अध्याय दस - सकाम कर्म की प्रकृति (11.10)
1 भगवान ने कहा: पूर्णतया मेरी शरण में आकर तथा मेरे द्वारा वर्णित भगवदभक्ति में अपने मन को सावधानी से एकाग्र करके मनुष्य को निष्काम भाव से रहना चाहिए तथा वर्णाश्रम प्रणाली का अभ्यास करना चाहिए।
2 शुद्ध आत्मा को यह देखना चाहिए कि चूँकि इन्द्रियतृप्ति के प्रति समर्पित होने से बद्ध आत्माओं ने इन्द्रियसुख की वस्तुओं को धोखे से सत्य मान लिया है, इसलिए उनके सारे प्रयत्न असफल होकर रहेंगे।
3 सोया हुआ व्यक्ति स्वप्न में इन्द्रियतृप्ति की अनेक वस्तुएँ देख सकता है, किन्तु ऐसी आनन्ददायक वस्तुएँ मनगढ़न्त होने के कारण अन्ततः व्यर्थ होती हैं। इसी तरह, जो जीव अपनी आध्यात्मिक पहचान के प्रति सोया हुआ रहता है, वह भी अनेक इन्द्रियविषयों को देखता है, किन्तु क्षणिक तृप्ति देने वाली ये असंख्य वस्तुएँ भगवान की माया द्वारा निर्मित होती हैं, तथा इनका स्थायी अस्तित्व नहीं होता। जो व्यक्ति इन्द्रियों से प्रेरित होकर इनका ध्यान करता है, वह अपनी बुद्धि को व्यर्थ के कार्य में लगाता है।
4 जिसने अपने मन में मुझे अपने जीवन लक्ष्य के रूप में बिठा लिया है, उसे इन्द्रियतृप्ति पर आधारित कर्म त्याग देने चाहिए और उन्नति के लिए विधि-विधानों द्वारा अनुशासित कर्म करना चाहिए। किन्तु जब कोई व्यक्ति आत्मा के चरम सत्य की खोज में पूरी तरह लगा हो, तो उसे सकाम कर्मों को नियंत्रित करनेवाले शास्त्रीय आदेशों को भी नहीं मानना चाहिए।
5 जिसने मुझे अपने जीवन का परम लक्ष्य मान लिया है, उसे चाहिए कि पापकर्मों का निषेध करनेवाले शास्त्रीय आदेशों का कठोरता से पालन करे और जहाँ तक हो सके गौण नियमों यथा स्वच्छता की संस्तुति करनेवाले आदेशों को सम्पन्न करे। किन्तु अन्ततः उसे प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए, जो मेरे साकार रूप के ज्ञान से पूर्ण होता है, शान्त होता है और आध्यात्मिक उत्थान के कारण मुझसे भिन्न नहीं होता।
6 गुरु के सेवक अथवा शिष्य को झूठी प्रतिष्ठा से मुक्त होना चाहिए और अपने को कभी भी कर्ता नहीं मानना चाहिए। उसे सदैव सक्रिय रहना चाहिए और कभी भी आलसी नहीं होना चाहिए। उसे पत्नी, बच्चे, घर तथा समाज सहित समस्त इन्द्रियविषयों के ऊपर स्वामित्व के भाव को त्याग देना चाहिए। उसे अपने गुरु के प्रति प्रेमपूर्ण मैत्री की भावना से युक्त होना चाहिए और उसे कभी भी न तो पथभ्रष्ट होना चाहिए, न मोहग्रस्त। सेवक या शिष्य में सदैव आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ने की इच्छा होनी चाहिए। उसे किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए और व्यर्थ की बातचीत से बचना चाहिए।
7 मनुष्य को सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के असली स्वार्थ (उद्देश्य) को देखना चाहिए और इसीलिए पत्नी, सन्तान, घर, भूमि, रिशतेदारों, मित्र सम्पत्ति इत्यादि से विरक्त रहना चाहिए।
8 जिस तरह जलने और प्रकाश करनेवाली अग्नि उस लकड़ी (ईंधन) से भिन्न होती है जो प्रकाश देने के लिए जलाई जाती है, उसी तरह शरीर के भीतर का द्रष्टा, स्वतः प्रकाशित आत्मा, उस भौतिक शरीर से भिन्न होता है, जिसे चेतना से प्रकाशित करना पड़ता है। इस तरह आत्मा तथा शरीर में भिन्न भिन्न गुण होते हैं और वे पृथक पृथक हैं।
9 ईंधन की दशा के अनुसार अग्नि जिस तरह सुप्त, प्रकट, क्षीण, तेज जैसे विविध रूपों में प्रकट हो सकती है, उसी तरह आत्मा भौतिक शरीर में प्रवेश करता है और शरीर के विशिष्ट लक्षणों को स्वीकार करता है।
10 सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की उत्पत्ति प्रकृति के गुणों से होती है, जो भगवान की शक्ति से विस्तार पाते हैं। जब जीव झूठे ही स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के गुणों को अपने ही असली स्वभाव के रूप में मान लेता है, तो संसार का जन्म होता है। किन्तु यह मोहमयी अवस्था असली ज्ञान द्वारा नष्ट की जा सकती है।
11 इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह अपने भीतर स्थित भगवान के निकट पहुँचे। भगवान के शुद्ध दिव्य अस्तित्व को समझ लेने पर मनुष्य को चाहिए कि वह धीरे-धीरे भौतिक जगत को स्वतंत्र सत्ता मानने के झूठे विचार को त्याग दे।
12 गुरु की उपमा यज्ञाग्नि के निचले काष्ठ से, शिष्य की उपमा ऊपरी काष्ठ से तथा गुरु द्वारा दिये जानेवाले प्रवचनों की उपमा इन दोनों काष्ठों के बीच में रखी तीसरी लकड़ी (मन्थन काष्ठ) से दी जा सकती है। गुरु द्वारा शिष्य को दिया गया दिव्य ज्ञान इनके संसर्ग से उत्पन्न होनेवाली अग्नि के समान है, जो अज्ञान को जलाकर भस्म कर डालता है और गुरु तथा शिष्य दोनों को परम सुख प्रदान करता है।
13 दक्ष गुरु से विनयपूर्वक श्रवण करने से दक्ष शिष्य में शुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है, जो प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न भौतिक मोह के प्रहार को पीछे भगा देता है। अन्त में यह शुद्ध ज्ञान स्वयं ही समाप्त हो जाता है, जिस तरह ईंधन का कोष जल जाने पर अग्नि ठंडी पड़ जाती है।
14-16 हे उद्धव, मैंने तुम्हें पूर्ण ज्ञान बतला दिया। किन्तु ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो मेरे निष्कर्ष का प्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि जीव का स्वाभाविक पद तो सकाम कर्म में निरत होना है और वे जीव को उसके कर्म से उत्पन्न सुख-दुख के भोक्ता के रूप में देखते हैं। इस भौतिकतावादी दर्शन के अनुसार जगत, काल, प्रामाणिक शास्त्र तथा आत्मा- ये सभी विविधता-युक्त तथा शाश्वत हैं और विकारों के निरन्तर प्रवाह के रूप में विद्यमान रहते हैं। यही नहीं, ज्ञान एक अथवा नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह विविध एवं परिवर्तनशील पदार्थों से उत्पन्न होता है। फलस्वरूप ज्ञान स्वयं भी परिवर्तनशील होता है। हे उद्धव, यदि तुम इस दर्शन को मान भी लो, तो भी जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग सदा बने रहेंगे, क्योंकि सारे जीवों को काल के प्रभाव के अधीन भौतिक शरीर स्वीकार करना होगा।
17 यद्यपि सकाम कर्म करनेवाला शाश्वत सुख की इच्छा करता है, किन्तु यह स्पष्ट देखने में आता है कि भौतिकतावादी कर्मीजन प्रायः दुखी रहते हैं और कभी-कभी ही तुष्ट होते हैं। इस तरह यह सिद्ध होता है कि वे न तो स्वतंत्र होते हैं, न ही अपना भाग्य उनके नियंत्रण में होता है। जब कोई व्यक्ति सदा ही दूसरे के नियंत्रण में रह रहा हो, तो फिर वह अपने सकाम कर्मों से किसी महत्वपूर्ण परिणाम की आशा कैसे रख सकता है?
18 संसार में यह देखा जाता है कि कभी कभी बुद्धिमान व्यक्ति भी सुखी नहीं रहता। इसी तरह कभी कभी महामूर्ख भी सुखी रहता है। भौतिक कार्यों को दक्षतापूर्वक सम्पन्न करके सुखी बनने की विचारधारा मिथ्या अहंकार का व्यर्थ प्रदर्शन मात्र है।
19 यदि लोग यह जान भी लें कि किस तरह सुख प्राप्त किया जाता है और किस तरह दुख से बचा जाता है, तो भी वे उस विधि को नहीं जानते, जिससे मृत्यु उनके ऊपर अपनी शक्ति का प्रभाव न डाल सके।
20 मृत्यु अच्छी नहीं लगती, और क्योंकि हर व्यक्ति फाँसी के स्थान पर ले जाये जाने वाले दण्डित व्यक्ति के समान है, तो फिर भौतिक वस्तुओं या उनसे प्राप्त तृप्ति से लोगों को कौन-सा सम्भव सुख मिल सकता है?
21 वह भौतिक सुख, जिसके बारे में हम सुनते रहते हैं, (यथा दैवी सुख-भोग के लिए स्वर्गलोक की प्राप्ति), हमारे द्वारा अनुभूत भौतिक सुख के ही समान है। ये दोनों ही ईर्ष्या, द्वेष, क्षय तथा मृत्यु से दूषित रहते हैं। इसलिए जिस तरह फसल के रोग, कीट या सूखा जैसी समस्याएँ उत्पन्न होने पर फसलें उगाना व्यर्थ हो जाता है, उसी तरह पृथ्वी पर या स्वर्गलोक में भौतिक सुख प्राप्त करने का प्रयास अनेक व्यवधानों के कारण निष्फल हो जाता है।
22 यदि कोई व्यक्ति किसी त्रुटि या कल्मष के बिना वैदिक यज्ञ तथा कर्मकाण्ड सम्पन्न करता है, तो उसे अगले जीवन में स्वर्ग में स्थान मिलेगा। किन्तु कर्मकाण्ड द्वारा प्राप्त किया जानेवाला यह फल भी काल के द्वारा नष्ट कर दिया जायेगा। अब इसके विषय में सुनो।
23 यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति देवताओं की तुष्टि के लिए यज्ञ सम्पन्न करता है, तो वह स्वर्गलोक जाता है, जहाँ वह देवताओं की ही तरह अपने कार्यों से अर्जित सभी प्रकार के स्वर्ग-सुख का भोग करता है।
24 स्वर्ग प्राप्त कर लेने के बाद यज्ञ करने वाला व्यक्ति चमचमाते वायुयान में बैठकर यात्रा करता है, जो उसे पृथ्वी पर उसके पुण्यकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होता है। वह गन्धर्वों द्वारा यशोगान किया जाकर तथा अतीव मोहक वस्त्र पहने स्वर्ग की देवियों से घिरकर जीवन का आनन्द लेता है।
25 यज्ञफल का भोक्ता स्वर्ग की सुन्दरियों को साथ लेकर ऐसे अद्भुत विमान में चढ़कर सैर सपाटे के लिए जाता है, जो रुनझुन शब्द करती घण्टियों से गोलाकार में सजाया रहता है और जहाँ भी चाहे उड़ जाता है। वह स्वर्ग के विहार उद्यानों में नितान्त सुख एवं आराम का अनुभव करते हुए इस पर विचार ही नहीं करता कि वह अपने पुण्यकर्मों के फल को समाप्त कर रहा है और शीघ्र ही मर्त्यलोक में जा गिरेगा।
26 यज्ञकर्ता तब तक स्वर्गलोक में जीवन का आनन्द लेता है, जब तक उसके पुण्यकर्मों का फल समाप्त नहीं हो जाता। किन्तु जब पुण्यफल चुक जाते हैं, तो नित्य काल की शक्ति द्वारा वह उसकी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग के विहार स्थलों से धकेल कर नीचे गिरा दिया जाता है।
27-29 यदि मनुष्य बुरी संगति के कारण अथवा इन्द्रियों को अपने वश में न कर पाने के कारण पापमय अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहता है, तो ऐसा व्यक्ति निश्चित है भौतिक इच्छाओं से पूर्ण व्यक्तित्व को जन्म देता है। इस तरह वह अन्यों के प्रति कंजूस, लालची तथा स्त्रियों के शरीरों का लाभ उठाने का सदैव इच्छुक बन जाता है। जब मन इस तरह दूषित हो जाता है, तो वह हिंसक तथा उग्र हो उठता है और वेदों के आदेशों के विरुद्ध अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए निरीह पशुओं का वध करने लगता है। भूत-प्रेतों की पूजा करने से ऐसा मोहग्रस्त व्यक्ति अवैध कार्यों की गिरफ्त में आ जाता है और नरक को जाता है, जहाँ उसे तमोगुण से प्राप्त भौतिक शरीर प्राप्त होता है। ऐसे अधम शरीर से वह दुर्भाग्यवश अशुभ कर्म करता रहता है, जिससे उसका भावी दुख बढ़ता जाता है, अतएव वह पुनः वैसा ही भौतिक शरीर स्वीकार करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ऐसा कौन-सा सुख हो सकता है, जिसके लिए वह अपने को ऐसे कार्यों में लगाता है, जो अपरिहार्य रूप से मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं?
30 स्वर्ग से लेकर नरक तक सभी लोकों में तथा उन समस्त महान देवताओं के लिए जो 1000 चतुर्युग तक जीवित रहते हैं, मुझ कालरूप के प्रति भय व्याप्त रहता है। यहाँ तक कि ब्रह्माजी, जिनकी आयु, 31,10,40,00,00,00,000 (इकतीस नील, दस खरब, चालीस अरब) वर्ष है, भी मुझसे डरे रहते हैं।
31 भौतिक इन्द्रियाँ पवित्र या पापमय कर्म उत्पन्न करती हैं और प्रकृति के गुण भौतिक इन्द्रियों को गति प्रदान करते हैं। जीव इन भौतिक इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों में पूरी तरह संलग्न रहकर सकाम कर्म के विविध फलों का अनुभव करता है।
32 जब तक जीव यह सोचता है कि प्रकृति के गुणों का अलग अलग अस्तित्व है, तब तक वह अनेक रूपों में जन्म लेने के लिए बाध्य होगा और वह अनेक प्रकार के भौतिक जीवन का अनुभव करेगा। इसलिए जीव प्रकृति के गुणों के अधीन सकाम कर्मों पर पूरी तरह आश्रित रहता है।
33 जो बद्धजीव प्रकृति के गुणों के अधीन होकर सकाम कर्मों पर निर्भर रहता है, वह मुझ भगवान से डरता रहता है, क्योंकि मैं उसके सकाम कर्मों के फल को लागू करता हूँ। जो लोग प्रकृति के गुणों की विविधता को यथार्थ मानकर भौतिकतावादी जीवन की अवधारणा स्वीकार करते हैं, वे भौतिक-भोग में अपने को लगाते हैं, फलस्वरूप वे सदैव शोक तथा दुख में डूबे रहते हैं।
34 जब प्रकृति के गुणों में उद्वेलन तथा अन्योन्य क्रिया होती है, तो जीव मेरा वर्णन सर्वशक्तिमान काल, आत्मा, वैदिक ज्ञान, ब्रह्माण्ड, स्वयं अपना स्वभाव, धार्मिक उत्सव आदि अनेक प्रकारों से करते हैं।
35 श्री उद्धव ने कहा: हे प्रभु, भौतिक शरीर के भीतर स्थित जीव प्रकृति के गुणों तथा इन गुणों से उत्पन्न कर्मों के द्वारा उपजे सुख तथा दुख से घिरा रहता है। यह कैसे सम्भव है कि वह इस भौतिक पाश से बँधा न हो? यह भी कहा जा सकता है कि जीव तो अन्ततः दिव्य है और उसे इस भौतिक जगत से कुछ भी लेना-देना नहीं है। तो फिर वह भौतिक प्रकृति द्वारा कभी बद्ध कैसे हो सकता है?
36-37 हे अच्युत भगवान, एक ही जीव कभी तो नित्य बद्ध कहा जाता है, तो कभी नित्य मुक्त। इसलिए जीव की वास्तविक स्थिति मेरी समझ में नहीं आ रही। हे प्रभु, आप दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देनेवालों में सर्वोपरि हैं। कृपा करके मुझे वे लक्षण समझाएँ, जिनसे यह बतलाया जा सके कि नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त जीव में क्या अन्तर है। वे किन विधियों से स्थित रहते हैं, जीवन का भोग करते हैं, खाते हैं, मल त्याग करते हैं, लेटते हैं, बैठते हैं या इधर-उधर जाते हैं ?
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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