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अध्याय नौ - पूर्ण वैराग्य (11.9)

1 साधु-ब्राह्मण ने कहा: भौतिक जगत में हर व्यक्ति कुछ वस्तुओं को अत्यन्त प्रिय मानता है और ऐसी वस्तुओं के प्रति लगाव के कारण अन्ततः वह दीन-हीन बन जाता है। जो व्यक्ति इसे समझता है, वह भौतिक सम्पत्ति के स्वामित्व तथा लगाव को त्याग देता है और इस तरह असीम आनन्द प्राप्त करता है।

2 एक बार बड़े बाजों की एक टोली ने कोई शिकार न पा सकने के कारण एक अन्य दुर्बल बाज पर आक्रमण कर दिया जो थोड़ा-सा मांस पकड़े हुए था। उस समय अपने जीवन को संकट में देखकर बाज ने मांस को छोड़ दिया। तब उसे वास्तविक सुख मिल सका।

3 पारिवारिक जीवन में माता-पिता सदैव अपने घर, बच्चों तथा प्रतिष्ठा के विषय में चिन्तित रहते हैं। किन्तु मुझे इन बातों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। मैं न तो किसी परिवार के लिए चिन्ता करता हूँ, न ही मैं मान-अपमान की परवाह करता हूँ। मैं आत्म जीवन का ही आनन्द उठाता हूँ और मुझे आध्यात्मिक पद पर प्रेम मिलता है। इस तरह मैं पृथ्वी पर बालक की भाँति विचरण करता रहता हूँ।

4 इस जगत में दो प्रकार के लोग समस्त चिन्ताओं से मुक्त होते हैं और परम आनन्द में निमग्न रहते हैं – एक तो वे जो मन्द बुद्धि हैं तथा बालकों के समान अज्ञानी हैं तथा दूसरे वे जो तीनों गुणों से अतीत परमेश्वर के पास पहुँच चुके हैं।

5 एक बार, विवाह योग्य एक तरुणी अपने घर में अकेली थी, उसके माता-पिता तथा सम्बन्धी उस दिन किसी अन्य स्थान को चले गए थे। उस समय कुछ व्यक्ति उससे विवाह करने की विशेष इच्छा से उसके घर आये। उसने उन सबका सत्कार किया।

6 वह लड़की एकान्त स्थान में चली गई और अप्रत्याशित अतिथियों के लिए भोजन बनाने की तैयारी करने लगी। जब वह धान कूट रही थी, तो उसकी कलाइयों की शंख की चुड़ियाँ एक-दूसरे से टकराकर अत्यधिक आवाज कर रही थीं।

7 उस आवाज को लज्जास्पद सोचकर अत्यन्त बुद्धिमती शर्मीली लड़की ने पहनी हुई शंख की चूड़ियों में से प्रत्येक कलाई में केवल दो दो चुड़ियाँ छोड़कर शेष सभी चुड़ियाँ तोड़ दीं।

8 तत्पश्चात ज्योंही वह लड़की धान कूटने लगी प्रत्येक कलाई की दो-दो चूड़ियाँ टकराकर आवाज करने लगीं। अतः उसने हर कलाई में से एक चूड़ी उतार ली, जब हर कलाई में एक चूड़ी रह गई, तो फिर आवाज नहीं हुई।

9 हे शत्रुओं का दमन करनेवाले, मैं इस जगत के स्वभाव के बारे में निरन्तर सीखते हुए पृथ्वी-भर में विचरण करता हूँ। इस तरह मैंने उस लड़की से स्वयं शिक्षा ग्रहण की।

10 जब एक स्थान पर अनेक लोग साथ साथ रहते हैं, तो निश्चित रूप से झगड़ा होगा। यहाँ तक कि यदि केवल दो व्यक्ति ही एक साथ रहें, तो भी जोर-जोर से बातचीत होगी और आपस में मतभेद रहेगा। अतएव झगड़े से बचने के लिए मनुष्य को अकेला रहना चाहिए, जैसा कि हम लड़की के चूड़ी के दृष्टांत से शिक्षा पाते हैं।

11 योगासनों में दक्षता प्राप्त कर लेने तथा श्वास क्रिया पर नियंत्रण पा लेने पर मनुष्य को चाहिए कि वैराग्य तथा नियमित योगाभ्यास द्वारा मन को स्थिर करे। इस तरह मनुष्य को योगाभ्यास के एक लक्ष्य पर ही सावधानी से अपने मन को स्थिर करना चाहिए।

12 जब मन भगवान पर स्थिर हो जाता है, तो उसे वश में किया जा सकता है। स्थायी दशा को प्राप्त करके मन भौतिक कार्यों को करने की दूषित इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस तरह सतोगुण के प्रबल होने पर मनुष्य रजो तथा तमोगुण का पूरी तरह परित्याग कर सकता है और धीरे धीरे सतोगुण से भी परे जा सकता है। जब मन प्रकृति के गुणरूपी ईंधन से मुक्त हो जाता है, तो संसाररूपी अग्नि बुझ जाती है। तब उसका सीधा सम्बन्ध दिव्य स्तर पर अपने ध्यान के लक्ष्य, परमेश्वर, से जुड़ जाता है।

13 इस प्रकार जब मनुष्य की चेतना परम सत्य भगवान पर पूरी तरह स्थिर हो जाती है, तो उसे द्वैत अथवा आन्तरिक और बाह्य सच्चाई नहीं दिखती। यहाँ पर एक बाण बनाने वाले का दृष्टांत दिया गया है, जो एक सीधा बाण बनाने में इतना लीन था कि उसने अपने पास से गुजर रहे राजा तक को नहीं देखा।

14 सन्त पुरुष को अकेले रहना चाहिए और किसी स्थिर आवास के बिना, निरन्तर विचरण करते रहना चाहिए। सतर्क होकर उसे एकान्तवास करना चाहिए और इस तरह से कार्य करना चाहिए कि वह अन्यों द्वारा पहचाना या देखा न जा सके। उसे संगियों के बिना इधर-उधर जाना चाहिए और जरूरत से ज्यादा बोलना नहीं चाहिए।

15 जब नश्वर शरीर में वास करनेवाला मनुष्य सुखी घर बनाने का प्रयास करता है, तो उसका परिणाम व्यर्थ तथा दुखमय होता है। किन्तु साँप अन्यों द्वारा बनाये गये घर में घुसकर सुखपूर्वक रहता है।

16 ब्रह्माण्ड के स्वामी नारायण सभी जीवों के आराध्य ईश्वर है। वे किसी बाह्य सहायता के बिना ही अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और संहार के समय वे ब्रह्माण्ड को अपने कालरूपी स्वांश से नष्ट करते हैं और बद्धजीवों समेत समस्त ब्रह्माण्डों को अपने में समेट लेते हैं। इस तरह उनकी असीम आत्मा ही समस्त शक्तियों का आगार तथा आश्रय है। सूक्ष्म प्रधान, जो समस्त विराट जगत का आधार है, भगवान के भीतर सिमट जाता है और इस तरह उनसे भिन्न नहीं होता। संहार के फलस्वरूप वे अकेले ही रह जाते हैं।

17-18 जब भगवान काल के रूप में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और सतोगुण जैसी अपनी भौतिक शक्तियों को प्रधान (निरपेक्ष साम्य अवस्था) तक ले जाते हैं, तो वे उस निरपेक्ष अवस्था (प्रधान) तथा जीवों के भी परम नियन्ता बने रहते हैं। वे समस्त जीवों के भी आराध्य हैं, जिनमें मुक्त आत्मा, देवता तथा सामान्य बद्धजीव सम्मिलित हैं। भगवान शाश्वत रूप से किसी भी उपाधि से मुक्त रहते हैं और वे आध्यात्मिक आनन्द की समग्रता से युक्त हैं, जिसका अनुभव भगवान के आध्यात्मिक स्वरूप का दर्शन करने पर होता है। इस तरह भगवान “मुक्ति” का पूरा-पूरा अर्थ प्रकट करते हैं।

19 हे शत्रुओं के दमनकर्ता, सृष्टि के समय भगवान अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार काल रूप में करते हैं और वे तीन गुणों से बनी हुई भौतिक शक्ति, अर्थात माया को क्षुब्ध करके महत तत्त्व उत्पन्न करते हैं।

20 महान मुनियों के अनुसार, जो प्रकृति के तीन गुणों का आधार है और जो विविध रंगी ब्रह्माण्ड प्रकट करता है, वह सूत्र या महत तत्त्व कहलाता है। निस्सन्देह, यह ब्रह्माण्ड उसी महत तत्त्व के भीतर टिका हुआ रहता है और इसकी शक्ति के कारण जीव को भौतिक जगत में आना पड़ता है।

21 जिस तरह मकड़ी अपने ही भीतर से (मुख में से) धागा निकाल कर फैलाती है, कुछ काल तक उससे खेलती है अन्त में निगल जाती है। उसी तरह भगवान अपनी निजी शक्ति को अपने भीतर से ही विस्तार देते हैं। इस तरह भगवान विराट जगतरूपी जाल को प्रदर्शित करते हैं, अपने प्रयोजन के अनुसार उसे काम में लाते हैं और अन्त में उसे पूरी तरह से अपने भीतर समेट लेते हैं।

22 यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथ किसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा, जिसका वह ध्यान करता है।

23 हे राजन, एक बार एक बर्र ने कमजोर कीड़े को अपने चट्टे में घुसने के लिए बाध्य कर दिया और उसे वहीं बन्दी बनाये रखा। उस कीड़े ने भय के कारण बन्दी बनाने वाले का निरन्तर ध्यान किया और शरीर त्यागे बिना ही धीरे-धीरे बर्र जैसी स्थिति प्राप्त कर ली। इस तरह मनुष्य अपने निरन्तर ध्यान के अनुसार स्वरूप प्राप्त करता है।

24 हे राजन, मैंने इन आध्यात्मिक गुरुओं से महान ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, उसे बतलाता हूँ, तुम ध्यान से सुनो।

25 भौतिक शरीर भी मेरा गुरु है, क्योंकि यह मुझे वैराग्य की शिक्षा देता है। सृष्टि तथा संहार से प्रभावित होने के कारण, इसका कष्टमय अन्त होता रहता है। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने शरीर का उपयोग करते हुए मैं सदैव स्मरण रखता हूँ कि यह अन्ततः अन्यों द्वारा विनष्ट कर दिया जायेगा, अतः मैं विरक्त रहकर इस जगत में इधर-उधर विचरण करता हूँ।

26 शरीर से आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चों, सम्पत्ति, पालतू पशुओं, नौकरों, घरों, सम्बन्धियों, मित्रों इत्यादि की स्थिति को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक संघर्ष के साथ धन एकत्र करता है। वह अपने ही शरीर की तुष्टि के लिए यह सब करता है। जिस प्रकार एक वृक्ष नष्ट होने के पूर्व भावी वृक्ष का बीज उत्पन्न करता है, उसी तरह मरने वाला शरीर अपने संचित कर्म के रूप में अपने अगले शरीर का बीज प्रकट करता है। इस तरह भौतिक जगत के नैरन्तर्य से आश्वस्त होकर भौतिक शरीर समाप्त हो जाता है।

27 जिस व्यक्ति की कई पत्नियाँ होती है, वह उनके द्वारा निरन्तर सताया जाता है। वह उनके पालन-पोषण के लिए जिम्मेदार होता है। इस तरह सारी पत्नियाँ उसे निरन्तर भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींचती रहती हैं, और हर पत्नी अपने स्वार्थ के लिए संघर्ष करती है। इसी तरह भौतिक इन्द्रियाँ बद्धजीव को एकसाथ विभिन्न दिशाओं में खींचती और सताती रहती है। एक ओर जीभ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था करने के लिए खींचती है, तो प्यास उसे उपयुक्त पेय प्रदान करने के लिए घसीटती रहती है। उसी समय यौन-अंग उनकी तुष्टि के लिए शोर मचाते हैं और स्पर्शेंद्रिय कोमल पदार्थ की माँग रखती हैं। उदर उसे तब तक तंग करता रहता है, जब तक वह भर नहीं जाता। कान मनोहर ध्वनि सुनना चाहते हैं, घ्राणेन्द्रिय सुहावनी सुगन्धियों के लिए लालायित रहती हैं और चंचल आँखें मनोहर दृश्य के लिए शोर मचाती हैं। इस तरह सारी इन्द्रियाँ तथा शरीर के अंग तुष्टि की इच्छा से जीव को अनेक दिशाओं में खींचते रहते हैं।

28 भगवान ने मायाशक्ति के माध्यम से बद्धजीवों को बसाने के लिए असंख्य जीव-योनियाँ उत्पन्न कीं। वृक्षों, सरीसृपों, पशुओं, पक्षियों, सर्पों इत्यादि के स्वरूपों को उत्पन्न करके भगवान तुष्ट नहीं थे। तब उन्होंने मनुष्य को उत्पन्न किया, जो बद्ध आत्मा को पर्याप्त बुद्धि प्रदान करनेवाला होता है, जिससे वह परम सत्य को देख सके। इस तरह भगवान संतुष्ट हो गये।

29 अनेकानेक जन्मों और मृत्यु के पश्चात यह दुर्लभ मानव-जीवन मिलता है, जो अनित्य होने पर भी मनुष्य को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए धीर मनुष्य को जब तक उसका मरणशील शरीर क्षय होकर मर नहीं जाता, तब तक चरम जीवन सिद्धि के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। कृष्णभावनामृत केवल मनुष्य को ही प्राप्त हो सकता है, इन्द्रियतृप्ति तो सबसे गर्हित योनि में भी प्राप्य है।

30 इन गुरुओं से शिक्षा पाकर मैं भगवान की अनुभूति में स्थित रहता हूँ और पूर्ण वैराग्य तथा आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित, आसक्ति या मिथ्या अहंकार से रहित होकर पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करता हूँ।

31 यद्यपि परम सत्य अद्वितीय हैं, किन्तु ऋषियों ने अनेक प्रकार से उनका वर्णन किया है। इसलिए हो सकता है कि मनुष्य एक गुरु से अत्यन्त स्थिर या पूर्ण ज्ञान प्राप्त न कर पाये।

32 भगवान ने कहा: राजा यदु से इस प्रकार कहने के बाद, विद्वान ब्राह्मण, राजा द्वारा उचित रूप से पूजित होकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और राजा से विदा लेकर चला गया।

33 हे उद्धव, अवधूत के शब्दों को सुनकर साधु राजा यदु, जो कि हमारे पूर्वजों का पुरखा है, समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो गया और उसका मन आध्यात्मिक पद पर समान भाव से स्थिर (समदर्शी) हो गया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

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  • परम सत्य अद्वितीय हैं।
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