रेमाभक्ति पाने की श्रेष्ठ विधि बताऊँगा।

20-24 मेरी लीलाओं की आनन्दमयी कथाओं में अगाध श्रद्धा, मेरी महिमा का निरन्तर कीर्तन, मेरी नियमित पूजा में गहन आसक्ति, सुन्दर स्तुतियों से मेरी प्रशंसा करना, मेरी भक्ति का समादर, साष्टांग नमस्कार, मेरे भक्तों की उत्तम पूजा, सारे जीवों में मेरी चेतना का ज्ञान, सामान्य शारीरिक कार्यों को मेरी भक्ति में अर्पण, मेरे गुणों का वर्णन करने के लिए धन-सम्पदा का प्रयोग, मुझे अपना मन अर्पित करना, समस्त भौतिक इच्छाओं का बहिष्कार, मेरी भक्ति के लिए सम्पत्ति का परित्याग, भौतिक इन्द्रियतृप्ति तथा सुख का परित्याग तथा मुझे पाने के उद्देश्य से दान, यज्ञ, कीर्तन, व्रत, तपस्या इत्यादि वांछित कार्यों को सम्पन्न करना–ये वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त हैं, जिनसे मेरे शरणागत हुए लोग स्वतः मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न कर लेते हैं। तो फिर मेरे भक्त के लिए कौन-सा अन्य उद्देश्य या लक्ष्य शेष रह जाता है?

25 जब सतोगुण में सम्पुष्ट शान्त चेतना भगवान पर स्थिर कर दी जाती है, तो मनुष्य को धार्मिकता, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

26 जब मनुष्य की चेतना भौतिक देह, घर तथा इन्द्रियतृप्ति की ऐसी ही अन्य वस्तुओं पर टिक जाती है, तो वह इन्द्रियों की सहायता से भौतिक वस्तुओं के पीछे दौड़ लगाते-लगाते अपना जीवन व्यतीत करता है। इस तरह रजोगुण से बलपूर्वक प्रभावित चेतना नश्वर वस्तुओं के प्रति समर्पित हो जाती है, जिससे आसक्ति, अधर्म तथा अज्ञान उत्पन्न होते हैं।

27 वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त वे हैं, जो मनुष्य को मेरी भक्ति तक ले जाते हैं। असली ज्ञान वह जानकारी है, जो मेरी सर्वव्यापकता को प्रकट करती है। इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में पूर्ण अरुचि ही वैराग्य है और अणिमा सिद्धि जैसी आठ सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य है।

28-32 श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, हे शत्रुओं को दण्ड देनेवाले, कृपा करके मुझे यह बतायें कि कितने प्रकार के अनुशासनात्मक नियम (यम) तथा नियमित दैनिक कार्य (नियम) हैं। यही नहीं, हे प्रभु, मुझे यह भी बतायें कि मानसिक संतुलन क्या है, आत्मसंयम क्या है और सहिष्णुता तथा दृढ़ता का असली अर्थ क्या है? दान, तपस्या तथा शौर्य क्या हैं और वास्तविकता तथा सच्चाई का किस तरह वर्णन किया जाता है? त्याग क्या है और धन-सम्पदा क्या है? इच्छित क्या है, यज्ञ क्या है और दक्षिणा क्या है? हे केशव, हे भाग्यवान, मैं किस तरह किसी व्यक्ति के बल, ऐश्वर्य तथा लाभ को समझूँ? सर्वोत्तम शिक्षा क्या है? वास्तविक नम्रता क्या है और असली सौन्दर्य क्या है? सुख और दुख क्या हैं? कौन विद्वान है और कौन मूर्ख? जीवन के असली तथा मिथ्या मार्ग क्या हैं और स्वर्ग तथा नरक क्या हैं? असली मित्र कौन है और असली घर क्या है? कौन धनी है और कौन निर्धन है? कौन कंजूस है और कौन वास्तविक नियन्ता है? हे भक्तों के स्वामी, कृपा करके मुझे इन बातों के साथ साथ इनकी विपरीत बातें भी बतायें।

33-35 भगवान ने कहा: अहिंसा, सत्य, दूसरों की सम्पत्ति के लिए लालायित न होना या चोरी न करना, वैराग्य, दीनता, अपरिग्रह, धर्म में विश्वास, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा तथा अभय – ये बारह मूल अनुशासनात्मक यम (नियम) हैं। आन्तरिक तथा बाह्य स्वच्छता, भगवन्नाम कीर्तन, यज्ञ, श्रद्धा, आतिथ्य, मेरी पूजा, तीर्थाटन, केवल परम लक्ष्य के लिए इच्छा तथा कार्य करना, सन्तोष तथा गुरु-सेवा ये बारह नियमित कार्य (नियम) हैं। ये चौबीसों कार्य उन लोगों को इच्छित वर देनेवाले हैं, जो उनका भक्तिपूर्वक अनुशीलन करते हैं।

36-39 मुझमें बुद्धि लगाना मानसिक संतुलन (शम) है और इन्द्रियों का पूर्ण संयम आत्मसंयम (दम) है। सहिष्णुता का अर्थ है धैर्यपूर्वक दुख सहना। स्थिरता तब आती है जब मनुष्य जीभ तथा जननेन्द्रियों पर विजय पा लेता है। सबसे बड़ा दान है अन्यों के प्रति सभी प्रकार की छेड़छाड़ त्यागना। काम (विषय-वासना) का परित्याग ही असली तपस्या है। असली शौर्य भौतिक जीवन का भोग करने की सहज प्रवृत्ति को जीतना है तथा भगवान का सर्वत्र दर्शन करना ही सच्चाई (सत्य) है। सत्यता का अर्थ है मधुर ढंग से सत्य बोलना जैसा कि महर्षियों ने घोषित किया है। स्वच्छता का अर्थ है सकाम कर्मों से विरक्ति जबकि त्याग ही संन्यास है। मनुष्यों की असली इष्ट सम्पत्ति धार्मिकता है और मैं, भगवान ही यज्ञ हूँ। आध्यात्मिक उपदेश प्राप्त करने के उद्देश्य से गुरु-भक्ति ही दक्षिणा है और सबसे बड़ी शक्ति है श्वास रोकने की प्राणायाम विधि।

40-45 वास्तविक ऐश्वर्य भगवान के रूप में मेरा निजी स्वभाव है, जिसके माध्यम से मैं छह असीम ऐश्वर्यों को प्रकट करता हूँ। जीवन का सबसे बड़ा लाभ मेरी भक्ति है और असली शिक्षा (विद्या) आत्मा के भीतर के मिथ्या द्वैतभाव को समाप्त करना है। असली उदारता अनुचित कार्यों से घृणा करना है। विरक्ति जैसे सद्गुण का होना सौन्दर्य है। भौतिक सुख तथा दुख को लाँघना असली सुख है और असली दुख तो यौनसुख की खोज में अपने को फँसाना है। बुद्धिमान वही है, जो बन्धन से छूटने की विधि जानता है और मूर्ख वह है, जो अपनी पहचान अपने शरीर तथा मन से करता है। जीवन में असली मार्ग वह है, जो मुझ तक ले जानेवाला है और कुमार्ग इन्द्रियतृप्ति है, जिससे चेतना मोहग्रस्त हो जाती है। वास्तविक स्वर्ग सतोगुण की प्रधानता है और अज्ञान की प्रधानता ही नरक है। मैं समस्त ब्रह्माण्ड के गुरु रूप में हर एक का असली मित्र हूँ। मनुष्य का घर उसका शरीर है। हे प्रिय मित्र उद्धव, जो सद्गुणों से युक्त है, वही धनी कहा जाता है और जो जीवन से असंतुष्ट रहता है, वही निर्धन है। कृपण वह है, जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकता और असली नियंत्रक वह है, जो इन्द्रियतृप्ति में आसक्त नहीं होता। इसके विपरीत जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति में आसक्त रहता है, वह दास होता है। इस प्रकार हे उद्धव, मैंने तुम्हारे द्वारा पूछे गये सारे विषयों की व्याख्या कर दी है। इन सद्गुणों तथा दुर्गुणों की अधिक विशद व्याख्या की आवश्यकता नहीं है क्योंकि निरन्तर गुण तथा दोषों को देखना स्वयं में एक दुर्गुण है। सर्वोत्कृष्ट गुण तो भौतिक गुण और दोष को लाँघ जाना है।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

10894204488?profile=RESIZE_400x

असीम सौन्दर्य तथा आनन्द के इच्छुक व्यक्तियों के लिए पूजा के असली लक्ष्य भगवान कृष्ण हैं,

जिनका निवास गोलोक वृन्दावन है। (तात्पर्य श्रीमदभागवतम – 11.18.20)

अध्याय अठारह – वर्णाश्रम धर्म का वर्णन (11.18)

1 भगवान ने कहा : जो जीवन के तीसरे आश्रम अर्थात वानप्रस्थ को ग्रहण करने का इच्छुक हो, उसे पत्नी को अपने जवान पुत्रों के साथ छोड़कर या अपने साथ लेकर शान्त मन से जंगल में प्रवेश करना चाहिए।

2 वानप्रस्थ आश्रम अपनाने पर मनुष्य को चाहिए कि जंगल में उगने वाले शुद्ध कन्द, मूल तथा फल खाकर जीविका चलाये। वह पेड़ की छाल, घास, पत्ते या पशुओं की खाल पहने।

3 वानप्रस्थ को अपने सिर, शरीर या मुखमण्डल के बाल नहीं सँवारने चाहिए, अपने नाखून नहीं काटने चाहिए, अनियमित समय पर मल-मूत्र त्याग नहीं करना चाहिए और दाँतों की सफाई का विशेष प्रयास नहीं करना चाहिए। उसे जल में नित्य तीन बार स्नान करके संतुष्ट रहना चाहिए और जमीन पर सोना चाहिए।

4 इस प्रकार वानप्रस्थ में लगा हुआ व्यक्ति तपती गर्मी के दिनों में अपने चारों ओर जलती अग्नि तथा सिर के ऊपर तपते सूर्य को झेलकर तपस्या करे। वर्षा ऋतु में वह वर्षा की झड़ी में बाहर रहे और ठिठुरती शीत ऋतु में वह गले तक पानी में डूबा रहे।

5 वह अग्नि द्वारा तैयार किया गया भोजन यथा अन्न अथवा समय से पके फलों को खा सकता है। वह अपने भोजन को सील-बट्टे से या अपने दाँतों से पीस सकता है।

6 वानप्रस्थ को चाहिए कि देश, काल तथा अपनी सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए, शरीर के पालन हेतु जो आवश्यक हो, उसे एकत्र करे। उसे भविष्य के लिए कोई वस्तु संग्रह नहीं करनी चाहिए।

7 जिसने वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किया हो उसे चाहिए कि जंगल में पाये जानेवाले धान तथा अन्य अन्नों से तैयार की गई यज्ञ-रोटी (पुरोडाश) की आहुतियों से ऋतु के अनुसार यज्ञ सम्पन्न करे। किन्तु वानप्रस्थ को चाहिए कि वह मुझे पशुबलि कभी न अर्पित करे, यहाँ तक कि उन्हें भी नहीं, जो वेदों में वर्णित हैं।

8 वानप्रस्थ को चाहिए कि अग्निहोत्र, दर्श तथा पौर्णमास यज्ञों को उसी तरह करता रहे जिस तरह गृहस्थाश्रम में करता था। उसे चातुर्मास्य के व्रत तथा यज्ञ भी सम्पन्न करने चाहिए क्योंकि वेदविदों ने वानप्रस्थों के लिए इन अनुष्ठानों का आदेश दिया है।

9 कठिन तपस्या करते हुए तथा मात्र जीवन की आवश्यकताओं को स्वीकार करते हुए सन्त-वानप्रस्थ में इतना दुर्बल हो जाता है कि उसकी चमड़ी तथा अस्थियाँ ही रह जाती हैं। इस तरह कठिन तपस्या द्वारा मेरी पूजा करके वह महर्लोक जाता है और वहाँ मुझे प्राप्त करता है।

10 जो व्यक्ति दीर्घकालीन प्रयत्न द्वारा इस कष्टप्रद किन्तु महान तपस्या को मात्र क्षुद्र इन्द्रियतृप्ति के लिए सम्पन्न करता है, उसे सबसे बड़ा मूर्ख समझना चाहिए।

11 यदि वानप्रस्थ वृद्धावस्था को प्राप्त हो और शरीर शिथिलता के कारण अपने नियत कर्म पूरा न कर सके, तो उसे चाहिए कि ध्यान द्वारा यज्ञ-अग्नि को अपने हृदय के भीतर स्थापित करे। फिर अपने मन को मुझमें टिकाकर उस अग्नि में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दे।

12 यह समझते हुए कि ब्रह्मलोक को भी, प्राप्त कर पाना दयनीय स्थिति है – वानप्रस्थ सकाम कर्मों के सभी सम्भव परिणामों से पूर्ण विरक्त होकर संन्यास आश्रम ग्रहण कर सकता है।

13 शास्त्रीय आदेशों के अनुसार मेरी पूजा करके तथा यज्ञ-पुरोहित को अपनी सारी सम्पत्ति देकर, उसे यज्ञ-अग्नि को अपने भीतर धारण कर लेना चाहिए। इस तरह मन को पूर्णतया विरक्त करके वह संन्यास आश्रम में प्रवेश करे।

14 देवतागण यह सोचकर कि, “संन्यास लेकर यह व्यक्ति हमसे आगे निकलकर भगवदधाम जा रहा है” संन्यासी के मार्ग में उसकी पूर्व पत्नी या अन्य स्त्रियों तथा आकर्षक वस्तुओं के रूप में प्रकट होकर अवरोध उत्पन्न करते हैं। किन्तु संन्यासी को चाहिए कि देवताओं तथा उनके स्वरूपों पर कोई ध्यान न दे।

15 यदि संन्यासी लंगोटे के अतिरिक्त भी कुछ पहनना चाहे तो वह कौपीन को ढकने के लिए अपनी कमर और कूल्हे के चारों ओर कोई ओढ़न इस्तेमाल कर सकता है। अन्यथा, यदि विशेष आवश्यकता न हो तो वह दण्ड तथा कमण्डलु के अतिरित कुछ भी स्वीकार न करे।

16 सन्त पुरुष को चाहिए कि अपनी आँखों से यह निश्चित करके अपना पाँव रखे कि ऐसा कोई जीव या कीट तो नहीं है, जो उसके पाँव से कुचल जायगा। उसे अपने वस्त्र के एक छोर से छानकर ही जल पीना चाहिए और पवित्र तथा सत्य शब्द बोलने चाहिए। इसी प्रकार उसे वे ही कर्म करने चाहिए जिन्हें उसके मन ने शुद्ध निश्चित कर लिया हो।

17 हे उद्धव, जिसने व्यर्थ बोलने, कार्य करने तथा प्राणवायु को नियंत्रण में रखने के इन तीन आन्तरिक अनुशासनों को नहीं अपनाया है, वह बाँस के दण्ड उठाने मात्र से संन्यासी नहीं माना जा सकता।

18 जो घर दूषित तथा अस्पृश्य हों उनका तिरस्कार करके वानप्रस्थ को चाहिए कि बिना पूर्व निश्चय के सात घरों में जाय और भीख माँगने से जो भी प्राप्त हो उससे तुष्ट हो ले। आवश्यकतानुसार वह चारों वर्णों के घरों में जा सकता है।

19 वह भिक्षा माँगने से एकत्र हुआ भोजन लेकर, जनाधिक्य वाले क्षेत्रों को त्यागकर एकान्त स्थान में किसी जलाशय के निकट जाये। वहाँ पर स्नान करके तथा भलीभाँति हाथ धोकर भोजन का कुछ अंश माँगने वालों में बाँटे। वह बिना बोले ऐसा करे। तब शेष बचे भाग को ठीक से साफ करके, अपनी थाली का सारा भोजन खा ले और बाद के लिए कुछ भी न छोड़े।

20 बिना किसी आसक्ति के, इन्द्रियों को पूरी तरह वश में करके, उत्साही बने रहकर तथा भगवान के साक्षात्कार एवं अपने में तुष्ट सन्त पुरुष को अकेले ही पृथ्वी पर विचरण करना चाहिए। उसे सर्वत्र समदृष्टि रखते हुए आध्यात्मिक पद पर स्थिर रहना चाहिए।

21 मुनि को चाहिए कि सुरक्षित तथा एकान्त स्थान में रहते हुए और निरन्तर मेरे ध्यान द्वारा मन को शुद्ध करके, स्वयं को मुझसे अभिन्न मानते हुए, अपने मन को एकमात्र आत्मा में एकाग्र करे।

22 मुनि को चाहिए कि स्थिर ज्ञान द्वारा वह आत्मा के बन्धन तथा मोक्ष की प्रकृति को निश्चित कर ले। बन्धन तब होता है जब इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति की ओर चलायमान होती हैं और इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण ही मोक्ष है।

23 इसलिए पाँचों इन्द्रियों तथा मन को कृष्णभावनामृत द्वारा पूर्ण नियंत्रण में रखते हुए, मुनि को अपने भीतर आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करके, क्षुद्र इन्द्रियतृप्ति से विरक्त हो जाना चाहिए।

24 मुनि को चाहिए कि वह बहती नदियों द्वारा परिशुद्ध हुए स्थानों, पर्वतों एवं जंगलों के एकान्त में घूमे। वह अपने जीवन निर्वाह के लिए भिक्षा माँगने के निमित्त ही, शहरों, ग्रामों तथा चारागाहों में प्रवेश करे और सामान्य कामकाजी लोगों के पास जाये।

25 वानप्रस्थ आश्रम में जीवन बिताने वाले को चाहिए कि वह अन्यों से दान लेता रहे क्योंकि इससे वह मोह से छूट जाता है और शीघ्र ही आध्यात्मिक जीवन में सिद्ध बन जाता है। दरअसल, जो इस विनीत भाव से प्राप्त भोजन से अपना पेट पालता है, उसका जीवन शुद्ध हो जाता है।

26 मनुष्य को चाहिए कि उन भौतिक वस्तुओं को चरम सत्य के रूप में न देखे जो निश्चित ही नष्ट हो जाएँगी। भौतिक आसक्ति से रहित चेतना द्वारा उसे उन सारे कार्यों से विलग हो जाना चाहिए जो इस जीवन में तथा अगले जीवन की भौतिक प्रगति के निमित्त हों।

27 मनुष्य को चाहिए कि तर्कसंगत रूप से भगवान के भीतर स्थिर ब्रह्माण्ड तथा मन, वाणी एवं प्राणवायु से निर्मित अपने भौतिक शरीर को भगवान की मायाशक्ति का ही प्रतिफल माने। इस तरह अपने में ही स्थित होकर उसे इन वस्तुओं से अपनी श्रद्धा हटा लेनी चाहिए और उन्हें फिर कभी अपने ध्यान की वस्तु नहीं बनाना चाहिए।

28 ज्ञान के अनुशीलन के प्रति समर्पित तथा बाह्य पदार्थों से विरक्त हुआ विद्वान अध्यात्मवादी (योगी) या मोक्ष की भी इच्छा से विरक्त मेरा भक्त – ये दोनों ही, उन कर्तव्यों की उपेक्षा करते हैं, जो बाह्य अनुष्ठानों अथवा साज-सामग्री पर आधारित होते हैं। इस तरह उनका आचरण विधि-विधानों की सीमा से परे होता है।

29 सर्वाधिक ज्ञानवान होते हुए भी परमहंस को चाहिए कि मान-अपमान को भुलाकर बालक के समान जीवन का भोग करे, परम दक्ष होते हुए भी जड़ तथा अकुशल व्यक्ति की तरह आचरण करे, परम विद्वान होते हुए भी विक्षिप्त व्यक्ति की तरह बोले तथा वैदिक विधियों का पण्डित होते हुए भी अनियंत्रित ढंग से आचरण करे।

30 भक्त को न तो वेदों के कर्मकाण्ड अनुभाग में उल्लिखित सकाम अनुष्ठानों में लगना चाहिए, न ही वैदिक आदेशों के विरुद्ध कार्य करके या बोलकर नास्तिक बनना चाहिए। इसी तरह उसे न तो निरे तार्किक या संशयवादी की तरह बोलना चाहिए न व्यर्थ के वाद-विवाद में किसी का पक्ष लेना चाहिए।

31 सन्त पुरुष को चाहिए कि वह न तो किसी के डराने या विचलित करने से डरे, न ही अन्य लोगों को डराये-धमकाये। उसे अन्यों द्वारा किया गया अपमान सहना चाहिए और कभी किसी को छोटा नहीं समझना चाहिए। भौतिक शरीर के लिए वह किसी के प्रति उग्रता न उत्पन्न करे क्योंकि तब वह पशु-तुल्य होगा।

32 एक ही परमेश्वर समस्त भौतिक शरीरों के भीतर तथा हर एक की आत्मा के भीतर स्थित है। जिस तरह चन्द्रमा असंख्य जलाशयों में प्रतिबिम्बित होता है, उसी तरह परमेश्वर एक होकर भी हर एक के भीतर उपस्थित है। इस तरह हर भौतिक शरीर अन्ततः एक ही भगवान की शक्ति से बना है।

33 यदि किसी को कभी-कभी उचित भोजन नहीं मिलता, तो उसे हताश नहीं होना चाहिए और जब उसे मजेदार भोजन मिले तो प्रफुल्लित नहीं हो जाना चाहिए। दृढ़ संकल्प के साथ उसे दोनों ही स्थितियों को ईश्वर के अधीन समझना चाहिए।

34 आवश्यकता पड़े तो उसे चाहिए कि पर्याप्त भोजन पाने के लिए प्रयास करे क्योंकि स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए यह आवश्यक तथा उचित है। इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण के स्वस्थ रहने पर, वह आध्यात्मिक सत्य का चिन्तन कर सकता है और सत्य को समझ लेने पर वह मुक्त हो जाता है।

35 मुनि को चाहिए कि अपने आप मिल जाने वाला उत्तम या निम्न कोटि का जैसा भी भोजन, वस्त्र तथा बिस्तर हो, उसे स्वीकार करे।

36 जिस तरह मैं भगवान होते हुए, स्वेच्छा से अपने नैत्यिक कर्म करता हूँ, उसी तरह मेरा ज्ञान प्राप्त कर चुकने वाले को सामान्य स्वच्छता बरतनी चाहिए, अपने हाथों को जल से साफ करना चाहिए, स्नान करना चाहिए और अन्य नियमित कार्यों को किसी दबाव से नहीं बल्कि स्वेच्छा से सम्पन्न करना चाहिए।

37 ज्ञानी किसी भी वस्तु को मुझसे पृथक नहीं देखता क्योंकि मेरा ज्ञान हो जाने से वह ऐसी भ्रामक अनुभूति को नष्ट कर चुका होता है। चूँकि भौतिक देह तथा मन ऐसी अनुभूति के लिए पहले से अभ्यस्त हुए रहते हैं अतः ऐसी अनुभूति की पुनरावृत्ति हो सकती है, किन्तु मृत्यु के समय ऐसा ज्ञानी मेरे समान ही ऐश्वर्य प्राप्त करता है।

38 जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति के फल को दुखदायी जानते हुए, उससे विरक्त है और जो आध्यात्मिक सिद्धि चाहता है, किन्तु जिसने मुझे प्राप्त करने की विधि का गम्भीरता से विश्लेषण नहीं किया है, उसे प्रामाणिक एवं विद्वान गुरु के पास जाना चाहिए।

39 जब तक भक्त को पूरी तरह आध्यात्मिक ज्ञान की अनुभूति न हो ले, उसे चाहिए कि अत्यन्त श्रद्धा तथा आदर के साथ एवं द्वेषरहित होकर गुरु की सेवा करे, क्योंकि गुरु मुझसे अभिन्न होता है।

40-41 जिसने छह प्रकार के मोहों (काम, क्रोध, लोभ, उत्तेजना, मिथ्या अहंकार तथा नशा) पर नियंत्रण नहीं पा लिया, जिसकी बुद्धि जो कि इन्द्रियों की अगुवा होती है, भौतिक वस्तुओं पर अत्यधिक आसक्त रहती है, जो ज्ञान तथा वैराग्य से रहित हैं, जो अपनी जीविका चलाने के लिए संन्यास ग्रहण करता है, जो पूज्य देवताओं, स्वत्म तथा अपने भीतर के परमेश्वर को अस्वीकार करता है और इस तरह सारा धर्म नष्ट कर देता है और जो इतने पर भी भौतिक कल्मष से दूषित रहता है, वह विपथ होकर इस जन्म को तथा अगले जन्म को भी विनष्ट कर देता है।

42 संन्यासी के मुख्य धार्मिक कार्य हैं समता तथा अहिंसा जबकि तपस्या तथा शरीर और आत्मा के अन्तर का दार्शनिक ज्ञान ही वानप्रस्थ में प्रधान होते हैं। गृहस्थ के मुख्य कर्तव्य हैं सारे जीवों को आश्रय देना तथा यज्ञ सम्पन्न करना और ब्रह्मचारी मुख्यतया गुरु की सेवा करने में लगा रहता है।

43 गृहस्थ को चाहिए कि सन्तान उत्पन्न करने के लिए ही नियत समय पर अपनी पत्नी के साथ सहवास करे। अन्यथा वह ब्रह्मचर्य तपस्या, मन तथा शरीर की स्वच्छता, अपने स्वाभाविक पद पर सन्तोष तथा सभी जीवों के प्रति मैत्री का अभ्यास करे। मेरी पूजा तो वर्ण अथवा आश्रम का भेदभाव त्यागकर सबों को करनी चाहिए।

44 जो व्यक्ति अनन्य भाव से मेरी पूजा करता है और जो सारे जीवों में मुझे उपस्थित समझता है, वह मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है।

45 हे उद्धव, मैं सारे लोकों का परमेश्वर हूँ और परम कारण होने से, मैं इस ब्रह्माण्ड का सृजन और विनाश करता हूँ। इस तरह मैं परम सत्य हूँ और जो अविचल भक्ति के साथ मेरी पूजा करता है, वह मेरे पास आता है।

46 इस तरह जो अपने नियत कर्म करके अपने जीवन को शुद्ध कर चुका होता है, जो मेरे परम पद को पूरी तरह से समझता है और जो शास्त्रीय तथा स्वरूपसिद्ध ज्ञान से युक्त होता है, वह शीघ्र ही मुझे प्राप्त करता है।

47 जो इस वर्णाश्रम प्रणाली के अनुयायी हैं, वे उचित आचार की प्रामाणिक प्रथाओं के अनुसार धार्मिक सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं। जब प्रेमाभक्ति में ऐसे वर्णाश्रम कर्म मुझे अर्पित किये जाते हैं, तो वे जीवन की चरम सिद्धि देने वाले होते हैं।

48 हे साधु उद्धव, तुमने जैसा पूछा मैंने तुम्हें वे सारे साधन बतला दिये हैं, जिनसे अपने नियत कर्म में लगा हुआ मेरा भक्त मेरे पास वापस आ सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10894102276?profile=RESIZE_584x

अध्याय सत्रह – भगवान कृष्ण द्वारा वर्णाश्रम प्रणाली का वर्णन (11.17)

1-2 श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आपने वर्णाश्रम प्रणाली के अनुयायियों एवं सामान्य मनुष्यों द्वारा अनुकरणीय भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। हे कमलनयन, अब कृपा करके मुझे बतायें कि इन सिद्धान्तों में नियत कर्तव्यों को सम्पन्न करके मनुष्य किस प्रकार आपकी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकते हैं?

3-4 हे बलिष्ठ भुजाओं वाले प्रभु! इससे पूर्व आपने हंस रूप में ब्रह्माजी से उन धार्मिक सिद्धान्तों का कथन किया है, जो परम सुख प्रदान करनेवाले हैं। हे शत्रुओं के दमनकर्ता, आपने जो उपदेश दिये थे वे अत्यधिक समय व्यतीत होने से मानव समाज में समाप्त हो चुके हैं।

5-6 हे अच्युत! इस पृथ्वी पर तथा ब्रह्मा की सभा में भी जहाँ साक्षात वेद निवास करते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है जो इस धर्म का प्रवचन, प्रवर्तन अथवा संरक्षण कर सके। हे मधुसूदन, आप आध्यात्मिक ज्ञान के स्रष्टा, रक्षक तथा प्रवक्ता हैं। जब आप ही पृथ्वी का परित्याग कर देंगे तो फिर, इस ज्ञान को कौन बतलायेगा?

7 हे प्रभु! आप समस्त धार्मिक नियमों के ज्ञाता हैं। अतएव उन नियमों/विधियों का वर्णन करें जिनके द्वारा मनुष्य आपकी भक्ति प्राप्त कर सकें।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भक्त श्री उद्धव द्वारा जिज्ञासा करने पर भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर समस्त बद्धजीवों के कल्याण हेतु शाश्वत धार्मिक नियमों का उपदेश दिया।

9 श्रीभगवान ने कहा: हे उद्धव, तुम्हारा प्रश्न धार्मिक नियमों के अनुकूल है, अतः यह सामान्य मनुष्यों तथा वर्णाश्रम प्रणाली का पालन करने वाले दोनों को ही जीवन में सर्वोच्च सिद्धि, अर्थात शुद्ध भक्ति को जन्म देता है। अब तुम मुझसे उन परम धार्मिक नियमों को सुनो।

10 सत्ययुग में केवल एक सामाजिक श्रेणी थी जिसे हंस कहते हैं। उस युग में सारे लोग जन्म से ही शुद्ध भक्ति के प्रति समर्पित रहते थे और चूँकि हर व्यक्ति सभी प्रकार से पूर्ण होता था इसलिए वह युग कृतयुग कहलाता था।

11 सत्ययुग में अविभाज्य वेद ॐ नामक पवित्र अक्षर के रूप में प्रकट था और भगवान की अनुभूति चार पैरों वाले धर्मरूपी बैल के रूप में मन के भीतर की जाती थी। सत्ययुग के निवासी, तपस्यानिष्ठ तथा पापरहित होकर, भगवान हंस के रूप में मेरी पूजा करते थे।

12 हे परमभाग्यशाली त्रेता युग के प्रारम्भ में, मेरे हृदय से, वैदिक ज्ञान तीन विभागों – ऋग, साम तथा यजुः में प्रकट हुआ। इस वैदिक ज्ञान से मैं तीन यज्ञों के रूप में प्रकट हुआ।

13 त्रेता युग में भगवान के विराट रूप से चार जातियाँ प्रकट हुई। ब्राह्मण भगवान के मुँह से, क्षत्रिय भगवान की बाँहों से, वैश्य भगवान की जाँघों से तथा शूद्र पाँवों से प्रकट हुए। प्रत्येक विभाग को उसके विशिष्ट कर्तव्यों तथा आचार-व्यवहार से पहचाना गया।

14 गृहस्थ आश्रम विश्वरूप की जाँघों से और ब्रह्मचर्य मेरे हृदय से प्रकट हुआ। जंगल में निवास करनेवाला विरक्त जीवन मेरे वक्षस्थल से प्रकट हुआ तथा संन्यास मेरे विश्वरूप के सिर के भीतर स्थित था।

15 जन्म के समय की निम्न तथा उच्च प्रकृतियों के अनुसार मानव समाज के विविध वृत्तिपरक (वर्ण) तथा सामाजिक (आश्रम) विभाग प्रकट हुए।

16 शान्ति, आत्मसंयम, तपस्या, शुद्धि, सन्तोष, सहनशीलता, सहज स्पष्टवादिता, मेरी भक्ति, दया तथा सत्यता – ये ब्राह्मणों के स्वाभाविक गुण हैं।

17 तेजस्विता, शारीरिक बल, संकल्प, बहादुरी, सहनशीलता, उदारता, महान प्रयास, स्थिरता, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति तथा नायकत्व – ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।

18 वैदिक सभ्यता में श्रद्धा, दानशीलता, दिखावे से दूर रहना, ब्राह्मणों की सेवा करना तथा अधिकाधिक धन संचय की निरन्तर आकांक्षा – ये वैश्यों के स्वाभाविक गुण हैं।

19 ब्राह्मणों, गौवों, देवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों की निष्कपट सेवा तथा ऐसी सेवा करने से प्राप्त जो आमदनी हो जाय उससे पूर्ण तुष्टि – ये शूद्रों के स्वाभाविक गुण हैं।

20 अस्वच्छता, बेईमानी, चोरी करना, नास्तिकता, व्यर्थ झगड़ना, काम, क्रोध एवं तृष्णा – ये उनके स्वभाव हैं, जो वर्णाश्रम प्रणाली के बाहर निम्नतम पद पर हैं।

21 अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, अन्यों के लिए सुख तथा कल्याण की इच्छा एवं काम, क्रोध तथा लोभ से मुक्ति – ये समाज के सभी सदस्यों के कर्तव्य हैं।

22 समाज का द्विजन्मा सदस्य संस्कारों के द्वारा गायत्री दीक्षा होने पर दूसरा जन्म प्राप्त करता है। गुरु द्वारा बुलाये जाने पर उसे गुरु के आश्रम में रहना चाहिए और सावधानीपूर्वक वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।

23 ब्रह्मचारी को नियमित रूप से मूँज की पेटी, मृगचर्म के वस्त्र, अक्ष के मनके तथा जनेऊ धारण करना चाहिए। उसे जटाएँ रखनी चाहिए और दण्ड तथा कमण्डल धारण करना चाहिए। हाथ में शुद्ध कुश लिए हुए, उसे कभी भी कोई विलासपूर्ण या उत्तेजक आसन ग्रहण नहीं करना चाहिए। उसे व्यर्थ दाँत नहीं चमकाना चाहिए न ही अपने वस्त्रों से रंग उड़ाना या उन पर लोहा (इस्त्री) करना चाहिए।

24 ब्रह्मचारी को चाहिए कि मल-मूत्र विसर्जन, स्नान, भोजन, यज्ञ तथा जप करते समय मौन रहे। वह अपने नाखून तथा बगल या अन्य किसी अंग के बाल नहीं काटे।

25 ब्रह्मचारी अपने व्रत का पालन करते हुए कभी भी वीर्य-स्खलन न करे। यदि संयोगवश वीर्य निकल जाय, तो तुरन्त स्नान करके – प्राणायाम और गायत्री मंत्र का जप करे।

26 ब्रह्मचारी को शुद्ध होकर तथा स्थिर चेतना से अग्नि, सूर्य, आचार्य, गायों, ब्राह्मणों, गुरु, सम्माननीय वरिष्ठ–जनों तथा देवताओं की पूजा करनी चाहिए। उसे सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय मौन होकर उपयुक्त मंत्रों का उच्चारण करके पूजा करनी चाहिए।

27 आचार्य को मेरा ही स्वरूप जानकर सदैव उनका आदर करे। सामान्य पुरुष समझते हुए उनसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखे क्योंकि वह समस्त देवताओं का प्रतिनिधि होता है।

28 प्रतिदिन भिक्षा से प्राप्त भोजन तथा अन्य वस्तुएँ एकत्र करके गुरु को प्रदान करे। तब आत्मसंयमपूर्वक वह अपने लिए उतना ही स्वीकार करे, जो आचार्य उसके लिए निर्दिष्ट कर दे।

29 गुरु की सेवा करते समय शिष्य विनीत सेवक के समान रहे और जब गुरु चलें, तो वह सेवक की तरह उनके पीछे चले। जब गुरु सोने लगें, तो सेवक भी पास ही लेट जाय और जब गुरु जागे, तो सेवक उनके निकट बैठकर उनके चरणकमल चापने तथा अन्य सेवाकार्य करने में लग जाय। जब गुरु अपने आसन पर बैठे हों, तो सेवक उनके पास हाथ जोड़कर, गुरु-आदेश की प्रतीक्षा करे – इस प्रकार वह गुरु की सदैव पूजा करे।

30 जब तक विद्यार्थी अपनी वैदिक शिक्षा पूरी न कर ले, तब तक इन्द्रियभोग से दूर रहकर उसे गुरु के आश्रम में निवास करना चाहिए और ब्रह्मचर्य व्रत नहीं तोड़ना चाहिए।

31 यदि ब्रह्मचारी महर्लोक या ब्रह्मलोक जाना चाहता है, तो उसे चाहिए कि गुरु को अपने सारे कर्म अर्पित कर दे और आजीवन ब्रह्मचर्य के शक्तिशाली व्रत का पालन करते हुए स्वयं को (श्रेष्ठ वैदिक अध्ययन से) समर्पित कर दे।

32-33 इस तरह गुरु की सेवा करने से वैदिक ज्ञान में प्रबुद्ध शिष्य, समस्त पापों तथा द्वैत से मुक्त हो जाता है। उसे चाहिए कि अग्नि, गुरु, तथा समस्त जीवों के हृदयों में मुझे उपस्थित जानकर उनकी उपासना करे। संन्यासी, वानप्रस्थी तथा ब्रह्मचारी को स्त्रियों की संगति (उन्हें छूना, देखना, हँसी मजाक आदि) नहीं करनी चाहिए।

34-35 हे उद्धव, सामान्य स्वच्छता – हाथों को धोना, स्नान करना, सूर्योदय, दोपहर तथा शाम को धार्मिक सेवा का कार्य करना, मेरी पूजा करना, तीर्थस्थान जाना, जप करना, अस्पृश्य, अखाद्य या चर्चा के अयोग्य वस्तुओं से दूर रहना तथा समस्त जीवों में परमात्मा रूप में मेरे अस्तित्व का स्मरण करना – इन सिद्धान्तों को समाज के सारे सदस्यों को मन, कर्म तथा वचन – के संयम द्वारा पालन करना चाहिए।

36 ब्रह्मचर्य का महान व्रत धारण करनेवाला ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है और वह गहन तपस्या द्वारा भौतिक कर्म करने की लालसा को भस्म कर देता है। इस तरह भौतिक इच्छा के कल्मष से रहित होकर, वह मेरा भक्त बन जाता है।

37 जो ब्रह्मचारी वैदिक शिक्षा पूरी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहता है, उसे चाहिए कि वह बाल कटाये, स्नान करे उचित वस्त्र इत्यादि धारण कर गुरु को समुचित गुरु-दक्षिणा दे। तब गुरु की अनुमति से वह अपने घर जाय।

38 अपनी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने के इच्छुक ब्रह्मचारी को अपने परिवार के साथ घर पर रहना चाहिए और जो गृहस्थ अपनी चेतना को शुद्ध बनाना चाहे उसे जंगल में प्रवेश करना चाहिए जबकि शुद्ध ब्राह्मण को संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिए। जो मेरे शरणागत नहीं है उसे एक आश्रम से दूसरे में क्रमशः जाना चाहिए और इससे विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए।

39 जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन बसाना चाहता है उसे चाहिए कि अपनी ही जाति की ऐसी स्त्री से विवाह करे जो निष्कलंक तथा उम्र में उससे छोटी हो। यदि कोई व्यक्ति अनेक पत्नियाँ रखना चाहता है, तो उसे प्रथम विवाह के बाद उनसे भी विवाह करना चाहिए और हर पत्नी पहली पत्नी से निम्न जाति की होनी चाहिए।

40 सभी द्विजों अर्थात ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों को यज्ञ करना, वैदिक साहित्य का अध्ययन करना और दान देना चाहिए, किन्तु ब्राह्मण ही दान ले सकते हैं, वे ही वैदिक ज्ञान की शिक्षा दे सकते हैं और अन्यों के लिए यज्ञ कर सकते हैं।

41 कोई ब्राह्मण जो यह माने कि अन्यों के दान लेने से उसकी तपस्या, आध्यात्मिक प्रतिष्ठा तथा यश नष्ट हो जायेंगे, उसे चाहिए कि अन्य दो ब्राह्मण वृत्तियों से – वेद-ज्ञान की शिक्षा देकर तथा यज्ञ सम्पन्न करके अपना भरण करे। यदि वह ब्राह्मण यह माने कि ये दोनों वृत्तियाँ भी उसके आध्यात्मिक पद को क्षति पहुँचाती है, तो उसे चाहिए कि खेतों में गिरा अन्न (शीला) बीने और अन्यों पर निर्भर न रहते हुए जीवन-निर्वाह करे।

42 ब्राह्मण का शरीर क्षुद्र इन्द्रिय भोग के निमित्त नहीं होता, प्रत्युत वह कठिन तपस्या करके मृत्युपरान्त आनन्दस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये है।

43 ब्राह्मण गृहस्थ को खेतों तथा मण्डियों में गिरे अन्न के दाने बीनकर अपने मन में संतुष्ट रहना चाहिए। उसे स्वयं को निजी इच्छा से मुक्त रखते हुए मुझमें लीन रहकर उदात्त धार्मिक सिद्धान्तों का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह गृहस्थ के रूप में ब्राह्मण आसक्तिरहित होकर घर में निवास करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

44 जिस प्रकार जहाज समुद्र में गिरे हुए लोगों को बचा लेता है, उसी तरह मैं उन व्यक्तियों को सारी विपत्तियों से तुरन्त बचा लेता हूँ जो दरिद्रता से पीड़ित ब्राह्मणों तथा भक्तों को उबार लेते हैं।

45 जिस तरह हाथियों का राजा स्वयं अपनी और अपने झुण्ड के अन्य सारे हाथियों की रक्षा करता है, उसी तरह निर्भीक राजा को एक पिता के समान स्वयं तथा अपनी सारी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए।

46 जो राजा अपने राज्य से सारे पापों को हटाकर अपनी तथा सारी प्रजा की रक्षा करता है, वह निश्चय ही इन्द्र के साथ सूर्य जैसे तेजवान विमान में सुख भोगता है।

47 यदि कोई ब्राह्मण अपने नियमित कर्तव्यों द्वारा अपना निर्वाह नहीं कर पाता और कष्ट उठाता है तो वह व्यापारी की वृत्ति अपनाकर वस्तुएँ क्रय-विक्रय करके अपनी दीन अवस्था को सुधार सकता है। यदि वह व्यापारी के रूप में भी नितान्त दरिद्र बना रहता है तो वह हाथ में तलवार लेकर क्षत्रिय-वृत्ति अपना सकता है। किन्तु किसी भी दशा में वह किसी सामान्य व्यक्ति को स्वामी स्वीकार करके श्वान वृत्ति नहीं अपना सकता।

48 राजा या राजकुल का कोई सदस्य, जो अपनी सामान्य वृत्ति द्वारा अपना निर्वाह नहीं कर सकता, वह वैश्य की तरह कर्म कर सकता है, शिकार करके जीवन चला सकता है अथवा ब्राह्मण की तरह अन्यों को वैदिक ज्ञान की शिक्षा देकर काम कर सकता है। किन्तु किसी भी दशा में उसे शूद्र-वृत्ति नहीं अपनानी चाहिए।

49 जो वैश्य अपना जीवन निर्वाह न कर सकता हो वह शूद्र वृत्ति अपना सकता है और जो शूद्र उपयुक्त स्वामी न पा सके वह डलिया तथा चटाई बनाने जैसे सामान्य कार्यों में लग सकता है किन्तु समाज के वे सारे सदस्य जिन्होंने आपातकाल में निकृष्ट वृत्तियाँ अपनाई हों, उन्हें विपत्ति बीत जाने पर इन कार्यों को तुरन्त त्याग देना चाहिए।

50 गृहस्थ आश्रम वाले को नित्य वैदिक अध्ययन द्वारा ऋषियों की, स्वधा मंत्र द्वारा पूर्वजों की, स्वाहा मंत्र का उच्चारण करके देवताओं की, अपने हिस्से का भोजन देकर सारे जीवों की तथा अन्न एवं जल अर्पित करके मनुष्यों की पूजा करनी चाहिए। इस तरह देवताओं, ऋषियों, पूर्वजों, जीवों तथा मनुष्यों को मेरी शक्ति की अभिव्यक्तियाँ मानते हुए हर मनुष्य को ये पाँच यज्ञ नित्य सम्पन्न करने चाहिए।

51 गृहस्थ को चाहिए कि स्वतः ही प्राप्त होनेवाले धन से या ईमानदारी से सम्पन्न किये जानेवाले कार्य से जो धन प्राप्त हो, उससे अपने आश्रितों का ठीक से पालन-पोषण करे। उसे अपने साधनों के अनुसार यज्ञ तथा अन्य धार्मिक उत्सव सम्पन्न करने चाहिए।

52 अनेक आश्रित पारिवारिक जनों की देखरेख करनेवाले गृहस्थ को न तो उनसे अत्यधिक आसक्त होना चाहिए, न ही अपने को स्वामी मान कर मानसिक रूप से असंतुलित रहना चाहिए। बुद्धिमान गृहस्थ को समझना चाहिए कि सारा सम्भव सुख, जिसका वह पहले अनुभव कर चुका है, क्षणभंगुर है।

53 बच्चों, पत्नी, सम्बन्धियों तथा मित्रों की संगति यात्रियों के लघु मिलाप जैसी है। शरीर के प्रत्येक परिवर्तन के साथ मनुष्य ऐसे संगियों से उसी तरह विलग हो जाता है, जिस तरह स्वप्न समाप्त होते ही स्वप्न में मिली हुई सारी वस्तुएँ खो जाती हैं।

54 वास्तविक स्थिति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए मुक्तात्मा को चाहिए कि घर में एक मेहमान की तरह (बिना किसी स्वामित्व की भावना के) रहे, इस तरह वह घरेलू मामलों में नहीं फँसेगा।

55 जो गृहस्थ भक्त अपने पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए मेरी पूजा करता है, वह चाहे तो घर पर ही रह सकता है अथवा किसी पवित्र स्थान में जा सकता है या यदि उसका कोई जिम्मेदार पुत्र हो, तो वह संन्यास ग्रहण कर सकता है।

56 निस्सन्देह वह व्यक्ति मायाजाल में फँसा हुआ है, जिसका मन अपने घर में आसक्त है, जो स्त्री, धन तथा सन्तान को भोगने की तीव्र इच्छाओं से विचलित है, जो कृपण मनोवृत्ति रखता है और जो मूर्खतावश यह सोचता है कि “मैं ही सबकुछ हूँ और प्रत्येक वस्तु मेरी है।

57 हाय! मेरे वृद्ध माता-पिता तथा गोद में बालक वाली मेरी पत्नी तथा मेरे अन्य बच्चे! मेरे बिना उनकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है और उन्हें असह्य कष्ट उठाना पड़ेगा। मेरे सम्बन्धी मेरे बिना कैसे रह सकेंगे?

58 इस तरह अपनी मूर्खतापूर्ण मनोवृत्ति के कारण वह गृहस्थ, जिसका हृदय पारिवारिक आसक्ति से अभिभूत रहता है, कभी भी तुष्ट नहीं होता। फलस्वरूप अपने परिवार वालों का निरन्तर ध्यान करते हुए वह मर जाता है और अज्ञान के अंधकार में प्रवेश करता है।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

10893817870?profile=RESIZE_192X

अध्याय सोलह – भगवान की विभूतियाँ (11.16)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आप अनादि तथा अनन्त, साक्षात परब्रह्म तथा अन्य किसी वस्तु से सीमित नहीं हैं। आप सभी वस्तुओं के रक्षक तथा जीवनदाता, उनके संहार तथा सृष्टि हैं।

2 हे प्रभु, यद्यपि अपवित्र लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आप समस्त उच्च तथा निम्न सृष्टियों में स्थित हैं, किन्तु वे ब्राह्मण जो वैदिक मत को भलीभाँति जानते हैं आपकी वास्तविक रूप में पूजा करते हैं।

3 कृपया मुझसे उन सिद्धियों को बतायें जिन्हें महर्षिगण आपकी भक्तिपूर्वक पूजा द्वारा प्राप्त करते हैं। कृपया यह भी बतायें कि वे आपके किन विविध रूपों की पूजा करते हैं।

4 हे सर्वपालक प्रभु, यद्यपि आप सभी जीवों के परमात्मा हैं किन्तु आप गुप्त रहते हैं। इस तरह आपके द्वारा मोहग्रस्त बनाए जाकर सारे जीव आपको देख नहीं पाते यद्यपि आप उन्हें देखते रहते हैं।

5 हे परम शक्तिमान प्रभु, कृपा करके मुझे अपनी वे असंख्य शक्तियाँ बतायें जिन्हें आप पृथ्वी में, स्वर्ग में, नरक में तथा समस्त दिशाओं में प्रकट करते हैं। मैं आपके उन चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ जो समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं।

6 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा : हे प्रश्नकर्ताओं में श्रेष्ठ, अर्जुन ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों से युद्ध करने की इच्छा से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में मुझसे यही प्रश्न पूछा था जिसे तुम पूछने जा रहे हो।

7 कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन ने सोचा कि अपने सम्बन्धियों का वध करना अत्यन्त गर्हित एवं अधार्मिक कार्य है जो राज्य प्राप्त करने की उसकी इच्छा से प्रेरित है। अतएव यह सोचकर कि मैं अपने सम्बन्धियों का मारने वाला होऊँगा और वे विनष्ट हो जाएँगे, वह युद्ध से विरत होना चाहता था। इस तरह वह संसारी चेतना से आहत था।

8 उस समय मैंने पुरुषों में व्याघ्र अर्जुन को तर्क द्वारा समझाया और युद्ध के मोर्चे में ही अर्जुन ने मुझसे उसी तरह के प्रश्न किये थे जिस तरह तुम अब कर रहे हो।

9 हे उद्धव, मैं समस्त जीवों का परमात्मा हूँ, अतएव मैं स्वाभाविक रूप से उनका हितेच्छु तथा परम नियन्ता हूँ। सारे जीवों का स्रष्टा, पालक तथा संहर्ता होने से मैं उनसे भिन्न नहीं हूँ।

10 मैं उन्नति चाहने वालों का चरम गन्तव्य हूँ और जो नियंत्रण किये रखना चाहते हैं उनमें मैं काल हूँ। मैं भौतिक गुणों की साम्यावस्था हूँ और पवित्रों के बीच मैं स्वाभाविक गुण हूँ।

11 गुणयुक्त वस्तुओं में मैं प्रकृति की प्राथमिक अभिव्यक्ति हूँ और महान वस्तुओं में मैं समग्र सृष्टि हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं आत्मा हूँ और दुर्जेय वस्तुओं में मैं मन हूँ।

12 वेदों में मैं आदि शिक्षक ब्रह्मा और समस्त मंत्रों में मैं तीन अक्षरों (मात्राओं) वाला ॐकार हूँ। अक्षरों में मैं प्रथम अक्षर अ (अकार) और पवित्र छन्दों में गायत्री मंत्र हूँ।

13 मैं देवताओं में इन्द्र तथा वसुओं में अग्नि देव हूँ। मैं अदिति-पुत्रों में विष्णु तथा रुद्रों में शिव हूँ।

14 मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु मुनि तथा राजर्षियों में मनु हूँ। देवर्षियों में मैं नारद मुनि तथा गौवों में कामधेनु हूँ।

15 मैं सिद्धों में भगवान कपिल तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ। प्रजापतियों में मैं दक्ष तथा पितरों में अर्यमा हूँ।

16 हे उद्धव, तुम मुझे दिति के असुर पुत्रों में असुरों का साधु सदृश स्वामी प्रह्लाद महाराज जानो। मैं नक्षत्रों तथा औषधियों में उनका स्वामी चन्द्र हूँ और यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ।

17 मैं राजसी हाथियों में ऐरावत और जलचरों में समुद्रों का अधिपति वरुण हूँ। समस्त ऊष्मा तथा प्रकाश प्रदान करनेवाली वस्तुओं में मैं सूर्य और मनुष्यों में राजा हूँ।

18 घोड़ों में मैं उच्चैश्रवा तथा धातुओं में स्वर्ण हूँ। दण्ड देने वालों तथा दमन करने वालों में मैं यमराज हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।

19 हे निष्पाप उद्धव, श्रेष्ठ सर्पों में मैं अनन्तदेव हूँ और पैने सींग तथा दाँत वाले पशुओं में मैं सिंह हूँ। आश्रमों में मैं चौथा आश्रम अर्थात संन्यास आश्रम हूँ और चारों वर्णों में प्रथम वर्ण अर्थात ब्राह्मण हूँ।

20 पवित्र तथा प्रवाहमान वस्तुओं में मैं पवित्र गंगा हूँ और स्थिर जलाशयों में समुद्र हूँ। हथियारों में मैं धनुष और हथियार चलाने वालों में मैं त्रिपुरारी शिव हूँ।

21 निवासस्थानों में मैं सुमेरु पर्वत हूँ और दुर्गम स्थानों में हिमालय हूँ। वृक्षों में मैं पवित्र वटवृक्ष तथा धान्यों में मैं जौ (यव) हूँ।

22 पुरोहितों में, मैं वसिष्ठ मुनि और वैदिक संस्कृति के अग्रगण्यों में बृहस्पति हूँ। मैं महान सेना नायकों में स्कन्द (कार्तिकेय) और उच्च जीवन बिताने वालों में महापुरुष ब्रह्मा हूँ।

23 यज्ञों में मैं वेदाध्ययन और व्रतों में अहिंसा हूँ। पवित्र करने वाली सभी वस्तुओं में मैं वायु, अग्नि, सूर्य, जल तथा वाणी हूँ।

24 मैं योग की आठ उत्तरोत्तर अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था – समाधि हूँ जिसमें आत्मा मोह से पूर्णतया पृथक हो जाता है। विजय की आकांक्षा रखनेवालों में मैं कुशल राजनीतिक सलाहकार हूँ और दक्ष विवेकी विधियों में मैं आत्मज्ञान हूँ जिसके द्वारा पदार्थ से आत्मा को विभेदित किया जाता है। मैं समस्त निर्विशेषवादियों (ज्ञानियों) में अनुभूति-वैविध्य हूँ।

25 मैं स्त्रियों में शतरूपा और पुरुषों में उसका पति स्वायम्भुव मनु हूँ। ऋषियों में मैं नारायण हूँ और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ।

26 धार्मिक सिद्धान्तों में, मैं संन्यास हूँ और समस्त प्रकार की सुरक्षा में अन्तस्थ नित्य आत्मा की चेतना हूँ। रहस्यों में, मैं मधुर वाणी तथा मौन हूँ तथा मैथुनरत युगलों में ब्रह्मा हूँ।

27 सतर्क कालचक्रों में, मैं वर्ष हूँ और ऋतुओं में वसन्त हूँ। महीनों में, मैं मार्गशीर्ष तथा नक्षत्रों में शुभ अभिजीत हूँ।

28 युगों में, मैं सत्ययुग और अविचल मुनियों में देवल तथा असित हूँ। वेदों का विभाजन करने वालों में मैं कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास हूँ और विद्वानों में मैं आध्यात्मिक विज्ञान का ज्ञाता शुक्राचार्य हूँ।

29 भगवान नाम के अधिकारियों में मैं वासुदेव हूँ तथा हे उद्धव, तुम निस्सन्देह भक्तों में मेरा प्रतिनिधित्व करते हो। मैं किम्पुरुषों में हनुमान हूँ और विद्याधरों में सुदर्शन हूँ।

30 रत्नों में, मैं लाल हूँ और सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली हूँ। सभी प्रकार के तृणों में मैं पवित्र कुश हूँ और आहुतियों में घी तथा गाय से प्राप्त होने वाले अन्य पदार्थ हूँ।

31 उद्यमियों में, मैं लक्ष्मी हूँ और कपट करनेवालों में मैं जुआ (द्यूत क्रीड़ा) हूँ। सहिष्णुओं में, मैं क्षमाशीलता और सतोगुणियों में सद्गुण हूँ।

32 बलवानों में, मैं शारीरिक तथा मानसिक बल हूँ और अपने भक्तों का भक्तिमय कर्म हूँ। मेरे भक्तगण मेरी पूजा नौ विभिन्न रूपों में करते हैं जिनमें से मैं आदि तथा प्रमुख वासुदेव हूँ।

33 मैं गन्धर्वों में विश्वावसु तथा स्वर्गिक अप्सराओं में पूर्वचित्ति हूँ। मैं पर्वतों की स्थिरता तथा पृथ्वी की सुगन्ध हूँ।

34 मैं जल का मधुर स्वाद हूँ और चमकीली वस्तुओं में सूर्य हूँ। मैं सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों का प्रकाश हूँ और आकाश में ध्वनित होनेवाली दिव्य ध्वनि हूँ।

35 ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में, मैं विरोचन-पुत्र बलि महाराज हूँ और वीरों में अर्जुन हूँ। दरअसल, मैं ही समस्त जीवों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हूँ।

36 मैं पाँच कर्मेन्द्रियों--पाँव, वाणी, गुदा, हाथ तथा जननांग--के साथ ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों--स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, श्रवण तथा गन्ध--के कार्यकलाप हूँ। मैं सामर्थ्य भी हूँ जिससे प्रत्येक इन्द्रिय अपने अपने इन्द्रिय-विषय का अनुभव करती है।

37 मैं स्वरूप, स्वाद, गन्ध, स्पर्श तथा ध्वनि; मिथ्या अहंकार, महत तत्त्व; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश; जीव, भौतिक प्रकृति; सतो, रजो तथा तमोगुण; एवं दिव्य भगवान हूँ। ये सारी वस्तुएँ, इन सबों के लक्षण तथा इस ज्ञान से उत्पन्न दृढ़ निश्चय भी मैं ही हूँ।

38 परमेश्वर के रूप में मैं जीव, प्रकृति के गुणों तथा महत तत्त्व का आधार हूँ। इस प्रकार मैं सर्वस्व हूँ और कोई भी वस्तु मेरे बिना विद्यमान नहीं रह सकती।

39 भले ही मैं कुछ समय में ब्रह्माण्ड के समस्त अणुओं की गणना कर सकूँ, किन्तु असंख्य ब्रह्माण्डों में प्रदर्शित अपने समस्त ऐश्वर्यों की गणना मैं भी नहीं कर पाऊँगा।

40 जो भी शक्ति, सौन्दर्य, यश, ऐश्वर्य, विनम्रता, त्याग, मानसिक आनन्द, सौभाग्य, सहिष्णुता या आध्यात्मिक ज्ञान हो सकता है, वह सब मेरे ऐश्वर्य का अंश है।

41 मैंने तुमसे संक्षेप में अपने सारे आध्यात्मिक ऐश्वर्यों तथा अपनी सृष्टि के उन अद्वितीय भौतिक गुणों का भी वर्णन किया, जो मन से अनुभव किये जाते हैं और परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न तरीकों से परिभाषित होते हैं।

42 अतएव अपनी वाणी पर संयम रखो, मन को दमित करो, प्राणवायु पर विजय पाओ, इन्द्रियों को नियमित करो तथा विमल बुद्धि के द्वारा अपनी विवेकपूर्ण प्रतिभा को अपने वश में करो। इस तरह तुम पुनः भौतिक जगत के पथ पर कभी डिगोगे नहीं।

43 जो योगी अपनी श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा अपनी वाणी तथा मन पर पूरा नियंत्रण नहीं रखता, उसके आध्यात्मिक व्रत, तपस्या तथा दान उसी तरह बह जाते हैं जिस तरह कच्चे मिट्टी के घड़े से पानी बह जाता है।

44 मेरे शरणागत होकर मनुष्य को वाणी, मन तथा प्राण पर नियंत्रण रखना चाहिए और तब भक्तिमयी बुद्धि के द्वारा वह अपने जीवन-लक्ष्य को पूरा कर सकेगा।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

10893639094?profile=RESIZE_400x

अध्याय पन्द्रह – भगवान कृष्ण द्वारा योग सिद्धियों का वर्णन (11.15)

1 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा : हे उद्धव, योग-सिद्धियाँ उस योगी द्वारा अर्जित की जाती है जिसने अपनी इन्द्रियों तथा प्राणायाम पर विजय प्राप्त कर ली है और जो अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर चुका है।

2 श्री उद्धव ने कहा : हे अच्युत, योग-सिद्धि किस विधि से प्राप्त की जा सकती है और ऐसी सिद्धि का स्वभाव क्या है? योग-सिद्धियाँ कितनी हैं? कृपा करकेमुझे बतलाइये। निस्सन्देह आप समस्त योग-सिद्धियों के प्रदाता हैं।

3 भगवान ने कहा : योग के पारंगतों ने घोषित किया है कि योग-सिद्धि तथा ध्यान के अठारह प्रकार हैं जिनमें से आठ मुख्य हैं, जो मेरे अधीन हैं और दस गौण हैं, जो सतोगुण से प्रकट होती हैं।

4-5 आठ प्रधान योग-सिद्धियों में तीन सिद्धियाँ, जिनसे मनुष्य अपने शरीर को रूपान्तरित कर सकता है, अणिमा (छोटे से छोटा बनना), महिमा (बड़े से बड़ा होना) तथा लघिमा (हल्के से हल्का होना) हैं। प्राप्ति सिद्धि द्वारा मनवांछित वस्तु प्राप्त की जा सकती है और प्राकाम्य सिद्धि द्वारा मनुष्य को उसकी भोग्य वस्तु का अनुभव इस लोक या अगले लोक में होता है। ईशिता सिद्धि से मनुष्य माया की उपशक्तियों को पा सकता है और वशिता सिद्धि से मनुष्य तीनों गुणों से अबाध बन जाता है। जिसने कामावसायिता सिद्धि प्राप्त की होती है, वह कहीं से कोई भी वस्तु सर्वोच्च सीमा तक पा सकता है। हे उद्धव,ये आठ योग-सिद्धियाँ प्राकृतिक रूप से विद्यमान होती है और इस जगत में अद्वितीय हैं।

6-7 प्रकृति के गुणों से उत्पन्न होनेवाली दस गौण योग-सिद्धियाँ हैं – भूख-प्यास तथा अन्य शारीरिक उत्पातों से अपने को मुक्त करने की शक्ति, काफी दूरी से वस्तुओं को देखने-सुनने की शक्ति, मन के वेग से शरीर को गतिशील बनाने की शक्ति, इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति, अन्यों के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति, इच्छानुसार शरीर त्यागने की शक्ति, देवताओं तथा अप्सराओं की लीलाओं का दर्शन करने की शक्ति, अपने संकल्प को पूरा करने तथा ऐसे आदेश देने की शक्ति, जिनका निर्बाध पालन हो सके।

8-9 भूत, वर्तमान तथा भविष्य जानने की शक्ति, शीत-घाम तथा अन्य द्वन्द्वों को सहने की शक्ति, अन्यों के मन को जान लेने, अग्नि, सूर्य, जल, विष इत्यादि के प्रभाव को रोकने तथा अन्यों द्वारा पराजित न होने की शक्ति – ये योग तथा ध्यान की पाँच सिद्धियाँ हैं। मैं उन्हें, उनके नामों तथा गुणों के अनुसार, यहाँ सूचीबद्ध कर रहा हूँ। तुम मुझसे सीख लो कि किस तरह विशेष ध्यान से विशिष्ट योग-सिद्धियाँ उत्पन्न होती है और उनमें कौन-सी विशेष विधियाँ निहित होती हैं।

10 जो व्यक्ति अपने मन को समस्त सूक्ष्म तत्त्वों में व्याप्त मेरे सूक्ष्म रूप में एकाग्र करके मेरी पूजा करता है, वह अणिमा नामक योग-सिद्धि प्राप्त करता है।

11 जो व्यक्ति महत तत्त्व के विशेष रूप में अपने मन को लीन कर देता है और इस तरह समस्त जगत के परमात्मा रूप में मेरा ध्यान करता है उसे महिमा नामक योग-सिद्धि प्राप्त होती है और जो आकाश, वायु, अग्नि इत्यादि पृथक पृथक तत्त्वों में अपने मन को लीन करता है, वह हर भौतिक तत्त्व की महानता (महत्ता) को प्राप्त करता है।

12 मैं प्रत्येक वस्तु के भीतर रहता हूँ, इसलिए मैं भौतिक तत्त्वों के परमाणविक घटकों का सार हूँ। मेरे इस रूप में अपने मन को संलग्न करके, योगी लघिमा नामक सिद्धि प्राप्त कर सकता है, जिससे वह काल के समान सूक्ष्म परमाणविक वस्तु की अनुभूति कर सकता है।

13 सतोगुण से उत्पन्न मिथ्या अहंकार के भीतर अपने मन को पूरी तरह मुझमें एकाग्र करते हुए योगी प्राप्ति नामक सिद्धि प्राप्त करता है, जिससे वह समस्त जीवों की इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।

14 जो व्यक्ति महत तत्त्व के विशेष रूप में, सकाम कर्मों की शृंखला द्वारा उस अवस्था के अव्यक्त परमात्मा रूप मुझमें अपनी सारी मानसिक क्रियाएँ एकाग्र करता है, वह प्राकाम्य नामक सर्वोत्तम योग-सिद्धि प्राप्त करता है।

15 जो मूल गतिप्रदाता तथा तीन गुणों से युक्त बहिरंगा शक्ति के परमेश्वर, परमात्मा विष्णु में अपनी चेतना स्थिर करता है, वह अन्य बद्धजीवों, उनके शरीरों तथा उनकी उपाधियों को नियंत्रित करने की योग-सिद्धि प्राप्त करता है।

16 जो योगी मेरे नारायण रूप में, जो कि समस्त ऐश्वर्यपूर्ण चौथी अवस्था (तुरीय) माना जाता है, अपने मन को लगाता है, वह मेरे स्वभाव से युक्त हो जाता है और उसे वशिता नामक योग-सिद्धि प्राप्त होती है।

17 जो व्यक्ति मेरे निर्विशेष ब्रह्म रूप में अपना शुद्ध मन स्थिर करता है, वह सर्वाधिक सुख प्राप्त करता है, जिसमें उसकी सारी इच्छाएँ भलीभाँति पूरी हो जाती हैं।

18 जो व्यक्ति धर्म को धारण करनेवाले, साक्षात शुद्धता तथा श्वेत द्वीप के स्वामी के रूप मुझमें, अपना मन एकाग्र करता है, वह शुद्ध जीवन को प्राप्त करता है, जिसमें वह भौतिक उपद्रव की छह उर्मियों से अर्थात भूख, प्यास, क्षरण, मृत्यु, शोक तथा मोह से मुक्त हो जाता है।

19 वह शुद्ध जीव जो मेरे भीतर होनेवाली असामान्य ध्वनि पर साक्षात आकाश तथा प्राणवायु के रूप में अपना मन स्थिर करता है, वह आकाश में सारे जीवों की वाणी का अनुभव कर सकता है।

20 मनुष्य को चाहिए कि अपनी दृष्टि को सूर्यलोक में और सूर्यलोक को अपनी आँखों में लीन करके, सूर्य तथा दृष्टि के सम्मेल के भीतर मुझे स्थित मानकर, मेरा ध्यान करे। इस तरह वह किसी भी दूर की वस्तु को देखने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।

21 जो योगी अपना मन मुझमें लीन कर देता है और इसके बाद मन का अनुसरण करनेवाली वायु का उपयोग भौतिक शरीर को मुझमें लीन करने के लिए करता है, वह मेरे ध्यान की शक्ति से उस योग-सिद्धि को प्राप्त करता है, जिससे उसका शरीर तुरन्त ही मन के पीछे-पीछे जाता है।

22 जब कोई योगी किसी विशेष विधि से अपने मन को लगाकर कोई विशिष्ट रूप धारण करना चाहता है, तो वही रूप तुरन्त प्रकट होता है। ऐसी सिद्धि मेरी उस अचिंत्य योगशक्ति के आश्रय में मन को लीन करने से सम्भव है, जिसके द्वारा मैं असंख्य रूप धारण करता हूँ।

23 जब कोई पूर्ण योगी किसी अन्य के शरीर में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे चाहिए कि अन्य के शरीर में अपना ध्यान करे और तब अपना निजी स्थूल शरीर त्यागकर, वायु के मार्गों से होकर अन्य के शरीर में उसी तरह प्रवेश करे जिस तरह भौंरा उड़कर एक फूल को छोड़कर दूसरे पर चला जाता है।

24 जिस योगी ने स्वच्छन्द-मृत्यु नामक योगशक्ति प्राप्त कर ली होती है, वह अपनी गुदा को पाँव की एड़ी से दबाता है और तब आत्मा को हृदय से उठाकर क्रमशः वक्षस्थल, गर्दन तथा अन्त में सिर तक उठाता है। तब ब्रह्म-रन्ध्र में स्थित योगी अपने शरीर को त्याग देता है और आत्मा को चुने हुए गन्तव्य तक ले जाता है।

25 जो योगी देवताओं के क्रीड़ा-उद्यानों का भोग करना चाहता है उसे मुझमें स्थित शुद्ध सतोगुण का ध्यान करना चाहिए और तब सतोगुण से उत्पन्न अप्सराएँ विमानों में चढ़कर उसके पास आ जाएँगी।

26 जो योगी मुझमें अपने मन को लीन करके तथा यह जानते हुए कि मेरा अभिप्राय सदैव पूरा होता है, मुझमें श्रद्धा रखता है, वह सदैव उन्हीं साधनों से, जिनका पालन करने का उसने संकल्प ले रखा है, अपना मन्तव्य प्राप्त करेगा।

27 जो व्यक्ति ठीक से मेरा ध्यान करता है, वह परम शासक तथा नियन्ता होने का मेरा स्वभाव प्राप्त कर लेता है। तब मेरे ही समान उसका आदेश किसी भी तरह से व्यर्थ नहीं जाता।

28 जिस योगी ने मेरी भक्ति द्वारा अपने जीवन को शुद्ध कर लिया है और जो इस तरह ध्यान की विधि को भलीभाँति जानता है, वह भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान प्राप्त करता है। अतः वह अपने तथा अन्यों के जन्म तथा मृत्यु को देख सकता है।

29 जिस तरह जलचरों के शरीरों को जल से चोट नहीं पहुँचती, उसी प्रकार जिस योगी की चेतना मेरी भक्ति से शान्त हुई रहती है और जो योग-विज्ञान में पूर्णतया समृद्ध होता है, उसका शरीर अग्नि, सूर्य, जल, विष इत्यादि से क्षतिग्रस्त नहीं किया जा सकता। मेरा भक्त मेरे ऐश्वर्यमय अवतारों का ध्यान करके अपराजेय बन जाता है। मेरे ये अवतार श्रीवत्स तथा विविध हथियारों से अलंकृत और ध्वजों, अलंकारिक छातों तथा पंखों जैसे राजसी साज-सामान से युक्त होते हैं।

31 विद्वान भक्त जो योग-ध्यान द्वारा मेरी पूजा करता है, वह निश्चित ही सभी तरह से उन योग-सिद्धियों को प्राप्त करता है जिनका वर्णन मैंने किया है।

32 जिस मुनि ने अपनी इन्द्रियों, श्वास तथा मन को जीत लिया है, जो आत्मसंयमी है और सदा मेरे ध्यान में लीन रहता है, उसके लिए कौन-सी योग-सिद्धि प्राप्त करना कठिन है?

33 भक्ति के विद्वान पण्डितों का कहना है कि योग-सिद्धियाँ, जिनका मैंने उल्लेख किया है, वास्तव में उस परम योग का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के लिए अवरोधक तथा समय का अपव्यय है जिसके द्वारा वह मुझसे सीधे समस्त जीवन-सिद्धियाँ प्राप्त करता है।

34 उत्तम जन्म, जड़ी-बूटियों, तपस्याओं तथा मंत्रों से जो भी योग-सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं उन सबको मेरी भक्ति करके प्राप्त किया जा सकता है। निस्सन्देह, कोई भी व्यक्ति अन्य किसी साधन से वास्तविक योग-सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।

35 हे उद्धव, मैं समस्त योग-सिद्धियों, योग-पद्धति, सांख्य ज्ञान, शुद्ध कर्म तथा विद्वान वैदिक शिक्षकों का कारण, रक्षक तथा स्वामी हूँ।

36 जिस तरह समस्त भौतिक शरीरों के भीतर तथा बाहर एक जैसे भौतिक तत्त्व उपस्थित रहते है, उसी तरह मैं किसी अन्य वस्तु से आच्छादित नहीं किया जा सकता। मैं हर वस्तु के भीतर परमात्मा रूप में और हर वस्तु के बाहर अपने सर्वव्यापक रूप में उपस्थित रहता हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893635053?profile=RESIZE_400x

अध्याय चौदह - भगवान कृष्ण द्वारा उद्धव से योग पद्धति का वर्णन (11.14)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, वैदिक वाड्मय की व्याख्या करनेवाले विद्वान मुनिगण मनुष्य जीवन की सिद्धि के लिए अनेक विधियों की संस्तुति करते हैं। हे प्रभु, कृपया मुझे बतायें कि ये सारी विधियाँ समान रूप से महत्त्वपूर्ण है अथवा इनमें से कोई एक सर्वश्रेष्ठ है।

2 हे प्रभु, आपने शुद्ध भक्तियोग की स्पष्ट व्याख्या कर दी है, जिसके द्वारा भक्त अपने मन को समस्त भौतिक संगति से हटाकर, आप पर एकाग्र कर सकता है।

3 भगवान ने कहा : काल के प्रभाव से प्रलय के समय वैदिक ज्ञान की दिव्य ध्वनि नष्ट हो गई थी। अतएव जब फिर से सृष्टि बनी, तो मैंने यह वैदिक ज्ञान ब्रह्मा को बतलाया क्योंकि मैं ही वेदों में वर्णित धर्म हूँ।

4 ब्रह्मा ने यह वैदिक ज्ञान अपने ज्येष्ठ पुत्र मनु को दिया और तब भृगु मुनि इत्यादि सप्त ऋषियों ने वही ज्ञान मनु से ग्रहण किया।

5-7 भृगु मुनि, ब्रह्मा के अन्य पुत्रों तथा पूर्वजों से अनेक पुत्र तथा उत्तराधिकारी उत्पन्न हुए, जिन्होंने देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गुह्यकों, सिद्धों, गन्धर्वों, चारणों, विद्याधरों, किन्देवों, किन्नरों, नागों, किम्पुरुषों इत्यादि के विभिन्न रूप धारण किए। सभी विश्वव्यापी जातियाँ तथा उनके नेता, तीन गुणों से उत्पन्न विभिन्न स्वभाव तथा इच्छाएँ लेकर प्रकट हुए। इसलिए ब्रह्माण्ड में जीवों के विभिन्न लक्षणों के कारण न जाने कितने अनुष्ठान, मंत्र तथा फल हैं।

8 इस तरह मनुष्य के बीच नाना प्रकार की इच्छाओं तथा स्वभावों के कारण जीवन के अनेकानेक आस्तिक दर्शन हैं, जो प्रथा, रीति-रिवाज तथा परम्परा द्वारा हस्तान्तरित होते रहते हैं। ऐसे भी शिक्षक हैं, जो सीधे-सीधे नास्तिक दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

9 हे पुरुष-श्रेष्ठ, चूँकि मनुष्यों की बुद्धि मेरी माया से मोहग्रस्त हो जाती है अतएव जो मनुष्यों के लिए वास्तव में शुभ है उसके विषय में – वे अपने कर्मों तथा रुचियों के अनुसार असंख्य प्रकार से बोलते हैं।

10 कुछ लोग कहते है कि पुण्यकर्म करके सुखी बना जा सकता है। अन्य लोग कहते हैं कि सुख को यश, इन्द्रियतृप्ति, सच्चाई, आत्मसंयम, शान्ति, स्वार्थ, राजनीति का प्रभाव, ऐश्वर्य, संन्यास, भोग, यज्ञ, तपस्या, दान, व्रत, नियमित कृत्य या कठोर अनुशासन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। हर विधि के अपने अपने समर्थक होते हैं।

11 मैंने जिन पुरुषों का उल्लेख किया है वे अपने भौतिक कर्मों के फल प्राप्त करते हैं। निस्सन्देह, वे अज्ञान पर आधारित जिन नगण्य तथा दुखमय स्थितियों को प्राप्त होते हैं उनसे भावी दुख मिलता है। अपने कर्मफलों का भोग करते हुए भी, ऐसे व्यक्ति शोक से पूरित हो जाते हैं।

12 हे विद्वान उद्धव, जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में अनुरक्त रहते हैं, वे उस सुख का अनुभव नहीं कर सकते, जिसका अनुभव भौतिक इच्छाओं को त्यागकर, निष्काम भाव से कर्म कर, मुझमें अपना मन स्थिर करनेवाले व्यक्ति करते हैं।

13 जो इस जगत में कुछ भी कामना नहीं करता, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में करके शान्ति प्राप्त कर ली है, जिसकी चेतना सभी परिस्थितियों में एक-सी रहती है तथा जिसका मन मुझमें पूर्णतया तुष्ट रहता है, वह जहाँ कहीं भी जाता है उसे सुख ही सुख मिलता है।

14 जिसने अपनी चेतना मुझमें स्थिर कर रखी है, वह न तो ब्रह्मा या इन्द्र के पद या उनके धाम की कामना करता है, न इस पृथ्वी के साम्राज्य, न निम्न लोकों की सर्वश्रेष्ठता, न योग की आठ सिद्धियों की, न जन्म-मृत्यु से मोक्ष की कामना करता है। ऐसा व्यक्ति एकमात्र मेरी कामना करता है।

15 हे उद्धव, न तो ब्रह्मा, शिव, संकर्षण, लक्ष्मीजी, न ही अर्चाविग्रह के रूप में मेरी आत्मा, मुझे इतने प्रिय हैं जितने कि तुम हो।

16 मैं अपने भक्तों के चरणकमलों की धूल से अपने भीतर स्थित भौतिक जगतों को शुद्ध बनाना चाहता हूँ। इसलिए मैं सदैव अपने उन शुद्ध भक्तों के पदचिन्हों का अनुसरण करता हूँ जो निजी इच्छाओं से रहित हैं, जो मेरी लीलाओं के विचार में निमग्न रहते हैं, शान्त हैं, शत्रुभाव से रहित हैं तथा सर्वत्र समभाव रखते हैं।

17 जो निजी तृप्ति की किसी इच्छा से रहित हैं, जिनके मन सदैव मुझमें अनुरक्त रहते हैं, जो शान्त, मिथ्या अभिमान से रहित तथा समस्त जीवों पर दयालु हैं तथा जिनकी चेतना कभी भी इन्द्रियतृप्ति के अवसरों से प्रभावित नहीं होती, ऐसे व्यक्ति मुझमें ऐसा सुख पाते हैं जिसे वे व्यक्ति प्राप्त नहीं कर पाते या जान भी नहीं पाते जिनमें भौतिक जगत से विरक्ति का अभाव है।

18 हे उद्धव, यदि मेरा भक्त पूरी तरह से अपनी इन्द्रियों को जीत नहीं पाता, तो वह भौतिक इच्छाओं द्वारा उद्विग्न किया जा सकता है, किन्तु मेरे प्रति अविचल भक्ति के कारण, वह इन्द्रियतृप्ति द्वारा परास्त नहीं किया जायेगा।

19 हे उद्धव, जिस तरह धधकती अग्नि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह मेरी भक्ति मेरे भक्तों द्वारा किये गये पापों को पूर्णतया भस्म कर देती है।

20 हे उद्धव, भक्तों द्वारा की जानेवाली मेरी शुद्ध भक्ति मुझे उनके वश में करनेवाली है। अतएव योग, सांख्य दर्शन, शुद्ध कार्य, वैदिक अध्ययन, तप अथवा वैराग्य में लगे व्यक्तियों के द्वारा भी मैं वशीभूत नहीं होता।

21 मुझ पर पूर्ण श्रद्धा से युक्त शुद्ध भक्ति का अभ्यास करके ही मुझे अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। मैं स्वभावतः अपने उन भक्तों को प्रिय हूँ जो मुझे ही अपनी प्रेमाभक्ति का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं। ऐसी शुद्ध भक्ति में लगने से चाण्डाल तक निम्न जन्म के कल्मष से अपने को शुद्ध कर सकते हैं।

22 न सत्य तथा दया से युक्त धार्मिक कार्य, न ही कठिन तपस्या से प्राप्त किया गया ज्ञान उनकी चेतना को पूर्णतया शुद्ध बना सकता है, जो मेरी भक्ति से विहीन होते हैं।

23 यदि किसी को रोमांच नहीं होता, तो उसका हृदय कैसे द्रवित हो सकता है? और यदि हृदय द्रवित नहीं होता, तो आँखों में प्रेमाश्रु कैसे बह सकते हैं? यदि कोई आध्यात्मिक सुख में गिड़गिड़ाया नहीं, तो वह भगवान की प्रेमाभक्ति कैसे कर सकता है? और ऐसी सेवा के बिना चेतना कैसे शुद्ध बन सकती है?

24 वह भक्त जिसकी वाणी कभी रुद्ध हो जाती है, जिसका हृदय द्रवित हो उठता है, जो निरन्तर चिल्लाता है और कभी हँसता है, जो लज्जित होता है और जोरों से चिल्लाता है, फिर नाचने लगता है – इस तरह से मेरी भक्ति में स्थिर भक्त सारे ब्रह्माण्ड को शुद्ध करता है।

25 जिस तरह आग में पिघलाने से सोना अपनी अशुद्धियाँ त्याग देता है और शुद्ध चमक प्राप्त कर लेता है, उसी तरह भक्तियोग की अग्नि में लीन आत्मा पूर्व सकाम कर्मों से उत्पन्न सारे कल्मष से शुद्ध बन जाता है और वैकुण्ठ में मेरी सेवा करने के अपने आदि पद को प्राप्त करता है।

26 जब रुग्ण आँख का उपचार औषधीय अंजन से किया जाता है, तो आँख में धीरे धीरे देखने की शक्ति आ जाती है। इसी तरह जब चेतनामय जीव मेरे यश की पुण्य गाथाओं के श्रवण तथा कीर्तन द्वारा अपने भौतिक कल्मष को धो डालता है तो वह फिर से मुझ परम सत्य को मेरे सूक्ष्म आध्यात्मिक रूप में देखने की शक्ति पा लेता है।

27 इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं का ध्यान धरने वाले का मन निश्चय ही ऐसी वस्तुओं में उलझा रहता है, किन्तु यदि कोई निरन्तर मेरा स्मरण करता है, तो उसका मन मुझमें निमग्न हो जाता है।

28 इसलिए मनुष्य को उत्थान की उन सारी भौतिक विधियों का बहिष्कार करना चाहिए, जो स्वप्न के मनोरथों जैसी हैं। उसे अपना मन पूरी तरह से मुझमें लीन कर देना चाहिए। निरन्तर मेरा चिन्तन करने से वह शुद्ध बन जाता है।

29 नित्य आत्मा के प्रति सचेष्ट रहते हुए मनुष्य को स्त्रियों की तथा स्त्रियों से घनिष्ठता से जुड़े रहनेवाले व्यक्तियों की संगति त्याग देनी चाहिए। एकान्त स्थान में निर्भय होकर आसन लगाकर, उसे अपने मन को बड़े ही ध्यान से मुझ पर एकाग्र करना चाहिए।

30 विभिन्न आसक्तियों से उत्पन्न होनेवाले सभी प्रकार के कष्ट तथा बन्धन में से ऐसा एक भी नहीं, जो स्त्रियों के प्रति अनुरक्ति तथा स्त्रियों के प्रति अनुरक्त रहनेवालों के घनिष्ठ सम्पर्क से बढ़कर हो।

31 श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, यदि कोई मुक्ति का इच्छुक व्यक्ति आपका ध्यान करना चाहे तो वह किस विधि से करे, उसका यह ध्यान किस विशिष्ट प्रकार का हो और वह किस रूप का ध्यान करे? कृपया मुझे ध्यान के इस विषय के बारे में बतायें।

32-33 भगवान ने कहा : ऐसे आसन पर बैठकर, जो न तो ज्यादा ऊँचा हो, न अधिक नीचा हो, शरीर को सुविधाजनक स्थिति में सीधा रखते हुए, दोनों हाथों को गोद में रखकर तथा आँखों को अपनी नाक के अगले सिरे पर केन्द्रित करते हुए, मनुष्य को चाहिए कि पूरक, कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम का यांत्रिक विधि से अभ्यास करे और फिर इस विधि को उलट कर करे (अर्थात रेचक, कुम्भक तथा पूरक के क्रम से करे)। इन्द्रियों को भलीभाँति वश में कर लेने के बाद, उसे धीरे धीरे प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।

34 मूलाधार चक्र से शुरु करके, मनुष्य को चाहिए कि प्राणवायु को कमल नाल के तन्तुओं की तरह ऊपर की ओर लगातार ले जाय जब तक कि वह हृदय तक न पहुँच जाय जहाँ पर ॐ का पवित्र अक्षर घण्टे की ध्वनि की तरह विद्यमान है। इस तरह उसे इस अक्षर को लगातार ऊपर की ओर बारह अंगुल की दूरी तक उठाते जाना चाहिए और वहाँ पर ॐकार को अनुस्वार समेत उत्पन्न पन्द्रह ध्वनियों से जोड़ देना चाहिए।

35 ॐकार में स्थिर होकर मनुष्य को चाहिए कि सूर्योदय, दोपहर तथा सूर्यास्त के समय दस बार प्राणायाम का सतर्कतापूर्वक अभ्यास करे। इस तरह एक मास पश्चात वह प्राणवायु पर विजय पा लेगा।

36-42 आँखों को अधखुली रखते हुए तथा उन्हें अपनी नाक के सिरे पर स्थिर करके, अत्यन्त सजग रहकर, मनुष्य को हृदय के भीतर स्थित कमल के फूल का ध्यान करना चाहिए। इस कमल के फूल में आठ पंखड़ियाँ हैं और यह सीधे डंठल पर स्थित है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि को उस कमल-पुष्प के कोश में एक-एक करके रखते हुए, उनका ध्यान करना चाहिए। अग्नि में मेरे दिव्य स्वरूप को स्थापित करते हुए, उसे समस्त ध्यान का शुभ लक्ष्य मानकर उसका ध्यान करना चाहिए। यह स्वरूप अत्यन्त समरूप, मृदुल तथा प्रसन्न होता है। इस स्वरूप की चार लम्बी भुजाएँ, सुहावनी गर्दन, मस्तक, शुद्ध हँसी – अतीव सुन्दर हैं तथा कानों में मकराकृति के चमचमाते कुण्डल हैं। यह आध्यात्मिक स्वरूप वर्षा के मेघ की भाँति श्यामल रंग वाला है और सुनहले-पीले रेशम से आवृत है। इस रूप के वक्षस्थल पर श्रीवत्स तथा लक्ष्मी का आवास है और यह स्वरूप शंख, चक्र, गदा, कमल-पुष्प, वनमाला (जंगली फूलों की माला), कौस्तुभ मणि तथा तेजवान मुकुट से सुसज्जित है। इसके दो चमकीले चरणकमल घुँघरुओं तथा पायजेबों से विभूषित हैं। इसके कूल्हे सुनहली करधनी से सुन्दर लगते हैं और भुजाएँ मूल्यवान बाजूबन्दों से सुसज्जित हैं। इस सुन्दर रूप के सभी अंग हृदय को मोहने वाले हैं और मुख-मण्डल दयामय चितवन से सुशोभित है। मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से पृथक कर – मन को सारथी की तरह प्रबलतापूर्वक दृढ़ एवं स्थिर करके अपनी बुद्धि से मेरे अत्यन्त मृदुल दिव्य स्वरूप का ध्यान करे।

43 तब अपनी चेतना को दिव्य शरीर के समस्त अंगों से हटा ले। उस समय उसे भगवान के अद्भुत हँसी से युक्त मुख का ही ध्यान करना चाहिए।

44 भगवान के मुख का ध्यान करते हुए, उसे चाहिए कि वह अपनी चेतना को हटाकर उसे आकाश में स्थिर करे। तब ऐसे ध्यान को त्याग कर, वह मुझमें स्थिर हो जाय और ध्यान-विधि का सर्वथा परित्याग कर दे।

45 जिसने अपने मन को मुझमें पूरी तरह स्थिर कर लिया है उसे चाहिए कि अपनी आत्मा के भीतर मुझ भगवान को देखे और व्यष्टि आत्मा को मेरे भीतर देखे। इस तरह वह आत्माओं को परमात्मा से संयुक्त देखता है, जिस तरह सूर्य की किरणों को सूर्य से पूर्णतया संयुक्त देखा जाता है।

46 जब योगी इस तरह अत्यधिक एकाग्र ध्यान से अपने मन को अपने वश में करता है, तो भौतिक वस्तुओं, ज्ञान तथा कर्म से उसकी भ्रामक पहचान तुरन्त समाप्त हो जाती है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893617059?profile=RESIZE_400x

अध्याय तेरह - हंसावतार द्वारा ब्रह्मापुत्रों के प्रश्नों के उत्तर (11.13)

1 भगवान ने कहा : भौतिक प्रकृति के तीन गुण, जिनके नाम सतो, रजो तथा तमोगुण हैं, भौतिक बुद्धि से सम्बद्ध होते हैं, आत्मा से नहीं। सतोगुण के विकास से मनुष्य रजोगुण तथा तमोगुण को जीत सकता है एवं दिव्य सत्त्व के अनुशीलन से, वह अपने को भौतिक सत्त्व से भी मुक्त कर सकता है।

2 जब जीव प्रबल रूप से सतोगुण में स्थित हो जाता है, तो मेरी भक्ति के लक्षणों से युक्त धार्मिक सिद्धान्त प्रधान बन जाते हैं। जो वस्तुएँ पहले से सतोगुण में स्थित हैं, उनके अनुशीलन से सतोगुण को प्रबल बनाया जा सकता है और इस तरह धार्मिक सिद्धान्तों का उदय होता है।

3 सतोगुण से सुदृढ़ हुआ धर्म, रजो तथा तमोगुण के प्रभाव को नष्ट कर देता है। जब रजो तथा तमोगुण परास्त हो जाते हैं, तो उनका मूल कारण, जो कि अधर्म है, तुरन्त ही नष्ट हो जाता है।

4 शास्त्र, जल, प्रजा से संगति, स्थान विशेष, काल, कर्म, जन्म, ध्यान, मंत्रोच्चार तथा संस्कार इन दस वस्तुओं के अनुसार – प्रकृति के गुण भिन्न भिन्न प्रकार से प्रधानता प्राप्त करते हैं।

5 अभी मैंने जिन दस वस्तुओं का उल्लेख किया है, उनके बारे में वैदिक ज्ञान में पटु महान ऋषियों ने, जो सात्विक वस्तुएँ हैं उनकी प्रशंसा तथा संस्तुति, जो तामसी हैं उनकी आलोचना तथा बहिष्कार एवं जो राजसिक हैं उनके प्रति उपेक्षा का भाव व्यक्त किया गया है।

6 जब तक मनुष्य आत्मा विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान को पुनर्जीवित नहीं कर लेता और प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न भौतिक शरीर तथा मन से मोहमयी पहचान को हटा नहीं देता, तब तक उसे सतोगुणी वस्तुओं का अनुशीलन करते रहना चाहिए। सतोगुण के बढ़ाने से, वह स्वतः धार्मिक सिद्धान्तों को समझ सकता है और उनका अभ्यास कर सकता है तब ऐसे अभ्यास से दिव्य ज्ञान जागृत होता है।

7 बाँस के जंगल में कभी-कभी वायु बाँस के तनों में रगड़ उत्पन्न करती है और ऐसी रगड़ से अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जो अपने जन्म के स्रोत, बाँस के जंगल, को ही भस्म कर देती है। इस प्रकार अग्नि अपने ही कर्म से स्वतः प्रशमित हो जाती है। इसी तरह प्रकृति के भौतिक गुणों में परस्परिक क्रिया होने से, स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर उत्पन्न होते हैं। यदि मनुष्य अपने मन तथा शरीर का उपयोग ज्ञान का अनुशीलन करने में करता है, तो ऐसा ज्ञान देह को उत्पन्न करने वाले गुणों के प्रभाव को नष्ट कर देता है। इस तरह, अग्नि के ही समान, शरीर तथा मन अपने जन्म के स्रोत को विनष्ट करके अपने ही कर्मों से शान्त हो जाते हैं।

8 श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, सामान्यतया मनुष्य यह जानते हैं कि भौतिक जीवन भविष्य में महान दुख देता है, फिर भी वे भौतिक जीवन का भोग करना चाहते हैं। हे प्रभु, यह जानते हुए भी, वे किस तरह कुत्ते, गधे या बकरे जैसा आचरण करते हैं।

9 भगवान ने कहा : हे उद्धव, बुद्धिरहित व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी झूठी पहचान भौतिक शरीर तथा मन के साथ करता है और जब किसी की चेतना में ऐसा मिथ्या ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तो महान कष्ट का कारण, भौतिक काम (विषय-वासना), उस मन में व्याप्त हो जाता है, जो स्वभाव से सात्विक होता है।

10 तब काम द्वारा दूषित मन भौतिक उन्नति के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाने एवं बदलने में लीन हो जाता है। इस प्रकार सदैव भौतिक गुणों का चिन्तन करते हुए, मूर्ख व्यक्ति असह्य भौतिक इच्छाओं से पीड़ित होता रहता है।

11 जो भौतिक इन्द्रियों को वश में नहीं करता, वह भौतिक इच्छाओं के वश में हो जाता है और इस तरह वह रजोगुण की प्रबल तरंगों से मोहग्रस्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति भौतिक कर्म करता रहता है, यद्यपि उसे स्पष्ट दिखता है कि इसका फल भावी दुख होगा।

12 यद्यपि विद्वान पुरुष की बुद्धि रजो तथा तमोगुणों से मोहग्रस्त हो सकती है, किन्तु उसे चाहिए कि वह सावधानी से अपने मन को पुनः अपने वश में करे। गुणों के कल्मष को स्पष्ट देख लेने से वह आसक्त नहीं होता।

13 मनुष्य को सावधान तथा गम्भीर होना चाहिए और उसे कभी भी आलसी या खिन्न नहीं होना चाहिए। श्वास तथा आसन की योगक्रियाओं में दक्ष बनकर, मनुष्य को अपना मन प्रातः, दोपहर तथा संध्या-समय मुझ पर एकाग्र करते हुए इस तरह मन को धीरे धीरे मुझमें पूरी तरह लीन कर लेना चाहिए।

14 मनुष्य को चाहिए कि सनक कुमार इत्यादि मेरे भक्तों द्वारा सिखायी गयी वास्तविक योगपद्धति के अनुसार अन्य सारी वस्तुओं से मन को हटाकर उसे सीधे मुझमें लीन कर दे।

15 श्री उद्धव ने कहा : हे केशव, आपने सनकादि भक्तों को मन को स्थिर कर परम सत्य को जानने की विधि विषयक जो उपदेश दिया उसे मैं जानना चाहता हूँ।

16 भगवान ने कहा: एक बार सनक इत्यादि ब्रह्मा के मानस पुत्रों ने अपने पिता से योग के परम लक्ष्य जैसे अत्यन्त गूढ़ विषय के बारे में पूछा।

17 सनकादि ऋषियों ने कहा : हे प्रभु, लोगों के मन स्वभावतः भौतिक इन्द्रियविषयों के प्रति आकृष्ट रहते हैं और इसी तरह से इन्द्रियविषय इच्छा के रूप में मन में प्रवेश करते हैं। अतएव मोक्ष की इच्छा करनेवाला तथा इन्द्रियतृप्ति के कार्यों को लाँघने की इच्छा करनेवाला व्यक्ति इन्द्रियविषयों तथा मन के बीच पाये जानेवाले इस परस्परिक सम्बन्ध को कैसे नष्ट करे? कृपया हमें यह समझायें।

18 भगवान ने कहा : हे उद्धव, भगवान के शरीर से उत्पन्न तथा भौतिक जगत के समस्त जीवों के स्रष्टा स्वयं ब्रह्माजी ने सर्वोच्च देवता होने के कारण सनक आदि अपने पुत्रों के प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया। किन्तु ब्रह्मा की बुद्धि सृष्टि के कार्यों से प्रभावित थी, अतएव वे इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं ढूँढ सके।

19 ब्रह्माजी उस प्रश्न का उत्तर पाना चाह रहे थे, जो उन्हें उद्विग्न कर रहा था, अतएव उन्होंने अपना मन भगवान में स्थिर कर दिया। उस समय, मैं अपने हंस रूप में ब्रह्मा को दृष्टिगोचर हुआ।

20 इस प्रकार मुझे देखकर सारे मुनि, ब्रह्मा को आगे करके, सामने आए और मेरे चरणकमलों की पूजा की। तत्पश्चात उन्होंने मुझसे पूछा कि, “आप कौन हैं?”

21 हे उद्धव, मुनिगण योगपद्धति के अनन्तिम सत्य को जानने के इच्छुक थे, अतएव उन्होंने मुझसे इस प्रकार पूछा। मैंने मुनियों से जो कहा, उसे अब मुझसे सुनो।

22 हे ब्राह्मणों, यदि तुम यह विश्वास करते हो कि मैं भी एक जीव हूँ और हममें कोई अन्तर नहीं है – क्योंकि अन्ततः सारे जीव एक हैं – तो फिर तुम लोगों का प्रश्न किस तरह सम्भव या उपयुक्त (युक्ति संगत) है? अन्ततः तुम्हारा और मेरा दोनों का असली आश्रय क्या है?

23 यदि तुम मुझसे यह प्रश्न पूछकर कि, “आप कौन है?” भौतिक देह की बात करना चाहते हो, तो मैं यह कहना चाहूँगा कि सारे भौतिक देह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश – इन पाँच तत्त्वों से मिलकर बने हैं। इसलिए, तुम्हें इस प्रकार पूछना चाहिए था, “आप पाँच कौन हैं?” यदि तुम यह मानते हो कि सारे भौतिक देह एकसमान तत्त्वों से बने होने से, अन्ततः एक हैं, तो भी तुम्हारा प्रश्न निरर्थक है क्योंकि एक शरीर से दूसरे शरीर का भेद करने में कोई गम्भीर प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार ऐसा लगता है कि मेरी पहचान पूछकर, तुम ऐसे शब्द बोल रहे हो जिनका कोई वास्तविक अर्थ या अभिप्राय नहीं है।

24 इस जगत में, मन, वाणी, आँखों या अन्य इन्द्रियों के द्वारा जो भी अनुभव किया जाता है, वह एकमात्र मैं हूँ, मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। तुम सभी तथ्यों के सीधे-सीधे विश्लेषण से इसे समझो।

25 हे पुत्रों, मन की सहज प्रवृत्ति भौतिक इन्द्रियविषयों में प्रविष्ट करने की होती है और इसी तरह इन्द्रियविषय मन में प्रवेश करते हैं। किन्तु भौतिक मन तथा इन्द्रियविषय दोनों ही उपाधियाँ मात्र हैं, जो मेरे अंशरूप आत्मा को ढके रहती हैं।

26 जिस व्यक्ति ने यह जानकर कि वह मुझसे भिन्न नहीं है, मुझे प्राप्त कर लिया है, वह अनुभव करता है कि मन निरन्तर इन्द्रियतृप्ति के कारण इन्द्रियविषयों में रमा रहता है और भौतिक वस्तुएँ मन के भीतर स्पष्टतया स्थित रहती हैं। मेरे दिव्य स्वभाव को समझ लेने के बाद, वह मन तथा इसके विषयों को त्याग देता है।

27 जागना, सोना तथा गहरी नींद – ये तीन कार्य बुद्धि के हैं और प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न होते हैं। शरीर के भीतर का जीव इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न लक्षणों द्वारा सुनिश्चित किया जाता है, अतएव वह उनका साक्षी बना रहता है।

28 आत्मा भौतिक बुद्धि के बन्धन में बन्दी है, जो उसे प्रकृति के मोहमय गुण निरन्तर प्रदान करती रहती है। लेकिन मैं चेतना की चौथी अवस्था – जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्त से परे – हूँ। मुझमें स्थित होने पर, जीव स्वतः भौतिक इन्द्रियविषयों तथा मन को त्याग देगा।

29 जीव का अहंकार उसे बन्धन में डालता है और जीव जो चाहता है उसका सर्वथा विपरीत उसे देता है। अतएव बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि भौतिक जीवन भोगने की स्थायी उद्विग्नता को त्याग दे और भगवान में स्थित रहे, जो भौतिक चेतना के कार्यों से परे हैं।

30 मनुष्य को चाहिए कि मेरे आदेशों के अनुसार वह अपना मन मुझमें स्थिर करे। किन्तु यदि वह हर वस्तु को मेरे भीतर न देखकर जीवन में अनेक प्रकार के अर्थ तथा लक्ष्य देखता रहता है, तो वह, जागते हुए भी, अपूर्ण ज्ञान के कारण, वास्तव में स्वप्न देखता रहता है, जिस तरह वह यह स्वप्न देखे कि वह स्वप्न से जाग गया है।

31 जगत की उन अवस्थाओं का जिन्हें भगवान से पृथक सोचा जाता है, वास्तविक अस्तित्व नहीं होता, यद्यपि वे परम सत्य से पृथकत्व की भावना उत्पन्न करती हैं। जिस तरह स्वप्न देखने वाला नाना प्रकार के कार्यों तथा फलों की कल्पना करता है उसी तरह भगवान से पृथक अस्तित्व की भावना से जीव झूठे ही सकाम कर्मों को भावी फल तथा गन्तव्य का कारण सोचता हुआ कर्म करता है।

32 जागृत रहने पर जीव अपनी सारी इन्द्रियों से भौतिक शरीर तथा मन के सारे क्षणिक गुणों का भोग करता है; स्वप्न के समय वह मन के भीतर ऐसे ही अनुभवों का आनन्द लेता है और प्रगाढ़ स्वप्नरहित निद्रा में ऐसे सारे अनुभव अज्ञान में मिल जाते है। जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्ति की सरणी को स्मरण करते तथा सोचते हुए, जीव यह समझ सकता है कि वह चेतना की तीनों अवस्थाओं में एक ही है और दिव्य है। इस तरह वह अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।

33 तुम्हें विचार करना चाहिए कि किस तरह, प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न, मन की ये तीन अवस्थाएँ, मेरी मायाशक्ति के प्रभाव से, मुझमें कृत्रिम रूप से विद्यमान मानी गई हैं। तुम्हें आत्मा की सत्यता को सुनिश्चित कर लेने के बाद, तर्क तथा मुनियों एवं वैदिक ग्रन्थों के आदेशों से प्राप्त, ज्ञानरूपी तेज तलवार से मिथ्या अभिमान को पूरी तरह काट डालना चाहिए क्योंकि यही समस्त संशयों को प्रश्रय देनेवाला है। तब तुम सबको, अपने हृदयों में स्थित, मेरी पूजा करनी चाहिए।

34 मनुष्य को देखना चाहिए कि यह भौतिक जगत मन में प्रकट होनेवाला स्पष्ट भ्रम है, क्योंकि भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व अत्यन्त क्षणिक है और वे आज हैं, किन्तु कल नहीं रहेंगी। इनकी तुलना लुकाठ के घुमाने से बने लाल रंग के गोले से की जा सकती है। आत्मा स्वभाव से ही एक विशुद्ध चेतना के रूप में विद्यमान रहता है। किन्तु इस जगत में वह अनेक रूपों और अवस्थाओं में प्रकट होता है। प्रकृति के गुण आत्मा की चेतना को जागृत, सुप्त तथा सुषुप्त, इन तीन अवस्थाओं में बाँट देते हैं। किन्तु अनुभूति की ऐसी विविधताएँ, वस्तुतः माया है और इनका अस्तित्व स्वप्न की ही तरह होता है।

35 भौतिक वस्तुओं के क्षणिक भ्रामक स्वभाव को समझ लेने के बाद और अपनी दृष्टि को भ्रम से हटा लेने पर, मनुष्य को निष्काम रहना चाहिए। आत्मा के सुख का अनुभव करते हुए, मनुष्य को भौतिक बोलचाल तथा कार्यकलाप त्याग देने चाहिए। यदि कभी वह भौतिक जगत को देखे तो उसे स्मरण करना चाहिए कि यह परम सत्य नहीं है, इसीलिए इसका परित्याग किया गया है। ऐसे निरन्तर स्मरण से मनुष्य अपनी मृत्यु पर्यंत, पुनः भ्रम में नहीं पड़ेगा।

36 जिस प्रकार शराब पिया हुआ व्यक्ति यह नहीं देख पाता कि उसने कोट पहना है या कमीज, उसी तरह जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार में पूर्ण है और जिसने अपना नित्य स्वरूप प्राप्त कर लिया है, वह यह नहीं देखता कि नश्वर शरीर बैठा हुआ है या खड़ा है, हाँ यदि ईश्वर की इच्छा से उसका शरीर समाप्त हो जाता है या उसे नया शरीर प्राप्त होता है, तो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति उसे उसी तरह नहीं देखता जिस तरह शराबी अपनी बाह्य वेषभूषा को नहीं देखता।

37 भौतिक शरीर निश्चय ही विधाता के वश में रहता है, अतः यह शरीर तब तक इन्द्रियों तथा प्राण के साथ जीवित रहता है जब तक उसका कर्म प्रभावशाली रहता है। किन्तु स्वरूपसिद्ध आत्मा, जो परम सत्य के प्रति प्रबुद्ध हो चुका है और जो योग की पूर्ण अवस्था में उच्चारूढ़ है, कभी भी शरीर तथा उसकी अनेक अभिव्यक्तियों के समक्ष नतमस्तक नहीं होगा क्योंकि वह इसे स्वप्न में देखे गये शरीर के समान जानता है।

38 हे ब्राह्मणों, अब मैं तुम्हें सांख्य का वह गोपनीय ज्ञान बता चुका हूँ, जिसके द्वारा मनुष्य पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर कर सकता है। मैंने तुम लोगों को अष्टांग योग का ज्ञान भी दे दिया है, जिससे मनुष्य परम पुरुष से जुड़ता है। मैं (भगवान विष्णु) तुम्हारे समक्ष वास्तविक धार्मिक कर्तव्य बताने की इच्छा से आया हूँ।

39 हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, यह जान लो कि मैं योगपद्धति, सांख्य दर्शन, सत्य, ऋत, तेज, सौन्दर्य, यश तथा आत्मसंयम का परम आश्रय हूँ।

40 ऐसे उत्तम दिव्य गुण जैसे – प्रकृति के गुणों से परे होना, विरक्त, शुभचिन्तक, भौतिक बन्धन से मुक्त होना इत्यादि गुणों से युक्त तथा जो गुणों के विकारों से मुक्त हैं, वे मुझ सर्वव्यापी तथा अत्यन्त प्रिय परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं।

41 भगवान कृष्ण ने आगे कहा: हे उद्धव, इस प्रकार मेरे वचनों से सनक इत्यादि मुनियों के सारे सन्देह नष्ट हो गये। दिव्य प्रेम तथा भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हुए, उन्होंने उत्तम स्तुतियों द्वारा मेरी महिमा का गायन किया।

42 महामुनियों ने मेरी भलीभाँति पूजा की और मेरे यश का गान किया, ब्रह्मा के देखते-देखते, मैं अपने धाम लौट गया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893611459?profile=RESIZE_400x

अध्याय बारह - वैराग्य तथा ज्ञान से आगे (11.12)

1-2 भगवान ने कहा: हे उद्धव, मेरे शुद्ध भक्तों की संगति करने से इन्द्रियतृप्ति के सारे पदार्थों के प्रति आसक्ति को नष्ट किया जा सकता है। शुद्धि करनेवाली ऐसी संगति मुझे मेरे भक्त के वश में कर देती है। कोई चाहे अष्टांग योग करे, प्रकृति के तत्त्वों का दार्शनिक विश्लेषण करने में लगा रहे, चाहे अहिंसा तथा शुद्धता के अन्य सिद्धान्तों का अभ्यास करे, वेदोच्चार करे, तपस्या करे, संन्यास ग्रहण करे, कुँ आ खुदवाने, वृक्ष लगवाने तथा जनता के अन्य कल्याण-कार्यों को सम्पन्न करे, चाहे दान दे, कठिन व्रत करे, देवताओं की पूजा करे, गुह्य मंत्रों का उच्चारण करे, तीर्थस्थानों में जाय या छोटे-बड़े अनुशासनात्मक आदेशों को स्वीकार करे, किन्तु इन सब कार्यों को सम्पन्न करके भी कोई मुझे अपने वश में नहीं कर सकता।

3-6 प्रत्येक युग में रजो तथा तमोगुण में फँसे अनेक जीवों ने मेरे भक्तों की संगति प्राप्त की। इस प्रकार दैत्य, राक्षस, पक्षी, पशु, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुहयक तथा विद्याधर जैसे जीवों के साथ साथ वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ तथा अन्य निम्न श्रेणी के मनुष्य मेरे धाम को प्राप्त कर सके । वृत्रासुर, प्रह्लाद महाराज तथा उन जैसे अन्यों ने मेरे भक्तों की संगति के द्वारा मेरे धाम को प्राप्त किया। इसी तरह वृषपर्वा, बलि महाराज, बाणासुर, मय, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार, धर्मव्याध, कुब्जा, वृन्दावन की गोपियाँ तथा यज्ञ कर रहे ब्राह्मणों की पत्नियाँ भी मेरा धाम प्राप्त कर सकीं।

7 मैंने जिन व्यक्तियों का उल्लेख किया है, उन्होंने न तो वैदिक वाड्मय का अध्ययन किया था, न महान सन्तों की पूजा की थी, न कठिन व्रत या तपस्या ही की थी। मात्र मेरे तथा मेरे भक्तों की संगति से, उन्होंने मुझे प्राप्त किया।

8 गोपियों समेत वृन्दावन के वासी, गौवें, अचर जीव यथा यमलार्जुन वृक्ष, पशु, जड़ बुद्धि वाले जीव यथा झाड़ियाँ तथा जंगल और सर्प यथा कालिय – इन सबों ने मुझसे शुद्ध प्रेम करने के ही कारण जीवन की सिद्धि प्राप्त की और इस तरह आसानी से मुझे प्राप्त किया ।

9 योग, चिन्तन, दान, व्रत, तपस्या, कर्मकाण्ड, अन्यों को वैदिक मंत्रों की शिक्षा, वेदों का निजी अध्ययन या संन्यास में बड़े बड़े प्रयास करते हुए लगे रहने पर भी मनुष्य, मुझे प्राप्त नहीं कर सकता।

10 गोपियाँ इत्यादि वृन्दावनवासी गहन प्रेम से सदैव मुझमें अनुरक्त थे। अतएव जब मेरे चाचा अक्रूर मेरे भ्राता बलराम सहित मुझे मथुरा नगरी में ले आये, तो वृन्दावनवासियों को मेरे बिछोह के कारण अत्यन्त मानसिक कष्ट हुआ और उन्हें सुख का कोई अन्य साधन प्राप्त नहीं हो पाया ।

11 हे उद्धव, वे सारी रातें, जो वृन्दावन भूमि में गोपियों ने अपने अत्यन्त प्रियतम मेरे साथ बिताई, वे एक क्षण से भी कम बीतती प्रतीत हुई । किन्तु मेरी संगति के बिना बीतीं वे रातें गोपियों को ब्रह्मा के एक दिन के तुल्य लम्बी खींचती सी प्रतीत हुई ।

12 हे उद्धव, जिस तरह योग समाधि में मुनिगण आत्म-साक्षात्कार में लीन रहते हैं और उन्हें भौतिक नामों तथा रूपों का भान नहीं रहता और जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिल जाती है, उसी तरह वृन्दावन की गोपियाँ अपने मन में मुझसे इतनी अनुरक्त थीं कि उन्हें अपने शरीर की अथवा इस जगत की या अपने भावी जीवनों की सुध-बुध नहीं रह गई थी। उनकी सम्पूर्ण चेतना मुझमें बँधी हुई थीं।

13 वे सैकड़ों हजारों गोपियाँ मुझे ही अपना सर्वाधिक मनोहर प्रेमी जानकर तथा इस तरह मुझे अत्यधिक चाहते हुए मेरे वास्तविक पद से अपरिचित थीं। फिर भी मुझसे घनिष्ठ संगति करके गोपियों ने मुझ परम सत्य को प्राप्त किया।

14-15 अतएव हे उद्धव, तुम सारे वैदिक मंत्रों तथा वेदांगों की विधियों एवं उनके सकारात्मक तथा निषेधात्मक आदेशों का परित्याग करो । जो कुछ सुना जा चुका है तथा जो सुना जाना है, उसकी परवाह न करो। केवल मेरी ही शरण ग्रहण करो, क्योंकि मैं ही समस्त बद्धत्माओं के हृदय में स्थित भगवान हूँ। पूरे मन से मेरी शरण ग्रहण करो और मेरी कृपा से तुम समस्त भय से मुक्त हो जाओ।

16 श्री उद्धव ने कहा: हे योगेश्वरों के ईश्वर, मैंने आपके वचन सुने हैं, किन्तु मेरे मन का सन्देह जा नहीं रहा है, अतः मेरा मन मोहग्रस्त है।

17 भगवान ने कहा: हे उद्धव, भगवान हरेक को जीवन प्रदान करते हैं और प्राणवायु तथा आदि ध्वनि (नाद) के सहित हृदय के भीतर स्थित हैं। भगवान को उनके सूक्ष्म रूप में हृदय के भीतर मन के द्वारा देखा जा सकता है, क्योंकि भगवान हरेक के मन को वश में रखते हैं, चाहे वह शिवजी जैसा महान देवता ही क्यों न हो। भगवान वेदों की ध्वनियों के रूप में जो ह्रस्व तथा दीर्घ स्वरों तथा विभिन्न स्वरविन्यास वाले व्यंजनों से बनी होती है, स्थूल रूप धारण करते हैं।

18 जब काठ के टुकड़ों को जोर से आपस में रगड़ा जाता है, तो वायु के सम्पर्क से ऊष्मा उत्पन्न होती है और अग्नि की चिनगारी प्रकट होती है। एक बार अग्नि जल जाने पर उसमें घी डालने पर अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इसी प्रकार मैं वेदों की ध्वनि के कम्पन में प्रकट होता हूँ।

19 कर्मेन्द्रियों के कार्य यथा वाक, हाथ, पैर, उपस्थ एवं नाक, जीभ, आँख, त्वचा तथा ज्ञानेन्द्रियों के साथ ही मन, बुद्धि, चेतना तथा अहंकार जैसी सूक्ष्म इन्द्रियों के कार्य एवं सूक्ष्म प्रधान के कार्य तथा तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया – इन सबको मेरा भौतिक व्यक्त रूप समझना चाहिए।

20 जब खेत में कई बीज डाले जाते हैं तो एक ही स्रोत मिट्टी से असंख्य वृक्ष, झाड़ियाँ, वनस्पतियाँ निकल आती हैं। इसी तरह सबों के जीवनदाता तथा नित्य भगवान आदि रूप में विराट जगत क्षेत्र के बाहर स्थित रहते हैं। किन्तु कालक्रम से तीनों गुणों के आश्रय तथा ब्रह्माण्ड रूप कमलफूल के स्रोत भगवान अपनी भौतिक शक्तियों को विभाजित करते हैं और असंख्य रूपों में प्रकट प्रतीत होते हैं, यद्यपि वे एक हैं।

21 जिस प्रकार बुना हुआ वस्त्र तानें – बाने पर आधारित रहता है, उसी तरह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड लम्बाई तथा चौड़ाई में भगवान की शक्ति पर फैला हुआ है और उन्हीं के भीतर स्थित है। बद्धजीव पुरातन काल से भौतिक शरीर स्वीकार करता आया है और ये शरीर विशाल वृक्षों की भाँति हैं, जो अपना पालन कर रहे हैं। जिस प्रकार एक वृक्ष पहले फूलता है और तब फलता है, उसी तरह भौतिक शरीर रूपी वृक्ष विविध फल देता है।

22-23 इस संसाररूपी वृक्ष के दो बीज, सैकड़ों जड़े, तीन निचले तने तथा पाँच ऊपरी तने हैं। यह पाँच प्रकार के रस उत्पन्न करता है। इसमें ग्यारह शाखाएँ है और दो पक्षियों ने एक घोंसला बना रखा है। यह वृक्ष तीन प्रकार की छालों से ढका है। यह दो फल उत्पन्न करता है और सूर्य तक फैला हुआ है। जो लोग कामुक हैं और गृहस्थ जीवन में लगे हैं वे वृक्ष के एक फल का भोग करते हैं और दूसरे फल का भोग संन्यास आश्रम के हंस सदृश व्यक्ति करते हैं। जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु की सहायता से इस वृक्ष को एक परब्रह्म की शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में अनेक रूपों में प्रकट हुआ समझ लेता है, वही वैदिक वाड्मय के असली अर्थ को जानता है।

24 तुम्हें चाहिए कि तुम धीर बुद्धि से गुरु की सावधानी पूर्वक पूजा द्वारा शुद्ध भक्ति उत्पन्न करो तथा दिव्य ज्ञान रूपी तेज कुल्हाड़ी से आत्मा के सूक्ष्म भौतिक आवरण को काट दो। भगवान का साक्षात्कार होने पर तुम उस तार्किक बुद्धिरूपी कुल्हाड़ी को त्याग दो।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

10893600492?profile=RESIZE_400x

अध्याय ग्यारह – बद्ध तथा मुक्त जीवों के लक्षण (11.11)

1 भगवान ने कहा: हे उद्धव, मेरे अधीन प्रकृति के गुणों के प्रभाव से जीव कभी बद्ध कहा जाता है, तो कभी मुक्त! किन्तु वस्तुतः आत्मा न तो कभी बद्ध होता है, न मुक्त चूँकि मैं प्रकृति के गुणों की कारणस्वरूप माया का परम स्वामी हूँ, इसलिए मुझे भी मुक्त या बद्ध नहीं माना जाना चाहिए।

2 जिस तरह स्वप्न मनुष्य की बुद्धि की सृष्टि है किन्तु वास्तविक नहीं होता, उसी तरह भौतिक शोक, मोह, सुख, दुख तथा माया के वशीभूत होकर भौतिक शरीर ग्रहण करना – ये सभी मेरी मोहिनी शक्ति (माया) की सृष्टियाँ हैं। दूसरे शब्दों में, भौतिक जगत में कोई वास्तविकता नहीं है।

3 हे उद्धव, ज्ञान (विद्या) तथा अज्ञान (अविद्या) दोनों ही माया की उपज होने के कारण मेरी शक्ति के विस्तार हैं। ये दोनों अनादि हैं और देहधारी जीवों को शाश्वत मोक्ष तथा बन्धन प्रदान करनेवाले हैं।

4 हे परम बुद्धिमान उद्धव, जीव मेरा भिन्नांश है, किन्तु अज्ञान के कारण वह अनादि काल से भौतिक बन्धन भोगता रहा है। फिर भी ज्ञान द्वारा वह मुक्त हो सकता है।

5 इस तरह हे उद्धव, एक ही शरीर में हम दो विरोधी लक्षण – यथा महान सुख तथा दुख पाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि नित्य मुक्त भगवान तथा बद्ध आत्मा दोनों ही शरीर के भीतर हैं। अब मैं तुमसे उनके विभिन्न लक्षण कहूँगा।

6 संयोगवश दो पक्षियों ने एक ही वृक्ष पर एक साथ घोंसला बनाया है। दोनों पक्षी मित्र हैं और एक जैसे स्वभाव के हैं। किन्तु उनमें से एक तो वृक्ष के फलों को खा रहा है, जबकि दूसरा, जो कि इन फलों को नहीं खा रहा है, अपनी शक्ति के कारण श्रेष्ठ पद पर है।

7 जो पक्षी वृक्ष के फल नहीं खा रहा वह भगवान है, जो अपनी सर्वज्ञता के कारण अपने पद को तथा उस बद्धजीव के पद को, जो कि फल खा रहे पक्षी द्वारा दर्शाया गया है, समझते हैं। किन्तु दूसरी ओर, वह जीव न तो स्वयं को समझता है, न ही भगवान को। वह अज्ञान से आच्छादित है, अतः नित्य बद्ध कहलाता है, जबकि पूर्ण ज्ञान से युक्त होने के कारण भगवान नित्य मुक्त हैं।

8 जो व्यक्ति स्वरूपसिद्ध है, वह भौतिक शरीर में रहते हुए भी अपने को शरीर से परे देखता है, जिस तरह मनुष्य स्वप्न से जागकर स्वप्न शरीर से अपनी पहचान त्याग देता है। किन्तु मूर्ख व्यक्ति यद्यपि वह अपने भौतिक शरीर से पहचान नहीं रखता किन्तु इसके परे होता है, अपने भौतिक शरीर में उसी प्रकार स्थित सोचता है, जिस तरह स्वप्न देखनेवाला व्यक्ति अपने को काल्पनिक शरीर में स्थित देखता है।

9 भौतिक इच्छाओं के कल्मष से मुक्त प्रबुद्ध व्यक्ति स्वयं को शारीरिक कार्यों का कर्ता नहीं मानता, प्रत्युत वह जानता है कि ऐसे कार्यों में प्रकृति के गुणों से उत्पन्न इन्द्रियाँ ही उन्हीं गुणों से उत्पन्न इन्द्रियविषयों से सम्पर्क करती हैं।

10 अपने पूर्व सकाम कर्मों द्वारा उत्पन्न शरीर के भीतर स्थित, अज्ञानी व्यक्ति सोचता है कि मैं ही कर्म का कर्ता हूँ। इसलिए ऐसा मूर्ख व्यक्ति मिथ्या अहंकार से मोहग्रस्त होकर, उन सकाम कर्मों से बँध जाता है, जो वस्तुतः प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं।

11 प्रबुद्ध व्यक्ति विरक्त रहकर शरीर को लेटने, बैठने, चलने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खाने, सुनने इत्यादि में लगाता है, लेकिन वह कभी भी ऐसे कार्यों में नहीं बँधता। निस्सन्देह, वह समस्त शारीरिक कार्यों का साक्षी बनकर अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों में लगाता है और मूर्ख व्यक्ति की भाँति उसमें फँसता नहीं।

12-13 यद्यपि आकाश हर वस्तु की विश्राम-स्थली है, किन्तु वह न तो किसी वस्तु से मिलता है, न उसमें उलझता है। इस प्रकार सूर्य उन नाना जलाशयों के जल में लिप्त नहीं होता, जिनमें से वह प्रतिबिम्बित होता है। इसी तरह सर्वत्र बहने वाली प्रबल वायु उन असंख्य सुगन्धियों तथा वातावरण से प्रभावित नहीं होती, जिनमें से होकर वह गुजरती है। ठीक इसी तरह स्वरूपसिद्ध आत्मा भौतिक शरीर तथा अपने आसपास के भौतिक जगत से पूर्णतया विरक्त रहता है। वह उस मनुष्य की तरह है, जो स्वप्न से जगा है। स्वरूपसिद्ध आत्मा विरक्ति द्वारा प्रखर की गई कुशल दृष्टि से आत्मा के पूर्ण ज्ञान से समस्त संशयों को छिन्न-भिन्न कर देता है और अपनी चेतना को भौतिक विविधता के विस्तार से पूर्णतया विलग कर लेता है।

14 वह व्यक्ति स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से पूर्णतया मुक्त माना जाता है, जब उसके प्राण, इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि के सारे कर्म किसी भौतिक इच्छा के बिना सम्पन्न किये जाते हैं। ऐसा व्यक्ति शरीर में स्थित रहकर भी बद्ध नहीं होता।

15 कभी कभी अकारण ही मनुष्य के शरीर पर क्रूर व्यक्तियों या उग्र पशुओं द्वारा आक्रमण किया जाता है। अन्य अवसरों तथा स्थानों पर उसी व्यक्ति का देवयोग से अत्यन्त सम्मान या पूजन होता है। जो व्यक्ति आक्रमण किये जाने पर क्रुद्ध नहीं होता, न ही पूजा किये जाने पर प्रमुदित होता है, वही वास्तव में बुद्धिमान है।

16 सन्त पुरुष समान दृष्टि से देखता है, अतएव भौतिक दृष्टि से अच्छे या बुरे कर्म से प्रभावी नहीं होता। यद्यपि वह अन्यों को अच्छा तथा बुरा कार्य करते और उचित तथा अनुचित बोलते देखता है, किन्तु वह किसी की प्रशंसा या आलोचना नहीं करता।

17 मुक्त साधु-पुरुष को अपने शरीर-पालन के लिए भौतिक अच्छाई या बुराई की दिशा हेतु न तो कर्म करना चाहिए, न बोलना या सोच-विचार करना चाहिए। प्रत्युत उसे सभी भौतिक परिस्थितियों में विरक्त रहना चाहिए और आत्म-साक्षात्कार में आनन्द लेते हुए जड़ व्यक्ति की तरह विचरण करना चाहिए।

18 यदि कोई गहन अध्ययन करके वैदिक साहित्य के पठन-पाठन में निपुण बन जाता है, किन्तु भगवान में मन को स्थिर करने का प्रयास नहीं करता, तो उसका श्रम वैसा ही होता है, जिस तरह दूध न देने वाली गाय की रखवाली करने में अत्यधिक श्रम करनेवाले व्यक्ति का। दूसरे शब्दों में, वैदिक ज्ञान के श्रमपूर्ण अध्ययन का फल कोरा श्रम ही निकलता है। उसको कोई अन्य सार्थक फल प्राप्त नहीं होगा।

19 हे उद्धव, वह व्यक्ति निश्चय ही अत्यन्त दुखी होता है, जो दूध न देने वाली गाय, कुलटा पत्नी, पूर्णतया पराश्रित शरीर, निकम्में बच्चों या सही कार्य में न लगाई जानेवाली धन-सम्पदा की देखरेख करता है। इसी तरह, जो व्यक्ति मेरी महिमा से रहित वैदिक ज्ञान का अध्ययन करता है, वह भी सर्वाधिक दुखियारा है।

20 हे उद्धव, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी ऐसा ग्रन्थ न पढ़े, जिनमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पवित्र करनेवाले मेरे कार्यकलापों का वर्णन न हो। निस्सन्देह मैं सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन तथा संहार करता हूँ। मेरे समस्त लीलावतारों में से कृष्ण तथा बलराम सर्वाधिक प्रिय हैं। ऐसा कोई भी तथाकथित ज्ञान, जो मेरे इन कार्यकलापों को महत्व नहीं देता, वह निरा बंजर है और वास्तविक बुद्धिमानों द्वारा स्वीकार्य नहीं है।

21 समस्त ज्ञान के निष्कर्ष के रूप में मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक विविधता की मिथ्या धारणा को त्याग दे, जिसे वह आत्मा पर थोपता है और इस तरह अपने भौतिक अस्तित्व को समाप्त कर दे। चूँकि मैं सर्वव्यापी हूँ, इसलिए मन को मुझ पर स्थिर करना चाहिए।

22 हे उद्धव, यदि तुम अपने मन को समस्त भौतिक ऊहापोहों से मुक्त नहीं कर सकते और इसे आध्यात्मिक पद पर पूर्णतया लीन नहीं कर सकते, तो अपने सारे कार्यों को, उनका फल भोगने का प्रयास किये बिना, मुझे अर्पित भेंट के रूप में सम्पन्न करो।

23-24 हे उद्धव, मेरी लीलाओं तथा गुणों की कथाएँ सर्वमंगलमय हैं और समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करनेवाली है। जो श्रद्धालु व्यक्ति ऐसी दिव्य लीलाओं को निरन्तर सुनता है, उनका गुणगान करता है तथा उनका स्मरण करता है और मेरे प्राकट्य से लेकर सारी लीलाओं का अभिनय करता है, मेरी तुष्टि के लिए अपने धार्मिक, ऐन्द्रिय तथा वृत्तिपरक कार्यों को मुझे अर्पित करता है, वह निश्चय ही मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है।

25 जिसने मेरे भक्तों की संगति से शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है, वह निरन्तर मेरी पूजा में लगा रहता है। इस तरह वह आसानी से मेरे धाम को जाता है, जिसे मेरे शुद्ध भक्तगणों द्वारा प्रकट किया जाता है।

26-27 श्री उद्धव ने कहा: हे प्रभु, हे भगवान, आप किस तरह के व्यक्ति को सच्चा भक्त मानते हैं और आपके भक्तों द्वारा किस तरह की भक्ति समर्थित है, जो आपको अर्पित की जा सके? हे ब्रह्माण्ड के नियन्ताओं के शासक, हे वैकुण्ठपति तथा ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान ईश्वर, मैं आपका भक्त हूँ और चूँकि मैं आपसे प्रेम करता हूँ, इसलिए आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कोई आश्रय नहीं है। अतएव मुझ पर कृपा करके इसे समझायें।

28 हे प्रभु, परब्रह्म-रूप में आप प्रकृति से परे हैं और आकाश की तरह बद्ध नहीं हैं। अपने भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर आप अनेक प्रकार के रूपों में प्रकट होते हैं और उनकी इच्छानुसार अवतरित होते हैं।

29-32 भगवान ने कहा: हे उद्धव, सन्त पुरुष दयालु होता है और वह कभी दूसरों को हानि नहीं पहुँचाता। दूसरों के आक्रामक होने पर भी वह सहिष्णु होता है और सारे जीवों को क्षमा करनेवाला होता है। उसकी शक्ति तथा जीवन की सार्थकता सत्य से मिलती है। वह समस्त ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त होता है और भौतिक सुख-दुख में उसका मन समभाव रहता है। इस तरह वह अन्य लोगों के कल्याण हेतु कार्य करने में अपना सारा समय लगाता है। उसकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं से मोहग्रस्त नहीं होती और उसकी इन्द्रियाँ अपने वश में रहती हैं। उसका व्यवहार सदैव मधुर, मृदु तथा आदर्श होता है। वह स्वामित्व (संग्रह) भाव से मुक्त रहता है। वह कभी भी सामान्य सांसारिक कार्यकलापों के लिए प्रयास नहीं करता और भोजन में संयम बरतता है। इसलिए वह सदैव शान्त तथा स्थिर रहता है। सन्त पुरुष विचारवान होता है और मुझे ही अपना एकमात्र आश्रय मानता है। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य-पालन में अत्यन्त सतर्क रहता है, उसमें कभी भी विकार नहीं आ पाते, क्योंकि दुखद परिस्थितियों में भी वह स्थिर तथा नेक बना रहता है। उसने भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु इन छह भौतिक गुणों पर विजय पा ली होती है। वह अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होता है और अन्यों को आदर प्रदान करता है। वह अन्यों की कृष्ण-चेतना जागृत करने में कुशल होता है अतएव कभी किसी को ठगता नहीं। प्रत्युत वह सबका शुभैषी मित्र होता है और अत्यन्त दयालु होता है। ऐसे सन्त पुरुष को विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए। वह भलीभाँति समझता है कि मैंने विविध शास्त्रों में, जो धार्मिक कर्तव्य नियत किये हैं, उनमें अनुकूल गुण रहते हैं जो उनके करनेवालों को शुद्ध करते हैं और वह जानता है कि इन कर्तव्यों की उपेक्षा से जीवन में त्रुटि आती है। फिर भी, सन्त पुरुष मेरे चरणकमलों की शरण ग्रहण करके सामान्य धार्मिक कार्यों को त्यागकर एकमात्र मेरी पूजा करता है। इस प्रकार वह जीवों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

33 भले ही मेरे भक्त यह जानें या न जानें कि मैं क्या हूँ, मैं कौन हूँ और मैं किस तरह विद्यमान हूँ, किन्तु यदि वे अनन्य प्रेम से मेरी पूजा करते हैं, तो मैं उन्हें भक्तों में सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ।

34-41 हे उद्धव, निम्नलिखित भक्ति कार्यों में लगने पर मनुष्य मिथ्या अभिमान तथा प्रतिष्ठा का परित्याग कर सकता है। वह मेरे अर्चाविग्रह के रूप में मुझे तथा मेरे शुद्ध भक्तों को देखकर, छूकर, पूजा करके, सेवा करके, स्तुति करके तथा नमस्कार करके अपने को शुद्ध बना सकता है। उसे मेरे दिव्य गुणों एवं कर्मों की भी प्रशंसा करनी चाहिए, मेरे यश की कथाओं को प्रेम तथा श्रद्धा के साथ सुनना चाहिए तथा निरन्तर मेरा ध्यान करना चाहिए। उसे चाहिए कि जो भी उसके पास हो, वह मुझे अर्पित कर दे और अपने को मेरा नित्य दास मानकर मुझ पर ही पूरी तरह समर्पित हो जाये। उसे सदैव मेरे जन्म तथा कार्यों की चर्चा चलानी चाहिए और जन्माष्टमी जैसे उत्सवों में, जो मेरी लीलाओं की महिमा को बतलाते हैं, सम्मिलित होकर जीवन का आनन्द लेना चाहिए। उसे मेरे मन्दिर में गाकर, नाचकर, बाजे बजाकर तथा अन्य वैष्णवों से मेरी बातें करके उत्सवों तथा त्योहारों में भी भाग लेना चाहिए। उसे वार्षिक त्योहारों में होनेवाले उत्सवों में, यात्राओं में तथा भेंटें चढ़ाने में नियमित रूप से भाग लेना चाहिए। उसे एकादशी जैसे धार्मिक व्रत भी रखने चाहिए और वेदों, पंचरात्र तथा अन्य ऐसे ही ग्रन्थों में उल्लिखित विधियों से दीक्षा लेनी चाहिए। उसे श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक मेरे अर्चाविग्रह की स्थापना का अनुमोदन करना चाहिए और अकेले अथवा अन्यों के सहयोग से कृष्णभावनाभावित मन्दिरों तथा नगरों के साथ-साथ फूल तथा फल के बगीचों एवं मेरी लीला मनाये जानेवाले विशेष क्षेत्रों के निर्माण में हाथ बँटाना चाहिए। उसे बिना किसी द्वैत के अपने को मेरा विनीत दास मानना चाहिए और इस तरह मेरे आवास, अर्थात मन्दिर को साफ करने में सहयोग देना चाहिए। सर्वप्रथम उसमें झाड़ू-बुहारा करना चाहिए और तब उसे जल तथा गोबर से स्वच्छ बनाना चाहिए। मन्दिर को सूखने देने के बाद सुगन्धित जल का छिड़काव करना चाहिए और मण्डलों से सजाना चाहिए। उसे मेरे दास की तरह कार्य करना चाहिए। उसे कभी भी अपने भक्ति कार्यों का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए। इस तरह उसकी सेवा मिथ्या अभिमान का कारण नहीं होगी। उसे मुझे अर्पित किये गये दीपकों का प्रयोग अन्य कार्यों के लिए अर्थात मात्र उजाला करने की आवश्यकता से नहीं करना चाहिए। इसी तरह मुझे ऐसी कोई वस्तु भेंट न की जाय, जो अन्यों पर चढ़ाई जा चुकी हो या अन्यों द्वारा काम में लाई जा चुकी हो। इस संसार में जिसे जो भी वस्तु सबसे अधिक चाहिए और जो भी वस्तु उसे सर्वाधिक प्रिय हो उसे, वही वस्तु मुझे अर्पित करनी चाहिए। ऐसी भेंट चढ़ाने से वह नित्य जीवन का पात्र बन जाता है।

42 हे साधु पुरुष उद्धव, यह जान लो कि तुम मेरी पूजा सूर्य, अग्नि, ब्राह्मणों, गौवों, वैष्णवों, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा तथा सारे जीवों में कर सकते हो।

43-45 हे उद्धव, मनुष्य को चाहिए कि चुने हुए वैदिक मंत्रोच्चार तथा पूजा और नमस्कार द्वारा सूर्य में मेरी पूजा करे। वह अग्नि में घी की आहुति डालकर मेरी पूजा कर सकता है। वह अनामंत्रित अतिथियों के रूप में ब्राह्मणों का आदरपूर्वक स्वागत करके उनमें मेरी पूजा कर सकता है। मेरी पूजा गायों में उन्हें घास तथा उपयुक्त अन्न एवं उनके स्वास्थ्य एवं आनन्द के लिए उपयुक्त सामग्री प्रदान करके की जा सकती है। वैष्णवों में मेरी पूजा उन्हें प्रेमपूर्ण मैत्री प्रदान करके तथा सब प्रकार से उनका आदर करके की जा सकती है। स्थिरभाव से ध्यान के माध्यम से हृदय में मेरी पूजा होती है और वायु में मेरी पूजा इस ज्ञान के द्वारा की जा सकती है कि तत्त्वों में प्राण ही प्रमुख है। जल में मेरी पूजा जल के साथ फूल तथा तुलसी-दल जैसे अन्य तत्त्वों को चढ़ाकर की जा सकती है। पृथ्वी में गुह्य बीज मंत्रों के समुचित प्रयोग से मेरी पूजा हो सकती है। भोजन तथा अन्य भोज्य वस्तुएँ प्रदान करके व्यष्टि जीव में मेरी पूजा की जा सकती है। सारे जीवों में परमात्मा का दर्शन करके तथा इस तरह समदृष्टि रखते हुए मेरी पूजा की जा सकती है।

46 पूर्व वर्णित पूजा-स्थलों में तथा मेरे द्वारा वर्णित विधियों से मनुष्य को मेरे शान्त, दिव्य तथा चतुर्भुज रूप का, जो शंख, सुदर्शन चक्र, गदा तथा कमल से युक्त है, ध्यान करना चाहिए। इस तरह उसे मनोयोगपूर्वक मेरी पूजा करनी चाहिए।

47 मेरी तुष्टि के लिए जिसने यज्ञ तथा शुभ कार्य किये हैं और जो एकाग्र ध्यान से मेरी पूजा करता है, वह मेरी अटल भक्ति प्राप्त करता है। ऐसा पूजक उत्तम कोटि की अपनी सेवा के कारण मेरा स्वरूपसिद्ध ज्ञान प्राप्त करता है।

48 हे उद्धव, सन्त स्वभाव के मुक्त पुरुषों के लिए मैं ही अनन्तिम आश्रय तथा जीवन-शैली हूँ, अतएव यदि कोई व्यक्ति मेरे भक्तों की संगति से सम्भव मेरी प्रेमाभक्ति में प्रवृत्त नहीं होता, तो सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के दृष्टिकोण से प्रायः भौतिक जगत से बचने का कोई उपाय उसके पास नहीं रह जाता।

49 हे उद्धव, हे यदुकुल के प्रिय, चूँकि तुम मेरे सेवक, शुभचिन्तक तथा सखा हो, अतएव अब मैं तुमसे अत्यन्त गुह्य ज्ञान कहूँगा। अब इसे सुनो, क्योंकि मैं इन महान रहस्यों को तुम्हें बतलाने जा रहा हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893414670?profile=RESIZE_400x

अध्याय दस - सकाम कर्म की प्रकृति (11.10)

1 भगवान ने कहा: पूर्णतया मेरी शरण में आकर तथा मेरे द्वारा वर्णित भगवदभक्ति में अपने मन को सावधानी से एकाग्र करके मनुष्य को निष्काम भाव से रहना चाहिए तथा वर्णाश्रम प्रणाली का अभ्यास करना चाहिए।

2 शुद्ध आत्मा को यह देखना चाहिए कि चूँकि इन्द्रियतृप्ति के प्रति समर्पित होने से बद्ध आत्माओं ने इन्द्रियसुख की वस्तुओं को धोखे से सत्य मान लिया है, इसलिए उनके सारे प्रयत्न असफल होकर रहेंगे।

3 सोया हुआ व्यक्ति स्वप्न में इन्द्रियतृप्ति की अनेक वस्तुएँ देख सकता है, किन्तु ऐसी आनन्ददायक वस्तुएँ मनगढ़न्त होने के कारण अन्ततः व्यर्थ होती हैं। इसी तरह, जो जीव अपनी आध्यात्मिक पहचान के प्रति सोया हुआ रहता है, वह भी अनेक इन्द्रियविषयों को देखता है, किन्तु क्षणिक तृप्ति देने वाली ये असंख्य वस्तुएँ भगवान की माया द्वारा निर्मित होती हैं, तथा इनका स्थायी अस्तित्व नहीं होता। जो व्यक्ति इन्द्रियों से प्रेरित होकर इनका ध्यान करता है, वह अपनी बुद्धि को व्यर्थ के कार्य में लगाता है।

4 जिसने अपने मन में मुझे अपने जीवन लक्ष्य के रूप में बिठा लिया है, उसे इन्द्रियतृप्ति पर आधारित कर्म त्याग देने चाहिए और उन्नति के लिए विधि-विधानों द्वारा अनुशासित कर्म करना चाहिए। किन्तु जब कोई व्यक्ति आत्मा के चरम सत्य की खोज में पूरी तरह लगा हो, तो उसे सकाम कर्मों को नियंत्रित करनेवाले शास्त्रीय आदेशों को भी नहीं मानना चाहिए।

5 जिसने मुझे अपने जीवन का परम लक्ष्य मान लिया है, उसे चाहिए कि पापकर्मों का निषेध करनेवाले शास्त्रीय आदेशों का कठोरता से पालन करे और जहाँ तक हो सके गौण नियमों यथा स्वच्छता की संस्तुति करनेवाले आदेशों को सम्पन्न करे। किन्तु अन्ततः उसे प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए, जो मेरे साकार रूप के ज्ञान से पूर्ण होता है, शान्त होता है और आध्यात्मिक उत्थान के कारण मुझसे भिन्न नहीं होता।

6 गुरु के सेवक अथवा शिष्य को झूठी प्रतिष्ठा से मुक्त होना चाहिए और अपने को कभी भी कर्ता नहीं मानना चाहिए। उसे सदैव सक्रिय रहना चाहिए और कभी भी आलसी नहीं होना चाहिए। उसे पत्नी, बच्चे, घर तथा समाज सहित समस्त इन्द्रियविषयों के ऊपर स्वामित्व के भाव को त्याग देना चाहिए। उसे अपने गुरु के प्रति प्रेमपूर्ण मैत्री की भावना से युक्त होना चाहिए और उसे कभी भी न तो पथभ्रष्ट होना चाहिए, न मोहग्रस्त। सेवक या शिष्य में सदैव आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ने की इच्छा होनी चाहिए। उसे किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए और व्यर्थ की बातचीत से बचना चाहिए।

7 मनुष्य को सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के असली स्वार्थ (उद्देश्य) को देखना चाहिए और इसीलिए पत्नी, सन्तान, घर, भूमि, रिशतेदारों, मित्र सम्पत्ति इत्यादि से विरक्त रहना चाहिए।

8 जिस तरह जलने और प्रकाश करनेवाली अग्नि उस लकड़ी (ईंधन) से भिन्न होती है जो प्रकाश देने के लिए जलाई जाती है, उसी तरह शरीर के भीतर का द्रष्टा, स्वतः प्रकाशित आत्मा, उस भौतिक शरीर से भिन्न होता है, जिसे चेतना से प्रकाशित करना पड़ता है। इस तरह आत्मा तथा शरीर में भिन्न भिन्न गुण होते हैं और वे पृथक पृथक हैं।

9 ईंधन की दशा के अनुसार अग्नि जिस तरह सुप्त, प्रकट, क्षीण, तेज जैसे विविध रूपों में प्रकट हो सकती है, उसी तरह आत्मा भौतिक शरीर में प्रवेश करता है और शरीर के विशिष्ट लक्षणों को स्वीकार करता है।

10 सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की उत्पत्ति प्रकृति के गुणों से होती है, जो भगवान की शक्ति से विस्तार पाते हैं। जब जीव झूठे ही स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के गुणों को अपने ही असली स्वभाव के रूप में मान लेता है, तो संसार का जन्म होता है। किन्तु यह मोहमयी अवस्था असली ज्ञान द्वारा नष्ट की जा सकती है।

11 इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह अपने भीतर स्थित भगवान के निकट पहुँचे। भगवान के शुद्ध दिव्य अस्तित्व को समझ लेने पर मनुष्य को चाहिए कि वह धीरे-धीरे भौतिक जगत को स्वतंत्र सत्ता मानने के झूठे विचार को त्याग दे।

12 गुरु की उपमा यज्ञाग्नि के निचले काष्ठ से, शिष्य की उपमा ऊपरी काष्ठ से तथा गुरु द्वारा दिये जानेवाले प्रवचनों की उपमा इन दोनों काष्ठों के बीच में रखी तीसरी लकड़ी (मन्थन काष्ठ) से दी जा सकती है। गुरु द्वारा शिष्य को दिया गया दिव्य ज्ञान इनके संसर्ग से उत्पन्न होनेवाली अग्नि के समान है, जो अज्ञान को जलाकर भस्म कर डालता है और गुरु तथा शिष्य दोनों को परम सुख प्रदान करता है।

13 दक्ष गुरु से विनयपूर्वक श्रवण करने से दक्ष शिष्य में शुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है, जो प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न भौतिक मोह के प्रहार को पीछे भगा देता है। अन्त में यह शुद्ध ज्ञान स्वयं ही समाप्त हो जाता है, जिस तरह ईंधन का कोष जल जाने पर अग्नि ठंडी पड़ जाती है।

14-16 हे उद्धव, मैंने तुम्हें पूर्ण ज्ञान बतला दिया। किन्तु ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो मेरे निष्कर्ष का प्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि जीव का स्वाभाविक पद तो सकाम कर्म में निरत होना है और वे जीव को उसके कर्म से उत्पन्न सुख-दुख के भोक्ता के रूप में देखते हैं। इस भौतिकतावादी दर्शन के अनुसार जगत, काल, प्रामाणिक शास्त्र तथा आत्मा- ये सभी विविधता-युक्त तथा शाश्वत हैं और विकारों के निरन्तर प्रवाह के रूप में विद्यमान रहते हैं। यही नहीं, ज्ञान एक अथवा नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह विविध एवं परिवर्तनशील पदार्थों से उत्पन्न होता है। फलस्वरूप ज्ञान स्वयं भी परिवर्तनशील होता है। हे उद्धव, यदि तुम इस दर्शन को मान भी लो, तो भी जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग सदा बने रहेंगे, क्योंकि सारे जीवों को काल के प्रभाव के अधीन भौतिक शरीर स्वीकार करना होगा।

17 यद्यपि सकाम कर्म करनेवाला शाश्वत सुख की इच्छा करता है, किन्तु यह स्पष्ट देखने में आता है कि भौतिकतावादी कर्मीजन प्रायः दुखी रहते हैं और कभी-कभी ही तुष्ट होते हैं। इस तरह यह सिद्ध होता है कि वे न तो स्वतंत्र होते हैं, न ही अपना भाग्य उनके नियंत्रण में होता है। जब कोई व्यक्ति सदा ही दूसरे के नियंत्रण में रह रहा हो, तो फिर वह अपने सकाम कर्मों से किसी महत्वपूर्ण परिणाम की आशा कैसे रख सकता है?

18 संसार में यह देखा जाता है कि कभी कभी बुद्धिमान व्यक्ति भी सुखी नहीं रहता। इसी तरह कभी कभी महामूर्ख भी सुखी रहता है। भौतिक कार्यों को दक्षतापूर्वक सम्पन्न करके सुखी बनने की विचारधारा मिथ्या अहंकार का व्यर्थ प्रदर्शन मात्र है।

19 यदि लोग यह जान भी लें कि किस तरह सुख प्राप्त किया जाता है और किस तरह दुख से बचा जाता है, तो भी वे उस विधि को नहीं जानते, जिससे मृत्यु उनके ऊपर अपनी शक्ति का प्रभाव न डाल सके।

20 मृत्यु अच्छी नहीं लगती, और क्योंकि हर व्यक्ति फाँसी के स्थान पर ले जाये जाने वाले दण्डित व्यक्ति के समान है, तो फिर भौतिक वस्तुओं या उनसे प्राप्त तृप्ति से लोगों को कौन-सा सम्भव सुख मिल सकता है?

21 वह भौतिक सुख, जिसके बारे में हम सुनते रहते हैं, (यथा दैवी सुख-भोग के लिए स्वर्गलोक की प्राप्ति), हमारे द्वारा अनुभूत भौतिक सुख के ही समान है। ये दोनों ही ईर्ष्या, द्वेष, क्षय तथा मृत्यु से दूषित रहते हैं। इसलिए जिस तरह फसल के रोग, कीट या सूखा जैसी समस्याएँ उत्पन्न होने पर फसलें उगाना व्यर्थ हो जाता है, उसी तरह पृथ्वी पर या स्वर्गलोक में भौतिक सुख प्राप्त करने का प्रयास अनेक व्यवधानों के कारण निष्फल हो जाता है।

22 यदि कोई व्यक्ति किसी त्रुटि या कल्मष के बिना वैदिक यज्ञ तथा कर्मकाण्ड सम्पन्न करता है, तो उसे अगले जीवन में स्वर्ग में स्थान मिलेगा। किन्तु कर्मकाण्ड द्वारा प्राप्त किया जानेवाला यह फल भी काल के द्वारा नष्ट कर दिया जायेगा। अब इसके विषय में सुनो।

23 यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति देवताओं की तुष्टि के लिए यज्ञ सम्पन्न करता है, तो वह स्वर्गलोक जाता है, जहाँ वह देवताओं की ही तरह अपने कार्यों से अर्जित सभी प्रकार के स्वर्ग-सुख का भोग करता है।

24 स्वर्ग प्राप्त कर लेने के बाद यज्ञ करने वाला व्यक्ति चमचमाते वायुयान में बैठकर यात्रा करता है, जो उसे पृथ्वी पर उसके पुण्यकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होता है। वह गन्धर्वों द्वारा यशोगान किया जाकर तथा अतीव मोहक वस्त्र पहने स्वर्ग की देवियों से घिरकर जीवन का आनन्द लेता है।

25 यज्ञफल का भोक्ता स्वर्ग की सुन्दरियों को साथ लेकर ऐसे अद्भुत विमान में चढ़कर सैर सपाटे के लिए जाता है, जो रुनझुन शब्द करती घण्टियों से गोलाकार में सजाया रहता है और जहाँ भी चाहे उड़ जाता है। वह स्वर्ग के विहार उद्यानों में नितान्त सुख एवं आराम का अनुभव करते हुए इस पर विचार ही नहीं करता कि वह अपने पुण्यकर्मों के फल को समाप्त कर रहा है और शीघ्र ही मर्त्यलोक में जा गिरेगा।

26 यज्ञकर्ता तब तक स्वर्गलोक में जीवन का आनन्द लेता है, जब तक उसके पुण्यकर्मों का फल समाप्त नहीं हो जाता। किन्तु जब पुण्यफल चुक जाते हैं, तो नित्य काल की शक्ति द्वारा वह उसकी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग के विहार स्थलों से धकेल कर नीचे गिरा दिया जाता है।

27-29 यदि मनुष्य बुरी संगति के कारण अथवा इन्द्रियों को अपने वश में न कर पाने के कारण पापमय अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहता है, तो ऐसा व्यक्ति निश्चित है भौतिक इच्छाओं से पूर्ण व्यक्तित्व को जन्म देता है। इस तरह वह अन्यों के प्रति कंजूस, लालची तथा स्त्रियों के शरीरों का लाभ उठाने का सदैव इच्छुक बन जाता है। जब मन इस तरह दूषित हो जाता है, तो वह हिंसक तथा उग्र हो उठता है और वेदों के आदेशों के विरुद्ध अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए निरीह पशुओं का वध करने लगता है। भूत-प्रेतों की पूजा करने से ऐसा मोहग्रस्त व्यक्ति अवैध कार्यों की गिरफ्त में आ जाता है और नरक को जाता है, जहाँ उसे तमोगुण से प्राप्त भौतिक शरीर प्राप्त होता है। ऐसे अधम शरीर से वह दुर्भाग्यवश अशुभ कर्म करता रहता है, जिससे उसका भावी दुख बढ़ता जाता है, अतएव वह पुनः वैसा ही भौतिक शरीर स्वीकार करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ऐसा कौन-सा सुख हो सकता है, जिसके लिए वह अपने को ऐसे कार्यों में लगाता है, जो अपरिहार्य रूप से मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं?

30 स्वर्ग से लेकर नरक तक सभी लोकों में तथा उन समस्त महान देवताओं के लिए जो 1000 चतुर्युग तक जीवित रहते हैं, मुझ कालरूप के प्रति भय व्याप्त रहता है। यहाँ तक कि ब्रह्माजी, जिनकी आयु, 31,10,40,00,00,00,000 (इकतीस नील, दस खरब, चालीस अरब) वर्ष है, भी मुझसे डरे रहते हैं।

31 भौतिक इन्द्रियाँ पवित्र या पापमय कर्म उत्पन्न करती हैं और प्रकृति के गुण भौतिक इन्द्रियों को गति प्रदान करते हैं। जीव इन भौतिक इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों में पूरी तरह संलग्न रहकर सकाम कर्म के विविध फलों का अनुभव करता है।

32 जब तक जीव यह सोचता है कि प्रकृति के गुणों का अलग अलग अस्तित्व है, तब तक वह अनेक रूपों में जन्म लेने के लिए बाध्य होगा और वह अनेक प्रकार के भौतिक जीवन का अनुभव करेगा। इसलिए जीव प्रकृति के गुणों के अधीन सकाम कर्मों पर पूरी तरह आश्रित रहता है।

33 जो बद्धजीव प्रकृति के गुणों के अधीन होकर सकाम कर्मों पर निर्भर रहता है, वह मुझ भगवान से डरता रहता है, क्योंकि मैं उसके सकाम कर्मों के फल को लागू करता हूँ। जो लोग प्रकृति के गुणों की विविधता को यथार्थ मानकर भौतिकतावादी जीवन की अवधारणा स्वीकार करते हैं, वे भौतिक-भोग में अपने को लगाते हैं, फलस्वरूप वे सदैव शोक तथा दुख में डूबे रहते हैं।

34 जब प्रकृति के गुणों में उद्वेलन तथा अन्योन्य क्रिया होती है, तो जीव मेरा वर्णन सर्वशक्तिमान काल, आत्मा, वैदिक ज्ञान, ब्रह्माण्ड, स्वयं अपना स्वभाव, धार्मिक उत्सव आदि अनेक प्रकारों से करते हैं।

35 श्री उद्धव ने कहा: हे प्रभु, भौतिक शरीर के भीतर स्थित जीव प्रकृति के गुणों तथा इन गुणों से उत्पन्न कर्मों के द्वारा उपजे सुख तथा दुख से घिरा रहता है। यह कैसे सम्भव है कि वह इस भौतिक पाश से बँधा न हो? यह भी कहा जा सकता है कि जीव तो अन्ततः दिव्य है और उसे इस भौतिक जगत से कुछ भी लेना-देना नहीं है। तो फिर वह भौतिक प्रकृति द्वारा कभी बद्ध कैसे हो सकता है?

36-37 हे अच्युत भगवान, एक ही जीव कभी तो नित्य बद्ध कहा जाता है, तो कभी नित्य मुक्त। इसलिए जीव की वास्तविक स्थिति मेरी समझ में नहीं आ रही। हे प्रभु, आप दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देनेवालों में सर्वोपरि हैं। कृपा करके मुझे वे लक्षण समझाएँ, जिनसे यह बतलाया जा सके कि नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त जीव में क्या अन्तर है। वे किन विधियों से स्थित रहते हैं, जीवन का भोग करते हैं, खाते हैं, मल त्याग करते हैं, लेटते हैं, बैठते हैं या इधर-उधर जाते हैं ?

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893380279?profile=RESIZE_584x

अध्याय नौ - पूर्ण वैराग्य (11.9)

1 साधु-ब्राह्मण ने कहा: भौतिक जगत में हर व्यक्ति कुछ वस्तुओं को अत्यन्त प्रिय मानता है और ऐसी वस्तुओं के प्रति लगाव के कारण अन्ततः वह दीन-हीन बन जाता है। जो व्यक्ति इसे समझता है, वह भौतिक सम्पत्ति के स्वामित्व तथा लगाव को त्याग देता है और इस तरह असीम आनन्द प्राप्त करता है।

2 एक बार बड़े बाजों की एक टोली ने कोई शिकार न पा सकने के कारण एक अन्य दुर्बल बाज पर आक्रमण कर दिया जो थोड़ा-सा मांस पकड़े हुए था। उस समय अपने जीवन को संकट में देखकर बाज ने मांस को छोड़ दिया। तब उसे वास्तविक सुख मिल सका।

3 पारिवारिक जीवन में माता-पिता सदैव अपने घर, बच्चों तथा प्रतिष्ठा के विषय में चिन्तित रहते हैं। किन्तु मुझे इन बातों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। मैं न तो किसी परिवार के लिए चिन्ता करता हूँ, न ही मैं मान-अपमान की परवाह करता हूँ। मैं आत्म जीवन का ही आनन्द उठाता हूँ और मुझे आध्यात्मिक पद पर प्रेम मिलता है। इस तरह मैं पृथ्वी पर बालक की भाँति विचरण करता रहता हूँ।

4 इस जगत में दो प्रकार के लोग समस्त चिन्ताओं से मुक्त होते हैं और परम आनन्द में निमग्न रहते हैं – एक तो वे जो मन्द बुद्धि हैं तथा बालकों के समान अज्ञानी हैं तथा दूसरे वे जो तीनों गुणों से अतीत परमेश्वर के पास पहुँच चुके हैं।

5 एक बार, विवाह योग्य एक तरुणी अपने घर में अकेली थी, उसके माता-पिता तथा सम्बन्धी उस दिन किसी अन्य स्थान को चले गए थे। उस समय कुछ व्यक्ति उससे विवाह करने की विशेष इच्छा से उसके घर आये। उसने उन सबका सत्कार किया।

6 वह लड़की एकान्त स्थान में चली गई और अप्रत्याशित अतिथियों के लिए भोजन बनाने की तैयारी करने लगी। जब वह धान कूट रही थी, तो उसकी कलाइयों की शंख की चुड़ियाँ एक-दूसरे से टकराकर अत्यधिक आवाज कर रही थीं।

7 उस आवाज को लज्जास्पद सोचकर अत्यन्त बुद्धिमती शर्मीली लड़की ने पहनी हुई शंख की चूड़ियों में से प्रत्येक कलाई में केवल दो दो चुड़ियाँ छोड़कर शेष सभी चुड़ियाँ तोड़ दीं।

8 तत्पश्चात ज्योंही वह लड़की धान कूटने लगी प्रत्येक कलाई की दो-दो चूड़ियाँ टकराकर आवाज करने लगीं। अतः उसने हर कलाई में से एक चूड़ी उतार ली, जब हर कलाई में एक चूड़ी रह गई, तो फिर आवाज नहीं हुई।

9 हे शत्रुओं का दमन करनेवाले, मैं इस जगत के स्वभाव के बारे में निरन्तर सीखते हुए पृथ्वी-भर में विचरण करता हूँ। इस तरह मैंने उस लड़की से स्वयं शिक्षा ग्रहण की।

10 जब एक स्थान पर अनेक लोग साथ साथ रहते हैं, तो निश्चित रूप से झगड़ा होगा। यहाँ तक कि यदि केवल दो व्यक्ति ही एक साथ रहें, तो भी जोर-जोर से बातचीत होगी और आपस में मतभेद रहेगा। अतएव झगड़े से बचने के लिए मनुष्य को अकेला रहना चाहिए, जैसा कि हम लड़की के चूड़ी के दृष्टांत से शिक्षा पाते हैं।

11 योगासनों में दक्षता प्राप्त कर लेने तथा श्वास क्रिया पर नियंत्रण पा लेने पर मनुष्य को चाहिए कि वैराग्य तथा नियमित योगाभ्यास द्वारा मन को स्थिर करे। इस तरह मनुष्य को योगाभ्यास के एक लक्ष्य पर ही सावधानी से अपने मन को स्थिर करना चाहिए।

12 जब मन भगवान पर स्थिर हो जाता है, तो उसे वश में किया जा सकता है। स्थायी दशा को प्राप्त करके मन भौतिक कार्यों को करने की दूषित इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस तरह सतोगुण के प्रबल होने पर मनुष्य रजो तथा तमोगुण का पूरी तरह परित्याग कर सकता है और धीरे धीरे सतोगुण से भी परे जा सकता है। जब मन प्रकृति के गुणरूपी ईंधन से मुक्त हो जाता है, तो संसाररूपी अग्नि बुझ जाती है। तब उसका सीधा सम्बन्ध दिव्य स्तर पर अपने ध्यान के लक्ष्य, परमेश्वर, से जुड़ जाता है।

13 इस प्रकार जब मनुष्य की चेतना परम सत्य भगवान पर पूरी तरह स्थिर हो जाती है, तो उसे द्वैत अथवा आन्तरिक और बाह्य सच्चाई नहीं दिखती। यहाँ पर एक बाण बनाने वाले का दृष्टांत दिया गया है, जो एक सीधा बाण बनाने में इतना लीन था कि उसने अपने पास से गुजर रहे राजा तक को नहीं देखा।

14 सन्त पुरुष को अकेले रहना चाहिए और किसी स्थिर आवास के बिना, निरन्तर विचरण करते रहना चाहिए। सतर्क होकर उसे एकान्तवास करना चाहिए और इस तरह से कार्य करना चाहिए कि वह अन्यों द्वारा पहचाना या देखा न जा सके। उसे संगियों के बिना इधर-उधर जाना चाहिए और जरूरत से ज्यादा बोलना नहीं चाहिए।

15 जब नश्वर शरीर में वास करनेवाला मनुष्य सुखी घर बनाने का प्रयास करता है, तो उसका परिणाम व्यर्थ तथा दुखमय होता है। किन्तु साँप अन्यों द्वारा बनाये गये घर में घुसकर सुखपूर्वक रहता है।

16 ब्रह्माण्ड के स्वामी नारायण सभी जीवों के आराध्य ईश्वर है। वे किसी बाह्य सहायता के बिना ही अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और संहार के समय वे ब्रह्माण्ड को अपने कालरूपी स्वांश से नष्ट करते हैं और बद्धजीवों समेत समस्त ब्रह्माण्डों को अपने में समेट लेते हैं। इस तरह उनकी असीम आत्मा ही समस्त शक्तियों का आगार तथा आश्रय है। सूक्ष्म प्रधान, जो समस्त विराट जगत का आधार है, भगवान के भीतर सिमट जाता है और इस तरह उनसे भिन्न नहीं होता। संहार के फलस्वरूप वे अकेले ही रह जाते हैं।

17-18 जब भगवान काल के रूप में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और सतोगुण जैसी अपनी भौतिक शक्तियों को प्रधान (निरपेक्ष साम्य अवस्था) तक ले जाते हैं, तो वे उस निरपेक्ष अवस्था (प्रधान) तथा जीवों के भी परम नियन्ता बने रहते हैं। वे समस्त जीवों के भी आराध्य हैं, जिनमें मुक्त आत्मा, देवता तथा सामान्य बद्धजीव सम्मिलित हैं। भगवान शाश्वत रूप से किसी भी उपाधि से मुक्त रहते हैं और वे आध्यात्मिक आनन्द की समग्रता से युक्त हैं, जिसका अनुभव भगवान के आध्यात्मिक स्वरूप का दर्शन करने पर होता है। इस तरह भगवान “मुक्ति” का पूरा-पूरा अर्थ प्रकट करते हैं।

19 हे शत्रुओं के दमनकर्ता, सृष्टि के समय भगवान अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार काल रूप में करते हैं और वे तीन गुणों से बनी हुई भौतिक शक्ति, अर्थात माया को क्षुब्ध करके महत तत्त्व उत्पन्न करते हैं।

20 महान मुनियों के अनुसार, जो प्रकृति के तीन गुणों का आधार है और जो विविध रंगी ब्रह्माण्ड प्रकट करता है, वह सूत्र या महत तत्त्व कहलाता है। निस्सन्देह, यह ब्रह्माण्ड उसी महत तत्त्व के भीतर टिका हुआ रहता है और इसकी शक्ति के कारण जीव को भौतिक जगत में आना पड़ता है।

21 जिस तरह मकड़ी अपने ही भीतर से (मुख में से) धागा निकाल कर फैलाती है, कुछ काल तक उससे खेलती है अन्त में निगल जाती है। उसी तरह भगवान अपनी निजी शक्ति को अपने भीतर से ही विस्तार देते हैं। इस तरह भगवान विराट जगतरूपी जाल को प्रदर्शित करते हैं, अपने प्रयोजन के अनुसार उसे काम में लाते हैं और अन्त में उसे पूरी तरह से अपने भीतर समेट लेते हैं।

22 यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथ किसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा, जिसका वह ध्यान करता है।

23 हे राजन, एक बार एक बर्र ने कमजोर कीड़े को अपने चट्टे में घुसने के लिए बाध्य कर दिया और उसे वहीं बन्दी बनाये रखा। उस कीड़े ने भय के कारण बन्दी बनाने वाले का निरन्तर ध्यान किया और शरीर त्यागे बिना ही धीरे-धीरे बर्र जैसी स्थिति प्राप्त कर ली। इस तरह मनुष्य अपने निरन्तर ध्यान के अनुसार स्वरूप प्राप्त करता है।

24 हे राजन, मैंने इन आध्यात्मिक गुरुओं से महान ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, उसे बतलाता हूँ, तुम ध्यान से सुनो।

25 भौतिक शरीर भी मेरा गुरु है, क्योंकि यह मुझे वैराग्य की शिक्षा देता है। सृष्टि तथा संहार से प्रभावित होने के कारण, इसका कष्टमय अन्त होता रहता है। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने शरीर का उपयोग करते हुए मैं सदैव स्मरण रखता हूँ कि यह अन्ततः अन्यों द्वारा विनष्ट कर दिया जायेगा, अतः मैं विरक्त रहकर इस जगत में इधर-उधर विचरण करता हूँ।

26 शरीर से आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चों, सम्पत्ति, पालतू पशुओं, नौकरों, घरों, सम्बन्धियों, मित्रों इत्यादि की स्थिति को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक संघर्ष के साथ धन एकत्र करता है। वह अपने ही शरीर की तुष्टि के लिए यह सब करता है। जिस प्रकार एक वृक्ष नष्ट होने के पूर्व भावी वृक्ष का बीज उत्पन्न करता है, उसी तरह मरने वाला शरीर अपने संचित कर्म के रूप में अपने अगले शरीर का बीज प्रकट करता है। इस तरह भौतिक जगत के नैरन्तर्य से आश्वस्त होकर भौतिक शरीर समाप्त हो जाता है।

27 जिस व्यक्ति की कई पत्नियाँ होती है, वह उनके द्वारा निरन्तर सताया जाता है। वह उनके पालन-पोषण के लिए जिम्मेदार होता है। इस तरह सारी पत्नियाँ उसे निरन्तर भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींचती रहती हैं, और हर पत्नी अपने स्वार्थ के लिए संघर्ष करती है। इसी तरह भौतिक इन्द्रियाँ बद्धजीव को एकसाथ विभिन्न दिशाओं में खींचती और सताती रहती है। एक ओर जीभ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था करने के लिए खींचती है, तो प्यास उसे उपयुक्त पेय प्रदान करने के लिए घसीटती रहती है। उसी समय यौन-अंग उनकी तुष्टि के लिए शोर मचाते हैं और स्पर्शेंद्रिय कोमल पदार्थ की माँग रखती हैं। उदर उसे तब तक तंग करता रहता है, जब तक वह भर नहीं जाता। कान मनोहर ध्वनि सुनना चाहते हैं, घ्राणेन्द्रिय सुहावनी सुगन्धियों के लिए लालायित रहती हैं और चंचल आँखें मनोहर दृश्य के लिए शोर मचाती हैं। इस तरह सारी इन्द्रियाँ तथा शरीर के अंग तुष्टि की इच्छा से जीव को अनेक दिशाओं में खींचते रहते हैं।

28 भगवान ने मायाशक्ति के माध्यम से बद्धजीवों को बसाने के लिए असंख्य जीव-योनियाँ उत्पन्न कीं। वृक्षों, सरीसृपों, पशुओं, पक्षियों, सर्पों इत्यादि के स्वरूपों को उत्पन्न करके भगवान तुष्ट नहीं थे। तब उन्होंने मनुष्य को उत्पन्न किया, जो बद्ध आत्मा को पर्याप्त बुद्धि प्रदान करनेवाला होता है, जिससे वह परम सत्य को देख सके। इस तरह भगवान संतुष्ट हो गये।

29 अनेकानेक जन्मों और मृत्यु के पश्चात यह दुर्लभ मानव-जीवन मिलता है, जो अनित्य होने पर भी मनुष्य को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए धीर मनुष्य को जब तक उसका मरणशील शरीर क्षय होकर मर नहीं जाता, तब तक चरम जीवन सिद्धि के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। कृष्णभावनामृत केवल मनुष्य को ही प्राप्त हो सकता है, इन्द्रियतृप्ति तो सबसे गर्हित योनि में भी प्राप्य है।

30 इन गुरुओं से शिक्षा पाकर मैं भगवान की अनुभूति में स्थित रहता हूँ और पूर्ण वैराग्य तथा आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित, आसक्ति या मिथ्या अहंकार से रहित होकर पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करता हूँ।

31 यद्यपि परम सत्य अद्वितीय हैं, किन्तु ऋषियों ने अनेक प्रकार से उनका वर्णन किया है। इसलिए हो सकता है कि मनुष्य एक गुरु से अत्यन्त स्थिर या पूर्ण ज्ञान प्राप्त न कर पाये।

32 भगवान ने कहा: राजा यदु से इस प्रकार कहने के बाद, विद्वान ब्राह्मण, राजा द्वारा उचित रूप से पूजित होकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और राजा से विदा लेकर चला गया।

33 हे उद्धव, अवधूत के शब्दों को सुनकर साधु राजा यदु, जो कि हमारे पूर्वजों का पुरखा है, समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो गया और उसका मन आध्यात्मिक पद पर समान भाव से स्थिर (समदर्शी) हो गया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893371079?profile=RESIZE_710x

अध्याय आठ – पिंगला की कथा (11.8)

1 साधु-ब्राह्मण ने कहा: हे राजन, देहधारी जीव स्वर्ग या नरक में, स्वतः सुख तथा दुख का अनुभव करता है। इसलिए बुद्धिमान तथा विवेकवान व्यक्ति ऐसे भौतिक सुख को पाने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता।

2 अजगर का अनुकरण करते हुए मनुष्य को भौतिक प्रयास का परित्याग कर देना चाहिए और अपने उदर-पोषण के लिए उस भोजन को स्वीकार करना चाहिए, जो अनायास मिल जाय, चाहे वह स्वादिष्ट हो या स्वादरहित, पर्याप्त हो या स्वल्प।

3 यदि कभी भोजन न भी मिले, तो सन्त पुरुष को चाहिए कि बिना प्रयास किये वह अनेक दिनों तक उपवास रखे। उसे यह समझना चाहिए कि ईश्वर की व्यवस्था के कारण उसे उपवास करना चाहिए। इस तरह अजगर का अनुसरण करते हुए उसे शान्त तथा धीर बने रहना चाहिए।

4 सन्त पुरुष को शान्त रहना चाहिए और भौतिक दृष्टि से अक्रिय रहना चाहिए। उसे बिना अधिक प्रयास के अपने शरीर का पालन-पोषण करना चाहिए। पूर्ण काम, मानसिक तथा शारीरिक शक्ति से युक्त होकर भी सन्त पुरुष को भौतिक लाभ के लिए सक्रिय नहीं होना चाहिए, अपितु अपने वास्तविक स्वार्थ के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए।

5 मुनि अपने बाह्य आचरण में सुखी और मधुर होता है, किन्तु भीतर से अत्यन्त गम्भीर तथा विचारवान होता है। चूँकि उसका ज्ञान अगाध तथा असीम होता है, अतः वह कभी क्षुब्ध नहीं होता। इस तरह वह सभी प्रकार से अगाध तथा दुर्लंघ्य सागर के शान्त जल की तरह होता है।

6 वर्षाऋतु में उफनती हुई नदियाँ सागर में जा मिलती हैं और ग्रीष्मऋतु में उथली होने से उनमें जल की मात्रा बहुत कम हो जाती है। फिर भी समुद्र न तो वर्षाऋतु में उमड़ता है, न ही ग्रीष्मऋतु में सूखता है। इसी तरह से जिस सन्त-भक्त ने भगवान को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकार किया है, उसे कभी तो भाग्य से प्रचुर भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है और कभी वह अपने को भौतिक दृष्टि से कंगाल पाता है। फिर भी भगवान का ऐसा भक्त न तो प्रोन्नति के समय हर्षित होता है, न दरिद्र बनने पर खिन्न होता है।

7 जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता, वह परमेश्वर की माया से उत्पन्न स्त्री के स्वरूप को देखकर तुरन्त आकृष्ट हो जाता है। दरअसल जब कोई स्त्री मोहक शब्द बोलती है, नखरे से हँसती है, तो मनुष्य का मन तुरन्त मुग्ध हो जाता है और वह भव-अंधकार में उसी तरह जा गिरता है, जिस तरह पतिंगा अग्नि पर मदान्ध होकर उसकी लपटों में तेजी से गिर पड़ता है।

8 विवेकरहित मूर्ख व्यक्ति सुनहले गहनों, सुन्दर वस्त्रों और अन्य प्रसाधनों से युक्त स्त्री को देखकर तुरन्त ललचा उठता है। ऐसा मूर्ख इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक होने से अपनी सारी बुद्धि खो बैठता है और उसी तरह नष्ट हो जाता है, जिस तरह जलती अग्नि की ओर दौड़ने वाला पतिंगा।

9 सन्त पुरुष को उतना ही भोजन स्वीकार करना चाहिए, जितने से उसका जीवन-निर्वाह हो सके। उसे द्वार-द्वार जाकर प्रत्येक परिवार से थोड़ा-थोड़ा भोजन स्वीकार करना चाहिए। इस तरह उसे मधुमक्खी की वृत्ति का अभ्यास करना चाहिए।

10 जिस तरह मधुमक्खी बड़े तथा छोटे सभी प्रकार के फूलों से मधु ग्रहण करती है, उसी तरह बुद्धिमान मनुष्य को समस्त धार्मिक शास्त्रों से सार ग्रहण करना चाहिए।

11 सन्त पुरुष को यह नहीं सोचना चाहिए "मैं इस भोजन को आज रात के लिए रखूँगा और इस दूसरे भोजन को कल के लिए बचा लूँगा।" दूसरे शब्दों में, सन्त पुरुष को भीख से प्राप्त भोज्य सामग्री का संग्रह नहीं करना चाहिए। प्रत्युत उसे अपने हाथ को ही पात्र बनाकर उसमें जितना आ जाय उसी को खाना चाहिए। उसका एकमात्र कोठार उसका पेट होना चाहिए और उसके पेट में आसानी से जितना आ जाय वही उसका भोजन-संग्रह होना चाहिए। इस तरह उसे लोभी मधुमक्खी का अनुकरण नहीं करना चाहिए, जो अधिक से अधिक मधु एकत्र करने के लिए उत्सुक रहती है।

12 साधु-सन्त को उसी दिन या अगले दिन खाने के लिए भी भोजन का संग्रह नहीं करना चाहिए। यदि वह इस आदेश की अवहेलना करता है और मधुमक्खी की तरह अधिक से अधिक स्वादिष्ट भोजन एकत्र करता है, तो उसने, जो कुछ एकत्र किया है, वह निस्सन्देह उसे नष्ट कर देगा।

13 मैंने हाथी से यह सीखा है कि सन्त पुरुष को चाहिए कि वह किसी युवती का स्पर्श न करे। वस्तुतः उसे काठ की बनी स्त्री के स्वरूप वाली गुड़िया को भी अपने पाँव से स्पर्श नहीं होने देना चाहिए।

14 विवेकवान व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए स्त्री के सुन्दर रूप का लाभ उठाने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

15 लोभी व्यक्ति बहुत संघर्ष तथा कष्ट से प्रचुर मात्रा में धन एकत्र करता है, किन्तु इस धन को एकत्र करने वाले व्यक्ति को इसका भोग करने या अन्यों को दान नहीं करने दिया जाता। लोभी व्यक्ति उस मधुमक्खी के समान है, जो प्रचुर मात्रा में शहद उत्पन्न करने के लिए संघर्ष करती है, किन्तु इसे उस व्यक्ति द्वारा चुरा लिया जाता है, जो या तो स्वयं उसका भोग करता है या अन्यों को बेच देता है। कोई चाहे जितनी सावधानी के साथ अपनी कठिन कमाई को क्यों न छिपाये या उसकी रक्षा करने का प्रयास करे, किन्तु मूल्यवान वस्तुओं का पता लगाने वाले पटु लोग उसे चुरा ही लेंगे।

16 जिस प्रकार शहद-चोर मधुमक्खियों द्वारा बड़े ही परिश्रमपूर्वक एकत्र की गई शहद को निकाल लेता है, उसी तरह ब्रह्मचारी तथा संन्यासी जैसे साधु-सन्त पारिवारिक भोग में समर्पित गृहस्थों द्वारा बहुत ही कष्ट सहकर संचित किये गये धन का भोग करने के अधिकारी हैं।

17 वनवासी संन्यासी को चाहिए कि भौतिक भोग को उत्तेजित करने वाले गीत या संगीत को कभी भी न सुने। प्रत्युत सन्त पुरुष को चाहिए कि ध्यान से उस हिरण के उदाहरण का अध्ययन करे, जो शिकारी के वाद्य के मधुर संगीत से विमोहित होने पर पकड़ लिया और मार डाला जाता है।

18 सुन्दर स्त्रियों के सांसारिक गायन, नृत्य तथा संगीत-मनोरंजन से आकृष्ट होकर मृगी-पुत्र ऋष्यशृंग मुनि तक उनके वश में आ गये।

19 जिस तरह जीभ का भोग करने की इच्छा से प्रेरित मछली मछुआरे के काँटे में फँस कर मारी जाती है, उसी तरह मूर्ख व्यक्ति जीभ की अत्यधिक उद्वेलित करनेवाली उमंगों से मोहग्रस्त होकर विनष्ट हो जाता है।

20 उपवास द्वारा विद्वान पुरुष जीभ के अतिरिक्त अन्य सारी इन्द्रियों को जल्दी से अपने वश में कर लेते हैं, क्योंकि ऐसे लोग अपने को खाने से दूर रखकर स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने की प्रबल इच्छा से पीड़ित हो उठते हैं।

21 भले ही कोई मनुष्य अन्य सारी इन्द्रियों को क्यों न जीत ले, किन्तु जब तक जीभ को नहीं जीत लिया जाता, तब तक वह इन्द्रिय-जित नहीं कहलाता। यदि कोई मनुष्य जीभ को वश में करने में सक्षम होता है, तो उसे सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करनेवाला माना जाता है।

22 हे राजपुत्र, पूर्वकाल में विदेह नामक शहर में पिंगला नाम की एक वेश्या रहती थी। अब कृपा करके, वह सुनिए, जो मैंने उस स्त्री से सीखा है।

23 एक बार वह अपने घर में किसी प्रेमी को लाने की इच्छा से रात के समय अपना सुन्दर रूप दिखलाते हुए दरवाजे के बाहर खड़ी रही।

24 हे पुरुष-श्रेष्ठ, धन पाने के लिए अत्यधिक आतुर, जब वह रात में गली में खड़ी थी, तो वह उधर से गुजरने वाले सारे व्यक्तियों का अध्ययन यह सोचकर करती रही कि, “ओह, इसके पास अवश्य ही धन होगा। मैं जानती हूँ यह मूल्य चुका सकता है और मुझे विश्वास है कि वह मेरे साथ अत्यधिक भोग कर सकेगा।" वह गली के सभी पुरुषों के बारे में ऐसा ही सोचती रही।

25-26 जब वह द्वार पर खड़ी हो गई, कई पुरुष आये और उसके घर के सामने से टहलते हुये चले गए। उसकी जीविका का एकमात्र साधन वेश्यावृत्ति था, अतएव उसने उत्सुकतापूर्वक सोचा "हो सकता है कि अब जो आ रहा है, वह बहुत धनी हो हाय! वह तो रुक ही नहीं रहा, किन्तु मुझे विश्वास है कि अन्य कोई अवश्य आयेगा। अवश्य ही यह जो आ रहा है मेरे प्रेम का मूल्य चुकायेगा और शायद प्रचुर धन दे।" इस प्रकार व्यर्थ की आशा लिए वह द्वार पर टेक लगाये खड़ी रही और अपना धंधा पूरा न कर सकी और सोने भी न जा सकी। उद्विग्नता से वह कभी गली में जाती और कभी अपने घर के भीतर लौट आती। इस तरह धीरे धीरे अर्धरात्रि हो आई।

27 ज्यों ज्यों रात बीतती गई वह धीरे धीरे हताश हो उठी और उसका मुख सूख गया। इस तरह धन की चिन्ता से युक्त तथा अत्यन्त निराश होकर वह अपनी स्थिति से अत्यधिक विरक्ति अनुभव करने लगी और उसके मन में सुख का उदय हुआ।

28 वह अपनी भौतिक स्थिति से ऊब उठी और इस तरह वह अन्यमनस्क हो गई। निस्सन्देह, विरक्ति तलवार का काम करती है। यह भौतिक आशाओं तथा इच्छाओं के बन्धन को खण्ड-खण्ड कर देती है। अब मुझसे वह गीत सुनो, जो उसने गाया।

29 हे राजन, जिस तरह आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति कभी भी अनेक भौतिक वस्तुओं पर अपने मिथ्या स्वामित्व को त्यागना नहीं चाहता, उसी तरह जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न नहीं हुई वह कभी भी भौतिक शरीर के बन्धन को त्यागने के लिए तैयार नहीं होता।

30 पिंगला ने कहा: जरा देखो न, मैं कितनी मोहग्रस्त हूँ। चूँकि मैं अपने मन को वश में नहीं रख सकती, इसलिए मैं मूर्ख की तरह किसी तुच्छ व्यक्ति से विषयसुख की कामना करती हूँ।

31 मैं ऐसी मूर्ख निकली कि मेरे हृदय में जो शाश्वत स्थित है और मुझे अत्यन्त प्रिय है उस पुरुष की सेवा, मैंने छोड़ दी। वह अत्यन्त प्रिय ब्रह्माण्ड का स्वामी है, जो असली प्रेम तथा सुख का दाता है और समस्त समृद्धि का स्रोत है। यद्यपि वह मेरे हृदय में है, किन्तु मैंने उसकी पूर्णरूपेण अनदेखी की है। बजाय इसके मैंने अनजाने ही तुच्छ आदमियों की सेवा की है, जो मेरी असली इच्छाओं को कभी भी पूरा नहीं कर सकते और जिन्होंने मुझे दुख, भय, चिन्ता, शोक तथा मोह ही दिया है।

32 ओह! मैंने अपनी आत्मा को व्यर्थ ही पीड़ा पहुँचाई। मैंने ऐसे कामुक, लोभी पुरुषों के हाथ अपने शरीर को बेचा जो स्वयं दया के पात्र हैं। इस प्रकार मैंने इस अत्यन्त गर्हित पेशे को अपनाते हुए धन तथा विषय-सुख का आनन्द पाने की आशा की थी।

33 यह भौतिक शरीर एक घर के सदृश है, जिसमें आत्मा रूप मैं रह रही हूँ। यह शरीर रीढ़, पसलियों, हाथ तथा पाँव को बनाने वाली हड्डियों से बना है। चमड़ी, बाल तथा नाखूनों से आच्छादित है और पूरा ढाँचा मलमूत्र से भरा हुआ है। इस शरीर के नौ द्वार निरन्तर गन्दी वस्तुएँ निकालते रहते हैं। भला मेरे अतिरिक्त कौन स्त्री इतनी मूर्ख होगी कि वह इस भौतिक शरीर के प्रति अनुरक्त होगी?

34 निश्चित रूप से मैं निपट मूर्ख हूँ। मैंने उन भगवान की उपेक्षा की है, जो हमें सब कुछ देते हैं, यहाँ तक कि हमारा मूल आध्यात्मिक स्वरूप भी देते हैं। मैंने उन्हें छोड़कर अनेक पुरुषों से इन्द्रियतृप्ति का भोग करना चाहा है।

35 भगवान समस्त जीवों के हृदय में स्थित परमात्मा हैं। वे हर एक के शुभेच्छु तथा स्वामी हैं। अतएव मैं पूर्ण शरणागति का मूल्य चुकाकर उनके साथ उसी तरह रमण करूँगी, जिस तरह लक्ष्मीदेवी करती हैं।

36 पुरुष स्त्रियों को इन्द्रियतृप्ति प्रदान करते हैं, किन्तु इन सारे पुरुषों का तथा स्वर्ग में देवताओं का भी आदि और अन्त है। वे सभी क्षणिक सृष्टियाँ हैं, जिन्हें काल विनष्ट कर देगा। अतएव इनमें से कोई भी अपनी पत्नियों को कितना वास्तविक आनन्द या सुख प्रदान कर सकता है?

37 यद्यपि मैंने भौतिक जगत को भोगने की दुराशा की थी, किन्तु न जाने क्यों मेरे हृदय में विरक्ति उत्पन्न हो चुकी है और यह मुझे अत्यन्त सुखी बना रही है। इसलिए भगवान विष्णु अवश्य ही मुझ पर प्रसन्न होंगे। मैंने अनजाने में ही उनको तुष्ट करने वाला कोई कर्म अवश्य किया होगा।

38 जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न हो चुकी है, वह भौतिक समाज, मैत्री तथा प्रेम के बन्धन त्याग सकता है और जो पुरुष महान कष्ट भोगता है, वह निराशा के कारण धीरे धीरे विरक्त हो जाता है तथा भौतिक जगत के प्रति अन्यमनस्क हो उठता है। मेरे हृदय में विरक्ति जागी है; इसलिए मैं सचमुच भाग्यशालिनी हूँ और मुझे भगवान की दया प्राप्त हुई है। वे अवश्य ही मुझ पर प्रसन्न हैं।

39 भगवान ने मुझ पर जो महान उपकार किया है, उसे मैं भक्तिपूर्वक स्वीकार करती हूँ। मैंने सामान्य इन्द्रियतृप्ति के लिए पापपूर्ण इच्छाएँ त्यागकर अब भगवान की शरण ग्रहण कर ली है।

40 अब मैं पूर्ण तुष्ट हूँ और मुझे भगवान की दया पर पूर्ण श्रद्धा है। अतएव जो कुछ मुझे स्वतः मिल जायेगा, उसी से मैं अपना भरण-पोषण (निर्वाह) करूँगी। मैं एकमात्र भगवान के साथ विहार करूँगी, क्योंकि वे प्रेम तथा सुख के असली स्रोत हैं।

41 इन्द्रियतृप्ति के कार्यों द्वारा जीव की बुद्धि हर ली जाती है और वह भौतिक जगत के अंधकूप में गिर जाता है। इस कुएँ में उसे कालरूपी भयानक सर्प पकड़ लेता है। बेचारे जीव को ऐसी निराश अवस्था से भला भगवान के अतिरिक्त और कौन बचा सकता है?

42 जब जीव देखता है कि समस्त ब्रह्माण्ड कालरूपी सर्प द्वारा पकड़ा जा चुका है, तो वह गम्भीर तथा विवेकवान बन जाता है और तब वह अपने को समस्त भौतिक इन्द्रियतृप्ति से विरक्त कर लेता है। उस अवस्था में जीव अपना ही रक्षक बनने का पात्र हो जाता है।

43 अवधूत ने कहा: इस तरह अपने मन में संकल्प करके, पिंगला ने अपनी पापपूर्ण इच्छाओं को त्याग दिया और वह परम शान्ति को प्राप्त हुई। तत्पश्चात, वह अपनी सेज पर बैठ गई। 

44 निस्सन्देह भौतिक इच्छा ही सर्वाधिक दुख का कारण है और ऐसी इच्छा से मुक्ति सर्वाधिक सुख का कारण है। अतएव तथाकथित प्रेमियों से विहार करने की अपनी इच्छा को पूरी तरह छिन्न करके पिंगला सुखपूर्वक सो गई।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893359499?profile=RESIZE_400x

अध्याय सात - भगवान कृष्ण द्वारा उद्धव को उपदेश (11.7)

1 भगवान ने कहा: हे महाभाग्यशाली उद्धव, तुमने इस पृथ्वी पर से यदुवंश को समेटने तथा वैकुण्ठ में अपने धाम लौटने की मेरी इच्छा को जान लिया है। ब्रह्मा, शिव तथा अन्य सारे लोकनायक, अब मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं अपने वैकुण्ठ धाम वापस चला जाऊँ।

2 ब्रह्माजी द्वारा प्रार्थना करने पर मैंने इस संसार में अपने स्वांश बलदेव सहित अवतार लिया था और देवताओं की ओर से अनेक कार्य सम्पन्न किये। अब यहाँ पर मैं अपना कार्य पूरा कर चुका हूँ।

3 अब ब्राह्मणों के शाप से यह यदुवंश निश्चित रूप से परस्पर झगड़ कर समाप्त हो जाएगा और आज से सातवें दिन यह समुद्र उफन कर इस द्वारका नगरी को आप्लावित कर देगा।

4 हे साधु उद्धव, मैं निकट भविष्य में इस पृथ्वी को छोड़ दूँगा। तब कलियुग से अभिभूत होकर यह पृथ्वी समस्त पवित्रता से विहीन हो जायेगी।

5 हे उद्धव, जब मैं इस जगत को छोड़ चुकूँ, तो तुम्हें इस पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिए। हे प्रिय भक्त, तुम निष्पाप हो, किन्तु कलियुग में लोग सभी प्रकार के पापपूर्ण कार्यों में लिप्त रहेंगे, अतएव तुम्हें यहाँ नहीं रुकना चाहिए।

6 अब तुम्हें चाहिए कि अपने निजी मित्रों तथा सम्बन्धियों से अपने सारे नाते त्याग कर, अपने मन को मुझ पर एकाग्र करो। इस तरह सदैव मेरी भावना से भावित होकर, तुम्हें सारी वस्तुओं को समान दृष्टि से देखना चाहिए और पृथ्वी-भर में विचरण करना चाहिए।

7 हे उद्धव, तुम जिस ब्रह्माण्ड को अपने मन, वाणी, नेत्रों, कानों तथा अन्य इन्द्रियों से देखते हो वह भ्रामक सृष्टि है, जिसे माया के प्रभाव से मनुष्य वास्तविक मान लेते है। वास्तव में, तुम्हें यह जानना चाहिए कि भौतिक इन्द्रियों के सारे विषय क्षणिक हैं।

8 जिसकी चेतना माया से मोहित होती है, वह भौतिक वस्तुओं के मूल्य तथा अर्थ में अनेक अन्तर देखता है। इस प्रकार वह भौतिक अच्छाई तथा बुराई के स्तर पर निरन्तर लगा रहता है और ऐसी धारणाओं से बँधा रहता है। भौतिक द्वैत में लीन रहते हुए, ऐसा व्यक्ति अनिवार्य कर्तव्यों की सम्पन्नता, असम्पन्नता तथा निषिद्ध कार्यों की सम्पन्नता के विषय में कल्पना करता रहता है।

9 इसलिए अपनी सारी इन्द्रियों को वश में करते हुए तथा मन को दमन करके, तुम सारे जगत को आत्मा के भीतर स्थित देखो, जो सर्वत्र प्रसारित है। यही नहीं, तुम इस आत्मा को मुझ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के भीतर भी देखो।

10 वेदों के निर्णायक ज्ञान से समन्वित होकर तथा व्यवहार में ऐसे ज्ञान के चरम उद्देश्य की अनुभूति करके, तुम शुद्ध आत्मा का अनुभव कर सकोगे और इस तरह तुम्हारा मन तुष्ट हो जाएगा। उस समय तुम देवता आदि से लेकर सारे जीवों के प्रिय बन जाओगे और तब तुम जीवन के किसी भी उत्पात से रोके नहीं जाओगे।

11 जो भौतिक अच्छाई तथा बुराई को लाँघ चुका है, वह स्वतः धार्मिक आदेशों के अनुसार कार्य करता है और वर्जित कार्यों से बचता है। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति यह सब अबोध बालक की तरह करता है वरन इसलिए नहीं कि वह भौतिक अच्छाई तथा बुराई के रूप में सोचता रहता है।

12 जो व्यक्ति सारे जीवों का शुभैषी है, जो शान्त है और ज्ञान तथा विज्ञान में दृढ़ता से स्थिर है, वह सारी वस्तुओं को मेरे भीतर देखता है। ऐसा व्यक्ति फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में कभी नहीं पड़ता।

13 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, इस तरह भगवान कृष्ण ने अपने शुद्ध भक्त उद्धव को उपदेश दिया, जो उनसे ज्ञान पाने के लिए उत्सुक थे। तत्पश्चात, उद्धव ने भगवान को नमस्कार किया और उनसे इस प्रकार बोले।

14 श्री उद्धव ने कहा: हे स्वामी, आप ही योगाभ्यास के फलों को देने वाले हैं और आप इतने कृपालु हैं कि अपने प्रभाव से आप अपने भक्त को योगसिद्धि वितरित करते हैं। इस तरह आप परमात्मा हैं, जिसकी अनुभूति योग द्वारा होती है और आप ही समस्त योगशक्ति के उद्गम है। आपने मेरे उच्चतम लाभ के लिए संन्यास या वैराग्य द्वारा भौतिक जगत त्यागने की विधि बतलाई है।

15 हे प्रभु, हे परमात्मा, ऐसे लोगों के लिए, जिनके मन इन्द्रियतृप्ति में लिप्त रहते हैं और विशेषतया उनके लिए, जो आपकी भक्ति से वंचित हैं, भौतिक भोग को त्याग पाना अतीव कठिन है। ऐसा मेरा मत है।

16 हे प्रभु, मैं स्वयं सबसे बड़ा मूर्ख हूँ, क्योंकि मेरी चेतना आपकी माया द्वारा निर्मित भौतिक देह तथा शारीरिक सम्बन्धों में लीन है। इस तरह मैं सोच रहा हूँ, “मैं यह शरीर हूँ और ये सारे सम्बन्धी मेरे हैं।" अतएव हे स्वामी अपने इस दीन सेवक को उपदेश दें। कृपया मुझे बताये कि मैं आपके आदेशों का किस तरह सरलता से पालन करूँ?

17 हे प्रभु, आप परम सत्य भगवान हैं और भक्तों को अपना रूप दिखलाते हैं। मुझे आपके अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखता जो वास्तव में मुझे पूर्ण ज्ञान बतला सके। ऐसा पूर्ण शिक्षक स्वर्ग में देवताओं के बीच भी ढूँढे नहीं मिलता। निस्सन्देह ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त हैं। वे बद्धजीव हैं, जो अपने भौतिक शरीरों तथा शारीरिक अंशों को सर्वोच्च सत्य मान लेते हैं।

18 अतएव हे स्वामी, भौतिक जीवन से ऊबकर तथा इसके दुखों से सताया हुआ मैं आपकी शरण में आया हूँ, क्योंकि आप पूर्ण स्वामी हैं। आप अनन्त, सर्वज्ञ भगवान हैं, जिनका आध्यात्मिक निवास वैकुण्ठ में होने से समस्त उपद्रवों से मुक्त है। वस्तुतः आप समस्त जीवों के मित्र नारायण नाम से जाने जाते हैं।

19 श्रीभगवान ने उत्तर दिया: सामान्यतया वे मनुष्य, जो भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति का दक्षतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं, अपने आपको स्थूल भौतिक तृप्ति के अशुभ जीवन से ऊपर उठाने में समर्थ होते हैं।

20 बुद्धिमान व्यक्ति, जो अपने चारों ओर के जगत का अनुभव करने तथा ठोस तर्क का प्रयोग करने में निपुण होता है, अपनी ही बुद्धि के द्वारा असली लाभ प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार कभी कभी मनुष्य अपना ही उपदेशक गुरु बन जाता है।

21 मनुष्य-जीवन में जो लोग आत्मसंयमी हैं और सांख्य योग में दक्ष हैं, वे मुझे मेरी सारी शक्तियों समेत प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

22 इस जगत में अनेक प्रकार के सृजित शरीर हैं – कुछ एक पाँव वाले, कुछ दो, तीन, चार या अधिक पाँवों वाले तथा अन्य बिना पाँव के हैं, किन्तु इन सबों में मनुष्य-रूप मुझे वास्तविक प्रिय है।

23 यद्यपि मुझ भगवान को सामान्य इन्द्रिय अनुभूति से कभी अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु मनुष्य-जीवन प्राप्त लोग मेरी खोज करने के लिए प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष–निश्चित लक्षणों द्वारा अपनी बुद्धि तथा अन्य अनुभूति-इन्द्रियों का उपयोग कर सकते हैं।

24 इस सम्बन्ध में साधु-पुरुष अत्यन्त शक्तिशाली राजा यदु तथा एक अवधूत से सम्बद्ध एक ऐतिहासिक वार्ता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

25 महाराज यदु ने एक बार किसी ब्राह्मण अवधूत को देखा, जो तरुण तथा विद्वान प्रतीत होता था और निर्भय होकर विचरण कर रहा था। आध्यात्मिक विज्ञान में अत्यन्त पारंगत होने के कारण राजा ने इस अवसर का लाभ उठाया और उनसे इस प्रकार पूछा।

26 श्री यदु ने कहा: हे ब्राह्मण, मैं देख रहा हूँ कि आप किसी व्यावहारिक धार्मिक कृत्य में नहीं लगे हुए हैं, तो भी आपने इस जगत में सारी वस्तुओं तथा सारे लोगों की सही-सही जानकारी प्राप्त कर रखी है। हे महानुभाव, मुझे बतायें कि आपने यह असाधारण बुद्धि कैसे प्राप्त की है और सारे जगत में बच्चे की तरह मुक्त रूप में विचरण क्यों कर रहे हैं?

27 सामान्यतया मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा आत्मा विषयक ज्ञान का अनुशीलन करने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। उनका सामान्य मन्तव्य अपनी आयु को बढ़ाना, यश अर्जित करना तथा भौतिक ऐश्वर्य का भोग करना रहता है।

28 तथापि समर्थ, विद्वान, दक्ष, सुन्दर तथा सुस्पष्ट वक्ता होते हुए भी आप न तो कोई काम करने में लगे हैं, न ही आप किसी वस्तु की इच्छा करते हैं, प्रत्युत जड़वत तथा उन्मत्त प्रतीत होते हैं, मानो कोई पिशाच हो।

29 यद्यपि भौतिक जगत में सारे लोग काम तथा लोभ की दावाग्नि में जल रहे हैं, किन्तु आप स्वतंत्र रह रहे हैं और उस अग्नि से जलते नहीं। आप उस हाथी के समान हैं, जो दावाग्नि से बचने के लिए गंगा नदी के जल में खड़े होकर आश्रय लिये हुए हो।

30 हे ब्राह्मण, हम देखते हैं कि आप भौतिक भोग से किसी प्रकार के स्पर्श से रहित हैं और बिना किसी संगी या पारिवारिक सदस्य के अकेले ही भ्रमण कर रहे हैं। चूँकि हम निष्ठापूर्वक आपसे पूछ रहे है, इसलिए कृपा करके हमें आपके द्वारा अनुभव किये जा रहे इस महान आनन्द का कारण बतायें।

31 भगवान कृष्ण ने कहा: ब्राह्मणों का सदैव आदर करनेवाला बुद्धिमान राजा यदु अपना सिर झुकाये हुए प्रतीक्षा करता रहा और वह ब्राह्मण राजा की मनोवृत्ति से प्रसन्न होकर उत्तर देने लगा।

32 ब्राह्मण ने कहा: हे राजन, मैं आपसे वर्णन करता हूँ, कृपा करके सुनें – मैंने अपनी बुद्धि से अनेक गुरुओं की शरण ली है। उनसे दिव्य ज्ञान प्राप्त करने के बाद अब मैं मुक्त अवस्था में पृथ्वी पर विचरण करता हूँ।

33-35 हे राजन, मैंने चौबीस गुरुओं की शरण ली है। ये हैं – पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतिंगा, मधुमक्खी, हाथी, मधु-चोर, हिरण, मछली, पिंगला वेश्या, कुररी पक्षी, बालक, तरुणी, बाण बनाने वाले, साँप, मकड़ी तथा बर्र। हे राजन, इनके कार्यों का अध्ययन करके ही मैंने आत्म-ज्ञान सीखा है।

36 हे महाराज ययाति के पुत्र, हे पुरुषों में व्याघ्र, सुनो, क्योंकि मैंने इन गुरुओं से, जो सीखा है, उसे तुम्हें बतला रहा हूँ।

37 अन्य जीवों द्वारा सताये जाने पर भी धीर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि उसके उत्पीड़क ईश्वर के अधीन होकर असहाय रूप से कर्म कर रहे हैं। इस तरह उसे कभी अपने पथ की प्रगति से विपथ नहीं होना चाहिए। मैंने पृथ्वी से यह नियम सीखा है।

38 सन्त पुरुष को पर्वत से सीखना चाहिए कि वह अपने सारे प्रयास अन्यों की सेवा में लगाये और अन्यों के कल्याण को अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बनाये। इसी तरह वृक्ष का शिष्य बनकर उसे स्वयं को अन्यों को समर्पित करना सीखना चाहिए।

39 विद्वान मुनि को चाहिए कि वह अपने सादे जीवन-यापन में ही तुष्टि माने। वह भौतिक इन्द्रियों की तृप्ति के द्वारा तुष्टि की खोज न करे। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को अपने शरीर की परवाह इस तरह करनी चाहिए कि उसका उच्चतर ज्ञान विनष्ट न हो और उसकी वाणी तथा मन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलित न हों।

40 यहाँ तक कि योगी भी ऐसी असंख्य भौतिक वस्तुओं से घिरा रहता है, जिनमें अच्छे तथा बुरे गुण पाये जाते हैं। किन्तु जिसने भौतिक अच्छाई तथा बुराई लाँघ ली है, उसे भौतिक वस्तुओं के सम्पर्क में रहते हुए भी, उनमें फँसना नहीं चाहिए, प्रत्युत उसे वायु की तरह कार्य करना चाहिए।

41 इस जगत में स्वरूपसिद्ध आत्मा विविध भौतिक शरीरों में उनके विविध गुणों तथा कार्यों का अनुभव करते हुए रह सकता है, किन्तु वह उनमें कभी उलझता नहीं, जिस तरह कि वायु विविध सुगन्धों को वहन करती है, किन्तु वह उनमें घुल-मिल नहीं जाती।

42 भौतिक शरीर के भीतर रहते हुए भी विचारवान साधु को चाहिए कि वह अपने आपको शुद्ध आत्मा समझे। इसी तरह मनुष्य को देखना चाहिए कि आत्मा – चर तथा अचर सभी प्रकार के जीवों के भीतर प्रवेश करता है और इस तरह व्यष्टि आत्मा सर्वव्यापी है। साधु को यह भी देखना चाहिए कि परमात्मा रूप में भगवान एक ही समय सारी वस्तुओं के भीतर उपस्थित रहते हैं। आत्मा तथा परमात्मा को आकाश के स्वभाव से तुलना करके समझा जा सकता है। यद्यपि आकाश सर्वत्र फैला हुआ है और सारी वस्तुएँ आकाश के भीतर टिकी हैं किन्तु आकाश किसी भी वस्तु से न तो घुलता-मिलता है, न ही किसी वस्तु के द्वारा विभाजित किया जा सकता है।

43 यद्यपि प्रबल वायु आकाश से होकर बादलों को उड़ाती है, किन्तु आकाश इन कार्यों से कभी प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा भौतिक प्रकृति के स्पर्श से परिवर्तित या प्रभावित नहीं होता। यद्यपि जीव पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर में प्रवेश करता है और यद्यपि वह शाश्वत काल द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के द्वारा बाध्य किया जाता है, किन्तु उसका शाश्वत आध्यात्मिक स्वभाव कभी भी प्रभावित नहीं होता।

44 हे राजन, सन्त पुरुष जल के सदृश होता है, क्योंकि वह कल्मषरहित, स्वभाव से मृदुल तथा बोलने में बहते जल की कलकल ध्वनि सदृश होता है। ऐसे सन्त पुरुष के दर्शन स्पर्श या श्रवण मात्र से ही जीव उसी तरह पवित्र हो जाता है, जिस तरह शुद्ध जल का स्पर्श करने से मनुष्य स्वच्छ हो जाता है। इस तरह सन्त पुरुष तीर्थस्थान की तरह उन सबको शुद्ध बनाता है, जो उसके सम्पर्क में आते हैं, क्योंकि वह सदैव भगवान की महिमा का कीर्तन करता है।

45 सन्त पुरुष तपस्या करके शक्तिमान बनते हैं। उनकी चेतना अविचल रहती है क्योंकि वे भौतिक जगत की किसी भी वस्तु का भोग नहीं करना चाहते। ऐसे सहज मुक्त सन्त पुरुष भाग्य द्वारा प्रदत्त भोजन को स्वीकार करते हैं और यदि कदाचित दूषित भोजन कर भी लें तो उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता जिस तरह अग्नि उन दूषित वस्तुओं को जला देती है, जो उसमें डाली जाती हैं।

46 सन्त पुरुष अग्नि के ही समान, कभी प्रच्छन्न रूप में, तो कभी प्रकट रूप में दिखता है। असली सुख चाहने वाले बद्धजीवों के कल्याण हेतु सन्त पुरुष गुरु का पूजनीय पद स्वीकार कर सकता है और इस तरह वह अग्नि के सदृश अपने पूजकों की बलियों को दयापूर्वक स्वीकार करके विगत तथा भावी पापों को भस्म कर देता है।

47 जिस तरह अग्नि विभिन्न आकारों तथा गुणों वाले काष्ठ-खण्डों में भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती है, उसी तरह सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी शक्ति से उत्पन्न किये गये उच्च तथा निम्न योनियों के शरीरों में प्रवेश करके प्रत्येक के स्वरूप को ग्रहण करता प्रतीत होता है।

48 जन्म से लेकर मृत्यु तक भौतिक जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ शरीर के गुणधर्म हैं और ये आत्मा को उसी तरह प्रभावित नहीं करते, जिस तरह चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाएँ चन्द्रमा को प्रभावित नहीं करतीं। ऐसे परिवर्तन काल की अव्यक्त गति द्वारा लागू किये जाते हैं।

49 अग्नि की लपटें प्रतिक्षण प्रकट तथा लुप्त होती रहती हैं, यह सृजन तथा विनाश सामान्य प्रेक्षकों द्वारा देखा नहीं जाता। काल की बलशाली लहरें नदी की प्रबल धाराओं की तरह निरन्तर बहती रहती हैं और अव्यक्त रूप से असंख्य भौतिक शरीरों को जन्म, वृद्धि तथा मृत्यु प्रदान करती रहती हैं, फिर भी आत्मा इससे अप्रभावित रहता है।

50 जिस तरह सूर्य अपनी प्रखर किरणों से पर्याप्त मात्रा में जल को भाप बनाकर उड़ा देता है और बाद में उस जल को वर्षा के रूप में पृथ्वी पर लौटा देता है, उसी तरह सन्त पुरुष अपनी भौतिक इन्द्रियों से सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं को स्वीकार करता है और जब सही व्यक्ति उन्हें लौटाने के लिए उसके पास जाता है, तो उन भौतिक वस्तुओं को वह लौटा देता है। इस तरह वह इन्द्रियविषयों को स्वीकारने तथा त्यागने दोनों में ही नहीं फँसता।

51 विविध वस्तुओं से परावर्तित होने पर भी सूर्य न तो कभी विभक्त होता है, न अपने प्रतिबिम्ब में लीन होता है। जो मन्द बुद्धि वाले हैं, वे ही सूर्य के विषय में ऐसा सोचते हैं। इसी प्रकार आत्मा विभिन्न भौतिक शरीरों से प्रतिबिम्बित होते हुए भी अविभाजित तथा अभौतिक रहता है।

52 मनुष्य को चाहिए कि किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के लिए अत्यधिक स्नेह या चिन्ता न करे। अन्यथा उसे महान दुख भोगना पड़ेगा, जिस तरह कि मूर्ख कबूतर भोगता है।

53 एक कबूतर था, जो अपनी पत्नी के साथ जंगल में रहता था। उसने एक वृक्ष के भीतर अपना घोंसला बनाया और कबूतरी के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहा।

54 कबूतर का यह जोड़ा अपने गृहस्थ कार्यों के प्रति अत्यधिक समर्पित था। उनके हृदय भावनात्मक स्नेह से परस्पर बँधे थे, वे एक-दूसरे की चितवनों, शारीरिक गुणों तथा मन की अवस्थाओं से आकृष्ट थे। इस तरह उन्होंने एक-दूसरे को स्नेह से पूरी तरह बाँध रखा था।

55 भविष्य पर निश्छल भाव से विश्वास करते हुए वे प्रेमी युगल की भाँति जंगल के वृक्षों के बीच लेटते, बैठते, चलते-फिरते, खड़े होते, बातें करते, खेलते, खाते-पीते रहे।

56 हे राजन, जब भी कबूतरी को किसी वस्तु की इच्छा होती तो वह अपने पति की चाटुकारिता करके उसे बाध्य करती और वह स्वयं भारी मुश्किलें उठाकर भी उसे तृप्त करने के लिए वही करता, जो वह चाहती थी। इस तरह वह उसके संग में अपनी इन्द्रियों पर संयम नहीं रख सका।

27 तत्पश्चात, कबूतरी को पहले गर्भ का अनुभव हुआ। जब समय आ गया, तो उस कबूतरी ने अपने पति की उपस्थिति में घोंसले में कई अंडे दिये।

58 जब समय पूरा हो गया, तो उन अंडों से भगवान की अचिन्त्य शक्तियों से निर्मित मुलायम अंगों तथा पंखों के साथ बच्चे उत्पन्न हुए।

59 कबूतर का यह जोड़ा अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल बन गया। उनकी चहचहाहट को सुनकर अत्यन्त हर्षित होता, क्योंकि यह अतीव मधुर लगती। इस तरह वह जोड़ा उन छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करने लगा।

60 ये माता-पिता अपने पक्षी बच्चों के मुलायम पंखों, उनकी चहचहाहट, घोंसले के आसपास उनकी कूद-फाँद करना, उनका उछलने और उड़ने का प्रयास करना देखकर अत्यन्त हर्षित हुए।

61 स्नेह से बँधे हुए हृदयों वाले ये मूर्ख पक्षी भगवान विष्णु की माया द्वारा पूर्णत: मोहग्रस्त होकर अपने छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन करते रहे।

62 एक दिन परिवार के दोनों मुखिया अपने बच्चों के लिए भोजन तलाश करने बाहर चले गये। अपने बच्चों को ठीक से खिलाने की चिन्ता में वे काफी समय तक पूरे जंगल में विचरते रहे।

63 उस समय संयोगवश किसी बहेलिये ने कबूतर के इन बच्चों को उनके घोंसले के निकट जाल फैलाकर पकड़ लिया।

64 कबूतर तथा उसकी पत्नी अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए सदैव चिन्तित रहते थे और इसी उद्देश्य से वे जंगल में भटकते रहे थे। समुचित अन्न पाकर अब वे अपने घोंसले पर लौट आये।

65 जब कबूतरी ने अपने बच्चों को बहेलिये के जाल में फँसे देखा, तो वह व्यथा से अभिभूत हो गई और चिल्लाती हुई उनकी और दौड़ी। वे बच्चे भी उसके लिए चिल्लाने लगे।

66 चूँकि कबूतरी ने अपने को गहन स्नेह के बन्धन से सदा बाँध रखा था, इसलिए उसका मन व्यथा से विहल था। भगवान की माया के चंगुल में होने से, वह अपने को पूरी तरह भूल गई और अपने असहाय बच्चों की ओर दौड़ती हुई, वह भी तुरन्त बहेलिये के जाल में बँध गई।

67 अपने प्राणों से भी प्यारे अपने बच्चों तथा पत्नी को बहेलिये के जाल में बुरी तरह बँधा देखकर बेचारा कबूतर दुखी होकर विलाप करने लगा।

68 कबूतर ने कहा: हाय ! देखों न, मैं किस तरह बर्बाद हो गया हूँ। स्पष्ट है कि मैं महामूर्ख हूँ, क्योंकि मैंने समुचित पुण्यकर्म नहीं किये। न तो मैं अपने को संतुष्ट कर सका, न ही मैं जीवन के लक्ष्य को पूरा कर सका। मेरा प्रिय परिवार, जो मेरे धर्म, अर्थ तथा काम का आधार था, अब बुरी तरह नष्ट हो गया।

69 “मैं तथा मेरी पत्नी आदर्श जोड़ा थे। वह सदैव मेरी आज्ञा का पालन करती थी और मुझे अपने पूज्य देवता की तरह मानती थी, किन्तु अब वह अपने बच्चों को नष्ट हुआ और अपने घर को रिक्त देखकर मुझे छोड़ गई और हमारे सन्त स्वभाव वाले बच्चों के साथ स्वर्ग चली गई।”

70 अब मैं वीरान घर में रहने-वाला दुखी व्यक्ति हूँ। मेरी पत्नी मर चुकी है, मेरे बच्चे मर चुके हैं। मैं भला क्यों जीवित रहना चाहूँ? मेरा हृदय अपने परिवार के बिछोह से इतना पीड़ित है कि मेरा जीवन मात्र कष्ट बनकर रह गया है।

71 जब पिता कबूतर अपने बेचारे बच्चों को जाल में बँधा और मृत्यु के कगार पर दीन भाव से उन्हें अपने को छुड़ाने के लिए करुणावस्था में संघर्ष करते देख रहा था, तो उसका मस्तिष्क शून्य हो गया और वह स्वयं भी बहेलिये के जाल में गिर पड़ा।

72 निष्ठुर बहेलिया– कबूतर, कबूतरी तथा बच्चों को जाल में फँसाकर प्रसन्नचित अपने घर लौट गया।

73 इस तरह जो व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में अत्यधिक अनुरक्त रहता है, वह हृदय में क्षुब्ध रहता है। कबूतर की ही तरह वह संसारी यौन-आकर्षण में आनन्द ढूँढता रहता है। अपने परिवार का पालन-पोषण करने में व्यस्त रहकर, कृपण व्यक्ति अपने परिवार वालों के साथ अत्यधिक कष्ट भोगता है।

74 जिसने मनुष्य जीवन पाया है, उसके लिए मुक्ति के द्वार पूरी तरह से खुले हुए हैं। किन्तु यदि मनुष्य इस कथा के मूर्ख पक्षी की तरह अपने परिवार में ही लिप्त रहता है, तो वह ऐसे व्यक्ति के समान है, जो ऊँचे स्थान पर केवल नीचे गिरने के लिए ही चढ़ा हो।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10893352099?profile=RESIZE_400x

अध्याय छह – यदुवंश का प्रभास गमन (11.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तब ब्रह्माजी अपने पुत्रों तथा देवताओं एवं महान प्रजापतियों को साथ लेकर द्वारका के लिए रवाना हुए। सारे जीवों के कल्याणप्रदाता शिवजी भी अनेक भूत-प्रेतों से घिरकर द्वारका गये।

2-4 कृष्ण का दर्शन करने की आशा से शक्तिशाली इन्द्र अपने साथ मरुतों, आदित्यों, अश्विनियों, ऋभुओं, अंगिराओं, रुद्रों, विश्वेदेवों, साध्यों, गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, सिद्धों, चारणों, गुह्यकों, महान ऋषियों, पितरों, विद्याधरों एवं किन्नरों को लेकर द्वारका नगरी पहुँचे। कृष्ण ने अपने दिव्य स्वरूप द्वारा सारे मनुष्यों को मोह लिया और समस्त जगतों में अपनी महिमा फैला दी। भगवान का यश ब्रह्माण्ड के भीतर समस्त कल्मष को नष्ट करनेवाला है।

5 समस्त प्रकार के श्रेष्ठ ऐश्वर्यों से समृद्ध, सुशोभित द्वारका नगरी में देवताओं ने श्रीकृष्ण के अद्भुत रूप को अतृप्त नेत्रों से देखा।

6 देवताओं ने समस्त ब्रह्माण्डों के परम स्वामी को स्वर्ग के उद्यानों से लाये गये फूलों के हारों से ढक दिया। तब उन्होंने यदुवंश शिरोमणि भगवान की मोहक शब्दों तथा भावमय वचनों से प्रशंसा की।

7 देवता कहने लगे : हे प्रभु, बड़े बड़े योगी कठिन कर्म-बन्धन से मुक्ति पाने का प्रयास करते हुए अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का ध्यान अतीव भक्तिपूर्वक करते हैं। हम देवतागण अपनी बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण, मन तथा वाणी आपको समर्पित करते हुए, आपके चरणकमल पर नत होते हैं।

8 हे अजित प्रभु, आप तीन गुणों से बनी अपनी मायाशक्ति को अपने ही भीतर अचिन्त्य व्यक्त जगत के सृजन, पालन तथा संहार में लगाते हैं। आप माया के परम नियन्ता के रूप में प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया में स्थित जान पड़ते हैं, किन्तु आप भौतिक कार्यों द्वारा कभी प्रभावित नहीं होते। आप अपने नित्य आध्यात्मिक आनन्द में ही लीन रहते हैं, अतएव आप पर किसी भौतिक संदूषण का दोषारोपण नहीं किया जा सकता।

9 हे सर्वश्रेष्ठ, जिनकी चेतना मोह से कलुषित है, वे केवल सामान्य पूजा, वेदाध्ययन, दान, तप तथा अनुष्ठानों द्वारा स्वयं को शुद्ध नहीं कर सकते।

10 जीवन में सर्वोच्च लाभ की कामना करनेवाले बड़े बड़े मुनि सदैव आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं। आपके आत्मसंयमी भक्तगण, आपके ही समान ऐश्वर्य पाने के लिए स्वर्ग से परे जाने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की पूजा प्रातः दोपहर तथा संध्या समय करते हैं। वे आपके चतुर्व्यूह रूप का ध्यान करते हैं। आपके चरणकमल उस प्रज्वलित अग्नि के तुल्य हैं, जो इन्द्रियतृप्ति विषयक समस्त इच्छाओं को भस्म कर देती है।

11 याज्ञिक लोग ऋग, यजु: तथा सामवेद में दी गई विधि के अनुसार यज्ञ की अग्नि में आहुति देते समय, आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं। इसी प्रकार योगीजन आपकी दिव्य योगशक्ति का ज्ञान प्राप्त करने की आशा से आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं और जो पूर्ण महाभागवत हैं, वे आपकी मायाशक्ति को पार करने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की उचित विधि से पूजा करते हैं।

12 हे सर्वशक्तिमान, आप अपने सेवकों के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उस मुरझाई हुई (बासी) फूलमाला को स्वीकार कर लिया है, जिसे हमने आपके वक्षस्थल पर चढ़ाया था। चूँकि लक्ष्मी देवी आपके दिव्य वक्षस्थल पर वास करती हैं, इसलिए निस्सन्देह वे हमारी भेंटों को उसी स्थान पर अर्पित करते देखकर उसी तरह ईर्ष्या करेंगी, जिस तरह एक सौत करती है। फिर भी आप इतने दयालु हैं कि आप अपनी नित्य संगिनी लक्ष्मीदेवी की परवाह न करते हुए हमारी भेंट को सर्वोत्तम पूजा मानकर ग्रहण करते हैं। हे दयालु प्रभु, आपके चरणकमल हमारे हृदयों की अशुभ कामनाओं को भस्म करने के लिए प्रज्वलित अग्नि का कार्य करें।

13 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, आपने अपने त्रिविक्रम अवतार में ब्रह्माण्ड के कवच को तोड़ने के लिए अपना पैर ध्वज-दण्ड की तरह उठाया और पवित्र गंगा को तीन शाखाओं में तीनों लोकों में से होकर विजय-ध्वजा की भाँति बहने दिया। आपने अपने चरणकमलों के तीन बलशाली पगों से बलि महाराज को उनके विश्वव्यापी साम्राज्य सहित वश में कर लिया। आपके चरण असुरों में भय उत्पन्न करके, उन्हें स्वर्ग-जीवन की सिद्धि प्रदान करते हैं। हे प्रभु, आपके चरणकमल कृपा करके, हमारे सभी पापकर्मों से हमें मुक्त करें।

14 आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, दिव्य आत्मा हैं, जो भौतिक प्रकृति तथा इसके भोक्ता दोनों से श्रेष्ठ हैं। आपके चरणकमल हमें दिव्य आनन्द प्रदान करें। ब्रह्मा इत्यादि सारे बड़े बड़े देवता देहधारी जीव हैं। आपके काल के वश में एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते वे सब उन बैलों जैसे हैं, जिन्हें छिदे हुए उनकी नाक में पड़ी रस्सी (नथ) के द्वारा खींचा जाता है।

15 आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के कारण हैं। आप प्रकृति की स्थूल तथा सूक्ष्म दशाओं को नियमित करनेवाले तथा प्रत्येक जीव को वश में करनेवाले हैं। कालरूपी चक्र की तीन नाभियों के रूप में आप सारी वस्तुओं का ह्रास करनेवाले हैं। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं।

16 हे प्रभु, आदि पुरुष-अवतार महाविष्णु अपनी सर्जक शक्ति आपसे ही प्राप्त करते हैं। इस तरह अच्युत शक्ति से युक्त वे प्रकृति में दृष्टिपात करके महत तत्व उत्पन्न करते हैं। तब भगवान की शक्ति से समन्वित यह महत तत्त्व अपने में से ब्रह्माण्ड का आदि सुनहला अंडा उत्पन्न करता है, जो भौतिक तत्त्वों के कई आवरणों (परतों) से ढका होता है।

17 हे प्रभु, आप इस ब्रह्माण्ड के परम स्रष्टा हैं और समस्त चर तथा अचर जीवों के परम नियन्ता हैं। आप हृषीकेश अर्थात सभी इन्द्रियविषयक कार्यों के परम नियन्ता हैं, और आप कभी भी इस भौतिक सृष्टि के भीतर अनन्त इन्द्रियविषय कार्यों के अधीक्षक के समय संदूषित या लिप्त नहीं होते। दूसरी ओर, अन्य जीव, यहाँ तक कि योगी तथा दार्शनिक भी उन भौतिक वस्तुओं का स्मरण करके विचलित तथा भयभीत रहते हैं।

18 हे प्रभु, आप सोलह हजार अत्यन्त सुन्दर राजसी पत्नियों के साथ रह रहे हैं। अपनी अत्यन्त लजीली तथा मुस्कान-भरी चितवन तथा सुन्दर धनुष-रूपी भौंहों से वे आपको उत्सुक प्रणय का सन्देश भेजती हैं। किन्तु वे आपके मन तथा इन्द्रियों को विचलित करने में पूरी तरह असमर्थ रहती हैं।

19 आपके विषय में वार्ता रूपी अमृतवाहिनी नदियाँ तथा आपके चरणकमलों के धोने से उत्पन्न पवित्र नदियाँ तीनों लोकों के सारे कल्मष को विनष्ट करने में समर्थ हैं। जो शुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे आपके चरणकमलों से निकलने वाली पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और आपकी महिमा की पवित्र कथाओं का उत्साहपूर्वक श्रवण करते हैं।

20 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह ब्रह्माजी शिव तथा अन्य देवताओं समेत भगवान गोविन्द की स्तुति करने के बाद स्वयं आकाश में स्थित हो गये और उन्होंने भगवान को इस प्रकार से सम्बोधित किया।

21 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, इसके पूर्व हमने आपसे पृथ्वी का भार हटाने की प्रार्थना की थी। हे अनन्त भगवान, हमारी वह प्रार्थना पूरी हुई है।

22 हे प्रभु, आपने उन पवित्र लोगों के बीच धर्म की पुनर्स्थापना की है, जो सत्य से सदैव दृढ़तापूर्वक बँधे हुए हैं। आपने अपनी कीर्ति का भी सारे विश्व में वितरण किया है। इस तरह सारा संसार आपके विषय में श्रवण करके शुद्ध किया जा सकता है।

23 आपने यदुवंश में अवतार लेकर अपना अद्वितीय दिव्य रूप प्रकट किया है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कल्याण हेतु आपने उदार दिव्य कृत्य किये हैं।

24 हे प्रभु, कलियुग में पवित्र तथा सन्त पुरुष, जो आपके दिव्य कार्यों का श्रवण करते हैं और उनका यशोगान करते हैं, वे इस युग के अंधकार को सरलता से लाँघ जायेंगे।

25 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, हे प्रभु, आप यदुकुल में अवतरित हुए हैं और अपने भक्तों के साथ आपने एक सौ पच्चीस शरद ऋतुएँ बिताई हैं।

26-27 हे प्रभु, इस समय देवताओं की ओर से, आपको करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा। आपने पहले ही अपने वंश को ब्राह्मण के शाप से उबार लिया है। हे प्रभु, आप सारी वस्तुओं के आधार हैं और यदि आप चाहें, तो अब वैकुण्ठ में अपने धाम को लौट जाय। साथ ही, हमारी विनती है कि आप सदैव हमारी रक्षा करते रहें। हम आपके विनीत दास हैं और आपकी ओर से हम ब्रह्माण्ड का कार्यभार सँभाले हुए हैं। हमें अपने लोकों तथा अनुयायियों समेत आपके सतत संरक्षण की आवश्यकता है।

28 भगवान ने कहा: हे देवताओं के अधीश ब्रह्मा, मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं तथा अनुरोध को समझता हूँ। पृथ्वी का भार हटाकर मैंने आप लोगों का सब कार्य पूर्ण कर दिया।

29 वही यादव-कुल, जिसमें मैं प्रकट हुआ, ऐश्वर्य में, विशेष रूप से अपने शारीरिक बल तथा साहस में, इस हद तक बढ़ गया कि सारे जगत को ही निगल जाना चाहता था। इसलिए मैंने उन्हें रोक दिया है, जिस तरह तट महासागर को रोके रहता है।

30 यदि मुझे यदुवंश के इन अतिशय घमण्ड से चूर रहनेवाले सदस्यों को हटाये बिना यह संसार त्यागना पड़ा, तो इनके असीम विस्तार के उफान से सारा संसार विनष्ट हो जायेगा।

31 अब ब्राह्मणों के शाप के कारण यदुवंश का विनाश पहले ही शुरु हो चुका है। हे निष्पाप ब्रह्मा, जब यह विनाश पूरा हो चूकेगा और मैं वैकुण्ठ जा रहा होऊँगा, तो मैं थोड़े समय के लिए तुम्हारे वास-स्थान पर अवश्य आऊँगा।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ब्रह्माण्ड के स्वामी द्वारा ऐसा कहे जाने पर स्वयंभू ब्रह्मा उनके चरणकमलों पर गिर पड़े और उन्हें नमस्कार किया। तब सारे देवताओं से घिरे हुए ब्रह्माजी अपने निजी धाम लौट गये।

33 तत्पश्चात, भगवान ने देखा कि पवित्र नगरी द्वारका में भयंकर उत्पात हो रहे हैं। अतः एकत्रित वृद्ध यदुवंशियों से भगवान इस प्रकार बोले। भगवान ने कहा: ब्राह्मणों ने हमारे वंश को शाप दिया है। ऐसे शाप का परिहार असम्भव है, इसीलिए हमारे चारों ओर महान उत्पात हो रहे हैं।

35 हे आदरणीय वरेषूजनों, यदि हम अपने प्राणों को अक्षत रखना चाहते हैं, तो अब और अधिक काल तक हमें इस स्थान पर नहीं रहना चाहिए। आज ही हम परम पवित्र स्थल प्रभास चलें। हमें तनिक भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।

36 एक बार दक्ष के शाप के कारण चन्द्रमा यक्ष्मा से पीड़ित था, किन्तु प्रभास क्षेत्र में स्नान करने मात्र से चन्द्रमा अपने सारे पापों से तुरन्त विमुक्त हो गया और उसने अपनी कलाओं की अभिवृद्धि भी प्राप्त की।

37-38 प्रभास क्षेत्र में स्नान करने, वहाँ पर पितरों तथा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि देने, पूज्य ब्राह्मणों को नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने तथा उन्हें ही दान का योग्य पात्र मानकर पर्याप्त दान देने से, हम निश्चय ही इन भीषण संकटों को पार कर सकेंगे, जिस तरह मनुष्य किसी उपयुक्त नाव में चढ़कर महासागर को पार कर सकता है।

39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुनंदन, इस तरह भगवान द्वारा आदेश दिये जाने पर यादवों ने उस प्रभास क्षेत्र नामक पवित्र स्थान को जाने का निश्चय किया और उन्होंने अपने-अपने रथों में घोड़े जोत दिये।

40-41 हे राजन, उद्धव भगवान कृष्ण के सदा से ही श्रद्धावान अनुयायी थे। भयावने अपशकुनों को ध्यान में रखते हुए, यादवों के कूच को अत्यन्त निकट जानकर तथा भगवान के आदेशों को सुनकर उद्धव एकान्त स्थान में भगवान के पास गये। उन्होंने ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता के चरणकमलों पर अपना शीश झुकाया और हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार बोले।

42 श्री उद्धव ने कहा: हे प्रभु, हे देवों के परम ईश्वर, आपकी दिव्य महिमा का श्रवण और कीर्तन करने से ही जीव पवित्र होता है। हे प्रभु, ऐसा लगता है कि अब आप अपने वंश को समेट लेंगे और आप इस ब्रह्माण्ड में अपनी लीलाएँ भी बन्द कर देंगे। आप समस्त माया-शक्ति के परम नियन्ता और स्वामी हैं। यद्यपि आप अपने वंश को दिये गये ब्राह्मणों के शाप को मिटाने में पूर्णतया समर्थ हैं, किन्तु आप ऐसा नहीं कर रहे हैं और आपका तिरोधान सन्निकट है।

43 हे स्वामी, भगवान कृष्ण, मैं आधे क्षण के लिए भी आपके चरणकमलों का बिछोह सहन नहीं कर सकता। मेरी विनती है कि आप मुझे भी अपने साथ अपने धाम लेते चले।

44 हे कृष्ण, आपकी लीलाएँ मनुष्य प्रजाति के लिए अतीव शुभ हैं और कानों के लिए मादक पेय तुल्य हैं। ऐसी लीलाओं का आस्वादन करने पर लोग अन्य वस्तुओं की इच्छाएँ भूल जाते हैं।

45 हे प्रभु, आप परमात्मा हैं, इसलिए आप हमें सर्वाधिक प्रिय हैं। हम सभी आपके भक्त हैं, तो भला हम किस तरह आपको त्याग सकते हैं या आपके बिना क्षण भर भी रह सकते हैं? हम लेटते-बैठते, चलते, खड़े होते, नहाते, खेलते, खाते या अन्य कुछ करते, आपकी ही सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं।

46 आपके द्वारा उपभोग की गई मालाओं, सुगन्धित तेलों, वस्त्रों तथा गहनों से अपने को सजाकर तथा आपका जूठन खाकर हम आपके दास निश्चय ही आपकी माया को जीत सकेंगे।

47 आध्यात्मिक अभ्यास में गम्भीरता से प्रयास करनेवाले ऋषिगण, ऊर्ध्वरेता, शान्त तथा निष्पाप संन्यासी आध्यात्मिक धाम को प्राप्त करते हैं, जो ब्रह्म कहलाता है।

48-49 हे प्रभु, आपकी प्रेममयी लीलाएँ इस भौतिक जगत के भीतर सामान्य लोगों के कार्यकलापों की तरह मोहित करनेवाली हैं। हे महायोगी, यद्यपि हम सकाम कर्म के मार्ग पर विचरण करनेवाले बद्धजीव हैं, तथापि हम आपकी मुसकाती चितवन और हास-परिहास का स्मरण करते हुए, आपने जो भी अद्भुत कर्म किये हैं उन लीलाओं का स्मरण – कीर्तन करके और आपके भक्तों की संगति में आपके विषय में सुनकर – इस भौतिक जगत के अंधकार को पार कर जायेंगे।

50 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, इस तरह प्रार्थना किये जाने पर देवकी-पुत्र कृष्ण ने अपने प्रिय अनन्य दास उद्धव से कहा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…