jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय सोलह – बन्दीजनों द्वारा राजा पृथु की स्तुति (4.16)

1 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: जब राजा पृथु इस प्रकार विनम्रता से बोले, तो उनकी अमृत-तुल्य वाणी से गायक अत्यधिक प्रसन्न हुए। तब वे पुनः ऋषियों द्वारा दिये गये आदेशों के अनुसार राजा की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगे।

2 गायकों ने आगे कहा: हे राजन, आप भगवान विष्णु के साक्षात अवतार हैं और उनकी अहैतुकी कृपा से आप पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं। अतः हममें इतनी सामर्थ्य कहाँ कि आपके महान कार्यों का सही-सही गुणगान कर सकें? यद्यपि आप राजा वेन के शरीर से प्रकट हुए हैं, तो भी ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं के समान बड़े-बड़े वाचक और वक्ता भी आपके महिमामय कार्यों का सही-सही वर्णन नहीं कर सकते।

3 यद्यपि हम आपका ठीक से गुणगान कर सकने में असमर्थ हैं, तो भी हमें आपके कार्यों की महिमा के गायन में दिव्य स्वाद प्राप्त हो रहा है। हम प्राधिकार प्राप्त मुनियों तथा पण्डितों से मिले आदेशों के अनुसार ही आपकी महिमा का वर्णन करेंगे। फिर भी हम जो कुछ कह रहे हैं, वह अपर्याप्त तथा नगण्य है। हे राजन, चूँकि आप भगवान के साक्षात अवतार हैं, अतः आपके समस्त कर्म उदार तथा सदैव प्रशंसनीय हैं।

4 यह राजा, महाराज पृथु, धार्मिक नियमों के पालन करनेवालों में सर्वश्रेष्ठ है। अतः वह प्रत्येक व्यक्ति को धर्म में प्रवृत्त करेगा और धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा करेगा। अधर्मियों तथा नास्तिकों के लिए वह महान दण्ड-दाता भी होगा।

5 यह राजा अकेले, अपने ही शरीर में यथासमय समस्त जीवात्माओं का पालन करने तथा विभिन्न प्रकार के कार्यों को सम्पन्न करने के लिए विभिन्न देवताओं के रूप में प्रकट होकर उनको प्रसन्न रखने में समर्थ होगा। इस प्रकार वह प्रजा को वैदिक यज्ञ करने के लिए प्रेरित करके स्वर्गलोक का पालन करेगा। यथासमय वह उचित वर्षा द्वारा इस पृथ्वीलोक का पालन भी करेगा।

6 यह राजा पृथु सूर्यदेव के समान प्रतापी होगा और जिस प्रकार सूर्यदेव हर एक को समान रूप से अपना प्रकाश वितरित करता है, उसी तरह राजा पृथु अपनी कृपा सबों को संवितरित करेगा। जिस प्रकार सूर्यदेव आठ मास तक जल को वाष्पित करता है और वर्षा ऋतु में प्रचुर मात्रा में उसको लौटा देता है, उसी प्रकार यह राजा भी नागरिकों से कर वसूल करेगा और आवश्यकता के समय इस धन को लौटा देगा।

7 यह राजा पृथु समस्त नागरिकों पर अत्यधिक दयालु रहेगा। यदि एक दीन पुरुष विधि-विधानों की अवहेलना करके राजा के सिर पर अपना पाँव रख दे, तो भी राजा अपनी अहैतुकी कृपा से उस पर ध्यान न देकर क्षमा कर देगा। जगत के रक्षक के रूप में यह पृथ्वी की ही भाँति सहिष्णु होगा।

8 जब वर्षा नहीं होगी और जल के अभाव से नागरिक महान संकट में होंगे तो यह राजवेषधारी भगवान स्वर्ग के राजा इन्द्र के समान जल की पूर्ति करेगा। इस प्रकार अनावृष्टि (सूखे) से वह नागरिकों की रक्षा कर सकेगा।

9 यह राजा, पृथु महाराज, अपनी प्यारी चितवन तथा अपने चन्द्रमा सदृश मुखमण्डल से, जो नागरिकों के लिए अत्यधिक प्यार से सदैव हँसता रहता है, सबों के शान्त जीवन में और वृद्धि करेगा।

10 गायकों ने आगे कहा: राजा द्वारा अपनाई गई नीतियों को कोई भी नहीं समझ सकेगा। उसके कार्य भी गुप्त रहेंगे और कोई यह न जान सकेगा कि वह प्रत्येक कार्य को किस प्रकार सफल बनाएगा। उसका कोष सदा ही लोगों से अज्ञात रहेगा। वह अनन्त महिमा तथा उत्तम गुणों का आगार होगा। उसका पद स्थायी तथा प्रच्छन्न बना रहेगा जिस प्रकार कि समुद्रों के देव वरुण चारों ओर जल से ढके रहते हैं।

11 राजा पृथु का जन्म राजा वेन के मृत शरीर से उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार अरणी से अग्नि उत्पन्न होती है। अतः राजा पृथु सदैव अग्नि के समान रहेंगे और उनके शत्रु उनके पास तक नहीं पहुँच पाएँगे। निस्सन्देह, वे अपने शत्रुओं के लिए दुःसह होंगे, वे उनके पास रह कर भी उनके पास नहीं पहुँच पाएँगे, मानो वे दूर रहने के लिए बने हो। कोई भी राजा पृथु को हरा नहीं सकेगा।

12 राजा पृथु अपने प्रत्येक नागरिक के आन्तरिक तथा बाह्य कार्यों को देख सकने में समर्थ होंगे। फिर भी उनकी गुप्तचर व्यवस्था को कोई जान नहीं सकेगा और वे अपनी स्तुति अथवा निन्दा-सम्बन्धी मामलों में सदैव उदासीन रहेंगे। वे शरीर के भीतर स्थित वायु, अर्थात प्राण के समान होंगे, जो बाह्य तथा आन्तरिक रूप से प्रकट होता है, किन्तु सदैव निरपेक्ष रहता है।

13 चूँकि यह राजा सदैव धर्मनिष्ठा के मार्ग पर रहेगा, अतः वह अपने पुत्र तथा शत्रु के पुत्र दोनों के प्रति समभाव रखेगा। यदि उसके शत्रु का पुत्र दण्डनीय नहीं है, तो वह उसे दण्ड नहीं देगा, किन्तु यदि स्वयं का पुत्र दण्डनीय है, तो उसे दण्डित करेगा।

14 जिस प्रकार सूर्यदेव अपनी प्रकाशमान रश्मियों को आर्कटिक प्रदेश तक बिना किसी अवरोध के बिखेरते हैं, उसी प्रकार राजा पृथु का प्रभाव आर्कटिक क्षेत्र तक के समस्त भूभागों पर होगा और वह आजीवन अविचल रहेगा।

15 यह राजा अपने व्यावहारिक कार्यों द्वारा सबों को प्रसन्न करेगा और सारे नागरिक अत्यन्त प्रसन्न होंगे। इस कारण नागरिकों को उसे अपना शासक – राजा स्वीकार करने में अत्यधिक सन्तोष मिलेगा।

16 यह राजा दृढ़संकल्प वाला तथा सत्यव्रती होगा। यह ब्राह्मण-संस्कृति का प्रेमी, वृद्धों की सेवा करने वाला तथा शरणागतों को प्रश्रय देने वाला होगा। यह सबों का सम्मान करेगा और दीन-दुखियों तथा अबोधों पर सदैव कृपालु रहेगा।

17 यह राजा सभी स्त्रियों को अपनी माता के समान सम्मान देगा और अपनी पत्नी को अपने शरीर का आधा अंग (अर्धांगिनी) मानेगा। यह अपनी प्रजा के प्रति पिता के समान स्नेही होगा और स्वयं को भगवान की महिमा का उपदेश करने वाले भक्तों का परम आज्ञाकारी दास समझेगा।

18 यह राजा समस्त जीवधारी प्राणियों को अपने ही समान प्रिय मानेगा और अपने मित्रों के आनन्द को सदैव बढ़ाने वाला होगा। यह मुक्त पुरुषों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित रहेगा और समस्त अपवित्र व्यक्तियों को कठोर दण्ड देने वाला होगा।

19 यह राजा तीनों लोकों का स्वामी है और सीधे भगवान ने इसे शक्ति प्रदान की है। यह अपरिवर्तनीय है और परमेश्वर का शक्त्यावेश अवतार है। मुक्त आत्मा तथा परम विद्वान होने के कारण यह समस्त भौतिक विविधताओं को अर्थहीन मानता है, क्योंकि इनका मूलाधार अविद्या है।

20 यह राजा अद्वितीय शक्तिशाली तथा वीर होगा, जिससे इसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं होगा। यह अपने हाथ में धनुष धारण करके विजयी रथ पर चढ़कर सूर्य के समान दिखाई देता हुआ भूमण्डल की प्रदक्षिणा करेगा, जो दक्षिण से अपनी कक्षा पर परिभ्रमण करता है।

21 जब यह राजा सारे संसार में भ्रमण करेगा तो अन्य राजा तथा देवतागण इसे सभी प्रकार के उपहार भेंट करेंगे। उनकी रानियाँ भी उसे आदि राजा मानेंगी, जो अपने हाथों में चक्र तथा गदा चिन्हों को धारण करता है और उसी के गुणगान करेंगी, क्योंकि वह भगवान के समान ख्याति वाला होगा।

22 प्रजा का पालक यह राजा अद्वितीय है और प्रजापति देवों के तुल्य है। प्रजा के जीवन-निर्वाह के लिए यह गौ रूपी पृथ्वी का दोहन करेगा। यही नहीं, यह अपने बाण की नोक से समस्त पर्वतों को विदीर्ण करके धरती को वैसे ही समतल करेगा, जिस प्रकार स्वर्ग का राजा इन्द्र अपने प्रबल वज्र से पर्वतों को तोड़ता है।

23 जब सिंह अपनी पूँछ उठाकर वन में विचरण करता है, उस समय छोटे-छोटे पशु छिप जाते हैं। इसी प्रकार जब राजा पृथु अपने राज्य में भ्रमण करेंगे और बकरों तथा बैलों के सींगों से बने अपने धनुष की टनकार करेंगे जिसका युद्ध में कोई सामना नहीं कर सकता, तो सभी आसुरी धूर्त तथा चोर चारों दिशाओं में छिप जाएँगे।

24 यह राजा सरस्वती नदी के उद्गम स्थान पर सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा। अन्तिम यज्ञ के समय, स्वर्ग का राजा इन्द्र यज्ञ के घोड़े को चुरा लेगा।

25 यह राजा पृथु अपने प्रासाद के उद्यान में चार कुमारों में से एक, सनत्कुमार से भेंट करेगा। राजा उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करेगा और उनसे सौभाग्यवश उपदेश प्राप्त करेगा जिससे मनुष्य दिव्य आनन्द उठा सकता है।

26 इस प्रकार जब इस राजा के वीरतापूर्ण कार्य जनता के समक्ष आ जाएँगे तो यह राजा अपने विषय में तथा अपने अद्वितीय पराक्रमपूर्ण कार्यों के विषय में सदैव सुनेगा।

27 पृथु महाराज की आज्ञाओं का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकेगा। सारे जगत को जीतकर वह नागरिकों के तीनों तापों को समूल नष्ट करेगा। तब सारे जगत में उसको मान्यता प्राप्त होगी। निस्सन्देह सुर तथा असुर दोनों उसके उदार कार्यों की प्रशंसा करेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पन्द्रह – राजा पृथु की उत्पत्ति और राज्याभिषेक (4.15)

1 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, इस प्रकार ब्राह्मण तथा ऋषियों ने राजा वेन के मृत शरीर की दोनों बाहुओं का भी मंथन किया। फलस्वरूप उसकी बाँहों से एक स्त्री तथा एक पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ।

2 ऋषिगण वैदिक ज्ञान में पारंगत थे। जब उन्होंने वेन की बाहुओं से एक स्त्री तथा एक पुरुष को उत्पन्न देखा, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए क्योंकि वे जान गए कि यह युगल (दम्पत्ति) भगवान विष्णु के पूर्णांश का विस्तार है।

3 ऋषियों ने कहा: यह पुरुष तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का पालन करनेवाले भगवान विष्णु की शक्ति का अंश है और यह स्त्री भगवान विष्णु से कभी अलग न होनेवाली एवं सम्पत्ति की देवी – लक्ष्मी का अंश है।

4 इन दोनों में से जो नर है, वह अपने यश को विश्व भर में फैला सकेगा। उसका नाम पृथु होगा। निस्सन्देह, वह राजाओं में सबसे पहला राजा होगा।

5 सुन्दर दाँतों वाली स्त्री उत्तम गुणों से युक्त होने के कारण पहने गये आभूषणों को भी विभूषित करनेवाली होगी। उसका नाम अर्चि होगा और भविष्य में वह राजा पृथु को अपना पति स्वीकार करेगी।

6 राजा पृथु के रूप में, भगवान अपनी शक्ति के एक अंश से संसार के लोगों की रक्षा के लिए प्रकट हुए हैं। सम्पत्ति की देवी भगवान की निरन्तर सहचरी हैं, अतः वे अंश रूप में राजा पृथु की रानी बनने के लिए अर्चि रूप में अवतरित हुई हैं।

7 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुरजी, उस समय समस्त ब्राह्मणों ने राजा पृथु की प्रशंसा और स्तुति की और गन्धर्वलोक के सर्वश्रेष्ठ गायकों ने उनकी महिमा का गायन किया। सिद्धलोक के वासियों ने उन पर पुष्पवर्षा की और स्वर्ग की सुन्दरियाँ (अप्सराएँ) भाव विभोर होकर नाचने लगीं।

8 अन्तरिक्ष में शंख, दुन्दुभी, तुरही तथा मृदंग बजने लगे। बड़े-बड़े मुनि, पितरगण तथा स्वर्ग के पुरुष विभिन्न लोकों से पृथ्वी पर आ गये।

9-10 सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा, देवताओं तथा उनके प्रमुखों सहित, वहाँ पधारे। राजा पृथु के दाहिने हाथ में विष्णु भगवान की हथेली की रेखाएँ तथा चरण के तलवों पर कमल का चिन्ह देखकर ब्रह्मा समझ गये कि राजा पृथु भगवान के अंश-स्वरूप थे। जिसकी हथेली में चक्र तथा अन्य ऐसी रेखाएँ हों, उसे परमेश्वर का अंश या अवतार समझना चाहिए।

11 तब ब्रह्मवादी ब्राह्मणों ने राजा के अभिषेक का सारा आयोजन किया। उत्सव में लगनेवाली विभिन्न सामग्रियों का संग्रह चारों दिशाओं के लोगों ने किया। इस प्रकार सब कुछ पूरा हो गया।

12 अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गाय, पक्षी, पशु, स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक तथा अन्य सभी लोकों की जीवात्माओं ने राजा को भेंट करने के लिए विविध उपहार एकत्रित किये।

13 इस प्रकार वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत महाराज पृथु का अभिषेक किया गया और उन्हें सिंहासन पर बैठाया गया। वे सुन्दर आभूषणों से सज्जित अपनी पत्नी अर्चि के साथ, अग्नि के समान लग रहे थे।

14 ऋषि ने आगे कहा, हे विदुर, कुबेर ने महान राजा पृथु को सुनहरा सिंहासन भेंट किया; वरुणदेव ने एक छाता प्रदान किया जिससे निरन्तर जल की फुहारें निकल रही थीं और जो चन्द्रमा के समान प्रकाशमान था।

15 वायु ने बालों से बने दो चामर, धर्म ने यश को बढ़ानेवाला पुष्पहार, स्वर्ग के राजा इन्द्र ने मूल्यवान मुकुट तथा यमराज ने विश्व पर शासन करने के लिए एक राजदण्ड प्रदान किया।

16 ब्रह्माजी ने राजा पृथु को आत्मज्ञान से निर्मित कवच भेंट किया। ब्रह्मा की पत्नी भारती (सरस्वती) ने दिव्य हार दिया। भगवान विष्णु ने सुदर्शन-चक्र दिया और उनकी पत्नी, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मीजी, ने उन्हें अविचल ऐश्वर्य प्रदान किया।

17 शिवजी ने दस चन्द्रमाओं से अंकित कोष (म्यान) वाली तलवार भेंट की ओर देवी दुर्गा ने एक सौ चन्द्रमाओं से अंकित एक ढाल भेंट की। चन्द्रदेव ने उन्हें अमृतमय घोड़े तथा विश्वकर्मा ने एक अत्यन्त सुन्दर रथ प्रदान किया।

18 अग्निदेव ने बकरों तथा गौओं के सींगों से निर्मित धनुष, सूर्यदेव ने सूर्यप्रकाश के समान तेजवान बाण, भूर्लोक के प्रमुख देव ने योगशक्ति-सम्पन्न चरण-पादुकाएँ तथा आकाश के देवताओं ने पुनः पुनः पुष्पों की भेंटें प्रदान की।

19 गगनचारी देवताओं ने राजा पृथु को नाटक, संगीत, वाद्ययंत्र तथा इच्छानुसार अन्तर्धान होने की कला प्रदान की। ऋषियों ने भी उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये। समुद्र ने स्वयं सागर से उत्पन्न शंख भेंट किया।

20 समुद्रों, पर्वतों तथा नदियों ने उन्हें किसी अवरोध के बिना रथ हाँकने के लिए मार्ग प्रदान किया। सूत, मागध तथा वन्दीजनों ने प्रार्थनाएँ तथा स्तुतियाँ कीं। वे सभी उनके समक्ष अपनी अपनी सेवाएँ करने के लिए उपस्थित हो गये।

21 जब महान शक्तिशाली वेन के पुत्र राजा पृथु ने अपने समक्ष इन सबों को देखा, तो वे उन्हें बधाई देने के लिए हँसे और मेघ-गर्जना जैसी गम्भीर वाणी में इस प्रकार बोले।

22 राजा पृथु ने कहा: हे भाद्र सूत, मागध तथा अन्य प्रार्थनारत भक्तों, आपने मुझमें जिन गुणों का बखान किया है, वे तो अभी मुझमें प्रकट नहीं हुए। तो फिर आप मेरे इन गुणों की क्यों प्रशंसा कर रहे हैं? मैं नहीं चाहता कि मेरे विषय में कहे गये शब्द वृथा जाएँ। अतः अच्छा हो, यदि इन्हें किसी दूसरे को अर्पित करें।

23 हे भद्र गायकों, कालान्तर में वे गुण, जिनका तुम लोगों ने वर्णन किया है, जब वास्तव में प्रकट हो जाय तब मेरी स्तुति करना। जो भद्रलोग भगवान की प्रार्थना करते हैं, वे ऐसे गुणों को किसी ऐसे मनुष्य में थोपा नहीं करते, जिनमें सचमुच वे न पाए जाते हों।

24 भला ऐसे महान गुणों को धारण करने में सक्षम बुद्धिमान पुरुष किस तरह अपने अनुयायियों को ऐसे गुणों की प्रशंसा करने देगा जो वास्तव में उसमें न हों? किसी मनुष्य की यह कहकर प्रशंसा करना कि यदि वह शिक्षित हो तो महान विद्वान या महापुरुष हो जाता है, ठगने के अतिरिक्त और क्या है? मूर्ख व्यक्ति जो ऐसी बड़ाई स्वीकार कर लेता है, वह यह नहीं जानता कि ऐसे शब्द उसके अपमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

25 जिस प्रकार कोई सम्मानित तथा उदार व्यक्ति अपने निन्दनीय कार्यों के विषय में सुनना नहीं चाहता, उसी प्रकार अत्यन्त प्रसिद्ध तथा पराक्रमी पुरुष अपनी प्रशंसा सुनना पसंद नहीं करता।

26 राजा पृथु ने आगे कहा: हे सूत आदि भक्तों, इस समय मैं अपने व्यक्तिगत गुणों के लिए अधिक प्रसिद्ध नहीं हूँ क्योंकि अभी तो मैंने ऐसा कुछ किया नहीं जिसकी तुम लोग प्रशंसा कर सको। अतः मैं बच्चों की तरह तुम लोगों से अपने कार्यों का गुणगान कैसे कराऊँ ?

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चौदह – राजा वेन की कथा (4.14)

1 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे महावीर विदुर, भृगु इत्यादि ऋषि सदैव जनता के कल्याण के लिए चिन्तन करते थे। जब उन्होंने देखा कि राजा अंग की अनुपस्थिति में जनता के हितों की रक्षा करनेवाला कोई नहीं रह गया तो उनकी समझ में आया कि बिना राजा के लोग स्वतंत्र एवं असंयमी हो जाएँगे।

2 तब ऋषियों ने वेन की माता रानी सुनीथा को बुलाया और उनकी अनुमति से वेन को विश्रवा के स्वामी के रूप में सिंहासन पर बिठा दिया, यद्यपि सभी मंत्री इससे असहमत थे।

3 यह पहले से ज्ञात था कि वेन अत्यन्त कठोर तथा क्रूर था, अतः जैसे ही राज्य के चोरों तथा उचक्कों ने सुना कि वेन राज सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है, तो वे बहुत भयभीत हुए और सब उसी तरह छिप गये जिस प्रकार चूहे अपने को सर्पों से छिपा लेते हैं।

4 जब राजा सिंहासन पर बैठा तो वह आठों ऐश्वर्यों से युक्त होकर सर्वशक्तिमान बन गया। फलतः वह अत्यन्त घमण्डी हो गया। झूठी प्रतिष्ठा के कारण वह अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगा और इस प्रकार से वह महापुरुषों का अपमान करने लगा।

5 राजा वेन अपने ऐश्वर्य के मद से अन्धा होकर रथ पर आसीन होकर निरंकुश हाथी के समान सारे राज्य में घूमने लगा। जहाँ-जहाँ वह जाता आकाश तथा पृथ्वी दोनों हिलने लगते।

6 राजा वेन ने यह ढिंढोरा पिटवा दिया कि सभी द्विजों (ब्राह्मणों) को अब से किसी भी तरह का यज्ञ करने, दान देने या घृत की आहुति देने की मनाही है। दूसरे शब्दों में उसने सभी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान बन्द करवा दिये।

7 अतः सभी ऋषिगण एकत्र हुए और वेन के अत्याचारों को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के मनुष्यों पर महान संकट आनेवाला है और परस्पर बातें करने लगे, क्योंकि वे ही यज्ञों को सम्पन्न करनेवाले थे।

8 ऋषियों ने परस्पर विमर्श करके देखा कि जनता दोनों ओर से विकट स्थिति में है। जिस प्रकार किसी लट्ठे के दोनों सिरों पर अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है, तो बीच में स्थित चीटियाँ अत्यन्त विकट स्थिति में रहती हैं – उसी प्रकार एक ओर अनुत्तरदायी राजा तथा दूसरी ओर चोर-उचक्कों के कारण जनता विकट स्थिति में फँसी हुई थी।

9 राज्य को अराजकता से बचाने के लिए सोच-विचार कर ऋषियों ने राजनीतिक संकट के कारण वेन को, अयोग्य होते हुए भी राजा बनाया था, किन्तु हाय! अब तो जनता राजा द्वारा ही अशान्त बनाई जा रही है। ऐसी अवस्था में भला लोग किस प्रकार सुखी रह सकते हैं?

10 ऋषिगण सोचने लगे कि सुनीथा के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण राजा वेन स्वभाव से अत्यन्त दुष्ट (उत्पाती) है। इस दुष्ट राजा का समर्थन करना वैसा ही है जैसे सर्प को दूध पिलाना। अब यह समस्त संकटों का कारण बन गया है।

11 हमने वेन को नागरिकों की सुरक्षा हेतु नियुक्त किया था, किन्तु अब वह उनका शत्रु बन चुका है। इन सब न्यूनतओं के होते हुए भी, हमें चाहिए कि उसे तुरन्त समझाने का प्रयत्न करें। ऐसा करने से उसके पाप हमें स्पर्श नहीं कर सकेंगे।

12 सन्त सदृश मुनि लोगों ने सोचा निस्सन्देह हम उसके दुष्ट स्वभाव से भली भाँति परिचित हैं, तो भी हमने वेन को राजसिंहासन पर बैठाया है। यदि हम उसे अपनी सलाह मानने के लिए राजी नहीं कर लेते तो जनता उसको दुत्कारेगी और हम भी उनका साथ देंगे। इस प्रकार हम अपने तेज से उसे भस्म कर डालेंगे।

13 ऐसा निश्चय करके ऋषिगण राजा वेन के पास गये और अपना वास्तविक क्रोध छिपाते हुए उन्होंने उसे मीठे वचनों से समझाया-बुझाया। फिर उन्होंने इस प्रकार कहा।

14 मुनियों ने कहा: हे राजन, हम आपके पास सदुपदेश देने आये हैं। कृपया ध्यानपूर्वक सुनें। ऐसा करने से आपकी आयु, ऐश्वर्य, बल तथा कीर्ति बढ़ेगी।

15 जो लोग धार्मिक नियमों के अनुसार रहते हैं और जो मन, वचन, शरीर तथा बुद्धि से इनका पालन करते हैं, वे स्वर्गलोक को जाते हैं, जो समस्त शोकों (दुखों) से रहित है। इस प्रकार भौतिक प्रभाव से छूट कर वे जीवन में असीम सुख प्राप्त करते हैं।

16 मुनियों ने आगे कहा: अतः हे महान वीर, आपको सामान्य जनता के आध्यात्मिक जीवन को विनष्ट करने में निमित्त नहीं बनना चाहिए। यदि आपके कार्यों से उनका आध्यात्मिक जीवन विनष्ट होता है, तो आप निश्चित रूप से अपने ऐश्वर्यपूर्ण राजोचित पद से नीचे गिरेंगे।

17 मुनियों ने आगे कहा: जब राजा दुष्ट मंत्रियों के तथा चोर-उचक्कों के उत्पातों से नागरिकों की रक्षा करता है, तो अपने इन पवित्र कार्यों के कारण वह अपनी प्रजा से कर प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार पवित्र राजा इस संसार में और मृत्यु के बाद भी सुख भोग सकता है।

18 वह राजा पवित्र समझा जाता है, जिसके राज्य तथा नगरों में प्रजा वर्ण तथा आश्रम की आठ सामाजिक व्यवस्थाओं का कठोरता से पालन करती है और जहाँ के नागरिक अपने विशिष्ट धर्म (वृत्ति) द्वारा भगवान की सेवा में संलग्न रहते हैं।

19 हे महाभाग, यदि राजा यह देखता है कि दृश्य जगत के मूल कारण भगवान तथा हर एक के भीतर स्थित परमात्मा की पूजा होती है, तो भगवान प्रसन्न होते हैं।

20 भगवान विश्व के नियन्ता बड़े-बड़े देवताओं द्वारा पूजित हैं। जब वे प्रसन्न हो जाते हैं, तो कुछ भी प्राप्त करना दुर्लभ नहीं रह जाता। इसीलिए सभी देवता, लोकपाल तथा उनके लोकों के निवासी भगवान को सभी प्रकार की पूजा-सामग्री अर्पित करने में अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

21 हे राजन, भगवान प्रमुख अधिष्ठाता देवों सहित समस्त लोकों में समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता हैं। परमेश्वर तीनों वेदों के सार रूप हैं, वे हर वस्तु के स्वामी हैं और सारी तपस्या के चरम लक्ष्य हैं। देशवासियों को आपकी उन्नति के लिए विविध प्रकार के यज्ञ करने चाहिए। अतः आपको चाहिए कि आप उन्हें यज्ञ करने के लिए निर्देशित करें।

22 जब आपके राज्य के सारे ब्राह्मण यज्ञ में संलग्न होने लगेंगे तो भगवान के स्वांश समस्त देवता उनके कार्यों से प्रसन्न होकर आपको मनवांछित फल देंगे; अतः हे वीर, यज्ञों को बन्द न करें। यदि उन्हें बन्द करते हैं तो आप देवताओं का अनादर करेंगे।

23 राजा वेन ने उत्तर दिया: तुम तनिक भी अनुभवी नहीं हो। यह अत्यन्त दुख की बात है कि तुम लोग जो कुछ करते रहे हो वह धार्मिक नहीं है, किन्तु तुम लोग उसे धार्मिक मान रहे हो। दरअसल, तुम लोग अपने पालनकर्ता वास्तविक पति को त्याग रहे हो और पूजा करने के लिए किसी जार (परपति) की तलाश में हो।

24 जो लोग अज्ञानतावश उस राजा की पूजा नहीं करते जो कि वास्तव में भगवान है, तो वे न इस लोक में और न परलोक में सुख का अनुभव करते हैं।

25 तुम लोग देवताओं के इतने भक्त हो, किन्तु वे हैं कौन? निस्सन्देह, इन देवताओं के प्रति तुम लोगों का स्नेह उस कुलटा स्त्री का सा है, जो अपने विवाहित जीवन की उपेक्षा करके जारपति पर सारा ध्यान केन्द्रित कर देती है।

26-27 विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्यदेव, पर्जन्य, कुबेर, चन्द्रदेव, क्षितिदेव, अग्नि देव, वरुण तथा अन्य बड़े-बड़े देवता जो आशीर्वाद या शाप दे सकने में समर्थ हैं, वे सब राजा के शरीर में वास करते हैं। इसीलिए राजा सभी देवताओं का आगार माना जाता है। देवता राजा के शरीर के भिन्नांश हैं।

28 राजा वेन ने आगे कहा: इसलिए, हे ब्राह्मणों, तुम मेरे प्रति ईर्ष्या त्याग कर अपने अनुष्ठान कार्यों द्वारा मेरी पूजा करो और समस्त पूजा-सामग्री मुझ पर ही चढ़ाओ। यदि तुम लोग भी बुद्धिमान होगे, तो समझ सकोगे कि मुझसे श्रेष्ठ ऐसा कोई पुरुष नहीं जो समस्त यज्ञों की प्रथम आहुतियों को ग्रहण कर सके।

29 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: इस प्रकार अपने पापमय जीवन के कारण दुर्बोध होने तथा सही राह से विचलित होने के कारण राजा समस्त पुण्य से क्षीण हो गया। उसने ऋषियों की सादर प्रस्तुत प्रार्थनाएँ स्वीकार नहीं कीं, अतः उसकी भर्त्सना की गई।

30 हे विदुर, तुम्हारा कल्याण हो। उस मूर्ख राजा ने अपने को अत्यन्त विद्वान समझकर ऋषियों तथा मुनियों का अपमान किया। राजा के वचनों से ऋषियों का दिल टूट गया और वे उस पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए।

31 सभी ऋषि तुरन्त हाहाकार करने लगे: इसे मारो! इसे मारो! यह अत्यन्त भयावह और पापी पुरुष है। यदि यह जीवित रहा तो निश्चित रूप से सारे संसार को देखते-देखते भस्म कर देगा।

32 ऋषियों ने आगे कहा: यह अपवित्र, दम्भी व्यक्ति सिंहासन पर बैठने के लिए सर्वथा अयोग्य है। यह इतना निर्लज्ज है कि इसने भगवान विष्णु का भी अपमान करने का दुस्साहस किया है।

33 अभागे राजा वेन को छोड़कर भला ऐसा कौन होगा जो उन भगवान की निन्दा करेगा, जिनकी कृपा से सभी प्रकार की सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता हो?

34 इस प्रकार अपने छिपे क्रोध को प्रकट करते हुए ऋषियों ने राजा को तुरन्त मार डालने का निश्चय कर लिया। राजा वेन भगवान की निन्दा के कारण पहले से ही मृत तुल्य था। अतः बिना किसी हथियार के ही मुनियों ने हुंकारों से वेन को मार डाला।

35 इस सब के बाद ऋषिगण अपने-अपने आश्रमों को चले गये तो राजा वेन की माता सुनीथा अपने पुत्र की मृत्यु से अत्यधिक शोकाकुल हो उठी। उसने अपने पुत्र के शव को कुछ द्रव्यों के द्वारा तथा मंत्र के बल से सुरक्षित रखने का निश्चय किया।

36 एक बार ये ही ऋषि सरस्वती नदी में स्नान करके यज्ञ-अग्नि में आहुति डालने का अपना नित्य कर्म कर रहे थे। इसके पश्चात नदी के तट पर बैठ कर वे दिव्य पुरुष तथा उनकी लीलाओं के विषय में चर्चा करने लगे।

37 उन दिनों देश में अनेक उपद्रव हो रहे थे जिनसे समाज में आतंक उत्पन्न हो रहा था। अतः सभी मुनि परस्पर बातें करने लगे: चूँकि राजा मर चुका है और संसार का कोई रक्षक नहीं है, अतः चोर-उचक्कों के कारण प्रजा पर विपत्ति आ सकती है।

38 जब ऋषिगण इस प्रकार विचार-विमर्श कर रहे थे तो उन्होंने चारों दिशाओं से धूल की आँधी उठती देखी। यह आँधी उन चोर-उचक्कों के दौड़ा-भागी से उत्पन्न हुई थी जो नागरिकों को लूट रहे थे।

39-40 उस अंधड़ को देखकर साधु पुरुषों ने समझ लिया कि राजा वेन की मृत्यु के कारण अत्यधिक अव्यवस्था फैल गई है। बिना सरकार के राज्य कानुन तथा व्यवस्था से विहीन हो जाता है। फलतः उन घातक चोर-उचक्कों का प्राबल्य हो उठा जो प्रजा की सम्पत्ति को लूट रहे थे। यद्यपि ऋषिगण इस उपद्रव को अपनी शक्ति से रोक सकते थे – जिस प्रकार उन्होंने राजा का वध किया था – किन्तु उन्होंने ऐसा करना अनुचित समझा। अतः उन्होंने उपद्रव को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।

41 ऋषिगण सोचने लगे कि यद्यपि ब्राह्मण शान्त और समदर्शी होने के कारण निष्पक्ष होता है, तो भी उसका कर्तव्य है कि वह दीनों की उपेक्षा न करे। ऐसा करने से उसका आत्मबल उसी प्रकार घट जाता है, जिस प्रकार फूटे बर्तन से पानी रिस जाता है।

42 मुनियों ने निश्चय किया कि राजर्षि अंग के वंश को नष्ट नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि यह वंश अत्यन्त शक्तिशाली रहा है और उसकी सन्तानें भगवत्परायण होती रही हैं।

43 इस निश्चय के बाद, साधु पुरुषों तथा मुनियों ने राजा वेन के मृत शरीर की जाँघों का अत्यन्त शक्तिपूर्वक तथा एक विशेष विधि से मंथन किया। मंथन के फलस्वरूप राजा वेन के शरीर से एक बौने जैसा व्यक्ति उत्पन्न हुआ।

44 राजा वेन की जंघाओं से उत्पन्न इस व्यक्ति का नाम बाहुक था। उसकी सूरत कौवे जैसी काली थी। उसके शरीर के सभी अंग ठिगने थे, उसके हाथ तथा पाँव छोटे थे और जबड़े लम्बे थे। उसकी नाक चपटी, आँखें लाल-लाल तथा केश ताम्बे जैसे रंग के थे।

45 वह अत्यन्त विनम्र था और अपना जन्म होते ही उसने विनत होकर पूछा "महाशय, मैं क्या करूँ?” ऋषियों ने कहा "बैठ जाओ" (निषीद) – इस प्रकार नैषाद जाति का जनक निषाद उत्पन्न हुआ।

46 जन्म होते ही उसने (निषाद ने) राजा वेन के समस्त पापपूर्ण कृत्यों के फलों को स्वयं धारण कर लिया। इसलिए यह निषाद जाति सदैव पापपूर्ण कृत्यों में – यथा चोरी, डाका तथा शिकार में – लगी रहती है। फलतः इन्हें पर्वतों तथा जंगलों में ही रहने दिया जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तेरह – ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन (4.13)

1 सूत गोस्वामी ने शौनक इत्यादि समस्त ऋषियों से आगे कहा: मैत्रेय ऋषि द्वारा ध्रुव महाराज के विष्णुधाम में आरोहण का वर्णन किये जाने पर विदुर में भक्तिभाव का अत्यधिक संचार हो उठा और उन्होंने मैत्रेय से इस प्रकार पूछा।

2 विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे महान भक्त, प्रचेतागण कौन थे? वे किस कुल के थे? वे किसके पुत्र थे और उन्होंने कहाँ पर महान यज्ञ सम्पन्न किये?

3 विदुर ने कहा मैं जानता हूँ कि नारद मुनि समस्त भक्तों के शिरोमणि हैं। उन्होंने भक्ति की पाँचरात्रिक विधि का संकलन किया है और भगवान से साक्षात भेंट की है।

4 जब समस्त प्रचेता धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञकर्म कर रहे थे और इस प्रकार भगवान को प्रसन्न करने के लिए पूजा कर रहे थे तो नारद मुनि ने ध्रुव महाराज के दिव्य गुणों का वर्णन किया।

5 हे ब्राह्मण, नारद ने भगवान का किस प्रकार गुणगान किया और उस सभा में किन लीलाओं का वर्णन हुआ? मैं उन्हें सुनने का इच्छुक हूँ। कृपया विस्तार से भगवान की उस महिमा का वर्णन कीजिये।

6 महामुनि मैत्रेय ने उत्तर दिया: हे विदुर, जब ध्रुव महाराज वन को चले गए तो उनके पुत्र उत्कल ने अपने पिता के वैभवपूर्ण राज सिंहासन की कोई कामना नहीं की, क्योंकि वह तो इस लोक के समस्त देशों के शासक के निमित्त था।

7 उत्कल जन्म से ही पूर्णतया संतुष्ट था तथा संसार में अनासक्त था। वह समदर्शी था, क्योंकि वह प्रत्येक वस्तु को परमात्मा में और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा को स्थित देखता था।

8-9 उसने परब्रह्म के विषय में अपने ज्ञान के प्रसार द्वारा पहले ही शरीर बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर ली थी। यह मुक्ति निर्वाण कहलाती है। वह दिव्य आनन्द की स्थिति को प्राप्त था और उसी आनन्दमय स्थिति में रहता रहा, जो अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी। यह सतत भक्तियोग के कारण ही सम्भव था जिसकी तुलना अग्नि से की गई है, जो समस्त मलिन भौतिक वस्तुओं को भस्म कर देती है। वह सदैव आत्म-साक्षात्कार की अपनी स्वाभाविक स्थिति – भक्तियोग में तल्लीन रहता और भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं देखता था।

10 अल्पज्ञानी राह चलते लोगों को उत्कल मूर्ख, अन्धा, गूँगा, बहरा तथा पागल सा प्रतीत होता था, किन्तु वह वास्तव में ऐसा था नहीं। वह उस अग्नि के समान बना रहा जो राख से ढकी होने के कारण लपटों से रहित होती है।

11 फलतः मंत्रियों तथा कुल के समस्त गुरुजनों ने समझा कि उत्कल बुद्धिहीन और सचमुच ही पागल है। इस प्रकार उसका छोटा भाई, जिसका नाम वत्सर था और जो भ्रमि का पुत्र था, राजसिंहासन पर बैठा दिया गया और वह सारे संसार का राजा हो गया।

12 राजा वत्सर की अत्यन्त प्रिय पत्नी स्वर्विथी थी और उसने छह पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम थे पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु तथा जय ।

13 पुष्पार्ण के दो पत्नियाँ थी, जिनके नाम प्रभा तथा दोषा थे। प्रभा के तीन पुत्र हुए जिनके नाम प्रातः, मध्यन्दिनम तथा सायम थे।

14 दोषा के तीन पुत्र थे--प्रदोष, निशिथ तथा व्युष्ट। व्युष्ट की पत्नी का नाम पुष्करिणी था, जिसने सर्वतेजा नामक अत्यन्त बलशाली पुत्र को जन्म दिया।

15-16 सर्वतेजा की पत्नी आकूति ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम चाक्षुष था, जो मनु कल्पान्त में छठा मनु बना। चाक्षुष मनु की पत्नी नड्वला ने निम्नलिखित निर्दोष पुत्रों को जन्म दिया--पुरू, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिबी तथा उल्मुक ।

17 उल्मुक के बारह पुत्रों में से छह पुत्र उनकी पत्नी पुष्करिणी से उत्पन्न हुए। वे सभी अति उत्तम पुत्र थे। उनके नाम थे अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा तथा गय ।

18 अंग की पत्नी सुनिथा से वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो अत्यन्त कुटिल था। साधु स्वभाव का राजा अंग वेन के दुराचरण से अत्यन्त निराश था, फलतः उसने घर तथा राजपाट छोड़ दिया और जंगल चला गया।

19-20 हे विदुर, जब ऋषिगण शाप देते हैं, तो उनके शब्द वज्र के समान कठोर होते हैं। अतः जब उन्होंने क्रोधवश वेन को शाप दे दिया तो वह मर गया। उसकी मृत्यु के बाद कोई राजा न होने से चोर-उचकके पनपने लगे, राज्य में अनियमितता फैल गयी और समस्त नागरिकों को भारी कष्ट झेलना पड़ा। यह देखकर ऋषियों ने वेन की दाहिनी भुजा को दण्ड मथनी बना लिया और उनके मथने के कारण भगवान विष्णु अपने अंश रूप में संसार के आदि सम्राट राजा पृथु के रूप में अवतरित हुए।

21 विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे ब्राह्मण, राजा अंग तो अत्यन्त भद्र, चरित्रवान, साधु पुरुष और ब्राह्मण-संस्कृति का प्रेमी था। तो फिर इतने महान पुरुष के वेन जैसा दुष्ट पुत्र कैसे उत्पन्न हुआ जिससे वह अपने राज्य के प्रति अन्यमनस्क हो उठा और उसे छोड़ दिया?

22 विदुर ने आगे पूछा कि महान धर्मात्मा ऋषियों ने राजा वेन को, जो स्वयं दण्ड को धारण करनेवाला था, क्योंकर शाप देना चाहा और इस प्रकार उसे सबसे बड़ा दण्ड (ब्रह्मशाप) दे डाला ?

23 प्रजा का कर्तव्य है कि वह राजा का अपमान न करे, चाहे यदाकदा वह अत्यन्त पापपूर्ण कृत्य करता हुआ ही क्यों न प्रतीत हो। अपने तेज के कारण राजा अन्य शासनकर्ता प्रमुखों से सदैव अधिक प्रभावशाली होता है।

24 विदुर ने मैत्रेय से अनुरोध किया: हे ब्राह्मण, आप भूत तथा भविष्य के समस्त विषयों में पारंगत हैं। अतः मैं आपसे राजा वेन के समस्त कार्यकलापों को सुनना चाहता हूँ। मैं आपका श्रद्धालु भक्त हूँ, अतः आप इसे विस्तार से कहें।

25 श्री मैत्रेय ने उत्तर दिया: हे विदुर, एक बार राजा अंग ने अश्वमेध नामक महान यज्ञ सम्पन्न करने की योजना बनाई। वहाँ पर उपस्थित समस्त सुयोग्य ब्राह्मण जानते थे कि देवताओं का आवाहन कैसे किया जाता है, किन्तु उनके प्रयास के बावजूद भी किसी देवता ने न तो भाग लिया और न ही कोई उस यज्ञ में प्रकट हुआ।

26 तब यज्ञ में लगे पुरोहितों ने राजा अंग को सूचित किया: हे राजन, हम यज्ञ में विधिपूर्वक शुद्ध घी की आहुति दे रहे हैं, किन्तु हमारे सारे यत्नों के बावजूद देवतागण उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

27 हे राजन, हमें ज्ञात है कि आपने अत्यन्त श्रद्धा तथा सावधानी से यज्ञ की सारी सामग्री एकत्रित की है और वह दूषित नहीं है। हमारे द्वारा उच्चरित वैदिक मंत्रों में भी किसी प्रकार की कमी नहीं है क्योंकि यहाँ उपस्थित सभी ब्राह्मण तथा पुरोहित योग्य है और समस्त कृत्यों को ठीक से कर भी रहे हैं।

28 हे राजन, हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जिससे देवतागण अपने को किसी प्रकार से अपमानित या उपेक्षित समझ सकें, तो भी यज्ञ के साक्षी देवता अपना भाग ग्रहण नहीं कर रहे हैं। हमारी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है?

29 मैत्रेय ने बतलाया कि पुरोहितों के इस कथन को सुनकर राजा अंग अत्यधिक खिन्न हो उठा। तब उसने पुरोहितों से कुछ कहने की अनुमति माँगी और यज्ञस्थल में उपस्थित समस्त पुरोहितों से उसने पूछा।

30 राजा अंग ने पुरोहित वर्ग को सम्बोधित करते हुए पूछा: हे पुरोहितों, आप कृपा करके बताएँ कि मुझसे कौन सा अपराध हुआ है। आमंत्रित होने पर भी देवता न तो यज्ञ में सम्मिलित हो रहे हैं और न अपना भाग ग्रहण कर रहे हैं।

31 प्रधान पुरोहित ने कहा: हे राजन, हमें तो आपके इस जीवन में आपके मन से किया गया भी कोई अपराध नहीं दिखता, अतः आप तनिक भी अपराधी नहीं हैं। किन्तु हमें दिखता है कि आपने पूर्वजन्मों में पापकर्म किये हैं जिनके कारण समस्त गुणों के होते हुए भी आप पुत्रहीन हैं।

32 हे राजन, आपका कल्याण हो। आपके कोई पुत्र नहीं हैं, अतः यदि आप तुरन्त भगवान से प्रार्थना करें और पुत्र माँगे तथा यदि इस कार्य के लिए यज्ञ करें तो यज्ञभोक्ता भगवान आपकी कामना को पूर्ण करेंगे।

33 जब समस्त यज्ञों के भोक्ता हरि को पुत्र की कामना पूरी करने के लिए आमंत्रित किया जाएगा, तो सभी देवता उनके साथ आएँगे और अपना-अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करेंगे।

34 यज्ञों का कर्ता (कर्मकाण्ड के अन्तर्गत) जिस कामना से भगवान की पूजा करता है, वह कामना पूरी होती है।

35 इस प्रकार राजा अंग को पुत्र प्राप्ति कराने के लिए उन्होंने घट-घट वासी भगवान विष्णु को आहुतियाँ अर्पित करने का निश्चय किया।

36 अग्नि में आहुति डालते ही, अग्निकुण्ड से सोने का हार पहने तथा श्वेत वस्त्र धारण किये एक पुरुष प्रकट हुआ। वह एक स्वर्णपात्र में खीर लिये हुए था।

37 राजा अत्यन्त उदार था। उसने पुरोहितों की अनुमति से उस खीर को अपनी अंजुली में ले लिया और फिर सूँघ कर उसका एक भाग अपनी पत्नी को दे दिया।

38 यद्यपि रानी को कोई पुत्र न था, किन्तु पुत्र उत्पन्न करने की शक्ति वाली उस खीर के खाने से, वह गर्भवती हो गई और यथासमय उसने एक पुत्र को जन्म दिया।

39 वह बालक अंशतः अधर्म के वंश में उत्पन्न था, उसका नाना साक्षात मृत्यु था और वह बालक उसका अनुगामी बनकर अत्यन्त अधार्मिक व्यक्ति बन गया।

40 वह दुष्ट बालक धनुष-बाण चढ़ाकर जंगल में जाता और वृथा ही निर्दोष (दीन) हिरणों को मार डालता। ज्योंही वह आता कि सभी लोग चिल्ला उठते, “वह आया क्रूर वेन ! वह आया क्रूर वेन !”

41 वह बालक ऐसा क्रूर था कि समवयस्क बालकों के साथ खेलते हुए उन्हें इतनी निर्दयता के साथ मारता मानो वे वध किये जाने वाले पशु हों।

42 अपने पुत्र वेन का क्रूर तथा निष्ठुर आचरण देखकर, राजा अंग ने उसे सुधारने के लिए तरह-तरह के दण्ड दिये, किन्तु वह उसे सन्मार्ग में न ला सका। इस प्रकार से वह अत्यधिक खिन्न रहने लगा।

43 राजा ने सोचा कि पुत्रहीन व्यक्ति निश्चय ही भाग्यशाली हैं। उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्मों में भगवान की पूजा की होगी जिससे उन्हें किसी कुपुत्र द्वारा दिया गया असह्य दुख न उठाना पड़े।

44 पापी पुत्र के कारण मनुष्य का यश मिट्टी में मिल जाता है। उसके अधार्मिक कृत्यों से अधर्म फैलता है, समस्त लोगों में झगड़ा और केवल अन्तहीन तनाव उत्पन्न होता है।

45 ऐसा कौन समझदार और बुद्धिमान है, जो इस तरह का निकम्मा पुत्र चाहेगा? ऐसा पुत्र जीवात्मा के लिए मोह का बन्धनमात्र होता है और अपने घर (परिवार) को दुखी बनाता है।

46 तब राजा ने सोचा: सुपुत्र की अपेक्षा कुपुत्र ही अच्छा है, क्योंकि सुपुत्र से घर के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है, किन्तु कुपुत्र से नहीं। कुपुत्र घर को नरक बना देता है, जिससे बुद्धिमान मनुष्य सरलता से अपने को अनासक्त कर लेता है।

47 इस प्रकार से सोचते हुए राजा अंग को रात भर नींद नहीं आई। वह गृहस्थ जीवन से पूर्णत: उदास हो गया। अतः एक दिन अर्धरात्रि में वह अपने बिस्तर से उठा और वेन की माता (अपनी पत्नी) को गहरी निद्रा में सोते हुए छोड़कर चला गया। उसने अपने महान ऐश्वर्यमय राज्य का मोह त्याग दिया और चुपके से अपना घर तथा ऐश्वर्य छोड़कर जंगल की ओर चला गया।

48 जब यह पता चला कि राजा ने उदास होकर गृहत्याग कर दिया है, तो समस्त नागरिक, पुरोहित, मंत्री, मित्र तथा सामान्यजन अत्यन्त दुखी हुए। वे सर्वत्र उसकी खोज करने लगे जैसे कोई अनुभवहीन योगी अपने भीतर परमात्मा की खोज करता है।

49 जब सर्वत्र खोज करने पर नागरिकों को राजा का कोई पता न चला तो वे अत्यधिक निराश हुए और नगर को लौट आये, जहाँ पर राजा की अनुपस्थिति के कारण देश के समस्त बड़े-बड़े ऋषि एकत्र हुए थे। अश्रुपूरित नागरिकों ने ऋषियों को नमस्कार किया और विस्तारपूर्वक बताया कि वे कहीं भी राजा को नहीं पा सके।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बारह – ध्रुव महाराज का भगवान के पास जाना (4.12)

1 महर्षि मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, ध्रुव महाराज का क्रोध शान्त हो गया और उन्होंने यक्षों का वध करना पूरी तरह बन्द कर दिया। जब सर्वाधिक समृद्ध धनपति कुबेर को यह समाचार मिला तो वे ध्रुव के समक्ष प्रकट हुए। वे यक्षों, किन्नरों तथा चारणों द्वारा पूजित होकर अपने सामने हाथ जोड़कर खड़े हुए ध्रुव महाराज से बोले।

2 धनपति कुबेर ने कहा: हे निष्पाप क्षत्रियपुत्र, मुझे यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि अपने पितामह के आदेश से तुमने वैरभाव को त्याग दिया यद्यपि इसे तज पाना बहुत कठिन होता है। मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ।

3 वास्तव में न तो तुमने यक्षों को मारा है न उन्होंने तुम्हारे भाई को मारा है, क्योंकि सृजन तथा विनाश का अनन्तिम कारण परमेश्वर का नित्य स्वरूप काल ही है।

4 देहात्मबुद्धि के आधार पर स्व तथा अन्यों का "मैं" या 'तुम' के रूप में मिथ्याबोध अविद्या की उपज है। यही देहात्मबुद्धि जन्म-मृत्यु के चक्र का कारण है और इसीसे इस जगत में हमें निरन्तर बने रहना पड़ता है।

5 हे ध्रुव, आगे आओ। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें। भगवान ही, जो हमारी इन्द्रियों की विचार-शक्ति से परे हैं, समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं। इसलिए सभी जीवात्माएँ बिना किसी अन्तर के एक हैं। अतः तुम भगवान के दिव्य रूप की सेवा प्रारम्भ करो, क्योंकि वे ही समस्त जीवों के अनन्तिम आश्रय हैं।

6 अतः तुम अपने आपको भगवान की भक्ति में पूर्णरूपेण प्रवृत्त करो क्योंकि वे ही सांसारिक बन्धन से हमें छुटकारा दिला सकते हैं। अपनी भौतिक शक्ति में आसक्त रहकर भी वे उसके क्रियाकलापों से विलग रहते हैं। भगवान की अकल्पनीय शक्ति से ही इस भौतिक जगत में प्रत्येक घटना घटती है।

7 हे महाराज उत्तानपाद के पुत्र, ध्रुव महाराज, हमने सुना है कि तुम कमलनाभ भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगे रहते हो। अतः तुम हमसे समस्त आशीर्वाद लेने के पात्र हो। अतः बिना हिचक के तुम जो वर माँगना चाहो माँग सकते हो।

8 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, जब यक्षराज कुबेर ने ध्रुव महाराज से वर माँगने के लिए कहा तो उस परम विद्वान शुद्ध भक्त, बुद्धिमान तथा विचारवान राजा ध्रुव ने यही याचना की कि भगवान में उनकी अखण्ड श्रद्धा और स्मृति बनी रहे, क्योंकि इस प्रकार से मनुष्य अज्ञान के सागर को सरलता से पार कर सकता है, यद्यपि उसे पार करना अन्यों के लिए अत्यन्त दुष्तर है।

9 इडविडा के पुत्र कुबेर अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक ध्रुव को मनचाहा वरदान दिया। तत्पश्चात वे ध्रुव को देखते-देखते से अन्तर्धान हो गये और ध्रुव महाराज अपनी राजधानी वापस चले गये।

10 जब तक ध्रुव महाराज घर में रहे उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान को प्रसन्न करने के लिए यज्ञोत्सव सम्पन्न किये। जितने भी संस्कार सम्बन्धी निर्दिष्ट यज्ञ हैं, वे भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के निमित्त हैं, क्योंकि वे ही ऐसे समस्त यज्ञों के लक्ष्य हैं और यज्ञ-जन्य आशीर्वादों के प्रदाता हैं।

11 ध्रुव महाराज निर्बाध-बल के साथ हर वस्तु के आगार परमेश्वर की भक्ति करने लगे। भक्ति करते हुए उन्हें ऐसा दिखता मानो प्रत्येक वस्तु उन्हीं (भगवान) में स्थित है और वे समस्त जीवात्माओं में स्थित हैं। भगवान अच्युत कहलाते हैं, क्योंकि वे कभी भी अपने भक्तों को सुरक्षा प्रदान करने के मूल कर्तव्य से चूकते नहीं।

12 ध्रुव महाराज सभी दैवी गुणों से सम्पन्न थे; वे भगवान के भक्तों के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु, दीनों तथा निर्दोषों के प्रति दयालु एवं धर्म की रक्षा करनेवाले थे। इन गुणों के कारण वे समस्त नागरिकों के पिता तुल्य समझे जाते थे।

13 ध्रुव महाराज ने इस लोक पर छत्तीस हजार वर्षों तक राज्य किया; उन्होंने पुण्यों को भोग द्वारा और अशुभ फलों को तपस्या द्वारा क्षीण बनाया।

14 इस प्रकार आत्मसंयमी महापुरुष ध्रुव महाराज ने तीन प्रकार के सांसारिक कार्यों – धर्म, अर्थ तथा काम – को ठीक तरह से अनेकानेक वर्षों तक सम्पन्न किया। तत्पश्चात उन्होंने अपने पुत्र को राजसिंहासन सौंप दिया।

15 श्रील ध्रुव महाराज को अनुभव हो गया कि यह दृश्य-जगत जीवात्माओं को स्वप्न अथवा मायाजाल के समान मोहग्रस्त करता रहता है, क्योंकि यह परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति माया की सृष्टि है।

16 अन्त में ध्रुव महाराज ने सारी पृथ्वी पर फैले और महासागरों से घिरे अपने राज्य को त्याग दिया। उन्होंने अपने शरीर, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों, सेना, समृद्ध कोश, सुखकर महलों तथा विनोद-स्थलों को माया की सृष्टियाँ मान लिया। इस तरह वे कालक्रम में हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीकाश्रम के वन में चले गये।

17 बद्रीकाश्रम में ध्रुव महाराज की इन्द्रियाँ पूर्णतः शुद्ध हो गई क्योंकि वे स्वच्छ शुद्ध जल में नियमित रूप से स्नान करते थे। वे आसन पर स्थित हो गये और फिर उन्होंने योगक्रिया से श्वास तथा प्राणवायु को वश में किया। इस प्रकार उन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से समेट लिया। तब उन्होंने अपने मन को भगवान के अर्चाविग्रह रूप में केन्द्रित किया जो भगवान का पूर्ण प्रतिरूप है और इस प्रकार से उनका ध्यान करते हुए वे पूर्ण समाधि में प्रविष्ट हो गये।

18 दिव्य आनन्द के कारण उनके नेत्रों से सतत अश्रु बहने लगे, उनका हृदय द्रवित हो उठा और पूरे शरीर में कम्पन तथा रोमांच हो आया। भक्ति की समाधि में पहुँचने से ध्रुव महाराज अपने शारीरिक अस्तित्व को पूर्णतः भूल गये और तुरन्त ही भौतिक बन्धन से मुक्त हो गये।

19 ज्योंही उनकी मुक्ति के लक्षण प्रकट हुए, उन्होंने एक अत्यन्त सुन्दर विमान को आकाश से नीचे उतरते देखा, मानो तेजस्वी पूर्ण चन्द्रमा दशों दिशाओं को आलोकित करते हुए नीचे आ रहा हो।

20 ध्रुव महाराज ने विमान में भगवान विष्णु के दो अत्यन्त सुन्दर पार्षदों को देखा। उनकी चार भुजाएँ थीं और श्याम वर्ण की शारीरिक कान्ति थी, वे अत्यन्त तरुण थे और उनके नेत्र लाल कमल-पुष्पों के समान थे। वे हाथों में गदा धारण किये थे और उनकी वेशभूषा अत्यन्त आकर्षक थी। वे मुकुट धारण किये थे और हारों, बाजूबन्दों तथा कुण्डलों से सुशोभित थे।

21 यह देखकर कि ये असाधारण पुरुष भगवान के प्रत्यक्ष दास हैं, ध्रुव महाराज तुरन्त उठ खड़े हुए। किन्तु हड़बड़ाहट में जल्दी के कारण वे उचित रीति से उनका स्वागत करना भूल गये। अतः उन्होंने हाथ जोड़ कर केवल नमस्कार किया और वे भगवान के पवित्र नामों की महिमा का जप करने लगे।

22 ध्रुव महाराज भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के चिन्तन में सदैव लीन रहते थे। उनका हृदय कृष्ण से पूरित था। जब परमेश्वर के दो निजी दास, जिनके नाम सुनन्द तथा नन्द थे, प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए उनके पास पहुँचे तो ध्रुव महाराज हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक सिर नीचा किये खड़े हो गये। तब उन्होंने ध्रुव महाराज को इस प्रकार से सम्बोधित किया।

23 विष्णु के दोनों विश्वस्त पार्षद सुनन्द तथा नन्द ने कहा: हे राजन, आपका कल्याण हो। हम जो कहें, कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुनें। जब आप पाँच वर्ष के थे तो आपने कठिन तपस्या की थी और उससे आपने पुरुषोत्तम भगवान को अत्यधिक प्रसन्न कर लिया था।

24 हम उन भगवान के प्रतिनिधि हैं, जो समग्र ब्रह्माण्ड के स्रष्टा हैं और हाथ में शार्ङ्ग नामक धनुष को धारण किये रहते हैं। आपको वैकुण्ठलोक ले जाने के लिए हमें विशेष रूप से नियुक्त किया गया है।

25 विष्णुलोक को प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु आपने अपनी तपस्या से उसे जीत लिया है। बड़े-बड़े ऋषि तथा देवता भी इस पद को प्राप्त नहीं कर पाते। परमधाम (विष्णुलोक) के दर्शन करने के लिए ही सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह, तारे, चन्द्र-भुवन (नक्षत्र) तथा सौर-मण्डल उसकी परिक्रमा करते हैं। कृपया आइये, वहाँ जाने के लिए आपका स्वागत है।

26 हे राजा ध्रुव, आज तक न तो आपके पूर्वजों ने, न अन्य किसी ने ऐसा दिव्य लोक प्राप्त किया है। यह विष्णुलोक, जहाँ विष्णु निवास करते हैं, सबों से ऊपर है। यह अन्य सभी ब्रह्माण्डों के निवासियों द्वारा पूजित है। आप हमारे साथ आयें और वहाँ शाश्वत निवास करें।

27 हे दीर्घजीवी, इस अद्वितीय विमान को उन भगवान ने भेजा है, जिनकी स्तुति उत्तम श्लोकों द्वारा की जाती है और जो समस्त जीवात्माओं के प्रमुख हैं। आप इस विमान में चढ़ने के सर्वथा योग्य हैं।

28 महर्षि मैत्रेय ने कहा: ध्रुव महाराज भगवान के अत्यन्त प्रिय थे। जब उन्होंने वैकुण्ठलोक वासी भगवान के मुख्य पार्षदों की मधुरवाणी सुनी तो उन्होंने तुरन्त स्नान किया, अपने को उपयुक्त आभूषणों से अलंकृत किया और अपने नित्य आध्यात्मिक कर्म सम्पन्न किए। तत्पश्चात उन्होंने वहाँ पर उपस्थित ऋषियों को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद ग्रहण किया ।

29 चढ़ने के पूर्व ध्रुव महाराज ने विमान की पूजा की, उसकी प्रदक्षिणा की और विष्णु के पार्षदों को भी नमस्कार किया। इसी दौरान वे पिघले सोने के समान तेजमय तथा देदीप्यमान हो उठे। इस प्रकार से वे उस दिव्ययान में चढ़ने के लिए पूर्णतः सन्नद्ध थे।

30 जब ध्रुव महाराज उस दिव्य विमान में चढ़ने जा रहे थे तो उन्होंने साक्षात (काल) मृत्यु को अपने निकट आते देखा। किन्तु उन्होंने मृत्यु की परवाह नहीं की; उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर काल के सिर पर अपने पाँव रख दिये और वे विमान में चढ़ गये जो इतना विशाल था कि जैसे एक भवन हो।

31 उस समय ढोल, मृदंग तथा दुन्दुभी के शब्द आकाश से गूँजने लगे, प्रमुख-प्रमुख गन्धर्व जन गाने लगे और अन्य देवताओं ने ध्रुव महाराज पर फूलों की मूसलाधार वर्षा की।

32 ध्रुव महाराज जब उस दिव्य विमान पर बैठे थे, जो चलनेवाला था, तो उन्हें अपनी बेचारी माता सुनीति का स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, “मैं अपनी बेचारी माता को छोड़कर वैकुण्ठलोक अकेले कैसे जा सकूँगा?“

33 वैकुण्ठलोक के महान पार्षद नन्द तथा सुनन्द ध्रुव महाराज के मन की बात जान गये, अतः उन्होंने उन्हें दिखाया कि उनकी माता सुनीति दूसरे यान में आगे-आगे जा रही हैं।

34 आकाश मार्ग से जाते हुए ध्रुव महाराज ने क्रमशः सौर मण्डल के सभी ग्रहों को देखा और रास्ते में समस्त देवताओं को उनके विमानों में से अपने ऊपर फूलों की वर्षा करते देखा।

35 इस प्रकार ध्रुव महाराज ने सप्तर्षि कहलानेवाले ऋषियों के सात लोकों को पार किया। इसके परे उन्होंने उस लोक में अविचल दिव्य पद प्राप्त किया जहाँ भगवान विष्णु वास करते हैं।

36 जो लोग दूसरे जीवों पर दयालु नहीं होते, वे स्वतेजोमय इन वैकुण्ठलोकों में नहीं पहुँच पाते, जिनके प्रकाश से इस भौतिक ब्रह्माण्ड के सभी लोक प्रकाशित हैं। जो व्यक्ति निरन्तर अन्य प्राणियों के कल्याणकारी कार्यों में लगे रहते हैं, केवल वे ही वैकुण्ठलोक पहुँच पाते हैं।

37 जो शान्त, समदर्शी तथा पवित्र हैं तथा जो अन्य सभी जीवात्माओं को प्रसन्न करने की कला जानते हैं, वे भगवान के भक्तों से ही मित्रता रखते हैं। केवल वे ही वापस घर को अर्थात भगवान के धाम को सरलता से जाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

38 इस प्रकार महाराज उत्तानपाद के अति सम्माननीय पुत्र, पूरी तरह से कृष्णभावनाभावित ध्रुव महाराज ने तीनों लोकों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया।

39 सन्त मैत्रेय ने आगे कहा: हे कौरव वंशी विदुर, जिस प्रकार बैल अपनी दाईं ओर बाँधे मध्यवर्ती लट्ठे के चारों ओर चक्कर लगाते हैं, उसी प्रकार आकाश के सभी नक्षत्र अत्यन्त वेग से ध्रुव महाराज के धाम का निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं।

40 ध्रुव महाराज की महिमा को देखकर, नारद मुनि अपनी वीणा बजाते प्रचेताओं के यज्ञस्थल पर गये और प्रसन्नतापूर्वक निम्नलिखित तीन श्लोकों का उच्चार किया।

41 महर्षि नारद ने कहा: अपनी आत्मिक उन्नति तथा सशक्त तपस्या के प्रभाव से ही पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव महाराज ने ऐसा उच्च पद प्राप्त किया है, जो तथाकथित वेदान्तियों के लिए भी प्राप्त करना सम्भव नहीं, सामान्य मनुष्यों की तो बात ही क्या कही जाये।

42 महर्षि नारद ने आगे कहा: देखो न, किस प्रकार ध्रुव महाराज अपनी विमाता के कटु वचनों से मर्माहत होकर केवल पाँच वर्ष की अवस्था में जंगल चले गये और उन्होंने मेरे निर्देशन में तपस्या की। यद्यपि भगवान अजेय हैं, किन्तु ध्रुव महाराज ने भगवदभक्तों के विशिष्ट गुणों से समन्वित होकर उन्हें परास्त कर दिया।

43 ध्रुव महाराज ने पाँच-छह वर्ष की अवस्था में ही छह मास तक तपस्या करके उच्च पद प्राप्त कर लिया। ओह! कोई बड़े से बड़ा क्षत्रिय अनेक वर्षों की तपस्या के बाद भी ऐसा पद प्राप्त नहीं कर सकता।

44 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, तुमने मुझसे ध्रुव महाराज की परम ख्याति तथा चरित्र के विषय में जो कुछ पूछा था वह सब मैंने विस्तार से बता दिया है। बड़े-बड़े साधू पुरुष तथा भक्त ध्रुव महाराज के विषय में सुनने की इच्छा रखते हैं।

45 ध्रुव के आख्यान को सुनकर मनुष्य अपनी सम्पत्ति, यश तथा दीर्घायु की इच्छा को पूरा कर सकता है। यह इतना कल्याणकर है कि इसके श्रवणमात्र से मनुष्य स्वर्गलोक को जा सकता है, अथवा ध्रुवलोक को प्राप्त कर सकता है। देवता भी प्रसन्न होते हैं, क्योंकि यह आख्यान इतना यशस्वी है, इतना सशक्त है कि यह सारे पापकर्मों के फल का नाश करनेवाला है।

46 जो भी ध्रुव महाराज के आख्यान को सुनता है और श्रद्धा तथा भक्ति के साथ उनके शुद्ध चरित्र को समझने का बारम्बार प्रयास करता है, वह शुद्ध भक्तिमय धरातल प्राप्त करता है और शुद्ध भक्ति करता है। ऐसे कार्यों से मनुष्य भौतिक जीवन के तीनों तापों को नष्ट कर सकता है।

47 जो भी ध्रुव महाराज के इस आख्यान को सुनता है, वह उन्हीं के समान उत्तम गुणों को प्राप्त करता है। जो कोई महानता, तेज या बड़प्पन चाहता है उन्हें प्राप्त करने की विधि यही है। जो विचारवान पुरुष सम्मान चाहते हैं, उनके लिए उचित साधन यही है।

48 मैत्रेय मुनि ने संस्तुति की: मनुष्य को चाहिए कि प्रातः तथा सायंकाल अत्यन्त ध्यानपूर्वक ब्राह्मणों अथवा अन्य की संगति में ध्रुव महाराज के चरित्र तथा कार्य-कलापों का संकीर्तन करे।

49-50 जिन व्यक्तियों ने भगवान के चरणकमलों की शरण ले रखी है उन्हें किसी प्रकार का पारिश्रमिक लिये बिना ही ध्रुव महाराज के इस आख्यान को सुनाना चाहिए। विशेष रूप से पूर्णमासी, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र के प्रकट होने पर, तिथिक्षय पर या व्यतिपात के अवसर पर, मास के अन्त में या रविवार को यह आख्यान सुनाया जाए। निस्सन्देह, इसे अनुकूल श्रोताओं के समक्ष सुनाएँ। इस प्रकार बिना किसी व्यावसायिक उद्देश्य के सुनाने पर वाचक तथा श्रोता दोनों सिद्ध हो जाते हैं।

51 ध्रुव महाराज का आख्यान अमरता प्राप्त करने के लिए परम ज्ञान है। जो लोग परम सत्य से अवगत नहीं हैं, उन्हें सत्य के मार्ग पर ले जाया जा सकता है। जो लोग दिव्य कृपा के कारण दीन जीवात्माओं के रक्षक बनने का उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं, उन्हें स्वतः ही देवताओं की कृपा तथा आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।

52 ध्रुव महाराज के दिव्य कार्य सारे संसार में विख्यात हैं और वे अत्यन्त शुद्ध हैं। बचपन में ध्रुव महाराज ने सभी खिलौने तथा खेल की वस्तुओं का तिरस्कार किया, अपनी माता का संरक्षण त्यागा और भगवान विष्णु की शरण ग्रहण की। अतः हे विदुर, मैं इस आख्यान को समाप्त करता हूँ, क्योंकि तुमसे इसके बारे में विस्तार से कह चुका हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस युग के लिए एक अच्छा अस्त्र प्रदान किया है, जैसा कि भागवत में कथित है - सांगोपांगास्त्र - इस युग में माया को भगाने का नारायणास्त्र ---

हरे कृष्ण मंत्र का जप है, जिस पर भगवान चैतन्य के पार्षदों-अद्वैत प्रभु, नित्यानन्द, गदाधर तथा श्रीवास - ने बल दिया है।     तात्पर्य श्रीमद भागवतम 4.11.1 श्रील प्रभुपाद

अध्याय ग्यारह – युद्ध बन्द करने के लिए ध्रुव को स्वायम्भुव मनु की सलाह (4.11)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, जब ध्रुव महाराज ने ऋषियों के प्रेरक शब्द सुने तो उन्होंने जल लेकर आचमन किया और भगवान नारायण द्वारा निर्मित बाण लेकर उसे अपने धनुष पर चढ़ाया।

2 जैसे ही ध्रुव महाराज ने अपने धनुष पर नारायणास्त्र को चढ़ाया, वैसे ही यक्षों द्वारा रची गई सारी माया उसी प्रकार तुरन्त दूर हो गई जिस प्रकार कि आत्मज्ञान होने पर समस्त भौतिक क्लेश तथा सुख विनष्ट हो जाते हैं।

3 ध्रुव महाराज ने जैसे ही अपने धनुष पर नारायण ऋषि द्वारा निर्मित अस्त्र को चढ़ाया, उससे सुनहरे फलों तथा पंखोंवाले बाण हंस के पंखों के समान बाहर निकलने लगे। वे फूत्कार करते हुए शत्रु सैनिकों में उसी प्रकार घुसने लगे जिस प्रकार मोर केका ध्वनि करते हुए जंगल में प्रवेश करते हैं।

4 उन तीखी धारवाले बाणों ने शत्रु-सैनिकों को विचलित कर दिया, और वे प्रायः मूर्छित हो गये। किन्तु ध्रुव महाराज से क्रुद्ध होकर यक्षगण युद्धक्षेत्र में किसी न किसी प्रकार अपने-अपने हथियार लेकर एकत्र हो गये और उन्होंने आक्रमण कर दिया। जिस प्रकार गरुड़ के छेड़ने पर सर्प अपना-अपना फन उठाकर गरुड़ की ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार समस्त यक्ष सैनिक अपने-अपने हथियार उठाये ध्रुव महाराज को जीतने की तैयारी करने लगे।

5 जब ध्रुव महाराज ने यक्षों को आगे बढ़ते देखा तो उन्होंने तुरन्त बाणों को चढ़ा लिया और शत्रुओं को खण्ड-खण्ड कर डाला। शरीरों से बाहु, पाँव, सिर तथा उदर अलग-अलग करके उन्होंने यक्षों को सूर्य मण्डल के ऊपर स्थित लोकों में भेज दिया, जो केवल श्रेष्ठ ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारियों को प्राप्त हो पाता है।

6 जब स्वायम्भुव मनु ने देखा कि उनका पौत्र ध्रुव ऐसे अनेक यक्षों का वध कर रहा है, जो वास्तव में अपराधी नहीं है, तो वे करुणावश ऋषियों को साथ लेकर ध्रुव के पास उन्हें सदुपदेश देने गये।

7 श्री मनु ने कहा: हे पुत्र, बस करो। व्यर्थ ही क्रोध करना अच्छा नहीं--यह तो नारकीय जीवन का मार्ग है। अब तुम यक्षों को मार कर अपनी सीमा से परे जा रहे हो, क्योंकि ये वास्तव में अपराधी नहीं है।

8 हे पुत्र, तुम निर्दोष यक्षों का जो यह वध कर रहे हो वह न तो अधिकृत पुरुषों द्वारा स्वीकार्य है और न यह हमारे कुल को शोभा देनेवाला है क्योंकि तुमसे आशा की जाती है कि तुम धर्म तथा अधर्म के विधानों को जानो।

9 हे पुत्र, यह सिद्ध हो चुका है कि तुम अपने भाई के प्रति कितने वत्सल हो और यक्षों द्वारा उसके मारे जाने से तुम कितने सन्तप्त हो, किन्तु जरा सोचो तो कि केवल एक यक्ष के अपराध के कारण तुमने कितने अन्य निर्दोष यक्षों का वध कर दिया है।

10 मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर को आत्मा न माने और इस प्रकार पशुओं की भाँति अन्यों का वध न करे। भगवान की भक्ति के पथ का अनुसरण करनेवाले साधू पुरुषों ने इसे विशेष रूप से वर्जित किया है।

11 वैकुण्ठलोक में हरि के धाम को प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है; किन्तु तुम इतने भाग्यशाली हो कि समस्त जीवात्माओं के परमधाम भगवान की पूजा द्वारा तुम्हारा उस धाम को जाना निश्चित हो चुका है।

12 भगवान के शुद्ध भक्त होने के कारण भगवान सदैव तुम्हारे बारे में सोचते रहते हैं और तुम भी उनके सभी परम विश्वस्त भक्तों द्वारा मान्य हो। तुम्हारा जीवन आदर्श आचरण के निमित्त है। अतः मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुमने ऐसा निन्दनीय कार्य कैसे किया।

13 भगवान अपने भक्तों से तब अत्यधिक प्रसन्न होते हैं जब वे अन्य लोगों के साथ सहिष्णुता, दया, मैत्री तथा समता का बर्ताव करते हैं।

14 जो मनुष्य अपने जीवनकाल में भगवान को सचमुच प्रसन्न कर लेता है, वह स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक परिस्थितियों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार समस्त भौतिक गुणों से छूटकर वह अनन्त आत्म-आनन्द प्राप्त करता है।

15 भौतिक जगत की सृष्टि पाँच तत्त्वों से प्रारम्भ होती है और इस तरह प्रत्येक वस्तु, जिसमें पुरुष अथवा स्त्री का शरीर भी सम्मिलित है, इन तत्त्वों से उत्पन्न होती है। पुरुष तथा स्त्री के संयोग से इस जगत में पुरुषों तथा स्त्रियों की संख्या में और वृद्धि होती है।

16 मनु ने आगे कहा: हे राजा ध्रुव, भगवान की मोहमयी भौतिक शक्ति के द्वारा तथा भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों की पारस्परिक क्रिया से ही सृजन, पालन तथा संहार होता रहता है।

17 हे ध्रुव, भगवान प्रकृति के गुणों के द्वारा कलुषित नहीं होते। वे इस भौतिक दृश्य जगत की उत्पत्ति के दूरस्थ कारण (निमित्त) हैं। उनकी प्रेरणा से अन्य अनेक कारण तथा कार्य उत्पन्न होते हैं और तब यह सारा ब्रह्माण्ड उसी प्रकार घूमता है जैसे की लोहा चुम्बक की संचित शक्ति से घूमता है।

18 भगवान अपनी अचिन्त्य काल-रूप परम शक्ति से प्रकृति के तीनों गुणों में अन्योन्य क्रिया उत्पन्न करते हैं जिससे नाना प्रकार की शक्तियाँ प्रकट होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे क्रियाशील हैं, किन्तु वे कर्ता नहीं है। वे संहार तो करते हैं, किन्तु संहारकर्ता नहीं हैं। अतः यह माना जाता है कि केवल उनकी अचिन्तनीय शक्ति से सब कुछ घट रहा है।

19 हे ध्रुव, भगवान नित्य हैं, किन्तु कालरूप में वे सबों को मारनेवाले हैं। उनका आदि नहीं हैं, यद्यपि वे हर वस्तु के आदि कर्ता हैं। वे अव्यय हैं, यद्यपि कालक्रम में हर वस्तु चुक जाती है। जीवात्मा की उत्पत्ति पिता के माध्यम से होती है और मृत्यु द्वारा उसका विनाश होता है, किन्तु भगवान जन्म तथा मृत्यु से सदा मुक्त हैं।

20 अपने शाश्वत काल रूप में श्रीभगवान इस भौतिक जगत में विद्यमान हैं और सबों के प्रति समभाव रखनेवाले हैं। न तो उनका कोई मित्र है, न शत्रु। काल की परिधि में हर कोई अपने कर्मों का फल भोगता है। जिस प्रकार वायु के चलने पर क्षुद्र धूल के कण हवा में उड़ते हैं, उसी प्रकार अपने कर्म के अनुसार मनुष्य भौतिक जीवन का सुख भोगता या कष्ट उठाता है।

21 भगवान विष्णु सर्वशक्तिमान हैं और वे प्रत्येक को सकाम कर्मों का फल देते हैं। इस प्रकार जीवात्मा चाहे अल्पजीवी हो या दीर्घजीवी, भगवान तो सदा ही दिव्य पद पर रहते हैं और उनकी जीवन-अवधि के घटने या बढ़ने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

22 कुछ लोग विभिन्न योनियों तथा उनके सुख-दुख में पाये जाने वाले अन्तर को कर्म-फल बताते हैं। कुछ इसे प्रकृति के कारण, अन्य लोग काल तथा भाग्य के कारण और शेष इच्छाओं के कारण बताते हैं।

23 परम सत्य अर्थात सत्त्व कभी भी अपूर्ण ऐन्द्रिय प्रयास द्वारा जानने का विषय नहीं रहा है, न ही उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। वह पूर्ण भौतिक शक्ति सदृश नाना प्रकार की शक्तियों का स्वामी है और उसकी योजना या कार्यों को कोई भी नहीं समझ सकता। अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि वे समस्त कारणों के आदि कारणस्वरूप हैं, अतः उन्हें कल्पना द्वारा नहीं जाना जा सकता।

24 हे पुत्र, वे कुबेर के अनुचर यक्षगण तुम्हारे भाई के वास्तविक हत्यारे नहीं हैं; प्रत्येक जीवात्मा का जन्म तथा मृत्यु तो समस्त कारणों के कारण परमेश्वर द्वारा ही तय होता है।

25 भगवान ही इस भौतिक जगत की सृष्टि करते, पालते और यथासमय संहार करते हैं, किन्तु ऐसे कार्यों से परे रहने के कारण वे इनमें न तो अहंकार से और न प्रकृति के गुणों द्वारा प्रभावित होते हैं।

26 भगवान समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं। वे हर एक के नियामक तथा पालक हैं; वे अपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से सभी जीवों का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं।

27 हे बालक ध्रुव, तुम भगवान की शरण में जाओ जो जगत की प्रगति के चरम लक्ष्य हैं। ब्रह्मादि सहित सभी देवगण उनके नियंत्रण में कार्य कर रहे हैं, जिस प्रकार नाक में रस्सी पड़ा बैल अपने स्वामी द्वारा नियंत्रित किया जाता है।

28 हे ध्रुव, तुम केवल पाँच वर्ष की आयु में ही अपनी माता की सौत के वचनों से अत्यन्त दुखी हुए और बड़ी बहादुरी से अपनी माता का संरक्षण त्याग दिया तथा भगवान का साक्षात्कार करने के उद्देश्य से योगाभ्यास में संलग्न होने के लिए जंगल चले गए थे। इस कारण तुमने पहले से ही तीनों लोकों में सर्वोच्च पद प्राप्त कर लिया है।

29 अतः हे ध्रुव, अपना ध्यान परम पुरुष अच्युत ब्रह्म की ओर लगाओ। तुम अपनी मूल स्थिति में रह कर भगवान का दर्शन करो। इस तरह आत्म-साक्षात्कार द्वारा तुम इस भौतिक अन्तर को क्षणिक पाओगे।

30 इस प्रकार अपनी सहज स्थिति प्राप्त करके तथा समस्त आनन्द के सर्व शक्तिसम्पन्न आगार तथा प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा रूप में स्थित परमेश्वर की सेवा करके तुम तुरन्त ही "मैं" तथा "मेरा" के मायाजनित बोध को भूल जाओगे।

31 हे राजन, मैंने तुम्हें जो कुछ कहा है, उस पर विचार करो। यह रोग पर औषधि के समान काम करेगा। अपने क्रोध को रोको, क्योंकि आत्मबोध के मार्ग में क्रोध सबसे बड़ा शत्रु है। मैं तुम्हारे मंगल की कामना करता हूँ। तुम मेरे उपदेशों का पालन करो।

32 जो व्यक्ति इस भौतिक जगत से मुक्ति चाहता है उसे चाहिए कि वह क्रोध के वशीभूत न हो, क्योंकि क्रोध से मोहग्रस्त होने पर वह अन्य सबों के लिए भय का कारण बन जाता है।

33 हे ध्रुव, तुमने सोचा कि यक्षों ने तुम्हारे भाई का वध किया है, अतः तुमने अनेक यक्षों को मार डाला है। किन्तु इस कृत्य से तुमने शिवजी के भ्राता एवं देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर के मन को क्षुब्ध कर दिया है। विचार करो कि तुम्हारे ये कर्म कुबेर तथा शिव दोनों के प्रति अतीव अवज्ञापूर्ण हैं।

34 इस कारण, हे पुत्र, तुम विनीत वचनों तथा प्रार्थना द्वारा कुबेर को शीघ्र शान्त कर लो जिससे कि उनका कोप हमारे परिवार को किसी तरह प्रभावित न कर सके।

35 इस प्रकार जब स्वायम्भुव मनु अपने पौत्र ध्रुव महाराज को शिक्षा दे चुके तो ध्रुव ने उन्हें सादर नमस्कार किया। फिर ऋषियों समेत मनु अपने धाम को चले गये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दस – यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध (4.10)

1 मैत्रेय ऋषि ने कहा: हे विदुर, तत्पश्चात ध्रुव महाराज ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री के साथ विवाह कर लिया जिसका नाम भ्रमि था। उनके कल्प तथा वत्सर नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।

2 अत्यन्त शक्तिशाली ध्रुव महाराज की एक दूसरी पत्नी थी, जिसका नाम इला था और वह वायुदेव की पुत्री थी। उससे उन्हें एक अत्यन्त सुन्दर कन्या तथा उत्कल नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

3 ध्रुव महाराज का छोटा भाई उत्तम, जो अभी तक अनब्याहा था, एक बार आखेट करने गया और हिमालय पर्वत में एक शक्तिशाली यक्ष द्वारा मार डाला गया। उसकी माता सुरुचि ने भी अपने पुत्र के पथ का अनुसरण किया (अर्थात मर गई)

4 जब ध्रुव महाराज ने यक्षों द्वारा हिमालय पर्वत में अपने भाई उत्तम के वध का समाचार सुना तो वे शोक तथा क्रोध से अभिभूत हो गये। वे रथ पर सवार हुए और यक्षों की पुरी (अलकापुरी) पर विजय करने के लिए निकल पड़े।

5 ध्रुव महाराज हिमालय प्रखण्ड की उत्तरी दिशा की ओर गये। उन्होंने घाटी में एक नगरी देखी जो शिव के अनुचर भूत-प्रेतों से भरी पड़ी थी।

6 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, जैसे ही ध्रुव महाराज अलकापुरी पहुँचे, उन्होंने तुरन्त अपना शंख बजाया जिसकी ध्वनि सम्पूर्ण आकाश तथा प्रत्येक दिशा में गूँजने लगी। यक्षों की पत्नियाँ अत्यन्त भयभीत हो उठीं। उनके नेत्रों से प्रकट हो रहा था कि वे चिन्ता से परिपूर्ण थीं।

7 हे वीर विदुर, ध्रुव महाराज के शंख की गूँजती ध्वनि को सहन न कर सकने के कारण यक्षों के महा-शक्तिशाली सैनिक अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर नगरी से बाहर निकल आये और उन्होंने ध्रुव पर धावा बोल दिया।

8 ध्रुव महाराज, जो महारथी तथा निश्चय ही महान धनुर्धर भी थे, तुरन्त ही एकसाथ तीन-तीन बाण छोड़ कर उन्हें मारने लगे।

9 जब यक्ष वीरों ने देखा कि उनके सिरों पर ध्रुव महाराज द्वारा बाण-वर्षा की जा रही है, तो उन्हें अपनी विषम स्थिति का पता चला और उन्होंने यह समझ लिया कि उनकी हार निश्चित है। किन्तु वीर होने के नाते उन्होंने ध्रुव के कार्य की सराहना की।

10 जिस प्रकार सर्प किसी के पाँव द्वारा कुचले जाने को सहन नहीं कर पाते, उसी प्रकार यक्ष भी ध्रुव महाराज के आश्चर्यजनक पराक्रम को न सह सकने के कारण, उन पर एक साथ उनसे दुगुने बाण-अर्थात प्रत्येक सैनिक छह-छह बाण छोड़ने लगे और इस प्रकार उन्होंने अपनी शूरवीरता का बड़ी बहादुरी से प्रदर्शन किया।

11-12 यक्ष सैनिकों की संख्या एक लाख तीस हजार थी; वे सभी अत्यन्त क्रुद्ध थे और ध्रुव महाराज के आश्चर्यजनक कार्यों को विफल करने की इच्छा लिए थे। उन्होंने पूरी शक्ति से महाराज ध्रुव तथा उनके रथ तथा सारथी पर विभिन्न प्रकार के पंखदार बाणों, परिघों, निरिंत्रशॉ (तलवारों), प्रासशूलों (त्रिशूलों), पर्श्वधों (बरछों), शक्तियों, ऋष्टियों (भालों) तथा भृशुण्डियों से वर्षा की।

13 ध्रुव महाराज आयुधों की निरन्तर वर्षा से पूरी तरह ढक गये मानो निरन्तर जल-वृष्टि से कोई पर्वत ढक गया हो।

14 स्वर्गलोकवासी सभी सिद्धजन आकाश से युद्ध देख रहे थे और जब उन्होंने देखा कि ध्रुव महाराज शत्रु की निरन्तर बाण-वर्षा से ढक गये हैं, तो वे हाहाकार करने लगे, “मनु के पौत्र ध्रुव हार गये, हार गये।" वे चिल्ला रहे थे कि ध्रुव महाराज तो सूर्य के समान हैं और इस समय वे यक्षों के समुद्र में डूब गए हैं।

15 क्षणिक विजय जैसी स्थिति देखकर यक्षों ने घोषित कर दिया कि उन्होंने ध्रुव महाराज पर विजय प्राप्त कर ली है। किन्तु तभी ध्रुव का रथ एकाएक प्रकट हुआ, जैसे कुहरे को भेदकर सूर्य सहसा प्रकट हो जाता है।

16 ध्रुव महाराज के धनुष-बाण टनकार तथा फूत्कार करने लगे जिससे उनके शत्रुओं के हृदय में त्रास उत्पन्न होने लगा। वे निरन्तर बाण बरसाने लगे, जिससे सभी के विभिन्न हथियार वैसे ही तितर-बितर हो गये, जिस प्रकार प्रबल वायु से आकाश में एकत्र बादल बिखर जाते हैं।

17 ध्रुव महाराज के धनुष से छूटे हुए प्रखर बाण शत्रुओं के कवचों तथा शरीरों में घुसने लगे, मानो स्वर्ग के राजा द्वारा छोड़ा गया वज्र हो, जो पर्वतों के शरीरों को छिन्न-भिन्न कर देता है।

18-19 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, ध्रुव महाराज के बाणों से जो सिर छिन्न-भिन्न हुए थे वे सुन्दर कुण्डलों तथा पागों से अच्छी तरह से अलंकृत थे। उन शरीरों के पाँव सुनहरे ताड़ के वृक्षों के समान सुन्दर थे; उनकी भुजाएँ सुनहरे कंकणों तथा बाजूबन्दों से सुसज्जित थीं और उनके सिरों पर बहुमूल्य सुनहरे मुकुट थे। युद्ध भूमि में बिखरे हुए ये आभूषण अत्यन्त आकर्षक लग रहे थे और किसी भी वीर के मन को मोह सकते थे।

20 जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बच गए, उनके अंग-प्रत्यंग परम वीर ध्रुव महाराज के बाणों से कट कर खण्ड-खण्ड हो गये। वे युद्ध-भूमि छोड़ कर उसी तरह भागने लगे जैसे कि सिंह द्वारा पराजित होने पर हाथी भागते हैं।

21 मानवों में श्रेष्ठ ध्रुव महाराज ने देखा कि उस विशाल युद्धभूमि में एक भी सशस्त्र सैनिक नहीं रहा। तब उनकी इच्छा अलकापुरी देखने को हुई। किन्तु उन्होंने मन में सोचा, “यक्षों की मायावी योजनाओं को कोई नहीं जानता।”

22 जब ध्रुव महाराज अपने मायावी शत्रुओं से सशंकित होकर अपने सारथी से बातें कर रहे थे तो उन्हें प्रचण्ड ध्वनि सुनाई पड़ी, मानो सम्पूर्ण समुद्र उमड़ आया हो। उन्होंने देखा कि आकाश से उन पर चारों ओर से धूल भरी आँधी आ रही है।

23 एक क्षण में सारा आकाश घने बादलों से छा गया और घोर गर्जन सुनाई पड़ने लगा। बिजली चमकने लगी और भीषण वर्षा होने लगी।

24 हे निष्पाप विदुर, उस वर्षा में ध्रुव महाराज के समक्ष भारी मात्रा में रक्त, श्लेष्मा (कफ), पीब, मल, मूत्र तथा मज्जा और आकाश से शरीरों के धड़ (रुण्ड) गिर रहे थे।

25 फिर आकाश में एक विशाल पर्वत दिखाई पड़ा और चारों ओर से बर्छे, गदा, तलवारें, परिघ तथा पत्थरों के विशाल खण्डों की वर्षा के साथ उपलवृष्टि होने लगी।

26 ध्रुव महाराज ने देखा कि रोषपूर्ण आँखों वाले बहुत से सर्प अग्नि उगलते हुए उनको निगलने के लिए आगे लपक रहे हैं। साथ ही मत्त हाथियों, सिंहों तथा बाघों के समूह भी चले आ रहे हैं।

27 फिर, समस्त जगत के लिए प्रलय-काल के समान भयानक समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों तथा भीषण गर्जना के साथ उनके समक्ष आ पहुँचा।

28 असुर-यक्ष स्वभाव से अत्यन्त क्रूर होते हैं और अपनी आसुरी माया से वे अल्पज्ञानियों को डराने वाले अनेक कौतुक कर सकते थे।

29 जब मुनियों ने सुना कि ध्रुव महाराज असुरों के मायावी करतबों से पराजित हो गये हैं, तो वे उनकी मंगल-कामना के लिए तुरन्त वहाँ एकत्र हो गये।

30 सभी मुनियों ने कहा: हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव, अपने भक्तों के क्लेशों को हरनेवाले शार्ङ्गधन्वा भगवान आपके भयानक शत्रुओं का संहार करें। भगवान का पवित्र नाम भगवान के ही समान शक्तिमान है, अतः भगवान के पवित्र नाम के कीर्तन तथा श्रवण-मात्र से अनेक लोग भयानक मृत्यु से रक्षा पा सकते हैं। इस प्रकार भक्त बच जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय नौ – ध्रुव महाराज का घर लौटना(4.9)

1 महर्षि मैत्रेय ने विदुर से कहा: जब भगवान ने देवताओं को इस प्रकार फिर से आश्वासन दिलाया तो वे समस्त प्रकार के भय से मुक्त हो गये और वे सब उन्हें नमस्कार करके अपने-अपने देवलोकों को चले गये। तब भगवान, जो साक्षात सहस्रशीर्ष अवतार हैं, गरुड़ पर सवार हुए और अपने दास ध्रुव को देखने के लिए मधुवन गये।

2 ध्रुव महाराज अपने प्रखर योगाभ्यास के समय भगवान के जिस बिजली सदृश तेजमान रूप के ध्यान में निमग्न थे, वह सहसा विलीन हो गया। फलतः ध्रुव अत्यन्त विचलित हो उठे और उनका ध्यान टूट गया। किन्तु ज्योंही उन्होंने अपने नेत्र खोले, वैसे ही उन्होंने अपने समक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को उसी रूप में साक्षात उपस्थित देखा, जिस रूप का दर्शन वे अपने हृदय में कर रहे थे।

3 जब ध्रुव महाराज ने भगवान को अपने सम्मुख देखा तो वे अत्यन्त विह्वल हो उठे और उन्होंने उनका सादर अभिवादन किया। वे उनके समक्ष दण्ड के समान गिर पड़े और भगवत्प्रेम में मग्न हो गये। आनन्द में ध्रुव महाराज भगवान को इस प्रकार देख रहे थे, मानो उन्हें आँखों से पी रहे हों, उनके चरणकमलों को अपने मुख से चूम रहे हों और उन्हें अपनी भुजाओं में भर रहे हों।

4 यद्यपि ध्रुव महाराज छोटे से बालक थे, किन्तु वे उपयुक्त शब्दों में भगवान की स्तुति करना चाह रहे थे, किन्तु अनुभवहीन होने के कारण वे तुरन्त अपने को सँभाल नहीं सके। प्रत्येक हृदय में वास करनेवाले भगवान ध्रुव महाराज की विषम स्थिति को समझ गये। अतः अपनी अहैतुकी कृपा से उन्होंने अपने समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हुए ध्रुव महाराज के मस्तक पर अपना शंख छुआ दिया।

5 उस समय ध्रुव महाराज को वैदिक निष्कर्ष का पूर्ण ज्ञान हो गया और वे परम सत्य तथा सभी जीवात्माओं से उनके सम्बन्ध को जान गये। भगवान के सेवाभाव के अनुसार विश्व – विख्यात ध्रुव ने, जिन्हें शीघ्र ही ऐसे लोक की प्राप्ति होनेवाली थी, जो कभी भी यहाँ तक कि प्रलय काल में विनष्ट न होने वाला है, सहज भाव से सोदेश्य व निर्णयात्मक स्तुति की।

6 ध्रुव महाराज ने कहा: हे भगवन, आप सर्वशक्तिमान हैं। मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर आपने मेरी सभी सोई हुई इन्द्रियों को – हाथों, पाँवों, स्पर्शेन्द्रिय, प्राण तथा मेरी वाणी को – जागृत कर दिया है। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

7 हे भगवन आप सर्वश्रेष्ठ हैं, किन्तु आप आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में अपनी विभिन्न शक्तियों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट होते रहते हैं। आप अपनी बहिरंगा शक्ति से भौतिक जगत की समस्त शक्ति को उत्पन्न करके बाद में भौतिक जगत में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं। आप परम पुरुष हैं, और क्षणिक गुणों से अनेक प्रकार की सृष्टि करते हैं, जिस प्रकार की अग्नि विभिन्न आकार के काष्ठखण्डों में प्रविष्ट होकर विविध रूपों में चमकती हुई जलती है।

8 हे स्वामी, ब्रह्मा पूर्ण रूप से आपके शरणागत हैं। आरम्भ में आपने उन्हें ज्ञान दिया तो वे समस्त ब्रह्माण्ड को उसी तरह देख और समझ पाये जिस प्रकार कोई मनुष्य नींद से जगकर तुरन्त अपने कार्य समझने लगता है। आप मुक्तिकामी समस्त पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं और आप समस्त दीन-दुखियों के मित्र हैं। अतः पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वान पुरुष आपको किस प्रकार भुला सकता है?

9 जो व्यक्ति इस चमड़े के थैले (शवतुल्य देह) की इन्द्रियतृप्ति के लिए ही आपकी पूजा करते हैं, वे निश्चय ही आपकी माया द्वारा प्रभावित हैं। आप जैसे कल्पवृक्ष तथा जन्म-मृत्यु से मुक्ति के कारण को पार करके भी मेरे समान मूर्ख व्यक्ति आपसे इन्द्रियतृप्ति हेतु वरदान चाहते हैं, जो नरक में रहनेवाले व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध हैं।

10 हे भगवन, आपके चरणकमलों के ध्यान से या शुद्ध भक्तों से आपकी महिमा का श्रवण करने से जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, वह उस ब्रह्मानन्द अवस्था से कहीं बढ़कर है, जिसमें मनुष्य अपने को निर्गुण ब्रह्म से तदाकार हुआ सोचता है। चूँकि ब्रह्मानन्द भी भक्ति से मिलनेवाले दिव्य आनन्द से परास्त हो जाता है, अतः उस क्षणिक आनन्दमयता का क्या कहना, जिसमें कोई स्वर्ग तक पहुँच जाये और जो कालरूपी तलवार के द्वारा विनष्ट हो जाता है? भले ही कोई स्वर्ग तक क्यों न उठ जाये, कालक्रम में वह नीचे गिर जाता है।

11 ध्रुव महाराज ने आगे कहा: हे अनन्त भगवान, कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं उन महान भक्तों की संगति कर सकूँ जो आपकी दिव्य प्रेमा भक्ति में उसी प्रकार निरन्तर लगे रहते हैं जिस प्रकार नदी की तरंगें लगातार बहती रहती हैं। ऐसे दिव्य भक्त नितान्त कल्मषरहित जीवन बिताते हैं। मुझे विश्वास है कि भक्तियोग से मैं संसार रूपी अज्ञान के सागर को पार कर सकूँगा जिसमें अग्नि की लपटों के समान भयंकर संकटों की लहरें उठ रही हैं। यह मेरे लिए सरल रहेगा, क्योंकि मैं आपके दिव्य गुणों तथा लीलाओं को सुनने के लिए पागल हो रहा हूँ, जिनका अस्तित्व शाश्वत है।

12 हे कमलनाभ भगवान, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे भक्त की संगति करता है, जिसका हृदय सदैव आपके चरणकमलों की सुगन्ध में लुब्ध रहता है, तो वह न तो कभी अपने भौतिक शरीर के प्रति आसक्त रहता है और न सन्तति, मित्र, घर, सम्पत्ति तथा पत्नी के प्रति देहात्मबुद्धि रखता है, जो भौतिकतावादी पुरुषों को अत्यन्त ही प्रिय हैं। वस्तुतः वह उसकी तनिक भी परवाह नहीं करता।

13 हे भगवन, हे परम अजन्मा, मैं जानता हूँ कि जीवात्माओं की विभिन्न योनियाँ, यथा पशु, पक्षी, रेंगनेवाले जीव, देवता तथा मनुष्य सारे ब्रह्माण्ड में फैली हुई हैं, जो समग्र भौतिक शक्ति से उत्पन्न हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि ये कभी प्रकट रूप में रहती है, तो कभी अप्रकट रूप में, किन्तु मैंने ऐसा परम रूप कभी नहीं देखा जैसा कि अब आपका देख रहा हूँ। अब किसी भी सिद्धान्त के बनाने की आवश्यकता नहीं रह गई है।

14 हे भगवन, प्रत्येक कल्प के अन्त में भगवान गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्माण्ड में दिखाई पड़नेवाली प्रत्येक वस्तु को अपने उदर में समाहित कर लेते हैं। वे शेषनाग की गोद में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से एक डंठल में से सुनहला कमल-पुष्प फूट निकलता है और इस कमल-पुष्प पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं। मैं समझ सकता हूँ कि आप वही परमेश्वर हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

15 हे भगवन, अपनी अखण्ड दिव्य चितवन से आप बौद्धिक कार्यों की समस्त अवस्थाओं के परम साक्षी हैं। आप शाश्वत-मुक्त हैं, आप शुद्ध सत्व में विद्यमान रहते हैं और अपरिवर्तित परमात्मा रूप में विद्यमान हैं। आप छह ऐश्वर्यों से युक्त आदि भगवान है और भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के शाश्वत स्वामी हैं। इस प्रकार आप सामान्य जीवात्माओं से सदैव भिन्न रहते हैं। विष्णु रूप में आप सारे ब्रह्माण्ड के कार्यों का लेखा-जोखा रखते हैं, तो भी आप पृथक रहते हैं और समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

16 हे भगवन, ब्रह्म के आपके निर्गुण प्राकट्य में सदैव दो विरोधी तत्त्व रहते हैं – ज्ञान तथा अविद्या। आपकी विविध शक्तियाँ निरन्तर प्रकट होती हैं, किन्तु निर्गुण ब्रह्म, जो अविभाज्य, आदि, अपरिवर्तित, असीम तथा आनन्दमय है, भौतिक जगत का कारण है। चूँकि आप वही निर्गुण ब्रह्म हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

17 हे भगवन, हे परमेश्वर, आप सभी वरों के परम साक्षात रूप हैं, अतः जो बिना किसी कामना के आपकी भक्ति पर दृढ़ रहता है, उसके लिए राजा बनने तथा राज करने की अपेक्षा आपके चरणकमलों की रज श्रेयस्कर है। आपके चरणकमल की पूजा का यही वरदान है। आप अपनी अहैतुकी कृपा से मुझ जैसे अज्ञानी भक्त के लिए पूर्ण परिपालक हैं, जिस प्रकार गाय अपने नवजात बछड़े को दूध पिलाती है और हमले से उसकी रक्षा करके उसकी देखभाल करती है।

18 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, जब सदविचारों से पूर्ण अन्तःकरण वाले ध्रुव महाराज ने अपनी प्रार्थना समाप्त की तो अपने भक्तों तथा दासों पर अत्यन्त दयालु भगवान ने उन्हें बधाई दी और इस प्रकार कहा।

19 भगवान ने कहा: हे राजपुत्र ध्रुव, तुमने पवित्र व्रतों का पालन किया है और मैं तुम्हारी आन्तरिक इच्छा भी जानता हूँ। यद्यपि तुम अत्यन्त महत्वाकांक्षी हो और तुम्हारी इच्छा को पूरा कर पाना कठिन है, तो भी मैं उसे पूरा करूँगा। तुम्हारा कल्याण हो।

20-21 भगवान ने आगे कहा: हे ध्रुव, मैं तुम्हें ध्रुव नामक देदीप्यमान ग्रह प्रदान करूँगा जो कल्पान्त में प्रलय के बाद भी अस्तित्व में रहेगा। अभी तक उस ग्रह में किसी ने राज्य नहीं किया है; तथा वह समस्त सौर मण्डल, ग्रहों तथा नक्षत्रों से घिरा हुआ है। आकाश में सभी ज्योतिष्क इसी ग्रह की प्रदक्षिणा करते हैं, जिस प्रकार कि अनाज को कूटने के लिए सारे बैल एक केन्द्रीय लट्ठे के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। धर्म, अग्नि, कश्यप तथा शुक्र जैसे ऋषियों द्वारा बसाये गये सभी तारे ध्रुवतारे को अपनी दाईं ओर रखकर उसकी परिक्रमा करते हैं, जो अन्यों के विनष्ट हो जाने पर भी इसी प्रकार बना रहता है।

22 जब तुम्हारे पिता तुम्हें अपने राज्य का शासन देकर जंगल के लिए प्रस्थान करेंगे तो तुम लगातार छत्तीस हजार वर्षों तक सारे संसार पर राज्य करोगे और तुम्हारी सारी इन्द्रियाँ उतनी ही शक्तिशाली बनी रहेंगी जितनी कि वे आज हैं। तुम कभी वृद्ध नहीं होगे।

23 भगवान ने आगे कहा: निकट भविष्य में तुम्हारा भाई उत्तम जंगल में शिकार करने जाएगा और जब वह शिकार में मग्न रहेगा तो मार डाला जाएगा। तुम्हारी विमाता सुरुचि अपने पुत्र की मृत्यु से पागल होकर उसकी खोज करने जंगल में जाएगी, किन्तु वहाँ वह दावाग्नि में मारी जाएगी।

24 भगवान ने आगे कहा: मैं समस्त यज्ञों का हृदय हूँ। तुम अनेक बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न करोगे और प्रचुर दान भी दोगे। इस प्रकार तुम इस जीवन में भौतिक सुख के वरदान को भोग सकोगे और अपनी मृत्यु के समय तुम मेरा स्मरण कर सकोगे।

25 भगवान ने आगे कहा: हे ध्रुव, इस देह में अपने भौतिक जीवन के पश्चात तुम मेरे लोक को जाओगे जो अन्य समस्त लोकों के वासियों द्वारा सदैव वन्दनीय है। यह सप्त-ऋषि के लोकों के ऊपर स्थित है और वहाँ जाने के बाद तुम को इस भौतिक जगत में फिर कभी नहीं लौटना पड़ेगा।

26 मैत्रेय मुनि ने कहा: बालक ध्रुव महाराज द्वारा पूजित तथा सम्मानित होकर और उन्हें अपना धाम देकर भगवान विष्णु गरुड़ की पीठ पर चढ़ कर ध्रुव के देखते-देखते अपने धाम को चले गये।

27 भगवान के चरण-कमलों की उपासना द्वारा अपने संकल्प का मनवांछित फल प्राप्त करके भी ध्रुव महाराज अत्यधिक प्रसन्न नहीं हुए। तब वे अपने घर चले गए।

28 श्री विदुर ने पूछा: हे ब्राह्मण, भगवान का धाम प्राप्त करना बहुत कठिन है। इसे केवल शुद्ध भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि अत्यन्त वत्सल तथा कृपालु भगवान केवल उसी से प्रसन्न होते हैं। ध्रुव महाराज ने इस पद को एक ही जीवन में प्राप्त कर लिया और वे थे भी बहुत बुद्धिमान और विवेकी। तो फिर वे प्रसन्न क्यों न थे?

29 मैत्रेय ने उत्तर दिया: ध्रुव महाराज का हृदय, जो अपनी विमाता के कटु वचनों के बाणों से विद्ध (आहत) हो चुका था, अत्यधिक सन्तप्त था; अतः जब उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया, तो वे उसके दुर्व्यवहार को नहीं भूल पाये थे। उन्होंने इस भौतिक जगत से वास्तविक मोक्ष की माँग नहीं की वरन अपनी भक्ति के अन्त में, जब भगवान उनके समक्ष प्रकट हुए तो वे अपनी उन भौतिक याचनाओं (माँगों) के लिए लज्जित थे, जो उनके मन में थीं।

30 ध्रुव महाराज ने मन ही मन सोचा -- भगवान के चरणकमलों की छाया में स्थित रहने का प्रयत्न करना कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि सनन्दन इत्यादि जैसे महान ब्रह्मचारियों ने भी, जिन्होंने समाधि में अष्टांग योग की साधना की, अनेक जन्मों के बाद ही भगवान के चरणारविन्द की शरण प्राप्त की है। मैंने तो छह महीनों में ही वही फल प्राप्त कर लिया है, तो भी मैं भगवान से भिन्न प्रकार से सोचने के कारण मैं अपने पद से नीचे गिर गया हूँ।

31 ओह! जरा देखो तो मैं कितना अभागा हूँ! मैं उन भगवान के चरणकमलों के पास पहुँच गया जो जन्म-मरण के चक्र की शृंखला को तुरन्त काट सकते हैं, किन्तु फिर भी अपनी मूर्खता के कारण, मैंने ऐसी वस्तुओं की याचना की, जो नाशवान हैं।

32 चूँकि सभी देवताओं को, जो उच्च लोकों में स्थित हैं फिर से नीचे आना होगा, अतः वे सभी भक्ति द्वारा मेरे विष्णुलोक को प्राप्त करने के प्रति ईर्ष्यालु हैं। इन असहिष्णु देवताओं ने मेरी बुद्धि नष्ट कर दी है और यही एकमात्र कारण है, जिससे मैं नारदमुनि के उपदेशों के आशीर्वाद को स्वीकार नहीं कर सका!

33 ध्रुव महाराज पश्चाताप करने लगे कि मैं माया के वश में था; वास्तविकता से अपरिचित होने के कारण मैं उसकी गोद में सोया था। द्वैत दृष्टि के कारण मैं अपने भाई को शत्रु समझता रहा और झूठे ही यह सोचकर मन ही मन पश्चाताप करता रहा कि वे मेरे शत्रु हैं।

34 भगवान को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु मैंने तो समस्त ब्रह्माण्ड के परमात्मा को प्रसन्न करके भी अपने लिए व्यर्थ की वस्तुएँ माँगी हैं। मेरे कार्य ठीक वैसे ही है जैसे पहले से किसी मृत व्यक्ति का उपचार करना। जरा देखो तो मैं कितना अभागा हूँ कि जन्म तथा मृत्यु की शृंखला को काटने में समर्थ परमेश्वर से साक्षात्कार कर लेने पर भी मैंने फिर उन्हीं दशाओं के लिए पुनः प्रार्थना की है।

35 पूरी तरह अपनी मूर्खता और पुण्यकर्मों की न्यूनता के कारण ही मैंने भौतिक नाम, यश तथा सम्पन्नता चाही यद्यपि भगवान ने मुझे अपनी निजी सेवा प्रदान की थी। मेरी स्थिति तो उस निर्धन व्यक्ति की-सी है, जिस बेचारे ने महान सम्राट के प्रसन्न होने पर मुँहमाँगी वस्तु माँगने के लिए कहे जाने पर अज्ञानवश चावल के कुछ कने ही माँगे।

36 महर्षि मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, आप जैसे व्यक्ति, जो मुकुन्द (मुक्तिप्रदाता भगवान) के चरणकमलों के विशुद्ध भक्त हैं और उनके चरणकमलों के भौंरों के सदृश्य आसक्त रहते हैं, सदैव भगवान के चरणकमलों की सेवा करने में ही प्रसन्न रहते हैं। ऐसे पुरुष, जीवन की किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट रहते हैं और भगवान से कभी भी किसी भौतिक सम्पन्नता की याचना नहीं करते।

37 जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उसका पुत्र ध्रुव घर वापस आ रहा है, मानो मृत्यु के पश्चात पुनर्जीवित हो रहा हो, तो उसे इस समाचार पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उसे सन्देह था कि यह हो कैसे सकता है। उसने अपने को अत्यन्त अभागा समझ लिया था, अतः उसने सोचा कि ऐसा सौभाग्य उसे कहाँ नसीब हो सकता है ?

38 यद्यपि उसे सन्देशवाहक की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, किन्तु महर्षि नारद के वचन पर उसकी सम्पूर्ण श्रद्धा थी। अतः वह इस समाचार से अत्यन्त भावविह्वल हो उठा और हर्षातिरेक में झट उसने सन्देशवाहक को एक बहुमूल्य हार भेंट कर दिया।

39-40 अपने खोये हुए पुत्र के मुख को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक राजा उत्तानपद उत्तम घोड़ों से खींचे जानेवाले तथा स्वर्णजटित रथ पर आरूढ़ हुआ। वह अपने साथ अनेक विद्वान ब्राह्मण, परिवार के गुरुजन, अधिकारी, मंत्री और अपने सगे मित्रों को लेकर तुरन्त नगर से बाहर चला गया। जब वह इस दल के साथ आगे बढ़ रहा था, तो शंख, दुन्दुभी, वंशी तथा वेद-मंत्रों के उच्चारण की मंगलसूचक ध्वनि हो रही थी।

41 उसकी स्वागत-यात्रा में राजा उत्तानपाद की दोनों रानियाँ, सुनीति तथा सुरुचि और राजा का दूसरा पुत्र उत्तम दिख रहे थे। रानियाँ पालकी में बैठी थीं।

42-43 ध्रुव महाराज को एक उपवन के निकट पहुँचा देखकर राजा उत्तानपाद तुरन्त अपने रथ से नीचे उतर आये। वे अपने पुत्र ध्रुव को देखने के लिए दीर्घकाल से अत्यन्त उत्सुक थे, अतः वे अत्यन्त प्रेमवश दीर्घकाल से खोये अपने पुत्र का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़े। लम्बी-लम्बी साँसें भरते हुए राजा ने उनको अपने दोनों बाहुओं में भर लिया। किन्तु ध्रुव महाराज पहले जैसे न थे; वे भगवान के चरणकमलों के स्पर्श से आध्यात्मिक उन्नति मिलने से पूर्ण रूप से पवित्र हो चुके थे।

44 ध्रुव महाराज के मिलन से राजा उत्तानपाद की चिर-अभिलाषित साध पूरी हुई, अतः उन्होंने बारम्बार ध्रुव का सिर सूँघा और ठंडे अश्रुओं की धाराओं से उन्हें नहला दिया।

45 तब समस्त सज्जनों में सर्वश्रेष्ठ ध्रुव महाराज ने सर्वप्रथम अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनके पिता ने अनेक प्रश्न पूछते हुए उनका सम्मान किया। तब उन्होंने अपनी दोनों माताओं के चरणों पर अपना शीश झुकाया।

46 ध्रुव महाराज की छोटी माता सुरुचि ने यह देखकर कि निर्दोष बालक उसके चरणों पर नत है, उसे तुरन्त उठा लिया, अपनी बाँहों में भर लिया और अश्रुपूर्ण गदगद वाणी से आशीर्वाद दिया कि मेरे बालक, चिरञ्जीवी हो।

47 जिस प्रकार स्वभावगत रूप से जल नीचे की ओर बहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान के साथ मैत्रीपूर्ण आचरण के कारण दिव्य गुणों वाले स्वतः व्यक्ति को सभी जीवात्माएँ मस्तक झुकाती हैं।

48 उत्तम तथा ध्रुव महाराज दोनों भाइयों ने परस्पर अश्रुओं का आदान-प्रदान किया। वे स्नेह की अनुभूति से विभोर हो उठे और जब उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया, तो उन्हें रोमांच हो आया।

49 ध्रुव महाराज की असली माता सुनीति ने अपने पुत्र के कोमल शरीर को गले लगा लिया, क्योंकि वह उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारा था। इस प्रकार वह सारा भौतिक शोक भूल गई, क्योंकि वह परम प्रसन्न थी।

50 हे विदुर, सुनीति एक वीर की माता थी। उसके अश्रुओं ने उसके स्तनों से बहनेवाले दूध की धारा के साथ मिलकर ध्रुव महाराज के सारे शरीर को भिगो दिया। यह परम माँगलिक लक्षण था।

51 राजमहल के निवासियों ने रानी की इस प्रकार से प्रशंसा की: हे रानी, दीर्घकाल से आपका प्रिय पुत्र खोया हुआ था। यह आपका परम सौभाग्य है कि वह अब वापस आ गया है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वह दीर्घकाल तक आपकी रक्षा करेगा और आपके सारे सांसारिक कष्टों को दूर कर देगा।

52 हे रानी आपने अवश्य ही उन भगवान की पूजा की होगी, जो भक्तों को बड़े संकट से उबारनेवाले हैं। जो मनुष्य निरन्तर उनका ध्यान करते हैं, वे जन्म तथा मृत्यु की प्रक्रिया से आगे निकल जाते हैं। यह सिद्धि प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।

53 मैत्रेय मुनि ने आगे बताया: हे विदुर, सभी लोग जब इस प्रकार से ध्रुव महाराज की बड़ाई कर रहे थे तो राजा अत्यन्त प्रसन्न था। उसने ध्रुव तथा उनके भाई को एक हथिनी की पीठ पर सवार कराया। इस प्रकार वह अपनी राजधानी लौट आया, जहाँ सभी वर्ग के लोगों ने उसकी प्रशंसा की।

54 सारा नगर केले के स्तम्भों से सजाया गया था, जिनमें फूलों तथा फलों के गुच्छे लटक रहे थे और जहाँ-तहाँ पत्तियों तथा टहनियों से युक्त सुपारी के वृक्ष दिख रहे थे। ऐसे अनेक तोरण भी बनाये गये थे, जो मगर के आकार के थे।

55 द्वार-द्वार पर जलते हुए दीपक और तरह-तरह के रंगीन वस्त्र, मोती की लड़ों, पुष्पहारों तथा लटकती आम की पत्तियों से सज्जित बड़े-बड़े जल के कलश रखे हुए थे।

56 राजधानी में अनेक महल, नगर-द्वार तथा परकोटे थे, जो पहले से ही अत्यन्त सुन्दर थे, किन्तु इस अवसर पर उन्हें सुनहले आभूषणों से सजाया गया था। नगर के महलों के कँगूरे तो चमक ही रहे थे साथ ही नगर के ऊपर मँडराने वाले सुन्दर विमानों के शिखर भी।

57 नगर के सभी चौक, गलियाँ, मार्ग तथा चौराहों की अटारियाँ स्वच्छ करके चन्दन जल से छिड़की गई थीं और सारे नगर में धान तथा जौ जैसे शुभ अन्न, फूल, फल तथा अन्य अनेक शुभ उपहार-सामग्रियाँ बिखेरी हुई थीं।

58-59 इस प्रकार जब ध्रुव महाराज मार्ग से जा रहे थे तो पास-पड़ोस की समस्त भद्र महिलाएँ उन्हें देखने के लिए एकत्र हो गई, वे वात्सल्य-भाव से अपना-अपना आशीर्वाद देने लगीं और उन पर सफेद सरसों, जौ, दही, जल दूब, फल तथा फूल बरसाने लगीं। इस प्रकार ध्रुव महाराज स्त्रियों द्वारा गाये गये मनोहर गीत सुनते हुए अपने पिता के महल में प्रविष्ट हुए।

60 तत्पश्चात ध्रुव महाराज अपने पिता के महल में रहने लगे, जिसकी दीवालें अत्यन्त मूल्यवान मणियों से सज्जित थीं। उनके वत्सल पिता ने उनकी विशेष देख-रेख की और वे उस महल में उसी तरह रहने लगे, जिस प्रकार देवतागण स्वर्गलोक में अपने प्रासादों में रहते हैं।

61 महल में जो शयन-शय्या थी, वह दूध के फेन के समान श्वेत तथा अत्यन्त मुलायम थी। उसके भीतर की पलंगें हाथी-दाँत की थीं, जिनमें सोने की कारीगरी थी और कुर्सियाँ, बेंचें, अन्य आसन एवं सामान सोने के बने हुए थे। 62 राजा का महल संगमरमर की दीवालों से घिरा था, जिन पर बहुमूल्य मरकत मणियों से पच्चीकारी की गई थी और जिन पर हाथ में प्रदीप्त मणिदीपक लिए सुन्दर स्त्रियों जैसी मूर्तियाँ लगी थीं।

63 राजा के महल के चारों ओर बगीचे थे, जिनमें उच्चस्थ लोकों से लाये गये अनेक प्रकार के वृक्ष थे। इन वृक्षों पर मधुर गीत गाते पक्षियों के जोड़े तथा गुंजार करते मदमत्त भौंरे थे।

64 बावड़ियों में पुखराज की सीढ़ियाँ थीं। इन बावड़ियों में विविध रंग के कमल तथा कुमुदनियाँ, हंस, कारण्डव, चक्रवाक, सारस तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पक्षी दिखाई पड़ रहे थे।

65 राजर्षि उत्तानपाद ने ध्रुव महाराज के यशस्वी कार्यों के विषय में सुना और स्वयं भी देखा कि वे कितने प्रभावशाली और महान थे, इससे वे अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि ध्रुव महाराज के कार्य अत्यन्त विस्मयकारी थे।

66 तत्पश्चात जब राजा उत्तानपाद ने विचार करके देखा कि ध्रुव महाराज राज्य का भार सँभालने के लिए समुचित प्रौढ़ (वयस्क) हो चुके हैं और उनके मंत्री भी सहमत हैं तथा प्रजा को भी वे प्रिय हैं, तो उन्होंने ध्रुव को इस लोक के सम्राट के रूप में सिंहासन पर बिठा दिया।

67 अपनी वृद्धावस्था और आत्म-कल्याण पर विचार करके, राजा उत्तानपाद ने अपने आपको सांसारिक कार्यों से विरक्त कर लिया और जंगल में चले गये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय आठ – ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन (4.8)

1-5    मैत्रेय ऋषि ने कहा: सनकादि चारों कुमार और नारद, ऋभू, हंस, अरुणि तथा यति -- ब्रह्मा के ये सारे पुत्र घर पर न रहकर (गृहस्थ नहीं बने) नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए।    ब्रह्मा का अन्य पुत्र अधर्म था जिसकी पत्नी का नाम मृषा था।   उनके संयोग से दो असुर हुए जिनके नाम दम्भ अर्थात धोखेबाज तथा माया अर्थात ठगिनी थे।   इन दोनों को निर्ऋति नामक असुर ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी।   मैत्रेय ने विदुर से कहा: हे महापुरुष, दम्भ तथा माया से लोभ और निकृति (चालाकी) उत्पन्न हुए। उनके संयोग से क्रोध और हिंसा और फिर इनकी युति से कलि तथा उसकी बहिन दुरुक्ति उत्पन्न हुए।    हे श्रेष्ठ पुरुषों में महान, कलि तथा दुरुक्ति से मृत्यु तथा भीति नामक सन्तानें उत्पन्न हुईं।  फिर इनके संयोग से यातना और निरय (नरक) उत्पन्न हुए।   हे विदुर, मैंने संक्षेप में प्रलय के कारणों का वर्णन किया।    जो इस वर्णन को तीन बार सुनता है उसे पुण्य लाभ होता है और उसके आत्मा का पापमय कल्मष धुल जाता है।

6-10    मैत्रेय ने आगे कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, अब मैं आपके समक्ष स्वायम्भुव मनु के वंशजों का वर्णन करता हूँ जो भगवान के अंशांश के रूप में उत्पन्न हुए थे।    स्वायम्भुव मनु को अपनी पत्नी शतरूपा से दो पुत्र हुए जिनके नाम थे--उत्तानपाद तथा प्रियव्रत। चूँकि ये दोनों श्रीभगवान वासुदेव के अंश के वंशज थे, अतः वे ब्रह्माण्ड का शासन करने और प्रजा का भलीभाँति पालन करने में सक्षम थे।    उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं – सुनीति तथा सुरुचि। इनमें से सुरुचि राजा को अत्यन्त प्रिय थी।   सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, राजा को इतनी प्रिय न थी।    एक बार राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को अपनी गोद में लेकर सहला रहे थे।   ध्रुव महाराज भी राजा की गोद में चढ़ने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु राजा ने उन्हें अधिक दुलार नहीं दिया।   जब बालक ध्रुव महाराज अपने पिता की गोद में जाने का प्रयत्न कर रहे थे तो उसकी विमाता सुरुचि को उस बालक से अत्यन्त ईर्ष्या हुई और वह अत्यन्त दम्भ के साथ इस प्रकार बोलने लगी जिससे कि राजा सुन सके।

11-15   सुरुचि ने ध्रुव महाराज से कहा: हे बालक, तुम राजा की गोद या सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हो।   निस्सन्देह, तुम भी राजा के पुत्र हो, किन्तु तुम मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हो, अतः तुम अपने पिता की गोद में बैठने के योग्य नहीं हो। मेरे बालक, तुम्हें पता नहीं कि तुम मेरी कोख से नहीं, वरन दूसरी स्त्री से उत्पन्न हुए हो।  अतः तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि तुम्हारा प्रयास व्यर्थ है। तुम ऐसी इच्छा की पूर्ति चाह रहे हो जिसका पूरा होना असम्भव है। यदि तुम राजसिंहासन पर बैठना चाहते हो तो तुम्हें कठिन तपस्या करनी होगी।   सर्वप्रथम तुम्हें भगवान नारायण को प्रसन्न करना होगा और वे तुम्हारी पूजा से प्रसन्न हो लें तो तुम्हें अगला जन्म मेरे गर्भ से लेना होगा।   मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: हे विदुर, जिस प्रकार लाठी से मारा गया सर्प फुफकारता है, उसी प्रकार ध्रुव महाराज अपनी विमाता के कटु वचनों से आहत होकर क्रोध से तेजी से साँसे लेने लगे। जब उन्होंने देखा कि पिता मौन हैं और उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, तो उन्होंने तुरन्त उस स्थान को छोड़ दिया और अपनी माता के पास गये।    जब ध्रुव महाराज अपनी माता के पास आये तो उनके होंठ क्रोध से काँप रहे थे और वे सिसक-सिसक कर जोर से रो रहे थे।   रानी सुनीति ने अपने लाड़ले को तुरन्त गोद में उठा लिया और अन्तःपुर के वासियों ने सुरुचि के जो कटु वचन सुने थे उन सबको विस्तार से कह सुनाया। इस तरह सुनीति अत्यधिक दुखी हुई।

16-17   यह घटना सुनीति के लिए असह्य थी।  वह मानो दावाग्नि में जल रही थी और शोक के कारण वह जली हुई पत्ती (बेलि) के समान हो गई और पश्चाताप करने लगी।  अपनी सौत के शब्द स्मरण होने से उसका कमल जैसा सुन्दर मुख आँसुओं से भर गया और वह इस प्रकार बोली।   वह तेजी से साँस भी ले रही थी और वह इस दुखद स्थिति का कोई इलाज ठीक से नहीं ढूँढ पा रही थी।   अतः उसने अपने पुत्र से कहा: हे पुत्र, तुम अन्यों के अमंगल की कामना मत करो।   जो भी दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, वह स्वयं दुख भोगता है।   सुनीति ने कहा: प्रिय पुत्र, सुरुचि ने जो कुछ भी कहा है, वह ठीक है, क्योंकि तुम्हारे पिता मुझको अपनी पत्नी तो क्या अपनी दासी तक नहीं समझते, उन्हें मुझको स्वीकार करने में लज्जा आती है।  अतः यह सत्य है कि तुमने एक अभागी स्त्री की कोख से जन्म लिया है और तुम उसके स्तनों का दूध पीकर बड़े हुए हो। प्रिय पुत्र, तुम्हारी विमाता सुरुचि ने जो कुछ कहा है, यद्यपि वह सुनने में कटु है, किन्तु है सत्य ।  अतः यदि तुम उसी सिंहासन पर बैठना चाहते हो जिसमें तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम बैठेगा तो तुम अपना ईर्ष्या भाव त्याग कर तुरन्त अपनी विमाता के आदेशों का पालन करो।   तुम्हें बिना किसी विलम्ब के पुरुषोत्तम भगवान के चरण-कमलों की पूजा में लग जाना चाहिए।   भगवान इतने महान हैं कि तुम्हारे परदादा ब्रह्मा ने मात्र उनके चरणकमलों की पूजा द्वारा इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने की योग्यता अर्जित की। यद्यपि वे अजन्मा हैं और सब जीवात्माओं में प्रधान हैं, किन्तु वे इस उच्च पद पर भगवान की ही कृपा से आसीन हैं, जिनकी आराधना बड़े-बड़े योगी तक अपने मन तथा प्राण-वायु को रोक कर करते हैं।

21-25   सुनीति ने अपने पुत्र को बताया: तुम्हारे बाबा स्वायम्भुव मनु ने दान-दक्षिणा के साथ बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न किये और एकनिष्ठ श्रद्धा तथा भक्ति से उन्होंने पूजा द्वारा भगवान को प्रसन्न किया। इस प्रकार उन्होंने भौतिक सुख तथा बाद में मुक्ति प्राप्त करने में महान सफलता पाई जिसे देवताओं को पूजकर प्राप्त कर पाना असम्भव है।    मेरे पुत्र, तुम्हें भी भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने भक्तों पर अत्यन्त दयालु हैं।   जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति सदैव भक्ति सहित भगवान के चरणकमलों की शरण में जाते हैं।  अपना निर्दिष्ट कार्य करके पवित्र होकर तुम अपने हृदय में भगवान को स्थिर करो और एक पल भी विचलित हुए बिना उनकी सेवा में तन्मय रहो। हे प्रिय ध्रुव, कमल के दलों जैसे नेत्रों वाले भगवान के अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा नहीं दिखता जो तुम्हारे दुखों को कम कर सके।   ब्रह्मा जैसे अनेक देवता लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु लक्ष्मीजी स्वयं अपने हाथ में कमल पुष्प लेकर परमेश्वर की सेवा करने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं।   मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: ध्रुव महाराज की माता सुनीति का उपदेश वस्तुतः उनके मनोवांछित लक्ष्य को पूरा करने के निमित्त था, अतः बुद्धि तथा दृढ़ संकल्प द्वारा चित्त का समाधान करके उन्होंने अपने पिता का घर त्याग दिया।   नारद मुनि ने यह समाचार सुना और ध्रुव महाराज के समस्त कार्यकलापों को जानकर वे चकित रह गये। वे ध्रुव के पास आये और उनके सिर को अपने पुण्यवर्धक हाथ से स्पर्श करते हुए इस प्रकार बोले।

26-30   अहो! शक्तिशाली क्षत्रिय कितने तेजमय होते हैं! वे थोड़ा भी मान भंग सहन नहीं कर सकते।   जरा सोचो तो, यह नन्हा सा बालक है, तो भी उसकी सौतेली माता के कटु वचन उसके लिए असह्य हो गये।   महर्षि नारद ने ध्रुव से कहा: हे बालक, अभी तो तुम नन्हें बालक हो, जिसकी आसक्ति खेल इत्यादि में रहती है।   तो फिर तुम अपने सम्मान के विपरीत अपमान-जनक शब्दों से इतने प्रभावित क्यों हो?  हे ध्रुव, यदि तुम समझते हो कि तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची है, तो भी तुम्हें असंतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है।   इस प्रकार का असन्तोष माया का ही अन्य लक्षण है; प्रत्येक जीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के अनुसार नियंत्रित होता है, अतः सुख तथा दुख भोगने के लिए नाना प्रकार के जीवन होते हैं।  भगवान की गति बड़ी विचित्र है।  बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह इस गति को स्वीकार करे और अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी भगवान की इच्छा से सम्मुख आए, उससे संतुष्ट रहे। अब तुमने अपनी माता के उपदेश से भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए ध्यान की योग-विधि पालन करने का निश्चय किया है, किन्तु मेरे विचार से ऐसी तपस्या सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है।   भगवान को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है।

31-35   नारद मुनि ने आगे बताया: अनेकानेक जन्मों तक इस विधि का पालन करते हुए तथा भौतिक कल्मष से विरक्त रहकर, अपने को निरन्तर समाधि में रखकर और विविध प्रकार की तपस्याएँ करके अनेक योगी ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग का पार नहीं पा सके।   इसलिए हे बालक, तुम्हें इसके लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिए, इसमें सफलता नहीं मिलने वाली।   अच्छा हो कि तुम घर वापस चले जाओ। जब तुम बड़े हो जाओगे तो ईश्वर की कृपा से तुम्हें इन योग-कर्मों के लिए अवसर मिलेगा।   उस समय तुम यह कार्य पूरा करना। मनुष्य को चाहिए कि जीवन की किसी भी अवस्था में, चाहे सुख हो या दुख, जो दैवी इच्छा (भाग्य) द्वारा प्रदत्त है, संतुष्ट रहे।   जो मनुष्य इस प्रकार टिका रहता है, वह अज्ञान के अंधकार को बहुत सरलता से पार कर लेता है।   प्रत्येक मनुष्य को इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए: यदि वह अपने से अधिक योग्य व्यक्ति से मिले, तो उसे अत्यधिक हर्षित होना चाहिए, यदि अपने से कम योग्य व्यक्ति से मिले तो उसके प्रति सदय होना चाहिए और यदि अपने समान योग्यता वालों से मिले तो उससे मित्रता करनी चाहिए।   इस प्रकार मनुष्य को इस भौतिक संसार के त्रिविध ताप कभी भी प्रभावित नहीं कर पाते। ध्रुव महाराज ने कहा: हे नारदजी, आपने मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए कृपापूर्वक जो भी कहा है, वह ऐसे पुरुष के लिए निश्चय ही अत्यन्त शिक्षाप्रद है, जिसका हृदय सुख तथा दुख की भौतिक परिस्थितियों से चलायमान है। लेकिन जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मैं तो अविद्या से प्रच्छ्न्न हूँ और इस प्रकार का दर्शन मेरे हृदय को स्पर्श नहीं कर पाता।

36-40   हे भगवन, मैं आपके उपदेशों को न मानने की धृष्टता कर रहा हूँ। किन्तु यह मेरा दोष नहीं है। यह तो क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण है। मेरी विमाता सुरुचि ने मेरे हृदय को अपने कटु वचनों से क्षत-विक्षत कर दिया है। अतः आपकी यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा मेरे हृदय में टिक नहीं पा रही। हे विद्वान ब्राह्मण, मैं ऐसा पद ग्रहण करना चाहता हूँ जिसे अभी तक तीनों लोकों में किसी ने भी, यहाँ तक कि मेरे पिता तथा पितामहों ने भी, ग्रहण न किया हो। यदि आप अनुगृहीत कर सकें तो कृपा करके मुझे ऐसे सत्य मार्ग की सलाह दें, जिसे अपना करके मैं अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ । हे भगवन, आप ब्रह्मा के सुयोग्य पुत्र हैं और आप अपनी वीणा बजाते हुए समस्त विश्व के कल्याण हेतु विचरण करते रहते हैं। आप सूर्य के समान हैं, जो समस्त जीवों के लाभ के लिए ब्रह्माण्ड-भर में चक्कर काटता रहता है। मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: ध्रुव महाराज के शब्दों को सुनकर महापुरुष नारद मुनि उन पर अत्यधिक दयालु हो गये और अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के उद्देश्य से उन्होंने निम्नलिखित विशिष्ट उपदेश दिया। नारद मुनि ने ध्रुव महाराज से कहा: तुम्हारी माता सुनीति ने भगवान की भक्ति के पथ का अनुसरण करने के लिए जो उपदेश दिया है, वह तुम्हारे लिए सर्वथा अनुकूल है। अतः तुम्हें भगवान की भक्ति में पूर्णरूप से निमग्न हो जाना चाहिए।

41-45   जो व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों की कामना करता है उसे चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की भक्ति में अपने आपको लगाए, क्योंकि उनके चरणकमलों की पूजा से इन सबकी पूर्ति होती है।  हे बालक, तुम्हारा कल्याण हो। तुम यमुना के तट पर जाओ, जहाँ पर मधुवन नामक विख्यात जंगल है और वहीं पर पवित्र होओ। वहाँ जाने से ही मनुष्य वृन्दावनवासी भगवान के निकट पहुँचता है।   नारद मुनि ने उपदेश दिया: हे बालक, यमुना नदी अथवा कालिन्दी के जल में तुम नित्य तीन बार स्नान करना, क्योंकि यह जल शुभ, पवित्र एवं स्वच्छ है।   स्नान के पश्चात अष्टांगयोग के आवश्यक अनुष्ठान करना और तब शान्त मुद्रा में अपने आसन पर बैठ जाना। आसन ग्रहण करने के पश्चात तुम तीन प्रकार के प्राणायाम करना और इस प्रकार धीरे-धीरे प्राणवायु, मन तथा इन्द्रियों को वश में करना। अपने को समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त करके तुम अत्यन्त धैर्यपूर्वक भगवान का ध्यान प्रारम्भ करना।  [यहाँ पर भगवान के रूप का वर्णन हुआ है।]  भगवान का मुख सदैव अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्न मुद्रा में रहता है।  देखने वाले भक्तों को वे कभी अप्रसन्न नहीं दिखते और वे सदैव उन्हें वरदान देने के लिए उद्यत रहते हैं।  उनके नेत्र, सुसज्जित भौंहें, उन्नत नासिका तथा चौड़ा मस्तक-ये सभी अत्यन्त सुन्दर हैं।  वे समस्त देवताओं से अधिक सुन्दर हैं।

46-50   नारद मुनि ने आगे कहा: भगवान का रूप सदैव युवावस्था में रहता है।   उनके शरीर का अंग-प्रत्यंग सुगठित एवं दोषरहित है। उनके नेत्र तथा होंठ उदीयमान सूर्य की भाँति गुलाबी से हैं।   वे शरणागतों को सदैव शरण देने वाले हैं और जिसे उनके दर्शन का अवसर मिलता है, वह सभी प्रकार से संतुष्ट हो जाता है।   दया के सिन्धु होने के कारण भगवान शरणागतों के स्वामी होने के योग्य हैं।   भगवान को श्रीवत्स चिन्ह अथवा ऐश्वर्य की देवी का आसन धारण किये हुए बताया गया है।   उनके शरीर का रंग गहरा नीला (श्याम) है।   भगवान पुरुष हैं, वे फूलों की माला पहनते हैं और वे चतुर्भुज रूप में (नीचेवाले बाएँ हाथ से आरम्भ करते हुए) शंख, चक्र, गदा तथा कमल पुष्प धारण किये हुए नित्य प्रकट होते हैं।   पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव का सारा शरीर आभूषित है।   वे बहुमूल्य मणिमय मुकुट, हार तथा बाजूबन्द धारण किये हुए हैं।   उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से अलंकृत है और वे पीत रेशमी वस्त्र धारण किये हैं। भगवान का कटि-प्रदेश सोने की छोटी-छोटी घण्टियों से अलंकृत है और उनके चरणकमल सुनहले नूपुरों से सुशोभित हैं।   उनके सभी शारीरिक अंग अत्यन्त आकर्षक एवं नेत्रों को भाने वाले है।   वे सदैव शान्त तथा मौन रहते हैं और नेत्रों तथा मन को अत्यधिक मोहनेवाले हैं।   वास्तविक योगी भगवान के उस रूप का ध्यान करते हैं जिसमें वे उनके हृदयरूपी कमल-पुंज में खड़े रहते हैं और उनके चरणकमलों के मणितुल्य नाखून चमकते रहते हैं।

51-55   भगवान सदैव मुस्कराते रहते हैं और भक्त को चाहिए कि वह सदा इसी रूप में उनका दर्शन करता रहे, क्योंकि वे भक्तों पर कृपा-पूर्वक दृष्टि डालते हैं।   इस प्रकार से ध्यानकर्ता को चाहिए कि वह समस्त वरों को देने वाले भगवान की ओर निहारता रहे। भगवान के नित्य मंगलमय रूप में जो अपने मन को एकाग्र करते हुए इस प्रकार से ध्यान करता है, वह अतिशीघ्र ही समस्त भौतिक कल्मष से छूट जाता है और भगवान के ध्यान की स्थिति से फिर लौटकर नीचे (मर्त्य-लोक) नहीं आता। हे राजपुत्र, अब मैं तुम्हें वह मंत्र बताऊँगा जिसे इस ध्यान विधि के समय जपना चाहिए।   जो कोई इस मंत्र को सात रात सावधानी से जपता है, वह आकाश में उड़ने वाले सिद्ध मनुष्यों को देख सकता है।   श्रीकृष्ण की पूजा का बारह अक्षर वाला मंत्र है – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।   ईश्वर का विग्रह स्थापित करके उसके समक्ष मंत्रोच्चार करते हुए प्रामाणिक विधि-विधानों सहित मनुष्य को फूल, फल तथा अन्य खाद्य-सामग्रियाँ अर्पित करनी चाहिए। किन्तु यह सब देश, काल तथा साथ ही सुविधाओं एवं असुविधाओं का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।   भगवान की पूजा शुद्ध जल, शुद्ध पुष्प-माला, फल, फूल तथा जंगल में उपलब्ध वनस्पतियों या ताजे उगे हुए दूर्वादल एकत्र करके, फूलों की कलियों, अथवा वृक्षों की छाल से, या सम्भव हो तो भगवान को अत्यन्त प्रिय तुलसीदल अर्पित करते हुए करनी चाहिए।

56-60   यदि सम्भव हो तो मिट्टी, लुगदी, लकड़ी तथा धातु जैसे भौतिक तत्त्वों से बनी भगवान की मूर्ति को पूजा जा सकता है।  जंगल में मिट्टी तथा जल से मूर्ति बनाई जा सकती है और उपर्युक्त नियमों के अनुसार उसकी पूजा की जा सकती है।   जो भक्त अपने ऊपर पूर्ण संयम रखता है, उसे अत्यन्त नम्र तथा शान्त होना चाहिए और जंगल में जो भी फल तथा वनस्पतियाँ प्राप्त हों उन्हे ही खाकर संतुष्ट रहना चाहिए।    हे ध्रुव, प्रतिदिन तीन बार मंत्र जप करने और श्रीविग्रह की पूजा के अतिरिक्त तुम्हें भगवान के विभिन्न अवतारों के दिव्य कार्यों के विषय में भी ध्यान करना चाहिए, जो उनकी परम इच्छा तथा व्यक्तिगत शक्ति से प्रदर्शित होते हैं।   संस्तुत सामग्री द्वारा परमेश्वर की पूजा किस प्रकार की जाये, इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि पूर्व-भक्तों के पद-चिन्हों का अनुसरण करे अथवा हृदय के भीतर ही मंत्रोच्चार करके भगवान की, पूजा करे जो मंत्र से भिन्न नहीं है।   इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति-विधियों के कार्यों में मग्न रहता है, उसे उसकी इच्छानुसार भगवान वर देते हैं।   यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म, अर्थ, काम या भौतिक संसार से मोक्ष चाहता है, तो भगवान इन फलों को प्रदान करते हैं।

61-65  यदि कोई मुक्ति के लिए अत्यन्त उत्सुक हो तो उसे दिव्य प्रेमाभक्ति की पद्धति का दृढ़ता से पालन करके चौबीसों घण्टे समाधि की सर्वोच्च अवस्था में रहना चाहिए और उसे इन्द्रियतृप्ति के समस्त कार्यों से अनिवार्यतः पृथक रहना चाहिए।  जब राजपुत्र ध्रुव महाराज को नारद मुनि इस प्रकार उपदेश दे रहे थे तो उन्होंने अपने गुरु नारद मुनि की प्रदक्षिणा की ओर उन्हें सादर नमस्कार किया।   तत्पश्चात वे मधुवन के लिए चल पड़े, जहाँ श्रीकृष्ण के चरणकमल सदैव अंकित रहते हैं, अतः जो विशेष रूप से शुभ है।   जब ध्रुव भक्ति करने के लिए मधुवन में प्रविष्ट हो गए, तब महर्षि नारद ने राजा के पास जाकर यह देखना उचित समझा कि वे महल के भीतर कैसे रह रहे हैं।   जब नारद मुनि वहाँ पहुँचे तो राजा ने उन्हें प्रणाम करके उनका समुचित स्वागत किया।   आराम से बैठ जाने पर नारद कहने लगे।    महर्षि नारद ने पूछा: हे राजन, तुम्हारा मुख सूख रहा दिखता है और ऐसा लगता है कि तुम दीर्घकाल से कुछ सोचते रहे हो।   ऐसा क्यों है? क्या तुम्हें धर्म, अर्थ तथा काम के मार्ग का पालन करने में कोई बाधा हुई है?   राजा ने उत्तर दिया: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं अपनी पत्नी में अत्यधिक आसक्त हूँ और मैं इतना पतित हूँ कि मैंने अपने पाँच वर्ष के बालक के प्रति भी दया भाव के व्यवहार का त्याग कर दिया।   मैंने उसे महात्मा तथा महान भक्त होते हुए भी माता सहित निर्वासित कर दिया है।

66-70   हे ब्राह्मण, मेरे पुत्र का मुख कमल के फूल के समान था।   मैं उसकी दयनीय दशा के विषय में सोच रहा हूँ।   वह असुरक्षित और अत्यन्त भूखा होगा। वह जंगल में कहीं लेटा होगा और भेड़ियों ने झपट करके उसका शरीर काट खा लिया होगा।   अहो! जरा देखिये तो मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ।   जरा मेरी क्रूरता के विषय में तो सोचिये! वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मैंने न तो उसको आने दिया, न उसे एक क्षण भी दुलारा ।  जरा सोचिये कि मैं कितना कठोर-हृदय हूँ!   महर्षि नारद ने उत्तर दिया: हे राजन, तुम अपने पुत्र के लिए शोक मत करो।   वह भगवान द्वारा पूर्ण रूप से रक्षित है।   यद्यपि तुम्हें उसके प्रभाव के विषय में सही-सही जानकारी नहीं है, किन्तु उसकी ख्याति पहले ही संसार भर में फैल चुकी है।   हे राजन, तुम्हारा पुत्र अत्यन्त समर्थ है।   वह ऐसे कार्य करेगा जो बड़े-बड़े राजा तथा साधू भी नहीं कर पाते।   वह शीघ्र ही अपना कार्य पूरा करके घर वापस आएगा। तुम यह भी जान लो कि वह तुम्हारी ख्याति को सारे संसार में फैलाएगा ।   मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: नारद मुनि से उपदेश प्राप्त करने के बाद राजा उत्तानपाद ने अपने अत्यन्त विशाल एवं ऐश्वर्यमय राज्य के सारे कार्य छोड़ दिये और केवल अपने पुत्र ध्रुव के विषय में ही सोचने लगा।

71-75  इधर, ध्रुव महाराज ने मधुवन पहुँचकर यमुना नदी में स्नान किया और उस रात्रि को अत्यन्त मनोयोग से उपवास किया। तत्पश्चात वे नारद मुनि द्वारा बताई गई विधि से भगवान की आराधना में मग्न हो गये।   ध्रुव महाराज ने पहले महीने में अपने शरीर की रक्षा (निर्वाह) हेतु हर तीसरे दिन केवल कैथे तथा बेर का भोजन किया और इस प्रकार से वे भगवान की पूजा को आगे बढ़ाते रहे।   दूसरे महीने में महाराज ध्रुव छह-छह दिन बाद खाने लगे। शुष्क घास तथा पत्ते ही उनके खाद्य पदार्थ थे।   इस प्रकार उन्होंने अपनी पूजा चालू रखी। तीसरे महीने में वे प्रत्येक नवें दिन केवल जल ही पीते। इस प्रकार वे पूर्ण रूप से समाधि में रहते हुए पुण्यश्लोक भगवान की पूजा करते रहे।   चौथे महीने में ध्रुव महाराज प्राणायाम में पटु हो गये और इस प्रकार प्रत्येक बारहवें दिन वायु को श्वास से भीतर ले जाते।   इस प्रकार अपने स्थान पर पूर्ण रूप से स्थिर होकर उन्होंने भगवान की पूजा की।

76-80   पाँचवें महीने में राजपुत्र महाराज ध्रुव ने श्वास रोकने पर ऐसा नियंत्रण प्राप्त कर लिया कि वे एक ही पाँव पर खड़े रहने में समर्थ हो गए, मानो कोई अचल ठूँठ हो।   इस प्रकार उन्होंने परब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर लिया।   उन्होंने अपनी इन्द्रियों तथा उनके विषयों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया और इस तरह अपने मन को चारों ओर से खींच कर भगवान के रूप पर स्थिर कर दिया।   इस प्रकार जब ध्रुव महाराज ने समग्र भौतिक सृष्टि के आश्रय तथा समस्त जीवात्माओं के स्वामी भगवान को अपने वश में कर लिया तो तीनों लोक हिलने लगे।   जब राजपुत्र ध्रुव महाराज अपने एक पाँव पर अविचलित भाव से खड़े रहे तो उनके पाँव के भार से आधी पृथ्वी उसी प्रकार नीचे चली गई जिस प्रकार कि हाथी के चढ़ने से (पानी में) उसके प्रत्येक कदम से नाव कभी दाएँ हिलती है, तो कभी बाएँ। जब ध्रुव महाराज गुरुता में भगवान विष्णु अर्थात समग्र चेतना से एकाकार हो गये तो उनके पूर्ण रूप से केन्द्रीभूत होने तथा शरीर के सभी छिद्रों के बन्द हो जाने से सारे विश्व की साँस घुटने लगी और सभी लोकों के समस्त बड़े-बड़े देवताओं का दम घुटने लगा।   अतः वे भगवान की शरण में आये।

81     देवताओं ने कहा: हे भगवान, आप समस्त जड़ तथा चेतन जीवात्माओं के आश्रय हैं।   हमें लग रहा है कि सभी जीवों का दम घुट रहा है और उनकी श्वास-क्रिया अवरुद्ध हो गई है।   हमें ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ।   आप सभी शरणागतों के चरम आश्रय हैं, अतः हम आपके पास आये हैं।   कृपया हमें इस संकट से उबारिये।

82     श्रीभगवान ने उत्तर दिया: हे देवों, तुम इससे विचलित न होओ। यह राजा उत्तानपाद के पुत्र की कठोर तपस्या तथा दृढ़निश्चय के कारण हुआ है, जो इस समय मेरे चिन्तन में पूर्णतया लीन है।   उसी ने सारे ब्रह्माण्ड की श्वास क्रिया को रोक दिया है।   तुम लोग अपने-अपने घर सुरक्षापूर्वक जा सकते हो।   मैं उस बालक को कठिन तपस्या करने से रोक दूँगा तो तुम इस परिस्थिति से उबर जाओगे।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय सात – दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना (4.7)

1 मैत्रेय मुनि ने कहा: हे महाबाहु विदुर, भगवान ब्रह्मा के शब्दों से शान्त होकर शिव ने उनकी प्रार्थना का उत्तर इस प्रकार दिया।

2 शिवजी ने कहा: हे पूज्य पिता ब्रह्माजी, मैं देवताओं द्वारा किये गये अपराधों की परवाह नहीं करता। चूँकि ये देवता बालकों के समान अल्पज्ञानी हैं, अतः मैं उनके अपराधों पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं कर रहा हूँ। मैंने तो उन्हें राह पर लाने के लिए ही दण्डित किया है।

3 शिवजी ने आगे कहा: चूँकि दक्ष का सिर पहले ही जलकर भस्म हो चुका है, अतः उसे बकरे का सिर प्राप्त होगा। भग नामक देवता, मित्र के नेत्रों से यज्ञ का अपना भाग देख सकेगा।

4 पूषादेव अपने शिष्यों के दाँतों से चबायेंगे और यदि अकेले चाहें तो उन्हें सत्तू की बनी लोई खाकर संतुष्ट होना पड़ेगा। किन्तु जिन देवताओं ने मेरा यज्ञ-भाग देना स्वीकार कर लिया है वे सभी प्रकार की चोटों से स्वस्थ हो जाएँगे।

5 जिन लोगों की भुजाएँ कट गई हैं, उन्हें अश्विनी कुमार की बाहों से काम करना होगा और जिनके हाथ कट गए हैं उन्हें पूषा के हाथों से काम करना होगा। पुरोहितों को भी तदनुसार कार्य करना होगा। जहाँ तक भृगु का प्रश्न है, उन्हें बकरे की दाढ़ी प्राप्त होगी।

6 मैत्रेय मुनि ने कहा: हे विदुर, वहाँ पर उपस्थित सभी मनुष्य सर्वश्रेष्ठ वरदाता शिव के वचनों को सुनने से अत्यन्त संतुष्ट होकर गदगद हो गये।

7 तब मुनियों के प्रमुख भृगु ने शिवजी को यज्ञशाला में पधारने के लिए आमंत्रित किया। इस तरह से ऋषिगण, शिवजी तथा ब्रह्मा समेत सभी देवता उस स्थान पर गये जहाँ वह महान यज्ञ सम्पन्न हो रहा था।

8 जब शिवजी के निर्देशानुसार सब कुछ सम्पन्न हो गया तो यज्ञ में वध के निमित्त लाए पशु के सिर को दक्ष के शरीर से जोड़ दिया गया।

9 जब दक्ष के शरीर पर पशु का सिर लगा दिया गया तो दक्ष को तुरन्त ही होश आ गया और ज्योंही वह निद्रा से जगा, तो उसने अपने समक्ष शिवजी को खड़े देखा।

10 उस समय जब दक्ष ने बैल पर सवारी करनेवाले शिव को देखा तो उसका हृदय, जो शिव के प्रति द्वेष से कलुषित था, तुरन्त निर्मल हो गया, जिस प्रकार सरोवर का जल शरदकालीन वर्षा से स्वच्छ हो जाता है।

11 राजा दक्ष ने शिव की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी पुत्री सती की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु का स्मरण हो आने से उसके नेत्र आँसुओं से भर आये और शोक से उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई। वह कुछ भी न कह सका।

12 उस समय प्रेम-विह्वल होने से राजा दक्ष अत्यधिक जागरूक हो उठा। उसने बड़े ही यत्न से अपने मन को शान्त किया, अपने भावावेग को रोका और शुद्ध चेतना से शिव की स्तुति करनी प्रारम्भ की।

13 राजा दक्ष ने कहा: हे शिव, मैंने आपके प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है, किन्तु आप इतने उदार हैं कि आपने अपने अनुग्रह से वंचित करने के बजाय, मुझे दण्ड देकर मेरे ऊपर कृपा की है। आप तथा भगवान विष्णु अयोग्य-निकम्मे ब्राह्मणों तक की उपेक्षा नहीं करते तो फिर भला आप मेरी उपेक्षा क्यों करने लगे, मैं तो यज्ञ करने में लगा रहता हूँ?

14 हे महान तथा शक्तिमान शिव, विद्या, तप, व्रत तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए ब्राह्मणों की रक्षा करने के हेतु ब्रह्मा के मुख से सर्वप्रथम आपकी उत्पत्ति हुई थी। आप ब्राह्मणों के पालक बनकर उनके द्वारा आचरित अनुष्ठानों की सदैव रक्षा करते हैं, जिस प्रकार ग्वाला गायों की रखवाली के लिए अपने हाथ में दण्ड धारण किए रहता है।

15 मैं आपकी समस्त कीर्ति से परिचित न था। अतः मैंने खुली सभा में आपके ऊपर कटु शब्द रूपी बाणों की वर्षा की थी, तो भी आपने उनकी कोई परवाह नहीं की। मैं आप जैसे परम पूज्य पुरुष के प्रति अवज्ञा के कारण नरक में गिरने जा रहा था, किन्तु आपने मुझ पर दया करके और दण्डित करके मुझे उबार लिया है। मेरी प्रार्थना है कि आप अपने ही अनुग्रह से प्रसन्न हों, क्योंकि मुझमें वह सामर्थ्य नहीं कि मैं अपने शब्दों से आपको तुष्ट कर सकूँ।

16 मैत्रेय मुनि ने कहा: इस प्रकार शिवजी द्वारा क्षमा कर दिये जाने पर राजा दक्ष ने ब्रह्मा की अनुमति से विद्वान साधुओं, पुरोहितों तथा अन्यों के साथ पुनः यज्ञ करना प्रारम्भ कर दिया।

17 तत्पश्चात ब्राह्मणों ने यज्ञ कार्य फिर से प्रारम्भ करने के लिए वीरभद्र तथा शिव के भूत-प्रेत सदृश अनुचरों के स्पर्श से प्रदूषित हो चुके यज्ञ स्थल को पवित्र करने की व्यवस्था की। तब जाकर उन्होंने अग्नि में पुरोडाश नामक आहुतियाँ अर्पित की।

18 महामुनि मैत्रेय ने विदुर से कहा: हे विदुर, जैसे ही राजा दक्ष ने शुद्धचित्त से यजुर्वेद के मंत्रों के साथ घी की आहुति डाली, वैसे ही भगवान विष्णु अपने आदि नारायण रूप में वहाँ प्रकट हो गये।

19 भगवान नारायण स्तोत्र अर्थात गरुड़ के कंधे पर आरूढ़ थे, जिसके बड़े-बड़े पंख थे। जैसे ही भगवान प्रकट हुए, सभी दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं जिससे ब्रह्मा तथा अन्य उपस्थित जनों की कान्ति घट गई।

20 उनका वर्ण श्याम था, उनके वस्त्र स्वर्ण की तरह पीले तथा मुकुट सूर्य के समान देदीप्यमान था। उनके बाल भौंरों के समान काले और मुख कुण्डलों से आभूषित था। उनकी आठ भुजाएँ शंख, चक्र, गदा, कमल, बाण, धनुष, ढाल तथा तलवार धारण किये थीं और कंगन तथा बिजावट जैसे स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत थीं। उनका सारा शरीर कनेर के उस कुसुमित वृक्ष के समान प्रतीत हो रहा था जिसमें विभिन्न प्रकार के फूल सुन्दर ढंग से सजे हों।

21 भगवान विष्णु असाधारण रूप से सुन्दर लग रहे थे, क्योंकि उनके वक्षस्थल पर ऐश्वर्य की देवी (लक्ष्मी) तथा एक हार विराजमान थे। उनका मुख मन्द हास के कारण अत्यन्त सुशोभित था, जो सारे जगत को और विशेष रूप से भक्तों के मन को मोहने वाला था। भगवान के दोनों और श्वेत चामर डुल रहे थे, मानो श्वेत हंस हों और उनके ऊपर तना हुआ श्वेत छत्र चन्द्रमा के समान लग रहा था।

22 जैसे ही भगवान विष्णु दृष्टिगोचर हुए, वहाँ पर उपस्थित – ब्रह्मा, शिव, गन्धर्व तथा सभी जनों ने उनके समक्ष सीधे गिरकर (दण्डवत) सादर नमस्कार किया।

23 नारायण की शारीरिक कान्ति के तेज से अन्य सबों की कान्ति मन्द पड़ गई और सबों का बोलना बन्द हो गया। आश्चर्य तथा सम्मान से भयभीत, सबों ने अपने-अपने सिरों पर हाथ धर लिये और भगवान अधोक्षज की स्तुति करने के लिए उद्यत हो गए।

24 यद्यपि ब्रह्मा जैसे देवता भी परमेश्वर की अनन्त महिमा का अनुमान लगाने में असमर्थ थे, किन्तु वे सभी भगवान की कृपा से उनके दिव्य रूप को देख सकते थे। अतः वे अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार उनकी सादर स्तुति कर सके।

25 जब भगवान विष्णु ने यज्ञ में डाली गई आहुतियों को स्वीकार कर लिया तो दक्ष प्रजापति ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करनी प्रारम्भ की। वस्तुतः भगवान समस्त यज्ञों के स्वामी और सभी प्रजापतियों के गुरु हैं और नन्द-सुनन्द जैसे पुरुष तक उनकी सेवा करते हैं।

26 दक्ष ने भगवान को सम्बोधित करते हुए कहा-- हे प्रभु, आप समस्त कल्पना-अवस्थाओं से परे हैं। आप परम चिन्मय, भय-रहित और भौतिक माया को वश में रखने वाले हैं। यद्यपि आप माया में स्थित प्रतीत होते हैं, किन्तु आप दिव्य है। आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं, क्योंकि आप परम स्वतंत्र हैं।

27 पुरोहितों ने भगवान को सम्बोधित करते हुए कहा-- हे भगवन, आप भौतिक कल्मष से परे हैं। शिव के अनुचरों द्वारा दिये गये शाप के कारण हम सकाम कर्म में लिप्त हैं, अतः हम पतित हो चुके हैं और आपके विषय में कुछ भी नहीं जानते। उल्टे, हम यज्ञ के नाम पर अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए वेदत्रयी के आदेशों में आ फँसे हैं। हमें ज्ञात है कि आपने देवताओं को उनके भाग दिये जाने की व्यवस्था कर रखी है।

28 सभा के सदस्यों ने भगवान को सम्बोधित किया-- हे सन्तप्त जीवों के एकमात्र आश्रय, इस बद्ध संसार के दुर्ग में काल-रूपी सर्प प्रहार करने की ताक में रहता है। यह संसार तथाकथित सुख तथा दुख की खंदकों से भरा पड़ा है और अनेक हिंस्र पशु आक्रमण करने को सन्नद्ध रहते हैं। शोक रूपी अग्नि सदैव प्रज्ज्वलित रहती है और मृषा सुख की मृगतृष्णा सदैव मोहती रहती है, किन्तु मनुष्य को इनसे छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार अज्ञानी पुरुष जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों के भार से सदा दबे रहते हैं। हमें ज्ञात नहीं कि वे आपके चरणकमलों की शरण में कब जाएँगे।

29 शिवजी ने कहा: हे भगवान, मेरा मन तथा मेरी चेतना निरन्तर आपके पूजनीय चरणकमलों पर स्थिर रहती है, जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के स्रोत होने के कारण समस्त मुक्त महामुनियों द्वारा पूजित हैं क्योंकि आपके चरणकमल ही पूजा के योग्य हैं। आपके चरणकमलों में मन को स्थिर रखकर मैं उन व्यक्तियों से विचलित नहीं होता जो यह कहकर मेरी निन्दा करते हैं कि मेरे कर्म पवित्र नहीं हैं। मैं उनके आरोपों की परवाह नहीं करता और मैं उसी प्रकार दयावश उन्हें क्षमा कर देता हूँ, जिस प्रकार आप समस्त जीवों के प्रति दया प्रदर्शित करते हैं।

30 भृगु मुनि ने कहा: हे भगवन, सर्वोच्च ब्रह्मा से लेकर सामान्य चींटी तक सारे जीव आपकी माया शक्ति के दुर्लंघ्य जादू के वशीभूत हैं और इस प्रकार वे अपनी स्वाभाविक स्थिति से अपरिचित हैं। देहात्मबुद्धि में विश्वास करने के कारण सभी मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं। वे वास्तव में यह नहीं समझ पाते कि आप प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा के रूप में कैसे रहते हैं, न तो वे आपके परम पद को ही समझ सकते हैं। किन्तु आप समस्त शरणागत जीवों के नित्य सखा एवं रक्षक हैं। अतः आप हम पर कृपालु हों और हमारे समस्त पापों को क्षमा कर दें।

31 ब्रह्माजी ने कहा: हे भगवन, यदि कोई पुरुष आपको ज्ञान अर्जित करने की विभिन्न विधियों द्वारा जानने का प्रयास करे तो वह आपके व्यक्तित्व एवं शाश्वत रूप को नहीं समझ सकता। आपकी स्थिति भौतिक सृष्टि की तुलना में सदैव दिव्य है, जबकि आपको समझने के प्रयास, लक्ष्य तथा साधन सभी भौतिक और काल्पनिक हैं।

32 राजा इन्द्र ने कहा: हे भगवन, प्रत्येक हाथ में आयुध धारण किये आपका यह अष्टभुज दिव्य रूप सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु प्रकट होता है और मन तथा नेत्रों को अत्यन्त आनन्दित करने वाला है। आप इस रूप में अपने भक्तों से ईर्ष्या करने वाले असुरों को दण्ड देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

33 याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा: हे भगवान, वह यज्ञ ब्रह्मा के आदेशानुसार व्यवस्थित किया गया था, किन्तु दुर्भाग्यवश दक्ष से क्रुद्ध होकर शिव ने समस्त दृश्य को ध्वस्त कर दिया और उनके रोष के कारण यज्ञ के निमित्त लाये गये पशु निर्जीव पड़े हैं। अतः यज्ञ की सारी तैयारियाँ बेकार हो चुकी हैं। अब आपके कमल जैसे नेत्रों की चितवन से इस यज्ञस्थल की पवित्रता पुनः प्राप्त हो।

34 ऋषियों ने प्रार्थना की: हे भगवान, आपके कार्य अत्यन्त आश्चर्यमय हैं और यद्यपि आप सब कुछ अपनी विभिन्न शक्तियों से करते हैं, किन्तु आप उनसे लिप्त नहीं होते। यहाँ तक कि आप सम्पत्ति की देवी लक्ष्मीजी से भी लिप्त नहीं है, जिनकी पूजा ब्रह्माजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं द्वारा उनकी कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती है।

35 सिद्धों ने स्तुति की: हे भगवन, हमारे मन उस हाथी के समान हैं, जो जंगल की आग से त्रस्त होने पर नदी में प्रविष्ट होते ही सभी कष्ट भूल सकता है। उसी तरह ये हमारे मन भी आपकी दिव्य लीलाओं की अमृत-नदी में निमज्जित हैं और ऐसे दिव्य आनन्द में निरन्तर बने रहना चाहते हैं, जो परब्रह्म में तदाकार होने के सुख के समान ही है।

36 दक्ष की पत्नी ने इस प्रकार प्रार्थना की-- हे भगवान, यह हमारा सौभाग्य है कि आप यज्ञस्थल में पधारे हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ और आपसे प्रार्थना करती हूँ कि इस अवसर पर आप प्रसन्न हों। यह यज्ञस्थल आपके बिना शोभा नहीं पा रहा था, जिस प्रकार कि सिर के बिना धड़ शोभा नहीं पाता।

37 विभिन्न लोकों के लोकपालों ने इस प्रकार कहा: हे भगवन, हम अपनी प्रत्यक्ष प्रतीति पर ही विश्वास करते हैं, किन्तु इस परिस्थिति में हम नहीं जानते कि हमने आपका दर्शन वास्तव में अपनी भौतिक इन्द्रियों से किया है अथवा नहीं। इन इन्द्रियों से तो हम दृश्य जगत को ही देख पाते हैं, किन्तु आप तो पाँच तत्त्वों के परे हैं। आप तो छठवें तत्त्व हैं। अतः हम आपको भौतिक जगत की सृष्टि के रूप में देख रहे हैं।

38 महान योगियों ने कहा: हे भगवान, जो लोग यह जानते हुए कि आप समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं, आपको अपने से अभिन्न देखते हैं, वे निश्चय ही आपको परम प्रिय हैं। जो आपको स्वामी तथा अपने आपको दास मानकर आपकी भक्ति में अनुरक्त रहते हैं, आप उन पर परम कृपालु रहते हैं। आप कृपावश उन पर सदैव हितकारी रहते हैं।

39 हम उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने नाना प्रकार की वस्तुएँ उत्पन्न कीं और उन्हें भौतिक जगत के त्रिगुणों के वशीभूत कर दिया जिससे उनकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हो सके। वे स्वयं बहिरंगा शक्ति के अधीन नहीं हैं, वे साक्षात रूप में भौतिक गुणों के विविध प्राकट्य से रहित हैं और मिथ्या मायामोह से दूर हैं।

40 साक्षात वेदों ने कहा: हे भगवान, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आप सतोगुण के आश्रय होने के कारण समस्त धर्म तथा तपस्या के स्रोत हैं; आप समस्त भौतिक गुणों से परे हैं और कोई भी न तो आपको और न आपकी वास्तविक स्थिति को जानने वाला है।

41 अग्निदेव ने कहा: हे भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आपकी ही कृपा से मैं प्रज्ज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी हूँ और मैं यज्ञ में प्रदत्त घृतमिश्रित आहुतियाँ स्वीकार करता हूँ। यजुर्वेद में वर्णित पाँच प्रकार की हवियाँ आपकी ही विभिन्न शक्तियाँ हैं और आपकी पूजा पाँच प्रकार के वैदिक मंत्रों से की जाती है। यज्ञ का अर्थ ही आप अर्थात परम भगवान है।

42 देवताओं ने कहा: हे भगवान, पहले जब प्रलय हुआ था, तो आपने भौतिक जगत की विभिन्न शक्तियों को संरक्षित कर लिया था। उस समय ऊर्ध्वलोकों के सभी वासी, जिनमें सनक जैसे मुक्त जीव भी थे, दार्शनिक चिन्तन द्वारा आपका ध्यान कर रहे थे। अतः आप आदिपुरुष हैं। आप प्रलयकालीन जल में शेषशय्या पर शयन करते हैं। अब आज आप हमारे समक्ष दिख रहे हैं। हम सभी आपके दास हैं। कृपया हमें शरण दीजिये।

43 गन्धर्वों ने कहा: हे भगवन, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र तथा मरीचि समेत समस्त देवता तथा ऋषिगण आपके ही शरीर के विभिन्न अंश हैं। आप परम शक्तिमान हैं, यह सारी सृष्टि आपके लिए खिलवाड़ मात्र है। हम सदैव आपको पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान रूप में स्वीकार करते हैं और आपको सादर नमस्कार करते हैं।

44 विद्याधरों ने कहा: हे प्रभु, यह मानव देह सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त है, किन्तु आपकी बहिरंगा शक्ति के वशीभूत होकर जीवात्मा अपने आपको भ्रमवश देह तथा भौतिक शक्ति मान बैठता है, अतः माया के वश में आकर वह सांसारिक भोग द्वारा सुखी बनना चाहता है। वह दिग्भ्रमित हो जाता है और क्षणिक माया-सुख के प्रति सदैव आकर्षित होता रहता है। किन्तु आपके दिव्य कार्यकलाप इतने प्रबल हैं कि यदि कोई उनके श्रवण तथा कीर्तन में अपने को लगाए तो उसका उद्धार हो सकता है।

45 ब्राह्मणों ने कहा: हे भगवान, आप साक्षात यज्ञ हैं। आप ही घृत की आहुति हैं; आप अग्नि हैं; आप वैदिक मंत्रों के उच्चारण हैं, जिनसे यज्ञ कराया जाता है; आप ईंधन हैं; आप ज्वाला हैं; आप कुश हैं और आप ही यज्ञ के पात्र हैं। आप यज्ञकर्ता पुरोहित हैं, इन्द्र आदि देवतागण आप ही हैं और आप यज्ञ-पशु हैं। जो कुछ भी यज्ञ में अर्पित किया जाता है, वह आप या आपकी शक्ति है।

46 हे भगवान, हे साक्षात वैदिक ज्ञान, अत्यन्त पुरातन काल पहले, पिछले युग में जब आप महान सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे तो आपने पृथ्वी को जल के भीतर से इस प्रकार ऊपर उठा लिया था जिस प्रकार कोई हाथी सरोवर में से कमलिनी को उठा लाता है। जब आपने उस विराट सूकर रूप में दिव्य गर्जन किया, तो उस ध्वनि को यज्ञ मंत्र के रूप में स्वीकार कर लिया गया और सनक जैसे महान ऋषियों ने उसका ध्यान करते हुए आपकी स्तुति की।

47 हे भगवान, हम आपके दर्शन के लिए प्रतीक्षारत थे क्योंकि हम वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार यज्ञ करने में असमर्थ रहे हैं। अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों। आपके पवित्र नाम-कीर्तन मात्र से समस्त बाधाएँ दूर हो जाती हैं। हम आपके समक्ष आपको सादर नमस्कार करते हैं।

48 श्री मैत्रेय ने कहा: वहाँ पर उपस्थित सबों के द्वारा विष्णु की स्तुति किये जाने पर दक्ष ने अन्तःकरण शुद्ध हो जाने से पुनः यज्ञ प्रारम्भ किये जाने की व्यवस्था की, जिसे शिव के अनुचरों ने ध्वंस कर दिया था।

49 मैत्रेय ने आगे कहा: हे पापमुक्त विदुर, भगवान विष्णु ही वास्तव में समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता हैं। फिर भी समस्त जीवात्माओं के परमात्मा होने से वे अपना यज्ञ-भाग प्राप्त हो जाने से प्रसन्न हो गये, अतः उन्होंने प्रमुदित भाव से दक्ष को सम्बोधित किया।

50 भगवान विष्णु ने उत्तर दिया; ब्रह्मा, शिव तथा मैं इस दृश्य जगत के परम कारण हैं। मैं परमात्मा, स्वःनिर्भर साक्षी हूँ। किन्तु निर्गुण-निराकार रूप में ब्रह्मा, शिव तथा मुझमें कोई अन्तर नहीं है।

51 भगवान ने कहा: हे दक्ष द्विज, मैं आदि भगवान हूँ, किन्तु इस दृश्य जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए मैं अपनी भौतिक शक्ति के माध्यम से कार्य करता हूँ और कार्य की भिन्न कोटियों के अनुसार मेरे भिन्न-भिन्न नाम हैं।

52 भगवान ने आगे कहा: जिसे समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं है, वह ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं को स्वतंत्र समझता है या वह यह भी सोचता है कि जीवात्माएँ भी स्वतंत्र हैं।

53 सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति सिर तथा शरीर के अन्य भागों को पृथक-पृथक नहीं मानता। इसी प्रकार मेरे भक्त सर्वव्यापी भगवान विष्णु तथा किसी वस्तु या किसी जीवात्मा में अन्तर नहीं मानते।

54 भगवान ने आगे कहा: जो मनुष्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव या जीवात्माओं को परब्रह्म से पृथक नहीं मानता और ब्रह्म को जानता है, वही वास्तव में शान्ति प्राप्त करता है, अन्य नहीं।

55 मैत्रेय मुनि ने कहा: इस प्रकार भगवान से भलीभाँति आदेश पाकर समस्त प्रजापतियों के प्रधान दक्ष ने भगवान विष्णु की पूजा की। यज्ञोत्सव के लिए स्वीकृत विधि से उनकी पूजा करने के अनन्तर उसने ब्रह्मा तथा शिव की भी अलग-अलग पूजा की।

56 दक्ष ने सभी प्रकार से सम्मान पूर्वक यज्ञ के शेष भाग के साथ शिव की पूजा की। याज्ञिक अनुष्ठानों की समाप्ति के पश्चात उसने अन्य समस्त देवों तथा वहाँ पर एकत्र अन्य जनों को संतुष्ट किया। तब पुरोहितों के साथ-साथ इन सारे कर्तव्यों को सम्पन्न करके उसने स्नान किया और वह पूर्णतया संतुष्ट हुआ।

57 इस प्रकार यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा विष्णु की पूजा करके दक्ष पूर्ण रूप से धार्मिक पथ पर स्थित हो गया। इसके साथ ही, यज्ञ में समागत समस्त देवताओं ने उसे आशीर्वाद दिया कि 'धर्मनिष्ठ हो' और तब वे चले गये।

58 मैत्रेय ने कहा: मैंने सुना है कि दक्ष से प्राप्त शरीर को त्याग देने के पश्चात दाक्षायणी (दक्ष की पुत्री) ने हिमालय के राज्य में जन्म लिया। वह मेना की पुत्री के रूप में जन्मी। इसे मैंने प्रामाणिक स्रोतों से सुना है।

59 अम्बिका (देवी दुर्गा) ने, जो दाक्षायणी (सती) कहलाती थीं, पुनः शिव को अपने पति के रूप में स्वीकार किया, जिस प्रकार कि भगवान की विभिन्न शक्तियाँ नवीन सृष्टि के समय कार्य करती हैं।

60 मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, मैंने परम भक्त एवं बृहस्पति के शिष्य उद्धव से शिव द्वारा ध्वंस किये गये दक्ष-यज्ञ की यह कथा सुनी थी।

61 मैत्रेय मुनि ने अन्त में कहा: हे कुरुनन्दन, यदि कोई भगवान विष्णु द्वारा संचालित दक्ष-यज्ञ की यह कथा श्रद्धा एवं भक्ति के साथ सुनता है और इसे फिर से सुनाता है, तो वह निश्चय ही इस संसार के समस्त कल्मष से विमल हो जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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[ भगवद्गीता 7.26 में भगवान ने कहा है -- वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन

जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है और भविष्य में जो कुछ होने जा रहा है, मैं वह सब जानता हूँ।   भगवान विष्णु सर्वज्ञ हैं, अतः वे जानते थे कि दक्ष की यज्ञशाला में क्या होगा।

इसी कारण से न तो नारायण और न ही ब्रह्माजी दक्ष के महान यज्ञ में सम्मिलित हुए।   (तात्पर्य श्रीमद भागवतम 4.6.3 – श्रील प्रभुपाद)

 

अध्याय छह – ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना (4.6)

1-2 जब समस्त पुरोहित तथा यज्ञ-सभा के सभी सदस्य और देवतागण शिवजी के सैनिकों द्वारा पराजित कर दिये गये और त्रिशूल तथा तलवार जैसे हथियारों से घायल कर दिये गये, तब वे डरते हुए ब्रह्माजी के पास पहुँचे। उनको नमस्कार करने के पश्चात जो हुआ था, उन्होंने विस्तार से उसके विषय में बोलना प्रारम्भ किया।

3 ब्रह्मा तथा विष्णु दोनों ही पहले से जान गये थे कि दक्ष के यज्ञ-स्थल में ऐसी घटनाएँ होंगी, अतः पूर्वानुमान हो जाने से वे उस यज्ञ में नहीं गये।

4 जब ब्रह्मा ने देवताओं तथा यज्ञ में सम्मिलित होने वाले सदस्यों से सब कुछ सुन लिया तो उन्होंने उत्तर दिया; यदि तुम किसी महापुरुष की निन्दा करके उसके चरणकमलों की अवमानना करते हो तो यज्ञ करके तुम कभी सुखी नहीं रह सकते। तुम्हें इस तरह से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती।

5 तुम लोगों ने शिव को प्राप्य यज्ञ-भाग ग्रहण करने से वंचित किया है, अतः तुम सभी उनके चरणकमलों के प्रति अपराधी हो। फिर भी, यदि तुम बिना किसी हिचक के उनके पास जाओ और उनको आत्मसमर्पण करके उनके चरणकमलों में गिरो तो वे अत्यन्त प्रसन्न होंगे।

6 ब्रह्मा ने उन्हें यह भी बतलाया कि शिवजी इतने शक्तिमान हैं कि उनके कोप से समस्त लोक तथा इनके प्रमुख लोकपाल तुरन्त ही विनष्ट हो सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अपनी प्रियतमा के निधन के कारण वे बहुत ही दुखी हैं और दक्ष के कटुवचनों से अत्यन्त मर्माहत हैं। ऐसी स्थिति में ब्रह्मा ने उन्हें सुझाया कि उनके लिए कल्याणप्रद यह होगा कि वे तुरन्त उनके पास जाकर उनसे क्षमा माँगें।

7 ब्रह्मा ने कहा कि न तो वे स्वयं, न इन्द्र, न यज्ञस्थल में समवेत समस्त सदस्य ही अथवा सभी मुनिगण ही जान सकते हैं कि शिव कितने शक्तिमान हैं। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन होगा जो उनके चरणकमलों पर पाप करने का दुस्साहस करेगा?

8 इस प्रकार समस्त देवताओं, पितरों तथा जीवात्माओं के अधिपतियों को उपदेश देकर ब्रह्मा ने उन सबों को अपने साथ ले लिया और शिव के धाम पर्वतों में श्रेष्ठ कैलाश पर्वत के लिए प्रस्थान किया।

9 कैलाश नामक धाम विभिन्न जड़ी-बूटियों तथा वनस्पतियों से भरा हुआ है और वैदिक मंत्रों तथा योग-अभ्यास द्वारा पवित्र हो गया है। इस प्रकार इस धाम के वासी जन्म से ही देवता हैं और समस्त योगशक्तियों से युक्त हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ पर अन्य मनुष्य हैं, जो किन्नर तथा गन्धर्व कहलाते हैं और वे अपनी-अपनी सुन्दर स्त्रियों के संग रहते हैं, जो अप्सराएँ कहलाती हैं।

10 कैलाश समस्त प्रकार की बहुमूल्य मणियों तथा खनिजों (धातुओं) से युक्त पर्वतों से भरा हुआ है और सभी प्रकार के मूल्यवान वृक्षों तथा पौधों द्वारा घिरा हुआ है। पर्वतों की चोटियाँ तरह-तरह के हिरणों से शोभायमान हैं।

11 वहाँ अनेक झरने हैं और पर्वतों में अनेक गुफाएँ हैं जिनमें योगियों की अत्यन्त सुन्दर पत्नियाँ रहती हैं।

12 कैलाश पर्वत पर सदैव मोरों की मधुर ध्वनि तथा भौंरों के गुंजार की ध्वनि गूँजती रहती है। कोयलें सदैव कूजती रहती हैं और अन्य पक्षी परस्पर कलरव करते रहते हैं।

13 वहाँ पर सीधी शाखाओं वाले ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हैं, जो मधुर पक्षियों को बुलाते प्रतीत होते हैं और जब हाथियों के झुण्ड पर्वतों के पास से गुजरते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कैलाश पर्वत उनके साथ-साथ चल रहा है। जब झरनों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कैलाश पर्वत भी सुर में सुर मिला रहा हो।

14-15 पूरा कैलाश पर्वत अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है, जिनमें से उल्लेखनीय नाम हैं-मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, ताल, कोविदार, आसन, अर्जुन, आम्र-जाति, कदम्ब, धूलि-कदम्ब, नाग, पुन्नाग, चम्पक, पाटल, अशोक, बकुल, कुन्द तथा कुरबक। सारा पर्वत ऐसे वृक्षों से सुसज्जित है जिनमें सुगन्धित पुष्प निकलते हैं।

16 वहाँ अन्य वृक्ष भी हैं, जो पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं, यथा सुनहरा कमलपुष्प, दारचीनी, मालती, कुब्ज, मल्लिका तथा माधवी।

17 कैलाश पर्वत जिन अन्य वृक्षों से सुशोभित है वे हैं कट अर्थात कटहल, गूलर, बरगद, पाकड़, न्यग्रोध तथा हींग उत्पादक वृक्ष। इसके अतिरिक्त सुपारी, भोजपत्र, राजपूग, जामुन तथा इसी प्रकार के अन्य वृक्ष हैं।

18 वहाँ आम, प्रियाल, मधुक(महुआ) तथा इंगुद (च्यूर) के वृक्ष हैं। इनके अतिरिक्त पतले बाँस, कीचक तथा बाँसों की अन्य किस्में कैलाश पर्वत को सुशोभित करनेवाली हैं।

19-20 वहाँ कई प्रकार के कमलपुष्प हैं यथा कुमुद, उत्पल, शतपत्र। वहाँ का वन अलंकृत उद्यान सा प्रतीत होता है और छोटी-छोटी झीलें विभिन्न प्रकार के पक्षियों से भरी पड़ी हैं, जो अत्यन्त मीठे स्वर से चहकते हैं। साथ ही कई प्रकार के अन्य पशु भी पाये जाते हैं, यथा मृग, बन्दर, सूअर, सिंह, रीछ, साही, नीलगाय, जंगली गधे, लघु मृग, भैंसे इत्यादि जो अपने जीवन का पूरा आनन्द उठाते हैं।

21 वहाँ पर तरह-तरह के मृग पाये जाते हैं, यथा कर्णात्र, एकपद, अश्वास्य, वृक तथा कस्तुरी मृग। इन मृगों के अतिरिक्त विविध केले के वृक्ष हैं, जो छोटी-छोटी झीलों को सुशोभित करते हैं।

22 वहाँ पर अलकनन्दा नाम की एक छोटी सी झील है, जिसमें सती स्नान किया करती थी। यह झील विशेष रूप से शुभ है। कैलाश पर्वत की विशेष शोभा देखकर सभी देवता वहाँ के ऐश्वर्य से अत्यधिक विस्मित थे।

23 इस प्रकार देवताओं ने सौगन्धिक नामक वन में अलका नामक विचित्र सुन्दर भाग को देखा। यह वन कमलपुष्पों की अधिकता के कारण सौगन्धिक कहलाता है। सौगन्धिक का अर्थ है "सुगन्धि से पूर्ण।"

24 उन्होंने नन्दा तथा अलकनन्दा नामक दो नदियाँ भी देखी। ये दोनों नदियाँ भगवान गोविन्द के चरणकमलों की रज से पवित्र हो चुकी है।

25 हे क्षत्त, हे विदुर, स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने-अपने पतियों सहित विमान से इन नदियों में उतरती है और रति विलास के पश्चात जल में प्रवेश करती है तथा अपने पतियों के ऊपर पानी उलीच कर आनन्द उठाती है।

26 स्वर्गलोक की सुन्दरियों द्वारा जल में स्नान करने के पश्चात उनके शरीर के कुमकुम के कारण वह जल पीला तथा सुगन्धित हो जाता है। अतः वहाँ पर स्नान करने के लिए हाथी--हथिनियों के साथ आते हैं और प्यासे न होने पर भी वे उस जल को पीते हैं।

27 स्वर्ग के निवासियों के विमानों में मोती, सोना तथा अनेक बहुमूल्य रत्न जड़े रहते हैं। स्वर्ग के निवासियों की तुलना उन बादलों से की गई है, जो आकाश में रहकर बिजली की चमक से सुशोभित रहते हैं।

28 यात्रा करते हुए देवता सौगन्धिक वन से होकर निकले जो अनेक प्रकार के पुष्पों, फलों तथा कल्पवृक्षों से पूर्ण था। इस वन से जाते हुए उन्होंने यक्षेश्वर के प्रदेशों को भी देखा।

29 उस नैसर्गिक वन में अनेक पक्षी थे जिनकी गर्दन लाल रंग की थी और उनका कलरव भौंरों के गुंजार से मिल रहा था। वहाँ के सरोवर शब्द करते हंसों के समूहों तथा लम्बे नाल वाले कमल पुष्पों से सुशोभित थे।

30 ऐसा वातावरण जंगली हाथियों को विचलित कर रहा था, जो चन्दन वृक्ष के जंगल में झुण्डों में एकत्र हुए थे। बहती हुई वायु अप्सराओं के मन को अधिकाधिक इन्द्रियभोग के लिए विचलित किए जा रही थी।

31 उन्होंने यह भी देखा कि नहाने के घाट तथा उनकी सीढ़ियाँ वैदूर्यमणि की बनी थी। जल कमलपुष्पों से भरा था। ऐसी झीलों के निकट से जाते हुए देवता उस स्थान पर पहुँचे जहाँ एक वटवृक्ष था।

32 वह वटवृक्ष आठ सौ मील ऊँचा था और उसकी शाखाएँ चारों ओर छह सौ मील तक फैली थी। उसकी मनोहर छाया से सतत शीतलता छाई थी, तो भी पक्षियों की गूँज सुनाई नहीं पड़ रही थी।

33 देवताओं ने शिव को, जो योगियों को सिद्धि प्रदान करने एवं समस्त लोगों का उद्धार करने में सक्षम थे, उस वृक्ष के नीचे आसीन देखा। अनन्त काल के समान गम्भीर, शिवजी ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो समस्त क्रोध का परित्याग कर चुके हों।

34 वहाँ पर शिवजी कुबेर, गुह्यकों के स्वामी तथा चारों कुमारों जैसी मुक्तात्माओं से घिरे हुए बैठे थे। शिवजी अत्यन्त गम्भीर एवं शान्त थे।

35 देवताओं ने शिवजी को इन्द्रिय, ज्ञान, सकाम कर्मों तथा सिद्धि मार्ग के स्वामी के रूप में स्थित देखा। वे समस्त जगत के मित्र हैं और सबके लिए पूर्ण स्नेह रखने के कारण वे अत्यन्त कल्याणकारी हैं।

36 वे मृगचर्म पर आसीन थे और सभी प्रकार की तपस्या कर रहे थे। शरीर में राख़ लगाये रहने से वे संध्याकालीन बादल की भाँति दिखाई पड़ रहे थे। उनकी जटाओं में अर्धचन्द्र का चिन्ह था, जो सांकेतिक प्रदर्शन है।

37 वे तृण (कुश) के आसन पर बैठे थे और वहाँ पर उपस्थित सबों को, विषेशरूप से नारद मुनि, को परम सत्य के विषय में उपदेश दे रहे थे।

38 उनका बायाँ पैर उनकी दाहिनी जाँघ पर रखा था और उनका बायाँ हाथ बायीं जाँघ पर था। दाहिने हाथ में उन्होंने रुद्राक्ष की माला पकड़ रखी थी। यह आसन वीरासन कहलाता है। इस प्रकार वे वीरासन में थे और उनकी अँगुली तर्क-मुद्रा में थी।

39 समस्त मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओं ने हाथ जोड़कर शिवजी को सादर प्रणाम किया। शिवजी ने केसरिया वस्त्र धारण कर रखा था और समाधि में लीन थे जिससे वे साधुओं में अग्रणी प्रतीत हो रहे थे।

40 शिवजी के चरणकमल देवताओं तथा असुरों द्वारा समान रूप से पूज्य हैं, फिर भी अपने उच्च पद की परवाह न करके उन्होंने ज्योंही देखा कि अन्य देवताओं में ब्रह्मा भी हैं, तो वे तुरन्त खड़े हो गए और झुक कर उनके चरणकमलों का स्पर्श करके उनका सत्कार किया, जिस प्रकार वामनदेव ने कश्यप मुनि को सादर नमस्कार किया था।

41 शिवजी के साथ जितने भी ऋषि, यथा नारद आदि, बैठे हुए थे उन्होंने भी ब्रह्मा को सादर नमस्कार किया। इस प्रकार पूजित होकर शिव से ब्रह्मा हँसते हुए कहने लगे।

42 ब्रह्मा ने कहा: हे शिव, मैं जानता हूँ कि आप सारे भौतिक जगत के नियन्ता, दृश्य जगत के माता-पिता और दृश्य जगत से भी परे परब्रह्म हैं। मैं आपको इसी रूप में जानता हूँ।

43 हे भगवान, आप अपने व्यक्तिगत विस्तार से इस दृश्य जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मकड़ी अपना जाला बनाती है, बनाये रखती हैं और फिर अन्त कर देती है।

44 हे भगवान, आपने दक्ष को माध्यम बनाकर यज्ञ-प्रथा चलाई है, जिससे मनुष्य धार्मिक कृत्य तथा आर्थिक विकास का लाभ उठा सकता है। आपके ही नियामक विधानों से चारों वर्णों तथा आश्रमों को सम्मानित किया जाता है। अतः ब्राह्मण इस प्रथा का दृढ़तापूर्वक पालन करने का व्रत लेते हैं।

45 हे परम मंगलमय भगवान, आपने स्वर्गलोक, वैकुण्ठलोक तथा निर्गुण ब्रह्मलोक को शुभ कर्म करने वालों का गन्तव्य निर्दिष्ट किया है। इसी प्रकार जो दुराचारी हैं उनके लिए अत्यन्त घोर नरकों की सृष्टि की है। तो भी कभी-कभी ये गन्तव्य उलट जाते हैं। इसका कारण तय कर पाना अत्यन्त कठिन है।

46 हे भगवान, जिन भक्तों ने अपना जीवन आपके चरण-कमलों पर अर्पित कर दिया है, वे प्रत्येक प्राणी में परमात्मा के रूप में आपकी उपस्थिति पाते हैं; फलतः वे प्राणी-प्राणी में भेद नहीं करते। ऐसे लोग सभी प्राणियों को समान रूप से देखते हैं। वे पशुओं की तरह क्रोध के वशीभूत नहीं होते, क्योंकि पशु बिना भेदबुद्धि के कोई वस्तु नहीं देख सकते।

47 जो लोग भेद-बुद्धि से प्रत्येक वस्तु को देखते हैं, जो केवल सकाम कर्मों में लिप्त रहते हैं, जो तुच्छबुद्धि हैं, जो अन्यों के उत्कर्ष को देखकर दुखी होते हैं और उन्हें कटु तथा मर्मभेदी वचनों से पीड़ा पहुँचाते रहते हैं, वे तो पहले से विधाता द्वारा मारे जा चुके हैं। अतः आप जैसे महान पुरुष द्वारा उनको फिर से मारने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।

48 हे भगवान, यदि कहीं भगवान की दुर्लंघ्य माया से, पहले से मोहग्रस्त भौतिकतावादी (संसारी) कभी-कभी पाप करते हैं, तो साधु पुरुष दया करके इन पापों को गम्भीरता से नहीं लेता। यह जानते हुए कि वे माया के वशीभूत होकर पापकर्म करते हैं, वह उनका प्रतिघात करने में अपने शौर्य का प्रदर्शन नहीं करता।

49 हे भगवान, आप परमात्मा की माया के मोहक प्रभाव से कभी मोहित नहीं होते। अतः आप सर्वज्ञ हैं, और जो भी उसी माया के द्वारा मोहती एवं सकाम कर्मों में अत्यधिक लिप्त हैं, उन पर कृपालु हों और अनुकम्पा करें।

50 हे शिव, आप यज्ञ का भाग पाने वाले हैं तथा फल प्रदान करने वाले हैं। दुष्ट पुरोहितों ने आपका भाग नहीं दिया, अतः आपने सर्वस्व ध्वंस कर दिया, जिससे यज्ञ अधूरा पड़ा है। अब आप जो आवश्यक हो, करें और अपना उचित भाग प्राप्त करें।

51 हे भगवान आपकी कृपा से यज्ञ के कर्ता (राजा दक्ष) को पुनः जीवन दान मिले, भग को उसके नेत्र मिल जायें, भृगु को उसकी मूँछें तथा पूषा को उसके दाँत मिल जाएँ।

52 हे शिव, जिन देवताओं तथा पुरोहितों के अंग आपके सैनिकों द्वारा क्षत-विक्षत हो चुके हैं, वे आपकी कृपा से तुरन्त ठीक हो जाँय।

53 हे यज्ञविध्वंसक, आप अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करें और कृपापूर्वक यज्ञ को पूरा होने दें।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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सती के भस्म होने पर शिवजी के गणों द्वारा यक्ष प्रजापति का वध तथा उसके यज्ञ का विध्वंस किये जाने पर ब्रह्मादि देवताओं सहित सब लोगों का उनके पास जाना (4.5.24-26तथा 4.6.1-34)

अध्याय पाँच – दक्ष के यज्ञ का विध्वंस (4.5)

1 मैत्रेय ने कहा: जब शिव ने नारद से सुना कि उनकी पत्नी सती प्रजापति दक्ष द्वारा किये गये अपमान के कारण मर चुकी हैं और ऋभुओं द्वारा उनके सैनिक खदेड़ दिये गये हैं, तो वे अत्यधिक क्रोधित हुए।

2 इस प्रकार अत्यधिक क्रुद्ध होने के कारण शिव ने अपने दाँतों से होंठ चबाते हुए तुरन्त अपने सिर की जटाओं से एक लट नोच ली, जो बिजली अथवा अग्नि की भाँति जलने लगी। वे पागल की भाँति हँसते हुए तुरन्त खड़े हो गये और उस लट को पृथ्वी पर पटक दिया।

3 उससे आकाश के समान ऊँचा तथा तीन सूर्यों के सम्मिलित तेज के समान एक भयानक श्याम वर्ण का असुर उत्पन्न हुआ, जिसके दाँत अत्यन्त भयानक थे और उसके सिर के केश प्रज्ज्वलित अग्नि के समान लग रहे थे। उसकी हजारों भुजाएँ थीं, जो अस्त्र-शस्त्रों से लैस थीं और उसने नरमुंडों की माला पहन रखी थी।

4 उस महाकाय असुर ने जब हाथ जोड़ कर पूछा, “हे नाथ! मैं क्या करूँ?” भूतनाथ रूप शिव ने प्रत्यक्षतः आदेश दिया "तुम मेरे शरीर से उत्पन्न होने के कारण मेरे समस्त पार्षदों के प्रमुख हुए, अतः यज्ञ (स्थल) पर जाकर दक्ष को उसके सैनिकों सहित मार डालो।"

5 मैत्रेय ने आगे बताया: हे विदुर, वह श्याम पुरुष भगवान का साक्षात क्रोध था और शिवजी के आदेशों का पालन करने के लिए उद्यत था। इस प्रकार किसी भी विरोधी शक्ति का सामना करने में अपने को समर्थ समझ कर उसने भगवान शिव की प्रदक्षिणा की।

6 घोर गर्जना करते हुए शिव के अन्य अनेक सैनिक भी उस भयानक असुर के साथ हो लिए। वह एक विशाल त्रिशूल लिए हुए था, जो इतना भयानक था कि मृत्यु का भी वध करने में समर्थ था और उसके पाँवों में कड़े थे, जो गर्जना करते प्रतीत हो रहे थे।

7 उस समय यज्ञस्थल में एकत्रित सभी लोग—पुरोहित, प्रमुख यजमान, ब्राह्मण तथा उनकी पत्नियाँ – आश्चर्य करने लगे कि यह अंधकार कहाँ से आ रहा है। बाद में उनकी समझ में आया कि यह धूलभरी आँधी थी और वे सभी अत्यन्त व्याकुल हो गये थे।

8 आँधी के स्रोत के सम्बन्ध में अनुमान लगाते हुए उन्होंने कहा: न तो तेज हवाएँ चल रही हैं और न गौएँ ही जा रही है, न यह सम्भव है कि यह धूल भरी आँधी लुटेरों द्वारा उठी है, क्योंकि अभी भी बलशाली राजा बर्हि उन्हें दण्ड देने के लिए जीवित है। तो फिर यह धूलभरी आँधी कहाँ से आ रही है? क्या इस लोक का प्रलय होने वाला है?

9 दक्ष की पत्नी प्रसूति एवं वहाँ पर एकत्र अन्य स्त्रियों ने अत्यन्त आकुल होकर कहा: यह संकट दक्ष के कारण सती की मृत्यु से उत्पन्न है, क्योंकि निर्दोष सती ने अपनी बहनों के देखते-देखते अपना शरीर त्याग दिया है।

10 प्रलय के समय, शिव के बाल बिखर जाते हैं और वे अपने त्रिशूल से विभिन्न दिशाओं के शासकों (दिक्पतियों) को बेध लेते हैं। वे गर्वपूर्वक अट्टहास करते हुए ताण्डव नृत्य करते हैं और दिक्पतियों की भुजाओं को पताकाओं के समान बिखेर देते हैं, जिस प्रकार मेघों की गर्जना से समस्त लोकों में बादल छितरा जाते हैं।

11 उस विराट श्याम पुरुष ने अपने डरावने दाँत निकाल लिए। अपनी भौंहों के चालन से उसने आकाश भर में तारों को तितर-बितर कर दिया और उन्हें अपने प्रबल भेदक तेज से आच्छादित कर लिया। दक्ष के कुव्यवहार के कारण दक्ष के पिता ब्रह्मा तक इस घोर कोप-प्रदर्शन से नहीं बच सकते थे।

12 जब सभी लोग परस्पर बातें कर रहे थे तो दक्ष को समस्त दिशाओं से, पृथ्वी से तथा आकाश से, अशुभ संकेत (अपशकुन) दिखाई पड़ने लगे।

13 हे विदुर, शिव के समस्त अनुचरों ने यज्ञस्थल को घेर लिया। वे नाटे कद के थे और अनेक प्रकार के हथियार लिए हुए थे उनके शरीर मकर के समान कुछ-कुछ काले तथा पीले थे। वे यज्ञस्थल के चारों ओर दौड़-दौड़कर उत्पात मचाने लगे।

14 कुछ सैनिकों ने यज्ञ-पण्डाल के आधार-स्तम्भों को नीचे गिरा दिया, कुछ स्त्रियों के कक्ष में घुस गये, कुछ ने यज्ञस्थान को विनष्ट करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ रसोई घर तथा आवासीय कक्षों में घुस गये।

15 उन्होंने यज्ञ के सभी पात्र तोड़ दिये और उनमें से कुछ यज्ञ-अग्नि को बुझाने लगे। कुछेक ने तो यज्ञस्थल की सीमांकन मेखलाएँ तोड़ दी और कुछ ने यज्ञस्थल में मूत्र त्याग कर दिया।

16 इनमें से कुछ ने भागते मुनियों का रास्ता रोक लिया, कुछ ने वहाँ पर एकत्र स्त्रियों को डराया-धमकाया और कुछ ने पण्डाल से भागते हुए देवताओं को बन्दी बना लिया।

17 शिव के एक अनुचर मणिमान ने भृगुमुनि को बन्दी बना लिया तथा श्याम असुर वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष को पकड़ लिया। एक अन्य अनुचर चण्डेश ने पूषा को तथा नन्दीश्वर ने भग देवता को बन्दी बना लिया।

18 लगातार पत्थरों की वर्षा के कारण समस्त पुरोहित तथा यज्ञ में एकत्र अन्य सदस्य महान संकट में पड़ गये। अपने प्राणों के भय से वे चारों ओर तितर-बितर हो गये।

19 वीरभद्र ने अपने हाथों से अग्नि में आहुति डालते हुए भृगुमुनि की मूँछ नोच ली।

20 वीरभद्र ने तुरन्त उस भग को पकड़ लिया, जो भृगु द्वारा शिव को शाप देते समय अपनी भौंहे मटका रहा था। उसने अत्यन्त क्रोध में आकर भग को पृथ्वी पर पटक दिया और बलपूर्वक उसकी आँखें निकाल लीं।

21 जिस प्रकार बलदेव ने अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में द्यूतक्रीड़ा के समय कलिंगराज दन्तवक्र के दाँत निकाल लिये थे, उसी प्रकार से वीरभद्र ने दक्ष तथा पूषा दोनों के दाँत उखाड़ लिये, क्योंकि दक्ष ने शिव को शाप दिये जाते समय दाँत दिखाये थे और पूषा ने भी सहमति स्वरूप हँसते हुए दाँत दिखाए थे।

22 तब वह दैत्य सदृश पुरुष वीरभद्र दक्ष की छाती पर चढ़ बैठा और तीक्ष्ण हथियार से उसके शरीर से सिर काटकर अलग करने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु सफल नहीं हुआ।

23 उसने मंत्रों तथा हथियारों के बल पर दक्ष का सिर काटना चाहा, किन्तु दक्ष के सिर की चमड़ी तक को काट पाना दूभर हो रहा था। इस प्रकार वीरभद्र अत्यधिक चकित हुआ।

24 तब वीरभद्र ने यज्ञशाला में लकड़ी की बनी युक्ति (करनी) देखी जिससे पशुओं का वध किया जाता था। उसने दक्ष का सिर काटने में इसका लाभ उठाया।

25 वीरभद्र के कार्य से शिवजी के दल को प्रसन्नता हुई और वह वाह-वाह कर उठा तथा जितने भी भूत, प्रेत तथा असुर वहाँ आये थे, इन सबों ने भयानक किलकारियाँ भरी। दूसरी ओर, यज्ञ का भार सँभालने वाले ब्राह्मण दक्ष की मृत्यु के कारण शोक से चीत्कार करने लगे।

26 फिर वीरभद्र ने उस सिर को लेकर अत्यन्त क्रोध से यज्ञ अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति के रूप में डाल दिया। इस प्रकार शिव के अनुचरों ने यज्ञ की सारी व्यवस्था तहस-नहस कर डाली और समस्त यज्ञ क्षेत्र में आग लगाकर अपने स्वामी के धाम, कैलाश के लिए प्रस्थान किया।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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शिवजी के मना करने पर भी सती का अपने पिता के यज्ञ में आना तथा अपने पति के लिए यज्ञ का भाग न दिए जाने पर योगाग्नि से स्वयं को भस्म करना।  (4.4.3-27)

अध्याय चार – सती द्वारा शरीर-त्याग(4.4)

1 मैत्रेय मुनि ने कहा: सती को असमंजस में पाकर शिवजी यह कहकर शान्त हो गये। सती अपने पिता के घर में अपने सम्बन्धियों को देखने के लिए अत्यधिक इच्छुक थी, किन्तु साथ ही वह शिवजी की चेतावनी से भयभीत थी। मन अस्थिर होने से वह हिंडोले की भाँति कक्ष से बाहर और भीतर आ-जा रही थी।

2 इस तरह अपने पिता के घर जाकर अपने सम्बन्धियों को देखने से मना किये जाने पर सती अत्यन्त दुखी हुई। उन सबके स्नेह के कारण उनकी आँखों से अश्रु गिरने लगे। अत्यधिक थरथराती एवं विचलित होकर उन्होंने अपने अद्वितीय पति भगवान शंकर को देखा।

3 तत्पश्चात सती अपने पति शिवजी को, जिन्होंने प्रेमवश उसे अपना अर्धांग प्रदान किया था, छोड़कर क्रोध तथा शोक के कारण लम्बी-लम्बी साँसें भरती हुई अपने पिता के घर को चली गई। यह अल्प बुद्धिमत्ता-पूर्ण कार्य उनके अबला नारी होने के फलस्वरूप हुआ।

4 जब सती को अकेले तेजी से जाते देखा तो शिवजी के हजारों शिष्यों, जिनमें मणिमान तथा मद प्रमुख थे, नन्दी बैल को आगे करके तथा यक्षों को साथ लेकर सती के पीछे-पीछे हो लिए।

5 शिव के अनुचरों ने सती को बैल पर चढ़ा लिया और उन्हें उनकी पालतू चिड़िया (मैना) दे दी। उन्होंने कमल का फूल, एक दर्पण तथा उनके आमोद-प्रमोद की सारी सामग्री ले ली और उनके ऊपर एक विशाल छत्र तान दिया। उनके पीछे ढोल, शंख तथा बिगुल बजाता हुआ दल राजसी शोभा यात्रा के समान भव्य लग रहा था।

6 जब सती अपने पिता के घर पहुँची जहाँ यज्ञ हो रहा था और उसने यज्ञस्थल में प्रवेश किया जहाँ वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण हो रहा था। वहाँ सभी ऋषि, ब्राह्मण तथा देवता एकत्र थे। वहाँ पर अनेक बलि-पशु थे और साथ ही मिट्टी, पत्थर, सोने, कुश तथा चर्म के बने पात्र थे जिनकी यज्ञ में आवश्यकता पड़ती है।

7 जब सती अनुचरों सहित यज्ञस्थल में पहुँचीं, तो किसी ने उनका स्वागत नहीं किया, क्योंकि वहाँ पर एकत्रित सभी लोग दक्ष से भयभीत थे। उनकी माता तथा बहनों ने अश्रुपूरित नेत्रों तथा प्रसन्न मुखों से उसका स्वागत किया और उससे बड़े ही प्रेम से बातें कीं।

8 यद्यपि उनकी बहनों तथा माता ने उनका स्वागत-सत्कार किया, किन्तु उन्होंने उनके स्वागत-वचनों का कोई उत्तर नहीं दिया। यद्यपि उन्हें आसन तथा उपहार दिये गये, किन्तु उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनके पिता न तो उनसे बोले और न उनका कुशल-क्षेम पूछकर उनका सत्कार किया।

9 यज्ञस्थल में जाकर सती ने देखा कि उनके पति शिवजी के कोई यज्ञ भाग नहीं रखे गये हैं। तब उन्हें यह आभास हुआ कि उनके पिता ने शिव को आमंत्रित नहीं किया; उल्टे जब दक्ष ने शिव की पूज्य पत्नी को देखा तो उसका भी आदर नहीं किया। अतः इससे वे अत्यन्त क्रुद्ध हुई; यहाँ तक कि वह अपने पिता को इस प्रकार देखने लगीं मानो उन्हें अपने नेत्रों से भस्म कर देंगी।

10 शिव के अनुचर, भूतगण दक्ष को क्षति पहुँचाने अथवा मारने के लिए तत्पर थे, किन्तु सती ने आदेश देकर उन्हें रोका। वे अत्यन्त क्रुद्ध और दुखी थीं और उसी भाव में वे यज्ञ के सकामकर्मों की विधि की तथा उन व्यक्तियों की, जो इस प्रकार के अनावश्यक एवं कष्टकर यज्ञों के लिए गर्व करते हैं, भर्त्सना करने लगीं। उन्होंने सबों के समक्ष अपने पिता के विरुद्ध बोलते हुए उनकी विशेष रूप से निन्दा की।

11 देवी सती ने कहा: भगवान शिव तो समस्त जीवात्माओं के लिए अत्यन्त प्रिय हैं। उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। न तो कोई उनका अत्यन्त प्रिय है और न कोई उनका शत्रु है। आपके सिवा और ऐसा कौन है, जो ऐसे विश्वात्मा से द्वेष करेगा, जो समस्त वैर से रहित हैं?

12 हे द्विज दक्ष, आप जैसा व्यक्ति ही अन्यों के गुणों में दोष ढूँढ सकता है। किन्तु शिव अन्यों के गुणों में कोई दोष नहीं निकालते, विपरीत इसके यदि किसी में थोड़ा भी गुण होता है, तो वे उसे और भी अधिक बढ़ा देते हैं। दुर्भाग्यवश आपने ऐसे महापुरुष पर दोषारोपण किया है।

13 जिन लोगों ने इस नश्वर भौतिक शरीर को ही आत्मरूप मान रखा है, उनके लिए महापुरुषों की निन्दा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं। भौतिकतावादी पुरुषों के लिए ऐसी ईर्ष्या ठीक ही है, क्योंकि इसी प्रकार से उनका पतन होता है। वे महापुरुषों की चरण-रज से लघुता प्राप्त करते हैं।

14 सती ने आगे कहा: हे पिता, आप शिव से द्वेष करके घोरतम अपराध कर रहे हैं क्योंकि उनका दो अक्षरों, शि तथा व, वाला नाम मनुष्य को समस्त पापों से पवित्र करने वाला है। उनके आदेश की कभी उपेक्षा नहीं होती। शिवजी सदैव शुद्ध हैं और आपके अतिरिक्त अन्य कोई उनसे द्वेष नहीं करता।

15 आप उन शिव से द्रोह करते हैं, जो तीनों लोकों के समस्त प्राणियों के मित्र हैं। वे सामान्य पुरुषों की समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं और ब्रह्मानन्द (दिव्य आनन्द) की खोज करने वाले उन महापुरुषों को भी आशीर्वाद देते हैं, जो उनके चरण-कमलों के ध्यान में लीन रहते हैं।

16 क्या आप सोचते हैं कि आपसे भी बढ़कर सम्माननीय व्यक्ति जैसे भगवान ब्रह्मा, इस शिव नाम से विख्यात अमंगल व्यक्ति को नहीं जानते? वे श्मशान में असुरों के साथ रहते हैं, उनकी जटाएँ शरीर के ऊपर बिखरी रहती हैं, वे नरमुंडों की माला धारण करते हैं और श्मशान की राख़ शरीर में लपेटे रहते हैं, किन्तु इन अशुभ गुणों के होते हुए भी ब्रह्मा जैसे महापुरुष उनके चरणों पर चढ़ाये गये फूलों को आदरपूर्वक अपने मस्तकों पर धारण करके उनका सम्मान करते हैं।

17 सती ने आगे कहा: यदि कोई किसी निरंकुश व्यक्ति को धर्म के स्वामी तथा नियंत्रक की निन्दा करते सुने और यदि वह उसे दण्ड देने में समर्थ नहीं है, तो उसे चाहिए कि कान मूँदकर वहाँ से चला जाय। किन्तु यदि वह मारने में सक्षम है, तो उसे चाहिए कि वह बलपूर्वक निन्दक की जीभ काट ले और अपराधी का वध कर दे। तत्पश्चात वह अपने भी प्राण त्याग दे।

18 अतः मैं इस अयोग्य शरीर को, जिसे मैंने आपसे प्राप्त किया है और अधिक काल तक धारण नहीं करूँगी, क्योंकि आपने शिवजी की निन्दा की है। यदि कोई विषैला भोजन कर ले तो सर्वोत्तम उपचार यही है कि उसे वमन कर दिया जाय।

19 दूसरों की आलोचना करने से श्रेयस्कर है कि अपना कर्तव्य निभाया जाये। बड़े-बड़े दिव्य पुरुष भी कभी-कभी वेदों के विधि-विधानों का उल्लंघन कर देते हैं, क्योंकि उन्हें अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जैसे कि देवता तो आकाश मार्ग में विचरते हैं, किन्तु सामान्य जन धरती पर चलते हैं।

20 वेदों में दो प्रकार के कर्मों के निर्देश दिये गये हैं – एक उनके लिए जो भौतिक सुख में लिप्त हैं और दूसरा उनके लिए जो भौतिक रूप से विरक्त हैं। इन दो प्रकार के कर्मों का विचार करते हुए दो प्रकार के मनुष्य हैं जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। यदि कोई एक ही व्यक्ति में इन दोनों प्रकार के कर्मों को देखना चाहता है, तो यह विरोधाभास होगा। किन्तु दिव्य पुरुष के द्वारा इन दोनों प्रकार के कर्मों की उपेक्षा की जा सकती है।

21 हे पिता, हमारे पास जो ऐश्वर्य है उसकी कल्पना कर पाना न तो आपके लिए और न आपके चाटुकारों के लिए सम्भव है, क्योंकि जो पुरुष महान यज्ञों को सम्पन्न करके सकाम कर्म में प्रवृत्त होते हैं, वे तो अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को यज्ञ में अर्पित अन्न खाकर पूरा करने की चिन्ता में लगे रहते हैं। हम वैसा सोचने मात्र से ही अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन कर सकते हैं। ऐसा वे ही कर सकते हैं, जो विरक्त, स्वरूपसिद्ध महापुरुष हैं।

22 आप भगवान शिव के चरणकमलों के प्रति अपराधी हैं और दुर्भाग्यवश मेरा शरीर आपसे उत्पन्न है। मुझे अपने इस शारीरिक सम्बन्ध के लिए अत्यधिक लज्जा आ रही है और मैं अपनी स्वयं भर्त्सना करती हूँ कि मेरा शरीर ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध से दूषित है, जो महापुरुष के चरणकमलों के प्रति अपराधी है।

23 जब शिवजी मुझे दाक्षायणी कह कर पुकारते हैं, तो अपने पारिवारिक सम्बन्ध के कारण मैं तुरन्त खिन्न हो उठती हूँ और मेरी सारी प्रसन्नता तथा हँसी तुरन्त भाग जाती है। मुझे अत्यन्त खेद होता है कि मेरे यह थैले जैसा शरीर आपके द्वारा उत्पन्न है। अतः मैं इसे त्याग दूँगी।

24 मैत्रेय ऋषि ने विदुर से कहा: हे शत्रुओं के संहारक, यज्ञस्थल में अपने पिता से ऐसा कह कर सती भूमि पर उत्तरमुख होकर बैठ गई। केसरिया वस्त्र धारण किये उन्होंने जल से अपने को पवित्र किया और योगक्रिया में अपने को ध्यानमग्न करने के लिए अपनी आँखें मूँद ली।

25 उन्होंने अपेक्षित रीति से आसन जमाया और फिर प्राणवायु को ऊपर खींचकर नाभि के निकट संतुलित अवस्था में स्थापित कर दिया। तब प्राणवायु को उत्थापित करके, बुद्धिपूर्वक उसे वे हृदय में ले गई और फिर धीरे-धीरे श्वास मार्ग से होते हुए क्रमशः दोनों भौंहों के बीच में ले आई।

26 इस प्रकार महर्षियों तथा सन्तों द्वारा आराध्य शिव की गोद में जिस शरीर को अत्यन्त आदर तथा प्रेम से बैठाया गया था, अपने पिता के प्रति रोष के कारण सती ने अपने उस शरीर का परित्याग करने के लिए अपने शरीर के भीतर अग्निमय वायु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया।

27 सती ने अपना सारा ध्यान अपने पति जगद्गुरु शिव के पवित्र चरणकमलों पर केन्द्रित कर दिया। इस प्रकार वे समस्त पापों से शुद्ध हो गईं। उन्होंने अग्निमय तत्त्वों के ध्यान द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि में अपने शरीर का परित्याग कर दिया।

28 जब सती ने कोपवश अपना शरीर भस्म कर दिया तो समूचे ब्रह्माण्ड में घोर कोलाहल मच गया कि सर्वाधिक पूज्य देवता शिव की पत्नी सती ने इस प्रकार अपना शरीर क्यों छोड़ा?

29 यह आश्चर्यजनक बात है कि प्रजापति दक्ष, जो समस्त जीवात्माओं का पालनहारा है, अपनी पुत्री सती के प्रति इतना निरादरपूर्ण था कि उस परम साध्वी एवं महान आत्मा ने उसकी उपेक्षा के कारण अपना शरीर त्याग दिया।

30 ऐसा दक्ष जो इतना कठोर-हृदय है कि ब्राह्मण होने के अयोग्य है, वह अपनी पुत्री के प्रति किये गये अपराधों के कारण अतीव अपयश को प्राप्त होगा, क्योंकि उसने अपनी पुत्री को मरने से नहीं रोका और वह भगवान के प्रति अत्यन्त द्वेष रखता था।

31 जिस समय सब लोग सती की आश्चर्यजनक स्वेच्छित मृत्यु के विषय में परस्पर बातें कर रहे थे, उसी समय शिव के पार्षद, जो सती के साथ आए थे, अपने-अपने हथियार लेकर दक्ष को मारने के लिए उद्यत हो गये।

32 वे बलपूर्वक आगे बढ़े, किन्तु भृगुमुनि ने संकट को ताड़ लिया और याज्ञिक अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति डालते हुए उन्होंने तुरन्त यजुर्वेद से मंत्र पढ़े जिससे यज्ञ को विध्वंस करने वाले तुरन्त मर जाएँ।

33 जब भृगुमुनि ने अग्नि में आहुति डाली तो तत्क्षण ऋभु नामक हजारों देवता प्रकट हो गये। वे सभी शक्तिशाली थे और उन्होंने सोम अर्थात चन्द्र से शक्ति प्राप्त की थी।

34 जब ऋभु देवताओं ने भूतों तथा गुह्यकों पर यज्ञ की अधजली समिधाओं से आक्रमण कर दिया तो सती के सारे अनुचर विभिन्न दिशाओं में भागकर अदृश्य हो गये। यह ब्रह्मतेज अर्थात ब्राह्मणशक्ति के कारण ही सम्भव हो सका।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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{ शिवजी का अपनी पत्नी सती को उसके पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाने के लिए मना करना।  (4.3.18-25)}

अध्याय तीन – श्रीशिव तथा सती का संवाद (4.3)

1 मैत्रेय ने आगे कहा: इस प्रकार से जामाता शिव तथा श्वसुर दक्ष के बीच दीर्घकाल तक तनाव बना रहा।

2 ब्रह्मा ने जब दक्ष को समस्त प्रजापतियों का मुखिया बना दिया तो दक्ष गर्व से फूल उठा।

3 दक्ष ने वाजपेय नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और उसे अत्यधिक विश्वास था कि ब्रह्माजी का समर्थन तो प्राप्त होगा ही। तब उसने एक अन्य महान यज्ञ किया जिसे बृहस्पति-सव कहते हैं।

4 जब यज्ञ सम्पन्न हो रहा था ब्रह्माण्ड के विभिन्न भागों से अनेक ब्रह्मर्षि, मुनि, पितृकुल के देवता तथा अन्य देवता, आभूषणों से अलंकृत अपनी-अपनी पत्नियों सहित उसमें सम्मिलित हुए।

5-7 दक्ष कन्या साध्वी सती ने आकाश मार्ग से जाते हुए स्वर्ग के निवासियों को परस्पर बातें करते हुए सुना कि उसके पिता द्वारा महान यज्ञ सम्पन्न कराया जा रहा है। जब उसने देखा कि सभी दिशाओं से स्वर्ग के निवासियों की सुन्दर पत्नियाँ, जिनके नेत्र अत्यन्त सुन्दरता से चमक रहे थे, उसके घर के समीप से होकर सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा कानों में कुण्डल एवं गले में लाकेट युक्त हार से अलंकृत होकर जा रही हैं, तो वह अपने पति भूतनाथ के पास अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक गई और इस प्रकार बोली।

8 सती ने कहा: हे प्राणप्रिय शिव, इस समय आपके श्वसुर महान यज्ञ कर रहे हैं और सभी देवता आमंत्रित होकर वहीं जा रहे हैं। यदि आप कहें तो हम भी चले चलें।

9 मैं सोचती हूँ कि मेरी सभी बहनें अपने सम्बन्धियों से भेंट करने की इच्छा से अपने-अपने पतियों सहित इस महान यज्ञ में अवश्य आयी होंगी। मैं भी अपने पिता द्वारा प्रदत्त आभूषणों से अपने को अलंकृत करके आपके साथ उस उत्सव में भाग लेने की इच्छुक हूँ।

10 वहाँ पर मेरी बहनें, मौसियाँ तथा मौसा एवं अन्य प्रिय परिजन एकत्र होंगे; अतः यदि मैं वहाँ तक जाऊँ तो उन सबों से मेरी भेंट हो जाये और साथ ही मैं उड़ती हुई ध्वजाएँ तथा ऋषियों द्वारा सम्पन्न होते यज्ञ को भी देख सकूँगी। हे प्रिय, इसी कारण से मैं जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

11 यह दृश्य जगत त्रिगुणों की अन्तःक्रिया अथवा परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति की अद्भुत सृष्टि है। आप इस वास्तविकता से भलीभाँति परिचित हैं। किन्तु मैं तो अबला स्त्री हूँ और जैसा आप जानते हैं मैं सत्य से अनजान हूँ। अतः मैं एक बार फिर से अपनी जन्मभूमि देखना चाहती हूँ।

12 हे अजन्मा, हे नीलकण्ठ, न केवल मेरे सम्बन्धी वरन अन्य स्त्रियाँ भी अच्छे अच्छे वस्त्र पहने और आभूषणों से अलंकृत होकर अपने पतियों तथा मित्रों के साथ जा रही हैं। जरा देखो तो कि उनके श्वेत विमानों के झुण्डों ने सारे आकाश को किस प्रकार सुशोभित कर रखा है।

13 हे देवश्रेष्ठ, भला एक पुत्री का शरीर यह सुनकर कि उसके पिता के घर में कोई उत्सव हो रहा है, विचलित हुए बिना कैसे रह सकता है? यद्यपि आप यह सोच रहे होंगे कि मुझे आमंत्रित नहीं किया गया, किन्तु अपने मित्र, पति, गुरु या पिता के घर बिना बुलाये भी जाने में कोई हानि नहीं होती।

14 हे अमर शिव, कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरी इच्छा पूरी करें। आपने मुझे अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया है, अतः मुझ पर दया करके मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।

15 मैत्रेय महर्षि ने कहा: इस प्रकार अपनी प्रियतमा द्वारा सम्बोधित किये जाने पर कैलाश पर्वत के उद्धारक शिव ने हँसते हुए उत्तर दिया यद्यपि उसी समय उन्हें विश्व के समस्त प्रजापतियों के समक्ष दक्ष द्वारा कहे गये द्वेषपूर्ण मर्मभेदी शब्द स्मरण हो आये।

16 प्रभु ने उत्तर दिया: हे सुन्दरी, तुमने कहा कि अपने मित्र के घर बिना बुलाये जाया जा सकता है। यह सच है, किन्तु तब जब वह देहात्मबोध के कारण अतिथि में दोष न निकाले और उस पर क्रुद्ध न हो।

17 यद्यपि शिक्षा, तप, धन, सौन्दर्य, यौवन और कुलीनता – ये छह गुण अत्यन्त उच्च होते हैं, किन्तु जो इनको प्राप्त करके मदान्ध हो जाता है और इस प्रकार सद्ज्ञान खो बैठता है, वह महापुरुषों की महिमा को स्वीकार नहीं कर पाता।

18 मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी स्थिति में किसी दूसरे व्यक्ति के घर न जाये, भले ही वह उसका सम्बन्धी या मित्र ही क्यों न हो, जब वह मन से क्षुब्ध हो और अतिथि को तनी हुई भृकुटियों एवं क्रुद्ध नेत्रों से देख रहा हो।

19 शिवजी ने कहा: यदि कोई शत्रु के बाणों से आहत हो तो उसे उतनी व्यथा नहीं होती जितनी कि स्वजनों के कटु वचनों से होती है क्योंकि यह पीड़ा रात-दिन हृदय में चुभती रहती है।

20 हे शुभांगिनी प्रिये, यह स्पष्ट है कि तुम दक्ष को अपनी पुत्रियों में सबसे अधिक प्यारी हो, तो भी तुम उसके घर में सम्मानित नहीं होगी, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो। उल्टे तुम्हें ही दुख होगा कि तुम मुझसे सम्बन्धित हो।

21 जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित होकर सदैव मन से तथा इन्द्रियों से संतापित रहता है, वह स्वरूप-सिद्ध पुरुषों के ऐश्वर्य को सहन नहीं कर पाता। आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने में अक्षम होने से वह ऐसे पुरुषों से उसी प्रकार से ईर्ष्या करता है, जिस प्रकार असुर श्रीभगवान से ईर्ष्या करते हैं।

22 हे तरुणी भार्ये, निस्सन्देह, मित्र तथा स्वजन खड़े होकर एक दूसरे का स्वागत और नमस्कार करके परस्पर अभिवादन करते हैं। किन्तु जो दिव्य पद पर ऊपर उठ चुके हैं, वे प्रबुद्ध होने के कारण ऐसा सम्मान प्रत्येक शरीर में वास करने वाले परमात्मा का ही करते हैं, देहाभिमानी पुरुष का नहीं।

23 मैं शुद्ध कृष्णचेतना में भगवान वासुदेव को सदैव नमस्कार करता रहता हूँ। कृष्णभावनामृत ही सदैव शुद्ध चेतना है, जिसमें वासुदेव नाम से अभिहित श्रीभगवान का बिना किसी प्रकार का दुराव का अनुभव होता है।

24 अतः तुम्हें अपने पिता को, यद्यपि वह तुम्हारे शरीर का दाता है, मिलने नहीं जाना चाहिए क्योंकि वह और उसके अनुयायी मुझसे ईर्ष्या करते हैं। हे परम पूज्या, इसी ईर्ष्या के कारण मेरे निर्दोष होते हुए भी उसने अत्यन्त कटु शब्दों से मेरा अपमान किया है।

25 यदि इस शिक्षा के बावजूद मेरे वचनों की उपेक्षा करके तुम जाने का निश्चय करती हो तो तुम्हारे लिए भविष्य अच्छा नहीं होगा। तुम अत्यन्त सम्माननीय हो और जब तुम स्वजन द्वारा अपमानित होगी तो यह अपमान तुरन्त ही मृत्यु के तुल्य हो जाएगा।

(समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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इस भौतिक कल्मष से छुटकारा पाने के लिए भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए जैसा कि भगवद गीता (7.14) में कहा गया है -- मामेव ये प्रपद्यनते मायामेतां तरन्ति ते।

सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है कि शाप तथा वरदान से ऊपर उठा जाये और भगवान कृष्ण की शरण ग्रहण की जाये तथा दिव्य स्थिति में रहा जाये।  तात्पर्य श्रीमद भागवतम 4.2.27  श्रील प्रभुपाद

अध्याय दो – दक्ष द्वारा शिवजी को शाप (4.2)

1 विदुर ने पूछा: जो दक्ष अपनी पुत्री के प्रति इतना स्नेहवान था वह शीलवानों में श्रेष्ठतम भगवान शिव के प्रति इतना ईर्ष्यालु क्यों था? उसने अपनी पुत्री सती का अनादर क्यों किया?

2 भगवान शिव समग्र संसार के गुरु, शत्रुतारहित, शान्त और आत्मतुष्ट व्यक्ति हैं। वे देवताओं में सबसे महान हैं। यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ऐसे मंगलमय व्यक्ति के प्रति दक्ष वैरभाव रखता ?

3 हे मैत्रेय, मनुष्य के लिए अपने प्राण त्याग पाना अत्यन्त कठिन है। क्या आप मुझे बता सकेंगे कि ऐसे दामाद तथा श्वसुर में इतना कटु विद्वेष क्यों हुआ जिससे महान देवी सती को अपने प्राण त्यागना पड़े?

4 मैत्रेय ने कहा: प्राचीन समय में एक बार ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाले प्रमुख नायकों ने एक महान यज्ञ सम्पन्न किया जिसमें सभी ऋषि, चिन्तक (मुनि), देवता तथा अग्निदेव अपने-अपने अनुयायियों सहित एकत्र हुए थे।

5 जब प्रजापतियों के नायक दक्ष ने सभा में प्रवेश किया, तो सूर्य के तेज के समान चमकीली कान्ति से युक्त उसके शरीर से सारी सभा प्रकाशित हो उठी और उसके समक्ष सभी सभागत महापुरुष तुच्छ लगने लगे।

6 ब्रह्मा तथा शिवजी के अतिरिक्त, दक्ष की शारीरिक कान्ति (तेज) से प्रभावित होकर उस सभा के सभी सदस्य तथा सभी अग्निदेव, उसके सम्मान में अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये।

7 उस महती सभा के अध्यक्ष ब्रह्मा ने दक्ष का समुचित रीति से स्वागत किया। ब्रह्माजी को प्रणाम करने के पश्चात उनकी आज्ञा पाकर दक्ष ने अपना आसन ग्रहण किया।

8 किन्तु आसन ग्रहण करने के पूर्व शिवजी को बैठा हुआ और उन्हें सम्मान न प्रदर्शित करते हुए देखकर दक्ष ने इसे अपना अपमान समझा। उस समय दक्ष अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसकी आँखें तप रही थीं। उसने शिव के विरुद्ध अत्यन्त कटु शब्द बोलना प्रारम्भ किया।

9 हे समस्त उपस्थित ऋषियों, ब्राह्मणों तथा अग्निदेवों, ध्यानपूर्वक सुनो क्योंकि मैं शिष्टाचार के विषय में बोल रहा हूँ। मैं किसी अज्ञानता या ईर्ष्या से नहीं कह रहा।

10 शिव ने लोकपालों के नाम तथा यश को धूल में मिला दिया है और सदाचार के पथ को दूषित किया है। निर्लज्ज होने के कारण उसे इसका पता नहीं है कि किस प्रकार से आचरण करना चाहिए।

11 इसने अग्नि तथा ब्राह्मणों के समक्ष मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करके पहले ही मेरी अधीनता स्वीकार कर ली है। इसने गायत्री के समान मेरी पुत्री के साथ विवाह किया है और अपने को सत्यपुरुष बताया था।

12 इसके नेत्र बन्दर के समान हैं तो भी इसने मृगी जैसी नेत्रों वाली मेरी कन्या के साथ विवाह किया है। तो भी इसने उठकर न तो मेरा स्वागत किया और न मीठी वाणी से मेरा सत्कार करना उचित समझा ।

13 शिष्टाचार के सभी नियमों को भंग करने वाले इस व्यक्ति को अपनी कन्या प्रदान करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं थी। वांछित विधि-विधानों का पालन न करने के कारण यह अपवित्र है, किन्तु इसे अपनी कन्या प्रदान करने के लिए मैं उसी प्रकार बाध्य हो गया जिस प्रकार किसी शूद्र को वेदों का पाठ पढ़ाना पड़े।

14-15 वह श्मशान जैसे गंदे स्थानों में रहता है और उसके साथ भूत तथा प्रेत रहते हैं। वह पागलों के समान निर्वस्त्र रहता है, कभी हँसता है, तो कभी चिल्लाता है और सारे शरीर में श्मशान की राख लपेटे रहता है। वह ठीक से नहाता भी नहीं। वह खोपड़ियों तथा अस्थियों की माला से अपने शरीर को विभूषित करता है। अतः वह केवल नाम से ही शिव है, अन्यथा वह अत्यन्त प्रमत्त तथा अशुभ प्राणी है। वह केवल तामसी प्रमत्त लोगों का प्रिय है और उन्हीं का अगवा है।

16 ब्रह्माजी के अनुरोध पर मैंने अपनी साध्वी पुत्री उसे प्रदान की थी, यद्यपि वह समस्त प्रकार की स्वच्छता से रहित है और उसका हृदय विकारों से पूरित है।

17 मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: इस प्रकार शिव को अपने विपक्ष में स्थित देखकर दक्ष ने जल से आचमन किया और निम्नलिखित शब्दों से शाप देना प्रारम्भ किया।

18 देवता तो यज्ञ की आहुति में भागीदार हो सकते हैं, किन्तु समस्त देवों में अधम शिव को यज्ञ-भाग नहीं मिलना चाहिए।

19 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, उस यज्ञ के सभासदों द्वारा मना किये जाने पर भी दक्ष क्रोध में आकर शिवजी को शाप देता रहा और फिर सभा त्याग कर अपने घर चला गया।

20 यह जानकर कि भगवान शिव को शाप दिया गया है, शिव का प्रमुख पार्षद नन्दीश्वर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ। उसकी आँखें लाल हो गई और उसने दक्ष तथा वहाँ उपस्थित सभी ब्राह्मणों को, जिन्होंने दक्ष द्वारा कटु वचनों में शिवजी को शापित किए जाने को सहन किया था, शाप देने की तैयारी की।

21 जिस किसी ने दक्ष को सर्वश्रेष्ठ पुरुष मान कर ईर्ष्यावश भगवान शिव का निरादर किया है, वह अल्प बुद्धिवाला है और अपने द्वैतभाव के कारण वह दिव्यज्ञान से विहीन हो जाएगा।

22 जिस कपटपूर्ण धार्मिक गृहस्थ-जीवन में कोई मनुष्य भौतिक सुख के प्रति आसक्त रहता है और साथ ही वेदों की व्यर्थ व्याख्या के प्रति आकृष्ट होता है, इसमें उसकी सारी बुद्धि हर ली जाती है और वह पूर्ण रूप से सकाम कर्म में लिप्त हो जाता है।

23 दक्ष ने देह को ही सब कुछ समझ रखा है। इसने विष्णुपाद अथवा विष्णु-गति को भुला दिया है और केवल स्त्री-संग में ही लिप्त रहता है, अतः इसे शीघ्र ही बकरे का मुख प्राप्त होगा।

24 जो लोग भौतिक विद्या तथा युक्ति के अनुशीलन में पदार्थ की भाँति जड़ बन चुके हैं, वे अज्ञानवश सकाम कर्मों में लगे हुए हैं। ऐसे मनुष्यों ने जानबूझकर भगवान शिव का अनादर किया है। ऐसे लोग जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहें।

25 मोहक वैदिक प्रतिज्ञाओं की पुष्पमयी (अलंकृत) भाषा से आकृष्ट होकर जो जड़ बन चुके हैं और शिव-द्रोही हैं, वे सदैव सकाम कर्मों में निरत रहें।

26 ये ब्राह्मण केवल अपने शरीर-पालन के लिए विद्या, तप तथा व्रतादि का आश्रय लें। इन्हें भक्ष्याभक्ष्य का विवेक न रह जाए। ये द्वार-द्वार भिक्षा माँगकर अपने शरीर की तुष्टि के लिए धन की प्राप्ति करें।

27 इस प्रकार जब नन्दीश्वर ने समस्त कुलीन ब्राह्मणों को शाप दे दिया तो प्रतिक्रिया स्वरूप भृगुमुनि ने शिव के अनुयायियों की भर्त्सना की ओर उन्हें घोर ब्रह्म-शाप दे दिया।

28 जो शिव को प्रसन्न करने का व्रत धारण करता है अथवा जो ऐसे नियमों का पालन करता है, वह निश्चित रूप से नास्तिक होगा और दिव्य शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाला बनेगा।

29 जो शिव की पूजा का व्रत लेते हैं, वे इतने मूर्ख होते हैं कि वे उनका अनुकरण करके अपने शरीर पर लम्बी जटाएँ धारण करते हैं और शिव की उपासना की दीक्षा ले लेने के बाद वे मदिरा, मांस तथा अन्य ऐसी ही वस्तुएँ खाना-पीना पसंद करते हैं।

30 भृगु मुनि ने आगे कहा: चूँकि तुम वैदिक नियमों के अनुयायी ब्राह्मणों तथा वेदों की निन्दा करते हो इससे ज्ञात होता है कि तुमने नास्तिकता की नीति अपना रखी है ।

31 वेद मानवीय सभ्यता के कल्याण की प्रगति हेतु शाश्वत विधान प्रदान करने वाले हैं जिसका प्राचीन काल में दृढ़ता से पालन होता रहा है। इसका सशक्त प्रमाण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान स्वयं हैं, जो जनार्दन अर्थात समस्त जीवात्माओं के शुभेच्छु कहलाते हैं।

32 ऐसे वेदों के नियमों की निन्दा करके, जो सत्पुरुषों के शुद्ध एवं परम पथ-रूप हैं, अरे भूतपति शिव के अनुयायियों तुम, निस्सन्देह नास्तिकता के स्तर तक जाओगे।

33 मैत्रेय मुनि ने कहा: जब शिवजी के अनुयायियों तथा दक्ष एवं भृगु के पक्षधरों के बीच शाप-प्रतिशाप चल रहा था, तो शिवजी अत्यन्त खिन्न हो उठे और बिना कुछ कहे अपने शिष्यों सहित यज्ञस्थल छोड़कर चले गये।

34 मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: हे विदुर, इस प्रकार विश्व के सभी जनकों (प्रजापतियों) ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया क्योंकि भगवान हरि की पूजा की सर्वोत्तम विधि यज्ञ ही है।

35 हे धनुषबाणधारी विदुर, सभी यज्ञकर्ता देवताओं ने यज्ञ समाप्ति के पश्चात गंगा तथा यमुना संगम में स्नान किया। ऐसा स्नान अवभृथ स्नान कहलाता है। इस प्रकार से मन से शुद्ध होकर वे अपने-अपने धामों को चले गये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय एक – मनु की पुत्रियों की वंशावली (4.1)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा से तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं जिनके नाम आकूति, देवहूति तथा प्रसूति थे।

2 यद्यपि आकूति के दो भाई थे तो भी राजा स्वायम्भुव मनु ने इसे प्रजापति रुचि को इस शर्त पर ब्याहा था कि उससे, जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मनु को पुत्र रूप में लौटा दिया जाएगा। उसने अपनी पत्नी शतरूपा के परामर्श से ऐसा किया था।

3 अपने ब्रह्मज्ञान में परम शक्तिशाली एवं जीवात्माओं के जनक के रूप में नियुक्त (प्रजापति) रुचि को उनकी पत्नी आकूति के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुए।

4 आकूति से उत्पन्न दोनों सन्तानों में से एक अर्थात बालक तो प्रत्यक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का अवतार था और उसका नाम था यज्ञ, जो भगवान विष्णु का ही दूसरा नाम है। बालिका सम्पत्ति की देवी भगवान विष्णु की प्रिया शाश्वत लक्ष्मी की अंश अवतार थी।

5 स्वायम्भुव मनु परम प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ नामक सुन्दर बालक को अपने घर ले आए और उनके जामाता रुचि ने पुत्री दक्षिणा को अपने पास रखा।

6 यज्ञों के स्वामी भगवान ने बाद में दक्षिणा के साथ विवाह कर लिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, को अपने पति रूप में प्राप्त करने के लिए परम इच्छुक थी। उनकी इस पत्नी से उन्हें बारह पुत्र प्राप्त हुए।

7 यज्ञ तथा दक्षिणा के बारह पुत्रों के नाम थे--तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्र, सुदेव तथा रोचन।

8 स्वायम्भुव मनु के काल में ही ये सभी पुत्र देवता हो गए जिन्हें संयुक्त रूप में तुषित कहा जाता है। मरीचि सप्तऋषियों के प्रधान बन गए और यज्ञ देवताओं के राजा इन्द्र बन गये।

9 स्वायम्भुव मनु के दोनों पुत्र, प्रियव्रत तथा उत्तानपाद अत्यन्त शक्तिशाली राजा हुए और उनके पुत्र तथा पौत्र उस काल में तीनों लोकों में फैल गये।

10 हे पुत्र, स्वायम्भुव मनु ने अपनी परम प्रिय कन्या देवहूति को कर्दम मुनि को प्रदान किया। मैं इनके सम्बन्ध में तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ और तुम उनके विषय में प्रायः पूरी तरह सुन चुके हो।

11 स्वायम्भुव मनु ने प्रसूति नामक अपनी कन्या ब्रह्मा के पुत्र दक्ष को दे दी, जो प्रजापतियों में से एक थे। दक्ष के वंशज तीनों लोकों में फैले हुए हैं।

12 मैं तुम्हें कर्दम मुनि की नवों कन्याओं के विषय में पहले ही बतला चुका हूँ कि वे नौ विभिन्न ऋषियों को सौंप दी गई थीं। अब मैं इन नवों कन्याओं की सन्तानों का वर्णन करूँगा। तुम मुझसे उनके विषय में सुनो।

13 कर्दम मुनि की पुत्री कला का ब्याह मरीचि से हुआ जिससे दो सन्तानें हुईं जिनके नाम थे कश्यप तथा पूर्णिमा। इनकी सन्तानें सारे विश्व में फैल गईं।

14 हे विदुर, कश्यप तथा पूर्णिमा नामक दो सन्तानों में से पूर्णिमा के तीन सन्तानें हुईं जिनके नाम विरज, विश्वग तथा देवकुल्या थे। इन तीनों मे से देवकुल्या श्रीभगवान के चरणकमल को धोने वाला जल थी, जो बाद में स्वर्गलोक की गंगा में बदल गई।

15 अत्री मुनि की पत्नी अनसूया ने तीन सुप्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न किये। ये हैं--सोम, दत्तात्रेय तथा दुर्वासा, जो भगवान ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के अंशावतार थे। सोम ब्रह्मा के, दत्तात्रेय भगवान विष्णु के तथा दुर्वासा शिवजी के अंश प्रतिनिधि स्वरूप थे।

16 यह सुनकर विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे गुरु, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जो सम्पूर्ण सृष्टि के स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं, अत्री मुनि की पत्नी से किस प्रकार उत्पन्न हुए?

17 मैत्रेय ने कहा: अनसूया से विवाह कर लेने के बाद जब अत्री मुनि को ब्रह्मा ने वंश चलाने के लिए आदेश दिया तो वे अपनी पत्नी के साथ कठोर तपस्या करने के लिए ऋक्ष नामक पर्वत की घाटी में गये।

18 उस पर्वत घाटी में निर्विन्ध्या नामक नदी बहती है। इस नदी के तट पर अनेक अशोक के वृक्ष तथा पलाश पुष्पों से लदे अन्य पौधे हैं। वहाँ झरने से बहते हुए जल की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती रहती है। वे पति तथा पत्नी ऐसे सुरम्य स्थान में पहुँचे।

19 वहाँ पर मुनि ने योगिक प्राणायाम के द्वारा अपने मन को स्थिर किया और फिर समस्त आसक्ति पर संयम करते हुए बिना भोजन खाए केवल वायु का सेवन करते रहे और सौ वर्षों तक एक पाँव पर खड़े रहे।

20 वे मन ही मन सोच रहे थे कि जो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं और मैं जिनकी शरण में आया हूँ, वे प्रसन्न होकर मुझे अपने ही समान पुत्र प्रदान करें।

21 जब अत्री मुनि गहन तप-साधना कर रहे थे तो उनके प्राणायाम के कारण उनके सिर से एक प्रज्ज्वलित अग्नि उत्पन्न हुई जिसे तीनों लोकों के तीन प्रमुख देवों ने देखा।

22 उस समय ये तीनों देव स्वर्गलोक के वासियों, यथा अप्सराओं, गन्धर्वों, सिद्धों, विद्याधरों तथा नागों समेत अत्री के आश्रम पहुँचे। इस प्रकार वे उस मुनि के आश्रम में प्रविष्ट हुए, जो उनकी तपस्या के कारण विख्यात हो चुका था।

23 मुनि एक पैर पर खड़े थे, किन्तु उन्होंने ज्योंही देखा कि तीनों देव उनके समक्ष प्रकट हुए हैं, तो वे उन्हें देखकर इतने हर्षित हुए कि अत्यन्त कष्ट होते हुए भी वे एक ही पाँव से उनके निकट पहुँचे।

24 तत्पश्चात उन्होंने उन तीनों देवों की स्तुति की जो अपने-अपने वाहनों--बैल, हंस तथा गरुड़--पर सवार थे, और अपने हाथों में डमरू, कुश तथा चक्र धारण किये थे। मुनि ने भूमि पर गिरकर उन्हें दण्डवत प्रणाम किया।

25 अत्री मुनि यह देखकर अत्यधिक प्रमुदित हुए कि तीनों देव उन पर कृपालु हैं। उनके नेत्र उन देवों के शरीर के तेज से चकाचौंध हो गये, अतः उन्होंने कुछ समय के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

26-27 किन्तु पहले से उनका हृदय इन देवों के प्रति आकृष्ट था, अतः जिस-तिस प्रकार उन्होंने होश सँभाला और वे हाथ जोड़ कर ब्रह्माण्ड के प्रमुख अधिष्ठाता देवों की मधुर शब्दों से स्तुति करने लगे। अत्री मुनि ने कहा: हे ब्रह्मा, हे विष्णु तथा हे शिव, आपने भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों को अंगीकार करके अपने को तीन शरीरों में विभक्त कर लिया है, जैसा कि आप प्रत्येक कल्प में दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए करते आये हैं। मैं आप तीनों को सादर नमस्कार करता हूँ और मैं जानना चाहता हूँ कि मैंने अपनी प्रार्थना में आपमें से किसको बुलाया था?

28 मैंने तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के ही समान पुत्र की इच्छा से उन्हीं का आवाहन किया था और मैंने उन्हीं का चिन्तन किया था। यद्यपि वे मनुष्य की मानसिक कल्पना से परे हैं, किन्तु आप तीनों यहाँ पर उपस्थित हुए हैं। कृपया मुझे बताएँ कि आप यहाँ कैसे आए हैं, क्योंकि मैं इसके विषय में अत्यधिक मोहग्रस्त हूँ।

29 मैत्रेय महामुनि ने कहा: अत्री मुनि को इस प्रकार बोलते हुए सुनकर तीनों महान देव मुस्कराए और उन्होंने मृदु वाणी में इस प्रकार उत्तर दिया।

30 तीनों देवताओं ने अत्री मुनि से कहा: हे ब्राह्मण, तुम अपने संकल्प में पूर्ण हो, अतः तुमने जो कुछ निश्चित कर रखा है, वही होगा, उससे विपरीत नहीं होगा। हम सब वे ही पुरुष हैं जिनका तुमने ध्यान किया है और इसीलिए हम सब तुम्हारे पास आये हैं।

31 हे मुनिवर, हमारी शक्ति के अंशस्वरूप तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होंगे, वे पुत्र तुम्हारे यश का संसार-भर में विस्तार करेंगे। हम तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं।

32 इस प्रकार उस युगल के देखते ही देखते तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर अत्री मुनि को वर देकर उस स्थान से ओझल हो गये।

33 तत्पश्चात ब्रह्मा के आंशिक विस्तार से सोमदेव उत्पन्न हुए, विष्णु से परम योगी दत्तात्रेय तथा शंकर (शिवजी) से दुर्वासा उत्पन्न हुए। अब तुम मुझसे अंगिरा के अनेक पुत्रों के सम्बन्ध में सुनो।

34 अंगिरा की पत्नी श्रद्धा ने चार कन्याओं को जन्म दिया जिनके नाम सिनीवाली, कुहु, राका तथा अनुमति थे।

35 इन चार पुत्रियों के अतिरिक्त उसके दो पुत्र भी थे। उनमें से एक उतथ्य कहलाया और दूसरा महान विद्वान बृहस्पति था।

36 पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से अगस्त्य नाम का एक पुत्र हुआ, जो अपने अगले जन्म में दह्राग्नि बना। इसके अतिरिक्त पुलस्त्य के एक अन्य महान तथा साधु पुत्र हुआ जिसका नाम विश्रवा था।

37 विश्रवा के दो पत्नियाँ थीं। प्रथम पत्नी इडविडा थी जिससे समस्त यक्षों का स्वामी कुबेर उत्पन्न हुआ। दूसरी पत्नी का नाम केशिनी था जिससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ये थे--रावण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण।

38 पुलह ऋषि की पत्नी गति ने तीन पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम थे--कर्मश्रेष्ठ, वरीयान तथा सहिष्णु। ये सभी महान साधु थे।

39 क्रतु की पत्नी क्रिया ने वालखिल्यादि नामक साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया। ये ऋषि ब्रह्म (आध्यात्मिक) ज्ञान में बढ़े-चढ़े थे और उनका शरीर ऐसे ज्ञान से देदीप्यमान था।

40 वसिष्ठ मुनि की पत्नी ऊर्जा से, जिसे कभी-कभी अरुन्धती भी कहा जाता है, चित्रकेतु इत्यादि सात विशुद्ध ऋषि उत्पन्न हुए।

41 इन सातों ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं--चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसूभृद्यान तथा द्युमान। वसिष्ठ की दूसरी पत्नी से कुछ अन्य अत्यन्त सुयोग्य पुत्र हुए।

42 अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने अश्वशिरा नामक पुत्र को जन्म दिया, जो व्रतधारी होने के कारण दध्यञ्च कहलाया। अब तुम मुझसे भृगुमुनि के वंश के विषय में सुनो।

43 भृगु मुनि अत्यधिक भाग्यशाली थे। उन्हें अपनी पत्नी ख्याति से दो पुत्र, धाता तथा विधाता और एक पुत्री, श्री प्राप्त हुई; वह श्रीभगवान के प्रति अत्यधिक परायण थी।

44 मेरु ऋषि के दो पुत्रियाँ थीं जिनके नाम आयति तथा नियति थे जिन्हें उन्होंने धाता तथा विधाता को दान दे दिया। आयति तथा नियति के मृकण्ड तथा प्राण नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।

45 मृकण्ड से मार्कण्डेय मुनि और प्राण से वेदशिरा ऋषि उत्पन्न हुए। वेदशिरा का पुत्र उशना (शुक्राचार्य) था, जो कवि भी कहलाता है। इस प्रकार कवि भी भृगुवंशी था।

46-47 हे विदुर, इस प्रकार इन मुनियों तथा कर्दम की पुत्रियों की सन्तानों से विश्व की जनसंख्या बढ़ी। जो कोई श्रद्धापूर्वक इस वंश के आख्यान को सुनता है, वह समस्त पाप-बन्धनों से छूट जाता है। मनु की अन्य कन्याओं में से प्रसूति ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष से विवाह किया।

48 दक्ष ने अपनी पत्नी प्रसूति से सोलह कमलनयनी सुन्दरी कन्याएँ उत्पन्न कीं। इन सोलह कन्याओं में से तेरह धर्म को और एक अग्नि को पत्नी रूप में प्रदान की गईं।

49-52 शेष दो कन्याओं में से एक पितृलोक को दान दे दी गई, जहाँ वह प्रेमपूर्वक रह रही है और दूसरी कन्या भवबन्धन से समस्त पापियों के उद्धारक शिवजी को दी गई। दक्ष ने धर्म को जिन तेरह कन्याओं को दिया उनके नाम थे: श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री तथा मूर्ति। इन तेरहों ने पुत्रों को जन्म दिया, जो इस प्रकार हैं--श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मुद, पुष्टि ने समय, क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम तथा ह्री ने प्रश्रय को जन्म दिया। समस्त गुणों की आलय (आगार) मूर्ति ने नर-नारायण को जन्म दिया जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं।

53 नर-नारायण के जन्म के अवसर पर समस्त विश्व आनन्दित था। प्रत्येक का मन शान्त था और इस प्रकार समस्त दिशाओं में वायु, नदियाँ तथा पर्वत मनोहर लगने लगे।

54-55 स्वर्गलोक में बाजे बजने लगे और आकाश से पुष्प बरसने लगे। प्रसन्न मुनि वैदिक स्तुतियों का उच्चारण करने लगे। गन्धर्व तथा किन्नर लोक के वासी गाने लगे और स्वर्ग की अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार नर-नारायण के जन्म के समय सभी मंगलसूचक चिन्ह दिखाई पड़ने लगे। उसी समय ब्रह्मादि महान देवों ने भी सादर स्तुतियाँ अर्पित कीं।

56 देवताओं ने कहा: हम उस दिव्य रूप भगवान को नमस्कार करते हैं जिन्होंने इस दृश्य जगत की सृष्टि अपनी बहिरंगा शक्ति के रूप में की है, जो उनमें उसी प्रकार स्थित है, जिस प्रकार वायु तथा बादल आकाश में रहते हैं और जो अब धर्म के घर में नर-नारायण ऋषि के रूप में प्रकट हुए हैं।

57 वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, जो वास्तविक रूप से प्रामाणिक वैदिक साहित्य द्वारा जाने जाते हैं और जिन्होंने सृष्ट जगत की समस्त विपत्तियों को विनष्ट करने के लिए शान्ति तथा समृद्धि का सृजन किया है, हम देवताओं पर कृपापूर्ण दृष्टिपात करें। उनकी कृपापूर्ण चितवन लक्ष्मी के आसन निर्मल कमल की शोभा को मात करने वाली है।

58 [मैत्रेय ने कहा:] हे विदुर, इस प्रकार देवताओं ने नर-नारायण मुनि के रूप में प्रकट श्रीभगवान की पूजा की। भगवान ने उन पर कृपादृष्टि डाली और फिर गन्धमादन पर्वत की ओर चले गये।

59 नर-नारायण ऋषि कृष्ण के अंश विस्तार हैं और अब जगत का भार उतारने के लिए यदु तथा कुरु वंशों में क्रमशः कृष्ण तथा अर्जुन के रूप में प्रकट हुए हैं।

60 अग्निदेव की पत्नी स्वाहा से तीन सन्तानें उत्पन्न हुई जिनके नाम पावक, पवमान, तथा शुचि हैं, जो यज्ञ की अग्नि में डाली गई आहुतियों को खाने वाले हैं।

61 इन तीन पुत्रों से अन्य पैंतालीस सन्तानें उत्पन्न हुई और वे भी अग्निदेव हैं। अतः अग्निदेवों की कुल संख्या उनके पिताओं तथा पितामह को मिलाकर उनचास हैं।

62 ब्रह्मवादि ब्राह्मणों द्वारा वैदिक यज्ञों में दी गई आहुतियों के भोक्ता ये ही उनचास अग्निदेव हैं।

63 अग्निष्वात्त, बहिर्षद, सौम्य तथा आज्यप--ये पितर हैं। वे या तो साग्निक हैं अथवा निरग्निक। इन समस्त पितरों की पत्नी स्वधा है, जो राजा दक्ष की पुत्री है।

64 पितरों को प्रदत्त स्वधा ने वयुना तथा धारिणी नामक दो पुत्रियों को जन्म दिया। वे दोनों ही ब्रह्मवादिनी थीं तथा दिव्य एवं वैदिक ज्ञान में पारंगत थीं।

65 सती नामक सोलहवीं कन्या भगवान शिव की पत्नी थीं, किन्तु उनके कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुई, यद्यपि वे सदैव अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अपने पति की सेवा में संलग्न रहने वाली थीं।

66 इसका कारण यह है कि सती के पिता दक्ष शिवजी के दोषरहित होने पर भी उनकी भर्त्सना करते रहते थे। फलतः परिपक्व आयु के पूर्व ही सती ने अपने शरीर को योगशक्ति से त्याग दिया था।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तैंतीस – कपिल के कार्यकलाप (3.33)

1 श्री मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार भगवान कपिल की माता एवं कर्दम मुनि की पत्नी देवहूति भक्तियोग तथा दिव्य ज्ञान सम्बन्धी समस्त अविद्या से मुक्त हो गई। उन्होंने उन भगवान को नमस्कार किया जो मुक्ति की पृष्ठभूमि सांख्य दर्शन के प्रतिपादक हैं और तब निम्नलिखित स्तुति द्वारा उन्हें प्रसन्न किया ।

2 देवहूति ने कहा: ब्रह्माजी अजन्मा कहलाते हैं, क्योंकि वे आपके उदर से निकलते हुए कमल-पुष्प से जन्म लेते हैं और आप ब्रह्माण्ड के तल पर समुद्र में शयन करते रहते हैं। लेकिन ब्रह्माजी ने भी केवल अनन्त ब्रह्माण्डों के उद्गम स्रोत, आपका ही ध्यान किया।

3 हे भगवान, यद्यपि आपको निजी रूप से कुछ करना नहीं रहता किन्तु आपने अपनी शक्तियाँ प्रकृति के गुणों की अन्तःक्रियाओं में वितरित कर दी हैं जिसके बल पर दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार होता है। हे भगवान, आप दृढ़संकल्प हैं और समस्त जीवों के भगवान हैं। आपने उन्हीं के लिए यह संसार रचा और यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आपकी शक्तियाँ अनेक प्रकार से कार्य करती हैं। यह हमारे लिए अकल्पनीय है।

4 आपने मेरे उदर से श्रीभगवान के रूप में जन्म लिया है। हे भगवन, यह उस परमेश्वर के लिए किस प्रकार सम्भव हो सका जिसके उदर में यह सारा दृश्य-जगत स्थित है? इसका उत्तर होगा कि ऐसा सम्भव है, क्योंकि कल्प के अन्त में आप वटवृक्ष की एक पत्ती पर लेट जाते हैं और एक छोटे से बालक की भाँति अपने चरणकमल के अँगूठे को चूसते हैं।

5 हे भगवान आपने पतितों के पापपूर्ण कर्मों को घटाने तथा उनके भक्ति एवं मुक्ति के ज्ञान को बढ़ाने के लिए यह शरीर धारण किया है। चूँकि ये पापात्माएँ आपके निर्देश पर आश्रित हैं, अतः आप स्वेच्छा से सूकर तथा अन्य रूपों में अवतरित होते हैं। इसी प्रकार आप अपने आश्रितों को दिव्य ज्ञान वितरित करने के लिए प्रकट हुए हैं।

6 उन व्यक्तियों की आध्यात्मिक उन्नति के विषय में क्या कहा जाय जो परम पुरुष का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं, यदि कुत्ता खाने वाले परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी भगवान के पवित्र नाम का एक बार भी उच्चारण करता है अथवा उनका कीर्तन करता है, उनकी लीलाओं का श्रवण करता है, उन्हें नमस्कार करता है, या उनका स्मरण करता है, तो वह तुरन्त वैदिक यज्ञ करने के लिए योग्य बन जाता है।

7 ओह! वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्वाएँ आपके पवित्र नाम का जप करती हैं! कुत्ता खाने वाले वंशों में उत्पन्न होते हुए भी ऐसे पुरुष पूजनीय हैं। जो पुरुष आपके पवित्र नाम का जप करते हैं उन्होंने सभी प्रकार की तपस्याएँ तथा हवन किए होंगे और आर्यों के सदाचार प्राप्त किये होंगे। आपके पवित्र नाम का जप करते रहने के लिए उन्होंने तीर्थस्थानों में स्नान किया होगा, वेदों का अध्ययन किया होगा और अपेक्षित हर वस्तु की पूर्ति की होगी।

8 हे भगवान, मुझे विश्वास है कि आप कपिल नाम से स्वयं पुरुषोत्तम भगवान विष्णु अर्थात परब्रह्म हैं। सारे ऋषि-मुनि इन्द्रियों तथा मन के उद्वेगों से मुक्त होकर आपका ही चिन्तन करते हैं, क्योंकि आपकी कृपा से ही मनुष्य भव-बन्धन से छूट सकता है। प्रलय के समय सारे वेद आपमें ही स्थान पाते हैं।

9 इस प्रकार अपनी माता के शब्दों से प्रसन्न होकर मातृवत्सल भगवान कपिल ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया।

10 भगवान ने कहा: हे माता, मैंने आपको जिस आत्म-साक्षात्कार के मार्ग का उपदेश दिया है, वह अत्यन्त सुगम है। आप बिना कठिनाई के इसका पालन कर सकती हैं और ऐसा करके आप इसी शरीर (जन्म) में शीघ्र ही मुक्त हो सकती हैं।

11 हे माता, जो लोग वास्तव में अध्यात्मवादी हैं, वे निश्चित ही मेरे उपदेशों का पालन करते हैं, जो मैंने आपको बताये हैं। आप आश्वस्त रहें, यदि आप इस आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर सम्यक रीति से चलेंगी तो आप समस्त भयावह भौतिक कल्मष से मुक्त होकर अन्त में मेरे पास पहुँचेंगी। हे माता, जो लोग भक्ति की इस विधि से अवगत नहीं हैं, वे जन्म-मरण के चक्र से बाहर नहीं निकल सकते।

12 श्री मैत्रेय ने कहा: अपनी ममतामयी माता को उपदेश देकर भगवान कपिल ने उनसे आज्ञा माँगी और अपना लक्ष्य पूरा हो जाने के कारण उन्होंने अपना घर छोड़ दिया।

13 अपने पुत्र के उपदेशानुसार देवहूति उसी आश्रम में भक्तियोग का अभ्यास करने लगीं। उन्होंने कर्दम मुनि के घर में समाधि लगाई, जो फूलों से इस प्रकार सुसज्जित था मानो सरस्वती नदी का फूलों का मुकुट हो।

14 वे तीन बार स्नान करने लगीं और इस तरह उनके घुँघराले काले-काले बाल क्रमशः भूरे पड़ गये। तपस्या के कारण उनका शरीर धीरे-धीरे दुबला हो गया और वे पुराने वस्त्र धारण किये रहीं।

15 प्रजापति कर्दम का घर तथा उनकी गृहस्थी उनकी तपस्या तथा योग के बल पर इस प्रकार समृद्ध थी कि उनके ऐश्वर्य से आकाश में विमान से यात्रा करने वाले लोग भी ईर्ष्या करते थे।

16 यहाँ पर कर्दम मुनि के घरेलु ऐश्वर्य का वर्णन हुआ है। चादर तथा चटाइयाँ दूध के फेन के समान श्वेत थीं, कुर्सियाँ तथा बेंचें हाथीदाँत की बनी थीं और वे सुनहरी जरीदार वस्त्र से ढकी थीं तथा पलंग सोने के बने थे जिन पर अत्यन्त मुलायम गद्दियाँ थीं।

17 घर की दीवालें उत्तमकोटि के संगमरमर की थीं और बहुमूल्य मणियों से अलंकृत थीं। वहाँ प्रकाश की आवश्यकता न थी, क्योंकि इन मणियों की किरणों से घर प्रकाशित था। घर की सभी स्त्रियाँ आभूषणों से अलंकृत थीं।

18 मुख्य घर का आँगन सुन्दर बगीचों से घिरा था जिनमें मधुर सुगन्धित फूल तथा अनेक वृक्ष थे जिनमें ताजे फल उत्पन्न होते थे और वे ऊँचे तथा सुन्दर थे। ऐसे बगीचों का आकर्षण यह था कि गाते पक्षी वृक्षों पर बैठते और उनके कलरव से तथा मधुमक्खियों की गुंजार से सारा वातवरण यथासम्भव मोहक बना हुआ था।

19 जब देवहूति उस सुन्दर बगीचे में कमल फूलों से भरे हुए ताल में स्नान करने के लिए प्रवेश करतीं तो स्वर्गवासियों के संगी गन्धर्वगण कर्दम के महिमामय गृहस्थ जीवन का गुणगान करते। देवहूति के महान पति कर्दम उन्हें सभी कालों में सुरक्षा प्रदान करते रहे।

20 यद्यपि उनकी स्थिति सभी प्रकार से अद्वितीय थी, किन्तु साध्वी देवहूति ने इतनी सम्पत्ति होते हुए भी, जिसकी ईर्ष्या स्वर्ग की सुन्दरियाँ भी करती थीं, अपने सारे सुख त्याग दिये। उन्हें यह शोक था कि उनका इतना महान पुत्र उनसे विलग हो रहा है।

21 देवहूति के पति ने पहले ही गृहत्याग करके संन्यास आश्रम ग्रहण कर लिया था और अब उनके एकमात्र पुत्र कपिल ने घर छोड़ दिया। यद्यपि उन्हें जीवन तथा मृत्यु के सारे सत्य ज्ञात थे और उनका हृदय सभी प्रकार के मल से रहित था, किन्तु वे अपने पुत्र के जाने से इस तरह दुखी थीं जिस प्रकार कि बछड़े के मरने पर गाय दुखी होती है।

22 हे विदुर, इस प्रकार अपने पुत्र भगवान कपिलदेव का ध्यान करती हुई वे शीघ्र ही उत्तम ढंग से सजे अपने घर के प्रति अनासक्त हो उठीं।

23 तत्पश्चात निरन्तर हँसमुख अपने पुत्र भगवान कपिलदेव से अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक एवं विस्तारपूर्वक सुनकर देवहूति परमेश्वर के विष्णुस्वरूप का निरन्तर ध्यान करने लगीं।

24-25 उन्होंने भक्ति में गम्भीरतापूर्वक संलग्न रह कर ऐसा किया। चूँकि उनका वैराग्य प्रबल था, अतः उन्होंने मात्र शरीर की आवश्यकताओं को ग्रहण किया। वे ब्रह्म-साक्षात्कार के कारण ज्ञान में व्यवस्थित हुई, उनका हृदय शुद्ध हो गया, वे भगवान के ध्यान में पूर्णत: निमग्न हो गई और प्रकृति के गुणों से उत्पन्न सारी दुर्भावनाएँ समाप्त हो गई।

26 उनका मन भगवान में पूर्णत: निमग्न हो गया और उन्हें स्वतः निराकार ब्रह्म का बोध हो गया। ब्रह्म-सिद्ध आत्मा के रूप में वे भौतिक जीवन-बोध की उपाधियों से मुक्त हो गईं। इस प्रकार उनके सारे क्लेश मिट गये और उन्हें दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ।

27 नित्य समाधि में स्थित होने तथा प्रकृति के गुणों से उत्पन्न भ्रम से मुक्त होने के कारण उन्हें अपना शरीर वैसे ही भूल गया जिस तरह मनुष्य को स्वप्न में अपने विविध शरीर भूल जाते हैं।

28 उनके शरीर की देखभाल -- अप्सराओं द्वारा की जा रही थी और चूँकि उन्हें किसी प्रकार की मानसिक चिन्ता न थी, अतः उनका शरीर दुर्बल नहीं हुआ। वह धुएँ से घिरी हुई अग्नि के समान प्रतीत हो रही थी।

29 भगवान के विचार में सदैव तल्लीन रहने के कारण उसे इसकी सुधि भी न रही कि उसके बाल बिखर गये हैं और उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये हैं।

30 हे विदुर, कपिल द्वारा बताये गये नियमों का पालन करते हुए देवहूति शीघ्र ही भव-बन्धन से मुक्त हो गई और बिना कठिनाई के परमात्मास्वरूप भगवान को प्राप्त हुई।

31 हे विदुर, जिस स्थान पर देवहूति ने सिद्धि प्राप्त की वह स्थान अत्यन्त पवित्र माना जाता है। यह तीनों लोकों में सिद्धपद के नाम से विख्यात है।

32 हे विदुर, उनके शरीर के तत्त्व पिघलकर जल बन गये और अब समस्त नदियों में सबसे पवित्र नदी के रूप में बह रहे हैं। जो भी इस नदी में स्नान करता है उसे सिद्धि प्राप्त होती है, अतः सिद्धि के इच्छुक लोग उसमें स्नान करते हैं।

33 हे विदुर, महामुनि भगवान कपिल अपनी माता की आज्ञा से अपने पिता का आश्रम छोड़कर उत्तरपूर्व दिशा की ओर चले गये।

34 जब वे उत्तर दिशा की ओर जा रहे थे तो चारणों, गन्धर्वों, मुनियों तथा अप्सराओं ने उनकी स्तुति की और सब प्रकार से उनका सम्मान किया। समुद्र ने उनका पूजन किया और रहने के लिए स्थान दिया।

35 आज भी कपिल मुनि तीनों लोकों के बद्धजीवों के उद्धार हेतु वहाँ समाधिस्थ हैं और सांख्य दर्शन के समस्त आचार्य उनकी पूजा करते हैं।

36 हे पुत्र, तुम्हारे पूछे जाने पर मैंने तुम्हें बताया । हे पापरहित, कपिलदेव तथा उनकी माता के वृत्तान्त तथा उनके कार्यकलाप समस्त वार्ताओं में शुद्धतम हैं।

37 कपिलदेव तथा उनकी माता के व्यवहारों का विवरण अत्यन्त गोपनीय है और जो भी इस वृत्तान्त को सुनता या पढ़ता है, वह गरुड़ध्वज भगवान का भक्त बन जाता है और बाद में उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में प्रवृत्त होने के लिए भगवद्धाम में प्रवेश करता है।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (तृतीय स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान 

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कर्म-बंधन (3.32)

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अध्याय बत्तीस – कर्म-बन्धन (3.32)

1 भगवान ने कहा: गृहस्थ जीवन बिताने वाला व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठान करते हुए भौतिक लाभ प्राप्त करता रहता है और इस तरह वह आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृप्ति की अपनी इच्छापूर्ति करता है। वह पुनः पुनः इसी तरह कार्य करता है।

2 ऐसे व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति के प्रति अत्यधिक आसक्त होने के कारण भक्ति से विहीन होते हैं, अतः अनेक प्रकार के यज्ञ करते रहने तथा देवों एवं पितरों को प्रसन्न करने के लिए बड़े-बड़े व्रत करते रहने पर भी वे कृष्णभावनामृत अर्थात भक्ति में रुचि नहीं लेते ।

3 ऐसे भौतिकवादी व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति से आकृष्ट होकर, अपने पितरों एवं देवताओं के प्रति भक्तिभाव रखकर चन्द्रलोक को जा सकते हैं, जहाँ वे सोमरस का पान करते हैं और फिर इसी लोक में लौट आते हैं।

4 जब भगवान हरि सर्पों की शय्या पर, जिसे अनन्त शेष कहते हैं, सोते हैं, तो भौतिकतावादी पुरुषों के सारे लोक, जिनमें चन्द्रमा जैसे स्वर्गलोक सम्मिलित हैं, विलीन हो जाते हैं।

5 जो बुद्धिमान हैं और शुद्ध चेतना वाले हैं, वे कृष्णभक्ति में पूर्णतया संतुष्ट रहते हैं। वे प्रकृति के गुणों से मुक्त होकर, इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म नहीं करते; अपितु वे अपने-अपने कर्मों में लगे रहते हैं और विधानानुसार कर्म करते हैं।

6 अपने कर्तव्य-निर्वाह, विरक्तभाव से तथा स्वामित्व की भावना से अथवा अहंकार से रहित होकर काम करने से मनुष्य पूर्ण शुद्ध चेतना के द्वारा अपनी स्वाभाविक स्थिति में आसीन होकर और इस प्रकार से भौतिक कर्तव्यों को करते हुए सरलता के साथ ईश्वर के धाम में प्रविष्ट हो सकता है।

7 ऐसे मुक्त पुरुष प्रकाशमान मार्ग से होकर भगवान तक पहुँचते हैं, जो भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों का स्वामी है और इन जगतों की उत्पत्ति तथा अन्त का परम कारण है।

8 भगवान के हिरण्यगर्भ विस्तार के उपासक इस संसार में दो परार्धों के अन्त तक रहे आते हैं, जब ब्रह्मा की भी मृत्यु हो जाती है।

9 त्रिगुणात्मिका प्रकृति के निवास करने योग्य दो परार्धों के काल का अनुभव करके श्री ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड का, जो पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, अहंकार आदि के आवरणों से ढका हुआ है, संहार कर देते हैं और भगवान के पास चले जाते हैं।

10 जो योगी प्राणायाम तथा मन-निग्रह द्वारा इस संसार से विरक्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक पहुँचते हैं, जो बहुत ही दूर है। वे अपना शरीर त्याग कर ब्रह्मा के शरीर में प्रविष्ट होते हैं, अतः जब ब्रह्मा को मोक्ष प्राप्त होता है और वे भगवान के पास जाते हैं, जो परब्रह्म हैं, तो ऐसे योगी भी भगवद्धाम में प्रवेश करते हैं।

11 अतः हे माता, आप प्रत्यक्ष भक्ति द्वारा जन-जन के हृदय में स्थित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की शरण ग्रहण करें।

12-15 हे माता, भले ही कोई किसी विशेष स्वार्थ से भगवान की पूजा करे, किन्तु ब्रह्मा जैसे देवता, सनत्कुमार जैसे ऋषि-मुनि तथा मरीचि जैसे महामुनि सृष्टि के समय इस जगत में पुनः लौट आते हैं। जब प्रकृति के तीनों गुणों की अन्तःक्रिया प्रारम्भ होती है, तो काल के प्रभाव से इस दृश्य जगत के स्रष्टा तथा वैदिक ज्ञान से पूर्ण ब्रह्मा एवं आध्यात्मिक मार्ग तथा योग-पद्धति के प्रवर्तक बड़े-बड़े ऋषि वापस आ जाते हैं। वे अपने निष्काम कर्मों से मुक्त तो हो जाते हैं और पुरुष के प्रथम अवतार (आदि पुरुष) को प्राप्त होते हैं, किन्तु सृष्टि के समय वे पुनः अपने पहले के ही रूपों तथा पदों में वापस आ जाते हैं।

16 जो लोग इस संसार के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं, वे अपने नियत कर्मों को बड़े ही ढंग से तथा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते हैं। वे ऐसे नित्यकर्मों को कर्मफल की आशा से करते हैं।

17 ऐसे लोग, रजोगुण से प्रेरित होकर चिन्ताओं से व्याप्त रहते हैं और इन्द्रियों को वश में न कर सकने के कारण सदैव इन्द्रियतृप्ति की कामना करते रहते हैं। वे पितरों को पूजते हैं और अपने परिवार, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन की आर्थिक स्थिति सुधारने में रात-दिन लगे रहते हैं।

18 ऐसे लोग त्रैवर्गिक कहलाते हैं, क्योंकि वे तीन उन्नतिकारी विधियों–पुरुषार्थों– में रुचि लेते हैं। वे उन भगवान से विमुख हो जाते हैं, जो बद्धजीवों को विश्राम प्रदान करने वाले हैं। वे भगवान की उन लीलाओं में कोई अभिरुचि नहीं दिखाते, जो भगवान के दिव्य विक्रम (ऐश्वर्य/शक्ति/श्रेष्ठता) के कारण श्रवण करने योग्य हैं।

19 ऐसे व्यक्ति भगवान के परम आदेशानुसार निन्दित होते हैं। चूँकि वे भगवान के कार्यकलाप रूपी अमृत से विमुख रहते हैं, अतः उनकी तुलना विष्ठाभोजी सूकरों से की गई है। वे भगवान के दिव्य कार्यकलापों को न सुनकर भौतिकतावादी पुरुषों की कुत्सित कथाएँ सुनते हैं।

20 ऐसे भौतिकतावादी व्यक्तियों को सूर्य के दक्षिण मार्ग से पितृलोक जाने दिया जाता है, किन्तु वे इस लोक में पुनः आकर अपने-अपने परिवारों में जन्म लेते हैं और जन्म से लेकर जीवन के अन्त तक पुनः उसी तरह कर्म करते हैं।

21 जब उनके पुण्यकर्मों का फल चुक जाता है, तो वे दैववश नीचे गिरते हैं और पुनः इस लोक में आ जाते हैं जिस प्रकार किसी व्यक्ति को ऊँचे उठाकर सहसा नीचे गिरा दिया जाये।

22 अतः हे माता, मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप भगवान की शरण ग्रहण करें जिनके चरणकमल पूजनीय हैं। इसे आप समस्त भक्ति तथा प्रेम से स्वीकार करें, क्योंकि इस तरह से आप दिव्य भक्ति को प्राप्त हो सकेंगी।

23 कृष्णचेतना में लगने और भक्ति को कृष्ण में लगाने से ज्ञान, विरक्ति तथा आत्म-साक्षात्कार में प्रगति करना सम्भव है।

24 उच्च भक्त का मन इन्द्रिय-वृत्तियों में समदर्शी हो जाता है और वह प्रिय तथा अप्रिय से परे हो जाता है।

25 अपनी दिव्य बुद्धि के कारण शुद्ध भक्त समदर्शी होता है और अपने आपको पदार्थ के कल्मष से रहित देखता है। वह किसी वस्तु को श्रेष्ठ या निम्न नहीं मानता और परम पुरुष के गुणों में समान होने के कारण अपने आपको परम पद पर आरूढ़ अनुभव करता है।

26 केवल भगवान ही पूर्ण दिव्य ज्ञान हैं, किन्तु समझने की भिन्न-भिन्न विधियों के अनुसार वे या तो निर्गुण ब्रह्म, परमात्मा, भगवान या पुरुष अवतार के रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं।

27 समस्त योगियों के लिए सबसे बड़ी सूझबूझ तो पदार्थ से पूर्ण विरक्ति है, जिसे योग के विभिन्न प्रकारों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

28 जो अध्यात्म से पराड्मुख हैं, वे परम सत्य (परमेश्वर) को कल्पित इन्द्रिय-प्रतीति द्वारा अनुभव करते हैं, अतः भ्रान्तिवश उन्हें प्रत्येक वस्तु सापेक्ष प्रतीत होती है।

29 मैंने महत तत्त्व या समग्र शक्ति से अहंकार, तीनों गुण, पाँचों तत्त्व, व्यष्टि चेतना, ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शरीर उत्पन्न किए हैं। इसी प्रकार मुझ भगवान से ही सारा ब्रह्माण्ड प्रकट हुआ।

30 यह पूर्ण ज्ञान उस व्यक्ति को प्राप्त होता है, जो पहले से ही श्रद्धा, तन्मयता तथा पूर्ण विरक्ति सहित भक्ति में लगा रहता है और भगवान के विचार में निरन्तर निमग्न रहता है। वह भौतिक संगति से निर्लिप्त दूर रहता है।

31 आदरणीय माता, मैंने पहले ही आपको परम सत्य जानने का मार्ग बता दिया है, जिससे मनुष्य पदार्थ तथा आत्मा एवं उनके सम्बन्ध के वास्तविक सत्य को समझ सकता है।

32 दार्शनिक शोध का लक्ष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को जानना है। इस ज्ञान को प्राप्त करके जब मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है, तो उसे भक्ति की अवस्था प्राप्त होती है। मनुष्य को चाहे, प्रत्यक्षतः भक्ति से हो या दार्शनिक शोध से हो, एक ही गन्तव्य की खोज करनी होती है और वह है भगवान।

33 एक ही वस्तु अपने विभिन्न गुणों के कारण भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से ग्रहण की जाती है। इसी तरह भगवान एक है, किन्तु विभिन्न शास्त्रीय आदेशों के अनुसार वह भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है।

34-36 सकाम कर्म तथा यज्ञ सम्पन्न करके, दान देकर, तपस्या करके, विविध शास्त्रों के अध्ययन से, ज्ञानयोग से, मन के निग्रह से, इन्द्रियों के दमन से, संन्यास ग्रहण करके तथा अपने आश्रम के कर्तव्यों के निर्वाह करके, योग की विभिन्न विधियों को सम्पन्न करके, भक्ति करके तथा आसक्ति और विरक्ति के लक्षणों से युक्त भक्तियोग को प्रकट करके, आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को जान करके तथा प्रबल वैराग्य भाव जागृत करके आत्म-साक्षात्कार की विभिन्न विधियों को समझने में अत्यन्त पटु व्यक्ति उस रूप में भगवान का साक्षात्कार करता है, जैसा कि वे भौतिक जगत में तथा अध्यात्म में निरूपित किये जाते हैं।

37 हे माता, आपसे मैं भक्तियोग तथा चार विभिन्न आश्रमों में इसके स्वरूप की व्याख्या कर चुका हूँ। मैं आपको यह भी बता चुका कि शाश्वत काल किस तरह जीवों का पीछा कर रहा है यद्यपि यह उनसे अदृश्य रहता है।

38 अज्ञान में किये गये कर्म अथवा अपनी वास्तविक पहचान की विस्मृति के अनुसार जीवात्मा के लिए अनेक प्रकार के भौतिक अस्तित्व होते हैं। हे माता, यदि कोई इस विस्मृति में प्रविष्ट होता है, तो वह यह नहीं समझ पाता कि उसकी गतियों का अन्त कहाँ होगा।

39 भगवान कपिल ने आगे कहा: यह उपदेश उन लोगों के लिए नहीं है, जो ईर्ष्यालु हैं, अविनीत हैं या दुराचारी हैं। न ही यह उपदेश दम्भियों या उन व्यक्तियों के लिए है, जिन्हें अपनी भौतिक सम्पदा का गर्व है।

40 यह उपदेश न तो उन लोगों को दिया जाय जो अत्यन्त लालची हैं और गृहस्थ जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं, न ही अभक्तों और भक्तों एवं भगवान के भक्तों तथा भगवान के प्रति ईर्ष्या रखने वालों को दिया जाय।

41 ऐसे श्रद्धालु भक्त को उपदेश दिया जाय जो गुरु के प्रति सम्मानपूर्ण, द्वेष न करने वाले, समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव रखने वाला हो तथा श्रद्धा और निष्ठापूर्वक सेवा करने के लिए उत्सुक हो।

42 गुरु द्वारा उपदेश ऐसे व्यक्तियों को दिया जाय जो भगवान को अन्य किसी भी वस्तु से अधिक प्रिय मानते हैं, जो किसी के प्रति द्वेष नहीं रखते, जो पूर्ण शुद्ध चित्त हैं और जिन्होंने कृष्णचेतना की परिधि के बाहर विराग उत्पन्न कर लिया है।

43 जो कोई श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक एक बार मेरा ध्यान करता है, मेरे विषय में सुनता तथा कीर्तन करता है, वह निश्चय ही भगवान के धाम को वापस जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इकतीस – जीवों की गतियों के विषय में भगवान कपिल के उपदेश (3.31)

1 भगवान ने कहा: परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव (आत्मा) को पुरुष के तेजकण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है।

2 पहली रात में शुक्राणु तथा रज मिलते हैं और पाँचवीं रात में यह मिश्रण बुलबले का रूप धारण कर लेता है। दसवीं रात्रि को यह बढ़कर बेर जैसा हो जाता है और उसके बाद धीरे-धीरे यह मांस के पिण्ड या अंडे में परिवर्तित हो जाता है।

3 एक महीने के भीतर सिर बन जाता है और दो महीने के अन्त में हाथ, पाँव तथा अन्य अंग आकार पाते हैं। तीसरे मास के अन्त तक नाखून, अँगुलियाँ, अँगूठे, रोएँ, हड्डियाँ तथा चमड़ी प्रकट हो आती हैं और इसी तरह जननेन्द्रिय तथा आँखें, नथुने, कान, मुँह तथा गुदा जैसे छिद्र भी प्रकट होते हैं।

4 गर्भ धारण के चार महीने के भीतर शरीर के सात मुख्य अवयव उत्पन्न हो जाते हैं। इनके नाम हैं – रस, रक्त, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा तथा वीर्य। पाँच महीने में भूख तथा प्यास लगने लगती है और छह मास के अन्त तक झिल्ली (जरायु) के भीतर बन्द गर्भ (भ्रूण) उदर के दाहिनी भाग में चलने लगता है।

5 माता द्वारा ग्रहण किये गये भोजन तथा जल से पोषण प्राप्त करके भ्रूण बढ़ता है और मल-मूत्र के घृणित स्थान में, जो सभी प्रकार के कीटाणुओं के उपजने का स्थान है, रहा आता है।

6 उदर में भूखे कीड़ों द्वारा शरीर भर में बारम्बार काटे जाने पर शिशु को अपनी सुकुमारता के कारण अत्यधिक पीड़ा होती है। इस भयावह स्थिति के कारण वह क्षण-क्षण अचेत होता रहता है।

7 माता के खाये कड़वे, तीखे, अत्यधिक नमकीन या खट्टे भोजन के कारण शिशु के शरीर में निरन्तर पीड़ा रहती है, जो प्रायः असह्य होती है।

8 झिल्ली से लिपटा हुआ और बाहर से आँतों द्वारा ढका (घिरा) हुआ शिशु उदर में एक ओर पड़ा रहता है। उसका सिर उसके पेट की ओर मुड़ा हुआ रहता है और उसकी कमर तथा गर्दन धनुषाकार में मुड़े रहते हैं।

9 इस तरह शिशु पिंजड़े में बन्द पक्षी के समान बिना हिले-डुले रह रहा होता है। उस समय, यदि शिशु भाग्यवान हुआ, तो उसे विगत सौ जन्मों के कष्ट स्मरण हो आते हैं और वह दुख से आहें भरता है। भला ऐसी दशा में मन:शान्ति कैसे सम्भव है?

10 इस प्रकार गर्भाधान के पश्चात सातवें मास से चेतना विकसित होने पर यह शिशु उन हवाओं के द्वारा चलायमान रहता है, जो भ्रूण को प्रसव के कुछ सप्ताह पूर्व से दबाती रहती हैं। वह पेट की गन्दगी से उत्पन्न कीड़ों के समान एक स्थान में नहीं रह सकता।

11 इस भयभीत अवस्था में, भौतिक अवयवों के सात आवरणों से बँधा हुआ जीव हाथ जोड़कर भगवान से याचना करता है जिन्होंने उसे इस स्थिति में ला रखा है।

12 जीव कहता है: मैं उन भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो अपने विभिन्न नित्य स्वरूपों में प्रकट होते हैं और इस भूतल पर घूमते रहते हैं। मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि वे ही मुझे निर्भय कर सकते हैं और उन्हीं से मुझे यह जीवन-अवस्था प्राप्त हुई है, जो मेरे अपवित्र कार्यों के सर्वथा अनुरूप है।

13 मैं विशुद्ध आत्मा अपने कर्म के द्वारा बँधा हुआ, माया की व्यवस्थावश इस समय अपनी माता के गर्भ में पड़ा हुआ हूँ। मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ जो यहाँ मेरे साथ हैं, किन्तु जो अप्रभावित हैं और अपरिवर्तनशील हैं। वे असीम हैं, किन्तु सन्तप्त हृदय में देखे जाते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

14 मैं अपने इस पंचभूतों से निर्मित भौतिक शरीर में होने के कारण परमेश्वर से विलग हो गया हूँ, फलतः मेरे गुणों तथा इन्द्रियों का दुरुपयोग हो रहा है, यद्यपि मैं मूलतः आध्यात्मिक हूँ। ऐसे भौतिक शरीर से रहित होने के कारण भगवान प्रकृति तथा जीव से परे हैं, इसलिये उनके आध्यात्मिक गुण महिमामय हैं – मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

15 जीव आगे प्रार्थना करता है: जीवात्मा प्रकृति के वशीभूत रहता है और जन्म तथा मरण का चक्र बनाये रखने के लिए कठिन श्रम करता रहता है। यह बद्ध जीवन भगवान के साथ अपने सम्बन्ध की विस्मृति के कारण है। अतः बिना भगवान की कृपा के कोई उनकी दिव्य प्रेमा-भक्ति में पुनः किस प्रकार संलग्न हो सकता है?

16 भगवान के आंशिक स्वरूप अन्तर्यामी परमात्मा के अतिरिक्त और कौन समस्त चर तथा अचर वस्तुओं का निर्देशन कर रहा है? वे काल की इन तीनों अवस्थाओं भूत, वर्तमान तथा भविष्य में उपस्थित रहते हैं। अतः बद्धजीव उनके ही आदेश से विभिन्न कर्मों में रत है और इस बद्ध जीवन के तीनों तापों से मुक्त होने के लिए हमें उनकी ही शरण ग्रहण करनी होगी।

17 अपनी माता के उदर में रक्त, मल तथा मूत्र के कूप में गिर कर और अपनी माँ की जठराग्नि से दग्ध देहधारी जीव बाहर निकलने की व्यग्रता में महीनों की गिनती करता रहता है और प्रार्थना करता है, “हे भगवान, यह अभागा जीव कब इस कारागार से मुक्त हो पाएगा?

18 हे भगवान, आपकी अहैतुकी कृपा से मुझमें चेतना आई, यद्यपि मैं अभी केवल दस मास का हूँ। पतितात्माओं के मित्र भगवान की इस अहैतुकी कृपा के लिए कृतज्ञता प्रकट करने के हेतु मेरे पास हाथ जोड़कर प्रार्थना करने के अतिरिक्त है ही क्या?

19 अन्य प्रकार का शरीर धारी जीव केवल अन्तःप्रेरणा से देखता है, वह उस शरीर के ग्राह्य तथा अग्राह्य अनुभवों से ही परिचित होता है, किन्तु मुझे ऐसा शरीर प्राप्त है, जिससे मैं अपनी इन्द्रियों को वश में रखता हूँ और अपने गन्तव्य को समझता हूँ, अतः मैं भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके आशीर्वाद से मुझे यह शरीर प्राप्त हुआ है और जिनकी कृपा से मैं उन्हें भीतर और बाहर देख सकता हूँ।

20 अतः हे प्रभु यद्यपि मैं अत्यन्त भयावह परिस्थिति में रह रहा हूँ, किन्तु मैं अपनी माँ के गर्भ से बाहर आकर भौतिक जीवन के अन्धकूप में गिरना नहीं चाहता। देवमाया नामक आपकी बहिरंगा शक्ति तुरन्त नवजात शिशु को पकड़ लेती है और उसके बाद तुरन्त ही झूठा स्वरुपज्ञान प्रारम्भ हो जाता है, जो निरन्तर जन्म तथा मृत्यु के चक्र का शुभारम्भ है।

21 अतः और अधिक क्षुब्ध न होकर मैं अपने मित्र विशुद्ध चेतना की सहायता से अज्ञान के अंधकार से अपना उद्धार करूँगा। केवल भगवान विष्णु के चरणकमलों को अपने मन में धारण करके मैं बारम्बार जन्म तथा मृत्यु के लिए अनेक माताओं के गर्भों में प्रविष्ट होने से बच सकूँ गा।

22 भगवान कपिल ने कहा: अभी तक गर्भ में स्थित इस दस मास के जीव की भी ऐसी कामनाएँ होती हैं। किन्तु जब वह भगवान की स्तुति करता है तभी प्रसूति काल की वायु औंधे मुँह पड़े हुए उस शिशु को बाहर की ओर धकेलती है, जिससे वह जन्म ले सके।

23 वायु द्वारा सहसा नीचे की ओर धकेला जाकर अत्यन्त कठिनाई से, सिर के बल, श्वासरहित तथा तीव्र वेदना के कारण स्मृति से विहीन होकर शिशु बाहर आता है।

24 इस प्रकार वह शिशु मल तथा रक्त से सना हुआ पृथ्वी पर आ गिरता है और मल से उत्पन्न कीड़े के समान छटपटाता है। उसका श्रेष्ठ ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह माया के मोहजाल में विलखता है।

25 उदर से निकलने के बाद शिशु ऐसे लोगों की देख-रेख में आ जाता है और उसका पालन ऐसे लोगों द्वारा होता रहता है, जो यह नहीं समझ पाते कि वह चाहता क्या है। उसे जो कुछ मिलता है उसे वह इनकार न कर सकने के कारण, अवांछित परिस्थिति में आ पड़ता है।

26 पसीने तथा कीड़ों से भरे हुए मैले-कुचैले बिस्तर पर लिटाया हुआ शिशु खुजलाहट से मुक्ति पाने के लिए अपना शरीर खुजला भी नहीं पाता; बैठने, खड़े होने या चलने की बात तो दूर रही।

27 इस असहाय अवस्था में मुलायम त्वचा वाले बालक को डॉस, मच्छर, खटमल तथा अन्य कीड़े काटते रहते हैं, जिस तरह बड़े कीड़े को छोटे-छोटे कीड़े काटते रहते हैं। बालक अपना सारा ज्ञान गँवा कर जोर-जोर से चिल्लाता है।

28 इस प्रकार विविध प्रकार के कष्ट भोगता हुआ शिशु अपना बाल्यकाल बिता कर किशोरावस्था प्राप्त करता है। किशोरावस्था में भी वह अप्राप्य वस्तुओं की इच्छा करता है, किन्तु उनके न प्राप्त होने पर उसे पीड़ा होती है। इस प्रकार अज्ञान के कारण वह क्रुद्ध तथा दुखित होता है।

29 शरीर बढ़ने के साथ ही जीव अपनी आत्मा को परास्त करने के लिए अपनी झूठी प्रतिष्ठा को तथा क्रोध को बढ़ाता है और इस तरह अपने ही जैसे कामी पुरुषों के साथ वैर उत्पन्न करता है।

30 ऐसे अज्ञान से जीव पंचतत्त्वों से निर्मित भौतिक शरीर को 'स्व' मान लेता है। इस भ्रम के कारण वह क्षणिक वस्तुओं को निजी समझता है और अन्धकारमय क्षेत्र में अपना अज्ञान बढ़ाता है।

31 जो शरीर जीव के लिए निरन्तर कष्ट का साधन है और जो अज्ञान तथा कर्म के बन्धन से बँधे जीव का अनुगमन करता है, उस शरीर के लिए जीव को अनेक प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्र के अधीन हो जाता है।

32 अतः यदि जीव विषय-भोग में लगे हुए ऐसे कामी पुरुषों से प्रभावित होकर, जो स्त्रीसंग-सुख व स्वाद की तुष्टि में ही रत हैं, असत मार्ग का अनुसरण करता है, तो वह पहले की तरह पुनः नरक को जाता है।

33 वह सत्य, शौच, दया, गम्भीरता, आध्यात्मिक बुद्धि, लज्जा, संयम, यश, क्षमा, मन-निग्रह, इन्द्रिय-निग्रह, सौभाग्य और ऐसे ही अन्य सुअवसरों से विहीन हो जाता है।

34 मनुष्य को चाहिए कि ऐसे अभद्र (अशान्त) मूर्ख की संगति न करे जो आत्म-साक्षात्कार के ज्ञान से रहित हो और स्त्री के हाथों का नाचने वाला कुत्ता बन कर रह गया हो।

35 अन्य किसी वस्तु के प्रति आसक्ति से उत्पन्न मुग्धता तथा बन्धन उतने पूर्ण नहीं होते जितने कि किसी स्त्री के प्रति आसक्ति से या उन व्यक्तियों के साथ जो स्त्रियों के कामी रहते हैं।

36 ब्रह्मा अपनी पुत्री को देखकर उसके रूप पर मोहित हो गये और जब उसने मृगी का रूप धारण कर लिया तो वे भी मृग रूप में निर्लज्जतापूर्वक उसका पीछा करने लगे।

37 ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न समस्त जीवों – अर्थात मनुष्य, देवता तथा पशु में से ऋषि नारायण के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो स्त्री रूपी माया के आकर्षण के प्रति निश्चेष्ट हो।

38 तनिक स्त्री रूपी मेरी माया की अपार शक्ति को समझने का प्रयत्न तो करो, जो मात्र अपनी भौंहों की गति से संसार के बड़े से बड़े विजेताओं को भी अपनी मुट्ठी में रखती है।

39 जो योग की पराकाष्ठा को प्राप्त करना चाहता हो तथा जिसने मेरी सेवा कर आत्म-साक्षात्कार कर लिया हो उसे चाहिए कि वह कभी किसी आकर्षक स्त्री की संगति न करे, क्योंकि शास्त्रों में घोषणा की गई है कि प्रगतिशील के लिए ऐसी स्त्री नरक द्वार के तुल्य है।

40 भगवान द्वारा उत्पन्न स्त्री माया स्वरूपा है और जो ऐसी माया की सेवाएँ स्वीकार करके उसकी संगति करता है उसे यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि यह घास से ढके हुए अंधे कुएँ के समान उसकी मृत्यु का मार्ग है।

41 पूर्व जीवन में स्त्री-आसक्ति के कारण जीव स्त्री का रूप प्राप्त करता है मूर्खतावश माया को अपना पति मानकर उसे ही सम्पत्ति, सन्तान, घर तथा अन्य भौतिक साज-समान देने वाला समझता है।

42 अतएव स्त्री को अपने पति, घरबार और अपने बच्चों को उसकी मृत्यु के लिए भगवान की बहिरंगा शक्ति की व्यवस्था के रूप में मानना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे शिकारी की मधुर तान हिरण के लिए मृत्यु होती है।

43 विशेष प्रकार का शरीर होने के कारण भौतिकतावादी जीव अपने कर्मों के अनुसार एक लोक से दूसरे लोक में भटकता रहता है। इसी प्रकार वह अपने आपको सकाम कर्मों में लगा लेता है और निरन्तर फल का भोग करता है।

44 इस प्रकार सकाम कर्मों के अनुसार जीवात्मा को मन तथा इन्द्रियों से युक्त उपयुक्त शरीर प्राप्त होता है। जब किसी कर्म का फल चूक जाता है, तो इस अन्त को मृत्यु कहते हैं और जब कोई फल प्रारम्भ होता है, तो उस शुभारम्भ को जन्म कहते हैं।

45-46 जब दृष्टि-तंत्रिका के प्रभावित होने से आँखें रंग या रूप को देखने की शक्ति खो देती है, तो चक्षु-इन्द्रिय मृतप्राय हो जाती है। तब आँख तथा दृष्टि का दृष्टा जीव अपनी देखने की शक्ति खो देता है। इसी प्रकार जब भौतिक शरीर, जो वस्तुओं की अनुभूति का स्थल है, अनुभव करना बन्द कर देता है, तो इस अयोग्यता को मृत्यु कहते है। जब मनुष्य शरीर को स्व मानने लगता है, तो इसे जन्म कहते हैं।

47 अतः मनुष्य को न तो मृत्यु को भयभीत होकर देखना चाहिए, न शरीर को आत्मा मानना चाहिए, न ही जीवन की आवश्यकताओं के शारीरिक भोग को बढ़ा-चढ़ा कर समझना चाहिए। जीव की असली प्रकृति को समझते हुए मनुष्य को आसक्ति से रहित तथा उद्देश्य में दृढ़ होकर संसार में विचरण करना चाहिए।

48 सही-सही दृष्टि से युक्त तथा भक्ति से पुष्ट होकर एवं भौतिक पहचान के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण से समन्वित होकर मनुष्य को तर्क द्वारा अपना शरीर इस मायामय संसार को गिरवी कर देना चाहिए। इस तरह वह इस जगत से अपना सम्बन्ध छुड़ा सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तीस – भगवान कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन (3.30)

1 भगवान ने कहा: जिस प्रकार बादलों का समूह वायु के शक्तिशाली प्रभाव से परिचित नहीं रहता उसी प्रकार भौतिक चेतना में संलग्न व्यक्ति काल की उस महान शक्ति से परिचित नहीं रहता, जिसके द्वारा उसे ले जाया जा रहा है।

2 तथाकथित सुख के लिए भौतिकतावादी द्वारा जो-जो वस्तुएँ अत्यन्त कष्ट तथा परिश्रम से अर्जित की जाती है उन सबको कालरूप परम पुरुष नष्ट कर देता है और इसके कारण बद्धजीव उनके लिए शोक करता है।

3 विभ्रमित भौतिकतावादी व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसका अपना यह शरीर अस्थायी है और घर, जमीन तथा सम्पत्ति जो इस शरीर से सम्बन्धित हैं, ये सारे आकर्षण भी क्षणिक हैं। वह अपने अज्ञान के कारण ही हर वस्तु को स्थायी मानता है।

4 जीव जिस योनि में भी प्रकट होता है, उसको उसी योनि में एक विशेष सन्तोष प्राप्त होता है और वह उस अवस्था में रहने से कभी विमुख नहीं होता।

5 बद्धजीव अपनी योनि-विशेष में ही संतुष्ट रहता है, माया के आवरणात्मक प्रभाव से मोहग्रस्त होकर वह अपने शरीर को त्यागना नहीं चाहता, भले ही वह नरक में क्यों न हो, क्योंकि उसे नारकीय भोग में ही आनन्द मिलता है।

6 मनुष्य को अपने जीवनस्तर के प्रति इस प्रकार का सन्तोष अपने शरीर, पत्नी, घर, सन्तान, पशु, सम्पत्ति तथा मित्रों के प्रति प्रगाढ़ आकर्षण के कारण ही होता है। ऐसी संगति में बद्धजीव अपने आपको पूरी तरह सही मानता है।

7 यद्यपि वह चिन्ता से सदैव जलता रहता है, तो भी ऐसा मूर्ख कभी न पूरी होने वाली आशाओं के लिए सभी प्रकार के अनिष्ट कृत्य करता है, जिससे वह अपने तथाकथित परिवार तथा समाज का भरण-पोषण कर सके।

8 वह उस स्त्री को अपना हृदय तथा इन्द्रियाँ दे बैठता है, जो झूठे ही उसे माया से मोह लेती है। वह उसके साथ एकान्त में आलिंगन तथा सम्भाषण करता है और अपने छोटे-छोटे बच्चों के मीठे-मीठे बोलों से मुग्ध होता रहता है।

9 आसक्त गृहस्थ कूटनीति तथा राजनीति से पूर्ण अपने पारिवारिक जीवन में रहा आता है। वह सदैव दुखों का विस्तार करता हुआ और इन्द्रियतृप्ति के कार्यों से नियंत्रित होकर अपने सारे दुखों के फल को झेलने के लिए कर्म करता है। यदि वह इन दुखों को सफलतापूर्वक झेल लेता है, तो वह अपने को सुखी मानता है।

10 वह इधर-उधर हिंसा करके धन प्राप्त करता है और यद्यपि वह इसे अपने परिवार के भरण-पोषण में लगाता है, किन्तु स्वयं इस प्रकार से खरीदे भोजन का अल्पांश ही ग्रहण करता है। इस तरह वह उन लोगों के लिए नरक जाता है, जिनके लिए उसने अवैध ढंग से धन कमाया था।

11 जब उसे अपनी जीविका में प्रतिकूल फल मिलते हैं, तो वह बारम्बार अपने को सुधारने का यत्न करता है, किन्तु जब उसके सारे प्रयास असफल रहते हैं और वह विनष्ट हो जाता है, तो अत्यन्त लोभवश वह दूसरों का धन स्वीकार करता है।

12 जब वह अभागा अपने परिवार वालों के भरण-पोषण में असफल होकर समस्त सौन्दर्य से विहीन हो जाता है, तो वह सदैव लम्बी-लम्बी आहें भरता हुआ अपनी विफलता के विषय में सोचता है।

13 उसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर उसकी पत्नी तथा अन्य लोग उसे उसी तरह पहले जैसा सम्मान नहीं प्रदान करते जिस तरह कंजूस किसान अपने बूढ़े तथा थके बैलों के साथ पहले जैसा व्यवहार नहीं करता।

14 मूर्ख पारिवारिक व्यक्ति गृहस्थ जीवन से पराड्मुख (विमुख) नहीं होता, यद्यपि अब उसका पालन उन लोगों के द्वारा किया जा रहा है, जिन्हें पहले उसने पाला था। वृद्धावस्था के कारण उसका रूप विकृत हो जाता है और वह मृत्यु की तैयारी करने लगता है।

15 वह घर पर पालतू कुत्ते की भाँति रहता है और उपेक्षाभाव से उसे जो भी दिया जाता है, उसे खाता है। अजीर्ण तथा मन्दाग्नि जैसी अनेक प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त होकर, वह केवल कुछ कौर भोजन करता है और अशक्त होने के कारण कोई भी काम नहीं कर पाता।

16 उस रुग्ण अवस्था में, भीतर से वायु के दबाब के कारण उसकी आँखें बाहर निकल आती हैं और उसकी ग्रंथियाँ कफ से भर जाती हैं। उसे साँस लेने में कठिनाई होती है और गले के भीतर से घुर-घुर की आवाज निकलती है।

17 इस प्रकार वह मृत्यु के पाश में बँधकर लेट जाता है, विलाप करते उसके मित्र तथा सम्बन्धी उसे घेर लेते हैं और उन सबसे बोलने की इच्छा करते हुए भी वह बोल नहीं पाता, क्योंकि वह काल के वश में रहता है।

18 इस प्रकार जो व्यक्ति इन्द्रियों को वश में किये बिना परिवार के भरण-पोषण में लगा रहता है, वह अपने रोते कुटुम्बियों को देखता हुआ अत्यन्त शोक में मरता है। वह अत्यन्त दयनीय अवस्था में, असह्य पीड़ा के साथ, किन्तु चेतना विहीन होकर मरता है।

19 मृत्यु के समय उसे अपने समक्ष यमराज के दूत आए दिखते हैं, जिनके नेत्र क्रोध से पूर्ण रहते हैं। इस तरह भय के मारे उसका मल-मूत्र छूट जाता है।

20 जिस प्रकार राज्य के सिपाही अपराधी को दण्डित करने के लिए उसे गिरफ्तार करते हैं उसी प्रकार इन्द्रियतृप्ति में संलग्न अपराधी पुरुष यमदूतों के द्वारा बन्दी बनाया जाता है। वे उसे मजबूत रस्सी से गले से बाँध लेते हैं और उसके सूक्ष्म शरीर को ढक देते हैं जिससे उसे कठोर से कठोर दण्ड दिया जा सके।

21 इस प्रकार यमराज के सिपाहियों द्वारा ले जाये जाते समय उसे दबाया-कुचला जाता है और उनके हाथों में वह काँपता रहता है। रास्ते में जाते समय उसे कुत्ते काटते हैं और उसे अपने जीवन के पापकर्म याद आते हैं। इस प्रकार वह अत्यधिक दुखी रहता है।

22 अपराधी को चिलचिलाती धूप में गर्म बालू के रास्ते से होकर जाना पड़ता है, जिसके दोनों ओर दावाग्नि जलती रहती है। चलने में असमर्थता के कारण सिपाही उसकी पीठ पर कोड़े लगाते हैं और वह भूख तथा प्यास से व्याकुल हो जाता है। किन्तु दुर्भाग्यवश रास्ते भर न तो पीने के लिए जल रहता है, न विश्राम करने के लिए कोई आश्रय मिलता है।

23 यमराज के धाम के मार्ग पर वह थकान से गिरता-पड़ता जाता है और कभी-कभी अचेत हो जाता है, किन्तु उसे पुनः उठने के लिए बाध्य किया जाता है। इस प्रकार उसे तेजी से यमराज के समक्ष लाया जाता है।

24 इस तरह से 99 हजार योजन की दूरी उसे दो या तीन पलों में पार करनी होती है और फिर तुरन्त उसे घोर यातना दी जाती है, जिसे सहना पड़ता है।

25 वहाँ उसे जलती हुई लकड़ियों के बीच में रख दिया जाता है और उसके अंगों में आग लगा दी जाती है। कभी-कभी उसे अपना मांस स्वयं खाने के लिए बाध्य किया जाता है या दूसरों को खिलाया जाता है।

26 नरक के कुत्तों तथा गीधों द्वारा उसकी आँखें उसके जीवित रहते और देखते-देखते निकाल ली जाती है और उसे साँपों, बिच्छुओं, डॉसों तथा अन्य काटने वाले जन्तुओं से पीड़ा पहुँचाई जाती है।

27 फिर उसके अंग-प्रत्यंग काट डाले जाते हैं और उसे हाथियों से चिरवा दिया जाता है। उसे पर्वत की चोटियों से नीचे गिराया जाता है और फिर जल में या गुफा में बन्दी बना लिया जाता है।

28 जिन पुरुषों तथा स्त्रियों का जीवन अवैध यौनाचार में बीतता है उन्हें तामिस्र, अन्धतामिस्र तथा रौरव नामक नरकों में नाना प्रकार की यातनाएँ दी जाती हैं।

29 कपिलमुनि ने आगे कहा: हे माता, कभी-कभी यह कहा जाता है कि इसी लोक में हम नरक अथवा स्वर्ग का अनुभव करते हैं, क्योंकि कभी-कभी इस लोक में भी नारकीय यातनाएँ दिखाई पड़ती हैं।

30 इस शरीर को त्यागने के पश्चात जो व्यक्ति पापकर्मों द्वारा अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों का पालन-पोषण करता है नारकीय जीवन बिताता है और उसके साथ उसके परिवार वाले भी।

31 इस शरीर को त्याग कर वह अकेला नरक के अन्धतम भागों में जाता है और अन्य जीवों के साथ ईर्ष्या करके उसने जो धन कमाया था वही पाथेय के रूप में उसके साथ जाता है।

32 इस प्रकार भगवान की व्यवस्था से, परिवार का पोषणकर्ता अपने पापकर्मों को भोगने के लिए नारकीय अवस्था में रखा जाता है मानो उसकी सारी सम्पत्ति लूट गई हो।

33 अतः जो व्यक्ति केवल कुत्सित साधनों से अपने परिवार तथा कुटुम्बियों का पालन करने के लिए लालायित रहता है, वह निश्चय ही अन्धतामिस्र नामक गहनतम नरक में जाता है।

34 समस्त कष्टकर नारकीय परिस्थितियों से तथा मनुष्य जन्म के पूर्व पशु-जीवन के निम्नतम रूपों को क्रमशः पार करते हुए और इस प्रकार अपने पापों को भोगते हुए, वह इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में पुनः जन्म लेता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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