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अध्याय तीन – माया से मुक्ति (11.3)

1 राजा निमि ने कहा: अब हम भगवान विष्णु की उस माया के विषय में जानना चाहते हैं, जो बड़े बड़े योगियों को भी मोह लेती है। हे प्रभुओं, कृपा करके हमें इस विषय में बतायें।

2 यद्यपि मैं आपके द्वारा कही जा रही भगवान की महिमा का अमृत-आस्वाद कर रहा हूँ, फिर भी मेरी प्यास शान्त नहीं हुई। भगवान तथा उनके भक्तों की ऐसी अमृतमयी कथाएँ संसार के तीनों तापों से सताये जा रहे, मुझ जैसे बद्धजीवों के लिए औषधि का काम करने वाली हैं।

3 श्री अन्तरिक्ष ने कहा: हे महाबाहु राजा, भौतिक तत्त्वों को क्रियाशील बनाकर समस्त सृष्टि के आदि आत्मा ने उच्चतर तथा निम्नतर योनियों के जीवों को उत्पन्न किया है, जिससे ये बद्धात्माएँ अपनी इच्छानुसार इन्द्रियतृप्ति अथवा चरम मोक्ष का अनुशीलन कर सकें।

4 परमात्मा उत्पन्न किये गये प्राणियों के भौतिक शरीरों में प्रविष्ट होकर मन तथा इन्द्रियों को क्रियाशील बनाता है और इस तरह बद्धजीवों को इन्द्रियतृप्ति हेतु तीन गुणों तक पहुँचाता है।

5 भौतिक देह का स्वामी व्यष्टि जीव, परमात्मा द्वारा सक्रिय की गई अपनी भौतिक इन्द्रियों द्वारा, प्रकृति के तीन गुणों द्वारा बनाये गये इन्द्रियविषयों का भोग करने का प्रयास करता है। इस तरह वह उत्पन्न भौतिक शरीर को अजन्मे नित्य आत्मा के रूप में मानने के कारण भगवान की माया में फँस जाता है।

6 तीव्र भौतिक इच्छाओं से प्रेरित देहधारी जीव अपनी कर्मेन्द्रियों को सकाम कर्म में लगाता है। तब वह इस जगत में घूमते हुए तथाकथित सुख-दुख में अपने भौतिक कर्मों के फलों का अनुभव करता है।

7 इस तरह बद्धजीव को बारम्बार जन्म-मृत्यु अनुभव करने के लिए बाध्य किया जाता है। अपने ही कर्मों के फल से प्रेरित होकर, वह एक अशुभ अवस्था से दूसरी अवस्था में असहाय होकर घूमता रहता है और सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर प्रलय होने तक कष्ट भोगता है।

8 जब भौतिक तत्त्वों का संहार सन्निकट होता है, तो काल रूप में भगवान स्थूल तथा सूक्ष्म गुणों वाले व्यक्त जगत को समेट लेते हैं और सारा ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में लुप्त हो जाता है। ज्यों ज्यों विश्व का संहार निकट आता जाता है, पृथ्वी पर एक सौ वर्षों का भयंकर सूखा पड़ता है। सूर्य की गर्मी (उष्णता) क्रमश: सौ वर्षो तक बढ़ती जाती है और इसकी प्रज्वलित गर्मी तीनों लोकों को व्यग्र करने लगती है।

10 यह अग्नि, भगवान संकर्षण के मुख से निकलकर पाताल लोक से शुरू होती हुई, बढ़ती जाती है। इसकी लपटें प्रबल वायु से प्रेरित होकर ऊपर उठने लगती हैं और यह चारों दिशाओं की हर वस्तु को झुलसा देती है।

11 संवर्तक नामक बादलों के समूह एक सौ वर्षों तक मूसलाधार वर्षा करते हैं। हाथी की सूँड़ जितनी लम्बी पानी की बूँदों की बाढ़ से विनाशकारी वर्षा समस्त ब्रह्माण्ड को जल में डुबो देती है।

12 हे राजन, तब विराट रूप वाला व्यक्ति (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) अपने शरीर को त्याग देता है और सूक्ष्म अव्यक्त प्रकृति में उसी तरह प्रवेश कर जाता है, जिस तरह ईंधन समाप्त हो जाने पर अग्नि।

13 वायु द्वारा गन्ध-गुण से रहित होकर पृथ्वी तत्त्व जल में रूपान्तरित हो जाता है और उसी वायु से जल अपना स्वाद खोकर अग्नि में विलीन हो जाता है।

14 अग्नि अंधकार द्वारा अपने रूप से विहीन होकर वायु तत्त्व में मिल जाती है। जब वायु अन्तराल के प्रभाव से अपना स्पर्श-गुण खो देता है, तो वह आकाश में मिल जाता है। जब आकाश काल रूप परमात्मा द्वारा अपने शब्द-गुण से विहीन कर दिया जाता है, तो वह तमोगुणी मिथ्या अहंकार में विलीन हो जाता है।

15 हे राजन, भौतिक इन्द्रियाँ तथा बुद्धि रजोगुणी मिथ्या अहंकार में मिल जाते हैं, जहाँ से उनका उदय हुआ था। देवताओं के साथ साथ मन सतोगुणी मिथ्या अहंकार में मिल जाता है। तत्पश्चात, सम्पूर्ण मिथ्या अहंकार अपने सारे गुणों सहित महत-तत्त्व में लीन हो जाता है।

16 मैं अभी भगवान की मोहिनी शक्ति माया का वर्णन कर चुका हूँ। यह तीन गुणों वाली माया भगवान द्वारा ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के लिए शक्तिप्रदत्त है। अब तुम और क्या सुनने के इच्छुक हो?

17 राजा निमि ने कहा: हे महर्षि, कृपया यह बतायें कि किस तरह एक मूर्ख भौतिकतावादी भी आसानी से भगवान की उस माया को पार कर सकता है, जो उन लोगों के लिए सदैव दुर्लंघ्य है, जिन्हें अपने ऊपर संयम नहीं होता।

18 श्री प्रबुद्ध ने कहा: मानव समाज में नर तथा नारी की भूमिकाएँ स्वीकार करते हुए बद्धजीव संयुक्त रहते हैं। इस तरह वे अपने दुख के निवारणार्थ निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं और अपने आनन्द को असीम बनाना चाहते हैं। किन्तु यह देखना चाहिए कि उन्हें सदैव इसका विपरीत, परिणाम मिलता है। दूसरे शब्दों में, उनका सुख अनिवार्यतः है अतः समाप्त हो जाता है और ज्यों ज्यों वे बूढ़े होते जाते हैं उनकी भौतिक असुविधाएँ बढ़ती जाती है।

19 सम्पत्ति दुख का अविच्छिन्न स्रोत है, इसे अर्जित करना सर्वाधिक कठिन है और एक तरह से यह आत्मा के लिए मृत्यु स्वरूप है। भला अपनी सम्पत्ति से किसी को कौन-सा लाभ मिलता है? इसी तरह कोई अपने तथाकथित घर, सन्तान, सम्बन्धीगण तथा घरेलू पशुओं से स्थायी सुख कैसे प्राप्त कर सकता है, जो उसकी कठिन कमाई से पालित-पोषित होते हैं।

20 मनुष्य को स्वर्गलोक में भी ऐसा स्थायी सुख नहीं मिल सकता, जिसे वह अनुष्ठानों तथा यज्ञों से अगले जीवन में प्राप्त कर सकता है। यहाँ तक कि भौतिक स्वर्ग में भी जीव अपने बराबर वालों की स्पर्धा से तथा अपने से बड़ों की ईर्ष्या से विचलित रहता है। चूँकि पुण्यकर्मों की समाप्ति के साथ ही स्वर्ग का निवास समाप्त हो जाता है, अतएव स्वर्ग के देवतागण अपने स्वर्गिक जीवन के विनाश की आशंका से भयभीत रहते हैं। इस तरह उनकी दशा उन राजाओं की सी रहती है, जो सामान्य जनता द्वारा ईर्ष्यावश प्रशंसित होते हैं, किन्तु शत्रु-राजाओं द्वारा निरन्तर सताये जाते हैं, जिससे उन्हें कभी भी वास्तविक सुख नहीं मिल पाता है।

21 अतएव जो व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक असली सुख की इच्छा रखता हो, उसे प्रामाणिक गुरु की खोज करनी चाहिए और दीक्षा द्वारा उसकी शरण ग्रहण करनी चाहिए। प्रामाणिक गुरु की योग्यता यह होती है कि वह विचार-विमर्श द्वारा शास्त्रों के निष्कर्षों से अवगत हो चुका होता है और इन निष्कर्षों के विषय में अन्यों को आश्वस्त करने में सक्षम होता है। ऐसे महापुरुष, जिन्होंने समस्त भौतिक धारणाओं को त्याग कर भगवान की शरण ग्रहण कर ली है, उन्हें प्रामाणिक गुरु मानना चाहिए।

22 प्रामाणिक गुरु को प्राण एवं आत्मा तथा आराध्य देव मानते हुए शिष्य को चाहिए कि उससे शुद्ध भक्ति की विधि सीखे। समस्त आत्माओं के आत्मा भगवान हरि स्वयं को अपने शुद्ध भक्तों को सौंपने के लिए उद्यत रहते हैं। इसलिए शिष्य को अपने गुरु से द्वैतरहित होकर भगवान की श्रद्धापूर्ण तथा उपयुक्त विधि से सेवा करना सीखना चाहिए, जिससे परमात्मा को तुष्ट किया जा सकें।

23 निष्ठावान शिष्य को चाहिए कि मन को प्रत्येक भौतिक वस्तु से विलग रखना सीखे एवं अपने गुरु तथा अन्य साधु भक्तों की संगति का सकारात्मक रूप से अनुशीलन करे। उसे अपने से निम्न पद वालों के प्रति उदार होना चाहिए, समान पद वालों के साथ मैत्री करनी चाहिए और जो अपने से उच्चतर आध्यात्मिक पद पर हैं, उनकी विनीत भाव से सेवा करनी चाहिए। इस तरह उसे समस्त जीवों के साथ समुचित व्यवहार करना सीखना चाहिए।

24 गुरु की सेवा करने के लिए शिष्य को स्वच्छता, तपस्या, सहनशीलता, मौन, वेदाध्ययन, सादगी, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, गर्मी और शीत, तथा सुख और दुख जैसे द्वैतों के समक्ष समत्व सीखना चाहिए।

25 मनुष्य को चाहिए कि स्वयं को नित्य आत्मा के रूप में और भगवान को प्रत्येक वस्तु का परम नियन्ता देखते हुए ध्यान करे। ध्यान में वृद्धि लाने के लिए वह एकान्त स्थान में रहे, अपने घर तथा घर की सामग्री के प्रति झूठी आसक्ति को त्याग दे। नश्वर शरीर के अलंकरण को त्याग कर, मनुष्य अपने को चीथड़ों से या वृक्षों की छाल से ढके। इस तरह, उसे किसी भी भौतिक परिस्थिति में संतुष्ट रहना सीखना चाहिए।

26 मनुष्य में यह अटूट श्रद्धा होनी चाहिए कि – जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के यश का वर्णन करते हैं, उन शास्त्रों का अनुसरण करने से उसे जीवन में पूर्ण सफलता मिलेगी। उसे अन्य शास्त्रों की निन्दा करने से अपने को बचाना चाहिए। उसे अपने मन, वाणी तथा शारीरिक कर्मों पर कठोर नियंत्रण रखना चाहिए, सदैव सच बोलना चाहिए और मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह वश में रखना चाहिए।

27-28 मनुष्य को चाहिए कि भगवान के अद्भुत दिव्य कार्यकलापों के विषय में सुने, उनका गुणगान करे और ध्यान करे। उसे विशेष रूप से भगवान के प्राकट्यों, कार्यकलापों, गुणों तथा पवित्र नामों में लीन रहना चाहिए और अपने नैत्यिक समस्त कार्य भगवान को अर्पित करते हुए सम्पन्न करने चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि केवल भगवान की तुष्टि के लिए ही यज्ञ, दान तथा तप करे। इसी तरह वह केवल उन्हीं मंत्रों का उच्चारण करे, जो भगवान की महिमा का गायन करते हों। उसके सारे धार्मिक कृत्य भगवान को भेंट के रूप में सम्पन्न हों। उसे जो भी वस्तु अच्छी या भोग्य लगे, उसे वह भगवान को अर्पित कर दे, यहाँ तक कि पत्नी, बच्चे, घर तथा अपने प्राण भी भगवान के चरणकमलों पर अर्पित कर दे।

29 जो अपने चरम स्वार्थ का इच्छुक है, उसे उन व्यक्तियों से मैत्री करनी चाहिए, जिन्होंने कृष्ण को अपना जीवन-नाथ मान लिया है। उसे समस्त चर-अचर जीवों के प्रति सेवाभाव रखना चाहिए और मनुष्य रूप में – विशेष रूप से जो धार्मिक आचरण के सिद्धान्त को अपनाते हैं, इन धार्मिक व्यक्तियों में से भगवान के शुद्ध भक्तों की सेवा करनी चाहिए।

30 मनुष्य को चाहिए कि भगवान की महिमा-गायन के लिए भगवदभक्तों संगति करना सीखे। यह विधि अत्यन्त शुद्ध बनाने वाली है। ज्योंही भक्तगण प्रेमपूर्ण मैत्री स्थापित कर लेते हैं, त्योंही उन्हें परस्पर सुख तथा तुष्टि का अनुभव होता है। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रोत्साहित करके, वे उस भौतिक इन्द्रियतृप्ति को त्यागने में सक्षम होते हैं, जो समस्त कष्टों का कारण है।

31 भगवदभक्तगण परस्पर भगवान की महिमा का गायन करते हैं। वे निरन्तर भगवान का स्मरण करते हैं और एक-दूसरे को भगवान की लीलाओं तथा गुणों का स्मरण कराते हैं। इस तरह से भक्तियोग के नियमों के प्रति अपनी अनुरक्ति से भक्तगण भगवान को प्रसन्न करते हैं, जो उनके सारे अशुभों को हर लेते हैं। समस्त व्यवधानों से शुद्ध होकर भक्तगण शुद्ध भगवतप्रेम जगा लेते हैं और इस प्रकार इस जगत में रहते हुए भी उनके आध्यात्मीकृत शरीरों में दिव्य आनन्द (भाव) के लक्षण यथा रोमांच प्रकट होते हैं।

32 भगवतप्रेम प्राप्त कर लेने पर भक्तगण अच्युत भगवान के विचार में मग्न होकर कभी जोर से निनाद करते हैं, कभी हँसते हैं, कभी अगाध आनन्द का अनुभव करते हैं, कभी भगवान से जोर से बात करते हैं, नाचते या गाते हैं। ऐसे भक्तगण दिव्य भौतिक बद्धजीवन की अवस्था को लाँघकर कभी-कभी अजन्मा परमेश्वर की लीलाओं का अनुकरण करते हैं और कभी उनका दर्शन पाकर वे शान्त एवं मौन हो जाते हैं।

33 इस तरह भक्ति विज्ञान को सीखकर तथा भगवदभक्ति में व्यावहारिक रूप से संलग्न रहकर भक्त भगवतप्रेम की अवस्था को प्राप्त होता है और भगवान नारायण की पूर्ण भक्ति द्वारा भक्त सरलता से उस माया को पार कर लेते है, जिसे लाँघ पाना अत्यन्त ही कठिन है।

34 राजा निमि ने कहा: अतः कृपा करके मुझे उन भगवान नारायण के दिव्य पद को बतायें, जो साक्षात परब्रह्म तथा हर एक के परमात्मा हैं। आप मुझसे कहें, क्योंकि आप सभी जन दिव्य ज्ञान में परम निष्णात है।

35 श्री पिप्पलायन ने कहा: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ही इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के कारण हैं, फिर भी उनका कोई पूर्व कारण नहीं है। वे जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्ति जैसी विविध अवस्थाओं में व्याप्त रहते हैं और इनसे परे भी विद्यमान हैं। वे हर जीव के शरीर में परमात्मा रूप में प्रवेश करके शरीर, प्राणवायु तथा मानसिक क्रियाओं को जागृत करते हैं, जिससे शरीर के सभी सूक्ष्म तथा स्थूल अंग अपने कार्य शुरु कर देते हैं। हे राजन, यह जान लें कि भगवान सर्वोपरि हैं।

36 न तो मन, न ही वाणी, दृष्टि, बुद्धि, प्राणवायु या किसी इन्द्रिय के कार्य उस परम सत्य में प्रवेश करने में सक्षम हैं, जिस तरह कि छोटी चिनगारियाँ उस मूल अग्नि को प्रभावित नहीं कर सकती हैं, जिससे वे उत्पन्न होती हैं। यहाँ तक कि वेदों की प्रामाणिक भाषा भी परम सत्य का बखान नहीं कर सकती है, क्योंकि स्वयं वेद ही इस सम्भावना से इनकार करते हैं कि सत्य को शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। किन्तु अप्रत्यक्ष निर्देश द्वारा वैदिक ध्वनि परम सत्य का प्रमाण प्रस्तुत करती है, क्योंकि परम सत्य के अस्तित्व के बिना वेदों में प्राप्त विविध निषेधों का कोई चरम अभिप्राय नहीं होता।

37 ब्रह्म जो मूलतः एक है, वह त्रिगुण होकर विख्यात है और प्रकृति के तीन गुण – सतो, रजो तथा तमोगुणों के रूप में अपने को प्रकट करता है। ब्रह्म इससे भी आगे अपनी शक्ति का विस्तार करता है। इस तरह मिथ्या अहंकार के साथ साथ कार्य करने की शक्ति तथा चेतनाशक्ति प्रकट होती है, जो बद्धजीव के स्वरूप को ढक लेती है। इस तरह ब्रह्म की बहुविध शक्तियों के विस्तार से देवतागण ज्ञान के साक्षात रूप में प्रकट होते हैं और उनके साथ साथ भौतिक इन्द्रियाँ, उनके विषय तथा कर्मफल (सुख-दुख) प्रकट होते हैं। इस तरह भौतिक जगत की अभिव्यक्ति सूक्ष्म कारण के रूप में तथा स्थूल भौतिक पदार्थों में दृश्य भौतिक कार्य के रूप में होती है। ब्रह्म, जो कि समस्त सूक्ष्म तथा स्थूल अभिव्यक्तियों का स्रोत है, परम होने के कारण, उनसे परे भी रहता है।

38 नित्य आत्मा ब्रह्म न तो कभी जन्मा था और न कभी मरेगा। न ही वह बड़ा होता है न उसका क्षय होता है। वह आध्यात्मिक आत्मा वास्तव में भौतिक शरीर की युवावस्था, मध्यावस्था तथा भौतिक शरीर की मृत्यु का ज्ञाता है। इस प्रकार आत्मा को शुद्ध चेतना माना जा सकता है, जो सभी काल में सर्वत्र विद्यमान रहता है और कभी विनष्ट नहीं होता। जिस प्रकार प्राण एक होते हुए भी शरीर के भीतर विभिन्न इन्द्रियों के सम्पर्क में अनेक रूप में प्रकट होता है, उसी तरह वह एक आत्मा भौतिक शरीर के सम्पर्क में विविध भौतिक उपाधियाँ धारण करता प्रतीत होता है।

39 इस भौतिक जगत में आत्मा कई जीव योनियों में जन्म लेता है। कुछ योनियाँ अंडों से उत्पन्न होती हैं, कुछ भ्रूण से, कुछ पौधों और वृक्षों के बीजों से तो कुछ स्वेद से उत्पन्न होती हैं। किन्तु समस्त योनियों में प्राण अपरिवर्तित रहता है और वह आत्मा के पीछे-पीछे एक शरीर से दूसरे में चला जाता है। इसी प्रकार आत्मा विभिन्न जीवन स्थितियों के बावजूद निरन्तर वही बना रहता है। हमें इसका व्यावहारिक अनुभव है। जब हम बिना स्वप्न देखे प्रगाढ़ निद्रा में होते हैं, तो भौतिक इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं, यहाँ तक कि मन तथा मिथ्या अहंकार भी निष्क्रिय हो जाते हैं, किन्तु जब मनुष्य जागता है, तो वह स्मरण करता है कि आत्मारूप वह शान्ति से सो रहा था। यद्यपि इन्द्रियाँ, मन और मिथ्या अहंकार निष्क्रिय थे।

40 जब मनुष्य अपने हृदय में भगवान के चरणकमलों को जीवन के एकमात्र लक्ष्य के रूप में स्थिर करके भगवान की भक्ति में गम्भीरतापूर्वक संलग्न होता है, तो वह अपने हृदय के भीतर स्थित उन असंख्य अशुद्ध इच्छाओं को विनष्ट कर सकता है, जो प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत उसके पूर्वकर्मों के फल के कारण संचित होती हैं। जब इस तरह हृदय शुद्ध हो जाता है, तो वह भगवान को तथा अपने को दिव्य जीवों के रूप में प्रत्यक्षतः अनुभव कर सकता है। इस तरह वह प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात हो जाता है, जिस तरह कि सामान्य स्वस्थ दृष्टि द्वारा सूर्य-प्रकाश का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।

41 राजा निमि ने कहा: हे मुनियों हमें कर्मयोग की विधियों के विषय में बतायें। परम पुरुष को अपने व्यावहारिक कर्म समर्पित करने की इस विधि से शुद्ध होकर व्यक्ति अपने को इस जीवन में भी समस्त भौतिक कार्यों से मुक्त कर सकता है और इस तरह दिव्य पद पर शुद्ध जीवन का भोग कर सकता है।

42 एक बार विगत काल में अपने पिता महाराज ईक्ष्वाकु की उपस्थित में मैंने ब्रह्मा के चार महर्षि पुत्रों से ऐसा ही प्रश्न पूछा था, किन्तु उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। कृपया इसका कारण बतायें।

43 श्री आविर्होत्र ने उत्तर दिया : कर्म, अकर्म तथा विकर्म ऐसे विषय हैं, जिन्हें वैदिक साहित्य के प्रामाणिक अध्ययन द्वारा ही भलीभाँति समझा जा सकता है। इस कठिन विषय को संसारी कल्पना द्वारा कभी भी नहीं समझा जा सकता। प्रामाणिक वैदिक साहित्य भगवान का शब्दावतार है, इस प्रकार वैदिक ज्ञान पूर्ण है। वैदिक ज्ञान की सत्ता की उपेक्षा करने से बड़े बड़े पण्डित तक कर्मयोग को समझने में भ्रमित हो जाते हैं।

44 बचकाने तथा मूर्ख लोग भौतिकतावादी सकाम कर्मों के प्रति आसक्त रहते हैं, यद्यपि जीवन का वास्तविक लक्ष्य ऐसे कर्मों से मुक्त बनना है। इसलिए वैदिक आदेश सर्वप्रथम सकाम धार्मिक कर्मों की संस्तुति करके मनुष्य को परोक्ष रीति से चरम मोक्ष के मार्ग पर ले जाता हैं, जिस तरह पिता अपने पुत्र को दवा पिलाने के लिए उसे मिठाई देने का वादा करता है।

45 यदि कोई अज्ञानी जिसने भौतिक इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वह वैदिक आदेशों में अटल नहीं रहता, तो वह निश्चय ही पापमय तथा अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहेगा। इस तरह उसे बारम्बार जन्म-मृत्यु भोगना पड़ेगी।

46 निर्लिप्त होकर वेदों द्वारा निर्दिष्ट नियमित कार्यों को सम्पन्न करने और ऐसे कार्यों के फल भगवान को अर्पित करने से मनुष्य को भौतिक कर्म के बन्धन से मुक्ति रूपी सिद्धि मिल जाती है। प्रामाणिक शास्त्रों में प्रदत्त भौतिक कर्मफल वैदिक ज्ञान के चरम लक्ष्य नहीं हैं, अपितु कर्ता में रुचि उत्पन्न कराने के निमित्त हैं।

47 जो व्यक्ति आत्मा को जकड़कर रखने वाली मिथ्या अहंकार की गाँठ को तुरन्त काट देने का इच्छुक होता है, उसे वैदिक ग्रन्थों यथा तंत्रों में प्राप्त अनुष्ठानों के द्वारा, भगवान केशव की पूजा करनी चाहिए।

48 शिष्य को वैदिक शास्त्रों के आदेश बतलाने वाले अपने गुरु की कृपा प्राप्त कर, उसे चाहिए कि वह भगवान के अत्यन्त आकर्षक किसी विशिष्ट साकार रूप में, परमेश्वर की पूजा करे।

49 अपने को स्वच्छ बनाकर, शरीर को प्राणायाम, भूत-शुद्धि तथा अन्य विधियों से शुद्ध करके एवं सुरक्षा के लिए शरीर में पवित्र तिलक लगाकर, अर्चाविग्रह के समक्ष बैठ जाना चाहिए और भगवान की पूजा करनी चाहिए।

50-51 भक्त को चाहिए की अर्चाविग्रह की पूजा के लिए, जो भी वस्तुएँ उपलब्ध हों, उन्हें एकत्र करे, भेंट सामग्री, भूमि, अपना मन तथा अर्चाविग्रह को तैयार करे, अपने बैठने के स्थान को शुद्ध करने के लिए पानी छिड़के और फिर स्नान के लिए जल तथा अन्य साज-सामग्री तैयार करे। इसके बाद भक्त को चाहिए कि अर्चाविग्रह को शरीर से तथा अपने मन से उसके सही स्थान पर रखे, वह अपना ध्यान एकाग्र करे और अर्चाविग्रह के हृदय पर तथा शरीर के अन्य अंगों पर तिलक लगाए। तब उपयुक्त मंत्र द्वारा पूजा करे।

52-53 मनुष्य को चाहिए कि अर्चाविग्रह के दिव्य शरीर के प्रत्येक अंग के साथ-साथ उनके आयुधों यथा सुदर्शन चक्र उनके अन्य शारीरिक स्वरूपों तथा उनके निजी संगियों की पूजा करे। वह भगवान के इन दिव्य पक्षों में से हर एक की पूजा, उसके मंत्र तथा पाँव धोने के लिए जल, सुगन्धित जल, मुख धोने का जल, स्नान के लिए जल, उत्तम वस्त्र तथा आभूषण, सुगन्धित तेल, मूल्यवान हार, अक्षत, फूल-मालाओं, धूप तथा दीपों से करे। इस तरह बताये गए विधानों के अनुसार पूजा करके मनुष्य को चाहिए कि भगवान हरि के अर्चाविग्रह का आदर स्तुतियों से करे और उन्हें झुककर नमस्कार करे।

54 पूजा करने वाले को चाहिए कि स्वयं को भगवान का नित्य दास मानकर ध्यान में पूर्णतया लीन हो जाय और इस तरह यह स्मरण करे कि अर्चाविग्रह उसके हृदय में भी स्थित है, अर्चाविग्रह की भलीभाँति पूजा करे। तत्पश्चात, उसे अर्चाविग्रह के साज-सामान यथा बची हुई फूल-माला को अपने सिर पर धारण करे और आदरपूर्वक अर्चाविग्रह को उसके स्थान पर वापस रखकर पूजा का समापन करे।

55 इस प्रकार भगवान के पूजक को यह पहचान लेना चाहिए कि भगवान सर्वव्यापक हैं और उन्हें अग्नि, सूर्य, जल तथा अन्य तत्त्वों में, घर में आए अतिथि के हृदय में तथा अपने ही हृदय में उपस्थित जानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार पूजक को तुरन्त ही मोक्ष प्राप्त हो जायेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
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