हिन्दी भाषी संघ (229)

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अध्याय चौदह – राजा वेन की कथा (4.14)

1 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे महावीर विदुर, भृगु इत्यादि ऋषि सदैव जनता के कल्याण के लिए चिन्तन करते थे। जब उन्होंने देखा कि राजा अंग की अनुपस्थिति में जनता के हितों की रक्षा करनेवाला कोई नहीं रह गया तो उनकी समझ में आया कि बिना राजा के लोग स्वतंत्र एवं असंयमी हो जाएँगे।

2 तब ऋषियों ने वेन की माता रानी सुनीथा को बुलाया और उनकी अनुमति से वेन को विश्रवा के स्वामी के रूप में सिंहासन पर बिठा दिया, यद्यपि सभी मंत्री इससे असहमत थे।

3 यह पहले से ज्ञात था कि वेन अत्यन

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अध्याय तेरह – ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन (4.13)

1 सूत गोस्वामी ने शौनक इत्यादि समस्त ऋषियों से आगे कहा: मैत्रेय ऋषि द्वारा ध्रुव महाराज के विष्णुधाम में आरोहण का वर्णन किये जाने पर विदुर में भक्तिभाव का अत्यधिक संचार हो उठा और उन्होंने मैत्रेय से इस प्रकार पूछा।

2 विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे महान भक्त, प्रचेतागण कौन थे? वे किस कुल के थे? वे किसके पुत्र थे और उन्होंने कहाँ पर महान यज्ञ सम्पन्न किये?

3 विदुर ने कहा मैं जानता हूँ कि नारद मुनि समस्त भक्तों के शिरोमणि हैं। उन्होंने भक्ति की पाँ

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अध्याय बारह – ध्रुव महाराज का भगवान के पास जाना (4.12)

1 महर्षि मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, ध्रुव महाराज का क्रोध शान्त हो गया और उन्होंने यक्षों का वध करना पूरी तरह बन्द कर दिया। जब सर्वाधिक समृद्ध धनपति कुबेर को यह समाचार मिला तो वे ध्रुव के समक्ष प्रकट हुए। वे यक्षों, किन्नरों तथा चारणों द्वारा पूजित होकर अपने सामने हाथ जोड़कर खड़े हुए ध्रुव महाराज से बोले।

2 धनपति कुबेर ने कहा: हे निष्पाप क्षत्रियपुत्र, मुझे यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि अपने पितामह के आदेश से तुमने वैरभाव को त्याग दिया यद्

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श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस युग के लिए एक अच्छा अस्त्र प्रदान किया है, जैसा कि भागवत में कथित है - सांगोपांगास्त्र - इस युग में माया को भगाने का नारायणास्त्र ---

हरे कृष्ण मंत्र का जप है, जिस पर भगवान चैतन्य के पार्षदों-अद्वैत प्रभु, नित्यानन्द, गदाधर तथा श्रीवास - ने बल दिया है।     तात्पर्य श्रीमद भागवतम 4.11.1 श्रील प्रभुपाद

अध्याय ग्यारह – युद्ध बन्द करने के लिए ध्रुव को स्वायम्भुव मनु की सलाह (4.11)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, जब ध्रुव महाराज ने ऋषियों के प्रेरक शब्द सुने तो उन्होंने जल ल

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अध्याय दस – यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध (4.10)

1 मैत्रेय ऋषि ने कहा: हे विदुर, तत्पश्चात ध्रुव महाराज ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री के साथ विवाह कर लिया जिसका नाम भ्रमि था। उनके कल्प तथा वत्सर नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।

2 अत्यन्त शक्तिशाली ध्रुव महाराज की एक दूसरी पत्नी थी, जिसका नाम इला था और वह वायुदेव की पुत्री थी। उससे उन्हें एक अत्यन्त सुन्दर कन्या तथा उत्कल नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

3 ध्रुव महाराज का छोटा भाई उत्तम, जो अभी तक अनब्याहा था, एक बार आखेट करने गया और हिमालय पर्वत मे

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अध्याय नौ – ध्रुव महाराज का घर लौटना(4.9)

1 महर्षि मैत्रेय ने विदुर से कहा: जब भगवान ने देवताओं को इस प्रकार फिर से आश्वासन दिलाया तो वे समस्त प्रकार के भय से मुक्त हो गये और वे सब उन्हें नमस्कार करके अपने-अपने देवलोकों को चले गये। तब भगवान, जो साक्षात सहस्रशीर्ष अवतार हैं, गरुड़ पर सवार हुए और अपने दास ध्रुव को देखने के लिए मधुवन गये।

2 ध्रुव महाराज अपने प्रखर योगाभ्यास के समय भगवान के जिस बिजली सदृश तेजमान रूप के ध्यान में निमग्न थे, वह सहसा विलीन हो गया। फलतः ध्रुव अत्यन्त विचलित हो उठे और उनक

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अध्याय आठ – ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन (4.8)

1-5    मैत्रेय ऋषि ने कहा: सनकादि चारों कुमार और नारद, ऋभू, हंस, अरुणि तथा यति -- ब्रह्मा के ये सारे पुत्र घर पर न रहकर (गृहस्थ नहीं बने) नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए।    ब्रह्मा का अन्य पुत्र अधर्म था जिसकी पत्नी का नाम मृषा था।   उनके संयोग से दो असुर हुए जिनके नाम दम्भ अर्थात धोखेबाज तथा माया अर्थात ठगिनी थे।   इन दोनों को निर्ऋति नामक असुर ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी।   मैत्रेय ने विदुर से कहा: हे महापुरुष, दम्भ तथा माया से लोभ और निकृति

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[ भगवद्गीता 7.26 में भगवान ने कहा है -- वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन

जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है और भविष्य में जो कुछ होने जा रहा है, मैं वह सब जानता हूँ।   भगवान विष्णु सर्वज्ञ हैं, अतः वे जानते थे कि दक्ष की यज्ञशाला में क्या होगा।

इसी कारण से न तो नारायण और न ही ब्रह्माजी दक्ष के महान यज्ञ में सम्मिलित हुए।   (तात्पर्य श्रीमद भागवतम 4.6.3 – श्रील प्रभुपाद)

 

अध्याय छह – ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना (4.6)

1-2 जब समस्त पुरोहित तथा यज्ञ-सभा के सभी सदस्य और देवतागण शिवजी के सैनिकों द

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सती के भस्म होने पर शिवजी के गणों द्वारा यक्ष प्रजापति का वध तथा उसके यज्ञ का विध्वंस किये जाने पर ब्रह्मादि देवताओं सहित सब लोगों का उनके पास जाना (4.5.24-26तथा 4.6.1-34)

अध्याय पाँच – दक्ष के यज्ञ का विध्वंस (4.5)

1 मैत्रेय ने कहा: जब शिव ने नारद से सुना कि उनकी पत्नी सती प्रजापति दक्ष द्वारा किये गये अपमान के कारण मर चुकी हैं और ऋभुओं द्वारा उनके सैनिक खदेड़ दिये गये हैं, तो वे अत्यधिक क्रोधित हुए।

2 इस प्रकार अत्यधिक क्रुद्ध होने के कारण शिव ने अपने दाँतों से होंठ चबाते हुए तुरन्त अपने सिर क

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शिवजी के मना करने पर भी सती का अपने पिता के यज्ञ में आना तथा अपने पति के लिए यज्ञ का भाग न दिए जाने पर योगाग्नि से स्वयं को भस्म करना।  (4.4.3-27)

अध्याय चार – सती द्वारा शरीर-त्याग(4.4)

1 मैत्रेय मुनि ने कहा: सती को असमंजस में पाकर शिवजी यह कहकर शान्त हो गये। सती अपने पिता के घर में अपने सम्बन्धियों को देखने के लिए अत्यधिक इच्छुक थी, किन्तु साथ ही वह शिवजी की चेतावनी से भयभीत थी। मन अस्थिर होने से वह हिंडोले की भाँति कक्ष से बाहर और भीतर आ-जा रही थी।

2 इस तरह अपने पिता के घर जाकर अपने सम्बन्धियो

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{ शिवजी का अपनी पत्नी सती को उसके पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाने के लिए मना करना।  (4.3.18-25)}

अध्याय तीन – श्रीशिव तथा सती का संवाद (4.3)

1 मैत्रेय ने आगे कहा: इस प्रकार से जामाता शिव तथा श्वसुर दक्ष के बीच दीर्घकाल तक तनाव बना रहा।

2 ब्रह्मा ने जब दक्ष को समस्त प्रजापतियों का मुखिया बना दिया तो दक्ष गर्व से फूल उठा।

3 दक्ष ने वाजपेय नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और उसे अत्यधिक विश्वास था कि ब्रह्माजी का समर्थन तो प्राप्त होगा ही। तब उसने एक अन्य महान यज्ञ किया जिसे बृहस्पति-सव कहते हैं।

4 जब यज

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इस भौतिक कल्मष से छुटकारा पाने के लिए भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए जैसा कि भगवद गीता (7.14) में कहा गया है -- मामेव ये प्रपद्यनते मायामेतां तरन्ति ते।

सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है कि शाप तथा वरदान से ऊपर उठा जाये और भगवान कृष्ण की शरण ग्रहण की जाये तथा दिव्य स्थिति में रहा जाये।  तात्पर्य श्रीमद भागवतम 4.2.27  श्रील प्रभुपाद

अध्याय दो – दक्ष द्वारा शिवजी को शाप (4.2)

1 विदुर ने पूछा: जो दक्ष अपनी पुत्री के प्रति इतना स्नेहवान था वह शीलवानों में श्रेष्ठतम भगवान शिव के प्रति इतना ईर्ष्यालु क्यों था?

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अध्याय एक – मनु की पुत्रियों की वंशावली (4.1)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा से तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं जिनके नाम आकूति, देवहूति तथा प्रसूति थे।

2 यद्यपि आकूति के दो भाई थे तो भी राजा स्वायम्भुव मनु ने इसे प्रजापति रुचि को इस शर्त पर ब्याहा था कि उससे, जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मनु को पुत्र रूप में लौटा दिया जाएगा। उसने अपनी पत्नी शतरूपा के परामर्श से ऐसा किया था।

3 अपने ब्रह्मज्ञान में परम शक्तिशाली एवं जीवात्माओं के जनक के रूप में नियुक्त (प्रजापति) रुचि को उनकी पत्नी आक

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अध्याय तैंतीस – कपिल के कार्यकलाप (3.33)

1 श्री मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार भगवान कपिल की माता एवं कर्दम मुनि की पत्नी देवहूति भक्तियोग तथा दिव्य ज्ञान सम्बन्धी समस्त अविद्या से मुक्त हो गई। उन्होंने उन भगवान को नमस्कार किया जो मुक्ति की पृष्ठभूमि सांख्य दर्शन के प्रतिपादक हैं और तब निम्नलिखित स्तुति द्वारा उन्हें प्रसन्न किया ।

2 देवहूति ने कहा: ब्रह्माजी अजन्मा कहलाते हैं, क्योंकि वे आपके उदर से निकलते हुए कमल-पुष्प से जन्म लेते हैं और आप ब्रह्माण्ड के तल पर समुद्र में शयन करते रहते हैं। लेकिन

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अध्याय सत्रह – हिरण्याक्ष की दिग्विजय (3.17)

1 श्रीमैत्रेय ने कहा: विष्णु से उत्पन्न ब्रह्मा ने जब अंधकार का कारण कह सुनाया, तो स्वर्गलोक के निवासी देवता समस्त भय से मुक्त हो गये। इस प्रकार वे सभी अपने-अपने लोकों को वापस चले गये।

2 साध्वी दिति अपने गर्भ में स्थित सन्तानों से देवों के प्रति किये जाने वाले उपद्रव को लेकर अत्यधिक शंकालु थी और उसके पति ने भी यही भविष्यवाणी की थी। अतः उसने एक सौ वर्षों के गर्भकाल के पश्चात जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया।

3 दोनों असुरों के जन्म के समय स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक

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अध्याय बारह – कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि (3.12)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: हे विद्वान विदुर, अभी तक मैंने तुमसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के काल-रूप की महिमा की व्याख्या की है। अब तुम मुझसे समस्त वैदिक ज्ञान के आगार ब्रह्मा की सृष्टि के विषय में सुन सकते हो।

2 ब्रह्मा ने सर्वप्रथम आत्मप्रवंचना, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मिथ्या स्वामित्व का भाव तथा मोहमय शारीरिक धारणा या अपने असली स्वरूप की विस्मृति जैसी अविद्यापूर्ण वृत्तियों की संरचना की।

3 ऐसी भ्रामक सृष्टि को पापमय कार्य मानते हुए ब्रह्मा

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अध्याय ग्यारह – परमाणु से काल की गणना (3.11)

1 भौतिक अभिव्यक्ति का अनन्तिम कण जो कि अविभाज्य है और शरीर रूप में निरूपित नहीं हुआ हो, परमाणु कहलाता है। यह सदैव अविभाज्य सत्ता के रूप में विद्यमान रहता है यहाँ तक कि समस्त स्वरूपों के विलीनीकरण (लय) के बाद भी। भौतिक देह ऐसे परमाणुओं का संयोजन ही तो है, किन्तु सामान्य मनुष्य इसे गलत ढंग से समझता है।

2 परमाणु अभिव्यक्त ब्रह्माण्ड की चरम अवस्था है। जब वे विभिन्न शरीरों का निर्माण किये बिना अपने ही रूपों में रहते हैं, तो वे असीमित एकत्व (कैवल्य) कहलाते ह

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अध्याय दस – सृष्टि के विभाग (3.10)

1 श्री विदुर ने कहा: हे महर्षि, कृपया मुझे बतायें कि लोकवासियों के पितामह ब्रह्मा ने भगवान के अन्तर्धान हो जाने पर किस तरह से अपने शरीर तथा मन से जीवों के शरीरों को उत्पन्न किया?

2 हे महान विद्वान, कृपा करके मेरे सारे संशयों का निवारण करें और मैंने आपसे जो कुछ जिज्ञासा की है उसे आदि से अन्त तक मुझे बताएँ।

3 सूत गोस्वामी ने कहा: हे भृगुपुत्र, महर्षि मैत्रेय मुनि विदुर से इस तरह सुनकर अत्यधिक प्रोत्साहित हुए। हर वस्तु उनके हृदय में थी, अतः वे प्रश्नों का एक एक कर

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अध्याय नौ – सृजन–शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति (3.9)

1 ब्रह्माजी ने कहा: हे प्रभु, आज अनेकानेक वर्षों की तपस्या के बाद मैं आपके विषय में जान पाया हूँ। ओह! देहधारी जीव कितने अभागे हैं कि वे आपके स्वरूप को जान पाने में असमर्थ हैं। हे स्वामी, आप एकमात्र ज्ञेय तत्त्व हैं, क्योंकि आपसे परे कुछ भी सर्वोच्च नहीं है। यदि कोई वस्तु आपसे श्रेष्ठ प्रतीत होती भी है, तो वह परम पूर्ण नहीं है। आप पदार्थ की सृजन शक्ति को प्रकट करके ब्रह्म रूप में विद्यमान हैं।

2 मैं जिस रूप को देख रहा हूँ वह भौतिक कल्मष से

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तीन सौ खरब वर्षों से अधिक तपस्या करने पर ब्रह्माजी को परमेश्वर का ज्ञान हुआ, जिससे वे अपने हृदय में उनका दर्शन कर सके।  (3.8.22-24)-श्रील प्रभुपाद!

अध्याय आठ – गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा का प्राकट्य (3.8)

1 महा-मुनि मैत्रेय ने विदुर से कहा: राजा पुरू का राजवंश शुद्ध भक्तों की सेवा करने के लिए योग्य है, क्योंकि उस वंश के सारे उत्तराधिकारी भगवान के प्रति अनुरक्त हैं। तुम भी उसी कुल में उत्पन्न हो और यह आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे प्रयास से भगवान की दिव्य लीलाएँ प्रतिक्षण नूतन से नूतनतर होती जा

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