इस भौतिक कल्मष से छुटकारा पाने के लिए भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए जैसा कि भगवद गीता (7.14) में कहा गया है -- मामेव ये प्रपद्यनते मायामेतां तरन्ति ते।
सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है कि शाप तथा वरदान से ऊपर उठा जाये और भगवान कृष्ण की शरण ग्रहण की जाये तथा दिव्य स्थिति में रहा जाये। तात्पर्य श्रीमद भागवतम 4.2.27 श्रील प्रभुपाद
अध्याय दो – दक्ष द्वारा शिवजी को शाप (4.2)
1 विदुर ने पूछा: जो दक्ष अपनी पुत्री के प्रति इतना स्नेहवान था वह शीलवानों में श्रेष्ठतम भगवान शिव के प्रति इतना ईर्ष्यालु क्यों था? उसने अपनी पुत्री सती का अनादर क्यों किया?
2 भगवान शिव समग्र संसार के गुरु, शत्रुतारहित, शान्त और आत्मतुष्ट व्यक्ति हैं। वे देवताओं में सबसे महान हैं। यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ऐसे मंगलमय व्यक्ति के प्रति दक्ष वैरभाव रखता ?
3 हे मैत्रेय, मनुष्य के लिए अपने प्राण त्याग पाना अत्यन्त कठिन है। क्या आप मुझे बता सकेंगे कि ऐसे दामाद तथा श्वसुर में इतना कटु विद्वेष क्यों हुआ जिससे महान देवी सती को अपने प्राण त्यागना पड़े?
4 मैत्रेय ने कहा: प्राचीन समय में एक बार ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाले प्रमुख नायकों ने एक महान यज्ञ सम्पन्न किया जिसमें सभी ऋषि, चिन्तक (मुनि), देवता तथा अग्निदेव अपने-अपने अनुयायियों सहित एकत्र हुए थे।
5 जब प्रजापतियों के नायक दक्ष ने सभा में प्रवेश किया, तो सूर्य के तेज के समान चमकीली कान्ति से युक्त उसके शरीर से सारी सभा प्रकाशित हो उठी और उसके समक्ष सभी सभागत महापुरुष तुच्छ लगने लगे।
6 ब्रह्मा तथा शिवजी के अतिरिक्त, दक्ष की शारीरिक कान्ति (तेज) से प्रभावित होकर उस सभा के सभी सदस्य तथा सभी अग्निदेव, उसके सम्मान में अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये।
7 उस महती सभा के अध्यक्ष ब्रह्मा ने दक्ष का समुचित रीति से स्वागत किया। ब्रह्माजी को प्रणाम करने के पश्चात उनकी आज्ञा पाकर दक्ष ने अपना आसन ग्रहण किया।
8 किन्तु आसन ग्रहण करने के पूर्व शिवजी को बैठा हुआ और उन्हें सम्मान न प्रदर्शित करते हुए देखकर दक्ष ने इसे अपना अपमान समझा। उस समय दक्ष अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसकी आँखें तप रही थीं। उसने शिव के विरुद्ध अत्यन्त कटु शब्द बोलना प्रारम्भ किया।
9 हे समस्त उपस्थित ऋषियों, ब्राह्मणों तथा अग्निदेवों, ध्यानपूर्वक सुनो क्योंकि मैं शिष्टाचार के विषय में बोल रहा हूँ। मैं किसी अज्ञानता या ईर्ष्या से नहीं कह रहा।
10 शिव ने लोकपालों के नाम तथा यश को धूल में मिला दिया है और सदाचार के पथ को दूषित किया है। निर्लज्ज होने के कारण उसे इसका पता नहीं है कि किस प्रकार से आचरण करना चाहिए।
11 इसने अग्नि तथा ब्राह्मणों के समक्ष मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करके पहले ही मेरी अधीनता स्वीकार कर ली है। इसने गायत्री के समान मेरी पुत्री के साथ विवाह किया है और अपने को सत्यपुरुष बताया था।
12 इसके नेत्र बन्दर के समान हैं तो भी इसने मृगी जैसी नेत्रों वाली मेरी कन्या के साथ विवाह किया है। तो भी इसने उठकर न तो मेरा स्वागत किया और न मीठी वाणी से मेरा सत्कार करना उचित समझा ।
13 शिष्टाचार के सभी नियमों को भंग करने वाले इस व्यक्ति को अपनी कन्या प्रदान करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं थी। वांछित विधि-विधानों का पालन न करने के कारण यह अपवित्र है, किन्तु इसे अपनी कन्या प्रदान करने के लिए मैं उसी प्रकार बाध्य हो गया जिस प्रकार किसी शूद्र को वेदों का पाठ पढ़ाना पड़े।
14-15 वह श्मशान जैसे गंदे स्थानों में रहता है और उसके साथ भूत तथा प्रेत रहते हैं। वह पागलों के समान निर्वस्त्र रहता है, कभी हँसता है, तो कभी चिल्लाता है और सारे शरीर में श्मशान की राख लपेटे रहता है। वह ठीक से नहाता भी नहीं। वह खोपड़ियों तथा अस्थियों की माला से अपने शरीर को विभूषित करता है। अतः वह केवल नाम से ही शिव है, अन्यथा वह अत्यन्त प्रमत्त तथा अशुभ प्राणी है। वह केवल तामसी प्रमत्त लोगों का प्रिय है और उन्हीं का अगवा है।
16 ब्रह्माजी के अनुरोध पर मैंने अपनी साध्वी पुत्री उसे प्रदान की थी, यद्यपि वह समस्त प्रकार की स्वच्छता से रहित है और उसका हृदय विकारों से पूरित है।
17 मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: इस प्रकार शिव को अपने विपक्ष में स्थित देखकर दक्ष ने जल से आचमन किया और निम्नलिखित शब्दों से शाप देना प्रारम्भ किया।
18 देवता तो यज्ञ की आहुति में भागीदार हो सकते हैं, किन्तु समस्त देवों में अधम शिव को यज्ञ-भाग नहीं मिलना चाहिए।
19 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, उस यज्ञ के सभासदों द्वारा मना किये जाने पर भी दक्ष क्रोध में आकर शिवजी को शाप देता रहा और फिर सभा त्याग कर अपने घर चला गया।
20 यह जानकर कि भगवान शिव को शाप दिया गया है, शिव का प्रमुख पार्षद नन्दीश्वर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ। उसकी आँखें लाल हो गई और उसने दक्ष तथा वहाँ उपस्थित सभी ब्राह्मणों को, जिन्होंने दक्ष द्वारा कटु वचनों में शिवजी को शापित किए जाने को सहन किया था, शाप देने की तैयारी की।
21 जिस किसी ने दक्ष को सर्वश्रेष्ठ पुरुष मान कर ईर्ष्यावश भगवान शिव का निरादर किया है, वह अल्प बुद्धिवाला है और अपने द्वैतभाव के कारण वह दिव्यज्ञान से विहीन हो जाएगा।
22 जिस कपटपूर्ण धार्मिक गृहस्थ-जीवन में कोई मनुष्य भौतिक सुख के प्रति आसक्त रहता है और साथ ही वेदों की व्यर्थ व्याख्या के प्रति आकृष्ट होता है, इसमें उसकी सारी बुद्धि हर ली जाती है और वह पूर्ण रूप से सकाम कर्म में लिप्त हो जाता है।
23 दक्ष ने देह को ही सब कुछ समझ रखा है। इसने विष्णुपाद अथवा विष्णु-गति को भुला दिया है और केवल स्त्री-संग में ही लिप्त रहता है, अतः इसे शीघ्र ही बकरे का मुख प्राप्त होगा।
24 जो लोग भौतिक विद्या तथा युक्ति के अनुशीलन में पदार्थ की भाँति जड़ बन चुके हैं, वे अज्ञानवश सकाम कर्मों में लगे हुए हैं। ऐसे मनुष्यों ने जानबूझकर भगवान शिव का अनादर किया है। ऐसे लोग जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहें।
25 मोहक वैदिक प्रतिज्ञाओं की पुष्पमयी (अलंकृत) भाषा से आकृष्ट होकर जो जड़ बन चुके हैं और शिव-द्रोही हैं, वे सदैव सकाम कर्मों में निरत रहें।
26 ये ब्राह्मण केवल अपने शरीर-पालन के लिए विद्या, तप तथा व्रतादि का आश्रय लें। इन्हें भक्ष्याभक्ष्य का विवेक न रह जाए। ये द्वार-द्वार भिक्षा माँगकर अपने शरीर की तुष्टि के लिए धन की प्राप्ति करें।
27 इस प्रकार जब नन्दीश्वर ने समस्त कुलीन ब्राह्मणों को शाप दे दिया तो प्रतिक्रिया स्वरूप भृगुमुनि ने शिव के अनुयायियों की भर्त्सना की ओर उन्हें घोर ब्रह्म-शाप दे दिया।
28 जो शिव को प्रसन्न करने का व्रत धारण करता है अथवा जो ऐसे नियमों का पालन करता है, वह निश्चित रूप से नास्तिक होगा और दिव्य शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाला बनेगा।
29 जो शिव की पूजा का व्रत लेते हैं, वे इतने मूर्ख होते हैं कि वे उनका अनुकरण करके अपने शरीर पर लम्बी जटाएँ धारण करते हैं और शिव की उपासना की दीक्षा ले लेने के बाद वे मदिरा, मांस तथा अन्य ऐसी ही वस्तुएँ खाना-पीना पसंद करते हैं।
30 भृगु मुनि ने आगे कहा: चूँकि तुम वैदिक नियमों के अनुयायी ब्राह्मणों तथा वेदों की निन्दा करते हो इससे ज्ञात होता है कि तुमने नास्तिकता की नीति अपना रखी है ।
31 वेद मानवीय सभ्यता के कल्याण की प्रगति हेतु शाश्वत विधान प्रदान करने वाले हैं जिसका प्राचीन काल में दृढ़ता से पालन होता रहा है। इसका सशक्त प्रमाण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान स्वयं हैं, जो जनार्दन अर्थात समस्त जीवात्माओं के शुभेच्छु कहलाते हैं।
32 ऐसे वेदों के नियमों की निन्दा करके, जो सत्पुरुषों के शुद्ध एवं परम पथ-रूप हैं, अरे भूतपति शिव के अनुयायियों तुम, निस्सन्देह नास्तिकता के स्तर तक जाओगे।
33 मैत्रेय मुनि ने कहा: जब शिवजी के अनुयायियों तथा दक्ष एवं भृगु के पक्षधरों के बीच शाप-प्रतिशाप चल रहा था, तो शिवजी अत्यन्त खिन्न हो उठे और बिना कुछ कहे अपने शिष्यों सहित यज्ञस्थल छोड़कर चले गये।
34 मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: हे विदुर, इस प्रकार विश्व के सभी जनकों (प्रजापतियों) ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया क्योंकि भगवान हरि की पूजा की सर्वोत्तम विधि यज्ञ ही है।
35 हे धनुषबाणधारी विदुर, सभी यज्ञकर्ता देवताओं ने यज्ञ समाप्ति के पश्चात गंगा तथा यमुना संगम में स्नान किया। ऐसा स्नान अवभृथ स्नान कहलाता है। इस प्रकार से मन से शुद्ध होकर वे अपने-अपने धामों को चले गये।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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