10847359078?profile=RESIZE_400x

अध्याय नौ – भगवान कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग(1.9)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में इतने सारे लोगों का वध करने के कारण घबराये हुए महाराज युधिष्ठिर उस स्थल पर गये जहाँ नर-संहार हुआ था। वहाँ पर भीष्मदेव मरणासन्न होकर शरशय्या पर लेटे थे।

2 उस समय उनके सारे भाई स्वर्णाभूषणों से सजे हुए उच्च कोटि के घोड़ों द्वारा खींचे जानेवाले सुन्दर रथों पर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। उनके साथ व्यासदेव तथा धौम्य जैसे ऋषि (पाण्डवों के विद्वान पुरोहित) तथा अन्य लोग थे।

3 हे ब्रह्मर्षि, भगवान श्रीकृष्ण भी, अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर पीछे-पीछे चले आ रहे थे। इस प्रकार राजा युधिष्ठिर अत्यन्त राजसी प्रतीत हो रहे थे, मानो कुबेर अपने साथियों (गुह्यकों) से घिरा हो।

4 आकाश से आ गिरे देवता के समान उन्हें (भीष्मदेव को) भूमि पर लेटे देखकर पाण्डव-सम्राट युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाइयों तथा भगवान कृष्ण समेत उन्हें प्रणाम किया।

5 राजा भरत के वंशजों में प्रधान (भीष्म) को देखने के लिए ब्रह्माण्ड के सारे सतोगुणी महापुरुष, यथा – देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि वहाँ पर एकत्र हुए थे।

6-7 पर्वत मुनि, नारद, धौम्य, ईश्वर के अवतार व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, परशुराम तथा उनके शिष्य, वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान, गौतम, अत्री, कौशिक तथा सुदर्शन जैसे सारे ऋषि वहाँ उपस्थित थे।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी एवं अन्य पवित्रात्माएँ, कश्यप, आंगिरस इत्यादि अपने-अपने शिष्यों के साथ वहाँ पर आये।

9 आठ वसुओं में सर्वश्रेष्ठ भीष्मदेव ने वहाँ पर एकत्र हुए समस्त महान तथा शक्तिसम्पन्न ऋषियों का स्वागत किया, क्योंकि भीष्मदेव को देश तथा काल के अनुसार समस्त धार्मिक नियमों की भलीभाँति जानकारी थी।

10 भगवान श्रीकृष्ण प्रत्येक के हृदय में आसीन हैं, तो भी वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से अपना दिव्य रूप प्रकट करते हैं। ऐसे भगवान साक्षात भीष्मदेव के समक्ष बैठे हुए थे और चूँकि भीष्मदेव उनकी महिमा से परिचित थे, अतएव उन्होंने उनकी विधिवत पूजा की।

11 पास ही महाराज पाण्डु के सारे पुत्र शान्त बैठे थे और अपने मरणासन्न पितामह के प्रेम से अभिभूत थे। यह देखकर भीष्मदेव ने उन्हें भावपूर्ण बधाई दी। उनके नेत्रों में आनंदाश्रु थे, क्योंकि वे प्रेम तथा स्नेह से आप्लावित हो गये थे।

12 भीष्मदेव ने कहा: ओह, तुम लोगों ने, साक्षात धर्म के पुत्र होते हुए भी, कितनी यातनाएँ तथा कितना अन्याय सहा है। उन कष्टों के अन्तर्गत तुम सबको जीवित रहने की आशा न थी, फिर भी ब्राह्मणों, ईश्वर तथा धर्म ने तुम्हारी रक्षा की है।

13 जहाँ तक मेरी पुत्रवधू का सम्बन्ध है, वह महान सेनापति पाण्डु की मृत्यु होने पर अनेक सारे बच्चों के साथ विधवा हो गई और इस के कारण उसने घोर कष्ट सहे और अब जब तुम लोग बड़े हो गये हो, तो भी वह तुम्हारे कर्मों के कारण काफी कष्ट उठा रही है।

14 मेरे विचार से यह सब प्रबल काल के कारण हुआ है, जिसके वशीभूत होकर हर कोई व्यक्ति प्रत्येक लोक में मारा मारा फिरता है, जिस प्रकार वायु द्वारा बादल इधर से उधर ले जाये जाते हैं।

15 ओह, अपरिहार्य काल का प्रभाव कितना आश्चर्यजनक होता है, यह अपरिवर्तनीय है अन्यथा धर्मराज के पुत्र युधिष्ठिर, गदाधारी भीम तथा गाण्डीव अस्त्र धारण करनेवाले बलशाली महान धनुर्धर अर्जुन एवं सबके ऊपर पाण्डवों के प्रत्यक्ष हितैषी कृष्ण के होते हुए यह विपत्ति क्यों आती?

16 हे राजन भगवान (श्रीकृष्ण) की योजना को कोई नहीं जान सकता। यद्यपि बड़े-बड़े चिन्तक उनके विषय में जिज्ञासा करते हैं, लेकिन वे मोहित हो जाते हैं।

17 अतएव हे भरतवंश में श्रेष्ठ (युधिष्ठिर), मैं मानता हूँ कि यह सब भगवान की योजना के अन्तर्गत है। तुम भगवान की अचिन्त्य योजना को स्वीकार करो और उसका पालन करो। अब तुम नियुक्त किए गये शासनाध्यक्ष हो, अतएव हे महाराज, आपको अब उन लोगों की देखभाल करनी चाहिए जो असहाय हो चुके हैं।

18 ये श्रीकृष्ण अकल्पनीय आदि भगवान ही हैं। ये प्रथम नारायण अर्थात परम भोक्ता हैं। लेकिन ये राजा वृष्णि के वंशजों में हमारी ही तरह विचरण कर रहे हैं और हमें स्व-सृजित शक्ति के द्वारा मोहग्रस्त कर रहे हैं।

19 हे राजन, शिवजी, देवर्षि नारद तथा भगवान के अवतार कपिल ये सभी प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा भगवान की महिमा के विषय में अत्यन्त गोपनीय जानकारी रखते हैं।

20 हे राजन, तुमने अज्ञानवश ही जिस व्यक्ति को अपना ममेरा भाई, अपना अत्यन्त प्रिय मित्र, शुभैषी, मंत्री, दूत, उपकारी इत्यादि माना है, वे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं।

21 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान होने के कारण वे प्रत्येक के हृदय में विद्यमान हैं। वे सबों पर समान रूप से दयालु हैं और भेदाभेद के मिथ्या अहंकार से सर्वथा मुक्त हैं। अतएव वे जो कुछ करते हैं, वह भौतिक उन्माद से मुक्त होता है। वे समदर्शी हैं।

22 सबों पर समान रूप से दयालु होते हुए भी वे अब कृपापूर्वक मेरे समक्ष आये हैं, जब मैं मेरे जीवन का अन्त कर रहा हूँ, क्योंकि मैं उनका अनन्य सेवक हूँ।

23 वे पुरुषोत्तम भगवान जो एकाग्र भक्ति तथा चिन्तन से एवं पवित्र नाम के कीर्तन से भक्तों के मन में प्रकट होते हैं, वे उन भक्तों को उनके द्वारा भौतिक शरीर को छोड़ते समय सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त कर देते हैं।

24 चतुर्भुज-रूप, उगते सूर्य की भाँति अरुणनेत्रों तथा सुन्दर रीति से सजाये, मुस्कराते कमलमुख वाले मेरे भगवान, आप उस क्षण तक यहीं मेरी प्रतीक्षा करें, जब तक मैं अपना यह भौतिक शरीर छोड़ न दूँ।

25 सूत गोस्वामी ने कहा: भीष्मदेव को इस प्रकार आग्रहपूर्ण स्वर में बोलते देखकर, महाराज युधिष्ठिर ने समस्त महर्षियों की उपस्थिति में उनसे विभिन्न धार्मिक कृत्यों के अनिवार्य सिद्धान्त पूछे।

26 महाराज युधिष्ठिर के पूछे जाने पर भीष्मदेव ने सर्वप्रथम व्यक्ति की योग्यताओं के अनुसार जातियों के वर्गीकरण (वर्ण) तथा जीवन के आश्रमों का वर्णन किया। फिर उन्होंने क्रमबद्ध रूप से निवृत्ति तथा प्रवृत्ति नामक दो उपखण्डों का वर्णन किया।

27 तब उन्होंने दान-कर्मों, राजा के राज्य-विषयक कार्यकलापों तथा मोक्ष-कर्मों की खण्ड-वार व्याख्या की। फिर उन्होंने स्त्रियों तथा भक्तों के कर्तव्यों का संक्षेप में विशद रूप से वर्णन किया।

28 तत्पश्चात, उन्होंने इतिहास से उद्धरण देते हुए, विभिन्न आश्रमों तथा जीवन की अवस्थाओं के वृत्तिपरक कार्यों का वर्णन किया, क्योंकि वे उस सत्य से भलीभाँति परिचित थे।

29 जब भीष्मदेव वृत्तिपरक कर्तव्यों के वर्णन कर रहे थे, तभी सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर चला गया। इच्छानुसार मरने वाले योगी इसी अवधि की कामना करते हैं।

30 तत्पश्चात वह व्यक्ति, जो हजारों अर्थों से युक्त विभिन्न विषयों पर बोलता था तथा हजारों युद्धों में लड़ चुका था और हजारों व्यक्तियों की रक्षा कर चुका था, उसने बोलना बन्द कर दिया। उसने समस्त बन्धन से पूर्ण रूप से मुक्त होकर, अन्य सभी वस्तुओं से अपना मन हटाकर, अपने खुले नेत्रों को उन आदि भगवान श्रीकृष्ण पर टिका दिया, जो उनके समक्ष खड़े थे, जो चार भुजाओं वाले थे और जगमग करते एवं चमचमाते हुए पीत वस्त्र धारण किये थे।

31 शुद्ध ध्यान द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को देखते हुए, वे तुरन्त समस्त भौतिक अशुभ अवस्थाओं से और तीरों के घाव से होनेवाली शारीरिक पीड़ा से मुक्त हो गये। इस प्रकार उनकी सारी इन्द्रियों के कार्यकलाप रुक गये और उन्होंने शरीर को त्यागते हुए समस्त जीवों के नियन्ता की दिव्य भाव से स्तुति की।

32 भीष्मदेव ने कहा: अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहनेवाले हैं, किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनन्द-लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है।

33 श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा अधोलोक) में हर एक को आकृष्ट करनेवाला है। उनका चमचमाता पीताम्बर तथा चन्दनचर्चित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा न करूँ।

34 युद्धक्षेत्र में (जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे) भगवान कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गये थे तथा श्रम के कारण उनका मुख-मण्डल पसीने की बूँदों से भीग गया था। मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इन अलंकरणों की शोभा उन्हें अच्छी लग रही थी। मेरा मन उन्हीं श्रीकृष्ण के पास चले।

35 अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गये और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।

36 जब युद्धक्षेत्र में अर्जुन अपने समक्ष सैनिकों तथा सेनापतियों को देखकर अज्ञान से कलुषित हो रहा लग रहा था, तो भगवान ने उसके अज्ञान को दिव्य ज्ञान प्रदान करके समूल नष्ट कर दिया। उनके चरणकमल सदैव मेरे आकर्षण के लक्ष्य बने रहे।

37 मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, वे रथ से नीचे उतर आये, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।

38 भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अनन्तिम गन्तव्य हों। युद्ध-क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।

39 मृत्यु के समय मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यन्त सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।

40 मेरा मन उन भगवान श्रीकृष्ण में एकाग्र हो, जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुसकान ने व्रजधाम की रमणियों (गोपियों) को आकृष्ट कर लिया। [रास लीला से] भगवान के अन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया।

41 महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ में विश्व के सारे महापुरुषों, राजाओं तथा विद्वानों की एक महान सभा हुई थी और उस सभा में सबों ने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्य भगवान के रूप में की थी। यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना को याद रखा, जिससे मेरा मन भगवान में लगा रहे।

42 अब मैं पूर्ण एकाग्रता से एक ईश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता हूँ, जो इस समय मेरे सामने उपस्थित हैं, क्योंकि अब मैं प्रत्येक के हृदय में यहाँ तक कि मनोधर्मियों के हृदय में भी रहनेवाले उनके प्रति द्वैत भाव की स्थिति को पार कर चुका हूँ। वे सबों के हृदय में रहते हैं। भले ही सूर्य को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव किया जाय, किन्तु सूर्य तो एक ही है।

43 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार भीष्मदेव ने मन, वाणी, दृष्टि तथा कार्यों से अपने आपको परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण में लीन कर दिया और शान्त हो गये और उनकी श्वास रुक गई।

44 यह जानकर कि भीष्मदेव अनन्त परम पूर्ण में लीन हो गये, वहाँ पर उपस्थित सारे लोग उसी तरह मौन हो गये, जिस प्रकार दिन समाप्त होने पर पक्षी मौन हो जाते हैं।

45 तत्पश्चात मनुष्यों तथा देवताओं ने सम्मान में नगाड़े बजाये और निष्ठावान राजाओं ने सम्मान तथा आदर प्रदर्शित किया और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी।

46 हे भृगुवंशी (शौनक), भीष्मदेव के मृत देह का दाह संस्कार सम्पन्न करने के बाद, महाराज युधिष्ठिर क्षणभर के लिए शोकाभिभूत हो गये।

47 तब समस्त मुनियों ने वहाँ पर उपस्थित भगवान श्रीकृष्ण का यशोगान गुह्य वैदिक मंत्रों से किया। वे भगवान कृष्ण को सदा के लिए अपने हृदय में धारण करके अपने-अपने आश्रमों को लौट गये।

48 तत्पश्चात महाराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के साथ तुरन्त ही अपनी राजधानी, हस्तिनापुर गये और वहाँ पर अपने ताऊ धृतराष्ट्र तथा अपनी ताई तपस्विनी गान्धारी को ढाढ़स बँधाया।

49 तत्पश्चात परम धर्मात्मा राजा महाराज युधिष्ठिर ने अपने ताऊ द्वारा प्रतिपादित तथा श्रीकृष्ण द्वारा अनुमोदित राजनियमों के सिद्धान्त अनुसार साम्राज्य का संचालन किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण-कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम -- राम राम हरे हरे🙏
  • नंद के आनंद भयो
    जय कन्हैया लाल की
    😂😊😁😃🌺🌺🌺🌺🌺🌺
    🌷🙏🙏🙏🙏🦜🦢💎
This reply was deleted.