भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय सात भगवदज्ञान
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप। ॥ 27 ॥
इच्छा– इच्छा;द्वेष– तथा घृणा;समुत्थेन– उदय होने से;द्वन्द्व– द्वन्द्व से;मोहेन– मोह के द्वारा;भारत– हे भरतवंशी;सर्व– सभी;सम्मोहम्– मोह को;सर्गे– जन्म लेकर;यान्ति– जाते हैं, प्राप्त होते हैं;परन्तप– हे शत्रुओं के विजेता।
भावार्थ : हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।
तात्पर्य : जीव की स्वाभाविक स्थिति शुद्धज्ञान रूप परमेश्वर की अधीनता है। मोहवश जब मनुष्य इस शुद्धज्ञान से दूर हो जाता है तो वह माया के वशीभूत हो जाता है और भगवान् को नहीं समझ पाता। यह माया इच्छा तथा घृणा के द्वन्द्व रूप में प्रकट होती है। इसी इच्छा तथा घृणा के करण मनुष्य परमेश्वर से तदाकार होना चाहता है और भगवान् के रूप में कृष्ण से ईर्ष्या करता है। किन्तु शुद्धभक्त इच्छा तथा घृणा से मोहग्रस्त नहीं होते अतः वे समझ सकते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अन्तरंगाशक्ति से प्रकट होते हैं। पर जो द्वन्द्व तथा अज्ञान के कारण मोहग्रस्त हैं, वे सोचते हैं कि भगवान् भौतिक (अपरा) शक्तियों द्वारा उत्पन्न होते हैं। यही उनका दुर्भाग्य है। ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति मान-अपमान, दुख-सुख, स्त्री-पुरुष, अच्छा-बुरा, आनन्द-पीड़ा जैसे द्वन्द्वों में रहते हुए सोचते रहते हैं “यह मेरी पत्नी है, यह मेरा घर है, मैं इस घर का स्वामी हूँ, मैं इस स्त्री का पति हूँ।” ये ही मोह के द्वन्द्व हैं। जो लोग ऐसे द्वन्द्वों से मोहग्रस्त रहते हैं, वे निपट मूर्ख हैं और वे भगवान् को नहीं समझ सकते।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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