ब्रह्मा द्वारा स्तुति (8.5)
26 ब्रह्माजी ने कहा: हे परमेश्वर, हे अविकारी, हे असीम परम सत्य! आप हर वस्तु के उद्गम हैं। सर्वव्यापी होने के कारण आप प्रत्येक के हृदय में और परमाणु में भी रहते हैं। आपमें कोई भौतिक गुण नहीं पाये जाते। निस्सन्देह, आप अचिन्त्य हैं। मन आपको कल्पना से नहीं ग्रहण कर सकता और शब्द आपका वर्णन करने में असमर्थ हैं। आप सबके परम स्वामी हैं, अतएव आप हर एक के आराध्य हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।
27 भगवान प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जानते रहते हैं कि किस प्रकार प्राण, मन तथा बुद्धि समेत प्रत्येक वस्तु उनके नियंत्रण में कार्य करती है। वे हर वस्तु के प्रकाशक हैं और अज्ञान उन्हें छु तक नहीं गया है। उनका भौतिक शरीर नहीं होता जो पूर्वकर्मों के फलों से प्रभावित हो। वे पक्षपात तथा भौतिकतावादी विद्या के अज्ञान से मुक्त हैं। अतएव मैं उन भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो नित्य, सर्वव्यापक तथा आकाश के समान विशाल हैं और तीनों युगों (सत्य, त्रेता तथा द्वापर) में अपने षडऐश्वर्यों समेत प्रकट होते हैं।
28 भौतिक कार्यों के चक्र में, भौतिक शरीर मानसिक रथ के पहिये जैसा होता है। दस इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) तथा शरीर के भीतर के पाँच प्राण मिलकर रथ के पहिये पन्द्रह अरे (तीलियाँ) बनाते हैं। प्रकृति के तीन गुण (सत्त्व, रजस तथा तमस) कार्यकलापों के केन्द्र बिन्दु हैं और प्रकृति के आठ अवयव (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार) इस पहिये की बाहरी परिधि बनाते हैं। बहिरंगा भौतिक शक्ति इस पहिये को विद्युत शक्ति की भाँति घुमाती है। इस प्रकार यह पहिया बड़ी तेजी से अपनी धुरी पर या केंद्रीय आधार अर्थात भगवान के चारों ओर घूमता है, जो परमात्मा तथा चरम सत्य (परम-सत्य/मूलभूत-सत्य/) हैं। हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।
29 भगवान शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं, अतएव वे एकवर्ण – ॐकार (प्रणव) हैं। चूँकि भगवान अंधकार माने जाने वाले दृश्य जगत से परे हैं, अतएव वे भौतिक नेत्रों से नहीं दिखते। फिर भी वे दिक या काल द्वारा हमसे पृथक नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। अपने वाहन गरुड़ पर आसीन उनकी पूजा क्षोभ से मुक्ति पा चुके व्यक्तियों के द्वारा योगशक्ति से की जाती है। हम सभी उनको सादर नमस्कार करते हैं।
30-31 कोई भी व्यक्ति भगवान की माया का पार नहीं पा सकता जो इतनी प्रबल होती है कि हर व्यक्ति इससे भ्रमित होकर जीवन के लक्ष्य को समझने की बुद्धि गवाँ देता है। किन्तु वही माया उन भगवान के वश में रहती है, जो सब पर शासन करते हैं और सभी जीवों पर समान दृष्टि रखते हैं। हम उन्हें नमस्कार करते हैं। चूँकि हमारे शरीर सत्त्वगुण से निर्मित हैं इसलिए हम देवगण भीतर तथा बाहर से सतोगुण में स्थित हैं। सारे सन्त पुरुष भी इसी प्रकार स्थित हैं। अतएव यदि हम भी भगवान को न समझ पायें तो उन नगण्य प्राणियों के विषय में क्या कहा जाये जो रजो तथा तमोगुणों में स्थित हैं? भला वे भगवान को कैसे समझ सकते हैं? हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं।
32 इस पृथ्वी पर चार प्रकार के जीव हैं और ये सभी उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। यह भौतिक सृष्टि उनके चरणकमलों पर टिकी है। वे ऐश्वर्य तथा शक्ति से उत्कृष्ट परम पुरुष हैं। वे हम पर प्रसन्न हों।
33-34 सारा विराट जगत जल से उद्भूत है और जल ही के कारण सारे जीव बने रहते हैं, जीवित रहते हैं तथा विकसित होते हैं। यह जल भगवान के वीर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव इतनी महान शक्ति वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हम पर प्रसन्न हों। सोम (चन्द्रमा) समस्त देवताओं के लिए अन्न, बल तथा दीर्घायु का स्रोत है। वह सारी वनस्पतियों का स्वामी तथा सारे जीवों की उत्पत्ति का स्रोत भी है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है, चन्द्रमा भगवान का मन है। ऐसे समस्त ऐश्वर्यों के स्रोत भगवान हम पर प्रसन्न हों।
35 अनुष्ठानों की आहुतियाँ ग्रहण करने के लिए उत्पन्न अग्नि भगवान का मुख है। सागर की गहराइयों के भीतर भी सम्पदा उत्पन्न करने के लिए अग्नि रहती है और उदर में भोजन पचाने के लिए तथा शरीर पालन हेतु विभिन्न स्रावों को उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि उपस्थित रहती है। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।
36-38 सूर्यदेव मुक्ति के मार्ग को चिन्हित करते हैं। वे वेदों के ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं, वे ही ऐसे धाम हैं जहाँ पर परम सत्य को पूजा जा सकता है। वे मोक्ष के द्वार हैं, वे नित्य जीवन के स्रोत हैं, वे मृत्यु के भी कारण हैं। सूर्यदेव भगवान की आँख हैं। ऐसे परम ऐश्वर्यवान भगवान हम पर प्रसन्न हों। सारे चर तथा अचर प्राणी अपनी जीवनी शक्ति (प्राण), शारीरिक शक्ति तथा अपना जीवन तक वायु से प्राप्त करते हैं। हम सभी अपने प्राण के लिए वायु का उसी तरह अनुसरण करते हैं जिस प्रकार राजा का अनुसरण नौकर करता है। वायु की जीवनी शक्ति भगवान की मूल जीवनी शक्ति से उत्पन्न होती है। ऐसे भगवान हम पर प्रसन्न हों। परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों। विभिन्न दिशाएँ उनके कानों से उत्पन्न होती है, शरीर के छिद्र उनके हृदय से निकलते हैं एवं प्राण, इन्द्रियाँ, मन, शरीर के भीतर की वायु तथा शरीर आश्रय रूपी शून्य (आकाश) उनकी नाभि से निकलते हैं।
39 स्वर्ग का राजा महेन्द्र भगवान के बल से उत्पन्न हुआ था, देवतागण भगवान की कृपा से उत्पन्न हुए थे, शिवजी भगवान के क्रोध से उत्पन्न हुए थे और ब्रह्माजी उनकी गम्भीर बुद्धि से उत्पन्न हुए थे। सारे वैदिक मंत्र भगवान के शरीर के छिद्रों से उत्पन्न हुए थे तथा ऋषि और प्रजापतिगण उनकी जननेन्द्रियों से उत्पन्न हुए थे। ऐसे परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों।
40 लक्ष्मी उनके वक्षस्थल से उत्पन्न हुई, पितृलोक के वासी उनकी छाया से, धर्म उनके स्तन से तथा अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ। स्वर्गलोक उनके सिर की चोटी से तथा अप्सराएँ उनके इन्द्रिय भोग से उत्पन्न हुई। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।
41 ब्राह्मण तथा वैदिक ज्ञान भगवान के मुख से निकले, क्षत्रिय तथा शारीरिक शक्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य तथा उत्पादकता एवं धन-सम्पदा सम्बन्धी उनका दक्ष ज्ञान उनकी जाँघों से तथा वैदिक ज्ञान से विलग रहनेवाले शूद्र उनके चरणों से निकले। ऐसे भगवान, जो पराक्रम से पूर्ण है, हम पर प्रसन्न हों।
42-43 लोभ उनके निचले होंठ से, प्रीति उनके ऊपरी होंठ से, शारीरिक कान्ति उनकी नाक से, पाशविक वासनाएँ उनकी स्पर्शेन्द्रियों से, यमराज उनकी भौंहों से तथा नित्यकाल उनकी पलकों से उत्पन्न होते हैं। वे भगवान हम सबों पर प्रसन्न हों। सभी विद्वान लोग कहते हैं कि पाँचों तत्त्व, नित्यकाल, सकाम कर्म, प्रकृति के तीनों गुण तथा इन गुणों से उत्पन्न विभिन्न किस्में – ये सब योगमाया की सृष्टियाँ हैं। अतएव इस भौतिक जगत को समझ पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु जो लोग अत्यन्त विद्वान हैं उन्होंने इसका तिरस्कार कर दिया है। जो सभी वस्तुओं के नियन्ता हैं ऐसे भगवान हम सब पर प्रसन्न हों।
44 हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूर्णतया शान्त, प्रयास से मुक्त तथा अपनी उपलब्धियों से पूर्णतया संतुष्ट हैं। वे अपनी इन्द्रियों द्वारा भौतिक जगत के कार्यों में लिप्त नहीं होते। निस्सन्देह, इस भौतिक जगत में अपनी लीलाएँ सम्पन्न करते समय वे अनासक्त वायु की तरह रहते हैं।
45 हे भगवन! हम आपके शरणागत हैं फिर भी हम आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपया अपने आदि रूप को तथा अपने मुस्काते मुख को हमारे नेत्रों को दिखलाइये और अन्य इन्द्रियों द्वारा अनुभव करने दीजिये।
46 हे भगवन! आप विभिन्न युगों में अपनी इच्छा से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और ऐसे असामान्य कार्य आश्चर्यजनक ढंग से करते हैं, जिन्हें कर पाना हम सब के लिए दुष्कर है।
47-48 कर्मीजन अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए सदैव धनसंग्रह करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु इसके लिए उन्हें अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। इतने कठोर श्रम के बावजूद भी उन्हें सन्तोषप्रद फल नहीं मिल पाता। निस्सन्देह ही कभी-कभी तो उनके कर्मफल से निराशा ही उत्पन्न होती है। किन्तु जिन भक्तों ने भगवान की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रखा है वे कठोर श्रम किये बिना ही पर्याप्त फल प्राप्त कर सकते हैं। ये फल भक्तों की आशा से बढ़कर होते हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समर्पित कार्य, भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किये जाँए, कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। अतएव स्वाभाविक है कि परम पिता होने के कारण स्वाभाविक रूप से भगवान सबों को अत्यन्त प्रिय हैं और वे जीवों के कल्याण के लिए सदैव कर्म करने के लिए तैयार रहते हैं।
49-50 जब वृक्ष की जड़ में पानी डाला जाता है, तो वृक्ष का तना तथा शाखाएँ स्वतः तुष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जब कोई भगवान विष्णु का भक्त बन जाता है, तो इससे हर एक की सेवा हो जाती है क्योंकि भगवान हर एक के परमात्मा हैं। हे भगवन! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल सीमा से परे हैं। आप अपने कार्यकलापों में अचिन्त्य हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं। आप प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं, किन्तु इस समय आप सतोगुण में स्थित हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)
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