jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय अठारह – ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप(1.18)

1 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान श्रीकृष्ण अद्भुत कार्य करनेवाले हैं। उनकी कृपा से महाराज परीक्षित द्रोणपुत्र के अस्त्र द्वारा अपनी माता के गर्भ में ही प्रहार किये जाने पर भी जलाये नहीं जा सके।

2 इसके अतिरिक्त, महाराज परीक्षित स्वेच्छा से सदैव भगवान के शरणागत रहते थे, अतएव वे उड़ने वाले सर्प के भय से, जो उन्हें ब्राह्मण बालक के कोपभाजन बनने के कारण काटनेवाला था, न तो भयभीत थे न अभिभूत थे।

3 तत्पश्चात, अपने समस्त संगियों को छोड़कर, राजा ने शिष्य-रूप में व्यास के पुत्र ( श्रील शुकदेव गोस्वामी ) की शरण ग्रहण की और इस प्रकार वे भगवान की वास्तविक स्थिति को समझ सके।

4 ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि जिन्होंने वैदिक स्तोत्रों से स्तुति किये जानेवाले भगवान की दिव्य कथाओं के लिए ही अपना जीवन अर्पित कर रखा है और जो निरन्तर भगवान के चरणकमलों का स्मरण करने में लगे हुए हैं, उन्हें अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में भी किसी प्रकार की भ्रान्ति होने का डर नहीं रहता ।

5 जब तक अभिमन्यु का महान-शक्तिशाली पुत्र संसार का सम्राट बना हुआ है, तब तक कलि के पनपने की कोई गुंजाइश नहीं है।

6 जिस दिन तथा जिस क्षण भगवान श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी को छोड़ा, उसी समय, समस्त अधार्मिक कृत्यों को बढ़ावा देनेवाला कलि इस संसार में आ गया।

7 महाराज परीक्षित मधुमक्खियों की तरह यथार्थवादी थे, जो केवल पुष्प के सार को ग्रहण करती हैं। वे यह भलीभाँति जानते थे कि इस कलियुग में कल्याणकारी वस्तुएँ तुरन्त ही अपना शुभ प्रभाव डालती हैं, जबकि अशुभ कर्मों को वास्तविक रूप में सम्पन्न करना पड़ता है (जिससे प्रभाव जमा सकें)। अतएव उन्होंने कभी भी कलि से ईर्ष्या नहीं की।

8 महाराज परीक्षित ने विचार किया कि अल्पज्ञ मनुष्य कलि को अत्यन्त शक्तिशाली मान सकते हैं, किन्तु जो आत्मसंयमी हैं, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं है। राजा बाघ के समान शक्तिमान थे और मूर्ख, लापरवाह मनुष्यों की रखवाली करते थे।

9 हे मुनियों, जैसा आपने मुझसे पूछा था, अब मैंने पवित्र राजा परीक्षित के इतिहास से सम्बन्धित भगवान कृष्ण की कथाओं की लगभग सब बातें सुनाई हैं।

10 जो लोग जीवन में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के इच्छुक हैं, उन्हें अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान के दिव्य कार्यकलापों तथा गुणों से सम्बन्धित सारी कथाएँ अत्यन्त विनीत भाव से श्रवण करनी चाहिए।

11 श्रेष्ठ मुनियों ने कहा: हे सौम्य सूत गोस्वामी! आप अनेक वर्षों तक जिएँ तथा शाश्वत यश प्राप्त करें, क्योंकि आप भगवान श्रीकृष्ण के कार्यकलापों के विषय में उत्तम ढंग से बता रहे हैं। हम जैसे मर्त्य प्राणियों के लिए यह अमृत के समान है।

12 हमने अभी-अभी इस सकाम कृत्य, यज्ञ की अग्नि को सम्पन्न करना प्रारम्भ किया है और हमारे कार्य में अनेक अपूर्णताएँ होने के कारण इसके फल की कोई निश्चितता नहीं है। हमारे शरीर धुएँ से काले हो चुके हैं, लेकिन हम भगवान गोविन्द के चरणकमलों के अमृत रूपी उस मधु से सचमुच तृप्त हैं, जिसे आप हम सबको वितरित कर रहे हैं।

13 भगवद्भक्त के साथ क्षण भर की संगति के महत्त्व की तुलना न तो स्वर्गलोक की प्राप्ति से, न भौतिक-मुक्ति की प्राप्ति से की जा सकती है। तो फिर उन सांसारिक वरदानों के विषय में क्या कहा जाय, जो भौतिक सम्पन्नता के रूप होते हैं और मर्त्यो के लिए हैं?

14 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण (गोविन्द) समस्त महान जीवों के एकमात्र आश्रय हैं और उनके दिव्य गुणों का मापन शिव तथा ब्रह्मा जैसे यौगिक शक्तियों के स्वामियों द्वारा भी नहीं किया जा सकता। तो भला जो रसास्वादन में पटु है, वह क्या कभी उनकी कथाओं के श्रवण द्वारा पूरी तरह तृप्त हो सकता है?

15 हे सूत गोस्वामी, आप विद्वान हैं तथा भगवान के शुद्ध भक्त हैं, क्योंकि आपकी सेवा का प्रमुख उद्देश्य भगवान हैं। अतएव आप कृपया हमें भगवान की लीलाएँ कह सुनायें, जो समस्त भौतिक विचारधारा से ऊपर हैं, क्योंकि हम ऐसा सन्देश प्राप्त करने के लिए आतुर हैं।

16 हे सूत गोस्वामी, कृपा करके भगवान की उन्हीं कथाओं का वर्णन करें, जिनसे महाराज परीक्षित, जिनकी बुद्धि मोक्ष पर केन्द्रित थी, उन भगवान के चरणकमलों को प्राप्त कर सके, जो पक्षीराज गरुड़ के आश्रय हैं। इन्हीं कथाओं का उच्चारण व्यास-पुत्र ( श्रील शुकदेव) द्वारा हुआ था।

17 अतः कृपा करके हमें अनन्त की कथाएँ सुनाएँ, क्योंकि वे पवित्र करनेवाली तथा सर्वश्रेष्ठ हैं। इन्हें ही महाराज परीक्षित को सुनाया गया था और वे भक्तियोग से परिपूर्ण होने के कारण शुद्ध भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं।

18 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: हे ईश्वर, यद्यपि हम मिश्र (संकर) जाति में उत्पन्न हैं, फिर भी हमें ज्ञान में उन्नत उन महापुरुषों की सेवा करने तथा उनका अनुगमन करने से ही जन्म अधिकार प्राप्त हो गया। ऐसे महापुरुषों से बातचीत करने से ही मनुष्य निम्नकुल में जन्म होने के कारण उत्पन्न अवगुणों से तुरन्त ही निर्मल हो जाता है।

19 उनके विषय में क्या कहा जाय, जो महान भक्तों के निर्देशन में अनन्त के पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं, जिनकी असीम शक्ति है? भगवान, जो शक्ति में असीम तथा गुणों में दिव्य हैं, वे अनन्त कहलाते हैं।

20 अब यह निश्चित हो गया कि वे (भगवान) अनन्त हैं और उनके तुल्य कोई भी नहीं है। फलस्वरूप उनके विषय में कोई भी पर्याप्त रूप से कह नहीं सकता । बड़े-बड़े देवता भी स्तुतियों के द्वारा जिस लक्ष्मी देवी की कृपा प्राप्त नहीं कर पाते, वही देवी भगवान की सेवा करती हैं, यद्यपि भगवान ऐसी सेवा के लिए अनिच्छुक रहते हैं ।

21 भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त भला ऐसा कौन है, जो परमेश्वर कहलाने के योग्य हो? ब्रह्माजी ने उनके पाँव के नाखूनों से निकलने वाले जल को भगवान शिवजी को मस्तक पर ग्रहण करने के निमित्त एकत्र किया। यही जल (गंगानदी) शिवजी समेत सारे ब्रह्माण्ड को शुद्ध बना रहा है।

22 परम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त आत्म-संयमी पुरुष, स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म मन सहित, एकाएक भौतिक आसक्ति से ओतप्रोत संसार को त्याग सकते हैं और जीवन के संन्यास आश्रम की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के लिए बाहर चले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप अहिंसा तथा वैराग्य उत्पन्न होते हैं।

23 हे सूर्य के समान शक्तिशाली ऋषियों, मैं आपको अपने ज्ञान के अनुसार विष्णु की दिव्य लीलाओं के वर्णन करने का प्रयत्न करूँगा। जिस प्रकार पक्षी आकाश में उतनी ही दूर तक उड़ते हैं, जितनी उनमें क्षमता होती है, उसी प्रकार विद्वान भक्त-गण भगवान की लीलाओं का वर्णन अपनी-अपनी अनुभूति के अनुसार करते हैं।

24-25 एक बार महाराज परीक्षित वन में धनुष-बाण से शिकार करते हुए, हिरणों का पीछा करते-करते अत्यन्त थक गये और उन्हें अत्यधिक भूख तथा प्यास लग आई। जलाशय की खोज करते हुए वे सुविख्यात शमीक ऋषि के आश्रम में प्रविष्ट हुए, जहाँ उन्होंने आँखें बन्द किये, शान्त भाव से बैठे मुनि को देखा ।

26 मुनि के इन्द्रियाँ, श्वास, मन तथा बुद्धि सभी ने भौतिक कार्यकलाप बन्द कर दिये थे और वे तीनों (जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्ति) स्थितियों से अलग होकर, परम पूर्ण के समान गुणात्मक दृष्टि से दिव्य पद प्राप्त करके समाधि में स्थित थे।

27 ध्यान-मग्न मुनि मृग-चर्म लपेटे थे और इनकी लम्बी जटाएँ उनके सारे शरीर पर बिखरी हुई थीं। प्यास के मारे सूखे तालू वाले राजा ने उनसे जल माँगा।

28 आसन, बैठने का स्थान, जल तथा मधुर वचनों के द्वारा किसी प्रकार से स्वागत न किये जाने पर, राजा ने अपने आपको उपेक्षित समझा और इस तरह सोचते हुए वे क्रुद्ध हो गये।

29 हे ब्राह्मणों, ब्राह्मण मुनि के प्रति राजा का क्रोध तथा द्वेष अभूतपूर्व था, क्योंकि परिस्थितियों ने उन्हें भूखा तथा प्यासा बना दिया था।

30 इस प्रकार अपमानित होकर, राजा ने लौटते समय अपने धनुष से एक मृत सर्प उठाया और उसे क्रोधवश मुनि के कंधे पर रख दिया; तब वे अपने राजमहल को लौट आये।

31 लौटने पर वे सोचने लगे तथा मन ही मन तर्क करने लगे कि क्या मुनि इन्द्रियों को एकाग्र करके तथा आँखें बन्द किये सचमुच समाधि में थे, अथवा वे निम्न क्षत्रिय का सत्कार करने से बचने के लिए समाधि का स्वाँग रचा रहे थे?

32 उस मुनि का एक पुत्र था, जो ब्राह्मण-पुत्र होने के कारण अत्यन्त शक्तिमान था। जब वह अनुभवहीन बालकों के साथ खेल रहा था, तभी उसने अपने पिता की विपत्ति सुनी, जो राजा द्वारा लाई गई थी। वह बालक वहीं पर इस प्रकार बोला।

33 [ब्राह्मण बालक शृंगी ने कहा:] अरे! शासकों के पापों को तो देखो, जो अधिशासी-दास-सिद्धान्तों के विरुद्ध, कौवों तथा द्वार के रखवाले कुत्तों की तरह अपने स्वामियों पर पाप ढाते हैं।

34 राजाओं की सन्तानें निश्चित रूप से द्वाररक्षक कुत्ते नियुक्त हुई हैं और उन्हें द्वार पर ही रहना चाहिए। तो किस आधार पर ये घर में घुसकर अपने स्वामी की ही थाली में खाने का दावा करते हैं ?

35 सबों के परम शासक भगवान श्रीकृष्ण के प्रस्थान के पश्चात, हमारे रक्षक तो चले गये, लेकिन ये उपद्रवी फल-फूल रहे हैं। अतएव इस मामले को मैं अपने हाथ में लेकर उन्हें दण्ड दूँगा। अब मेरे पराक्रम को देखो।

36 क्रोध से लाल-लाल आँखें किये, अपने संगियों से कहकर, उस ऋषिपुत्र ने कौशिक नदी के जल का स्पर्श किया और निम्नलिखित शब्दरूपी वज्र छोड़ा।

37 उस ब्राह्मण-पुत्र ने राजा को इस प्रकार शाप दिया: आज से सातवें दिन अपने वंश के इस दुष्ट (महाराज परीक्षित) को तक्षक सर्प डस लेगा, क्योंकि इसने मेरे पिता को अपमानित करके शिष्टाचार के नियमों को तोड़ा है।

38 तत्पश्चात वह बालक आश्रम को लौट आया, तो उसने अपने पिता के गले में सर्प देखा और उद्विग्नता के कारण वह जोर से चिल्ला पड़ा।

39 हे ब्राह्मणों, अंगिरा मुनि के वंश में उत्पन्न उस ऋषि ने अपने पुत्र का चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और अपनी गर्दन के चारों ओर मरा हुआ सर्प देखा।

40 उन्होंने मरा हुआ सर्प एक ओर फेंक दिया और अपने पुत्र से पूछा कि वह क्यों रो रहा है? क्या किसी ने उसे चोट पहुँचाई है? यह सुनकर बालक ने जो कुछ घटना घटी थी, उसे कह सुनाया।

41 पिता ने अपने पुत्र से सुना कि राजा को शाप दिया गया है, यद्यपि उसे इस तरह दण्डित नहीं किया जाना था, क्योंकि वह समस्त मनुष्यों में श्रेष्ठ था। ऋषि ने अपने पुत्र को शाबाशी नहीं दी, अपितु उलटे वे यह कहकर पछताने लगे, हाय! मेरे पुत्र ने कितना बड़ा पाप-कर्म कर लिया। उसने एक तुच्छ अपराध के लिए इतना भारी दण्ड दे दिया है।

42 हे बालक, तुम्हारी बुद्धि अपरिपक्व है, अतएव तुम्हें ज्ञान नहीं है कि राजा मनुष्यों में सर्वोत्तम और भगवान के तुल्य होता है। उसकी तुलना कभी भी सामान्य लोगों के साथ नहीं की जा सकती। उसके राज्य के नागरिक उसके दुर्दम तेज से सुरक्षित रहकर समृद्धिमय जीवन व्यतीत करते हैं।

43 हे बालक, एकछत्र राजसत्ता द्वारा रथचक्र धारण करनेवाले भगवान का प्रतिनिधित्व किया जाता है और जब राजसत्ता ही मिट जाती है, तो सारा संसार चोरों से भर जाता है, जो तितर-बितर मेमनों की भाँति असुरक्षित प्रजा को तुरन्त परास्त कर देते हैं।

44 राजा की शासन-प्रणाली के समाप्त होने तथा धूर्तों एवं चोरों द्वारा लोगों की सम्पत्ति लूटने के कारण बड़े-बड़े सामाजिक विघ्न आयेंगे; लोग हताहत किये जायेंगे; पशु तथा स्त्रियाँ चुराई जायेंगी और इन सारे पापों के उत्तरदायी होंगे हम सब ।

45 उस समय सामान्य लोग जाति (वर्ण) तथा समाज-व्यवस्था (आश्रम) के गुणात्मक कार्यों के रूप में प्रगतिशील सभ्यता के मार्ग से तथा वैदिक आदेशों से धीरे-धीरे गिर जायेंगे। इस प्रकार वे इन्द्रियतृप्ति के निमित्त आर्थिक विकास के प्रति अधिक आकृष्ट होंगे जिसके फलस्वरूप कुत्तों तथा बन्दरों के स्तर की अवांछित जनसंख्या को बढ़ावा मिलेगा।

46 सम्राट परीक्षित एक पवित्र राजा हैं। वे अत्यन्त प्रसिद्ध हैं और उच्चकोटि के भगवदभक्त हैं। वे राजाओं में सन्त (राजर्षि) हैं और उन्होंने अनेक अश्वमेध यज्ञ किये हैं। जब ऐसा राजा, भूख तथा प्यास का मारा, थका-हारा होता है, तो वह किसी भी तरह से शाप दिये जाने के योग्य नहीं होता।

47 तब ऋषि ने सर्वव्यापी भगवान से अपने अप्रौढ़ तथा बुद्धिहीन पुत्र को क्षमा करने के लिए प्रार्थना की, जिसने ऐसे व्यक्ति को शाप देने का महान पाप किया था, जो समस्त पापों से मुक्त था और पराश्रित एवं सभी प्रकार से रक्षा किये जाने के योग्य था।

48 भगवान के भक्त इतने सहिष्णु होते हैं कि अपमानित होने, ठगे जाने, शापित होने, विचलित किये जाने, उपेक्षित होने अथवा जान से मारे जाने पर भी कभी बदला लेने का विचार नहीं करते।

49 इस प्रकार मुनि ने अपने पुत्र द्वारा किये गए पाप के लिए पश्चाताप किया। उसने राजा द्वारा किये गए अपमान को गम्भीरता से ग्रहण नहीं किया।

50 सामान्यतया अध्यात्मवादी अन्यों द्वारा संसार के द्वन्द्वों में लगाये जाने पर भी व्यथित नहीं होते। न ही वे सांसारिक वस्तुओं में आनन्द लेते हैं, क्योंकि वे अध्यात्म में लगे रहते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सत्रह – कलि को दण्ड तथा पुरस्कार (1.17)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: उस स्थान पर पहुँचकर महाराज परीक्षित ने देखा कि एक नीच जाति का शूद्र, राजा का वेश बनाये, एक गाय तथा एक बैल को लट्ठ से पीट रहा था, मानो उनका कोई स्वामी न हो।

2 बैल इतना धवल था कि जैसे श्वेत कमल पुष्प हो। वह उस शूद्र से अत्यधिक भयभीत था, जो उसे मार रहा था। वह इतना डरा हुआ था कि एक ही पैर पर खड़ा थरथरा रहा था और पेशाब कर रहा था।

3 यद्यपि गाय उपयोगी है, क्योंकि उससे धर्म प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु अब वह दीन तथा बछड़े से रहित हो गई थी। उसके पाँवों पर शूद्र प्रहार कर रहा था। उसकी आँखों में आँसू थे और वह अत्यन्त दुखी तथा कमजोर थी। वह खेत की थोड़ी-सी घास के लिए लालायित थी।

4 धनुष-बाण से सज्जित तथा स्वर्ण-जटित रथ पर आसीन, महाराज परीक्षित उससे (शूद्र से) मेघ के समान गर्जना करनेवाली गम्भीर वाणी से बोले।

5 अरे, तुम हो कौन? तुम बलवान प्रतीत हो रहे हो, फिर भी तुम उन असहायों को मारने का साहस कर रहे हो, जो मेरे संरक्षण में हैं। वेष से तुम देवतुल्य पुरुष (राजा) बने हुए हो, किन्तु अपने कार्यों से तुम द्विज क्षत्रियों के सिद्धान्तों का उल्लंघन कर रहे हो।

6 अरे धूर्त, क्या तुम इस निर्दोष गाय को मारने का दुस्साहस इसीलिए कर रहे हो कि भगवान कृष्ण तथा गाण्डीवधारी अर्जुन दृष्टि से बाहर हैं? चूँकि तुम इस निर्दोष को एकान्त स्थान में मार रहे हो, अतएव तुम अपराधी हो और वध किये जाने के योग्य हो।

7 तब उन्होंने (महाराज परीक्षित ने) बैल से पूछा: अरे, तुम कौन हो? तुम श्वेत कमल जैसे धवल बैल हो या कोई देवता हो? तुम अपने तीन पैर खो चुके हो और केवल एक पैर पर चल रहे हो।

8 क्या तुम बैल के रूप में कोई देवता हो, जो हमें इस तरह क्लेश पहुँचा रहे हो? कुरुवंश के राजाओं के बाहुबल से सुरक्षित राज्य में, आज मैं पहली बार तुम्हें आँखों में आँसू भरे शोक करते हुए देख रहा हूँ। आज तक किसी ने पृथ्वीतल पर राजा की उपेक्षा के कारण आँसू नहीं बहाए।

9 हे सुरभि पुत्र, अब तुम और शोक न करो। तुम्हें इस अधम जाति के शूद्र से डरने की आवश्यकता नहीं है तथा हे गो-माता, जब तक मैं शासक या खलों के दमनकर्ता के रूप में हूँ, तब तक तुम्हें रोने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा सभी तरह से कल्याण होगा।

10-11 हे साध्वी, यदि राजा के राज्य में भी सभी प्रकार के जीव त्रस्त रहें, तो राजा की ख्याति, उसकी आयु तथा उसका उत्तम पुनर्जन्म (परलोक) नष्ट हो जाते हैं। यह राजा का प्रधान कर्तव्य है कि जो पीड़ित हों, सर्वप्रथम उनके कष्टों का शमन किया जाय। अतएव मैं इस अत्यन्त दुष्ट व्यक्ति को अवश्य मारूँगा, क्योंकि यह अन्य जीवों के प्रति हिंसक है।

12 उन्होंने (महाराज परीक्षित ने) बैल को बारम्बार सम्बोधित करते हुए इस तरह पूछा: हे सुरभि-पुत्र, तुम्हारे तीन पाँवो को किसने काट लिया है? उन राजाओं के राज्य में जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के नियमों के आज्ञाकारी हैं, तुम्हारे समान दुखी कोई नहीं है।

13 हे वृषभ, तुम निरपराध हो और पूर्णतया ईमानदार हो, अतएव मैं तुम्हारे कल्याण की कामना करता हूँ। कृपया मुझे अंग-भंग करनेवाले दुष्ट के बारे में बताओ, जो पृथा के पुत्रों के यश को कलंकित कर रहा है।

14 निरपराध जीवों को जो कोई भी कष्ट पहुँचाता है, उसे चाहिए कि विश्व में जहाँ कहीं भी हो, मुझसे डरे। दुष्टों का दमन करने से निरपराध व्यक्ति को स्वतः लाभ पहुँचता है।

15 जो उदण्ड व्यक्ति निरपराधियों को सता कर अपराध करता है, वह मेरे द्वारा उखाड़ फेंका जायेगा, चाहे वह बाजूबन्द तथा अन्य अलंकारों से युक्त स्वर्ग का निवासी ही क्यों न हो।

16 शासक का यह परम धर्म है कि कानून-पालन करने वाले व्यक्तियों को सभी प्रकार से संरक्षण प्रदान करे और जो सामान्य दिनों में, जब आपातकाल नहीं रहता, शास्त्रों के अध्यादेशों से विपथ हो जाते हैं, उन्हें दण्ड दे।

17 धर्म ने कहा: अभी आपने जो शब्द कहे हैं, वे पाण्डववंशीय व्यक्ति के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं। पाण्डवों के भक्तिपूर्ण गुणों से मोहित होकर ही भगवान कृष्ण ने दूत का कर्तव्य निभाया।

18 हे पुरुषश्रेष्ठ, यह निश्चित कर पाना अत्यन्त कठिन है कि किस दुष्ट ने हमें कष्ट पहुँचाया है, क्योंकि हम सैद्धांतिक दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न मतों से भ्रमित हैं।

19 सभी प्रकार के द्वैत से इनकार करनेवाले कतिपय दार्शनिक यह घोषित करते हैं कि मनुष्य अपने सुख तथा दुख के लिए स्वयं ही उत्तरदायी हैं। अन्य लोग कहते है कि दैवी शक्तियाँ इसके लिए जिम्मेदार हैं, जबकि कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं कि इसके लिए कर्म जिम्मेदार है और जो निपट भौतिकतावादी हैं, वे मानते हैं कि प्रकृति ही इसका अन्तिम कारण है।

20 कुछ ऐसे भी चिन्तक हैं, जिनका विश्वास है कि न तो तर्क द्वारा कष्ट का कारण निश्चित किया जा सकता है, न उसे कल्पना से जाना जा सकता है, न ही शब्दों द्वारा उसे व्यक्त किया जा सकता है। हे राजर्षि, आप अपनी बुद्धि से यह सब सोचकर अपने आप निर्णय करें।

21 सूत गोस्वामी ने कहा: हे ब्राह्मणों मे श्रेष्ठ, धर्म को इस तरह बोलते सुनकर, सम्राट परीक्षित अत्यन्त संतुष्ट हुए और बिना किसी त्रुटि या खेद के उन्होंने इस तरह उत्तर दिया।

22 राजा ने कहा: अहो! तुम तो बैल के रूप में हो। तुम तो धर्म के सत्य को जानते हो और तुम सिद्धान्त के अनुसार बोल रहे हो कि अधार्मिक कर्मों के अपराधी के लिए वांछित गन्तव्य (गति) वही है, जो उस अपराधी की पहचान करनेवाले की है। तुम साक्षात धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो।

23 इस प्रकार निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान की शक्तियाँ अचिन्त्य हैं। कोई न तो मानसिक चिन्तन द्वारा, न ही शब्द-चातुरी द्वारा उनका अनुमान लगा सकता है।

24 सत्ययुग में तुम्हारे चारों पैर तपस्या, पवित्रता, दया तथा सच्चाई के चार नियमों द्वारा स्थापित थे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार, कामाशक्ति तथा नशे के रूप में सर्वत्र व्याप्त अधर्म के कारण तुम्हारे तीन पाँव टूट चुके हैं।

25 अब तुम केवल एक पाँव पर खड़े हो, जो तुम्हारा सत्य है और तुम अब किसी न किसी तरह से जी रहे हो। किन्तु छल से फूलने-फलने वाला यह कलह-रूप कलि उस पाँव को भी नष्ट करना चाह रहा है।

26 निश्चय ही पृथ्वी का बोझ भगवान द्वारा तथा अन्यों द्वारा भी कम किया गया था। जब वे अवतार के रूप में विद्यमान थे, तो उनके शुभ पदचिन्हों द्वारा समस्त कल्याण सम्पन्न होता था।

27 अब यह सती दुर्भाग्यवश भगवान द्वारा परित्यक्त होने के कारण, अपने नेत्रों में अश्रु भरकर अपने भविष्य (भाग्य) के लिए शोक कर रही है, क्योंकि अब वह शासक के जैसा स्वाँग करने वाले निम्न जाति के पुरुषों द्वारा शासित तथा भोग्य है।

28 इस प्रकार, एक साथ हजार शत्रुओं से अकेले लड़ सकनेवाले महाराज परीक्षित ने धर्म तथा पृथ्वी को सान्त्वना दी। तब उन्होंने समस्त अधर्म के कारण साक्षात कलि को मारने के लिए अपनी तेज तलवार निकाल ली।

29 जब कलि ने समझ लिया कि राजा उसको मार डालना चाह रहा है, तो उसने तुरन्त राजा का वेश त्याग दिया और भयभीत होकर अपना सिर झुका कर पूर्णरूप से उनके समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया।

30 शरणागत के रक्षक तथा इतिहास में प्रशंसनीय महाराज परीक्षित ने उस दीन शरणागत तथा पतित कलि को मारा नहीं, अपितु वे दयापूर्वक हँसने लगे, क्योंकि वे दीनवत्सल जो हैं।

31 राजा ने इस प्रकार कहा: हम अर्जुन के यश के उत्तराधिकारी हैं और चूँकि तुम हाथ जोड़कर मेरी शरण में आये हो, अतएव तुम्हें अपने प्राणों का भय नहीं होना चाहिए। लेकिन तुम मेरे राज्य में रह नहीं सकते, क्योंकि तुम अधर्म के मित्र हो।

32 यदि कलि रूपी अधर्म को नर-देवता अर्थात किसी कार्यकारी प्रशासक के रूप में कर्म करने दिया जाता है, तो निश्चय ही लोभ, असत्य, डकैती, अशिष्टता, विश्वासघात, दुर्भाग्य, कपट, कलह तथा दम्भ जैसे अधर्म का बोलबाला हो जायेगा।

33 अतएव, हे अधर्म के मित्र, तुम ऐसे स्थान में रहने के योग्य नहीं हो जहाँ पर बड़े-बड़े पण्डित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न करने के लिए सत्य तथा धार्मिक नियमों के अनुसार यज्ञ करते हैं।

34 समस्त यज्ञोत्सवों में यद्यपि कभी-कभी कोई देवता की पूजा की जाती है, लेकिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को इसलिए पूजा जाता है, क्योंकि वे प्रत्येक के अन्तरात्मा हैं, और वायु के समान भीतर तथा बाहर विद्यमान रहते हैं। इस तरह केवल वे ही हैं, जो पूजा करने वाले का समग्र कल्याण करते हैं।

35 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार महाराज परीक्षित द्वारा आदेश दिये जाने पर कलि भय के मारे थरथराने लगा। राजा को अपने समक्ष यमराज के समान मारने के लिए उद्यत देखकर कलि ने राजा से इस प्रकार कहा।

36 हे राजा, मैं आपकी आज्ञा से चाहे जहाँ कहीं भी रहूँ और जहाँ कहीं भी देखूँ, वहाँ केवल आपको ही धनुष-बाण लिए देखूँगा।

37 अतएव हे धर्मरक्षकों में श्रेष्ठ, कृपा करके मेरे लिए कोई स्थान निश्चित कर दें, जहाँ मैं आपके शासन के संरक्षण में स्थायी रूप से रह सकूँ ।

38 सूत गोस्वामी ने कहा: कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी, जहाँ जुआ खेलना, शराब पीना, वेश्यावृत्ति तथा पशु-वध होते हों।

39 कलि ने जब कुछ और याचना की, तो राजा ने उसे उस स्थान में रहने की अनुमति प्रदान की जहाँ सोना उपलब्ध हो, क्योंकि जहाँ-जहाँ स्वर्ण होता है, वहीं-वहीं असत्य, मद, काम, ईर्ष्या तथा वैमनस्य रहते हैं।

40 इस प्रकार उत्तरा के पुत्र, महाराज परीक्षित के निर्देश से कलि को उन पाँच स्थानों में रहने की अनुमति मिल गई।

41 अतएव जो कोई भी, विशेष रूप से राजा, धर्मोपदेशक, जननेता, ब्राह्मण तथा संन्यासी जो अपनी भलाई चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्त चार अधार्मिक कार्यों के सम्पर्क में कभी नहीं आना चाहिए।

42 तत्पश्चात राजा ने धर्म-रूप बैल के विनष्ट पैरों को पुनः स्थापित किया और आश्वासन देनेवाले कार्यों से पृथ्वी की दशा में काफी सुधार किये।

43-44 वे ही सर्वाधिक भाग्यशाली सम्राट महाराज परीक्षित, जिन्हें महाराज युधिष्ठिर ने वन जाते समय हस्तिनापुर का राज्य सौंपा था, अब कुरुवंशी राजाओं के कार्यों से ख्याति प्राप्त करके अत्यन्त सफलतापूर्वक संसार पर शासन कर रहे हैं।

45 अभिमन्यु पुत्र, महाराज परीक्षित, इतने अनुभवी हैं कि उनके पटु शासन तथा संरक्षकत्व के बल पर तुम सब इस प्रकार का यज्ञ सम्पन्न कर रहे हो।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सोलह – परीक्षित ने कलियुग का सत्कार किस तरह किया (1.16)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: हे विद्वान ब्राह्मणों, तब महाराज परीक्षित श्रेष्ठ द्विज ब्राह्मणों के आदेशों के अनुसार महान भगवदभक्त के रूप में संसार पर राज्य करने लगे। उन्होंने उन महान गुणों के द्वारा शासन चलाया, जिनकी भविष्यवाणी उनके जन्म के समय पटु ज्योतिषियों ने की थीं।

2 राजा परीक्षित ने राजा उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया और उससे उन्हें ज्येष्ठ पुत्र महाराज जनमेजय सहित चार पुत्र प्राप्त हुए।

3 महाराज परीक्षित ने कृपाचार्य को अपना गुरु चुनने के बाद गंगा के तट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किये। इन्हें आगन्तुकों एवं निमंत्रितों को पर्याप्त दक्षिणा देकर सम्पन्न किया गया। इन यज्ञों में सामान्य लोग भी देवताओं का दर्शन पा सके।

4 एक बार, जब महाराज परीक्षित विश्व-दिग्विजय करने निकले, तो उन्होंने देखा कि कलियुग का स्वामी, जो शूद्र से भी निम्न था, राजा का वेश धारण करके गाय तथा बैल की जोड़ी के पाँवों पर प्रहार कर रहा था। राजा ने उसे पर्याप्त दण्ड देने के लिए तुरन्त पकड़ लिया।

5 शौनक ऋषि ने पूछा: महाराज परीक्षित ने उसे केवल दण्ड क्यों दिया, जबकि वह शूद्रों में अधम था, उसने राजा का वेश बना रखा था तथा गाय पर पाद प्रहार किया था? ये सब घटनाएँ यदि भगवान कृष्ण की कथा से सम्बन्धित हों तो कृपया इनका वर्णन करें।

6 भगवान के भक्त भगवान के चरणकमलों से प्राप्त मधु के चाटने के आदी हैं। उन कथा प्रसंगों से क्या लाभ जो मनुष्य के बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ नष्ट करें?

7 हे सूत गोस्वामी, मनुष्यों में से कुछ ऐसे हैं, जो मृत्यु से मुक्ति पाने के और शाश्वत जीवन प्राप्त करने के इच्छुक होते हैं। वे मृत्यु के नियंत्रक यमराज को बुलाकर वध किये जाने की क्रिया से बच जाते हैं।

8 जब तक सबों की मृत्यु के कारण यमराज यहाँ पर उपस्थित हैं, तब तक किसी की मृत्यु नहीं होगी। ऋषियों ने मृत्यु के नियंत्रक यमराज को आमंत्रित किया है, जो भगवान के प्रतिनिधि हैं। उनकी पकड़ में आनेवाले सारे जीवों को भगवान की दिव्य लीलाओं की इस वार्ता के रूप में मृत्युरहित अमृत का श्रवण करने का लाभ उठाना चाहिए।

9 अल्प बुद्धि तथा कम आयु वाले आलसी मनुष्य रात को सोने में तथा दिन को व्यर्थ के कार्यों में बिता देते हैं।

10 सूत गोस्वामी ने कहा: जब महाराज परीक्षित कुरु-साम्राज्य की राजधानी में रह रहे थे, तो अपने राज्य की सीमा के भीतर कलियुग के लक्षणों को प्रवेश होते देखा। जब उन्हें इसका पता चला, तो उन्हें यह रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। लेकिन इससे उन्हें उसके विरुद्ध लड़ने का अवसर अवश्य प्राप्त हो सका। अतएव उन्होंने अपना धनुष-बाण उठाया और सैनिक कार्यवाही के लिए सन्नद्ध हो गये।

11 महाराज परीक्षित काले घोड़ों द्वारा खींचे जानेवाले रथ पर सवार हो गये। उनकी ध्वजा पर सिंह का चिन्ह अंकित था। इस प्रकार सुसज्जित होकर तथा सारथियों, अश्वारोहियों, हाथियों तथा पैदल सैनिकों से घिरे हुए, उन्होंने सभी दिशाएँ जीतने के लिए राजधानी से प्रस्थान किया।

12 तब महाराज परीक्षित ने पृथ्वी-लोक के समस्त भागों – भद्राश्व, केतुमाल, भारत, कूरुजांगल का उत्तरी भाग, किम्पुरुष इत्यादि को जीत लिया और उनके शासकों से भेंटें वसूल कीं।

13-15 राजा जहाँ कहीं भी जाते, उन्हें निरन्तर अपने उन महान पूर्वजों का यशोगान सुनने को मिलता, जो सभी भगवद्भक्त थे, तथा भगवान श्रीकृष्ण के यशस्वी कार्यों की गाथा सुनने को भी मिलती। वे यह भी सुनते कि किस तरह वे स्वयं अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रचण्ड ताप से भगवान कृष्ण द्वारा बचाये गये थे। लोग वृष्णि तथा पृथा-वंशियों के मध्य अत्यधिक स्नेह का भी उल्लेख करते, क्योंकि पृथा भगवान केशव के प्रति अत्यधिक श्रद्धावान थी। राजा ने ऐसे यशोगान करनेवालों से अत्यधिक प्रसन्न होकर परम सन्तोष के साथ अपनी आँखें खोली। उदारतावश उन्होंने प्रसन्न होकर, उन्हें मूल्यवान मालाएँ तथा वस्त्र भेंट किये।

16 महाराज परीक्षित ने सुना कि जिन भगवान कृष्ण (विष्णु) की आज्ञा का पालन सारा जगत करता है, उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा से पाण्डु के विनीत पुत्रों की उनकी इच्छानुसार सभी प्रकार से सेवाएँ कीं, जिनमें सारथी बनने से लेकर अग्रपूजा ग्रहण करने तथा दूत बनने, मित्र बनने, रात्रि में रक्षक बनकर सेवाएँ करने के कार्य सम्मिलित हैं। उन्होंने सेवक की भाँति पाण्डवों की आज्ञा का पालन किया तथा आयु में छोटों की भाँति उन्हें प्रणाम किया। जब महाराज परीक्षित ने यह सब सुना, तो वे भगवान के चरणकमलों की भक्ति से अभिभूत हो उठे।

17 अब तुम लोग मुझसे वह घटना सुन सकते हो, जो तब घटी, जब महाराज परीक्षित अपने पूर्वजों की उत्तम वृत्तियों के विषय में सुनते हुए तथा उन विचारों में डुबे हुए अपने दिन बिता रहे थे।

18 साक्षात धर्म, बैल के रूप में विचरण कर रहा था। उसे गाय के रूप में साक्षात पृथ्वी मिली, जो ऐसी माता के समान शोकग्रस्त दिखाई पड़ी, जो अपना पुत्र खो चुकी हो। उसकी आँखों में आँसू थे और उसके शरीर का सौन्दर्य उड़ गया था। धर्म ने पृथ्वी से इस प्रकार प्रश्न किया।

19 धर्म ने (बैल रूप में) पूछा: हे महोदया, आप स्वयं स्वस्थ तथा प्रसन्न तो हैं? आप शोक की छाया से आवृत क्यों हैं? आपके मुख से ऐसा लगता है कि आप म्लान पड़ गई हैं। क्या आपको कोई भीतरी रोग हो गया है या आप अपने किसी दूर स्थित सम्बन्धी के विषय में सोच रही हैं?

20 मेरे तीन पाँव नहीं रहे और अब मैं केवल एक पाँव पर खड़ा हूँ। क्या आप मेरी इस दशा पर शोक कर रही हैं या इस बात पर कि अब आगे अवैध मांस-भक्षक आपका शोषण करेंगे? या आप इसलिए दुखी हैं कि अब देवताओं को यज्ञ की बलि में से अपना हिस्सा नहीं मिल रहा, क्योंकि इस समय कोई यज्ञ सम्पन्न नहीं हो रहे? या आप दुर्भिक्ष तथा सूखे के कारण दुखी जीवों के लिए दुखित हो रही हैं?

21 क्या आपको उन दुखियारी स्त्रियों तथा बच्चों पर दया आ रही है, जिन्हें चरित्रहीन पुरुषों द्वारा अकेले छोड़ दिया गया हैं? अथवा आप इसलिए दुखी है कि ज्ञान की देवी अधर्म में रत ब्राह्मणों के हाथ में है? या आप यह देख कर दुखी हैं कि ब्राह्मणों ने उन राजकुलों का आश्रय ग्रहण कर लिया है, जो ब्राह्मण संस्कृति का आदर नहीं करते?

22 अब तथाकथित प्रशासक इस कलियुग के प्रभाव से मोहग्रस्त हो गये हैं और इस तरह उन्होंने राज्य के सारे मामलों को अस्त-व्यस्त कर रखा है। क्या आप इस कुव्यवस्था के लिए शोक कर रही हैं? अब सामान्य जनता खाने, पीने, सोने तथा सहवास के विधि-विधानों का पालन नहीं कर रही है और वह सारे कार्य कहीं भी और कैसे भी करने के लिए सन्नध्द रहती है। क्या आप इस कारण से अप्रसन्न हैं?

23 हे माता पृथ्वी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि ने तुम्हारे भारी बोझ को उतारने के लिए ही श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं अवतार लिया। यहाँ के उनके सारे कार्य दिव्य हैं और वे मोक्ष-पथ को पक्का करनेवाले हैं। अब आप उनकी उपस्थिति से विहीन हो गई हैं। शायद अब आप उन्हीं कार्यों को सोच रही हैं और उनकी अनुपस्थिति में दुखी हो रही हैं।

24 हे माता, आप सारे धन की खान हैं। कृपया मुझे अपने उन कष्टों का मूल कारण बतायें, जिससे आप इस दुर्बल अवस्था को प्राप्त हुई हैं। मैं सोचता हूँ कि अत्यन्त बलवानों को भी जीतनेवाले प्रबल काल ने देवताओं द्वारा वन्दनीय आपके सारे सौभाग्य को छीन लिया है।

25 (गाय के रूप में) पृथ्वी देवी ने (बैल-रूप में) धर्म-रूप पुरुष को इस प्रकार उत्तर दिया-हे धर्म, आपने मुझसे जो भी पूछा है, वह आपको ज्ञात हो जायेगा। मैं आपके उन सारे प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करूँगी। कभी आप भी अपने चार पाँवों द्वारा पालित थे और आपने भगवान की कृपा से सारे विश्व में सुख की वृद्धि की थी।

26-30 उनमें निम्नलिखित गुण तथा अन्य दिव्य गुण पाये जाते हैं, जो शाश्वत रूप से विद्यमान रहते हैं और उनसे कभी विलग नहीं होते। ये हैं :-- (1) सच्चाई, (2) स्वच्छता, (3) दूसरे के दुखों को सह न पाना, (4) क्रोध को नियंत्रित करने की शक्ति, (5) आत्मतुष्टि, (6) निष्कपटता, (7) मन की स्थिरता, (8) इन्द्रियों का संयम, (9) उत्तरदायित्व, (10) समता, (11) सहनशीलता, (12) समदर्शिता, (13) आज्ञाकारिता, (14) ज्ञान, (15) इन्द्रिय भोग से अनासक्ति, (16) नायकत्व, (17) बहादुरी, (18) प्रभाव, (19) असम्भव को सम्भव बनाना, (20) कर्तव्य पालन, (21) पूर्ण स्वतंत्रता, (22) कार्य कुशलता, (23) सौन्दर्यमयता, (24) धैर्य, (25) दयालुता, (26) उदारता, (27) विनय, (28) शील, (29) संकल्प, (30) ज्ञान की पूर्णता, (31) उपयुक्त दक्षता, (32) समस्त भोग विषयों का स्वामित्व, (33) प्रसन्नता, (34) स्थिरता, (35) आज्ञाकारिता, (36) यश, (37) पूजा, (38) निरभिमानता, (39) अस्तित्व (भगवान के रूप में), (40) शाश्वतता। समस्त सत्त्व तथा सौन्दर्य के आगार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने इस धरा पर अपनी दिव्य लीलाएँ बन्द कर दी हैं। उनकी अनुपस्थिति में कलि ने सर्वत्र अपना प्रभाव फैला लिया है। अतएव मैं संसार की यह दशा देखकर अत्यन्त दुखी हूँ।

31 हे देवताओं में श्रेष्ठ, मैं अपने विषय में तथा आपके विषय में और उसी के साथ ही साथ सभी देवताओं, ऋषियों, पितृलोक के निवासियों, भगवद्भक्तों तथा वर्णाश्रम-धर्म के पालक सभी मनुष्यों के विषय में सोच रही हूँ।

32-33 सौभाग्य की देवी लक्ष्मीजी, जिनकी कृपा-कटाक्ष के लिए ब्रह्मा जैसे देवता तरसा करते थे और जिनके लिए वे दिन में अनेक बार भगवान के शरणागत होते थे, वे कमल-वन के अपने निवासस्थान को त्याग कर भी भगवान के चरणकमलों की सेवा में संलग्न हुई थीं। मुझे वे विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त हुई थीं, जिनसे मैं ध्वज, वज्र, अंकुश तथा कमल चिन्हों से, जो भगवान के चरणकमलों के चिन्ह हैं, अलंकृत होकर तीनों लोकों की सम्पत्ति को परास्त कर सकती थी। लेकिन अन्त में, जब मैंने अनुभव किया कि मैं कितनी भाग्यशालीनी हूँ, तब भगवान ने मुझे त्याग दिया।

34 हे धर्म-पुरुष मैं नास्तिक राजाओं द्वारा नियोजित अत्यधिक सैन्य-समूह के भार से बोझिल हो उठी थी और अब भगवान की कृपा से उससे उबर सकी हूँ। इसी प्रकार आप भी कष्टप्रद अवस्था में थे और खड़े भी नहीं हो सकते थे। इस तरह आपको भी उबारने के लिए यदुवंश में वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से अवतरित हुए थे।

35 अतएव ऐसा कौन है, जो उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विरह की व्यथा को सह सकता है? वे अपनी प्रेमभरी मीठी मुस्कान, सुहावनी चितवन तथा मीठी मीठी बातों से सत्यभामा जैसी प्रियतमाओं की गम्भीरता तथा प्रणय क्रोध (हाव-भाव) को जीतनेवाले थे। जब वे मेरी (पृथ्वी की) सतह पर चलते थे, तो मैं उनके चरणकमल की धूल में धँस जाती थी और फिर घास से आच्छादित हो जाती थी, जो हर्ष से उत्पन्न मेरे शरीर पर रोमांच जैसा था।

36 जब पृथ्वी तथा धर्म-पुरुष इस प्रकार बातों में संलग्न थे, तो राजर्षि परीक्षित पूर्व की ओर बहनेवाली सरस्वती नदी के तट पर पहुँच गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पन्द्रह – पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति(1.15)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण का विख्यात मित्र अर्जुन, महाराज युधिष्ठिर की सशंकित जिज्ञासाओं के अतिरिक्त भी, कृष्ण के वियोग की प्रबल अनुभूति के कारण शोक-सन्तप्त था।

2 शोक से अर्जुन का मुँह तथा कमल-सदृश हृदय सुख चुके थे, अतएव उसकी शारीरिक कान्ति चली गई थी। अब भगवान का स्मरण करने पर, वह उत्तर में एक शब्द भी न बोल पाया।

3 उसने बड़ी कठिनाई से आँखों में भरे हुए शोकाश्रुओं को रोका। वह अत्यन्त दुखी था, क्योंकि भगवान कृष्ण उसकी दृष्टि से ओझल थे और वह उनके लिए अधिकाधिक स्नेह का अनुभव कर रहा था।

4 भगवान कृष्ण को तथा उनकी शुभकामनाओं, आशीषों, घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध एवं उनके रथ हाँकने का स्मरण करके, अर्जुन का गला रुँध आया और वह भरी साँस लेता हुआ बोलने लगा।

5 अर्जुन ने कहा: हे राजन, मुझे अपना घनिष्ठ मित्र माननेवाले भगवान हरि ने मुझे अकेला छोड़ दिया है। इस तरह मेरा प्रबल पराक्रम, जो देवताओं तक को चकित करनेवाला था, अब मुझमें नहीं रह गया है।

6 मैंने अभी-अभी उन्हें खोया है, जिनके क्षणमात्र वियोग से सारे ब्रह्माण्ड प्रतिकूल तथा शून्य हो जायेंगे, जिस तरह प्राण के बिना शरीर।

7 उनकी कृपामयी शक्ति से ही मैं उन समस्त कामोन्मत्त राजकुमारों को परास्त कर सका, जो राजा द्रुपद के महल में स्वयंवर के अवसर पर एकत्र हुए थे। अपने धनुषबाण से मैं मत्स्य लक्ष्य का भेदन कर सका और इस प्रकार द्रौपदी का पाणिग्रहण कर सका।

8 चूँकि वे मेरे निकट थे, अतएव मेरे लिए अत्यन्त कौशलपूर्वक स्वर्ग के शक्तिशाली राजा इन्द्रदेव को उनके देव-पार्षदों सहित जीत पाना सम्भव हो सका और इस तरह अग्निदेव – खाण्डव-वन को विनष्ट कर सके। उन्हीं की कृपा से, मय नामक असुर को जलते हुए खाण्डव-वन से बचाया जा सका। इस तरह हम अत्यन्त आश्चर्यमयी शिल्प-कला वाले सभाभवन का निर्माण कर सके, जहाँ राजसूय-यज्ञ के समय सारे राजकुमार एकत्र हो सके और आपको आदर प्रदान कर सके।

9 दस हजार हाथियों की शक्ति रखनेवाले आपके छोटे भाई ने भगवान की ही कृपा से जरासन्ध का वध किया, जिसकी पादपूजा अनेक राजाओं द्वारा की जाती थी। ये सारे राजा जरासन्ध के महाभैरव यज्ञ में बलि चढ़ाये जाने के लिए लाए गये थे, किन्तु उनको छुड़ा दिया गया। बाद में उन्होंने आपका आधिपत्य स्वीकार किया।

10 उन्होंने ही उन दुष्टों की पत्नियों के बाल खोल दिये, जिन्होंने महारानी (द्रौपदी) की उस चोटी को खोलने का दुस्साहस किया था, जो महान राजसूय-यज्ञ अनुष्ठान के अवसर पर सुन्दर ढंग से सजाई तथा पवित्र की गई थी। उस समय वह अपनी आँखों में आँसू भर कर भगवान कृष्ण के चरणों पर गिर पड़ी थी।

11 हमारे वनवास के समय, दुर्योधन ने षड्यंत्रपूर्वक दस हजार शिष्यों के साथ भोजन करने के लिए दुर्वासा मुनि को भेजकर हमें भयावह संकट में डाल दिया। उस समय उन्होंने (कृष्ण ने) केवल जूठन ग्रहण करके हमें बचाया था। इस तरह उनके भोजन ग्रहण करने से नदी में स्नान करती मुनि-मण्डली ने अनुभव किया कि वह भोजन से पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गई और तीनों लोक भी संतुष्ट हो गये।

12 यह उन्हीं का प्रताप था कि मैं एक युद्ध में शिवजी तथा उनकी पत्नी पर्वतराज हिमालय की कन्या को आश्चर्यचकित करने में समर्थ हुआ। इस तरह वे (शिवजी) मुझ पर प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे अपना निजी अस्त्र प्रदान किया। अन्य देवताओं ने भी मुझे अपने-अपने अस्त्र भेंट किये और इसके अतिरिक्त, मैं इसी वर्तमान शरीर से स्वर्गलोक पहुँच सका, जहाँ मुझे आधे ऊँचे आसन पर बैठने दिया गया।

13 जब मैं स्वर्गलोक में अतिथि के रूप में कुछ दिन रुका रहा, तो इन्द्रदेव समेत स्वर्ग के समस्त देवताओं ने निवातकवच नामक असुर को मारने के लिए गाण्डीव धनुष धारण करनेवाली मेरी भुजाओं का आश्रय लिया था। हे आजमीढ के वंशज राजा, इस समय मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से विहीन हो गया हूँ, जिनके प्रभाव से मैं इतना शक्तिशाली था।

14 कौरवों की सैन्यशक्ति उस समुद्र की तरह थी, जिसमें अनेक अजेय प्राणी रहते थे। फलतः वह दुर्लंघ्य थी। किन्तु उनकी मित्रता के कारण, मैं रथ पर आरूढ़ होकर, उसे पार कर सका। यह उन्हीं की कृपा थी कि मैं गौवों को वापस ला सका और बलपूर्वक राजाओं के तमाम मुकुट एकत्र कर सका, जो समस्त तेज के स्रोत रत्नों से जटित थे।

15 एकमात्र वे ही थे जिन्होंने सबों की आयु छीन ली थी और जिन्होंने युद्धभूमि में भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य, इत्यादि कौरवों द्वारा निर्मित सैन्य-व्यूह की कल्पना तथा उत्साह को हर लिया था। उन सबकी योजना अत्यन्त पटु थी और आवश्यकता से अधिक थी, लेकिन उन्होंने (भगवान श्रीकृष्ण ने) आगे बढ़कर यह सब कर दिखाया।

16 भीष्म, द्रोण, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ तथा बाह्यिक जैसे बड़े-बड़े सेनापतियों ने अपने-अपने अचूक हथियार मुझ पर चलाये, लेकिन उनकी (भगवान कृष्ण की) कृपा से वे सब मेरा बाल बाँका भी न कर पाये। इसी प्रकार नृसिंह देव के परम भक्त प्रह्लाद महाराज असुरों द्वारा प्रयुक्त समस्त शस्त्रास्त्रों से अप्रभावित रहे।

17 यह उन्हीं की कृपा थी कि जब मैं अपने प्यासे घोड़ों के लिए जल लेने रथ से नीचे उतरा था, तो मेरे शत्रुओं ने मुझे मारने की परवाह न की। यह तो अपने प्रभु के प्रति मेरा असम्मान ही था कि मैंने उन्हें अपना सारथी बनाने का दुस्साहस किया, क्योंकि मोक्ष प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ पुरुष उनकी पूजा तथा सेवा करते हैं।

18 हे राजन, उनके परिहास तथा उनकी मुक्त बातें अत्यन्त सुहावनी तथा सौन्दर्य से अलंकृत होती थीं। "हे पार्थ, हे सखा, हे कुरुनन्दन" कहकर उनका पुकारना तथा उनकी समस्त सहृदयता की अब मुझे याद आ रही है और मैं अभिभूत हूँ।

19 सामान्यतः हम दोनों साथ-साथ रहते और सोते, साथ-साथ बैठते, घूमने जाते और बहादुरी के कार्यों के लिए आत्म-प्रशंसा करते हुए कभी-कभी यदि कोई भूल होती, तो मैं उन्हें यह कहकर चिढ़ाया करता था "हे मित्र, तुम तो बड़े सत्यवादी हो।" उस समय भी जब उनका महत्व घटता होता, वे परमात्मा होने के कारण, मेरी ऊटपटाँग बातों को सह लेते थे और मुझे उसी प्रकार क्षमा कर देते थे जिस तरह एक सच्चा मित्र अपने सच्चे मित्र को या पिता अपने पुत्र को क्षमा कर देता है।

20 हे राजन, अब मैं अपने मित्र तथा सर्वाधिक प्रिय शुभचिन्तक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से विलग हो गया हूँ, अतएव मेरा हृदय हर तरह से शून्य-सा प्रतीत हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति में, जब मैं कृष्ण की तमाम पत्नियों की रखवाली कर रहा था, तो अनेक अविश्वस्त ग्वालों ने मुझे हरा दिया।

21 मेरे पास वही गाण्डीव धनुष है, वे ही तीर हैं, उन्हीं घोड़ों के द्वारा खींचा जानेवाला वही रथ है और उन्हें इस्तेमाल करनेवाला मैं वही अर्जुन हूँ, जिसके सामने सारे राजा सिर झुकाया करते थे। किन्तु भगवान कृष्ण की अनुपस्थिति में वे सब एक ही क्षण में शून्य हो गये हैं। यह वैसा ही है जैसे राख़ में घी की आहुती डालना, जादू की छड़ी से धन एकत्र करना या बंजर भूमि में बीज बोना।

22-23 हे राजन, चूँकि आपने द्वारका नगरी के हमारे मित्रों तथा सम्बन्धियों के विषय में पूछा है, अतएव मैं आपको सूचित कर रहा हूँ कि वे सब ब्राह्मणों द्वारा शापित होकर, सड़े हुए चावलों से बनी शराब पीकर उन्मत्त हो उठे और एक-दूसरे को न पहचानने के कारण लाठियाँ लेकर परस्पर लड़ने लगे। अब केवल चार-पाँच को छोड़कर शेष सभी मर चुके हैं।

24 वास्तव में यह सब भगवान की इच्छा के फलस्वरूप है कि कभी-कभी लोग एक दूसरे को मार डालते हैं और कभी एक दूसरे की रक्षा करते हैं।

25-26 हे राजन, जिस तरह समुद्र में बड़े तथा बलशाली जलचर, छोटे-मोटे तथा निर्बल जलचरों को निगल जाते हैं, उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने भी धरती का भार हल्का करने के लिए, निर्बल यदु को मारने के लिए बलशाली यदु को और छोटे यदु को मारने के लिए बड़े यदु को भिड़ा दिया है।

27 अब मैं भगवान (गोविन्द) द्वारा मुझे दिये गये उपदेशों की ओर आकृष्ट हूँ, क्योंकि वे देश-काल की समस्त परिस्थितियों में हृदय की जलन को शान्त करनेवाले आदेशों से परिपूर्ण बनाए गये हैं।

28 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार भगवान के उपदेश, जो अत्यधिक घनिष्ठ मित्रता में प्रदान किए गये थे उसके विषय में सोचने में तथा उनके चरणकमलों का चिन्तन करने में तल्लीन अर्जुन का मन शान्त और समस्त भौतिक कल्मष से रहित हो गया।

29 अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण किए जाने से उसकी भक्ति तेजी से बढ़ गई, जिसके फलस्वरूप उसके विचारों का सारा मैल दूर हो गया।

30 भगवान की लीलाओं तथा कार्यकलापों के कारण तथा उनकी अनुपस्थिति से ऐसा लगा कि अर्जुन भगवान द्वारा दिये गये उपदेशों को भूल गया हो। लेकिन, वास्तव में बात ऐसी न थी और वह पुनः अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन गया।

31 आध्यात्मिक सम्पत्ति से युक्त होने के कारण उसके द्वैत के संशय पूर्ण रूप से छिन्न हो गये। इस तरह वह भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से मुक्त होकर अध्यात्म में स्थित हो गया। अब जन्म तथा मृत्यु के पाश में उसके फँसने की कोई आशंका न थी, क्योंकि वह भौतिक रूप से मुक्त हो चुका था।

32 भगवान कृष्ण के स्वधाम गमन को सुनकर तथा यदुवंश के पृथ्वी के अस्तित्व का अन्त समझकर, महाराज युधिष्ठिर ने भगवद्धाम जाने का निश्चय किया।

33 अर्जुन द्वारा यदुवंश के नाश तथा भगवान कृष्ण के अन्तर्धान होने की बात सुनकर, कुन्ती ने पूर्ण मनोयोग से दिव्य भगवान की भक्ति में अपने को लगा दिया और इस तरह संसार के आवागमन से मोक्ष प्राप्त किया।

34 सर्वोपरि अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंश के सदस्यों से अपना-अपना शरीर त्याग करवा दिया और इस तरह उन्होंने पृथ्वी के भार को उतारा। यह कार्य काँटे को काँटे से निकालने जैसा था, यद्यपि नियन्ता के लिए दोनों एक से हैं।

35 परमेश्वर ने जिस शरीर को पृथ्वी का भार कम करने के लिए प्रकट किया था, उसे उन्होंने छोड़ दिया। वे एक जादूगर के समान विभिन्न शरीरों को, यथा – मत्स्य अवतार तथा अन्य अवतारों में धारण करने के लिए एक शरीर को छोड़ते हैं।

36 जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उसी रूप के साथ इस पृथ्वीलोक को छोड़ दिया, उसी दिन से कलि, जो पहले ही अंशतः प्रकट हो चुका था, अल्पज्ञों के लिए अशुभ परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए पूरी तरह प्रकट हो गया।

37 महाराज युधिष्ठिर पर्याप्त बुद्धिमान थे कि वे कलियुग के प्रभाव को समझ गये, जिसके विशेष लक्षण होते हैं – बढ़ता लालच, असत्य भाषण, धोखा देना तथा सारी राजधानी, राज्य, घर तथा समस्त व्यक्तियों में हिंसा का आधिक्य इत्यादि। अतएव उन्होंने घर छोड़ने की तैयारी की और तदनुकूल वस्त्र धारण कर लिये।

38 तत्पश्चात उन्होंने हस्तिनापुर की राजधानी में, अपने पौत्र को सिंहासनारूढ़ किया, जो समुद्र से घिरी सारी भूमि के स्वामी तथा सम्राट के रूप में प्रशिक्षित था और उन्हीं के समान सुयोग्य था।

39 तब उन्होंने अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पौत्र) के पुत्र वज्र को मथुरा में शूरसेन का राजा बना दिया। तत्पश्चात महाराज युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ किया और गृहस्थ जीवन त्यागने के लिए अपने भीतर अग्नि प्रतिष्ठित की।

40 महाराज युधिष्ठिर ने अपने सारे वस्त्र, कमर-पेटी तथा राजसी आभूषण तुरन्त त्याग दिये और वे पूर्ण रूप से उदासीन तथा प्रत्येक वस्तु से विरक्त हो गये।

41 तब उन्होंने अपनी सारी इन्द्रियों को मन में, मन को जीवन में, जीवन को प्राण में, अपने पूर्ण अस्तित्व को पाँच तत्त्वों के शरीर में तथा अपने शरीर को मृत्यु में समाहित कर दिया। तत्पश्चात शुद्ध आत्मा के रूप में वे देहात्म-बुद्धि से मुक्त हो गये ।

42 इस प्रकार उन्होंने पंचतत्त्वमय स्थूल शरीर को विनष्ट करके, प्रकृति के तीन गुणों में मिलाकर उसे अज्ञानता में मिला दिया और तब उस अज्ञानता को आत्मा या ब्रह्म में विलीन कर दिया, जो सर्वदा अक्षय है।

43 तत्पश्चात महाराज युधिष्ठिर ने फटे हुए वस्त्र पहन लिये, ठोस आहार लेना बन्द कर दिया, वे जान कर गूँगे बन गये और बालों को खोल दिया। इन सबके मिल-जुले रूप में, वे एक उजड्ड या वृत्तिविहीन पागल की तरह दिखने लगे। वे किसी वस्तु के लिए अपने भाइयों पर आश्रित नहीं रहे। वे बहरे मनुष्य की तरह कुछ भी न सुनने लगे।

44 तब उन्होंने उत्तर दिशा की ओर अपने पूर्वजों तथा महापुरुषों द्वारा स्वीकृत पथ पर चलते हुए प्रस्थान किया, जिससे वे परमेश्वर के विचार में पूर्ण रूप से लग सकें। वे जहाँ कहीं भी गये, इसी तरह रहे।

45 महाराज युधिष्ठिर के छोटे भाइयों ने देखा कि कलियुग का पहले से ही संसार भर में पदार्पण हो चुका है और राज्य के नागरिक पहले से ही अधर्म द्वारा प्रभावित हैं। अतएव उन्होंने अपने बड़े भाई के चरण-चिन्हों का अनुगमन करने का निश्चय किया।

46 उन्होंने धर्म के सारे नियम सम्पन्न कर लिये थे। अतएव उनका यह निश्चय ठीक ही था कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल ही सबों के चरम लक्ष्य हैं। अतएव उन्होंने बिना व्यवधान के उनके चरणों का ध्यान किया।

47-48 इस प्रकार भक्तिभाव से निरन्तर स्मरण करने से उत्पन्न भक्तिमयी शुद्ध चेतना के द्वारा उन्होंने आदि नारायण भगवान कृष्ण द्वारा अधिशासित वैकुण्ठलोक प्राप्त किया। यह वैकुण्ठलोक केवल उन्हें प्राप्त होता है, जो अविचल भाव से एक परमेश्वर का ध्यान धरते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का यह धाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है और यह उन व्यक्तियों को प्राप्त नहीं होता, जो जीवन की भौतिक अवधारणा में लीन रहते हैं। लेकिन समस्त भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप से शुद्ध होने के कारण पाण्डवों ने अपने इसी शरीर में उस धाम को प्राप्त किया।

49 तीर्थाटन के लिए गये हुए विदुर ने प्रभास में अपना शरीर त्याग किया। चूँकि वे भगवान कृष्ण के विचार में मग्न रहते थे, अतएव उनका स्वागत पितृलोक के निवासियों ने किया, जहाँ वे अपने मूल पद पर लौट गये।

50 द्रौपदी ने भी देखा कि उसके पतिगण, उसकी परवाह किए बिना घर छोड़ रहे हैं। वे भगवान वासुदेव कृष्ण को भलीभाँति जानती थीं। अतएव वे तथा सुभद्रा दोनों भगवान कृष्ण के ध्यान में लीन हो गई और अपने-अपने पतियों की सी गति प्राप्त की।

51 पाण्डु-पुत्रों द्वारा जीवन के परम लक्ष्य भगवद्धाम के लिए प्रस्थान का यह विषय अत्यन्त शुभ तथा परम पवित्र है। अतएव जो भी इस कथा को भक्तिभावपूर्वक सुनता है, वह जीवन की परम सिद्धि भगवदभक्ति को निश्चय ही प्राप्त करता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय चौदह – श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना (1.14)

1 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: अपने सम्बन्धियों, मित्रों से मिलने तथा भगवान से उनके अगले कार्यकलापों के विषय में जानने के लिए अर्जुन द्वारका गये।

2 कुछ मास बीत गये, किन्तु अर्जुन वापस नहीं लौटे। तब महाराज को कुछ अपशकुन दिखने लगे, जो अत्यन्त भयानक थे।

3 उन्होंने देखा कि सनातन काल की गति बदल गई है और यह अत्यन्त भयावह था। ऋतु-सम्बन्धी नियमितताओं में व्यतिक्रम हो रहे थे। सामान्य लोग अत्यन्त लालची, क्रोधी तथा धोखेबाज हो गये थे और वे सभी जीविका के अनुचित साधन अपना रहे थे।

4 सारे सामान्य लेन-देन, यहाँ तक कि मित्रों के बीच के व्यवहार तक, कपट के कारण दूषित हो गये थे। पारिवारिक मामलों में पिता, माता तथा पुत्रों के बीच, शुभचिन्तकों के बीच तथा भाई-भाई के बीच सदैव गलतफहमी होती थी। यहाँ तक कि पति तथा पत्नी के बीच भी सदैव तनाव तथा झगड़ा होता रहता था।

5 कालक्रम में ऐसा हुआ कि लोग लोभ, क्रोध, गर्व इत्यादि के अभ्यस्त हो गये। महाराज युधिष्ठिर ने इन सब अपशकुनों को देखकर अपने छोटे भाई से कहा।

6 महाराज युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा: मैंने अर्जुन को द्वारका भेजा था कि वह अपने मित्रों से भेंट कर आये और भगवान श्रीकृष्ण से उनका कार्यक्रम जानता आये।

7 जब से वह गया है, तब से सात माह बीत चुके हैं, फिर भी वह लौटा नहीं। मुझे ठीक से पता नहीं है कि वहाँ क्या हो रहा है?

8 क्या वे अपनी मर्त्यलोक की लीलाओं को छोड़ने जा रहे हैं, जैसा कि देवर्षि नारद ने बताया था? क्या वह समय आ भी चुका है?

9 केवल उन्हीं से हमारा सारा राजसी ऐश्वर्य, अच्छी पत्नियाँ, जीवन, सन्तान, प्रजा के ऊपर नियंत्रण, शत्रुओं पर विजय तथा उच्चलोकों में भावी निवास, सभी कुछ सम्भव हो सका। यह सब हम पर उनकी अहैतुकी कृपा के कारण है।

10 हे पुरुषव्याघ्र, जरा देखो तो कि दैवी प्रभावों, पृथ्वी की प्रतिक्रियाओं तथा शारीरिक वेदनाओं के कारण उत्पन्न होने वाली कितनी खतरनाक आपदाएँ हमारी बुद्धि को मोहित करके निकट के भविष्य में आने वाले खतरे की सूचना दे रही हैं।

11 मेरे शरीर का बाँयाँ भाग, मेरी जाँघें, भुजाएँ तथा आँखें बारम्बार फड़क रही हैं। भय से मेरा हृदय धड़क रहा है। ये सब अनिष्ट घटना को सूचित करने वाले हैं।

12 हे भीम, जरा देखो तो यह सियारिन किस तरह उगते हुए सूर्य को देखकर रो रही है और अग्नि उगल रही है और यह कुत्ता किस तरह निर्भय होकर, मुझ पर भूक रहा है।

13 हे भीमसेन, हे पुरुषव्याघ्र, अब गाय जैसे उपयोगी पशु मेरी बाईं ओर से निकले जा रहे हैं और गधे जैसे निम्न पशु, मेरी प्रदक्षिणा कर रहे हैं। मेरे घोड़े मुझे देखकर रोते प्रतीत होते हैं।

14 जरा देखो तो! यह कबूतर मानों मृत्यु का दूत हो। उल्लुओं तथा उनके प्रतिद्वन्द्वी कौवों की चीख मेरे हृदय को दहला रही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को शून्य बना देना चाहते हैं।

15 जरा देखो तो, किस तरह धुआँ आकाश को घेरे हुए है। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो पृथ्वी तथा पर्वत काँप रहे हों। बिना बादलों की यह गर्जन तो जरा सुनो और आकाश से गिरते वज्रपात को तो देखो।

16 वायु तेजी से बह रही है और वह सर्वत्र धूल बिखरा कर अँधेरा उत्पन्न कर रही है। बादल सर्वत्र रक्तिम आपदाओं की वर्षा कर रहे हैं।

17 सूर्य की किरणें मन्द पड़ रही हैं और तारे परस्पर भिड़ रहे प्रतीत हो रहे हैं। भ्रमित जीव जलते हुए तथा रोते प्रतीत हो रहे हैं।

18 नदियाँ, नाले, तालाब, जलाशय तथा मन सभी विक्षुब्ध हैं। घी से अग्नि नहीं जल रही है, यह कैसा असामान्य समय है? आखिर क्या होने वाला है?

19 बछड़े न तो गौवों के थनों में मुँह लगा रहे हैं, न गौवें दूध देती हैं। वे आँखों में आँसू भरे खड़ी-खड़ी रँभा रही हैं और बैलों की चरागाहों में कोई प्रसन्नता नहीं हो रही है।

20 मन्दिर में अर्चाविग्रह रोते, शोक करते तथा पसीजते प्रतीत हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे प्रयाण करनेवाले हैं। सारे नगर, ग्राम, कस्बे, बगीचे, खानें तथा आश्रम अब सौन्दर्यविहीन तथा समस्त आनन्द से रहित हैं। मैं नहीं जानता कि हम पर किस तरह की विपत्तियाँ आनेवाली हैं।

21 मैं सोचता हूँ कि पृथ्वी पर की ये सारी उथल-पुथल विश्व के सौभाग्य की किसी बहुत बड़ी हानि को सूचित करनेवाले हैं। संसार भाग्यशाली था कि उस पर भगवान के चरणकमलों के पदचिन्ह अंकित हुए। किन्तु ये लक्षण यह सूचित कर रहे हैं कि अब आगे ऐसा नहीं रह पाएगा।

22 हे ब्राह्मण शौनक, जब महाराज युधिष्ठिर उस समय पृथ्वी पर इन अशुभ लक्षणों को देख रहे थे और अपने मन में इस प्रकार सोच रहे थे, तभी अर्जुन यदुओं की पुरी (द्वारका) से वापस आ गये।

23 जब उसने राजा के चरणों पर नमन किया, तो राजा ने देखा कि उनकी निराशा अभूतपूर्व थी। उनका सिर नीचे झुका था और उनके कमल-नेत्रों से आँसू झर रहे थे।

24 हृदय की उद्विग्नताओं के कारण अर्जुन को पीला हुआ देखकर, राजा ने नारदमुनि द्वारा बताये गये संकेतों का स्मरण करते हुए, मित्रों के मध्य में ही उनसे पूछा।

25 महाराज युधिष्ठिर ने कहा: मेरे भाई, मुझे बताओ कि हमारे मित्र, सम्बन्धी, यथा – मधु, भोज, दशार्ह, आर्ह, सात्वत, अन्धक तथा यदुवंश के सारे सदस्य, अपने दिन सुख से बिता रहे हैं न?

26 मेरे आदरणीय नाना शूरसेन प्रसन्न तो हैं? तथा मेरे मामा वसुदेव तथा उनके छोटे भाई ठीक से तो हैं?

27 देवकी इत्यादि उनकी सातों पत्नियाँ परस्पर बहिनें हैं। वे तथा उनके पुत्र एवं बहुएँ सब सुखी तो हैं?

28-29 क्या उग्रसेन जिसका पुत्र दुष्ट कंस था तथा उनका छोटा भाई अब भी जीवित हैं, क्या हृदीक तथा उसका पुत्र कृतवर्मा कुशल से हैं? क्या अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित प्रसन्न हैं? भक्तों के रक्षक भगवान बलराम कैसे हैं?

30 वृष्णि-कुल के महान सेनापति प्रद्युम्न कैसे हैं? वे प्रसन्न तो हैं? और भगवान के पूर्ण अंश अनिरुद्ध ठीक से तो हैं?

31 कृष्ण के सभी सेना-नायक पुत्र तथा सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवती-पुत्र साम्ब तथा ऋषभ अपने-अपने पुत्रों समेत ठीक से तो रह रहे हैं?

32-33 इसके अतिरिक्त, श्रुतदेव, उद्धव, नन्द, सुनन्द तथा अन्य मुक्तात्माओं के नायक, जो भगवान के नित्यसंगी हैं, भगवान बलराम तथा कृष्ण द्वारा सुरक्षित तो हैं? वे सब अपना-अपना कार्य ठीक से चला रहें हैं न? वे जो हमसे नित्य मैत्री-पाश में बँधे हैं, हमारी कुशलता के बारे में पूछते तो हैं?

34 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण, जो गायों, इन्द्रियों तथा ब्राह्मणों को आनन्द प्रदान करने वाले हैं और अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल हैं, अपने मित्रों से घिर कर, द्वारकापुरी में पवित्र सभा का भोग तो कर रहे हैं ?

35-36 परम भोक्ता आदि भगवान तथा जो मूल भगवान अनन्त हैं, बलराम यदुवंश रूपी सागर में समस्त ब्रह्माण्ड के कल्याण, सुरक्षा तथा उन्नति के लिए निवास कर रहे हैं और सारे यदुवंशी भगवान की भुजाओं द्वारा सुरक्षित रहकर, वैकुण्ठवासियों की भाँति जीवन का आनन्द उठा रहे हैं।

37 समस्त सेवाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण, भगवान के चरणकमलों की शुश्रूषा करने मात्र से, द्वारका-स्थित सत्यभामा के अधीक्षण में रानियों ने भगवान को प्रेरित किया कि वे देवताओं को जीत लें। इस प्रकार रानियाँ उन वस्तुओं का भोग कर रही हैं, जो वज्र के नियंत्रक की पत्नियों द्वारा भोग्य हैं।

38 बड़े-बड़े यदुवंशी वीर भगवान श्रीकृष्ण की बाहुओं द्वारा सुरक्षित रहकर सभी प्रकार से निर्भय बने रहते हैं। अतएव उनके चरण उस सुधर्मा के सभा-भवन में पड़ते रहते हैं, जो सर्वश्रेष्ठ देवताओं के लिए है, किन्तु जो उनसे छीन लिया गया था।

39 मेरे भाई अर्जुन, मुझे बताओ कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक तो है? ऐसा लगता है कि तुम्हारे शरीर की कान्ति खो गई है। क्या द्वारका में दीर्घकाल तक रहने से, अन्यों द्वारा असम्मान तथा उपेक्षा दिखलाने से ऐसा हुआ है?

40 कहीं किसी ने तुम्हें अपमानजनक शब्द तो नहीं कहे? या तुम्हें धमकाया तो नहीं? क्या तुम याचक को दान नहीं दे सके? या किसी से अपना वचन नहीं निभा पाये?

41 तुम तो सदा से सुपात्र जीवों के यथा – ब्राह्मणों, बालकों, गायों, स्त्रियों तथा रोगियों के रक्षक रहे हो। क्या तुम उनके शरण माँगे जाने पर उन्हें शरण नहीं दे सके?

42 क्या तुमने दुश्चरित्र स्त्री से समागम किया है अथवा सुपात्र स्त्री के साथ तुमने भद्र व्यवहार नहीं किया? अथवा तुम मार्ग में किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा पराजित किये गये हो, जो तुमसे निकृष्ट है या तुम्हारे समकक्ष हो?

43 क्या तुमने उन वृद्धों तथा बालकों की परवाह नहीं की, जो तुम्हारे साथ भोजन करने के योग्य थे? क्या उन्हें छोड़कर तुमने अकेले भोजन किया है? क्या तुमने कोई अक्षम्य गलती की है, जो निन्दनीय मानी जाती है?

44 अथवा कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम इसलिए रिक्त अनुभव कर रहे हो, क्योंकि तुमने अपने घनिष्ठ मित्र भगवान कृष्ण को खो दिया हो? हे मेरे भ्राता अर्जुन, तुम्हारे इतने हताश होने का मुझे कोई अन्य कारण नहीं दिखता।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तेरह – धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग(1.13)

1 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: तीर्थयात्रा करते हुए विदुर ने महर्षि मैत्रेय से आत्मा की गति का ज्ञान प्राप्त किया और फिर वे हस्तिनापुर लौट आये। वे अपेक्षानुसार इस विषय में पारंगत हो गये।

2 विविध प्रश्न पूछने के बाद तथा भगवान कृष्ण की दिव्य प्रेमामयी सेवा में स्थिर हो चुकने पर, विदुर ने मैत्रेय मुनि से प्रश्न पूछना बन्द किया।

3-4 जब उन्होंने देखा कि विदुर राजमहल लौट आये हैं, तो महाराज युधिष्ठिर, उनके छोटे भाई, धृतराष्ट्र, सात्यकि, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती। गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी, कौरवों की अन्य पत्नियाँ तथा अपने-अपने बच्चों के साथ स्त्रियों समेत सारे निवासी--सभी अत्यन्त हर्षित होकर तेजी से उनकी ओर बढ़े। ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्होंने दीर्घकाल के बाद अपनी चेतना फिर से प्राप्त की हो।

5 वे सब प्रसन्नतापूर्वक उनके निकट गये, मानों उनके शरीरों में फिर से प्राण का संचार हुआ हो। उन्होंने एक दूसरे को प्रणाम किया और गले मिलते हुए एक दूसरे का स्वागत किया।

6 चिन्ता तथा लम्बे वियोग के कारण, वे सब प्रेम-विवश होकर रुदन करने लगे। तब राजा युधिष्ठिर ने उनके बैठने के लिए आसन की व्यवस्था की और उनका सत्कार किया।

7 जब विदुर ठीक से भोजन कर चुके और पर्याप्त विश्राम कर लेने पर उन्हें सुखदायक आसन पर बिठाया गया। तब राजा ने उनसे बोलना शुरू किया और वहाँ पर उपस्थित सारे लोग सुनने लगे।

8 महाराज युधिष्ठिर ने कहा: हे चाचा, क्या आपको याद है कि आपने किस तरह सदा हमारी माता तथा हम सबकी समस्त प्रकार की विपत्तियों से रक्षा की है? आपके पक्षपात ने, पक्षियों के पंखों के समान, हमें विष-पान तथा अग्निदाह से बचाया है।

9 पृथ्वी पर विचरण करते हुए, आपने अपनी जीविका कैसे चलाई? आपने किन-किन पवित्र स्थलों तथा तीर्थस्थानों पर सेवा की।

10 हे प्रभु, आप जैसे भक्त, निश्चय ही, साक्षात पवित्र स्थान होते हैं। चूँकि आप भगवान को अपने हृदय में धारण किए रहते हैं, अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थस्थानों में परिणत कर देते हैं।

11 हे चाचा, आप द्वारका भी गये होंगे? उस पवित्र स्थान में यदुवंशी हमारे मित्र तथा शुभचिन्तक हैं, जो नित्य ही भगवान श्रीकृष्ण की सेवा में तत्पर रहते हैं। आप उनसे मिले होंगे अथवा उनके विषय में सुना होगा? वे अपने-अपने घरों में सुखपूर्वक रह रहे हैं न ?

12 महाराज युधिष्ठिर द्वारा इस तरह पूछे जाने पर महात्मा विदुर ने क्रमशः सब कुछ कह सुनाया, जिसका उन्होंने स्वयं अनुभव किया था। केवल यदुवंश के विनाश की बात उन्होंने नहीं कही।

13 दयावान महात्मा विदुर पाण्डवों को कभी भी दुखी नहीं देख सकते थे। अतः उन्होंने इस अप्रिय तथा असह्य घटना को प्रकट नहीं होने दिया, क्योंकि आपदाएँ तो अपने आप आती हैं।

14 इस प्रकार अपने कुटुम्बियों द्वारा देवतुल्य सम्मानित होकर, महात्मा विदुर कुछ काल तक अपने बड़े भाई की मनोदशा को ठीक करने के लिए तथा इस प्रकार अन्य सबों को सुख देने के लिए वहाँ पर रहते रहे।

15 मण्डूक मुनि के द्वारा शापित होकर, जब तक विदुर शूद्र का शरीर धारण किये रहे, तब तक पाप कर्म करने वालों को दण्डित करने के लिए यमराज के पद पर अर्यमा कार्य करते रहे।

16 अपना राज्य वापस पाकर तथा एक ऐसे पौत्र का जन्म देखकर, जो उनके परिवार की प्रशस्त परम्परा को आगे चलाने में सक्षम था, महाराज युधिष्ठिर ने शान्तिपूर्वक शासन चलाया और उन छोटे भाइयों के सहयोग से, जो सारे के सारे कुशल प्रशासक थे, असामान्य ऐश्वर्य का भोग किया।

17 जो लोग घरेलू मामलों में अत्यधिक लिप्त रहते हैं और उन्हीं के विचारों में मग्न रहते जाते हैं, उन्हें दुस्तर सनातन काल अनजाने ही धर दबोचता है।

18 महात्मा विदुर यह सब जानते थे, अतएव उन्होंने धृतराष्ट्र को सम्बोधित करते हुए कहा: हे राजन, कृपा करके यहाँ से शीघ्र ही बाहर निकल चलिये। विलम्ब न कीजिये। जरा देखें तो, भय ने किस प्रकार आपको वशीभूत कर रखा है।

19 इस भौतिक संसार में कोई भी व्यक्ति इस भयावह स्थिति का निराकरण नहीं कर सकता। हे स्वामी, शाश्वत काल के रूप में, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हम सबों के पास आ पहुँचे हैं।

20 जो भी सर्वोपरि काल (शाश्वत समय) के प्रभाव में है, उसे अपने सबसे प्रिय जीवन काल को अर्पित करना पड़ता है, अन्य वस्तुओं यथा – धन, सन्तान, भूमि तथा घर का तो कुछ कहना ही नहीं।

21 आपके पिता, भाई, शुभचिन्तक तथा पुत्र सभी मर चुके हैं और दूर चले गये हैं। आपने स्वयं भी अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत कर लिया है, अब आपके शरीर को बुढ़ापे ने आ दबोचा है और आप पराए घर में पड़े हुए हैं।

22 आप जन्म से ही अन्धे रहे हैं और हाल ही में आप कुछ बहरे हो चुके हैं। आपकी स्मृति कम हो गई है और आपकी बुद्धि विचलित हो गई है। आपके दाँत हिल चुके हैं, आपका यकृत खराब हो चुका है और आपको कफ निकल रहा है।

23 ओह! प्राणी में जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! निश्चय ही आप एक घरेलू कुत्ते की भाँति रह रहे हैं और भीम द्वारा दिये गये जूठन को खा रहे हैं।

24 आपने अग्नि लगाकर तथा विष देकर जिन लोगों को मारना चाहा, उन्हीं के दान पर आपको जीवित रहने तथा गिरा हुआ जीवन बिताने की आवश्यकता नहीं है। उनकी एक पत्नी को भी आपने अपमानित किया है और उनका राज्य तथा धन छीन लिया है।

25 मरने के लिए आपकी अनिच्छा होने तथा आत्म-सम्मान की बलि देकर जीवित रहने की आपकी इच्छा होने पर भी, आपका यह कृपण शरीर निश्चय ही क्षीण होगा तथा पुराने वस्त्र की भाँति नष्ट हो जाएगा।

26 वह धीर कहलाता है, जो किसी अज्ञात सुदूर स्थान को चला जाए और जब यह भौतिक शरीर व्यर्थ हो जाए, तब सारे बन्धनों से मुक्त होकर अपने शरीर को त्यागता है।

27 अपने आप से या दूसरे के समझाने से जो व्यक्ति जाग जाता है और इस भौतिक जगत की असत्यता तथा दुखों को समझ लेता है तथा अपने हृदय के भीतर निवास करनेवाले भगवान पर पूर्णतया आश्रित होकर घर त्याग देता है, वह निश्चय ही उत्तम कोटि का मनुष्य है।

28 अतएव कृपया अपने कुटुम्बियों को बताये बिना, तुरन्त उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर दीजिए, क्योंकि शीघ्र ही ऐसा समय आनेवाला है, जिसमें मनुष्य के सद्गुणों का ह्रास होगा।

29 इस प्रकार आजमीढ़ के वंशज महाराज धृतराष्ट्र ने आत्मनिरीक्षणयुक्त ज्ञान (प्रज्ञा) द्वारा पूर्णतः आश्वस्त होकर तुरन्त ही अपने दृढ़ संकल्प से पारिवारिक स्नेह के सारे दृढ़ पाश तोड़ दिये। तत्पश्चात वे तत्काल घर छोड़कर, अपने छोटे भाई विदुर द्वारा दिखलाये गये मुक्ति-पथ पर निकल पड़े।

30 कन्दहार (गान्धार) के राजा सौबल की पुत्री, परम साध्वी गान्धारी ने जब यह देखा कि उसके पति हिमालय पर्वत की ओर जा रहे हैं, जो कि संन्यासियों को वैसा ही आनन्द देता है जैसा कि युद्ध के मैदान में योद्धा को शत्रुओं के प्रहार से प्राप्त होता है, तो वह भी अपने पति के पीछे-पीछे चल पड़ीं।

31 अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर ने वन्दना करके, सूर्यदेव को अग्नि-यज्ञ अर्पित करके तथा ब्राह्मणों को नमस्कार करके एवं उन्हें अन्न, गाय, भूमि तथा स्वर्ण अर्पित करके, अपने नैत्यिक प्रातःकालीन कर्म किये। तत्पश्चात वे गुरुजनों का अभिवादन करने के लिए राजमहल में प्रविष्ट हुए। किन्तु उन्हें न तो उनके ताऊ मिले, न ही राजा सुबल की पुत्री (गान्धारी) अर्थात ताई मिलीं।

32 चिन्ता से पूरित महाराज युधिष्ठिर संजय की ओर मुड़े, जो वहाँ बैठे थे और उनसे पूछा: हे संजय, हमारे वृद्ध तथा अन्धे ताऊ कहाँ हैं?

33 मेरे शुभचिन्तक चाचा विदुर तथा अपने सभी पुत्रों के निधन से अत्यन्त शोकाकुल माता गान्धारी कहाँ हैं? मेरे ताऊ धृतराष्ट्र भी अपने समस्त पुत्रों तथा पौत्रों की मृत्यु के कारण शोकार्त थे। निस्सन्देह, मैं अत्यन्त कृतघ्न हूँ। अतएव, क्या वे मेरे अपराधों को अत्यन्त गम्भीर मानकर अपनी पत्नी-सहित गंगा में कूद पड़े?

34 जब मेरे पिता पाण्डु की मृत्यु हो गई और हम सभी छोटे-छोटे बालक थे, तो इन दोनों चाचा-ताऊ ने हमें समस्त प्रकार की विपत्तियों से बचाया था। वे सदैव हमारे शुभचिन्तक रहे। हाय! वे यहाँ से कहाँ चले गये?

35 सूत गोस्वामी ने कहा: करुणा तथा मानसिक क्षोभ के कारण, संजय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न देखने से अत्यन्त दुखी थे, अतएव वे महाराज युधिष्ठिर को ठीक से उत्तर नहीं दे सके।

36 पहले उन्होंने बुद्धि द्वारा अपने मन को शान्त किया, फिर अश्रु पोंछते हुए तथा अपने स्वामी धृतराष्ट्र के चरणों का स्मरण करते हुए वे महाराज युधिष्ठिर को उत्तर देने लगे।

37 संजय ने कहा: हे कुरुवंशी, मुझे आपके दोनों ताऊओं तथा गान्धारी के संकल्प का कुछ भी पता नहीं है। हे राजन, उन महात्माओं द्वारा मैं तो ठगा गया।

38 जब संजय इस प्रकार बोल रहे थे, तो शक्तिसम्पन्न दैवी पुरुष श्री नारद अपना तम्बूरा लिए हुए वहाँ प्रकट हुए। महाराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों समेत, अपने-अपने आसन से उठकर प्रणाम करते हुए उनका विधिवत स्वागत किया।

39 महाराज युधिष्ठिर ने कहा: हे देव पुरुष, मैं नहीं जानता कि मेरे दोनों चाचा कहाँ चले गये। न ही मैं अपनी उन तपस्विनी ताई को देख रहा हूँ, जो अपने समस्त पुत्रों की क्षति के कारण शोक से व्याकुल थीं।

40 आप इस अपार समुद्र में जहाज के कप्तान सदृश हैं और आप ही हमें अपने गन्तव्य का मार्ग दिखा सकते हैं। इस प्रकार से सम्बोधित किये जाने पर, देव-पुरुष, भक्तों में सर्वश्रेष्ठ चिन्तक देवर्षि नारद कहने लगे।

41 श्रीनारद ने कहा: हे धर्मराज, आप किसी के लिए शोक मत करो, क्योंकि सारे लोग परमेश्वर के अधीन हैं। अतएव सारे जीव तथा उनके नेता (लोकपाल) अपनी रक्षा के लिए परमेश्वर की पूजा करते हैं। वे ही सबों को पास-पास लाते हैं तथा उन्हें विलग करते हैं।

42 जिस प्रकार बैल एक लम्बी रस्सी से नाक से नत्थी होकर बन्धन में रहता है, उसी तरह मनुष्य जाति विभिन्न वैदिक आदेशों से बँधकर परमेश्वर के आदेशों का पालन करने के लिए बद्ध है।

43 जिस प्रकार खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार खिलौनों को सजाता तथा बिगाड़ता है, उसी तरह भगवान की परम इच्छा मनुष्यों को पास-पास लाती है और उन्हें विलग भी करती है।

44 हे राजन, सभी परिस्थितियों में, चाहे आप आत्मा को नित्य मानो अथवा भौतिक देह को नश्वर, अथवा प्रत्येक वस्तु को निराकार परम सत्य में स्थित मानो या प्रत्येक वस्तु को पदार्थ तथा आत्मा का अकथनीय संयोग मानो, वियोग की भावनाएँ केवल मोहजनित स्नेह के कारण हैं, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

45 अतएव तुम आत्मा को न जानने के कारण उत्पन्न अपनी चिन्ता छोड़ दो। अब आप यह सोच रहे है कि वे असहाय जीव तुम्हारे बिना किस तरह रहेंगे।

46 पाँच तत्त्वों से निर्मित यह स्थूल भौतिक शरीर पहले से ही सनातन काल, कर्म तथा भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन है। तो किस तरह से यह अन्यों की रक्षा कर सकता है, जबकि यह स्वयं सर्प के मुँह में फँसा हुआ है?

47 जो बिना हाथ वाले हैं, वे हाथ वालों के शिकार हैं। जो पाँवों से विहीन हैं, वे चौपायों के शिकार हैं। निर्बल सबल के भोज्य हैं और सामान्य नियम यह है कि एक जीव दूसरे जीव का भोजन बना हुआ है।

48 अतएव हे राजन, तुम्हें एकमात्र परमेश्वर को देखना चाहिए, जो अद्वितीय हैं और जो विभिन्न शक्तियों से साक्षात प्रकट होते हैं और भीतर तथा बाहर दोनों में हैं।

49 वे ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण, सर्वभक्षी काल के वेश (कालरूप) में, अब संसार से द्वेषी लोगों का सर्वनाश करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।

50 भगवान ने देवताओं की सहायता करने का अपना कर्तव्य पहले ही पूरा कर दिया है और जो शेष है, उसके लिए वे प्रतीक्षारत हैं। आप सभी पाण्डव तब तक प्रतीक्षा कर सकते हो, जब तक भगवान इस धरा पर उपस्थित हैं।

51 हे राजन, आपके चाचा धृतराष्ट्र, उनके भाई विदुर तथा उनकी पत्नी गान्धारी, हिमालय के दक्षिण की ओर गये हैं, जिधर बड़े-बड़े ऋषियों के आश्रम हैं।

52 यह स्थान सप्तस्रोत (सात द्वारा विभाजित) कहलाता है, क्योंकि यहाँ पर पवित्र गंगा नदी का जल सात शाखाओं में विभाजित किया गया था। ऐसा महान सप्तऋषियों की तुष्टि के लिए किया गया था।

53 इस समय सप्तस्रोत के तट पर धृतराष्ट्र नित्य तीन बार प्रातः, दोपहर तथा संध्या समय, स्नान करके, अग्निहोत्र यज्ञ सम्पन्न करके तथा केवल जल पीकर अष्टांग योग का अभ्यास करने में लगे हैं। इससे मनुष्य को मन तथा इन्द्रियों पर संयम रखने में सहायता मिलती है और वह पारिवारिक स्नेह-सम्बन्धी विचारों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।

54 जिसने यौगिक आसनों तथा श्वास लेने की विधि को वश में कर लिया है, वह अपनी इन्द्रियों को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रति मोड़कर भौतिक प्रकृति के गुणों अर्थात सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण के कल्मष के प्रति निर्लिप्त बन जाता है।

55 धृतराष्ट्र को अपनी शुद्ध सत्ता को बुद्धि में संयोजित करके, तब परम पुरुष के साथ, जीव के रूप में, गुणों के एकात्मकता के बोध सहित, परम ब्रह्म के साथ तदाकार होना होगा। घटाकाश से मुक्त होकर उन्हें आध्यात्मिक आकाश तक ऊपर उठना होगा।

56 उन्हें इन्द्रियों के सारे कार्य बाहर से भी रोक देने होंगे और भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित होनेवाली इन्द्रियों की अन्त:क्रियाओं के प्रति भी अभेद्य रहना होगा। इन सारे भौतिक कार्यों का परित्याग करने पर वे अचल हो जायेंगे और मार्ग के सारे अवरोधों को पार कर जायेंगे।

57 हे राजन, सम्भव यह है कि वे आज से पाँचवे दिन अपना शरीर छोड़ देंगे और उनका शरीर राख हो जाएगा।

58 बाहर से अपने पति को अपनी योग शक्ति की अग्नि में अपनी कुटिया समेत जलता हुआ देखकर उसकी साध्वी पत्नी एकाग्रता पूर्वक ध्यानमग्न होकर अग्नि में प्रवेश करेगी।

59 तब हर्ष तथा शोक से अभिभूत होकर, विदुर उस पवित्र तीर्थ-स्थान से चले जाएँगे।

60 ऐसा कहकर महर्षि नारद, अपनी वीणा-समेत बाह्य आकाश में चले गये। युधिष्ठिर ने उनके उपदेश को अपने हृदय में धारण किया, जिससे वे सारे शोकों से मुक्त हो गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बारह – सम्राट परीक्षित का जन्म (1.12)

1 शौनक मुनि ने कहा: महाराज परीक्षित की माता उत्तरा का गर्भ अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गये अत्यन्त भयंकर तथा अजेय ब्रह्मास्त्र द्वारा विनष्ट कर दिया गया, लेकिन परमेश्वर ने महाराज परीक्षित को बचा लिया।

2 अत्यन्त बुद्धिमान तथा महान भक्त महाराज परीक्षित उस गर्भ से कैसे उत्पन्न हुए? उनकी मृत्यु किस तरह हुई? और मृत्यु के बाद उन्होंने कौनसी गति प्राप्त की?

3 हम सभी अत्यन्त आदरपूर्वक उनके (महाराज परीक्षित के) विषय में सुनना चाहते हैं, जिन्हें श्रील शुकदेव गोस्वामी ने दिव्य ज्ञान प्रदान किया। कृपया हमें इस विषय में बताएँ।

4 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: सम्राट युधिष्ठिर ने अपने राज्य-काल में सबों के ऊपर उदारतापूर्वक शासन चलाया। वे उनके पिता तुल्य ही थे। उन्हें कोई व्यक्तिगत आकांक्षा न थी और भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की निरन्तर सेवा करते रहने के कारण, वे सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति से विरक्त थे।

5 महाराज युधिष्ठिर की सांसारिक उपलब्धियों, सद्गति प्राप्त करने लिए किये जानेवाले यज्ञों, उनकी महारानी, उनके पराक्रमी भाइयों, उनके विस्तृत भूभाग, पृथ्वीग्रह पर उनका सार्वभौम अधिपत्य तथा उनकी ख्याति आदि के समाचार स्वर्ग-लोक तक पहुँच गये।

6 हे ब्राह्मणों, राजा का ऐश्वर्य इतना मोहक था कि स्वर्ग के निवासी भी उसकी आकांक्षा करने लगे थे। लेकिन चूँकि वे भगवान की सेवा में तल्लीन रहते थे, अतएव उन्हें भगवान की सेवा के अतिरिक्त कुछ भी तुष्ट नहीं कर सकता था।

7 हे भृगुपुत्र (शौनक), जब महान योद्धा बालक परीक्षित अपने माता उत्तरा के गर्भ में थे और (अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गये) ब्रह्मास्त्र के ज्वलन्त ताप से पीड़ित थे, तो उन्होंने परमेश्वर को अपनी ओर आते देखा।

8 वे (भगवान) केवल अँगूठा भर ऊँचे थे, किन्तु वे थे पूर्णतः दिव्य । उनका शरीर अत्यन्त सुन्दर, श्याम वर्ण का तथा अच्युत था और उनका वस्त्र बिजली के समान चमचमाता पीतवर्ण का तथा उनका मुकुट देदीप्यमान सोने का था। बालक ने उन्हें इस रूप में देखा।

9 भगवान चार भुजाओं से युक्त थे, उनके कुण्डल सोने के थे तथा आँखें क्रोध से रक्त जैसी लाल थीं। जब वे चारों ओर घूमने लगे, तो उनकी गदा उनके चारों ओर गिरते तारे (उल्का) की भाँति निरन्तर चक्कर लगाने लगी।

10 भगवान उस ब्रह्मास्त्र के तेज को विनष्ट करने में इस प्रकार संलग्न थे, जिस तरह सूर्य ओस की बूँदों को उड़ा देता है। वे बालक को दिखाई पड़े, तो वह सोचने लगा कि वे कौन थे ?

11 इस प्रकार बालक के देखते-देखते, प्रत्येक जीव के परमात्मा तथा धर्म के पालक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, जो सारी दिशाओं में व्याप्त हैं और काल तथा देश की सीमाओं से परे हैं, तुरन्त अन्तर्धान हो गये।

12 तत्पश्चात, जब क्रमशः सारी राशि तथा नक्षत्रों से शुभ लक्षण प्रकट हो आये, तब पाण्डु के उत्तराधिकारी ने जन्म लिया, जो पराक्रम में उन्हीं के समान होगा।

13 महाराज परीक्षित के जन्म से अत्यन्त संतुष्ट हुए राजा युधिष्ठिर ने जात-संस्कार करवाया। धौम्य, कृप इत्यादि विद्वान ब्राह्मणों ने शुभ स्तोत्रों का पाठ किया।

14 पुत्र के जन्म लेने पर राजा ने ब्राह्मणों को सोना, भूमि, ग्राम, हाथी, घोड़े तथा उत्तम अन्न दान में दिया, क्योंकि वे जानते थे कि कैसे, कहाँ और कब दान देना चाहिए।

15 राजा के दान से अत्यधिक संतुष्ट विद्वान ब्राह्मणों ने राजा को पुरुओं में प्रधान कहकर सम्बोधित किया और बताया कि उनका पुत्र निश्चय ही पुरुओं की परम्परा में है।

16 ब्राह्मणों ने कहा: यह निष्कलंक पुत्र आप पर अनुग्रह करने के लिए सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापी भगवान विष्णु द्वारा बचाया गया है। उसे तब बचाया गया, जब वह दुर्निवार अतिदैवी अस्त्र द्वारा नष्ट होने ही वाला था।

17 इस कारण यह बालक संसार में विष्णुरात (भगवान द्वारा रक्षित) नाम से विख्यात होगा। हे महा भाग्यशाली, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह बालक महाभागवत (उत्तम कोटि का भक्त) होगा और समस्त गुणों से सम्पन्न होगा।

18 उत्तम राजा (युधिष्ठिर) ने पूछा : हे महात्माओं, क्या यह बालक इस महान राजवंश में प्रकट हुए अन्य राजाओं की ही तरह राजर्षि, पवित्र नामवाला, उतना ही विख्यात तथा अपनी उपलब्धियों से महिमामण्डित होगा ?

19 विद्वान ब्राह्मणों ने कहा: हे पृथापुत्र, यह बालक मनु-पुत्र, राजा इक्ष्वाकु की ही तरह समस्त जीवों का पालन करनेवाला होगा और जहाँ तक ब्राह्मणीय सिद्धान्तों के पालन की बात है, विशेष रूप से अपने वचन का पालन करने में, यह महाराज दशरथ के पुत्र भगवान राम जैसा (दृढ़ प्रतिज्ञ) होगा।

20 यह बालक सुप्रसिद्ध उशीनर नरेश, शिबि, की भाँति उदार दानवीर तथा शरणागतों का रक्षक होगा। यह अपने कुल के नाम तथा यश को उसी तरह फैला देगा, जिस तरह महाराज दुष्यन्त के पुत्र भरत ने किया था।

21 महान धनुर्धरों में यह बालक अर्जुन के समान होगा। यह अग्निदेव के समान दुर्निवार तथा समुद्र की भाँति दुर्लंघ्य होगा।

22 यह बालक सिंह के समान बलशाली तथा हिमालय की भाँति आश्रय प्रदान करनेवाला होगा। यह पृथ्वी के समान क्षमावान तथा अपने माता-पिता के समान सहिष्णु होगा।

23 यह बालक मन की समता में अपने पितामह युधिष्ठिर या फिर ब्रह्मा के समान होगा। दानशीलता में यह कैलाशपति शिव के समान होगा। यह देवी लक्ष्मी के भी आश्रय, भगवान नारायण के समान सबों को आश्रय देनेवाला होगा।

24 यह बालक भगवान श्रीकृष्ण के चरणचिन्हों का पालन करते हुए, उन्हीं के समान होगा। उदारता में यह राजा रंतिदेव के समान तथा धर्म में यह महाराज ययाति की भाँति होगा।

25 यह बालक धैर्य में बलि महाराज के समान होगा और प्रह्लाद महाराज के समान कृष्ण का अनन्य भक्त, यह अनेक अश्वमेध यज्ञों को सम्पन्न करनेवाला तथा वृद्ध एवं अनुभवी व्यक्तियों का अनुयायी होगा।

26 यह बालक ऋषि तुल्य राजाओं का पिता होगा। विश्व-शान्ति तथा धर्म के निमित्त यह मर्यादा तोड़नेवालों तथा उपद्रवकारियों को दण्ड देनेवाला होगा।

27 वह ब्राह्मण पुत्र के द्वारा भेजे गये तक्षक नाग के डसने से अपनी मृत्यु होने की बात सुनकर समस्त भौतिक आसक्ति से अपने आपको मुक्त करके, भगवान को आत्म-समर्पण करके उन्हीं की शरण ग्रहण करेगा।

28 व्यासदेव के महान दार्शनिक पुत्र से समुचित आत्म-ज्ञान के विषय में जिज्ञासा करने पर वह सारी भौतिक आसक्ति का परित्याग करेगा और निर्भय जीवन प्राप्त करेगा।

29 इस प्रकार जो लोग ज्योतिष ज्ञान में तथा जन्मोत्सव सम्पन्न कराने में पटु थे, उन्होंने इस बालक के भविष्य के विषय में राजा युधिष्ठिर को उपदेश दिया। फिर प्रचुर दक्षिणा प्राप्त करके, वे अपने घरों को लौट गये।

30 इस तरह यह पुत्र संसार में परीक्षित (परीक्षक) नाम से विख्यात होगा, क्योंकि यह उन व्यक्ति की खोज करने के लिए सारे मनुष्यों का परीक्षण करेगा, जिन्हें इसने अपने जन्म के पूर्व देखा है। इस तरह यह निरन्तर उनका (भगवान का) चिन्तन करता रहेगा।

31 जिस तरह शुक्लपक्ष में चन्द्रमा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, उसी तरह यह राजकुमार (परीक्षित) शीघ्र ही अपने संरक्षक पितामहों की देख-रेख तथा सुख-सुविधाओं के बीच तेजी से विकास करने लगा।

32 इसी समय राजा युधिष्ठिर स्वजनों से युद्ध करने के कारण किए गए पापों से मुक्ति पाने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने पर विचार कर रहे थे। लेकिन उन्हें कुछ धन प्राप्त करने की चिन्ता सवार थी, क्योंकि लगान तथा जुर्माने से एकत्र कोष के अतिरिक्त और कोई धन-संग्रह न था।

33 राजा की हार्दिक इच्छाओं को जानकर, उसके भाइयों ने अच्युत भगवान कृष्ण की प्रेरणानुसार, उत्तर दिशा से (राजा मरुत्त द्वारा छोड़ा गया) प्रचुर धन एकत्र किया।

34 उस धन से राजा तीन अश्वमेध यज्ञों के लिए सामग्री उपलब्ध कर सके। कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद अत्यन्त भयभीत पुण्यात्मा राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार भगवान हरि को प्रसन्न किया।

35 महाराज युधिष्ठिर द्वारा यज्ञ में आमंत्रित होकर, भगवान श्रीकृष्ण ने इस बात का ध्यान रखा कि ये सारे यज्ञ योग्य (द्विज) ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न कराये जाएँ। तत्पश्चात सम्बन्धियों की प्रसन्नता के लिए, भगवान वहाँ कुछेक मास रहते रहे।

36 हे शौनक, तत्पश्चात भगवान ने राजा युधिष्ठिर, द्रौपदी तथा अन्य सम्बन्धियों से विदा लेकर,अर्जुन तथा यदुवंश के अन्य सदस्यों के साथ, द्वारका नगरी के लिए प्रस्थान किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय ग्यारह – भगवान श्रीकृष्ण का द्वारका में प्रवेश(1.11)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: आनर्तों के देश के नाम से विख्यात अपनी अत्यन्त समृद्ध राजनगरी (द्वारका) के निकट पहुँच कर, भगवान ने अपना आगमन उद्घोषित करने तथा निवासियों की निराशा को शान्त करने के लिए अपना शुभ शंख बजाया।

2 श्वेत तथा मोटे पेंदेवाला शंख, भगवान के हाथों द्वारा पकड़ा जाकर तथा उनके द्वारा बजाया जाकर, ऐसा लग रहा था मानों उनके दिव्य होठों का स्पर्श करके लाल हो गया हो। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों कोई श्वेत हंस लाल रंग के कमलदण्डों के बीच खेल रहा हो।

3 भौतिक जगत में साक्षात भय को भी भयभीत बनानेवाले, उस शब्द को सुनकर द्वारका के नागरिक उनकी ओर तेजी से दौड़ने लगे, जिससे वे भक्तों के रक्षक भगवान का चिर अभिलाषित दर्शन कर सकें ।

4-5 सारे नागरिक अपनी-अपनी भेंटें लिये हुए, भगवान के सम्मुख आये और उन्हें उन परम संतुष्ट तथा आत्म-निर्भर भगवान को अर्पित किया, जो अपनी निजी शक्ति से अन्यों की आवश्यकताओं की निरन्तर पूर्ति करते रहते हैं। ये भेंटें सूर्य को दिये गये दीप--दान जैसी थीं। फिर भी सारे नागरिक भगवान के स्वागत में ऐसी आह्लादमयी भाषा में बोलने लगे, मानो बच्चे अपने अभिभावक तथा पिता का स्वागत कर रहे हों।

6 नागरिकों ने कहा: हे भगवन, आप ब्रह्मा, चारों कुमार तथा स्वर्ग के राजा जैसे समस्त देवताओं द्वारा भी पूजित हैं। आप उन लोगों के परम आश्रय हैं, जो जीवन का सर्वोच्च लाभ उठाने के लिए इच्छुक हैं। आप परम दिव्य भगवान हैं और प्रबल काल भी आप पर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकता।

7 हे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा, आप हमारे माता, शुभचिन्तक, प्रभु, पिता, आध्यात्मिक गुरु तथा आराध्य देव हैं। हम आपके चरण चिन्हों पर चलते हुए सभी प्रकार से सफल हुए हैं। अतएव हमारी प्रार्थना है कि आप हमें अपनी कृपा का आशीर्वाद देते रहें।

8 अहो! यह तो हमारा सौभाग्य है कि आज पुनः आपकी उपस्थिति से हम आपके संरक्षण में आ गये, क्योंकि आप स्वर्ग के निवासियों के यहाँ भी कभी-कभी जाते हैं। आपके स्मितमुख को देख पाना हमारे लिए अब सम्भव हो सका है, जो स्निग्ध चितवन से पूर्ण है। अब हम आपके सर्व-सौभाग्यशाली दिव्य रूप का दर्शन कर सकते हैं।

9 हे कमलनयन भगवान, आप जब भी अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से भेंट करने मथुरा, वृन्दावन या हस्तिनापुर चले जाते हैं, तो आपकी अनुपस्थिति में प्रत्येक क्षण हमें करोड़ों वर्षों के समान प्रतीत होता है। हे अच्युत, उस समय हमारी आँखेँ इस तरह व्यर्थ हो जाती है मानो सूर्य से बिछुड़ गई हों।

10 हे स्वामी, यदि आप सारे समय बाहर रहते हैं, तो हम आपके उस मनोहर मुखमण्डल को नहीं देख पाते, जिसकी मुसकान हमारे सारे कष्टों को दूर कर देती है। भला हम आपके बिना कैसे रह सकते हैं? उनकी वाणी सुनकर, प्रजा तथा भक्तों पर अत्यन्त दयालु भगवान ने द्वारकापुरी में प्रवेश किया और उन सबों पर अपनी दिव्य दृष्टि डालते हुए उनका अभिनन्दन स्वीकार किया।

11 जिस प्रकार नागलोक की राजधानी भोगवती नागों के द्वारा रक्षित है, उसी तरह द्वारका की रक्षा कृष्ण के समान बलवान वृष्णि के वंशजों – भोज, मधु, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अंधक इत्यादि--द्वारा की जाती थी।

12 द्वारकापुरी समस्त ऋतुओं के ऐश्वर्य से पूर्ण थी। उसमें सर्वत्र आश्रम, उद्यान, पुष्पोद्यान, पार्क तथा कमलों से परिपूर्ण जलाशय थे।

13 भगवान के स्वागतार्थ नगर का द्वार, घरों के दरवाजे तथा सड़कों के किनारे झण्डियों से सजे बन्दनवार बहुत ही सुन्दर ढंग से केले के वृक्षों तथा आम की पत्तियों जैसे मांगलिक प्रतिकों से सजाये गये थे। झण्डियाँ, फूल-मालाएँ, चित्रित संकेत एवं लिखे गये सुवाक्य धूप को अवरुद्ध कर रहे थे।

14 पथ, मार्गों, बाजारों तथा चौकों को भलीभाँति झाड़-बुहारकर उन पर सुगन्धित जल छिड़का गया था और भगवान का स्वागत करने के लिए सर्वत्र फल-फूल तथा अक्षत अंकुर बिखेरे गये थे।

15 प्रत्येक घर के द्वार पर दही, अक्षत, फल, गन्ना तथा पूरे भरे हुए जलपात्रों के साथ ही पूजन की सामग्री, धूप तथा बत्तियाँ सजा दी गई थीं।

16-17 यह सुनकर कि परम प्रिय कृष्ण द्वारकाधाम पहुँच रहे हैं, महामना वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, बलराम (अलौकिक शक्तिसम्पन्न), प्रद्युम्न, चारुदेष्ण तथा जाम्बवती-पुत्र शाम्ब इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने लेटना, बैठना तथा भोजन करना छोड़ दिया।

18 वे फूल थामे हुए ब्राह्मणों समेत रथों पर भगवान की ओर तेजी से बढ़े। उनके आगे-आगे सौभाग्य के प्रतीक हाथी थे। शंख तथा तुरही बज रहे थे और वैदिक स्तोत्र उच्चरित हो रहे थे। इस प्रकार उन्होंने स्नेहसिक्त अभिवादन किया।

19 उसी समय सैकड़ों विख्यात गणिकाएँ विविध सवारियों पर आरूढ़ होकर आगे बढ़ चलीं। वे सभी भगवान से मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक थीं और उनके सुन्दर मुख-मण्डल चमचमाते कुण्डलों से सुशोभित थे, जिनके कारण उनके ललाट की शोभा बढ़ रही थी।

20 कुशल नाटककार, कलाकार, नर्तक, गायक, पौराणिक, वंशावली-विशारद (भाट) तथा विद्वान वक्ता (वाचक) सबों ने भगवान के अलौकिक कार्यकलापों से प्रेरित होकर अपना-अपना योगदान दिया। इस प्रकार वे आगे बढ़ते गये।

21 भगवान श्रीकृष्ण उनके निकट गये और उन्होंने अपने समस्त मित्रों, सम्बन्धियों, नागरिकों तथा उन समस्त लोगों को, जो उन्हें लेने तथा स्वागत करने के लिए आये थे, यथायोग्य सम्मान तथा आदर प्रदान किया।

22 सर्वशक्तिमान भगवान ने वहाँ पर समुपस्थित लोगों को, यहाँ तक कि निम्न से निम्न जाति वाले को, अपना मस्तक झुकाकर, बधाई देकर, आलिंगन करके, हाथ मिलाकर, देखकर तथा हँसकर, आश्वासन देकर तथा वरदान देकर उनका अभिवादन किया।

23 तब भगवान ने ज्येष्ठ-वरेष्ठ सम्बन्धियों तथा अपनी-अपनी पत्नियों के साथ आए अशक्त ब्राह्मणों के साथ नगर में प्रवेश किया। वे सब आशीर्वाद दे रहे थे और भगवान के यशों का गान कर रहे थे। दूसरे लोगों ने भी भगवान की महिमा की प्रशंसा की।

24 जब भगवान राजमार्ग से होकर जा रहे थे, तो द्वारका के प्रतिष्ठित परिवारों की सभी स्त्रियाँ भगवान का दर्शन करने के लिए अपने-अपने महलों की अटारियों पर चढ़ गईं। इसे वे एक महान उत्सव समझ रही थीं।

25 द्वारकावासी समस्त सौन्दर्य के आगार अच्युत भगवान को नित्य निहारने के अभ्यस्त थे, फिर भी वे कभी तृप्त नहीं होते थे।

26 भगवान का वक्षस्थल लक्ष्मी देवी का निवासस्थल है। उनका चाँद जैसा मुखड़ा उन नेत्रों के लिए जलपात्र के समान है, जो सुन्दर वस्तुओं के लिए सदैव लालायित रहते हैं। उनकी भुजाएँ प्रशासक देवताओं के लिए आश्रयस्थल हैं और उनके चरणकमल उन शुद्ध भक्तों की शरणस्थली हैं, जो भगवान के अतिरिक्त न तो कुछ कहते हैं, न गाते हैं।

27 जब भगवान द्वारका के राजमार्ग से होकर गुजर रहे थे, तब एक श्वेत छत्र तानकर उनके सिर को धूप से बचाया जा रहा था। श्वेत पंखों वाले पंख (चँवर) अर्धवृत्ताकार में झल रहे थे और मार्ग पर फूलों की वर्षा हो रही थी। पीताम्बर तथा फूलों के हार से वे इस प्रकार प्रतीत हो रहे थे, मानो श्याम बादल एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, बिजली तथा इन्द्रधनुष से घिर गया हो।

28 अपने पिता के घर में प्रवेश करने पर उन्हें उनकी माताओं ने गले लगाया और भगवान ने उनके चरणों पर अपना सिर रखकर उन्हें नमस्कार किया। माताओं में देवकी (उनकी असली माता) प्रमुख थीं।

29 माताओं ने अपने पुत्र को गले लगाने के बाद, उसे अपनी-अपनी गोद में बिठाया। विशुद्ध स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध निकल आया। वे हर्ष से विभोर हो गई और उनके नेत्रों के अश्रुओं से भगवान भीग गये।

30 तत्पश्चात भगवान अपने महलों में प्रविष्ट हुए, जो सभी तरह से परिपूर्ण थे। उनमें उनकी पत्नियाँ रहती थीं और वे सोलह हजार से अधिक थीं।

31 दीर्घकाल तक बाहर रहने के बाद अपने पति को घर आया देखकर श्रीकृष्ण की रानियाँ मन ही मन अत्यन्त हर्षित हुई। वे अपने अपने आसनों तथा ध्यानों से तुरन्त उठकर खड़ी हो गईं। सामाजिक प्रथा के अनुकूल, उन्होंने लज्जा से अपने मुख ढक लिये और दृष्टि नीची किये देखने लगीं।

32 रानियों की दुर्लंघ्य उत्कण्ठा इतनी तीव्र थी कि लजाई होने के कारण उन्होंने सर्वप्रथम अपने अन्तरतम से भगवान का आलिंगन किया, फिर उन्होंने दृष्टि से उनका आलिंगन किया और तब अपने पुत्रों को उनका आलिंगन करने के लिए भेजा (जो खुद ही आलिंगन करने जैसा है)। लेकिन हे भृगुश्रेष्ठ, यद्यपि वे भावनाओं को रोकने का प्रयास कर रही थीं, किन्तु अनजाने उनके नेत्रों से अश्रु छलक आये।

33 यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण निरन्तर उनके पास थे और बिल्कुल अकेले भी थे, तो भी उनके चरण उन्हें नवीनतर लग रहे थे। यद्यपि लक्ष्मी जी स्वभाव से चंचल हैं, लेकिन वे भी भगवान के चरणों को नहीं छोड़ती थीं। तो भला जो स्त्री एक बार उन चरणों की शरण में जा चुकी हो, वह उनसे किस प्रकार विलग की जा सकती है?

34 पृथ्वी पर भार-स्वरूप राजाओं को मारने के बाद, भगवान को राहत हुई। वे अपनी सैन्य-शक्ति, अपने घोड़ों, हाथियों, रथों, पैदल सेना के बल पर गर्वित थे। युद्ध में भगवान किसी दल में सम्मिलित नहीं हुए। उन्होंने बलशाली प्रशासकों में शत्रुता उत्पन्न की और वे आपस में लड़ गये। वे उस वायु के समान थे, जो बाँसों में घर्षण उत्पन्न करके आग लगा देती है।

35 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण अपनी अहैतुकी, की कृपा से अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा इस लोक में प्रकट हुए और सुयोग्य स्त्रियों के साथ इस तरह भोग किया, मानो वे संसारी कार्यों में लगे हुए हों।

36 यद्यपि रानियों की मृदु मुस्कानें तथा बाँकी चितवनें अत्यन्त विमल तथा उत्तेजक थीं, जिससे साक्षात कामदेव भी मोहित होकर अपने धनुष त्यागने के लिए बाध्य हो सकते थे, यहाँ तक कि अत्यन्त सहिष्णु शिवजी भी उनके शिकार हो सकते थे तो भी, वे अपने समस्त हाव-भाव तथा आकर्षण से भगवान की इन्द्रियों को विचलित नहीं कर सकीं।

37 सामान्य भौतिकतावादी बद्धजीव सोचते रहते हैं कि भगवान उन्हीं में से एक हैं। अपने अज्ञान के कारण वे सोचते हैं कि पदार्थ का भगवान पर प्रभाव पड़ता है, भले ही वे अनासक्त रहते हैं।

38 यह तो भगवान की अलौकिकता है कि वे भौतिक प्रकृति के गुणों के संसर्ग में रहते हुए भी उनसे प्रभावित नहीं होते। इसी प्रकार जिन भक्तों ने भगवान की शरण ग्रहण कर ली है, वे भी भौतिक गुणों से प्रभावित नहीं होते।

39 वे सरल तथा सुकोमल स्त्रियाँ सचमुच ही सोच बैठीं कि उनके प्रिय पति भगवान श्रीकृष्ण, उनसे आकर्षित हैं और उनके वशीभूत हैं। वे अपने पति की महिमाओं से उसी तरह अनजान थीं, जिस प्रकार नास्तिक लोग परम नियन्ता के रूप में भगवान से अनजान रहते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दस – द्वारका के लिए भगवान कृष्ण का प्रस्थान(1.10)

1 शौनक मुनि ने पूछा: जो महाराज युधिष्ठिर की वैध पैतृक सम्पत्ति को छीनना चाहते थे, उन शत्रुओं का वध करने के बाद महानतम धर्मात्मा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की सहायता से अपनी प्रजा पर किस प्रकार शासन चलाया? निश्चित ही वे अपने साम्राज्य का उपभोग मुक्त होकर अनियंत्रित चेतना से नहीं कर सके।

2 सूत गोस्वामी ने कहा: विश्व के पालनकर्ता भगवान श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिर को उनके साम्राज्य में पुनः प्रस्थापित करके एवं क्रोध की दावाग्नि से विनष्ट हुए कुरुवंश को पुनरुज्जीवित करके अत्यन्त प्रसन्न हुए।

3 भीष्मदेव तथा अच्युत भगवान श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा था, उससे प्रबुद्ध होकर महाराज युधिष्ठिर परिपूर्ण ज्ञान विषयक मामलों में व्यस्त हो गये, क्योंकि उनके सारे सन्देह दूर हो चुके थे। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी तथा सागरों पर राज्य किया और उनके छोटे भाई उनका साथ देते रहे।

4 महाराज युधिष्ठिर के राज्य में मनुष्यों को जितना भी पानी चाहिए था, बादल उतना पानी बरसाते थे और पृथ्वी मनुष्यों की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति पर्याप्त मात्रा में करती थी। दूध से भरे थनों वाली तथा प्रसन्न-चित्त गौवें अपने दूध से चरागाही को सिक्त करती रहती थीं।

5 प्रत्येक ऋतु में नदियाँ, समुद्र, पर्वत, जंगल, लताएँ तथा कारगर औषधियाँ प्रचुर मात्रा में राजा को अपना-अपना कर चुकता करती थीं।

6 चूँकि राजा का कोई शत्रु न था, अतएव सारे जीव, किसी भी समय मानसिक क्लेशों, रोगों या अत्यधिक ताप या शीत से विचलित नहीं थे।

7 श्री हरि अपने सम्बन्धियों को सान्त्वना देने तथा अपनी बहन (सुभद्रा) को प्रसन्न करने के लिए कुछ महीने हस्तिनापुर में रहे।

8 तत्पश्चात जब भगवान ने प्रस्थान करने की अनुमति माँगी और राजा ने अनुमति दे दी तो भगवान ने महाराज युधिष्ठिर के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम किया और राजा ने उनको गले लगा लिया। इसके बाद अन्यों द्वारा गले मिलने एवं नमस्कृत होकर, वे अपने रथ में आरूढ़ हुए।

9-10 उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य तथा सत्यवती, सभी मूर्छित से हो गये, क्योंकि भगवान कृष्ण का वियोग सह पाना उन सबों के लिए असम्भव था।

11-12 वह बुद्धिमान जिसने शुद्ध भक्तों की संगति से परमेश्वर को समझ लिया है और भौतिक कुसंगति से अपने को छुड़ा लिया है, वह भगवान के यश को सुनने से चूकेगा नहीं; उसने चाहे उनके विषय में एक ही बार क्यों न सुना हो। तो भला, पाण्डव उनके वियोग को कैसे सह पाते? क्योंकि वे उनसे घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित थे, वे उन्हें साक्षात अपने समक्ष देखते थे, उनका स्पर्श करते थे, उनसे बातें करते थे और उन्हीं के पास सोते, उठते-बैठते तथा भोजन करते थे।

13 उन सबके हृदय उनके आकर्षण-रूपी पात्र में द्रवित हो रहे थे। वे उन्हें अपलक नेत्रों से देख रहे थे और (स्नेह-बन्धन में बँधकर) व्यग्रता से इधर-उधर मचल रहे थे।

14 सगी-सम्बन्धी (नातेदार) स्त्रियाँ, जिनके नेत्रों से कृष्ण के लिए व्याकुलतावश अश्रुधारा निकल रही थी, महल से बाहर आ गई। वे बड़ी मुश्किल से अपने आँसू रोक पाई। उन्हें भय था कि प्रस्थान के अवसर पर आँसुओं से अपशकुन हो सकता है।

15 हस्तिनापुर के राजमहल से भगवान के प्रस्थान समय, उनके सम्मान में विभिन्न प्रकार के ढोल यथा – मृदंग, ढ़ोल, नगाड़े, धुंधुरी तथा दुन्दुभी--एवं तरह-तरह की वंशियाँ, वीणा, गोमुख और भेरियाँ एकसाथ बज उठे।

16 भगवान को देखने की प्रेममयी इच्छा से कुरुओं की राजवंशी स्त्रियाँ राजमहल की छत पर चढ़ गई और स्नेह तथा लज्जा से युक्त हँसती हुई भगवान पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं।

17 उस समय महान योद्धा तथा निद्रा को जीतनेवाले अर्जुन ने, जो परम प्रिय भगवान का घनिष्ठ मित्र था, एक छाता ले लिया जिसका हत्था रत्नों का था और जिसमें मोतियों की झालर लगी थी।

18 उद्धव तथा सात्यकि अलंकृत पंखों से भगवान पर पंखा झलने लगे और मधु के स्वामी कृष्ण ने बिखरे हुए पुष्पों पर आसीन होकर उन्हें मार्ग पर चलने के लिए आदेश दिया।

19 जहाँ-तहाँ यह सुनाई पड़ रहा था कि कृष्ण को दिये गये आशीर्वाद, न तो उनके उपयुक्त हैं, न अनुपयुक्त, क्योंकि वे सब उन परम पुरुष के लिए थे जो इस समय मनुष्य की भूमिका निभा रहे थे।

20 चुने हुए छन्दों से जिनकी स्तुति की जाती है, ऐसे भगवान के दिव्य गुणों के विचार में डूबीं, हस्तिनापुर के सभी घरों की छतों पर चढ़ी हुई स्त्रियाँ, उनके विषय में बातें करने लगीं। ये बातें वैदिक स्तोत्रों से कहीं अधिक आकर्षक थीं।

21 वे कहने लगीं: जैसा हमें निश्चित रूप से स्मरण है, यही है वे, जो आदि परमेश्वर हैं। प्रकृति के गुणों की व्यक्त सृष्टि के पूर्व, वे ही अकेले विद्यमान थे। चूँकि वे परमेश्वर हैं, अतएव सारे जीव उन्हीं में लीन होते हैं, मानो रात्रि में सोये हुए हों और उनकी शक्ति रुक गई हो।

22 तब भगवान ने अपने अंशस्वरूप जीवों को, नाम तथा रूप प्रदान करने की इच्छा से, उन्हें भौतिक प्रकृति के मार्गदर्शन के अन्तर्गत कर दिया। उनकी ही अपनी शक्ति से भौतिक प्रकृति को पुनः सृष्टि करने के लिए अधिकृत कर दिया गया है।

23 ये ही वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, जिनके दिव्य रूप का अनुभव उन बड़े-बड़े भक्तों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने सुदृढ़ भक्ति द्वारा तथा जीवन एवं इन्द्रियों पर पूर्ण संयम द्वारा, भौतिक चेतनता से शुद्धि प्राप्त कर ली है। अस्तित्व को विमल बनाने का यही एकमात्र मार्ग है।

24 हे सखियों, यहाँ पर वही भगवान हैं, जिनकी आकर्षक तथा गोपनीय लीलाओं का वर्णन बड़े-बड़े भक्तों द्वारा वैदिक साहित्य के गुह्यतम अंशों में हुआ है। वे ही भौतिक जगत की सृष्टि करने वाले, पालने वाले तथा संहार करनेवाले हैं, फिर भी वे उससे अप्रभावित रहते हैं।

25 जब भी राजा तथा प्रशासक, तमोगुण में स्थित पशुओं की तरह रहते हैं, तो भगवान अपने दिव्य रूप में अपनी परम शक्ति, सत्य ऋत, को प्रकट करते हैं, श्रद्धालुओं पर विशेष दया दिखाते हैं, अद्भुत कार्य करते हैं तथा विभिन्न कालों तथा युगों में आवश्यकतानुसार विभिन्न दिव्य रूप प्रकट करते हैं।

26 ओह, यदुवंश कितना यशस्वी है और मथुरा की भूमि कितनी पुण्यमयी है, जहाँ समस्त जीवों के परम नायक, लक्ष्मीपति ने जन्म लिया और अपने बचपन में विचरण किया है।

27 निस्सन्देह, यह कितना आश्चर्यजनक है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश को पछाड़ कर पृथ्वी की प्रसिद्धि को बढ़ाया है। द्वारका के निवासी उनके प्रिय स्वरूप में समस्त जीवों के आत्मा (कृष्ण) का सदैव दर्शन करते हैं। भगवान उन पर दृष्टिपात करते हैं और अपनी मुसकान भरी चितवन से उन्हें कृतार्थ करते हैं।

28 हे सखियों, तनिक उनकी पत्नियों के विषय में सोचो, जिनके साथ उनका पाणिग्रहण हुआ था। उन्होंने कैसा व्रत, स्नान, यज्ञ तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी की सम्यक पूजा की होगी, जिससे वे सब उनके अधरामृत का निरन्तर आस्वादन कर रही हैं? ब्रजभूमि की बालाएँ ऐसी कृपा की कल्पना से ही प्रायः मूर्छित हो जाती होंगी।

29 इन पत्नियों से सन्तानें हैं--प्रद्युम्न, साम्ब, अम्ब इत्यादि। उन्होंने शिशुपाल के नायकत्व में आए हुए अनेक शक्तिशाली राजाओं को हरा कर रुक्मिणी, सत्यभामा तथा जाम्बवती जैसी स्त्रियों का उनके स्वयंवर-समारोहों से बलपूर्वक अपहरण किया था। उन्होंने भौमासुर तथा उसके हजारों सहायकों का वध करके अन्य स्त्रियों का भी अपहरण किया था। ये सारी स्त्रियाँ धन्य हैं।

30 इन सारी स्त्रियों ने व्यक्तित्व तथा शुद्धि से विहीन होते हुए भी, अपने जीवन को धन्य किया। उनके पति कमलनयन भगवान ने उन्हें घर में कभी अकेले नहीं छोड़ा। वे उन्हें बहुमूल्य भेंट प्रदान करके उनके हृदयों को प्रसन्न बनाते रहे।

31 राजधानी हस्तिनापुर की स्त्रियाँ अभी उनका अभिनन्दन कर ही रही थीं और इस प्रकार से बातें चला रही थीं कि भगवान ने मुस्कराते हुए उनकी बधाइयाँ स्वीकार कीं और उन पर अपनी कृपादृष्टि डालते हुए नगर से प्रस्थान किया।

32 यद्यपि महाराज युधिष्ठिर का कोई शत्रु न था, तो भी उन्होंने असुरों के शत्रु, भगवान श्रीकृष्ण के साथ जाने के लिए चतुरंगिणी सेना (घोड़ा, हाथी, रथ तथा पैदल सेना) लगा दी। शत्रु से बचाव और भगवान से स्नेह के कारण महाराज ने ऐसा किया।

33 भगवान कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ स्नेहवश कुरुवंशी पाण्डव उन्हें विदा करने के लिए उनके साथ काफी दूर तक गये। वे भावी विछोह के विचार से अभिभूत थे। किन्तु भगवान ने उनसे घर लौट जाने का आग्रह किया और स्वयं अपने प्रिय संगियों के साथ द्वारका की ओर रवाना हुए।

34-35 हे शौनक, तब भगवान कुरुजांगल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्या, सारस्वता, मरुप्रान्त तथा जल के अभाव वाले भाग से होते हुए आगे बढ़े। इन प्रान्तों को पार करने के बाद वे सौवीर तथा आभीर प्रान्त पहुँचे और अन्त में इन सबके पश्चिम की ओर स्थित द्वारका पहुँचे।

36 इन प्रान्तों से होकर यात्रा करते समय उनका स्वागत किया गया, पूजा की गई और उन्हें विविध भेंटें प्रदान की गई। संध्या समय सारे स्थानों में संध्या-कालीन अनुष्ठान (कृत्य) करने के लिए, भगवान अपनी यात्रा स्थगित करते। सूर्यास्त के बाद नियमित रूप से ऐसा किया जाता।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय नौ – भगवान कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग(1.9)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में इतने सारे लोगों का वध करने के कारण घबराये हुए महाराज युधिष्ठिर उस स्थल पर गये जहाँ नर-संहार हुआ था। वहाँ पर भीष्मदेव मरणासन्न होकर शरशय्या पर लेटे थे।

2 उस समय उनके सारे भाई स्वर्णाभूषणों से सजे हुए उच्च कोटि के घोड़ों द्वारा खींचे जानेवाले सुन्दर रथों पर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। उनके साथ व्यासदेव तथा धौम्य जैसे ऋषि (पाण्डवों के विद्वान पुरोहित) तथा अन्य लोग थे।

3 हे ब्रह्मर्षि, भगवान श्रीकृष्ण भी, अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर पीछे-पीछे चले आ रहे थे। इस प्रकार राजा युधिष्ठिर अत्यन्त राजसी प्रतीत हो रहे थे, मानो कुबेर अपने साथियों (गुह्यकों) से घिरा हो।

4 आकाश से आ गिरे देवता के समान उन्हें (भीष्मदेव को) भूमि पर लेटे देखकर पाण्डव-सम्राट युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाइयों तथा भगवान कृष्ण समेत उन्हें प्रणाम किया।

5 राजा भरत के वंशजों में प्रधान (भीष्म) को देखने के लिए ब्रह्माण्ड के सारे सतोगुणी महापुरुष, यथा – देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि वहाँ पर एकत्र हुए थे।

6-7 पर्वत मुनि, नारद, धौम्य, ईश्वर के अवतार व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, परशुराम तथा उनके शिष्य, वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान, गौतम, अत्री, कौशिक तथा सुदर्शन जैसे सारे ऋषि वहाँ उपस्थित थे।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी एवं अन्य पवित्रात्माएँ, कश्यप, आंगिरस इत्यादि अपने-अपने शिष्यों के साथ वहाँ पर आये।

9 आठ वसुओं में सर्वश्रेष्ठ भीष्मदेव ने वहाँ पर एकत्र हुए समस्त महान तथा शक्तिसम्पन्न ऋषियों का स्वागत किया, क्योंकि भीष्मदेव को देश तथा काल के अनुसार समस्त धार्मिक नियमों की भलीभाँति जानकारी थी।

10 भगवान श्रीकृष्ण प्रत्येक के हृदय में आसीन हैं, तो भी वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से अपना दिव्य रूप प्रकट करते हैं। ऐसे भगवान साक्षात भीष्मदेव के समक्ष बैठे हुए थे और चूँकि भीष्मदेव उनकी महिमा से परिचित थे, अतएव उन्होंने उनकी विधिवत पूजा की।

11 पास ही महाराज पाण्डु के सारे पुत्र शान्त बैठे थे और अपने मरणासन्न पितामह के प्रेम से अभिभूत थे। यह देखकर भीष्मदेव ने उन्हें भावपूर्ण बधाई दी। उनके नेत्रों में आनंदाश्रु थे, क्योंकि वे प्रेम तथा स्नेह से आप्लावित हो गये थे।

12 भीष्मदेव ने कहा: ओह, तुम लोगों ने, साक्षात धर्म के पुत्र होते हुए भी, कितनी यातनाएँ तथा कितना अन्याय सहा है। उन कष्टों के अन्तर्गत तुम सबको जीवित रहने की आशा न थी, फिर भी ब्राह्मणों, ईश्वर तथा धर्म ने तुम्हारी रक्षा की है।

13 जहाँ तक मेरी पुत्रवधू का सम्बन्ध है, वह महान सेनापति पाण्डु की मृत्यु होने पर अनेक सारे बच्चों के साथ विधवा हो गई और इस के कारण उसने घोर कष्ट सहे और अब जब तुम लोग बड़े हो गये हो, तो भी वह तुम्हारे कर्मों के कारण काफी कष्ट उठा रही है।

14 मेरे विचार से यह सब प्रबल काल के कारण हुआ है, जिसके वशीभूत होकर हर कोई व्यक्ति प्रत्येक लोक में मारा मारा फिरता है, जिस प्रकार वायु द्वारा बादल इधर से उधर ले जाये जाते हैं।

15 ओह, अपरिहार्य काल का प्रभाव कितना आश्चर्यजनक होता है, यह अपरिवर्तनीय है अन्यथा धर्मराज के पुत्र युधिष्ठिर, गदाधारी भीम तथा गाण्डीव अस्त्र धारण करनेवाले बलशाली महान धनुर्धर अर्जुन एवं सबके ऊपर पाण्डवों के प्रत्यक्ष हितैषी कृष्ण के होते हुए यह विपत्ति क्यों आती?

16 हे राजन भगवान (श्रीकृष्ण) की योजना को कोई नहीं जान सकता। यद्यपि बड़े-बड़े चिन्तक उनके विषय में जिज्ञासा करते हैं, लेकिन वे मोहित हो जाते हैं।

17 अतएव हे भरतवंश में श्रेष्ठ (युधिष्ठिर), मैं मानता हूँ कि यह सब भगवान की योजना के अन्तर्गत है। तुम भगवान की अचिन्त्य योजना को स्वीकार करो और उसका पालन करो। अब तुम नियुक्त किए गये शासनाध्यक्ष हो, अतएव हे महाराज, आपको अब उन लोगों की देखभाल करनी चाहिए जो असहाय हो चुके हैं।

18 ये श्रीकृष्ण अकल्पनीय आदि भगवान ही हैं। ये प्रथम नारायण अर्थात परम भोक्ता हैं। लेकिन ये राजा वृष्णि के वंशजों में हमारी ही तरह विचरण कर रहे हैं और हमें स्व-सृजित शक्ति के द्वारा मोहग्रस्त कर रहे हैं।

19 हे राजन, शिवजी, देवर्षि नारद तथा भगवान के अवतार कपिल ये सभी प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा भगवान की महिमा के विषय में अत्यन्त गोपनीय जानकारी रखते हैं।

20 हे राजन, तुमने अज्ञानवश ही जिस व्यक्ति को अपना ममेरा भाई, अपना अत्यन्त प्रिय मित्र, शुभैषी, मंत्री, दूत, उपकारी इत्यादि माना है, वे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं।

21 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान होने के कारण वे प्रत्येक के हृदय में विद्यमान हैं। वे सबों पर समान रूप से दयालु हैं और भेदाभेद के मिथ्या अहंकार से सर्वथा मुक्त हैं। अतएव वे जो कुछ करते हैं, वह भौतिक उन्माद से मुक्त होता है। वे समदर्शी हैं।

22 सबों पर समान रूप से दयालु होते हुए भी वे अब कृपापूर्वक मेरे समक्ष आये हैं, जब मैं मेरे जीवन का अन्त कर रहा हूँ, क्योंकि मैं उनका अनन्य सेवक हूँ।

23 वे पुरुषोत्तम भगवान जो एकाग्र भक्ति तथा चिन्तन से एवं पवित्र नाम के कीर्तन से भक्तों के मन में प्रकट होते हैं, वे उन भक्तों को उनके द्वारा भौतिक शरीर को छोड़ते समय सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त कर देते हैं।

24 चतुर्भुज-रूप, उगते सूर्य की भाँति अरुणनेत्रों तथा सुन्दर रीति से सजाये, मुस्कराते कमलमुख वाले मेरे भगवान, आप उस क्षण तक यहीं मेरी प्रतीक्षा करें, जब तक मैं अपना यह भौतिक शरीर छोड़ न दूँ।

25 सूत गोस्वामी ने कहा: भीष्मदेव को इस प्रकार आग्रहपूर्ण स्वर में बोलते देखकर, महाराज युधिष्ठिर ने समस्त महर्षियों की उपस्थिति में उनसे विभिन्न धार्मिक कृत्यों के अनिवार्य सिद्धान्त पूछे।

26 महाराज युधिष्ठिर के पूछे जाने पर भीष्मदेव ने सर्वप्रथम व्यक्ति की योग्यताओं के अनुसार जातियों के वर्गीकरण (वर्ण) तथा जीवन के आश्रमों का वर्णन किया। फिर उन्होंने क्रमबद्ध रूप से निवृत्ति तथा प्रवृत्ति नामक दो उपखण्डों का वर्णन किया।

27 तब उन्होंने दान-कर्मों, राजा के राज्य-विषयक कार्यकलापों तथा मोक्ष-कर्मों की खण्ड-वार व्याख्या की। फिर उन्होंने स्त्रियों तथा भक्तों के कर्तव्यों का संक्षेप में विशद रूप से वर्णन किया।

28 तत्पश्चात, उन्होंने इतिहास से उद्धरण देते हुए, विभिन्न आश्रमों तथा जीवन की अवस्थाओं के वृत्तिपरक कार्यों का वर्णन किया, क्योंकि वे उस सत्य से भलीभाँति परिचित थे।

29 जब भीष्मदेव वृत्तिपरक कर्तव्यों के वर्णन कर रहे थे, तभी सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर चला गया। इच्छानुसार मरने वाले योगी इसी अवधि की कामना करते हैं।

30 तत्पश्चात वह व्यक्ति, जो हजारों अर्थों से युक्त विभिन्न विषयों पर बोलता था तथा हजारों युद्धों में लड़ चुका था और हजारों व्यक्तियों की रक्षा कर चुका था, उसने बोलना बन्द कर दिया। उसने समस्त बन्धन से पूर्ण रूप से मुक्त होकर, अन्य सभी वस्तुओं से अपना मन हटाकर, अपने खुले नेत्रों को उन आदि भगवान श्रीकृष्ण पर टिका दिया, जो उनके समक्ष खड़े थे, जो चार भुजाओं वाले थे और जगमग करते एवं चमचमाते हुए पीत वस्त्र धारण किये थे।

31 शुद्ध ध्यान द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को देखते हुए, वे तुरन्त समस्त भौतिक अशुभ अवस्थाओं से और तीरों के घाव से होनेवाली शारीरिक पीड़ा से मुक्त हो गये। इस प्रकार उनकी सारी इन्द्रियों के कार्यकलाप रुक गये और उन्होंने शरीर को त्यागते हुए समस्त जीवों के नियन्ता की दिव्य भाव से स्तुति की।

32 भीष्मदेव ने कहा: अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहनेवाले हैं, किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनन्द-लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है।

33 श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा अधोलोक) में हर एक को आकृष्ट करनेवाला है। उनका चमचमाता पीताम्बर तथा चन्दनचर्चित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा न करूँ।

34 युद्धक्षेत्र में (जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे) भगवान कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गये थे तथा श्रम के कारण उनका मुख-मण्डल पसीने की बूँदों से भीग गया था। मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इन अलंकरणों की शोभा उन्हें अच्छी लग रही थी। मेरा मन उन्हीं श्रीकृष्ण के पास चले।

35 अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गये और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।

36 जब युद्धक्षेत्र में अर्जुन अपने समक्ष सैनिकों तथा सेनापतियों को देखकर अज्ञान से कलुषित हो रहा लग रहा था, तो भगवान ने उसके अज्ञान को दिव्य ज्ञान प्रदान करके समूल नष्ट कर दिया। उनके चरणकमल सदैव मेरे आकर्षण के लक्ष्य बने रहे।

37 मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, वे रथ से नीचे उतर आये, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।

38 भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अनन्तिम गन्तव्य हों। युद्ध-क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।

39 मृत्यु के समय मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यन्त सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।

40 मेरा मन उन भगवान श्रीकृष्ण में एकाग्र हो, जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुसकान ने व्रजधाम की रमणियों (गोपियों) को आकृष्ट कर लिया। [रास लीला से] भगवान के अन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया।

41 महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ में विश्व के सारे महापुरुषों, राजाओं तथा विद्वानों की एक महान सभा हुई थी और उस सभा में सबों ने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्य भगवान के रूप में की थी। यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना को याद रखा, जिससे मेरा मन भगवान में लगा रहे।

42 अब मैं पूर्ण एकाग्रता से एक ईश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता हूँ, जो इस समय मेरे सामने उपस्थित हैं, क्योंकि अब मैं प्रत्येक के हृदय में यहाँ तक कि मनोधर्मियों के हृदय में भी रहनेवाले उनके प्रति द्वैत भाव की स्थिति को पार कर चुका हूँ। वे सबों के हृदय में रहते हैं। भले ही सूर्य को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव किया जाय, किन्तु सूर्य तो एक ही है।

43 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार भीष्मदेव ने मन, वाणी, दृष्टि तथा कार्यों से अपने आपको परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण में लीन कर दिया और शान्त हो गये और उनकी श्वास रुक गई।

44 यह जानकर कि भीष्मदेव अनन्त परम पूर्ण में लीन हो गये, वहाँ पर उपस्थित सारे लोग उसी तरह मौन हो गये, जिस प्रकार दिन समाप्त होने पर पक्षी मौन हो जाते हैं।

45 तत्पश्चात मनुष्यों तथा देवताओं ने सम्मान में नगाड़े बजाये और निष्ठावान राजाओं ने सम्मान तथा आदर प्रदर्शित किया और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी।

46 हे भृगुवंशी (शौनक), भीष्मदेव के मृत देह का दाह संस्कार सम्पन्न करने के बाद, महाराज युधिष्ठिर क्षणभर के लिए शोकाभिभूत हो गये।

47 तब समस्त मुनियों ने वहाँ पर उपस्थित भगवान श्रीकृष्ण का यशोगान गुह्य वैदिक मंत्रों से किया। वे भगवान कृष्ण को सदा के लिए अपने हृदय में धारण करके अपने-अपने आश्रमों को लौट गये।

48 तत्पश्चात महाराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के साथ तुरन्त ही अपनी राजधानी, हस्तिनापुर गये और वहाँ पर अपने ताऊ धृतराष्ट्र तथा अपनी ताई तपस्विनी गान्धारी को ढाढ़स बँधाया।

49 तत्पश्चात परम धर्मात्मा राजा महाराज युधिष्ठिर ने अपने ताऊ द्वारा प्रतिपादित तथा श्रीकृष्ण द्वारा अनुमोदित राजनियमों के सिद्धान्त अनुसार साम्राज्य का संचालन किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय आठ – महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा(1.8)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात, पाण्डवगण अपने मृत परिजनों की इच्छानुसार उन्हें जल-दान देने हेतु द्रौपदी सहित गंगा के तट पर गये। स्त्रियाँ आगे-आगे चल रही थीं।

2 उनके लिए शोक कर चुकने तथा पर्याप्त गंगाजल अर्पित करने के बाद उन सबों ने गंगा में स्नान किया, जिसका जल भगवान की चरणधूलि मिल जाने के कारण पवित्र हो गया है।

3 वहीं कुरुवंशियों के राजा महाराज युधिष्ठिर अपने छोटे भाइयों, धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती तथा द्रौपदी सहित बैठ गये। वे सभी शोक से अत्यधिक पीड़ित थे। भगवान कृष्ण भी वहाँ थे।

4 सर्वशक्तिमान के कठोर नियमों तथा जीवों पर उनकी प्रतिक्रियाओं का दृष्टान्त देते हुए, भगवान श्रीकृष्ण तथा सारे मुनियों ने समस्त स्तब्ध एवं शोकार्त-जनों को ढाढ़स बँधाया।

5 धूर्त दुर्योधन तथा उसके दल ने छल करके अजातशत्रु युधिष्ठिर का राज्य छीन लिया था। भगवत्कृपा से वह फिर प्राप्त हो गया और जिन दुष्ट राजाओं ने दुर्योधन का साथ दिया था, वे सब भगवान के द्वारा मार दिये गये। अन्य लोग भी मारे गये, क्योंकि महारानी द्रौपदी के केशों को पकड़कर खींचने से उनकी आयु क्षीण हो चुकी थी।

6 भगवान श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से तीन श्रेष्ठ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कराये और इस तरह उनकी पवित्र ख्याति सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र की तरह ही सर्व दिशाओं में फैल गई।

7 फिर भगवान श्रीकृष्ण ने सात्यकी तथा उद्धव के साथ प्रस्थान के लिए तैयारी की। उन्होंने श्रील व्यासदेव आदि ब्राह्मणों से पूजित होने के बाद पाण्डु-पुत्रों को आमंत्रित किया। भगवान ने सभी का समुचित अभिवादन किया।

8 ज्योंही वे द्वारका प्रस्थान के लिये रथ पर सवार हुए, त्योंही उन्होंने भयभीत उत्तरा को तेजी से उनकी ओर आते हुए देखा।

9 उत्तरा ने कहा: हे देवाधिदेव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप सबसे महान योगी हैं। कृपया मेरी रक्षा करें, क्योंकि इस द्वैतपूर्ण जगत में मुझे मृत्यु के पाश से बचानेवाला आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है।

10 हे प्रभु, आप सर्वशक्तिमान हैं। एक दहकता हुआ लोहे का बाण मेरी ओर तेजी से आ रहा है। मेरे प्रभु, यदि आपकी इच्छा हो तो यह मुझे भले ही जला दे, लेकिन यह मेरे गर्भ को जलाकर गर्भपात न करे। हे प्रभु, कृपया मेरे पर इतना अनुग्रह करें।

11 सूत गोस्वामी ने कहा: उसके वचनों को धीरज के साथ सुनकर, अपने भक्तों के प्रति सदैव अत्यन्त वत्सल रहनेवाले, भगवान श्रीकृष्ण तुरन्त समझ गये कि द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने पाण्डव-वंश के अन्तिम वंशज को समाप्त करने (निर्बीज करने) के लिये ही ब्रह्मास्त्र छोड़ा है।

12 हे महान विचारकों (मुनियों) में अग्रणी (शौनकजी), उस दहकते हुए ब्रह्मास्त्र को अपनी ओर आते देखकर पाँचों पाण्डवों ने अपने-अपने पाँचों हथियार सँभाले ।

13 सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि उनके अनन्य भक्तों पर, जो पूर्ण रूप से उनके शरणागत थे, महान संकट आनेवाला है, उनकी रक्षा के लिए तुरन्त ही अपना सुदर्शन चक्र उठा लिया।

14 परम योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा के रूप में निवास करते हैं। अतएव, कुरु-वंश की सन्तति की रक्षा करने के लिए उन्होंने उत्तरा के गर्भ को अपनी निजी शक्ति से आवृत कर लिया।

15 हे शौनक, यद्यपि अश्वत्थामा द्वारा छोड़ा गया परम ब्रह्मास्त्र अमोघ था और उसका निवारण नहीं हो सकता था, लेकिन विष्णु (श्रीकृष्ण) के तेज के समक्ष वह निष्क्रिय हो गया और व्यर्थ हो गया।

16 हे ब्राह्मणों, इसे गुह्य तथा अच्युत भगवान के कार्य-कलापों में विशेष आश्चर्यजनक मत सोचो। वे अपनी दिव्य शक्ति से समस्त भौतिक वस्तुओं का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं यद्यपि वे स्वयं अजन्मा है।

17 इस प्रकार ब्रह्मास्त्र के विकिरण से बचकर भगवान की भक्त सती कुन्ती ने अपने पाँच पुत्रों तथा द्रौपदी-सहित, घर के लिए प्रस्थान करने को उद्यत श्रीकृष्ण को इस तरह सम्बोधित किया।

18 श्रीमती कुन्ती ने कहा: हे कृष्ण, मैं आपको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि आप ही आदि पुरुष हैं और इस भौतिक जगत के गुणों से निर्लिप्त रहते हैं। आप समस्त वस्तुओं के भीतर तथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबों के लिए अदृश्य हैं।

19 सीमित इन्द्रिय-ज्ञान से परे होने के कारण, आप ठगिनी शक्ति (माया) के पर्दे से ढके रहनेवाले शाश्वत अव्यय तत्त्व हैं। आप मूर्ख दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहते हैं, जिस प्रकार अभिनेता के वस्त्र पहना हुआ कलाकार पहचान में नहीं आता।

20 आप उन्नत अध्यात्मवादियों तथा आत्मा एवं पदार्थ में अन्तर करने में सक्षम होने से शुद्ध बने विचारकों के हृदयों में भक्ति के दिव्य विज्ञान का प्रसार करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं। तो फिर हम स्त्रियाँ आपको किस तरह पूर्ण रूप से जान सकती हैं?

21 अतः मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाड़ले, नन्द के लाल तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकर आये हैं।

22 जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की माला धारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों के तलवों में कमल अंकित हैं, उन भगवान को मैं सादर नमस्कार करती हूँ।

23 हे ऋषिकेश, हे इन्द्रियों के स्वामी तथा देवों के देव, आपने दीर्घ काल तक बन्दीगृह में बन्दिनी बनाई गई और दुष्ट राजा कंस द्वारा सताई जा रही अपनी माता देवकी को तथा अनवरत विपत्तियों से घिरे हुए मेरे पुत्रों समेत मुझको मुक्त किया है।

24 हे कृष्ण, आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्नि-काण्ड से, मानव-भक्षियों से, दुष्ट सभा से, वनवास-काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गये युद्ध से बचाया है और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है।

25 मैं चाहती हूँ कि ये सारी विपत्तियाँ बारम्बार आयें, जिससे हम आपका दर्शन पुनः पुनः कर सकें, क्योंकि आपके दर्शन का अर्थ यह है कि हमें बारम्बार होने वाले जन्म तथा मृत्यु को नहीं देखना पड़ेगा।

26 हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिक दृष्टि से अकिंचन हैं। जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौन्दर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता।

27 मैं निर्धनों के धन आपको नमस्कार करती हूँ। आपको प्रकृति के भौतिक गुणों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से कोई सरोकार नहीं है। आप आत्म-तुष्ट हैं, अतएव आप परम शान्त तथा अद्वैतवादियों के स्वामी कैवल्य-पति हैं।

28 हे भगवान, मैं आपको शाश्वत समय, परम नियन्ता, आदि-अन्त से रहित तथा सर्वव्यापी मानती हूँ। आप सबों पर समान रूप से दया दिखलाते हैं। जीवों में जो पारस्परिक कलह है, वह सामाजिक मतभेद के कारण है।

29 हे भगवान, आपकी दिव्य लीलाओं को कोई समझ नहीं सकता, क्योंकि वे मानवीय प्रतीत होती हैं और इस कारण भ्रामक हैं। न तो आपका कोई विशेष कृपा-पात्र है, न ही कोई आपका अप्रिय है। यह केवल लोगों की कल्पना ही है कि आप पक्षपात करते हैं।

30 हे विश्वात्मा, यह सचमुच ही चकरा देनेवाली बात (विडम्बना) है कि आप निष्क्रिय रहते हुए भी कर्म करते हैं और प्राणशक्ति रूप तथा अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। आप स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं। सचमुच ही यह चकरानेवाली बात है।

31 हे कृष्ण, जब आपने कोई अपराध किया था, तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई, तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आई, जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया। यद्यपि आपसे साक्षात काल भी भयभीत रहता है, फिर भी आप भयभीत हुए। यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है।

32 कुछ कहते हैं कि अजन्मा का जन्म पुण्यात्मा राजाओं की कीर्ति का विस्तार करने के लिए हुआ है और कुछ कहते हैं कि आप अपने परम भक्त राजा यदु को प्रसन्न करने के लिए जन्में है। आप उसके कुल में उसी प्रकार प्रकट हुए हैं, जिस प्रकार मलय पर्वत में चन्दन होता है।

33 अन्य लोग कहते हैं कि चूँकि वसुदेव तथा देवकी दोनों ने आपके लिए प्रार्थना की थी, अतएव आप उनके पुत्र-रूप में जन्में हैं। निस्सन्देह, आप अजन्मा हैं, फिर भी आप देवताओं का कल्याण करने तथा उनसे ईर्ष्या करने वाले असुरों को मारने के लिए जन्म स्वीकार करते हैं।

34 कुछ कहते हैं कि जब यह संसार, भार से बोझिल समुद्री नाव की भाँति, अत्यधिक पीड़ित हो उठा तथा आपके पुत्र ब्रह्मा ने प्रार्थना की, तो आप कष्ट का शमन करने के लिए अवतरित हुए हैं

35 तथा कुछ कहते हैं कि आप श्रवण, स्मरण, पूजन आदि की भक्ति को जागृत करने के लिए प्रकट हुए हैं, जिससे भौतिक कष्टों को भोगने वाले बद्धजीव इसका लाभ उठाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।

36 हे कृष्ण, जो आपके दिव्य कार्यकलापों का निरन्तर श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करते हैं या दूसरों को ऐसा करते देखकर हर्षित होते हैं, वे निश्चय ही आपके उन चरणकमलों का दर्शन करते हैं, जो जन्म-मृत्यु के पुनरागमन को रोकने वाले हैं।

37 हे मेरे प्रभु, आपने अपने सारे कर्तव्य स्वयं पूरे कर दिये हैं। आज जब हम आपकी कृपा पर पूरी तरह आश्रित हैं और जब हमारा और कोई रक्षक नहीं है और जब सारे राजा हमसे शत्रुता किए हुए हैं, तो क्या आप हमें छोड़कर चले जायेंगे।

38 जिस तरह आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है उसी तरह यदि आप हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि नहीं करेंगे, तो पाण्डवों तथा यदुओं समेत हमारा यश तथा गतिविधियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाएँगी।

39 हे गदाधर (कृष्ण) इस समय हमारे राज्य में आपके चरण-चिन्हों की छाप पड़ी हुई है और इसके कारण यह सुन्दर लगता है, लेकिन आपके चले जाने पर यह ऐसा नहीं रह जायेगा।

40 ये सारे नगर तथा ग्राम सब प्रकार से समृद्ध हो रहे हैं, क्योंकि जड़ी-बूटियों तथा अन्नों की प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे हैं, नदियाँ बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र सम्पदा से भरे पड़े हैं और यह सब उन पर आपकी कृपा-दृष्टि पड़ने से ही हुआ है।

41 अतः हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, हे विश्वरूप, कृपा करके मेरे स्वजनों, पाण्डवों तथा वृष्णियों के प्रति मेरे स्नेह-बन्धन को काट डालें।

42 हे मधुपति, जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहती है, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँट कर आपकी ओर निरन्तर बना रहे।

43 हे कृष्ण, हे अर्जुन के मित्र, हे वृष्णिकुल के प्रमुख, आप उन समस्त राजनीतिक पक्षों के विध्वंसक हैं, जो इस धरा पर उपद्रव फैलानेवाले हैं। आपका शौर्य कभी क्षीण नहीं होता। आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आप गायों, ब्राह्मणों तथा भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं। आपमें सारी योग-शक्तियाँ हैं और आप समस्त विश्व के उपदेशक (गुरु) हैं। आप सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करती हूँ।

44 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार भगवान अपने महिमा गान के लिए चुने हए शब्दों में कुन्तीदेवी के द्वारा की गई प्रार्थना सुनकर मन्द-मन्द मुस्काए। यह मुस्कान उनकी योगशक्ति के समान ही मोहक थी।

45 इस तरह श्रीमती कुन्तीदेवी की प्रार्थनाएँ स्वीकार करने के बाद भगवान ने हस्तिनापुर के राजमहल में प्रवेश करके अन्य स्त्रियों को अपने प्रस्थान की सूचना दी। लेकिन उन्हें प्रस्थान करते देख, राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोक लिया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनसे याचना की।

46 अत्यधिक शोक में डूबे हुए राजा युधिष्ठिर, व्यास आदि मुनियों तथा अद्भुत कर्म करने वाले साक्षात भगवान कृष्ण के उपदेशों से तथा समस्त ऐतिहासिक साक्ष्य से सान्त्वना नहीं पा सके।

47 धर्मपुत्र, राजा युधिष्ठिर, अपने मित्रों की मृत्यु से अभिभूत थे और सामान्य भौतिकतावादी मनुष्य की भाँति शोक-सन्तप्त थे। हे मुनियों, इस प्रकार स्नेह से मोहग्रस्त होकर वे बोले।

48 राजा युधिष्ठिर ने कहा: हाय, मैं सबसे पापी मनुष्य हूँ ए! जरा मेरे हृदय को तो देखो, जो अज्ञान से पूर्ण है! यह शरीर, जो अन्ततः परोपकार के लिए होता है, उसने अनेकानेक अक्षौहिणी सेनाओं का वध करा दिया है।

49 मैंने अनेक बालकों, ब्राह्मणों, शुभ-चिन्तकों, मित्रों, चाचा-ताऊओं, गुरुओं तथा भाइयों का वध किया है। भले ही मैं लाखों वर्षों तक जीवित रहूँ, लेकिन मैं इन सारे पापों के कारण मिलनेवाले नरक से कभी भी छुटकारा नहीं पा सकूँ गा।

50 जो राजा अपनी प्रजा के पालन में लगा रहकर सही निमित्त के लिए वध करता है, उसे कोई पाप नहीं लगता। लेकिन यह आदेश मेरे ऊपर लागू नहीं होता।

51 मैंने अनेक स्त्रियों के बन्धुओं का वध किया है और इस तरह मैंने इस हद तक शत्रुता मोल ली है कि भौतिक कल्याण-कार्य के द्वारा इसे मिटा पाना सम्भव नहीं है।

52 जिस प्रकार गन्दे पानी को कीचड़ में डालकर छाना नहीं जा सकता, अथवा जैसे मदिरा से मलिन हुए पात्र को मदिरा से स्वच्छ नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार नर-संहार का प्रायश्चित पशुओं की बलि देकर नहीं किया जा सकता।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सात – द्रोणपुत्र को दण्ड(1.7)

1 ऋषि शौनक ने पूछा: हे सूत जब महान तथा दिव्य रूप से शक्तिमान व्यासदेव ने श्री नारद मुनि से सब कुछ सुन लिया, तो फिर नारद के चले जाने पर व्यासदेव ने क्या किया?

2 श्री सूत ने कहा: वेदों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध सरस्वती नदी के पश्चिमी तट पर शम्याप्रास नामक स्थान पर एक आश्रम है, जो ऋषियों के दिव्य कार्यकलापों को संवर्धित करने वाला है।

3 उस स्थान पर बेरी के वृक्षों से घिरे हुए अपने आश्रम में, श्रील वेदव्यास शुद्धि के लिए जल का स्पर्श करने के बाद ध्यान लगाने के लिए बैठ गये।

4 इस प्रकार उन्होंने भौतिकता में किसी लिप्तता के बिना, भक्तिमय सेवा (भक्तियोग) से बँधकर अपने मन को पूरी तरह एकाग्र किया। इस तरह उन्होंने परमेश्वर के पूर्णतः अधीन उनकी बहिरंगा शक्ति के समेत उनका दर्शन किया।

5 जीवात्मा तीनों गुणों से अतीत होते हुए भी इस बहिरंगा शक्ति के कारण अपने आप को भौतिक पदार्थ की उपज मानता है और इस प्रकार भौतिक कष्टों के फलों को भोगता है।

6 जीव के भौतिक कष्ट, जिन्हें वह अनर्थ समझता है, भक्तियोग द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कम किये जा सकते हैं। किन्तु अधिकांश जन इसे नहीं जानते; इसलिए विद्वान व्यासदेव ने इस वैदिक साहित्य का संकलन किया है, जिसका सम्बन्ध परम सत्य से है।

7 इस वैदिक साहित्य के श्रवण मात्र से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमा भक्ति की भावना तुरन्त अंकुरित होती है, जो शोक, मोह तथा भय की अग्नि को तुरन्त बुझा देती है।

8 श्रीमदभागवत का संकलन कर लेने तथा उसे संशोधित करने के बाद महर्षि व्यासदेव ने इसे अपने पुत्र श्री श्रील शुकदेव गोस्वामी को पढ़ाया, जो पहले से ही आत्म-साक्षात्कार में निरत थे।

9 श्री शौनक ने सूत गोस्वामी से पूछा: श्रील शुकदेव गोस्वामी तो पहले से ही निवृत्ति मार्ग पर चल रहे थे और इस तरह वे अपने आप में प्रसन्न थे। तो फिर उन्होंने ऐसे बृहत साहित्य का अध्ययन करने का कष्ट क्यों उठाया?

10 जो आत्मा में आनन्द लेते हैं, ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म-साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं, ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, फिर भी भगवान की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान में दिव्य गुण हैं, अतएव वे मुक्त आत्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं।

11 श्रील व्यासदेव के पुत्र, श्रील शुकदेव गोस्वामी न केवल दिव्य शक्ति से युक्त थे, अपितु वे भगवान के भक्तों के भी अत्यन्त प्रिय थे। इस प्रकार उन्होंने इस महान कथा (श्रीमदभागवत) का अध्ययन किया।

12 सूत गोस्वामी ने शौनक आदि ऋषियों को सम्बोधित किया: अब मैं भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य कथा तथा राजर्षि परीक्षित महाराज के जन्म, कार्यकलाप तथा मोक्ष विषयक वार्ताएँ एवं पाण्डुपुत्रों द्वारा गृहस्थ आश्रम के त्याग की कथाएँ कहने जा रहा हूँ।

13-14 जब दोनों दलों अर्थात कौरवों तथा पाण्डवों के अपने-अपने योद्धागण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में मारे जा चुके और मृत योद्धाओं को उनकी इच्छित गति प्राप्त हो गई और जब भीमसेन के गदा के प्रहार से मेरुदण्ड टूट जाने से धृतराष्ट्र का पुत्र विलाप करता गिर पड़ा, तो द्रोणाचार्य के पुत्र (अश्वत्थामा) ने द्रौपदी के सोते हुए पाँचों पुत्रों के सिरों को काटकर मूर्खतावश उन्हें उपहारस्वरूप यह सोचते हुए उसे अर्पित किया कि इससे उसका स्वामी प्रसन्न होगा। लेकिन दुर्योधन ने इस जघन्य कृत्य की निन्दा की और वह तनिक भी प्रसन्न न हुआ।

15 पाण्डवों के पाँचों पुत्रों की माता द्रौपदी, अपने पुत्रों का वध सुनकर, आँसुओं से भरी आँखों के साथ, शोक से विलाप करने लगी। इस घोर क्षति में उसे ढाढ़स बँधाते हुए अर्जुन उससे इस प्रकार बोले।

16 हे देवी, जब मैं अपने गाण्डीव धनुष से छोड़े गये तीरों से उस ब्राह्मण का सिर काटके तुम्हें भेंट करूँगा, तभी मैं तुम्हारी आँखों से आँसू पोछूंगा और तुम्हें सान्त्वना प्रदान करूँगा। तब तुम अपने पुत्रों के शरीरों का दाह करने के बाद उसके सिर पर खड़ी होकर स्नान करना।

17 इस प्रकार, मित्र तथा सारथी के रूप में अच्युत भगवान द्वारा मार्गदर्शित किए जाने वाले अर्जुन ने अपनी प्रियतमा को ऐसे कथनों से तुष्ट किया। तब उसने अपना कवच धारण किया और भयानक अस्त्र-शस्त्रों से लैस होकर, वह अपने रथ पर चढ़कर अपने गुरुपुत्र अश्वत्थामा का पीछा करने के लिए निकल पड़ा।

18 राजकुमारों का हत्यारा अश्वत्थामा, अर्जुन को दूर से ही अपनी ओर तेजी से आते हुए देखकर अपने रथ पर सवार होकर डर के मारे अपनी जान बचाने के लिए उसी तरह भाग निकला, जिस प्रकार शिवजी के भय से ब्रह्माजी भागे थे।

19 जब ब्राह्मण के पुत्र (अश्वत्थामा) ने देखा कि उसके घोड़े थक गये हैं तो उसने सोचा कि अब उसके पास अनन्तिम अस्त्र ब्रह्मास्त्र (आणविक हथियार) का प्रयोग करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया।

20 चूँकि उसके प्राण संकट में थे अतएव उसने अपने को पवित्र करने के लिए जल का स्पर्श किया और ब्रह्मास्त्र चलाने के लिए मंत्रोच्चार में अपना ध्यान एकाग्र किया, यद्यपि उसे इस अस्त्र को वापस लाने की विधि ज्ञात न थी।

21 तत्पश्चात समस्त दिशाओं में प्रचण्ड प्रकाश फैल गया। यह इतना उग्र था कि अर्जुन को अपने प्राण संकट में जान पड़े, अतएव उसने भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित करना प्रारम्भ किया।

22 अर्जुन ने कहा: हे भगवान श्रीकृष्ण, आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं। आपकी विविध शक्तियों की कोई सीमा नहीं है। अतएव एकमात्र आप ही अपने भक्तों के हृदयों में अभय उत्पन्न करने में समर्थ हैं। भौतिक कष्टों की ज्वालाओं में फँसे सारे लोग केवल आपमें ही मोक्ष का मार्ग पा सकते हैं।

23 आप आदि भगवान हैं जिनका समस्त सृष्टियों में विस्तार है और आप भौतिक शक्ति से परे हैं। आपने अपनी आध्यात्मिक शक्ति से भौतिक शक्ति के सारे प्रभावों को दूर भगा दिया है। आप निरन्तर शाश्वत आनन्द तथा दिव्य ज्ञान में स्थित रहते हैं।

24 यद्यपि आप भौतिक शक्ति (माया) के कार्यक्षेत्र से परे हैं, फिर भी आप बद्धजीवों के परम कल्याण के लिए धर्म इत्यादि के चारों सिद्धान्तों का पालन करते हैं।

25 इस प्रकार आप संसार का भार हटाने तथा अपने मित्रों तथा विशेषकर आपके ध्यान में लीन रहने वाले आपके अनन्य भक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए अवतरित होते हैं।

26 हे देवाधिदेव, चारों ओर फैलने वाला यह घातक तेज कैसा है? यह कहाँ से आ रहा है? मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूँ।

27 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: तुम मुझसे यह जान लो कि यह द्रोण के पुत्र का कार्य है। उसने आणविक शक्ति के मंत्र (ब्रह्मास्त्र) का प्रहार किया है और वह यह नहीं जानता कि उसकी चौंध को कैसे लौटाया जाय। उसने निरुपाय होकर आसन्न मृत्यु के भय से ऐसा किया है।

28 हे अर्जुन, केवल दूसरा ब्रह्मास्त्र ही इस अस्त्र को निरस्त कर सकता है। चूँकि तुम सैन्य विज्ञान में अत्यन्त पटु हो, अतएव अपने अस्त्र की शक्ति से इस अस्त्र के तेज का शमन करो।

29 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान से यह सुनकर अर्जुन ने शुद्धि के लिए जल का स्पर्श किया और भगवान श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके, उस अस्त्र को प्रशमित करने के लिए उसने अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा।

30 जब दोनों ब्रह्मास्त्रों की किरणें मिल गई, तो सूर्य के गोले के समान अग्नि के एक वृहत चक्र ने समस्त बाह्य अन्तरिक्ष तथा लोकों के सम्पूर्ण गगनमण्डल को आवृत्त कर लिया।

31 उन अस्त्रों की सम्मिलित अग्नि से तीनों लोकों के सारे लोक जल-भुन गये। सभी लोगों को उस सांवर्तक अग्नि का स्मरण हो आया, जो प्रलय के समय लगती है।

32 इस प्रकार जनसामान्य में फैली हड़बड़ी एवं ग्रहों के आसन्न विनाश को देखकर, अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की इच्छानुसार तुरन्त ही दोनों अस्त्रों का निवारण कर दिया।

33 ताम्बे के दो लाल तप्त गोलों के समान क्रोध से प्रज्वलित आँखें किये, अर्जुन ने अत्यन्त दक्षतापूर्वक गौतमी के पुत्र को बन्दी बना लिया और उसे रस्सियों से पशु की तरह बाँध लिया।

34 अश्वत्थामा को बाँध लेने के बाद, अर्जुन उसे सेना के पड़ाव की ओर ले जाना चाह रहा था कि अपने कमलनेत्रों से देखते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने क्रुद्ध अर्जुन से इस प्रकार कहा।

35 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन, इस ब्रह्म-बन्धु को छोड़कर तुम दया मत दिखलाओ क्योंकि इसने सोते हुए निर्दोष बालकों का वध किया है।

36 जो मनुष्य धर्म के सिद्धान्तों को जानता है, वह ऐसे शत्रुओं का वध नहीं करता जो असावधान, नशे में उन्मत्त, पागल, सोया हुआ, डरा हुआ या रथ विहीन हो। न ही वह किसी बालक, स्त्री, मूर्ख प्राणी अथवा शरणागत जीव का वध करता है।

37 ऐसा क्रूर तथा दुष्ट व्यक्ति जो दूसरों के प्राणों की बलि पर पलता है उसका वध किया जाना उसके लिए ही हितकर है, अन्यथा अपने ही कर्मों से उसकी अधोगति होती है।

38 इसके अतिरिक्त, मैंने स्वयं तुम्हें द्रौपदी से यह प्रतिज्ञा करते सुना है कि तुम उसके पुत्रों के वधकर्ता का सिर लाकर उपस्थित करोगे।

39 यह आदमी तुम्हारे ही कुल के सदस्यों का हत्यारा तथा वधकर्ता (आततायी) है। यही नहीं, उसने अपने स्वामी को भी असंतुष्ट किया है। वह अपने कुल की राख (कुलांगार) है। तुम तत्काल इसका वध कर दो।

40 सूत गोस्वामी ने कहा: यद्यपि धर्म में अर्जुन की परीक्षा लेते हुए कृष्ण ने उसे द्रोणाचार्य के पुत्र का वध करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन महात्मा अर्जुन को यह विचार नहीं भाया, यद्यपि अश्वत्थामा अर्जुन के ही कुटुम्बियों का नृशंस हत्यारा था।

41 अपने प्रिय मित्र तथा सारथी ( श्रीकृष्ण) सहित अपने शिविर में पहुँचकर अर्जुन ने उस हत्यारे को अपनी प्रिय पत्नी को सौंप दिया, जो मारे गये अपने पुत्रों के लिए विलाप कर रही थी।

42 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: तब द्रौपदी ने अश्वत्थामा को देखा, जो पशु की भाँति रस्सियों से बँधा था और अत्यन्त घृणित हत्या का कृत्य करने के कारण चुप था। अपने स्त्री स्वभाववश तथा स्वभाव से उत्तम एवं भद्र होने के कारण, उसने ब्राह्मण रूप में उसके प्रति सम्मान व्यक्त किया।

43 वह अश्वत्थामा का इस प्रकार रस्सियों से बाँधा जाना सह न सकी और भगवतपरायण स्त्री होने के कारण उसने कहा "इसे छोड़ दो, क्योंकि यह ब्राह्मण है, हमारा गुरु है।"

44 यह द्रोणाचार्य की कृपा थी कि आपने धनुष बाण चलाने की विद्या तथा अस्त्रों को वश में करने की गुप्त कला सीखी।

45 अपने पुत्र द्वारा प्रतिनिधित्व किये जाने के कारण वे (द्रोणाचार्य) अब भी निश्चित रूप से विद्यमान हैं। उनकी पत्नी कृपी सती नहीं हुई, क्योंकि वे पुत्रवती थीं।

46 हे धर्म के ज्ञाता परम भाग्यशाली, यह आपको शोभा नहीं देता कि आप सदा से पूज्य तथा वन्दनीय, गौरवशाली परिवार के सदस्यों के शोक का कारण बनें।

47 हे स्वामी, द्रोणाचार्य की पत्नी को मेरे समान मत रुलाओ। मैं अपने पुत्रों की मृत्यु के लिए सन्तप्त हूँ। कहीं उसे भी मेरे समान निरन्तर रोना न पड़े।

48 यदि इन्द्रियतृप्ति में निरंकुश बनकर राजकुल ब्राह्मण कुल को अपमानित और कुपित करता है, तो वह क्रोध की अग्नि समस्त राजकुल को जला देती है और सबों को दुख देती है।

49 सूत गोस्वामी ने कहा: हे ब्राह्मणों, राजा युधिष्ठिर ने रानी के वचनों का पूर्ण अनुमोदन किया, क्योंकि वे धर्म के नियमों के अनुसार न्यायोचित, गौरवशाली, दया तथा समता से पूर्ण एवं निष्कपट थे।

50 नकुल तथा सहदेव (राजा के छोटे भाई) तथा सात्यकि, अर्जुन, देवकीपुत्र भगवान श्रीकृष्ण तथा स्त्रियों एवं अन्यों ने एक स्वर से राजा से सहमति व्यक्त की।

51 लेकिन भीम जो क्रुद्ध मनोदशा में था, उनसे सहमत नहीं हुआ और उसने उस दोषी के वध किये जाने की संस्तुति की, जिसने व्यर्थ ही सोते हुए बालकों की हत्या कर दी थी जिसमें न तो उसका अपना, न ही उसके स्वामी का हित था।

52 भीम, द्रौपदी तथा अन्यों के वचन सुनकर, चतुर्भुज भगवान ने अपने प्रिय सखा अर्जुन के मुँह की ओर देखा और मानो मुस्कुरा रहे हों, बोलना प्रारम्भ किया।

53-54 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: किसी ब्रहमबन्धु का वध नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि वह आततायी हो, तो उसे अवश्य मारना चाहिए। ये सारे आदेश शास्त्रों में हैं और तुम्हें इन्हीं के अनुसार कार्य करना चाहिए। तुम्हें अपनी पत्नी को दिये गये वचन भी पूरे करने हैं और तुम्हें भीमसेन तथा मेरी तुष्टि के लिए भी कार्य करना है।

55 उसी समय अर्जुन भगवान की अनेकाधिक आज्ञा का प्रयोजन समझ गया और इस तरह उसने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर से केश तथा मणि दोनों पृथक कर दिये।

56 बालहत्या के कारण वह (अश्वत्थामा) पहले ही अपनी शारीरिक कान्ति खो चुका था और अब, अपनी शीर्ष मणि खोकर, वह शक्ति से भी हीन हो गया। इस प्रकार उसकी रस्सियाँ खोल कर उसे शिविर से बाहर भगा दिया गया।

57 उसके सिर के बाल मुड़ना, उसे सम्पदाहीन करना तथा उसे घर से भगा देना – ये हैं ब्रहमबन्धु के लिए निश्चित दण्ड। शारीरिक वध करने का कोई विधान नहीं है।

58 तत्पश्चात शोकाभिभूत पाण्डु-पुत्रों तथा द्रौपदी ने अपने स्वजनों के मृत शरीरों (शवों) का समुचित दाह-संस्कार किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय छह – नारद तथा व्यासदेव का संवाद(1.6)

1 सूत ने कहा: हे ब्राह्मणों, इस तरह श्री नारद के जन्म तथा कार्यकलापों के विषय में सब कुछ सुन लेने के बाद ईश्वर के अवतार तथा सत्यवती के पुत्र, श्री व्यासदेव ने इस प्रकार पूछा।

2 श्री व्यासदेव ने नारदजी से कहा: आपने उन महामुनियों के चले जाने पर क्या किया जिन्होंने आपके इस जन्म के प्रारम्भ होने के पूर्व आपको दिव्य वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान किया था?

3 हे ब्रह्मा के पुत्र, आपने दीक्षा लेने के बाद किस प्रकार जीवन बिताया? और यथासमय अपने पुराने शरीर को त्याग कर आपने यह शरीर कैसे प्राप्त किया?

4 हे महामुनि, समय आने पर काल हर वस्तु का संहार कर देता है, अतएव यह कैसे सम्भव हुआ है कि यह विषय, जो ब्रह्मा के इस दिन के पूर्व घटित हो चुका है, अब भी आपकी स्मृति में काल द्वारा अप्रभावित जैसे का तैसा बना हुआ है?

5 श्री नारद ने कहा- जिन महर्षियों ने मुझे अध्यात्म का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान किया था, वे अन्य स्थानों को चले गये और मुझे इस प्रकार से अपना जीवन बिताना पड़ा।

6 मैं अपनी माता का इकलौता पुत्र था वह न केवल भोलीभाली स्त्री थी, अपितु दासी भी थी। चूँकि मैं उसकी एकमात्र सन्तान था, अतः उसकी रक्षा का कोई अन्य साधन न था, अतएव उसने मुझे अपने स्नेहपाश में बाँध रखा था।

7 वह मेरा लालन-पालन अच्छी तरह करना चाहती थी, लेकिन पराश्रित होने के कारण वह मेरे लिए कुछ भी नहीं कर पाती थी। यह संसार परमेश्वर के पूर्ण नियंत्रण में है, अतएव प्रत्येक व्यक्ति कठपुतली नचाने वाले के हाथ में किसी काठ की गुड़िया के समान है।

8 जब मैं केवल पाँच वर्ष का बालक था, तो एक ब्राह्मण की पाठशाला में रहता था। मैं अपनी माता के स्नेह पर आश्रित था और मुझे विभिन्न क्षेत्रों का कोई अनुभव न था।

9 एक बार जब मेरी माँ बेचारी रात्रि के समय गाय दोहने जा रही थी, तो परम काल से प्रेरित एक सर्प ने मेरी माता के पाँव में डस लिया।

10 मैंने इसे भगवान की विशेष कृपा माना, क्योंकि वे अपने भक्तों का भला चाहने वाले हैं और इस प्रकार सोचता हुआ मैं उत्तर की ओर चल पड़ा।

11 प्रस्थान करने के बाद मैं अनेक समृद्ध जनपदों, नगरों, गाँवों, पशुक्षेत्रों, खानों, खेतों, घाटियों, पुष्पवाटिकाओं, पौधशालाओं तथा प्राकृतिक जंगलों से होकर गुजरा।

12-13 मैं सोने, चाँदी तथा ताम्बे जैसे विविध खनिजों के आगारों से परिपूर्ण पर्वतों तथा सुन्दर कमलों से पूर्ण जलाशयों से युक्त भूभागों को पार करता रहा जो स्वर्ग के वासियों से उपयुक्त थे और मदान्ध भौंरों तथा चहचहाते पक्षियों से सुशोभित थे। तब मैं अनेक जंगलों में से होकर अकेला गया जो नरकटों, बाँसों, सरपतों, कुशों, अपतृणों तथा गुफाओं से परिपूर्ण थे और जिनसे अकेले निकल पाना कठिन था। मैंने अत्यन्त सघन, अंधकारपूर्ण तथा अत्यधिक भयावने जंगल देखे जो सर्पों, उल्लुओं तथा सियारों की क्रीड़ास्थली बने हुए थे।

14 इस प्रकार विचरण करते हुए, मैं तन तथा मन से थक गया और प्यासा तथा भूखा था। अतएव मैंने एक सरोवर में स्नान किया और जल भी पिया। जल-स्पर्श से मेरी थकान जाती रही।

15 उसके पश्चात उस वीरान जंगल में एक पीपल वृक्ष की छाया में बैठकर मैं अपनी बुद्धि से अपने अन्तःकरण में स्थित परमात्मा का वैसे ही ध्यान करने लगा, जिस प्रकार कि मैंने मुक्तात्माओं से सीखा था।

16 ज्योंही मैं अपने मन को दिव्य प्रेम में लगाकर भगवान के चरणकमलों का ध्यान करने लगा कि मेरे नेत्रों से आँसू बहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण बिना विलम्ब किए मेरे हृदय-कमल में प्रकट हो गये।

17 हे व्यासदेव, उस समय प्रसन्नता की अनुभूति होने के कारण, मेरे शरीर का अंग-प्रत्यंग पुलकित हो उठा। आनन्द के सागर में निमग्न होने के कारण मैं अपने आपको और भगवान को भी न देख सका।

18 भगवान का दिव्य रूप, जैसा कि वह है, मन की इच्छा को पूरा करता है और समस्त मानसिक सन्तापों को तुरन्त दूर करने वाला है। अतः उस रूप के खो जाने पर मैं व्याकुल होकर उठ खड़ा हुआ, जैसा कि प्रायः अपने अभीष्ट के खो जाने पर होता है।

19 मैंने भगवान के उस दिव्यरूप को पुनः देखना चाहा, लेकिन अपने हृदय में एकाग्र होकर उस रूप का दर्शन करने के सारे प्रयासों के बावजूद, मैं उन्हें फिर से न देख सका। इस प्रकार असंतुष्ट होने पर मैं अत्यधिक सन्तप्त हो उठा।

20 वह एकान्त स्थान में मेरे प्रयासों को देखकर समस्त लौकिक वर्णन से परे भगवान ने मेरे शोक को दूर करने के लिए अत्यन्त गम्भीर तथा सुखद वाणी में मुझसे कहा।

21 भगवान ने कहा- हे नारद, मुझे खेद है कि तुम इस जीवन काल में अब मुझे नहीं देख सकोगे। जिनकी सेवा अपूर्ण है और जो समस्त भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं है, वे मुश्किल से ही मुझे देख पाते हैं।

22 हे निष्पाप पुरुष, तुमने मुझे केवल एक बार देखा है और यह मेरे प्रति तुम्हारी इच्छा को उत्कट बनाने के लिए है, क्योंकि तुम जितना ही अधिक मेरे लिए लालायित होगे, उतना ही तुम समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो सकोगे।

23 कुछ काल तक ही सही, परम सत्य की सेवा करने से भक्त मुझमें दृढ़ एवं अटल बुद्धि प्राप्त करता है। फलस्वरूप, वह इस शोचनीय भौतिक जगत को त्यागने के बाद दिव्य जगत में मेरा पार्षद बनता है।

24 मेरी भक्ति में लगी हुई बुद्धि कभी भी विच्छिन्न नहीं होती। यहाँ तक कि सृष्टि काल के साथ ही साथ संहार के समय भी मेरे अनुग्रह से तुम्हारी स्मृति बनी रहेगी।

25 तब शब्द से व्यक्त तथा नेत्रों से अदृश्य उन नितान्त आश्चर्यमय परम पुरुष ने बोलना बन्द कर दिया। मैंने कृतज्ञता का अनुभव करते हुए शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया।

26 इस प्रकार भौतिक जगत की समस्त औपचारिकताओं की उपेक्षा करते हुए, मैं बारम्बार भगवान के पवित्र नाम तथा यश का कीर्तन करने लगा। भगवान की दिव्य लीलाओं का ऐसा कीर्तन एवं स्मरण कल्याणकारी होता है। इस तरह मैं पूर्ण रूप से संतुष्ट, विनम्र तथा ईर्ष्या-द्वेषरहित होकर सारी पृथ्वी पर विचरण करने लगा।

27 हे ब्राह्मण व्यासदेव, इस तरह मैंने कृष्ण के चिन्तन में पूर्णतया निमग्न रहते हुए तथा किसी प्रकार की आसक्ति न रहने से समस्त भौतिक कलुष से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाने पर यथा समय मृत्यु पाई, जिस प्रकार बिजली गिरना तथा प्रकाश कौंधना एकसाथ होते हैं।

28 भगवान के पार्षद के लिए उपयुक्त दिव्य शरीर पाकर मैंने पाँच भौतिक तत्त्वों से बने शरीर को त्याग दिया और इस तरह कर्म के सारे अर्जित फल समाप्त हो गये।

29 कल्प के अन्त में जब भगवान नारायण प्रलय के जल में लेट गये, तब ब्रह्माजी समस्त सृष्टिकारी तत्त्वों सहित उनके भीतर प्रवेश करने लगे और उनके श्वास से मैं भी भीतर चला गया।

30 4,32,00,00,000 (चार अरब बत्तीस करोड़) सौर वर्षों के बाद, जब भगवान की इच्छा से ब्रह्मा पुनः सृष्टि करने के लिए जागे, तो मरीचि, अंगिरा, अत्री इत्यादि सारे ऋषि भगवान के दिव्य शरीर से उत्पन्न हुए और उन्हीं के साथ-साथ मैं भी प्रकट हुआ।

31 तब से सर्वशक्तिमान विष्णु की कृपा से मैं दिव्य जगत में तथा भौतिक जगत के तीनों प्रखण्डों में बिना रोक-टोक के सर्वत्र विचरण करता हूँ। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं भगवान की अविच्छिन्न भक्तिमय सेवा में स्थिर हूँ।

32 और इस तरह मैं भगवान की महिमा के दिव्य सन्देश का निरन्तर गायन करते हुए और इस वीणा को झंकृत करते हुए विचरण करता रहता हूँ, जो दिव्य ध्वनि से पूरित है और जिसे भगवान कृष्ण ने मुझे दिया था।

33 ज्योंही मैं भगवान श्रीकृष्ण की सुमधुर महिमा की पवित्र लीलाओं का कीर्तन करना प्रारम्भ करता हूँ, त्योंही वे मेरे हृदयस्थल में प्रकट हो जाते हैं मानो उनको बुलाया गया हो।

34 यह मेरा निजी अनुभव है कि जो लोग विषय-वस्तुओं से सम्पर्क की इच्छा रखने के कारण सदैव चिन्ताग्रस्त रहते हैं, वे भगवान की दिव्य लीलाओं के निरन्तर कीर्तन रूपी सर्वाधिक उपयुक्त नौका पर चढ़कर अज्ञान रूपी सागर को पार कर सकते हैं।

35 यह सत्य है कि योगपद्धति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने के अभ्यास से मनुष्य को काम तथा लोभ की चिन्ताओं से राहत मिल जाएगी, किन्तु इससे आत्मा को सन्तोष प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि यह सन्तोष भगवान की भक्तिमय सेवा से ही प्राप्त किया जा सकता है।

36 हे व्यासदेव, तुम समस्त पापों से मुक्त हो। इस तरह, जैसा तुमने पूछा उसी के अनुसार मैंने अपने जन्म तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए किये गये कर्मों की व्याख्या की है। यह तुम्हारे आत्म-सन्तोष के लिए भी लाभप्रद होगा।

37 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार व्यासदेव को सम्बोधित करके नारद मुनि ने उनसे बिदा ली और अपनी वीणा को झंकृत करते हुए वे अपनी उन्मुक्त इच्छा के अनुसार विचरण करने के लिए चले गये।

38 देवर्षि नारद धन्य हैं, क्योंकि वे भगवान की लीलाओं का यशोगान करते हैं और ऐसा करके वे स्वयं तो आनन्द प्राप्त करते ही हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त सन्तप्त जीवों को भी अभिप्रेरणा प्रदान करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पाँच – नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमदभागवत के विषय में आदेश (1.5)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: इस तरह देवर्षि (नारद) सुखपूर्वक बैठ गये और मानो मुस्कराते हुए ब्रह्मर्षि (व्यासदेव) को सम्बोधित किया।

2 व्यासदेव को पराशर पुत्र, सम्बोधित करते हुए नारद ने पूछा: क्या तुम मन या शरीर को आत्म-साक्षात्कार का लक्ष्य मान कर संतुष्ट हो?

3 तुम्हारी जिज्ञासाएँ पूर्ण हैं और तुम्हारा अध्ययन भी भलीभाँति पूरा हो चुका है। इसमें सन्देह नहीं कि तुमने एक महान एवं अद्भुत ग्रन्थ महाभारत तैयार किया है, जो सभी प्रकार के वैदिक फलों (पुरुषार्थों) की विशद व्याख्या से युक्त है।

4 तुमने निराकार ब्रह्म विषयक एवं उससे प्राप्त होने वाले ज्ञान को भलीभाँति लिपिबद्ध किया है। तो इतना सब होते हुए, हे मेरे प्रभु, अपने को व्यर्थ समझ कर हताश होने की क्या बात है?

5 श्री व्यासदेव ने कहा: आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा, वह सब सही है। इन सब के बावजूद मैं संतुष्ट नहीं हूँ। अतएव मैं आपसे अपने असन्तोष के मूल कारण के विषय में पूछ रहा हूँ, क्योंकि आप स्वयं (बिना भौतिक माता-पिता के उत्पन्न ब्रह्मा) की सन्तान होने के कारण अगाध ज्ञान से युक्त व्यक्ति हैं।

6 हे प्रभो, जो कुछ भी गोपनीय है वह आपको ज्ञात है, क्योंकि आप भौतिक जगत के स्रष्टा तथा संहारक एवं आध्यात्मिक जगत के पालक आदि भगवान की पूजा करते हैं जो भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं।

7 आप सूर्य के समान तीनों लोकों में विचरण कर सकते हैं और वायु के समान प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं। इसलिए आप सर्वव्यापी परमात्मा के तुल्य हैं। अतः आपसे प्रार्थना है कि नियमों तथा व्रतों का पालन करते हुए दिव्यता में लीन रहने पर भी मुझमें जो कमी हो, उसे खोज निकालें।

8 श्री नारद ने कहा: वास्तव में तुमने भगवान की अलौकिक तथा निर्मल महिमा का प्रसार नहीं किया। जो दर्शन (शास्त्र), परमेश्वर की दिव्य इन्द्रियों को तुष्ट नहीं कर पाता, वह व्यर्थ समझा जाता है।

9 हे महामुनि, यद्यपि आपने धार्मिक कृत्य इत्यादि चार पुरुषार्थों का विस्तार से वर्णन किया है, किन्तु आपने भगवान वासुदेव की महिमा का वर्णन नहीं किया है।

10 जो वाणी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के वायुमण्डल को परिशुद्ध करने वाले भगवान की महिमा का वर्णन नहीं करती, उसे साधु पुरुष कौवों के स्थान के समान मानते हैं। चूँकि परमहंस पुरुष दिव्य लोक के वासी होते हैं, अतः उन्हें ऐसे स्थान में कोई आनन्द नहीं मिलता।

11 दूसरी ओर, जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है, वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।

12 आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान समस्त भौतिक आसक्ति से रहित होने पर भी शोभा नहीं देता यदि वह अच्युत (ईश्वर) के भाव से शून्य हो। तो फिर उन सकाम कर्मों से क्या लाभ है, यदि वे भगवान की भक्ति के लिए काम न आ सकें और जो स्वभावतः प्रारम्भ से ही दुखप्रद तथा क्षणिक होते हैं?

13 हे व्यासदेव, तुम्हारी दृष्टि सभी तरह से पूर्ण है। तुम्हारी उत्तम ख्याति निष्कलुष है। तुम अपने व्रत में दृढ़ हो और सत्य में स्थित हो। अतएव तुम समस्त लोगों को भौतिक बन्धन से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान की लीलाओं के विषय में समाधि के द्वारा चिन्तन कर सकते हो।

14 तुम भगवान के अतिरिक्त विभिन्न रूपों, नामों तथा परिणामों के रूप में जो कुछ भी वर्णन करना चाहते हो, वह प्रतिक्रिया द्वारा मन को उसी प्रकार आन्दोलित करने वाला है, जिस प्रकार आश्रयविहीन नाव को चक्रवात आन्दोलित करता है।

15 सामान्य लोगों में भोग करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है और तुमने धर्म के नाम पर उन्हें वैसा करते रहने के लिए प्रोत्साहित किया है। यह अत्यन्त घृणित तथा अत्यन्त अनुचित है। चूँकि वे लोग तुम्हारे उपदेशों के अनुसार मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं, अतः वे ऐसे कार्यों को धर्म के नाम पर ग्रहण करेंगे और निषेधों की भी परवाह नहीं करेंगे ।

16 भगवान असीम है। केवल वही निपुण व्यक्ति इस आध्यात्मिक ज्ञान को समझने के लिए योग्य है,जो भौतिक सुख के कार्यकलापों से विरक्त हो चुका हो। अतः जो लोग भौतिक आसक्ति के कारण सुस्थापित नहीं है, उन्हीं को तुम परमेश्वर के दिव्य कार्यों के वर्णनों के माध्यम से दिव्य अनुभूति की विधियाँ दिखलाओ।

17 जिसने भगवान की भक्तिमय सेवा में प्रवृत्त होने के लिए अपनी भौतिक वृत्तियों को त्याग दिया है, वह कभी-कभी कच्ची अवस्था में नीचे गिर सकता है, तो भी उसके असफल होने का कोई खतरा नहीं रहता। इसके विपरीत, अभक्त, चाहे अपनी वृत्तियों (कर्तव्यों) में पूर्णरूप से रत क्यों न हो, उसे कुछ भी लाभ नहीं होता।

18 जो व्यक्ति वास्तव में बुद्धिमान तथा तत्त्वज्ञान में रुचि रखने वाले हैं, उन्हें चाहिए कि वे उस सार्थक अन्त के लिए ही प्रयत्न करें, जो उच्चतम लोक (ब्रह्मलोक) से लेकर निम्नतम लोक (पाताल) तक विचरण करने से भी प्राप्य नहीं है। जहाँ तक इन्द्रिय-भोग से प्राप्त होने वाले सुख की बात है, यह तो कालक्रम से स्वतः प्राप्त होता है, जिस प्रकार हमारे न चाहने पर भी हमें दुख मिलते रहते हैं।

19 हे प्रिय व्यास, यद्यपि भगवान कृष्ण का भक्त भी कभी-कभी, किसी न किसी कारण से नीचे गिर जाता है, लेकिन उसे दूसरों (सकाम कर्मियों आदि) की तरह भव-चक्र में नहीं आना पड़ता, क्योंकि जिस व्यक्ति ने भगवान के चरण कमलों का आस्वादन एक बार किया है, वह उस आनन्द को पुनः पुनः स्मरण करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता।

20 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान स्वयं विश्व स्वरूप है तथापि उससे निर्लिप्त भी हैं। उन्हीं से यह दृश्य जगत उत्पन्न हुआ है, उन्हीं पर टिका है और संहार के बाद उन्हीं में प्रवेश करता है। तुम इस सबके विषय में जानते हो। मैंने तो केवल सारांश भर प्रस्तुत किया है।

21 तुममें पूर्ण दृष्टि है। तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को जान सकते हो, क्योंकि तुम भगवान के अंश के रूप में विद्यमान हो। यद्यपि तुम अजन्मा हो, लेकिन समस्त लोगों के कल्याण हेतु इस पृथ्वी पर प्रकट हुए हो। अतः भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का अधिक विस्तार से वर्णन करो।

22 विद्वन्मण्डली ने यह स्पष्ट निष्कर्ष निकाला है कि तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, तथा स्तुति-जप का अचूक प्रयोजन (उद्देश्य) उत्तम श्लोक भगवान की दिव्य लीलाओं के वर्णन में जाकर समाप्त होता है।

23 हे मुनि, पिछले कल्प में मैं किसी दासी के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जो वेदान्त सिद्धान्तों के अनुयायी ब्राह्मणों की सेवा करती थी। जब वे लोग वर्षा ऋतु के चातुर्मास में साथ-साथ रहते थे, तो मैं उनकी सेवा टहल (व्यक्तिगत सेवा) किया करता था।

24 यद्यपि वे स्वभाव से निष्पक्ष थे, किन्तु उन वेदान्त के अनुयायिओं ने मुझ पर अहैतुकी कृपा की। जहाँ तक मेरी बात थी, मैं इन्द्रियजित था और बालक होने पर भी खेलकूद से अनासक्त था। साथ ही, मैं चपल न था और कभी भी जरूरत से ज्यादा बोलता नहीं था (मितभाषी था)

25 उनकी अनुमति से मैं केवल एक बार उनकी झूठन खाता था और ऐसा करने से मेरे सारे पाप तुरन्त ही नष्ट हो गये। इस प्रकार सेवा में लगे रहने से मेरा हृदय शुद्ध हो गया और तब वेदान्तियों का स्वभाव मेरे लिए अत्यन्त आकर्षक बन गया।

26 हे व्यासदेव, उस संगति में तथा उन महान वेदान्तियों की कृपा से, मैं उनके द्वारा भगवान कृष्ण की मनोहर लीलाओं का वर्णन सुन सका और इस प्रकार ध्यानपूर्वक सुनते रहने से भगवान के विषय में प्रतिक्षण अधिकाधिक सुनने के प्रति मेरी रुचि बढ़ती ही गई।

27 हे महामुनि, ज्योंही मुझे भगवान का आस्वाद प्राप्त हुआ, त्योंही मेरा ध्यान भगवान का श्रवण करने के प्रति अटल हो गया और ज्योंही मेरी रुचि विकसित हो गई, त्योंही मुझे अनुभव हुआ कि मैंने अज्ञानतावश ही स्थूल तथा सूक्ष्म आवरणों को स्वीकार किया है, क्योंकि भगवान तथा मैं दोनों ही दिव्य हैं।

28 इस प्रकार वर्षा तथा शरद दोनों ऋतुओं में, मुझे इन महामुनियों से भगवान हरि की धवल कीर्ति का निरन्तर कीर्तन सुनते रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ज्योंही मेरी भक्ति का प्रवाह होने लगा कि रजोगुण तथा तमोगुण के सारे आवरण विलुप्त हो गये।

29 मैं उन मुनियों के प्रति अत्यधिक आसक्त था। मेरा आचरण विनम्र था और उनकी सेवा के कारण मेरे सारे पाप विनष्ट हो चुके थे। मेरे हृदय में उनके प्रति प्रबल श्रद्धा थी। मैंने इन्द्रियों को वश में कर लिया था और मैं तन तथा मन से उनका दृढ़ता से अनुगमन करता रहा था।

30 दीनजनों पर अत्यन्त दयालु, उन भक्तिवेदान्तों ने जाते समय मुझे उस गुह्यतम विषय का उपदेश दिया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान, देते हैं।

31 उस गुह्य ज्ञान से, मैं सम्पूर्ण पदार्थो के स्रष्टा, पालक तथा संहार-कर्ता भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति के प्रभाव को ठीक-ठीक समझ सका। उसे जान लेने पर कोई भी मनुष्य उनके पास लौटकर उनसे साक्षात भेंट कर सकता है।

32 हे ब्राह्मण व्यासदेव, विद्वानों द्वारा यह निश्चित हुआ है कि समस्त कष्टों तथा दुखों के उपचार का सर्वोत्तम उपाय यह है कि अपने सारे कर्मों को भगवान (श्रीकृष्ण) की सेवा में समर्पित कर दिया जाय।

33 हे श्रेष्ठ पुरुष, क्या भैषज विज्ञान की विधि से प्रयुक्त की गई कोई वस्तु उस रोग को ठीक नहीं कर देती, जिससे ही वह रोग उत्पन्न हुआ हो?

34 इस प्रकार जब मनुष्य के सारे कार्यकलाप भगवान की सेवा में समर्पित होते हैं, तो वही सारे कर्म जो उसके शाश्वत बन्धन के कारण होते हैं, कर्म रूपी वृक्ष के विनाशकर्ता बन जाते हैं।

35 इस जीवन में भगवान की तुष्टि के लिए जो भी कार्य किया जाता है, उसे भक्तियोग अथवा भगवान के प्रति दिव्य प्रेमाभक्ति कहते हैं और जिसे ज्ञान कहते हैं, वह तो सहगामी कारक बन जाता है।

36 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार कर्म करते हुए मनुष्य निरन्तर उनका, उनके नामों का तथा उनके गुणों का स्मरण करता है।

37 आइये, हम सब वासुदेव तथा उनके पूर्ण अंश प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण सहित उनकी महिमा का कीर्तन करें।

38 इस प्रकार वास्तविक दृष्टा वही है, जो दिव्य मंत्रमूर्ति, श्रीभगवान विष्णु की पूजा करता है, जिनका कोई भौतिक रूप नहीं होता।

39 हे ब्राह्मण, इस प्रकार सर्वप्रथम भगवान कृष्ण ने मुझे वेदों के गुह्यतम अंशों में निहित भगवान के दिव्य ज्ञान का, फिर आध्यात्मिक ऐश्वर्य का और तब अपनी घनिष्ठ प्रेममय सेवा का वर दिया।

40 अतः कृपा करके सर्वशक्तिमान के उन कार्यकलापों का वर्णन करो, जिसे तुमने वेदों के अपार ज्ञान से जाना है, क्योंकि उससे महान विद्वज्जनों की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति होगी और साथ ही सामान्य लोगों के कष्टों का भी शमन होगा, जो भौतिक दुखों से सदैव पीड़ित रहते हैं। निस्सन्देह, इन कष्टों से उबरने का कोई अन्य साधन नहीं है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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 10847907675?profile=RESIZE_400xअध्याय चार – श्री नारद का प्राकट्य(1.4)

1 सूत गोस्वामी को इस प्रकार बोलते देखकर, दीर्घकालीन यज्ञोत्सव में लगे हुए समस्त ऋषियों में विद्वान तथा वयोवृद्ध अग्रणी शौनक मुनि ने सूत गोस्वामी को निम्न प्रकार सम्बोधित करते हुए बधाई दी।

2 शौनक ने कहा: हे सूत गोस्वामी, जो बोल सकते हैं तथा सुना सकते हैं, उन सबों में आप सर्वाधिक भाग्यशाली तथा सम्माननीय हैं। कृपा करके श्रीमद भागवत की पुण्य कथा कहें, जिसे महान तथा शक्ति सम्पन्न ऋषि श्रील शुकदेव गोस्वामी ने सुनाई थी।

3 यह (कथा) सर्वप्रथम किस युग में तथा किस स्थान में प्रारम्भ हुई और किस कारण इसे प्रारम्भ किया गया? महामुनि कृष्ण द्वैपायन व्यास ने इस साहित्य (ग्रन्थ) को संकलित करने की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त की?

4 उनका (व्यासदेव का) पुत्र परम भक्त, समदर्शी ब्रह्मवादी था जिसका मन सदैव ब्रह्मवाद में केन्द्रित रहता था। वह संसारी कर्मों से परे था, लेकिन प्रकट न होने के कारण अज्ञानी-जैसा लगता था।

5 जब श्रील व्यासदेव अपने पुत्र के पीछे-पीछे जा रहे थे, तो निर्वस्त्र स्नान करती सुन्दर तरुणियों ने वस्त्रों से अपने शरीर ढक लिए, यद्यपि व्यासदेव स्वयं निर्वस्त्र न थे लेकिन जब उनका पुत्र वहीं से गुजरा था तब उन्होंने वैसा नहीं किया था। मुनि ने इसके बारे में पूछा तो तरुणियों ने उत्तर दिया कि उनका पुत्र पवित्र है और जब वह उनकी ओर देख रहा था तो उसने स्त्री तथा पुरुष में कोई भेद नहीं माना। लेकिन मुनि तो भेद मान रहे थे।

6 कुरु तथा जांगल प्रदेशों में पागल, गूँगे तथा मूढ़ की भाँति घूमने के बाद, जब वे (व्यासपुत्र श्रील शुकदेव) हस्तिनापुर (अब दिल्ली) नगर में प्रविष्ट हुए, तो वहाँ के नागरिकों ने उन्हें कैसे पहचाना?

7 राजा परीक्षित की इस महामुनि से कैसे भेंट हुई जिसके फलस्वरूप जिससे वेदों के इस महान दिव्य सार (भागवत) का वाचन सम्भव हो सका?

8 वे (श्रील शुकदेव गोस्वामी) किसी गृहस्थ के द्वार पर उतनी ही देर रुकते, जितने समय में गाय दुही जा सकती है। वे उस घर को पवित्र करने के लिए ही ऐसा करते थे।

9 कहा जाता है कि महाराज परीक्षित उच्च कोटि के भगवद्भक्त थे और उनके जन्म तथा कर्म अत्यन्त आश्चर्यजनक थे। कृपया उनके विषय में हमें बताएँ।

10 वे एक महान सम्राट थे और उनके पास उपार्जित राज्य के सारे ऐश्वर्य थे। वे इतने वरेण्य थे कि उनसे पाण्डु वंश की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी। तो फिर वे सब कुछ त्यागकर गंगा नदी के तट पर बैठकर क्यों आमरण उपवास करने लगे?

11 वे इतने बढ़े सम्राट थे कि उनके सारे शत्रु आकर अपनी भलाई के लिए उनके चरणों पर अपना शीश झुकाते थे और अपनी सारी सम्पत्ति अर्पित करते थे। वे तरुण और शक्तिशाली थे और उनके पास अलभ्य राजसी ऐश्वर्य था। तो फिर वे अपना सर्वस्य, यहाँ तक कि अपना जीवन भी क्यों त्यागना चाह रहे थे?

12 जो लोग भगवत्कार्य में अनुरक्त रहते हैं, वे दूसरों के कल्याण, उन्नति तथा सुख के लिए ही जीवित रहते हैं। वे किसी स्वार्थवश जीवित नहीं रहते। अतएव राजा (परीक्षित) ने समस्त सांसारिक वैभव की आसक्ति से मुक्त होते हुए भी, अपने उस मर्त्य शरीर को क्यों त्यागा जो दूसरों के लिए आश्रयतुल्य था?

13 हम जानते हैं कि आप वेदों के कतिपय अंश को छोड़कर अन्य समस्त विषयों के अर्थ में पटु हैं, अतएव आप उन सारे प्रश्नों की स्पष्ट व्याख्या कर सकते हैं, जिन्हें हमने आपसे अभी पूछा है।

14 सूत गोस्वामी ने कहा: जिस समय द्वापर युग का त्रेता युग से अतिव्यापन हो रहा था, तो वसु की पुत्री सत्यवती के गर्भ से पराशर द्वारा महान ऋषि (व्यासदेव) ने जन्म लिया।

15 एक बार सूर्योदय होते ही उन्होंने (व्यासदेव ने) सरस्वती के जल से प्रातःकालीन आचमन किया और मन एकाग्र करने के लिए वे एकान्त में बैठ गये।

16 महर्षि व्यासदेव ने युग के कर्तव्यों में विरोधाभास देखा। कालक्रम में पृथ्वी पर अदृश्य शक्तियों के कारण विभिन्न युगों में ऐसा होता रहता है।

17-18 परम ज्ञानी ऋषि, अपनी दिव्य दृष्टि से, युग के प्रभाव से प्रत्येक भौतिक वस्तु की अवनति को देख सकते थे। वे यह भी देख सकते थे कि श्रद्धाविहीन व्यक्तियों की आयु क्षीण होगी और वे सतोगुण के अभाव के कारण अधीर रहेंगे। इस प्रकार उन्होंने समस्त वर्णों तथा आश्रमों के लोगों के कल्याण पर विचार किया।

19 उन्होंने देखा कि वेदों में वर्णित यज्ञ वे साधन हैं, जिनसे लोगों की वृत्तियों को शुद्ध बनाया जा सकता है। अतः इस विधि को सरल बनाने के लिए ही उन्होंने एक ही वेद के चार भाग कर दिये, जिससे वे लोगों के बीच फैल सकें।

20 मूल ज्ञान के स्रोतों (वेदों) के चार पृथक विभाग किये गये। लेकिन पुराणों में वर्णित ऐतिहासिक तथ्य तथा प्रामाणिक कथाएँ पंचम वेद कहलाती हैं।

21 वेदों के चार खण्डों में विभाजित हो जाने के बाद, पैल ऋषि ऋग्वेद के आचार्य बने और जैमिनी सामवेद के। यजुर्वेद के कारण एकमात्र वैशम्पायन यशस्वी हुए।

22 अत्यन्त अनुरक्त रहने वाले सुमन्तु मुनि अंगिरा को अथर्ववेद सौंपा गया और मेरे पिता रोमहर्षण को पुराण तथा इतिहास सौंपे गये।

23 इन सब विद्वानों ने अपनी पारी में, उन्हें सौंपे गये वेदों को अपने अनेक शिष्यों, प्रशिष्यों तथा उनके भी शिष्यों को प्रदान किया और इस प्रकार वेदों के अनुयायियों की अपनी-अपनी शाखाएँ बनीं।

24 इस प्रकार अज्ञानी जन समूह पर अत्यन्त कृपालु ऋषि व्यासदेव ने वेदों का संकलन किया, जिससे कम ज्ञानी पुरुष भी उनको आत्मसात कर सकें।

25 महर्षि ने अनुकम्पावश हितकर समझा कि मनुष्यों को जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने में यह सहायक होगा। इस प्रकार उन्होंने स्त्रियों, शूद्रों तथा द्विज-बन्धुओं के लिए महाभारत नामक महान ऐतिहासिक कथा का संकलन किया।

26 हे द्विज ब्राह्मणों, यद्यपि वे समस्त लोगों के समग्र कल्याण कार्य में लगे रहे, तो भी उनका मन भरा नहीं।

27 इस प्रकार मन में असंतुष्ट रहते हुए ऋषि ने तुरन्त विचार करना प्रारम्भ कर दिया, क्योंकि वे धर्म के सार के ज्ञाता थे और मन ही मन कहा।

28-29 मैंने कठिन व्रतों का पालन करते हुए वेदों की, गुरु की तथा यज्ञ वेदी की मिथ्याडम्बर के बिना पूजा की है। मैंने अनुशासन का भी पालन किया है और महाभारत की व्याख्या के माध्यम से शिष्य-परम्परा को अभिव्यक्ति दी है, जिससे स्त्रियाँ, शूद्र तथा अन्य (द्विजबन्धु) लोग भी धर्म के मार्ग का अवलोकन कर सकते हैं।

30 वेदों के लिए जितनी बातों की आवश्यकता है, यद्यपि मैं उनसे पूर्णरूप से सज्जित हूँ, तथापि मैं अपूर्णता का अनुभव कर रहा हूँ।

31 हो सकता है कि मैंने भगवान की भक्ति का विशेष रूप से कोई संकेत न किया हो, जो सिद्ध जीवों तथा अच्युत भगवान दोनों को प्रिय है।

32 जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जब व्यासदेव अपने दोषों के विषय में पश्चाताप कर रहे थे, उसी समय सरस्वती नदी के तट पर स्थित कृष्ण द्वैपायन व्यास की कुटिया में नारद जी पधारे।

33 श्री नारद के शुभागमन पर श्री व्यासदेव सम्मानपूर्वक उठकर खड़े हो गये और उन्होंने स्रष्टा ब्रह्माजी के समान उनकी पूजा की।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तीन -- समस्त अवतारों के स्रोत कृष्ण(1.3)

1 सूतजी ने कहा: सृष्टि के प्रारम्भ में, भगवान ने सर्वप्रथम विराट पुरुष अवतार के रूप में अपना विस्तार किया और भौतिक सृजन के लिए सारी सामग्री प्रकट की। इस प्रकार सर्वप्रथम भौतिक क्रिया के सोलह तत्त्व उत्पन्न हुए। यह सब भौतिक ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के लिए किया गया।

2 पुरुष के एक अंश ब्रह्माण्ड के जल के भीतर लेटते हैं, उनके शरीर के नाभि--सरोवर से एक कमलनाल अंकुरित होता है और इस नाल के ऊपर खिले कमल--पुष्प से ब्रह्माण्ड के समस्त शिल्पियों के स्वामी ब्रह्मा प्रकट होते हैं।

3 ऐसा विश्वास किया जाता है कि समस्त ब्रह्माण्ड के ग्रहमण्डल पुरुष के विराट शरीर में स्थित हैं, किन्तु उन्हें सर्जित भौतिक अवयवों से कोई सरोकार नहीं होता। उनका शरीर नित्य आध्यात्मिक अस्तित्वमय है जिसकी कोई तुलना नहीं है।

4 भक्तगण अपने विमल (पूर्ण) नेत्रों से उस पुरुष के दिव्य रूप का दर्शन करते हैं जिसके हजारों हजार-पाँव, जंघाएँ, भुजाएँ तथा मुख हैं और सबके सब अद्वितीय हैं। उस शरीर में हजारों सिर, आँखें, कान तथा नाक होते हैं। वे हजारों मुकुटों तथा चमकते कुण्डलों से अलंकृत हैं और मालाओं से सजाये गये हैं।

5 यह रूप (पुरुष का द्वितीय प्राकट्य) ब्रह्माण्ड के भीतर नाना अवतारों का स्रोत तथा अविनाशी बीज है। इसी रूप के कणों तथा अंशों से देवता, मनुष्य इत्यादि विभिन्न जीव उत्पन्न होते हैं।

6 सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वप्रथम ब्रह्मा के चार अविवाहित पुत्र (कुमारगण) थे, जिन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए परम सत्य के साक्षात्कार हेतु कठोर तपस्या की।

7 समस्त यज्ञों के परम भोक्ता ने सूकर का अवतार (द्वितीय अवतार) स्वीकार किया और पृथ्वी के कल्याण हेतु उसे ब्रह्माण्ड के रसातल क्षेत्र से ऊपर उठाया।

8 ऋषियों के सर्ग में, भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में, जो देवताओं में महर्षि हैं, तीसरा शक्त्यावेश अवतार ग्रहण किया। उन्होंने उन वेदों का भाष्य संकलित किया जिनमें भक्ति मिलती है और जो निष्काम कर्म की प्रेरणा प्रदान करते हैं।

9 चौथे अवतार में भगवान राजा धर्म की पत्नी के जुड़वाँ पुत्र नर तथा नारायण बने। फिर उन्होंने इन्द्रियों को वश में करने के लिए कठिन तथा अनुकरणीय तपस्या की।

10 भगवान कपिल नामक पाँचवाँ अवतार सिद्धों में सर्वोपरि है। उन्होंने आसुरि नामक ब्राह्मण को सृष्टिकारी तत्त्वों तथा सांख्य शास्त्र का भाष्य बताया, क्योंकि कालक्रम से यह ज्ञान विनष्ट हो चुका था।

11 पुरुष के छठे अवतार अत्री मुनि के पुत्र थे। वे अनसूया की प्रार्थना पर उनके गर्भ से उत्पन्न हुए थे। उन्होंने अलर्क, प्रह्लाद तथा अन्यों (यदु, हैहय आदि) को अध्यात्म के विषय में उपदेश दिया।

12 सातवें अवतार प्रजापति रुचि तथा उनकी पत्नी आकुति के पुत्र यज्ञ थे। उन्होंने स्वायम्भुव मनु के बदलने पर शासन सँभाला और अपने पुत्र यम तथा अन्य देवताओं की सहायता प्राप्त की।

13 आठवाँ अवतार राजा ऋषभ के रूप में हुआ। वे राजा नाभि तथा उनकी पत्नी मेरुदेवी के पुत्र थे। इस अवतार में भगवान ने पूर्णता का मार्ग दिखलाया जिसका अनुगमन उन लोगों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से संयमित कर लिया है और जो सभी वर्णाश्रमों के लोगों द्वारा वन्दनीय हैं।

14 हे ब्राह्मणों, मुनियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, भगवान ने नवें अवतार में राजा (पृथु) का शरीर स्वीकार किया जिन्होंने विविध उपजें प्राप्त करने के लिए पृथ्वी को जोता। फलस्वरूप पृथ्वी अत्यन्त सुन्दर तथा आकर्षक बन गई।

15 जब चाक्षुष मनु के युग के बाद पूर्ण जलप्रलय हुआ और सारा जगत जल में डूब गया था, तब भगवान मछली (मत्स्य) के रूप में प्रकट हुए और वैवस्वत मनु को नाव में रखकर उनकी रक्षा की।

16 भगवान का ग्यारहवाँ अवतार कच्छप के रूप में हुआ, जिनकी पीठ ब्रह्माण्ड के आस्तिकों तथा नास्तिकों के द्वारा मथानी के रूप में प्रयुक्त किये जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए आधार बनी।

17 बारहवें अवतार में भगवान धन्वतरि के रूप में प्रकट हुए और तेरहवें अवतार में उन्होंने स्त्री रूप के मनोहर सौन्दर्य द्वारा नास्तिकों को मोहित किया और देवताओं को पीने के लिए अमृत प्रदान किया।

18 चौदहवें अवतार में भगवान नृसिंह के रूप में प्रकट हुए और अपने नाखूनों से नास्तिक हिरण्यकशिपु के बलिष्ठ शरीर को उसी प्रकार चीर डाला, जिस प्रकार बढ़ई लट्ठे को चीर देता है।

19 पन्द्रहवें अवतार में भगवान ने बौने ब्राह्मण (वामन) का रूप धारण किया और वे महाराज बलि द्वारा आयोजित यज्ञ में पधारे। यद्यपि वे हृदय से तीनों लोकों का राज्य प्राप्त करना चाह रहे थे, किन्तु उन्होंने केवल तीन पग भूमि दान में माँगी।

20 सोलहवें अवतार में भगवान ने (भृगुपति के रूप में) क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया, क्योंकि वे ब्राह्मणों (बुद्धिमान वर्ग) के विरुद्ध किये गये विद्रोह के कारण उनसे क्रुद्ध थे।

21 तत्पश्चात सत्रहवें अवतार में भगवान, पराशर मुनि के माध्यम से सत्यवती के गर्भ से श्री व्यासदेव के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने यह देखकर कि जन-सामान्य अल्पज्ञ हैं, एकमेव वेद को अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त कर दिया।

22 अठारहवें अवतार में भगवान राजा राम के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने देवताओं के लिए मनभावन कार्य करने के उद्देश्य से हिन्द महासागर को वश में करते हुए समुद्र पार के निवासी नास्तिक राजा रावण का वध करके अपनी अतिमानवीय शक्ति का प्रदर्शन किया।

23 उन्नीसवें तथा बीसवें अवतारों में भगवान वृष्णि वंश में (यदु कुल में) भगवान बलराम तथा भगवान कृष्ण के रूप में अवतरित हुए और इस तरह उन्होंने संसार के भार को दूर किया।

24 तब भगवान कलियुग के प्रारम्भ में गया प्रान्त में अंजना के पुत्र बुद्ध के रूप में उन लोगों को मोहित करने के लिए प्रकट होंगे, जो श्रद्धालु आस्तिकों से ईर्ष्या करते हैं।

25 तत्पश्चात सृष्टि के सर्वोसर्वा भगवान दो युगों के सन्धिकाल में कल्कि अवतार के रूप में जन्म लेंगे और विष्णु यशा के पुत्र होंगे। उस समय पृथ्वी के शासक लुटेरे बन चुके होंगे।

26 हे ब्राह्मणों, भगवान के अवतार उसी तरह असंख्य हैं, जिस प्रकार अक्षय जल के स्रोत से निकलने वाले (असंख्य) झरने।

27 सारे ऋषि, मनु, देवता तथा विशेष रूप से शक्तिशाली मनु की सन्तानें भगवान के अंश या उन अंशों की कलाएँ हैं। इसमें प्रजापतिगण भी सम्मिलित हैं।

28 उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएँ) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं। भगवान आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं।

29 जो कोई भी भगवान के गुह्य अवतारों का सावधानीपूर्वक प्रतिदिन सुबह तथा शाम को पाठ करता है वह जीवन के समस्त दुखों से छूट जाता है।

30 भगवान के विराट रूप की धारणा, जिसमें वे इस भौतिक जगत में प्रकट होते हैं, काल्पनिक है। यह तो अल्पज्ञों (तथा नवदीक्षितों) को भगवान के रूप की धारणा में प्रवेश कराने के लिए है। लेकिन वस्तुतः भगवान का कोई भौतिक रूप नहीं होता।

31 बादल तथा धूल वायु द्वारा ले जाए जाते हैं, लेकिन अल्पज्ञ लोग कहते हैं कि आकाश मेघाच्छादित है और वायु धूलिमय (मलिन) है। इसी प्रकार वे लोग आत्मा के विषय में भी भौतिक शरीर की धारणाओं का आरोपण करते हैं।

32 रूप की इस स्थूल अवधारणा से परे रूप की एक अन्य सूक्ष्म धारणा है, जिसका कोई आकार नहीं होता और जो अनदेखा, अनसुना तथा अव्यक्त होता है। जीव का रूप इस सूक्ष्मता से परे है, अन्यथा उसे बारम्बार जन्म न लेना पड़ता।

33 जब कभी मनुष्य आत्म-साक्षात्कार द्वारा यह अनुभव करता है कि स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों शरीरों का शुद्ध आत्मा से कोई सरोकार नहीं है, उस समय वह अपना तथा साथ ही साथ भगवान का दर्शन करता है।

34 यदि माया का शमन हो जाता है और यदि भगवत्कृपा से जीव ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है, तो उसे तुरन्त आत्म-साक्षात्कार का प्रकाश प्राप्त होता है और वह अपनी महिमा में प्रतिष्ठित (महिमामण्डित) हो जाता है।

35 इस प्रकार विद्वान पुरुष उस अजन्मा तथा अकर्ता के जन्मों तथा कर्मों का वर्णन करते हैं, जो वैदिक साहित्य के लिए भी ज्ञेय नहीं है। वे हृयदेश हैं।

36 जिनके कर्म सदैव निष्कलुष होते हैं वे भगवान छह इन्द्रियों के स्वामी हैं और छहों ऐश्वर्यों के साथ सर्वशक्तिमान हैं। वे दृश्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं, उनका पालन करते हैं और रंचमात्र भी प्रभावित हुए बिना उसका संहार करते हैं। वे समस्त जीवों के भीतर विद्यमान रहते हैं और सदैव स्वतंत्र होते हैं।

37 मूर्ख मनुष्य अपने अल्पज्ञान के कारण भगवान के रूपों, नामों तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को नहीं जान सकते, क्योंकि वे तो किसी नाटक में एक पात्र की तरह कार्य कर रहे होते हैं। न ही ऐसे मनुष्य अपने तर्क या अपनी वाणी द्वारा भी ऐसी बातों को व्यक्त कर सकते हैं।

38 जो बिना हिचक के अबाध रूप से अपने हाथों में रथ का चक्र धारण करने वाले भगवान के चरणकमलों की अनुकूल सेवा करता है, वही इस जगत के स्रष्टा की पूर्ण महिमा, शक्ति तथा दिव्यता को समझ सकता है।

39 इस संसार में केवल ऐसी जिज्ञासाओं द्वारा ही मनुष्य सफल तथा पूर्णतः ज्ञात (भगवन्त:) हो सकता है, क्योंकि ऐसी जिज्ञासाओं से अखिल ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान के प्रति दिव्य आह्लादकारी प्रेम उत्पन्न होता है और जन्म मृत्यु की घोर पुनरावृत्ति से शत-प्रतिशत प्रतिरक्षा की गारंटी प्राप्त होती है।

40 यह श्रीमद भागवत भगवान का साहित्यावतार है, जिसे भगवान के अवतार वेदव्यास ने संकलित किया है। यह सभी लोगों के परम कल्याण के निमित्त है और यह सभी तरह से सफल, आनन्दमय तथा परिपूर्ण है।

41 स्वरूपसिद्धों में अत्यन्त सम्माननीय श्री वेदव्यास ने समस्त वैदिक वाड्मय तथा ब्रह्माण्ड के इतिहासों का सार निकालकर इसे अपने पुत्र को प्रदान किया।

42 व्यासदेव के पुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी ने, अपनी पारी में महाराज परीक्षित को भागवत सुनाई जो तब निर्जल तथा निराहार रहकर मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए गंगा नदी के तट पर ऋषियों से घिरे हुए बैठे थे।

43 यह भागवत पुराण सूर्य के समान तेजस्वी है और धर्म, ज्ञान आदि के साथ कृष्ण द्वारा अपने धाम चले जाने के बाद ही इसका उदय हुआ। जिन लोगों ने कलियुग में अज्ञान के गहन अंधकार के कारण अपनी दृष्टि खो दी है, उन्हें इस पुराण से प्रकाश प्राप्त होगा।

44 हे विद्वान ब्राह्मणों, जब श्रील शुकदेव गोस्वामी ने वहाँ पर (महाराज परीक्षित की उपस्थिति में) भागवत सुनाया, तो मैंने अत्यन्त ध्यानपूर्वक सुना और इस तरह उनकी कृपा से मैंने उन महान शक्ति सम्पन्न ऋषि से भागवत सीखा। अब मैं तुम लोगों को वही सब सुनाने का प्रयत्न करूँगा, जो मैंने उनसे सीखा तथा जैसा मैंने आत्मसात किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दो – दिव्यता तथा दिव्य सेवा(1.2)

1 रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा (सूत गोस्वामी) ने ब्राह्मणों के सम्यक प्रश्नों से पूर्णतः प्रसन्न होकर उन्हें धन्यवाद दिया और वे उत्तर देने का प्रयास करने लगे।

2 श्रील सूत गोस्वामी ने कहा: मैं उन महामुनि (श्रील शुकदेव गोस्वामी) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं। जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किए बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग में भय से आतुर होकर चिल्ला उठे "हे पुत्र,” उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे, केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया।

3 मैं समस्त मुनियों के गुरु, व्यासदेव के पुत्र (श्रील शुकदेव) को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने संसार के गहन अंधकारमय भागों को पार करने के लिए संघर्षशील उन निपट भौतिकतावादियों के प्रति अनुकम्पा करके वैदिक ज्ञान के सार रूप इस परम गुह्य पुराण को स्वयं आत्मसात करने के बाद अनुभव द्वारा कह सुनाया।

4 विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमदभागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान नारायण को, नरोत्तम नरनारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रन्थकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे

5 हे मुनियों, आपने मुझसे ठीक ही प्रश्न किया है। आपके प्रश्न श्लाघनीय हैं, क्योंकि उनका सम्बन्ध भगवान कृष्ण से है और इस प्रकार वे विश्व-कल्याण के लिए हैं। ऐसे प्रश्नों से ही पूर्ण आत्मतुष्टि हो सकती है।

6 सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति (धर्म) वही है, जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान की प्रेमा-भक्ति प्राप्त कर सकें। ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके।

7 भगवान कृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।

8 मनुष्य द्वारा अपने पद के अनुसार सम्पन्न की गई वृत्तियाँ यदि भगवान के सन्देश के प्रति आकर्षण उत्पन्न न कर सकें, तो वे निरी व्यर्थ का श्रम होती हैं।

9 समस्त वृत्तिपरक कार्य निश्चय ही परम मोक्ष के निमित्त होते हैं। उन्हें कभी भौतिक लाभ के लिए सम्पन्न नहीं किया जाना चाहिए। इससे भी आगे, ऋषियों के अनुसार, जो लोग परम वृत्ति (धर्म) में लगे हैं, उन्हें चाहिए कि इन्द्रियतृप्ति के संवर्धन हेतु भौतिक लाभ का उपयोग कदापि नहीं करना चाहिए।

10 जीवन की इच्छाएँ इन्द्रियतृप्ति की ओर लक्षित नहीं होनी चाहिए। मनुष्य को केवल स्वस्थ जीवन की या आत्म-संरक्षण की कामना करनी चाहिए, क्योंकि मानव तो परम सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के निमित्त बना है। मनुष्य की वृत्तियों का इसके अतिरिक्त, अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए।

11 परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी (तत्त्वविद) इस अद्वय तत्त्व को ब्रह्म, परमात्मा या भगवान के नाम से पुकारते हैं।

12 ज्ञान तथा वैराग्य से समन्वित गम्भीर जिज्ञासु या मुनि, वेदान्त-श्रुति के श्रवण से ग्रहण की हुई भक्ति द्वारा परम सत्य की अनुभूति करता है।

13 अतः हे द्विजश्रेष्ठ, निष्कर्ष यह निकलता है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा करने से जो परम सिद्धि प्राप्त हो सकती है, वह है भगवान को प्रसन्न करना।

14 अतएव मनुष्य को एकाग्रचित्त से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विषय में निरन्तर, श्रवण, कीर्तन, स्मरण तथा पूजन करना चाहिए, जो भक्तों के रक्षक हैं।

15 हाथ में तलवार लिए बुद्धिमान मनुष्य भगवान का स्मरण करते हुए कर्म की बँधी हुई ग्रन्थि को काट देते हैं। अतएव ऐसा कौन होगा जो उनके सन्देश की ओर ध्यान नहीं देगा।

16 हे द्विजों, जो भक्त समस्त पापों से पूर्ण रूप से मुक्त हैं, उनकी सेवा करने से महान सेवा हो जाती है। ऐसी सेवा से वासुदेव की कथा सुनने के प्रति लगाव उत्पन्न होता है।

17 प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान श्रीकृष्ण, उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है, क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्त पुण्यप्रद हैं।

18 भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं, और उन पुण्य श्लोक भगवान में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।

19 ज्योंही हृदय में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, प्रकृति के रजोगुण तथा तमोगुण के प्रभाव जैसे काम, इच्छा तथा लोभ हृदय से लुप्त हो जाते हैं। तब भक्त सत्त्वगुण में स्थित होकर परम सुखी हो जाता है।

20 इस प्रकार शुद्ध सत्त्व में स्थित होकर, जिस मनुष्य का मन भगवान की भक्ति के संसर्ग से प्रसन्न हो चुका होता है उसे समस्त भौतिक संगति से मुक्त होने पर भगवान का सही वैज्ञानिक ज्ञान (विज्ञान तत्त्व) प्राप्त होता है।

21 इस प्रकार हृदय की गाँठ भिद जाती है और सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। जब मनुष्य आत्मा को स्वामी के रूप में देखता है, तो सकाम कर्मों की शृंखला समाप्त हो जाती है।

22 अतएव, निश्चय ही सारे अध्यात्मवादी अनन्तकाल से अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करते आ रहे हैं, क्योंकि ऐसी भक्ति आत्मा को प्रमोदित करने वाली है।

23 दिव्य भगवान प्रकृति के तीन गुणों--सत्त्व, रज तथा तम--से अप्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध हैं और वे भौतिक जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव, इन तीन गुणात्मक रूपों को ग्रहण करते हैं। इन तीनों रूपों में से सत्त्वगुण वाले विष्णु से सारे मनुष्य परम लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

24 अग्निकाष्ट मृदा (मिट्टी) का रूपान्तर है, लेकिन काष्ट से बेहतर धुँआ है। अग्नि उससे भी उत्तम है, क्योंकि अग्नि से (वैदिक यज्ञों से) हमें श्रेष्ठ ज्ञान के लाभ प्राप्त हो सकते हैं। इसी प्रकार रजोगुण तमोगुण से बेहतर है, लेकिन सत्त्वगुण सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि सत्त्वगुण से मनुष्य परम सत्य का साक्षात्कार कर सकता है।

25 पूर्वकाल में समस्त महामुनियों ने भगवान की सेवा की, क्योंकि वे प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। उन्होंने भौतिक परिस्थितियों से मुक्त होने के लिए और फलस्वरूप परम लाभ प्राप्त करने के लिए पूजा की। अतएव जो कोई इन महामुनियों का अनुसरण करता है वह भी इस भौतिक संसार में मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।

26 जो लोग मोक्ष के प्रति गम्भीर हैं, वे निश्चय ही द्वेषरहित होते हैं, और सबका सम्मान करते हैं। किन्तु, फिर भी वे देवताओं के घोर रूपों को अस्वीकार करके, केवल भगवान विष्णु तथा उनके स्वांशों के कल्याणकारी रूपों की ही पूजा करते हैं।

27 जो लोग रजोगुणी तथा तमोगुणी हैं वे पितरों, अन्य जीवों तथा उन देवताओं की पूजा करते हैं, जो सृष्टि सम्बन्धी कार्यकलापों के प्रभारी हैं, क्योंकि वे स्त्री, धन, शक्ति तथा सन्तान का लाभ उठाने की इच्छा से प्रेरित होते हैं।

28-29 प्रामाणिक शास्त्रों में ज्ञान का परम उद्देश्य पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं। यज्ञ करने का उद्देश्य उन्हें ही प्रसन्न करना है। योग उन्हीं के साक्षात्कार के लिए है। सारे सकाम कर्म अन्ततः उन्हीं के द्वारा पुरष्कृत होते हैं। वे परम ज्ञान हैं और सारी कठिन तपस्याएँ उन्हीं को जानने के लिए की जाती हैं। उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है। वे ही जीवन के चरम लक्ष्य हैं।

30 इस भौतिक सृष्टि के प्रारम्भ में उन भगवान (वासुदेव) ने अपने दिव्य पद पर रहकर अपनी ही अन्तरंगा शक्ति से कारण तथा कार्य की शक्तियाँ उत्पन्न की।

31 भौतिक पदार्थ की उत्पत्ति करने के बाद, भगवान (वासुदेव) अपना विस्तार करके उसमें प्रवेश करते हैं। यद्यपि वे प्रकृति के गुणों में रहते हुए उत्पन्न जीवों में से एक जैसे लगते हैं, किन्तु वे सदैव अपने दिव्य पद पर पूर्ण रूप से आलोकित रहते हैं।

32 परमात्मा रूप में भगवान सभी वस्तुओं में उसी तरह व्याप्त रहते हैं जिस तरह काष्ट के भीतर अग्नि व्याप्त रहती है और इस प्रकार यद्यपि वे एक एवं अद्वितीय हैं, वे अनेक प्रकार से दिखते हैं।

33 भौतिक जगत के तीन गुणों से प्रभावित हुए जीवों के देह में परमात्मा प्रविष्ट होते हैं और सूक्ष्म मन के द्वारा तीन गुणों के फल भोगने के लिए जीवों को प्रेरित करते हैं।

34 इस प्रकार सारे ब्रह्माण्डों के स्वामी देवताओं, मनुष्यों तथा निम्न पशुओं से आवासित सारे ग्रहों का पालन-पोषण करने वाले हैं। वे अवतरित होकर शुद्ध सत्त्वगुण में रहने वालों के उद्धार हेतु लीलाएँ करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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कृपया मेरा विनम्र प्रणाम स्वीकार करें !  

(Please accept my humble obeisances)

श्रील प्रभुपाद की जय हो !   

(All Glories to Sril Prabhupada)

श्रीमदभागवत न केवल प्रत्येक वस्तु के परम स्रोत को जानने के लिए दिव्य विज्ञान है अपितु ईश्वर से अपने सम्बन्ध को जानने और इस पूर्ण ज्ञान के आधार पर मानव समाज की पूर्णता के प्रति अपने कर्तव्य को पहचानने का दिव्य विज्ञान है।   श्रीमदभागवत का शुभारम्भ परम स्रोत की परिभाषा से होता है। यह श्रील व्यासदेव द्वारा रचे वेदान्त-सूत्र पर उन्हीं का प्रामाणिक भाष्य है, जो क्रमशः नौ स्कन्धों में विकसित होकर भगवत-साक्षात्कार की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचता है।    दिव्य ज्ञान की इस महान कृति के अध्ययन हेतु मनुष्य में जिस एकमात्र योग्यता की आवश्यकता है, वह है सावधानी के साथ एक-एक पग आगे बढ़ा जाए और किसी साधारण पुस्तक की भाँति, पढ़ने में कूद-फाँद न मचाई जाए, अपितु इसके अध्यायों को क्रमपूर्वक एक-एक करके पढ़ा जाए।   सम्पूर्ण पाठ इस प्रकार व्यवस्थित किया गया है कि जब कोई प्रथम नौ स्कन्धों को समाप्त कर ले, तो उसे निश्चय ही भगवत-साक्षात्कार हो पाए।   श्रीमदभागवत का दशम स्कन्ध प्रथम नौ स्कन्धों से भिन्न है, क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं से है। जब तक प्रथम नौ स्कन्धों को पढ़ नहीं लिया जाता, तब तक दशम स्कन्ध के प्रभावों को ग्रहण नहीं किया जा सकता। यह ग्रन्थ बारह स्कन्धों में पूरा हुआ है; इनमें से प्रत्येक स्कन्ध अपने आप में स्वतंत्र है, किन्तु सबों के लिए उत्तम होगा कि वे क्रमशः एक के पश्चात दूसरे स्कन्ध को छोटे छोटे टुकड़ों में पढ़ें।   ( आमुख श्रीमद भागवतम ) 

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कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद अभय चरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद

संस्थापकाचार्य अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (इस्कॉन)

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॥ मंगलाचरण  ॥

मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञानरूपी प्रकाश से मेरी आँखें खोल दीं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रचार योजना (मिशन) की स्थापना की है ।

मैं अपने गुरु के चरणकमलों को तथा समस्त वैष्णवों के चरणों को नमस्कार करता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके अग्रज सनातन गोस्वामी एवं साथ ही रघुनाथदास, रघुनाथभट्ट, गोपालभट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान कृष्ण-चैतन्य तथा भगवान-नित्यानन्द के साथ-साथ अद्वैत आचार्य, गदाधर, श्रीवास तथा अन्य पार्षदों को सादर प्रणाम करता हूँ। मैं श्रीमती राधारानी तथा श्रीकृष्ण को, श्री ललिता तथा श्री विशाखा सखियों सहित, को सादर नमस्कार करता हूँ।

श्रीकृष्ण के चरण-आश्रित और अत्यन्त प्रिय भक्त कृष्णकृपामूर्ति श्रील अभय चरणारविन्द भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद को, मैं अपना श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता हूँ। हे प्रभुपाद! हे सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के प्रिय शिष्य! कृपापूर्वक श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी के प्रचार के द्वारा निर्विशेषवाद, शून्यवाद पूर्ण पाश्चात्य देशों का उद्धार करने वाले, आपको मैं श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता हूँ।

हे कृष्ण! आप दुखियों के सखा तथा सृष्टि के उद्गम हैं। आप गोपियों के स्वामी तथा राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

मैं उन राधारानी को प्रणाम करता हूँ जिनकी शारीरिक कान्ति पिघले सोने के सदृश है, जो वृन्दावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं और श्रीभगवान कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं।

मैं श्रीभगवान के समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। वे कल्पवृक्ष के समान सबकी इच्छाएँ पूर्ण करने में समर्थ हैं, तथा पतित जीवात्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु हैं।

मैं श्रीकृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानन्द, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि समस्त भक्तों को सादर प्रणाम करता हूँ।

 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

हे सर्वव्यापी परमेश्वर, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

नारायणम नमस्कृत्यम नरम चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासम ततो जयम उदिरयेत (1.2.4)

विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमदभागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान नारायण को, नरोत्तम नरनारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रन्थकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे।

नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यम भागवतसेवया

भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी (1.2.18)

भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं, और उन पुण्य श्लोक भगवान में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च

नन्दगोप-कुमाराय गोविन्दाय नमो नमः (1.8.21)

मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाड़ले, नन्द के लाल तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकर आये हैं।

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ॐ  श्री गुरु गौरांग जयतः 

अध्याय एकमुनियों की जिज्ञासा (1.1)

1 हे प्रभु, हे वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रहमाण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अतः मैं उन भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।

2 यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक होते हुए सबों के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के सन्तापों को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सौन्दर्यपूर्ण भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है? जैसे जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे वैसे ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।

3 हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमदभागवत को जरा चखो तो। यह श्रील शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक रुचिकर हो गया है, यद्यपि इसका अमृत-रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।

4 एक बार नैमिषारण्य के वन में एक पवित्र स्थल पर शौनक आदि महान ऋषिगण भगवान तथा उनके भक्तों को प्रसन्न करने के लिए एक हजार वर्षों तक चलने वाले यज्ञ को सम्पन्न करने के उद्देश्य से एकत्र हुए।

5 एक दिन यज्ञाग्नि जलाकर अपने प्रातःकालीन कृत्यों से निवृत्त होकर तथा श्रील सूत गोस्वामी को आदरपूर्वक आसन अर्पण करके ऋषियों ने सम्मानपूर्वक निम्नलिखित विषयों पर प्रश्न पूछे।

6 मुनियों ने कहा: हे पूज्य सूत गोस्वामी, आप समस्त प्रकार के पापों से पूर्ण रूप से मुक्त हैं। आप धार्मिक जीवन के लिए विख्यात समस्त शास्त्रों एवं पुराणों के साथ-साथ इतिहासों में निपुण हैं, क्योंकि आपने समुचित निर्देशन में उन्हें पढ़ा है और उनकी व्याख्या भी की है।

7 हे सूत गोस्वामी, आप ज्येष्ठतम विद्वान एवं वेदान्ती होने के कारण ईश्वर के अवतार व्यासदेव के ज्ञान से अवगत हैं और आप उन अन्य मुनियों को भी जानते हैं जो सभी प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात हैं।

8 इससे भी अधिक, चूँकि आप विनीत हैं, आपके गुरुओं ने एक सौम्य शिष्य जानकर आप पर सभी तरह से अनुग्रह किया है अतः आप हमें वह सब बतायें जिसे आपने उनसे वैज्ञानिक ढंग से सीखा है।

9 अतएव, दीर्घायु की कृपा प्राप्त आप सरलता से समझ में आने वाली विधि से हमें समझाइये कि आपने जन साधारण के समग्र एवं परम कल्याण के लिए क्या निश्चय किया है?

10 हे विद्वान, कलि के इस लौह-युग में लोगों की आयु न्यून है। वे झगड़ालू, आलसी, पथभ्रष्ट, अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव विचलित रहते हैं।

11 शास्त्रों के अनेक विभाग हैं और उन सबमें नियमित कर्मों का उल्लेख है, जिनके विभिन्न प्रभागों को वर्षों तक अध्ययन करके ही सीखा जा सकता है। अतः हे साधु, कृपया आप इन समस्त शास्त्रों का सार चुनकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु समझायें, जिससे उस उपदेश से उनके हृदय पूरी तरह तुष्ट हो जाएँ।

12 हे सूत गोस्वामी, आपका कल्याण हो। आप जानते हैं कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान देवकी के गर्भ से वसुदेव के पुत्र के रूप में किस प्रयोजन से प्रकट हुए।

13 हे सूत गोस्वामी, हम भगवान तथा उनके अवतारों के विषय में जानने के लिए उत्सुक हैं। कृपया हमें पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा दिये गये उपदेशों को बताइये, क्योंकि उनके वाचन श्रवण तथा कहने सुनने दोनों से ही मनुष्य का उत्कर्ष होता है।

14 जन्म तथा मृत्यु के जाल में उलझे हुए जीव, यदि अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं, तो तुरन्त मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि साक्षात भय भी इससे (नाम से) भयभीत रहता है।

15 हे सूत गोस्वामी, जिन महान ऋषियों ने पूर्ण रूप से भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली है, वे अपने सम्पर्क में आने वालों को तुरन्त पवित्र कर देते हैं, जबकि गंगा जल दीर्घकाल तक उपयोग करने के बाद ही पवित्र कर पाता है।

16 इस कलहप्रधान युग के पापों से उद्धार पाने का इच्छुक ऐसा कौन है, जो भगवान के पुण्य यशों को सुनना नहीं चाहेगा?

17 उनके दिव्य कर्म अत्यन्त उदार तथा अनुग्रहपूर्ण हैं और नारद जैसे महान विद्वान मुनि उनका गायन करते हैं। अतः कृपया हमें उनके अपने विविध अवतारों में सम्पन्न साहसिक लीलाओं के विषय में बतायें, क्योंकि हम सुनने के लिए उत्सुक हैं।

18 हे बुद्धिमान सूतजी, कृपा करके हमसे भगवान के विविध अवतारों की दिव्य लीलाओं का वर्णन करें। परम नियन्ता भगवान के ऐसे कल्याणप्रद साहसिक कार्य तथा उनकी लीलाएँ उनकी अन्तरंगा शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं।

19 हम उन भगवान की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं, जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है। उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है, वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं।

20 भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम सहित मनुष्य की भाँति क्रीड़ाएँ कीं और इस प्रकार से प्रच्छन्न रह कर उन्होंने अनेक अलौकिक कृत्य किये।

21 यह भलीभाँति जानकर कि कलियुग का प्रारम्भ हो चुका है, हम इस पवित्र स्थल में भगवान का दिव्य सन्देश सुनने के लिए तथा इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीर्घसत्र में एकत्र हुए हैं।

22 हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें।

23 चूँकि परम सत्य, योगेश्वर, श्रीकृष्ण अपने निज धाम के लिए प्रयाण कर चुके हैं, अतएव कृपा करके हमें बताएँ कि अब धर्म ने किसका आश्रय लिया है?

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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श्री भगवान की स्तुतियाँ 

Glorifications of God

श्रीभगवान की महिमामयी स्तुतियाँ पत्रिका स्वरूप में .pdf 

 

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श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

जनम जनम के पाप कटे - भरम के बादल दूर हटे

जो मुख से इक बार रटे - श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

तीन शब्द का ये संगीत - मुक्ति दिलाने वाला गीत

इसको गाकर जग को जीत - श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

काम-क्रोध मद भस्म करे - लोभ मोह के प्राण हरे

जो मुख में ये मंत्र धरे - श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

गले में तुलसी की माला - अधर पे भक्ति का प्याला

मन में प्रभु का उजियाला - श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

कलयुग में ये है वरदान - जन जन का करता कल्याण

वैष्णव जन का मंत्र महान - श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

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(समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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श्री गुरु गौरांग जयतः

श्रीमद भगवद गीता यथारूप

अर्जुन द्वारा स्तुति

अध्याय ग्यारह विराट रूप

9. संजय ने कहा—हे राजा ! इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया।

10-11. अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे। यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था। यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगंधियां लगी थी। सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।

12. यदि आकाश में हजारों सूर्य एकसाथ उदय हों, तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस विश्वरूप के तेज की समता कर सके।

13. उस समय अर्जुन भगवान के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनंत अंशों को देख सका।

14. तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगा।

15. अर्जुन ने कहा—हे भगवान कृष्ण ! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ। मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ।

16. हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप ! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अंत नहीं है। आपमें न अंत दीखता है, न मध्य और न आदि।

17. आपके रूप को उसके चकाचौंध तेज के कारण देख पाना कठिन है, क्योंकि वह प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों और फैल रहा है। तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है।

18. आप परम आद्य ज्ञेय वस्तु हैं। आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं। आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं। आप सनातन धर्म के पालक भगवान हैं। यही मेरा मत है।

19. आप आदि, मध्य तथा अंत से रहित हैं। आपका यश अनंत है। आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चंद्रमा आपकी आँखें हैं। मैं आपके मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलते हुए देख रहा हूँ।

20. यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं। हे महापुरुष ! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं।

21. देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है। उनमें से कुछ अत्यंत भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों तथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं।

22. शिव के विविध रूप, आदित्यगण, वसु, साध्य, विश्वेदेव, दोनों अश्विनीकुमार, मरुदगण, पितृगण, गंधर्व, यक्ष, असुर तथा सिद्धदेव सभी आपको आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं।

23. हे महाबाहु ! आपके इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु, जंघा, पाँव, पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यंत विचलित हैं और उन्हीं की तरह मैं भी हूँ।

24. हे सर्वव्यापी विष्णु ! नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है। मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, न मानसिक संतुलन ही पा रहा हूँ।

25. हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप मुझ पर प्रसन्न हो। मैं इस प्रकार से आपके प्रलयाग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों को देखकर अपना संतुलन नहीं रख पा रहा। मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ।

26-27. धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायक राजाओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुख में प्रवेश कर रहे हैं। उनमें से कुछ के शिरों को तो मैं आपके दाँतों के बीच चूर्णित हुआ देख रहा हूँ।

28. जिस प्रकार नदियों की अनेक तरंगें समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार ये समस्त महान योद्धा भी आपके प्रज्ज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

29. मैं समस्त लोगों को पूर्ण वेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्ट होते देख रहा हूँ, जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं।

30. हे विष्णु ! मैं देखता हूँ कि आप अपने प्रज्ज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगले जा रहे हैं। आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं।

31. हे देवेश ! कृपा करके मुझे बतलाईये कि इतने उग्ररूप में आप कौन हैं ? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझपर प्रसन्न हों। आप आदि-भगवान हैं। मैं आपको जानना चाहता हूँ, क्योंकि मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है ?

32. भगवान ने कहा— समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ। तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे।

33. अतः उठो ! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो। अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची ! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।

34. द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। अतः तुम उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होओ। तुम केवल युद्ध करो। युद्ध में तुम अपने शत्रुओं को परास्त करोगे।

35. संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—हे राजा ! भगवान के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारंबार नमस्कार किया। फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृष्ण से इस प्रकार कहा।

36. अर्जुन ने कहा—हे हृषिकेश ! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं। यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं। यह ठीक ही हुआ है।

37. हे महात्मा ! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्रष्टा हैं। तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें ? हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास ! आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत से परे हैं।

38. आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं। आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है। आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं। हे अनंत रूप ! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है।

39. आप वायु हैं तथा परम नियंता भी हैं। आप अग्नि हैं, जल हैं तथा चंद्रमा हैं। आप आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं। अतः आपको हजार बार नमस्कार है और पुनःपुनः नमस्कार है।

40. आपको आगे, पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है। हे असीम शक्ति ! आप अनंत पराक्रम के स्वामी है। आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप सब कुछ हैं।

41-42. आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा जैसे संबोधनों से पुकारा है, क्योंकि मैं आपकी महिमा को नहीं जानता था। मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें। यही नहीं, मैंने कई बार आराम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है। हे अच्युत ! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

43. आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं। आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं। न तो कोई आपके तुल्य है, न ही आपके समान हो सकता है। हे अतुल शक्ति वाले प्रभु! भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है ?

44. आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान हैं। अतः मैं गीरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की धृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।

45. पहले कभी न देखे गये इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है। अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास ! अपना पुरषोत्तम भगवत स्वरूप पुनः दिखाएँ।

46. हे विराट रूप ! हे सहस्त्रभुज भगवान ! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों। मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ।

47. भगवान ने कहा—हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अंतरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है। इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा था।

48. हे कुरुश्रेष्ठ ! तुमसे पूर्व मेरे इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा, क्योंकि मैं न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता हूँ।

49. तुम मेरे इस भयानक रूप को देखकर अत्यंत विचलित एवं मोहित हो गये हो। अब इसे समाप्त करता हूँ। हे मेरे भक्त ! तुम समस्त चिंताओं से पुनः मुक्त हो जाओ। तुम शांत चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते हो।

50 संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद भगवान कृष्ण ने अपना असली चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अंत में दो भुजाओं वाला अपना रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया।

51. जब अर्जुन ने कृष्ण को उनके आदि रूप में देखा तो कहा— हे जनार्दन ! आपके इस अतीव सुंदर मानवी रूप को देखकर मैं अब स्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है।

52-55 श्री भगवान ने कहा—हे अर्जुन ! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यंत दुष्कर है। यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यंत प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं। तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है। कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता। हे अर्जुन ! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात दर्शन भी किया जा सकता है। केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो। हे अर्जुन ! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन-लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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