jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय पाँच – नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन (11.5)

1 राजा निमि ने आगे पूछा : हे योगेन्द्रों, आप सभी आत्म-विज्ञान में परम दक्ष हैं, अतएव मुझे उन लोगों का गन्तव्य बतलाइये, जो प्रायः भगवान हरि की पूजा नहीं करते, अपनी भौतिक इच्छाओं की प्यास नहीं बुझा पाते तथा अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाते।

2 श्री चमस ने कहा: हे राजन, आदि पुरुष विष्णु के मुख, बाहु, जाँघ तथा पाँव से चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र – तथा चार आश्रम भी उत्पन्न हैं।

3 यदि इन चारों वर्णों तथा आश्रमों का कोई भी सदस्य अपनी उत्पत्ति के स्रोत भगवान की पूजा नहीं करता या जान-बूझकर भगवान का अनादर करता है, तो उसका पतन होता है।

4 ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें भगवान हरि विषयक वार्ताओं में भाग लेने का बहुत ही कम अवसर मिल पाता है जिसके कारण भगवान अच्युत की लीलाओं का कीर्तन कर पाना उनके लिए कठिन होता है। स्त्रियाँ, शूद्र तथा अन्य निम्न जाति के व्यक्ति, सदा आप जैसे महापुरुषों की कृपा के पात्र हैं।

5 दूसरी ओर ब्राह्मण, राजसी वर्ग के लोग तथा वैश्यजन वैदिक दीक्षा द्वारा भगवान हरि के चरणकमलों के निकट जाने की अनुमति दिये जाने पर भी मोहित हो सकते हैं और विविध भौतिकतावादी दर्शन ग्रहण कर सकते हैं।

6 कर्मकला से अनजान, वेदों के मधुर शब्दों से मोहित, जागृत तथा उद्धत ऐसे गर्वित मूर्खजन स्वयं विद्वान होने का ढोंग रचते हैं और देवताओं की चाटुकारिता करते हैं।

7 वेदों के भौतिकतावादी अनुयायी रजोगुण के प्रभाव के कारण उग्र इच्छाओं के वशीभूत होकर अत्यधिक कामुक बन जाते हैं। उनका क्रोध सर्प जैसा होता है। वे अत्यधिक गर्विले, बनावटी तथा पापपूर्ण आचरण में रत होने से भगवान के भक्तों की हँसी उड़ाते हैं।

8 वैदिक विधानों के भौतिकतावादी अनुयायी भगवान की पूजा का परित्याग करके गृहस्थ जीवन में लगे रहते है, यौन-जीवन के लिए समर्पित हो जाते हैं और संसारी गपशप में रुचि रखते हैं। भौतिकतावादी गृहस्थ इस प्रकार के मनमाने आचरण के लिए एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं। वे अनुष्ठानिक यज्ञ को शारीरिक निर्वाह के लिए आवश्यक साधन मानकर अवैध उत्सव मनाते हैं, जिनमें न तो भोजन करवाया जाता है, न ही ब्राह्मणों तथा अन्य सम्मान्य व्यक्तियों को दक्षिणा दी जाती है। अपने कर्मों के कुपरिणामों को समझे बिना वे क्रूरतापूर्वक पशुओं का वध करते हैं।

9 दुर्मति व्यक्तियों की बुद्धि उस मिथ्या अहंकार से अन्धी हो जाती है, जो धनसम्पदा, ऐश्वर्य, उच्च-कुलीनता, शिक्षा, त्याग, शारीरिक सौन्दर्य, शारीरिक शक्ति तथा वैदिक अनुष्ठानों की सफल सम्पन्नता पर आधारित होता है। इस मिथ्या अहंकार से मदान्ध होकर ऐसे दुष्ट व्यक्ति भगवान तथा उनके भक्तों की निन्दा करते हैं।

10 प्रत्येक देहधारी जीव के हृदय में शाश्वत स्थित रहते हुए भी भगवान उनसे पृथक रहते हैं, जिस तरह कि सर्वव्यापक आकाश किसी भौतिक वस्तु से लिप्त नहीं होता। भगवान परम पूज्य हैं तथा हर वस्तु के परम नियन्ता हैं। वेदों में विस्तार से उनकी महिमा गाई जाती है, किन्तु जो लोग बुद्धिहीन हैं, वे उनके विषय में सुनना नहीं चाहते। वे अपना समय उन मनोरथों की चर्चा करने में बिताते हैं, जो यौन-जीवन तथा मांसाहार जैसे स्थूल इन्द्रियतृप्ति से सम्बन्धित होते हैं।

11 इस भौतिक जगत में बद्धजीव यौन, मांसाहार तथा नशे के प्रति सदैव उन्मुख रहता है। इसीलिए शास्त्र कभी भी ऐसे कार्यों को बढ़ावा नहीं देते। यद्यपि पवित्र विवाह के द्वारा यौन, यज्ञों द्वारा मांसाहार तथा उत्सवों में सुरा के प्याले ग्रहण करके नशे के लिए शास्त्रों का आदेश है, किन्तु ऐसे उत्सवों का, मन्तव्य उनकी ओर विरक्ति उत्पन्न करना है।

12 संचित धन का एकमात्र उचित फल धार्मिकता है, जिसके आधार पर मनुष्य, जीवन की दार्शनिक जानकारी प्राप्त कर सकता है, जो अन्ततः परब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति में और इस तरह समस्त कष्ट से मोक्ष में परिणत हो जाता है। किन्तु भौतिकतावादी व्यक्ति अपने धन का उपयोग अपनी पारिवारिक स्थिति की उन्नति में ही करते हैं। वे यह देख नहीं पाते कि दुर्लंघ्य मृत्यु शीघ्र ही उनके दुर्बल भौतिक शरीर को विनष्ट कर देगी।

13 वैदिक आदेशों के अनुसार, यज्ञोत्सवों में जो सुरा प्रदान की जाती है, उसको पीकर नहीं अपितु सूँघकर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशुबलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं। दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकता- वादी यह नहीं समझ पाते कि उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।

14 वे पापी व्यक्ति, जो असली धर्म से अनजान होते हुए भी अपने को पूर्णरूपेण पवित्र समझते हैं, उन निरीह पशुओं के प्रति बिना पश्चाताप किये हिंसा करते हैं, जो उनके प्रति पूर्णतया आश्वस्त होते हैं। ऐसे पापी व्यक्ति अगले जन्मों में उन्हीं पशुओं द्वारा भक्षण किये जाएँगे, जिनका वे इस जगत में वध किये रहते हैं।

15 बद्धजीव अपने शवतुल्य भौतिक शरीर, सम्बन्धियों एवं साज-सामान के प्रति स्नेह से पूरी तरह बँध जाते हैं। ऐसी गर्वित एवं मूर्खतापूर्ण स्थिति में बद्धजीव अन्य जीवों के साथ और भगवान हरि से भी द्वेष करने लगते हैं। इस प्रकार ईर्ष्यावश अन्यों का अपमान करने से बद्धजीव क्रमशः नरक में जा गिरते हैं।

16 वे लोग जिन्होंने परम सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं किया है और जो निपट अज्ञानता के अंधकार से परे हैं, वे सामान्यतया धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन पवित्र पुरुषार्थों का अनुसरण करते हैं। अन्य किसी उच्च उद्देश्य के बारे में विचार न करने के कारण, वे अपनी ही आत्मा के हत्यारे (आत्मघाती) बन जाते हैं।

17 इन आत्महन्ताओं को कभी भी शान्ति नहीं मिल पाती, क्योंकि वे यह मानते हैं कि मानवी बुद्धि अन्ततः भौतिक जीवन का विस्तार करने के लिए है। इस तरह अपने असली आध्यात्मिक कर्तव्य की उपेक्षा करते हुए, वे सदैव कष्ट पाते हैं। वे उच्च आशाओं एवं स्वप्नों से पूरित रहते हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश काल के अपरिहार्य प्रवाह के कारण ये सब सदैव ध्वस्त हो जाते हैं।

18 जिन लोगों ने ईश्वर की माया के जाल में आकर भगवान वासुदेव से मुख मोड़ लिया है, उन्हें अन्त में बाध्य होकर अपने तथाकथित घर, बच्चे, मित्र, पत्नियाँ तथा सम्बन्धियों को छोड़ना पड़ता है, क्योंकि ये सब भगवान की माया से उत्पन्न हुए थे और ऐसे लोग अपनी इच्छा के विरुद्ध ब्रह्माण्ड के घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं।

19 राजा निमि ने पूछा : भगवान प्रत्येक युग में किन रंगों तथा रूपों में प्रकट होते हैं और वे किन नामों तथा विधानों द्वारा मानव समाज में पूजे जाते हैं?

20 श्री करभाजन ने उत्तर दिया: सत्य (कृत), त्रेता, द्वापर तथा कलि इन चारों युगों में से प्रत्येक में भगवान केशव विविध वर्णों, नामों तथा रूपों में प्रकट होते हैं और विविध विधियों से पूजे जाते हैं।

21 सत्ययुग में भगवान श्वेत वर्ण और चतुर्भुजी होते हैं, उनके सिर पर जटाएँ रहती हैं और वे वृक्ष की छाल का वस्त्र पहनते हैं। वे काले हिरण का चर्म, जनेऊ, जप-माला, डंडा तथा कमण्डल धारण किये रहते हैं।

22 सत्ययुग में लोग शान्त, ईर्ष्यारहित, प्रत्येक प्राणी के प्रति मैत्री-भाव से युक्त तथा समस्त स्थितियों में स्थिर रहते हैं। वे तपस्या द्वारा तथा आन्तरिक एवं बाह्य इन्द्रिय संयम द्वारा भगवान की पूजा करते हैं।

23 सत्ययुग में भगवान की महिमा का गायन हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त तथा परमात्मा-नामों से किया जाता है।

24 त्रेतायुग में भगवान का वर्ण लाल होता है। उनकी चार भुजाएँ होती है, बाल सुनहरे होते हैं और वे तिहरी पेटी पहनते हैं, जो तीनों वेदों में दीक्षित होने की सूचक है। ऋक, साम तथा यजुर्वेदों में निहित ज्ञान के साकार रूप–भगवान के प्रतीक स्रुक, स्रुवा इत्यादि यज्ञ के पात्र होते हैं।

25 त्रेतायुग में मानव समाज के वे लोग, जो धर्मिष्ठ हैं और परम सत्य को प्राप्त करने में सच्ची श्रद्धा रखते हैं, वे समस्त देवताओं से युक्त भगवान हरि की पूजा करते हैं। इस युग में तीनों वेदों में दिये गए यज्ञ अनुष्ठानों के द्वारा भगवान की पूजा की जाती है।

26 त्रेतायुग में विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त तथा उरुगाय नामों से भगवान का गुणगान किया जाता है।

27 द्वापर युग में भगवान श्याम-वर्ण युक्त और पीताम्बर धारण किये प्रकट होते हैं। इस अवतार में भगवान के दिव्य शरीर में श्रीवत्स तथा अन्य विशेष आभूषण अंकित रहते हैं और वे अपने निजी आयुध प्रकट करते हैं।

28 हे राजन, द्वापर युग में जो लोग परम भोक्ता भगवान को जानने के इच्छुक होते हैं, वे वेदों तथा तंत्रों के आदेशानुसार, उन्हें महान राजा के रूप में आदर देते हुए पूजा करते हैं।

29-30 “हे परम स्वामी वासुदेव, आपको तथा आपके संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध-रूपों को नमस्कार है। हे भगवान, आपको नमस्कार है। हे नारायण ऋषि, हे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, इस जगत के स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के आदि स्वरूप, हे समस्त जीवों के परमात्मा, आपको सादर नमस्कार है।"

31 हे राजन, इस तरह से द्वापर युग में लोग ब्रह्माण्ड के स्वामी का यशोगान करते थे। कलियुग में भी लोग शास्त्रों के विविध नियमों का पालन करते हुए भगवान की पूजा करते हैं। अब कृपा करके आप मुझसे इसके बारे में सुनें।

32 कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन (संकीर्तन) करते हैं, जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है। यद्यपि उसका वर्ण श्यामल (कृष्ण) नहीं है किन्तु वह साक्षात कृष्ण है। वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है।

33 हे प्रभु आप महापुरुष हैं और मैं आपके उन चरणकमलों की पूजा करता हूँ, जो शाश्वत ध्यान के एकमात्र लक्ष्य हैं, भौतिक जीवन की चिन्ताओं को नष्ट करते हैं और आत्मा की सर्वोच्च इच्छा – शुद्ध भगवतप्रेम की प्राप्ति--प्रदान करते हैं। हे प्रभु, आपके चरणकमल समस्त तीर्थस्थानों के तथा भक्ति-परम्परा के समस्त सन्त-महापुरुषों के आश्रय हैं और शिव तथा ब्रह्मा जैसे शक्तिशाली देवताओं द्वारा सम्मानित होते हैं। हे प्रभु, आप इतने दयालु हैं कि आप उन सबों की रक्षा करते हैं, जो आदरपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं। इस तरह आप अपने सेवकों के सारे कष्टों को दयापूर्वक दूर कर देते हैं। निष्कर्ष रूप में, हे प्रभु, आपके चरणकमल वास्तव में जन्म तथा मृत्यु के सागर को पार करने के लिए उपयुक्त नाव हैं, इसीलिए ब्रह्मा तथा शिव भी आपके चरणकमलों में आश्रय की तलाश करते रहते हैं।

34 हे महापुरुष, मैं आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ। चैतन्य महाप्रभु ब्राह्मण रूप में भगवान कृष्ण हैं, अतएव वे निश्चय ही धर्मिष्ठ: अर्थात अत्यन्त धार्मिक है। चैतन्य महाप्रभु ने धर्मपथ के अत्यन्त श्रद्धालु अनुयायी होकर, ब्राह्मण के शाप को वरदान माना और तुरन्त संन्यास ग्रहण किया। तत्पश्चात भगवान की बहिरंगा शक्ति से मोहित तथा विचलित बद्धजीवों के उद्धार हेतु संकीर्तन यज्ञ की संस्तुति की। विभिन्न जंगलों से होकर वृन्दावन तथा उसके बाद दक्षिण भारत की यात्रा की।

35 इस प्रकार हे राजन, भगवान हरि जीवन के समस्त वांछित फलों को देनेवाले हैं। बुद्धिमान मनुष्य भगवान के उन विशेष रूपों तथा नामों की पूजा करते हैं, जिन्हें भगवान विभिन्न युगों में प्रकट करते हैं।

36 जो लोग सचमुच ज्ञानी हैं, वे इस कलियुग के असली महत्व को समझ सकते हैं। ऐसे प्रबुद्ध लोग कलियुग की पूजा करते हैं, क्योंकि इस पतित युग में जीवन की सम्पूर्ण सिद्धि संकीर्तन सम्पन्न करके आसानी से प्राप्त की जा सकती है।

37 निस्सन्देह, भौतिक जगत में विचरण करने के लिए बाध्य किये गए देहधारी जीवों के लिए भगवान के संकीर्तन आन्दोलन से बढ़कर और कोई सम्भावित लाभ नहीं है, जिसके द्वारा वह परम शान्ति पा सके और अपने को बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ा सके।

38-40 हे राजन, सत्ययुग तथा उसके पूर्व के अन्य युगों के निवासी इस कलियुग में जन्म लेने की तीव्र कामना करते हैं, क्योंकि इस युग में भगवान नारायण के अनेक भक्त होंगे। ये भक्तगण विविध लोकों में प्रकट होंगे, किन्तु दक्षिण भारत में विशेष रूप से जन्म लेंगे। हे मनुष्यों के स्वामी, कलियुग में जो व्यक्ति द्रविड़ देश की पवित्र नदियों, यथा ताम्रपर्णि, कृतमाला, पयस्विनी, अतीव पवित्र कावेरी, प्रतीची तथा महानदी का जलपान करेंगे, वे सभी भगवान वासुदेव के भक्त होंगे।

41 हे राजन, जिस व्यक्ति ने सारे भौतिक कार्यों को त्यागकर उन मुकुन्द के चरणकमलों में पूरी तरह शरण ले रखी है, जो सबों को आश्रय देते हैं, ऐसा व्यक्ति देवताओं, ऋषियों सामान्य जीवों, सम्बन्धियों, मित्रों, मनुष्यों या दिवंगत हो चुके पितरों का ऋणी नहीं रहता। चूँकि इन सभी श्रेणियों के जीव भगवान के ही भिन्नांश हैं, अतः जिसने भगवान की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया है, उसे ऐसे व्यक्तियों की अलग से सेवा करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

42 जिस मनुष्य ने अन्य सारे कार्यकलापों को त्यागकर भगवान हरि के चरणकमलों की पूर्ण शरण ग्रहण कर ली है, वह भगवान को अत्यन्त प्रिय है। निस्सन्देह ऐसा शरणागत जीव संयोगवश कोई पापकर्म कर ले तो भगवान, तुरन्त ही ऐसे पाप के फल को समाप्त कर देते हैं।

43 नारदमुनि ने कहा: इस तरह भक्तियोग की बातें सुनकर मिथिला के राजा निमि अत्यन्त संतुष्ट हुए और अपने यज्ञ-पुरोहितों सहित जयन्ती के मेधावी पुत्रों का सत्कार किया।

44 तब वे सिद्ध मुनिगण वहाँ पर उपस्थित सबकी आँखों के सामने से अदृश्य हो गये। राजा निमि ने उनसे सीखे गये आध्यात्मिक जीवन के नियमों का श्रद्धापूर्वक अभ्यास किया और इस तरह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त किया।

45 हे परम भाग्यशाली वसुदेव, आपने भक्ति के जिन नियमों को सुना है, उनका श्रद्धापूर्वक व्यवहार करें और इस तरह भौतिक संगति से छूटकर, आप परम पुरुष को प्राप्त होंगे।

46 निस्सन्देह, सारा संसार आप तथा आपकी पत्नी के यश से भरापुरा हो चुका है, क्योंकि भगवान हरि ने आपके पुत्र का स्थान अपनाया है।

47 हे वसुदेव, आप तथा आपकी उत्तम पत्नी देवकी ने कृष्ण को अपने पुत्र रूप में स्वीकार करके उनके प्रति महान दिव्य प्रेम दर्शाया है। निस्सन्देह आप दोनों भगवान का सदैव दर्शन तथा आलिंगन करते रहे हैं, उनसे बातें करते रहे हैं, उनके साथ विश्राम करते, उठते-बैठते तथा उनके साथ भोजन करते रहे हैं। भगवान के साथ ऐसे स्नेहपूर्ण तथा घनिष्ठ संग से आप दोनों ने अपने हृदयों को पूरी तरह शुद्ध बना लिया है। दूसरे शब्दों में, आप दोनों पहले से पूर्ण हो।

48 शिशुपाल, पौण्ड्रक तथा शाल्व जैसे विरोधी राजा, भगवान कृष्ण के विषय में निरन्तर सोचते रहते थे। सोते, बैठते या अन्य कार्य करते हुए भी वे भगवान के चलने-फिरने, उनकी क्रीड़ाओं, भक्तों पर उनकी प्रेमपूर्ण चितवन तथा उनके द्वारा प्रदर्शित अन्य आकर्षक स्वरूपों के विषय में ईर्ष्याभाव से ध्यान करते रहते थे। इस तरह कृष्ण में सदैव लीन रहकर, उन्होंने भगवान के धाम में मुक्ति प्राप्त की। तो फिर उन लोगों को दिये जाने वाले वरों के विषय में क्या कहा जाय, जो अनुकूल प्रेमभाव से निरन्तर भगवान कृष्ण पर ही अपने मन को एकाग्र रखते हैं?

49 कृष्ण को सामान्य बालक मत समझिये, क्योंकि वे भगवान, अव्यय तथा सबों की आत्मा (परमात्मा) हैं। भगवान ने अपने अचिन्त्य ऐश्वर्य को छिपा रखा है, इसीलिए वे बाहर से सामान्य मनुष्य जैसे प्रतीत होते हैं।

50 भगवान पृथ्वी के भारस्वरूप आसुरी राजाओं का वध करने तथा सन्तभक्तों की रक्षा करने के लिए अवतरित हुए हैं। किन्तु असुर तथा भक्त दोनों ही को भगवतकृपा से मुक्ति प्रदान की जाती है। इस तरह उनका दिव्य यश ब्रह्माण्ड-भर में फैल गया है।

51 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह कथा सुनकर परम भाग्यशाली वसुदेव पूर्णतया आश्चर्यचकित हो गये। इस प्रकार उन्होंने तथा उनकी परम भाग्यशालिनी पत्नी देवकी ने उस भ्रम तथा चिन्ता को त्याग दिया, जो उनके हृदयों में घर कर चुकी थी।

52 जो स्थिर चित्त होकर इस पवित्र ऐतिहासिक कथा का ध्यान करता है, वह इसी जीवन में सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवान कृष्ण के दस लीलावतार ।  मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह देव, वामन, परशुराम, रामचन्द्र, कृष्ण तथा बलराम, बुद्ध एवं कल्कि। (11.4.1-6)

अध्याय चार -- राजा निमि से द्रुमिल द्वारा ईश्वर के अवतारों का वर्णन (11.4)

1 राजा निमि ने कहा: भगवान स्वैच्छानुसार अपनी अन्तरंगा शक्ति से भौतिक जगत में अवतरित होते हैं। कृपया भगवान हरि के – भूत, वर्तमान तथा भावी अवतारों की – विविध लीलाओं का वर्णन करें।

2 श्री द्रुमिल ने कहा: भले ही कोई महान प्रतिभाशाली व्यक्ति किसी तरह से पृथ्वी के धूल-कणों की गणना कर सके, किन्तु समस्त शक्तियों के आधार असीम भगवान हरि के असंख्य दिव्य गुणों की गणना करने का प्रयास निरी मूर्खता होगी।

3 भगवान नारायण ने अपनी ही माया से निर्मित पाँच तत्त्वों से ब्रह्माण्ड की सृष्टि की, फिर परमात्मा – रूप में उस ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया और पुरुष अवतार के नाम से विख्यात हुए।

4 भगवान के विराट शरीर में ब्रह्माण्ड के तीनों लोक स्थित हैं। उनकी दिव्य इन्द्रियाँ समस्त देहधारी जीवों की ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को उत्पन्न करती हैं। उनकी चेतना से बद्ध-ज्ञान उत्पन्न होता है और उनके प्रबल श्वास से देहधारी जीवों का शारीरिक बल, ऐन्द्रिय शक्ति तथा बद्ध-कर्म उत्पन्न होते हैं। वे सतो, रजो तथा तमोगुणों के माध्यम से आदि गति प्रदान करनेवाले हैं। इस प्रकार ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन और संहार होता है।

5 प्रारम्भ में आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के निमित्त रजोगुण के माध्यम से ब्रह्मा का रूप प्रकट किया। भगवान ने ब्रह्माण्ड का पालन करने के लिए विष्णु-रूप में अपना स्वरूप प्रकट किया, जो यज्ञ का स्वामी, द्विजन्मा ब्राह्मणों तथा उनके धार्मिक कर्तव्यों का रक्षक है। जब ब्रह्माण्ड का संहार करना होता है, तब भगवान तमोगुण का प्रयोग करते हुए अपना रुद्र-रूप प्रकट करते हैं। समस्त जीव सदैव सृष्टि, पालन तथा संहार की शक्तियों के अधीन रहते हैं।

6 परम शान्त तथा ऋषियों में श्रेष्ठ नर-नारायण ऋषि का जन्म धर्म तथा उनकी पत्नी दक्षपुत्री मूर्ति के पुत्र के रूप में हुआ था। नर-नारायण ऋषि ने भगवदभक्ति की शिक्षा दी, जिससे भौतिक कर्म का अन्त हो जाता है। वे आज भी जीवित हैं और उनके चरणकमलों की सेवा सन्त पुरुषों द्वारा की जाती है।

7 यह सोचकर कि नर-नारायण ऋषि अपनी कठिन तपस्या से अत्यन्त शक्तिशाली बन कर उसका स्वर्ग का राज्य छीन लेंगे, राजा इन्द्र भयभीत हो उठा। भगवान के अवतार की दिव्य महिमा को न जानते हुए इन्द्र ने कामदेव को उसके संगियों सहित बदरिकाश्रम भेजा, जिसने वसन्त ऋतु की मनोहारी मन्द वायु और सुन्दर स्त्रियों की बाँकी चितवनों के तीरों से ऋषियों को बिधने का प्रयास किया।

8 इन्द्र द्वारा किये गये अपराध को जानते हुए आदि भगवान – कामदेव तथा थरथरा रहे उसके साथियों से हँसते हुए इस प्रकार बोले – “हे शक्तिशाली मदन, हे वायु-देव तथा देवताओं की पत्नियों डरो नहीं। कृपया मेरे द्वारा दी जाने वाली भेंट स्वीकार करो और अपनी उपस्थिति से मेरे आश्रम को पवित्र बनाओ।”

9 हे राजा निमि, जब नर-नारायण ऋषि ने देवताओं के भय को दूर करते हुए इस प्रकार कहा, तो उन्होंने लज्जा से अपने सिर झुका लिये और भगवान से इस प्रकार बोले – “हे प्रभु! आप सदैव दिव्य हैं, मोह से परे हैं, नित्य अविकारी हैं। हमारे महान अपराध के बावजूद आपकी अहैतुकी कृपा आपमें कोई असामान्य घटना नहीं है, क्योंकि असंख्य आत्माराम तथा क्रोध और मिथ्या अहंकार से मुक्त मुनिजन आपके चरणकमलों पर विनयपूर्वक अपना शीश झुकाते हैं।

10 देवतागण उन लोगों के मार्ग में अनेक अवरोध प्रस्तुत करते हैं, जो देवताओं के अस्थायी आवासों को लाँघकर आपके परम धाम पहुँचने के लिए आपकी पूजा करते हैं। जो यज्ञों में देवताओं को उनका नियत भाग भेंट में दे देते हैं, वे ऐसे किसी अवरोध का सामना नहीं करते। आप अपने भक्त के प्रत्यक्ष रक्षक हैं, अतएव वह उन सभी अवरोधों को, जो उसके सामने देवताओं द्वारा रखे जाते हैं, लाँघ जाने में समर्थ होता है।

11 कुछ लोग ऐसे हैं, जो हमारे प्रभाव को लाँघने के उद्देश्य से कठिन तपस्या करते हैं – जो भूख, प्यास, गर्मी, सर्दी तथा कालजनित अन्य परिस्थितियों यथा–रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के वेगों की अन्तहीन लहरों से युक्त अगाध समुद्र की तरह है। इस तरह कठिन तपस्या के द्वारा इन्द्रियतृप्ति के इस समुद्र को पार कर लेने पर भी, ऐसे व्यक्ति व्यर्थ के क्रोध के वशीभूत होने पर मूर्खता से गो-खुर में डूब जाते हैं। इस तरह वे अपनी कठिन तपस्या के लाभ को व्यर्थ गँवा बैठते हैं।

12 जब देवतागण इस तरह से भगवान की प्रशंसा कर रहे थे, तो सर्वशक्तिमान प्रभु ने सहसा उनकी आँखों के सामने अनेक स्त्रियाँ प्रकट कर दीं, जो भव्य, सुन्दर वस्त्रों-आभूषणों से सज्जित और भगवान की सेवा में लगी हुई थीं।

13 जब देवताओं के अनुयायियों ने नर-नारायण ऋषि द्वारा उत्पन्न स्त्रियों के मोहक सौन्दर्य की ओर निहारा और उनके शरीरों की सुगन्ध को सूँघा तो उनके मन मुग्ध हो गए। निस्सन्देह ऐसी स्त्रियों के सौन्दर्य तथा उनकी भव्यता को देखकर देवताओं के अनुयायी अपने ऐश्वर्य को तुच्छ समझने लगे।

14 नर-नारायण ऋषि किंचित मुसकाए और अपने समक्ष नतमस्तक प्रतिनिधियों से कहा, “तुम इन स्त्रियों में से जिस किसी को भी अपने उपयुक्त समझो, उसे चुन लो, वह स्वर्गलोक का आभूषण (शोभा बढ़ाने वाली) बन जायेगी।"

15 देवताओं के उन सेवकों ने ॐ शब्द का उच्चारण करते हुए अप्सराओं में सर्वोत्कृष्ट उर्वशी को चुन लिया और आदरपूर्वक उसे अपने साथ लेकर स्वर्गलोक लौट गए।

16 देवताओं के सेवकों ने इन्द्र को नारायण के परम बल के बारे में बताया। जब इन्द्र ने नर-नारायण ऋषि के बारे में सुना और अपने अपराध के विषय में अवगत हुआ, तो वह डरा और चकित भी हुआ।

17 अच्युत भगवान विष्णु इस जगत में अपने विविध आंशिक अवतारों के रूप में अवतरित हुए हैं यथा हंस, दत्तात्रेय, चारों कुमार तथा हमारे पिता–महान ऋषभदेव। ऐसे अवतारों के द्वारा भगवान सारे ब्रह्माण्ड के लाभ हेतु आत्म-साक्षात्कार का विज्ञान पढ़ाते हैं। उन्होंने हयग्रीव के रूप में प्रकट होकर मधु असुर का वध किया और इस तरह वे पाताल-लोक से वेदों को वापस लाये।

18 मत्यस्य अवतार में भगवान ने सत्यव्रत मनु, पृथ्वी तथा उसकी मूल्यवान औषधियों की रक्षा की। उन्होंने प्रलय-जल से उनकी रक्षा की। वराह के रूप में भगवान ने दितिपुत्र हिरण्याक्ष का वध किया और ब्रह्माण्ड-जल से पृथ्वी का उद्धार किया। कच्छप-रूप में उन्होंने अपनी पीठ पर मन्दर पर्वत को उठा लिया, जिससे समुद्र को मथकर अमृत प्राप्त किया गया। भगवान ने शरणागत गजेन्द्र को बचाया, जो घड़ियाल के चंगुल में भीषण यातना पा रहा था ।

19 भगवान ने वालखिल्य नामक लघु-रूप मुनियों का भी उद्धार किया, जब वे गो-खुर जल में गिर गये थे और इन्द्र उन पर हँस रहा था। भगवान ने इन्द्र को भी बचाया, जो वृत्रासुर-वध के पापकर्म के फलस्वरूप अंधकार से प्रच्छन्न था। जब देव-पत्नियाँ असुरों के महल में असहाय होकर बन्दी बनाई गई थीं, तो भगवान ने ही उन्हें बचाया। अपने नृसिंह-अवतार में भगवान ने भक्तों का भय दूर करने के लिए असुरराज हिरण्यकशिपु का वध किया।

20 इस प्रकार भगवान प्रत्येक मन्वन्तर में अपने विभिन्न अवतारों के माध्यम से ब्रह्माण्ड की रक्षा करके देवताओं को प्रोत्साहित करते हैं। भगवान वामन के रूप में भी प्रकट हुए और तीन पग भूमि माँगने के बहाने बलि महाराज से उनका सर्वस्व प्राप्त कर अदिति-पुत्रों को वापस कर दिया।

21 परशुराम का जन्म भृगुवंश में अग्नि के रूप में हुआ, जिसने हैहय कुल को जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार भगवान परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से विहीन कर दिया। भगवान सीतादेवी के पति रामचन्द्र के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने दस सिरों वाले रावण को लंका के सारे सैनिकों समेत मारा। वे श्रीराम जिनकी कीर्ति संसार के कल्मष को नष्ट करती है सदैव विजयी होते हैं।

22 पृथ्वी का भार उतारने के लिए अजन्मा भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें कर पाना देवताओं के लिए भी असम्भव है। वे बुद्ध के रूप में तर्कदर्शन की स्थापना करते हुए अयोग्य वैदिक यज्ञकर्ताओं को मोहित करेंगे और कल्कि के रूप में वे कलियुग के अन्त में अपने को शासक बताने वाले सारे निम्न श्रेणी के लोगों का वध करेंगे।

23 हे महाबाहु राजा, ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान के ऐसे जन्म तथा कर्म असंख्य हैं, जिस प्रकार मैं वर्णन कर चुका हूँ। वस्तुतः भगवान की कीर्ति अनन्त है।

 

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय तीन – माया से मुक्ति (11.3)

1 राजा निमि ने कहा: अब हम भगवान विष्णु की उस माया के विषय में जानना चाहते हैं, जो बड़े बड़े योगियों को भी मोह लेती है। हे प्रभुओं, कृपा करके हमें इस विषय में बतायें।

2 यद्यपि मैं आपके द्वारा कही जा रही भगवान की महिमा का अमृत-आस्वाद कर रहा हूँ, फिर भी मेरी प्यास शान्त नहीं हुई। भगवान तथा उनके भक्तों की ऐसी अमृतमयी कथाएँ संसार के तीनों तापों से सताये जा रहे, मुझ जैसे बद्धजीवों के लिए औषधि का काम करने वाली हैं।

3 श्री अन्तरिक्ष ने कहा: हे महाबाहु राजा, भौतिक तत्त्वों को क्रियाशील बनाकर समस्त सृष्टि के आदि आत्मा ने उच्चतर तथा निम्नतर योनियों के जीवों को उत्पन्न किया है, जिससे ये बद्धात्माएँ अपनी इच्छानुसार इन्द्रियतृप्ति अथवा चरम मोक्ष का अनुशीलन कर सकें।

4 परमात्मा उत्पन्न किये गये प्राणियों के भौतिक शरीरों में प्रविष्ट होकर मन तथा इन्द्रियों को क्रियाशील बनाता है और इस तरह बद्धजीवों को इन्द्रियतृप्ति हेतु तीन गुणों तक पहुँचाता है।

5 भौतिक देह का स्वामी व्यष्टि जीव, परमात्मा द्वारा सक्रिय की गई अपनी भौतिक इन्द्रियों द्वारा, प्रकृति के तीन गुणों द्वारा बनाये गये इन्द्रियविषयों का भोग करने का प्रयास करता है। इस तरह वह उत्पन्न भौतिक शरीर को अजन्मे नित्य आत्मा के रूप में मानने के कारण भगवान की माया में फँस जाता है।

6 तीव्र भौतिक इच्छाओं से प्रेरित देहधारी जीव अपनी कर्मेन्द्रियों को सकाम कर्म में लगाता है। तब वह इस जगत में घूमते हुए तथाकथित सुख-दुख में अपने भौतिक कर्मों के फलों का अनुभव करता है।

7 इस तरह बद्धजीव को बारम्बार जन्म-मृत्यु अनुभव करने के लिए बाध्य किया जाता है। अपने ही कर्मों के फल से प्रेरित होकर, वह एक अशुभ अवस्था से दूसरी अवस्था में असहाय होकर घूमता रहता है और सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर प्रलय होने तक कष्ट भोगता है।

8 जब भौतिक तत्त्वों का संहार सन्निकट होता है, तो काल रूप में भगवान स्थूल तथा सूक्ष्म गुणों वाले व्यक्त जगत को समेट लेते हैं और सारा ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में लुप्त हो जाता है। ज्यों ज्यों विश्व का संहार निकट आता जाता है, पृथ्वी पर एक सौ वर्षों का भयंकर सूखा पड़ता है। सूर्य की गर्मी (उष्णता) क्रमश: सौ वर्षो तक बढ़ती जाती है और इसकी प्रज्वलित गर्मी तीनों लोकों को व्यग्र करने लगती है।

10 यह अग्नि, भगवान संकर्षण के मुख से निकलकर पाताल लोक से शुरू होती हुई, बढ़ती जाती है। इसकी लपटें प्रबल वायु से प्रेरित होकर ऊपर उठने लगती हैं और यह चारों दिशाओं की हर वस्तु को झुलसा देती है।

11 संवर्तक नामक बादलों के समूह एक सौ वर्षों तक मूसलाधार वर्षा करते हैं। हाथी की सूँड़ जितनी लम्बी पानी की बूँदों की बाढ़ से विनाशकारी वर्षा समस्त ब्रह्माण्ड को जल में डुबो देती है।

12 हे राजन, तब विराट रूप वाला व्यक्ति (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) अपने शरीर को त्याग देता है और सूक्ष्म अव्यक्त प्रकृति में उसी तरह प्रवेश कर जाता है, जिस तरह ईंधन समाप्त हो जाने पर अग्नि।

13 वायु द्वारा गन्ध-गुण से रहित होकर पृथ्वी तत्त्व जल में रूपान्तरित हो जाता है और उसी वायु से जल अपना स्वाद खोकर अग्नि में विलीन हो जाता है।

14 अग्नि अंधकार द्वारा अपने रूप से विहीन होकर वायु तत्त्व में मिल जाती है। जब वायु अन्तराल के प्रभाव से अपना स्पर्श-गुण खो देता है, तो वह आकाश में मिल जाता है। जब आकाश काल रूप परमात्मा द्वारा अपने शब्द-गुण से विहीन कर दिया जाता है, तो वह तमोगुणी मिथ्या अहंकार में विलीन हो जाता है।

15 हे राजन, भौतिक इन्द्रियाँ तथा बुद्धि रजोगुणी मिथ्या अहंकार में मिल जाते हैं, जहाँ से उनका उदय हुआ था। देवताओं के साथ साथ मन सतोगुणी मिथ्या अहंकार में मिल जाता है। तत्पश्चात, सम्पूर्ण मिथ्या अहंकार अपने सारे गुणों सहित महत-तत्त्व में लीन हो जाता है।

16 मैं अभी भगवान की मोहिनी शक्ति माया का वर्णन कर चुका हूँ। यह तीन गुणों वाली माया भगवान द्वारा ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के लिए शक्तिप्रदत्त है। अब तुम और क्या सुनने के इच्छुक हो?

17 राजा निमि ने कहा: हे महर्षि, कृपया यह बतायें कि किस तरह एक मूर्ख भौतिकतावादी भी आसानी से भगवान की उस माया को पार कर सकता है, जो उन लोगों के लिए सदैव दुर्लंघ्य है, जिन्हें अपने ऊपर संयम नहीं होता।

18 श्री प्रबुद्ध ने कहा: मानव समाज में नर तथा नारी की भूमिकाएँ स्वीकार करते हुए बद्धजीव संयुक्त रहते हैं। इस तरह वे अपने दुख के निवारणार्थ निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं और अपने आनन्द को असीम बनाना चाहते हैं। किन्तु यह देखना चाहिए कि उन्हें सदैव इसका विपरीत, परिणाम मिलता है। दूसरे शब्दों में, उनका सुख अनिवार्यतः है अतः समाप्त हो जाता है और ज्यों ज्यों वे बूढ़े होते जाते हैं उनकी भौतिक असुविधाएँ बढ़ती जाती है।

19 सम्पत्ति दुख का अविच्छिन्न स्रोत है, इसे अर्जित करना सर्वाधिक कठिन है और एक तरह से यह आत्मा के लिए मृत्यु स्वरूप है। भला अपनी सम्पत्ति से किसी को कौन-सा लाभ मिलता है? इसी तरह कोई अपने तथाकथित घर, सन्तान, सम्बन्धीगण तथा घरेलू पशुओं से स्थायी सुख कैसे प्राप्त कर सकता है, जो उसकी कठिन कमाई से पालित-पोषित होते हैं।

20 मनुष्य को स्वर्गलोक में भी ऐसा स्थायी सुख नहीं मिल सकता, जिसे वह अनुष्ठानों तथा यज्ञों से अगले जीवन में प्राप्त कर सकता है। यहाँ तक कि भौतिक स्वर्ग में भी जीव अपने बराबर वालों की स्पर्धा से तथा अपने से बड़ों की ईर्ष्या से विचलित रहता है। चूँकि पुण्यकर्मों की समाप्ति के साथ ही स्वर्ग का निवास समाप्त हो जाता है, अतएव स्वर्ग के देवतागण अपने स्वर्गिक जीवन के विनाश की आशंका से भयभीत रहते हैं। इस तरह उनकी दशा उन राजाओं की सी रहती है, जो सामान्य जनता द्वारा ईर्ष्यावश प्रशंसित होते हैं, किन्तु शत्रु-राजाओं द्वारा निरन्तर सताये जाते हैं, जिससे उन्हें कभी भी वास्तविक सुख नहीं मिल पाता है।

21 अतएव जो व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक असली सुख की इच्छा रखता हो, उसे प्रामाणिक गुरु की खोज करनी चाहिए और दीक्षा द्वारा उसकी शरण ग्रहण करनी चाहिए। प्रामाणिक गुरु की योग्यता यह होती है कि वह विचार-विमर्श द्वारा शास्त्रों के निष्कर्षों से अवगत हो चुका होता है और इन निष्कर्षों के विषय में अन्यों को आश्वस्त करने में सक्षम होता है। ऐसे महापुरुष, जिन्होंने समस्त भौतिक धारणाओं को त्याग कर भगवान की शरण ग्रहण कर ली है, उन्हें प्रामाणिक गुरु मानना चाहिए।

22 प्रामाणिक गुरु को प्राण एवं आत्मा तथा आराध्य देव मानते हुए शिष्य को चाहिए कि उससे शुद्ध भक्ति की विधि सीखे। समस्त आत्माओं के आत्मा भगवान हरि स्वयं को अपने शुद्ध भक्तों को सौंपने के लिए उद्यत रहते हैं। इसलिए शिष्य को अपने गुरु से द्वैतरहित होकर भगवान की श्रद्धापूर्ण तथा उपयुक्त विधि से सेवा करना सीखना चाहिए, जिससे परमात्मा को तुष्ट किया जा सकें।

23 निष्ठावान शिष्य को चाहिए कि मन को प्रत्येक भौतिक वस्तु से विलग रखना सीखे एवं अपने गुरु तथा अन्य साधु भक्तों की संगति का सकारात्मक रूप से अनुशीलन करे। उसे अपने से निम्न पद वालों के प्रति उदार होना चाहिए, समान पद वालों के साथ मैत्री करनी चाहिए और जो अपने से उच्चतर आध्यात्मिक पद पर हैं, उनकी विनीत भाव से सेवा करनी चाहिए। इस तरह उसे समस्त जीवों के साथ समुचित व्यवहार करना सीखना चाहिए।

24 गुरु की सेवा करने के लिए शिष्य को स्वच्छता, तपस्या, सहनशीलता, मौन, वेदाध्ययन, सादगी, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, गर्मी और शीत, तथा सुख और दुख जैसे द्वैतों के समक्ष समत्व सीखना चाहिए।

25 मनुष्य को चाहिए कि स्वयं को नित्य आत्मा के रूप में और भगवान को प्रत्येक वस्तु का परम नियन्ता देखते हुए ध्यान करे। ध्यान में वृद्धि लाने के लिए वह एकान्त स्थान में रहे, अपने घर तथा घर की सामग्री के प्रति झूठी आसक्ति को त्याग दे। नश्वर शरीर के अलंकरण को त्याग कर, मनुष्य अपने को चीथड़ों से या वृक्षों की छाल से ढके। इस तरह, उसे किसी भी भौतिक परिस्थिति में संतुष्ट रहना सीखना चाहिए।

26 मनुष्य में यह अटूट श्रद्धा होनी चाहिए कि – जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के यश का वर्णन करते हैं, उन शास्त्रों का अनुसरण करने से उसे जीवन में पूर्ण सफलता मिलेगी। उसे अन्य शास्त्रों की निन्दा करने से अपने को बचाना चाहिए। उसे अपने मन, वाणी तथा शारीरिक कर्मों पर कठोर नियंत्रण रखना चाहिए, सदैव सच बोलना चाहिए और मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह वश में रखना चाहिए।

27-28 मनुष्य को चाहिए कि भगवान के अद्भुत दिव्य कार्यकलापों के विषय में सुने, उनका गुणगान करे और ध्यान करे। उसे विशेष रूप से भगवान के प्राकट्यों, कार्यकलापों, गुणों तथा पवित्र नामों में लीन रहना चाहिए और अपने नैत्यिक समस्त कार्य भगवान को अर्पित करते हुए सम्पन्न करने चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि केवल भगवान की तुष्टि के लिए ही यज्ञ, दान तथा तप करे। इसी तरह वह केवल उन्हीं मंत्रों का उच्चारण करे, जो भगवान की महिमा का गायन करते हों। उसके सारे धार्मिक कृत्य भगवान को भेंट के रूप में सम्पन्न हों। उसे जो भी वस्तु अच्छी या भोग्य लगे, उसे वह भगवान को अर्पित कर दे, यहाँ तक कि पत्नी, बच्चे, घर तथा अपने प्राण भी भगवान के चरणकमलों पर अर्पित कर दे।

29 जो अपने चरम स्वार्थ का इच्छुक है, उसे उन व्यक्तियों से मैत्री करनी चाहिए, जिन्होंने कृष्ण को अपना जीवन-नाथ मान लिया है। उसे समस्त चर-अचर जीवों के प्रति सेवाभाव रखना चाहिए और मनुष्य रूप में – विशेष रूप से जो धार्मिक आचरण के सिद्धान्त को अपनाते हैं, इन धार्मिक व्यक्तियों में से भगवान के शुद्ध भक्तों की सेवा करनी चाहिए।

30 मनुष्य को चाहिए कि भगवान की महिमा-गायन के लिए भगवदभक्तों संगति करना सीखे। यह विधि अत्यन्त शुद्ध बनाने वाली है। ज्योंही भक्तगण प्रेमपूर्ण मैत्री स्थापित कर लेते हैं, त्योंही उन्हें परस्पर सुख तथा तुष्टि का अनुभव होता है। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रोत्साहित करके, वे उस भौतिक इन्द्रियतृप्ति को त्यागने में सक्षम होते हैं, जो समस्त कष्टों का कारण है।

31 भगवदभक्तगण परस्पर भगवान की महिमा का गायन करते हैं। वे निरन्तर भगवान का स्मरण करते हैं और एक-दूसरे को भगवान की लीलाओं तथा गुणों का स्मरण कराते हैं। इस तरह से भक्तियोग के नियमों के प्रति अपनी अनुरक्ति से भक्तगण भगवान को प्रसन्न करते हैं, जो उनके सारे अशुभों को हर लेते हैं। समस्त व्यवधानों से शुद्ध होकर भक्तगण शुद्ध भगवतप्रेम जगा लेते हैं और इस प्रकार इस जगत में रहते हुए भी उनके आध्यात्मीकृत शरीरों में दिव्य आनन्द (भाव) के लक्षण यथा रोमांच प्रकट होते हैं।

32 भगवतप्रेम प्राप्त कर लेने पर भक्तगण अच्युत भगवान के विचार में मग्न होकर कभी जोर से निनाद करते हैं, कभी हँसते हैं, कभी अगाध आनन्द का अनुभव करते हैं, कभी भगवान से जोर से बात करते हैं, नाचते या गाते हैं। ऐसे भक्तगण दिव्य भौतिक बद्धजीवन की अवस्था को लाँघकर कभी-कभी अजन्मा परमेश्वर की लीलाओं का अनुकरण करते हैं और कभी उनका दर्शन पाकर वे शान्त एवं मौन हो जाते हैं।

33 इस तरह भक्ति विज्ञान को सीखकर तथा भगवदभक्ति में व्यावहारिक रूप से संलग्न रहकर भक्त भगवतप्रेम की अवस्था को प्राप्त होता है और भगवान नारायण की पूर्ण भक्ति द्वारा भक्त सरलता से उस माया को पार कर लेते है, जिसे लाँघ पाना अत्यन्त ही कठिन है।

34 राजा निमि ने कहा: अतः कृपा करके मुझे उन भगवान नारायण के दिव्य पद को बतायें, जो साक्षात परब्रह्म तथा हर एक के परमात्मा हैं। आप मुझसे कहें, क्योंकि आप सभी जन दिव्य ज्ञान में परम निष्णात है।

35 श्री पिप्पलायन ने कहा: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ही इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के कारण हैं, फिर भी उनका कोई पूर्व कारण नहीं है। वे जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्ति जैसी विविध अवस्थाओं में व्याप्त रहते हैं और इनसे परे भी विद्यमान हैं। वे हर जीव के शरीर में परमात्मा रूप में प्रवेश करके शरीर, प्राणवायु तथा मानसिक क्रियाओं को जागृत करते हैं, जिससे शरीर के सभी सूक्ष्म तथा स्थूल अंग अपने कार्य शुरु कर देते हैं। हे राजन, यह जान लें कि भगवान सर्वोपरि हैं।

36 न तो मन, न ही वाणी, दृष्टि, बुद्धि, प्राणवायु या किसी इन्द्रिय के कार्य उस परम सत्य में प्रवेश करने में सक्षम हैं, जिस तरह कि छोटी चिनगारियाँ उस मूल अग्नि को प्रभावित नहीं कर सकती हैं, जिससे वे उत्पन्न होती हैं। यहाँ तक कि वेदों की प्रामाणिक भाषा भी परम सत्य का बखान नहीं कर सकती है, क्योंकि स्वयं वेद ही इस सम्भावना से इनकार करते हैं कि सत्य को शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। किन्तु अप्रत्यक्ष निर्देश द्वारा वैदिक ध्वनि परम सत्य का प्रमाण प्रस्तुत करती है, क्योंकि परम सत्य के अस्तित्व के बिना वेदों में प्राप्त विविध निषेधों का कोई चरम अभिप्राय नहीं होता।

37 ब्रह्म जो मूलतः एक है, वह त्रिगुण होकर विख्यात है और प्रकृति के तीन गुण – सतो, रजो तथा तमोगुणों के रूप में अपने को प्रकट करता है। ब्रह्म इससे भी आगे अपनी शक्ति का विस्तार करता है। इस तरह मिथ्या अहंकार के साथ साथ कार्य करने की शक्ति तथा चेतनाशक्ति प्रकट होती है, जो बद्धजीव के स्वरूप को ढक लेती है। इस तरह ब्रह्म की बहुविध शक्तियों के विस्तार से देवतागण ज्ञान के साक्षात रूप में प्रकट होते हैं और उनके साथ साथ भौतिक इन्द्रियाँ, उनके विषय तथा कर्मफल (सुख-दुख) प्रकट होते हैं। इस तरह भौतिक जगत की अभिव्यक्ति सूक्ष्म कारण के रूप में तथा स्थूल भौतिक पदार्थों में दृश्य भौतिक कार्य के रूप में होती है। ब्रह्म, जो कि समस्त सूक्ष्म तथा स्थूल अभिव्यक्तियों का स्रोत है, परम होने के कारण, उनसे परे भी रहता है।

38 नित्य आत्मा ब्रह्म न तो कभी जन्मा था और न कभी मरेगा। न ही वह बड़ा होता है न उसका क्षय होता है। वह आध्यात्मिक आत्मा वास्तव में भौतिक शरीर की युवावस्था, मध्यावस्था तथा भौतिक शरीर की मृत्यु का ज्ञाता है। इस प्रकार आत्मा को शुद्ध चेतना माना जा सकता है, जो सभी काल में सर्वत्र विद्यमान रहता है और कभी विनष्ट नहीं होता। जिस प्रकार प्राण एक होते हुए भी शरीर के भीतर विभिन्न इन्द्रियों के सम्पर्क में अनेक रूप में प्रकट होता है, उसी तरह वह एक आत्मा भौतिक शरीर के सम्पर्क में विविध भौतिक उपाधियाँ धारण करता प्रतीत होता है।

39 इस भौतिक जगत में आत्मा कई जीव योनियों में जन्म लेता है। कुछ योनियाँ अंडों से उत्पन्न होती हैं, कुछ भ्रूण से, कुछ पौधों और वृक्षों के बीजों से तो कुछ स्वेद से उत्पन्न होती हैं। किन्तु समस्त योनियों में प्राण अपरिवर्तित रहता है और वह आत्मा के पीछे-पीछे एक शरीर से दूसरे में चला जाता है। इसी प्रकार आत्मा विभिन्न जीवन स्थितियों के बावजूद निरन्तर वही बना रहता है। हमें इसका व्यावहारिक अनुभव है। जब हम बिना स्वप्न देखे प्रगाढ़ निद्रा में होते हैं, तो भौतिक इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं, यहाँ तक कि मन तथा मिथ्या अहंकार भी निष्क्रिय हो जाते हैं, किन्तु जब मनुष्य जागता है, तो वह स्मरण करता है कि आत्मारूप वह शान्ति से सो रहा था। यद्यपि इन्द्रियाँ, मन और मिथ्या अहंकार निष्क्रिय थे।

40 जब मनुष्य अपने हृदय में भगवान के चरणकमलों को जीवन के एकमात्र लक्ष्य के रूप में स्थिर करके भगवान की भक्ति में गम्भीरतापूर्वक संलग्न होता है, तो वह अपने हृदय के भीतर स्थित उन असंख्य अशुद्ध इच्छाओं को विनष्ट कर सकता है, जो प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत उसके पूर्वकर्मों के फल के कारण संचित होती हैं। जब इस तरह हृदय शुद्ध हो जाता है, तो वह भगवान को तथा अपने को दिव्य जीवों के रूप में प्रत्यक्षतः अनुभव कर सकता है। इस तरह वह प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात हो जाता है, जिस तरह कि सामान्य स्वस्थ दृष्टि द्वारा सूर्य-प्रकाश का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।

41 राजा निमि ने कहा: हे मुनियों हमें कर्मयोग की विधियों के विषय में बतायें। परम पुरुष को अपने व्यावहारिक कर्म समर्पित करने की इस विधि से शुद्ध होकर व्यक्ति अपने को इस जीवन में भी समस्त भौतिक कार्यों से मुक्त कर सकता है और इस तरह दिव्य पद पर शुद्ध जीवन का भोग कर सकता है।

42 एक बार विगत काल में अपने पिता महाराज ईक्ष्वाकु की उपस्थित में मैंने ब्रह्मा के चार महर्षि पुत्रों से ऐसा ही प्रश्न पूछा था, किन्तु उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। कृपया इसका कारण बतायें।

43 श्री आविर्होत्र ने उत्तर दिया : कर्म, अकर्म तथा विकर्म ऐसे विषय हैं, जिन्हें वैदिक साहित्य के प्रामाणिक अध्ययन द्वारा ही भलीभाँति समझा जा सकता है। इस कठिन विषय को संसारी कल्पना द्वारा कभी भी नहीं समझा जा सकता। प्रामाणिक वैदिक साहित्य भगवान का शब्दावतार है, इस प्रकार वैदिक ज्ञान पूर्ण है। वैदिक ज्ञान की सत्ता की उपेक्षा करने से बड़े बड़े पण्डित तक कर्मयोग को समझने में भ्रमित हो जाते हैं।

44 बचकाने तथा मूर्ख लोग भौतिकतावादी सकाम कर्मों के प्रति आसक्त रहते हैं, यद्यपि जीवन का वास्तविक लक्ष्य ऐसे कर्मों से मुक्त बनना है। इसलिए वैदिक आदेश सर्वप्रथम सकाम धार्मिक कर्मों की संस्तुति करके मनुष्य को परोक्ष रीति से चरम मोक्ष के मार्ग पर ले जाता हैं, जिस तरह पिता अपने पुत्र को दवा पिलाने के लिए उसे मिठाई देने का वादा करता है।

45 यदि कोई अज्ञानी जिसने भौतिक इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वह वैदिक आदेशों में अटल नहीं रहता, तो वह निश्चय ही पापमय तथा अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहेगा। इस तरह उसे बारम्बार जन्म-मृत्यु भोगना पड़ेगी।

46 निर्लिप्त होकर वेदों द्वारा निर्दिष्ट नियमित कार्यों को सम्पन्न करने और ऐसे कार्यों के फल भगवान को अर्पित करने से मनुष्य को भौतिक कर्म के बन्धन से मुक्ति रूपी सिद्धि मिल जाती है। प्रामाणिक शास्त्रों में प्रदत्त भौतिक कर्मफल वैदिक ज्ञान के चरम लक्ष्य नहीं हैं, अपितु कर्ता में रुचि उत्पन्न कराने के निमित्त हैं।

47 जो व्यक्ति आत्मा को जकड़कर रखने वाली मिथ्या अहंकार की गाँठ को तुरन्त काट देने का इच्छुक होता है, उसे वैदिक ग्रन्थों यथा तंत्रों में प्राप्त अनुष्ठानों के द्वारा, भगवान केशव की पूजा करनी चाहिए।

48 शिष्य को वैदिक शास्त्रों के आदेश बतलाने वाले अपने गुरु की कृपा प्राप्त कर, उसे चाहिए कि वह भगवान के अत्यन्त आकर्षक किसी विशिष्ट साकार रूप में, परमेश्वर की पूजा करे।

49 अपने को स्वच्छ बनाकर, शरीर को प्राणायाम, भूत-शुद्धि तथा अन्य विधियों से शुद्ध करके एवं सुरक्षा के लिए शरीर में पवित्र तिलक लगाकर, अर्चाविग्रह के समक्ष बैठ जाना चाहिए और भगवान की पूजा करनी चाहिए।

50-51 भक्त को चाहिए की अर्चाविग्रह की पूजा के लिए, जो भी वस्तुएँ उपलब्ध हों, उन्हें एकत्र करे, भेंट सामग्री, भूमि, अपना मन तथा अर्चाविग्रह को तैयार करे, अपने बैठने के स्थान को शुद्ध करने के लिए पानी छिड़के और फिर स्नान के लिए जल तथा अन्य साज-सामग्री तैयार करे। इसके बाद भक्त को चाहिए कि अर्चाविग्रह को शरीर से तथा अपने मन से उसके सही स्थान पर रखे, वह अपना ध्यान एकाग्र करे और अर्चाविग्रह के हृदय पर तथा शरीर के अन्य अंगों पर तिलक लगाए। तब उपयुक्त मंत्र द्वारा पूजा करे।

52-53 मनुष्य को चाहिए कि अर्चाविग्रह के दिव्य शरीर के प्रत्येक अंग के साथ-साथ उनके आयुधों यथा सुदर्शन चक्र उनके अन्य शारीरिक स्वरूपों तथा उनके निजी संगियों की पूजा करे। वह भगवान के इन दिव्य पक्षों में से हर एक की पूजा, उसके मंत्र तथा पाँव धोने के लिए जल, सुगन्धित जल, मुख धोने का जल, स्नान के लिए जल, उत्तम वस्त्र तथा आभूषण, सुगन्धित तेल, मूल्यवान हार, अक्षत, फूल-मालाओं, धूप तथा दीपों से करे। इस तरह बताये गए विधानों के अनुसार पूजा करके मनुष्य को चाहिए कि भगवान हरि के अर्चाविग्रह का आदर स्तुतियों से करे और उन्हें झुककर नमस्कार करे।

54 पूजा करने वाले को चाहिए कि स्वयं को भगवान का नित्य दास मानकर ध्यान में पूर्णतया लीन हो जाय और इस तरह यह स्मरण करे कि अर्चाविग्रह उसके हृदय में भी स्थित है, अर्चाविग्रह की भलीभाँति पूजा करे। तत्पश्चात, उसे अर्चाविग्रह के साज-सामान यथा बची हुई फूल-माला को अपने सिर पर धारण करे और आदरपूर्वक अर्चाविग्रह को उसके स्थान पर वापस रखकर पूजा का समापन करे।

55 इस प्रकार भगवान के पूजक को यह पहचान लेना चाहिए कि भगवान सर्वव्यापक हैं और उन्हें अग्नि, सूर्य, जल तथा अन्य तत्त्वों में, घर में आए अतिथि के हृदय में तथा अपने ही हृदय में उपस्थित जानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार पूजक को तुरन्त ही मोक्ष प्राप्त हो जायेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दो – नौ योगेन्द्रों से महाराज निमि की भेंट (11.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, भगवान कृष्ण की पूजा में संलग्न रहने के लिए उत्सुक नारद मुनि कुछ काल तक द्वारका में रहे, जिसकी रक्षा गोविन्द सदैव अपनी बाहुओं से करते थे।

2 हे राजन, इस भौतिक जगत में बद्धजीवों को जीवन के पग-पग पर मृत्यु का सामना करना पड़ता है। इसलिए बद्धजीवों में ऐसा कौन होगा, जो बड़े से बड़े पुरुष के लिए भी पूज्य भगवान मुकुन्द के चरणकमलों की सेवा नहीं करेगा।

3 एक दिन देवर्षि नारद वसुदेव के घर आये। उनकी उपयुक्त सामग्री से पूजा करके, सुखपूर्वक बिठाने तथा सादर प्रणाम करने के बाद वसुदेव इस प्रकार बोले।

4 श्री वसुदेव ने कहा: हे प्रभु, जिस तरह पिता का आगमन उसके बच्चों के लिए लाभप्रद होता है, उसी तरह आपका आगमन सारे जीवों के लाभ के लिए है। आप उनमें से जो अत्यन्त दुखियारे हैं तथा साथ ही साथ वे जो उत्तमश्लोक भगवान के पथ पर अग्रसर हैं, उनकी विशेष रूप से सहायता करते हैं।

5 देवताओं के कार्यकलापों से जीवों को दुख तथा सुख दोनों प्राप्त होते हैं, किन्तु अच्युत भगवान को अपनी आत्मा मानने वाले, आप जैसे महान सन्तों के कार्यों से समस्त प्राणियों को केवल सुख ही प्राप्त होता है।

6 जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे भेंट (उपहार) के अनुसार देवताओं से वैसा ही फल पाते हैं। देवतागण कर्म के उसी तरह अनुचर हैं, जिस तरह मनुष्य की छाया मनुष्य की अनुचर है, किन्तु साधुगण सचमुच ही पतितों पर दयालु होते हैं।

7 हे ब्राह्मण, यद्यपि मैं आपके दर्शन मात्र से संतुष्ट हूँ, तो भी आपसे मैं उन कर्तव्यों के विषय में पूछना चाहता हूँ, जो भगवान को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं। जो भी मर्त्य प्राणी इनके विषय में श्रद्धापूर्वक श्रवण करता है, वह समस्त प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है।

8 इस पृथ्वी पर मैंने अपने पूर्वजन्म में मुक्तिप्रदाता भगवान अनन्त की पूजा की, किन्तु मैं सन्तान का इच्छुक था, अतएव मैंने उनकी पूजा मुक्ति के लिए नहीं की थी। इस तरह मैं भगवान की माया से मोहग्रस्त था।

9 हे प्रभु, आप सदैव अपने व्रत पर खरे उतरते हैं। कृपया मुझे स्पष्ट आदेश दें, जिससे आपकी दया से मैं अपने को इस संसार से आसानी से मुक्त कर सकूँ, जो अनेक संकटों से पूर्ण है और हमें सदैव भय से बाँधे रहता है।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, देवर्षि नारद अत्यन्त बुद्धिमान वसुदेव के प्रश्नों से अतीव प्रसन्न हुए। चूँकि वे प्रश्न भगवान के दिव्य गुणों का स्मरण कराने वाले थे, अतएव उन्हें कृष्ण का स्मरण हो आया। अतः नारद ने वसुदेव को इस प्रकार उत्तर दिया।

11 श्री नारद ने कहा: हे सात्वत-श्रेष्ठ, तुमने ठीक ही भगवान के प्रति जीव के शाश्वत कर्तव्य के विषय में मुझसे पूछा है। भगवान के प्रति ऐसी भक्ति इतनी शक्तिशाली होती है कि इसके करने से सारा विश्व पवित्र हो सकता है।

12 भगवान के प्रति की गई शुद्ध भक्ति आध्यात्मिक रूप से इतनी प्रबल होती है कि ऐसी दिव्य सेवा के विषय में मात्र सुनने, सुनकर इसकी महिमा का गायन करने, इसका ध्यान करने, आदरपूर्वक तथा श्रद्धापूर्वक इसे स्वीकार करने या अन्यों की भक्ति की प्रशंसा करने से, वे मनुष्य भी तुरन्त शुद्ध हो जाते हैं, जो देवताओं से तथा अन्य सारे जीवों से घृणा करते हैं।

13 आपने आज मुझे अपने प्रभु, परम आनन्दमय भगवान नारायण का स्मरण करा दिया। परमेश्वर इतने कल्याणमय हैं कि जो कोई भी उनका श्रवण एवं कीर्तन करता है, वह पूरी तरह से पवित्र बन जाता है।

14 भगवान की भक्तिमय सेवा की व्याख्या करने के लिए मुनियों ने महात्मा राजा विदेह तथा ऋषभ-पुत्रों के मध्य हुई वार्ता का प्राचीन इतिहास सुनाया है।

15 स्वायम्भुव मनु को महाराज प्रियव्रत नामक पुत्र हुआ और प्रियव्रत के पुत्रों में से आग्निध्र था जिससे नाभि उत्पन्न हुआ। नाभि का पुत्र ऋषभदेव कहलाया।

16 श्री ऋषभदेव को भगवान वासुदेव का अंश माना जाता है। उन्होंने इस जगत में उन धार्मिक सिद्धान्तों का प्रसार करने के लिए अवतार लिया था, जिनसे जीवों को चरम मोक्ष प्राप्त होता है। उनके एक सौ पुत्र थे, वे सभी वैदिक ज्ञान में पारंगत थे।

17 भगवान ऋषभदेव के एक सौ पुत्रों में से सबसे ज्येष्ठ भरत थे, जो भगवान नारायण के प्रति पूर्णतया समर्पित थे। भरत की ख्याति के कारण ही यह लोक अब महान भारतवर्ष के नाम से विख्यात है।

18 राजा भरत ने सारे भौतिक आनन्द को क्षणिक तथा व्यर्थ मानते हुए इस जगत का परित्याग कर दिया। अपनी सुन्दर युवा पत्नी तथा परिवार को छोड़कर उन्होंने कठोर तपस्या द्वारा भगवान की पूजा की और तीन जन्मों के बाद भगवदधाम प्राप्त किया।

19 ऋषभदेव के शेष पुत्रों में से नौ द्वीपों के शासक बने और उन्होंने इस लोक पर पूर्ण आधिपत्य जमाया। शेष इक्यासी पुत्र द्विज ब्राह्मण बन गये और उन्होंने सकाम यज्ञों (कर्मकाण्ड) के वैदिक मार्ग का शुभारम्भ करने में सहायता की।

20-21 ऋषभदेव के शेष नौ पुत्र अत्यन्त भाग्यशाली मुनि थे, जिन्होंने परम सत्य के ज्ञान का विस्तार करने के लिए घोर परिश्रम किया। वे निर्वस्त्र रहकर इधर-उधर विचरण करते थे और आध्यात्मिक विज्ञान में अतीव दक्ष थे। इनके नाम थे--कवि, हविर, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस तथा करभाजन ।

22 ये मुनि, समस्त ब्रह्माण्ड को इसके सारे स्थूल तथा सूक्ष्म पदार्थों सहित, भगवान के प्राकट्य के रूप में तथा आत्मा से अभिन्न देखते हुए पृथ्वी पर विचरण करते थे।

23 नवों योगेन्द्र मुक्तात्माएँ हैं, जो देवताओं, सिद्धों, साध्यों, गन्धर्वों, यक्षों, मानवों तथा किन्नरों एवं सर्पों के लोकों में मुक्त भाव से विचरण करते हैं। उनके मुक्त विचरण को कोई संसारी शक्ति रोक नहीं सकती और वे अपनी इच्छानुसार मुनियों, देवदूतों, शिवजी के भूत-प्रेत अनुयायियों, विद्याधरों, ब्राह्मणों तथा गौवों के लोकों में विचरण कर सकते हैं।

24 एक बार वे अजनाभ में (पृथ्वी का पूर्ववर्ती नाम) महाराजा निमि के यज्ञ में पहुँचे, जो महर्षियों की देखरेख में सम्पन्न किया जा रहा था।

25 हे राजन, तेज में सूर्य के समान उन भगवदभक्तों को देखकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोग –यज्ञ सम्पन्न करनेवाले, ब्राह्मण तथा यज्ञ की अग्नियाँ भी उनके सम्मान में उठकर खड़े हो गये।

26 राजा विदेह (निमि) पहचान गये कि नवों मुनि भगवान के परम भक्त हैं। राजा निमि ने उनके शुभ आगमन से अत्याधिक प्रफुल्लित होकर उन्हें आसन प्रदान किया और जिस तरह कोई भगवान की पूजा करता है – उसी तरह उत्तम विधि से उनकी पूजा की।

27 दिव्य आनन्द से विभोर होकर राजा ने विनयपूर्वक अपना शीश झुकाया और तब नौ मुनियों से प्रश्न पूछना शुरू किया। ये नवों महात्मा अपने ही तेज से चमक रहे थे और इस प्रकार से ब्रह्मा के पुत्रों अर्थात चार कुमारों के समान प्रतीत हो रहे थे।

28 राजा विदेह ने कहा: मैं सोचता हूँ कि आप मधु असुर के शत्रु-रूप में प्रसिद्ध भगवान के निजी संगी हैं। दरअसल, भगवान विष्णु के शुद्ध भक्त ब्रह्माण्ड-भर में किसी स्वार्थवश नहीं, अपितु समस्त बद्धजीवों को पवित्र करने के निमित्त विचरण करते रहते हैं।

29 बद्धजीवों के लिए मनुष्य-शरीर प्राप्त कर पाना कठिन है और यह किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है। किन्तु मैं सोचता हूँ कि जिन्होंने मनुष्य-जीवन प्राप्त कर लिया है, उनमें से विरले ही उन शुद्ध भक्तों की संगति प्राप्त कर पाते हैं, जो वैकुण्ठ के स्वामी को अत्यन्त प्रिय हैं।

30 अतएव हे अनघों, मैं आपसे पूछता हूँ कि कृपा करके मुझे यह बतायें कि परम कल्याण क्या है? इस जन्म-मृत्यु के जगत में शुद्ध भक्तों के साथ आधे क्षण की भी संगति किसी मनुष्य के लिए अमूल्य निधि है।

31 यदि आप यह समझें कि मैं इन कथाओं को ठीक तरह से सुनने में समर्थ हूँ, तो कृपा करके बतायें कि भगवान की भक्ति में किस तरह प्रवृत्त हुआ जाता है? जब कोई जीव भगवान को अपनी सेवा अर्पित करता है, तो भगवान तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं और बदले में शरणागत व्यक्ति को अपने आपको भी दे डालते हैं।

32 श्री नारद ने कहा: हे वसुदेव, जब महाराज निमि नव-योगेन्द्रों से भगवदभक्ति के विषय में पूछ चुके, तो उन साधु-श्रेष्ठों ने राजा को उसके प्रश्नों के लिए धन्यवाद दिया और यज्ञ सभा के सदस्यों तथा ब्राह्मण पुरोहितों की उपस्थिति में उससे स्नेहपूर्वक कहा।

33 श्री कवि ने कहा: मैं मानता हूँ कि जिसकी बुद्धि भौतिक क्षणभंगुर जगत को ही मिथ्यापूर्वक आत्मस्वरूप मानने से निरन्तर विचलित रहती है, वह अच्युत भगवान के चरणकमलों की पूजा द्वारा ही अपने भय से मुक्ति पा सकता है। ऐसी भक्ति से सारा भय दूर हो जाता है।

34 अज्ञानी जीव भी परमेश्वर को सरलता से जान पाते हैं, यदि वे उन साधनों को अपनाएँ, जिन्हें भगवान ने स्वयं निर्दिष्ट किया है। भगवान ने जो विधि संस्तुत की है, वह भागवतधर्म अथवा भगवान की भक्ति है।

35 हे राजन, जो व्यक्ति भगवान के प्रति इस भक्तियोग को स्वीकार कर लेता है, वह इस संसार में अपने मार्ग पर कभी कोई बड़ी भूल नहीं करेगा। यदि वह अपनी आँखें बन्द करके दौड़ लगा ले, तो भी वह न तो लड़खड़ाएगा न पतित होगा।

36 बद्ध जीवन में अर्जित विशेष स्वभाव के अनुसार मनुष्य अपने शरीर, वचन, मन, इन्द्रिय, बुद्धि या शुद्ध चेतना से, जो कुछ करता है उसे यह सोचते हुए परमात्मा को अर्पित करना चाहिए कि यह भगवान नारायण की प्रसन्नता के लिए है।

37 जब जीव भगवान की बहिरंगा माया शक्ति में लीन होने के कारण भौतिक शरीर के रूप में अपनी पहचान करता है, तब भय उत्पन्न होता है। इस प्रकार जीव जब भगवान से मुख मोड़ लेता है, तो वह भगवान के दास रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को भूल जाता है। यह मोहने वाली भयपूर्ण दशा माया द्वारा प्रभावित होती है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान की अनन्य भक्ति में लगना चाहिए और गुरु को ही अपना आराध्यदेव तथा अपना प्राणधन स्वीकार करना चाहिए।

38 यद्यपि भौतिक जगत का द्वैत अन्ततः विद्यमान नहीं रहता, किन्तु बद्धजीव अपनी बद्ध-बुद्धि के प्रभाववश इसे असली अनुभव करता है। कृष्ण से पृथक जगत के काल्पनिक अनुभव की तुलना स्वप्न देखने तथा इच्छा करने से की जा सकती है। जब बद्धजीव रात में इच्छित या भयावनी वस्तु का सपना देखता है अथवा जब वह जो कुछ चाहता है या जिससे दूर रहना चाहता है उनका दिवास्वप्न देखता है, तो वह ऐसी वास्तविकता को जन्म देता है, जिसका अस्तित्व उसकी कल्पना से परे नहीं होता। मन की प्रवृत्ति इन्द्रियतृप्ति पर आधारित विविध कार्यों को स्वीकार करने तथा उन्हें बहिष्कृत करने की होती है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को मन पर नियंत्रण रखना चाहिए और वस्तुओं को कृष्ण से पृथक देखने के भ्रम से इसे अलग रखना चाहिए। जब मन इस तरह वश में हो जायेगा, तो उसे वास्तविक निर्भीकता का अनुभव होगा ।

39 जिस बुद्धिमान व्यक्ति ने अपने मन को वश में कर लिया है और भय पर विजय प्राप्त कर ली है, उसे पत्नी, परिवार, राष्ट्र जैसे भौतिक वस्तुओं के प्रति सारी आसक्ति को त्याग देना चाहिए और निर्द्वन्द्व होकर चक्रपाणि भगवान के पवित्र नामों का श्रवण और कीर्तन करते हुए मुक्त भाव से विचरण करना चाहिए। कृष्ण के पवित्र नाम सर्वमंगलकारी हैं, क्योंकि वे उनके दिव्य जन्म तथा बद्धजीवों के मोक्ष के लिए इस जगत में किये जाने वाले उनके कार्यों का वर्णन करने वाले हैं। इस तरह भगवान के पवित्र नामों का विश्वभर में गायन होता है।

40 भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करने से मनुष्य भगवतप्रेम की अवस्था को प्राप्त करता है। तब भक्त भगवान के नित्य दास रूप में स्थित हो जाता है और क्रमशः भगवान के किसी एक नाम तथा रूप के प्रति अत्यधिक अनुरक्त हो उठता है। जब उसका हृदय भावमय प्रेम से द्रवित होता है, तो वह जोर-जोर से हँसता या रोता है अथवा चिल्लाता है। कभी कभी वह उन्मत्त की तरह गाता और नाचता है, क्योंकि वह जन-मत के प्रति उदासीन रहता है।

41 भक्त को चाहिए कि किसी भी वस्तु को भगवान कृष्ण से पृथक नहीं देखे। शून्य, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, सूर्य तथा अन्य नक्षत्र, सारे जीव, दिशाएँ, वृक्ष तथा अन्य पौधे, नदियाँ तथा समुद्र इनमें से भक्त को जिस किसी का भी अनुभव हो, उसे वह कृष्ण का अंश माने। इस प्रकार सृष्टि के भीतर विद्यमान हर वस्तु को भगवान हरि के शरीर के रूप में देखते हुए भक्त को चाहिए कि भगवान के शरीर के सम्पूर्ण विस्तार के प्रति नमस्कार करे।

42 जिस व्यक्ति ने भगवान की शरण ग्रहण कर ली है – उसके लिए भक्ति, भगवान का प्रत्यक्ष अनुभव तथा अन्य वस्तुओं से विरक्ति – ये तीनों एक साथ वैसे ही घटित होते हैं, जिस तरह भोजन करने वाले व्यक्ति के लिए प्रत्येक कौर में आनन्द, पोषण तथा भूख से छुटकारा – ये सभी एकसाथ होते जाते हैं।

43 हे राजन, जो भक्त अच्युत भगवान के चरणकमलों की पूजा सतत प्रयत्नशील रहकर करता है, वह अचल भक्ति, विरक्ति तथा भगवान का अनुभवगम्य ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार सफल भगवदभक्त को परम आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त होती है।

44 महाराज निमि ने कहा: अब कृपया मुझे भगवद भक्तों के विषय में विस्तार से बतायें। वे कौन से सहज लक्षण हैं, जिनके द्वारा मैं अत्यन्त बढ़े-चढ़े, मध्यम स्तर के तथा नवदीक्षित भक्तों में अन्तर कर सकूँ? वैष्णव के लाक्षणिक धार्मिक कर्तव्य क्या हैं और वह कैसे बोलता है? आप विशेष रूप से उन लक्षणों तथा गुणों का वर्णन करें, जिनसे वैष्णवजन भगवान के प्रिय बनते हैं।

45 श्री हविर ने कहा: सर्वाधिक उत्कृष्ट भक्त हर वस्तु के भीतर समस्त आत्माओं के आत्मा भगवान कृष्ण को देखता है। फलस्वरूप वह हर वस्तु को भगवान से सम्बन्धित देखता है और यह समझता है कि प्रत्येक विद्यमान वस्तु भगवान के भीतर नित्य स्थित है।

46 द्वितीय कोटी का भक्त, जो मध्यम अधिकारी कहलाता है, भगवान को अपना प्रेम अर्पित करता है, वह भगवान के समस्त भक्तों का निष्ठावान मित्र होता है, वह अज्ञानी व्यक्तियों पर दया करता है जो अबोध है और उनकी उपेक्षा करता है, जो भगवान से द्वेष रखते हैं।

47 जो भक्त मन्दिर में अर्चाविग्रह की श्रद्धापूर्वक पूजा में लगा रहता है, किन्तु अन्य भक्तों के प्रति या सामान्य जनता के प्रति उचित रीति का आचरण नहीं करता, वह प्राकृत भक्त अर्थात भौतिकतावादी भक्त कहलाता है और निम्नतम पद पर स्थित माना जाता है।

48 इन्द्रिय-विषयों में लगे रहकर भी, जो इस सम्पूर्ण जगत को भगवान विष्णु की शक्ति के रूप में देखता है, वह न तो विकर्षित होता है, न हर्षित। वह निस्सन्देह, भक्तों में सबसे महान होता है।

49 इस भौतिक जगत में मनुष्य का भौतिक शरीर सदैव जन्म तथा मृत्यु के अधीन रहता है। इसी तरह प्राण को भूख तथा प्यास सताते है, मन सदैव चिन्तित रहता है, बुद्धि उसके लिए लालायित रहती है, जिसे प्राप्त नहीं किया जा सकता और ये सारी इन्द्रियाँ भौतिक प्रकृति से निरन्तर संघर्ष करते रहने से अन्ततः थक जाती हैं। जो व्यक्ति भौतिक जगत के अपरिहार्य दुखों से मोहग्रस्त नहीं होता और भगवान के चरणकमलों के स्मरण मात्र से उन सबसे अलग रहता है, उसे ही भागवत-प्रधान अर्थात भगवान का अग्रणी भक्त कहा जाता है।

50 जिसने एकमात्र भगवान वासुदेव की शरण ले रखी है, वह उन सकाम कर्मों से मुक्त हो जाता है, जो भौतिक काम-वासना पर आधारित है। वस्तुतः जिसने भगवान के चरणकमलों की शरण ले रखी है, वह भौतिक इन्द्रियतृप्ति को भोगने की इच्छा से भी मुक्त हो जाता है। उसके मन में यौन-जीवन, सामाजिक प्रतिष्ठा और धन का भोग करने की योजनाएँ उत्पन्न नहीं हो सकतीं। इस प्रकार वह भागवतोत्तम अर्थात सर्वोच्च पद को प्राप्त भगवान का शुद्ध भक्त माना जाता है।

51 उच्च कुल में जन्म, तपोमय एवं पुण्यकर्मों का निष्पादन निश्चय ही किसी को अपने ऊपर गर्व जताने वाले हैं। इसी तरह, यदि समाज में किसी को प्रतिष्ठा मिलती है, क्योंकि उसके माता-पिता वर्णाश्रम की सामाजिक प्रणाली में अत्यधिक आदरित हैं, तो वह और भी ज्यादा गर्वित हो जाता है। किन्तु यदि इतने उत्तम भौतिक गुणों के उपरान्त भी कोई व्यक्ति अपने भीतर तनिक भी गर्व का अनुभव नहीं करता, तो उसे भगवान का सर्वाधिक प्रिय सेवक माना जाना चाहिए।

52 जब भक्त उस स्वार्थमयी धारणा को त्याग देता है, जिससे मनुष्य सोचता है कि "यह मेरी सम्पत्ति है और वह पराई है" तथा जब वह अपने ही भौतिक शरीर से सम्बद्ध आनन्द अथवा अन्यों की असुविधाओं के प्रति उदासीनता से कोई वास्ता नहीं रखता, तो वह पूरी तरह शान्त तथा तुष्ट हो जाता है। वह अपने आपको उन जीवों में से एक मानता है, जो समान रूप से भगवान के भिन्नांश हैं। ऐसा तुष्ट वैष्णव भक्ति के सर्वोच्च आदर्श पर स्थित माना जाता है।

53 भगवान के चरणकमलों की खोज ब्रह्मा तथा शिव जैसे बड़े बड़े देवताओं द्वारा भी की जाती है, जिन्होंने भगवान को अपना प्राण तथा आत्मा स्वीकार कर रखा है। भगवान का शुद्ध भक्त उन चरणकमलों को किसी भी अवस्था में नहीं भूलता। वह भगवान के चरणकमलों की शरण एक क्षण के लिए भी नहीं – आधे क्षण के लिए भी नहीं – छोड़ पाता भले ही बदले में उसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का शासन तथा ऐश्वर्य – भोग का वर क्यों न मिले। भगवान के ऐसे भक्त को वैष्णवों में सर्वश्रेष्ठ मानना चाहिए।

54 जो लोग भगवान की पूजा करते हैं, उनके हृदयों को भौतिक कष्ट रूपी आग भला किस तरह जलाती रह सकती है? भगवान के चरणकमलों ने अनेक वीरतापूर्ण कार्य किये हैं और उनके पाँव की अंगुलियों के नाखून मूल्यवान मणियों सदृश लगते हैं। इन नाखूनों से निकलने वाला तेज चन्द्रमा की शीतल चाँदनी सदृश है, क्योंकि वह शुद्ध भक्त के हृदय के भीतर के कष्ट को उसी तरह दूर करता है, जिस तरह चन्द्रमा की शीतल चाँदनी सूर्य के प्रखर ताप से छुटकारा दिलाती है।

55 भगवान बद्धजीवों के प्रति इतने दयालु हैं कि यदि वे जीव अनजाने में भी उनका नाम लेकर पुकारते हैं, तो भगवान उनके हृदयों में असंख्य पापों को नष्ट करने के लिए उद्यत रहते हैं। इसलिए जब उनके चरणों की शरण में आया हुआ भक्त प्रेमपूर्वक कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करता है, तो भगवान ऐसे भक्त के हृदय को कभी भी नहीं छोड़ पाते। इस तरह जिसने भगवान को अपने हृदय के भीतर बाँध रखा है, वह भागवत-प्रधान अर्थात अत्यधिक उच्चस्थ भक्त कहलाता है। 

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय एक – यदुवंश को शाप (11.1)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम से मिलकर तथा यदुवंशियों से घिरे रहकर अनेक असुरों का वध किया। तत्पश्चात, पृथ्वी का भार हटाने के लिए भगवान ने कुरुक्षेत्र के उस महान युद्ध की योजना की, जो कुरुओं तथा पाण्डवों के बीच हुआ।

2 चूँकि पाण्डुपुत्र अपने शत्रुओं के अनेकानेक अपराधों से यथा – कपटपूर्ण जुआ खेलने, वचनों द्वारा अपमान, द्रौपदी के केशकर्षण तथा अनेक क्रूर अत्याचारों से क्रुद्ध थे, इसलिए परमेश्वर ने उन पाण्डवों को अपनी इच्छा पूरी करने के लिए कारण-रूप में उपयोग किया। भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र युद्ध के बहाने पृथ्वी पर भार बन रहे सारे राजाओं को अपनी-अपनी सेनाओं समेत युद्धभूमि में दोनों पक्षों की ओर से एकत्र कराने की व्यवस्था की। भगवान ने उन्हें युद्ध के माध्यम से सदैव के लिए हटाकर, बहुत हद तक पृथ्वी के भार को दूर किया।

3 भगवान ने अपने बाहुओं द्वारा संरक्षित यदुवंश का प्रयोग उन राजाओं का सफाया करने के लिए किया, जो अपनी सेनाओं सहित इस पृथ्वी के लिए भार बने हुए थे। तत्पश्चात भगवान ने विचार किया, “भले ही कोई यह कहे कि अब पृथ्वी का भार समाप्त हो गया है, किन्तु यह अभी समाप्त नहीं हुआ है, क्योंकि अब भी यादववंश बचा हुआ है, जिसकी शक्ति पृथ्वी के लिए असहनीय है।"

4 भगवान कृष्ण ने सोचा: इस यदुवंश के सदस्य सदैव पूरी तरह से मेरे शरणागत रहे हैं और इनका ऐश्वर्य असीम है, अतः कोई भी बाहरी ताकत इस वंश को पराजित नहीं कर पाई। किन्तु यदि मैं इस वंश के भीतर कलह को प्रोत्साहित करूँ, तो वह कलह बाँस के कुंज में घर्षण से उत्पन्न अग्नि की तरह कार्य करेगा। तब मैं असली मन्तव्य प्राप्त करके अपने नित्य धाम लौट सकूँ गा।"

5 हे राजा परीक्षित, जब परम शक्तिशाली भगवान ने, जिनकी इच्छा सदैव पूरी होकर रहती है, इस प्रकार अपने मन में निश्चय कर लिया, तो उन्होंने ब्राह्मणों की सभा द्वारा दिये गये शाप के बहाने अपने परिवार को समेट लिया।

6-7 भगवान कृष्ण समस्त सौन्दर्य के आगार हैं। सारी सुन्दर वस्तुएँ उन्हीं से उत्पन्न हैं और उनका स्वरूप इतना आकर्षक है कि वह अन्य सारी वस्तुओं से आँखों को हटा देता है, जो उनकी तुलना में सौन्दर्यविहीन प्रतीत होती हैं। जब भगवान कृष्ण इस पृथ्वी पर थे, तो वे सबों के नेत्रों को आकर्षित कर लेते थे। जब कृष्ण बोलते थे, तो उनके शब्द उन सबके मन को आकृष्ट कर लेते थे, जो उनका स्मरण करते थे। लोग कृष्ण की चरणचापों को देखकर आकृष्ट हो जाते थे और अपने शारीरिक कार्यों को वे उनके अनुयायी बनकर उन्हें ही अर्पित करने की इच्छा करने लगते थे। इस तरह कृष्ण ने आसानी से अपनी कीर्ति का विस्तार कर लिया था, जिसका गायन अत्यन्त वदान्य एवं अनिवार्य वैदिक श्लोकों के रूप में विश्वभर में किया जाता है। भगवान कृष्ण मानते थे कि इस कीर्ति का श्रवण तथा कीर्तन करने से ही भविष्य में जन्म लेनेवाले बद्धजीव अज्ञान के अंधकार को पार कर सकेंगे। इस व्यवस्था से तुष्ट होकर वे अपने इच्छित गन्तव्य के लिए विदा हो गये।

8 राजा परीक्षित ने पूछा: ब्राह्मणों ने उन वृष्णियों को कैसे शाप दिया, जो ब्राह्मणों के प्रति सदैव आदरभाव रखते थे, दानी थे, वृद्ध पुरुषों की सेवा करते थे और जिनके मन सदैव कृष्ण के विचारों में पूरी तरह लीन रहते थे?

9 राजा परीक्षित पूछते रहे: इस शाप का क्या उद्देश्य था? हे द्विजश्रेष्ठ, यह किस तरह का था? और यदुओं में, जो एक ही जीवनलक्ष्य भागी थे, ऐसा मतभेद क्यों उत्पन्न हुआ? कृपया, मुझे ये सारी बातें बतायें।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: समस्त सुन्दर वस्तुओं के सम्मिश्रणरूप अपने शरीर को धारण करनेवाले भगवान ने पृथ्वी पर रहते हुए अत्यन्त शुभ कार्यों को कर्तव्यपरायणता के साथ सम्पन्न किया, यद्यपि वे बिना किसी प्रयास के अपनी सारी इच्छाएँ पहले ही पूरी कर चुके थे। अपने धाम में रहते हुए तथा जीवन का आनन्द उठाते हुए अब भगवान ने, जिनका महिमा-गायन स्वयं उदार है, अपने वंश का संहार करना चाहा, क्योंकि अब भी उन्हें कुछ थोड़ा-सा कर्म करना शेष था।

11-12 एक बार विश्वामित्र, असित, कन्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्री तथा वसिष्ठ मुनियों ने नारद तथा अन्यों के साथ मिलकर प्रचुर पुण्य प्रदान करनेवाला, परम सुख लाने वाला तथा मात्र उच्चारण करने से, जगत के कलियुग के समस्त पापों को दूर करने वाला एक सकाम अनुष्ठान किया। इन मुनियों ने इस अनुष्ठान को कृष्ण के पिता एवं यदुओं के अग्रणी वसुदेव के घर में सम्पन्न किया। जब उस समय वसुदेव के घर में कालरूप में निवास कर रहे कृष्ण, उत्सव की समाप्ति होने पर मुनियों को आदरपूर्वक विदा कर चुके, तो वे मुनि पिण्डारक नामक पवित्र तीर्थस्थान चले गये।

13-15 उस तीर्थस्थान में यदुवंश के तरुण बालक जाम्बवती के पुत्र, साम्ब को स्त्री के वेश में ले आये थे। उन बालकों ने खिलवाड़ करते हुए वहाँ पर एकत्र महामुनियों के पास पहुँचकर उनके चरण पकड़ लिए और बनावटी विनयशीलता से उद्दण्डतापूर्वक उनसे पूछा, “हे विद्वान ब्राह्मणों यह श्याम नेत्रों वाली गर्भिणी स्त्री आप लोगों से कुछ पूछना चाहती है। वह अपने विषय में पूछने में अत्यधिक लजा रही है। वह शीघ्र ही बच्चे को जन्म देने वाली है और पुत्र प्राप्त करने के लिए अत्यन्त इच्छुक है। चूँकि आप सभी अच्युत दृष्टि वाले महामुनि हैं, अतः कृपा करके हमें बतायें कि इसकी सन्तान बालिका होगी या बालक।"

16 हे राजन, धोखे से इस तरह उपहास का पात्र बनाये गये मुनि क्रुद्ध हो गये और उन्होंने बालकों से कहा, “मूर्खों! वह तुम्हारे लिए लोहे का एक मूसल जनेगी, जो तुम्हारे समस्त कुल का विनाश करेगा।"

17 मुनियों का शाप सुनकर भयभीत बालकों ने झटपट साम्ब के पेट के कपड़े हटवाये और उन्होंने देखा कि उसके भीतर एक लोहे का मूसल था।

18 यदुवंश के तरुण लोगों ने कहा: ओह! यह हमने क्या कर डाला? हम कितने अभागे हैं! हमारे परिवार वाले हमसे क्या कहेंगे? ऐसा कहते हुए तथा अतीव विक्षुब्ध होकर, वे अपने साथ उस मूसल को लेकर अपने घरों को लौट गये।

19 वे यदु-बालक, जिनके मुख की कान्ति पूरी तरह फीकी पड़ चुकी थी, उस मूसल को राजसभा में ले आये और समस्त यादवों की उपस्थिति में उन्होंने राजा उग्रसेन से, जो कुछ घटना घटी थी, कह सुनाई।

20 हे राजा परीक्षित, जब द्वारका-वासियों ने ब्राह्मणों के अमोघ शाप को सुना और मूसल को देखा, तो वे भय से विस्मित तथा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये।

21 मूसल को चूरे-चूरे में तुड़वा कर यदुओं के राजा आहुक (उग्रसेन) ने स्वयं उन खण्डों को तथा शेष बचे लोहे के टुकड़े को समुद्र के जल में फेंक दिया।

22 किसी मछली ने वह लोहे का टुकड़ा निगल लिया और लोहे के शेष खण्ड लहरों द्वारा किनारे पर लग गये, जहाँ पर वे ऊँचे तीक्ष्ण नरकटों के रूप में उग आये।

23 यह मछली अन्य मछलियों के साथ समुद्र में मछुवारे के जाल में पकड़ ली गई। इस मछली के पेट में स्थित लोहे के टुकड़े को जरा नामक शिकारी ले गया, जिसने उसे अपने तीर की नोक में लगा लिया।

24 इन सारी घटनाओं की महत्ता को पूर्णतया जानते हुए ब्राह्मणों के शाप को पलट सकने में समर्थ होते हुए भी भगवान ने ऐसा करना नहीं चाहा। प्रत्युत, काल के रूप में उन्होंने खुशी-खुशी इन घटनाओं की स्वीकृति दे दी।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय नब्बे – भगवान कृष्ण की महिमाओं का सारांश (10.90)

1-7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: लक्ष्मीपति भगवान सुखपूर्वक अपनी राजधानी द्वारका पुरी में रहने लगे, जो समस्त ऐश्वर्यों से युक्त थी और गणमान्य वृष्णियों तथा आलंकारिक वेषभूषा से सजी उनकी पत्नियों से आपूरित थी। नगर के प्रमुख मार्गों में मद चुवाते उन्मत्त हाथियों और सजे-धजे घुड़सवारों, पैदल सैनिकों तथा सोने से सुसज्जित चमचमाते रथों पर सवार सिपाहियों की भीड़ लगी रहती। शहर में पुष्पित वृक्षों की पंक्तियों वाले अनेक उद्यान तथा वाटिकाएँ थी, जहाँ भौंरे गुनगुनाते और विभिन प्रकार के पक्षी कलरव करते। भगवान कृष्ण अपनी सोलह हजार पत्नियों के एकमात्र प्रियतम थे। इतने ही रूपों में अपना विस्तार करके, उन्होंने प्रत्येक रानी के साथ उनके सुसज्जित आवासों में रमण किया। इन महलों के प्रांगण में निर्मल तालाब थे, जो खिले हुए उत्पल, कल्हार, कुमुद तथा अम्भोज कमलों के पराग-कणों से सुगन्धित थे और कूजते हुए पक्षियों के झुण्डों से भरे थे। सर्वशक्तिमान प्रभु इन तालाबों में तथा विविध नदियों में प्रवेश कर जल-क्रीड़ा का आनन्द प्राप्त करते।

8-9 जब गन्धर्वों ने हर्षपूर्वक मृदंग, पणव तथा आनक नामक ढोलों के साथ उनकी प्रशंसा में गीत गाये एवं सूतों, मागधों तथा वन्दियों ने वीणा बजाकर उनकी प्रशंसा में कविताएँ सुनाईं, तो भगवान कृष्ण अपनी पत्नियों के साथ जल-क्रीड़ा करने लगे। रानियाँ ठिठोली करती हुई, उन पर पिचकारियों से पानी के फुहारे छोड़ती और वे भी प्रत्युत्तर में उन पर पानी छिड़क देते। इस प्रकार से कृष्ण ने अपनी रानियों के साथ उसी तरह क्रीड़ा की, जिस तरह यक्षराज 'यक्षी अप्सराओं' के साथ क्रीड़ा करता है।

10-13 अपने प्रियतम पर जल छिड़कने से उनके विशाल जुड़ों से बँधे फूल बिखर गये। वे उनकी पिचकारी छीनने के बहाने, उनका आलिंगन कर लेती थीं। उनका स्पर्श करने से उनके मुखमण्डल हँसी से चमचमाने लगते, इस तरह कृष्ण की रानियाँ देदीप्यमान सौंदर्य से चमचमा रही थीं। तत्पश्चात, भगवान कृष्ण तथा उनकी पत्नियों ने जलक्रीड़ा के दौरान अपने पहने हुए गहने तथा वस्त्र, उन नटों तथा नर्तकियों को दे दिये जो गाना गाकर तथा वाद्य बजाकर, अपनी जीविका कमाते थे। इस तरह भगवान कृष्ण अपनी रानियों से क्रीड़ा करके और अपने हावभावों, बातों, चितवनों, हँसी, परिहास, छेड़छाड़ तथा आलिंगन द्वारा उनके हृदयों को पूरी तरह मुग्ध कर देते।

14 रानियाँ भावमय आत्मविस्मृति में जड़ बन जातीं और उनके मन एकमात्र कृष्ण में लीन हो जाते। तब, वे अपने कमलनेत्र प्रभु के विषय में सोचती हुई इस तरह बोलतीं मानों पागल (उन्मादग्रस्त) हों। कृपया ये शब्द मुझसे सुनें, जैसे जैसे मैं उन्हें बता रहा हूँ।

15 रानियों ने कहा: हे कुररी पक्षी, तुम विलाप कर रही हो। अब तो रात्रि है और भगवान इस जगत में कहीं गुप्त स्थान में सोये हुए हैं। किन्तु हे सखी, तुम जागी हुई हो और सोने में असमर्थ हो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी ही तरह कमलनेत्र भगवान की उदार कौतुक-भरी हँसीली चितवन से तुम्हारा हृदय अन्दर तक बिध गया हो ?

16 हे बेचारी चक्रवाकी, तुम अपनी आँखें मूँदकर भी अपने अदृष्ट साथी के लिए रातभर करुणापूर्वक बहकती रहती हो। अथवा कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी ही तरह तुम भी अच्युत की दासी बन चुकी हो और अपने जूड़े में उस माला को लगाना चाहती हो, जिसे वे अपने पाद स्पर्श से धन्य कर चुके हैं?

17 हे प्रिय समुद्र, तुम सदैव गरजते रहते हो, रात में सोते नहीं। क्या तुम्हें उन्निद्र रोग हो गया है? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुकुन्द ने हमारी ही तरह, तुमसे तुम्हारे चिन्ह छीन लिए हैं और तुम उन्हें फिर पाने में निराश हो।

18 हे प्रिय चन्द्रमा, घोर यक्ष्मा रोग (क्षयरोग) से ग्रसित होने से तुम इतने क्षीण हो गये हो कि तुम अपनी किरणों से अंधकार को भगाने में असफल हो। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम इसलिए अवाक प्रतीत हो रहे हो, क्योंकि हमारी ही तरह तुम भी मुकुन्द द्वारा दिये गये, उत्साहप्रद वादों को स्मरण नहीं कर सकते हो?

19 हे मलय समीर, ऐसा हमने क्या किया है कि तुम हमसे अप्रसन्न हो और हमारे उन हृदयों में प्रेमाकर्षण जागृत कर रहे हो, जो पहले ही गोविन्द की चितवनों से विदीर्ण हो चुके हैं?

20 हे पूज्य बादल, निस्सन्देह तुम यादवों के उन प्रधान के अत्यन्त प्रिय हो, जो श्रीवत्स का चिन्ह धारण किए हुए हैं। तुम भी हमारी ही तरह उनसे प्रेम द्वारा बद्ध हो और उनका ही चिन्तन करते हो। तुम्हारा हृदय हमारे हृदयों की ही तरह अत्यन्त उत्सुकता से किंकर्तव्यविमूढ़ है और जब तुम उनका बारम्बार स्मरण करते हो, तो आँसुओं की धारा बहाते हो। कृष्ण की संगति ऐसा ही दुख लाती है ।

21 रे मधुर कण्ठ वाली कोयल, तुम मृत को भी जीवित करनेवाली वह बोली बोल रही हो, जिसे हमने एक बार अत्यन्त मधुरभाषी अपने प्रेमी से सुनी थी। कृपा करके मुझे बताओ कि मैं तुम्हें प्रसन्न करने के लिए आज क्या कर सकती हूँ?

22 हे उदार पर्वत, तुम न तो हिलते-डुलते हो, न बोलते-चालते हो। तुम अवश्य ही किसी अत्यन्त महत्त्व वाली बात पर विचार कर रहे होगे। अथवा क्या तुम हमारी ही तरह अपने शिखिरों पर वसुदेव के लाड़ले के पाँवों को धारण करना चाहते हो?

23 हे समुद्र-पत्नी नदियों, अब तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। हाय! तुम एकदम दुबली हो गई हो और तुम्हारी कमलों की सम्पत्ति लुप्त हो गई है। तो क्या तुम हमारी तरह हो, जो इसलिए म्लान हो रही हैं, क्योंकि उन्हें हृदयों को ठगने वाले अपने प्रिय पति मधुपति की स्नेहिल चितवन नहीं मिल रही?

24 हे हंस, स्वागत है। कृपया यहाँ बैठो और थोड़ा दूध पियो। हमें अपने प्रिय शूरवंशी के कुछ समाचार बतलाओ। हम जानती हैं कि तुम उनके दूत हो। वे अजेय प्रभु कुशल से तो हैं? क्या हमारा वह अविश्वसनीय मित्र अब भी उन शब्दों का स्मरण करता है, जिन्हें उसने बहुत काल पूर्व कहा था? हम उसके पास क्यों जाँय और उसकी पूजा क्यों करें? हे क्षुद्र स्वामी के सेवक, जाकर उससे कहो कि वह लक्ष्मी के बिना यहाँ आकर हमारी इच्छाएँ पूरी करे। क्या वही एकमात्र स्त्री है, जो उसके प्रति विषेशरूप से अनुरक्त हो गया है?

25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: योग के समस्त ईश्वरों के ईश्वर भगवान कृष्ण के ऐसे भावमय प्रेम में बोलती तथा कार्य करती हुई, उनकी प्रिय पत्नियों ने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किया।

26 भगवान जिनका महिमागान असंख्य गीतों द्वारा असंख्य प्रकार से होता हैं, वे उन समस्त स्त्रियों के मन को बलपूर्वक आकर्षित करते हैं, जो उनके विषय में श्रवण मात्र करती हैं। तो फिर उन स्त्रियों के विषय में क्या कहा जाय, जो प्रत्यक्ष रूप से उनका दर्शन करती हैं?

27 उन स्त्रियों द्वारा, जिन्होंने शुद्ध प्रेमभाव से ब्रह्माण्ड के गुरु की सेवा की उनके द्वारा सम्पन्न महान तपस्या का भला कोई कैसे वर्णन कर सकता है? उन्हें अपना पति मानकर, उन्होंने उनके पाँव दबाने जैसी घनिष्ठ सेवाएँ कीं।

28 इस तरह वेदों द्वारा आदेशित कर्तव्यों का पालन करते हुए सन्त भक्तों के लक्ष्य भगवान कृष्ण ने बारम्बार प्रदर्शित किया कि कोई व्यक्ति घर पर किस तरह धर्म, आर्थिक विकास तथा नियमित इन्द्रिय तृप्ति के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।

29 धार्मिक गृहस्थ जीवन के सर्वोच्च आदर्शों को पूरा करते हुए, भगवान कृष्ण की 16100 से अधिक पत्नियाँ थीं। इन रत्न जैसी स्त्रियों में से रुक्मिणी इत्यादि आठ प्रमुख रानियाँ थीं।

30 हे राजन, मैं पहले ही इनके पुत्रों के साथ साथ इनका क्रमिक वर्णन कर चुका हूँ।

31 ऐसे भगवान कृष्ण ने, जिनका प्रयास कभी विफल नहीं होता, अपनी हर एक पत्नी से दस-दस पुत्र उत्पन्न किये।

32 इन असीम पराक्रम वाले पुत्रों में से अठारह महान ख्याति वाले महारथ थे। अब मुझसे उनके नाम सुनो।

33-34 इनके नाम थे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान, भानु, साम्ब, मधु, बृहदभानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि तथा न्यग्रोध।

35 हे राजाओं में श्रेष्ठ, मधु के शत्रु भगवान कृष्ण द्वारा उत्पन्न किये गये इन पुत्रों में से रुक्मिणी-पुत्र प्रद्युम्न सर्वप्रमुख था। वह अपने पिता के ही समान था।

36 महारथी प्रद्युम्न ने रुक्मी की पुत्री रुक्मवती से विवाह किया, जिसने अनिरुद्ध को जन्म दिया। वह दस हजार हाथियों जितना बलवान था।

37 रुक्मी की पुत्री के पुत्र अनिरुद्ध ने रुक्मी के पुत्र की कन्या रोचना से विवाह किया। उससे वज्र उत्पन्न हुआ, जो यदुओं के मूसल-युद्ध के बाद बचने वालों में से एक था।

38 वज्र से प्रतिबाहु उत्पन्न हुआ, जिसका पुत्र सुबाहु था। सुबाहु का पुत्र शान्तसेन था और शान्तसेन से शतसेन उत्पन्न हुआ।

39 इस परिवार में ऐसा कोई भी व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ, जो निर्धन हो या सन्तानहीन, अल्पायु, निर्बल या ब्राह्मण संस्कृति के प्रति उपेक्षावान हो।

40 यदुवंश ने विख्यात कृत्यों वाले असंख्य महापुरुषों को जन्म दिया। हे राजन, उन सबों की गिनती दस हजार से अधिक वर्षों में भी नहीं की जा सकती।

41 मैंने प्रामाणिक स्रोतों से सुना है कि यदुवंश ने अपने बालकों को शिक्षा देने के लिए ही 3,88,00,000 (3 करोड़ 88 लाख) शिक्षक नियुक्त किये थे।

42 भला महान यादवों की गणना कौन कर सकता है, जबकि उनमें से राजा उग्रसेन के साथ तीन नील (3,00,00,00,00,00,000) परिचारक रहते थे।

43 दिति की जंगली सन्तानों ने जो भूतकाल में देवताओं तथा असुरों के मध्य हुए युद्धों में मारी गई थीं, मनुष्यों के बीच जन्म लिया और वे उद्धत होकर सामान्य जनता को सताने लगे थे।

44 इन असुरों का दमन करने के लिए भगवान हरि ने देवताओं से यदुकुल में अवतार लेने के लिए कहा। हे राजन ऐसे 101 कुल थे।

45 चूँकि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, अतएव यादवों ने उन्हें अपना परम प्रमाण (सत्ता) मान लिया और इन सबों में से, जो उनके घनिष्ठ संगी थे उन्होंने विशेष रूप से उन्नति की ।

46 वृष्णिजन कृष्णभावनामृत में इतने लीन थे कि वे सोते, बैठते, घूमते, बातें करते, खेलते, नहाते इत्यादि कार्य करते समय अपने शरीर की सुधि-बुधि भूल गये।

47 स्वर्ग की गंगा पवित्र तीर्थ है, क्योंकि उसका जल भगवान के चरणों को पखारता है। किन्तु जब भगवान ने यदुओं के बीच अवतार लिया, तो उनके यश के कारण पवित्र स्थान के रूप में गंगा नदी का महत्त्व कम हो गया। किन्तु कृष्ण से घृणा करने वालों तथा उनसे प्रेम करने वालों ने आध्यात्मिक लोक में उन्हीं के समान नित्य स्वरूप प्राप्त किया। अप्राप्य तथा परम आत्मतुष्ट लक्ष्मी जिनकी कृपा के लिए हर कोई संघर्ष करता है एकमात्र उन्हीं की हैं। उनके नाम का श्रवण या कीर्तन करने से समस्त अमंगल नष्ट हो जाता है। एकमात्र उन्हीं ने ऋषियों की विविध शिष्य परम्पराओं के सिद्धान्त निश्चित किये हैं। इनमें कौन-सा आश्चर्य है कि कालचक्र, जिसका हथियार हो, उसने पृथ्वी के भार को उतारा?

48 भगवान श्रीकृष्ण जननिवास के नाम से विख्यात हैं अर्थात वे समस्त जीवों के परम आश्रय हैं। वे देवकीनन्दन या यशोदानन्दन भी कहलाते हैं। वे यदुकुल के पथ-प्रदर्शक हैं और वे अपनी बलशाली भुजाओं से समस्त अमंगल को तथा समस्त अपवित्र व्यक्तियों का वध करते हैं। वे अपनी उपस्थिति से समस्त चर तथा अचर प्राणियों के अमंगल को नष्ट करते हैं। उनका आनन्दपूर्ण मन्द हासयुक्त मुख वृन्दावन की गोपियों के माधुर्य-रस को बढ़ाने वाला है। उनकी जय हो! और वे प्रसन्न हों!

49 अपने प्रति भक्ति के सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिए यदुश्रेष्ठ भगवान कृष्ण उन लीला-रूपों को स्वीकार करते हैं, जिनका यहाँ पर श्रीमदभागवत में महिमा-गान हुआ है। जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक उनके चरणकमलों की सेवा करने का इच्छुक हो, उसे उन कार्यकलापों को सुनना चाहिए, जिन्हें वे प्रत्येक अवतार में सम्पन्न करते हैं – वे कार्यकलाप, जो उनके द्वारा धारण किए जानेवाले रूपों के अनुरूप हैं। इन लीलाओं के वर्णनों को सुनने से सकाम कर्मों के फल विनष्ट होते हैं ।

50 नित्यप्रति अधिकाधिक निष्ठापूर्वक भगवान मुकुन्द की सुन्दर कथाओं के नियमित श्रवण, कीर्तन तथा ध्यान से मर्त्य प्राणी को भगवान का दैवीधाम प्राप्त होगा, जहाँ मृत्यु की दुस्तर शक्ति का शासन नहीं है। इसी उद्देश्य से अनेक व्यक्तियों ने, जिनमें बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हैं अपने-अपने संसारी घरों को त्याग कर जंगल की राह ली।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (दशम स्कन्धके समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

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अध्याय नवासी – कृष्ण तथा अर्जुन द्वारा ब्राह्मण पुत्रों का वापस लाया जाना (10.89)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, एक बार जब सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों का समूह वैदिक यज्ञ कर रहा था, तो उनके बीच यह वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ कि तीन मुख्य देवों में से सर्वश्रेष्ठ कौन है?

2 हे राजन, इस प्रश्न का हल ढूँढने के इच्छुक ऋषियों ने ब्रह्मा के पुत्र भृगु को उत्तर खोजने के लिए भेजा। वे सर्वप्रथम, अपने पिता ब्रह्मा के दरबार में गये।

3 यह परीक्षा लेने के लिए कि ब्रह्माजी कहाँ तक सतोगुण प्राप्त हैं, भृगु ने न तो उन्हें प्रणाम किया न ही स्तुतियों द्वारा उनका महिमा-गान किया। अतः वे भृगु पर क्रुद्ध हो गये।

4 यद्यपि उनके हृदय के भीतर अपने पुत्र के प्रति क्रोध उठ रहा था, तथापि ब्रह्माजी ने अपनी बुद्धि के प्रयोग से, उसे वैसे ही दबा लिया, जिस तरह अग्नि जल से बुझ जाती है।

5 तत्पश्चात भृगु कैलाश पर्वत पर गये। शिवजी उनका आलिंगन करने प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े।

6-7 किन्तु भृगु ने यह कहते हुए उनके आलिंगन का त्याग कर दिया कि आप तो विपथगामी हैं। यह सुनकर शिवजी क्रुद्ध हो उठे, उन्होंने अपना त्रिशूल उठा लिया और भृगु को जान से मारने ही वाले थे कि देवी उनके चरणों पर गिर पड़ीं और उन्होंने उन्हें शान्त करने के लिए कुछ शब्द कहे। तब भृगु वैकुण्ठ गये, जहाँ भगवान जनार्दन निवास करते हैं।

8-9 वे भगवान के पास तक गये। वहाँ भगवान श्रीलक्ष्मीजी की गोद में लेटे हुए थे। भृगु ने उनकी छाती पर पाँव से प्रहार किया। भगवान देवी लक्ष्मी सहित – आदर सूचित करने के लिए उठकर खड़े हो गये। शुद्ध भक्तों के चरम लक्ष्य भगवान ने मुनि के समक्ष अपना सिर झुकाया और उनसे कहा, “हे ब्राह्मण, आपका स्वागत है। आप इस आसन पर बैठें और कुछ क्षण विश्राम करें। हे प्रभु! "आपके आगमन पर ध्यान न दे पाने के लिए हमें क्षमा कर दें।”

10-11 कृपा करके, अपने पाँवों के प्रक्षालित जल को देकर, मुझे, मेरे धाम तथा लोकपालक भक्तों के राज्यों को पवित्र कीजिये। निस्सन्देह यही जल तीर्थस्थानों को पवित्र बनाता है। हे प्रभु, आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय बन गया हूँ। वह मेरी छाती पर निवास करने के लिए सहमत होंगी, क्योंकि आपके पाँव ने इसके सारे पापों को दूर कर दिया है।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान वैकुण्ठ द्वारा कहे गये गम्भीर शब्दों को सुनकर भृगु संतुष्ट तथा प्रसन्न हो उठे। वे भक्तिमय आनन्द से विह्वल होकर निःशब्द हो गए और उनकी आँखें अश्रुओं से भर आई।

13 हे राजन, तब भृगु वैदिक विद्वानों की यज्ञशाला में लौट आये और अपना सारा अनुभव कह सुनाया।

14-17 भृगु के विवरण को सुनकर चकित हुए मुनियों के सारे सन्देह दूर हो गये और वे आश्वस्त हो गये कि विष्णु सबसे बड़े देव हैं। उन्हीं से शान्ति, निर्भयता, धर्म के अनिवार्य सिद्धान्त, ज्ञान सहित वैराग्य, आठों योगशक्तियाँ तथा मन के सारे कल्मषों को धो डालने वाली, उनकी महिमा प्राप्त होती है। वे शान्त तथा समभाव वाले निपुण उन मुनियों के परम गन्तव्य जाने जाते हैं, जिन्होंने सारी हिंसा का परित्याग कर दिया है। उनका स्वरूप शुद्ध सत्त्वमय है और ब्राह्मण उनके पूज्य देव हैं। बुद्धिमान व्यक्ति, जिन्होंने आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त कर ली है, निःस्वार्थ भाव से उनकी पूजा करते हैं।

18 भगवान तीन प्रकार के व्यक्त प्राणियों में विस्तार करते हैं – ये हैं राक्षस, असुर तथा देवता। ये तीनों ही भगवान की भौतिक शक्ति से उत्पन्न हैं और उसके गुणों से बद्ध हैं। किन्तु इन तीन गुणों में से सतोगुण ही जीवन की अन्तिम सफलता प्राप्त करने का साधन है।

19 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले विद्वान ब्राह्मणों ने समस्त लोगों के संशयों को दूर करने के लिए यह निष्कर्ष निकाला। तत्पश्चात उन्होंने भगवान के चरणकमलों की भक्ति की और वे सभी उनके धाम को प्राप्त हुए।

20 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: व्यासदेव मुनि के पुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी के कमलमुख से इस प्रकार सुगन्धित अमृत बहा। परम पुरुष का यह अद्भुत महिमा-गायन भौतिक संसार के सारे भय को नष्ट करने वाला है। जो यात्री इस अमृत को अपने कान के छेदों से निरन्तर पीता रहता है, वह सांसारिक जीवन के मार्गों पर भ्रमण करने से उत्पन्न थकान को भूल जायेगा।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार द्वारका में एक ब्राह्मण की पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया किन्तु, हे राजन, यह नवजात शिशु पृथ्वी का स्पर्श करते ही मर गया।

22 ब्राह्मण ने उस मृत शरीर को ले जाकर राजा उग्रसेन के दरबार के द्वार पर रख दिया। फिर क्षुब्ध तथा दीन-हीन भाव से शोक-विलाप करता वह इस प्रकार बोला।

23 ब्राह्मण ने कहा: ब्राह्मणों के इस शठ, लालची शत्रु तथा इन्द्रिय-सुख में लिप्त रहने वाले अयोग्य शासक द्वारा, अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने में हुई, किसी त्रुटि के कारण मेरे पुत्र की मृत्यु हुई है।

24 हिंसा में सुख पाने वाले तथा अपनी इन्द्रियों को वश में न कर सकने वाले दुष्ट राजा की सेवा करने वाले नागरिकों को निरन्तर निर्धनता तथा दुख का सामना करना पड़ता है।

25 उस बुद्धिमान ब्राह्मण को अपने दूसरे तथा तीसरे पुत्र के साथ भी यही दुख भोगना पड़ा। प्रत्येक बार वह अपने मृत पुत्र का शरीर राजा के दरवाजे पर छोड़ जाता और वही शोक-गीत गाता।

26-27 जब उस ब्राह्मण का नौवाँ पुत्र मरा, तो भगवान केशव के निकट खड़े अर्जुन ने उस ब्राह्मण के विलाप को सुना अतः अर्जुन ने ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण, क्या बात है? क्या यहाँ पर कोई राजसी दरबार का निम्न सदस्य अर्थात क्षत्रिय-बन्धु नहीं है, जो अपने हाथ में धनुष लेकर आपके घर के सामने खड़ा रहे? ये क्षत्रिय ऐसा आचरण कर रहे हैं, मानो यज्ञ में व्यर्थ ही लगे हुए ब्राह्मण हों।

28 “जिस राज्य में ब्राह्मण अपनी नष्ट हुई सम्पत्ति, पत्नी तथा सन्तान के लिए शोक करते हैं, उसके शासक निरे वञ्चक हैं, जो अपना उदर पोषण करने के लिए राजाओं का अभिनय करते हैं।"

29 हे प्रभु, मैं ऐसे अत्यन्त दुखियारे आप तथा आपकी पत्नी की सन्तान की रक्षा करूँगा। यदि मैं यह वचन पूरा न कर सका, तो मैं अग्नि में प्रवेश करूँगा।

30-31 ब्राह्मण ने कहा: न तो संकर्षण, वासुदेव, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर प्रद्युम्न, न अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध ही, मेरे पुत्रों को बचा सके तो फिर तुम क्यों ऐसा कौशल करने का प्रयास करने जा रहे हो, जिसे ब्रह्माण्ड के स्वामी भी नहीं कर सके? हमें तुम पर विश्वास नहीं हो रहा।

32 श्री अर्जुन ने कहा: हे ब्राह्मण, मैं न तो संकर्षण हूँ, न कृष्ण और न ही कृष्ण का पुत्र, प्रत्युत मैं गाण्डीवधारी अर्जुन हूँ।

33 हे ब्राह्मण, शिवजी को भी तुष्ट करने में सफल मेरी क्षमता को कम न करें। हे स्वामी, मैं आपके पुत्रों को वापस ले आऊँगा, चाहे मुझे युद्ध में साक्षात काल को ही क्यों न पराजित करना पड़े।

34 हे शत्रुओं को सताने वाले, इस तरह अर्जुन द्वारा आश्वस्त किये जाने पर अर्जुन के पराक्रम की घोषणा सुनकर तुष्ट हुआ ब्राह्मण अपने घर चला गया।

35 वह पूज्य ब्राह्मण पत्नी के प्रसवकाल के समय अत्यन्त चिन्तित होकर अर्जुन के पास गया और उनसे याचना की – “कृपा करके मेरे बच्चे को मृत्यु से बचा लें, बचा लें।”

36 शुद्ध जल का स्पर्श, भगवान महेश्वर को नमस्कार तथा दैवी अस्त्रों के लिए मंत्रों का स्मरण करके अर्जुन ने अपने गाण्डीव धनुष की डोरी चढ़ाई।

37 अर्जुन ने विविध प्रक्षेपास्त्रों से लगे बाणों द्वारा उस सौरी (प्रसूति)-गृह को घेर दिया। उसने बाणों का एक सुरक्षात्मक पिंजरा बनाकर उस गृह को चारों ओर से आच्छादित कर दिया।

38 ब्राह्मण की पत्नी ने बालक को जन्म दिया वह नवजात शिशु कुछ समय तक तो रोता रहा, किन्तु सहसा वह सशरीर आकाश में अदृश्य हो गया।

39 तब उस ब्राह्मण ने कृष्ण की उपस्थिति में अर्जुन का उपहास किया, “जरा देखो तो मैं कितना मूर्ख हूँ कि मैंने इस डींग मारने वाले नपुंसक पर विश्वास किया।”

40 जब न ही प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, राम और न ही केशव किसी व्यक्ति को बचा सकते हैं, तो भला अन्य कौन उसकी रक्षा कर सकता है?

41 “इस झूठे अर्जुन को धिक्कार है, इस आत्म-प्रशंसक के धनुष को धिक्कार है। अर्जुन यह सोचते हुए मोहग्रस्त हो चुका है कि वह ऐसे व्यक्ति को वापस ला सकता है, जिसे विधाता ने उठा लिया है।"

42 जब वह बुद्धिमान ब्राह्मण अर्जुन को भला-बुरा कहकर अपमानित कर रहा था, तो अर्जुन ने तुरन्त ही संयमनी पुरी जाने के लिए, जहाँ यमराज का वास है, योगविद्या का प्रयोग किया।

43-44 वहाँ ब्राह्मण पुत्र को न देखकर अर्जुन अग्नि, निरऋति, सोम, वायु तथा वरुण की पुरियों में गया। हाथ में हथियार तैयार रखे हुए उसने अधोलोक से लेकर स्वर्ग के ऊपर तक ब्रह्माण्ड के सारे प्रदेशों में खोज की। अन्त में ब्राह्मण के पुत्र को कहीं भी न पाकर, अर्जुन ने अपना वचन पूरा न करने के कारण पवित्र अग्नि में प्रवेश करने का निश्चय किया किन्तु जब वह ऐसा करने जा रहा था, तो भगवान कृष्ण ने उसे रोक लिया और उससे निम्न-लिखित शब्द कहे।

45 भगवान कृष्ण ने कहा: मैं तुम्हें ब्राह्मण के पुत्र दिखलाऊँगा, अतः तुम स्वयं को इस प्रकार छोटा मत बनाओ। यही मनुष्य, जो अभी हमारी आलोचना करते हैं, शीघ्र ही हमारी निष्कलुष कीर्ति को स्थापित करेंगे।

46 अर्जुन से इस प्रकार कहकर भगवान ने अर्जुन को अपने दैवीरथ में बैठाया और वे दोनों एकसाथ पश्चिम दिशा की ओर रवाना हो गये।

47 भगवान का रथ मध्यवर्ती ब्रह्माण्ड के सात द्वीपों के ऊपर से गुजरा। तब उस रथ ने लोकालोक सीमा पार की और पूर्ण अंधकार के विशाल क्षेत्र में प्रवेश किया।

48-49 उस अंधकार में रथ के शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष तथा बलाहक नामक घोड़े अपना मार्ग भटक गये। हे राजन, उन्हें इस अवस्था में देखकर, योगेश्वरों के भी परम स्वामी भगवान कृष्ण ने रथ के आगे, अपने सुदर्शन चक्र को भेज दिया। वह चक्र सैकड़ों सूर्य की तरह चमक रहा था।

50 भगवान का सुदर्शन चक्र अपने प्रज्ज्वलित तेज के साथ अंधकार में प्रविष्ट हुआ। मन की गति से आगे बढ़ते हुए उसने आदि पदार्थ से विस्तीर्ण भयावह घने अंधकार को उसी तरह काट दिया, जिस तरह भगवान राम के धनुष से छूटा तीर–शत्रु की सेना को काटता हुआ निकल जाता है।

51 सुदर्शन चक्र के पीछे जाता हुआ, रथ अंधकार को पार कर सर्वव्यापी ब्रह्म-ज्योति के अनन्त आध्यात्मिक प्रकाश में जा पहुँचा। इस चमचमाते तेज को देखकर अर्जुन की आँखें दुखने लगीं, अतः उसने आँख बन्द कर लीं।

52 उस क्षेत्र से वे जलराशि में प्रविष्ट हुए, जो शक्तिशाली वायु द्वारा मथी जा रही विशाल लहरों से तेजयुक्त थी। उस समुद्र के भीतर अर्जुन ने एक अद्भुत महल देखा, जो उसके द्वारा अभी तक देखी गई हर वस्तु से अधिक चमकीला था। इसका सौन्दर्य चमकीली मणियों से जड़े हुए हजारों अलंकृत खम्भों के कारण बढ़ गया था।

53 उस स्थान पर विशाल विस्मयकारी अनन्त शेष सर्प था, जो अपने हजारों फनों पर स्थित मणियों से निकलने वाले प्रकाश से चमचमा रहा था और फनों से दुगुनी भयावनी आँखों से परावर्तित हो रहा था । वह श्वेत कैलाश पर्वत की तरह लग रहा था और उसकी गर्दन तथा जीभ गहरे नीले रंग की थीं।

54-56 तत्पश्चात अर्जुन ने सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान भगवान महाविष्णु को सर्पशय्या पर सुखपूर्वक बैठे देखा। उनका नील वर्ण घने बादल के रंग का था, वे सुन्दर पीताम्बर पहने थे और उनका मुखमण्डल मनोहर लग रहा था। उनकी चौड़ी आँखें अत्यन्त आकर्षक थीं। उनके आठ लम्बे सुन्दर बाजू थे। उनके बालों के घने गुच्छे – मुकुट तथा कुण्डलों को विभूषित करनेवाले बहुमूल्य मणियों के गुच्छों से परावर्तित प्रकाश से नहाये हुए थे। वे कौस्तुभ मणि, श्रीवत्स चिन्ह तथा जंगली फूलों की माला धारण किये हुए थे। सर्वोच्च ईश्वर की सेवा में सुनन्द तथा नन्द जैसे निजी संगी, उनका चक्र तथा अन्य हथियार साकार होकर उनकी संगिनी शक्तियाँ पुष्टि, श्री, कीर्ति, अजा एवं उनकी विविध योगशक्तियाँ थीं।

57 भगवान कृष्ण ने इस अनन्त रूप में अपनी ही वन्दना की और अर्जुन ने भी महाविष्णु के दर्शन से चकित होकर उन्हें नमस्कार किया। तत्पश्चात ये दोनों हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़े थे, तो ब्रह्माण्ड के समस्त पालकों के परम स्वामी महाविष्णु मुसकाये और अत्यन्त गम्भीर वाणी में उनसे बोले।

58 महाविष्णु ने कहा: मैं ब्राह्मणों के पुत्रों को यहाँ ले आया था, क्योंकि मैं आप दोनों के दर्शन करना चाह रहा था। आप मेरे अंश हैं, जो धर्म की रक्षा हेतु पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं। ज्योंही आप पृथ्वी के भारस्वरूप असुरों का वध कर चुकें आप तुरन्त ही मेरे पास यहाँ वापस आ जाँय।

59 हे महापुरुषों में श्रेष्ठ, यद्यपि आपकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं, किन्तु सामान्य जनों के लाभ हेतु आप नर तथा नारायण मुनियों के रूप में अपने धार्मिक आचरण का आदर्श प्रस्तुत करते रहें।

60-61 सर्वोच्च लोक के परमेश्वर द्वारा इस तरह आदेश दिये जाकर कृष्ण तथा अर्जुन ने ॐ का उच्चारण करके अपनी सहमति व्यक्त की और तब सर्वशक्तिमान महाविष्णु को नमन किया। ब्राह्मण-पुत्रों को लेकर वे द्वारका लौट आये और उन्हें ब्राह्मण को सौंप दिया। वे शिशु वैसे ही रूप में थे, जैसे वे खो गये थे।

62-65 विष्णुधाम को देखकर अर्जुन पूर्णतः विस्मित थे। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य की अद्वितीय शक्ति का प्रदर्शन कृष्ण की कृपा की अभिव्यक्ति मात्र है। अब चूँकि भगवान ने अनेक राजाओं का वध कर दिया था, शेष कार्य अर्जुन पर छोड़ दिया ताकि युधिष्ठिर धार्मिक सिद्धान्तों से राज काज सम्पन्न कर सकें। अपनी सर्वश्रेष्ठता का प्रदर्शन, के उपरान्त भगवान ने उपयुक्त अवसरों पर ब्राह्मणों तथा प्रजा पर इच्छित वस्तुओं की ऐसे वर्षा की, जैसे इन्द्र जल की वर्षा करता है। भगवान कृष्ण ने इस जगत में ऐसी ही अन्य लीलाएँ कीं। सामान्य मानव-जीवन के आनन्द का भोग किया और अनेक यज्ञ सम्पन्न किये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अट्ठासी -- वृकासुर से शिवजी की रक्षा (10.88) 

1 राजा परीक्षित ने कहा: जो देवता, असुर तथा मनुष्य परम वैरागी शिव की पूजा करते हैं, वे सामान्यतया धन सम्पदा तथा इन्द्रिय-तृप्ति का आनन्द प्राप्त करते हैं, जबकि लक्ष्मीपति भगवान हरि की पूजा करने वाले, ऐसा नहीं कर पाते।

2 हम इस विषय को ठीक से समझना चाहते हैं, क्योंकि यह हमें अत्यधिक परेशान किये हुए है। दरअसल इन विपरीत चरित्रों वाले दोनों प्रभुओं की पूजा करने वालों को, जो फल मिलते हैं, वे अपेक्षा के विपरीत होते हैं।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: शिवजी सदैव अपनी निजी शक्ति, प्रकृति के साथ संयुक्त रहते हैं। प्रकृति के तीन गुणों के अनुरोध पर अपने को तीन रूपों में प्रकट करते हुए वे सतो, रजो तथा तमोगुणी अहंकार के त्रितत्त्व को धारण करने वाले हैं।

4 उसी मिथ्या अहंकार के सोलह तत्त्व विकार-रूप में निकले हैं। जब शिवभक्त इन तत्त्वों में से किसी भी विकार की पूजा करता है, तो उसे उसी के अनुरूप सभी प्रकार का भोग्य ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

5 किन्तु भगवान हरि का भौतिक गुणों से कोई सरोकार नहीं रहता। वे सर्वदृष्टा नित्य साक्षी भगवान हैं, जो भौतिक प्रकृति के परे हैं। जो उनकी पूजा करता है, वह भी उन्हीं की तरह भौतिक गुणों से मुक्त हो जाता है।

6 तुम्हारे बाबा राजा युधिष्ठिर ने अपना अश्वमेध यज्ञ पूरा कर लेने के बाद भगवान अच्युत से यही प्रश्न पूछा था, जब वे भगवान से धर्म की व्याख्या सुन रहे थे।

7 राजा के स्वामी तथा प्रभु श्रीकृष्ण, जो सारे लोगों को परम लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे, इस प्रश्न से प्रसन्न हुए। भगवान ने निम्नवत उत्तर दिया, जिसे राजा ने उत्सुकतापूर्वक सुना।

8 भगवान ने कहा: यदि मैं किसी पर विशेष रूप से कृपा करता हूँ, तो मैं धीरे धीरे उसे उसके धन से वंचित करता जाता हूँ। तब ऐसे निर्धन व्यक्ति के स्वजन तथा मित्र उसका परित्याग कर देते हैं। इस प्रकार वह कष्ट पर कष्ट सहता है।

9 जब वह धन कमाने के अपने प्रयासों में विफल होकर मेरे भक्तों को अपना मित्र बनाता है, तो मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ।

10 इस तरह धीर बना हुआ व्यक्ति ब्रह्म को, जो आत्मा की सर्वाधिक सूक्ष्म तथा पूर्ण अभिव्यक्ति से एवं अन्तहीन जगत से परे है, सर्वोच्च सत्य के रूप में पूरी तरह से अनुभव करता है। इस तरह यह अनुभव करते हुए कि परम सत्य उसके अपने अस्तित्व का आधार है, वह भौतिक जीवन के चक्र से मुक्त हो जाता है।

11 चूँकि मुझे पूजना कठिन है, इसलिए सामान्यतया लोग मुझे पूजने से कतराते हैं और शीघ्र तुष्ट होने वाले अन्य देवों की पूजा करते हैं। जब लोग इन देवों से राजसी ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं, तो वे उद्धत, गर्वोन्मत्त तथा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करनेवाले बन जाते हैं। वे उन देवताओं को भी अपमानित करने का दुस्साहस करते हैं, जिन्होंने उन्हें वर दिये हैं।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा अन्य देवता किसी को शाप या आशीर्वाद देने में समर्थ हैं। शिव तथा ब्रह्मा शाप देने या वर देने में बहुत शीघ्रता करते हैं, किन्तु हे राजन, भगवान अच्युत ऐसे नहीं हैं।

13 इस सम्बन्ध में एक प्राचीन ऐतिहासिक विवरण बतलाया जाता है कि किस तरह वृकासुर को वर माँगने के लिए कहने से कैलाश पर्वत के स्वामी संकट में पड़ गये।

14 एक बार मार्ग में शकुनि-पुत्र वृक नामक असुर की नारद से भेंट हो गयी। इस दुष्ट ने उनसे पूछा कि तीन प्रमुख देवों में से, किसे सबसे जल्दी प्रसन्न किया जा सकता है।

15 नारद ने उससे कहा: तुम शिव की पूजा करो, तो तुम्हें शीघ्र ही सफलता प्राप्त हो सकेगी। वे अपनी पूजा करने वालों के रंचमात्र भी उत्तम गुणों को देखकर तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी रंचमात्र भी त्रुटि देखकर तुरन्त कुपित होते हैं।

16 वे दस सिर वाले रावण से तथा बाण से तब प्रसन्न हो उठे, जब उनमें से प्रत्येक ने राज्य दरबार के वन्दीजनों की तरह उनके यश का गायन किया। तब शिवजी ने उन दोनों को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की, किन्तु इसके फलस्वरूप, उन्हें दोनों के कारण महान संकट उठाना पड़ा।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार उपदेश पाकर, वह असुर केदारनाथ में शिवजी की पूजा करने गया, जहाँ वह अपने शरीर से मांस के टुकड़े काट-काट कर पवित्र अग्नि में, जो कि शिवमुख है, आहुतियाँ देने लगा।

18-19 देवता का दर्शन न पाकर वृकासुर हताश हो गया। अन्त में सातवें दिन केदारनाथ की पवित्र नदी में अपने बाल भिगोकर तथा उन्हें गीला ही रहने देकर, उसने एक कुल्हाड़ा उठाया और अपना सिर काटने लगा। लेकिन उसी क्षण परम दयालु शिवजी यज्ञ-अग्नि से प्रकट हुए, जो साक्षात अग्नि देव जैसे लग रहे थे। ऐसी स्थिति में शिवजी ने असुर को आत्महत्या करने से रोकने के लिए उसकी दोनों बाँहें पकड़ लीं। शिवजी के स्पर्श करने से वृकासुर, एक बार फिर पूर्ण हो गया।

20 शिवजी ने उससे कहा: हे मित्र, बस करो, बस करो, तुम जो भी चाहो, मुझसे माँगो। मैं तुम्हें वही वर दूँगा। हाय! तुमने वृथा ही अपने शरीर को इतनी पीड़ा पहुँचाई, क्योंकि जो लोग शरण के लिए मेरे पास पहुँचते हैं, उनके द्वारा मात्र जल की भेंट से मैं प्रसन्न हो जाता हूँ।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: उस पापी वृक ने भगवान से जो वर माँगा, वह सारे जीवों को भयाक्रान्त करने वाला था। वृक ने कहा, “मैं जिसके भी सिर पर अपने हाथ रखूँ, उसकी मृत्यु हो जाये।"

22 यह सुनकर भगवान रुद्र कुछ विचलित से लगे। फिर भी हे भारत, उन्होंने अपनी सहमति दिखाने के लिए ॐ का उच्चारण किया और व्यंग्य-हँसी के साथ वृक को वर दे दिया कि, मानो विषैले सर्प को दूध दे दिया हो।

23 भगवान शम्भू के वर की परीक्षा करने के लिए असुर ने उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास किया। तब शिवजी को अपने किये हुए पर भय लगने लगा।

24 जब असुर उनका पीछा करने लगा, तो शिवजी भय से काँपते हुए उत्तर में स्थित अपने निवास से तेजी से भागने लगे। जहाँ तक पृथ्वी, आकाश तथा ब्रह्माण्ड के छोर हैं, वहाँ तक वे दौड़ते रहे।

26 बड़े बड़े देवता, यह न जानने से कि वर का निराकरण कैसे किया जाये, केवल मौन रह सकते हैं। शिवजी समस्त अंधकार के परे वैकुण्ठ के तेजस्वी धाम पहुँचे, जहाँ साक्षात भगवान नारायण प्रकट होते हैं। यह धाम उन विरक्तों का गन्तव्य है, जिन्हें शान्ति प्राप्त हो चुकी है और जो अन्य प्राणियों के प्रति हिंसा छोड़ चुके हैं। वहाँ जाकर कोई फिर से नहीं लौटता।

27-28 अपने भक्तों के कष्टों को हरनेवाले भगवान ने दूर से ही देख लिया कि शिवजी संकट में हैं। अतएव अपनी योगमाया शक्ति से उन्होंने ब्रह्मचारी छात्र का रूप धारण कर लिया, जो उपयुक्त मेखला, मृगचर्म, दण्ड तथा जपमाला से युक्त था और वृकासुर के समक्ष आये। अपने हाथ में कुश घास पकड़े हुए, उन्होंने असुर का विनीत भाव से स्वागत किया।

29 भगवान ने कहा: हे शकुनिपुत्र, तुम थके हुए लग रहे हो। तुम इतनी दूर क्यों आये हो? कुछ क्षण के लिए विश्राम कर लो। आखिर मनुष्य का शरीर ही सारी इच्छाओं को पूरा करने वाला है।

30 हे विभो, यदि आप हमें इस योग्य समझते हैं, तो हमें बतलाइये कि आप क्या करना चाहते हैं। सामान्यतया मनुष्य अन्यों से सहायता लेकर अपने कार्यों को सिद्ध करता है।

31 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह मधुर अमृत की वर्षा करने वाली वाणी में भगवान द्वारा प्रश्न किये जाने पर वृक को लगा कि उसकी थकावट मिट गई है। उसने भगवान से अपने द्वारा की गई हर बात बतला दी।

32 भगवान ने कहा: यदि ऐसा ही है, तो हम शिव के कहने पर विश्वास नहीं कर सकते। शिव तो प्रेतों तथा पिशाचों के वही स्वामी हैं, जिन्हें दक्ष ने एक मानवभक्षी पिशाच बनने का शाप दिया था।

33 हे असुर-श्रेष्ठ, यदि उन पर तुम्हें विश्वास है, क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के गुरु हैं, तो अविलम्ब तुम अपना हाथ अपने सिर पर रखो और देख लो कि क्या होता है।

34 हे दानव-श्रेष्ठ, यदि किसी तरह भगवान शम्भू के शब्द असत्य सिद्ध होते हैं, तो उस झूठे का वध कर दो, जिससे वह दुबारा झूठ न बोल सके।

35 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार भगवान के मोहक चतुर शब्दों से मोहित होकर मूर्ख वृक ने बिना समझे कि वह क्या कर रहा है, अपने सिर पर अपना हाथ रख दिया।

36 उसका सिर तत्क्षण विदीर्ण हो गया, मानो वज्र द्वारा प्रहार हुआ हो और वह असुर भूमि पर गिर कर मर गया। आकाश से “जय हो,” "नमस्कार है” तथा “साधु साधु” जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ीं।

37 पापी वृकासुर के मारे जाने पर उत्सव मनाने के लिए दैवी ऋषियों, पितरों तथा गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा की। अब शिवजी खतरे से बाहर थे।

38-39 तब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने खतरे से बाहर हुए गिरीश को सम्बोधित किया, “हे महादेव, मेरे प्रभु, देखें न, यह दुष्ट व्यक्ति अपने ही पाप के फलों से किस तरह मारा गया है। निस्सन्देह, यदि कोई जीव महान सन्तों का अपमान करता है, तो वह सौभाग्य की आशा कैसे कर सकता है? ब्रह्माण्ड के स्वामी तथा गुरु के प्रति अपराध करने के विषय में, तो कहा ही क्या जा सकता है।”

40 भगवान हरि साक्षात प्रकट परम सत्य, परमात्मा तथा अचिन्त्य शक्तियों के असीम सागर हैं। जो कोई भी, उनके द्वारा शिव को बचाने की इस लीला को कहेगा या सुनेगा, वह सारे शत्रुओं तथा जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जायेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सत्तासी -- साक्षात वेदों द्वारा स्तुति

(श्लोकार्थ 31 -- 50) 

31 न तो प्रकृति, न ही उसका भोग करने के लिए प्रयत्नशील आत्मा कभी जन्म लेते हैं, फिर भी जब ये दोनों संयोग करते हैं, तो जीवों का जन्म होता है, जिस तरह जहाँ तहाँ जल से वायु मिलती है, वहाँ वहाँ बुलबुले बनते हैं। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलती हैं या विभिन्न फूलों का रस शहद में मिल जाता है, उसी तरह ये सारे बद्धजीव अन्ततोगत्वा अपने विविध नामों तथा गुणों समेत आप ब्रह्म में पुनः लीन हो जाते हैं।

32 विद्वान आत्माएँ, जो यह समझते हैं कि आपकी माया, किस तरह सारे मनुष्यों को मोहती है, वे आपकी उत्कट प्रेमाभक्ति करते हैं, क्योंकि आप जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति के स्रोत हैं। भला आपके श्रद्धावान सेवकों को भौतिक जीवन का भय कैसे सता सकता है? दूसरी ओर, आपकी कुटिल भौहें, जो कालचक्र की तिहरी-नेमि हैं बारम्बार उन्हें भयभीत बनाती हैं, जो आपकी शरण ग्रहण करने से इनकार करते हैं।

33 मन ऐसे उच्छृंखल घोड़े की तरह है, जिसको अपनी इन्द्रियों एवं श्वास को संयमित कर चुके व्यक्ति भी वश में नहीं कर सकते। इस संसार में वे लोग, जो अवश मन को वश में करना चाहते हैं, किन्तु अपने गुरु के चरणों का परित्याग कर देते हैं, उन्हें विविध दुखदायी विधियों के अनुशीलन में सैकड़ों बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हे अजन्मा भगवान, वे समुद्र में नाव पर बैठे उन व्यापारियों के समान हैं, जो किसी नाविक को भाड़े पर नहीं लेते।

34 जो व्यक्ति आपकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप परमात्मा स्वरूप दिखते हैं, जो समस्त दिव्य-आनन्द स्वरूप हैं। ऐसे भक्तों के लिए अपने सेवकों, बच्चों या शरीरों, अपनी पत्नियों, धन या घरों, अपनी भूमि या स्वास्थ्य या वाहनों का क्या उपयोग रह जाता है? जो आपके विषय में सच्चाई को समझने में असफल होते हैं तथा यौन-आनन्द के पीछे भागते रहते हैं, उनके लिए इस सम्पूर्ण जगत में, जो सदैव विनाशशील है और महत्त्व से विहीन है, ऐसा क्या है, जो उन्हें असली सुख प्रदान कर सके?

35 ऋषिगण मिथ्या गर्व से रहित होकर पवित्र तीर्थस्थानों तथा जहाँ जहाँ भगवान ने अपनी लीलाएँ प्रदर्शित की हैं, उनका भ्रमण करते हुए इस पृथ्वी पर निवास करते हैं। चूँकि ऐसे भक्त आपके चरणकमलों को अपने हृदयों में रखते हैं, अतः उनके पाँवों को धोने वाला जल सारे पापों को नष्ट कर देता है। जो कोई अपने मन को एक बार भी समस्त जगत के नित्य आनन्दमय आत्मा आपकी ओर मोड़ता है, वह घर पर ऐसे पारिवारिक जीवन के अधीन नहीं रहता, जिससे मनुष्य के अच्छे गुण छीन लिये जाते हैं।

36 यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि यह जगत स्थायी रूप से सत्य है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति स्थायी सत्य से हुई है, किन्तु इसका तार्किक खण्डन हो सकता है। निस्सन्देह, कभी कभी कार्य-कारण का ऊपरी अभेद सत्य नहीं सिद्ध हो पाता और कभी तो सत्य वस्तु का फल भ्रामक होता है। यही नहीं, यह जगत स्थायी रूप से सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह केवल परम सत्य के ही स्वभावों में भाग नहीं लेता, अपितु उस सत्य को छिपाने वाले भ्रम में भी लेता है। वस्तुतः इस दृश्य जगत के दृश्य रूप उन अज्ञानी पुरुषों की परम्परा द्वारा अपनाई गई काल्पनिक व्यवस्था है, जो अपने भौतिक मामलों को सुगम बनाना चाहते थे। आपके वेदों के बुद्धिमत्तापूर्ण शब्द अपने विविध अर्थों तथा अन्तर्निहित व्यवहारों से उन सारे पुरुषों को मोहित कर लेते हैं, जिनके मन यज्ञों के मंत्रोच्चारों को सुनते सुनते जड़ हो चुके हैं।

37 चूँकि यह ब्रह्माण्ड अपनी सृष्टि के पूर्व विद्यमान नहीं था और अपने संहार के बाद विद्यमान नहीं रहेगा, अतः हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मध्यावधि में यह आपके भीतर दृश्य रूप में कल्पित होता है, जिनका आध्यात्मिक आनन्द कभी नहीं बदलता। हम इस ब्रह्माण्ड की तुलना विविध भौतिक वस्तुओं के विकारों से करते हैं। निश्चय ही, जो यह विश्वास करते हैं कि यह छोटी-सी कल्पना सत्य है, वे अल्पज्ञ है।

38 मोहिनी प्रकृति सूक्ष्म जीव को, उसका आलिंगन करने के लिए आकृष्ट करती है और फलस्वरूप जीव उसके गुणों से बने रूप धारण करता है। बाद में वह अपने सारे आध्यात्मिक गुण खो देता है और उसे बारम्बार मृत्यु भोगनी पड़ती है। किन्तु आप भौतिक शक्ति से अपने को उसी तरह बचाते रहते हैं, जिस तरह सर्प पुरानी केंचुल त्यागता है। आप आठ योगसिद्धियों से महिमायुक्त स्वामी हैं और असीम ऐश्वर्य का भोग करते हैं।

39 संन्यास-आश्रम के जो सदस्य अपने हृदय से भौतिक इच्छा को समूल उखाड़ कर फेंक नहीं देते, वे अशुद्ध बने रहते हैं और इस तरह आप उन्हें अपने को समझने नहीं देते। यद्यपि आप उनके हृदयों में विद्यमान रहते हैं, किन्तु उनके लिए आप उस मणि की तरह हैं, जिसे मनुष्य गले में पहने हुए भी भूल जाता है कि वह गले में है। हे प्रभु, जो लोग केवल इन्द्रिय-तृप्ति के लिए योगाभ्यास करते हैं, उन्हें इस जीवन में तथा अगले जीवन में भी उस मृत्यु से, जो उन्हें नहीं छोड़ेगी, दण्ड मिलना चाहिए और आपसे भी, जिनके धाम तक, वे नहीं पहुँच सकते।

40 जब मनुष्य आपका साक्षात्कार कर लेता है, तो वह अपने विगत पवित्र तथा पापमय कर्मों से उदित होने वाले अच्छे तथा बुरे भाग्य की परवाह नहीं करता, क्योंकि इस अच्छे तथा बुरे भाग्य को नियंत्रित करने वाले एकमात्र आप हैं। ऐसा स्वरूपसिद्ध भक्त इसकी भी परवाह नहीं करता कि सामान्य जन उसके विषय में क्या कह रहे है? वह प्रतिदिन अपने कानों को आपके यशों से भरता रहता है, जो हर युग में मनु के वंशजों की अविच्छिन्न परम्परा से गाये जाते हैं। इस तरह आप उसका चरम मोक्ष बन जाते हैं।

41 चूँकि आप असीम हैं, अतः न तो स्वर्ग के अधिपति, न ही स्वयं आप अपनी महिमा के छोर तक पहुँच सकते हैं। असंख्य ब्रह्माण्ड अपने अपने खोलों में लिपटे हुए कालचक्र के द्वारा आपके भीतर घूमने के लिए उसी तरह बाध्य हैं, जिस तरह कि आकाश में धूल के कण इधर-उधर उड़ते रहते हैं, श्रुतियाँ आपको अपने अन्तिम निष्कर्ष के रूप में प्रकट करके सफल बनती हैं, क्योंकि वे आपसे पृथक हर वस्तु को अपनी निरसन विधि से विलुप्त कर देती हैं।

42 भगवान श्री नारायण ऋषि ने कहा: परमात्मा के विषय में ये आदेश सुनकर ब्रह्मा के पुत्रों को अपना चरम गन्तव्य समझ में आ गया। वे पूरी तरह संतुष्ट हो गए और उन्होंने सनन्दन की पूजा करके उनका सम्मान किया।

43 इस तरह उच्चतर स्वर्गलोकों में विचरण करनेवाले प्राचीन सन्तों ने सारे वेदों तथा पुराणों के इस अमृतमय तथा गुह्य रस को निचोड़ लिया।

44 और चूँकि तुम पृथ्वी पर इच्छानुसार विचरण करते हो, अतः हे ब्रह्मापुत्र, तुम्हें आत्मविज्ञान विषयक इन उपदेशों पर श्रद्धापूर्वक ध्यान करना चाहिए, क्योंकि ये सारे मनुष्यों की भौतिक इच्छाओं को – भस्म कर देते हैं।

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब श्री नारायण ऋषि ने उन्हें इस तरह आदेश दिया, तो आत्मवान नारद मुनि ने, जिनका व्रत वीर क्षत्रिय की तरह है, उस आदेश को दृढ़ निष्ठा के साथ स्वीकार कर लिया। हे राजन, अब अपने सारे कार्यों में सफल होकर, उन्होंने जो कुछ सुना था, उस पर विचार किया और भगवान को इस प्रकार उत्तर दिया।

46 श्री नारद ने कहा: मैं उन निर्मल कीर्ति वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ, जो अपने सर्व-आकर्षक साकार अंशों को इसलिए प्रकट करते हैं, जिससे सारे जीव मुक्ति प्राप्त कर सकें।

47 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: यह कहने के बाद नारद ने ऋषियों में अग्रणी श्री नारायण ऋषि को तथा उनके सन्त सदृश शिष्यों को भी शीश झुकाया। तब वे मेरे पिता द्वैपायन व्यास की कुटिया में लौट आये।

48 भगवान के अवतार व्यासदेव ने नारदमुनि का सत्कार किया और उन्हें बैठने के लिए आसन दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। तब नारद ने व्यास से वह कह सुनाया, जो उन्होंने श्री नारायण ऋषि के मुख से सुना था।

49 हे राजन, इस प्रकार मैंने तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर दे दिया है, जो इस विषय में तुमने मुझसे पूछा था कि मन उस ब्रह्म तक कैसे पहुँचता है, जो भौतिक शब्दों द्वारा वर्णनीय नहीं है और भौतिक गुणों से रहित है।

50 वह ही स्वामी है, जो इस ब्रह्माण्ड की निरन्तर निगरानी करता है, जो इसके प्रकट होने के पूर्व, उसके बीच में तथा उसके बाद विद्यमान रहता है। वह अव्यक्त भौतिक प्रकृति तथा आत्मा दोनों का स्वामी है। इस सृष्टि को उत्पन्न करके, वह इसके भीतर प्रवेश कर जाता है और प्रत्येक जीव के साथ रहता है। वहाँ पर वह भौतिक देहों की सृष्टि करता है और फिर उनके नियामक के रूप में रहने लगता है। उनकी शरण में जाकर मनुष्य माया के आलिंगन से बच सकता है, जिस तरह स्वप्न देख रहा व्यक्ति अपने शरीर को भूल जाता है। जो व्यक्ति भय से मुक्ति चाहता है, उसे चाहिए कि उस भगवान हरि का निरन्तर ध्यान धरे, जो सदैव सिद्धावस्था में रहता है और कभी भी भौतिक जन्म नहीं लेता।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय सत्तासी -- साक्षात वेदों द्वारा स्तुति (10.87)

1-10 श्री परीक्षित ने कहा: हे ब्राह्मण, भला वेद उस परम सत्य का प्रत्यक्ष वर्णन कैसे कर सकते हैं, जिसे शब्दों द्वारा बतलाया नहीं जा सकता? वेद भौतिक प्रकृति के गुणों के वर्णन तक ही सीमित हैं, किन्तु ब्रह्म समस्त भौतिक स्वरूपों तथा उनके कारणों को लाँघ जाने के कारण इन गुणों से रहित है। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान ने जीवों की भौतिक बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण को प्रकट किया, जिससे वे अपनी इच्छाओं को इन्द्रिय-तृप्ति में लगा सकें, सकाम कर्म में संलग्न होने के लिए बारम्बार जन्म ले सकें, अगले जन्म में ऊपर उठ सकें तथा अन्ततः मोक्ष प्राप्त कर सकें।   हमारे प्राचीन पूर्वजों से भी पूर्व, जो लोग हो चुके हैं, उन्होंने भी परम सत्य के इसी गुह्य ज्ञान का ही ध्यान किया है। निस्सन्देह, जो भी श्रद्धापूर्वक इस ज्ञान में एकाग्र होता है, वह भौतिक आसक्ति से छूट जायेगा और जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा। इस सम्बन्ध में, मैं तुमसे भगवान नारायण विषयक एक गाथा कहूँगा। यह उस वार्ता के विषय में है, जो श्री नारायण ऋषि तथा नारदमुनि के मध्य हुई थी। एक बार ब्रह्माण्ड के विविध लोकों का भ्रमण करते हुए, भगवान के प्रिय भक्त नारद आदि ऋषि नारायण से मिलने, उनके आश्रम में गये।   कल्प के शुभारम्भ से ही नारायण ऋषि इस भारत-भूमि में धार्मिक कर्तव्यों को पूरी तरह सम्पन्न करते हुए एवं मनुष्यों के इस लोक तथा अगले लोक में लाभ के लिए आध्यात्मिक ज्ञान तथा आत्म-संयम को आदर्श रूप प्रदान करते हुए तपस्या कर रहे थे। वहाँ नारद भगवान नारायण ऋषि के पास पहुँचे, जो कलाप ग्राम के मुनियों के बीच में बैठे हुए थे। हे कुरुवीर, भगवान को नमस्कार करने के बाद नारद ने उनसे यही प्रश्न पूछा, जो तुमने मुझसे पूछा है। ऋषियों के सुनते-सुनते नारायण ऋषि ने नारद को परम ब्रह्म विषयक, वह प्राचीन चर्चा सुनाई, जो जनलोक के वासियों के बीच हुई थी। भगवान ने कहा: हे स्वजन्मा ब्रह्मा के पुत्र, एक बार बहुत समय पहले, जनलोक में रहनेवाले विद्वान मुनियों ने दिव्य ध्वनि का उच्चारण करते हुए एक महान ब्रह्म यज्ञ सम्पन्न किया। ये सारे मुनि, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, पूर्ण ब्रह्मचारी थे। उस समय तुम श्वेतद्वीप में भगवान का दर्शन करने गये हुए थे – जिनके भीतर ब्रह्माण्ड के संहार काल के समय सारे वेद विश्राम करते हैं। जनलोक में परब्रह्म के स्वभाव के विषय में ऋषियों के मध्य जीवन्त वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ। निस्सन्देह, तब यही प्रश्न उठा था, जिसे तुम अब मुझसे पूछ रहे हो।

11-18  यद्यपि वेदाध्ययन तथा तपस्या के मामले में ये ऋषि समान रूप से योग्य थे और मित्रों, शत्रुओं तथा निष्पक्षों को समान दृष्टि से देखते थे, फिर भी उन्होंने अपने में से एक को वक्ता बनाया और शेष जन उत्सुक श्रोता बन गये।  श्री सनन्दन ने उत्तर दिया: जब भगवान ने अपने द्वारा पूर्व-निर्मित ब्रह्माण्ड को समेट लिया, तो वे कुछ काल तक ऐसे लेटे रहे, मानो सोये हुए हैं और उनकी सारी शक्तियाँ उनमें सुप्त पड़ी रही। जब अगली सृष्टि करने का समय आया, तो साक्षात वेदों ने उनकी महिमाओं का गायन करते हुए उन्हें जगाया, जिस तरह राजा की सेवा में लगे कविगण प्रातःकाल उसके पास जाकर उसके वीरतापूर्ण कार्यों को सुनाकर, उसे जगाते हैं।   श्रुतियों ने कहा: हे अजित, आपकी जय हो, जय हो, अपने स्वभाव से आप समस्त ऐश्वर्य से परिपूर्ण हैं, अतएव आप माया की शाश्वत शक्ति को परास्त करें, जो बद्धजीवों के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न करने के लिए तीनों गुणों को अपने वश में कर लेती है। चर तथा अचर देहधारियों की समस्त शक्ति को जागृत करनेवाले, कभी-कभी जब आप अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के साथ क्रीड़ा करते हैं, तो वेद आपको पहचान लेते हैं।  इस दृश्य जगत की पहचान ब्रह्म से की जाती है, क्योंकि परब्रह्म समस्त जगत की अनन्तिम नींव है। यद्यपि समस्त उत्पन्न वस्तुएँ उनसे उद्भूत होती है और अन्त में उसी में लीन होती हैं, तो भी ब्रह्म अपरिवर्तित रहता है, जिस तरह कि मिट्टी जिससे अनेक वस्तुएँ बनाई जाती हैं और वे वस्तुएँ फिर उसी में लीन हो जाती हैं, वह अपरिवर्तित रहती है। इसीलिए सारे वैदिक ऋषि अपने विचारों, अपने शब्दों तथा अपने कर्मों को आपको ही अर्पित करते हैं। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस पृथ्वी पर मनुष्य रहते हैं, उसे उनके पैर स्पर्श न कर सकें। अतएव हे त्रिलोकपति, बुद्धिमान लोग आपकी कथाओं के अमृतमय सागर में गहरी डुबकी लगाकर समस्त क्लेशों से छुटकारा पा लेते हैं, क्योंकि आपकी कथाएँ ब्रह्माण्ड के सारे दूषण को धो डालती हैं। तो फिर उन लोगों के बारे में क्या कहा जाय, जिन्होंने आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा अपने मनों को बुरी आदतों से और स्वयं को काल से मुक्त कर लिया है और, हे परम पुरुष, आपके असली स्वभाव की, जिसके भीतर निर्बाध आनन्द भरा है, पूजा करने में समर्थ हैं? यदि वे आपके श्रद्धालु अनुयायी बन जाते हैं, तभी वे साँस लेते हुए वास्तव में जीवित हैं, अन्यथा उनका साँस लेना धौंकनी जैसा है। यह तो आपकी एकमात्र कृपा ही है कि महत तत्त्व तथा मिथ्या अहंकार से प्रारम्भ होने वाले तत्त्वों ने इस ब्रह्माण्ड रूपी अंडे को जन्म दिया। अन्नमय इत्यादि स्वरूपों में आप ही चरम हैं, जो जीव के साथ भौतिक आवरणों में प्रवेश करके उसके ही जैसे स्वरूप ग्रहण करते हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक स्वरूपों से भिन्न, आप उन सबों में निहित वास्तविकता हैं।  बड़े बड़े ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट विधियों के अनुयायियों में से, जिनकी दृष्टि कुछ कम परिष्कृत होती है, वे ब्रह्म को उदर क्षेत्र में उपस्थित मानकर पूजा करते हैं, किन्तु आरुणिगण उसे हृदय में उपस्थित मानकर पूजा करते हैं, जो सूक्ष्म केंद्र है जहाँ से सारी प्राणिक शाखाएँ (नाड़ियाँ) निकलती है। हे अनन्त, ये पूजक अपनी चेतना को वहाँ से – उठाकर सिर की चोटी तक ले जाते हैं, जहाँ वे आपको प्रत्यक्ष देख सकते हैं। तत्पश्चात सिर की चोटी से चरम गन्तव्य की ओर बढ़ते हुए वे उस स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से पुनः इस जगत में, जो मृत्यु के मुख स्वरूप हैं, नहीं गिरेंगे।

19-26 आपने जीवों की जो विविध योनियाँ उत्पन्न की हैं, उनमें प्रवेश करके, उनकी उच्च तथा निम्न अवस्थाओं के अनुसार आप अपने को प्रकट करते हैं और उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिस प्रकार अग्नि अपने द्वारा जलाये जाने वाली वस्तु के अनुसार अपने को विविध रूपों में प्रकट करती है। अतएव जो लोग भौतिक आसक्तियों से सर्वथा मुक्त हैं, ऐसे निर्मल बुद्धि वाले लोग आपके अभिन्न तथा अपरिवर्तनशील आत्मा को इन तमाम अस्थायी योनियों में स्थायी सत्य के रूप में साक्षात्कार करते हैं। प्रत्येक जीव अपने कर्म द्वारा सृजित भौतिक शरीरों में निवास करते हुए, वास्तव में, स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ से आच्छादित हुए बिना रहता है। जैसा कि वेदों में वर्णन हुआ है, ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह समस्त शक्तियों के स्वामी, आपका ही भिन्नांश है। जीव की ऐसी स्थिति को निश्चित करके ही विद्वान मुनिजन श्रद्धा से पूरित होकर, आपके उन चरणकमलों की पूजा करते हैं, जो मुक्ति के स्रोत हैं और जिन पर इस संसार की सारी वैदिक भेंटें अर्पित की जाती हैं। हे प्रभु, कुछ भाग्यशाली आत्माओं ने आपकी उन लीलाओं के विस्तृत अमृत सागर में गोता लगाकर भौतिक जीवन की थकान से मुक्ति पा ली है, जिन लीलाओं को आप अगाध आत्म-तत्त्व का प्रचार करने के लिए साकार रूप धारण करके सम्पन्न करते हैं। ये विरली आत्माएँ मुक्ति की भी परवाह न करके घर-बार के सुख का परित्याग कर देती हैं, क्योंकि उन्हें आपके चरणकमलों का आनन्द पाने वाले हंसों के समूह सदृश भक्तों की संगति प्राप्त हो जाती है। जब यह मानवीय शरीर आपकी पूजा के निमित्त काम में लाया जाता है, तो यह आत्मा, मित्र तथा प्रेमी की तरह कार्य करता है। किन्तु दुर्भाग्यवश, यद्यपि आप बद्धजीवों के प्रति सदैव कृपा प्रदर्शित करते हैं और हर तरह से स्नेहपूर्वक सहायता करते हैं और यद्यपि आप उनके असली आत्मा हैं, किन्तु सामान्य लोग आप में आनन्द नहीं लेते। उल्टे वे माया की पूजा करके आध्यात्मिक आत्महत्या करते हैं। हाय! असत्य के प्रति भक्ति करके, वे निरन्तर सफलता की आशा करते हैं, किन्तु वे विविध निम्न शरीर धारण करके इस अत्यन्त भयावह जगत में निरन्तर इधर-उधर भटकते रहते हैं। भगवान के शत्रुओं ने भी, निरन्तर मात्र उनका चिन्तन करते रहने से, उसी परम सत्य को प्राप्त किया, जिसे योगीजन अपने श्वास, अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करके योग-पूजा में स्थिर कर लेते हैं। इसी तरह हम श्रुतियाँ, जो सामान्यतः आपको सर्वव्यापी देखती हैं, आपके चरणकमलों से वही अमृत प्राप्त कर सकेंगी, जिसका आनन्द आपकी प्रियतमाएँ, आपकी विशाल सर्प सदृश बाहुओं के प्रति अपने प्रेमाकर्षण के कारण प्राप्त करती हैं, क्योंकि आप हमें तथा अपनी प्रियतमाओं को एक ही तरह से देखते हैं। इस जगत का हर व्यक्ति हाल ही में उत्पन्न हुआ है और शीघ्र ही मर जायेगा। अतएव यहाँ का कोई भी व्यक्ति, उसे कैसे जान सकता है, जो हर वस्तु के पूर्व से विद्यमान है और जिसने प्रथम विद्वान ऋषि ब्रह्मा को और उसके बाद के छोटे तथा बड़े देवताओं को जन्म दिया है? जब वह लेट जाता है और हर वस्तु को अपने भीतर समेट लेता है, तो कुछ भी नहीं बचता – न तो स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ, न ही इनसे बने शरीर, न ही काल की शक्ति और न शास्त्र । माने हुए विद्वान जो यह घोषित करते हैं कि पदार्थ ही जगत का उद्गम है, कि आत्मा के स्थायी गुणों को नष्ट किया जा सकता है, कि आत्मा तथा पदार्थ के पृथक पक्षों से मिलकर आत्मा बना है या कि सांसारिक व्यापारों (विपणन) से सच्चाई बनी हुई है – ऐसे विद्वान उन भ्रान्त विचारों पर अपनी शिक्षाओं को आधारित करते हैं, जो सत्य को छिपाते हैं। यह द्वैत धारणा कि जीव प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न है, अज्ञानजन्य मात्र है। ऐसी धारणा का आपमें कोई आधार नहीं है, क्योंकि आप समस्त भ्रम (मोह) से परे हैं और पूर्ण चेतना का भोग करने वाले हैं। इस जगत में सारी वस्तुएँ – सरलतम घटना से लेकर जटिल मानव-शरीर तक – प्रकृति के तीन गुणों से बनी हैं। यद्यपि ये घटनाएँ सत्य प्रतीत होती है, किन्तु वे आध्यात्मिक सत्य की मिथ्या प्रतिबिम्ब होती हैं। जो परमात्मा को जानते हैं, वे सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि को सत्य तथा साथ ही साथ आपसे अभिन्न मानते हैं। जिस तरह स्वर्ण की बनी वस्तुओं को, इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे असली सोने की बनी हैं, उसी तरह यह जगत उन भगवान से अभिन्न है, जिसने इसे बनाया और फिर वे उसमें प्रविष्ट हो गये।

27-30 जो भक्त आपको समस्त जीवों के आश्रय रूप में पूजते हैं, वे मृत्यु की परवाह नहीं करते और उनके सिर पर आप अपना चरण रखते हैं, लेकिन आप वेदों के शब्दों से अभक्तों को पशुओं की तरह बाँध लेते हैं, भले ही वे प्रकाण्ड विद्वान क्यों न हों। आपके स्नेहिल भक्तगण ही अपने को तथा अन्यों को शुद्ध कर सकते हैं, आपके प्रति शत्रु-भाव रखने वाले नहीं। यद्यपि आपकी भौतिक इन्द्रियाँ नहीं हैं, किन्तु आप हर एक की इन्द्रिय-शक्ति के आत्म-तेजवान धारणकर्ता हैं। देवता तथा प्रकृति स्वयं आपकी पूजा करते हैं, जबकि वे अपनी पूजा करने वालों द्वारा अर्पित भेंट का भोग भी करते हैं, जिस तरह किसी राज्य के विविध जनपदों के अधीन शासक अपने स्वामी को, जो कि पृथ्वी का चरम स्वामी होता है, भेंटें प्रदान करते हैं और साथ ही स्वयं अपनी प्रजा द्वारा प्रदत्त भेंट का भोग भी करते हैं। इस तरह आपके भय से ब्रह्माण्ड के स्रष्टा अपने नियत कार्यों को श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते हैं। हे नित्यमुक्त दिव्य भगवान, आपकी भौतिक शक्ति विविध जड़ तथा चेतन जीव योनियों को उनकी भौतिक इच्छाएँ जगाकर प्रकट कराती है, लेकिन ऐसा तभी होता है, जब आप उस पर अल्प दृष्टि डालकर उसके साथ क्रीड़ा करते हैं। हे भगवान, आप किसी को न तो अपना घनिष्ठ मित्र मानते हैं, न ही पराया, ठीक उसी तरह जिस तरह आकाश का अनुभवगम्य गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इस मामले में आप शून्य के समान हैं। यदि ये असंख्य जीव सर्वव्यापी होते और अपरिवर्तनशील शरीरों से युक्त होते, तो हे निर्विकल्प, आप सम्भवतः उनके परम शासक न हुए होते। लेकिन चूँकि वे आपके स्थानिक अंश हैं और उनके स्वरूप परिवर्तनशील हैं, अतएव आप उनका नियंत्रण करते हैं। निस्सन्देह, जो किसी वस्तु की उत्पत्ति के लिए अवयव की आपूर्ति करता है, वह अवश्यमेव उसका नियन्ता है, क्योंकि कोई भी उत्पाद अपने अवयव कारण से पृथक विद्यमान नहीं रहता। यदि कोई यह सोचे कि उसने भगवान को, जो अपने प्रत्येक अंश में समरूप से रहते हैं जान लिया है, तो यह मात्र उसका भ्रम है, क्योंकि मनुष्य जो भी ज्ञान भौतिक साधनों से अर्जित करता है, वह अपूर्ण होगा।

31-40  न तो प्रकृति, न ही उसका भोग करने के लिए प्रयत्नशील आत्मा कभी जन्म लेते हैं, फिर भी जब ये दोनों संयोग करते हैं, तो जीवों का जन्म होता है, जिस तरह जहाँ तहाँ जल से वायु मिलती है, वहाँ वहाँ बुलबुले बनते हैं। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलती हैं या विभिन्न फूलों का रस शहद में मिल जाता है, उसी तरह ये सारे बद्धजीव अन्ततोगत्वा अपने विविध नामों तथा गुणों समेत आप ब्रह्म में पुनः लीन हो जाते हैं। विद्वान आत्माएँ, जो यह समझते हैं कि आपकी माया, किस तरह सारे मनुष्यों को मोहती है, वे आपकी उत्कट प्रेमाभक्ति करते हैं, क्योंकि आप जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति के स्रोत हैं। भला आपके श्रद्धावान सेवकों को भौतिक जीवन का भय कैसे सता सकता है? दूसरी ओर, आपकी कुटिल भौहें, जो कालचक्र की तिहरी-नेमि हैं बारम्बार उन्हें भयभीत बनाती हैं, जो आपकी शरण ग्रहण करने से इनकार करते हैं। मन ऐसे उच्छृंखल घोड़े की तरह है, जिसको अपनी इन्द्रियों एवं श्वास को संयमित कर चुके व्यक्ति भी वश में नहीं कर सकते। इस संसार में वे लोग, जो अवश मन को वश में करना चाहते हैं, किन्तु अपने गुरु के चरणों का परित्याग कर देते हैं, उन्हें विविध दुखदायी विधियों के अनुशीलन में सैकड़ों बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हे अजन्मा भगवान, वे समुद्र में नाव पर बैठे उन व्यापारियों के समान हैं, जो किसी नाविक को भाड़े पर नहीं लेते।  जो व्यक्ति आपकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप परमात्मा स्वरूप दिखते हैं, जो समस्त दिव्य-आनन्द स्वरूप हैं। ऐसे भक्तों के लिए अपने सेवकों, बच्चों या शरीरों, अपनी पत्नियों, धन या घरों, अपनी भूमि या स्वास्थ्य या वाहनों का क्या उपयोग रह जाता है? जो आपके विषय में सच्चाई को समझने में असफल होते हैं तथा यौन-आनन्द के पीछे भागते रहते हैं, उनके लिए इस सम्पूर्ण जगत में, जो सदैव विनाशशील है और महत्त्व से विहीन है, ऐसा क्या है, जो उन्हें असली सुख प्रदान कर सके? ऋषिगण मिथ्या गर्व से रहित होकर पवित्र तीर्थस्थानों तथा जहाँ जहाँ भगवान ने अपनी लीलाएँ प्रदर्शित की हैं, उनका भ्रमण करते हुए इस पृथ्वी पर निवास करते हैं। चूँकि ऐसे भक्त आपके चरणकमलों को अपने हृदयों में रखते हैं, अतः उनके पाँवों को धोने वाला जल सारे पापों को नष्ट कर देता है। जो कोई अपने मन को एक बार भी समस्त जगत के नित्य आनन्दमय आत्मा आपकी ओर मोड़ता है, वह घर पर ऐसे पारिवारिक जीवन के अधीन नहीं रहता, जिससे मनुष्य के अच्छे गुण छीन लिये जाते हैं। यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि यह जगत स्थायी रूप से सत्य है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति स्थायी सत्य से हुई है, किन्तु इसका तार्किक खण्डन हो सकता है। निस्सन्देह, कभी कभी कार्य-कारण का ऊपरी अभेद सत्य नहीं सिद्ध हो पाता और कभी तो सत्य वस्तु का फल भ्रामक होता है। यही नहीं, यह जगत स्थायी रूप से सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह केवल परम सत्य के ही स्वभावों में भाग नहीं लेता, अपितु उस सत्य को छिपाने वाले भ्रम में भी लेता है। वस्तुतः इस दृश्य जगत के दृश्य रूप उन अज्ञानी पुरुषों की परम्परा द्वारा अपनाई गई काल्पनिक व्यवस्था है, जो अपने भौतिक मामलों को सुगम बनाना चाहते थे। आपके वेदों के बुद्धिमत्तापूर्ण शब्द अपने विविध अर्थों तथा अन्तर्निहित व्यवहारों से उन सारे पुरुषों को मोहित कर लेते हैं, जिनके मन यज्ञों के मंत्रोच्चारों को सुनते सुनते जड़ हो चुके हैं।   चूँकि यह ब्रह्माण्ड अपनी सृष्टि के पूर्व विद्यमान नहीं था और अपने संहार के बाद विद्यमान नहीं रहेगा, अतः हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मध्यावधि में यह आपके भीतर दृश्य रूप में कल्पित होता है, जिनका आध्यात्मिक आनन्द कभी नहीं बदलता। हम इस ब्रह्माण्ड की तुलना विविध भौतिक वस्तुओं के विकारों से करते हैं। निश्चय ही, जो यह विश्वास करते हैं कि यह छोटी-सी कल्पना सत्य है, वे अल्पज्ञ है। मोहिनी प्रकृति सूक्ष्म जीव को, उसका आलिंगन करने के लिए आकृष्ट करती है और फलस्वरूप जीव उसके गुणों से बने रूप धारण करता है। बाद में वह अपने सारे आध्यात्मिक गुण खो देता है और उसे बारम्बार मृत्यु भोगनी पड़ती है। किन्तु आप भौतिक शक्ति से अपने को उसी तरह बचाते रहते हैं, जिस तरह सर्प पुरानी केंचुल त्यागता है। आप आठ योगसिद्धियों से महिमायुक्त स्वामी हैं और असीम ऐश्वर्य का भोग करते हैं। संन्यास-आश्रम के जो सदस्य अपने हृदय से भौतिक इच्छा को समूल उखाड़ कर फेंक नहीं देते, वे अशुद्ध बने रहते हैं और इस तरह आप उन्हें अपने को समझने नहीं देते। यद्यपि आप उनके हृदयों में विद्यमान रहते हैं, किन्तु उनके लिए आप उस मणि की तरह हैं, जिसे मनुष्य गले में पहने हुए भी भूल जाता है कि वह गले में है। हे प्रभु, जो लोग केवल इन्द्रिय-तृप्ति के लिए योगाभ्यास करते हैं, उन्हें इस जीवन में तथा अगले जीवन में भी उस मृत्यु से, जो उन्हें नहीं छोड़ेगी, दण्ड मिलना चाहिए और आपसे भी, जिनके धाम तक, वे नहीं पहुँच सकते।  जब मनुष्य आपका साक्षात्कार कर लेता है, तो वह अपने विगत पवित्र तथा पापमय कर्मों से उदित होने वाले अच्छे तथा बुरे भाग्य की परवाह नहीं करता, क्योंकि इस अच्छे तथा बुरे भाग्य को नियंत्रित करने वाले एकमात्र आप हैं। ऐसा स्वरूपसिद्ध भक्त इसकी भी परवाह नहीं करता कि सामान्य जन उसके विषय में क्या कह रहे है? वह प्रतिदिन अपने कानों को आपके यशों से भरता रहता है, जो हर युग में मनु के वंशजों की अविच्छिन्न परम्परा से गाये जाते हैं। इस तरह आप उसका चरम मोक्ष बन जाते हैं।

41-48  चूँकि आप असीम हैं, अतः न तो स्वर्ग के अधिपति, न ही स्वयं आप अपनी महिमा के छोर तक पहुँच सकते हैं। असंख्य ब्रह्माण्ड अपने अपने खोलों में लिपटे हुए कालचक्र के द्वारा आपके भीतर घूमने के लिए उसी तरह बाध्य हैं, जिस तरह कि आकाश में धूल के कण इधर-उधर उड़ते रहते हैं, श्रुतियाँ आपको अपने अन्तिम निष्कर्ष के रूप में प्रकट करके सफल बनती हैं, क्योंकि वे आपसे पृथक हर वस्तु को अपनी निरसन विधि से विलुप्त कर देती हैं।  भगवान श्री नारायण ऋषि ने कहा: परमात्मा के विषय में ये आदेश सुनकर ब्रह्मा के पुत्रों को अपना चरम गन्तव्य समझ में आ गया। वे पूरी तरह संतुष्ट हो गए और उन्होंने सनन्दन की पूजा करके उनका सम्मान किया।  इस तरह उच्चतर स्वर्गलोकों में विचरण करनेवाले प्राचीन सन्तों ने सारे वेदों तथा पुराणों के इस अमृतमय तथा गुह्य रस को निचोड़ लिया।  और चूँकि तुम पृथ्वी पर इच्छानुसार विचरण करते हो, अतः हे ब्रह्मापुत्र, तुम्हें आत्मविज्ञान विषयक इन उपदेशों पर श्रद्धापूर्वक ध्यान करना चाहिए, क्योंकि ये सारे मनुष्यों की भौतिक इच्छाओं को – भस्म कर देते हैं। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब श्री नारायण ऋषि ने उन्हें इस तरह आदेश दिया, तो आत्मवान नारद मुनि ने, जिनका व्रत वीर क्षत्रिय की तरह है, उस आदेश को दृढ़ निष्ठा के साथ स्वीकार कर लिया। हे राजन, अब अपने सारे कार्यों में सफल होकर, उन्होंने जो कुछ सुना था, उस पर विचार किया और भगवान को इस प्रकार उत्तर दिया।  श्री नारद ने कहा: मैं उन निर्मल कीर्ति वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ, जो अपने सर्व-आकर्षक साकार अंशों को इसलिए प्रकट करते हैं, जिससे सारे जीव मुक्ति प्राप्त कर सकें। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: यह कहने के बाद नारद ने ऋषियों में अग्रणी श्री नारायण ऋषि को तथा उनके सन्त सदृश शिष्यों को भी शीश झुकाया। तब वे मेरे पिता द्वैपायन व्यास की कुटिया में लौट आये।  भगवान के अवतार व्यासदेव ने नारदमुनि का सत्कार किया और उन्हें बैठने के लिए आसन दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। तब नारद ने व्यास से वह कह सुनाया, जो उन्होंने श्री नारायण ऋषि के मुख से सुना था।

49-50 हे राजन, इस प्रकार मैंने तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर दे दिया है, जो इस विषय में तुमने मुझसे पूछा था कि – मन उस ब्रह्म तक कैसे पहुँचता है, जो भौतिक शब्दों द्वारा वर्णनीय नहीं है और भौतिक गुणों से रहित है। वह ही स्वामी है, जो इस ब्रह्माण्ड की निरन्तर निगरानी करता है, जो इसके प्रकट होने के पूर्व, उसके बीच में तथा उसके बाद विद्यमान रहता है। वह अव्यक्त भौतिक प्रकृति तथा आत्मा दोनों का स्वामी है। इस सृष्टि को उत्पन्न करके, वह इसके भीतर प्रवेश कर जाता है और प्रत्येक जीव के साथ रहता है। वहाँ पर वह भौतिक देहों की सृष्टि करता है और फिर उनके नियामक के रूप में रहने लगता है। उनकी शरण में जाकर मनुष्य माया के आलिंगन से बच सकता है, जिस तरह स्वप्न देख रहा व्यक्ति अपने शरीर को भूल जाता है। जो व्यक्ति भय से मुक्ति चाहता है, उसे चाहिए कि उस भगवान हरि का निरन्तर ध्यान धरे, जो सदैव सिद्धावस्था में रहता है और कभी भी भौतिक जन्म नहीं लेता।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय छियासी – अर्जुन द्वारा सुभद्रा–हरण तथा कृष्ण द्वारा अपने भक्तों को आशीर्वाद दिया जाना (10.86)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे ब्राह्मण, हम जानना चाहेंगे कि किस तरह अर्जुन ने बलराम तथा कृष्ण की बहन से विवाह किया, जो मेरी दादी थीं।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: दूर दूर तक यात्रा करते हुए और विविध तीर्थस्थानों का दर्शन करके अर्जुन प्रभास आये। वहाँ उन्होंने सुना कि बलराम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और कोई भी इसका समर्थन नहीं करता है। अर्जुन स्वयं उसके साथ विवाह करना चाहते थे, अतः उन्होंने त्रिदण्ड से सज्जित होकर संन्यासी का भेष बना लिया और द्वारका गये।

4 अपने प्रयोजन की पूर्ति के लिए, वे वर्षा ऋतु-भर वहीं रहते रहे। बलराम तथा नगर के अन्य वासियों ने उन्हें न पहचानते हुए, उनका सभी तरह से सम्मान तथा सत्कार किया।

5 एक दिन बलराम, उन्हें अपने घर आमंत्रित अतिथि के रूप में ले आये और अर्जुन ने बलराम द्वारा आदरपूर्वक अर्पित भोजन ग्रहण किया।

6 वहाँ उन्होंने अद्भुत कुमारी सुभद्रा को देखा, जो वीरों को मोहने वाली थी। उनकी आँखें हर्ष से खुली की खुली रह गई, उनका मन विचलित हो उठा और उसी के विचारों में लीन हो गया।

7 अर्जुन स्त्रियों के लिए अतीव आकर्षक थे, अतः ज्योंही सुभद्रा ने उन्हें देखा, वे उन्हें पति रूप में पाने की इच्छा करने लगीं। लजीली हँसी से तथा तिरछी चितवनों से उसने अपना हृदय तथा अपनी आँखें उन्हीं पर गड़ा दीं।

8 उसी का ध्यान करते तथा उसे उठा ले जाने के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए अर्जुन को चैन नहीं मिल रहा था।

9 एक बार भगवान के सम्मान में विशाल मन्दिर-उत्सव के अवसर पर, सुभद्रा रथ पर आरूढ़ होकर महल से बाहर आई। उस समय महारथी अर्जुन को उसका हरण करने का अवसर प्राप्त हुआ। सुभद्रा के माता-पिता तथा कृष्ण ने इसकी स्वीकृति दे दी थी।

10 अपने रथ पर खड़े होकर अर्जुन ने अपना धनुष धारण किया और उन बहादुर योद्धाओं तथा महल के रक्षकों को मार भगाया, जो उसका रास्ता रोकना चाह रहे थे। जब सुभद्रा के सम्बन्धी क्रोध से शोर मचाने लगे, तो उसने सुभद्रा को उसी तरह उठा लिया, जिस तरह सिंह छोटे-छोटे पशुओं के बीच से अपना शिकार ले जाता है।

11 जब बलराम ने सुभद्रा के अपहरण के विषय में सुना, तो वे उसी तरह विचलित हो उठे, जिस तरह पुर्णिमा के अवसर पर सागर क्षुब्ध होता है। किन्तु भगवान कृष्ण ने अपने परिवार के अन्य सदस्यों सहित आदरपूर्वक उनके पैर पकड़ लिए और सान्त्वना देकर उन्हें शान्त किया।

12 तब बलराम ने खुशी खुशी वर-वधू के पास अत्यन्त मूल्यवान दहेज की वस्तुएँ भेजीं, जिनमें हाथी, रथ, घोड़े तथा दास और दासियाँ सम्मिलित थे।

13 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: श्रुतदेव नामक कृष्ण का एक भक्त था, जो उच्च कोटि का ब्राह्मण था। भगवान कृष्ण की अनन्य भक्ति करने से पूर्णतया तुष्ट होने के कारण, वह शान्त एवं विद्वान था तथा इन्द्रिय-तृप्ति से सर्वथा मुक्त था।

14 विदेह के राज्य में मिथिला नामक नगरी में धार्मिक गृहस्थ के रूप में रहते हुए, वह अपने कर्तव्यों को पूरा करता और जो कुछ उसे आसानी से मिल जाता, उसी से अपना निर्वाह करता था।

15 विधाता की इच्छा से उसे प्रतिदिन अपने उदर-भरण के लिए उतना मिल जाता, जितने की उसे आवश्यकता होती – उससे अधिक नहीं। इतने से ही तुष्ट हुआ, वह अपने धार्मिक कार्यों को उचित रीति से सम्पन्न करता था।

16 हे परीक्षित, इसी तरह से उस राज्य का मिथिलवंशी शासक, जिसका नाम बहुलाश्व था, मिथ्या अहंकार से रहित था। ये दोनों ही भक्त भगवान अच्युत को अत्यन्त प्रिय थे।

17 इन दोनों से प्रसन्न होकर, दारुक द्वारा लाये गये अपने रथ पर चढ़कर, भगवान ने मुनियों की टोली समेत विदेह की यात्रा की।

18 इन मुनियों में नारद, वामदेव, अत्री, कृष्ण–द्वैपायन व्यास, परशुराम, असित, अरुणि, स्वयं मैं, बृहस्पति, कन्व, मैत्रेय तथा च्यवन सम्मिलित थे।

19 हे राजन, भगवान जिस जिस नगर तथा ग्राम से होकर गुजरे, वहाँ के निवासी अपने अपने हाथों में अर्ध्य की भेंट लेकर उनकी पूजा करने हेतु आगे आये, मानो वे ग्रहों से घिरे हुए सूर्य की पूजा करने आये हों।

20 आनर्त, धन्व, कुरु-जांगल, कंक, मत्स्य, पाञ्चाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोशल, अर्ण तथा अन्य कई राज्यों के पुरुषों तथा स्त्रियों ने भगवान कृष्ण के कमल सदृश मुख की अमृतमयी सुन्दरता का अपने नेत्रों से पान किया, जो उदार हँसी तथा स्नेहिल चितवन से सुशोभित था।

21 तीनों लोकों के गुरु भगवान कृष्ण ने उन सबों पर, जो उनको देखने आये थे, मात्र अपनी दृष्टि डालते हुए, उन्हें भौतिकतावाद के अंधकार से उबार लिया। इस तरह उन्हें निर्भीकता तथा दिव्य दृष्टि देते हुए भगवान ने देवताओं तथा मनुष्यों को उन्हीं का यश गाते सुना, जो सारे ब्रह्माण्ड को शुद्ध करनेवाला है और सारे दुर्भाग्य को विनष्ट करता है। धीरे- धीरे वे विदेह पहुँच गये।

22 हे राजा, यह सुनकर कि भगवान अच्युत आ चुके हैं, विदेह के नगर तथा ग्रामनिवासी हर्षपूर्वक अपने हाथों में भेंटें लेकर, उनका स्वागत करने आये।

23 जैसे ही लोगों ने उत्तमश्लोक भगवान को देखा, उनके मुखड़े तथा हृदय स्नेह से प्रफुल्लित हो उठे। अपने सिरों के ऊपर अंजुली बाँधकर, उन्होंने भगवान को, उनके साथ आये मुनियों को प्रणाम किया। भगवान के विषय में उन्होंने पहले केवल सुन रखा था।

24 मिथिला का राजा तथा श्रुतदेव दोनों ही प्रभु के चरणों पर गिर पड़े। दोनों ही यह सोच रहे थे कि ब्रह्माण्ड के गुरु उन पर अनुग्रह करने आये हैं।

25 एक ही समय पर मैथिलराज तथा श्रुतदेव हाथ जोड़े हुए आगे आये और दशार्हो के स्वामी को ब्राह्मण मुनियों समेत अपने अतिथि बनने के लिए आमंत्रित किया।

26 दोनों ही को प्रसन्न करने की इच्छा से भगवान ने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। इस तरह एक ही समय वे दोनों के घरों में गये और उनमें से कोई भी उन्हें दूसरे के घर में प्रवेश करते नहीं देख सका।

27-29 जब जनकवंशी बहुलाश्व ने दूर से भगवान कृष्ण को मुनियों समेत, जो यात्रा से कुछ कुछ थके थे, अपने घर की ओर आते देखा, तो उसने तुरन्त उनके लिए सम्मानित आसन लाये जाने की व्यवस्था की। जब वे सब सुखपूर्वक बैठ गये, तो बुद्धिमान राजा ने, जिसका हृदय प्रसन्नता से आप्लावित हो रहा था और जिसके नेत्र अश्रुओं से धूमिल हो रहे थे, उन सबों को नमन किया और गहन भक्ति के साथ उनके चरण पखारे। फिर इस प्रक्षालन-जल को, जो सारे संसार को शुद्ध कर सकता था, उन्होंने अपने सिर पर तथा अपने परिवार के सदस्यों के सिरों पर छिड़का। तत्पश्चात उसने सुगन्धित चन्दन-लेप, फूल की मालाओं, सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों, अगुरु, दीपक, अर्ध्य तथा गौवों और साँडों की भेंट देते हुए, उन महानुभावों की पूजा की।

30 जब वे भोजन कर चुके, तो उनको और प्रसन्न करने के लिए भगवान विष्णु के चरणों को अपनी गोद में रखकर और उन्हें सुखपूर्वक दबाते हुए राजा धीरे धीरे तथा मृदुल वाणी में बोला।

31 श्री बहुलाश्व ने कहा: हे सर्वशक्तिमान प्रभु, आप समस्त जीवों के आत्मा एवं उनके स्व-प्रकाशित साक्षी हैं और अब आप हम सबको, जो निरन्तर आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं, अपना दर्शन दे रहे हैं।

32 आपने कहा है, “मुझे अपने अनन्य भक्त की तुलना में न तो अनन्त, देवी श्री या न ही अजन्मा ब्रह्मा अधिक प्रिय है।" अपने ही शब्दों को सत्य सिद्ध करने के लिए, अब आपने हमारे नेत्रों के समक्ष अपने को प्रकट किया है।

33 ऐसा कौन पुरुष है, जो इस सत्य को जानते हुए कभी आपके चरणकमलों का परित्याग करेगा, जब आप उन शान्त मुनियों को अपने आप तक को दे डालने के लिए उद्यत रहते हैं, जो किसी भी वस्तु को अपनी नहीं कहते?

34 आपने यदुवंश में प्रकट होकर तीनों लोकों के समस्त पापों को दूर कर सकने में समर्थ अपने यश का विस्तार, जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसे हुओं का उद्धार करने के लिए ही किया है।

35 हे पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण, आपको नमस्कार है, जिनकी बुद्धि सदैव ही असीम है। ऋषि नर-नारायण को नमस्कार है, जो पूर्ण शान्ति में रहकर सदैव तपस्या करते रहते हैं।

36 हे सर्वव्यापी, कृपया इन ब्राह्मणों समेत मेरे घर में कुछ दिन ठहरें और अपने चरणों की धूलि से इस निमिवंश को पवित्र बनायें।

37 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: राजा द्वारा इस तरह आमंत्रित किये जाने पर जगत के पालनकर्ता भगवान ने मिथिला के नर-नारियों को सौभाग्य प्रदान करने हेतु कुछ समय तक ठहरने की सहमति दे दी।

38 श्रुतदेव ने अपने घर में भगवान अच्युत का उतने ही उत्साह के साथ स्वागत किया, जैसा कि राजा बहुलाश्व ने प्रदर्शित किया। भगवान तथा मुनियों को नमस्कार करके श्रुतदेव अपना दुशाला हिला-हिला कर परम हर्ष से नाचने लगा।

39 घास तथा दर्भ तृण से बनी चटाइयाँ लाकर तथा अपने अतिथियों को उन पर बैठाकर, उसने स्वागत के शब्दों द्वारा उनका सत्कार किया। तब उसने तथा उसकी पत्नी ने बड़ी ही प्रसन्नता के साथ उनके चरण पखारे।

40 उस चरणोदक को महाभाग श्रुतदेव ने अपने घर तथा परिवार वालों पर जी-भरकर छिड़का। अति हर्षित होकर उसने अनुभव किया कि अब उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गई हैं।

41 उसने सहज उपलब्ध होनेवाली शुभ सामग्री यथा फल, उशीर, शुद्ध अमृत तुल्य जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी दल, कुश तृण तथा कमल के फूल अर्पित करते हुए उनकी पूजा की। तब उसने उन्हें वह भोजन परोसा, जो सतोगुण को बढ़ाता है।

42 वह आश्चर्य करने लगा कि गृहस्थ जीवन के अंध कूप में गिरा हुआ मैं, भगवान कृष्ण से भेंट करने में कैसे समर्थ हो सका ? और मुझे कैसे इन महान ब्राह्मणों से मिलने दिया गया, जो अपने हृदयों में सदैव भगवान को धारण किये रहते हैं? निस्सन्देह उनके चरणों की धूलि समस्त तीर्थस्थानों के आश्रय रूप हैं।

43 जब उसके अतिथि समुचित सम्मान प्राप्त करके सुखपूर्वक बैठ गये, तो श्रुतदेव उनके निकट गया और अपनी पत्नी, बच्चों तथा अन्य आश्रितों समेत उनके समीप बैठ गया। तत्पश्चात भगवान के चरणों को दबाते हुए, उसने कृष्ण तथा मुनियों को सम्बोधित किया।

44 श्रुतदेव ने कहा: ऐसा नहीं है कि हमने केवल आज ही परम पुरुष का दर्शन किया है, क्योंकि जब से उन्होंने अपनी शक्तियों से इस ब्रह्माण्ड की रचना की है और अपने दिव्य रूप से उसमें प्रविष्ट हुए हैं, तब से हम उनका सान्निध्य प्राप्त करते रहे हैं।

45 भगवान उस सोये हुए व्यक्ति की तरह हैं, जो अपनी कल्पना में पृथक जगत का निर्माण करता है और तब अपने ही स्वप्न में प्रवेश करता है तथा उसके भीतर अपने को देखता है।

46 आप उन शुद्ध चेतना वाले मनुष्यों के हृदयों के भीतर अपने को प्रकट करते हैं, जो निरन्तर आपके विषय में सुनते हैं, आपका कीर्तन करते हैं, आपकी पूजा करते हैं, आपका गुणगान करते हैं और आपके ही विषय में एक-दूसरे से चर्चायें करते हैं।

47 किन्तु हृदय के भीतर वास करते हुए भी आप उनसे बहुत दूर रहते हैं, जिनके मन भौतिक कार्यों में उलझने से विचलित रहते है। दरअसल कोई भी आपको भौतिक शक्तियों द्वारा पकड़ नहीं सकता, क्योंकि आप केवल उन लोगों के हृदयों में प्रकट होते हैं, जिन्होंने आपके दिव्य गुणों की प्रशंसा करना सीख लिया है।

48 मैं आपको नमस्कार करता हूँ। परम सत्य को जानने वालों द्वारा आप परमात्मा के रूप में अनुभव किये जाते हैं, जबकि काल रूप में आप विस्मरणशील जीवों के लिए मृत्यु स्वरूप हैं। आप अपने अहैतुक आध्यात्मिक रूप में तथा इस ब्रह्माण्ड के सृजित रूप में प्रकट होते हैं। इस तरह आप एक ही समय अपने भक्तों की आँखें खोलते हैं और अभक्तों की दृष्टि को बाधित करते हैं।

49 हे प्रभु आप ही परमात्मा हैं और हम आपके दास हैं। हम आपकी सेवा किस तरह करें? हे प्रभु, आपके दर्शन मात्र से मनुष्य जीवन के सारे क्लेशों का अन्त हो जाता है।

50 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: श्रुतदेव को ये शब्द कहते सुनकर, शरणागतों के कष्ट को दूर करनेवाले भगवान ने श्रुतदेव के हाथ को अपने हाथ में ले लिया और हँसते हुए, उससे इस प्रकार बोले।

51 भगवान ने कहा: हे ब्राह्मण, तुम यह जान लो कि ये महान ऋषिगण यहाँ तुम्हें आशीर्वाद देने ही आये हैं। ये मेरे साथ साथ सारे जगतों में भ्रमण करते हैं और अपने चरणों की धूल से, उन्हें पवित्र करते हैं।

52 मनुष्य मन्दिर के अर्चाविग्रहों, तीर्थस्थलों तथा पवित्र नदियों के दर्शन, स्पर्श तथा पूजन से धीरे धीरे शुद्ध बन सकता है। किन्तु महान मुनियों की कृपादृष्टि प्राप्त करने मात्र से, उसे तत्काल वही फल प्राप्त हो सकता है।

53 ब्राह्मण अपने जन्म से ही इस जगत में समस्त जीवों में श्रेष्ठ है, किन्तु वह तब और भी उच्चस्थ बन जाता है, जब वह तपस्या, विद्या तथा आत्म-संतोष से युक्त होता है। यदि मेरे प्रति उसकी भक्ति हो, तो फिर कहना ही क्या है।

54 यहाँ तक कि मुझे ब्राह्मणों की तुलना में अपना चतुर्भुजी रूप अधिक प्रिय नहीं है। एक विद्वान ब्राह्मण में सारे वेद उसी तरह रहते हैं, जिस तरह मेरे भीतर सारे देवता रहते हैं।

55 इस सत्य से अनजान मूर्ख लोग उस विद्वान ब्राह्मण की उपेक्षा करते हैं और ईर्ष्यावश अपमान करते हैं, जो मुझसे अभिन्न होने के कारण, उनका आत्मा तथा गुरु होता है। वे मेरे अर्चाविग्रह स्वरूप जैसे स्पष्ट दैवी प्राकटयों को ही, एकमात्र पूज्य स्वरूप मानते हैं।

56 मेरा साक्षात्कार प्राप्त किये होने से, ब्राह्मण इस ज्ञान में सुस्थिर रहता है कि इस ब्रह्माण्ड की सारी जड़ तथा चेतन वस्तुएँ एवं इसकी सृष्टि के मूल तत्त्व भी, मुझसे ही विस्तारित हुए प्रकट-रूप हैं।

57 अतः हे ब्राह्मण, तुम्हें चाहिए कि इन ब्रह्मर्षियों की पूजा उसी श्रद्धा से करो, जो तुम्हें मुझमें है। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम मेरी प्रत्यक्ष पूजा करोगे, जिसे तुम प्रचुर धन अर्पित करके भी नहीं कर सकते।

58 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने प्रभु से इस तरह आदेश पाकर श्रुतदेव ने एकात्म भाव से श्रीकृष्ण की तथा उनके साथ आये सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों की पूजा की। राजा बहुलाश्व ने भी ऐसा ही किया। इस तरह श्रुतदेव तथा राजा दोनों ही को चरम दिव्य गन्तव्य प्राप्त हुआ।

59 हे राजन, इस तरह अपने भक्तों के प्रति अनुरक्त भगवान अपने दो महान भक्तों, श्रुतदेव तथा बहुलाश्व के साथ कुछ समय तक उन्हें पूर्ण सन्तों के आचरण की शिक्षा देते हुए वही रहते रहे। तब भगवान द्वारका लौट गये।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय पिचासी – कृष्ण द्वारा वसुदेव को उपदेश दिया जाना तथा देवकी-पुत्रों की वापसी (10.85)

1 श्री बादरायणि ने कहा: एक दिन वसुदेव के दोनों पुत्र संकर्षण तथा कृष्ण उनके पास आये और उनके चरणों पर नतमस्तक होकर प्रणाम किया।

2 वसुदेव ने बड़े ही स्नेह से उनका सत्कार किया। अपने दोनों पुत्रों की शक्ति के विषय में महर्षियों के कथन सुनकर तथा उनके वीरतापूर्ण कार्यों को देखकर वसुदेव को उनकी दिव्यता पर पूर्ण विश्वास हो गया।

3 अतः वसुदेव ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे योगिश्रेष्ठ, हे नित्य संकर्षण, मैं जानता हूँ कि तुम दोनों निजी तौर पर ब्रह्माण्ड की सृष्टि के कारणस्वरूप और अवयव भी हो।

4 आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, जो प्रकृति तथा प्रकृति के स्रष्टा (महाविष्णु) दोनों के स्वामी के रूप में प्रकट होते हैं। फिर भी प्रत्येक वस्तु जिसका अस्तित्व बनता है वह आपके भीतर, आपके द्वारा, आपके लिए तथा आपसे ही सम्बन्धित होती है।

5 हे दिव्य प्रभु, आपने इस विचित्र ब्रह्माण्ड की रचना की और तब आप परमात्मा के स्वरूप में इसमें प्रविष्ट हुए। इस तरह हे अजन्मा परमात्मा, आप प्रत्येक व्यक्ति के प्राण तथा चेतना तत्त्व के रूप में सृष्टि का पालन करनेवाले हैं।

6 प्राण तथा ब्रह्माण्ड-सृजन के अन्य तत्त्व, जो भी शक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, वे वास्तव में भगवान की निजी शक्तियाँ हैं, क्योंकि प्राण तथा पदार्थ दोनों ही उनके अधीन, आश्रित और एक-दूसरे से भिन्न भी हैं। इस तरह भौतिक जगत की प्रत्येक सक्रिय वस्तु भगवान द्वारा ही गतिशील बनाई जाती है।

7 आप चन्द्रमा की कान्ति, अग्नि का तेज, सूर्य की चमक, तारों का टिमटिमाना, बिजली की दमक, पर्वतों का स्थायित्व, पृथ्वी की सुगन्ध एवं धारणशक्ति हैं।

8 हे प्रभु, आप जल हैं और इसका आस्वाद तथा प्यास बुझाने एवं जीवन धारण करने की क्षमता भी हैं। आप अपनी शक्तियों का प्रदर्शन वायु के द्वारा शरीर की उष्णता, जीवन-शक्ति, मानसिक शक्ति, शारीरिक शक्ति, प्रयास तथा गति के रूप में करते हैं।

9 आप ही दिशाएँ एवं उनकी अनुकूलन-क्षमता, सर्वव्यापक आकाश तथा इसके भीतर वास करने वाली ध्वनि (स्फोट) हैं। आप आदि अप्रकट ध्वनि रूप (नाद) अक्षर ॐ और श्रव्य वाणी हैं, जिसके द्वारा शब्दों के रूप में ध्वनि विशिष्ट प्रसंग बन जाती है।

10 आप इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं द्वारा–ऐन्द्रिय कार्यों को करने हेतु दिये गये अधिकार और वस्तुओं को प्रकट करने की इन्द्रिय-शक्ति हैं। आप जीव के निर्णय लेने की तथा वस्तुओं को सही-सही स्मरण रखने की बुद्धि-क्षमता हैं।

11 आप ही तमोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो भौतिक तत्त्वों का स्रोत है; आप रजोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो शारीरिक इन्द्रियों का स्रोत हैं; सतोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो देवताओं का स्रोत है तथा आप ही अप्रकट सम्पूर्ण भौतिक शक्ति हैं, जो हर वस्तु की मूलाधार है।

12 जिस तरह कोई मूलभूत वस्तु अपरिवर्तित रहती दिखती है, जबकि उससे बनी वस्तुओं में रूपान्तर आ जाता है उसी तरह इस नश्वर जगत में आप एकमात्र अनश्वर जीव हैं।

13 प्रकृति के गुण – यथा सतो, रजो तथा तमोगुण – अपने सारे कार्यों समेत आप अर्थात परम सत्य के भीतर आपकी योगमाया की व्यवस्था के द्वारा सीधे प्रकट होते हैं।

14 प्रकृति के विकार स्वरूप ये सृजित जीव तभी विद्यमान रहते हैं, जब भौतिक प्रकृति उन्हें आपके भीतर प्रकट करती है।

15 वे सचमुच अज्ञानी हैं, जो इस जगत में भौतिक गुणों के निरन्तर प्रवाह के भीतर बन्दी रहते हुए आपको अपने चरम सूक्ष्म गन्तव्य परमात्मा स्वरूप जान नहीं पाते। अपने अज्ञान के कारण भौतिक कर्म का बन्धन ऐसे जीवों को जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमने के लिए बाध्य कर देता है।

16 सौभाग्य से जीव मनुष्य-जीवन प्राप्त करता है, जो विरले ही प्राप्त होने वाला सुअवसर होता है, किन्तु इतने पर भी यदि वह स्वयं के लिये जो कल्याणप्रद है – उस विषय में मोहग्रस्त रहता है, तो आपकी माया उसे अपना सारा जीवन नष्ट करने के लिए बाध्य कर सकती है।

17 आप स्नेह की रस्सियों से इस सारे संसार को बाँधे रहते हैं, अतः जब लोग अपने भौतिक शरीरों पर विचार करते हैं, तो वे सोचते हैं, “यह मेरा है" और जब वे अपनी सन्तान तथा अन्य सम्बन्धियों पर विचार करते हैं, तो वे सोचते हैं, “ये मेरे हैं।"

18 आप हमारे पुत्र नहीं हैं, अपितु प्रकृति तथा उसके स्रष्टा महाविष्णु दोनों ही के स्वामी हैं, जैसा कि आपने स्वयं कहा है कि आप पृथ्वी को उन शासकों से मुक्त करने के लिए अवतरित हुए हैं – जो उस पर अत्यधिक भार बने हुए हैं।

19 इसलिए, हे दुखियों के मित्र, अब मैं शरण के लिए आपके चरणकमलों के पास आया हूँ – ये वही चरणकमल हैं, जो शरणागतों के सारे सांसारिक भय को दूर करनेवाले हैं। बस, इन्द्रिय-भोग की लालसा बहुत हो चुकी, जिसके कारण मैं अपनी पहचान इस मर्त्य शरीर से करता हूँ और आपको अर्थात परम पुरुष को अपना पुत्र समझता हूँ।

20 निस्सन्देह आपने हमें प्रसूति-गृह में ही बतला दिया था कि आप अजन्मा हैं और इसके पूर्व के युगों में कई बार हमारे पुत्र के रूप में जन्म ले चुके हैं। आपने धर्म की रक्षा के लिए इन दिव्य शरीरों को प्रकट करने के बाद उन्हें छिपा लिया, जिस तरह बादल प्रकट होते हैं और लुप्त हो जाते हैं। हे परम महिमामय सर्वव्यापक भगवान, आपके विभूति अंशों की भ्रान्तिपूर्ण माया को कौन समझ सकता है?

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने पिता के वचनों को सुनने के बाद सात्वतों के नायक भगवान ने विनयपूर्वक अपना सिर झुकाया, मन्द-मन्द हँसे और मृदुल वाणी में उत्तर दिया।

22 भगवान ने कहा: हे पिताश्री, मैं आपके वचनों को सर्वथा उपयुक्त मानता हूँ, क्योंकि आपने हमें अर्थात अपने पुत्रों का सन्दर्भ देते हुए संसार की विविध कोटियों की व्याख्या की है।

23 हे यदुश्रेष्ठ, न केवल मुझे, अपितु आपको, मेरे पूज्य भ्राता को तथा ये द्वारकावासी इन सबको भी इसी दार्शनिक आलोक में देखा जाना चाहिए। दरअसल हमें जड़ तथा चेतन दोनों ही प्रकार की समस्त सृष्टि को इसमें सम्मिलित करना चाहिए।

24 दरअसल परमात्मा एक है, वह आत्मज्योतित, नित्य, दिव्य एवं भौतिक गुणों से रहित है। किन्तु इन्हीं गुणों के माध्यम से उसने सृष्टि की है, जिससे एक ही परम सत्य उन गुणों के अंशों में अनेक रूप में प्रकट होता है।

25 आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी ये तत्त्व विविध वस्तुओं में प्रकट होते समय दृश्य, अदृश्य, लघु या विशाल बन जाते हैं। इसी तरह परमात्मा एक होते हुए भी अनेक प्रतीत होता है।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा:हे राजन, भगवान द्वारा कहे गये इन उपदेशों को सुनकर वसुदेव समस्त द्वैत-भाव से मुक्त हो गये। हृदय में तुष्ट होकर वे मौन रहे।

27-28 हे कुरुश्रेष्ठ, उसी समय सर्वत्र पूजनीय देवकी ने अपने दोनों पुत्रों, कृष्ण तथा बलराम को सम्बोधित करने का अवसर पाया। इसके पूर्व उन्होंने अत्यन्त विस्मय के साथ यह सुन रखा था कि उनके ये पुत्र अपने गुरु के पुत्र को मृत्यु से वापस ले आए थे। अब वे कंस द्वारा वध किये गये अपने पुत्रों का चिन्तन करते हुये अत्यन्त दुखी हुई और अश्रुपूरित नेत्रों से कृष्ण तथा बलराम से दीनतापूर्वक बोलीं।

29 श्री देवकी ने कहा: हे राम, हे राम, हे अप्रमेय परमात्मा, हे कृष्ण, हे सभी योगेश्वरों के स्वामी, मैं जानती हूँ कि तुम दोनों समस्त ब्रह्माण्ड सृष्टिकर्ताओं के परम शासक आदि भगवान हो।

30 मुझसे जन्म लेकर तुम इस जगत में उन राजाओं का वध करने के लिए अवतरित हुए हो, जिनके उत्तम गुण वर्तमान युग के द्वारा विनष्ट हो चुके हैं और जो इस प्रकार से शास्त्रों की सत्ता का उल्लंघन करते हैं और पृथ्वी का भार बनते हैं।

31 हे विश्वात्मा, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार – ये सभी आपके अंश के अंश के अंश के भी एक अंश द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। हे भगवान, मैं आज आपकी शरण में आई हूँ।

32-33 ऐसा कहा जाता है कि जब आपके गुरु ने अपने बहुत पहले मर चुके पुत्र को वापस लाने के लिए आपको आदेश दिया, तो आप गुरु-दक्षिणा के प्रतीकस्वरूप उसे पूर्वजों के धाम से वापस ले आये। हे योगेश्वरों के भी ईश्वर, मेरी इच्छा को भी उसी तरह पूरी कीजिये। कृपया भोजराज द्वारा मारे गये मेरे पुत्रों को वापस ला दीजिये, जिससे मैं उन्हें फिर से देख सकूँ ।

34 श्रील शुकदेव मुनि ने कहा: हे परीक्षित, अपनी माता द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर कृष्ण तथा बलराम ने अपनी योगमाया शक्ति का प्रयोग करके सुतल लोक में प्रवेश किया।

35 जब दैत्यराज बलि ने दोनों प्रभुओं को आते देखा, तो उसका हृदय प्रसन्नता के मारे फूल उठा, क्योंकि वह उन्हें परमात्मा तथा सम्पूर्ण विश्व के, विशेष रूप से अपने पूज्य देव के रूप में, जानते थे। अतः वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ और अपने सारे पार्षदों सहित उन्हें झुककर प्रणाम किया।

36 बलि ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें उच्च आसन प्रदान किया। जब वे बैठ गये, तो उसने दोनों प्रभुओं के पाँव पखारे। फिर उसने उस जल को, जो ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत को पवित्र बनाने वाला है, लेकर अपने तथा अपने अनुयायियों के ऊपर छिड़का।

37-38 उसने अपने पास उपलब्ध सारी सम्पदा – बहुमूल्य वस्त्र, गहने, सुगन्धित चन्दन-लेप, पान दीपक, अमृत तुल्य भोजन इत्यादि – से उन दोनों की पूजा की। इस तरह उसने उन्हें अपने परिवार की सारी धन-सम्पदा तथा स्वयं को भी अर्पित कर दिया। तब इन्द्र की सेना के विजेता, अश्रुपूरित, गहन प्रेम से द्रवित हृदय वाले बलि रुँधे गले से बोलने लगे।

39 राजा बलि ने कहा: समस्त जीवों में महानतम अनन्त देव को नमस्कार है। ब्रह्माण्ड के सृष्टा भगवान कृष्ण को नमस्कार है, जो सांख्य तथा योग के सिद्धान्तों का प्रसार करने के लिए निर्विशेष ब्रह्म तथा परमात्मा के रूप में प्रकट होते हैं।

40 अनेक जीवों के लिए आप दोनों विभुओं के दर्शन दुर्लभ हैं, किन्तु तमोगुण तथा रजोगुण में स्थित हमारे जैसे व्यक्ति भी सुगमता से आपके दर्शन पा सकते हैं, जब आप स्वेच्छा से प्रकट होते हैं।

41-43 ऐसे अनेक लोग जो आपके प्रति शत्रुता में निरन्तर लीन रहते थे, अन्त में आपके प्रति आकृष्ट हो गये। इन शत्रुओं में दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत, प्रमथ, नायक एवं हम तथा हमारे जैसे अनेक लोग सम्मिलित हैं। हममें से कुछ तो विशेष घृणा के कारण, कुछ कामनाओं के कारण और कुछ भक्तिभाव से आपके प्रति आकृष्ट हुए हैं। किन्तु देवता तथा भौतिक सतोगुण से मुग्ध अन्य लोग आपके प्रति वैसे आकर्षण का अनुभव नहीं कर पाते।

44 हे पूर्ण योगियों के स्वामी! बड़े से बड़े योगी भी यह नहीं जानते कि आपकी योगमाया क्या है, अथवा वह कैसे कार्य करती है?

45 कृपया मुझ पर दया करें, जिससे मैं गृहस्थ जीवन के अंध कूप से – अपने मिथ्या घर से – बाहर निकल सकूँ और आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर सकूँ, जिसकी खोज निष्काम साधु सदैव करते रहते हैं। तब मैं या तो अकेले या सबों के मित्र स्वरूप महान सन्तों के साथ मुक्तरूप से विचरण कर सकूँ और विश्व-भर को दान देने वाले वृक्षों के नीचे जीवन की आवश्यकताएँ पूरी कर सकूँ ।

46 हे समस्त अधीन प्राणियों के स्वामी, कृपा करके हमें बतायें कि हम क्या करें और इस तरह हमें सारे पापों से मुक्त कर दें। हे प्रभु, जो व्यक्ति आपके आदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करता है, उसे सामान्य वैदिक अनुष्ठानों का पालन करना अनिवार्य नहीं है।

47 भगवान ने कहा: प्रथम मनु के युग में मरीचि ऋषि की पत्नी ऊर्णा से छह पुत्र उत्पन्न हुए। वे सभी उच्च देवता थे, किन्तु एक बार, जब उन्होंने ब्रह्मा को अपनी ही पुत्री के साथ संसर्ग करने के लिए उद्यत देखा, तो उन्हें हँसी आ गई।

48-49 उस अनुचित कार्य के लिए, वे तुरन्त आसुरी योनि में प्रविष्ट हुए और इस तरह उन्होंने हिरण्यकशिपु के पुत्रों के रूप में जन्म लिया। देवी योगमाया ने इनको हिरण्यकशिपु से छीन लिया और वे पुनः देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए। इसके बाद हे राजा, कंस ने उन सबका वध कर दिया। देवकी आज भी उन पुत्रों का स्मरण करके शोक करती हैं। मरीचि के वे ही पुत्र अब आपके साथ यहाँ रह रहे हैं।

50 हम इन्हें इनकी माता का शोक दूर करने के लिए इस स्थान से ले जाना चाहते हैं। तब अपने शाप से विमुक्त होकर तथा समस्त कष्टों से छूटकर, वे स्वर्ग में अपने घर लौट जायेंगे।

51 मेरी कृपा से स्मर, उद्गीथ, परिष्वंग, पाटन, क्षुद्रभृत तथा घृणी – ये छहों शुद्ध सन्तों के धाम वापस जायेंगे।

52-56 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह कहकर भगवान कृष्ण तथा बलराम बलि महाराज द्वारा भलीभाँति पूजित होकर छहों पुत्रों के लेकर द्वारका लौट आये और उन्हें उनकी माता को सौंप दिया। देवकी ने जब अपने खोये हुए बालकों को देखा, तो वात्सल्यवश सबको आलिंगनबद्ध किया और गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। पुत्रों को बड़े प्रेम से दुग्ध-पान करने दिया और ब्रह्माण्ड का सृजन करने वाली विष्णु-माया से मोहित हो गई। सभी पुत्रों ने माता-पिता, गोविन्द तथा बलराम को नमस्कार किया और देवताओं के धाम प्रस्थान कर गये।

57 हे राजन, अपने मृत पुत्रों को वापस आते और फिर प्रस्थान करते देखकर देवकी ने निष्कर्ष निकाला कि यह सब कृष्ण की ही माया थी।

58 हे राजन, असीम पराक्रम वाले प्रभु, परमात्मा श्रीकृष्ण ने इस तरह की आश्चर्यजनक असंख्य लीलाएँ सम्पन्न कीं।

59 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: नित्य कीर्ति वाले भगवान कृष्ण द्वारा की गई यह लीला ब्रह्माण्ड के सारे पापों को पूरी तरह नष्ट करती है और भक्तों के कानों के लिए दिव्य आभूषण जैसा काम करती है। जो भी व्यासदेव के पूज्य पुत्र द्वारा सुनाई गई इस कथा को ध्यानपूर्वक सुनता या सुनाता है, वह भगवान के ध्यान में अपने मन को स्थिर कर सकेगा और ईश्वर के सर्वमंगलमय धाम को प्राप्त करेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चौरासी – कुरुक्षेत्र में ऋषियों के उपदेश (10.84)

1-5 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: पृथा, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, अन्य राजाओं की पत्नियाँ, भगवान की ग्वालिन सखियाँ, सभी जीवों के आत्मा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी रानियों के अगाध प्रेम को सुनकर चकित थीं और उनके नेत्रों में आँसू डबडबा आये।  जब स्त्रियाँ स्त्रियों से और पुरुष पुरुषों से परस्पर बातें कर रहे थे, तो अनेक मुनिगण वहाँ आ पधारे। वे सभी कृष्ण तथा बलराम का दर्शन पाने के लिए उत्सुक थे। इनमें द्वैपायन, नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भारद्वाज, गौतम, परशुराम तथा उनके शिष्य, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्री, मार्कण्डेय तथा बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, चारों कुमार, अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य तथा वामदेव सम्मिलित थे।

6-8 ज्योंही, उन्होंने मुनियों को आते देखा, सारे राजा तथा अन्य लोग, जो वहाँ बैठे थे, तुरन्त उठ खड़े हुए, जिनमें पाँचों पाण्डव तथा कृष्ण एवं बलराम भी थे। तब सबों ने उन विश्ववन्द्य मुनियों को प्रणाम किया। भगवान कृष्ण, बलराम तथा अन्य राजाओं एवं प्रमुख व्यक्तियों ने उन मुनियों का, सत्कार, आसन, पाद-प्रक्षालन का जल, पीने के लिए जल, फूल-मालाएँ, अगुरु तथा चन्दन-लेप अर्पित करते हुए विधिपूर्वक पूजा की। जब सारे मुनि सुखपूर्वक बैठ गये, तो धर्म की रक्षा के निमित्त दिव्य शरीर धारण करने वाले भगवान कृष्ण ने उस विराट सभा में उन्हें सम्बोधित किया। हर व्यक्ति ने मौन होकर बड़े ही ध्यान से सुना।

9-13 भगवान ने कहा: अब हमारे जीवन निश्चित रूप से सफल हो गये, क्योंकि हमें जीवन का चरम लक्ष्य – महान योगेश्वरों के दर्शन, जो देवताओं को विरले ही मिल पाता है – प्राप्त हो गया है। वे लोग जो अधिक तपस्वी नहीं हैं, जो ईश्वर को मन्दिर में उनके अर्चाविग्रह के रूप में ही पहचानते हैं, भला ऐसे लोग अब आपको कैसे देख सकते हैं, छू सकते हैं, आपसे प्रश्न कर सकते हैं, आपको नमस्कार कर सकते हैं, आपके चरणों की पूजा कर सकते हैं और अन्य विधियों से आपकी सेवा कर सकते हैं? केवल जलमय स्थान ही असली पवित्र तीर्थस्थान नहीं होते, न ही मिट्टी तथा पत्थर की कोरी प्रतिमाएँ असली आराध्यदेव हैं। ये किसी को दीर्घकाल के बाद ही पवित्र कर पाते हैं, किन्तु सन्त स्वभाव वाले मुनिजन दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं। न तो अग्नि के नियामक देवता सूर्य तथा चन्द्रमा, न ही पृथ्वी, तारागण, जल, आकाश, वायु, वाणी तथा मन के अधिष्ठाता देवता अपने उन पूजकों के पापों को हर पाते हैं, जो द्वैत के दृष्टिकोण से देखने के अभ्यस्त हैं। किन्तु ज्ञानी मुनिजन आदरपूर्वक कुछ ही क्षणों तक भी सेवा किये जाने पर, मनुष्य के पापों को नष्ट कर देते हैं। जो व्यक्ति कफ, पित्त तथा वायु से बनी निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है, जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है, जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है, किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता, उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता, उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता – ऐसा व्यक्ति पशु तुल्य है।

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: असीम ज्ञानी भगवान कृष्ण से ऐसा अगाध शब्द सुनकर विद्वान ब्राह्मण मौन रह गये। उनके मन भ्रमित थे।

15 मुनिगण कुछ समय तक भगवान के इस आचरण पर विचार करते रहे, जो एक अधीनस्थ जीव के आचरण जैसा लग रहा था। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि वे सामान्य जनों को उपदेश देने के लिए ऐसा अभिनय कर रहे हैं। अतः वे मुस्कराये और जगदगुरु से इस प्रकार बोले।

16 उन महान मुनियों ने कहा: आपकी माया-शक्ति ने सत्य को सर्वोत्तम ढंग से जानने वाले तथा विश्व के प्रमुख स्रष्टा हम सबों को मोहित कर लिया है। ओह! भगवान का आचरण कितना आश्चर्यजनक है! वे मानव जैसे कार्यों से आच्छादित करके अपने को किसी श्रेष्ठ नियंत्रण के अधीन होने का स्वाँग रच रहे हैं।

17 निस्सन्देह, सर्वशक्तिमान की मनुष्य जैसी लीलाएँ केवल बहाना हैं। वे बिना प्रयास के ही अपने में से इस रंगबिरंगी सृष्टि को उत्पन्न करते हैं, इसका पालन करते हैं और फिर इसे निगल जाते हैं। आप यह सब बिना बँधे ही करते हैं, जिस तरह पृथ्वी-तत्त्व अपने विविध रूपान्तरों (विकारों) में अनेक नाम तथा रूप ग्रहण करती रहती है।

18 तो भी उचित अवसरों पर आप अपने भक्तों की रक्षा करने तथा दुष्टों को दण्ड देने के लिए शुद्ध सतोगुणी रूप धारण करते हैं। इस तरह वर्णाश्रम के आत्मास्वरूप आप भगवान अपनी आनन्द-लीलाओं का भोग करते हुए वेदों के शाश्वत पथ को बनाये रखते हैं।

19 वेद आपके निर्मल हृदय हैं और उनके माध्यम से तपस्या, अध्ययन एवं आत्मसंयम द्वारा मनुष्य प्रकट, अप्रकट तथा इन दोनों से परे शुद्ध अस्तित्व को देख सकता है।

20 अतएव हे परब्रह्म, आप ब्राह्मण कुल के सदस्यों का आदर करते हैं, जिनके माध्यम से वेदों के साक्ष्य द्वारा कोई व्यक्ति आपका साक्षात्कार कर सकता है। इसी कारण से आप ब्राह्मणों के अग्रणी पूजक हैं।

21 आज हमारा जन्म, शिक्षा, तपस्या तथा दृष्टि सभी पूर्ण हो चुके हैं, क्योंकि हम समस्त सन्त-पुरुषों के लक्ष्य, आपसे सान्निध्य प्राप्त करने में समर्थ हो सके हैं। निस्सन्देह आप स्वयं ही अनन्तिम, अर्थात परम आशीर्वाद हैं।

22 हम अनन्त बुद्धि वाले परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करते हैं, जिन्होंने योगमाया द्वारा अपनी महानता को छिपा रखा है।

23 न तो ये राजा, न ही वृष्णिगण, जो आपकी घनिष्ठ संगति का आनन्द उठाते हैं, आपको समस्त सृष्टि के आत्मा, काल की शक्ति तथा परम नियन्ता के रूप में जानते हैं। उनके लिए तो आप माया के पर्दे से ढके रहते हैं।

24-25 सोया हुआ व्यक्ति अपने को एक वैकल्पिक सत्य मानता है और स्वयं यह देखते हुए कि उसके विविध नाम तथा रूप हैं, वह अपनी जाग्रत पहचान को भूल जाता है, जो उसके स्वप्न से सर्वथा पृथक होती है। इसी प्रकार जिसकी चेतना माया द्वारा मोहित हो जाती है, वह भौतिक वस्तुओं के ही नामों तथा स्वरूपों को देखता है। इस तरह ऐसा पुरुष अपनी स्मरणशक्ति खो देता है और आपको नहीं जान पाता।

26 आज हमने आपके उन चरणों का प्रत्यक्ष दर्शन पा लिया, जो उस पवित्र गंगा नदी के उद्गम हैं, जो समस्त पापों को धो डालती है। पूर्णयोगी आपके चरणों का ध्यान उत्तम विधि से अपने हृदयों में कर सकते हैं, किन्तु केवल वे, जो आपकी पूरे मन से भक्ति करते हैं और इस तरह आत्मा के आवरण – भौतिक मन – को दूर करते हैं, वे आपको अपने अन्तिम गन्तव्य के रूप में प्राप्त करते हैं। अतएव अपने भक्तों पर आप कृपा प्रदर्शित करें।

27-28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे ज्ञानवान राजा, इस तरह कहकर मुनियों ने दाशार्ह, धृतराष्ट्र तथा युधिष्ठिर से विदा होने की अनुमति ली और अपने-अपने आश्रमों को जाने के लिए तैयार होने लगे। यह देखकर कि वे साधु प्रस्थान करने वाले हैं, सम्मान्य वसुदेव उनके पास पहुँचे और उन्हें नमस्कार करने एवं उनके चरणस्पर्श करने के बाद, उन्होंने अत्यन्त सावधानी से चुने हुए शब्दों में उनसे कहा।

29 श्री वसुदेव ने कहा: हे समस्त देवताओं के आश्रय, आपको नमस्कार है। हे ऋषियों, कृपा करके मेरी बात सुनें। कृपा करके हमें यह बतलायें कि मनुष्य का कर्मफल किस तरह आगे और कर्म करके विनष्ट किया जा सकता है।

30 श्री नारदमुनि ने कहा: हे ब्राह्मणों, यह उतना आश्चर्यजनक नहीं है कि जानने की उत्सुकता से वसुदेव ने अपने चरम लाभ के विषय में हमसे प्रश्न किया है, क्योंकि वे कृष्ण को मात्र एक बालक ही मानते हैं।

31-33 इस संसार में परिचय (निकटता, घनिष्ठता, familiarity) अवमानना का कारण है – उदाहरणार्थ जो व्यक्ति गंगा के तट पर रहता है, वह अपनी शुद्धि के लिए गंगा की उपेक्षा करके अन्य किसी जलाशय को जाय। भगवान की चेतना कभी भी काल द्वारा, ब्रह्माण्ड की सृष्टि तथा संहार द्वारा, अपने ही गुणों में परिवर्तन द्वारा, या किसी अन्य कारण से, चाहे वह स्वजनित हो या बाह्य हो, विचलित नहीं होती। भले ही अद्वितीय भगवान की चेतना भौतिक कष्ट द्वारा, भौतिक कर्म द्वारा या प्रकृति के गुणों के निरन्तर प्रवाह द्वारा प्रभावित न होती हो, किन्तु तो भी सामान्य व्यक्ति यही सोचते हैं कि भगवान प्राण तथा अन्य भौतिक तत्त्वों की अपनी ही सृष्टियों से आच्छादित हैं, जिस तरह कोई व्यक्ति यह सोच सकता है कि सूर्य बादल, बर्फ या ग्रहण से ढक गया है।

34 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, तब मुनियों ने वसुदेव को सम्बोधित करते हुए फिर से कहा, जबकि भगवान अच्युत तथा बलराम के साथ ही साथ सारे राजा सुन रहे थे।

35-37 मुनियों ने कहा: यह निश्चित निष्कर्ष निकाला जा चुका है कि कर्म को उसके आगे और भी कर्म करके निष्फल किया जाता है, जब मनुष्य श्रद्धापूर्वक समस्त यज्ञों के स्वामी विष्णु की पूजा करने के साधनस्वरूप वैदिक यज्ञ सम्पन्न करता है। शास्त्र की आँख से देखने वाले विद्वानों ने यह प्रदर्शित कर दिया है कि क्षुब्ध मन को दमन करने तथा मोक्ष प्राप्त करने की यही सबसे सुगम विधि है और यही पवित्र धर्म है, जिससे हृदय को आनन्द प्राप्त होता है। धार्मिक द्विज गृहस्थ के लिए सर्वाधिक शुभ पथ यही है कि वह ईमानदारी से प्राप्त की गई सम्पदा से निःस्वार्थ भाव से भगवान की पूजा करे।

38-40 बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि यज्ञ करके तथा दान-कर्मों के द्वारा धन-सम्पदा की अपनी इच्छा का परित्याग करना सीखे। उसे गृहस्थ जीवन के अनुभव से पत्नी तथा सन्तान की अपनी इच्छा का परित्याग करना सीखना चाहिए। हे सन्त वसुदेव, उसे काल के प्रभाव का अध्ययन करके अगले जीवन में उच्चतर लोक में जाने की अपनी इच्छा का परित्याग करना सीखना चाहिए। जिन आत्मसंयमी मुनियों ने गृहस्थ जीवन के प्रति अपनी आसक्ति का इस तरह परित्याग कर दिया है, वे तपस्या करने के लिए वन में चले जाते हैं। हे प्रभु, एक द्विज तीन प्रकार के ऋण – देवताओं, मुनियों तथा अपने पुरखों के प्रति ऋण-लेकर उत्पन्न होता है। यदि वह यज्ञ, शास्त्राध्ययन तथा सन्तानोत्पत्ति द्वारा इन ऋणों को चुकता किये बिना अपना शरीर त्याग देता है, तो वह नरक में जा गिरेगा। किन्तु हे महामते, आप तो पहले ही अपने दो ऋणों – मुनियों तथा पुरखों के ऋणों से मुक्त हैं। अब आप वैदिक यज्ञ सम्पन्न करके देवऋण से भी उऋण हो लें। इस तरह आप अपने को ऋण से पूरी तरह मुक्त कर लें और समस्त भौतिक आश्रय का परित्याग कर दें।

41 हे वसुदेव, निस्सन्देह इसके पूर्व आपने समस्त जगतों के स्वामी भगवान हरि की पूजा की होगी। आप तथा आपकी पत्नी दोनों ने ही परम भक्ति के साथ उनकी पूरी तरह से पूजा की होगी, क्योंकि उन्होंने आपके पुत्र की भूमिका स्वीकार की है।

42-45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ऋषियों के इन कथनों को सुनकर उदार वसुदेव ने अपना सिर झुकाकर, प्रशंसा करते हुए, अनुरोध किया कि वे उनके पुरोहित बन जाँय। हे राजन, इस तरह अनुरोध किये जाने पर ऋषियों ने वसुदेव को कुरुक्षेत्र के पावन स्थान पर धार्मिक नियमों तथा उत्तम अनुष्ठानिक व्यवस्था के अनुसार अग्नि यज्ञ करने में लगा लिया। हे राजन, जब महाराज वसुदेव यज्ञ के लिए दीक्षित किये जाने वाले थे, तो वृष्णिजन स्नान करके तथा सुन्दर वस्त्र एवं कमल की मालाएँ पहने दीक्षा-स्थल पर आये। अन्य राजा भी खूब सज-धज कर आये। उनके साथ उनकी प्रसन्नचित्त रानियाँ भी थीं। वे अपने गलों में रत्नजटित हार पहने थीं तथा सुन्दर वस्त्र धारण किये थीं। ये रानियाँ चन्दन का लेप किये थीं और हाथों में पूजा की शुभ सामग्री लिये थीं।

46 मृदंग, पटह, शंख, भेरी, आनक तथा अन्य वाद्य बजने लगे। नर्तकों तथा नर्तकियों ने नृत्य किया और सूतों तथा मागधों ने यशोगान किया। मधुर वाणी वाली गन्धर्वियों ने अपने-अपने पतियों के साथ गीत गाये।

47 वसुदेव की आँखों में काजल लगाने तथा उनके शरीर को ताजे मक्खन से लेप करने के बाद पुरोहितों ने शास्त्रीय विधि के अनुसार उन पर तथा उनकी अठारह रानियों पर पवित्र जल छिड़ककर उन्हें दीक्षा दी। वे अपनी पत्नियों से घिरकर तारों से घिरे राजसी चन्द्रमा जैसे लग रहे थे।

48 वसुदेव ने अपनी पत्नियों के साथ-साथ दीक्षा ग्रहण की। उनकी पत्नियाँ रेशमी साड़ियाँ पहने थीं और चूड़ियों, हारों, पायलों तथा कुण्डलों से सजी थीं। वसुदेव का शरीर मृगचर्म से लपेटा हुआ था, जिससे वे शोभायमान हो रहे थे।

49 हे महाराज परीक्षित, रेशमी धोतियाँ पहने तथा रत्नजटित आभूषणों से अलंकृत वसुदेव के पुरोहितगण तथा सभा के कार्यकर्ता सदस्य इतने तेजवान दिख रहे थे, मानो वे वृत्र के मारने वाले इन्द्र की यज्ञशाला में खड़े हों।

50 उस समय समस्त जीवों के प्रभु बलराम तथा कृष्ण अपने अपने पुत्रों, पत्नियों तथा अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ, जो उनके ऐश्वर्य के अंशरूप थे, अत्यधिक शोभायमान हो रहे थे।

51-54 विविध प्रकार के वैदिक यज्ञों को समुचित विधि-विधानों के अनुसार सम्पन्न करते हुए वसुदेव ने समस्त यज्ञों की साज-सामग्री सहित, मंत्रों तथा अनुष्ठानों द्वारा ईश्वर की पूजा की। उन्होंने पवित्र अग्नि में आहुतियाँ डालकर तथा यज्ञ-पूजा के अन्य नियमों का पालन करते हुए मुख्य तथा गौण यज्ञों को सम्पन्न किया। तब उचित समय पर तथा शास्त्रों के अनुसार वसुदेव ने पुरोहितों को मूल्यवान आभूषणों से अलंकृत किया, यद्यपि वे पहले से सुसज्जित थे। उन्हें गौवें, भूमि तथा विवाह योग्य कन्याओं के मूल्यवान उपहार दान में दिये। पत्नीसंयाज तथा अवभृथ्य अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने के बाद महान ब्रह्मर्षियों ने यज्ञ के कर्ता वसुदेव को आगे करके, परशुराम सरोवर में स्नान किया। पवित्र स्नान पूरा हो जाने पर, वसुदेव ने अपनी पत्नियों के साथ-साथ वन्दीजनों को वे आभूषण तथा वस्त्र दान में दिये, जिन्हें वे पहने हुए थे। तब वसुदेव ने नवीन वस्त्र धारण किये और उसके बाद सभी वर्णों के लोगों को, यहाँ तक कि कुत्तों को भी, भोजन कराकर सम्मानित किया।

55-56 उन्होंने अपनी पत्नियों तथा पुत्रों सहित सारे सम्बन्धियों, विदर्भ, कोशल, कुरु, काशी, केकय तथा सृञ्जय राज्यों के राजाओं, सभा के कार्यकर्ता सदस्यों तथा पुरोहितों, दर्शक देवताओं, मनुष्यों, भूत-प्रेतों, पितरों तथा चारणों को उपहार दिये। तब लक्ष्मीनिवास भगवान श्रीकृष्ण से अनुमति लेकर अतिथिगण वसुदेव के यज्ञ की महिमा का गुणगान करते वहाँ से विदा हुए।

57-58 मित्रों, निकट परिवार के सदस्यों तथा अन्य सम्बन्धियों ने – जिनमें धृतराष्ट्र, उसके छोटे भाई विदुर, पृथा तथा उसके पुत्र, भीष्म, द्रोण, जुड़वाँ भाई नकुल एवं सहदेव, नारद तथा भगवान व्यासदेव सम्मिलित थे, ने यदुओं का आलिंगन किया। स्नेह से द्रवित हृदयों वाले ये तथा अन्य अतिथिगण अपने-अपने राज्यों के लिए प्रस्थान कर गये, किन्तु इनकी गति विरह की पीड़ा के कारण मन्द पड़ गई थी।

59 ग्वालों समेत नन्द महाराज ने अपने यदु-सम्बन्धियों के साथ वहाँ कुछ दिन और रहकर अपना स्नेह दर्शाया। उनके इस विश्राम-काल में कृष्ण, बलराम, उग्रसेन तथा अन्यों ने उनकी वृहद ऐश्वर्ययुक्त पूजा करके उनका सम्मान किया।

60 अपनी इच्छाओं रूपी विशाल सागर को इतनी आसानी से पार कर लेने पर वसुदेव को पूर्ण तुष्टि का अनुभव हुआ। उन्होंने अपने अनेक शुभचिन्तकों की संगति में नन्द महाराज का हाथ पकड़ कर, उनसे इस प्रकार कहा।

61-64 श्री वसुदेव ने कहा: हे भ्राता, स्वयं भगवान ने स्नेह नामक गाँठ बाँधी है, जो मनुष्यों को दृढ़तापूर्वक एक-दूसरे से बाँधे रखती है। मुझे लगता है कि बड़े बड़े वीरों तथा योगियों तक को इससे छूट पाना कठिन होता है। निस्सन्देह, भगवान ने ही स्नेह के बन्धनों की रचना की होगी, क्योंकि आप जैसे महान सन्तों ने कभी भी हम अकृतज्ञों के प्रति अपनी अद्वितीय मैत्री प्रदर्शित करना बन्द नहीं किया, यद्यपि इसका समुचित आदान-प्रदान नहीं हुआ। हे भ्राता, इसके पूर्व हमने आपके लाभ की कोई बात नहीं की, क्योंकि हम ऐसा करने में अशक्त थे। तो भी इस समय, यद्यपि आप हमारे समक्ष उपस्थित हैं, हमारी आँखें भौतिक सौभाग्य के मद से इस तरह अन्धी हो चुकी हैं कि हम आपकी उपेक्षा करते ही जा रहे हैं। हे अत्यन्त आदरणीय, ईश्वर करे कि जो व्यक्ति जीवन में सर्वोच्च लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, वे कभी भी राजसी ऐश्वर्य प्राप्त न कर पायें, क्योंकि इससे वे अपने परिवार तथा मित्रों की आवश्यकताओं के प्रति अन्धे बन जाते हैं।

65-68 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: घनिष्ठ संवेदना के कारण हृदय द्रवित होने से वसुदेव रो पड़े। उनके नेत्र आँसुओं से डबडबा आये, जब उन्होंने अपने प्रति प्रदर्शित नन्द की मित्रता का स्मरण किया। नन्द भी अपने मित्र वसुदेव के प्रति स्नेह से भरपूर थे। अतः बाद के दिनों में नन्द बारम्बार यही कहते, “मैं आज ही कुछ समय के बाद जाने वाला हूँ" तथा मैं कल जाऊँगा।" किन्तु कृष्ण तथा बलराम के स्नेह के कारण, वे समस्त यदुओं द्वारा सम्मानित होकर तीन मास तक रहते रहे। जब वसुदेव, उग्रसेन, कृष्ण, उद्धव, बलराम तथा अन्य लोग नन्द की इच्छाएँ पूरी कर चुके तथा बहुमूल्य आभूषण, महीन मलमल तथा नाना प्रकार की बहुमूल्य घरेलू सामग्री भेंट कर चुके, तो नन्द महाराज ने ये सारी भेंटें स्वीकार कर लीं और सभी यदुओं से विदा ली तथा वे अपने पारिवारिक सदस्यों तथा व्रजवासियों के साथ रवाना हो गये।

69-71 भगवान गोविन्द के चरणकमलों पर समर्पित अपने मन को वहाँ से विलग कर पाने में असमर्थ नन्द तथा ग्वाल-ग्वालिनें मथुरा लौट गए। इस तरह जब उनके सम्बन्धी विदा हो चुके और जब उन्होंने वर्षाऋतु को निकट आते देखा, तो वृष्णिजन, जिनके एकमात्र स्वामी कृष्ण थे, द्वारका वापस चले गये। उन्होंने नगर के लोगों को यदुओं के स्वामी वसुदेव द्वारा सम्पन्न यज्ञोत्सवों के बारे में तथा उनकी तीर्थयात्रा के दौरान, जो भी घटनाएँ घटी थीं, विशेष रूप से–जिस तरह वे अपने प्रियजनों से मिले, इन सबके बारे में कह सुनाया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय तिरासी – कृष्ण की रानियों से द्रौपदी की भेंट (10.83)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह गोपियों के आध्यात्मिक गुरु तथा उनके जीवन के गन्तव्य भगवान कृष्ण ने उन पर अपनी कृपा प्रदर्शित की। तत्पश्चात वे युधिष्ठिर तथा अपने अन्य सभी सम्बन्धियों से मिले और उनसे उनकी कुशलता पूछी।

3 ब्रह्माण्ड के स्वामी के चरणों को देखकर समस्त पापों से मुक्त राजा युधिष्ठिर तथा अन्यों ने अत्यधिक सम्मानित अनुभव करते हुए उनके प्रश्नों का प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया।

3 भगवान कृष्ण के सम्बन्धियों ने कहा: हे प्रभु, उन लोगों का अमंगल कैसे हो सकता है, जिन्होंने आपके चरणकमलों से निकले अमृत का छककर पान किया हो? यह मदोन्मत्तकारी तरल बड़े बड़े भक्तों के मन से बहता हुआ, उनके मुखों से निकलकर, उनके कान रूपी प्यालों में उड़ेला जाता है। यह देहधारी जीवात्माओं द्वारा अपने शरीर के बनाने वाले के प्रति विस्मृति को विनष्ट करता है।

4 आपके स्वरूप का तेज भौतिक चेतना के त्रिगुण प्रभावों को दूर करता है और आपके अनुग्रह से हम पूर्ण सुख में निमग्न हो जाते हैं। आपका ज्ञान अविभाज्य तथा असीम है। अपनी योगमाया शक्ति से आपने उन वेदों की रक्षा करने के लिए यह मानव रूप धारण किया है, जो कालक्रम से संकटग्रस्त हो गये थे। हे पूर्ण-सन्तों के चरम लक्ष्य, हम आपके समक्ष नतमस्तक हैं।

5 ऋषिवर श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब युधिष्ठिर तथा अन्य लोग महापुरुषों में शिरोमणि भगवान कृष्ण की इस तरह प्रशंसा कर रहे थे, तो अंधक तथा कौरव वंश की महिलाएँ एक-दूसरे से मिलीं और तीनों लोकों में गाई जाने वाली गोविन्द विषयक कथाओं की चर्चा करने लगीं। कृपया सुनो, क्योंकि मैं तुमसे इनका वर्णन करने जा रहा हूँ।

6-7 श्री द्रौपदी ने कहा: हे वैदर्भी, हे भद्रा, हे जाम्बवती, हे कौशला, हे सत्यभामा, हे कालिन्दी, हे शैब्या, रोहिणी, लक्ष्मणा तथा कृष्ण की अन्य पत्नियों कृपा करके मुझे बतलाइये कि भगवान अच्युत ने किस तरह अपनी योगशक्ति से इस संसार की रीति का अनुकरण करते हुए आपमें से हर एक से विवाह किया।

8 श्री रुक्मिणी ने कहा: जब सारे राजा अपने अपने धनुष लिए यह आश्वासन देने के लिए तैयार खड़े थे कि शिशुपाल को मैं अर्पित कर दी जाऊँ, तो अजेय योद्धाओं के सिरों पर अपनी चरण-धूलि रखनेवाले ने उनके बीच में से उसी तरह मेरा हरण कर लिया, जिस तरह एक सिंह अपने शिकार को बकरियों तथा भेड़ों के बीच से बलपूर्वक ले जाता है। मैं चाहूँगी कि लक्ष्मीधाम भगवान कृष्ण के उन पाँवों की पूजा मुझे करने को मिले।

9 श्री सत्यभामा ने कहा: मेरे पिता का हृदय अपने भाई की हत्या से दुखित था, इसलिए उन्होंने भगवान कृष्ण को इस अपराध के लिए दोषी ठहराया। भगवान ने अपने यश पर लगे इस धब्बे को मिटाने के लिए रीछों के राजा को हराया और स्यमन्तक मणि वापस लेकर उसे मेरे पिता को लौटा दिया। अपने अपराध के फल से भयभीत मेरे पिता ने मुझे भगवान को प्रदान कर दिया, यद्यपि मुझे अन्यों को दिये जाने का वायदा (वाग्दान) किया जा चुका था।

10 श्री जाम्बवती ने कहा: यह न जानते हुए कि भगवान कृष्ण उन्हीं के स्वामी तथा आराध्यदेव, देवी सीता के पति हैं, मेरे पिता उनके साथ सत्ताईस दिनों तक युद्ध करते रहे। अन्त में जब मेरे पिता को ज्ञान हुआ और उन्होंने प्रभु को पहचाना, तो उन्होंने उनके चरण पकड़ लिये और मुझे तथा स्यमन्तक मणि दोनों को आदर के प्रतीक रूप में अर्पित कर दिया। मैं तो प्रभु की दासी मात्र हूँ।

11 श्री कालिन्दी ने कहा: भगवान जानते थे कि मैं इस आशा से कठिन तपस्या कर रही हूँ कि एक दिन मुझे उनके चरणकमल स्पर्श करने को मिलेंगे। अतएव वे अपने मित्र के साथ मेरे पास आये और मेरा पाणिग्रहण किया। अब मैं उनके महल को बुहारने वाली दासी के रूप में लगी रहती हूँ।

12 श्री मित्रविन्दा ने कहा:मेरे स्वयंवर समारोह में वे आगे बढ़ आये, वहाँ पर उपस्थित सारे राजाओं को, जिनमें उनका अपमान करने का दुस्साहस करने वाले मेरे भाई भी थे, हरा दिया और मुझे उसी तरह उठा ले गये, जिस तरह सिंह कुत्तों के झुण्ड में से अपना शिकार उठा ले जाता है। इस तरह लक्ष्मीनिवास भगवान कृष्ण मुझे अपनी राजधानी में ले आये। मैं चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्मान्तर उनके चरण धोने की सेवा करने का अवसर मिलता रहे।

13-14 श्री सत्या ने कहा: मेरे पिता ने मेरे साथ पाणिग्रहण के इच्छुक राजाओं के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिए घातक पैने सींगों वाले सात अत्यन्त बलशाली तथा जोशीले साँडों की व्यवस्था की। यद्यपि ये साँड अनेक वीरों के मिथ्या गर्व को चूर चूर कर चुके थे, किन्तु भगवान कृष्ण ने बिना प्रयास के ही उन्हें वश में करके बाँध लिया, जिस तरह बच्चे खेल-खेल में बकरी के बच्चों को बाँध लेते हैं। इस तरह उन्होंने मुझे अपने शौर्य के बल पर मोल ले लिया। तत्पश्चात वे मेरे मार्ग में विरोध करनेवाले सारे राजाओं को हराते हुए मुझे मेरी दासियों तथा चतुरंगिणी सेना समेत ले आये। मेरी यही अभिलाषा है कि उन प्रभु की सेवा करने का सुअवसर मुझे प्राप्त होता रहे।

15-16 श्री भद्रा ने कहा: हे द्रौपदी, मैं पहले ही अपना हृदय कृष्ण को सौंप चुकी थी अतः मेरे पिता ने कृष्ण को बुलाकर मुझे उनको अर्पित कर दिया। मेरे साथ उन्हें एक अक्षौहिणी सैन्य रक्षक और मेरी सखियों की एक टोली भी दी थी। मेरी चरम सिद्धि यही होगी कि जब मैं अपने कर्म से बँधकर एक जन्म से दूसरे जन्म में भ्रमण करूँ, तो मुझे भगवान कृष्ण के चरणकमलों को स्पर्श करने की अनुमति सदैव मिलती रहे।

17 श्री लक्ष्मणा ने कहा: हे रानी, मैंने नारदमुनि को भगवान अच्युत के अवतारों तथा कार्यों की बारम्बार महिमा गाते सुना और इस तरह मेरा मन भी उन्हीं भगवान मुकुन्द के प्रति आसक्त हो गया। दरअसल, देवी पद्महस्ता ने विविध लोकों पर शासन करने वाले बड़े बड़े देवताओं को तिरस्कृत करके काफी ध्यानपूर्वक विचार करने के बाद, उन्हें अपने पति के रूप में चुना है।

18 मेरे पिता बृहत्सेन स्वभाव से अपनी पुत्री के ऊपर अनुकम्पावान थे और हे साध्वी, यह जानते हुए कि मैं कैसा अनुभव कर रही हूँ, उन्होंने मेरी इच्छा पूरी करने की व्यवस्था कर दी।

19 हे रानी जिस तरह आपके स्वयंवर समारोह में एक मछली का प्रयोग लक्ष्य के तौर पर यह निश्चित करने के लिए हुआ था कि आप अर्जुन को पति रूप में पा सके, उसी तरह मेरे स्वयंवर में भी एक मछ्ली का ही प्रयोग हुआ। किन्तु मेरे सम्बन्ध में यह मछली चारों ओर से ढक दी गई थी और नीचे रखे जलपात्र में इसका प्रतिबिम्ब ही देखा जा सकता था।

20 यह सुनकर बाण चलाने तथा अन्य हथियारों के उपयोग में दक्ष हजारों राजा सभी दिशाओं से अपने सैन्य शिक्षकों के साथ मेरे पिता के नगर में एकत्र हुए।

21 मेरे पिता ने हर राजा को उसके बल तथा वरिष्ठता के अनुसार उचित सम्मान दिया। तब जिन लोगों के मन मुझ पर टिके थे, उन्होंने अपना धनुष-बाण उठाया और सभा के मध्य एक-एक करके, लक्ष्य को बेधने का प्रयत्न करने लगे।

22 उनमें से कुछ ने धनुष उठाया, किन्तु उसकी डोरी नहीं चढ़ा सके, अतएव हताश होकर उन्होंने उसे एक ओर फेंक दिया। कुछ ने धनुष की डोरी को धनुष के एक सिरे तक खींच तो लिया, किन्तु इससे धनुष पीछे उछला और उन्हें ही जमीन पर पटक दिया।

23 कुछ वीर यथा जरासन्ध, शिशुपाल, भीम, दुर्योधन, कर्ण तथा अम्बष्ठराज धनुष पर डोरी चढ़ाने में सफल तो रहे, किन्तु इनमें से कोई भी लक्ष्य को ढूँढ नहीं सका।

24 तब अर्जुन ने जल में मछली की परछाई की ओर देखा और उसकी स्थिति निर्धारित की। किन्तु जब उसने सावधानी से उस पर अपना बाण छोड़ा, तो वह लक्ष्य को बेध नहीं पाया, अपितु मात्र उसका स्पर्श करके निकल गया।

25-26 जब सारे दम्भी राजाओं का घमण्ड चूर-चूर हो गया और उन्होंने यह प्रयास त्याग दिया, तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने धनुष उठाया, आसानी से डोरी चढ़ाई और उस पर बाण स्थिर किया। जब सूर्य अभिजित नक्षत्र में आया, तब उन्होंने जल में मछली को केवल एक बार देखा और फिर उसे बाण से बेधकर जमीन पर गिरा दिया।

27 आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और पृथ्वी पर लोग जय! जय! की ध्वनि करने लगे। देवताओं ने अति प्रसन्न होकर फूल बरसाये।

28 तभी मैं रंगशाला में गई। मेरे पाँवों के नूपुर मन्द ध्वनि कर रहे थे। मैं उत्तम कोटि के नये रेशमी वस्त्र पहने थी, जिसके ऊपर करधनी बँधी थीं और मैं सोने तथा रत्नों से बना चमकीला हार धारण किये थी। मेरे मुख पर लजीली मुसकान थी और मेरे बालों में फूलों की माला थी।

29 मैंने अपना सिर उठाया, जो मेरे प्रचुर बालों के गुच्छों तथा मेरे गालों से परावर्तित मेरे कुण्डलों की चमक के तेज से घिरा था। मैंने शान्त भाव से मन्दहास के साथ इधर-उधर दृष्टि फेरी। तब चारों ओर सारे राजाओं को देखते हुए, मैंने धीरे से हार को मुरारी के कन्धों (गले) पर डाल दिया, जिन्होंने मेरे मन को हर रखा था।

30 तभी शंख, मृदंग, पटह, भेरी, आनक नगाड़े एवं अन्य वाद्य जोर-जोर से बजने लगे। नट तथा नर्तकियाँ नाचने लगे और गवैये गाने लगे।

31 हे द्रौपदी, मेरे द्वारा भगवान का चुना जाना प्रमुख राजाओं को सहन नहीं हो सका। वे कामातुर होने के कारण लड़ने-झगड़ने लगे।

32 तत्पश्चात भगवान ने मुझे चार अतीव उत्तम घोड़ों से खींचे जानेवाले अपने रथ में बिठा लिया। अपना कवच पहनकर तथा अपना शार्ङ्ग धनुष तैयार करके, वे रथ पर खड़े हो गये और युद्धभूमि में उन्होंने अपनी चार भुजाएँ प्रकट कीं।

33 हे रानी, सारथी दारुक राजाओं के देखते-देखते भगवान के सुनहरे किनारों वाले रथ को उसी तरह हाँक ले गया, जिस तरह छोटे छोटे पशु निस्सहाय होकर सिंह को देखते रह जाते हैं।

34 राजाओं ने भगवान का पीछा किया, जिस तरह सिंह का पीछा गाँव के कुत्ते करते हैं। कुछ राजा अपने धनुष उठाये हुए, उन्हें जाने से रोकने के लिए मार्ग में आ डटे।

35 ये योद्धा भगवान के शार्ङ्ग धनुष द्वारा छोड़े गये बाणों से अभिभूत हो गये। कुछ राजाओं की भुजाएँ, टाँगें तथा गर्दनें कट गई और वे युद्धभूमि में गिर पड़े। शेष लड़ना छोड़कर भाग गये।

36 तब यदुपति ने अपनी राजधानी कुशस्थली (द्वारका) में प्रवेश किया, जो स्वर्ग में तथा पृथ्वी पर प्रशंसित है। नगर को पताकाओं से युक्त दण्डों से सजाया गया था, जो सूर्य को ढक रहे थे तथा शानदार तोरण भी लगाये गये थे। जब कृष्ण ने प्रवेश किया, तो वे ऐसे लग रहे थे, मानो सूर्यदेव अपने धाम में प्रवेश कर रहे हों।

37 मेरे पिताजी ने अपने मित्रों, परिवार वालों तथा मेरे ससुराल वालों का सम्मान बहुमूल्य वस्त्रों, आभूषणों, राजसी पलंगों, सिंहासनों तथा अन्य साज-सामग्री से किया।

38 उन्होंने परमपूर्ण भगवान को भक्तिपूर्वक अनेक दासियाँ दीं, जो बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत थीं। इन दासियों के साथ अंगरक्षक थे, जिनमें से कुछ पैदल थे, तो कुछ हाथियों, रथों और घोड़ों पर सवार थे। उन्होंने भगवान को अत्यन्त मूल्यवान हथियार भी दिये।

39 इस तरह समस्त भौतिक संगति का परित्याग करके तथा तपस्या करके, हम सारी रानियाँ आत्माराम भगवान की दासियाँ बन चुकी हैं।

40 अन्य रानियों की ओर से रोहिणीदेवी ने कहा: भौमासुर तथा उसके अनुयायियों का वध करने के बाद भगवान ने हमें उस असुर के बन्दीगृह में पाया। वे यह जान गये कि हम उन राजाओं की कन्याएँ हैं, जिन्हें भौम ने पृथ्वी पर विजय करते समय पराजित किया था। चूँकि हम भौतिक बन्धन से मोक्ष के स्रोत उन भगवान के चरणकमलों का निरन्तर ध्यान करती रही थीं, भगवान ने हमें बन्दीगृह से मुक्त कराया और विवाह कर लिया, यद्यपि उनकी हर इच्छा पहले से पूरी रहती है।

41-42 हे साध्वी, हमें पृथ्वी पर शासन, इन्द्र का पद, भोग की असीम सुविधा, योगशक्ति, ब्रह्मा का पद, अमरता या भगवदधाम प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं है। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि भगवान कृष्ण के उन चरणों की यशस्वी धूल को अपने सिर पर धारण करें, जो उनकी प्रियतमा के कुमकुम की सुगन्धि से युक्त हैं।

43 हम भगवान के चरणों का वही स्पर्श चाहती हैं, जो व्रज की तरुणियों, ग्वालबालों तथा आदिवासिनी पुलिन्द स्त्रियाँ चाहती हैं – वह है, भगवान द्वारा अपनी गौवें चराते समय पौधों तथा घास पर उनके द्वारा, छोड़ी गई धूल का स्पर्श।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बयासी वृन्दावनवासियों से कृष्ण तथा बलराम की भेंट (10.82)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार जब बलराम तथा कृष्ण द्वारका में रह रहे थे, तो ऐसा विराट सूर्य-ग्रहण पड़ा मानो, दिन का अन्त हो गया हो।

2 इस ग्रहण के विषय में पहले से ही जानने वाले अनेक लोग पुण्य अर्जित करने की मंशा से समन्तपञ्चक नामक पवित्र स्थान में गये।

3-6 पृथ्वी को राजाओं से विहीन करने के बाद योद्धाओं में सर्वोपरि भगवान परशुराम ने समन्तपञ्चक में राजाओं के रक्त से विशाल सरोवरों की उत्पत्ति की। यद्यपि परशुराम पर कर्मफलों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, फिर भी सामान्य जनता को शिक्षा देने के लिए उन्होंने सामान्य व्यक्ति जैसा आचरण किया। अब इस समन्तपञ्चक में तीर्थयात्रा के लिए भारत-वर्ष के सभी भागों से बहुत बड़ी संख्या में लोग आये थे। हे भरतवंशी, इस तीर्थस्थल में आये हुए लोगों में अनेक वृष्णिजन यथा गद, प्रद्युम्न तथा साम्ब अपने पापों से छुटकारा पाने के लिए आये थे। अक्रूर, वसुदेव, आहुक तथा अन्य राजा भी वहाँ गये थे। नगर की रक्षा करने के लिए सुचन्द्र, शुक, सारण, अनिरुद्ध और सशस्त्र सेनाओं के नायक कृतवर्मा द्वारका में ही रह गये थे।

7-8 बलशाली यदुगण बड़ी शान से मार्ग से होकर गुजरे। उनके साथ, स्वर्ग के विमानों से होड़ लेने वाले रथों, घोड़ों, एवं चिंघाड़ते हाथियों पर सवार सैनिक थे। साथ ही दैवी विद्याधरों के समान तेजवान अनेक पैदल सिपाही भी थे। सोने के हारों तथा फूल की मालाओं से सज्जित एवं कवच धारण किये हुये यदुगण दैवी वेषभूषा में, आकाश में विचरण करने वाले देवताओं के समान शोभायमान लग रहे थे।

9 उन यादवों ने समन्तपञ्चक में स्नान किया और फिर अत्यन्त श्रद्धा के साथ उपवास रखा। फिर उन्होंने ब्राह्मणों को वस्त्रों, फूल-मालाओं तथा सोने के हारों से सज्जित गौवों का दान किया।

10 तत्पश्चात वृष्णिवंशियों ने शास्त्रीय आदेशों के अनुसार एक बार फिर परशुराम के सरोवरों में स्नान किया और ब्राह्मणों को अच्छा भोजन कराया। उन्होंने उस समय यही प्रार्थना की, “हमें भगवान कृष्ण की भक्ति प्राप्त हो।"

11 फिर अपने एकमात्र आराध्यदेव भगवान कृष्ण की अनुमति से वृष्णियों ने कलेवा किया और शीतल छाया प्रदान करने वाले वृक्षों के नीचे बैठ गये।

12-13 यादवों ने देखा कि वहाँ पर आये अनेक राजा उनके पुराने मित्र तथा सम्बन्धी – मत्स्य, उशीनर, कौशल्या, विदर्भ, कुरु, सृञ्जय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति तथा आनर्त एवं केरल देशों के राजा थे। उन्होंने अन्य सैकड़ों राजाओं को भी देखा, जो स्वपक्षी तथा विपक्षी दोनों ही थे। इसके अतिरिक्त हे राजा परीक्षित, उन्होंने अपने प्रिय मित्रों, नन्द महाराज, ग्वालों और गोपियों को देखा, जो दीर्घकाल से चिन्तित होने के कारण दुखी थे।

14 एक-दूसरे को देखकर अत्याधिक हर्ष से उनके हृदय तथा चेहरे कमल-पुष्प के समान खिल उठे। पुरुषों ने एक-दूसरे का उल्लासपूर्वक आलिंगन किया। नेत्रों से अश्रु गिराते हुए, रोमांचित होकर तथा रुँधी वाणी से उन्होंने उत्कट आनन्द का अनुभव किया।

15 स्त्रियों ने प्रेममयी मैत्री की शुद्ध मुसकानों से एक-दूसरे को निहारा और जब उन्होंने आलिंगन किया, तो उनके नेत्रों में स्नेह के आँसू भर आये।

16 तब उन सबने अपने वरिष्ठजनों को नमस्कार किया और छोटे सम्बन्धियों से आदर प्राप्त किया। एक-दूसरे से यात्रा की सुख-सुविधा एवं कुशल-क्षेम पूछने के बाद, वे कृष्ण के विषय में बातें करने लगीं।

17 महारानी कुन्ती अपने भाइयों, बहनों और उनके बच्चों से मिलीं। वे अपने माता-पिता, भाइयों की पत्नियों (भाभियों) तथा भगवान मुकुन्द से भी मिलीं। उनसे बातें करती हुई वे अपना शोक भूल गई।

18 महारानी कुन्ती ने कहा:हे मेरे सम्माननीय भाई, मैं अनुभव करती हूँ कि मेरी इच्छाएँ विफल रही हैं, क्योंकि यद्यपि आप सभी अत्यन्त साधु स्वभाव वाले हो, किन्तु मेरी विपदाओं के दिनों में आपने मुझे भुला दिया।

19 जिस पर विधाता अनुकूल नहीं रहता, उसके मित्र तथा परिवार वाले, यहाँ तक कि बच्चे, भाई तथा माता-पिता भी अपने प्रियजन को भूल जाते हैं।

20 श्री वसुदेव ने कहा: हे बहन, तुम हम पर नाराज न होओ, हम सभी भगवान के हाथों के खिलौने हैं। निस्सन्देह, मनुष्य चाहे स्वयं कार्य करे या अन्यों द्वारा करने को बाध्य किया जाय, वह सदैव भगवान के नियंत्रण में रहता है।

21 हे बहन, कंस द्वारा सताये हुए, हम विभिन्न दिशाओं में भाग गये थे, किन्तु विधाता की कृपा से अन्ततोगत्वा अब हम अपने घर लौट सके हैं।

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वसुदेव, उग्रसेन तथा अन्य यदुओं ने विविध राजाओं का सम्मान किया। भगवान अच्युत को देखकर राजागण अत्यधिक आनन्द विभोर और संतुष्ट हो गये।

23-26 हे राजाओं में श्रेष्ठ परीक्षित, भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा उनके पुत्र, पाण्डव तथा उनकी पत्नियाँ, कुन्ती, संजय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, नग्नजित, पुरुजित, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशीराज, दमघोष, विशालाक्ष, मैथिल, मद्र, केकय, युधामन्यु, सुशर्मा, बाहिल्क तथा उसके संगी और उन सबके पुत्र एवं महाराज युधिष्ठिर के अधीन अन्य अनेक राजा – अपने समक्ष समस्त ऐश्वर्य तथा सौन्दर्य के धाम अपनी पत्नियों के साथ खड़े भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य रूप को देखकर चकित हो गये।

27 जब बलराम तथा कृष्ण उदारतापूर्वक उनका आदर कर चुके, तो ये राजा अतीव प्रसन्नता एवं उत्साह के साथ श्रीकृष्ण के निजी संगियों की प्रशंसा करने लगे, जो वृष्णिकुल के सदस्य थे।

28 राजाओं ने कहा: हे भोजराज (महाराज उग्रसेन), आप ही एकमात्र ऐसे हैं, जिन्होंने मनुष्यों में सचमुच उच्च जन्म प्राप्त किया है, क्योंकि आप भगवान श्रीकृष्ण को निरन्तर देखते हैं, जो बड़े से बड़े योगियों को भी विरले ही दिखते हैं।

29-30 वेदों द्वारा प्रसारित उनका यश, उनके चरणों को प्रक्षालित करने वाला जल और शास्त्रों के रूप में उनके द्वारा कहे गये शब्द – ये सभी इस ब्रह्माण्ड को पूरी तरह शुद्ध करने वाले हैं। यद्यपि काल के द्वारा पृथ्वी का सौभाग्य नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था, किन्तु उनके चरणकमलों के स्पर्श से उसे पुनः जीवनदान मिला है, अतः पृथ्वी हमारी समस्त इच्छाओं की पूर्ति की वर्षा कर रही है। जो विष्णु स्वर्ग तथा मोक्ष के लक्ष्यों को भुलवा देते हैं, वे आपके साथ वैवाहिक और रक्त सम्बन्ध स्थापित कर चुके हैं, अन्यथा आप लोग गृहस्थ-जीवन के नारकीय पथ पर विचरण करते हैं। निस्सन्देह ऐसे सम्बन्ध होने से आप लोग उन्हें देखते हैं, उनका स्पर्श करते हैं, उनके साथ चलते हैं, उनसे बातें करते हैं, उनके साथ लेटकर आराम करते हैं, उठते-बैठते हैं और भोजन करते हैं।

31 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब नन्द महाराज को ज्ञात हुआ कि कृष्ण के नेतृत्व में यदुगण आ चुके हैं, तो वे तुरन्त उनसे भेंट करने गये। सारे ग्वाले अपनी अपनी बैलगाड़ियों में विविध वस्तुएँ लादकर उनके साथ हो लिए।

32 नन्द को देखकर सारे वृष्णि प्रसन्न हो उठे और इस तरह खड़े हो गये, मानो मृत शरीरों में फिर से प्राण संचार हो गया हो। दीर्घकाल से न देखने के कारण अधिक कष्ट का अनुभव करते हुए, उन्होंने नन्द का प्रगाढ़ आलिंगन किया। वसुदेव ने बड़े ही हर्ष से नन्द महाराज का आलिंगन किया।

33 प्रेमविह्वल होकर वसुदेव ने कंस द्वारा पहुँचाए गये कष्टों का स्मरण किया, जिसके कारण उन्हें अपने पुत्रों को उनकी रक्षा के लिए गोकुल में छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा।

34 हे कुरुओं के वीर, कृष्ण तथा बलराम ने अपने पोषक माता-पिता का आलिंगन किया और उनको नमन किया, लेकिन प्रेमाश्रुओं से उनके गले इतने रुँध गये थे कि वे दोनों कुछ भी नहीं कह पाये।

35 अपने दोनों पुत्रों को गोद में उठाकर और अपनी बाहुओं में भरकर, नन्द तथा सन्त स्वभाव वाली माता यशोदा अपना शोक भूल गये।

36 तत्पश्चात रोहिणी तथा देवकी दोनों ने व्रज की रानी का आलिंगन किया और उन्होंने उनके प्रति, जो सच्ची मित्रता प्रदर्शित की थी, उसका अश्रुपूरित स्मरण करते हुए रुँधे गले से इस प्रकार कहा।

37 रोहिणी तथा देवकी ने कहा: हे व्रज की रानी, भला ऐसी कौन स्त्री होगी, जो आप तथा नन्द द्वारा हम लोगों के प्रति प्रदर्शित सतत मित्रता को भूल सके? इस संसार में आपका उऋण होने का कोई उपाय नहीं है, यहाँ तक कि इन्द्र की सम्पदा से भी नहीं।

38 इसके पूर्व कि इन दोनों बालकों ने अपने असली माता-पिता को देखा, आप दोनों ने उनके संरक्षक का कार्य किया और उन्हें सभी तरह से स्नेहपूर्ण देखभाल, प्रशिक्षण, पोषण तथा सुरक्षा प्रदान की। हे उत्तम नारी, वे कभी भी डरे नहीं, क्योंकि आप उनकी वैसे ही रक्षा करती रहीं, जिस तरह पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। निस्सन्देह, आप-जैसी सन्त स्वभाव वाली नारियाँ कभी भी अपनों और परायों में कोई भेदभाव नहीं बरततीं।

39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने प्रिय कृष्ण पर टकटकी लगाए हुई तरुण गोपियाँ अपनी पलकों के सृजनकर्ता को कोसा करती थीं (क्योंकि वे उनका दर्शन करने में कुछ पलों के लिए बाधक होती थीं)। अब दीर्घकालीन विछोह के बाद कृष्ण को पुनः देखकर उन्हें अपनी आँखों के द्वारा ले जाकर, उन्होंने अपने हृदय में बिठा लिया और वहीं उनका जी-भरकर आलिंगन किया। इस तरह वे उनके आनन्दमय ध्यान में पूरी तरह निमग्न हो गईं, यद्यपि योगविद्या का निरन्तर अभ्यास करने वाले को ऐसी तल्लीनता प्राप्त कर पाना कठिन होता है।

40 जब गोपियाँ भावमग्न खड़ी थीं, तो भगवान एकान्त स्थान में उनके पास पहुँचे। हर एक का आलिंगन करने तथा उनकी कुशल-क्षेम पूछने के बाद वे हँसने लगे और इस प्रकार बोले।

41 भगवान कृष्ण ने कहा: हे सखियों, क्या अब भी तुम लोग मेरी याद करती हो? मैं अपने सम्बन्धियों के लिए ही हमारे शत्रुओं का विनाश करने के लिए इतने लम्बे समय तक दूर रहता रहा।

42 शायद तुम सोचती हो कि मैं कृतघ्न हूँ और इसलिए मुझे घृणा से देखती हो ? अन्ततोगत्वा, सारे जीवों को पास लाने वाला और फिर उन्हें विलग करने वाला, तो भगवान ही है।

43 जिस तरह वायु बादलों के समूहों, घास की पत्तियों रुई के फाहों तथा धूल के कणों को पुनः बिखेर देने के लिए ही पास पास लाती है, उसी तरह स्रष्टा अपने द्वारा सृजित जीवों के साथ व्यवहार करता है।

44 कोई भी जीव मेरी भक्ति करके शाश्वत जीवन प्राप्त करने के लिए सुयोग्य बन जाता है। किन्तु तुम सबों ने अपने सौभाग्य से मेरे प्रति ऐसी विशेष प्रेममय प्रवृत्ति विकसित कर ली है, जिसके द्वारा तुम सबने मुझे पा लिया है।

45 निस्सन्देह मैं ही सारे जीवों का आदि तथा अन्त हूँ। मैं उनके भीतर तथा बाहर उसी तरह विद्यमान हूँ, जिस तरह आकाश, जल, पृथ्वी, वायु तथा अग्नि समस्त भौतिक वस्तुओं के आदि एवं अन्त हैं और उनके भीतर-बाहर विद्यमान रहते हैं।

46 इस तरह उत्पन्न की गई वस्तुएँ सृष्टि के मूलभूत तत्त्वों के भीतर निवास करती हैं और अपने असली स्वरूप में बनी रहती हैं, किन्तु आत्मा सारी सृष्टि में व्याप्त रहता है। तुम्हें इन दोनों ही को – भौतिक सृष्टि तथा आत्मा को – मुझ अक्षर ब्रह्म के भीतर प्रकट देखना चाहिए।

47 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कृष्ण द्वारा आध्यात्मिक विषयों में शिक्षा दिये जाने पर गोपियाँ मिथ्या अहंकार के समस्त कलुषों से मुक्त हो गई क्योंकि वे उनका निरन्तर ध्यान करती थीं। वे उनमें अपनी गहन निमग्नता के कारण उन्हें पूरी तरह समझ सकीं।

48 गोपियाँ इस प्रकार बोलीं: हे कमलनाभ प्रभु, आपके चरणकमल उन लोगों के लिए एकमात्र शरण हैं, जो भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर गये हैं। आपके चरणों की पूजा तथा ध्यान बड़े बड़े योगी तथा प्रकाण्ड दार्शनिक करते हैं। "यद्यपि हम सभी गृहस्थकार्यों में व्यस्त रहनेवाली सामान्य प्राणी मात्र हैं तथापि हमारी यही इच्छा है कि आपके चरणकमल हमारे हृदयों के भीतर उदित हों !!”

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इक्यासी -- भगवान द्वारा सुदामा ब्राह्मण को वरदान (10.81)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान हरि अर्थात कृष्ण सभी जीवों के हृदयों से भलीभाँति परिचित हैं और वे ब्राह्मणों के प्रति विशेष रूप से अनुरक्त रहते हैं। समस्त सन्त-पुरुषों के लक्ष्य भगवान सर्वश्रेष्ठ द्विज से इस तरह बातें करते हुए हँसने लगे और अपने प्रिय मित्र ब्राह्मण सुदामा की ओर स्नेहपूर्वक देखते हुए तथा मुसकाते हुए निम्नलिखित शब्द कहे।

3 भगवान ने कहा: हे ब्राह्मण, तुम अपने घर से मेरे लिए कौन-सा उपहार लाये हो? शुद्ध प्रेमवश अपने भक्तों द्वारा प्रस्तुत की गई छोटी से छोटी भेंट को भी मैं बड़ी मानता हूँ, किन्तु अभक्तों द्वारा चढ़ाई गई बड़ी से बड़ी भेंट भी मुझे तुष्ट नहीं कर पाती।

4 यदि कोई मुझे प्रेम तथा भक्ति के साथ एक पत्ती, फूल, फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

5 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भी वह ब्राह्मण लक्ष्मी के पति को मुट्ठी-भर तंदुल देने में अत्यधिक हिचकिचा रहा था। बस, वह लज्जा के मारे अपना सिर नीचे किये रहा।

6-7 समस्त जीवों के हृदयों में प्रत्यक्ष साक्षी स्वरूप होने के कारण भगवान कृष्ण भलीभाँति समझ गये कि सुदामा उनसे मिलने क्यों आया है। अतः उन्होंने सोचा, “इसके पूर्व मेरे मित्र ने कभी भी भौतिक ऐश्वर्य की इच्छा से मेरी पूजा नहीं की है, किन्तु अब वह अपनी सती तथा पति-परायणा पत्नी को संतुष्ट करने के लिए मेरे पास आया है। मैं उसे वह सम्पदा प्रदान करूँगा जो देवताओं के द्वारा अलभ्य है।"

8 इस प्रकार सोचते हुए भगवान ने ब्राह्मण के वस्त्र में से कपड़े के पुराने टुकड़े में बँधे तंदुल के दानों को छीन लिया और कह उठे, “यह क्या है?”

9 “हे मित्र क्या इसे मेरे लिए लाये हो? इससे मुझे बहुत खुशी हो रही है। निस्सन्देह तंदुल के ये थोड़े-से दाने न केवल मुझे, अपितु सारे ब्रह्माण्ड को तुष्ट करनेवाले हैं।"

10 यह कहकर भगवान ने एक मुट्ठी खाई और दूसरी मुट्ठी खाने ही वाले थे कि पति-परायणा देवी रुक्मिणी ने उनका हाथ पकड़ लिया।

11 महारानी रुक्मिणी ने कहा: हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, इस जगत में तथा अगले जगत में सभी प्रकार की प्रभूत सम्पदा दिलाने के लिए यह पर्याप्त है। आखिर, किसी की समृद्धि आपकी तुष्टि पर ही तो निर्भर है।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: उस ब्राह्मण ने जी-भरकर खाने-पीने के बाद रात्रि भगवान अच्युत के महल में बिताई। उसे ऐसा अनुभव हुआ, मानो वह वैकुण्ठ लोक में आ गया हो।

132 अगले दिन ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता आत्माराम भगवान कृष्ण द्वारा सम्मानित होकर सुदामा घर के लिए चल पड़ा। हे राजन, वह ब्राह्मण मार्ग पर चलते हुए अत्यधिक हर्षित था।

14 यद्यपि सुदामा को बाह्य रूप से भगवान कृष्ण से कोई धन प्राप्त नहीं हुआ था, फिर भी वह अपनी ओर से कुछ भी माँगने में अत्यधिक सकुचा रहा था। भगवान के दर्शन पाकर वह पूर्ण संतुष्ट होकर लौटा।

15 सुदामा ने सोचा: भगवान कृष्ण ब्राह्मण-भक्त के रूप में विख्यात हैं और अब मैंने स्वयं इस भक्ति को देख लिया है। निस्सन्देह लक्ष्मीजी को अपने वक्षस्थल पर धारण करनेवाले उन्होंने सबसे दरिद्र भिखारी का आलिंगन किया है।

16 मैं कौन हूँ? एक पापी, निर्धन ब्राह्मण और कृष्ण कौन है? भगवान, छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण। तो भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है।

17 उन्होंने मेरे साथ अपने भाइयों जैसा बर्ताव किया, अपनी प्रियतमा के पलंग पर बैठाया और चूँकि मैं थका हुआ था, इसलिए स्वयं उनकी रानी ने चामर से मुझ पर पंखा झला।

18 यद्यपि वे समस्त देवताओं के स्वामी हैं और समस्त ब्राह्मणों के पूज्य हैं, फिर भी उन्होंने मेरे पाँवों की मालिश करके तथा अन्य विनीत सुश्रुषाओं द्वारा मेरी इस तरह पूजा की, मानो मैं ही देवता हूँ।

19 मनुष्य स्वर्ग में, मोक्ष में, रसातल में तथा इस पृथ्वी पर जितनी भी सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है, उसका आधारभूत कारण उनके चरणकमलों की भक्ति है।

20 यह सोचकर कि यदि यह निर्धन बेचारा सहसा धनी हो जायेगा, तो वह मदमत्त करने वाले सुख में मुझे भूल जायेगा, दयालु भगवान ने मुझे रंचमात्र भी धन नहीं दिया।

21-23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार अपने आप सोचते-सोचते सुदामा अन्ततः उस स्थान पर आ पहुँचा, जहाँ उसका घर हुआ करता था। किन्तु अब वह स्थान सभी ओर से ऊँचे भव्य महलों से घनीभूत था, जो सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमा के सम्मिलित तेज से होड़ ले रहा थे। वहाँ आलीशान आँगन तथा बगीचे थे, जो कूजन करते हुए पक्षियों के झुण्डों से भरे थे और जलाशयों से सुशोभित थे, जिनमें कुमुद, अम्भोज, कल्हार तथा उत्पल नामक कमल खिले हुए थे। अगवानी के लिए उत्तम वस्त्र धारण किये पुरुष तथा हिरणियों जैसी आँखों वाली स्त्रियाँ खड़ी थीं। सुदामा चकित था कि यह सब क्या है? किसकी सम्पत्ति है? और यह सब कैसे हुआ?

24 जब वह इस तरह सोच विचार में डूबा था, तो देवताओं जैसे तेजवान सुन्दर पुरुष तथा दासियाँ ऊँचे स्वर में गीत गाते तथा बाजे के साथ अपने अत्यन्त भाग्यशाली स्वामी का सत्कार करने आये।

25 जब ब्राह्मण की पत्नी ने सुना कि उसका पति आया है, तो वह हर्ष के मारे तुरन्त घर से बाहर निकल आई। वह दिव्य धाम से निकलने वाली साक्षात लक्ष्मी जैसी लग रही थी।

26 जब उस पतिव्रता स्त्री ने अपने पति को देखा, तो उसकी आँखें प्रेम तथा उत्सुकता के आँसुओं से भर आईं। अपनी आँखें बन्द किये विचारमग्न होकर उसने पति को प्रणाम किया और मन ही मन उसका आलिंगन कर लिया।

27 सुदामा अपनी पत्नी को देखकर चकित था। रत्नजटित लॉकेटों से अलंकृत दासियों के बीच चमक रही वह उसी तरह तेजोमय लग रही थी, जिस तरह कोई देवी अपने विमान पर दीप्तिमान हो।

28 उसने आनन्दपूर्वक अपनी पत्नी के साथ घर में प्रवेश किया, जहाँ सैकड़ों रत्नजटित खम्भे थे, जैसे देवराज महेन्द्र के महल में हैं।

29-32 सुदामा के घर में दूध के झाग सदृश कोमल तथा सफेद पलंग थे, जिनके पाए हाथी-दाँत के बने थे और सोने से अलंकृत थे। वहाँ कुछ सोफ़े भी थे, जिनके पाए सोने के थे। साथ ही राजसी चामर पंखे, सुनहरे सिंहासन, मुलायम गद्दे तथा मोती की लड़ों से लटकते चमचमाते चँदोवे थे। चमकते स्फटिक की दीवालों पर बहुमूल्य मरकत मणि (पन्ने) जड़े थे और रत्नजटित दीपक प्रकाशमान थे। उस महल की सारी स्त्रियाँ बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत थीं। जब उस ब्राह्मण ने सभी प्रकार का यह विलासमय ऐश्वर्य देखा, तो उसने शान्त भाव से इस आकस्मिक समृद्धि के विषय में अपने मन में तर्क किया।

33 सुदामा ने सोचा: मैं सदैव निर्धन रहा हूँ। निश्चय ही मुझ जैसे अभागे व्यक्ति का एकाएक धनी हो जाने का एकमात्र सम्भावित कारण यही हो सकता है कि यदुवंश के परम ऐश्वर्यशाली प्रधान भगवान कृष्ण ने मुझ पर अपनी कृपा-दृष्टि की है।

34 आखिर, मेरे मित्र कृष्ण ने यह जान लिया कि मैं उनसे कुछ माँगना चाहता था और जब मैं उनके समक्ष खड़ा था, तो उन्होंने मेरे बिना कहे/माँगे ही मुझे प्रचुर सम्पदा प्रदान कर वर्षा वाले बादलों जैसा कार्य किया है।

35 भगवान अपने बड़े से बड़े वर को तुच्छ मानते हैं, किन्तु अपने शुभचिन्तक भक्त द्वारा की गई तुच्छ सेवा को बहुत बढ़ा देते हैं। इस तरह परमात्मा ने मेरे द्वारा लाये गये एक मुट्ठी तंदुल को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

36 समस्त दिव्य गुणों के परम दयामय आगार भगवान की मैं जन्म-जन्मान्तर प्रेम-मित्रता के साथ उनकी सेवा करूँ और उनमें अन्य भक्तों जैसी ही दृढ़ अनुरक्ति उत्पन्न करूँ।

37 जिस भक्त में आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि (समझ) नहीं होती, उसे भगवान कभी भी इस जगत का विचित्र ऐश्वर्य – राजसी शक्ति तथा भौतिक सम्पत्ति – नहीं सौंपते। दरअसल अपने अथाह ज्ञान से अजन्मा भगवान भलीभाँति जानते हैं कि किस तरह गर्व का नशा किसी धनी का पतन कर सकता है।

38 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह अपनी आध्यात्मिक बुद्धि के द्वारा अपने संकल्प को दृढ़ करते हुए सुदामा समस्त जीवों के आश्रय भगवान कृष्ण के प्रति पूर्णतया अनुरक्त बना रहा। उसने धनलिप्ता से रहित होकर अपनी पत्नी के साथ उस इन्द्रिय सुख का भोग, अन्ततः समस्त इन्द्रिय-तृप्ति का परित्याग करने के विचार (अनासक्त भाव) से किया जो उसे प्रदान किया गया था।

39 भगवान हरि समस्त ईश्वरों के ईश्वर, समस्त यज्ञों के स्वामी तथा सृष्टि के परम शासक हैं। लेकिन वे सन्त ब्राह्मणों को अपना स्वामी मानते हैं, अतः उनसे बढ़कर कोई अन्य देव नहीं रह जाता।

40 इस तरह यह देखते हुए कि अजेय भगवान किस प्रकार से अपने दासों द्वारा जीत लिये जाते हैं, भगवान के प्रिय ब्राह्मण मित्र को अनुभव हुआ कि उसके हृदय में भौतिक आसक्ति की जो ग्रंथियाँ शेष रह गई थीं, वे भगवान के निरन्तर ध्यान के बल पर कट गई हैं। उसने अल्प काल में भगवान कृष्ण का परम धाम प्राप्त किया, जो महान सन्तों का गन्तव्य है।

41 भगवान सदैव ही ब्राह्मणों के प्रति विशेष कृपा दर्शाते हैं। जो भी ब्राह्मणों के प्रति भगवान की दया के इस विवरण को सुनेगा, उसमें भगवतप्रेम उत्पन्न होगा और इस तरह वह भौतिक कर्म के बन्धन से छूट जायेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अस्सी – द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण से ब्राह्मण सुदामा की भेंट (10.80)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु, हे स्वामी, मैं उन असीम शौर्य वाले भगवान मुकुन्द द्वारा सम्पन्न अन्य शौर्यपूर्ण कार्यों के विषय में सुनना चाहता हूँ।

2 हे ब्राह्मण, जो जीवन के सार को जानता है और इन्द्रिय-तृप्ति के लिए प्रयास करने से ऊब चुका हो, वह भगवान उत्तमश्लोक की दिव्य कथाओं को बारम्बार सुनने के बाद भला उनका परित्याग कैसे कर सकता है?

3 असली वाणी वही है जो भगवान के गुणों का वर्णन करती है, असली हाथ वे हैं, जो उनके लिए कार्य करते हैं, असली मन वह है, जो प्रत्येक जड़-चेतन के भीतर निवास करने वाले उन भगवान का सदैव स्मरण करता है और असली कान वे हैं, जो निरन्तर उनकी पुण्य कथाओं का श्रवण करते हैं।

4 वास्तविक सिर वही है, जो जड़-चेतन के बीच भगवान की अभिव्यक्तियों को नमन करता है। असली आँखें वे हैं, जो एकमात्र भगवान का दर्शन करती हैं और असली अंग वे हैं, जो भगवान या उनके भक्तों के चरणों को पखारने से प्राप्त जल का नियमित रूप से आदर करते हैं।

5 सूत गोस्वामी ने कहा: विष्णुरात द्वारा इस तरह प्रश्न किये जाने पर शक्तिसंपन्न ऋषि बादरायणि ने, जिनका हृदय भगवान वासुदेव के ध्यान में पूर्णतया लीन रहता था, यह उत्तर दिया।

6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण का एक ब्राह्मण मित्र सुदामा था, जो वैदिक ज्ञान में प्रकाण्ड पण्डित था और समस्त इन्द्रिय-भोग से उदासीन था। इससे भी बढ़कर, उसका मन शान्त था और उसकी इन्द्रियाँ संयमित थीं।

7 गृहस्थ की भाँति रहते हुए अपने आप जो उसे मिल जाता था वह उसी से भरण-पोषण करता था। मैले-कुचेले वस्त्रधारी उस ब्राह्मण की पत्नी उसके साथ कष्ट भोग रही थी और भूख के कारण दुबली हो गई थी।

8 एक बार उस गरीब ब्राह्मण की सती-साध्वी पत्नी उसके पास आई। उसका मुख त्रास के कारण सूखा था। भय से काँपते हुए वह इस प्रकार बोली।

9 सुदामा की पत्नी ने कहा: हे ब्राह्मण, क्या यह सत्य नहीं है कि लक्ष्मीजी के पति आपके निजी मित्र हैं? यादवों में सर्वश्रेष्ठ भगवान कृष्ण ब्राह्मणों पर दयालु हैं और उन्हें अपनी शरण देने के लिए अतीव इच्छुक हैं।

10 हे भाग्यवान, आप समस्त सन्तों के असली शरण, उनके पास जाइये। वे निश्चय ही आप जैसे कष्ट भोगने वाले गृहस्थ को प्रचुर सम्पदा प्रदान करेंगे।

11 इस समय भगवान कृष्ण भोजों, वृष्णियों तथा अंधकों के शासक हैं और द्वारका में रह रहे हैं। चूँकि वे ऐसे भी व्यक्ति को, जो उनके चरणकमलों का केवल स्मरण करता हो अपने आपको दे देने वाले हैं, तो फिर इसमें क्या संशय है कि ब्रह्माण्ड के गुरु स्वरूप वे अपने निष्ठावान आराधक को वैभव तथा भौतिक भोग प्रदान करेंगे, जो कोई विशेष अभीष्ट वस्तुएँ नहीं हैं?

12-13 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब उसकी पत्नी ने उससे नाना प्रकार से अनुरोध किया, तो ब्राह्मण ने अपने मन में सोचा, “भगवान कृष्ण के दर्शन करना निस्सन्देह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।" अतएव उसने जाने का निश्चय कर लिया, किन्तु उसने पहले अपनी पत्नी से यों कहा, “हे कल्याणी, यदि घर में ऐसी कोई वस्तु हो, जिसे मैं भेंट रूप में ले जा सकूँ, तो मुझे दो।"

14 सुदामा की पत्नी अपने पड़ोसी ब्राह्मणों से चार मुट्ठी चावल (चिउड़ा) माँग लाई, उन्हें फटे वस्त्र के एक टुकड़े में बाँधा और भगवान कृष्ण के लिए उपहार रूप में उसे अपने पति को दे दिया।

15 वह साधु ब्राह्मण चिउड़ा लेकर द्वारका के लिए रवाना हो गया और लगातार विस्मित होता रहा, “मैं किस तरह कृष्ण के दर्शन कर सकूँगा?”

16-17 विद्वान ब्राह्मण ने कुछ स्थानीय ब्राह्मणों के साथ मिलकर तीन सुरक्षा चौकियाँ पार कर लीं और तब वह तीन ड्योढ़ियों से होकर भगवान कृष्ण के आज्ञाकारी भक्तों, अन्धकों तथा वृष्णियों के घरों के पास से गुजरा, जहाँ सामान्यतया कोई भी नहीं जा सकता था। तत्पश्चात वह भगवान हरि की सोलह हजार रानियों के ऐश्वर्यशाली महलों में से एक में प्रविष्ट हुआ। उसे ऐसा अनुभव हुआ, मानो वह ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहा हो।

18 उस समय भगवान अच्युत अपनी प्रियतमा के पलंग पर विराजमान थे। उस ब्राह्मण को कुछ दूरी पर देखकर भगवान तुरन्त उठ खड़े हुए और मिलने के लिए आगे आये और बड़े ही हर्ष से उसका आलिंगन किया।

19 कमलनयन भगवान को अपने प्रिय मित्र विद्वान ब्राह्मण के शरीर का स्पर्श करने पर गहन आनन्द की अनुभूति हुई और उनकी आँखों से प्रेमाश्रु झरने लगे।

20-22 भगवान कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा को बिस्तर पर बैठाया। फिर समस्त जगत को पवित्र करनेवाले भगवान ने स्वयं नाना प्रकार से उसका आदर किया, उसके पाँव धोये तथा उसी जल को अपने सिर के ऊपर छिड़का। उन्होंने उसके शरीर पर दिव्य सुगन्धित चन्दन, अगुरु तथा कुमकुम का लेप किया और सुगन्धित धूप तथा दीपों की पंक्तियों से खुशी-खुशी उसकी पूजा की। अन्त में पान देने के बाद उसे दान में गाय दी और मधुर शब्दों से उसका स्वागत किया।

23 साक्षात लक्ष्मी देवी ने अपनी चामर से पंखा झलकर, उस गरीब ब्राह्मण की सेवा की, जिसके वस्त्र फटे हुए और मैले थे। जो इतना दुर्बल था कि उसके सारे शरीर की नसें दिख रही थीं।

24 राजमहल के निवासी निर्मल कीर्ति वाले भगवान कृष्ण को इस फटे-पुराने और मैले वस्त्र पहने ब्राह्मण का इतने प्रेम से सम्मान करते देखकर चकित हो गए।

25-26 राजमहल के निवासियों ने कहा: इस निर्धन ब्राह्मण ने कौन-सा पुण्य-कर्म किया है? लोग उसे निन्दनीय मानते हैं फिर भी तीनों लोकों के गुरु और श्रीदेवी के धाम आदरपूर्वक उसकी सेवा कर रहे हैं। लक्ष्मी को अपने पलंग पर बैठा हुआ छोड़कर भगवान ने इस ब्राह्मण का आलिंगन किया है, मानो वह उनका बड़ा भाई हो।

27 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन एक दूसरे का हाथ पकड़कर कृष्ण तथा सुदामा अत्यन्त हर्ष के साथ बातें करते रहे कि किस तरह कभी वे दोनों अपने गुरु की पाठशाला में साथ-साथ रहे थे।

28 भगवान ने कहा: हे ब्राह्मण आप धर्म को भलीभाँति जाननेवाले है। क्या गुरु-दक्षिणा देने तथा पाठशाला से घर लौटने के बाद आपने अपने अनुरूप पत्नी से विवाह किया या नहीं?

29 यद्यपि आप गृहकार्यों में प्रायः व्यस्त रहते हैं, किन्तु आपका मन भौतिक इच्छाओं से प्रभावित नहीं होता। न ही, हे विद्वान, आप भौतिक सम्पत्ति के पीछे पड़ने में अधिक रुचि लेते हैं, मैं यह भलीभाँति जानता हूँ।

30 कुछ लोग भगवान की मायाशक्ति से उत्पन्न समस्त भौतिक लिप्साओं का परित्याग करके, मन को अविचल रखते हुए सांसारिक कर्म सम्पन्न करते हैं। जिस तरह मैं सामान्य जनों को शिक्षा देने के लिए कर्म करता हूँ, वे उसी तरह कर्म करते हैं।

31 हे ब्राह्मण, क्या आपको स्मरण है कि हम किस तरह अपने गुरु की पाठशाला में एकसाथ रहते थे? जब कोई द्विज विद्यार्थी अपने गुरु से सीखने योग्य सबकुछ सीख लेता है, तो वह आध्यात्मिक जीवन का आनन्द उठा सकता है, जो समस्त अज्ञान से परे है।

32 हे मित्र, व्यक्ति को भौतिक जन्म देने वाला ही उसका प्रथम गुरु होता है और उसे द्विज के रूप में ब्राह्मण की दीक्षा देता है तथा धर्म-कृत्यों में लगाता है, वह निस्सन्देह उसका अधिक प्रत्यक्ष गुरु होता है। किन्तु जो सभी आध्यात्मिक आश्रमों के सदस्यों को दिव्य ज्ञान प्रदान करता है, वह उसका परम गुरु होता है। निस्सन्देह वह मुझ जैसा होता है।

33 हे ब्राह्मण, यह निश्चित है कि वर्णाश्रम प्रणाली के सारे अनुयायियों में से, जो लोग गुरु रूप में मेरे द्वारा कहे गये शब्दों से लाभ उठाते हैं और भवसागर को सरलता से पार कर लेते हैं, वे ही अपने असली कल्याण को सबसे अच्छी तरह समझ पाते है।

34 सभी जीवों का आत्मा स्वरूप मैं अनुष्ठानिक पूजा, ब्राह्मण-दीक्षा, तपस्या अथवा आत्मानुशासन द्वारा उतना तुष्ट नहीं होता, जितना कि मनुष्य की अपने गुरु के प्रति की गई श्रद्धापूर्ण सेवा द्वारा तुष्ट होता हूँ।

35-36 हे ब्राह्मण, क्या आपको स्मरण है कि जब हम अपने गुरु के साथ रह रहे थे, तो हमारे साथ क्या घटना घटी थी? एक बार हमारे गुरु की पत्नी ने हमें जलाऊ लकड़ी लाने के लिए भेजा। हे द्विज, जब हम एक विशाल जंगल में प्रविष्ट हुए, तो तीव्र हवा और वर्षा के साथ साथ कर्कश गर्जन से युक्त असामयिक तूफान आ गया था।

37 तब सूर्यास्त होते ही जंगल प्रत्येक दिशा में अंधकार से ढक गया और बाढ़ आ जाने से हम ऊँची तथा नीची भूमि में अन्तर नहीं कर पा रहे थे।

38 जोरदार हवा और अनवरत वर्षा की चपेट में आकर हम बाढ़ के जल में अपना रास्ता भटक गये। हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया और अत्यन्त संकट में पड़कर, हम जंगल में निरुद्देश्य घूमते रहे।

39 हमारे गुरु सांदीपनी हमारी विषम स्थिति को समझकर सूर्योदय होने पर हम शिष्यों की खोज करने के लिए निकल पड़े और हमें विपत्ति में फँसा पाया।

40 सांदीपनी ने कहा: मेरे बच्चों, तुमने मेरे लिए इतना कष्ट सहा है, हर जीव को अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है, किन्तु तुम मेरे प्रति इतने समर्पित हो कि तुमने अपनी सुविधा की बिल्कुल परवाह नहीं की।

41 दरअसल सारे सच्चे शिष्यों का यही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध हृदय से अपने धन तथा अपने प्राणों तक को अर्पित करके अपने गुरु के ऋण से उऋण हों।

42 हे बालकों, तुम उत्तम श्रेणी के ब्राह्मण हो और मैं तुमसे संतुष्ट हूँ। तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरी हों और तुमने जो वैदिक मंत्र सीखे हैं, वे इस जगत में या अगले जगत में तुम्हारे लिए कभी अपना अर्थ न खोयें।

43 भगवान कृष्ण ने आगे कहा: अपने गुरु के घर में रहते समय हमें इस तरह के अनेकानेक अनुभव हुए। कोई भी व्यक्ति अपने गुरु की कृपा मात्र से जीवन के प्रयोजन को पूरा कर सकता है और शाश्वत शान्ति पा सकता है।

44 ब्राह्मण ने कहा: हे देवों के देव, हे जगदगुरु, चूँकि मैं पूर्णकाम अपने गुरु के घर पर आपके साथ रह सका, अतः मुझे अब प्राप्त करने के लिए बचा ही क्या है?

45 हे विभु, आपका शरीर वेदों के रूप में ब्रह्ममय है और इस तरह जीवन के समस्त शुभ लक्ष्यों का स्रोत है। आपने गुरु की पाठशाला में जो निवास किया, वह तो आपकी लीलाओं में से एक है, जिसमें आप मनुष्य की भूमिका का निर्वाह करते हैं।

 

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय उन्यासी – भगवान बलराम की तीर्थयात्रा (10.79)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, तब प्रतिपदा के दिन एक प्रचण्ड तथा भयावना झंझावात आया, जिससे चारों ओर धूल बिखर गई और सर्वत्र पीब की दुर्गन्ध फैल गई।

2 इसके बाद यज्ञशाला के क्षेत्र में बल्वल द्वारा भेजी गई घृणित वस्तुओं की वर्षा होने लगी। तत्पश्चात वह असुर हाथ में त्रिशूल लिए हुए आया।

3-4 विशालकाय असुर काले कज्जल के पिण्ड जैसा लग रहा था। उसकी चोटी तथा दाढ़ी पिघले ताम्बे जैसी थी, उसके भयावने दाँत थे तथा भौंहें गढ़े में घुसी थीं। उसे देखकर बलराम ने शत्रु-सेनाओं को खण्ड-खण्ड कर देनेवाली अपनी गदा और असुरों को दण्ड देने वाले अपने हल का स्मरण किया। इस प्रकार बुलाये जाने पर उनके दोनों हथियार तुरन्त ही उनके समक्ष प्रकट हो गये।

5 ज्योंही बल्वल असुर आकाश से उड़ा, भगवान बलराम ने अपने हल की नोंक से उसे पकड़ लिया और उसके सिर पर अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी गदा से प्रहार किया।

6 बल्वल पीड़ा से चिल्ला उठा और पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसका सिर फट गया और उसमें से खून का फव्वारा निकलने लगा। वह विद्युत्पात से प्रताड़ित लाल गेरू पर्वत जैसा लग रहा था।

7 पूज्य ऋषियों ने हार्दिक स्तुतियों से बलराम का सम्मान किया और उन्हें अमोघ वर दिये। तब उन्होंने उनका अनुष्ठानिक स्नान कराया, जिस तरह देवताओं ने इन्द्र को औपचारिक स्नान कराया था, जब उसने वृत्र का वध किया था।

8 उन्होंने बलरामजी को कभी न मुरझाने वाली कमल के फूलों से बनी वैजयन्ती नामक माला दी, जिसमें लक्ष्मीजी रहती हैं। उन्होंने बलराम को दिव्य वस्त्रों की जोड़ी तथा आभूषण भी दिये।

9 तत्पश्चात ऋषियों से विदा होकर भगवान ब्राह्मणों की टोली के साथ कौशिकी नदी गये, जहाँ उन्होंने स्नान किया। वहाँ से वे उस सरोवर पर गये, जहाँ से सरयू नदी निकलती है।

10 भगवान सरयू नदी की धारा का अनुसरण करते हुए प्रयाग आये, जहाँ उन्होंने स्नान किया और देवताओं तथा अन्य जीवों को तर्पण करने का अनुष्ठान सम्पन्न किया। इसके बाद वे पुलह ऋषि के आश्रम गये।

11-15 भगवान बलराम ने गोमती, गण्डकी तथा विपाशा नदियों में स्नान किया और शोण में भी डुबकी लगाई। वे गया गये, जहाँ अपने पितरों की पूजा की। गंगामुख जाकर उन्होंने शुद्धि के लिए स्नान किया। महेन्द्र पर्वत पर उन्होंने परशुराम के दर्शन किये और उनकी स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने गोदावरी नदी की सातों शाखाओं में स्नान किया। उन्होंने वेणा, पम्पा तथा भीमरथी नदियों में भी स्नान किया। फिर बलराम भगवान स्कन्द से मिले और भगवान गिरीश के धाम श्रीशैल गये। दक्षिणी प्रान्तों में, जिन्हें द्रविड़ देश कहा जाता है, भगवान ने पवित्र वेंकट पर्वत, कामकोष्णि तथा कांची नामक शहर, पवित्र कावेरी नदी तथा अत्यन्त पवित्र श्रीरंग को देखा, जहाँ साक्षात भगवान कृष्ण प्रकट हुए थे। वहाँ से वे ऋषभ पर्वत गये, जहाँ पर कृष्ण भी रहते हैं और फिर दक्षिण मथुरा गये। तत्पश्चात वे सेतुबन्ध गये, जहाँ बड़े से बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं।

16-17 सेतुबन्ध (रामेश्वरम) में भगवान हलायुध ने ब्राह्मणों को दान में दस हजार गौवें दीं। फिर वे कृतमाला तथा ताम्रपर्णी नदियों एवं विशाल मलय पर्वत गये। मलय-श्रेणी में भगवान बलराम को ध्यानमग्न अगस्त्य ऋषि मिले। ऋषि को नमस्कार करके भगवान ने स्तुति की और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। अगस्त्य से विदा होकर वे दक्षिणी सागर के तट पर गये, जहाँ उन्होंने कन्याकुमारी के रूप में दुर्गादेवी को देखा।

18 इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ गये और उन्होंने पवित्र पञ्चाप्सरा सरोवर में स्नान किया, जहाँ साक्षात भगवान विष्णु प्रकट हुए थे। यहाँ पर उन्होंने दस हजार गौवें दान में दीं।

19-21 तब भगवान ने केरल तथा त्रिगर्त राज्यों से होकर यात्रा करते हुए भगवान शिव की पवित्र नगरी गोकर्ण देखी, जहाँ साक्षात भगवान धूर्जटि (शिव) प्रकट होते हैं। इसके बाद एक द्वीप में निवास करने वाली देवी पार्वती का दर्शन करके बलरामजी पवित्र शूर्पारक जिले से होकर गुजरे और तापी, पयोष्णि तथा निर्विन्ध्या नदियों में स्नान किया। तत्पश्चात वे दण्डकारण्य में प्रविष्ट हुए और रेवा नदी गये, जिसके किनारे माहिष्मती नगरी स्थित है। फिर उन्होंने मनुतीर्थ में स्नान किया और अन्त में प्रभास लौट आये।

22 भगवान ने कुछ ब्राह्मणों से सुना कि किस तरह कुरुओं तथा पाण्डवों के बीच युद्ध में भाग लेने वाले सारे राजा मारे जा चुके थे। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि अब पृथ्वी अपने भार से मुक्त हो गई है।

23 उस समय युद्धक्षेत्र में भीम तथा दुर्योधन के मध्य चल रहे गदायुद्ध को रोकने की इच्छा से बलरामजी कुरुक्षेत्र गये।

24 जब युधिष्ठिर, कृष्ण, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव ने बलराम को देखा, तो उन सबने उन्हें नमस्कार किया, किन्तु यह सोचते हुए कि "ये हमें क्या बतलाने आये हैं" वे सब मौन रहे।

25 बलराम ने देखा कि दुर्योधन तथा भीम अपने अपने हाथों में गदा लिए कलात्मक ढंग से चक्कर लगाते क्रोध से भरे हुए एक-दूसरे पर विजय पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। भगवान ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया।

26 बलरामजी ने कहा: हे राजा दुर्योधन, हे भीम, सुनो, तुम दोनों योद्धा युद्ध-बल में समान हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों में से एक में शारीरिक बल अधिक है, जबकि दूसरा कला में अधिक प्रशिक्षित है।

27 चूँकि तुम दोनों युद्ध-बल में बिलकुल एक-जैसे हो अतः मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इस द्वन्द्व में तुम में से कोई कैसे जीतेगा या हारेगा। अतएव कृपा करके इस व्यर्थ के युद्ध को बन्द कर दो।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, तर्कपूर्ण होने पर भी बलरामजी के अनुरोध को उन दोनों ने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनकी पारस्परिक शत्रुता कट्टर थी। वे दोनों ही एक-दूसरे पर किये गये अपमानों तथा आघातों को निरन्तर स्मरण करते आ रहे थे।

29 इस निष्कर्ष पर पहुँचते हुए कि युद्ध विधाता द्वारा आयोजित होता है, बलरामजी द्वारका लौट गये। वहाँ उग्रसेन तथा उनके अन्य सम्बन्धियों ने उनका स्वागत किया, वे सभी उन्हें देखकर प्रफुल्लित थे।

30 बाद में बलरामजी नैमिषारण्य लौट आये, जहाँ ऋषियों ने समस्त यज्ञों के साक्षात रूप उन्हें प्रसन्नतापूर्वक विविध प्रकार के वैदिक यज्ञों को सम्पन्न करने में लगा दिया। अब बलरामजी समस्त युद्धों से निवृत्ति प्राप्त कर चुके थे।

31 सर्वशक्तिमान भगवान बलराम ने ऋषियों को शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया, जिससे वे सभी बलरामजी के भीतर सारे ब्रह्माण्ड को देख सकें और यह भी देख सकें कि वे हर वस्तु में समाये हुए हैं।

32 अपनी पत्नी के साथ अवभृथ स्नान करने के बाद सुन्दर वस्त्रों से सज्जित और अलंकारों से विभूषित तथा अपने निकट सम्बन्धियों, अन्य परिवार वालों एवं मित्रों से घिरे बलरामजी ऐसे भव्य लग रहे थे, मानो तेजयुक्त अपनी किरणों से घिरा हुआ चन्द्रमा हो।

33 उन अनन्त तथा अप्रमेय बलशाली भगवान बलराम द्वारा असंख्य लीलाएँ सम्पन्न की गईं, जो अपनी योगमाया से मनुष्य के रूप में दिखते हैं।

34 अनन्त भगवान बलराम के सारे कार्यकलाप चकित कर देने वाले हैं, जो कोई भी प्रातः तथा संध्या – उनका निरन्तर स्मरण करता है, वह भगवान श्री विष्णु का अत्यन्त प्रिय बन जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय अठहत्तर – दन्तवक्र, विदूरथ तथा रोमहर्षण का वध (10.78)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अन्य लोकों को गये हुए शिशुपाल, शाल्व तथा पौण्ड्रक के प्रति मैत्री-भाव होने से दुष्ट दन्तवक्र बहुत ही क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में प्रकट हुआ। हे राजन, एकदम अकेला, पैदल एवं हाथ में गदा लिए उस बलशाली योद्धा ने अपने पदचाप से पृथ्वी को हिला दिया।

3 दन्तवक्र को पास आते देखकर भगवान कृष्ण ने तुरन्त अपनी गदा उठा ली। वे अपने रथ से नीचे कूद पड़े और आगे बढ़ रहे अपने प्रतिद्वन्द्वी को रोका, जिस तरह तट समुद्र को रोके रहता है।

4 अपनी गदा उठाते हुए करुष के दुर्मद राजा ने भगवान मुकुन्द से कहा, “अहो भाग्य! अहो भाग्य! कि तुम आज मेरे समक्ष आये हो।"

5 “हे कृष्ण तुम मेरे ममेरे भाई हो, किन्तु तुमने मेरे मित्रों के साथ हिंसा की है और अब मुझे भी मार डालना चाहते हो। इसलिए मैं तुम्हें अपनी वज्र सरीखी गदा से मार डालूँगा।

6 अपने मित्रों का कृतज्ञ मैं तुम्हें मारकर उनके ऋण से उऋण हो जाऊँगा। सम्बन्धी के रूप में तुम मेरे शरीर के भीतर रोग की तरह प्रच्छन्न शत्रु हो।

7 इस तरह कटु वचनों से कृष्ण को उत्पीड़ित करने का प्रयास करते हुए, जिस तरह किसी हाथी को तेज अंकुश चुभाया जा रहा हो, दन्तवक्र ने अपनी गदा से भगवान के सिर पर आघात किया और शेर की तरह गर्जना की।

8 यद्यपि दन्तवक्र की गदा से उन पर आघात हुआ, किन्तु यदुओं के उद्धारक कृष्ण युद्धस्थल में अपने स्थान से रंच-भर भी नहीं हिले। प्रत्युत अपनी भारी कौमोदकी गदा से उन्होंने दन्तवक्र की छाती के बीचों-बीच प्रहार किया।

9 गदा के प्रहार से दन्तवक्र का हृदय छितरा गया, जिससे वह रक्त वमन करने लगा और निर्जीव होकर भूमि पर गिर गया।

10 हे राजन, तब उस असुर के शरीर से एक अत्यन्त सूक्ष्म एवं अद्भुत प्रकाश की चिनगारी सबके देखते-देखते निकली और कृष्ण में प्रवेश कर गई, ठीक उसी तरह जब शिशुपाल मारा गया था।

11 लेकिन तभी दन्तवक्र का भाई विदूरथ अपने भाई की मृत्यु के शोक में डूबा हाँफता हुआ आया और वह अपने हाथ में तलवार तथा ढाल लिए हुए था। वह भगवान को मार डालना चाहता था।

12 हे राजेन्द्र, ज्योंही विदूरथ ने कृष्ण पर आक्रमण किया, उन्होंने अपने छुरे जैसी धार वाले सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।

13-15 शाल्व तथा उसके सौभयान के साथ-साथ दन्तवक्र तथा उसके छोटे भाई को, जो सब किसी अन्य प्रतिद्वन्द्वी के समक्ष अजेय थे, इस तरह विनष्ट करने के बाद देवताओं, मनुष्यों, ऋषियों, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों, महोरगों के अतिरिक्त अप्सराओं, पितरों, यक्षों, किन्नरों तथा चारणों ने भगवान की प्रशंसा की। जब ये सब उनका यशोगान कर रहे थे और उन पर फूल बरसा रहे थे, तो भगवान गणमान्य वृष्णियों के साथ उत्सवपूर्वक सजाई हुई अपनी राजधानी में प्रविष्ट हुए।

16 इस तरह समस्त योगशक्ति तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण सदैव विजयी होते हैं। एकमात्र पाशविक दृष्टि वाले ही यह सोचते हैं कि कभी-कभी उनकी हार होती है।

17 तब बलराम ने सुना कि कुरुगण पाण्डवों के साथ युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। तटस्थ होने के कारण वे तीर्थस्थानों में स्नान के लिए जाने का बहाना करके वहाँ से कूच कर गये।

18 प्रभास में स्नान करके तथा देवताओं, ऋषियों, पितरों एवं वरेषु मानवों का सम्मान करने के बाद वे ब्राह्मणों को साथ लेकर सरस्वती के उस भाग में गये, जो पश्चिम में समुद्र की ओर बहती है।

19-20 भगवान बलराम ने चौड़े बिन्दु-सरस सरोवर, त्रितकूप, सुदर्शन, विशाल, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ तथा पूर्ववाहिनी सरस्वती को देखा। हे भारत, वे यमुना तथा गंगा नदियों के तटवर्ती सारे तीर्थस्थानों में गये और तब वे नैमिषारण्य आये, जहाँ ऋषिगण बृहद यज्ञ सत्र सम्पन्न कर रहे थे।

21 भगवान के आगमन पर, उन्हें पहचान लेने पर, दीर्घकाल से यज्ञ कर रहे मुनियों ने खड़े होकर, नमस्कार करके तथा उनकी पूजा करके, समुचित ढंग से उनका सत्कार किया।

22 अपनी टोली समेत इस प्रकार पूजित होकर भगवान ने सम्मान-आसन ग्रहण किया। तब उन्होंने देखा कि व्यासदेव का शिष्य रोमहर्षण बैठा ही रहा था।

23 श्री बलराम यह देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए कि सूत जाति का यह सदस्य किस तरह – उठकर खड़े होने, नमस्कार करने या हाथ जोड़ने में विफल रहा है और समस्त विद्वान ब्राह्मणों से ऊपर बैठा हुआ है।

24 बलराम ने कहा: चूँकि अनुचित रीति से संकर विवाह से उत्पन्न यह मूर्ख इन सारे ब्राह्मणों से ऊपर बैठा है और मुझ धर्मरक्षक से भी ऊपर, इसलिए यह मृत्यु का पात्र है।

25-26 यद्यपि यह दिव्य मुनि व्यास का शिष्य है और उनसे अनेक शास्त्रों को भलीभाँति सीखा है, जिसमें धार्मिक कर्तव्यों की संहिताएँ, इतिहास तथा पुराण सम्मिलित हैं, किन्तु इस सारे अध्ययन से उसमें सद्गुण उत्पन्न नहीं हुए हैं। प्रत्युत उसका शास्त्र अध्ययन किसी नट के द्वारा अपना अंश अध्ययन करने की तरह है, क्योंकि वह न तो आत्मसंयमी है, न विनीत है। वह व्यर्थ ही विद्वान होने का स्वाँग रचता है, यद्यपि वह अपने मन को जीत सकने में विफल रहा है।

27 इस संसार में मेरे अवतार का उद्देश्य ही यह है कि ऐसे दिखावटी लोगों का वध किया जाय, जो धार्मिक बनने का स्वाँग रचते हैं। निस्सन्देह, ये धूर्त सबसे बड़े पापी हैं।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यद्यपि भगवान बलराम ने अपवित्र लोगों को मारना बन्द कर दिया था, किन्तु रोमहर्षण की मृत्यु तो होनी ही थी। अतः भगवान ने कुश घास के तिनके की नोक से छूकर उसका वध कर दिया।

29 सारे मुनि अत्यन्त कातरता से "हाय हाय" कहकर चिल्ला उठे। उन्होंने भगवान संकर्षण से कहा, “हे प्रभु, आपने यह एक अधार्मिक कृत्य किया है।"

30 हे यदुओं के प्रिय, हमने उसे आध्यात्मिक गुरु का आसन प्रदान किया था और उसे दीर्घ आयु के लिए एवं जब तक यह सत्र चलता है तब तक भौतिक पीड़ा से मुक्ति के लिए वचन दिया था।

31-32 आपने अनजाने में एक ब्राह्मण का वध कर दिया है। हे योगेश्वर, शास्त्रों के आदेश भी आपको आज्ञा नहीं दे सकते, किन्तु यदि आप स्वेच्छा से ब्राह्मण के इस वध के लिए संस्तुत शुद्धि कर लेंगे, तो हे सारे जगत के शुद्धिकर्ता, सामान्य लोग आपके उदाहरण से अत्यधिक लाभान्वित होंगे।"

33 भगवान ने कहा: मैं सामान्य लोगों के लाभार्थ इस हत्या के लिए अवश्य ही प्रायश्चित करूँगा। इसलिए कृपा करके मुझे जो कुछ अनुष्ठान सर्वप्रथम करना हो, उसका निर्धारण करें।

34 हे मुनियों, कुछ कहिये तो। आपने उसे जो भी दीर्घायु, शक्ति तथा इन्द्रिय शक्ति के लिए वचन दिये हैं, उन्हें मैं पूरा करवा दूँगा।

35 ऋषियों ने कहा: हे राम, आप ऐसा करें कि आपकी तथा आपके कुश अस्त्र की शक्ति एवं साथ ही हमारा वचन तथा रोमहर्षण की मृत्यु--ये सभी बने रहें।

36 भगवान ने कहा: वेद हमें उपदेश देते हैं कि मनुष्य की आत्मा ही पुत्र रूप में पुनः जन्म लेती है। इस तरह रोमहर्षण का पुत्र पुराणों का वक्ता बने और वह दीर्घायु, प्रबल इन्द्रियों तथा बल से युक्त हो।

37 हे मुनिश्रेष्ठों, आप मुझे अपनी इच्छा बता दें, मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा और हे बुद्धिमान मुनियों, मेरे लिए समुचित प्रायश्चित का भलीभाँति निर्धारण कर दें। क्योंकि मैं यह नहीं जानता कि वह क्या हो सकता है।

38 ऋषियों ने कहा: एक भयावना असुर, जिसका नाम बल्वल है और जो इल्वल का पुत्र है, हर प्रतिपदा को अर्थात शुक्लपक्ष के पहले दिन यहाँ आता है और हमारे यज्ञ को दूषित कर देता है।

39 हे दशार्ह-वंशज, कृपा करके उस पापी असुर का वध कर दें, जो हमारे ऊपर पीब, रक्त, मल, मूत्र, शराब तथा मांस डाल जाता है। आप हमारे लिए यही सबसे उत्तम सेवा कर सकते हैं।

40 तत्पश्चात आप बारह महीनों तक गम्भीर ध्यान के भाव में भारतवर्ष की परिक्रमा करें और तपस्या करते हुए विविध पवित्र तीर्थस्थानों में स्नान करें। इस तरह आप विशुद्ध हो सकेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सतहत्तर – कृष्ण द्वारा शाल्व का वध (10.77)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जल से अपने को तरोताजा करने के बाद, अपना कवच पहनकर तथा अपना धनुष लेकर भगवान प्रद्युम्न ने अपने सारथी से कहा, “मुझे वहीं वापस ले चलो, जहाँ वीर द्युमान खड़ा है।"

2 प्रद्युम्न की अनुपस्थिति में द्युमान उनकी सेना को तहस-नहस किये जा रहा था, किन्तु अब प्रद्युम्न ने द्युमान पर बदले में आक्रमण कर दिया और हँसते हुए आठ नाराच बाणों से उसे बेध दिया।

3 इन बाणों में से चार से उसने द्युमान के चार घोड़ों को, एक बाण से उसके सारथी को तथा दो अन्य बाणों से उसके धनुष तथा रथ के झण्डे को और अन्तिम बाण से द्युमान के सिर पर प्रहार किया।

4 गद, सात्यकि, साम्ब तथा अन्य वीर शाल्व की सेना का संहार करने लगे और इस तरह विमान के भीतर के सारे सिपाही गर्दनें कट जाने से समुद्र में गिरने लगे।

5 इस तरह यदुगण तथा शाल्व के अनुयायी एक-दूसरे पर आक्रमण करते रहे और यह घनघोर युद्ध सत्ताईस दिनों तथा रातों तक चलता रहा।

6-7 धर्मपुत्र युधिष्ठिर द्वारा आमंत्रित किये जाने पर भगवान कृष्ण इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। अब जब राजसूय यज्ञ पूरा हो चुका था और शिशुपाल मारा जा चुका था, तो भगवान को अपशकुन दिखने लगे। अतः उन्होंने कुरुवंशी बड़े-बूढ़ों तथा महान ऋषियों से एवं अपनी बुआ – पृथा तथा उनके पुत्रों से भी विदा ली और द्वारका लौट आये।

8 भगवान ने अपने आप (मन ही मन) कहा: चूँकि मैं यहाँ अपने पूज्य ज्येष्ठ भ्राता सहित आया हूँ, शिशुपाल के पक्षधर राजा निश्चित ही मेरी राजधानी पर आक्रमण कर रहे होंगे।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: द्वारका पहुँचने पर, उन्होंने देखा कि लोग किस तरह विनाश से भयभीत हैं और शाल्व तथा उसके सौभ विमान को भी देखा, तो केशव ने नगरी की सुरक्षा के लिए आयोजना की और फिर दारुक से निम्नवत बोले।

10 भगवान कृष्ण ने कहा: हे सारथी, शीघ्र ही मेरा रथ शाल्व के निकट ले चलो। यह सौभपति शक्तिशाली जादूगर है, तुम उससे विमोहित नहीं होना।

11 इस तरह आदेश दिये जाने पर दारुक ने भगवान के रथ की रास सँभाली और उसे आगे हाँका। ज्योंही रथ युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ, तो वहाँ पर उपस्थित शत्रु तथा मित्र हर एक की दृष्टि गरुड़ के प्रतीक की ओर पड़ी।

12 जब नष्टप्राय सेना के स्वामी शाल्व ने कृष्ण को पास आते देखा, तो उसने भगवान के सारथी पर अपना भाला फेंका। यह भाला युद्धभूमि में से होकर उड़ते समय भयावह गर्जना कर रहा था।

13 शाल्व द्वारा फेंके गये भाले ने सारे आकाश को अत्यन्त तेजवान उल्का तारे की तरह प्रकाशित कर दिया, किन्तु भगवान शौरी ने अपने बाणों से इस महान अस्त्र को सैकड़ों खण्डों में छिन्न-भिन्न कर डाला।

14 तब भगवान कृष्ण ने शाल्व को सोलह बाणों से बेध दिया तथा आकाश में इधर-उधर घूमते हुए सौभ विमान पर बाणों की वर्षा से प्रहार किया। बाणों के वर्षा करते हुए भगवान उस सूर्य की तरह लग रहे थे, जो अपनी किरणों से आकाश को आप्लावित करता है।

15 तब शाल्व ने भगवान कृष्ण की बाईं बाँह पर प्रहार किया, जिसमें वे अपना शार्ङ्ग धनुष पकड़े थे। विचित्र बात यह हुई कि यह धनुष उनके हाथ से गिर गया।

16 जो यह घटना देख रहे थे, वे सब हाहाकार करने लगे। तब सौभ के स्वामी ने जोर-जोर से गरजकर जनार्दन से इस प्रकार कहा।

17-18 शाल्व ने कहा: चूँकि हमारी उपस्थिति में तुमने हमारे मित्र और अपने ही भाई शिशुपाल की मंगेतर का अपहरण किया है और उसके बाद जब वह सतर्क नहीं था, तो पवित्र सभा में तुमने उसकी हत्या कर दी है, इसलिए आज मैं अपने तेज बाणों से तुम्हें ऐसे लोक में भेज दूँगा, जहाँ से लौटना नहीं होता। यद्यपि तुम अपने को अपराजेय मानते हो, किन्तु यदि तुम मेरे समक्ष खड़े होने का साहस करो, तो मैं तुम्हें अभी मार डालूँगा।

19 भगवान ने कहा: रे मूर्ख! तुम व्यर्थ ही डींग मार रहे हो, क्योंकि तुम अपने निकट खड़ी मृत्यु को नहीं देख पा रहे हो। असली वीर कभी अधिक बातें नहीं करते, अपितु कार्य करके अपना पौरुष प्रदर्शित करते हैं।

20 ऐसा कहकर क्रुद्ध हुए भगवान ने भयावनी शक्ति तथा अत्यन्त वेग से अपनी गदा घुमाई और उसे शाल्व के कंधे की हड्डी पर दे मारा, जिससे वह छटपटा उठा और रक्त वमन करने लगा।

21 लेकिन भगवान अच्युत द्वारा अपनी गदा वापस लेते ही शाल्व दृष्टि से ओझल हो गया और उसके एक पल बाद एक व्यक्ति भगवान के पास आया। उनके समक्ष नतमस्तक होकर उसने कहा, “मुझे देवकी ने भेजा है" और रोते हुए उसने निम्नलिखित शब्द कहे।

22 उस व्यक्ति ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे महाबाहु, हे अपने माता-पिता के प्रिय, शाल्व तुम्हारे पिता को बाँधकर उसी तरह ले गया है, जिस तरह कसाई किसी पशु का वध करने के लिए ले जाता है।

23 जब उन्होंने यह क्षुब्धकारी समाचार सुना, तो सामान्य मनुष्य की भूमिका निर्वाह कर रहे भगवान कृष्ण ने खेद तथा करुणा व्यक्त की और अपने माता-पिता के प्रति प्रेमवश उन्होंने सामान्य बद्धजीव जैसे शब्द कहे।

24 भगवान कृष्ण ने कहा: "बलराम सदैव सतर्क रहने वाले हैं और कोई देवता या असुर उन्हें पराजित नहीं कर सकता। तो वह क्षुद्र शाल्व किस तरह उन्हें पराजित करके मेरे पिता का अपहरण कर सकता है? निस्सन्देह, भाग्य सर्वशक्तिमान होता है।"

25 जब गोविन्द ये शब्द कह चुके, तो भगवान के समक्ष वसुदेव जैसे दिखने वाले किसी पुरुष को लेकर सौभपति पुनः प्रकट हुआ। तब शाल्व ने इस प्रकार कहा।

26 शाल्व ने कहा: यह रहा तुम्हें जन्म देने वाला तुम्हारा पिता, जिसके लिए तुम इस जगत में जीवित हो। अब मैं तुम्हारी आँखों के सामने इसका वध कर दूँगा, यदि तुम इसे बचा सको तो बचाओ।

27 इस प्रकार भगवान की हँसी उड़ाकर जादूगर शाल्व अपनी तलवार से वसुदेव का सिर काटता हुआ प्रतीत हुआ। वह उस सिर को अपने साथ लेकर आकाश में मँडरा रहे सौभ यान में घुस गया।

28 भगवान कृष्ण स्वभाव से ही ज्ञान से परिपूर्ण हैं और उनमें असीम अनुभूति की शक्ति है। तो भी परिजनों के प्रति महान स्नेहवश एक क्षण के लिए वे सामान्य प्राणी की मुद्रा में लीन हो गये। लेकिन उन्हें तुरन्त ही स्मरण हो आया कि यह तो मय दानव द्वारा सृजित आसुरी माया है, जिसे शाल्व काम में ला रहा है।

29 अब असली परिस्थिति के प्रति सतर्क भगवान अच्युत ने अपने समक्ष युद्धभूमि में न तो दूत को देखा न अपने पिता के शरीर को। ऐसा लग रहा था, मानो वे स्वप्न से जागे हों, तब शत्रु (शाल्व) को ऊपर सौभयान में देखा।

30 हे राजर्षि, यह विवरण कुछ ऋषियों द्वारा दिया हुआ है, किन्तु जो इस तरह अतार्किक ढंग से बोलते हैं, वे अपने ही पूर्ववर्ती कथनों को भुलाकर अपनी ही बात काटते हैं।

31 भला शोक, मोह, स्नेह या भय, जो कि अज्ञानजनित है, किस तरह से अनन्त भगवान को प्रभावित कर सकते हैं, जो ज्ञान, शक्ति एवं ऐश्वर्य से परिपूर्ण हैं?

32 भगवान के भक्तगण भगवान के चरणों पर की गई सेवा से प्रबलित आत्म-साक्षात्कार के कारण देहात्मबुद्धि को दूर कर देते हैं, जो अनन्त काल से आत्मा को मोहग्रस्त करती रही है। इस तरह वे उनकी निजी संगति में नित्य कीर्ति प्राप्त करते हैं। तब भला वे परम सत्य, जो कि समस्त विशुद्ध सन्तों के गन्तव्य हैं, मोह के वशीभूत कैसे हो सकते हैं?

33 जब शाल्व बड़े वेग से उन पर अस्त्रों की झड़ी लगाये हुए था, तो अमोघ पराक्रम वाले भगवान कृष्ण ने शाल्व पर अपने बाण छोड़े, जिससे वह घायल हो गया और उसका कवच, धनुष तथा मुकुट की मणि ध्वस्त हो गये। तब उन्होंने अपनी गदा से अपने शत्रु के सौभयान को छिन्न-भिन्न कर डाला।

34 भगवान कृष्ण की गदा से हजारों खण्डों में चूर-चूर हुआ सौभ विमान समुद्र में गिर गया। शाल्व ने इसे छोड़ दिया और पृथ्वी पर खड़ा हो गया। उसने अपनी गदा उठाई और भगवान अच्युत की ओर लपका।

35 जब शाल्व उनकी ओर झपटा, तो भगवान ने एक भाला छोड़ा और उसकी उस बाँह को काट लिया, जिससे गदा उठाई थी। अन्त में शाल्व का वध करने का निश्चय करके भगवान कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र धारण किया, जो ब्रह्माण्ड के प्रलय के समय दिखने वाले सूर्य जैसा लग रहा था। तेज से चमकते हुए भगवान उदयाचल जैसे प्रतीत हो रहे थे, जो उदय होते सूर्य को धारण करता है।

36 भगवान हरि ने सुदर्शन चक्र से शाल्व का सिर काट दिया। इस प्रकार शाल्व का वध ठीक वैसे ही हुआ, जैसे स्वर्ग के राजा इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध हुआ था। यह देखकर शाल्व के सारे अनुयायी "हाय हाय" कहकर चीत्कार उठे।

37 अब पापी शाल्व के मृत हो जाने तथा उसके सौभयान के विनष्ट हो जाने पर, देवताओं द्वारा बजाई गई दुन्दुभियों से आकाश गूँज उठा। तब दन्तवक्र क्रोधित होकर, अपने मित्र की मृत्यु का बदला लेने हेतु, श्रीकृष्ण से लड़ने के लिए घटना स्थल पर प्रकट हुआ।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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