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  • ॥श्री सीता राम ॥
    ॥ श्रीमते रामानंदाचार्याय नमः ॥
    आपने बहुत सुंदर प्रश्न पूछा है कि क्या श्री राम जी और श्री कृष्ण में कोई भेद है ? इसका उत्तर शास्त्र इस प्रकार देते हैं :- भगवान नित्य हैं , पूर्ण हैं इसलिए उनके सभी स्वरूप नित्य और पूर्ण हैं । भक्तों की इच्छा हेतु वे भगवान भिन्न भिन्न स्वरूपों में प्रकट होते हैं । श्री राम जी और श्री कृष्ण में संबंध की दृष्टि से अभेद है किंतु स्वरूप की दृष्टि से भेद है । जिस प्रकार जलते दीपों में एक सा प्रकाश दिखने पर भी उस एक दीप का अस्तित्व होता है जिससे मूलतः सभी दीप प्रकाश कर रहे हैं उसी प्रकार श्री राम चंद्र भगवान वह प्रथम दीप हैं जिनसे सभी अवतार प्रकाशमान होते हैं । भगवान श्री राम के भक्त को भगवान राम की परात्परता का बोध होने के लिए किसी शास्त्र प्रमाण की आवश्यकता नहीं क्योंकि इन शास्त्रों के अध्ययन , गुरु सेवा और भगवद उपासना करने के कारण उसमें भगवान का वह परात्पर स्वरूप स्थित हो जाता है । अवतार तो कई होते हैं किंतु उन सभी अवतारों में भी श्री राम जी का अवतार विशिष्ट है । इसके कई कारण हैं :-
    १. श्री राम जी इस मर्त्य लोक में लोक शिक्षा देने हेतु प्रकट होते हैं । सभी अवतारों के मध्य केवल श्री रघुनाथ जी का चरित्र ही अनुकरणीय है और किसी का नहीं ।
    २. जब श्री रघुनाथ जी का अवतार होता है तो वे किसी को बिसारते नहीं हैं । अन्य अवतार इस धरा धाम पर आकर अपने विहित कार्य को पूरा कर अकेले ही अपने धाम को प्रस्थान करते हैं किंतु श्री रघुनाथ जी जब अपने धाम को प्रस्थान करते हैं तब समस्त प्रजा को साथ में लेकर वे अपने लोक को पधारते हैं । यही उनका असीम कारूण्य है जिस कारण उन्हें कारुण्य विग्रह कहा जाता है ।
    ३. अन्य अवतार राक्षसों से युद्ध आदि प्रसंग में अनीति पूर्वक चरित्र का भी प्रदर्शन कर देते हैं किंतु श्री रघुनाथ जी जब अवतार लेते हैं तो साक्षाद धर्म ही विग्रह रूप ग्रहण करता है और तिल मात्रा भी अनीति पूर्वक क्रिया नहीं करते इस हेतु उनका चरित्र अतुलनीय है।
    ४. श्री राम जी वो हैं जो लंका जैसा वैभव भी अपने प्रिय भक्त विभीषण को प्रदान करते वक्त सकुचा जाते हैं कि मैंने बहुत थोड़ा दिया है । इस हेतु श्री राम जी प्रथम दे देते हैं अन्य अवतारों में "कर दूंगा" , "दे दूंगा" ऐसे वाक्य प्रयोग किए जाते हैं।
    ५. श्री राम जी जैसा रण कौशल किसी में नहीं है । उनके बाण की प्रत्यंचा की टंकार सुनकर वैकुंठाधिपति श्री नारायण भगवान भी एक क्षण के लिए संकोच में पड़ जाते हैं । श्री राम जी जब प्रकट होते हैं तो कभी भी शंख चक्रादि आयुधों का प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि इन शंख चक्रादि आयुधों की भी एक सीमा है जो श्री राम के धनुष और बाण के आगे नगण्य है । अन्य अवतारों में शंख चक्र का प्रयोग कई बार होता है किंतु श्री राम जब आते हैं तब वे कभी शंख चक्र का प्रयोग नहीं करते हैं ।
    ६. श्री राम जी के समान त्रिपादविभूति में और कोई नहीं है । अन्य अवतार में केवल स्त्री गण आदि ही भगवान के स्वरूप से आकर्षित होते हैं किंतु राम जी की विशेषता यह है कि जब वे दंडकारण्य में पधारे तब वो योगी जन जो इस संसार की किसी भी वस्तु से आसक्ति नहीं रखते हैं ऐसे योगी लोग भगवान श्री राम जी के कोटि कंदर्पो के लावण्य को भी लज्जित करने वाला जो जगन्मोहन विग्रह है उसको देखकर के मुग्ध हो जाते हैं और भगवान के श्री विग्रह को स्पर्श करने की उनमें इच्छा प्रकट हो जाती है किंतु भगवान श्री राघवेन्द्र अपने अवतार की मर्यादा का पालन करते हुए करुणा से भरकर उन्हें द्वापर में अपने सबसे निकट संबंधी गोपी स्वरूप उन्हें प्रदान करते हैं ।  कई लोग इस घटना का अवलंब लेकर श्री राम की सौलाभ्यता पर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं किंतु श्री रघुनाथ जी अपने परम माधुर्य विग्रह का साक्षात्कार सबको नहीं कराते। उनका जो कोटि कंदर्पों को दलन करने वाला विग्रह है उसे स्पर्श करने की आज्ञा केवल भगवान के परम प्रिय भक्तों को ही है , इसलिए नहीं क्योंकि श्री राघवेन्द्र की सौलभ्यता में कोई दोष है अपितु इसलिए की वे ही इसके अधिकारी हैं । भगवान श्री राघव जू का महारास गुह्याति गुह्य बल्कि गुह्यतमम है । उसका प्रकाश अनाधिकारी जन के लिए कदापि नहीं होता । उसका गूढ़ रहस्य तो केवल श्री राघवेन्द्र के अंतरंग भक्त ही जानते हैं कि उनका रास कोटि कोटि अवतारों के रास को लज्जित करने वाला है । अस्तु भगवान श्री राम जी की माधुर्योपासना सामान्य जनों को कभी समझ नहीं आ सकती इसलिए ही भगवान सामान्य जनों के आगे अपने मर्यादा पुरुषोत्तम विग्रह को ही स्थापित करते हैं।
    ७. भगवान श्री राम जी की सौशील्यता की किसी अवतार से तुलना ही नहीं की जा सकती । उनका सौशील्य ऐसा है कि जिनके अंशावतारों से कोटि कोटि ब्रह्मण्डों का सृजन ,पालन ,प्रलय आदि क्रियाएं होती हैं वे प्रभु ब्रह्मा जी की परात्पर स्वरूप में स्तुति करने पर स्वयं को दशरथ पुत्र केवल एक मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं । यही उनकी असीम सौशील्यता का परिचय है । जो समस्त जगत को समस्त प्रकार के ऋणों से मुक्त करते हैं वे प्रभु श्री रामचंद्र जी हनुमंत लाल जी महाराज से कहते हैं :- कि हे सुत! मैं तुम्हारे ऋण से मुक्त नहीं हो सकता ! अन्यवतारों में मनुष्य रूपी आत्मीयता नहीं है इस हेतु भगवान के अन्य अवतार में मनुष्य और उनमें एक ठोस अंतर स्थापित रहता है किंतु श्री राम जी तो मनुजाकृति में स्वयं हरि ही हैं अस्तु श्री राम जी के अवतार का वैशिष्ट्य सबसे अधिक है ।
    ८. श्री राम जी का सच्चिदानंद विग्रह इतना पवित्र है कि उसके स्मरण मात्र से कलि के सारे दोष उसी प्रकार भस्म हो जाते हैं जिस प्रकार रूई अग्नि का स्पर्श कर भस्म हो जाती है। उन्होंने अपने समस्त अवतार काल में परस्त्री के विषय में सोचा भी नहीं। यहां तक कि रावण जैसा पापी भी जब श्री सीता जी को मोहित करने हेतु अपनी मायावी विद्या का प्रयोग कर श्री राम का स्वरूप ग्रहण करने का प्रयास करता है तब श्री राघवेन्द्र सरकार का चिंतन करते ही उसे अपनी स्त्री मंदोदरी में भी मातृ भाव का अनुभव होता है। इतना पवित्र चरित्र अन्य किसी अवतार में प्रकट नहीं होता इसलिए श्री राम जी का अवतार विशिष्टतम अवतार है।
    ९. श्री राम जी जिसको रक्षण प्रदान करते हैं , उसे अभय प्रदान करने हेतु दृढ़ व्रत ग्रहण कर लेते हैं। जो श्री राम से प्रेम करते हैं , उनके लिए राम जी खुले मोल बिक जाते हैं और कभी नहीं बिसारते , यहां तक कि जब लीला का संवरण करते हैं तब भी उन्हें अपने परम धाम को प्रदान कर देते हैं , शरण्य से प्रेम के आदान प्रदान की जो परंपरा उससे कहीं अधिक बढ़कर रघुनाथ जी उस परंपरा का निर्वहन करते हैं ।
    ऊपर तो हमने आचार्यों की वाणी से उद्भूत श्री राम जी के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन किया । अब हम श्री राम जी की परात्परता का प्रतिपादन कतिपय शास्त्रों से करने का प्रयास करेंगे। यथा प्रमाण :-
    अथर्ववेदीय शाखायाम् रामतापिन्योपनिषते ~
    रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि ।
    इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥६॥
    जिन नित्यानंद स्वरूप चिदात्मा में योगी जन रमण करते हैं , उन परब्रह्म को अभिधा वृत्ति से राम पद के रूप में ग्रहण किया जाता है ।
    श्रुति का यह वाक्य भगवान के सच्चिदानंद परब्रह्म स्वरूप का बोध कराता है ।
    अगस्त्य संहितायाम् ~
    यथाह्नादि प्रदीपेन सर्वदीपप्रबोधनम्।
    तथा सर्वावताराणाम् अवतारी रघुत्तमः ॥
    जैसे आदि दीपक (प्रथम दीपक) से सारे दीपकों का प्रबोध (ज्ञान) हो जाता है, उसी प्रकार सब अवतारों के अवतारी भगवान श्री रामचन्द्र जी ही हैं।
    एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्म तारकम् ।
    राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ।।
    राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम् ।।
    वायुपुत्रेणोक्तास्ते योगीन्द्रा ऋषयो विष्णुभक्ता हनूमन्तं पप्रच्छुः रामस्याङ्गानि नो ब्रूहीति ।
    वायुपुत्रं विघ्नेशं वाणीं दुर्गां क्षेत्रपालकं सूर्यं चन्द्रं नारायणं नारसिंहं वासुदेवं वाराहं तत्सर्वान्त्समात्रान्त्सीतं लक्ष्मणं शत्रुघ्नं भरतं विभीषणं सुग्रीवमङ्गदं जाम्बवन्तं प्रणवमेतानि रामस्याङ्गानि जानीथाः ।
    (यजुर्वेदीय श्रुति श्रीराम रहस्योपनिषद)
    अर्थ:~
    वेद आदि सभी शास्त्रों में परमतत्त्व ब्रह्मस्वरूप 'तारक राम' ही है। राम ही परमब्रह्म है। राम ही परमतप स्वरूप है। राम ही परमतत्त्व हैं। राम ही तारकब्रह्म हैं। हनुमान जी ने श्रीहरि विष्णु के भक्त और अन्य ऋषियों को उपदेश दिया "कृपया समझें कि मैं स्वयं, श्री गणेश, देवी सरस्वती, देवी दुर्गा, सभी क्षेत्र पाल, सूर्य, चंद्रमा ,भगवान श्रीहरि नारायण, भगवान नरसिंह, भगवान वासुदेव, भगवान वराह, आदि सभी जन भगवान श्रीराम के अंश (अंग) हैं। लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भरत, विभीषण, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवंत और प्रणव (ॐ) भी भगवान श्रीराम के अंश (अंग) मात्र हैं।
    अथर्ववेदीय श्रुति श्री विश्वंभरोपनिषद
    श्रीराम एव सर्व्व कारणं तस्य रूप द्वयं परिछिन्न मपरिछिन्नं परिछिन्न स्वरूपेण साकेत प्रमदावने तिष्ठन् रास मेव करोति द्वितीयं स्वरूपं जगदुत्पत्यादेः कारणं तद्यक्षिणां- गात्क्षीराब्धि शायी वामांगाद्रमा वैकुण्ठवासीति हृदयात्पर नारायणो वभूव चरणाभ्यां वदरिकोपवन स्थायी शृङ्गारान्नन्दनन्दन इति ।
    श्री राम जी ही सभी के कारण रूप हैं । उन श्री राम जी के दो स्वरूप हैं , एक परिच्छिन्न रूप और दूसरा अपरिच्छिन्न रूप, परिछिन्न रूप से श्रीरामजी साकेत लोक में स्त्रियों के समूह में रहकर केवल रासलीला करते हैं , दूसरा अपरिछिन्न रूप संसार की उत्पत्ति का कारण है , उनके दाहिने अंग से क्षीर समुद्र वासी अष्ट भुजी भूमा पुरुष हुए हैं , और वामांग से रमा वैकुंठ वासी हुए हैं , हृदय से पर नारायण हुए हैं अर्थात विरजा नदी के पार जो नारायण रहते हैं सो हुए हैं(जिनकी उपासना रामानुजीय वैष्णव करते हैं) , चरणों से बद्रीबन निवासी नर नारायण हुए हैं, श्रृंगार से नंदनंदन श्री कृष्ण जी हुए हैं।
    अथर्ववेदीय शाखायां वेदसारोपनिषद ~
    यस्यांशेनैव ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा अपि जाता महाविष्णुर्य्यस्य दिव्य गुणाश्च स एव कार्य कारणयोः परः परम पुरुषो दाशरथिर्बभूव ।
    जिसके अंश से ही अनेकों ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पन्न हुए हैं , वही कार्य और कारण दोनों से परे परम पुरुष दाशरथि राम हैं।
    अथर्ववेदीय शखायां विश्वंभरोपनिषद ~
    एवं सर्वेऽवताराः श्री राम चंद्र चरण रेखाभ्यः समुद्भवंति तथाऽनंत कोटि विष्णवश्च चतुर्व्यूहश्च समुद्भवंति एवमपराजितेश्वर
    मपरिमिताः परनारायणादयः अष्टभुजा नारायणादयश्चानंत कोटि संख्यकाः वद्धांजलि पुटाः सर्व कालं समुपासते यदा विष्ण्वादीन्
    यदाऽज्ञापयति तथा तद् ब्रह्माण्डे सर्व कार्य्यं कुर्वंति ते सर्वे देवाद्विविधाः भिन्नांशा अभिन्नांशाश्च श्रीरघुवरमुभये सेवंते भिन्नांशा ब्रह्मादयः अभिन्नांशा नारायणादयः ॥
    अर्थात सभी अवतार श्री राम चंद्र की चरण रेखाओं से उत्पन्न होते हैं तथा अनंत कोटि विष्णु और चतुर्व्यूह :- अनिरुद्ध , प्रद्युम्न , संकर्षण और वासुदेव ये सब उत्पन्न होते हैं ऐसे अपराजितेश्वर अर्थात अयोध्याधिपति श्री रामचंद्र जी का अमित प्रभाव है जिनके सामने अनंत पर नारायण, अष्टभुजी नारायण भूमा पुरुष हाथ जोड़े खड़े रहते हैं । वे ब्रह्मा विष्णु शिवादिक देवता दो प्रकार के होते हैं - एक भिन्नांश हैं और दूसरे अभिन्नांश हैं और ये सब श्री रघुवर जी की सेवा करते हैं , भिन्नांश ब्रह्मा , शिव इंद्रादिक देवता हैं , अभिन्नांश नारायण , विष्णु इत्यादि अवतार हैं । यहां पर भिन्नांश का अर्थ है कि जैसे शरीर में नख लोमादिक हैं , कटने से भिन्न हो जाते हैं , उसी प्रकार से ब्रह्मा शिवादिक देवता ईश्वर के अंश हैं परंतु ईश्वर से भिन्न हैं , इसलिए ब्रह्मा शिवादिक देवता माया के वश हो जाते हैं , क्योंकि ब्रह्मादिक देवता नित्य ज्ञानी नहीं हैं और विष्णु ,नारायण इत्यादि अवतार अभिन्नांश हैं ।भाव :- सब श्री राम जी के अंश हैं इसलिए अभिन्न हैं जैसे शरीर में सब अंग भिन्न हैं परंतु संबंधतः सब एक ही हैं । अभिन्नांश होने की दो पहिचान हैं :-एक तो जब से भृगु जी ने विष्णु पर चरण प्रहार किया है तभी से सब स्वरूपाें में भृगु चरण चिन्ह दिखाई पड़ता है । दूसरा जब से वृंदा ने विष्णु को श्राप दिया कि आप पाषाण की तरह कठोर हो जाएं । तब से ही श्री राम कृष्णादि स्वरूप सब शालिग्राम में परिवर्तित हो गए । इससे यह अर्थ होता है कि कोई स्वरूप का निरादर करने से सब स्वरूप का निरादर होता है। बस बात इतनी सी है की जिस प्रकार सभी दीपों में सामान्य प्रकाश होते हुए भी सभी का प्रकाशक एक दीप होता है उसी प्रकार सभी स्वरूपों के प्रकाशक श्री राम जी ही हैं । यही सिद्धांत रामचरितमानस का है :-
    सब कर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवध पति सोई ।
    यही बात बृहद्ब्रह्म संहिता में श्रीनारायण भगवान ने कही है :-
    श्री नारायण उवाच ~
    वासुदेवादिमूर्तीनां                               चतुर्णां कारणं परम् । चतुर्विंशतिमूर्तीनामाश्रयः                           श्री रामः शरणं मम ॥
    (बृहद ब्रह्म संहिता 2.7.26)
    जो वासुदेवादिक चतुर्वयूह के परम कारण है और चौबीस अवतार जिनमें आश्रय ग्रहण करते हैं ऐसे श्री राम जी की मैं शरण ग्रहण करते हैं ।
    सर्वावताररूपाणां दर्शनस्पर्शनादिभिः ।
    (बृहद ब्रह्म संहिता 2.7.34)
    हे श्रीराम ! आप ही सर्वावतार रूप हैं और आपका दर्शन और स्पर्श अमोघ है ।
    श्री कृष्णोपनिषद् में कहा गया है कि महाविष्णु स्वरूप श्री राम जी जब दंडकारण्य पहुंचे तब भगवान शंकर समेत सभी ऋषि मुनि गण वहां पहुंच और भगवान के उस दिव्य माधुर्य विग्रह को देख कर उन्हें श्री रघुनाथ जी के अंग स्पर्श करने की इच्छा प्रकट हुई । किंतु भगवान श्री राघवेन्द्र सरकार ने उन सभी को अपने अगले अवतार की भूमिका सूचित करते हुए बताया की अगले अवतार में हम ही मुरली धारण करने वाले श्री कृष्ण होंगे तब आप सब गोपी स्वरूप में हमारे साथ रास कर लीजिएगा । शिव जी ने अतिशय प्रार्थना की तब रघुनाथ जी ने उन्हें दिव्य वंशी होने का वरदान दिया । इस प्रकार यदि हम शास्त्रों का गूढ़ विवेचन करें तो यह समझ आ जाता है कि रघुनाथ जी का मूल स्वरूप श्री कृष्ण भगवान जी से भी परे हैं। श्री कृष्ण जी परब्रह्म हैं किंतु श्री राम जी उनके परम आदि कारण विग्रह हैं। इसमें संदेह और संकोच करना शास्त्रों को स्वीकार न करना है । राम जी श्री नारायण और श्री कृष्ण जी से परे हैं ऐसा ही वशिष्ठ संहिता में लिखा है । शिव संहिता में लिखा है कोटि कोटि नारायण और कृष्णादिक अवतार रघुनाथ जी के चरणों से होता रहता है । बृहद ब्रह्म संहिता में लिखा है कि समस्त अवतार रघुनाथ जी के आगे साकेत में हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं और जब राम जी की आज्ञा होती तब अपनी अवतार लीला समाप्त कर राम जी के समक्ष प्रकट हो जाते हैं।
    इस हेतु इसका यही निदान है कि जिसकी जो उपासना है वो उस उपासना को करे उसे भगवद प्राप्ति होगी ही । मैं रामानंदीय श्री वैष्णव संप्रदाय का एक छोटा से सेवक हूं । यह उपासना हमें हमारे आचार्यों से मिली है । हमारी परंपरा में स्वयं रघुनाथ जी ही आचार्य स्वरूप में प्रकट होकर राम मंत्र का प्रचार प्रसार किए हैं और विशेष रूप से हिंदू धर्म का उद्धार किए हैं जो उन्हें सभी वैष्णव आचार्यों से विशिष्ट परिलक्षित करता है । इसलिए जिसे जो उपासना मिली हो भैया कृपया वो उस उपासना को दृढ़तापूर्वक प्रभु के चरणों में प्रीति रखते हुए करे । पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्ति उपरोक्त प्रमाणों को नहीं पचा सकते अस्तु यदि उन्हें इससे कोई तकलीफ पहुंचती है तो मुझे क्षमा करें।
    जय श्री सीता राम
    जय सिया राम जय जय हनुमान ।
    जय गुरु रामानंद भगवान ।





  • Sevak

    Hare Krsna 

    As far as tattva is concerned there is no difference between Sri Ramachandra and Sri Krishna. Lord Sri Ramachandra is Supreme Personality of godhead and Lrd Sri Krishna is also Supreme Personality of godhead. Difference if at all is in terms of rasa which how their lordships exchange love with their devotees. Lord Sri Rama and Lord Sri Krsna both have deal with all the rasas, but Lord Sri Rama has madhurya rasa only with mother Sita, whereas Lord Sri Krsna has madhurya rasa with many gopis. 

    Hare Krsna

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    Hare Krishna,

    Lord Rama only gave boon to the sages in Dankaranya to become Gopi's in next life time. Because the sages got attracted to the Lord Rama. As Rama was ek patni vrata in that life time. And the sages wished to serve Lord Rama like lovers or wives. They got that boon to become Gopi's in next life and Lord Rama said your wish will be fulfilled in that avatar of mine.

    See this shows that with Lord Rama some of the relationships like conjugal relationship or bhava of premika cannot be had. Only with Krishna all types of relationships can be had..

    With Lord Rama you can develop motherly bhava, fatherly affection, brotherly love, or sisterly feeling, or Dasya ( servant) or friendly affection like Sugreeva. But you cannot have conjugal relationship with Lord Rama.

    And Lord Rama and Lord Krishna is one and the same but the bhava different and this Lord Krishna is Paripoorna avatar.. that is why or I can say avataari.

    It signifies that Love for Godhead is given topmost importance.

    Every person on this earth is running after happiness. They want love to be loved.. isnt it?

    we get all artificial temporary love in this material world. We don't really know what is REAL love. so we keep running after material lust affairs and think oh we found it. But in course of time we understand that there is some lacuna in the so called love which we get in this material world and we understand this is temporary and then we look up.

     

    Hare Krishna.

     

    PS-- NECTAR OF DEVOTION 16

    This development of conjugal love for Kṛṣṇa is not manifested in women only. The material body has nothing to do with spiritual loving affairs. A woman may develop an attitude for becoming a friend of Kṛṣṇa, and, similarly, a man may develop the feature of becoming a gopī in Vṛndāvana. How a devotee in the form of a man can desire to become a gopī is stated in the Padma Purāṇa as follows: In days gone by there were many sages in Daṇḍakāraṇya. Daṇḍakāraṇya is the name of the forest where Lord Rāmacandra lived after being banished by His father for fourteen years. At that time there were many advanced sages who were captivated by the beauty of Lord Rāmacandra and who desired to become women in order to embrace the Lord. Later on, these sages appeared in Gokula Vṛndāvana when Kṛṣṇa advented Himself there, and they were born as gopīs, or girl friends of Kṛṣṇa. In this way they attained the perfection of spiritual life.

    The story of the sages of Daṇḍakāraṇya can be explained as follows. When Lord Rāmacandra was residing in Daṇḍakāraṇya, the sages who were engaged in devotional service there became attracted by His beauty and immediately thought of the gopīs at Vṛndāvana, who enjoyed conjugal loving affection with Kṛṣṇa. In this instance it is clear that the sages of Daṇḍakāraṇya desired conjugal love in the manner of the gopīs, although they were well aware of the Supreme Lord as both Kṛṣṇa and Lord Rāmacandra. They knew that although Rāmacandra was an ideal king and could not accept more than one wife, Lord Kṛṣṇa, being the full-fledged Personality of Godhead, could fulfill the desires of all of them in Vṛndāvana. These sages also concluded that the form of Lord Kṛṣṇa is more attractive than that of Lord Rāmacandra, and so they prayed to become gopīs in their future lives to be associated with Kṛṣṇa.

    Lord Rāmacandra remained silent, and His silence shows that He accepted the prayers of the sages. Thus they were blessed by Lord Rāmacandra to have association with Lord Kṛṣṇa in their future lives. As a result of this benediction, they all took birth as women in the wombs of gopīs at Gokula, and as they had desired in their previous lives, they enjoyed the company of Lord Kṛṣṇa, who was present at that time in Gokula Vṛndāvana. The perfection of their human form of life was thus achieved by their generating a transcendental sentiment to share conjugal love with Lord Kṛṣṇa.

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