हिन्दी भाषी संघ (229)

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अध्याय चौबीस --- सांख्य दर्शन (11.24)

1 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : अब मैं तुमसे सांख्य विज्ञान का वर्णन करूँगा जिसे प्राचीन विद्वानों ने पूर्णतया स्थापित किया है। इस विज्ञान को समझ लेने से मनुष्य तुरन्त भौतिक द्वैत के भ्रम को त्याग सकता है।

2 प्रारम्भ में कृतयुग की कालावधि में सारे लोग आध्यात्मिक विवेक में अत्यन्त निपुण होते थे और इससे भी पूर्व, संहार के समय एकमात्र दृष्टा का अस्तित्व था, जो दृश्य पदार्थ से अभिन्न था।

3 द्वैत से मुक्त रहते हुए तथा सामान्य वाणी एवं मन के लिए दुर्गम होने के कारण, उस

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अध्याय तेईस – अवन्ती ब्राह्मण का गीत (11.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भक्तो में श्रेष्ठ श्री उद्धव ने दाशार्ह प्रमुख भगवान मुकुन्द से इस तरह सादर अनुरोध किया, तो पहले उन्होंने अपने सेवक के कथन की उपयुक्तता स्वीकार की। भगवान, जिनके यशस्वी कार्य (लीलाएँ) ही श्रवण करने योग्य हैं, ने उद्धव से इस प्रकार कहा।

2 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे बृहस्पति-शिष्य, इस जगत में कोई भी ऐसा साधु पुरुष नहीं है, जो असभ्य व्यक्तियों के अपमानजनक शब्दों से विचलित हुए अपने मन को फिर से स्थिर कर सके।

3 पैने बाण छात

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अध्याय बाईस - भौतिक सृष्टि के तत्त्वों की गणना (11.22)

1-3 उद्धव ने पूछा : हे प्रभु, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, ऋषियों ने सृष्टि के तत्त्वों की कितनी संख्या बतलाई है? मैंने आपके मुख से कुल अट्ठाईस का वर्णन सुना है – ईश्वर, जीवात्मा, महत तत्त्व, मिथ्या अहंकार, पाँच स्थूल तत्त्व, दस इन्द्रियाँ, मन, पाँच सूक्ष्म इन्द्रियविषय तथा तीन गुण। किन्तु कुछ विद्वान छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं जबकि अन्य लोग इनकी संख्या पच्चीस या सात, नौ, छह, चार या ग्यारह और कुछ लोग सत्रह, सोलह या तेरह बतलाते हैं। जब ये ऋषि ऐसे वि

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अध्याय इक्कीस – भगवान कृष्ण द्वारा वैदिक पथ की व्याख्या (11.21)

1 भगवान ने कहा : जो मुझे प्राप्त करने वाली उन विधियों को, जो भक्ति, वैश्लेषिक दर्शन (ज्ञान) तथा नियत कर्मों के नियमित निष्पादन (कर्म-योग) से युक्त हैं, त्याग देता है और भौतिक इन्द्रियों से चलायमान होकर क्षुद्र इन्द्रियतृप्ति में लग जाता है, वह निश्चय ही बारम्बार संसार-चक्र में फँसता जाता है।

2 यह निश्चित मत है कि अपने-अपने पद पर निष्ठा (स्थिरता) वास्तविक शुद्धि कहलाती है और अपने पद से विचलन अशुद्धि है।

3 हे निष्पाप उद्धव, यह समझने के

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अध्याय बीस - शुद्ध भक्ति ज्ञान एवं वैराग्य से आगे निकल जाती है (11.20)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, आप परमेश्वर हैं और इस तरह विधियों तथा निषेधों से युक्त वैदिक वाड्मय आपका आदेश है। ऐसा वाड्मय कर्म के गुण तथा दोषों पर दृष्टि एकाग्र करता है।

2 वैदिक वाड्मय के अनुसार, वर्णाश्रम में उच्च तथा निम्न कोटि के परिवार के पवित्र और पापमय गुणों के कारण हैं। पाप तथा पुण्य किसी स्थिति विशेष यथा – भौतिक अवयव, स्थान, आयु तथा काल में, वैदिक विश्लेषण के संदर्भ बिन्दु हैं। निस्सन्देह, वेदों से भौतिक स्वर

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अध्याय उन्नीस - आध्यात्मिक ज्ञान की सिद्धि (11.19)

1 भगवान ने कहा : जिस स्वरूपसिद्ध व्यक्ति ने प्रकाश पाने के बिन्दु तक शास्त्रीय ज्ञान का अनुशीलन किया है और जो भौतिक ब्रह्माण्ड को मात्र मोह समझकर, निर्वेशेष चिन्तन से मुक्त हो गया है, उसे चाहिए कि वह उस ज्ञान को तथा उसे प्राप्त करनेवाले साधनों को मुझे समर्पित कर दे।

2 विद्वान स्वरूपसिद्ध दार्शनिकों के लिए मैं ही पूजा का एकमात्र लक्ष्य, इच्छित जीवन-लक्ष्य, उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन तथा समस्त ज्ञान का स्थापित निष्कर्ष हूँ। चूँकि मैं उनके सु

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असीम सौन्दर्य तथा आनन्द के इच्छुक व्यक्तियों के लिए पूजा के असली लक्ष्य भगवान कृष्ण हैं,

जिनका निवास गोलोक वृन्दावन है। (तात्पर्य श्रीमदभागवतम – 11.18.20)

अध्याय अठारह – वर्णाश्रम धर्म का वर्णन (11.18)

1 भगवान ने कहा : जो जीवन के तीसरे आश्रम अर्थात वानप्रस्थ को ग्रहण करने का इच्छुक हो, उसे पत्नी को अपने जवान पुत्रों के साथ छोड़कर या अपने साथ लेकर शान्त मन से जंगल में प्रवेश करना चाहिए।

2 वानप्रस्थ आश्रम अपनाने पर मनुष्य को चाहिए कि जंगल में उगने वाले शुद्ध कन्द, मूल तथा फल खाकर जीविका चलाये। वह पे

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अध्याय सत्रह – भगवान कृष्ण द्वारा वर्णाश्रम प्रणाली का वर्णन (11.17)

1-2 श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आपने वर्णाश्रम प्रणाली के अनुयायियों एवं सामान्य मनुष्यों द्वारा अनुकरणीय भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। हे कमलनयन, अब कृपा करके मुझे बतायें कि इन सिद्धान्तों में नियत कर्तव्यों को सम्पन्न करके मनुष्य किस प्रकार आपकी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकते हैं?

3-4 हे बलिष्ठ भुजाओं वाले प्रभु! इससे पूर्व आपने हंस रूप में ब्रह्माजी से उन धार्मिक सिद्धान्तों का कथन किया है, जो परम सुख प्रदान करनेवाले

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अध्याय सोलह – भगवान की विभूतियाँ (11.16)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आप अनादि तथा अनन्त, साक्षात परब्रह्म तथा अन्य किसी वस्तु से सीमित नहीं हैं। आप सभी वस्तुओं के रक्षक तथा जीवनदाता, उनके संहार तथा सृष्टि हैं।

2 हे प्रभु, यद्यपि अपवित्र लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आप समस्त उच्च तथा निम्न सृष्टियों में स्थित हैं, किन्तु वे ब्राह्मण जो वैदिक मत को भलीभाँति जानते हैं आपकी वास्तविक रूप में पूजा करते हैं।

3 कृपया मुझसे उन सिद्धियों को बतायें जिन्हें महर्षिगण आपकी भक्तिपूर्वक पूजा द्वारा प्

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अध्याय पन्द्रह – भगवान कृष्ण द्वारा योग सिद्धियों का वर्णन (11.15)

1 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा : हे उद्धव, योग-सिद्धियाँ उस योगी द्वारा अर्जित की जाती है जिसने अपनी इन्द्रियों तथा प्राणायाम पर विजय प्राप्त कर ली है और जो अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर चुका है।

2 श्री उद्धव ने कहा : हे अच्युत, योग-सिद्धि किस विधि से प्राप्त की जा सकती है और ऐसी सिद्धि का स्वभाव क्या है? योग-सिद्धियाँ कितनी हैं? कृपा करकेमुझे बतलाइये। निस्सन्देह आप समस्त योग-सिद्धियों के प्रदाता हैं।

3 भगवान ने कहा : योग के पारं

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अध्याय चौदह - भगवान कृष्ण द्वारा उद्धव से योग पद्धति का वर्णन (11.14)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, वैदिक वाड्मय की व्याख्या करनेवाले विद्वान मुनिगण मनुष्य जीवन की सिद्धि के लिए अनेक विधियों की संस्तुति करते हैं। हे प्रभु, कृपया मुझे बतायें कि ये सारी विधियाँ समान रूप से महत्त्वपूर्ण है अथवा इनमें से कोई एक सर्वश्रेष्ठ है।

2 हे प्रभु, आपने शुद्ध भक्तियोग की स्पष्ट व्याख्या कर दी है, जिसके द्वारा भक्त अपने मन को समस्त भौतिक संगति से हटाकर, आप पर एकाग्र कर सकता है।

3 भगवान ने कहा : काल के प्रभाव

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अध्याय बारह - वैराग्य तथा ज्ञान से आगे (11.12)

1-2 भगवान ने कहा: हे उद्धव, मेरे शुद्ध भक्तों की संगति करने से इन्द्रियतृप्ति के सारे पदार्थों के प्रति आसक्ति को नष्ट किया जा सकता है। शुद्धि करनेवाली ऐसी संगति मुझे मेरे भक्त के वश में कर देती है। कोई चाहे अष्टांग योग करे, प्रकृति के तत्त्वों का दार्शनिक विश्लेषण करने में लगा रहे, चाहे अहिंसा तथा शुद्धता के अन्य सिद्धान्तों का अभ्यास करे, वेदोच्चार करे, तपस्या करे, संन्यास ग्रहण करे, कुँ आ खुदवाने, वृक्ष लगवाने तथा जनता के अन्य कल्याण-कार्यों को स

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अध्याय ग्यारह – बद्ध तथा मुक्त जीवों के लक्षण (11.11)

1 भगवान ने कहा: हे उद्धव, मेरे अधीन प्रकृति के गुणों के प्रभाव से जीव कभी बद्ध कहा जाता है, तो कभी मुक्त! किन्तु वस्तुतः आत्मा न तो कभी बद्ध होता है, न मुक्त चूँकि मैं प्रकृति के गुणों की कारणस्वरूप माया का परम स्वामी हूँ, इसलिए मुझे भी मुक्त या बद्ध नहीं माना जाना चाहिए।

2 जिस तरह स्वप्न मनुष्य की बुद्धि की सृष्टि है किन्तु वास्तविक नहीं होता, उसी तरह भौतिक शोक, मोह, सुख, दुख तथा माया के वशीभूत होकर भौतिक शरीर ग्रहण करना – ये सभी मेरी मोहिन

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अध्याय दस - सकाम कर्म की प्रकृति (11.10)

1 भगवान ने कहा: पूर्णतया मेरी शरण में आकर तथा मेरे द्वारा वर्णित भगवदभक्ति में अपने मन को सावधानी से एकाग्र करके मनुष्य को निष्काम भाव से रहना चाहिए तथा वर्णाश्रम प्रणाली का अभ्यास करना चाहिए।

2 शुद्ध आत्मा को यह देखना चाहिए कि चूँकि इन्द्रियतृप्ति के प्रति समर्पित होने से बद्ध आत्माओं ने इन्द्रियसुख की वस्तुओं को धोखे से सत्य मान लिया है, इसलिए उनके सारे प्रयत्न असफल होकर रहेंगे।

3 सोया हुआ व्यक्ति स्वप्न में इन्द्रियतृप्ति की अनेक वस्तुएँ देख सकता है,

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अध्याय नौ - पूर्ण वैराग्य (11.9)

1 साधु-ब्राह्मण ने कहा: भौतिक जगत में हर व्यक्ति कुछ वस्तुओं को अत्यन्त प्रिय मानता है और ऐसी वस्तुओं के प्रति लगाव के कारण अन्ततः वह दीन-हीन बन जाता है। जो व्यक्ति इसे समझता है, वह भौतिक सम्पत्ति के स्वामित्व तथा लगाव को त्याग देता है और इस तरह असीम आनन्द प्राप्त करता है।

2 एक बार बड़े बाजों की एक टोली ने कोई शिकार न पा सकने के कारण एक अन्य दुर्बल बाज पर आक्रमण कर दिया जो थोड़ा-सा मांस पकड़े हुए था। उस समय अपने जीवन को संकट में देखकर बाज ने मांस को छोड़ दिया। तब उसे

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अध्याय आठ – पिंगला की कथा (11.8)

1 साधु-ब्राह्मण ने कहा: हे राजन, देहधारी जीव स्वर्ग या नरक में, स्वतः सुख तथा दुख का अनुभव करता है। इसलिए बुद्धिमान तथा विवेकवान व्यक्ति ऐसे भौतिक सुख को पाने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता।

2 अजगर का अनुकरण करते हुए मनुष्य को भौतिक प्रयास का परित्याग कर देना चाहिए और अपने उदर-पोषण के लिए उस भोजन को स्वीकार करना चाहिए, जो अनायास मिल जाय, चाहे वह स्वादिष्ट हो या स्वादरहित, पर्याप्त हो या स्वल्प।

3 यदि कभी भोजन न भी मिले, तो सन्त पुरुष को चाहिए कि बिना प्रयास किये

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अध्याय सात - भगवान कृष्ण द्वारा उद्धव को उपदेश (11.7)

1 भगवान ने कहा: हे महाभाग्यशाली उद्धव, तुमने इस पृथ्वी पर से यदुवंश को समेटने तथा वैकुण्ठ में अपने धाम लौटने की मेरी इच्छा को जान लिया है। ब्रह्मा, शिव तथा अन्य सारे लोकनायक, अब मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं अपने वैकुण्ठ धाम वापस चला जाऊँ।

2 ब्रह्माजी द्वारा प्रार्थना करने पर मैंने इस संसार में अपने स्वांश बलदेव सहित अवतार लिया था और देवताओं की ओर से अनेक कार्य सम्पन्न किये। अब यहाँ पर मैं अपना कार्य पूरा कर चुका हूँ।

3 अब ब्राह्मणों के श

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अध्याय छह – यदुवंश का प्रभास गमन (11.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तब ब्रह्माजी अपने पुत्रों तथा देवताओं एवं महान प्रजापतियों को साथ लेकर द्वारका के लिए रवाना हुए। सारे जीवों के कल्याणप्रदाता शिवजी भी अनेक भूत-प्रेतों से घिरकर द्वारका गये।

2-4 कृष्ण का दर्शन करने की आशा से शक्तिशाली इन्द्र अपने साथ मरुतों, आदित्यों, अश्विनियों, ऋभुओं, अंगिराओं, रुद्रों, विश्वेदेवों, साध्यों, गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, सिद्धों, चारणों, गुह्यकों, महान ऋषियों, पितरों, विद्याधरों एवं किन्नरों को लेकर द्वारका न

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अध्याय पाँच – नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन (11.5)

1 राजा निमि ने आगे पूछा : हे योगेन्द्रों, आप सभी आत्म-विज्ञान में परम दक्ष हैं, अतएव मुझे उन लोगों का गन्तव्य बतलाइये, जो प्रायः भगवान हरि की पूजा नहीं करते, अपनी भौतिक इच्छाओं की प्यास नहीं बुझा पाते तथा अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाते।

2 श्री चमस ने कहा: हे राजन, आदि पुरुष विष्णु के मुख, बाहु, जाँघ तथा पाँव से चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र – तथा चार आश्रम भी उत्पन्न हैं।

3 यदि इन चारों वर्णों तथा आश्रमों

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भगवान कृष्ण के दस लीलावतार ।  मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह देव, वामन, परशुराम, रामचन्द्र, कृष्ण तथा बलराम, बुद्ध एवं कल्कि। (11.4.1-6)

अध्याय चार -- राजा निमि से द्रुमिल द्वारा ईश्वर के अवतारों का वर्णन (11.4)

1 राजा निमि ने कहा: भगवान स्वैच्छानुसार अपनी अन्तरंगा शक्ति से भौतिक जगत में अवतरित होते हैं। कृपया भगवान हरि के – भूत, वर्तमान तथा भावी अवतारों की – विविध लीलाओं का वर्णन करें।

2 श्री द्रुमिल ने कहा: भले ही कोई महान प्रतिभाशाली व्यक्ति किसी तरह से पृथ्वी के धूल-कणों की गणना कर सके, किन्तु

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