10894320699?profile=RESIZE_584x

अध्याय बाईस - भौतिक सृष्टि के तत्त्वों की गणना (11.22)

1-3 उद्धव ने पूछा : हे प्रभु, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, ऋषियों ने सृष्टि के तत्त्वों की कितनी संख्या बतलाई है? मैंने आपके मुख से कुल अट्ठाईस का वर्णन सुना है – ईश्वर, जीवात्मा, महत तत्त्व, मिथ्या अहंकार, पाँच स्थूल तत्त्व, दस इन्द्रियाँ, मन, पाँच सूक्ष्म इन्द्रियविषय तथा तीन गुण। किन्तु कुछ विद्वान छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं जबकि अन्य लोग इनकी संख्या पच्चीस या सात, नौ, छह, चार या ग्यारह और कुछ लोग सत्रह, सोलह या तेरह बतलाते हैं। जब ये ऋषि ऐसे विविध प्रकारों से सर्जक तत्त्वों की गणना कर रहे थे, तो उनके मन में क्या था? हे परम शाश्वत, कृपा करके मुझे यह बतायें।

4 भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया : चूँकि सारे तत्त्व सभी जगह उपस्थित रहते हैं इसलिए यह युक्तियुक्त है कि विभिन्न विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी व्याख्या भिन्न भिन्न विधियों से की है। ऐसे सभी दार्शनिकों ने मेरी योगशक्ति का आश्रय लेकर ही ऐसा कहा है, अतएव वे सत्य का खण्डन किये बिना कुछ भी कह सकते हैं।

5 जब दार्शनिकजन तर्क करते हैं, “तुम जिस तरह इस विशेष प्रसंग की व्याख्या करना चाहते हो, मैं उसे उस रूप में नहीं करना चाहता” तो इसमें मेरी दुर्लंघ्य शक्तियाँ ही उनकी विश्लेषणात्मक असहमतियों को प्रेरणा देती हैं।

6 मेरी शक्तियों की अन्योन्य क्रिया से विभिन्न मत (वाद) उत्पन्न होते हैं। किन्तु जिन लोगों ने अपनी बुद्धि मुझ पर स्थिर कर ली है और अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, उनके मतभेद दूर हो जाते हैं और इस तरह तर्क (वाद-विवाद) का कारण ही मिट जाता है।

7 हे पुरुषश्रेष्ठ, चूँकि सूक्ष्म तथा स्थूल तत्त्व एक-दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं, इसलिए दार्शनिकजन विभिन्न प्रकार के विश्लेषण द्वारा मूलभूत भौतिक तत्त्वों की गणना कर सकते हैं।

8 सारे सूक्ष्म तत्त्व वस्तुतः अपने स्थूल कार्यों के भीतर उपस्थित रहते हैं। इसी तरह सारे स्थूल तत्त्व वस्तुतः अपने सूक्ष्म कारणों के भीतर उपस्थित रहते हैं क्योंकि भौतिक सृष्टि सूक्ष्म से स्थूल तत्त्वों की क्रमागत अभिव्यक्ति के रूप में होती है। इस तरह हम किसी एक तत्त्व में सारे भौतिक तत्त्वों को पा सकते हैं।

9 इसलिए इनमें से चाहे जो भी विचारक बोल रहा हो और इसकी परवाह न करते हुए कि वे अपनी गणनाओं में भौतिक तत्त्वों को उनके पिछले सूक्ष्म कारणों में सम्मिलित करें अथवा उनके परवर्ती प्रकट कार्यों के भीतर करें, मैं उनके मतों को प्रामाणिक मान लेता हूँ क्योंकि विभिन्न सिद्धान्तों में से हर एक की तार्किक व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है।

10 चूँकि अनादि काल से अज्ञान से आवृत व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार करने में सक्षम नहीं होता है, अतएव ऐसा कोई अन्य व्यक्ति होना चाहिए जो परम सत्य को पूरी तरह जानता हो और उसे यह ज्ञान प्रदान कर सकता हो।

11 सतोगुणी ज्ञान के अनुसार जीव तथा परम नियन्ता में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। उनमें गुणात्मक अन्तर का अनुमान लगाना व्यर्थ की कल्पना है।

12 मूलतः प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था के रूप में विद्यमान रहती है और ये गुण दिव्य आत्मा के न होकर एकमात्र प्रकृति के होते हैं। ये गुण–सतो, रजो तथा तमो–इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के प्रभावशाली कारण हैं।

13 इस जगत में सतोगुण को ज्ञान, रजोगुण को सकाम कर्म तथा तमोगुण को अज्ञान माना जाता है। काल को भौतिक गुणों की उद्वेलित अन्तःक्रिया के रूप में देखा जाता है और आदि सूत्र अर्थात महत तत्त्व से समग्र कार्यात्मक मनोवृत्ति प्रकट होती है।

14 मैं नौ मूल तत्त्वों का वर्णन भोक्ता आत्मा, प्रकृति, महत तत्त्व की आदि अभिव्यक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के रूप में कर चुका हूँ।

15 हे उद्धव, श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, गन्ध तथा स्वाद – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और वाणी, हाथ, जननेन्द्रिय, गुदा तथा पाँव – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। मन इन दोनों कोटियों में आता है।

16 ध्वनि, स्पर्श, स्वाद, गन्ध तथा रूप ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं और गति, वाणी, उत्सर्ग तथा शिल्प--ये कर्मेन्द्रियों के विषय हैं।

17 सृष्टि के प्रारम्भ में सतो, रजो तथा तमोगुणों के द्वारा प्रकृति इस ब्रह्माण्ड में समस्त सूक्ष्म कारणों तथा स्थूल अभिव्यक्तियों से युक्त होकर अपना रूप ग्रहण करती है। भगवान भौतिक अभिव्यक्ति की पारस्परिक क्रिया में प्रविष्ट नहीं होते, अपितु प्रकृति पर केवल दृष्टिपात करते हैं।

18 जब महत तत्त्व इत्यादि भौतिक तत्त्व रूपान्तरित होते हैं, तो वे भगवान के दृष्टिपात से विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त करते हैं। वे प्रकृति की शक्ति के मिलने-जुलने से विश्व रूपी अंडा (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न करती हैं।

19 कुछ दार्शनिकों के अनुसार तत्त्व सात हैं। ये हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश। इसी के साथ चेतन आत्मा तथा परमात्मा भी सम्मिलित हैं, जो भौतिक तत्त्वों तथा सामान्य आत्मा दोनों ही के आधाररूप हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण-वायु तथा अन्य सारे भौतिक कार्य इन्हीं सात तत्त्वों से उत्पन्न हैं।

20 अन्य दार्शनिकों का कहना है कि तत्त्व छह हैं – पाँच तो भौतिक तत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश) हैं तथा छठा तत्त्व भगवान है। वही भगवान जो अपने से निकले हुए तत्त्वों से युक्त होकर इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और तब स्वयं उसके भीतर प्रवेश करते हैं।

21 कुछ दार्शनिक चार मूलभूत तत्त्वों की उपस्थिति का अनुमोदन करते हैं जिनमें से अग्नि, जल तथा पृथ्वी – ये तीन तत्त्व एक चौथे तत्त्व आत्मा से उद्भूत है। एक बार अस्तित्व में आने पर ये तत्त्व विराट जगत उत्पन्न करते हैं जिसमें सारा भौतिक सृजन होता है।

22 कुछ लोग सत्रह मूलभूत तत्त्वों के अस्तित्व की गणना करते हैं – ये हैं पाँच स्थूल तत्त्व, पाँच इन्द्रियविषय, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, मन तथा सत्रहवाँ आत्मा।

23 सोलह तत्त्वों की गणना करने पर पिछले सिद्धान्त से केवल इतना ही अन्तर होता है कि आत्मा की पहचान मन से कर ली जाती है। यदि हम पाँच भौतिक तत्त्वों, पाँच इन्द्रियों, मन, आत्मा तथा परमेश्वर की कल्पना करें, तो तत्त्वों की संख्या तेरह होती है।

24 ग्यारह की गणना में आत्मा, स्थूल तत्त्व तथा इन्द्रियाँ आती हैं। आठ स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों के साथ परमेश्वर को मिलने पर नौ की संख्या हो जाती है।

25 इस तरह दर्शनिकों ने भौतिक तत्त्वों का विश्लेषण अनेक प्रकार से किया है। उनके सारे प्रस्ताव युक्तियुक्त हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त तर्क के साथ प्रस्तुत किया गया है। निस्सन्देह ऐसी तार्किक प्रखरता की आशा वास्तविक विद्वानों से ही की जाती है।

26 श्री उद्धव ने पूछा: हे कृष्ण, यद्यपि स्वभाव से प्रकृति तथा जीव भिन्न हैं, किन्तु उनमें कोई अन्तर नहीं दिखता क्योंकि वे एक-दूसरे के भीतर निवास करते पाये जाते हैं। इस तरह आत्मा प्रकृति के भीतर और प्रकृति आत्मा के भीतर प्रतीत होती है।

27 हे कमलनयन कृष्ण, हे सर्वज्ञ, कृपया आप अपने उन शब्दों से मेरे हृदय के इस महान संशय को छिन्न-भिन्न कर दें जो आपकी परम तर्कपटुता को दिखलाने वाले हैं।

28 आपसे ही जीवों का ज्ञान उदय होता है और आपकी शक्ति द्वारा वह ज्ञान हर लिया जाता है। दरअसल, आपके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति आपकी माया की असली प्रकृति को नहीं जान सकता।

29 भगवान ने कहा : हे पुरुषश्रेष्ठ, प्रकृति तथा इसका भोक्ता स्पष्ट रूप से पृथक पृथक हैं। यह व्यक्त सृष्टि प्रकृति के गुणों के उद्वेलन पर आधारित होने के कारण निरन्तर रूपान्तरित होती रहती है।

30 हे उद्धव, मेरी माया तीन गुणों वाली है और वह उन्हीं के माध्यम से कार्य करती है। सृष्टि की विविधताओं को उनकी अनुभूति करने के लिए वह चेतना की विविधताओं समेत प्रकट करती है। भौतिक परिवर्तन का व्यक्त परिणाम तीन रूपों में समझा जाता है – आध्यात्मिक, अधिदैविक तथा अधिभौतिक।

31 दृष्टि, दृश्यरूप तथा आँख के छिद्र के भीतर सूर्य का बिम्ब–ये तीनों मिलकर एक दूसरे को प्रकट करने का कार्य करते हैं। किन्तु आकाश में स्थित आदि सूर्य स्वतः प्रकट है। इसी तरह समस्त जीवों का आदि कारण परमात्मा, जो सबों से पृथक है, अपने ही दिव्य अनुभव के प्रकाश से, समस्त प्रकट होनेवाली वस्तुओं के परम स्रोत के रूप में कार्य करता है।

32 इसी तरह से त्वचा, कान, आँखें, जीभ तथा नाक जैसी इन्द्रियाँ तथा सूक्ष्म शरीर के कार्यों – यथा बद्ध चेतना, मन, बुद्धि तथा अहंकार – की व्याख्या इन्द्रिय अनुभूति के विषय तथा अधिष्ठाता देव के तीन गुना अन्तर के रूप में की जा सकती है।

33 जब प्रकृति के तीनों गुण विक्षुब्ध उद्वेलित होते हैं, तो जो विकार उत्पन्न होता है, वह अहंकार तत्त्व की तीन अवस्थाओं में प्रकट होता है – ये हैं सात्विक, तामस तथा राजस। यह अहंकार जो महत तत्त्व से उत्पन्न होता है और जो स्वयं भी अव्यक्त प्रधान से उत्पन्न है, समस्त भौतिक मोह तथा द्वैत का कारण बन जाता है।

34 दार्शनिकों का यह काल्पनिक तर्क कि, “यह जगत सत्य है, अथवा यह जगत सत्य नहीं है" परमात्मा के अपूर्ण ज्ञान पर आधारित है और भौतिक द्वैत को समझने के लिए ही है। यद्यपि ऐसा विवाद व्यर्थ है किन्तु जिन व्यक्तियों ने अपने वास्तविक आत्म रूप मुझसे, अपना ध्यान हटा लिया है, वे इसे त्याग पाने में असमर्थ हैं।

35-36 श्री उद्धव ने कहा : हे परम स्वामी, सकाम कर्मियों की बुद्धि निश्चय ही आपसे विमुख होती है। अतः कृपा करके यह बतायें कि ऐसे लोग किस तरह अपने भौतिकतावादी कार्यों से उच्च तथा निम्न शरीर ग्रहण करते हैं और फिर उनका त्याग करते हैं? हे गोविन्द, यह विषय मूर्खों की समझ में आनेवाला नहीं है। वे इस जगत में माया से ठगे जाने पर भी इस तथ्य से अवगत नहीं हो पाते।

37 भगवान कृष्ण ने कहा: मनुष्यों का भौतिक मन सकाम कर्मों के फल से निरूपित होता है। वह पाँच इन्द्रियों के साथ एक शरीर से दूसरे शरीर में विचरण करता है। यद्यपि आत्मा मन से भिन्न है, किन्तु वह उसका अनुगमन करता है।

38 सकाम कर्मों के फलों से बँधा हुआ मन सदैव उन इन्द्रिय-विषयों का ध्यान करता है, जो इस जगत में दिखते हैं और उन विषयों का भी जो वैदिक विद्वानों से सुने जाते हैं। फलस्वरूप मन अपनी अनुभूति की वस्तुओं के साथ उत्पन्न और विनष्ट होता प्रतीत होता है। इस तरह भूत तथा भविष्य में अन्तर करने की इसकी क्षमता जाती रहती है।

39 जब जीव वर्तमान शरीर से दूसरे शरीर में जाता है, जो उसके अपने कर्म से उत्पन्न होता है, तो वह नये शरीर की आनन्दप्रद तथा पीड़ादायक अनुभूतियों में लीन हो जाता है और पहले वाले शरीर के अनुभव को पूरी तरह भूल जाता है। इस तरह से पूर्व भौतिक पहचान की पूर्ण विस्मृति, जो किसी न किसी बहाने उत्पन्न होती है, मृत्यु कहलाती है।

40 हे परम दानी उद्धव, जिसे जन्म कहा जाता है, वह नवीन शरीर के साथ मनुष्य की पूर्ण पहचान ही है। मनुष्य नया शरीर उसी तरह स्वीकार करता है, जिस तरह कोई स्वप्न के अनुभव या मनोविलास को सत्य मान लेता है।

41 जिस प्रकार मनुष्य स्वप्न या दिवास्वप्न का अनुभव करते हुए अपने पहले के स्वप्नों या दिवास्वप्नों को स्मरण नहीं रख पाता, उसी तरह अपने वर्तमान शरीर में स्थित मनुष्य इसके पूर्व विद्यमान होने पर भी यही सोचता है कि वह अभी हाल ही में अस्तित्व में आया है।

42 चूँकि मन, जो कि इन्द्रियों का आश्रय स्थल है, नवीन शरीर के साथ अपनी पहचान कर लेता है अतएव उच्च, मध्यम तथा निम्न – ये तीन भौतिक श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होने लगती हैं मानो आत्मा की असलियत के भीतर उपस्थित हों। इस तरह आत्मा बाह्य तथा अन्तः द्वैत उत्पन्न करता है, जिस तरह मनुष्य कुपुत्र को जन्म दे।

43 हे उद्धव, भौतिक शरीर काल के अदृश्य तीव्र वेग से निरन्तर उत्पत्ति तथा विनाश को प्राप्त होते रहते हैं। सूक्ष्म प्रकृति होने से काल को कोई देख नहीं पाता।

44 समस्त भौतिक शरीरों के रूपान्तर की विभिन्न अवस्थाएँ उसी तरह बदलती रहती हैं जिस तरह दीपक की लौ, नदी की धारा या वृक्ष के फल बदलते रहते हैं।

45 यद्यपि दीपक की ज्योति में प्रकाश की असंख्य किरणों का सृजन, रूपान्तर और क्षय होता रहता है, किन्तु मोहग्रस्त व्यक्ति जब क्षण-भर के लिए इस प्रकाश को देखता है, तो वह यह झूठी बात कहेगा, “यह दीपक का वही प्रकाश है।" जिस तरह प्रवाहित नदी के जल को जो निरन्तर बहकर आगे बढ़ता जाता है, किसी एक बिन्दु को देखकर कोई यह मिथ्या कहे, “यह नदी का वही जल है।" इसी तरह यद्यपि मनुष्य का शरीर निरन्तर परिवर्तित होता रहता है, किन्तु जो लोग अपने जीवन को व्यर्थ गँवाते हैं, वे झूठे ही यह सोचते और कहते हैं कि शरीर की प्रत्येक विशेष अवस्था उस व्यक्ति की असली पहचान है।

46 मनुष्य न तो पूर्वकर्म के बीज से जन्म लेता है न ही अमर होते हुए वह मरता है। मोह के कारण जीव जन्म लेता तथा मरता प्रतीत होता है, जिस तरह काष्ठ के संसर्ग से अग्नि जलती और फिर बुझती प्रतीत होती है।

47 गर्भस्थापन, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, युवावस्था, अधेड़ आयु, बुढ़ापा तथा मृत्यु – शरीर की ये नौ अवस्थाएँ हैं।

48 यद्यपि भौतिक शरीर आत्मा से भिन्न है, किन्तु भौतिक संगति के कारण उत्पन्न अज्ञान से मनुष्य झूठे ही अपनी पहचान उच्च तथा निम्न शारीरिक अवस्थाओं से करता है। कभी-कभी भाग्यशाली व्यक्ति ऐसी मनोकल्पना को त्यागने में समर्थ होता है।

49 अपने पिता या पितामह की मृत्यु से मनुष्य अपनी मृत्यु का अनुमान लगा सकता है और अपने पुत्र के जन्म से वह अपने जन्म की अवस्था समझ सकता है। इस तरह जो व्यक्ति यथार्थरुप से भौतिक शरीरों की उत्पत्ति को समझ लेता है, वह इन द्वैतों में नहीं पड़ता।

50 जो व्यक्ति बीज से वृक्ष को जन्म लेते देखता है और परिपक्वता प्राप्त करने पर उस वृक्ष की मृत्यु को भी देखता है, वह निश्चित रूप से वृक्ष से पृथक रहकर स्पष्ट साक्षी बन जाता है। इसी तरह भौतिक शरीर के जन्म तथा मृत्यु का साक्षी शरीर से पृथक रहता है।

51 अज्ञानी व्यक्ति अपने को प्रकृति से अलग न समझ पाने से प्रकृति को सत्य समझता है। इसके सम्पर्क से वह पूर्णतया मोहित हो जाता है और संसार-चक्र में प्रवेश करता है।

52 अपने सकाम कर्म के कारण घूमने के लिए बाध्य हुआ, बद्ध आत्मा सतोगुण के सम्पर्क से ऋषियों या देवताओं के बीच जन्म लेता है। रजोगुण के सम्पर्क से वह असुर या मनुष्य बनता है और तमोगुण की संगति से वह भूतप्रेत या पशुजगत में जन्म लेता है।

53 जिस तरह नाचते तथा गाते हुए व्यक्तियों को देखकर कोई व्यक्ति उनका अनुकरण करता है, उसी तरह आत्मा सकाम कर्मों का कर्ता न होते हुए भी, भौतिक बुद्धि द्वारा मोहित हो जाता है और उसके गुणों का अनुकरण करने के लिए बाध्य होता है।

54-55 हे दशार्ह वंशज, आत्मा का भौतिक जीवन, इन्द्रियतृप्ति का उसका अनुभव वास्तव में उसी तरह झूठा होता है, जिस तरह क्षुब्ध जल में प्रतिबिम्बित वृक्षों का हिलना-डुलना या आँखों को चारों ओर घुमाने से पृथ्वी का घूमना या कल्पना अथवा स्वप्न का जगत होता है ।

56 जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति पर अपना ध्यान जमाये रखता है, उसके लिए भौतिक जीवन वास्तविक न होते हुए भी उसी तरह हट नहीं पाता जिस तरह स्वप्न के अरुचिकर अनुभव हटाये नहीं हटते।

57 इसलिए हे उद्धव, तुम भौतिक इन्द्रियों से इन्द्रियतृप्ति भोगने का प्रयास मत करो। यह देखो कि किस तरह भौतिक द्वैत पर आधारित भ्रम मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार से रोकता है।

58-59 जो व्यक्ति जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को पाना चाहता है उसे दुर्जनों द्वारा उपेक्षित होने, अपमानित किये जाने, उपहास या ईर्ष्या किये जाने पर या फिर अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा बारम्बार मारे-पीटे जाने, बाँधे जाने या उसकी निजी जीविका छीने जाने, अपने पर थूके जाने या अपने ऊपर पेशाब किए जाने जैसी सारी कठिनाइयों के बावजूद, अपने आप को आध्यात्मिक पद पर सुरक्षित रखने के लिए, अपनी बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए।

60 श्री उद्धव ने कहा: हे श्रेष्ठ वक्ता, कृपा करके मुझे बतायें कि मैं इसे किस तरह ठीक से समझूँ।

61 हे विश्वात्मा, मनुष्य का व्यक्तित्व भौतिक जीवन में बन्धन अत्यन्त प्रबल है; अतः अज्ञानी पुरुषों द्वारा किये गये अपराधों को सह पाना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी अत्यन्त कठिन है। केवल आपके वे भक्त, जो आपकी प्रेमाभक्ति में निरत है और जिन्होंने आपके चरणकमलों में रहते हुए शान्ति प्राप्त कर ली है। वे ऐसे अपराधों को सह पाने में सक्षम है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • https://youtu.be/YzoUwjCVYsI
    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.