jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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राजा सत्यव्रत द्वारा स्तुति - 8.24

24-27 समुद्र में फेंके जाते समय मछ्ली ने राजा सत्यव्रत से कहा: हे वीर! इस जल में अत्यन्त शक्तिशाली एवं घातक मगर हैं, जो मुझे खा जायेंगे। अतएव तुम मुझे इस स्थान में मत डालो। मत्स्यरूप भगवान से इन मधुर वचनों को सुनकर मोहित हुए राजा ने पूछा: आप कौन हैं? आप तो हम सबको मोहित कर रहे हैं। हे प्रभु! एक ही दिन में आपने अपना विस्तार सैकड़ों मील तक करके नदी तथा समुद्र के जल को आच्छादित कर लिया है। इससे पहले मैंने न तो ऐसा जलचर पशु देखा था और न ही सुना था। हे प्रभु! आप निश्चय ही अव्यय भगवान नारायण अर्थात श्री हरि हैं। आपने जीवों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही अब जलचर का स्वरूप धारण किया है।

28-30 हे प्रभु! हे सृष्टि, पालन तथा संहार के स्वामी! हे भोक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान विष्णु! आप हम जैसे शरणागत भक्तों के पथप्रदर्शक तथा गन्तव्य हैं। अतएव मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ। आपकी सारी लीलाएँ तथा अवतार निश्चय ही समस्त जीवों के कल्याण के लिए होते हैं। अतएव हे प्रभु! मैं वह प्रयोजन जानना चाहता हूँ जिसके लिए आपने यह मत्स्य रूप धारण किया है। हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्र वाले प्रभु! देहात्मबुद्धि वाले देवताओं की पूजा सभी तरह से व्यर्थ है। चूँकि आप हरेक के परम मित्र तथा प्रियतम परमात्मा हैं अतएव आपके चरणकमलों की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। इसलिए आपने मछली का रूप दिखलाया है।

 

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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ब्रह्मा द्वारा स्तुति (8.5)

26 ब्रह्माजी ने कहा: हे परमेश्वर, हे अविकारी, हे असीम परम सत्य! आप हर वस्तु के उद्गम हैं। सर्वव्यापी होने के कारण आप प्रत्येक के हृदय में और परमाणु में भी रहते हैं। आपमें कोई भौतिक गुण नहीं पाये जाते। निस्सन्देह, आप अचिन्त्य हैं। मन आपको कल्पना से नहीं ग्रहण कर सकता और शब्द आपका वर्णन करने में असमर्थ हैं। आप सबके परम स्वामी हैं, अतएव आप हर एक के आराध्य हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।

27 भगवान प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जानते रहते हैं कि किस प्रकार प्राण, मन तथा बुद्धि समेत प्रत्येक वस्तु उनके नियंत्रण में कार्य करती है। वे हर वस्तु के प्रकाशक हैं और अज्ञान उन्हें छु तक नहीं गया है। उनका भौतिक शरीर नहीं होता जो पूर्वकर्मों के फलों से प्रभावित हो। वे पक्षपात तथा भौतिकतावादी विद्या के अज्ञान से मुक्त हैं। अतएव मैं उन भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो नित्य, सर्वव्यापक तथा आकाश के समान विशाल हैं और तीनों युगों (सत्य, त्रेता तथा द्वापर) में अपने षडऐश्वर्यों समेत प्रकट होते हैं।

28 भौतिक कार्यों के चक्र में, भौतिक शरीर मानसिक रथ के पहिये जैसा होता है। दस इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) तथा शरीर के भीतर के पाँच प्राण मिलकर रथ के पहिये पन्द्रह अरे (तीलियाँ) बनाते हैं। प्रकृति के तीन गुण (सत्त्व, रजस तथा तमस) कार्यकलापों के केन्द्र बिन्दु हैं और प्रकृति के आठ अवयव (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार) इस पहिये की बाहरी परिधि बनाते हैं। बहिरंगा भौतिक शक्ति इस पहिये को विद्युत शक्ति की भाँति घुमाती है। इस प्रकार यह पहिया बड़ी तेजी से अपनी धुरी पर या केंद्रीय आधार अर्थात भगवान के चारों ओर घूमता है, जो परमात्मा तथा चरम सत्य (परम-सत्य/मूलभूत-सत्य/) हैं। हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।

29 भगवान शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं, अतएव वे एकवर्ण – ॐकार (प्रणव) हैं। चूँकि भगवान अंधकार माने जाने वाले दृश्य जगत से परे हैं, अतएव वे भौतिक नेत्रों से नहीं दिखते। फिर भी वे दिक या काल द्वारा हमसे पृथक नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। अपने वाहन गरुड़ पर आसीन उनकी पूजा क्षोभ से मुक्ति पा चुके व्यक्तियों के द्वारा योगशक्ति से की जाती है। हम सभी उनको सादर नमस्कार करते हैं।

30-31 कोई भी व्यक्ति भगवान की माया का पार नहीं पा सकता जो इतनी प्रबल होती है कि हर व्यक्ति इससे भ्रमित होकर जीवन के लक्ष्य को समझने की बुद्धि गवाँ देता है। किन्तु वही माया उन भगवान के वश में रहती है, जो सब पर शासन करते हैं और सभी जीवों पर समान दृष्टि रखते हैं। हम उन्हें नमस्कार करते हैं। चूँकि हमारे शरीर सत्त्वगुण से निर्मित हैं इसलिए हम देवगण भीतर तथा बाहर से सतोगुण में स्थित हैं। सारे सन्त पुरुष भी इसी प्रकार स्थित हैं। अतएव यदि हम भी भगवान को न समझ पायें तो उन नगण्य प्राणियों के विषय में क्या कहा जाये जो रजो तथा तमोगुणों में स्थित हैं? भला वे भगवान को कैसे समझ सकते हैं? हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं।

32 इस पृथ्वी पर चार प्रकार के जीव हैं और ये सभी उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। यह भौतिक सृष्टि उनके चरणकमलों पर टिकी है। वे ऐश्वर्य तथा शक्ति से उत्कृष्ट परम पुरुष हैं। वे हम पर प्रसन्न हों।

33-34 सारा विराट जगत जल से उद्भूत है और जल ही के कारण सारे जीव बने रहते हैं, जीवित रहते हैं तथा विकसित होते हैं। यह जल भगवान के वीर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव इतनी महान शक्ति वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हम पर प्रसन्न हों। सोम (चन्द्रमा) समस्त देवताओं के लिए अन्न, बल तथा दीर्घायु का स्रोत है। वह सारी वनस्पतियों का स्वामी तथा सारे जीवों की उत्पत्ति का स्रोत भी है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है, चन्द्रमा भगवान का मन है। ऐसे समस्त ऐश्वर्यों के स्रोत भगवान हम पर प्रसन्न हों।

35 अनुष्ठानों की आहुतियाँ ग्रहण करने के लिए उत्पन्न अग्नि भगवान का मुख है। सागर की गहराइयों के भीतर भी सम्पदा उत्पन्न करने के लिए अग्नि रहती है और उदर में भोजन पचाने के लिए तथा शरीर पालन हेतु विभिन्न स्रावों को उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि उपस्थित रहती है। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

36-38 सूर्यदेव मुक्ति के मार्ग को चिन्हित करते हैं। वे वेदों के ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं, वे ही ऐसे धाम हैं जहाँ पर परम सत्य को पूजा जा सकता है। वे मोक्ष के द्वार हैं, वे नित्य जीवन के स्रोत हैं, वे मृत्यु के भी कारण हैं। सूर्यदेव भगवान की आँख हैं। ऐसे परम ऐश्वर्यवान भगवान हम पर प्रसन्न हों। सारे चर तथा अचर प्राणी अपनी जीवनी शक्ति (प्राण), शारीरिक शक्ति तथा अपना जीवन तक वायु से प्राप्त करते हैं। हम सभी अपने प्राण के लिए वायु का उसी तरह अनुसरण करते हैं जिस प्रकार राजा का अनुसरण नौकर करता है। वायु की जीवनी शक्ति भगवान की मूल जीवनी शक्ति से उत्पन्न होती है। ऐसे भगवान हम पर प्रसन्न हों। परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों। विभिन्न दिशाएँ उनके कानों से उत्पन्न होती है, शरीर के छिद्र उनके हृदय से निकलते हैं एवं प्राण, इन्द्रियाँ, मन, शरीर के भीतर की वायु तथा शरीर आश्रय रूपी शून्य (आकाश) उनकी नाभि से निकलते हैं।

39 स्वर्ग का राजा महेन्द्र भगवान के बल से उत्पन्न हुआ था, देवतागण भगवान की कृपा से उत्पन्न हुए थे, शिवजी भगवान के क्रोध से उत्पन्न हुए थे और ब्रह्माजी उनकी गम्भीर बुद्धि से उत्पन्न हुए थे। सारे वैदिक मंत्र भगवान के शरीर के छिद्रों से उत्पन्न हुए थे तथा ऋषि और प्रजापतिगण उनकी जननेन्द्रियों से उत्पन्न हुए थे। ऐसे परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों।

40 लक्ष्मी उनके वक्षस्थल से उत्पन्न हुई, पितृलोक के वासी उनकी छाया से, धर्म उनके स्तन से तथा अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ। स्वर्गलोक उनके सिर की चोटी से तथा अप्सराएँ उनके इन्द्रिय भोग से उत्पन्न हुई। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

41 ब्राह्मण तथा वैदिक ज्ञान भगवान के मुख से निकले, क्षत्रिय तथा शारीरिक शक्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य तथा उत्पादकता एवं धन-सम्पदा सम्बन्धी उनका दक्ष ज्ञान उनकी जाँघों से तथा वैदिक ज्ञान से विलग रहनेवाले शूद्र उनके चरणों से निकले। ऐसे भगवान, जो पराक्रम से पूर्ण है, हम पर प्रसन्न हों।

42-43 लोभ उनके निचले होंठ से, प्रीति उनके ऊपरी होंठ से, शारीरिक कान्ति उनकी नाक से, पाशविक वासनाएँ उनकी स्पर्शेन्द्रियों से, यमराज उनकी भौंहों से तथा नित्यकाल उनकी पलकों से उत्पन्न होते हैं। वे भगवान हम सबों पर प्रसन्न हों। सभी विद्वान लोग कहते हैं कि पाँचों तत्त्व, नित्यकाल, सकाम कर्म, प्रकृति के तीनों गुण तथा इन गुणों से उत्पन्न विभिन्न किस्में – ये सब योगमाया की सृष्टियाँ हैं। अतएव इस भौतिक जगत को समझ पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु जो लोग अत्यन्त विद्वान हैं उन्होंने इसका तिरस्कार कर दिया है। जो सभी वस्तुओं के नियन्ता हैं ऐसे भगवान हम सब पर प्रसन्न हों।

44 हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूर्णतया शान्त, प्रयास से मुक्त तथा अपनी उपलब्धियों से पूर्णतया संतुष्ट हैं। वे अपनी इन्द्रियों द्वारा भौतिक जगत के कार्यों में लिप्त नहीं होते। निस्सन्देह, इस भौतिक जगत में अपनी लीलाएँ सम्पन्न करते समय वे अनासक्त वायु की तरह रहते हैं।

45 हे भगवन! हम आपके शरणागत हैं फिर भी हम आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपया अपने आदि रूप को तथा अपने मुस्काते मुख को हमारे नेत्रों को दिखलाइये और अन्य इन्द्रियों द्वारा अनुभव करने दीजिये।

46 हे भगवन! आप विभिन्न युगों में अपनी इच्छा से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और ऐसे असामान्य कार्य आश्चर्यजनक ढंग से करते हैं, जिन्हें कर पाना हम सब के लिए दुष्कर है।

47-48 कर्मीजन अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए सदैव धनसंग्रह करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु इसके लिए उन्हें अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। इतने कठोर श्रम के बावजूद भी उन्हें सन्तोषप्रद फल नहीं मिल पाता। निस्सन्देह ही कभी-कभी तो उनके कर्मफल से निराशा ही उत्पन्न होती है। किन्तु जिन भक्तों ने भगवान की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रखा है वे कठोर श्रम किये बिना ही पर्याप्त फल प्राप्त कर सकते हैं। ये फल भक्तों की आशा से बढ़कर होते हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समर्पित कार्य, भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किये जाँए, कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। अतएव स्वाभाविक है कि परम पिता होने के कारण स्वाभाविक रूप से भगवान सबों को अत्यन्त प्रिय हैं और वे जीवों के कल्याण के लिए सदैव कर्म करने के लिए तैयार रहते हैं।

49-50 जब वृक्ष की जड़ में पानी डाला जाता है, तो वृक्ष का तना तथा शाखाएँ स्वतः तुष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जब कोई भगवान विष्णु का भक्त बन जाता है, तो इससे हर एक की सेवा हो जाती है क्योंकि भगवान हर एक के परमात्मा हैं। हे भगवन! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल सीमा से परे हैं। आप अपने कार्यकलापों में अचिन्त्य हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं। आप प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं, किन्तु इस समय आप सतोगुण में स्थित हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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गजेन्द्र की समर्पण स्तुति (8.3)

1-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: तत्पश्चात गजेन्द्र ने अपना मन पूर्ण बुद्धि के साथ अपने हृदय में स्थिर कर लिया और उस मंत्र का जप प्रारम्भ किया जिसे उसने इन्द्रद्युम्न के रूप में अपने पूर्वजन्म में सीखा था और जो कृष्ण की कृपा से उसे स्मरण था। गजेन्द्र ने कहा: मैं परम पुरुष वासुदेव को सादर नमस्कार करता हूँ (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)। उन्हीं के कारण यह शरीर आत्मा की उपस्थिति के फलस्वरूप कर्म करता है, अतएव वे प्रत्येक जीव के मूल कारण हैं। वे ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुषों के लिए पूजनीय हैं और वे प्रत्येक जीव के हृदय में प्रविष्ट हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ। भगवान ही वह परम धरातल है, जिस पर प्रत्येक वस्तु टिकी हुई है, वे वह अवयव हैं जिससे प्रत्येक वस्तु उत्पन्न हुई है तथा वे वह पुरुष हैं जिसने सृष्टि की रचना की और जो इस विराट विश्व के एकमात्र कारण हैं। फिर भी वे कारण-कार्य से पृथक हैं। मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ जो सभी प्रकार से आत्म-निर्भर हैं।

4-5 भगवान अपनी शक्ति के विस्तार द्वारा कभी इस दृश्य जगत को व्यक्त बनाते हैं और कभी इसे अव्यक्त बना देते हैं। वे सभी परिस्थितियों में परम कारण तथा परम कार्य (फल), प्रेक्षक तथा साक्षी दोनों हैं। इस प्रकार वे सभी वस्तुओं से परे हैं। ऐसे भगवान मेरी रक्षा करें। कालक्रम से जब लोकों तथा उनके निदेशकों एवं पालकों समेत ब्रह्माण्ड के सारे कार्य-कारणों का संहार हो जाता है, तो गहन अंधकार की स्थिति आती है। किन्तु इस अंधकार के ऊपर भगवान रहता है। मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ।

6-7 आकर्षक वेषभूषा से ढके रहने तथा विभिन्न प्रकार की गतियों से नाचने के कारण रंगमंच के कलाकार को श्रोता समझ नहीं पाते। इसी प्रकार परम कलाकार के कार्यों तथा स्वरूपों को बड़े-बड़े मुनि या देवतागण भी नहीं समझ पाते और बुद्धिहीन तो तनिक भी नहीं (जो पशुओं के तुल्य हैं)। न तो देवता तथा मुनि, न ही बुद्धिहीन मनुष्य भगवान के स्वरूप को समझ सकते हैं और न ही वे उनकी वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त कर सकते हैं। ऐसे भगवान मेरी रक्षा करें। जो सभी जीवों को समभाव से देखते हैं, जो सबों के मित्रवत हैं तथा जो जंगल में ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यास व्रत का बिना त्रुटि के अभ्यास करते हैं, ऐसे विमुक्त तथा मुनिगण भगवान के सर्वकल्याणप्रद चरणकमलों का दर्शन पाने के इच्छुक रहते हैं। वही भगवान मेरे गन्तव्य हों।

8-9 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान भौतिक जन्म, कार्य, नाम, रूप, गुण या दोष से रहित हैं। यह भौतिक जगत जिस अभिप्राय से सृजित और विनष्ट होता रहता है उसकी पूर्ति के लिए वे अपनी मूल अन्तरंगा शक्ति द्वारा रामचन्द्र या भगवान कृष्ण जैसे मानव सदृश रूप में आते हैं। उनकी शक्ति महान है और वे विभिन्न रूपों में भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त होकर अद्भुत कर्म करते हैं। अतएव वे परब्रह्म हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

10 मैं उन आत्मप्रकाशित परमात्मा को नमस्कार करता हूँ जो प्रत्येक हृदय में साक्षी स्वरूप स्थित हैं, व्यष्टि जीवात्मा को प्रकाशित करते हैं और जिन तक मन, वाणी या चेतना के प्रयासों द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता।

11-13 भगवान की अनुभूति उन शुद्ध भक्तों को होती है, जो भक्तियोग की दिव्य स्थिति में रहकर कर्म करते हैं। वे अकलुषित सुख के दाता हैं और दिव्यलोक के स्वामी हैं। अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। मैं सर्वव्यापी भगवान वासुदेव को, भगवान के भयानक रूप नृसिंह देव को, भगवान के पशुरूप (वराह देव) को, निर्विशेषवाद का उपदेश देनेवाले भगवान दत्तात्रेय को, भगवान बुद्ध को तथा अन्य सारे अवतारों को नमस्कार करता हूँ। मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो निर्गुण हैं, किन्तु भौतिक जगत में सतो, रजो तथा तमोगुणों को स्वीकार करते हैं। मैं निर्विशेष ब्रह्मतेज को भी सादर नमस्कार करता हूँ। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप परमात्मा, हर एक के अध्यक्ष तथा जो कुछ भी घटित होता है उसके साक्षी हैं। आप परम पुरुष, प्रकृति तथा समग्र भौतिक शक्ति के उद्गम हैं। आप भौतिक शरीर के भी स्वामी हैं। अतएव आप परम पूर्ण हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

14 हे भगवन! आप समस्त इन्द्रिय-विषयों के दृष्टा हैं। आपकी कृपा के बिना सन्देहों की समस्या के हल होने की कोई सम्भावना नहीं है। यह भौतिक जगत आपके अनुरूप छाया के समान है। निस्सन्देह, मनुष्य इस भौतिक जगत को सत्य मानता है क्योंकि इससे आपके अस्तित्व की झलक मिलती है।

15 हे भगवन! आप समस्त कारणों के कारण हैं, किन्तु आपका अपना कोई कारण नहीं है। अतएव आप हर वस्तु के अद्भुत कारण हैं। मैं आपको अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ। आप पंचरात्र तथा वेदान्तसूत्र जैसे शास्त्रों में निहित वैदिक ज्ञान के आश्रय हैं, जो आपके ही साक्षात स्वरूप हैं और परम्परा पद्धति के स्रोत हैं। चूँकि मोक्ष प्रदाता आप ही हैं अतएव आप ही अध्यात्मवादियों के एकमात्र आश्रय हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

16 हे प्रभु! जिस प्रकार अरणि-काष्ठ में अग्नि ढकी रहती है उसी प्रकार आप तथा आपका असीम ज्ञान प्रकृति के भौतिक गुणों से ढका रहता है। किन्तु आपका मन प्रकृति के गुणों के कार्यकलापों पर ध्यान नहीं देता। जो लोग आध्यात्मिक ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं, वे वैदिक वाड्मय में निर्देशित विधि-विधानों के अधीन नहीं होते। चूँकि ऐसे उन्नत लोग दिव्य होते हैं अतएव आप स्वयं उनके शुद्ध मन में प्रकट होते हैं। इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

17-18 चूँकि मुझ जैसे पशु ने परममुक्त आपकी शरण ग्रहण की है, अतएव आप निश्चय ही मुझे इस संकटमय स्थिति से उबार लेंगे। निस्सन्देह, अत्यन्त दयालु होने के कारण आप निरन्तर मेरे उद्धार करने का प्रयास करते हैं। आप अपने परमात्मा-अंश से समस्त देहधारी जीवों के हृदय में स्थित हैं। आप प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान के रूप में विख्यात हैं और आप असीम हैं। हे भगवन! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु! जो लोग भौतिक कल्मष से पूर्णतः मुक्त हैं, वे अपने अन्तस्थल में सदैव आपका ध्यान करते हैं। आप मुझ जैसों के लिए दुष्प्राप्य हैं, जो मनोरथ, घर, सम्बन्धियों, मित्रों, धन, नौकरों तथा सहायकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। आप प्रकृति के गुणों से निष्कलुषित भगवान हैं। आप सारे ज्ञान के आगार, परम नियन्ता हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

19-21 भगवान की पूजा करने पर जो लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चारों में रुचि रखते हैं, वे उनसे अपनी इच्छानुसार इन्हें प्राप्त कर सकते हैं। तो फिर अन्य आशीर्वादों के विषय में क्या कहा जा सकता है? कभी-कभी भगवान ऐसे महत्वाकांक्षी पूजकों को आध्यात्मिक शरीर प्रदान करते हैं। जो भगवान असीम कृपालु हैं, वे मुझे वर्तमान संकट से तथा भौतिकतावादी जीवन शैली से मुक्ति का आशीर्वाद दें। ऐसे अनन्य भक्त जिन्हें भगवान की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई चाह नहीं रहती, वे पूर्णतः शरणागत होकर उनकी पूजा करते हैं और उनके आश्चर्यजनक तथा शुभ कार्यकलापों के विषय में सदैव सुनते हैं तथा कीर्तन करते हैं। इस प्रकार वे सदैव दिव्य आनन्द के सागर में मग्न रहते हैं। ऐसे भक्त भगवान से कोई वरदान नहीं माँगते, किन्तु मैं तो संकट में हूँ। अतएव मैं उन भगवान की स्तुति करता हूँ जो शाश्वत रूप में विद्यमान हैं, जो अदृश्य हैं, जो ब्रह्मा जैसे महापुरुषों के भी स्वामी हैं और जो केवल दिव्य भक्तियोग द्वारा ही प्राप्य हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण वे मेरी इन्द्रियों की पहुँच से तथा समस्त बाह्य अनुभूति से परे हैं। वे असीम हैं, वे आदि कारण हैं और सभी तरह से पूर्ण हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ।

22-24 भगवान अपने सूक्ष्म अंश जीव तत्त्व की सृष्टि करते हैं जिसमें ब्रह्मा, देवता तथा वैदिक ज्ञान के अंग (साम, ऋग, यजूर तथा अथर्व) से लेकर अपने-अपने नामों तथा गुणों सहित समस्त चर तथा अचर प्राणी सम्मिलित हैं। जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग या सूर्य की चमकीली किरणें अपने स्रोत से निकलकर पुनः उसी में समा जाती हैं उसी प्रकार मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, स्थूल भौतिक तथा सूक्ष्म भौतिक शरीर तथा प्रकृति के गुणों के सतत रूपान्तर (विकार)---ये सभी भगवान से उद्भूत होकर पुनः उन्हीं में समा जाते हैं। वे न तो देव हैं न दानव, न मनुष्य न पक्षी या पशु हैं। वे न तो स्त्री या पुरुष या क्लीव हैं और न ही पशु हैं। न ही वे भौतिक गुण, सकाम कर्म, प्राकट्य या अप्राकट्य हैं। वे " नेति-नेति " का भेदभाव करने में अन्तिम शब्द हैं और वे अनन्त हैं। उन भगवान की जय हो।

25 घड़ियाल के आक्रमण से मुक्त किये जाने के बाद मैं और आगे जीवित रहना नहीं चाहता । हाथी के शरीर से क्या लाभ जो भीतर तथा बाहर से, अज्ञान से आच्छादित हो? मैं तो अज्ञान के आवरण से केवल नित्य मोक्ष की कामना करता हूँ। यह आवरण काल के प्रभाव से विनष्ट नहीं होता ।

26-28 भौतिक जीवन से मोक्ष की कामना करता हुआ अब मैं उस परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो इस ब्रह्माण्ड का स्रष्टा है, जो साक्षात विश्व का स्वरूप होते हुए भी इस विश्व से परे है। वह इस जगत में हर वस्तु का परम ज्ञाता है, ब्रह्माण्ड का परमात्मा है। वह अजन्मा है और परम पद पर स्थित भगवान है। उसे मैं सादर नमस्कार करता हूँ। मैं उन ब्रह्म, परमात्मा, समस्त योग के स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो सिद्ध योगियों द्वारा अपने हृदयों में तब देखे जाते हैं जब उनके हृदय भक्तियोग के अभ्यास द्वारा सकाम कर्मों के फलों से पूर्णतया शुद्ध तथा मुक्त हो जाते हैं। हे प्रभु ! आप तीन प्रकार की शक्तियों के दुस्तर वेग के नियामक हैं। आप समस्त इन्द्रियसुख के आगार हैं और शरणागत जीवों के रक्षक हैं। आप असीम शक्ति के स्वामी हैं, किन्तु जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में रखने मे अक्षम हैं, वे आप तक नहीं पहुँच पाते। मैं आपको बारम्बार सादर नमस्कार करता हूँ।

29 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया से ईश्वर का अंश जीव देहात्मबुद्धि के कारण अपनी असली पहचान को भूल जाता है। मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ जिनकी महिमा को समझ पाना कठिन है।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब गजेन्द्र किसी व्यक्ति विशेष का नाम न लेकर परम पुरुष का वर्णन कर रहा था, तो उसने ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, चन्द्र इत्यादि देवताओं का आह्वान नहीं किया। अतएव इनमें से कोई भी उसके पास नहीं आए। किन्तु चूँकि भगवान हरि परमात्मा, पुरुषोत्तम हैं अतएव वे गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए।

31-33 गजेन्द्र के प्रार्थना करने के कारण उसकी विकट स्थिति को समझने के पश्चात सर्वत्र निवास करने वाले भगवान हरि उन देवताओं समेत वहाँ प्रकट हुए जो उनकी स्तुति कर रहे थे। अपने हाथों में चक्र तथा अन्य आयुध लिए और अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर सवार होकर वे तीव्र गति से अपनी इच्छानुसार गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए। घड़ियाल ने गजेन्द्र को जल में बलपूर्वक पकड़ रखा था जिससे वह अत्यधिक पीड़ा का अनुभव कर रहा था, किन्तु जब उसने देखा कि नारायण अपना चक्र घुमाते हुए गरुड़ की पीठ पर बैठकर आकाश में आ रहे हैं, तो उसने तुरन्त ही अपनी सूँड में कमल का एक फूल ले लिया और अपनी वेदना के कारण अत्यन्त कठिनाई से निम्नलिखित शब्द कहे "हे भगवान, नारायण, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे परमेश्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।" तत्पश्चात गजेन्द्र को ऐसी पीड़ित अवस्था में देखकर, अजन्मा भगवान हरि तुरन्त अहैतुकी कृपावश गरुड़ की पीठ से नीचे उतरे और गजेन्द्र को घड़ियाल समेत जल के बाहर खींच लाये। तब समस्त देवताओं की उपस्थिति में जो सारा दृश्य देख रहे थे, भगवान ने अपने चक्र से घड़ियाल के मुख को उसके शरीर से पृथक कर दिया। इस प्रकार उन्होंने गजेन्द्र को बचा लिया।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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प्रह्लाद महाराज द्वारा नृसिंह देव को प्रार्थनाओं से शान्त करना (7.9)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: ब्रह्मा, शिव इत्यादि अन्य बड़े-बड़े देवताओं का साहस न हुआ कि वे भगवान के समक्ष जाँय, क्योंकि उस समय वे अत्यन्त क्रुद्ध थे।

2 वहाँ पर उपस्थित भयभीत सारे देवताओं ने लक्ष्मीजी से प्रार्थना की कि वे भगवान के समक्ष जाएँ। किन्तु उन्होंने भी भगवान का ऐसा अद्भुत तथा असामान्य रूप कभी नहीं देखा था, अतएव वे उनके पास नहीं जा सकीं।

3-4 तत्पश्चात ब्रह्माजी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद महाराज से अनुरोध किया--हे पुत्र, भगवान नृसिंहदेव तुम्हारे आसुरी पिता पर अत्यधिक क्रुद्ध हैं। अतएव तुम आगे जाकर भगवान को शान्त करो। नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, यद्यपि महान भक्त प्रह्लाद महाराज केवल छोटे से बालक थे, लेकिन उन्होंने ब्रह्माजी की बातें मान लीं। वे धीरे-धीरे भगवान नृसिंहदेव की ओर बढ़े और हाथ जोड़कर पृथ्वी पर गिरकर उन्हें सादर प्रणाम किया।

5-6 जब नृसिंहदेव ने देखा कि छोटे से बालक प्रह्लाद महाराज ने चरणकमलों पर साष्टांग प्रणाम किया है, तो वे अपने भक्त के प्रति अत्यधिक भाव-विभोर हो उठे। प्रह्लाद को उठाते हुए उन्होंने अपना कर-कमल उस बालक के सिर पर रख दिया। उनका हाथ उनके समस्त भक्तों को सदैव अभय-दान करने वाला है। भगवान नृसिंहदेव द्वारा प्रह्लाद महाराज का सिर स्पर्श करने से प्रह्लाद के समस्त भौतिक कल्मष तथा इच्छाएँ पूर्णतया धुल गई। अतएव वे दिव्य पद को प्राप्त हो गए और उनके शरीर में आनन्द के सारे लक्षण प्रकट हो गए। उनका हृदय प्रेम से पूरित हो उठा, उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने अपने हृदय में भगवान के चरणकमलों को बन्दी बना लिया ।

7-9 प्रह्लाद महाराज ने पूर्ण समाधि में पूरे मनोयोग से अपने मन तथा दृष्टि को भगवान नृसिंहदेव पर स्थिर कर दिया। तब वे स्थिर मन से अवरुद्ध वाणी से प्रेमपूर्वक प्रार्थना करने लगे । प्रह्लाद महाराज ने प्रार्थना की: असुर परिवार में जन्म लेने के कारण यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न करने के लिए उपयुक्त प्रार्थना कर सकूँ ? आज तक ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता तथा समस्त मुनिगण उत्तमोत्तम वाणी से भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाये, यद्यपि ये सारे व्यक्ति सतोगुणी एवं परम योग्य हैं, तो फिर मेरे विषय में क्या कहा जाये? मैं तो बिल्कुल ही अयोग्य हूँ। प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: भले ही मनुष्य के पास सम्पत्ति, राजसी परिवार, सौन्दर्य, तपस्या, शिक्षा, दक्षता, कान्ति, प्रभाव, शारीरिक शक्ति, उद्यम, बुद्धि तथा योगशक्ति क्यों न हो, किन्तु मेरी समझ से इन सारी योग्यताओं से भी कोई व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकता। किन्तु भक्ति से वह ऐसा कर सकता है। गजेन्द्र ने ऐसा किया और इस तरह भगवान उससे प्रसन्न हो गये।

10 यदि किसी ब्राह्मण ने बारहों योग्यताएँ (सनत्सुजात ग्रन्थ में उल्लिखित) हों किन्तु यदि वह भक्त नहीं है और भगवान के चरणकमलों से विमुख है, तो वह उस चाण्डाल भक्त से भी अधम है, जिसने अपना सर्वस्व मन, वचन, कर्म, सम्पत्ति तथा जीवन परमेश्वर को अर्पित कर दिया है। ऐसा भक्त उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ है, क्योंकि भक्त अपने सारे परिवार को पवित्र कर सकता है जबकि झूठी प्रतिष्ठा वाला तथाकथित ब्राह्मण अपने आपको भी शुद्ध नहीं कर पाता।

11-12 परमेश्वर अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सदैव आत्मतुष्ट रहने वाले हैं। अतएव जब उन्हें कोई भेंट अर्पित की जाती है, तो भगवत्कृपा से यह भेंट भक्त के लाभ के लिये ही होती है, क्योंकि भगवान को किसी भी सेवा की आवश्यकता नहीं है। उदाहरणार्थ, यदि किसी का मुख सुसज्जित हो तो दर्पण में उसके मुख का प्रतिबिम्ब भी सुसज्जित दिखता है। अतएव यद्यपि मैंने असुरकुल में जन्म लिया है, तो भी निस्सन्देह, जहाँ तक मेरी बुद्धि जाती है मैं पूरे प्रयास से भगवान की प्रार्थना करूँगा। जो भी व्यक्ति अज्ञान के कारण इस भौतिक जगत में प्रविष्ट होने को बाध्य हुआ है, वह भौतिक जीवन को पवित्र बना सकता है यदि वह भगवान की प्रार्थना करे और उनके यश का श्रवण करे।

13 हे भगवन, ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता आपके निष्ठावान दास हैं, क्योंकि वे दिव्य पद पर स्थित हैं। अतः वे हमारी (प्रह्लाद तथा उनके असुर पिता हिरण्यकशिपु) की तरह नहीं हैं। इस भयानक रूप में आपका प्राकट्य स्वान्तःसुख के लिए आपकी लीला है। ऐसा अवतार सदा ही ब्रह्माण्ड की रक्षा तथा सुधार (अभ्युदय) के निमित्त होता है।

14-15 अतएव हे नृसिंहदेव भगवान, आप अपना क्रोध अब त्याग दें, क्योंकि मेरा पिता महा असुर हिरण्यकशिपु मारा जा चुका है। चूँकि साँप या बिच्छू के मारे जाने पर साधु पुरुष भी प्रसन्न होते हैं, अतएव इस असुर के मृत्यु से सारे लोकों को अत्यन्त सन्तोष हुआ है। अब वे अपने सुख के प्रति आश्वस्त हैं और भय से मुक्त होने के लिए आपके इस कल्याणप्रद अवतार का सदैव स्मरण करेंगे। हे अजित भगवान, मैं न तो आपके भयानक मुख तथा जीभ से, न ही सूर्य के समान चमकीली आँखों से या टेढ़ी भौंहों से भयभीत हूँ। मैं आपके तेज नुकीले दाँतों से, आँतों की माला से, रक्त रंजीत गर्दन के बालों से या बर्छे जैसे पैने कानों से भी नहीं डर रहा हूँ। न ही मैं आपके भीषण सिंहनाद से भयभीत हूँ जिससे हाथी भागकर दूर चले जाते हैं। न मैं आपके नाखूनों से भयभीत हूँ जो आपके शत्रु को मारने के निमित्त हैं।

16-19 हे पतितों पर सदय, परम शक्तिशाली दुर्जेय प्रभु, मैं अपने कर्मों के कारण असुरों की संगति में आ पड़ा हूँ, अतएव मैं इस भौतिक संसार में अपनी जीवन दशा से अत्यधिक भयभीत हूँ। वह क्षण कब होगा जब आप मुझे उन चरणकमलों की शरण में बुला लेंगे जो बद्ध जीवन से मोक्ष के चरम लक्ष्य हैं? हे महान, हे परमेश्वर, प्रिय तथा अप्रिय परिस्थितियों के संयोग से तथा उनसे बिछुड़ने के कारण मनुष्य स्वर्ग या नरक लोकों में अत्यन्त शोचनीय स्थिति को प्राप्त होता है मानो सन्ताप की अग्नि में जल रहा हो। यद्यपि इस दुखमय जीवन से निकलने के अनेक उपचार हैं किन्तु भौतिक जगत में ये उपचार दुखों से भी अधिक कष्टकारक हैं। अतएव मैं सोचता हूँ कि इसकी एकमात्र औषधि आपकी सेवा में संलग्न होना है। कृपया मुझे ऐसी सेवा का उपदेश दें। हे भगवान नृसिंहदेव, मुक्तात्माओं (हंसों) की संगति में आपकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे रहकर मैं प्रकृति के तीन गुणों के स्पर्श से पूर्णत: कल्मषहीन हो सकूँ गा और आपकी महिमाओं का कीर्तन कर सकूँ गा जो मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मैं ब्रह्मा तथा उनकी शिष्य परम्परा के पद-चिन्हों पर ठीक तरह से चलकर आपकी महिमाओं का कीर्तन करूँगा। इस प्रकार मैं अज्ञान के सागर को निश्चय ही पार कर सकूँ गा। हे नृसिंहदेव, हे परम पुरुष, देहात्मबुद्धि के कारण आपके द्वारा उपेक्षित देहधारी जीव अपने कल्याण के लिए कुछ भी नहीं कर पाते। वे जो भी उपचार स्वीकार करते हैं, उनसे यद्यपि कदाचित क्षणिक लाभ पहुँचता है, किन्तु वे स्थायी नहीं रह पाते। उदाहरणार्थ, माता तथा पिता अपने बालक की रक्षा नहीं कर पाते, वैद्य तथा दवा रोगी का कष्ट दूर नहीं कर पाते तथा समुद्र में कोई नाव डूबते हुए मनुष्य को नहीं बचा पाती।

20 हे प्रभु, इस भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति – सतो, रजो तथा तमोगुणों से प्रभावित होकर प्रकृति के गुणों के अधीन हो जाता है। सर्वोच्च व्यक्ति ब्रह्माजी से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक सारे प्राणी इन्हीं गुणों के वशीभूत होकर कार्य करते हैं। अतएव इस भौतिक जगत में सारे व्यक्ति आपकी शक्ति के वशीभूत हैं।   वे जिस कारण से कर्म करते हैं, जिस स्थान में कर्म करते हैं, जिस काल में कर्म करते हैं, जिस पदार्थ के कारण काम करते हैं, जिस जीवन-लक्ष्य को उन्होंने अन्तिम मान रखा है तथा इस लक्ष्य को प्राप्त करने की जो विधि है – ये सभी आपकी शक्ति की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। निस्सन्देह, शक्ति तथा शक्तिमान अभिन्न होते हैं, ये सब आपकी ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

21-24 हे प्रभु, हे परम शाश्वत, आपने अपने स्वांश का विस्तार करके काल द्वारा क्षुब्ध होने वाली अपनी बहिरंगा शक्ति के द्वारा जीवों के सूक्ष्म शरीरों की सृष्टि की है। इस प्रकार मन जीव को अनन्त प्रकार की इच्छाओं में फाँस लेता है जिन्हें कर्मकाण्ड के वैदिक आदेशों तथा सोलह तत्त्वों के द्वारा पूरा किया जाना होता है। भला ऐसा कौन है, जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किये बिना इस बन्धन से छूट सके? हे प्रभु, हे परम पुरुष, आपने सोलह अवयवों से इस भौतिक जगत की रचना की है, किन्तु आप उनके भौतिक गुणों से परे हैं। दूसरे शब्दों में, ये भौतिक गुण पूर्णतया आपके वश में हैं और आप कभी भी उनके द्वारा जीते नहीं जाते। अतएव काल तत्त्व आपका प्रतिनिधित्व करता है। हे प्रभु, हे परमेश्वर, आपको कोई नहीं जीत सकता। किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो कालचक्र द्वारा पिसा जा रहा हूँ; अतएव मैं आपको पूर्ण आत्म-समर्पण करता हूँ। अब आप मुझे अपने पाद-पद्मों में संरक्षण प्रदान करें। हे प्रभु, सामान्यतः लोग दीर्घ आयु, ऐश्वर्य तथा भोग के लिए उच्च लोकों में जाना चाहते हैं, किन्तु मैंने अपने पिता के कार्यकलापों से इन सबको देख लिया है। जब मेरे पिता क्रुद्ध होते थे और देवताओं पर व्यंग्य भरी हँसी हँसते थे तो वे उनकी भौंहों की गतियों को देखने से ही तुरन्त विनष्ट हो जाते थे। तो भी मेरे इतने शक्तिशाली पिता अब एक क्षण में आपके द्वारा ध्वस्त कर दिये गये। हे भगवन, अब मुझे सांसारिक ऐश्वर्य, योगशक्ति, दीर्घायु तथा ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक के सारे जीवों द्वारा भोग्य अन्य भौतिक आनन्दों का पूरा-पूरा अनुभव है। शक्तिशाली काल के रूप में आप इन सबों को नष्ट कर देते हैं। अतः मैं अपने अनुभव के आधार पर इन सबको नहीं लेना चाहता । हे भगवन, मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अपने शुद्ध भक्त के सम्पर्क में रखें और निष्ठावान दास के रूप में उसकी सेवा करने दें।

25-26 इस भौतिक जगत में प्रत्येक जीव कुछ न कुछ भावी सुख की कामना करता है, जो मरुस्थल में मृग-मरीचिका के समान है। भला मरुस्थल में जल कहाँ? दूसरे शब्दों में, इस भौतिक जगत में सुख कहाँ? जहाँ तक इस शरीर की बात है, इसका मूल्य ही क्या है? यह विभिन्न रोगों का स्रोत मात्र है। तथाकथित दार्शनिक, विज्ञानी तथा राजनीतिज्ञ इसे भलीभाँति जानते हैं फिर भी वे क्षणिक सुख की आकांक्षा रखते हैं। सुख प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है लेकिन वे अपनी इन्द्रियों को वश में न रख पाने के कारण भौतिक जगत के तथाकथित सुख के पीछे दौड़ते हैं और सही निष्कर्ष तक कभी नहीं पहुँच पाते। हे प्रभु, हे परम पुरुष, कहाँ घोर नारकीय रजो तथा तमोगुणी परिवार में उत्पन्न हुआ मैं और कहाँ आपकी अहैतुकी कृपा जो ब्रह्माजी, शिवजी या लक्ष्मीजी को कभी प्राप्त नहीं हो पाई? आप कभी भी इनके सिरों पर अपना कमल जैसा हाथ नहीं रखते, किन्तु आपने मेरे सिर पर इसे रखा है।

27-28 हे भगवन, आप सामान्य जीवों की तरह मित्र तथा शत्रु एवं अनुकूल तथा प्रतिकूल के मध्य भेदभाव नहीं बरतते, क्योंकि आपमें ऊँच-नीच की कोई भावना नहीं है। फिर भी आप सेवा के स्तर के अनुसार ही अपने आशीष प्रदान करते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कल्पवृक्ष इच्छाओं के अनुसार ही फल देता है और ऊँच-नीच में भेदभाव नहीं बरतता। मेरे प्रभु, हे भगवन, मैं एक के बाद एक भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पों से भरे अन्धे कुएँ में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारदमुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिव्य पद को किस तरह प्राप्त किया जाये। अतएव मेरा पहला कर्तव्य है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ?

29-31 हे भगवन, हे दिव्य गुणों के असीम आगार, आपने मेरे पिता हिरण्यकशिपु का वध किया है और मुझे उनकी तलवार से बचा लिया है। उन्होंने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा था "यदि मेरे अतिरिक्त कोई परम नियन्ता है, तो वह तुम्हें बचाए। अब मैं तुम्हारे सिर को तुम्हारे शरीर से काटकर अलग कर दूँगा।" अतएव मैं सोचता हूँ कि मुझे बचाने तथा उन्हें मारने – दोनों ही कार्यों में आपने अपने भक्त के वचनों को सत्य करने के लिए ही कर्म किया है। इसका कोई अन्य कारण नहीं है। हे भगवन, अकेले आप ही अपने आपको विराट जगत के रूप में प्रकट करते हैं, क्योंकि आप सृष्टि के पूर्व विद्यमान थे, संहार के बाद भी विद्यमान रहते हैं और आदि तथा अन्त के बीच में पालक हैं। यह सब प्रकृति के तीनों गुणों की क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा किया जाता है। अतएव भीतर तथा बाहर जो कुछ भी विद्यमान है, वह केवल आप हैं। हे प्रभु, हे भगवन, यह समग्र सृष्टि आपके द्वारा उत्पन्न है और विराट जगत आपकी शक्ति का परिणाम है। यद्यपि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है फिर भी आप अपने को उससे पृथक रखते हैं। 'मेरा' तथा 'तुम्हारा' की धारणा निश्चय ही एक प्रकार का मोह (माया) है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु आपसे उद्भूत होने के कारण आपसे भिन्न नहीं है। निस्सन्देह, विराट जगत आपसे अभिन्न है और संहार भी आपके द्वारा ही किया जाता है। आप तथा ब्रह्माण्ड के बीच का यह सम्बन्ध बीज तथा वृक्ष अथवा सूक्ष्म कारण तथा स्थूल अभिव्यक्ति के उदाहरण के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।

32 हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, संहार के बाद सृजनात्मक शक्ति आप में सुरक्षित रखी जाती है और आप अपने अर्धखुले नेत्रों से सोते प्रतीत होते हैं। किन्तु तथ्य तो यह है कि आप एक सामान्य व्यक्ति की भाँति सोते नहीं, क्योंकि आप भौतिक जगत की सृष्टि के परे सदैव दिव्य अवस्था में रहते हैं और सदैव दिव्य आनन्द का अनुभव करते हैं। इस तरह क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में आप भौतिक वस्तुओं को छूए बिना अपनी दिव्य स्थिति में बने रहते हैं। यद्यपि आप सोते प्रतीत होते हैं, किन्तु यह सोना अविद्या की निद्रा से पृथक होता है।

33 यह विराट भौतिक जगत भी आपका शरीर ही है। पदार्थ का यह पिण्ड आपकी काल शक्ति द्वारा आन्दोलित (उत्तेजित) होता है और इस तरह प्रकृति के तीनों गुण प्रकट होते हैं। तब आप शेष या अनन्त की शय्या से जागते हैं और आपकी नाभि से एक क्षुद्र दिव्य बीज उत्पन्न होता है। इसी बीज से विराट जगत का कमल पुष्प प्रकट होता है ठीक उसी तरह जिस प्रकार एक छोटे बीज से विशाल वटवृक्ष उगता है।

34 उस विशाल कमल पुष्प से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए किन्तु उन्हें उस कमल के सिवाय कुछ भी नहीं दिखा। अतएव आपको बाहर स्थित जानकर उन्होंने जल में गोता लगाया और वे एक सौ वर्षों तक उस कमल के उद्गम को खोजने का प्रयत्न करते रहे। किन्तु उन्हें आपका कोई पता नहीं चल पाया क्योंकि – जब बीज फलीभूत होता है, तो असली बीज नहीं दिख पाता।

35 आत्मयोनि के रूप में विख्यात अर्थात बिना माता के उत्पन्न ब्रह्माजी को आश्चर्य हुआ। अतएव उन्होंने कमलपुष्प की शरण ग्रहण की ओर जब वे सैकड़ों वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद शुद्ध हुए तो वे देख पाये कि समस्त कारणों के कारण भगवान उनके अपने पूरे शरीर तथा इन्द्रियों में उसी तरह व्याप्त थे जिस प्रकार गन्ध अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी पृथ्वी में अनुभव की जाती है।

36-37 तब ब्रह्माजी ने आपको हजारों-हजारों मुखों, पाँवों, सिरों, हाथों, जाँघों, कानों तथा आँखों से युक्त देखा। आप भलीभाँति वस्त्र धारण किये थे और नाना प्रकार के आभूषणों तथा आयुधों से सुशोभित थे। आपको विष्णु रूप में देखकर तथा आपके दिव्य लक्षणों एवं अधोलोकों से फैले हुए आपके चरणों को देखकर ब्रह्माजी को दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ। हे भगवन जब आप घोड़े का सिर धारण करके हयग्रीव रूप में प्रकट हुए तो आपने रजो तथा तमोगुणों से पूर्ण मधु तथा कैटभ नामक दो असुरों का संहार किया। फिर आपने ब्रह्मा को वैदिक ज्ञान प्रदान किया। इसी कारण से सारे महान ऋषिगण आपके रूपों को दिव्य अर्थात भौतिक गुणों से अछूता मानते हैं।

38 हे प्रभु, इस प्रकार आप विभिन्न अवतारों में जैसे मनुष्य, पशु, ऋषि, देवता, मत्स्य या कच्छप के रूप में प्रकट होते हैं और इस प्रकार से विभिन्न लोकों में सम्पूर्ण सृष्टि का पालन करते हैं तथा आसुरी सिद्धान्तों को नष्ट करते हैं। हे भगवान, युग के अनुसार आप धार्मिक सिद्धान्तों की रक्षा करते हैं। किन्तु कलियुग में आप स्वयं को भगवान के रूप में घोषित नहीं करते। इसलिए आप 'त्रियुग' कहलाते हैं, अर्थात तीन युगों में प्रकट होने वाले भगवान ।

39 चिन्तारहित वैकुण्ठलोकों के स्वामी, मेरा मन अत्यन्त पापी तथा कामी है, कभी यह तथाकथित सुखी, तो कभी दुखी रहता है। मेरा मन शोक तथा भय से पूर्ण है और सदैव अधिकाधिक धन की खोज में रहता है। इस तरह यह अत्यधिक दूषित गया है और आपकी कथाओं से कभी तुष्ट नहीं होता। अतएव मैं अत्यन्त पतित तथा दीन हूँ। ऐसी जीवन-स्थिति में भला मैं आपके कार्यकलापों की व्याख्या करने में किस तरह समर्थ हो सकता हूँ?

40-41 हे अच्युत भगवान, मेरी दशा उस पुरुष की भाँति है, जिसकी कई पत्नियाँ हों और वे सभी उसे अपने अपने ढंग से आकर्षित करने का प्रयास कर रही हों। उदाहरणार्थ, जीभ स्वादिष्ट व्यंजनों की ओर आकृष्ट होती है, जननेन्द्रिय किसी आकर्षक संग हेतु और स्पर्श इन्द्रियाँ मुलायम वस्तुओं का स्पर्श करने के लिए आकृष्ट होती हैं। पेट भरा रहने पर भी अधिक खाना चाहता है और कान आपके विषय में न सुनकर सामान्यतः चित्रपट गीतों की ओर आकृष्ट होते हैं। घ्राणेन्द्रिय किसी अन्य ओर ही आकृष्ट होती है, चंचल आँखें इन्द्रियतृप्ति के दृश्यों की ओर आकृष्ट होती हैं तथा सक्रिय इन्द्रियाँ अन्यत्र आकृष्ट होती हैं। इस तरह मैं सचमुच ही दुविधा में रहता हूँ। हे भगवन आप सदैव मृत्यु की नदी के दूसरी ओर (उस पार) दिव्य रूप में स्थित रहते हैं। किन्तु हम सभी अपने पापकर्मों के फलों के कारण इस ओर कष्ट भोग रहे हैं। दरअसल, हम इस नदी में गिर गये हैं और जन्म-मृत्यु की वेदनाओं से बारम्बार कष्ट उठा रहे हैं तथा भयानक वस्तुएँ खा रहे हैं। अब कृपा करके हम पर दृष्टि डालिये – न केवल मुझ पर अपितु उन सबों पर जो कष्ट उठा रहे हैं – और अपनी अहैतुकी कृपा तथा दया से हमारा उद्धार तथा हमारा पालन कीजिये।

42-43 हे भगवन, हे समग्र जगत के आदि आध्यात्मिक गुरु, आप ब्रह्माण्ड के कार्यों के प्रबन्धक हैं, अतएव आपकी सेवा में लगे हुए पतितात्माओं का उद्धार करने में आपको कौन सी कठिनाई है? आप सारी दुखियारी मानवता के मित्र हैं और महापुरुषों के लिए मूर्खों पर दया दिखलाना आवश्यक है। अतएव मैं सोचता हूँ कि आप हम जैसे मनुष्यों पर अहैतुकी कृपा प्रदर्शित करेंगे जो आपकी सेवा में लगे हुए हैं। हे श्रेष्ठ महापुरुष, मैं भौतिक जगत से तनिक भी भयभीत नहीं हूँ, क्योंकि मैं जहाँ कहीं भी रहता हूँ, आपके यश तथा कार्यकलाप के विचारों में पूरी तरह लीन रहता हूँ। मैं एकमात्र उन मूर्खों तथा धूर्तों के लिए चिन्तित हूँ जो भौतिक सुख, अपने परिवार, समाज तथा देश के पालन हेतु बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाते हैं। मैं उनके प्रति सहज भाव से प्रेमवश चिन्तित हूँ।

44-45 हे भगवान नृसिंहदेव मैं देख तो रहा हूँ कि सन्त पुरुष तो अनेक हैं, किन्तु वे अपने ही मोक्ष में रुचि रखते हैं। वे बड़े-बड़े नगरों एवं कस्बों की परवाह न करते हुए मौन व्रत धारण करके ध्यान करने के लिए हिमालय या वन में चले जाते हैं; वे दूसरों की मुक्ति में रुचि नहीं रखते किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैं इन बेचारे मूर्खों तथा धूर्तों को छोड़कर अकेले अपनी मुक्ति नहीं चाहता। मैं जानता हूँ कि कृष्णभावनामृत के बिना और आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता। अतएव मैं उन सबों को आपके चरणकमलों की शरण में वापस लाना चाहता हूँ। विषयी जीवन की तुलना खुजली दूर करने हेतु दो हाथों को रगड़ने से की गई है। गृहमेधी अर्थात तथाकथित गृहस्थ जिन्हें कोई आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, सोचते हैं कि यह खुजलाना सर्वोत्कृष्ट सुख है, यद्यपि वास्तव में यह दुख की जड़ है। कृपण जो ब्राह्मणों से सर्वथा विपरीत होते हैं, बारम्बार एन्द्रिय भोग करने पर भी तुष्ट नहीं होते। किन्तु जो धीर हैं और इस खुजलाहट को सह लेते हैं उन्हें मूर्खों तथा धूर्तों जैसे कष्ट नहीं सहने पड़ते।

46-48 हे भगवन, मोक्ष मार्ग के लिए दस विधियाँ निर्दिष्ट हैं – मौन रहना, किसी से बातें न करना, व्रत रखना, सभी प्रकार का वैदिक ज्ञान संचित करना, तपस्या करना, वेदाध्ययन करना, वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों को पूरा करना, शास्त्रों की व्याख्या करना, एकान्त स्थान में रहना, मौन मंत्रोच्चार करना, समाधि में लीन रहना । मोक्ष की ये विभिन्न विधियाँ सामान्यतया उन लोगों के लिए जीविकोपार्जन के साधन हैं जिन्होंने इन्द्रियों को जीता नहीं। चूँकि ऐसे लोग मिथ्या अहंकारी होते हैं अतएव हो सकता है कि ये विधियाँ सफल न भी हों। प्रामाणिक वैदिक ज्ञान द्वारा मनुष्य यह जान सकता है कि विराट जगत में कार्य तथा कारण के रूप – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से ही सम्बन्धित हैं, क्योंकि यह विराट जगत उनकी शक्ति का प्राकट्य तो है। कार्य तथा कारण दोनों ही भगवान की शक्तियों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। अतएव, हे प्रभु, जिस तरह कोई चतुर मनुष्य कार्य-कारण पर विचार करते हुए यह देख सकता है कि अग्नि किस तरह काष्ठ में व्याप्त है उसी तरह भक्ति में लगे हुए व्यक्ति समझ सकते हैं कि आप किस प्रकार से कार्य तथा कारण दोनों ही है । हे परमेश्वर, आप वास्तव में वायु, भूमि, अग्नि, आकाश तथा जल हैं। आप तन्मात्राएँ, प्राणवायु, पाँचों इन्द्रियाँ, मन, चेतना तथा मिथ्या अहंकार हैं। निस्सन्देह, आप स्थूल तथा सूक्ष्म हर वस्तु हैं। भौतिक तत्त्व तथा शब्दों या मन से व्यक्त प्रत्येक वस्तु आपके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

49-50 न तो भौतिक प्रकृति के तीन गुण (सतो, रजो तथा तमो), न इन तीनों गुणों के नियामक अधिष्ठाता देव, न पाँच स्थूल तत्त्व, न मन, न देवता, न मनुष्य ही आपको समझ सकते हैं, क्योंकि ये सभी जन्म तथा संहार के वशीभूत रहते हैं। ऐसा विचार करके आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगत व्यक्ति भक्ति में लगे रहते हैं। ऐसे व्यक्ति वैदिक अध्ययन की परवाह नहीं करते, अपितु वे व्यावहारिक भक्ति में स्वयं को लगाते हैं। अतएव हे श्रेष्ठतम पूज्य भगवन, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि षडअंग भक्ति अर्थात प्रार्थना करना, समस्त कर्मफल आपको (भगवान) समर्पित करना, पूजा करना, आपके निमित्त कर्म करना, आपके चरणकमलों को सदैव स्मरण करना तथा आपके यश का श्रवण करना ऐसी भक्ति किये बिना परमहंस पद को प्राप्त होने वाला लाभ भला कौन प्राप्त कर सकता है?

51 महान ऋषि नारद ने कहा: इस प्रकार अपने भक्त प्रह्लाद महाराज द्वारा दिव्य पद से प्रार्थना किये जाने पर भगवान नृसिंह देव शान्त हो गये। उन्होंने अपना क्रोध त्याग दिया और दण्डवत प्रणाम करने वाले प्रह्लाद पर अत्यधिक दयालु होने के कारण उनसे इस प्रकार बोले।

52-54 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे सौम्य प्रह्लाद, हे असुरोत्तम, तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ। हर जीव की इच्छा पूर्ण करना मेरी लीला है; इसलिए तुम मुझसे कोई मनोवांछित वर माँग सकते हो। हे प्रह्लाद, तुम दीर्घजीवी होओ, मुझे प्रसन्न किये बिना कोई न तो मुझे जान सकता है, न मेरे महत्त्व को समझ सकता है, किन्तु जिसने मेरा दर्शन कर लिया है या मुझे प्रसन्न कर लिया है उसे अपनी तुष्टि के लिए पछताना नहीं पड़ता। हे प्रह्लाद तुम अत्यन्त भाग्यशाली हो। तुम मुझसे यह जान लो कि जो अत्यन्त बुद्धिमान तथा प्रगत हैं, वे सभी विभिन्न भावों द्वारा मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं, क्योंकि मैं ही ऐसा पुरुष हूँ, जो हर एक की सारी इच्छाओं को पूरा कर सकता हूँ।

55 नारद मुनि ने कहा: प्रह्लाद महाराज भौतिक सुख की सदा कामना करनेवाले असुरों के असुरकुल के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यद्यपि भगवान ने उन्हें भौतिक सुख के लिए सभी वरदान दिए थे और वे उन्हें प्रलोभन दे रहे थे, तो भी अपनी अनन्य कृष्णभावनामृत भक्ति के कारण वे इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई भी भौतिक लाभ स्वीकार नहीं करना चाहते थे।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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चित्रकेतु द्वारा स्तुति (6.16)

31-32 परमेश्वर का दर्शन पाते ही महाराज चित्रकेतु के समस्त भौतिक कल्मष धूल गये और वे पूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण अपनी मूल कृष्णचेतना (भक्ति) में स्थित हो गये। वे पूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण शान्त एवं गम्भीर हो गये, ईश्वर के प्रेमवश उनकी आँखों से अश्रु झरने लगे और अन्त में उन्हें रोमांच हो आया। उन्होंने अत्यन्त भक्ति तथा प्रेमपूर्वक आदि भगवान को सादर नमस्कार किया। चित्रकेतु के प्रेमाश्रुओं से भगवान के चरणकमल का आसन (चौकी) बार-बार भीग जाता था। आह्लाद के कारण वाणी अवरुद्ध हो जाने से वे लम्बे अन्तराल तक भगवान की उचित स्तुति में एक भी शब्द का उच्चारण न कर पाये।

33 तत्पश्चात अपनी बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके और अपनी इन्द्रियों को बाह्य विषयों से समेट कर वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द ढूँढ सके। इस प्रकार वे उन भगवान की स्तुति करने लगे जो साक्षात शास्त्रों (ब्रह्म-संहिता तथा नारद-पंचरात्र जैसी सात्वत संहिताओं) के स्वरूप हैं एवं सबों के गुरु हैं। उन्होंने निम्नवत स्तुति की।

34 चित्रकेतु ने कहा: हे अजेय भगवान! यद्यपि आपको कोई जीत नहीं सकता, किन्तु उन भक्तों के द्वारा अवश्य जीत लिए जाते हैं जिनका अपने मन तथा इन्द्रियों पर संयम है। वे आपको इसलिए वश में रख पाते हैं क्योंकि आप उन भक्तों पर अकारण दयालु हैं, जो आपसे किसी प्रकार के लाभ की कामना नहीं करते। निस्सन्देह, आप उन्हें अपने आपको प्रदान कर देते हैं; इसीलिए अपने भक्तों पर आपका भी पूरा नियंत्रण रहता है।

35 हे ईश्वर ! यह दृश्य जगत तथा इसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार--ये सभी आपके ऐश्वर्य हैं। चूँकि ब्रह्मा तथा अन्य कर्ता (निर्माता) आपके अंश के भी क्षुद्र अंश हैं, अतः सृष्टि करने की उनकी आंशिक शक्ति उन्हें ईश्वर नहीं बना सकती। तो भी अपने को पृथक ईश्वर मान बैठने की चेतना उनके अहंकार मात्र की द्योतक है। यह वैध नहीं है।

36 आप इस दृश्य जगत के नन्हें से नन्हें कण-परमाणु से लेकर विराट ब्रह्माण्डों तथा समस्त भौतिक शक्ति तक की प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अन्त में विद्यमान हैं। फिर भी आप नित्य हैं, जिसका न कोई आदि है, न अन्त या मध्य। आप इन तीनों स्थितियों में विद्यमान देखे जाते हैं। इस तरह आप अटल हैं। जब इस दृश्य जगत का अस्तित्व नहीं रहता तो आप आदि शक्ति के रूप में विद्यमान रहते हैं।

37-40 प्रत्येक ब्रह्माण्ड सात आवरणों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सकल भौतिक शक्ति तथा अहंकार--से घिरा है जिनमें से प्रत्येक अपने से पहले वाले से दस गुना बड़ा है। इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त भी असंख्य ब्रह्माण्ड हैं, जो असीम और विशाल हैं और आपमें स्थित परमाणुओं की भाँति चक्कर लगाते रहते हैं। इसलिए आप अनन्त कहलाते हैं। हे भगवन, हे परमेश्वर ! इन्द्रियतृप्ति के भूखे तथा विभिन्न देवताओं की उपासना करने वाले अज्ञानी पुरुष नर-वेश में पशुओं के समान हैं। वे पाशविक वृत्ति के कारण आपकी उपासना न करके नगण्य देवताओं को, जो आपके यश की लघु चिनगारी के समान हैं, पूजते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड के संहार के साथ ये देवता तथा इनसे प्राप्त आशीर्वाद उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार राजा की सत्ता छिन जाने पर राजकीय अधिकारी। हे परमेश्वर! यदि ऐश्वर्य द्वारा इन्द्रियतृप्ति पाने के इच्छुक व्यक्ति भी समस्त ज्ञान के स्रोत तथा भौतिक गुणों से परे आपकी उपासना करते हैं, तो उनका पुनर्जन्म नहीं होता जिस प्रकार भुने बीज से पौधे नहीं उत्पन्न होते। जीवात्माओं को जन्म तथा मृत्यु का चक्र भोगना पड़ता है क्योंकि वे भौतिक प्रकृति द्वारा बद्ध हैं परन्तु आप दिव्य हैं, अतः जो आपसे संगति करता है, वह भौतिक प्रकृति के बन्धन से छूट जाता है। हे अजित! जब आपने भागवत-धर्म कह सुनाया जो आपके चरणकमलों में शरण लेने के लिए अकलुषित धार्मिक प्रणाली थी, तो वह आपकी विजय थी। आत्मतुष्ट (आत्माराम) चतुःसन के समान निष्काम व्यक्ति, भौतिक कल्मष से मुक्त होने के लिए आपकी उपासना करते हैं। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि वे आपके चरणारविन्द की शरण प्राप्त करने के लिए भागवतधर्म को ग्रहण करते हैं।

41 भागवतधर्म को छोड़कर शेष सभी धर्म पारम्परिक विरोधाभासों से पूर्ण हैं और कर्मफल की सकाम विचारधारा 'तू और मैं' तथा 'तेरा और मेरा' जैसे भेदभावों से पूर्ण हैं। श्रीमदभागवत के अनुयायियों में ऐसी चेतना नहीं रहती। वे कृष्णभावनामृत से पूरित रहते हैं और अपने को श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण को अपना मानते हैं। कुछ निम्नकोटि की भी धार्मिक पद्धतियाँ हैं, जो शत्रुओं को मारने या योगशक्ति प्राप्त करने के लिए निर्मित हैं, किन्तु ये काम तथा द्वेष से पूर्ण होने के कारण अशुद्ध एवं नाशवान हैं। द्वेषपूर्ण होने से वे अधर्म से पूर्ण हैं।

42 ऐसा धर्म जिससे अपने तथा परायों में द्वेष उत्पन्न होता है किस प्रकार लाभप्रद हो सकता है? ऐसे धर्म का पालन करने से कौन सा कल्याण हो सकता है? इससे आखिर क्या मिलेगा? आत्म द्वेष के द्वारा अपने आपको तथा अन्यों को कष्ट पहुँचा कर मनुष्य आपके (भगवान के) क्रोध का भाजन होता है और अधर्म करता है।

43-44 हे भगवन! जीवन के महाउद्देश्य से विचलित न होने वाले आपके दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य का वृत्तिपरक धर्म श्रीमदभागवत तथा भगवद्गीता में उपदिष्ट होना है। जो मनुष्य आपके आदेशानुसार इस धर्म का पालन करते हैं, जड़ तथा चेतन समस्त जीवात्माओं को समान मानते हैं और किसी को उच्च तथा निम्न नहीं मानते हैं, वे आर्य कहलाते हैं। ऐसे आर्य आपकी अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की उपासना करते हैं। हे भगवन! आपके दर्शनमात्र से किसी के लिए भी समस्त भौतिक कल्मषों से तुरन्त मुक्त हो जाना असम्भव नहीं है। आपको प्रत्यक्ष देखने की बात तो एक ओर रही; आपके पवित्र नाम को एक बार सुन लेने से ही चाण्डाल तक समस्त भौतिक कल्मष से विमुक्त हो जाते हैं। ऐसी दशा में आपके दर्शनमात्र से ऐसा कौन है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त नहीं हो पायेगा?

45-48 अतः हे भगवन! आपके दर्शन मात्र ने मेरे समस्त पापकर्मों के कल्मष एवं भौतिक आसक्ति तथा कामासक्त विषयों के फल, जिनसे मेरा मन तथा अन्तःस्थल पूरित था, सदा-सर्वदा के लिए धो दिये हैं। जो कुछ नारद मुनि ने भविष्यवाणी की है, वह अन्यथा नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, नारद मुनि के द्वारा शिक्षित किए जाने के कारण ही मुझे आपका सान्निध्य प्राप्त हो सका है। हे अनन्त भगवान! इस भौतिक जगत में जीवात्मा जो भी करता है, वह आपको भली-भाँति विदित रहता है क्योंकि आप परमात्मा हैं। सूर्य की उपस्थिति में जुगनुओं के प्रकाश से कुछ भी उद्दीप्त नहीं होता? इसी प्रकार, चूँकि आप सब कुछ जानने वाले हैं, अतः आपकी उपस्थिति में मेरे बताने के लिए कुछ भी नहीं है। हे भगवान! आप ही इस दृश्य जगत के सृष्टा, पालक तथा संहारक हैं, किन्तु घोर संसारी तथा भेदवादी जनों के पास वे नेत्र ही नहीं होते जिनसे वे आपको देख सकें। वे आपकी वास्तविक स्थिति को न समझ पाने के कारण इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि यह दृश्य जगत आपके ऐश्वर्य से स्वतंत्र है। हे भगवान! आप परम विशुद्ध हैं और सभी छहों ऐश्वर्यों से ओतप्रोत हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवान! आपकी चेष्टा से ही भगवान ब्रह्मा, इन्द्र तथा दृश्य जगत के अन्य अधीक्षक अपने अपने कार्यों में निरत हो जाते हैं। हे ईश्वर! आपके द्वारा भौतिक शक्ति को देखे जाने पर ही इन्द्रियाँ देख पाती हैं। अनन्त भगवान समस्त ब्रह्माण्डों को अपने सर पर सरसों के बीजों के समान धारण किये रहते हैं। हे सहस्र-फण वाले परम पुरुष! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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दक्ष द्वारा स्तुति (6.4)

23-25 प्रजापति दक्ष ने कहा: भगवान माया तथा उससे उत्पन्न शारीरिक कोटियों से परे हैं। उनमें अचूक ज्ञान तथा परम इच्छा शक्ति रहती है और वे जीवों तथा माया के नियन्ता हैं। जिन बद्धात्माओं ने इस भौतिक जगत को सर्वस्व समझ रखा है वे उन्हें नहीं देख सकते, क्योंकि वे व्यावहारिक ज्ञान के प्रमाण से परे हैं। वे स्वतः प्रकट तथा आत्म-तुष्ट हैं। वे किसी कारण द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ। जिस तरह इन्द्रियविषय (रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा ध्वनि) यह नहीं समझ सकते कि इन्द्रियाँ उनकी अनुभूति किस तरह करती हैं, उसी तरह बद्ध-आत्मा यद्यपि अपने शरीर में परमात्मा के साथ-साथ निवास करता है, यह नहीं समझ सकता कि भौतिक सृष्टि के स्वामी परम आध्यात्मिक पुरुष किस तरह उसकी इन्द्रियों को निर्देश देते हैं। मैं उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो परम नियन्ता हैं। केवल पदार्थ होने के कारण शरीर, प्राणवायु, बाह्य तथा आन्तरिक इन्द्रियाँ, पाँच स्थूल तत्त्व, तथा सूक्ष्म इन्द्रियविषय (रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा ध्वनि) अपने स्वभाव को, अन्य इन्द्रियों के स्वभाव को या उनके नियन्ताओं के स्वभाव को नहीं जान पाते हैं। किन्तु जीव अपने आध्यात्मिक स्वभाव के कारण अपने शरीर, प्राणवायु, इन्द्रियों, तत्त्वों तथा इन्द्रियविषयों को जान सकता है और वह तीन गुणों को भी, जो उनके मूल में होते हैं, जान सकता है। इतने पर भी, यद्यपि जीव उनसे पूर्णतया भिज्ञ होता है, किन्तु वह परम पुरुष को, जो सर्वज्ञ तथा असीम है, देख पाने में अक्षम रहता है। इसलिए मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

26-28 जब मनुष्य की चेतना स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक जगत के कल्मष से पूरी तरह शुद्ध हो जाती है और कार्य करने तथा स्वप्न देखने की अवस्थाओं से विचलित नहीं होती तथा जब मन सुषुप्ति अर्थात गहरी नींद में लीन नहीं होता तो वह समाधि के पद को प्राप्त होता है। तब उसकी भौतिक दृष्टि तथा मन की स्मृतियाँ, जो नामों तथा रूपों को प्रकट करती हैं, विनष्ट हो जाती हैं। केवल ऐसी ही समाधि में भगवान प्रकट होते हैं। अतः हम उन भगवान को नमस्कार करते हैं, जो उस अकलुषित दिव्य अवस्था में देखे जाते हैं। जिस तरह कर्मकाण्ड तथा यज्ञ करने में निपुण प्रकाण्ड विद्वान ब्राह्मण पन्द्रह सामिधेनी मंत्रों का उच्चारण करके काष्ठ के भीतर सुप्त अग्नि को बाहर निकाल सकते हैं और इस तरह वैदिक मंत्रों की दक्षता को सिद्ध करते हैं, उसी तरह जो लोग कृष्णभावनामृत में वस्तुतः बड़े-चढ़े होते हैं – दूसरे शब्दों में, जो कृष्णभावनाभावित होते हैं – वे परमात्मा को ढूँढ सकते हैं, जो अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा हृदय के भीतर स्थित रहते हैं। हृदय प्रकृति के तीनों गुणों से तथा नौ भौतिक तत्त्वों (प्रकृति, कुल भौतिक शक्ति, अहंकार, मन तथा इन्द्रिय तृप्ति के पाँचों विषय) एवं पाँच भौतिक तत्त्वों तथा दस इन्द्रियों द्वारा आच्छादित रहता है। ये सत्ताईस तत्त्व मिलकर भगवान की बहिरंगा शक्ति का निर्माण करते हैं। बड़े बड़े योगी भगवान का ध्यान करते हैं, जो परमात्मा रूप में हृदय के भीतर स्थित हैं। वह परमात्मा मुझ पर प्रसन्न हों। जब कोई भौतिक जीवन की असंख्य विविधताओं से मुक्ति के लिए उत्सुक होता है, तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है। वस्तुतः उसे ऐसी मुक्ति तब मिलती है जब वह भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है और अपनी सेवा प्रवृत्ति के कारण भगवान का साक्षात्कार करता है। भगवान को उन अनेक आध्यात्मिक नामों से सम्बोधित किया जा सकता है, जो भौतिक इन्द्रियों के लिए अकल्पनीय हैं। वे भगवान मुझ पर कब प्रसन्न होंगे?

29-30 भौतिक ध्वनियों द्वारा व्यक्त, भौतिक बुद्धि द्वारा सुनिश्चित तथा भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभव की गई अथवा भौतिक मन के भीतर गढ़ी गई कोई भी वस्तु भौतिक प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होती, इसलिए भगवान के वास्तविक स्वभाव से उसका किसी तरह का सम्बन्ध नहीं होता। परमेश्वर इस भौतिक जगत की सृष्टि के परे हैं, क्योंकि वे भौतिक गुणों तथा सृष्टि के स्रोत हैं। सभी कारणों के कारण होते हुए, वे सृष्टि के पूर्व तथा सृष्टि के पश्चात विद्यमान रहते हैं। मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ। परब्रह्म कृष्ण प्रत्येक वस्तु के परम आश्रय तथा उद्गम हैं। हर कार्य उन्हीं के द्वारा किया जाता है, हर वस्तु उन्हीं की है और हर वस्तु उन्हीं को अर्पित की जाती है। वे ही परम लक्ष्य हैं और चाहे वे स्वयं कार्य करते हों या अन्यों से कराते हों, वे परम कर्ता हैं। वैसे उच्च तथा निम्न अनेक कारण हैं, किन्तु समस्त कारणों के कारण होने से वे परब्रह्म कहलाते हैं, जो समस्त कार्यकलापों के पहले से विद्यमान थे। वे अद्वितीय हैं और उनका कोई अन्य कारण नहीं है। मैं उनको सादर प्रणाम करता हूँ।

31 मैं उन सर्वव्यापक भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो अनन्त दिव्य गुणों से युक्त हैं। वे विभिन्न मतों का प्रसार करने वाले समस्त दर्शनिकों के हृदय के भीतर से कार्य करते हुए उनसे उनकी ही आत्मा को बुलवाते हैं, कभी उनमें परस्पर मतैक्य कराते हैं, तो कभी मत भिन्नता कराते हैं। इस तरह वे इस भौतिक जगत में ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसमें वे किसी भी दार्शनिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

32-33 संसार में दो वर्ग हैं---आस्तिक तथा नास्तिक । परमात्मा को मानने वाला आस्तिक सम्पूर्ण योग में आध्यात्मिक कारण को पाता है। किन्तु भौतिक तत्त्वों का मात्र विश्लेषण करने वाला सांख्यधर्मी निर्विशेषवाद के निष्कर्ष को प्राप्त होता है और परम कारण को, चाहे वह भगवान हो, परमात्मा हो या ब्रह्म ही क्यों न हो, स्वीकार नहीं करता। उल्टे, वह भौतिक प्रकृति के व्यर्थ बाह्य कार्यों में व्यस्त रहता है। किन्तु अन्ततोगत्वा दोनों वर्ग एक परम सत्य की स्थापना करते हैं, क्योंकि विरोधी कथन करते हुए भी उनका लक्ष्य एक ही परम कारण होता है। वे दोनों ही जिस एक परब्रह्म के पास पहुँचते हैं उन्हें मैं सादर नमस्कार करता हूँ। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो कि अचिन्त्य रूप से ऐश्वर्यवान हैं, जो सारे भौतिक नामों, रूपों तथा लीलाओं से रहित हैं तथा जो सर्वव्यापक हैं, उन भक्तों पर विशेष रूप से कृपालु रहते हैं, जो उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं। इस तरह वे विभिन्न लीलाओं सहित दिव्य रूपों तथा नामों को प्रकट करते हैं। ऐसे भगवान, जो सच्चिदानन्द विग्रह हैं, मुझ पर कृपालु हों।

34 जिस तरह वायु भौतिक तत्त्वों के विविध गुण यथा फूल की गन्ध या वायु में धूल के मिश्रण से उत्पन्न विभिन्न रंग अपने साथ ले जाती है, उसी तरह भगवान मनुष्य की इच्छाओं के अनुसार पूजा की निम्नतर प्रणालियों के माध्यम से प्रकट होते हैं, यद्यपि वे देवताओं के रूप में प्रकट होते हैं, अपने आदि रूप में नहीं। तो इन अन्य रूपों का क्या लाभ है? ऐसे आदि भगवान मेरी इच्छाएँ परिपूर्ण करें।

35-39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक स्नेहिल भगवान हरि, दक्ष द्वारा की गई स्तुतियों से अत्यधिक प्रसन्न हुए, अतः वे अघमर्षण नामक पवित्र स्थान पर प्रकट हुए। हे श्रेष्ठ कुरुवंशी महाराज परीक्षित! भगवान के चरणकमल उनके वाहन गरुड़ के कंधों पर रखे थे और वे अपनी आठ लम्बी बलिष्ठ अतीव सुन्दर भुजाओं सहित प्रकट हुए। अपने हाथों में वे चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, रस्सी तथा गदा धारण किये थे – प्रत्येक हाथ में अलग-अलग हथियार थे और सब के सब चमचमा रहे थे। उनके वस्त्र पीले थे और उनके शरीर का रंग गहरा नीला था। उनकी आँखें तथा मुख अतीव मनोहर थे और उनके गले से लेकर पाँवों तक फूलों की लम्बी माला लटक रही थी। उनका वक्षस्थल कौस्तुभ मणि तथा श्रीवत्स चिन्ह से सुशोभित था। उनके सिर पर विशाल गोल मुकुट था और उनके कान मछलियों के सदृश कुण्डलों से सुशोभित थे। ये सारे आभूषण असाधारण रूप से सुन्दर थे। भगवान अपनी कमर में सोने की पेटी, बाहों में बीजावट, अँगुलियों में अँगूठियाँ तथा पाँवों में पायल पहने थे। इस तरह विविध आभूषणों से सुशोभित भगवान हरि, जो तीनों लोकों के जीवों को आकर्षित करने वाले हैं, पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उनके साथ नारद, नन्द जैसे महान भक्त तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र इत्यादि प्रमुख देवता एवं उच्चतर लोकों यथा सिद्धलोक, गन्धर्वलोक तथा चारणलोक के निवासी थे। भगवान के दोनों ओर तथा उनके पीछे भी स्थित ये भक्त निरन्तर उनकी स्तुतियाँ कर रहे थे।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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हनुमानजी द्वारा स्तुति (5.19)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले – हे राजन, किम्पुरुषवर्ष में महान भक्त हनुमान वहाँ के निवासियों सहित लक्ष्मण के अग्रज तथा सीतादेवी के पति भगवान रामचन्द्र की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं।

2-3 गन्धर्वों का समूह सदा ही भगवान रामचन्द्र के यशों का गान करता है। ऐसा गायन अत्यन्त मंगलकारी होता है। हनुमानजी तथा किम्पुरुषवर्ष के प्रधान पुरुष आर्ष्टिषेण अत्यन्त मनोयोग से इस यशोगान का निरन्तर श्रवण करते हैं। हनुमानजी निम्न मंत्रों का जप करते हैं । हे प्रभो, मैं ॐकार बीजमंत्र के जप से आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। मैं उन श्रीभगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो उत्तम पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप आर्यजनों के समस्त उत्तम गुणों के भण्डार हैं। आपके गुण तथा आचरण सदैव एक समान रहने वाले हैं और आप अपनी इन्द्रियों तथा मन को सदैव अपने वश में रखने वाले हैं। सामान्य व्यक्ति की भाँति आप आदर्श चरित्र प्रस्तुत करके अन्यों को आचरण करना सिखाते हैं। कसौटी केवल स्वर्ण के गुण की परीक्षा करने में समर्थ है, किन्तु आप ऐसे स्पर्श-मणि हैं, जिससे समस्त उत्तम गुणों की परीक्षा हो जाती है। आप भक्तों में अग्रणी ब्राह्मणों के द्वारा उपासित हैं। हे परम पुरुष, आप महाराजा हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

4 भगवान को, जिनका विशुद्ध रूप (सच्चिदानन्दविग्रह) भौतिक गुणों के द्वारा दूषित नहीं है, विशुद्ध चेतना के द्वारा ही देखा जा सकता है। वेदान्त में उसे अद्वितीय कहा गया है। अपने तेजवश वह भौतिक प्रकृति के कल्मष से अछूता है और दृष्टि से परे है, अतः वह अप्रभावित और दिव्य है। न तो वह कोई कर्म करता है, न उसका कोई भौतिक रूप अथवा नाम है। केवल श्रीकृष्णभावना में ही भगवान के दिव्य रूप के दर्शन किये जा सकते हैं। हमें चाहिए कि हम भगवान रामचन्द्र के चरणकमलों में दृढ़तापूर्वक स्थित होकर उनको सादर नमन करें।

5 राक्षसों के नायक रावण को यह वर प्राप्त था कि उसका वध मनुष्य ही कर सकता है, इसलिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र को मनुष्य रूप धारण करना पड़ा, किन्तु उनका उद्देश्य मात्र रावण का वध करना ही नहीं था। वे तो मर्त्य-प्राणियों को यह शिक्षा देना चाहते थे कि भोग विलास अथवा पत्नी के चारों ओर केन्द्रित भौतिक सुख समस्त दुखों का कारण है। वे स्वयं में पूर्ण हैं और उन्हें किसी भी प्रकार का पश्चाताप नहीं है। अतः भला वे माता सीता के अपहरण का क्या कष्ट भोगते?

6 चूँकि भगवान रामचन्द्र पूर्ण पुरषोत्तम भगवान वासुदेव हैं अतः वे इस भौतिक जगत से किसी प्रकार लिप्त नहीं है। वे सभी स्वरूपसिद्ध आत्माओं के परम प्रिय परमात्मा और उनके घनिष्ठ मित्र हैं। वे परम ऐश्वर्यवान हैं। अतः पत्नी-विछोह के कारण उन्होंने न तो अधिक कष्ट उठाये होंगे, न ही उन्होंने अपनी पत्नी तथा अपने लघु भ्राता लक्ष्मण का परित्याग किया। उनके लिए इन दोनों में किसी एक का भी परित्याग सर्वथा असम्भव था।

7-8 उच्चकुल में जन्म धारण करने, शारीरिक सौन्दर्य, वाकचातुरी, तीक्ष्ण बुद्धि या श्रेष्ठ जाति अथवा राष्ट्र जैसे भौतिक गुणों के कारण कोई चाह कर भी भगवान रामचन्द्र से मैत्री स्थापित नहीं कर सकता। उनसे मित्रता स्थापित करने के लिए इन गुणों की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा भला हम असभ्य वनवासियों को, बिना उच्च कुल में जन्म लिये तथा रूप-रंग न होते हुए और भद्र पुरुषों की भाँति बात कर सकने में सक्षम न होने पर भी अपने मित्रों के रूप में क्यों स्वीकार करते? अतः चाहे सुर हो या असुर, मनुष्य हो या मनुष्येतर प्राणी जैसे पशु या पक्षी, प्रत्येक को उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र की पूजा करनी चाहिए जो इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में प्रकट होते हैं। भगवान की पूजा के लिए किसी कठोर तप या साधना की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अपने भक्त की तुच्छ सेवा को भी स्वीकार करने वाले हैं। इस प्रकार से वे तुष्ट हो जाते हैं और उनके तुष्ट होते ही भक्त सफल हो जाता है। निस्सन्देह, श्रीरामचन्द्र अयोध्या के समस्त भक्तों को वैकुण्ठ धाम वापस ले गये।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – श्रीभगवान की महिमा अकल्पनीय है। उन्होंने अपने भक्तों पर अनुग्रहवश उन्हें धर्म, ज्ञान, त्याग, अध्यात्म, इन्द्रिय-निग्रह तथा अहंकार से मुक्ति की शिक्षा प्रदान करने के लिए भारतवर्ष की भूमि में बदरिकाश्रम नामक स्थान पर स्वयं को नर-नारायण रूप में प्रकट किया है। वे आत्मज्ञान की सम्पदा से परिपूर्ण हैं और कल्पान्त तक तप में रत रहने वाले हैं। यही आत्म-साक्षात्कार की क्रिया है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा स्तुति (5.18)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- धर्मराज के पुत्र भद्रश्रवा भद्राश्ववर्ष नामक भूखण्ड में राज्य करते हैं। जिस प्रकार इलावृतवर्ष में भगवान शिव संकर्षण की पूजा करते हैं उसी प्रकार भद्रश्रवा अपने सेवकों तथा राज्य के समस्त वासियों समेत वासुदेव के स्वांश हयशीर्ष की पूजा करते हैं। हयशीर्ष भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं और वे समस्त धार्मिक विधानों के निदेशक हैं। गहन समाधि में स्थित भद्रश्रवा तथा उनके सेवक भगवान को सादर नमस्कार करते हैं और सावधानीपूर्वक उच्चारण करते हुए निम्नलिखित स्तुतियों का कीर्तन करते हैं। राजा भद्रश्रवा तथा उनके घनिष्ठ सेवक इस प्रकार स्तुति करते हैं – इस भौतिक जगत में बद्धजीव के चित्त को शुद्ध करने वाले, समस्त धार्मिक विधानों के आगार भगवान को हमारा नमस्कार है। हम उन्हें बारम्बार सादर नमस्कार करते हैं।

3 अहो! कितने आश्चर्य की बात है कि मूर्ख संसारी अपने सिर पर नाचती मृत्यु की ओर भी ध्यान नहीं देता। यह जानते हुए भी कि मृत्यु अटल है, वह उसके प्रति उदासीन एवं लापरवाह रहता है। चाहे उसके पिता की मृत्यु हो, अथवा पुत्र की मृत्यु क्यों न हो वह उसकी सम्पत्ति का उपभोग करना चाहता है। प्रत्येक दशा में वह अर्जित धन से किसी की परवाह किये बिना सांसारिक सुख का उपभोग करने का प्रयत्न करता है।

4 हे अजन्मा, आत्मज्ञान में समुन्नत वेदविद अन्य तार्किकों तथा दर्शनिकों की तरह यह भलीभाँति जानते हैं कि यह भौतिक जगत नश्वर है। वे समाधि की दशा में इस जगत की वास्तविक स्थिति का अनुभव करते हैं। वे सत्य का भी उपदेश देते हैं। किन्तु कभी-कभी वे भी आपकी माया से मोहित हो जाते हैं। यह आपकी अपनी ही विचित्र लीला है, अतः मैं समझ सकता हूँ कि आपकी माया अत्यन्त विचित्र है। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

5 हे भगवन, यद्यपि आप इस भौतिक जगत की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय से सर्वथा विरत हैं और इन कार्यों से आप प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होते, तो भी वे आपके द्वारा किये गए माने जाते हैं। हमें इस पर विस्मय नहीं होता, क्योंकि सर्वात्मरूप होने से आप समस्त कारणों के कारण हैं। आप प्रत्येक वस्तु से विलग रहते हुए भी प्रत्येक वस्तु के सक्रिय तत्त्व हैं। इस प्रकार हम अनुभव करते हैं कि आपकी अचिन्त्य शक्ति के कारण ही प्रत्येक घटना घटती है।

6-9 कल्प के अन्त में साक्षात अज्ञान एक दैत्य का रूप धारण कर सभी वेदों को चुराकर उन्हें रसातल ले गया। किन्तु श्रीभगवान ने हयग्रीव का रूप धारण करके वेदों को पुनः प्राप्त किया और ब्रह्माजी के विनय करने पर उन्हें लाकर दे दिया। हे सत्यसंकल्प पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं – हे राजन, भगवान नृसिंह हरिवर्ष नामक भूभाग में वास करते हैं। मैं श्रीमदभागवत के सप्तम स्कन्ध में आपको बताऊँगा कि प्रह्लाद महाराज ने किस प्रकार श्रीभगवान को नृसिंह देव रूप धारण करने के लिए बाध्य किया। प्रह्लाद महाराज भगवद-भक्तों में शिरोमणि हैं और महापुरुषों के अनुरूप समस्त उत्तम गुणों के आगार हैं। उनके चरित्र और कर्म से उनके दैत्य वंश के समस्त पतित जनों का उद्धार हुआ है। उन्हें भगवान नृसिंह देव परम प्रिय हैं। इस प्रकार प्रह्लाद महाराज अपने समस्त सेवकों तथा हरिवर्ष के समस्त वासियों सहित भगवान नृसिंह देव की पूजा निम्नलिखित मंत्रोच्चार द्वारा करते हैं। समस्त तेज के स्रोत भगवान नृसिंहदेव, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे वज्र के समान नख तथा दाँतों वाले प्रभु! आप इस भौतिक जगत में हमारी आसुरी सकाम कर्म-वासनाओं को मिटा दें। हमारे हृदय में प्रकट होकर हमारे अज्ञान को भगा दें, जिससे इस भौतिक जगत में हम निडर होकर जीवन के लिए संघर्ष कर सकें। इस सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो और सभी ईर्ष्यालु व्यक्ति शान्त हों, सभी जीवात्माएँ भक्तियोग का अभ्यास करके प्रशान्त हों, क्योंकि भक्ति करने पर वे एक दूसरे का कल्याण-चिन्तन कर सकेंगे। अतः हम सभी भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्ति में लगकर उन्हीं के विचार में मग्न रहें।

10-11 हे भगवन, हमारी प्रार्थना है कि हम पारिवारिक जीवन के बन्धन जिसमें घर, स्त्री, सन्तान, मित्र, धन तथा सम्बन्धीजन इत्यादि सम्मिलित हैं, इसके प्रति कभी भी आकृष्ट न हों। यदि हम में किसी से किंचित आसक्ति हो भी तो वह भक्तों से हो जिनके लिए श्रीकृष्ण ही परम प्रिय हैं। जिस व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार हो चुका है और जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं से तुष्ट रहता है। वह अपनी इन्द्रियतुष्टि का प्रयास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति जल्दी ही कृष्ण – भावनामृत की ओर अग्रसर होता है, किन्तु जो भौतिक वस्तुओं में अत्यधिक लिप्त रहते हैं, उनके लिए ऐसा कर पाना कठिन है। ऐसे व्यक्तियों की संगति करने से, जिनके लिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान मुकुन्द ही सब कुछ हैं, भगवान के यशस्वी कार्यों को सुनकर शीघ्र ही समझा जा सकता है। मुकुन्द के यशस्वी कार्य इतने सक्षम हैं कि इनको सुनकर ही भगवान की संगति प्राप्त की जा सकती है। निरन्तर उत्सुकतापूर्वक भगवान के यशस्वी कार्यों का वर्णन सुनते रहने से परम सत्य श्रीभगवान ध्वनि तरंगों के रूप में हृदय में प्रवेश करते हैं और समस्त कल्मष को दूर कर देते हैं। दूसरी ओर यद्यपि गंगास्नान से मल तथा संदूषण घटते हैं, किन्तु स्नान तथा पवित्र स्थानों के दर्शन से दीर्घकाल के अनन्तर ही हृदय स्वच्छ हो पाता है। अतः कौन ऐसा विज्ञपुरुष होगा जो जीवन की सिद्धि के लिए भक्तों की संगति नहीं करना चाहेगा?

12-13 जो व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव के प्रति शुद्ध भक्ति उत्पन्न कर लेता है उसके शरीर में सभी देवता तथा उनके महान गुण यथा धर्म, ज्ञान तथा त्याग प्रकट होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति भक्ति से रहित है और भौतिक कर्मों में व्यस्त रहता है उसमें कोई सद्गुण नहीं आते। भले ही कोई व्यक्ति योगाभ्यास में दक्ष क्यों न हो और अपने परिवार और सम्बन्धियों का भलीभाँति भरण-पोषण करता हो वह अपनी मनोकल्पना द्वारा भगवान की बहिरंगा-शक्ति की सेवा में तत्पर होता है। भला ऐसे पुरुष में सद्गुण कैसे आ सकते हैं? जिस प्रकार जलचर प्राणी सदैव विशाल जलराशि में रहना चाहते हैं उसी प्रकार समस्त बद्धात्माएँ श्रीभगवान के अपार अस्तित्त्व में रहने की कामना करती हैं। अतः यदि भौतिक गणना के आधार पर माना गया कोई श्रेष्ठ पुरुष किन्हीं कारणों से परमात्मा की शरण न ग्रहण कर गृहस्थ जीवन में लिप्त हो जाता है, तो उसकी श्रेष्ठता निम्न श्रेणी के तरुण दम्पत्ति जैसी होती है। भौतिक जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्ति से समस्त आध्यात्मिक गुणों का लोप हो जाता है।

14-15 अतः, हे असुरगण, गृहस्थ जीवन के तथाकथित सुख का परित्याग करके भगवान नृसिंह देव के चरणारविन्दों की शरण ग्रहण करो। वे ही निर्भीकता की वास्तविक शरण-स्थली हैं। सांसारिक अनुरक्ति, दुर्दमनीय कामनाएँ, विषाद, क्रोध, निराशा, भय, झूठी प्रतिष्ठा की भूख इन सबका मूल कारण गृहस्थ जीवन में आसक्ति है, जिसके कारण जीवन-मरण का चक्र चलता रहता है। श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – केतुमालवर्ष नामक भूभाग में भगवान विष्णु अपने भक्तों के सन्तोष के लिए ही कामदेव के रूप में रहते हैं। इन भक्तों में लक्ष्मीजी, प्रजापति संवत्सर तथा संवत्सर के समस्त पुत्र तथा पुत्रियाँ सम्मिलित है। प्रजापति की पुत्रियाँ रात्रि की तथा उनके पुत्र दिन के नियामक देवता माने जाते हैं। प्रजापति की सन्तानों की संख्या 36000 है जो मनुष्य के जीवन काल के प्रत्येक दिन तथा रात की संख्या के तुल्य है। प्रत्येक वर्ष के अन्त में प्रजापति की पुत्रियाँ श्रीभगवान के चक्र को देखकर अत्यन्त उद्वेलित हो उठती हैं जिससे उन सबों का गर्भपात हो जाता है।

16-17 केतुमालवर्ष में भगवान कामदेव (प्रद्युम्न) अत्यन्त लालित्य पूर्ण चाल से चलते हैं। उनकी मन्द मुसकान मनोहर है और जब वे अपनी भृकुटियों को किंचित ऊपर उठाकर लीलापूर्वक देखते हैं, तो उनके मुख की सुन्दरता बढ़ जाती है और वे लक्ष्मीजी को आनन्दित करते हैं। इस प्रकार वे अपनी दिव्य इन्द्रियों का आनन्द लेते हैं। लक्ष्मीजी संवत्सर की अवधि में दिन के समय प्रजापति के पुत्रों के साथ और रात्रि में उनकी पुत्रियों के साथ मिलकर परम दयालु कामदेव के रूप में भगवान की पूजा करती हैं। भक्ति में तल्लीन रहकर लक्ष्मीजी निम्नलिखित मंत्रों का जप करती हैं।

18 समस्त इन्द्रियों एवं वस्तुओं की उत्पत्ति के नियन्ता तथा स्तोत्र भगवान हृषीकेश को मेरा नमस्कार है। आप समस्त दैहिक, मानसिक तथा बौद्धिक कर्मों के अधीश्वर और उनके फलों के एकमात्र भोक्ता हैं। समस्त सोलह – (दस इन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियविषय तथा मन) – आपकी ही आंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं।  आप प्रत्येक व्यक्ति जो आपसे अभिन्न है, की दैहिक और मानसिक शक्ति के कारण रूप हैं और शक्तिस्वरूप होने के कारण उनकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले हैं। समस्त वेदों का ध्येय आपकी उपासना है। अतः हम सभी आपको सविनय नमस्कार करते हैं। वे प्रभु! इस जन्म में तथा अगले जन्म में सदा हमारे अनुकूल रहें।

19-20 हे प्रभो, आप निश्चित रूप से समस्त इन्द्रियों के पूर्ण रूप से स्वतंत्र स्वामी हैं। अतः समस्त स्त्रियाँ जो अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए पति को पाने की कामना से संकल्पों का दृढ़पालन करके आपकी उपासना करती हैं, वे अवश्य ही मोहग्रस्त हैं। वे यह नहीं जानती कि ऐसा पति न तो उनकी और न ही उनकी सन्तानों की रक्षा कर सकता है। वह स्वयं ही काल, कर्मफल तथा प्रकृति-गुणों के अधीन है जो सब आपके अधीनस्थ हैं, अतः वह न तो सम्पत्ति की रक्षा कर सकता है और न अपनी सन्तानों की। जो स्वयं निर्भय है तथा जो सभी भयभीत व्यक्तियों को शरण प्रदान करता है, केवल वही वास्तव में पति तथा रक्षक हो सकता है। अतः, हे प्रभो, आप ही एकमात्र पति हैं, कोई अन्य इस पद का भागी नहीं हो सकता। यदि आप एकमात्र पति न होते तो आप भी अन्यों से डरते। अतः वेदों के पारंगत व्यक्ति आपको ही प्रत्येक का स्वामी स्वीकार करते हैं और यह मानते हैं कि आपसे बढ़कर कोई अन्य पति एवं रक्षक नहीं है।

21-25    हे भगवन, जो स्त्री आपके चरणकमल की आराधना विशुद्ध प्रेमवश करती है, आप उसकी समस्त कामनाओं को पूरा करते हैं। यदि कोई स्त्री आपके चरणकमलों की पूजा किसी विशेष प्रयोजन के लिए करती हैं, तो भी आप उसकी कामनाओं को शीघ्र पूरा करते हैं, किन्तु अन्ततः वह टूटे हुए मन से पश्चाताप करती है। अतः किसी भौतिक लाभ के लिए आपके चरणकमलों की आराधना नहीं की जानी चाहिए।   हे अजेय परमेश्वर, मेरा आशीर्वाद पाने के लिए इन्द्रियसुख के अभिलाषी ब्रह्माजी तथा शिवजी आदि समस्त सुर-असुरगण घोर तपस्या करते हैं, किन्तु आपके चरणारविन्द की सेवा में संलग्न भक्त के अतिरिक्त अन्य पर मैं अनुग्रह नहीं करती चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो। चूँकि मैं निरन्तर आपको अपने हृदय में बसाये रहती हूँ इसलिए मैं भक्त के अतिरिक्त अन्य किसी पर अनुग्रह नहीं करती। हे अच्युत, आपका कर-कमल सभी वरदानों का स्रोत है। आप अत्यन्त दयापूर्वक शुद्ध भक्तों के सिरों पर अपना हाथ रखते हैं, मेरी भी यही कामना है कि आप मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखें, यद्यपि आप पहले से ही अपने वक्षस्थल पर श्रीलक्ष्मीरूप में मुझे धारण करते हैं, किन्तु इस सम्मान को मैं मिथ्या प्रतिष्ठा की तरह मानती हूँ। आप अपनी वास्तविक दया भक्तों पर ही दिखाते हैं, मुझ पर नहीं। निस्सन्देह, आप सर्वसमर्थ नियन्ता हैं, आपके प्रयोजन को भला कौन समझ सकता है? श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं – रम्यकवर्ष में पिछले मन्वन्तर (चाक्षुष) के अन्त में श्रीभगवान मत्स्य रूप में प्रकट हुए, जहाँ के अधिपति वैवस्वत मनु हैं। वे आज भी मत्स्य भगवान की शुद्ध भक्ति करते हैं और निम्नलिखित मंत्र का जप करते हैं। मैं सत्त्व स्वरूप श्रीभगवान को नमस्कार करता हूँ। वे प्राण, शारीरिक शक्ति, बौद्धिक शक्ति तथा ज्ञानेन्द्रिय शक्ति के मूल स्रोत हैं। समस्त अवतारों में प्रकट होने वाले वे महामत्स्यावतार हैं। मैं पुनः उनको नमस्कार करता हूँ।

26-28 हे ईश्वर, जिस प्रकार एक नट कठपुतलियों को तथा पति अपनी पत्नी को वश में रखता है, उसी प्रकार आप इस ब्रह्माण्ड की समस्त जीवात्माओं को, चाहे वे ब्राह्मण हों या क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र, अपने वश में रखने वाले हैं। यद्यपि आप जन-जन के हृदयों के भीतर परम साक्षी के रूप में और उनके बाहर भी निवास करते हैं, किन्तु समाज, जाति तथा देश के तथाकथित नेता आपको समझ नहीं पाते। केवल वैदिक मंत्रों की स्वरलहरियों को सुनने वाले आपको जान पाते हैं। हे ईश्वर, इस ब्रह्माण्ड के बड़े से बड़े नेता, यथा ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं से लेकर इस संसार के राजनीतिक नेताओं तक, सभी आपकी सत्ता के प्रति ईर्ष्यालु हैं। किन्तु आपकी सहायता के बिना वे न तो पृथक-पृथक, न ही सम्मिलित रूप से इस ब्रह्माण्ड के असंख्य जीवों का पालन कर सकते हैं। आप समस्त मनुष्यों, पशुओं यथा-गाय तथा समस्त वनस्पतियों, रेंगने वाले जीवों, पक्षियों, पर्वतों तथा इस संसार में जो भी दिखाई पड़ता है उसके एकमात्र वास्तविक पालक हैं। हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, कल्पान्त में यह पृथ्वी, जो सभी प्रकार की जड़ी बूटियों तथा वृक्षों की आगार है, जल की बाढ़ से प्रलयकारी तरंगों के नीचे डूब गई। उस समय आपने पृथ्वी सहित मेरी रक्षा की और अत्यन्त वेग से आप समुद्र में भ्रमण करते रहे। हे अजन्मा, आप इस समग्र सृष्टि के वास्तविक पालनकर्ता हैं, इसलिए आप ही सभी जीवात्माओं के कारणस्वरूप हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

29-32 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – हिरण्यमयवर्ष में भगवान विष्णु कच्छप रूप में निवास करते हैं। इस परम प्रिय एवं सुन्दर रूप की आराधना हिरण्यमयवर्ष के प्रमुख निवासी अर्यमा तथा उस वर्ष के अन्य वासियों द्वारा सदैव की जाती है। वे निम्नलिखित स्तुति करते हैं। हे प्रभो, कच्छप स्वरूप आपको मेरा सादर नमस्कार है। आप समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। आप भौतिकता से पूर्णत: रहित तथा परम सत्त्व में स्थित हैं। आप जल में विचरण करते रहते हैं, किन्तु कोई आपका पता नहीं लगा पाता, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। अपनी दिव्य स्थिति के कारण आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य में बँधे नहीं रहते। आप सर्वत्र सर्वाधार रूप में उपस्थित रहते हैं, अतः मैं बारम्बार आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवन, यह विराट दृश्य अभिव्यक्ति आपकी अपनी सृजनात्मक शक्ति का प्रदर्शन है। इसके अन्तर्गत अनन्त रूप आपकी बहिरंगा शक्ति (माया) का प्रदर्शन मात्र है, यह विराट रूप आपका वास्तविक रूप नहीं है। आपके वास्तविक रूप का दर्शन तो केवल दिव्य भावनाभावित भक्तजन कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे प्रिय प्रभु, आप अपनी विविध शक्तियाँ अनगिनत रूपों में प्रदर्शित करते हैं – जैसे कि गर्भ से, अंडे से तथा स्वेद से उत्पन्न होने वाले जीव, धरती से पौधों एवं वृक्षों के रूप में विकसित होने वाले जीव, देवता, विद्वान, ऋषि-मुनि तथा पितृओं सहित चर तथा अचर सारे जीव, बाह्यावकाश, स्वर्गलोक सहित उच्चतर ग्रहमण्डल एवं पर्वत, नदियाँ, महासागरों तथा द्वीपों सहित पृथ्वी ग्रह इत्यादि।

33-35 हे प्रभो, आपका नाम, रूप तथा आकृति असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होते हैं। निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि आप कितने रूपों में विद्यमान हैं, फिर भी आपके स्वयं के अवतार कपिलदेव जैसे मुनियों ने इस विराट जगत में चौबीस तत्त्व निश्चित किए हैं। अतः यदि कोई सांख्य दर्शन में रुचि रखता है तो उसे चाहिए कि विभिन्न सत्यों को वह आपसे सुने। दुर्भाग्यवश जो आपके भक्त नहीं हैं, वे केवल तत्त्वों की गणना कर पाते हैं, किन्तु आपके वास्तविक रूप से अनजान रहते हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा- हे राजन, सभी यज्ञाहुतियों को स्वीकार करने वाले श्रीभगवान वराह रूप में जम्बूद्वीप के उत्तरी भाग में निवास करते हैं। वहाँ उत्तर-कुरुवर्ष में पृथ्वी माता तथा अन्य सभी वासी निम्नलिखित उपनिषद मंत्र का बारम्बार जप करते हुए उनकी आराधना करते हैं। हे प्रभो, हम विराट पुरुष के रूप में आपको सादर नमस्कार करते हैं। केवल मंत्रोच्चार से हम आपको पूर्णत: समझ सकते हैं। आप यज्ञरूप हैं, आप क्रतु हैं। अतः यज्ञ के सभी अनुष्ठान आपके दिव्य शरीर के अंशरूप हैं और केवल आप ही समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं। आपका स्वरूप दिव्य गुणों से युक्त है। आप 'त्रियुग' कहलाते हैं, क्योंकि कलियुग में आपने प्रच्छन्न अवतार लिया है और आप छहों ऋद्धियों के स्वामी हैं।

36 ऋषि तथा मुनि काष्ठ में छिपी अग्नि को अरणी के द्वारा उत्पन्न कर सकने में समर्थ हैं। हे प्रभो, परम सत्य को समझने में दक्ष ऐसे व्यक्ति आपको प्रत्येक वस्तु में, यहाँ तक कि अपने शरीर में भी देखने का प्रयास करते हैं किन्तु आप फिर भी अप्रकट रहते हैं। मानसिक या भौतिक क्रियाओं जैसी अप्रत्यक्ष विधियों से आपको नहीं समझा जा सकता। आप स्वतः प्रकट होने वाले हैं, अतः जब आप देख लेते हैं कि कोई व्यक्ति सर्वभावेन आपकी खोज में संलग्न है तभी आप अपने को प्रकट करते हैं। अतः मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

37 भौतिक सुख के साधन (शब्द, गन्ध, रूप, स्पर्श, स्वाद), ऐन्द्रिय कर्म, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता, शरीर, अनन्त काल तथा अहंकार – ये सभी आपकी माया से उत्पन्न हैं। जिन्होंने योग के द्वारा अपनी बुद्धि को स्थिर कर लिया है वे यह देख सकते हैं कि ये सभी तत्त्व आपकी माया के ही परिणाम हैं। वे आपके दिव्य रूप को भी प्रत्येक वस्तु की पृष्ठभूमि में परम आत्मा के रूप में देख सकते हैं। अतः मैं पुनः पुनः आपको नमस्कार करता हूँ।

38 हे प्रभो, आप इस भौतिक जगत की सृष्टि, पालन या संहार के इच्छुक नहीं हैं, किन्तु बद्धजीवों के लिए अपनी सृजनात्मक शक्ति के द्वारा इन क्रियाओं को निष्पादित करते हैं। जिस प्रकार चुम्बक-पत्थर के प्रभाव से लोहे का टुकड़ा घूमता है ठीक उसी प्रकार जब आप समस्त माया पर दृष्टि फेरते हैं, तो सारे जड़ पदार्थ गति करने लगते हैं।

39 हे प्रभो, इस ब्रह्माण्ड में आदि वराह रूप में आपने हिरण्याक्ष दैत्य के साथ युद्ध करके उसका संहार किया। फिर आपने अपने दाढ़ों के अग्र भाग से पृथ्वी को गर्भोंदक सागर से उसी प्रकार ऊपर उठा लिया जैसे क्रीड़ारत गज जल में से कमल-पुष्प तोड़ लेता है। मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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शिवजी द्वारा स्तुति (5.17)

16-18 परमात्मा का चतुर्गुण विस्तार वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण में हुआ है। इनमें चतुर्थ विस्तार संकर्षण है जो निश्चित रूप से दिव्य है, किन्तु भौतिक जगत में उनका संहार-कार्य तमोगुणमय है, अतः वे तामसी अर्थात तमोगुणी-ईश्वर कहलाते हैं। भगवान शिव को ज्ञात है कि संकर्षण उनके अपने अस्तित्व के मूल कारण हैं, अतः वे समाधि में निम्नलिखित मंत्र का जप करते हुए उनका ध्यान करते हैं। परम शक्तिमान भगवान शिव कहते हैं – हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, मैं संकर्षण के रूप में आपको प्रणाम करता हूँ। आप समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। अनन्त होकर भी आप अभक्तों के लिए अप्रकट रहते हैं। हे प्रभो, आप ही एकमात्र आराध्य हैं, क्योंकि आप ही समस्त ऐश्वर्यों के आगार पूर्ण पुरषोत्तम भगवान हैं। आपके चरणकमल भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। आप भक्तों को अपने नाना रूपों द्वारा संतुष्ट करने वाले हैं। हे प्रभो, आप अपने भक्तों को भौतिक संसार के चंगुल से छुड़ाने वाले हैं। आपकी इच्छा से ही अभक्त लोग इस भौतिक संसार में उलझे रहते हैं। कृपया मुझे अपने नित्य दास के रूप में स्वीकार करें।

19-20 हम अपने क्रोध के वेग को रोक नहीं पाते, अतः जब हम भौतिक वस्तुओं को देखते हैं तो उनसे आकर्षित या विकर्षित हुए बिना नहीं रह पाते। किन्तु परमेश्वर इस प्रकार कभी भी प्रभावित नहीं होते। यद्यपि इस भौतिक जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार के हेतु वे इस पर दृष्टिपात करते हैं, किन्तु इससे रंचमात्र भी प्रभावित नहीं होते। अतः वह जो अपनी इन्द्रियों के वेग पर विजय प्राप्त करना चाहता है, उसे श्रीभगवान के चरणकमलों की शरण लेनी चाहिए। तभी वह विजयी होगा। कुत्सित दृष्टि वाले व्यक्तियों के लिए भगवान के नेत्र मदिरा पिये हुए उन्मत्त पुरुष जैसे हैं। ऐसे अविवेकी पुरुष भगवान पर रुष्ट होते हैं और अपने रोषवश उन्हें श्रीभगवान अत्यन्त रुष्ट एवं भयावह लगते हैं। किन्तु यह माया है। जब भगवान के चरणकमलों के स्पर्श से नाग-वधुएँ उत्तेजित हुई तो वे लज्जावश उनकी और अधिक आराधना नहीं कर पाई फिर भी भगवान उनके स्पर्श से उत्तेजित नहीं हुए, क्योंकि समस्त परिस्थितियों में वे धीर बने रहते हैं। अतः ऐसा कौन होगा जो भगवान की आराधना करना नहीं चाहेगा?

21-24 शिवजी कहते हैं-सभी महान ऋषि भगवान को सृजक, पालक और संहारक के रूप में स्वीकार करते हैं, यद्यपि वास्तव में उनका इन कार्यों से कोई सरोकार नहीं है। इसीलिए श्रीभगवान को अनन्त कहा गया है। यद्यपि शेष अवतार के रूप में वे अपने फणों पर समस्त ब्रह्माण्डों को धारण करते हैं, किन्तु प्रत्येक ब्रह्माण्ड उन्हें सरसों के बीज से अधिक भारी नहीं लगता। अतः सिद्धि का इच्छुक ऐसे कौन पुरुष होगा जो ईश्वर की आराधना नहीं करेगा? पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से ही ब्रह्माजी प्रकट होते हैं, जिनका शरीर महत तत्त्व से निर्मित है और वह भौतिक प्रकृति के रजोगुण द्वारा प्रभावित बुद्धि का आगार है। ब्रह्माजी से मैं स्वयं मिथ्या अहंकार रूप में, जिसे रुद्र कहते हैं, उत्पन्न होता हूँ। मैं अपनी शक्ति से अन्य समस्त देवताओं, पंच तत्त्वों तथा इन्द्रियों को जन्म देता हूँ। अतः मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की आराधना करता हूँ। वे हम सबों से श्रेष्ठ हैं और सभी देवता, महत तत्त्व तथा इन्द्रियाँ, यहाँ तक कि ब्रह्माजी और स्वयं मैं उनके वश में वैसे ही हैं जिस प्रकार कि डोरी से बँधे पक्षी। केवल उन्हीं के अनुग्रह से हम इस जगत का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं। अतः मैं परमब्रह्म को सादर प्रणाम करता हूँ। श्रीभगवान की माया हम समस्त बद्ध जीवात्माओं को इस भौतिक जगत से बाँधती है, अतः उनकी कृपा के बिना हम जैसे तुच्छ प्राणी माया से छूटने की विधि नहीं समझ पाते। मैं उन श्रीभगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस जगत की उत्पत्ति और लय के कारणस्वरूप हैं।

(समर्पित एवं सेवारत -  जगदीश चन्द्र चौहान)

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ऋत्विज गण द्वारा स्तुति (5.3)

4-8 ऋत्विज-गण इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगे – हे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं। यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किंचित सेवा स्वीकार करें। हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमें शिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं। जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अतः वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिक अवधारणाओं से परे हैं। आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि की कल्पना के परे हैं। भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है? इस भौतिक जगत में हम केवल नाम तथा गुण देख पाते हैं। हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जाति के पाप धुल जाते हैं। यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थिति को अंशमात्र ही जान सकते हैं। हे परमेश्वर, आप सभी प्रकार से पूर्ण हैं। जब आपके भक्त गदगद वाणी से आपकी स्तुति करते हैं तथा आह्लादवश तुलसीदल, जल, पल्लव तथा दूब के अंकुर चढ़ाते हैं, तो आप निश्चय ही परम संतुष्ट होते हैं। हमने आपकी पूजा में आपको अनेक वस्तुएँ अर्पित की हैं और आपके लिए अनेक यज्ञ किये है, किन्तु हम सोचते हैं कि आपको प्रसन्न करने के लिए इतने सारे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं है। आप में प्रतिक्षण प्रत्यक्षतया, स्वयमेव, निरन्तर एवं असीमत जीवन के समस्त लक्ष्यों एवं ऐश्वर्यों की वृद्धि हो रही है। दरअसल, आप स्वयं ही असीम सुख तथा आनन्द से युक्त हैं। हे ईश्वर, हम तो सदा ही भौतिक सुखों के फेर में रहते हैं। आपको इन समस्त याज्ञिक आयोजनों की आवश्यकता नहीं है।

9-11 ये तो हमारे लिए हैं जिससे हम आपका आशीर्वाद पा सकें। ये सारे यज्ञ हमारे अपने कर्मफल के लिए किये जाते हैं और वास्तव में आपको इनकी कोई आवश्यकता ही नहीं है। हे ईशाधीश, हम धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से पूर्णतया अनजान हैं क्योंकि हमें जीवन-लक्ष्य का ठीक से पता नहीं है। आप यहाँ हमारे समक्ष साक्षात इस प्रकार प्रकट हुए हैं जिस प्रकार कोई व्यक्ति जानबूझकर अपनी पूजा कराने के लिए आया हो। किन्तु ऐसा नहीं है, आप तो इसलिए प्रकट हुए हैं जिससे हम आपके दर्शन कर सकें। आप अपनी अगाध तथा अहैतुकी करुणावश हमारा उद्देश्य पूरा करने, हमारा हित करने तथा अपवर्ग का लाभ प्रदान करने हेतु प्रकट हुए हैं। हम अपनी अज्ञानता के कारण आपकी ठीक से उपासना भी नहीं कर पा रहे हैं, तो भी आप पधारे हैं। हे पूज्यतम, आप समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ हैं और राजर्षि नाभि की यज्ञशाला में आपका प्राकट्य हमें आशीर्वाद देने के लिए हुआ है। चूँकि हम आपको देख पाये हैं इसलिए आपने हमें सर्वाधिक मूल्यवान वर प्रदान किया है। हे ईश्वर, समस्त विचारवान मुनि तथा साधु पुरुष निरन्तर आपके दिव्य गुणों का गान करते रहते हैं। इन मुनियों ने अपनी ज्ञान अग्नि से अपार मलराशि को पहले ही दग्ध कर दिया है और इस संसार से अपने वैराग्य को सुदृढ़ किया है। इस प्रकार वे आपके गुणों को ग्रहण कर आत्मतुष्ट हैं। तो भी जिन्हें आपके गुणों के गान में परम आनन्द आता है उनके लिए भी आपका दर्शन दुर्लभ है।

12-15 हे ईश्वर, सम्भव है कि हम कँपकपाने, भूखे रहने, गिरने, जम्हाई लेने या ज्वर के कारण मृत्यु के समय शोचनीय रुग्ण अवस्था में रहने के कारण आपके नाम का स्मरण न कर पाएँ। अतः हे ईश्वर, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप भक्तों पर वत्सल रहते हैं। आप हमें अपने पवित्र नाम, गुण तथा कर्म को स्मरण कराने में सहायक हों जिससे हमारे पापी जीवन के सभी पाप दूर हो जाँय। हे ईश्वर, आपके समक्ष ये महाराज नाभि हैं जिनके जीवन का परम लक्ष्य आपके ही समान पुत्र प्राप्त करना है। हे भगवन, इनकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी है, जो एक अत्यन्त धनवान पुरुष के पास थोड़ा सा अन्न माँगने के लिए जाता है। पुत्रेच्छा से ही वे आपकी उपासना कर रहे हैं यद्यपि आप उन्हें कोई भी उच्चस्थ पद प्रदान कर सकने में समर्थ हैं – चाहे वह स्वर्ग हो या भगवद्धाम का मुक्ति-लाभ। हे ईश्वर, जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरणकमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसे माया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी। दरअसल, ऐसा कौन है जो विष तुल्य भौतिक सुख की तरंगों में न बहा हो! आपकी माया दुर्जेय है। न तो इस माया के पथ को कोई देख सकता है, न इसकी कार्य-प्रणाली को ही कोई बता सकता है।  हे ईश्वर, आप अनेक अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ हैं। इस यज्ञ के करने का हमारा एकमात्र लक्ष्य पुत्र प्राप्त करना था, अतः हमारी बुद्धि अधिक प्रखर नहीं है। हमें जीवन-लक्ष्य निर्धारित करने का कोई अनुभव नहीं है। निस्सन्देह भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये गये इस तुच्छ यज्ञ में आपको आमंत्रित करके हमने आपके चरणकमलों के प्रति महान अपराध किया है। अतः हे सर्वेश, आप अपनी अहैतुकी कृपा तथा समदृष्टि के कारण हमें क्षमा करें।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान) 

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प्रचेताओं द्वारा स्तुति (4.30)

21-23 मैत्रेय ऋषि ने कहा: भगवान के इस प्रकार कहने पर प्रचेताओं ने उनकी प्रार्थना की। भगवान जीवन की समस्त सिद्धियों को देने वाले और परम कल्याणकर्ता हैं। वे परम मित्र भी हैं, क्योंकि वे भक्तों के समस्त कष्टों को हरते हैं। प्रचेताओं ने आनन्दातिरेक से गदगद वाणी में प्रार्थना करनी प्रारम्भ की। वे भगवान का साक्षात दर्शन करने से शुद्ध हो गये। प्रचेताओं ने कहा: हे भगवन, आप समस्त प्रकार के क्लेशों को हरने वाले हैं। आपके उदार दिव्य गुण तथा पवित्र नाम कल्याणप्रद हैं। इसका निर्णय पहले ही हो चुका है। आप मन तथा वाणी से भी अधिक वेग से जा सकते हैं। आप भौतिक इन्द्रियों द्वारा नहीं देखे जा सकते। अतः हम आपको सादर बारम्बार नमस्कार करते हैं। हे भगवन, हम आपको प्रणाम करने की याचना करते हैं। जब मन आप में स्थिर होते हैं, तो यह द्वैतपूर्ण संसार भौतिक सुख का स्थान होते हुए भी व्यर्थ प्रतीत होता है। आपका दिव्य रूप दिव्य आनन्द से पूर्ण है। अतः हम आपका अभिवादन करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूप में आपका प्राकट्य इस दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के उद्देश्य से होता है।

24-25 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपका अस्तित्व समस्त भौतिक प्रभावों से पूर्णतया स्वतंत्र है। आप सदैव अपने भक्तों के क्लेशों को हर लेते हैं, क्योंकि आपका मस्तिष्क जानता है कि ऐसा किस प्रकार करना चाहिए। आप परमात्मा रूप में सर्वत्र रहते हैं। अतः आप वासुदेव कहलाते हैं। आप वसुदेव को अपना पिता मानते हैं और आप कृष्ण नाम से विख्यात हैं। आप इतने दयालु हैं कि अपने समस्त प्रकार के भक्तों के प्रभाव को बढ़ाते हैं। हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपकी ही नाभि से कमल पुष्प निकलता है, जो समस्त जीवों का उद्गम है। आप सदैव कमल की माला से सुशोभित रहते हैं और आपके चरण सुगन्धित कमल पुष्प के समान हैं। आपके नेत्र भी कमल पुष्प की पंखड़ियों के सदृश हैं, अतः हम आपको सदा ही सादर नमस्कार करते हैं।

26-27 हे भगवन, आपके द्वारा धारण किया गया वस्त्र कमल पुष्प के केसर के समान पीले रंग का है, किन्तु यह किसी भौतिक पदार्थ का बना हुआ नहीं है। प्रत्येक हृदय में निवास करने के कारण आप समस्त जीवों के समस्त कार्यों के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। हम आपको पुनः पुनः सादर नमस्कार करते हैं। हे भगवन, हम बद्धजीव देहात्मबुद्धि के कारण सदैव अज्ञान से घिरे रहते हैं, अतः हमें भौतिक जगत के क्लेश ही सदैव प्रिय लगते हैं। इन क्लेशों से हमारा उद्धार करने के लिए ही आपने इस दिव्य रूप में अवतार लिया है। यह हम-जैसे कष्ट भोगने वालों पर आपकी अनन्त अहैतुकी कृपा का प्रमाण है। तो फिर उन भक्तों के विषय में क्या कहें जिनके प्रति आप सदैव कृपालु रहते हैं?

28 हे भगवन, आप समस्त अमंगल के विनाशकर्ता हैं। आप अपने अर्चा-विग्रह विस्तार के द्वारा अपने दीन भक्तों पर दया करने वाले हैं। आप हम सबों को अपना शाश्वत दास समझें।

29 जब भगवान अपनी सहज दयाभाव से अपने भक्त के विषय में सोचते हैं तो उस विधि से ही नवदीक्षित भक्तों की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं। जीव के अत्यन्त तुच्छ होने पर भी भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं। भगवान जीव के सम्बन्ध में प्रत्येक बात, यहाँ तक कि उसकी समस्त इच्छाओं, को भी जानते रहते हैं। यद्यपि हम अत्यन्त तुच्छ जीव हैं फिर भी भगवान हमारी इच्छाओं को क्यों नहीं जानेंगे?

30 हे जगत के स्वामी, आप भक्तियोग के वास्तविक शिक्षक हैं। हमें सन्तोष है कि हमारे जीवन के परमलक्ष्य आप हैं और हम प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों। यही हमारा अभीष्ट वर है। हम आपकी पूर्ण प्रसन्नता के अतिरिक्त और कुछ भी कामना नहीं करते।

31-35 अतः हे स्वामी, हम आपसे वर देने के लिए प्रार्थना करेंगे, क्योंकि आप समस्त दिव्य प्रकृति से परे हैं और आपके ऐश्वर्यों का कोई अन्त नहीं है। अतः आप अनन्त नाम से विख्यात हैं। हे स्वामी, जब भौंरा दिव्य पारिजात वृक्ष के निकट पहुँच जाता है, तो वह उसे कभी नहीं छोड़ता क्योंकि उसे ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी प्रकार जब हमने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है, तो हमें और क्या वर माँगने की आवश्यकता है? हे स्वामी, हमारी प्रार्थना है कि जब तक हम अपने सांसारिक कल्मष के कारण इस संसार में रहें और एक शरीर से दूसरे में तथा एक लोक से दूसरे लोक में घूमते रहे, तब तक हम उनकी संगति में रहें जो आपकी लीलाओं की चर्चा करने में लगे रहते हैं। हम जन्म-जन्मान्तार विभिन्न शारीरिक रूपों में और विभिन्न लोकों में इसी वर के लिए प्रार्थना करते हैं। एक क्षण की भी शुद्ध भक्त की संगति के सामने स्वर्गलोक जाने अथवा पूर्ण मोक्ष पाकर ब्रह्मतेज (कैवल्य) की कोई तुलना नहीं की जा सकती है। शरीर को त्याग कर मरने वाले जीवों के लिए सर्वश्रेष्ठ वर तो शुद्ध भक्तों की संगति है। जब भी दिव्य लोक की कथाओं की चर्चा चलती है, श्रोतागण, भले ही क्षण-भर के लिए क्यों न हो, समस्त भौतिक तृष्णाएँ भूल जाते हैं। यही नहीं, आगे से वे एक दूसरे से न तो वैर करते हैं, न किसी कुण्ठा या भय से ग्रस्त होते हैं।

36-37 जहाँ भक्तों के बीच भगवान के पवित्र नाम का श्रवण तथा कीर्तन चलता रहता है, वहाँ भगवान नारायण उपस्थित रहते हैं। संन्यासियों के चरम लक्ष्य भगवान नारायण ही हैं और नारायण की पूजा उन व्यक्तियों द्वारा इस संकीर्तन आन्दोलन के माध्यम से की जाती है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त हो चुके हैं। वे बारम्बार भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं। हे भगवन, आपके पार्षद तथा भक्त संसार-भर में तीर्थस्थानों तक को पवित्र करने के लिए भ्रमण करते रहते हैं। जो इस संसार से भयभीत हैं, क्या ऐसा कार्य इन सबके लिए रुचिकर नहीं होता?

38 हे भगवन, हम भाग्यशाली हैं कि आपके अत्यन्त प्रिय तथा अभिन्न मित्र शिवजी की क्षणमात्र की संगति से हम आपको प्राप्त कर सके हैं। आप इस संसार के असाध्य रोग का उपचार करने में समर्थ सर्वश्रेष्ठ वैद्य हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमें आपके चरणकमलों का आश्रय प्राप्त हो सका।

39-42 हे भगवन, हमने वेदों का अध्ययन किया है, गुरु बनाया है और ब्राह्मणों, भक्तों तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक उन्नत वरिष्ठ पुरुषों को सम्मान प्रदान किया है। हमने अपने किसी भी भाई, मित्र या अन्य किसी से ईर्ष्या नहीं की। हमने जल के भीतर रहकर कठिन तपस्या भी की है और दीर्घकाल तक भोजन ग्रहण नहीं किया। हमारी ये सारी आध्यात्मिक सम्पदाएँ आपको प्रसन्न करने के लिए सादर समर्पित हैं। हम आपसे केवल यही वर माँगते हैं, अन्य कुछ भी नहीं। हे भगवन, तप तथा ज्ञान के कारण सिद्धिप्राप्त बड़े-बड़े योगी तथा शुद्ध सत्व में स्थित लोगों के साथ-साथ मनु, ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुष भी आपकी महिमा तथा शक्तियों को पूरी तरह नहीं समझ पाते। फिर भी वे यथाशक्ति आपकी प्रार्थना करते हैं। उसी प्रकार हम इन महापुरुषों से काफी क्षुद्र होते हुए भी अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रार्थना कर रहे हैं। हे भगवन, आपके न तो शत्रु हैं न मित्र। अतः आप सबों के लिए समान हैं। आप पापकर्मों के द्वारा कलुषित नहीं होते और आपका दिव्य रूप सदैव भौतिक सृष्टि से परे है। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप वासुदेव कहलाते है। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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शिवजी द्वारा स्तुति (4.24)

33 शिवजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की इस प्रकार स्तुति की: हे भगवान, आप धन्य हैं। आप सभी स्वरूपसिद्धों में महान हैं चूँकि आप उनका सदैव कल्याण करने वाले हैं, अतः आप मेरा भी कल्याण करें। आप अपने सर्वात्मक उपदेशों के कारण पूज्य हैं। आप परमात्मा हैं, अतः पुरुषोत्तम स्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

34    हे भगवान, आपकी नाभि से कमल पुष्प निकलता है, इस प्रकार से आप सृष्टि के उद्गम हैं। आप इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं के नियामक हैं। आप सर्वव्यापी वासुदेव भी हैं। आप परम शान्त हैं और स्वयंप्रकाशित होने के कारण आप छह प्रकार के विकारों से विचलित नहीं होते।

35    हे भगवान, आप सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों के उद्गम, समस्त संघटन और संहार के स्वामी, संकर्षण नामक अधिष्ठाता तथा समस्त बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

36    हे परम अधिष्ठाता अनिरुद्ध रूप भगवान, आप इन्द्रियों तथा मन के स्वामी हैं। अतः मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। आप अनन्त तथा साथ ही साथ संकर्षण कहलाते हैं, क्योंकि अपने मुख से निकलने वाली धधकती हुई अग्नि से आप सारी सृष्टि का संहार करने में समर्थ हैं।

37   हे भगवान अनिरुद्ध, आपके आदेश से स्वर्ग तथा मोक्ष के द्वार खुलते हैं। आप निरन्तर जीवों के शुद्ध हृदय में निवास करते हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप स्वर्ण सदृश वीर्य के स्वामी हैं और इस प्रकार आप अग्नि रूप में चातुर्होत्र इत्यादि वैदिक यज्ञों में सहायता करते हैं। अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

38    हे भगवन, आप पितृलोक तथा सभी देवताओं के भी पोषक हैं। आप चन्द्रमा के प्रमुख श्रीविग्रह और तीनों वेदों के स्वामी हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आप समस्त जीवात्माओं की तृप्ति के मूल स्त्रोत हैं।

39    हे भगवान, आप विराट स्वरूप हैं जिसमें समस्त जीवात्माओं के शरीर समाहित हैं। आप तीनों लोकों के पालक हैं, फलतः आप मन, इन्द्रियों, शरीर तथा प्राण का पालन करनेवाले हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

40    हे भगवान, आप अपनी दिव्य वाणी (शब्दों) को प्रसारित करके प्रत्येक वस्तु का वास्तविक अर्थ प्रकट करने वाले हैं। आप भीतर-बाहर सर्वव्याप्त आकाश हैं और इस लोक में तथा इससे परे किये जाने वाले समस्त पुण्यकर्मों के परम लक्ष्य हैं। अतः मैं आपको पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।

41    हे भगवान, आप पुण्यकर्मों के फलों के दृष्टा हैं। आप प्रवृत्ति, निवृत्ति तथा उनके कर्म-रूपी परिणाम (फल) हैं। आप अधर्म से जनित जीवन के दुखों के कारणस्वरूप हैं, अतः आप मृत्यु हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

42    हे भगवान, आप आशीर्वादों के समस्त प्रदायकों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे प्राचीन तथा समस्त भोक्ताओं में परम भोक्ता हैं। आप समस्त सांख्य योग-दर्शन के अधिष्ठाता हैं। आप समस्त कारणों के कारण भगवान कृष्ण हैं। आप सभी धर्मों में श्रेष्ठ हैं, आप परम मन हैं और आपका मस्तिष्क (बुद्धि) ऐसा है, जो कभी कुण्ठित नहीं होता। अतः मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

43    हे भगवान, आप कर्ता, करण और कर्म--इन तीनों शक्तियों के नियामक हैं। अतः आप शरीर, मन तथा इन्द्रियों के परम नियन्ता हैं। आप अहंकार के परम नियन्ता रुद्र भी हैं। आप वैदिक आदेशों के ज्ञान तथा उनके अनुसार किए जाने वाले कर्मों के स्रोत हैं।

44    हे भगवान, मैं आपको उस रूप में देखने का इच्छुक हूँ, जिस रूप में आपके अत्यन्त प्रिय भक्त आपकी पूजा करते हैं। आपके अन्य अनेक रूप हैं, किन्तु मैं तो उस रूप का दर्शन करना चाहता हूँ जो भक्तों को विशेष रूप से प्रिय है। आप मुझ पर अनुग्रह करें और मुझे वह स्वरूप दिखलाएँ, क्योंकि जिस रूप की भक्त पूजा करते हैं वही इन्द्रियों की इच्छाओं को पूरा कर सकता है।

45-46   भगवान की सुन्दरता वर्षाकालीन श्याम मेघों के समान है। उनके शारीरिक अंग वर्षा जल के समान चमकीले हैं। दरअसल, वे समस्त सौन्दर्य के समष्टि (सारसर्वस्व) हैं। भगवान की चार भुजाएँ हैं, सुन्दर मुख है और उनके नेत्र कमलदलों के तुल्य हैं। उनकी नाक उन्नत, उनकी हँसी मोहने वाली, उनका मस्तक तथा उनके कान सुन्दर और आभूषणों से सज्जित हैं।

47-48   भगवान अपने मुक्त तथा दयापूर्ण हास्य तथा भक्तों पर तिरछी चितवन के कारण अनुपम सुन्दर लगते हैं। उनके बाल काले तथा घुँघराले हैं। हवा में उड़ता उनका वस्त्र कमल के फूलों में से उड़ते हुए केशर-रज के समान प्रतीत होता है। उनके झिलमलाते कुण्डल, चमचमाता मुकुट, कंकण, वनमाला, नूपुर, करधनी तथा शरीर के अन्य आभूषण शंख, चक्र, गदा तथा कमल पुष्प से मिलकर उनके वक्षस्थल पर पड़ी कौस्तुभमणि की प्राकृतिक शोभा को बढ़ाते हैं।

49     भगवान के कंधे सिंह के समान हैं। इन पर मालाएँ, हार एवं घुँघराले बाल पड़े हैं, जो सदैव झिलमिलाते रहते हैं। इनके साथ ही साथ कौस्तुभमणि की सुन्दरता है और भगवान के श्याम वक्षस्थल पर श्रीवत्स की रेखाएँ हैं, जो लक्ष्मी के प्रतीक हैं। इन सुवर्ण रेखाओं की चमाहट सुवर्ण कसौटी पर बनी सुवर्ण लकीरों से कहीं अधिक सुन्दर है। दरअसल ऐसा सौन्दर्य सुवर्ण कसौटी को मात करने वाला है।

50    भगवान का उदर (पेट) त्रिवली के कारण सुन्दर लगता है। गोल होने के कारण उनका उदर वटवृक्ष के पत्ते के समान जान पड़ता है और जब वे श्वास-प्रश्वास लेते हैं, तो इन सलवटों का हिलना-जुलना अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। भगवान की नाभि के भीतर की कुण्डली इतनी गहरी है मानो सारा ब्रह्माण्ड उसी में से उत्पन्न हुआ हो और पुनः उसी में समा जाना चाहता हो।

51    भगवान की कटि का अधोभाग श्यामल रंग का है और पीताम्बर से ढका है। उसमें सुनहली, जरीदार करधनी है। उनके एक समान चरणकमल, पिण्डलियाँ, जाँघें तथा घुटने अनुपम सुन्दर हैं। निस्सन्देह, भगवान का सम्पूर्ण शरीर अत्यन्त सुडौल प्रतीत होता है।

52    हे भगवन, आपके दोनों चरणकमल इतने सुन्दर हैं मानो शरत ऋतु में उगने वाले कमल पुष्प के खिलते हुए दो दल हों। दरअसल आपके चरणकमलों के नाखूनों से इतना तेज निकलता है कि वह बद्ध जीव के सारे अंधकार को तुरन्त छिन्न कर देता है। हे स्वामी, मुझे आप अपना वह स्वरूप दिखलायें जो किसी भक्त के हृदय के अंधकार को नष्ट कर देता है। मेरे भगवन, आप सबों के परम गुरु हैं, अतः आप जैसे गुरु के द्वारा अज्ञान के अंधकार से आवृत सारे बद्धजीव प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं।

53    हे भगवन, जो लोग अपने जीवन को परिशुद्ध बनाना चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्त विधि से आपके चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए। जो अपने वर्ण के अनुरूप कार्य को पूरा करने की धुन में हैं और जो भय से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें भक्तियोग की इस विधि का अनुसरण करना चाहिए।

54    हे भगवन, स्वर्ग का राजा इन्द्र भी जीवन के परम लक्ष्य--भक्ति--को प्राप्त करने का इच्छुक रहता है। इसी प्रकार जो अपने को आपसे अभिन्न मानते हैं (अहं ब्रह्मास्मि), उनके भी एकमात्र लक्ष्य आप ही हैं। किन्तु आपको प्राप्त कर पाना उनके लिए अत्यन्त कठिन है जबकि भक्त सरलता से आपको पा सकता है।

55    हे भगवन, शुद्ध भक्ति कर पाना तो मुक्त पुरुषों के लिए भी कठिन है, किन्तु आप हैं कि एकमात्र भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः जीवन-सिद्धि का इच्छुक ऐसा कौन होगा जो आत्म-साक्षात्कार की अन्य विधियों को अपनाएगा?

56    उनके भृकुटि – विस्तार – मात्र से जो दुर्जेय काल तत्क्षण सारे ब्रह्माण्ड का संहार कर सकता है, वही दुर्जेय काल आपके चरणकमलों की शरण में गये भक्त के निकट तक नहीं पहुँच पाता।

57    संयोग से भी यदि कोई क्षण भर के लिए भक्त की संगति पा जाता है, तो उसे कर्म और ज्ञान के फलों का तनिक भी आकर्षण नहीं रह जाता। तब उन देवताओं के वरदानों में उसके लिए रखा ही क्या है, जो जीवन और मृत्यु के नियमों के अधीन हैं?

58    हे भगवन, आपके चरणकमल समस्त कल्याण के कारण हैं और समस्त पापों के कल्मष को विनष्ट करने वाले हैं। अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे अपने भक्तों की संगति का आशीर्वाद दें, क्योंकि आपके चरणकमलों की पूजा करने से वे पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं और बद्धजीवों पर अत्यन्त कृपालु हैं। मेरी समझ में तो आपका असली आशीर्वाद यही होगा कि आप मुझे ऐसे भक्तों की संगति करने की अनुमति दें।

59   जिसका हृदय भक्तियोग से पूर्णरूप से पवित्र हो चुका हो तथा जिस पर भक्ति देवी की कृपा हो, ऐसा भक्त कभी भी अंधकूप सदृश माया द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता। इस प्रकार समस्त भौतिक कल्मष से रहित होकर ऐसा भक्त आपके नाम, यश, स्वरूप, कार्य इत्यादि को अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक समझ सकता है।  

60    हे भगवन, निर्गुण ब्रह्म सूर्य के प्रकाश अथवा आकाश की भाँति सर्वत्र फैला हुआ है और जो सारे ब्रह्माण्ड भर में फैला है तथा जिसमें सारा ब्रह्माण्ड दिखाई देता है, वह निर्गुण ब्रह्म आप ही हैं।

61    हे भगवन, आपकी शक्तियाँ अनेक हैं और वे नाना रूपों में प्रकट होती हैं। आपने ऐसी ही शक्तियों से इस दृश्य जगत की उत्पत्ति की है और यद्यपि आप इसका पालन इस प्रकार करते हैं मानो यह चिरस्थायी हो, किन्तु अन्त में आप इसका संहार कर देते हैं। यद्यपि आप कभी भी ऐसे परिवर्तनों द्वारा विचलित नहीं होते, किन्तु जीवात्माएँ इनसे विचलित होती रहती हैं, इसलिए वे इस दृश्य जगत को आपसे भिन्न अथवा पृथक मानती हैं। हे भगवन, आप सर्वदा स्वतंत्र हैं और मैं तो इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।

62    हे भगवन, आपका विराट रूप, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार (जो भौतिक हैं) तथा आपके अंश रूप सर्व नियामक परमात्मा इन सभी पाँच तत्त्वों से बना है। भक्तों के अतिरिक्त अन्य योगी-यथा कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी--अपने-अपने पदों में अपने-अपने कार्यों द्वारा आपकी पूजा करते हैं। वेदों में तथा शास्त्रों में जो वेदों के निष्कर्ष हैं, कहा गया है कि केवल आप ही पूज्य हैं। सभी वेदों का यही अभिमत है।

63    हे भगवन, आप कारणों के कारण एकमात्र परम पुरुष हैं। इस भौतिक जगत की सृष्टि के पूर्व आपकी भौतिक शक्ति सुप्त रहती है, किन्तु जब आपकी शक्ति गतिमान होती है, तो आपके तीनों गुण—सत्त्व, रज तथा तमो गुण – क्रिया करते हैं। फलस्वरूप समष्टि भौतिक शक्ति अर्थात अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा विभिन्न देवता एवं ऋषिगण प्रकट होते हैं। इस प्रकार भौतिक जगत की उत्पत्ति होती है।

64    हे भगवन, आप अपनी शक्तियों के द्वारा सृष्टि कर लेने के बाद सृष्टि में चार रूपों में प्रवेश करते हैं। आप जीवों के अन्तःकरण में स्थित होने के कारण उन्हें जानते हैं और यह भी जानते हैं कि वे किस प्रकार इन्द्रिय-भोग कर रहे हैं। इस भौतिक जगत का तथाकथित सुख ठीक वैसा ही है जैसा कि शहद के छत्ते में मधु एकत्र होने के बाद मधुमक्खी द्वारा उसका आस्वाद।

65    हे भगवन, आपकी परम सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु संसार की गतिविधियों को देखकर कि समय आने पर सब कुछ विनष्ट हो जाता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। काल का वेग अत्यन्त प्रचण्ड है और प्रत्येक वस्तु किसी अन्य वस्तु के द्वारा विनष्ट होती जा रही है – जैसे एक पशु दूसरे पशु द्वारा निगल लिया जाता है। काल प्रत्येक वस्तु को उसी प्रकार तितर-बितर कर देता है, जिस प्रकार आकाश में बादलों को वायु छिन्न-भिन्न कर देती है।

66    हे भगवन, इस संसार के सारे प्राणी कुछ--कुछ योजना बनाने में पागल हैं तथा यह या वह करते रहने की इच्छा से काम में जुटे रहते हैं। अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है। जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है, किन्तु आप नित्य सतर्क रहते हैं और समय आने पर आप उस पर उसी प्रकार टूट पड़ते हैं जिस प्रकार सर्प चूहे पर झपटता है और आसानी से निगल जाता है।

67    हे भगवन, कोई भी विद्वान पुरुष जानता है कि आपकी पूजा के बिना सारा जीवन व्यर्थ है। भला यह जानते हुए वह आपके चरणकमलों की उपासना क्यों त्यागेगा? यहाँ तक कि हमारे गुरु तथा पिता ब्रह्मा ने बिना किसी भेदभाव के आपकी आराधना की और चौदहों मनुओं ने उनका अनुसरण किया।

68    हे भगवन, जो वास्तव में विद्वान मनुष्य हैं, वे सभी आपको परब्रह्म एवं परमात्मा के रूप में जानते हैं। यद्यपि सारा ब्रह्माण्ड भगवान रुद्र से भयभीत रहता है, क्योंकि वे अन्ततः प्रत्येक वस्तु को नष्ट करने वाले हैं, किन्तु विद्वान भक्तों के लिए आप निर्भय आश्रय हैं।

69    हे राजपुत्रों, तुम लोग विशुद्ध हृदय से राजाओं की भाँति अपने-अपने नियत कर्म करते रहो। भगवान के चरणकमलों पर अपने मन को स्थिर करते हुए इस स्तुति (स्तोत्र) का जप करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि इससे भगवान तुम पर अत्यधिक प्रसन्न होंगे।

70    अतः हे राजकुमारों, भगवान सबके हृदयों में स्थित हैं। वे तुम लोगों के भी हृदयों में हैं, अतः भगवान की महिमा का जप करो और निरन्तर उसी का ध्यान करो। हे राजपुत्रों, मैंने स्तुति के रूप में तुम्हें पवित्र नाम-जप की योगपद्धति बतला दी है।

71    तुम सब इस स्तोत्र को अपने मनों में धारण करते हुए इस पर दृढ़ रहने का व्रत लो जिससे तुम महान मुनि बन सको। तुम्हें चाहिए कि मुनि की भाँति मौन धारण करके तथा ध्यानपूर्वक एवं आदर सहित इसका पालन करो।

72   सर्वप्रथम समस्त प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा ने हमें यह स्तुति सुनायी थी। भृगु आदि प्रजापतियों को भी इसी स्तोत्र की शिक्षा दी गई थी, क्योंकि वे संतानोत्पत्ति करना चाह रहे थे।

73    जब ब्रह्मा द्वारा हम सब प्रजापतियों को प्रजा उत्पन्न करने का आदेश हुआ तो हमने भगवान की प्रशंसा में इस स्तोत्र का जप किया जिससे हम समस्त अविद्या से पूरी तरह से मुक्त हो गये। इस तरह हम विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति कर पाये।

74    भगवान कृष्ण के भक्त जिसका मन सदैव उन्हीं में लीन रहता है और जो अत्यन्त ध्यान तथा आदरपूर्वक इस स्तोत्र का जप करता है, उसे शीघ्र ही जीवन की परम सिद्धि प्राप्त होगी।

75    इस संसार में उपलब्धि के अनेक प्रकार हैं, किन्तु इन सबों में ज्ञान की उपलब्धि सर्वोपरि मानी जाती है, क्योंकि ज्ञान की नौका में आरूढ़ होकर ही अज्ञान के सागर को पार किया जा सकता है। अन्यथा यह सागर दुस्तर है।

76   यद्यपि भगवान की भक्ति करना एवं उनकी पूजा करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु यदि कोई मेरे द्वारा रचित एवं गाये गये इस स्तोत्र को केवल पाठ करता है, तो वह सरलतापूर्वक भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है।

77   समस्त शुभ आशीर्वादों में से सर्वप्रिय वस्तु भगवान हैं। जो मनुष्य मेरे द्वारा गाये गये इस गीत को गाता है, वह भगवान को प्रसन्न कर सकता है। ऐसा भक्त भगवान की भक्ति में स्थिर होकर परमेश्वर से मनवांछित फल प्राप्त कर सकता है।

78    जो भक्त प्रातःकाल उठकर हाथ जोड़कर शिवजी के द्वारा गाई गई इस स्तुति का जप करता है और अन्यों को सुनाता है, वह निश्चय ही समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।

79    हे राजकुमारों, मैंने तुम्हें जो स्तुति गाकर सुनाई वह परमात्मा स्वरूप भगवान को प्रसन्न करने के निमित्त थी। मैं तुम्हें इस स्तुति को गाने की सलाह देता हूँ, क्योंकि यह बड़ी-से-बड़ी तपस्या के समान प्रभावशाली है। इस प्रकार जब तुम सब परिपक्व हो जाओगे तो तुम्हारा जीवन सफल होगा और तुम्हें सारे अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त हो सकेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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पृथु महाराज द्वारा स्तुति (4.20)

23-24 हे प्रभो, आप वर देने वाले देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आपसे ऐसे वर क्यों माँगेगा जो प्रकृति के गुणों से मोहग्रस्त जीवात्माओं के निमित्त हैं? ऐसे वरदान तो नरक में वास करने वाली जीवात्माओं को भी अपने जीवन-काल में स्वतः प्राप्त होते रहते हैं। हे भगवन, आप निश्चित ही अपने साथ तादात्म्य प्रदान कर सकते हैं। किन्तु मैं ऐसा वर नहीं चाहता। हे भगवान, मैं आपसे तादात्म्य के वर की इच्छा नहीं करता, क्योंकि इसमें आपके चरणकमलों का अमृत रस नहीं है। मैं तो दस लाख कान प्राप्त करने का वर माँगता हूँ जिससे मैं आपके शुद्ध भक्तों के मुखारविन्दों से आपके चरणकमलों की महिमा का गान सुन सकूँ ।

25-26 हे भगवान, महान पुरुष आपका महिमा-गान उत्तम श्लोकों द्वारा करते हैं। आपके चरणकमलों की प्रशंसा केसर कणों के समान है। जब महापुरुषों के मुखों से निकली दिव्य वाणी आपके चरणकमलों की केसर-धूलि की सुगन्ध का वहन करती है, तो विस्मृत जीवात्मा आपसे अपने सम्बन्ध को स्मरण करता है। इस प्रकार भक्तगण क्रमशः जीवन के वास्तविक मूल्य को समझ पाते हैं। अतः हे भगवान, मैं आपके शुद्ध भक्त के मुख से आपके विषय में सुनने का अवसर प्राप्त करने के अतिरिक्त किसी अन्य वर की कामना नहीं करता। हे अत्यन्त कीर्तिमय भगवान, यदि कोई शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर आपके कार्यकलापों की कीर्ति का एक बार भी श्रवण करता है, तो जब तक कि वह पशु तुल्य न हो, वह भक्तों की संगति नहीं छोड़ता, क्योंकि कोई भी बुद्धिमान पुरुष ऐसा करने की लापरवाही नहीं करेगा। आपकी महिमा के कीर्तन और श्रवण की पूर्णता तो धन की देवी लक्ष्मीजी द्वारा तक स्वीकार की गई थीं जो आपके अनन्त कार्यकलापों तथा दिव्य महिमा को सुनने की इच्छुक रहती थीं।

27-28 अब मैं भगवान के चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहना और कमलधारिणी लक्ष्मीजी के समान सेवा करना चाहता हूँ, क्योंकि भगवान समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। मुझे भय है कि लक्ष्मीजी तथा मेरे बीच झगड़ा छिड़ जाएगा, क्योंकि हम दोनों एक ही सेवा में एकाग्र भाव से लगे होंगे। हे जगदीश्वर, लक्ष्मीजी विश्व की माता हैं, तो भी मैं सोचता हूँ कि उनकी सेवा में हस्तक्षेप करने तथा उसी पद पर जिसके प्रति वे इतनी आसक्त हैं कार्य करने से, वे मुझसे क्रुद्ध हो सकती हैं। फिर भी मुझे आशा है कि इस भ्रम के होते हुए भी आप मेरा पक्ष लेंगे क्योंकि आप दीनवत्सल हैं और भक्त की तुच्छ सेवाओं को भी बहुत करके मानते हैं। अतः यदि वे रुष्ट भी हो जाँय तो आपको कोई हानि नहीं होगी, क्योंकि आप आत्मनिर्भर हैं, अतः उनके बिना भी आपका काम चल सकता है।

29 बड़े-बड़े साधु पुरुष जो सदा ही मुक्त रहते हैं, आपकी भक्ति करते हैं, क्योंकि भक्ति के द्वारा ही इस संसार के मोहों से छुटकारा पाया जा सकता है। हे भगवन, मुक्त जीवों द्वारा आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने का एकमात्र कारण यही हो सकता है कि ऐसे जीव आपके चरणकमलों का निरन्तर ध्यान धरते हैं।

30 हे भगवन, आपने अपने विशुद्ध भक्त से जो कुछ कहा है, वह निश्चय ही अत्यन्त मोह में डालने वाला है। आपने वेदों में जो लालच दिये हैं, वे शुद्ध भक्तों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। सामान्य लोग वेदों की अमृतवाणी से बँधकर कर्मफल से मोहित होकर पुनः पुनः सकाम कर्मों में लगे रहते हैं।

31 हे भगवन, आपकी माया के कारण इस भौतिक जगत के सभी प्राणी अपनी वास्तविक स्वाभाविक स्थिति भूल गये हैं और वे अज्ञानवश समाज, मित्रता तथा प्रेम के रूप में निरन्तर भौतिक सुख की कामना करते हैं। अतः आप मुझे किसी प्रकार का भौतिक लाभ माँगने के लिए न कहें, बल्कि जिस प्रकार पिता अपने पुत्र द्वारा माँगने की प्रतीक्षा किये बिना उसके कल्याण के लिए सब कुछ करता है, उसी प्रकार से आप भी जो मेरे हित में हो मुझे प्रदान करें।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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ध्रुव महाराज द्वारा स्तुति (4.9)

6-8 ध्रुव महाराज ने कहा: हे भगवन, आप सर्वशक्तिमान हैं। मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर आपने मेरी सभी सोई हुई इन्द्रियों को – हाथों, पाँवों, स्पर्शेन्द्रिय, प्राण तथा मेरी वाणी को – जागृत कर दिया है। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवन आप सर्वश्रेष्ठ हैं, किन्तु आप आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में अपनी विभिन्न शक्तियों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट होते रहते हैं। आप अपनी बहिरंगा शक्ति से भौतिक जगत की समस्त शक्ति को उत्पन्न करके बाद में भौतिक जगत में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं। आप परम पुरुष हैं, और क्षणिक गुणों से अनेक प्रकार की सृष्टि करते हैं, जिस प्रकार की अग्नि विभिन्न आकार के काष्ठखण्डों में प्रविष्ट होकर विविध रूपों में चमकती हुई जलती है। हे स्वामी, ब्रह्मा पूर्ण रूप से आपके शरणागत हैं। आरम्भ में आपने उन्हें ज्ञान दिया तो वे समस्त ब्रह्माण्ड को उसी तरह देख और समझ पाये जिस प्रकार कोई मनुष्य नींद से जगकर तुरन्त अपने कार्य समझने लगता है। आप मुक्तिकामी समस्त पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं और आप समस्त दीन-दुखियों के मित्र हैं। अतः पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वान पुरुष आपको किस प्रकार भुला सकता है?

9 जो व्यक्ति इस चमड़े के थैले (शवतुल्य देह) की इन्द्रियतृप्ति के लिए ही आपकी पूजा करते हैं, वे निश्चय ही आपकी माया द्वारा प्रभावित हैं। आप जैसे कल्पवृक्ष तथा जन्म-मृत्यु से मुक्ति के कारण को पार करके भी मेरे समान मूर्ख व्यक्ति आपसे इन्द्रियतृप्ति हेतु वरदान चाहते हैं, जो नरक में रहनेवाले व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध हैं।

10-11 हे भगवन, आपके चरणकमलों के ध्यान से या शुद्ध भक्तों से आपकी महिमा का श्रवण करने से जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, वह उस ब्रह्मानन्द अवस्था से कहीं बढ़कर है, जिसमें मनुष्य अपने को निर्गुण ब्रह्म से तदाकार हुआ सोचता है। चूँकि ब्रह्मानन्द भी भक्ति से मिलनेवाले दिव्य आनन्द से परास्त हो जाता है, अतः उस क्षणिक आनन्दमयता का क्या कहना, जिसमें कोई स्वर्ग तक पहुँच जाये और जो कालरूपी तलवार के द्वारा विनष्ट हो जाता है? भले ही कोई स्वर्ग तक क्यों न उठ जाये, कालक्रम में वह नीचे गिर जाता है। ध्रुव महाराज ने आगे कहा: हे अनन्त भगवान, कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं उन महान भक्तों की संगति कर सकूँ जो आपकी दिव्य प्रेमा भक्ति में उसी प्रकार निरन्तर लगे रहते हैं जिस प्रकार नदी की तरंगें लगातार बहती रहती हैं। ऐसे दिव्य भक्त नितान्त कल्मषरहित जीवन बिताते हैं। मुझे विश्वास है कि भक्तियोग से मैं संसार रूपी अज्ञान के सागर को पार कर सकूँ गा जिसमें अग्नि की लपटों के समान भयंकर संकटों की लहरें उठ रही हैं। यह मेरे लिए सरल रहेगा, क्योंकि मैं आपके दिव्य गुणों तथा लीलाओं के सुनने के लिए पागल हो रहा हूँ, जिनका अस्तित्व शाश्वत है।

12 हे कमलनाभ भगवान, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे भक्त की संगति करता है, जिसका हृदय सदैव आपके चरणकमलों की सुगन्ध में लुब्ध रहता है, तो वह न तो कभी अपने भौतिक शरीर के प्रति आसक्त रहता है और न सन्तति, मित्र, घर, सम्पत्ति तथा पत्नी के प्रति देहात्मबुद्धि रखता है, जो भौतिकतावादी पुरुषों को अत्यन्त ही प्रिय हैं। वस्तुतः वह उसकी तनिक भी परवाह नहीं करता।

13 हे भगवन, हे परम अजन्मा, मैं जानता हूँ कि जीवात्माओं की विभिन्न योनियाँ, यथा पशु, पक्षी, रेंगनेवाले जीव, देवता तथा मनुष्य सारे ब्रह्माण्ड में फैली हुई हैं, जो समग्र भौतिक शक्ति से उत्पन्न हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि ये कभी प्रकट रूप में रहती है, तो कभी अप्रकट रूप में, किन्तु मैंने ऐसा परम रूप कभी नहीं देखा जैसा कि अब आपका देख रहा हूँ। अब किसी भी सिद्धान्त के बनाने की आवश्यकता नहीं रह गई है।

14-15 हे भगवन, प्रत्येक कल्प के अन्त में भगवान गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्माण्ड में दिखाई पड़नेवाली प्रत्येक वस्तु को अपने उदर में समाहित कर लेते हैं। वे शेषनाग की गोद में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से एक डंठल में से सुनहला कमल-पुष्प फूट निकलता है और इस कमल-पुष्प पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं। मैं समझ सकता हूँ कि आप वही परमेश्वर हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवन, अपनी अखण्ड दिव्य चितवन से आप बौद्धिक कार्यों की समस्त अवस्थाओं के परम साक्षी हैं। आप शाश्वत-मुक्त हैं, आप शुद्ध सत्व में विद्यमान रहते हैं और अपरिवर्तित परमात्मा रूप में विद्यमान हैं। आप छह ऐश्वर्यों से युक्त आदि भगवान है और भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के शाश्वत स्वामी हैं। इस प्रकार आप सामान्य जीवात्माओं से सदैव भिन्न रहते हैं। विष्णु रूप में आप सारे ब्रह्माण्ड के कार्यों का लेखा-जोखा रखते हैं, तो भी आप पृथक रहते हैं और समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

16 हे भगवन, ब्रह्म के आपके निर्गुण प्राकट्य में सदैव दो विरोधी तत्त्व रहते हैं – ज्ञान तथा अविद्या। आपकी विविध शक्तियाँ निरन्तर प्रकट होती हैं, किन्तु निर्गुण ब्रह्म, जो अविभाज्य, आदि, अपरिवर्तित, असीम तथा आनन्दमय है, भौतिक जगत का कारण है। चूँकि आप वही निर्गुण ब्रह्म हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

17-19 हे भगवन, हे परमेश्वर, आप सभी वरों के परम साक्षात रूप हैं, अतः जो बिना किसी कामना के आपकी भक्ति पर दृढ़ रहता है, उसके लिए राजा बनने तथा राज करने की अपेक्षा आपके चरणकमलों की रज श्रेयस्कर है। आपके चरणकमल की पूजा का यही वरदान है। आप अपनी अहैतुकी कृपा से मुझ जैसे अज्ञानी भक्त के लिए पूर्ण परिपालक हैं, जिस प्रकार गाय अपने नवजात बछड़े को दूध पिलाती है और हमले से उसकी रक्षा करके उसकी देखभाल करती है। मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, जब सदविचारों से पूर्ण अन्तःकरण वाले ध्रुव महाराज ने अपनी प्रार्थना समाप्त की तो अपने भक्तों तथा दासों पर अत्यन्त दयालु भगवान ने उन्हें बधाई दी और इस प्रकार कहा। भगवान ने कहा: हे राजपुत्र ध्रुव, तुमने पवित्र व्रतों का पालन किया है और मैं तुम्हारी आन्तरिक इच्छा भी जानता हूँ। यद्यपि तुम अत्यन्त महत्वाकांक्षी हो और तुम्हारी इच्छा को पूरा कर पाना कठिन है, तो भी मैं उसे पूरा करूँगा। तुम्हारा कल्याण हो।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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स्तुतियाँ (4.7)

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स्तुतियाँ (4.7)

26-28 दक्ष ने भगवान को सम्बोधित करते हुए कहा-- हे प्रभु, आप समस्त कल्पना-अवस्थाओं से परे हैं। आप परम चिन्मय, भय-रहित और भौतिक माया को वश में रखने वाले हैं। यद्यपि आप माया में स्थित प्रतीत होते हैं, किन्तु आप दिव्य है। आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं, क्योंकि आप परम स्वतंत्र हैं। पुरोहितों ने कहा-- हे भगवन, आप भौतिक कल्मष से परे हैं। शिव के अनुचरों द्वारा दिये गये शाप के कारण हम सकाम कर्म में लिप्त हैं, अतः हम पतित हो चुके हैं और आपके विषय में कुछ भी नहीं जानते। उल्टे, हम यज्ञ के नाम पर अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए वेदत्रयी के आदेशों में आ फँसे हैं। हमें ज्ञात है कि आपने देवताओं को उनके भाग दिये जाने की व्यवस्था कर रखी है। सभा के सदस्यों ने कहा -- हे सन्तप्त जीवों के एकमात्र आश्रय, इस बद्ध संसार के दुर्ग में काल-रूपी सर्प प्रहार करने की ताक में रहता है। यह संसार तथाकथित सुख तथा दुख की खंदकों से भरा पड़ा है और अनेक हिंस्र पशु आक्रमण करने को सन्नद्ध रहते हैं। शोक रूपी अग्नि सदैव प्रज्ज्वलित रहती है और मृषा सुख की मृगतृष्णा सदैव मोहती रहती है, किन्तु मनुष्य को इनसे छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार अज्ञानी पुरुष जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों के भार से सदा दबे रहते हैं। हमें ज्ञात नहीं कि वे आपके चरणकमलों की शरण में कब जाएँगे।

29 शिवजी ने कहा: हे भगवान, मेरा मन तथा मेरी चेतना निरन्तर आपके पूजनीय चरणकमलों पर स्थिर रहती है, जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के स्रोत होने के कारण समस्त मुक्त महामुनियों द्वारा पूजित हैं क्योंकि आपके चरणकमल ही पूजा के योग्य हैं। आपके चरणकमलों में मन को स्थिर रखकर मैं उन व्यक्तियों से विचलित नहीं होता जो यह कहकर मेरी निन्दा करते हैं कि मेरे कर्म पवित्र नहीं हैं। मैं उनके आरोपों की परवाह नहीं करता और मैं उसी प्रकार दयावश उन्हें क्षमा कर देता हूँ, जिस प्रकार आप समस्त जीवों के प्रति दया प्रदर्शित करते हैं।

30 भृगु मुनि ने कहा: हे भगवन, सर्वोच्च ब्रह्मा से लेकर सामान्य चींटी तक सारे जीव आपकी माया शक्ति के दुर्लंघ्य जादू के वशीभूत हैं और इस प्रकार वे अपनी स्वाभाविक स्थिति से अपरिचित हैं। देहात्मबुद्धि में विश्वास करने के कारण सभी मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं। वे वास्तव में यह नहीं समझ पाते कि आप प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा के रूप में कैसे रहते हैं, न तो वे आपके परम पद को ही समझ सकते हैं। किन्तु आप समस्त शरणागत जीवों के नित्य सखा एवं रक्षक हैं। अतः आप हम पर कृपालु हों और हमारे समस्त पापों को क्षमा कर दें।

31 ब्रह्माजी ने कहा: हे भगवन, यदि कोई पुरुष आपको ज्ञान अर्जित करने की विभिन्न विधियों द्वारा जानने का प्रयास करे तो वह आपके व्यक्तित्व एवं शाश्वत रूप को नहीं समझ सकता। आपकी स्थिति भौतिक सृष्टि की तुलना में सदैव दिव्य है, जबकि आपको समझने के प्रयास, लक्ष्य तथा साधन सभी भौतिक और काल्पनिक हैं।

32-33 राजा इन्द्र ने कहा: हे भगवन, प्रत्येक हाथ में आयुध धारण किये आपका यह अष्टभुज दिव्य रूप सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु प्रकट होता है और मन तथा नेत्रों को अत्यन्त आनन्दित करने वाला है। आप इस रूप में अपने भक्तों से ईर्ष्या करने वाले असुरों को दण्ड देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा: हे भगवान, वह यज्ञ ब्रह्मा के आदेशानुसार व्यवस्थित किया गया था, किन्तु दुर्भाग्यवश दक्ष से क्रुद्ध होकर शिव ने समस्त दृश्य को ध्वस्त कर दिया और उनके रोष के कारण यज्ञ के निमित्त लाये गये पशु निर्जीव पड़े हैं। अतः यज्ञ की सारी तैयारियाँ बेकार हो चुकी हैं। अब आपके कमल जैसे नेत्रों की चितवन से इस यज्ञस्थल की पवित्रता पुनः प्राप्त हो।

34 ऋषियों ने प्रार्थना की: हे भगवान, आपके कार्य अत्यन्त आश्चर्यमय हैं और यद्यपि आप सब कुछ अपनी विभिन्न शक्तियों से करते हैं, किन्तु आप उनसे लिप्त नहीं होते। यहाँ तक कि आप सम्पत्ति की देवी लक्ष्मीजी से भी लिप्त नहीं है, जिनकी पूजा ब्रह्माजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं द्वारा उनकी कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती है।

35 सिद्धों ने स्तुति की: हे भगवन, हमारे मन उस हाथी के समान हैं, जो जंगल की आग से त्रस्त होने पर नदी में प्रविष्ट होते ही सभी कष्ट भूल सकता है। उसी तरह ये हमारे मन भी आपकी दिव्य लीलाओं की अमृत-नदी में निमज्जित हैं और ऐसे दिव्य आनन्द में निरन्तर बने रहना चाहते हैं, जो परब्रह्म में तदाकार होने के सुख के समान ही है।

36 दक्ष की पत्नी ने इस प्रकार प्रार्थना की-- हे भगवान, यह हमारा सौभाग्य है कि आप यज्ञस्थल में पधारे हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ और आपसे प्रार्थना करती हूँ कि इस अवसर पर आप प्रसन्न हों। यह यज्ञस्थल आपके बिना शोभा नहीं पा रहा था, जिस प्रकार कि सिर के बिना धड़ शोभा नहीं पाता।

37-40 विभिन्न लोकों के लोकपालों ने इस प्रकार कहा: हे भगवन, हम अपनी प्रत्यक्ष प्रतीति पर ही विश्वास करते हैं, किन्तु इस परिस्थिति में हम नहीं जानते कि हमने आपका दर्शन वास्तव में अपनी भौतिक इन्द्रियों से किया है अथवा नहीं। इन इन्द्रियों से तो हम दृश्य जगत को ही देख पाते हैं, किन्तु आप तो पाँच तत्त्वों के परे हैं। आप तो छठवें तत्त्व हैं। अतः हम आपको भौतिक जगत की सृष्टि के रूप में देख रहे हैं। महान योगियों ने कहा: हे भगवान, जो लोग यह जानते हुए कि आप समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं, आपको अपने से अभिन्न देखते हैं, वे निश्चय ही आपको परम प्रिय हैं। जो आपको स्वामी तथा अपने आपको दास मानकर आपकी भक्ति में अनुरक्त रहते हैं, आप उन पर परम कृपालु रहते हैं। आप कृपावश उन पर सदैव हितकारी रहते हैं। हम उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने नाना प्रकार की वस्तुएँ उत्पन्न कीं और उन्हें भौतिक जगत के त्रिगुणों के वशीभूत कर दिया जिससे उनकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हो सके। वे स्वयं बहिरंगा शक्ति के अधीन नहीं हैं, वे साक्षात रूप में भौतिक गुणों के विविध प्राकट्य से रहित हैं और मिथ्या मायामोह से दूर हैं। साक्षात वेदों ने कहा: हे भगवान, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आप सतोगुण के आश्रय होने के कारण समस्त धर्म तथा तपस्या के स्रोत हैं; आप समस्त भौतिक गुणों से परे हैं और कोई भी न तो आपको और न आपकी वास्तविक स्थिति को जानने वाला है।

41-42 अग्निदेव ने कहा: हे भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आपकी ही कृपा से मैं प्रज्ज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी हूँ और मैं यज्ञ में प्रदत्त घृतमिश्रित आहुतियाँ स्वीकार करता हूँ। यजुर्वेद में वर्णित पाँच प्रकार की हवियाँ आपकी ही विभिन्न शक्तियाँ हैं और आपकी पूजा पाँच प्रकार के वैदिक मंत्रों से की जाती है। यज्ञ का अर्थ ही आप अर्थात परम भगवान है। देवताओं ने कहा: हे भगवान, पहले जब प्रलय हुआ था, तो आपने भौतिक जगत की विभिन्न शक्तियों को संरक्षित कर लिया था। उस समय ऊर्ध्वलोकों के सभी वासी, जिनमें सनक जैसे मुक्त जीव भी थे, दार्शनिक चिन्तन द्वारा आपका ध्यान कर रहे थे। अतः आप आदिपुरुष हैं। आप प्रलयकालीन जल में शेषशय्या पर शयन करते हैं। अब आज आप हमारे समक्ष दिख रहे हैं। हम सभी आपके दास हैं। कृपया हमें शरण दीजिये।

43 गन्धर्वों ने कहा: हे भगवन, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र तथा मरीचि समेत समस्त देवता तथा ऋषिगण आपके ही शरीर के विभिन्न अंश हैं। आप परम शक्तिमान हैं, यह सारी सृष्टि आपके लिए खिलवाड़ मात्र है। हम सदैव आपको पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान रूप में स्वीकार करते हैं और आपको सादर नमस्कार करते हैं।

44-45 विद्याधरों ने कहा: हे प्रभु, यह मानव देह सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त है, किन्तु आपकी बहिरंगा शक्ति के वशीभूत होकर जीवात्मा अपने आपको भ्रमवश देह तथा भौतिक शक्ति मान बैठता है, अतः माया के वश में आकर वह सांसारिक भोग द्वारा सुखी बनना चाहता है। वह दिग्भ्रमित हो जाता है और क्षणिक माया-सुख के प्रति सदैव आकर्षित होता रहता है। किन्तु आपके दिव्य कार्यकलाप इतने प्रबल हैं कि यदि कोई उनके श्रवण तथा कीर्तन में अपने को लगाए तो उसका उद्धार हो सकता है। ब्राह्मणों ने कहा: हे भगवान, आप साक्षात यज्ञ हैं। आप ही घृत की आहुति हैं; आप अग्नि हैं; आप वैदिक मंत्रों के उच्चारण हैं, जिनसे यज्ञ कराया जाता है; आप ईंधन हैं; आप ज्वाला हैं; आप कुश हैं और आप ही यज्ञ के पात्र हैं। आप यज्ञकर्ता पुरोहित हैं, इन्द्र आदि देवतागण आप ही हैं और आप यज्ञ-पशु हैं। जो कुछ भी यज्ञ में अर्पित किया जाता है, वह आप या आपकी शक्ति है।

46-47 हे भगवान, हे साक्षात वैदिक ज्ञान, अत्यन्त पुरातन काल पहले, पिछले युग में जब आप महान वराह अवतार के रूप में प्रकट हुए थे तो आपने पृथ्वी को जल के भीतर से इस प्रकार ऊपर उठा लिया था जिस प्रकार कोई हाथी सरोवर में से कमलिनी को उठा लाता है। जब आपने उस विराट वराह रूप में दिव्य गर्जन किया, तो उस ध्वनि को यज्ञ मंत्र के रूप में स्वीकार कर लिया गया और सनक जैसे महान ऋषियों ने उसका ध्यान करते हुए आपकी स्तुति की। हे भगवान, हम आपके दर्शन के लिए प्रतीक्षारत थे क्योंकि हम वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार यज्ञ करने में असमर्थ रहे हैं। अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों। आपके पवित्र नाम-कीर्तन मात्र से समस्त बाधाएँ दूर हो जाती हैं। हम आपके समक्ष आपको सादर नमस्कार करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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माता देवहूति द्वारा स्तुति (3.33)

1-2 श्री मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार भगवान कपिल की माता एवं कर्दम मुनि की पत्नी देवहूति भक्तियोग तथा दिव्य ज्ञान सम्बन्धी समस्त अविद्या से मुक्त हो गई। उन्होंने उन भगवान को नमस्कार किया जो मुक्ति की पृष्ठभूमि सांख्य दर्शन के प्रतिपादक हैं और तब निम्नलिखित स्तुति द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। देवहूति ने कहा: ब्रह्माजी अजन्मा कहलाते हैं, क्योंकि वे आपके उदर से निकलते हुए कमल-पुष्प से जन्म लेते हैं और आप ब्रह्माण्ड के तल पर समुद्र में शयन करते रहते हैं। लेकिन ब्रह्माजी ने भी केवल अनन्त ब्रह्माण्डों के उद्गम स्रोत, आपका ध्यान ही किया।

3 हे भगवान, यद्यपि आपको निजी रूप से कुछ करना नहीं रहता किन्तु आपने अपनी शक्तियाँ प्रकृति के गुणों की अन्तःक्रियाओं में वितरित कर दी हैं जिसके बल पर दृश्यजगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार होता है। हे भगवान, आप दृढ़संकल्प हैं और समस्त जीवों के भगवान हैं। आपने उन्हीं के लिए यह संसार रचा और यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आपकी शक्तियाँ अनेक प्रकार से कार्य करती हैं। यह हमारे लिए अकल्पनीय है।

4-5 आपने मेरे उदर से श्रीभगवान के रूप में जन्म लिया है। हे भगवन, यह उस परमेश्वर के लिए किस प्रकार सम्भव हो सका जिसके उदर में यह सारा दृश्य-जगत स्थित है? इसका उत्तर होगा कि ऐसा सम्भव है, क्योंकि कल्प के अन्त में आप वटवृक्ष की एक पत्ती पर लेट जाते हैं और एक छोटे से बालक की भाँति अपने चरणकमल के अँगूठे को चूसते हैं। हे भगवान आपने पतितों के पापपूर्ण कर्मों को घटाने तथा उनके भक्ति एवं मुक्ति के ज्ञान को बढ़ाने के लिए यह शरीर धारण किया है। चूँकि ये पापात्माएँ आपके निर्देश पर आश्रित हैं, अतः आप स्वेच्छा से सूकर तथा अन्य रूपों में अवतरित होते हैं। इसी प्रकार आप अपने आश्रितों को दिव्य ज्ञान वितरित करने के लिए प्रकट हुए हैं।

6-8 उन व्यक्तियों की आध्यात्मिक उन्नति के विषय में क्या कहा जाय जो परम पुरुष का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं, यदि कुत्ता खाने वाले परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी भगवान के पवित्र नाम का एक बार भी उच्चारण करता है अथवा उनका कीर्तन करता है, उनकी लीलाओं का श्रवण करता है, उन्हें नमस्कार करता है, या कि उनका स्मरण करता है, तो वह तुरन्त वैदिक यज्ञ करने के लिए योग्य बन जाता है। ओह! वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्वाएँ आपके पवित्र नाम का जप करती हैं! कुत्ता खाने वाले वंशों में उत्पन्न होते हुए भी ऐसे पुरुष पूजनीय हैं। जो पुरुष आपके पवित्र नाम का जप करते हैं उन्होंने सभी प्रकार की तपस्याएँ तथा हवन किए होंगे और आर्यों के सदाचार प्राप्त किये होंगे। आपके पवित्र नाम का जप करते रहने के लिए उन्होंने तीर्थस्थानों में स्नान किया होगा, वेदों का अध्ययन किया होगा और अपेक्षित हर वस्तु की पूर्ति की होगी। हे भगवान, मुझे विश्र्वास है कि आप कपिल नाम से स्वयं पुरुषोत्तम भगवान विष्णु अर्थात परब्रह्म हैं। सारे ऋषि-मुनि इन्द्रियों तथा मन के उद्वेगों से मुक्त होकर आपका ही चिन्तन करते हैं, क्योंकि आपकी कृपा से ही मनुष्य भव-बन्धन से छूट सकता है। प्रलय के समय सारे वेद आपमें ही स्थान पाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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ब्रह्मा द्वारा स्तुति (3.9)

1-2 ब्रह्माजी ने कहा: हे प्रभु, आज अनेकानेक वर्षों की तपस्या के बाद मैं आपके विषय में जान पाया हूँ। ओह! देहधारी जीव कितने अभागे हैं कि वे आपके स्वरूप को जान पाने में असमर्थ हैं। हे स्वामी, आप एकमात्र ज्ञेय तत्त्व हैं, क्योंकि आपसे परे कुछ भी सर्वोच्च नहीं है। यदि कोई वस्तु आपसे श्रेष्ठ प्रतीत होती भी है, तो वह परम पूर्ण नहीं है। आप पदार्थ की सृजन शक्ति को प्रकट करके ब्रह्म रूप में विद्यमान हैं। मैं जिस रूप को देख रहा हूँ वह भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त है और अन्तरंगा शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए अवतरित हुआ है। यह अवतार अन्य अनेक अवतारों का उद्गम है और मैं स्वयं आपके नाभि रूपी घर से उगे कमल के फूल से उत्पन्न हुआ हूँ।

3-4 हे प्रभु, मैं आपके इस सच्चिदानन्द रूप से श्रेष्ठ अन्य कोई रूप नहीं देखता। वैकुण्ठ में आपकी निर्विशेष ब्रह्मज्योति में न तो यदाकदा परिवर्तन होता है और न अन्तरंगा शक्ति में कोई ह्रास आता है। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि जहाँ मैं अपने भौतिक शरीर तथा इन्द्रियों पर गर्वित हूँ वहीं आप विराट जगत का कारण होते हुए भी पदार्थ द्वारा अस्पृश्य हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण का यह वर्तमान रूप या उनके द्वारा विस्तार किया हुआ कोई भी दिव्य रूप सारे ब्रह्माण्डों के लिए समान रूप से मंगलमय है। चूँकि आपने यह नित्य साकार रूप प्रकट किया है, जिसका ध्यान आपके भक्त करते हैं, इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। जिन्हें नरकगामी होना बदा है वे आपके साकार रूप की उपेक्षा करते हैं, क्योंकि वे लोग भौतिक विषयों की ही कल्पना करते रहते हैं।

5-7 हे प्रभु, जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूँघते हैं, वे आपकी भक्तिमय सेवा को स्वीकार करते हैं। उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते। हे प्रभु, संसार के लोग समस्त भौतिक चिन्ताओं से उद्विग्न रहते हैं--वे सदैव भयभीत रहते हैं। वे सदैव धन, शरीर तथा मित्रों की रक्षा करने का प्रयास करते हैं, वे शोक तथा अवैध इच्छाओं एवं साज-सामग्री से पूरित रहते हैं तथा लोभवश "मैं" तथा "मेरे" की नश्वरधारणाओं पर अपने दुराग्रह को आधारित करते हैं। जब तक वे आपके सुरक्षित चरणकमलों की शरण ग्रहण नहीं करते तब तक वे ऐसी चिन्ताओं से भरे रहते हैं। हे प्रभु, वे व्यक्ति जो आपके दिव्य कार्यकलापों के विषय में सर्वमंगलकारी कीर्तन तथा श्रवण करने से वंचित हैं निश्चित रूप से वे अभागे हैं और सद्बुद्धि से विहीन हैं। वे तनिक देर के लिए इन्द्रियतृप्ति का भोग करने हेतु अशुभ कार्यों में लग जाते हैं।

8-11 हे महान कर्ता, मेरे प्रभु, ये सभी दीन प्राणी निरन्तर भूख, प्यास, शीत, कफ तथा पित्त से व्यग्र रहते हैं, इन पर कफ युक्त शीतऋतु, भीषण गर्मी, वर्षा तथा अन्य अनेक क्षुब्ध करने वाले तत्त्व आक्रमण करते रहते हैं और ये प्रबल कामेच्छाओं तथा दुःसह क्रोध से अभिभूत होते रहते हैं। मुझे इन पर दया आती है और मैं इनके लिए अत्यन्त सन्तप्त रहता हूँ। हे प्रभु, आत्मा के लिए भौतिक दुखों का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता। फिर भी जब तक बद्धात्मा शरीर को इन्द्रियभोग के निमित्त देखता है तब तक वह आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा प्रभावित होने से भौतिक कष्टों के पाश से बाहर नहीं निकल पाता। ऐसे अभक्तगण अपनी इन्द्रियों को अत्यन्त कष्टप्रद तथा विस्तृत कार्य में लगाते हैं और रात में उनिद्र रोग से पीड़ित रहते हैं, क्योंकि उनकी बुद्धि विविध मानसिक चिन्ताओं के कारण उनकी नींद को लगातार भंग करती रहती है। वे अतिमानवीय शक्ति द्वारा अपनी विविध योजनाओं में हताश कर दिए जाते हैं। यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यदि आपकी दिव्य कथाओं से विमुख रहते हैं, तो वे भी इस भौतिक जगत में ही चक्कर लगाते रहते हैं। हे प्रभु आपके भक्तगण प्रामाणिक श्रवण विधि द्वारा कानों के माध्यम से आपको देख सकते हैं और इस तरह उनके हृदय विमल हो जाते हैं तथा आप वहाँ पर अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। आप अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि आप अपने को उस अध्यात्म के विशेष नित्य रूप में प्रकट करते हैं जिसमें वे सदैव आपका चिन्तन करते हैं।

12-15 हे प्रभु, आप उन देवताओं की पूजा से बहुत अधिक तुष्ट नहीं होते जो आपकी पूजा अत्यन्त ठाठ-बाट से तथा विविध साज-सामग्री के साथ करते तो हैं, किन्तु भौतिक लालसाओं से पूर्ण होते हैं। आप हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में अपनी अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिए स्थित रहते हैं। आप नित्य शुभचिन्तक हैं, किन्तु आप अभक्तों के लिए अनुपलब्ध हैं। वैदिक अनुष्ठान, दान, कठोर तपस्या तथा दिव्य सेवा जैसे पुण्य कार्य भी, जो लोगों द्वारा सकाम फलों को आपको अर्पित करके आपकी पूजा करने तथा आपको तुष्ट करने के उद्देश्य से किये जाते हैं, लाभप्रद होते हैं। धर्म के ऐसे कार्य व्यर्थ नहीं जाते। मैं उन परब्रह्म को नमस्कार करता हूँ जो अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा शाश्वत विशिष्ट अवस्था में रहते हैं। उनका विभेदित न किया जा सकने वाला निर्विशेष स्वरूप आत्म-साक्षात्कार हेतु बुद्धि द्वारा पहचाना जाता है। मैं उनको नमस्कार करता हूँ जो अपनी लीलाओं के द्वारा विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का आनन्द लेते हैं। मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जिनके अवतार, गुण तथा कर्म सांसारिक मामलों के रहस्यमय अनुकरण हैं। जो व्यक्ति इस जीवन को छोड़ते समय अनजाने में भी उनके दिव्य नाम का आवाहन करता है उसके जन्म-जन्म के पाप तुरन्त धुल जाते हैं और वह उन भगवान को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।

16-20 आप लोक रूपी वृक्ष की जड़ हैं। यह वृक्ष सर्वप्रथम भौतिक प्रकृति को तीन तनों के रूप में – मुझ, शिव तथा सर्वशक्तिमान आपके रूप में – सृजन, पालन तथा संहार के लिए भेदकर निकला है और हम तीनों से अनेक शाखाएँ निकल आई हैं। इसलिए हे विराट जगत रूपी वृक्ष, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। सामान्य लोग मूर्खतापूर्ण कार्यों में लगे रहते हैं। वे अपने मार्गदर्शन हेतु आपके द्वारा प्रत्यक्ष घोषित लाभप्रद कार्यों में अपने को नहीं लगाते। जब तक उनकी मूर्खतापूर्ण कार्यों की प्रवृत्ति बलवती बनी रहती है तब तक जीवन-संघर्ष में उनकी सारी योजनाएँ छिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ जो नित्यकाल स्वरूप हैं। हे प्रभु, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ जो अथक काल तथा समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं। यद्यपि मैं ऐसे स्थान में स्थित हूँ जो दो परार्धों की अवधि तक विद्यमान रहेगा, और यद्यपि मैं ब्रह्माण्ड के अन्य सभी लोकों का अगुआ हूँ, और यद्यपि मैंने आत्म-साक्षात्कार हेतु अनेकानेक वर्षों तक तपस्या की है, तथापि मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु, आप अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करने हेतु स्वेच्छा से विविध जीवयोनियों में, मनुष्येतर पशुओं में तथा देवताओं में प्रकट होते हैं। आप भौतिक कल्मष से तनिक भी प्रभावित नहीं होते। आप धर्म के अपने सिद्धान्तों के दायित्व को पूरा करने के लिए ही आते हैं, अतः हे परमेश्वर ऐसे विभिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु, आप उस प्रलयकालीन जल में शयन करने का आनन्द लेते हैं जहाँ प्रचण्ड लहरें उठती रहती हैं और बुद्धिमान लोगों को अपनी नींद का सुख दिखाने के लिए आप सर्पों की शय्या का आनन्द लेते हैं। उस काल में ब्रह्माण्ड के सारे लोक आपके उदर में स्थित रहते हैं।

21 हे मेरी पूजा के लक्ष्य, मैं आपकी कृपा से ब्रह्माण्ड की रचना करने हेतु आपके कमल- नाभि रूपी घर से उत्पन्न हुआ हूँ। जब आप नींद का आनन्द ले रहे थे, तब ब्रह्माण्ड के ये सारे लोक आपके दिव्य उदर के भीतर स्थित थे। अब आपकी नींद टूटी है, तो आपके नेत्र प्रातःकाल में खिलते हुए कमलों की तरह खुले हुए हैं।

22 परमेश्वर मुझ पर कृपालु हों। वे इस जगत में सारे जीवों के एकमात्र मित्र तथा आत्मा हैं और वे अपने छः ऐश्वर्यों द्वारा जीवों के चरम सुख हेतु इन सबों का पालन-पोषण करते हैं। वे मुझ पर कृपालु हों, जिससे मैं पहले की तरह सृजन करने की आत्मपरीक्षण शक्ति से युक्त हो सकूँ, क्योंकि मैं भी उन शरणागत जीवों में से हूँ जो भगवान को प्रिय हैं।

23-25 भगवान सदा ही शरणागतों को वर देने वाले हैं। उनके सारे कार्य उनकी अन्तरंगा शक्ति रमा या लक्ष्मी के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। मेरी उनसे यही विनती है कि भौतिक जगत के सृजन में वे मुझे अपनी सेवा में लगा लें और मेरी यही प्रार्थना है कि मैं अपने कर्मों द्वारा भौतिक रूप से प्रभावित न होऊँ, क्योंकि इस तरह मैं सृष्टा होने की मिथ्या-प्रतिष्ठा त्यागने में सक्षम हो सकूँ गा। भगवान की शक्तियाँ असंख्य हैं। जब वे प्रलय-जल में लेटे रहते हैं, तो उस नाभिरूपी झील से, जिसमें कमल खिलता है, मैं समग्र विश्वशक्ति के रूप में उत्पन्न होता हूँ। इस समय मैं विराट जगत के रूप में उनकी विविध शक्तियों को उद्धाटित करने में लगा हुआ हूँ। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने भौतिक कार्यों को करते समय मैं वैदिक स्तुतियों की ध्वनि से कहीं विचलित न हो जाऊँ। भगवान जो कि परम हैं और सबसे प्राचीन हैं, अपार कृपालु हैं। मैं चाहता हूँ कि वे अपने कमलनेत्रों को खोल कर मुसकाते हुए मुझे वर दें। वे सम्पूर्ण विराट सृष्टि का उत्थान कर सकते हैं और अपने कृपापूर्ण आदेशों के द्वारा हमारा विषाद दूर कर सकते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा स्तुति (2.4)

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो भौतिक जगत की सृष्टि के लिए प्रकृति के तीन गुणों को स्वीकार करते हैं। वे प्रत्येक के शरीर के भीतर निवास करनेवाले परम पूर्ण हैं और उनकी गतियाँ अचिन्त्य हैं।

13 मैं पुनः सम्पूर्ण जगत-रूप, अध्यात्म-रूप उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो पुण्यात्मा भक्तों को समस्त संकटों से मुक्ति दिलानेवाले तथा अभक्त असुरों की नास्तिक मनोवृत्ति की वृद्धि को विनष्ट करनेवाले हैं। जो अध्यात्मवादी सर्वोपरि आध्यात्मिक पूर्णता में स्थित हैं, उन्हें वे उनके विशिष्ट पद प्रदान करने वाले हैं।

14 मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ, जो यदुवंशियों के संगी हैं और अभक्तों के लिए सदैव समस्या बने रहते हैं। वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों के परम भोक्ता हैं, फिर भी वे वैकुण्ठ में स्थित अपने धाम का भोग करते हैं। कोई भी उनके समतुल्य नहीं है, क्योंकि उनका दिव्य ऐश्वर्य अमाप्य है।

15 मैं उन सर्वमंगलमय भगवान श्रीकृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके यशोगान, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण तथा पूजन से पाप करनेवाले के सारे पाप-फल तुरन्त धूल जाते हैं।

16-17 मैं सर्व-मंगलमय भगवान श्रीकृष्ण को बारम्बार प्रणाम करता हूँ। उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने मात्र से उच्च कोटि के बुद्धिमान-जन, वर्तमान तथा भावी अस्तित्व की सारी आसक्तियों से छुटकारा पा जाते हैं और बिना किसी कठिनाई के आध्यात्मिक जगत की ओर अग्रसर होते हैं। मैं सर्व-मंगलमय भगवान श्रीकृष्ण को पुनः पुनः सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि बड़े-बड़े विद्वान ऋषि, बड़े-बड़े दानी, यश--लब्ध कार्यकर्ता, बड़े-बड़े दार्शनिक तथा योगी, बड़े-बड़े वेदपाठी तथा वैदिक सिद्धान्तों के बड़े-बड़े अनुयायी तक भी ऐसे महान गुणों को भगवान की सेवा में समर्पित किये बिना कोई क्षेम (कुशलता) प्राप्त नहीं कर पाते।

18-19 किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, शुम्भ, यवन, खस आदि जातियों के सदस्य तथा पाप कर्मों में लिप्त रहने वाले अन्य लोग परम शक्तिशाली भगवान के भक्तों की शरण ग्रहण करके शुद्ध हो सकते हैं। मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ। वे परमात्मा हैं तथा समस्त स्वरूपसिद्ध पुरुषों के परमेश्वर हैं। वे साक्षात वेद, धर्मग्रन्थ (शास्त्र) तथा तपस्या हैं। वे ब्रह्माजी, शिवजी तथा कपट से रहित समस्त व्यक्तियों द्वारा पूजित हैं। आश्चर्य तथा सम्मान से ऐसे पूजित होनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम मुझ पर प्रसन्न हों।

20-21 भगवान श्रीकृष्ण, जो समस्त भक्तों के पूजनीय स्वामी हैं, यदुवंश के अंधक तथा वृष्णि जैसे समस्त राजाओं के रक्षक तथा उनके यश हैं, सभी लक्ष्मी देवीयों के पति, समस्त यज्ञों के निर्देशक अतएव समस्त जीवों के अग्रणी, समस्त बुद्धि के नियन्ता, समस्त दिव्य एवं भौतिक लोकों के अधिष्ठाता तथा पृथ्वी पर परम अवतार (सर्वेसर्वा) हैं, वे मुझ पर कृपालु हों। भगवान श्रीकृष्ण ही मुक्तिदाता हैं। भक्त प्रतिपल उनके चरणकमलों के चिन्तन करते हुए तथा महापुरुषों के चरणचिन्हों पर चलते हुए समाधि में परम सत्य का दर्शन कर सकता है। तथापि विद्वान ज्ञानीजन उनके विषय में अपनी सनक के अनुसार चिन्तन करते हैं। ऐसे भगवान मुझ पर प्रसन्न हों।

22 जिन्होंने सृजन के प्रारम्भ में ब्रह्मा के हृदय में शक्तिशाली ज्ञान का विस्तार किया तथा अपने विषय में पूर्ण ज्ञान की प्रेरणा दी और जो ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए प्रतीत हुए, वे भगवान मुझ पर प्रसन्न हों।

23 ब्रह्माण्ड के भीतर लेटकर जो तत्त्वों से निर्मित शरीरों को प्राणमय बनाते हैं और जो अपने पुरुष-अवतार में जीव को भौतिक गुणों के सोलह विभागों के अधीन करते हैं, जो जीव के जनक रूप हैं, वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान मेरे प्रवचनों को अलंकृत करने के लिए प्रसन्न हों।

24 मैं वासुदेव के अवतार श्रील व्यासदेव को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने वैदिक शास्त्रों का संकलन किया। शुद्ध भक्तगण भगवान के कमल सदृश मुख से टपकते हुए अमृतोपम दिव्य ज्ञान का पान करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भीष्मदेव द्वारा स्तुति (1.9)

31-35 शुद्ध ध्यान द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को देखते हुए, वे तुरन्त समस्त भौतिक अशुभ अवस्थाओं से और तीरों के घाव से होनेवाली शारीरिक पीड़ा से मुक्त हो गये। इस प्रकार उनकी सारी इन्द्रियों के कार्यकलाप रुक गये और उन्होंने शरीर को त्यागते हुए समस्त जीवों के नियन्ता की दिव्य भाव से स्तुति की। भीष्मदेव ने कहा: अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहनेवाले हैं, किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनन्द-लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है। श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा अधोलोक) में हर एक को आकृष्ट करनेवाला है। उनका चमचमाता पीताम्बर तथा चन्दनचर्चित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा न करूँ। युद्धक्षेत्र में (जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे) भगवान कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गये थे तथा श्रम के कारण उनका मुख-मण्डल पसीने की बूँदों से भीग गया था। मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इन अलंकरणों की शोभा उन्हें अच्छी लग रही थी। मेरा मन उन्हीं श्रीकृष्ण के पास चले। अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गये और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।

36-39 जब युद्धक्षेत्र में अर्जुन अपने समक्ष सैनिकों तथा सेनापतियों को देखकर अज्ञान से कलुषित हो रहा लग रहा था, तो भगवान ने उसके अज्ञान को दिव्य ज्ञान प्रदान करके समूल नष्ट कर दिया। उनके चरणकमल सदैव मेरे आकर्षण के लक्ष्य बने रहे। मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, वे रथ से नीचे उतर आये, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया। भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अनन्तिम गन्तव्य हों। युद्ध-क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था। मृत्यु के समय मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यन्त सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।

40-41 मेरा मन उन भगवान श्रीकृष्ण में एकाग्र हो, जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुसकान ने व्रजधाम की रमणियों (गोपियों) को आकृष्ट कर लिया। [रास लीला से] भगवान के अन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया। महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ में विश्व के सारे महापुरुषों, राजाओं तथा विद्वानों की एक महान सभा हुई थी और उस सभा में सबों ने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्य भगवान के रूप में की थी। यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना को याद रखा, जिससे मेरा मन भगवान में लगा रहे।

42 अब मैं पूर्ण एकाग्रता से एक ईश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता हूँ, जो इस समय मेरे सामने उपस्थित हैं, क्योंकि अब मैं प्रत्येक के हृदय में यहाँ तक कि मनोधर्मियों के हृदय में भी रहनेवाले उनके प्रति द्वैत भाव की स्थिति को पार कर चुका हूँ। वे सबों के हृदय में रहते हैं। भले ही सूर्य को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव किया जाय, किन्तु सूर्य तो एक ही है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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कुन्ती देवी द्वारा स्तुति (1.8)

18-20 श्रीमती कुन्ती ने कहा: हे कृष्ण, मैं आपको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि आप ही आदि पुरुष हैं और इस भौतिक जगत के गुणों से निर्लिप्त रहते हैं। आप समस्त वस्तुओं के भीतर तथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबों के लिए अदृश्य हैं। सीमित इन्द्रिय-ज्ञान से परे होने के कारण, आप ठगिनी शक्ति (माया) के पर्दे से ढके रहनेवाले शाश्वत अव्यय तत्त्व हैं। आप मूर्ख दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहते हैं, जिस प्रकार अभिनेता के वस्त्र पहना हुआ कलाकार पहचान में नहीं आता। आप उन्नत अध्यात्मवादियों तथा आत्मा एवं पदार्थ में अन्तर करने में सक्षम होने से शुद्ध बने विचारकों के हृदयों में भक्ति के दिव्य विज्ञान का प्रसार करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं। तो फिर हम स्त्रियाँ आपको किस तरह पूर्ण रूप से जान सकती हैं?

21-23 अतः मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाड़ले, नन्द के लाल तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकर आये हैं। जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की माला धारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों के तलवों में कमल अंकित हैं, उन भगवान को मैं सादर नमस्कार करती हूँ। हे ऋषिकेश, हे इन्द्रियों के स्वामी तथा देवों के देव, आपने दीर्घ काल तक बन्दीगृह में बन्दिनी बनाई गई और दुष्ट राजा कंस द्वारा सताई जा रही अपनी माता देवकी को तथा अनवरत विपत्तियों से घिरे हुए मेरे पुत्रों समेत मुझको मुक्त किया है।

24 हे कृष्ण, आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्नि-काण्ड से, मानव-भक्षियों से, दुष्ट सभा से, वनवास-काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गये युद्ध से बचाया है और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है।

25 मैं चाहती हूँ कि ये सारी विपत्तियाँ बारम्बार आयें, जिससे हम आपका दर्शन पुनः पुनः कर सकें, क्योंकि आपके दर्शन का अर्थ यह है कि हमें बारम्बार होने वाले जन्म तथा मृत्यु को नहीं देखना पड़ेगा।

26 हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिक दृष्टि से अकिंचन हैं। जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौन्दर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता।

27 मैं निर्धनों के धन आपको नमस्कार करती हूँ। आपको प्रकृति के भौतिक गुणों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से कोई सरोकार नहीं है। आप आत्म-तुष्ट हैं, अतएव आप परम शान्त तथा अद्वैतवादियों के स्वामी कैवल्य-पति हैं।

28 हे भगवान, मैं आपको शाश्वत समय, परम नियन्ता, आदि-अन्त से रहित तथा सर्वव्यापी मानती हूँ। आप सबों पर समान रूप से दया दिखलाते हैं। जीवों में जो पारस्परिक कलह है, वह सामाजिक मतभेद के कारण है।

29-30 हे भगवान, आपकी दिव्य लीलाओं को कोई समझ नहीं सकता, क्योंकि वे मानवीय प्रतीत होती हैं और इस कारण भ्रामक हैं। न तो आपका कोई विशेष कृपा-पात्र है, न ही कोई आपका अप्रिय है। यह केवल लोगों की कल्पना ही है कि आप पक्षपात करते हैं। हे विश्वात्मा, यह सचमुच ही चकरा देनेवाली बात (विडम्बना) है कि आप निष्क्रिय रहते हुए भी कर्म करते हैं और प्राणशक्ति रूप तथा अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। आप स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं। सचमुच ही यह चकरानेवाली बात है।

31 हे कृष्ण, जब आपने कोई अपराध किया था, तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई, तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आई, जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया। यद्यपि आपसे साक्षात काल भी भयभीत रहता है, फिर भी आप भयभीत हुए। यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है।

32-33 कुछ कहते हैं कि अजन्मा का जन्म पुण्यात्मा राजाओं की कीर्ति का विस्तार करने के लिए हुआ है और कुछ कहते हैं कि आप अपने परम भक्त राजा यदु को प्रसन्न करने के लिए जन्में है। आप उसके कुल में उसी प्रकार प्रकट हुए हैं, जिस प्रकार मलय पर्वत में चन्दन होता है। अन्य लोग कहते हैं कि चूँकि वसुदेव तथा देवकी दोनों ने आपके लिए प्रार्थना की थी, अतएव आप उनके पुत्र-रूप में जन्में हैं। निस्सन्देह, आप अजन्मा हैं, फिर भी आप देवताओं का कल्याण करने तथा उनसे ईर्ष्या करने वाले असुरों को मारने के लिए जन्म स्वीकार करते हैं।

34-37 कुछ कहते हैं कि जब यह संसार, भार से बोझिल समुद्री नाव की भाँति, अत्यधिक पीड़ित हो उठा तथा आपके पुत्र ब्रह्मा ने प्रार्थना की, तो आप कष्ट का शमन करने के लिए अवतरित हुए हैं तथा कुछ कहते हैं कि आप श्रवण, स्मरण, पूजन आदि की भक्ति को जागृत करने के लिए प्रकट हुए हैं, जिससे भौतिक कष्टों को भोगने वाले बद्धजीव इसका लाभ उठाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें। हे कृष्ण, जो आपके दिव्य कार्यकलापों का निरन्तर श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करते हैं या दूसरों को ऐसा करते देखकर हर्षित होते हैं, वे निश्चय ही आपके उन चरणकमलों का दर्शन करते हैं, जो जन्म-मृत्यु के पुनरागमन को रोकने वाले हैं। हे मेरे प्रभु, आपने अपने सारे कर्तव्य स्वयं पूरे कर दिये हैं। आज जब हम आपकी कृपा पर पूरी तरह आश्रित हैं और जब हमारा और कोई रक्षक नहीं है और जब सारे राजा हमसे शत्रुता किए हुए हैं, तो क्या आप हमें छोड़कर चले जायेंगे।

38 जिस तरह आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है उसी तरह यदि आप हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि नहीं करेंगे, तो पाण्डवों तथा यदुओं समेत हमारा यश तथा गतिविधियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाएँगी।

39-40 हे गदाधर (कृष्ण) इस समय हमारे राज्य में आपके चरण-चिन्हों की छाप पड़ी हुई है और इसके कारण यह सुन्दर लगता है, लेकिन आपके चले जाने पर यह ऐसा नहीं रह जायेगा। ये सारे नगर तथा ग्राम सब प्रकार से समृद्ध हो रहे हैं, क्योंकि जड़ी-बूटियों तथा अन्नों की प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे हैं, नदियाँ बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र सम्पदा से भरे पड़े हैं और यह सब उन पर आपकी कृपा-दृष्टि पड़ने से ही हुआ है।

41-42 अतः हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, हे विश्वरूप, कृपा करके मेरे स्वजनों, पाण्डवों तथा वृष्णियों के प्रति मेरे स्नेह-बन्धन को काट डालें। हे मधुपति, जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहती है, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँट कर आपकी ओर निरन्तर बना रहे।

43 हे कृष्ण, हे अर्जुन के मित्र, हे वृष्णिकुल के प्रमुख, आप उन समस्त राजनीतिक पक्षों के विध्वंसक हैं, जो इस धरा पर उपद्रव फैलानेवाले हैं। आपका शौर्य कभी क्षीण नहीं होता। आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आप गायों, ब्राह्मणों तथा भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं। आपमें सारी योग-शक्तियाँ हैं और आप समस्त विश्व के उपदेशक (गुरु) हैं। आप सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करती हूँ।

44 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार भगवान अपने महिमा गान के लिए चुने हए शब्दों में कुन्तीदेवी के द्वारा की गई प्रार्थना सुनकर मन्द-मन्द मुस्काए। यह मुस्कान उनकी योगशक्ति के समान ही मोहक थी।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान) 

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