शिवजी द्वारा स्तुति (5.17)
16-18 परमात्मा का चतुर्गुण विस्तार वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण में हुआ है। इनमें चतुर्थ विस्तार संकर्षण है जो निश्चित रूप से दिव्य है, किन्तु भौतिक जगत में उनका संहार-कार्य तमोगुणमय है, अतः वे तामसी अर्थात तमोगुणी-ईश्वर कहलाते हैं। भगवान शिव को ज्ञात है कि संकर्षण उनके अपने अस्तित्व के मूल कारण हैं, अतः वे समाधि में निम्नलिखित मंत्र का जप करते हुए उनका ध्यान करते हैं। परम शक्तिमान भगवान शिव कहते हैं – हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, मैं संकर्षण के रूप में आपको प्रणाम करता हूँ। आप समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। अनन्त होकर भी आप अभक्तों के लिए अप्रकट रहते हैं। हे प्रभो, आप ही एकमात्र आराध्य हैं, क्योंकि आप ही समस्त ऐश्वर्यों के आगार पूर्ण पुरषोत्तम भगवान हैं। आपके चरणकमल भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। आप भक्तों को अपने नाना रूपों द्वारा संतुष्ट करने वाले हैं। हे प्रभो, आप अपने भक्तों को भौतिक संसार के चंगुल से छुड़ाने वाले हैं। आपकी इच्छा से ही अभक्त लोग इस भौतिक संसार में उलझे रहते हैं। कृपया मुझे अपने नित्य दास के रूप में स्वीकार करें।
19-20 हम अपने क्रोध के वेग को रोक नहीं पाते, अतः जब हम भौतिक वस्तुओं को देखते हैं तो उनसे आकर्षित या विकर्षित हुए बिना नहीं रह पाते। किन्तु परमेश्वर इस प्रकार कभी भी प्रभावित नहीं होते। यद्यपि इस भौतिक जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार के हेतु वे इस पर दृष्टिपात करते हैं, किन्तु इससे रंचमात्र भी प्रभावित नहीं होते। अतः वह जो अपनी इन्द्रियों के वेग पर विजय प्राप्त करना चाहता है, उसे श्रीभगवान के चरणकमलों की शरण लेनी चाहिए। तभी वह विजयी होगा। कुत्सित दृष्टि वाले व्यक्तियों के लिए भगवान के नेत्र मदिरा पिये हुए उन्मत्त पुरुष जैसे हैं। ऐसे अविवेकी पुरुष भगवान पर रुष्ट होते हैं और अपने रोषवश उन्हें श्रीभगवान अत्यन्त रुष्ट एवं भयावह लगते हैं। किन्तु यह माया है। जब भगवान के चरणकमलों के स्पर्श से नाग-वधुएँ उत्तेजित हुई तो वे लज्जावश उनकी और अधिक आराधना नहीं कर पाई फिर भी भगवान उनके स्पर्श से उत्तेजित नहीं हुए, क्योंकि समस्त परिस्थितियों में वे धीर बने रहते हैं। अतः ऐसा कौन होगा जो भगवान की आराधना करना नहीं चाहेगा?
21-24 शिवजी कहते हैं-सभी महान ऋषि भगवान को सृजक, पालक और संहारक के रूप में स्वीकार करते हैं, यद्यपि वास्तव में उनका इन कार्यों से कोई सरोकार नहीं है। इसीलिए श्रीभगवान को अनन्त कहा गया है। यद्यपि शेष अवतार के रूप में वे अपने फणों पर समस्त ब्रह्माण्डों को धारण करते हैं, किन्तु प्रत्येक ब्रह्माण्ड उन्हें सरसों के बीज से अधिक भारी नहीं लगता। अतः सिद्धि का इच्छुक ऐसे कौन पुरुष होगा जो ईश्वर की आराधना नहीं करेगा? पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से ही ब्रह्माजी प्रकट होते हैं, जिनका शरीर महत तत्त्व से निर्मित है और वह भौतिक प्रकृति के रजोगुण द्वारा प्रभावित बुद्धि का आगार है। ब्रह्माजी से मैं स्वयं मिथ्या अहंकार रूप में, जिसे रुद्र कहते हैं, उत्पन्न होता हूँ। मैं अपनी शक्ति से अन्य समस्त देवताओं, पंच तत्त्वों तथा इन्द्रियों को जन्म देता हूँ। अतः मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की आराधना करता हूँ। वे हम सबों से श्रेष्ठ हैं और सभी देवता, महत तत्त्व तथा इन्द्रियाँ, यहाँ तक कि ब्रह्माजी और स्वयं मैं उनके वश में वैसे ही हैं जिस प्रकार कि डोरी से बँधे पक्षी। केवल उन्हीं के अनुग्रह से हम इस जगत का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं। अतः मैं परमब्रह्म को सादर प्रणाम करता हूँ। श्रीभगवान की माया हम समस्त बद्ध जीवात्माओं को इस भौतिक जगत से बाँधती है, अतः उनकी कृपा के बिना हम जैसे तुच्छ प्राणी माया से छूटने की विधि नहीं समझ पाते। मैं उन श्रीभगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस जगत की उत्पत्ति और लय के कारणस्वरूप हैं।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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