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श्री गुरु गौरांग जयतः

श्रीमद भगवद गीता यथारूप

अर्जुन द्वारा स्तुति

अध्याय ग्यारह विराट रूप

9. संजय ने कहा—हे राजा ! इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया।

10-11. अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे। यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था। यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगंधियां लगी थी। सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।

12. यदि आकाश में हजारों सूर्य एकसाथ उदय हों, तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस विश्वरूप के तेज की समता कर सके।

13. उस समय अर्जुन भगवान के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनंत अंशों को देख सका।

14. तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगा।

15. अर्जुन ने कहा—हे भगवान कृष्ण ! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ। मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ।

16. हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप ! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अंत नहीं है। आपमें न अंत दीखता है, न मध्य और न आदि।

17. आपके रूप को उसके चकाचौंध तेज के कारण देख पाना कठिन है, क्योंकि वह प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों और फैल रहा है। तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है।

18. आप परम आद्य ज्ञेय वस्तु हैं। आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं। आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं। आप सनातन धर्म के पालक भगवान हैं। यही मेरा मत है।

19. आप आदि, मध्य तथा अंत से रहित हैं। आपका यश अनंत है। आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चंद्रमा आपकी आँखें हैं। मैं आपके मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलते हुए देख रहा हूँ।

20. यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं। हे महापुरुष ! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं।

21. देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है। उनमें से कुछ अत्यंत भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों तथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं।

22. शिव के विविध रूप, आदित्यगण, वसु, साध्य, विश्वेदेव, दोनों अश्विनीकुमार, मरुदगण, पितृगण, गंधर्व, यक्ष, असुर तथा सिद्धदेव सभी आपको आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं।

23. हे महाबाहु ! आपके इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु, जंघा, पाँव, पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यंत विचलित हैं और उन्हीं की तरह मैं भी हूँ।

24. हे सर्वव्यापी विष्णु ! नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है। मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, न मानसिक संतुलन ही पा रहा हूँ।

25. हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप मुझ पर प्रसन्न हो। मैं इस प्रकार से आपके प्रलयाग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों को देखकर अपना संतुलन नहीं रख पा रहा। मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ।

26-27. धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायक राजाओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुख में प्रवेश कर रहे हैं। उनमें से कुछ के शिरों को तो मैं आपके दाँतों के बीच चूर्णित हुआ देख रहा हूँ।

28. जिस प्रकार नदियों की अनेक तरंगें समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार ये समस्त महान योद्धा भी आपके प्रज्ज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

29. मैं समस्त लोगों को पूर्ण वेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्ट होते देख रहा हूँ, जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं।

30. हे विष्णु ! मैं देखता हूँ कि आप अपने प्रज्ज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगले जा रहे हैं। आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं।

31. हे देवेश ! कृपा करके मुझे बतलाईये कि इतने उग्ररूप में आप कौन हैं ? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझपर प्रसन्न हों। आप आदि-भगवान हैं। मैं आपको जानना चाहता हूँ, क्योंकि मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है ?

32. भगवान ने कहा— समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ। तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे।

33. अतः उठो ! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो। अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची ! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।

34. द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। अतः तुम उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होओ। तुम केवल युद्ध करो। युद्ध में तुम अपने शत्रुओं को परास्त करोगे।

35. संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—हे राजा ! भगवान के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारंबार नमस्कार किया। फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृष्ण से इस प्रकार कहा।

36. अर्जुन ने कहा—हे हृषिकेश ! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं। यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं। यह ठीक ही हुआ है।

37. हे महात्मा ! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्रष्टा हैं। तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें ? हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास ! आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत से परे हैं।

38. आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं। आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है। आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं। हे अनंत रूप ! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है।

39. आप वायु हैं तथा परम नियंता भी हैं। आप अग्नि हैं, जल हैं तथा चंद्रमा हैं। आप आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं। अतः आपको हजार बार नमस्कार है और पुनःपुनः नमस्कार है।

40. आपको आगे, पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है। हे असीम शक्ति ! आप अनंत पराक्रम के स्वामी है। आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप सब कुछ हैं।

41-42. आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा जैसे संबोधनों से पुकारा है, क्योंकि मैं आपकी महिमा को नहीं जानता था। मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें। यही नहीं, मैंने कई बार आराम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है। हे अच्युत ! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

43. आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं। आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं। न तो कोई आपके तुल्य है, न ही आपके समान हो सकता है। हे अतुल शक्ति वाले प्रभु! भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है ?

44. आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान हैं। अतः मैं गीरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की धृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।

45. पहले कभी न देखे गये इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है। अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास ! अपना पुरषोत्तम भगवत स्वरूप पुनः दिखाएँ।

46. हे विराट रूप ! हे सहस्त्रभुज भगवान ! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों। मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ।

47. भगवान ने कहा—हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अंतरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है। इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा था।

48. हे कुरुश्रेष्ठ ! तुमसे पूर्व मेरे इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा, क्योंकि मैं न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता हूँ।

49. तुम मेरे इस भयानक रूप को देखकर अत्यंत विचलित एवं मोहित हो गये हो। अब इसे समाप्त करता हूँ। हे मेरे भक्त ! तुम समस्त चिंताओं से पुनः मुक्त हो जाओ। तुम शांत चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते हो।

50 संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद भगवान कृष्ण ने अपना असली चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अंत में दो भुजाओं वाला अपना रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया।

51. जब अर्जुन ने कृष्ण को उनके आदि रूप में देखा तो कहा— हे जनार्दन ! आपके इस अतीव सुंदर मानवी रूप को देखकर मैं अब स्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है।

52-55 श्री भगवान ने कहा—हे अर्जुन ! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यंत दुष्कर है। यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यंत प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं। तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है। कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता। हे अर्जुन ! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात दर्शन भी किया जा सकता है। केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो। हे अर्जुन ! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन-लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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