8237306459?profile=RESIZE_400x

अध्याय आठ – ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन (4.8)

1-5    मैत्रेय ऋषि ने कहा: सनकादि चारों कुमार और नारद, ऋभू, हंस, अरुणि तथा यति -- ब्रह्मा के ये सारे पुत्र घर पर न रहकर (गृहस्थ नहीं बने) नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए।    ब्रह्मा का अन्य पुत्र अधर्म था जिसकी पत्नी का नाम मृषा था।   उनके संयोग से दो असुर हुए जिनके नाम दम्भ अर्थात धोखेबाज तथा माया अर्थात ठगिनी थे।   इन दोनों को निर्ऋति नामक असुर ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी।   मैत्रेय ने विदुर से कहा: हे महापुरुष, दम्भ तथा माया से लोभ और निकृति (चालाकी) उत्पन्न हुए। उनके संयोग से क्रोध और हिंसा और फिर इनकी युति से कलि तथा उसकी बहिन दुरुक्ति उत्पन्न हुए।    हे श्रेष्ठ पुरुषों में महान, कलि तथा दुरुक्ति से मृत्यु तथा भीति नामक सन्तानें उत्पन्न हुईं।  फिर इनके संयोग से यातना और निरय (नरक) उत्पन्न हुए।   हे विदुर, मैंने संक्षेप में प्रलय के कारणों का वर्णन किया।    जो इस वर्णन को तीन बार सुनता है उसे पुण्य लाभ होता है और उसके आत्मा का पापमय कल्मष धुल जाता है।

6-10    मैत्रेय ने आगे कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, अब मैं आपके समक्ष स्वायम्भुव मनु के वंशजों का वर्णन करता हूँ जो भगवान के अंशांश के रूप में उत्पन्न हुए थे।    स्वायम्भुव मनु को अपनी पत्नी शतरूपा से दो पुत्र हुए जिनके नाम थे--उत्तानपाद तथा प्रियव्रत। चूँकि ये दोनों श्रीभगवान वासुदेव के अंश के वंशज थे, अतः वे ब्रह्माण्ड का शासन करने और प्रजा का भलीभाँति पालन करने में सक्षम थे।    उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं – सुनीति तथा सुरुचि। इनमें से सुरुचि राजा को अत्यन्त प्रिय थी।   सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, राजा को इतनी प्रिय न थी।    एक बार राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को अपनी गोद में लेकर सहला रहे थे।   ध्रुव महाराज भी राजा की गोद में चढ़ने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु राजा ने उन्हें अधिक दुलार नहीं दिया।   जब बालक ध्रुव महाराज अपने पिता की गोद में जाने का प्रयत्न कर रहे थे तो उसकी विमाता सुरुचि को उस बालक से अत्यन्त ईर्ष्या हुई और वह अत्यन्त दम्भ के साथ इस प्रकार बोलने लगी जिससे कि राजा सुन सके।

11-15   सुरुचि ने ध्रुव महाराज से कहा: हे बालक, तुम राजा की गोद या सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हो।   निस्सन्देह, तुम भी राजा के पुत्र हो, किन्तु तुम मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हो, अतः तुम अपने पिता की गोद में बैठने के योग्य नहीं हो। मेरे बालक, तुम्हें पता नहीं कि तुम मेरी कोख से नहीं, वरन दूसरी स्त्री से उत्पन्न हुए हो।  अतः तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि तुम्हारा प्रयास व्यर्थ है। तुम ऐसी इच्छा की पूर्ति चाह रहे हो जिसका पूरा होना असम्भव है। यदि तुम राजसिंहासन पर बैठना चाहते हो तो तुम्हें कठिन तपस्या करनी होगी।   सर्वप्रथम तुम्हें भगवान नारायण को प्रसन्न करना होगा और वे तुम्हारी पूजा से प्रसन्न हो लें तो तुम्हें अगला जन्म मेरे गर्भ से लेना होगा।   मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: हे विदुर, जिस प्रकार लाठी से मारा गया सर्प फुफकारता है, उसी प्रकार ध्रुव महाराज अपनी विमाता के कटु वचनों से आहत होकर क्रोध से तेजी से साँसे लेने लगे। जब उन्होंने देखा कि पिता मौन हैं और उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, तो उन्होंने तुरन्त उस स्थान को छोड़ दिया और अपनी माता के पास गये।    जब ध्रुव महाराज अपनी माता के पास आये तो उनके होंठ क्रोध से काँप रहे थे और वे सिसक-सिसक कर जोर से रो रहे थे।   रानी सुनीति ने अपने लाड़ले को तुरन्त गोद में उठा लिया और अन्तःपुर के वासियों ने सुरुचि के जो कटु वचन सुने थे उन सबको विस्तार से कह सुनाया। इस तरह सुनीति अत्यधिक दुखी हुई।

16-17   यह घटना सुनीति के लिए असह्य थी।  वह मानो दावाग्नि में जल रही थी और शोक के कारण वह जली हुई पत्ती (बेलि) के समान हो गई और पश्चाताप करने लगी।  अपनी सौत के शब्द स्मरण होने से उसका कमल जैसा सुन्दर मुख आँसुओं से भर गया और वह इस प्रकार बोली।   वह तेजी से साँस भी ले रही थी और वह इस दुखद स्थिति का कोई इलाज ठीक से नहीं ढूँढ पा रही थी।   अतः उसने अपने पुत्र से कहा: हे पुत्र, तुम अन्यों के अमंगल की कामना मत करो।   जो भी दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, वह स्वयं दुख भोगता है।   सुनीति ने कहा: प्रिय पुत्र, सुरुचि ने जो कुछ भी कहा है, वह ठीक है, क्योंकि तुम्हारे पिता मुझको अपनी पत्नी तो क्या अपनी दासी तक नहीं समझते, उन्हें मुझको स्वीकार करने में लज्जा आती है।  अतः यह सत्य है कि तुमने एक अभागी स्त्री की कोख से जन्म लिया है और तुम उसके स्तनों का दूध पीकर बड़े हुए हो। प्रिय पुत्र, तुम्हारी विमाता सुरुचि ने जो कुछ कहा है, यद्यपि वह सुनने में कटु है, किन्तु है सत्य ।  अतः यदि तुम उसी सिंहासन पर बैठना चाहते हो जिसमें तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम बैठेगा तो तुम अपना ईर्ष्या भाव त्याग कर तुरन्त अपनी विमाता के आदेशों का पालन करो।   तुम्हें बिना किसी विलम्ब के पुरुषोत्तम भगवान के चरण-कमलों की पूजा में लग जाना चाहिए।   भगवान इतने महान हैं कि तुम्हारे परदादा ब्रह्मा ने मात्र उनके चरणकमलों की पूजा द्वारा इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने की योग्यता अर्जित की। यद्यपि वे अजन्मा हैं और सब जीवात्माओं में प्रधान हैं, किन्तु वे इस उच्च पद पर भगवान की ही कृपा से आसीन हैं, जिनकी आराधना बड़े-बड़े योगी तक अपने मन तथा प्राण-वायु को रोक कर करते हैं।

21-25   सुनीति ने अपने पुत्र को बताया: तुम्हारे बाबा स्वायम्भुव मनु ने दान-दक्षिणा के साथ बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न किये और एकनिष्ठ श्रद्धा तथा भक्ति से उन्होंने पूजा द्वारा भगवान को प्रसन्न किया। इस प्रकार उन्होंने भौतिक सुख तथा बाद में मुक्ति प्राप्त करने में महान सफलता पाई जिसे देवताओं को पूजकर प्राप्त कर पाना असम्भव है।    मेरे पुत्र, तुम्हें भी भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने भक्तों पर अत्यन्त दयालु हैं।   जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति सदैव भक्ति सहित भगवान के चरणकमलों की शरण में जाते हैं।  अपना निर्दिष्ट कार्य करके पवित्र होकर तुम अपने हृदय में भगवान को स्थिर करो और एक पल भी विचलित हुए बिना उनकी सेवा में तन्मय रहो। हे प्रिय ध्रुव, कमल के दलों जैसे नेत्रों वाले भगवान के अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा नहीं दिखता जो तुम्हारे दुखों को कम कर सके।   ब्रह्मा जैसे अनेक देवता लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु लक्ष्मीजी स्वयं अपने हाथ में कमल पुष्प लेकर परमेश्वर की सेवा करने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं।   मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: ध्रुव महाराज की माता सुनीति का उपदेश वस्तुतः उनके मनोवांछित लक्ष्य को पूरा करने के निमित्त था, अतः बुद्धि तथा दृढ़ संकल्प द्वारा चित्त का समाधान करके उन्होंने अपने पिता का घर त्याग दिया।   नारद मुनि ने यह समाचार सुना और ध्रुव महाराज के समस्त कार्यकलापों को जानकर वे चकित रह गये। वे ध्रुव के पास आये और उनके सिर को अपने पुण्यवर्धक हाथ से स्पर्श करते हुए इस प्रकार बोले।

26-30   अहो! शक्तिशाली क्षत्रिय कितने तेजमय होते हैं! वे थोड़ा भी मान भंग सहन नहीं कर सकते।   जरा सोचो तो, यह नन्हा सा बालक है, तो भी उसकी सौतेली माता के कटु वचन उसके लिए असह्य हो गये।   महर्षि नारद ने ध्रुव से कहा: हे बालक, अभी तो तुम नन्हें बालक हो, जिसकी आसक्ति खेल इत्यादि में रहती है।   तो फिर तुम अपने सम्मान के विपरीत अपमान-जनक शब्दों से इतने प्रभावित क्यों हो?  हे ध्रुव, यदि तुम समझते हो कि तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची है, तो भी तुम्हें असंतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है।   इस प्रकार का असन्तोष माया का ही अन्य लक्षण है; प्रत्येक जीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के अनुसार नियंत्रित होता है, अतः सुख तथा दुख भोगने के लिए नाना प्रकार के जीवन होते हैं।  भगवान की गति बड़ी विचित्र है।  बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह इस गति को स्वीकार करे और अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी भगवान की इच्छा से सम्मुख आए, उससे संतुष्ट रहे। अब तुमने अपनी माता के उपदेश से भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए ध्यान की योग-विधि पालन करने का निश्चय किया है, किन्तु मेरे विचार से ऐसी तपस्या सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है।   भगवान को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है।

31-35   नारद मुनि ने आगे बताया: अनेकानेक जन्मों तक इस विधि का पालन करते हुए तथा भौतिक कल्मष से विरक्त रहकर, अपने को निरन्तर समाधि में रखकर और विविध प्रकार की तपस्याएँ करके अनेक योगी ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग का पार नहीं पा सके।   इसलिए हे बालक, तुम्हें इसके लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिए, इसमें सफलता नहीं मिलने वाली।   अच्छा हो कि तुम घर वापस चले जाओ। जब तुम बड़े हो जाओगे तो ईश्वर की कृपा से तुम्हें इन योग-कर्मों के लिए अवसर मिलेगा।   उस समय तुम यह कार्य पूरा करना। मनुष्य को चाहिए कि जीवन की किसी भी अवस्था में, चाहे सुख हो या दुख, जो दैवी इच्छा (भाग्य) द्वारा प्रदत्त है, संतुष्ट रहे।   जो मनुष्य इस प्रकार टिका रहता है, वह अज्ञान के अंधकार को बहुत सरलता से पार कर लेता है।   प्रत्येक मनुष्य को इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए: यदि वह अपने से अधिक योग्य व्यक्ति से मिले, तो उसे अत्यधिक हर्षित होना चाहिए, यदि अपने से कम योग्य व्यक्ति से मिले तो उसके प्रति सदय होना चाहिए और यदि अपने समान योग्यता वालों से मिले तो उससे मित्रता करनी चाहिए।   इस प्रकार मनुष्य को इस भौतिक संसार के त्रिविध ताप कभी भी प्रभावित नहीं कर पाते। ध्रुव महाराज ने कहा: हे नारदजी, आपने मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए कृपापूर्वक जो भी कहा है, वह ऐसे पुरुष के लिए निश्चय ही अत्यन्त शिक्षाप्रद है, जिसका हृदय सुख तथा दुख की भौतिक परिस्थितियों से चलायमान है। लेकिन जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मैं तो अविद्या से प्रच्छ्न्न हूँ और इस प्रकार का दर्शन मेरे हृदय को स्पर्श नहीं कर पाता।

36-40   हे भगवन, मैं आपके उपदेशों को न मानने की धृष्टता कर रहा हूँ। किन्तु यह मेरा दोष नहीं है। यह तो क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण है। मेरी विमाता सुरुचि ने मेरे हृदय को अपने कटु वचनों से क्षत-विक्षत कर दिया है। अतः आपकी यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा मेरे हृदय में टिक नहीं पा रही। हे विद्वान ब्राह्मण, मैं ऐसा पद ग्रहण करना चाहता हूँ जिसे अभी तक तीनों लोकों में किसी ने भी, यहाँ तक कि मेरे पिता तथा पितामहों ने भी, ग्रहण न किया हो। यदि आप अनुगृहीत कर सकें तो कृपा करके मुझे ऐसे सत्य मार्ग की सलाह दें, जिसे अपना करके मैं अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ । हे भगवन, आप ब्रह्मा के सुयोग्य पुत्र हैं और आप अपनी वीणा बजाते हुए समस्त विश्व के कल्याण हेतु विचरण करते रहते हैं। आप सूर्य के समान हैं, जो समस्त जीवों के लाभ के लिए ब्रह्माण्ड-भर में चक्कर काटता रहता है। मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: ध्रुव महाराज के शब्दों को सुनकर महापुरुष नारद मुनि उन पर अत्यधिक दयालु हो गये और अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के उद्देश्य से उन्होंने निम्नलिखित विशिष्ट उपदेश दिया। नारद मुनि ने ध्रुव महाराज से कहा: तुम्हारी माता सुनीति ने भगवान की भक्ति के पथ का अनुसरण करने के लिए जो उपदेश दिया है, वह तुम्हारे लिए सर्वथा अनुकूल है। अतः तुम्हें भगवान की भक्ति में पूर्णरूप से निमग्न हो जाना चाहिए।

41-45   जो व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों की कामना करता है उसे चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की भक्ति में अपने आपको लगाए, क्योंकि उनके चरणकमलों की पूजा से इन सबकी पूर्ति होती है।  हे बालक, तुम्हारा कल्याण हो। तुम यमुना के तट पर जाओ, जहाँ पर मधुवन नामक विख्यात जंगल है और वहीं पर पवित्र होओ। वहाँ जाने से ही मनुष्य वृन्दावनवासी भगवान के निकट पहुँचता है।   नारद मुनि ने उपदेश दिया: हे बालक, यमुना नदी अथवा कालिन्दी के जल में तुम नित्य तीन बार स्नान करना, क्योंकि यह जल शुभ, पवित्र एवं स्वच्छ है।   स्नान के पश्चात अष्टांगयोग के आवश्यक अनुष्ठान करना और तब शान्त मुद्रा में अपने आसन पर बैठ जाना। आसन ग्रहण करने के पश्चात तुम तीन प्रकार के प्राणायाम करना और इस प्रकार धीरे-धीरे प्राणवायु, मन तथा इन्द्रियों को वश में करना। अपने को समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त करके तुम अत्यन्त धैर्यपूर्वक भगवान का ध्यान प्रारम्भ करना।  [यहाँ पर भगवान के रूप का वर्णन हुआ है।]  भगवान का मुख सदैव अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्न मुद्रा में रहता है।  देखने वाले भक्तों को वे कभी अप्रसन्न नहीं दिखते और वे सदैव उन्हें वरदान देने के लिए उद्यत रहते हैं।  उनके नेत्र, सुसज्जित भौंहें, उन्नत नासिका तथा चौड़ा मस्तक-ये सभी अत्यन्त सुन्दर हैं।  वे समस्त देवताओं से अधिक सुन्दर हैं।

46-50   नारद मुनि ने आगे कहा: भगवान का रूप सदैव युवावस्था में रहता है।   उनके शरीर का अंग-प्रत्यंग सुगठित एवं दोषरहित है। उनके नेत्र तथा होंठ उदीयमान सूर्य की भाँति गुलाबी से हैं।   वे शरणागतों को सदैव शरण देने वाले हैं और जिसे उनके दर्शन का अवसर मिलता है, वह सभी प्रकार से संतुष्ट हो जाता है।   दया के सिन्धु होने के कारण भगवान शरणागतों के स्वामी होने के योग्य हैं।   भगवान को श्रीवत्स चिन्ह अथवा ऐश्वर्य की देवी का आसन धारण किये हुए बताया गया है।   उनके शरीर का रंग गहरा नीला (श्याम) है।   भगवान पुरुष हैं, वे फूलों की माला पहनते हैं और वे चतुर्भुज रूप में (नीचेवाले बाएँ हाथ से आरम्भ करते हुए) शंख, चक्र, गदा तथा कमल पुष्प धारण किये हुए नित्य प्रकट होते हैं।   पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव का सारा शरीर आभूषित है।   वे बहुमूल्य मणिमय मुकुट, हार तथा बाजूबन्द धारण किये हुए हैं।   उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से अलंकृत है और वे पीत रेशमी वस्त्र धारण किये हैं। भगवान का कटि-प्रदेश सोने की छोटी-छोटी घण्टियों से अलंकृत है और उनके चरणकमल सुनहले नूपुरों से सुशोभित हैं।   उनके सभी शारीरिक अंग अत्यन्त आकर्षक एवं नेत्रों को भाने वाले है।   वे सदैव शान्त तथा मौन रहते हैं और नेत्रों तथा मन को अत्यधिक मोहनेवाले हैं।   वास्तविक योगी भगवान के उस रूप का ध्यान करते हैं जिसमें वे उनके हृदयरूपी कमल-पुंज में खड़े रहते हैं और उनके चरणकमलों के मणितुल्य नाखून चमकते रहते हैं।

51-55   भगवान सदैव मुस्कराते रहते हैं और भक्त को चाहिए कि वह सदा इसी रूप में उनका दर्शन करता रहे, क्योंकि वे भक्तों पर कृपा-पूर्वक दृष्टि डालते हैं।   इस प्रकार से ध्यानकर्ता को चाहिए कि वह समस्त वरों को देने वाले भगवान की ओर निहारता रहे। भगवान के नित्य मंगलमय रूप में जो अपने मन को एकाग्र करते हुए इस प्रकार से ध्यान करता है, वह अतिशीघ्र ही समस्त भौतिक कल्मष से छूट जाता है और भगवान के ध्यान की स्थिति से फिर लौटकर नीचे (मर्त्य-लोक) नहीं आता। हे राजपुत्र, अब मैं तुम्हें वह मंत्र बताऊँगा जिसे इस ध्यान विधि के समय जपना चाहिए।   जो कोई इस मंत्र को सात रात सावधानी से जपता है, वह आकाश में उड़ने वाले सिद्ध मनुष्यों को देख सकता है।   श्रीकृष्ण की पूजा का बारह अक्षर वाला मंत्र है – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।   ईश्वर का विग्रह स्थापित करके उसके समक्ष मंत्रोच्चार करते हुए प्रामाणिक विधि-विधानों सहित मनुष्य को फूल, फल तथा अन्य खाद्य-सामग्रियाँ अर्पित करनी चाहिए। किन्तु यह सब देश, काल तथा साथ ही सुविधाओं एवं असुविधाओं का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।   भगवान की पूजा शुद्ध जल, शुद्ध पुष्प-माला, फल, फूल तथा जंगल में उपलब्ध वनस्पतियों या ताजे उगे हुए दूर्वादल एकत्र करके, फूलों की कलियों, अथवा वृक्षों की छाल से, या सम्भव हो तो भगवान को अत्यन्त प्रिय तुलसीदल अर्पित करते हुए करनी चाहिए।

56-60   यदि सम्भव हो तो मिट्टी, लुगदी, लकड़ी तथा धातु जैसे भौतिक तत्त्वों से बनी भगवान की मूर्ति को पूजा जा सकता है।  जंगल में मिट्टी तथा जल से मूर्ति बनाई जा सकती है और उपर्युक्त नियमों के अनुसार उसकी पूजा की जा सकती है।   जो भक्त अपने ऊपर पूर्ण संयम रखता है, उसे अत्यन्त नम्र तथा शान्त होना चाहिए और जंगल में जो भी फल तथा वनस्पतियाँ प्राप्त हों उन्हे ही खाकर संतुष्ट रहना चाहिए।    हे ध्रुव, प्रतिदिन तीन बार मंत्र जप करने और श्रीविग्रह की पूजा के अतिरिक्त तुम्हें भगवान के विभिन्न अवतारों के दिव्य कार्यों के विषय में भी ध्यान करना चाहिए, जो उनकी परम इच्छा तथा व्यक्तिगत शक्ति से प्रदर्शित होते हैं।   संस्तुत सामग्री द्वारा परमेश्वर की पूजा किस प्रकार की जाये, इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि पूर्व-भक्तों के पद-चिन्हों का अनुसरण करे अथवा हृदय के भीतर ही मंत्रोच्चार करके भगवान की, पूजा करे जो मंत्र से भिन्न नहीं है।   इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति-विधियों के कार्यों में मग्न रहता है, उसे उसकी इच्छानुसार भगवान वर देते हैं।   यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म, अर्थ, काम या भौतिक संसार से मोक्ष चाहता है, तो भगवान इन फलों को प्रदान करते हैं।

61-65  यदि कोई मुक्ति के लिए अत्यन्त उत्सुक हो तो उसे दिव्य प्रेमाभक्ति की पद्धति का दृढ़ता से पालन करके चौबीसों घण्टे समाधि की सर्वोच्च अवस्था में रहना चाहिए और उसे इन्द्रियतृप्ति के समस्त कार्यों से अनिवार्यतः पृथक रहना चाहिए।  जब राजपुत्र ध्रुव महाराज को नारद मुनि इस प्रकार उपदेश दे रहे थे तो उन्होंने अपने गुरु नारद मुनि की प्रदक्षिणा की ओर उन्हें सादर नमस्कार किया।   तत्पश्चात वे मधुवन के लिए चल पड़े, जहाँ श्रीकृष्ण के चरणकमल सदैव अंकित रहते हैं, अतः जो विशेष रूप से शुभ है।   जब ध्रुव भक्ति करने के लिए मधुवन में प्रविष्ट हो गए, तब महर्षि नारद ने राजा के पास जाकर यह देखना उचित समझा कि वे महल के भीतर कैसे रह रहे हैं।   जब नारद मुनि वहाँ पहुँचे तो राजा ने उन्हें प्रणाम करके उनका समुचित स्वागत किया।   आराम से बैठ जाने पर नारद कहने लगे।    महर्षि नारद ने पूछा: हे राजन, तुम्हारा मुख सूख रहा दिखता है और ऐसा लगता है कि तुम दीर्घकाल से कुछ सोचते रहे हो।   ऐसा क्यों है? क्या तुम्हें धर्म, अर्थ तथा काम के मार्ग का पालन करने में कोई बाधा हुई है?   राजा ने उत्तर दिया: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं अपनी पत्नी में अत्यधिक आसक्त हूँ और मैं इतना पतित हूँ कि मैंने अपने पाँच वर्ष के बालक के प्रति भी दया भाव के व्यवहार का त्याग कर दिया।   मैंने उसे महात्मा तथा महान भक्त होते हुए भी माता सहित निर्वासित कर दिया है।

66-70   हे ब्राह्मण, मेरे पुत्र का मुख कमल के फूल के समान था।   मैं उसकी दयनीय दशा के विषय में सोच रहा हूँ।   वह असुरक्षित और अत्यन्त भूखा होगा। वह जंगल में कहीं लेटा होगा और भेड़ियों ने झपट करके उसका शरीर काट खा लिया होगा।   अहो! जरा देखिये तो मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ।   जरा मेरी क्रूरता के विषय में तो सोचिये! वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मैंने न तो उसको आने दिया, न उसे एक क्षण भी दुलारा ।  जरा सोचिये कि मैं कितना कठोर-हृदय हूँ!   महर्षि नारद ने उत्तर दिया: हे राजन, तुम अपने पुत्र के लिए शोक मत करो।   वह भगवान द्वारा पूर्ण रूप से रक्षित है।   यद्यपि तुम्हें उसके प्रभाव के विषय में सही-सही जानकारी नहीं है, किन्तु उसकी ख्याति पहले ही संसार भर में फैल चुकी है।   हे राजन, तुम्हारा पुत्र अत्यन्त समर्थ है।   वह ऐसे कार्य करेगा जो बड़े-बड़े राजा तथा साधू भी नहीं कर पाते।   वह शीघ्र ही अपना कार्य पूरा करके घर वापस आएगा। तुम यह भी जान लो कि वह तुम्हारी ख्याति को सारे संसार में फैलाएगा ।   मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: नारद मुनि से उपदेश प्राप्त करने के बाद राजा उत्तानपाद ने अपने अत्यन्त विशाल एवं ऐश्वर्यमय राज्य के सारे कार्य छोड़ दिये और केवल अपने पुत्र ध्रुव के विषय में ही सोचने लगा।

71-75  इधर, ध्रुव महाराज ने मधुवन पहुँचकर यमुना नदी में स्नान किया और उस रात्रि को अत्यन्त मनोयोग से उपवास किया। तत्पश्चात वे नारद मुनि द्वारा बताई गई विधि से भगवान की आराधना में मग्न हो गये।   ध्रुव महाराज ने पहले महीने में अपने शरीर की रक्षा (निर्वाह) हेतु हर तीसरे दिन केवल कैथे तथा बेर का भोजन किया और इस प्रकार से वे भगवान की पूजा को आगे बढ़ाते रहे।   दूसरे महीने में महाराज ध्रुव छह-छह दिन बाद खाने लगे। शुष्क घास तथा पत्ते ही उनके खाद्य पदार्थ थे।   इस प्रकार उन्होंने अपनी पूजा चालू रखी। तीसरे महीने में वे प्रत्येक नवें दिन केवल जल ही पीते। इस प्रकार वे पूर्ण रूप से समाधि में रहते हुए पुण्यश्लोक भगवान की पूजा करते रहे।   चौथे महीने में ध्रुव महाराज प्राणायाम में पटु हो गये और इस प्रकार प्रत्येक बारहवें दिन वायु को श्वास से भीतर ले जाते।   इस प्रकार अपने स्थान पर पूर्ण रूप से स्थिर होकर उन्होंने भगवान की पूजा की।

76-80   पाँचवें महीने में राजपुत्र महाराज ध्रुव ने श्वास रोकने पर ऐसा नियंत्रण प्राप्त कर लिया कि वे एक ही पाँव पर खड़े रहने में समर्थ हो गए, मानो कोई अचल ठूँठ हो।   इस प्रकार उन्होंने परब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर लिया।   उन्होंने अपनी इन्द्रियों तथा उनके विषयों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया और इस तरह अपने मन को चारों ओर से खींच कर भगवान के रूप पर स्थिर कर दिया।   इस प्रकार जब ध्रुव महाराज ने समग्र भौतिक सृष्टि के आश्रय तथा समस्त जीवात्माओं के स्वामी भगवान को अपने वश में कर लिया तो तीनों लोक हिलने लगे।   जब राजपुत्र ध्रुव महाराज अपने एक पाँव पर अविचलित भाव से खड़े रहे तो उनके पाँव के भार से आधी पृथ्वी उसी प्रकार नीचे चली गई जिस प्रकार कि हाथी के चढ़ने से (पानी में) उसके प्रत्येक कदम से नाव कभी दाएँ हिलती है, तो कभी बाएँ। जब ध्रुव महाराज गुरुता में भगवान विष्णु अर्थात समग्र चेतना से एकाकार हो गये तो उनके पूर्ण रूप से केन्द्रीभूत होने तथा शरीर के सभी छिद्रों के बन्द हो जाने से सारे विश्व की साँस घुटने लगी और सभी लोकों के समस्त बड़े-बड़े देवताओं का दम घुटने लगा।   अतः वे भगवान की शरण में आये।

81     देवताओं ने कहा: हे भगवान, आप समस्त जड़ तथा चेतन जीवात्माओं के आश्रय हैं।   हमें लग रहा है कि सभी जीवों का दम घुट रहा है और उनकी श्वास-क्रिया अवरुद्ध हो गई है।   हमें ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ।   आप सभी शरणागतों के चरम आश्रय हैं, अतः हम आपके पास आये हैं।   कृपया हमें इस संकट से उबारिये।

82     श्रीभगवान ने उत्तर दिया: हे देवों, तुम इससे विचलित न होओ। यह राजा उत्तानपाद के पुत्र की कठोर तपस्या तथा दृढ़निश्चय के कारण हुआ है, जो इस समय मेरे चिन्तन में पूर्णतया लीन है।   उसी ने सारे ब्रह्माण्ड की श्वास क्रिया को रोक दिया है।   तुम लोग अपने-अपने घर सुरक्षापूर्वक जा सकते हो।   मैं उस बालक को कठिन तपस्या करने से रोक दूँगा तो तुम इस परिस्थिति से उबर जाओगे।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.