jagdish chandra chouhan's Posts (549)

Sort by

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
अगामापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।14 ।।
मात्रा-स्पर्शाः– इन्द्रियविषय;तु– केवल;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;शीत– जाड़ा;उष्ण– ग्रीष्म;सुख– सुख;दुःख– तथा दुख;दाः– देने वाले;आगम– आना;अपायिनः– जाना;अनित्याः– क्षणिक;तान्– उनको;तितिक्षस्व– सहन करने का प्रयत्न करो;भारत– हे भरतवंशी।
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे।

तात्पर्य : कर्तव्य-निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख तथा दुख के क्षणिक आने-जाने को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। वैदिक आदेशानुसार मनुष्य को माघ (जनवरी-फरवरी) के मास में भी प्रातःकाल स्नान करना चाहिए। उस समय अत्यधिक ठंड पड़ती है, किन्तु जो धार्मिक नियमों का पालन करने वाला है, वह स्नान करने में तनिक भी झिझकता नहीं। इसी प्रकार एक गृहिणी भीषण से भीषण गर्मी की ऋतु में (मई-जून के महीनों में) भोजन पकाने से हिचकती नहीं। जलवायु सम्बन्धी असुविधाएँ होते हुए भी मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना होता है। इसी प्रकार युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है अतः उसे अपने किसी मित्र या परिजन से भी युद्ध करना पड़े तो उसे अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म के विधि-विधान पालन करने होते हैं क्योंकि ज्ञान तथा भक्ति से ही मनुष्य अपने आपको माया के बंधन से छुड़ा सकता है।

अर्जुन को जिन दो नामों से सम्भोधित किया गया है, वे भी महत्त्वपूर्ण हैं कौन्तेय कहकर सम्बोधित करने से यह प्रकट होता है कि वह अपनी माता की ओर (मातृकुल) से सम्बन्धित है और भारत कहने से उसके पिता की ओर (पितृकुल) से सम्बन्ध प्रकट होता है। दोनों ओर से उसको महान विरासत प्राप्त है। महान विरासत प्राप्त होने के फलस्वरूप कर्तव्यनिर्वाह का उत्तरदायित्व आ पड़ता है, अतः अर्जुन युद्ध से विमुख नहीं हो सकता।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

देहिनोSस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।। 13 ।।

देहिनः– शरीर धारी की;अस्मिन्– इसमें;यथा– जिस प्रकार;देहे– शरीर में;कौमराम्– बाल्यावस्था;यौवनम्– यौवन, तारुण्य;जरा– वृद्धावस्था;तथा– उसी प्रकार;देह-अन्तर– शरीर के स्थानान्तरण की;प्राप्– उपलब्धि;धीरः– धीर व्यक्ति;तत्र– उस विषय में;– कभी नहीं;मुह्यति– मोह को प्राप्त होता है।

भावार्थ : जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।

तात्पर्य : प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। वह प्रतिक्षण अपना शरीर बदलता रहता है – कभी बालक के रूप में, कभी युवा तथा कभी वृद्ध पुरुष के रूप में। तो भी आत्मा वही रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। यह व्यष्टि आत्मा मृत्यु होने पर अन्ततोगत्वा एक शरीर बदल कर दुसरे शरीर में देहान्तरण कर जाता है और चूँकि अगले जन्म में इसको शरीर मिलना अवश्यम्भावी है – चाहे वह शरीर आध्यात्मिक हो या भौतिक – अतः अर्जुन के लिए न तो भीष्म, न ही द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था। अपितु उसे प्रसन्न होना चाहिए था कि वे पुराने शरीरों को बदल कर नए शरीर ग्रहण करेंगे और इस तरह वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे। ऐसे शरीर-परिवर्तन से जीवन में किये कर्म के अनुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है। चूँकि भीष्म व द्रोण साधु पुरुष थे इसीलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे; नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग के भोग करने के अनुरूप शरीर तो प्राप्त होंगे ही, अतः दोनों ही दशाओं में शोक का कोई कारण नहीं था।

जिस मनुष्य को व्यष्टि आत्मा, परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रकृति का पूर्ण ज्ञान होता है वह धीर कहलाता है। ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर-परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाताआत्मा के एकात्मवाद का मायावादी सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा के इस प्रकार विखण्डन से परमेश्वर विखण्डनीय या परिवर्तनशील हो जायेगा जो परमात्मा के अपरिवर्तनीय होने के सिद्धान्त के विरुद्ध होगा। गीता में पुष्टि हुई है कि परमात्मा के खण्डों का शाश्वत(सनातन) अस्तित्व है जिन्हें क्षर कहा जाता है अर्थात् उनमें भौतिक प्रकृति में गिरने की प्रवृत्ति होती है। ये भिन्न अंश (खण्ड) नित्य भिन्न रहते हैं, यहाँ तक कि मुक्ति के बाद भी व्यष्टि आत्मा जैसे का तैसा – भिन्न अंश बना रहता है। किन्तु एक बार मुक्त होने पर वह श्रीभगवान् के साथ सच्चिदानन्द रूप में रहता है। परमात्मा पर प्रतिबिम्बवाद का सिद्धान्त व्यवहृत किया जा सकता है, जो प्रत्येक शरीर में विद्यमान रहता है। वह व्यष्टि जीव से भिन्न होता है। जब आकाश का प्रतिबिम्ब जल में पड़ता है तो प्रतिबिम्ब में सूर्य, चन्द्र तथा तारे सब कुछ रहते हैं। तारों की तुलना जीवों से तथा सूर्य या चन्द्र की परमेश्वर से की जा सकती है। व्यष्टि अंश आत्मा को अर्जुन के रूप में और परमात्मा को श्रीभगवान् के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जैसा कि चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में स्पष्ट है, वे एक ही स्तर पर नहीं होते। यदि अर्जुन कृष्ण के समान स्तर पर हो और कृष्ण अर्जुन से श्रेष्ठतर न हों तो उनमें उपदेशक तथा उपदिष्ट का सम्बन्ध अर्थहीन होगा। यदि ये दोनों माया द्वारा मोहित होते हैं तो एक को उपदेशक तथा दुसरे को उपदिष्ट होने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा उपदेश व्यर्थ होगा क्योंकि माया के चंगुल में रहकर कोई भी प्रमाणिक उपदेशक नहीं बन सकता। ऐसी परिस्थितियों में यह मान लिया जाता है कि भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं जो पद में माया द्वारा विस्मृत अर्जुन रूपी जीव से श्रेष्ठ हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

नत्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव नभविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।। 12।।
– नहीं;तु– लेकिन;एव– निश्चय ही;अहम्– मैं;जातु– किसी काल में;– नहीं;आसम्– था;– नहीं;त्वम्– तुम;– नहीं;इमे– ये सब;जन-अधिपाः– राजागण;– कभी नहीं;– भी;एव– निश्चय ही;– नहीं;भविष्यामः– रहेंगे;सर्वे वयम्– हम सब;अतः परम्– इससे आगे।
भावार्थ : ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे।

तात्पर्य: वेदों में, कठोपनिषद् में और श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी कहा गया है कि जो श्रीभगवान् असंख्य जीवों के कर्म तथा कर्मफल के अनुसार उनकी अपनी-अपनी परिस्थितियों में पालक हैं, वही भगवान् अंश रूप में हर जीव के हृदय में वास कर रहे हैं। केवल साधु पुरुष, जो एक ही ईश्वर को भीतर-बाहर देख सकते हैं, पूर्ण और शाश्वत शान्ति प्राप्त कर पाते हैं।

नित्यो नित्यानां चेतनश्चचेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तमात्मस्थं येSनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्।।

(कठोपनिषद् २..१३)

जो वैदिक ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया गया वही विश्व के उन पुरुषों को प्रदान किया जाता है जो विद्वान होने का दावा तो करते हैं किन्तु जिनकी ज्ञानराशि न्यून है। भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं कि वे स्वयं, अर्जुन तथा युद्धभूमि में एकत्र सारे राजा शाश्वत प्राणी हैं और इन जीवों की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाओं में भगवान् ही एकमात्र उनके पालक हैं। भगवान् परम पुरुष हैं तथा भगवान् का चिर संगी अर्जुन एवं वहाँ पर एकत्र सारे राजागण शाश्वत पुरुष हैं। ऐसा नहीं है कि ये भूतकाल में प्राणियों के रूप अलग-अलग उपस्थित नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि वे शाश्वत पुरुष बने नहीं रहेंगे। उनका अस्तित्व भूतकाल में था और भविष्य में भी निर्बाध रूप से बना रहेगा। अतः किसी के लिए शोक करने की कोई बात नहीं है।

ये मायावादी सिद्धान्त कि मुक्ति के बाद आत्मा माया के आवरण से पृथक् होकर निराकार ब्रह्म में लीन हो जायेगा और अपना अस्तित्व खो देगा यहाँ परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता। न ही इस सिद्धान्त का समर्थन हो पाता है कि बद्ध अवस्था में ही हम अस्तित्व का चिन्तन करते हैं। यहाँ पर कृष्ण स्पष्टतः कहते हैं कि भगवान् तथा अन्यों का अस्तित्व भविष्य में भी अक्षुण्ण रहेगा जिसकी पुष्टि उपनिषदों द्वारा भी होती हैं। कृष्ण का यह कथन प्रमाणिक है क्योंकि कृष्ण मायावश्य नहीं हैं। यदि अस्तित्व तथ्य न होता तो फिर कृष्ण इतना बल क्यों देते और वह भी भविष्य के लिए! मायावादी यह तर्क कर सकते हैं कि कृष्ण द्वारा कथित अस्तित्व आध्यात्मिक न होकर भौतिक है। यदि हम इस तर्क को, कि अस्तित्व भौतिक होता है, स्वीकार कर भी लें तो फिर कोई कृष्ण के अस्तित्व को किस प्रकार पहचानेगा? कृष्ण सदा सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये रहे हैं; यदि उन्हें सामान्य चेतना वाले सामान्य व्यक्ति के रूप में माना जाता है तो प्रमाणिक शास्त्र के रूप में उनकी भगवद्गीता की कोई महत्ता नहीं होगीएक सामान्य व्यक्ति मनुष्यों के चार अवगुणों के कारण श्रवण करने योग्य शिक्षा देने में असमर्थ रहता है। गीता ऐसे साहित्य से ऊपर है। कोई भी संसारी ग्रंथ गीता की तुलना नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण को सामान्य व्यक्ति मान लेने पर गीता की सारी महत्ता जाती रहती हैमायावादियों का तर्क है कि इस श्लोक में वर्णित द्वैत लौकिक है और शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ हैकिन्तु इसके पहले वाले श्लोक में ऐसी देहात्मबुद्धि की निन्दा की गई है। एक बार जीवों की देहात्मबुद्धि की निन्दा करने के बाद यह कैसे सम्भव है कि कृष्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को दुहराते? अतः यह अस्तित्व आध्यात्मिक आधार पर स्थापित है और इसकी पुष्टि रामानुजाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने भी की है। गीता में कई स्थलों पर इसका उल्लेख है कि यह आध्यात्मिक अस्तित्व केवल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है। जो लोग भगवान् कृष्ण का विरोध करते हैं उनकी इस महान साहित्य तक पहुँच नहीं हो पाती। अभक्तों द्वारा गीता के उपदेशों को समझने का प्रयास मधुमक्खी द्वारा मधुपात्र चाटने के सदृश है। पात्र को खोले बिना मधु को नहीं चखा जा सकता। इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाद को केवल भक्त ही समझ सकते हैं, अन्य कोई नहीं, जैसा कि इसके चतुर्थ अध्याय में कहा गया है। न ही गीता का स्पर्श ऐसे लोग कर पाते हैं जो भगवान् के अस्तित्व का ही विरोध करते हैं। अतः मयावादियों द्वारा गीता की व्याख्या मानो समग्र सत्य का सरासर भ्रामक निरूपण है। भगवान् चैतन्य ने मायावादियों द्वारा की गई गीता की व्याख्याओं को पढ़ने का निषेध किया है और चेतावनी दी है कि जो कोई ऐसे मायावादी दर्शन को ग्रहण करता है वह गीता के वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ रहता है। यदि अस्तित्व का अभिप्राय अनुभवगम्य ब्रह्माण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। आत्मा तथा परमात्मा का द्वैत शाश्वत तथ्य है और इसकी पुष्टि वेदों द्वारा होती है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्चच भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्चच नानुशोचन्ति पण्डिताः ।। 11।।
श्रीभगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा;अशोच्यान्– जो शोक योग्य नहीं है;अन्वशोचः– शोक करते हो;त्वम्– तुम;प्रज्ञावादान्– पाण्डित्यपूर्ण बातें;– भी;भाषसे– कहते हो;गत– चले गये, रहित;असून्– प्राण;अगत– नहीं गये;असून्– प्राण;– भी;– कभी नहीं;अनुशोचन्ति– शोक करते हैं;पण्डिताः– विद्वान लोग।
भावार्थ: श्री भगवान् ने कहा – तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं।

तात्पर्य : भगवान् ने तत्काल गुरु का पद सँभाला और अपने मित्र को अप्रत्यक्षतः मूर्ख कह कर डाँटा। उन्होंने कहा, “तुम विद्वान की तरह बातें करते हो, किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान होता है – अर्थात् जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या है – वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए, चाहे वह जीवित हो या मृत – शोक नहीं करता।अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं दोनों के नियामक को जानना है। अर्जुन का तर्क था कि राजनीति या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्त्व मिलना चाहिए, किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ, आत्मा तथा परमेश्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। और चूँकि उसमें इस ज्ञान का अभाव था, अतः उसे विद्वान नहीं बनना चाहिए था। और चूँकि वह अत्यधिक विद्वान नहीं था इसीलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था। यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है, अतः शरीर उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है। जो इस तथ्य को जानता है वही असली विद्वान है और उसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

 

12803001058?profile=RESIZE_584x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चचितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।। 7।।

कार्पण्य– कृपणता;दोष– दुर्बलता से;उपहत– ग्रस्त;स्वभावः– गुण, विशेषताएँ;पृच्छामि– पूछ रहा हूँ;त्वाम्– तुम से;सम्मूढ– मोहग्रस्त;चेताः– हृदय में;यत्– जो;श्रेयः– कल्याणकारी;स्यात्– हो;निश्चचितम्– विश्चवासपूर्वक;ब्रूहि– कहो;तत्– वह;मे– मुझको;शिष्यः– शिष्य;ते– तुम्हारा;अहम्– मैं;शाधि– उपदेश दीजिये;माम्– मुझको; त्वाम् – तुम्हारा;प्रपन्नम– शरणागत।

भावार्थ : अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें।

तात्पर्य: यह प्राकृतिक नियम है कि भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिन्ता का कारण हैपग-पग पर उलझन मिलती है, अतः प्रामाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ-निर्देश दे सकेसमग्र वैदिक ग्रंथ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिएये उलझनें उस दावाग्नि के समान हैं जो किसी के द्वारा लगाये बिना भभक उठती हैंइसी प्रकार विश्व की स्थिति ऐसी है कि बिना चाहे जीवन की उलझनें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैंकोई नहीं चाहता कि आग लगे, किन्तु फिर भी वह लगती है और हम अत्याधिक व्याकुल हो उठते हैंअतः वैदिक वाङमय उपदेश देता है कि जीवन की उलझनों को समझने तथा समाधान करने के लिए हमें परम्परागत गुरु के पास जाना चाहिएजिस व्यक्ति का प्रामाणिक गुरु होता है वह सब कुछ जानता हैअतः मनुष्य को भौतिक उलझनों में न रहकर गुरु के पास जाना चाहिएयही इस श्लोक का तात्पर्य है

आखिर भौतिक उलझनों में कौन सा व्यक्ति पड़ता है? वह जो जीवन की समस्याओं को नहीं समझताबृहदारण्यक उपनिषद् में (..१०) व्याकुल (व्यग्र) मनुष्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है – यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माँल्लोकात्प्रैति स कृपणः – “कृपण वह है जो मानव जीवन की समस्याओं को हल नहीं करता और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को समझे बिना कूकर-सूकर की भाँति संसार को त्यागकर चला जाता है।” जीव के लिए मनुष्य जीवन अत्यन्त मूल्यवान निधि है, जिसका उपयोग वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में कर सकता है, अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उठाता वह कृपण हैब्राह्मण इसके विपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने में करता हैय एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माँल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मणः

देहात्मबुद्धि वश कृपण या कंजूस लोग अपना सारा समय परिवार, समाज, देश आदि के अत्यधिक प्रेम में गवाँ देते हैंमनुष्य प्राय: चर्मरोग के आधार पर अपने पारिवारिक जीवन अर्थात् पत्नी, बच्चों तथा परिजनों में आसक्त रहता है। कृपण यह सोचता है कि वह अपने परिवार को मृत्यु से बचा सकता है अथवा वह यह सोचता है कि उसका परिवार या समाज उसे मृत्यु से बचा सकता है। ऐसी पारिवारिक आसक्ति निम्न पशुओं में भी पाई जाती है क्योंकि वे भी बच्चों की देखभाल करते हैं। बुद्धिमान् होने के कारण अर्जुन समझ गया कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उसका अनुराग तथा मृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है। यद्यपि वह समझ रहा था कि युद्ध करने का कर्तव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु कृपण-दुर्बलता (कार्पण्यदोष) के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था। अतः वह परम गुरु भगवान् कृष्ण से कोई निश्चित हल निकालने का अनुरोध कर रहा है। वह कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करता है। वह मित्रतापूर्ण बातें बन्द करना चाहता है। गुरु तथा शिष्य की बातें गम्भीर होती हैं और अब अर्जुन अपने मान्य गुरु के समक्ष गम्भीरतापूर्वक बातें करना चाहता है इसीलिए कृष्ण भगवद्गीता-ज्ञान के आदि गुरु है और अर्जुन गीता समझने वाला प्रथम शिष्य है। अर्जुन भगवद्गीता को किस तरह समझता है यह गीता में वर्णित है। तो भी मूर्ख संसारी विद्वान् बताते हैं कि किसी को मनुष्य-रूप कृष्ण की नहीं बल्कि “अजन्मा कृष्ण” की शरण ग्रहण करनी चाहिए। कृष्ण के अन्तः तथा बाह्य में कोई अन्तर नहीं है। इस ज्ञान के बिना जो भगवद्गीता को समझने का प्रयास करता है, वह सबसे बड़ा मूर्ख है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

 12802987057?profile=RESIZE_710x

कृपया मेरा विनम्र प्रणाम स्वीकार करें।

(Please accept my humble obeisances)

श्रील प्रभुपाद की जय हो !

(All Glories to Sril Prabhupada)

श्री गुरु गौरांग जयतः

श्रीमद भगवद्गीता यथारूप आमुख

1 भगवद्गीता यथारूप को प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य बद्ध जिज्ञासुओं को उस उद्देश्य का मार्गदर्शन कराना है, जिसके लिए कृष्ण इस धरा पर ब्रह्मा के एक दिन में एक बार अर्थात प्रत्येक 8,60,00,00,000 (आठ अरब साठ करोड़) वर्ष बाद अवतार लेते हैं। भगवद्गीता में इस उद्देश्य का उल्लेख हुआ है और हमें उसे उसी रूप में ग्रहण कर लेना चाहिए अन्यथा भगवद्गीता तथा उसके वक्ता भगवान कृष्ण को समझने का कोई अर्थ नहीं है।

2 सामान्यतया तथाकथित विद्वान, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा स्वामी कृष्ण के सम्यक ज्ञान के बिना भगवद्गीता पर भाष्य लिखते समय या तो कृष्ण को उसमें से निकाल फेंकना चाहते हैं या उनको मार डालना चाहते हैं। भगवद्गीता का ऐसा अप्रामाणिक भाष्य मायावादी भाष्य कहलाता है और श्री चैतन्य महाप्रभु हमें ऐसे अप्रामाणिक लोगों से सावधान कर गए हैं।

3 मानव समाज में कृष्णभावनामृत आन्दोलन अनिवार्य है क्योंकि यह जीवन की चरम सिद्धि प्रदान करने वाला है। ऐसा क्यों है, इसकी पूरी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है। प्रत्येक व्यक्ति को यह जान लेना चाहिए कि "जीव" नित्य दास है और जब तक वह कृष्ण की सेवा नहीं करेगा, तब तक वह जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ता रहेगा ।

4 इस कलियुग में सामान्य जनता कृष्ण की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित है और उसे यह भ्रान्ति है कि भौतिक सुविधाओं की प्रगति से हर व्यक्ति सुखी बन सकेगा। उसे इसका ज्ञान नहीं है कि भौतिक या बहिरंगा प्रकृति अत्यन्त प्रबल है, क्योंकि हर प्राणी प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा बुरी तरह से जकड़ा हुआ है।

5 सौभाग्यवश जीव भगवान का अंश-रूप है अतएव उसका सहज कार्य है भगवान की सेवा करना। मोहवश मनुष्य विभिन्न प्रकारों से अपनी इन्द्रियतृप्ति करके सुखी बनना चाहता है, किन्तु इससे वह कभी सुखी नहीं हो सकता। अपनी भौतिक इन्द्रियों को तुष्ट करने के बजाय उसे भगवान की इन्द्रियों को तुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

 

अतः हमें आशा है कि हम भगवद्गीता यथारूप को जिस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं,

उससे मानव लाभ उठायेंगे और यदि एक भी व्यक्ति भगवदभक्त बन सके,

तो हम अपने प्रयास को सफल मानेंगे।

10860266483?profile=RESIZE_584x

कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद अभय चरणारविन्द भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद

संस्थापकाचार्य : अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्वपूर्ण श्लोक

अध्याय एक  : कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण 

धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।। 1 ।।

धृतराष्ट्र: उवाच- राजा धृतराष्ट्र ने कहा;धर्म-क्षेत्रे- धर्मभूमि (तीर्थस्थल) में; कुरु-क्षेत्रे-कुरुक्षेत्र नामक स्थान में;समवेता:- एकत्र ; युयुत्सवः- युद्ध करने की इच्छा से;मामकाः-मेरे पक्ष (पुत्रों); पाण्डवा:- पाण्डु के पुत्रों ने;- तथा;एव- निश्चय ही; किम- क्या;अकुर्वत-किया;सञ्जय- हे संजय ।

भावार्थ: धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?

तात्पर्य: भगवद्गीता एक बहुपठित आस्तिक विज्ञान है जो गीता - माहात्म्य में सार रूप में दिया हुआ है। इसमें यह उल्लेख है कि मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीकृष्ण के भक्त की सहायता से संवीक्षण करते हुए भगवद्गीता का अध्ययन करे और स्वार्थ प्रेरित व्याख्याओं के बिना उसे समझने का प्रयास करे। अर्जुन ने जिस प्रकार से साक्षात् भगवान् कृष्ण से गीता सुनी और उसका उपदेश ग्रहण किया, इस प्रकार की स्पष्ट अनुभूति का उदाहरण भगवद्गीता में ही है। यदि उसी गुरु-परम्परा से, निजी स्वार्थ से प्रेरित हुए बिना, किसी को भगवद्गीता समझने का सौभाग्य प्राप्त हो तो वह समस्त वैदिक ज्ञान तथा विश्व के समस्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ देता है। पाठक को भगवद्गीता में न केवल अन्य शास्त्रों की सारी बातें मिलेंगी अपितु ऐसी बातें भी मिलेंगी जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं। यही गीता का विशिष्ट मानदण्ड है। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा साक्षात् उच्चरित होने के कारण यह पूर्ण आस्तिक विज्ञान है।

महाभारत में वर्णित धृतराष्ट्र तथा संजय की वार्ताएँ इस महान दर्शन के मूल सिद्धान्त का कार्य करती हैं। माना जाता है कि इस दर्शन की प्रस्तुति कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हुई जो वैदिक युग से पवित्र तीर्थस्थल रहा है। इसका प्रवचन भगवान् द्वारा मानव जाति के पथ-प्रदर्शन हेतु तब किया गया जब वे इस लोक में स्वयं उपस्थित थे।

धर्मक्षेत्र शब्द सार्थक है, क्योंकि कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन के पक्ष में श्री भगवान् स्वयं उपस्थित थे। कौरवों का पिता धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की विजय की सम्भावना के विषय में अत्यधिक संदिग्ध था। अतः इसी सन्देह के कारण उसने अपने सचिव से पूछा, " उन्होंने क्या किया?" वह आश्वस्त था कि उसके पुत्र तथा उसके छोटे भाई पाण्डु के पुत्र कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में निर्णयात्मक संग्राम के लिए एकत्र हुए हैं। फिर भी उसकी जिज्ञासा सार्थक है। वह नहीं चाहता था की भाइयों में कोई समझौता हो, अतः वह युद्धभूमि में अपने पुत्रों की नियति (भाग्य, भावी) के विषय में आश्वस्त होना चाह रहा था। चूँकि इस युद्ध को कुरुक्षेत्र में लड़ा जाना था, जिसका उल्लेख वेदों में स्वर्ग के निवासियों के लिए भी तीर्थस्थल के रूप में हुआ है अतः धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था कि इस पवित्र स्थल का युद्ध के परिणाम पर न जाने कैसा प्रभाव पड़े। उसे भली भाँति ज्ञात था कि इसका प्रभाव अर्जुन तथा पाण्डु के अन्य पुत्रों पर अत्यन्त अनुकूल पड़ेगा क्योंकि स्वभाव से वे सभी पुण्यात्मा थे। संजय श्री व्यास का शिष्य था, अतः उनकी कृपा से संजय धृतराष्ट्र के कक्ष में बैठे-बैठे कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल का दर्शन कर सकता था। इसीलिए धृतराष्ट्र ने उससे युद्धस्थल की स्थिति के विषय में पूछा।


पाण्डव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र, दोनों ही एक वंश से सम्बन्धित हैं, किन्तु यहाँ पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं। उसने जान-बूझ कर अपने पुत्रों को कुरु कहा और पाण्डु के पुत्रों को वंश के उत्तराधिकार से विलग कर दिया। इस तरह पाण्डु के पुत्रों अर्थात् अपने भतीजों के साथ धृतराष्ट्र की विशिष्ट मनःस्थिति समझी जा सकती है। जिस प्रकार धान के खेत से अवांछित पोधों को उखाड़ दिया जाता है उसी प्रकार इस कथा के आरम्भ से ही ऐसी आशा की जाती है कि जहाँ धर्म के पिता श्रीकृष्ण उपस्थित हों वहाँ कुरुक्षेत्र रूपी खेत में दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्र रूपी अवांछित पौधों को समूल नष्ट करके युधिष्ठिर आदि नितान्त धार्मिक पुरुषों की स्थापना की जायेगी। यहाँ धर्मक्षेत्रे तथा कुरुक्षेत्रे शब्दों की, उनकी ऐतिहासिक तथा वैदिक महत्ता के अतिरिक्त, यही सार्थकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

9735923682?profile=RESIZE_400x

मार्कण्डेय द्वारा स्तुति (12.8)

35 ये दोनों मुनि नर तथा नारायण भगवान के साकार रूप थे। जब मार्कण्डेय ऋषि ने दोनों को देखा तो वे तुरन्त उठ खड़े हुए और तब पृथ्वी पर डंडे की तरह गिरकर अतीव आदर के साथ उन्हें नमस्कार किया।

36-38 उन्हें देखने से उत्पन्न हुए आनन्द ने मार्कण्डेय के शरीर, मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह तुष्ट कर दिया, उनके शरीर में रोमांच ला दिया और उनके नेत्रों को आँसुओं से भर दिया। भावविह्वल होने से मार्कण्डेय उन्हें देख पाने में असमर्थ हो रहे थे। सम्मान में हाथ जोड़े खड़े होकर तथा दीनतावश अपना सिर झुकाये मार्कण्डेय को इतनी उत्सुकता हुई कि उन्हें लगा कि वे दोनों विभुओं का आलिंगन कर रहे हैं। आनन्द से रुद्ध हुई वाणी से उन्होंने बारम्बार कहा "मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।" उन्होंने उन दोनों को आसन प्रदान किये, उनके चरण पखारे और तब अर्ध्य, चन्दन-लेप, सुगन्धित तेल, धूप तथा फूल-मालाओं की भेंट चढ़ाकर पूजा की।

39 मार्कण्डेय ऋषि ने पुनः इन दो पूज्य मुनियों के चरणकमलों पर शीश झुकाया जो सुखपूर्वक बैठे थे और उन पर कृपा करने के लिए उद्यत थे। तब उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा।

40 श्री मार्कण्डेय ने कहा: हे सर्वशक्तिमान प्रभु, भला मैं आपका वर्णन कैसे कर सकता हूँ? आप प्राणवायु को जागृत करते हैं, जो मन, इन्द्रियों तथा वाकशक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। यह सारे सामान्य बद्धजीवों पर, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव जैसे महान देवताओं पर भी लागू होता है। अतएव यह निस्सन्देह, मेरे लिए भी सही है। तो भी, आप अपनी पूजा करनेवालों के घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं।

41 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, आपके ये दो साकार रूप तीनों जगतों को चरम लाभ प्रदान करने के लिए – भौतिक कष्ट की समाप्ति तथा मृत्यु पर विजय के लिए – प्रकट हुए हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और इसकी रक्षा करने के लिए नाना प्रकार के दिव्य रूप धारण करते हैं, किन्तु आप इसे निगल भी लेते हैं जिस तरह मकड़ी पहले जाल बुनती है और बाद में उसे निगल जाती है।

42 चूँकि आप सारे चर तथा अचर प्राणियों के रक्षक तथा परम नियन्ता हैं, इसलिए जो भी आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है, उसे भौतिक कर्म, गुण या काल के दूषण छु तक नहीं सकते। जिन महर्षियों ने वेदों के अर्थ को आत्मसात कर रखा है, वे आपकी स्तुति करते हैं। आपका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए वे हर अवसर पर आपको नमस्कार करते हैं, निरन्तर आपको पूजते हैं और आपका ध्यान करते हैं।

43 हे प्रभु, ब्रह्मा भी, जोकि ब्रह्माण्ड की पूरी अवधि तक अपने उच्च पद का भोग करता है, काल की गति से भयभीत रहता है। तो उन बद्धजीवों के बारे में क्या कहा जाय जिन्हें ब्रह्मा उत्पन्न करते हैं। वे अपने जीवन के पग-पग पर भयावने संकटों का सामना करते हैं। मैं इस भय से छुटकारा पाने के लिए आपके चरणकमलों की जो साक्षात मोक्ष –स्वरूप हैं, शरण ग्रहण करने के सिवाय और कोई साधन नहीं जानता।

44 इसलिए मैं भौतिक शरीर तथा उन सारी वस्तुओं से, जो मेरी असली आत्मा को प्रच्छन्न करती हैं, अपनी पहचान का परित्याग करके आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ। ये व्यर्थ, अयथार्थ तथा क्षणिक आवरण, आपसे जिनकी बुद्धि समस्त सत्य को समेटे हुये है, पृथक होने की मात्र कल्पनाएँ हैं। परमेश्वर तथा आत्मा के गुरु स्वरूप आपको प्राप्त करके मनुष्य प्रत्येक वांछित वस्तु प्राप्त कर लेता है।

45 हे प्रभु, हे बद्धजीव के परम मित्र, यद्यपि इस जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार के लिए आप सतो, रजो तथा तमोगुणों को जो आपकी मायाशक्ति हैं, स्वीकार करते हैं? किन्तु बद्धजीवों को मुक्त करने के लिए आप सतोगुण का प्रयोग करते हैं। अन्य दो गुण उनके लिए मात्र कष्ट, मोह तथा भय लाने वाले हैं।

46 हे प्रभु, चूँकि निर्भीकता, आध्यात्मिक सुख तथा भगवदधाम – ये सभी सतोगुण के द्वारा ही प्राप्त किये जाते हैं इसलिए आपके भक्त इसी गुण को आपकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति मानते हैं, रजो तथा तमोगुण को नहीं। इस तरह बुद्धिमान व्यक्ति आपके प्रिय दिव्य रूप को, जोकि शुद्ध सत्त्व से बना होता है, आपके शुद्ध भक्तों के आध्यात्मिक स्वरूपों के साथ पूजा करते हैं।

47 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ। वे ब्रह्माण्ड के सर्वव्यापक तथा सर्वस्व हैं और इसके गुरु भी हैं। मैं भगवान नारायण को नमस्कार करता हूँ जो ऋषि के रूप में प्रकट होनेवाले परम पूज्य देव हैं। मैं सन्त स्वभाव वाले नर को भी नमस्कार करता हूँ जो मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं, जो पूर्ण सात्विक हैं, जिनकी वाणी संयमित है और जो वैदिक वाड्मय के प्रचारक हैं।

48 भौतिकतावादी की बुद्धि उसकी धोखेबाज इन्द्रियों की क्रिया से विकृत रहती है, इसलिए वह आपको तनिक भी पहचान नहीं पाता यद्यपि आप उसकी इन्द्रियों तथा हृदय में और उसकी अनुभूति की वस्तुओं में सदैव विद्यमान रहते हैं। मनुष्य का ज्ञान आपकी माया से आवृत होते हुए भी, यदि वह, सबों के गुरु आपसे, वैदिक ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह आपको प्रत्यक्ष रूप से समझ सकता है।

49 हे प्रभु, केवल वैदिक ग्रन्थ ही आपके परम स्वरूप का गुह्य ज्ञान प्रकट करने वाले हैं, अतएव भगवान ब्रह्मा जैसे महान विद्वान भी आगमन विधियों द्वारा आपको समझने के प्रयास में मोहित हो जाते हैं। दार्शनिक अपने विशेष चिन्तनपरक निष्कर्ष के अनुसार आपको समझता है। मैं उन परम पुरुष की पूजा करता हूँ जिनका ज्ञान बद्धात्माओं के आध्यात्मिक स्वरूप को आवृत करने वाली शारीरिक उपाधियों से छिपा हुआ है।

-- :: हरि ॐ तत सत :: --

9735927677?profile=RESIZE_584x

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

जनम जनम के पाप कटे – भरम के बादल दूर हटे जो मुख से इक बार रटे – श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

तीन शब्द का ये संगीत – मुक्ति दिलाने वाला गीत इसको गाकर जग को जीत – श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

काम-क्रोध मद भस्म करे – लोभ मोह के प्राण हरे जो मुख में ये मंत्र धरे श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

गले में तुलसी की माला – अधर पे भक्ति का प्याला मन में प्रभु का उजियाला – श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

कलयुग में ये है वरदान – जन जन का करता कल्याण वैष्णव जन का मंत्र महान - श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

******

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

ये अमर ग्रन्थ, ये मुक्ति पन्थ, ये पंचम वेद निराला – नव ज्योति जगानेवाला

हरि नाम यही, हरि धाम यही, – यह जग मंगल की आरती, पापियों को पाप से है तारती

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

ये शान्ति गीत, पावन पुनीत, पापों को मिटानेवाला – हरि दर्श दिखानेवाला

है सुख करणी, है दुख हरिणी – श्री मधुसूदन की आरती, पापियों को पाप से है तारती

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

ये मधुर बोल, जग फन्द खोल, सन्मार्ग दिखानेवाला – बिगड़ी को बनानेवाला

श्री राम यही, घनश्याम यही – प्रभु की महिमा की आरती, पापियों को पाप से है तारती

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

Read more…

9735907872?profile=RESIZE_400x

भगवान की विभूतियाँ (11.16)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आप अनादि तथा अनन्त, साक्षात परब्रह्म तथा अन्य किसी वस्तु से सीमित नहीं हैं। आप सभी वस्तुओं के रक्षक तथा जीवनदाता, उनके संहार तथा सृष्टि हैं।

2 हे प्रभु, यद्यपि अपवित्र लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आप समस्त उच्च तथा निम्न सृष्टियों में स्थित हैं, किन्तु वे ब्राह्मण जो वैदिक मत को भलीभाँति जानते हैं आपकी वास्तविक रूप में पूजा करते हैं।

3 कृपया मुझसे उन सिद्धियों को बतायें जिन्हें महर्षिगण आपकी भक्तिपूर्वक पूजा द्वारा प्राप्त करते हैं। कृपया यह भी बतायें कि वे आपके किन विविध रूपों की पूजा करते हैं।

4-5 हे सर्वपालक प्रभु, यद्यपि आप सभी जीवों के परमात्मा हैं किन्तु आप गुप्त रहते हैं। इस तरह आपके द्वारा मोहग्रस्त बनाए जाकर सारे जीव आपको देख नहीं पाते यद्यपि आप उन्हें देखते रहते हैं। हे परम शक्तिमान प्रभु, कृपा करके मुझे अपनी वे असंख्य शक्तियाँ बतायें जिन्हें आप पृथ्वी में, स्वर्ग में, नरक में तथा समस्त दिशाओं में प्रकट करते हैं। मैं आपके उन चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ जो समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं।

6 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा : हे प्रश्नकर्ताओं में श्रेष्ठ, अर्जुन ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों से युद्ध करने की इच्छा से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में मुझसे यही प्रश्न पूछा था जिसे तुम पूछने जा रहे हो।

7 कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन ने सोचा कि अपने सम्बन्धियों का वध करना अत्यन्त गर्हित एवं अधार्मिक कार्य है जो राज्य प्राप्त करने की उसकी इच्छा से प्रेरित है। अतएव यह सोचकर कि मैं अपने सम्बन्धियों का मारने वाला होऊँगा और वे विनष्ट हो जाएँगे, वह युद्ध से विरत होना चाहता था। इस तरह वह संसारी चेतना से आहत था।

8-9 उस समय मैंने पुरुषों में व्याघ्र अर्जुन को तर्क द्वारा समझाया और युद्ध के मोर्चे में ही अर्जुन ने मुझसे उसी तरह के प्रश्न किये थे जिस तरह तुम अब कर रहे हो। हे उद्धव, मैं समस्त जीवों का परमात्मा हूँ, अतएव मैं स्वाभाविक रूप से उनका हितेच्छु तथा परम नियन्ता हूँ। सारे जीवों का स्रष्टा, पालक तथा संहर्ता होने से मैं उनसे भिन्न नहीं हूँ।

10 मैं उन्नति चाहने वालों का चरम गन्तव्य हूँ और जो नियंत्रण किये रखना चाहते हैं उनमें मैं काल हूँ। मैं भौतिक गुणों की साम्यावस्था हूँ और पवित्रों के बीच मैं स्वाभाविक गुण हूँ।

11 गुणयुक्त वस्तुओं में मैं प्रकृति की प्राथमिक अभिव्यक्ति हूँ और महान वस्तुओं में मैं समग्र सृष्टि हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं आत्मा हूँ और दुर्जेय वस्तुओं में मैं मन हूँ।

12-15 वेदों में मैं आदि शिक्षक ब्रह्मा और समस्त मंत्रों में मैं तीन अक्षरों (मात्राओं) वाला ॐकार हूँ। अक्षरों में मैं प्रथम अक्षर अ (अकार) और पवित्र छन्दों में गायत्री मंत्र हूँ। मैं देवताओं में इन्द्र तथा वसुओं में अग्नि देव हूँ। मैं अदिति-पुत्रों में विष्णु तथा रुद्रों में शिव हूँ। मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु मुनि तथा राजर्षियों में मनु हूँ। देवर्षियों में मैं नारद मुनि तथा गौवों में कामधेनु हूँ। मैं सिद्धों में भगवान कपिल तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ। प्रजापतियों में मैं दक्ष तथा पितरों में अर्यमा हूँ।

16-19 हे उद्धव, तुम मुझे दिति के असुर पुत्रों में असुरों का साधु सदृश स्वामी प्रह्लाद महाराज जानो। मैं नक्षत्रों तथा औषधियों में उनका स्वामी चन्द्र हूँ और यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं राजसी हाथियों में ऐरावत और जलचरों में समुद्रों का अधिपति वरुण हूँ। समस्त ऊष्मा तथा प्रकाश प्रदान करनेवाली वस्तुओं में मैं सूर्य और मनुष्यों में राजा हूँ। घोड़ों में मैं उच्चैश्रवा तथा धातुओं में स्वर्ण हूँ। दण्ड देने वालों तथा दमन करने वालों में मैं यमराज हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ। हे निष्पाप उद्धव, श्रेष्ठ सर्पों में मैं अनन्तदेव हूँ और पैने सींग तथा दाँत वाले पशुओं में मैं सिंह हूँ। आश्रमों में मैं चौथा आश्रम अर्थात संन्यास आश्रम हूँ और चारों वर्णों में प्रथम वर्ण अर्थात ब्राह्मण हूँ।

20-22 पवित्र तथा प्रवाहमान वस्तुओं में मैं पवित्र गंगा हूँ और स्थिर जलाशयों में समुद्र हूँ। हथियारों में मैं धनुष और हथियार चलाने वालों में मैं त्रिपुरारी शिव हूँ। निवासस्थानों में मैं सुमेरु पर्वत हूँ और दुर्गम स्थानों में हिमालय हूँ। वृक्षों में मैं पवित्र वटवृक्ष तथा धान्यों में मैं जौ (यव) हूँ। पुरोहितों में, मैं वसिष्ठ मुनि और वैदिक संस्कृति के अग्रगण्यों में बृहस्पति हूँ। मैं महान सेना नायकों में स्कन्द (कार्तिकेय) और उच्च जीवन बिताने वालों में महापुरुष ब्रह्मा हूँ। यज्ञों में मैं वेदाध्ययन और व्रतों में अहिंसा हूँ। पवित्र करने वाली सभी वस्तुओं में मैं वायु, अग्नि, सूर्य, जल तथा वाणी हूँ।

24-27 मैं योग की आठ उत्तरोत्तर अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था – समाधि हूँ जिसमें आत्मा मोह से पूर्णतया पृथक हो जाता है। विजय की आकांक्षा रखनेवालों में मैं कुशल राजनीतिक सलाहकार हूँ और दक्ष विवेकी विधियों में मैं आत्मज्ञान हूँ जिसके द्वारा पदार्थ से आत्मा को विभेदित किया जाता है। मैं समस्त निर्विशेषवादियों (ज्ञानियों) में अनुभूति-वैविध्य हूँ। मैं स्त्रियों में शतरूपा और पुरुषों में उसका पति स्वायम्भुव मनु हूँ। ऋषियों में मैं नारायण हूँ और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ। धार्मिक सिद्धान्तों में, मैं संन्यास हूँ और समस्त प्रकार की सुरक्षा में अन्तस्थ नित्य आत्मा की चेतना हूँ। रहस्यों में, मैं मधुर वाणी तथा मौन हूँ तथा मैथुनरत युगलों में ब्रह्मा हूँ। सतर्क कालचक्रों में, मैं वर्ष हूँ और ऋतुओं में वसन्त हूँ। महीनों में, मैं मार्गशीर्ष तथा नक्षत्रों में शुभ अभिजीत हूँ।

28 युगों में, मैं सत्ययुग और अविचल मुनियों में देवल तथा असित हूँ। वेदों का विभाजन करने वालों में मैं कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास हूँ और विद्वानों में मैं आध्यात्मिक विज्ञान का ज्ञाता शुक्राचार्य हूँ।

29-31 भगवान नाम के अधिकारियों में मैं वासुदेव हूँ तथा हे उद्धव, तुम निस्सन्देह भक्तों में मेरा प्रतिनिधित्व करते हो। मैं किम्पुरुषों में हनुमान हूँ और विद्याधरों में सुदर्शन हूँ। रत्नों में, मैं लाल हूँ और सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली हूँ। सभी प्रकार के तृणों में मैं पवित्र कुश हूँ और आहुतियों में घी तथा गाय से प्राप्त होने वाले अन्य पदार्थ हूँ। उद्यमियों में, मैं लक्ष्मी हूँ और कपट करनेवालों में मैं जुआ (द्यूत क्रीड़ा) हूँ। सहिष्णुओं में, मैं क्षमाशीलता और सतोगुणियों में सद्गुण हूँ।

32-34 बलवानों में, मैं शारीरिक तथा मानसिक बल हूँ और अपने भक्तों का भक्तिमय कर्म हूँ। मेरे भक्तगण मेरी पूजा नौ विभिन्न रूपों में करते हैं जिनमें से मैं आदि तथा प्रमुख वासुदेव हूँ। मैं गन्धर्वों में विश्वावसु तथा स्वर्गिक अप्सराओं में पूर्वचित्ति हूँ। मैं पर्वतों की स्थिरता तथा पृथ्वी की सुगन्ध हूँ। मैं जल का मधुर स्वाद हूँ और चमकीली वस्तुओं में सूर्य हूँ। मैं सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों का प्रकाश हूँ और आकाश में ध्वनित होनेवाली दिव्य ध्वनि हूँ।

35-37 ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में, मैं विरोचन-पुत्र बलि महाराज हूँ और वीरों में अर्जुन हूँ। दरअसल, मैं ही समस्त जीवों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हूँ। मैं पाँच कर्मेन्द्रियों--पाँव, वाणी, गुदा, हाथ तथा जननांग--के साथ ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों--स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, श्रवण तथा गन्ध--के कार्यकलाप हूँ। मैं सामर्थ्य भी हूँ जिससे प्रत्येक इन्द्रिय अपने अपने इन्द्रिय-विषय का अनुभव करती है। मैं स्वरूप, स्वाद, गन्ध, स्पर्श तथा ध्वनि; मिथ्या अहंकार, महत तत्त्व; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश; जीव, भौतिक प्रकृति; सतो, रजो तथा तमोगुण; एवं दिव्य भगवान हूँ। ये सारी वस्तुएँ, इन सबों के लक्षण तथा इस ज्ञान से उत्पन्न दृढ़ निश्चय भी मैं ही हूँ।

38-39 परमेश्वर के रूप में मैं जीव, प्रकृति के गुणों तथा महत तत्त्व का आधार हूँ। इस प्रकार मैं सर्वस्व हूँ और कोई भी वस्तु मेरे बिना विद्यमान नहीं रह सकती। भले ही मैं कुछ समय में ब्रह्माण्ड के समस्त अणुओं की गणना कर सकूँ, किन्तु असंख्य ब्रह्माण्डों में प्रदर्शित अपने समस्त ऐश्वर्यों की गणना मैं भी नहीं कर पाऊँगा।

40 जो भी शक्ति, सौन्दर्य, यश, ऐश्वर्य, विनम्रता, त्याग, मानसिक आनन्द, सौभाग्य, सहिष्णुता या आध्यात्मिक ज्ञान हो सकता है, वह सब मेरे ऐश्वर्य का अंश है।

41 मैंने तुमसे संक्षेप में अपने सारे आध्यात्मिक ऐश्वर्यों तथा अपनी सृष्टि के उन अद्वितीय भौतिक गुणों का भी वर्णन किया, जो मन से अनुभव किये जाते हैं और परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न तरीकों से परिभाषित होते हैं।

42-43 अतएव अपनी वाणी पर संयम रखो, मन को दमित करो, प्राणवायु पर विजय पाओ, इन्द्रियों को नियमित करो तथा विमल बुद्धि के द्वारा अपनी विवेकपूर्ण प्रतिभा को अपने वश में करो। इस तरह तुम पुनः भौतिक जगत के पथ पर कभी डिगोगे नहीं। जो योगी अपनी श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा अपनी वाणी तथा मन पर पूरा नियंत्रण नहीं रखता, उसके आध्यात्मिक व्रत, तपस्या तथा दान उसी तरह बह जाते हैं जिस तरह कच्चे मिट्टी के घड़े से पानी बह जाता है।

44 मेरे शरणागत होकर मनुष्य को वाणी, मन तथा प्राण पर नियंत्रण रखना चाहिए और तब भक्तिमयी बुद्धि के द्वारा वह अपने जीवन-लक्ष्य को पूरा कर सकेगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9735906068?profile=RESIZE_584x

देवताओं द्वारा स्तुति (11.6)

7 देवता कहने लगे: हे प्रभु, बड़े बड़े योगी कठिन कर्म-बन्धन से मुक्ति पाने का प्रयास करते हुए अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का ध्यान अतीव भक्तिपूर्वक करते हैं। हम देवतागण अपनी बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण, मन तथा वाणी आपको समर्पित करते हुए, आपके चरणकमल पर नत होते हैं।

8 हे अजित प्रभु, आप तीन गुणों से बनी अपनी मायाशक्ति को अपने ही भीतर अचिन्त्य व्यक्त जगत के सृजन, पालन तथा संहार में लगाते हैं। आप माया के परम नियन्ता के रूप में प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया में स्थित जान पड़ते हैं, किन्तु आप भौतिक कार्यों द्वारा कभी प्रभावित नहीं होते। आप अपने नित्य आध्यात्मिक आनन्द में ही लगे रहते हैं, अतएव आप पर किसी भौतिक संदूषण का दोषारोपण नहीं किया जा सकता।

9 हे सर्वश्रेष्ठ, जिनकी चेतना मोह से कलुषित है, वे केवल सामान्य पूजा, वेदाध्ययन, दान, तप तथा अनुष्ठानों द्वारा अपने को शुद्ध नहीं कर सकते। हमारे स्वामी, जिन शुद्ध आत्माओं ने आपके यश के प्रति दिव्य प्रबल श्रद्धा उत्पन्न कर ली है, उन्हें ऐसा शुद्ध जन्म प्राप्त होता है, जो ऐसी श्रद्धा से रहित लोगों को कभी प्राप्त नहीं हो पाता।

10 जीवन में सर्वोच्च लाभ की कामना करनेवाले बड़े बड़े मुनि अपने उन हृदयों के भीतर सदैव आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं, जो आपके प्रेम में द्रवित हैं। इसी तरह आपके आत्मसंयमी भक्तगण, आपके ही समान ऐश्वर्य पाने के लिए स्वर्ग से परे जाने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की पूजा प्रातः दोपहर तथा संध्या समय करते हैं। इस तरह वे आपके चतुर्व्यूह रूप का ध्यान करते हैं। आपके चरणकमल उस प्रज्ज्वलित अग्नि के तुल्य हैं, जो भौतिक इन्द्रियतृप्ति विषयक समस्त अशुभ इच्छाओं को भस्म कर देती है।

11 याज्ञिक लोग ऋग, यजु: तथा सामवेद में दी गई विधि के अनुसार यज्ञ की अग्नि में आहुति देते समय, आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं। इसी प्रकार योगीजन आपकी दिव्य योगशक्ति का ज्ञान प्राप्त करने की आशा से आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं और जो पूर्ण महाभागवत हैं, वे आपकी मायाशक्ति को पार करने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की उचित विधि से पूजा करते हैं।

12-13 हे सर्वशक्तिमान, आप अपने सेवकों के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उस मुरझाई हुई (बासी) फूलमाला को स्वीकार कर लिया है, जिसे हमने आपके वक्षस्थल पर चढ़ाया था। चूँकि लक्ष्मी देवी आपके दिव्य वक्षस्थल पर वास करती हैं, इसलिए निस्सन्देह वे हमारी भेंटों को उसी स्थान पर अर्पित करते देखकर उसी तरह ईर्ष्या करेंगी, जिस तरह एक सौत करती है। फिर भी आप इतने दयालु हैं कि आप अपनी नित्य संगिनी लक्ष्मीदेवी की परवाह न करते हुए हमारी भेंट को सर्वोत्तम पूजा मानकर ग्रहण करते हैं। हे दयालु प्रभु, आपके चरणकमल हमारे हृदयों की अशुभ कामनाओं को भस्म करने के लिए प्रज्वलित अग्नि का कार्य करें। हे सर्वशक्तिमान प्रभु, आपने अपने त्रिविक्रम अवतार में ब्रह्माण्ड के कवच को तोड़ने के लिए अपना पैर ध्वज-दण्ड की तरह उठाया और पवित्र गंगा को तीन शाखाओं में तीनों लोकों में से होकर विजय-ध्वजा की भाँति बहने दिया। आपने अपने चरणकमलों के तीन बलशाली पगों से बलि महाराज को उनके विश्वव्यापी साम्राज्य सहित वश में कर लिया। आपके चरण असुरों में भय उत्पन्न करके, उन्हें स्वर्ग-जीवन की सिद्धि प्रदान करते हैं। हे प्रभु, आपके चरणकमल कृपा करके, हमारे सभी पापकर्मों से हमें मुक्त करें।

14-15 आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, दिव्य आत्मा हैं, जो भौतिक प्रकृति तथा इसके भोक्ता दोनों से श्रेष्ठ हैं। आपके चरणकमल हमें दिव्य आनन्द प्रदान करें। ब्रह्मा इत्यादि सारे बड़े बड़े देवता देहधारी जीव हैं। आपके काल के वश में एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते वे सब उन बैलों जैसे हैं, जिन्हें छिदे हुए उनकी नाक में पड़ी रस्सी (नथ) के द्वारा खींचा जाता है। आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के कारण हैं। आप प्रकृति की स्थूल तथा सूक्ष्म दशाओं को नियमित करनेवाले तथा प्रत्येक जीव को वश में करनेवाले हैं। कालरूपी चक्र की तीन नाभियों के रूप में आप सारी वस्तुओं का ह्रास करनेवाले हैं। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं।

16 हे प्रभु, आदि पुरुष-अवतार महाविष्णु अपनी सर्जक शक्ति आपसे ही प्राप्त करते हैं। इस तरह अच्युत शक्ति से युक्त वे प्रकृति में दृष्टिपात करके महत तत्व उत्पन्न करते हैं। तब भगवान की शक्ति से समन्वित यह महत तत्त्व अपने में से ब्रह्माण्ड का आदि सुनहला अंडा उत्पन्न करता है, जो भौतिक तत्त्वों के कई आवरणों (परतों) से ढका होता है।

17 हे प्रभु, आप इस ब्रह्माण्ड के परम स्रष्टा हैं और समस्त चर तथा अचर जीवों के परम नियन्ता हैं। आप हृषीकेश अर्थात सभी इन्द्रियविषयक कार्यों के परम नियन्ता हैं, और आप कभी भी इस भौतिक सृष्टि के भीतर अनन्त इन्द्रियविषय कार्यों के अधीक्षक के समय संदूषित या लिप्त नहीं होते। दूसरी ओर, अन्य जीव, यहाँ तक कि योगी तथा दार्शनिक भी उन भौतिक वस्तुओं का स्मरण करके विचलित तथा भयभीत रहते हैं।

18-19 हे प्रभु, आप सोलह हजार अत्यन्त सुन्दर राजसी पत्नियों के साथ रह रहे हैं। अपनी अत्यन्त लजीली तथा मुस्कान-भरी चितवन तथा सुन्दर धनुष-रूपी भौंहों से वे आपको उत्सुक प्रणय का सन्देश भेजती हैं। किन्तु वे आपके मन तथा इन्द्रियों को विचलित करने में पूरी तरह असमर्थ रहती हैं। आपके विषय में वार्ता रूपी अमृतवाहिनी नदियाँ तथा आपके चरणकमलों के धोने से उत्पन्न पवित्र नदियाँ तीनों लोकों के सारे कल्मष को विनष्ट करने में समर्थ हैं। जो शुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे आपके चरणकमलों से निकलने वाली पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और आपकी महिमा की पवित्र कथाओं का उत्साहपूर्वक श्रवण करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9735898291?profile=RESIZE_400x

साक्षात वेदों द्वारा स्तुति (10.87)

1-10   श्री परीक्षित ने कहा: हे ब्राह्मण, भला वेद उस परम सत्य का प्रत्यक्ष वर्णन कैसे कर सकते हैं, जिसे शब्दों द्वारा बतलाया नहीं जा सकता? वेद भौतिक प्रकृति के गुणों के वर्णन तक ही सीमित हैं, किन्तु ब्रह्म समस्त भौतिक स्वरूपों तथा उनके कारणों को लाँघ जाने के कारण इन गुणों से रहित है।  श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान ने जीवों की भौतिक बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण को प्रकट किया, जिससे वे अपनी इच्छाओं को इन्द्रिय-तृप्ति में लगा सकें, सकाम कर्म में संलग्न होने के लिए बारम्बार जन्म ले सकें, अगले जन्म में ऊपर उठ सकें तथा अन्ततः मोक्ष प्राप्त कर सकें। हमारे प्राचीन पूर्वजों से भी पूर्व, जो लोग हो चुके हैं, उन्होंने भी परम सत्य के इसी गुह्य ज्ञान का ही ध्यान किया है। निस्सन्देह, जो भी श्रद्धापूर्वक इस ज्ञान में एकाग्र होता है, वह भौतिक आसक्ति से छूट जायेगा और जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा।  इस सम्बन्ध में, मैं तुमसे भगवान नारायण विषयक एक गाथा कहूँगा। यह उस वार्ता के विषय में है, जो श्री नारायण ऋषि तथा नारदमुनि के मध्य हुई थी। एक बार ब्रह्माण्ड के विविध लोकों का भ्रमण करते हुए, भगवान के प्रिय भक्त नारद आदि ऋषि नारायण से मिलने, उनके आश्रम में गये। कल्प के शुभारम्भ से ही नारायण ऋषि इस भारत-भूमि में धार्मिक कर्तव्यों को पूरी तरह सम्पन्न करते हुए एवं मनुष्यों के इस लोक तथा अगले लोक में लाभ के लिए आध्यात्मिक ज्ञान तथा आत्म-संयम को आदर्श रूप प्रदान करते हुए तपस्या कर रहे थे।  वहाँ नारद भगवान नारायण ऋषि के पास पहुँचे,जो कलाप ग्राम के मुनियों के बीच में बैठे हुए थे। हे कुरुवीर, भगवान को नमस्कार करने के बाद नारद ने उनसे यही प्रश्न पूछा, जो तुमने मुझसे पूछा है।  ऋषियों के सुनते-सुनते नारायण ऋषि ने नारद को परम ब्रह्म विषयक, वह प्राचीन चर्चा सुनाई, जो जनलोक के वासियों के बीच हुई थी।   भगवान ने कहा: हे स्वजन्मा ब्रह्मा के पुत्र, एक बार बहुत समय पहले, जनलोक में रहनेवाले विद्वान मुनियों ने दिव्य ध्वनि का उच्चारण करते हुए एक महान ब्रह्म यज्ञ सम्पन्न किया। ये सारे मुनि, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, पूर्ण ब्रह्मचारी थे। उस समय तुम श्वेतद्वीप में भगवान का दर्शन करने गये हुए थे – जिनके भीतर ब्रह्माण्ड के संहार काल के समय सारे वेद विश्राम करते हैं। जनलोक में परब्रह्म के स्वभाव के विषय में ऋषियों के मध्य जीवन्त वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ। निस्सन्देह, तब यही प्रश्न उठा था, जिसे तुम अब मुझसे पूछ रहे हो।

11-15  यद्यपि वेदाध्ययन तथा तपस्या के मामले में ये ऋषि समान रूप से योग्य थे और मित्रों, शत्रुओं तथा निष्पक्षों को समान दृष्टि से देखते थे, फिर भी उन्होंने अपने में से एक को वक्ता बनाया और शेष जन उत्सुक श्रोता बन गये।  श्री सनन्दन ने उत्तर दिया: जब भगवान ने अपने द्वारा पूर्व-निर्मित ब्रह्माण्ड को समेट लिया, तो वे कुछ काल तक ऐसे लेटे रहे, मानो सोये हुए हैं और उनकी सारी शक्तियाँ उनमें सुप्त पड़ी रही। जब अगली सृष्टि करने का समय आया, तो साक्षात वेदों ने उनकी महिमाओं का गायन करते हुए उन्हें जगाया, जिस तरह राजा की सेवा में लगे कविगण प्रातःकाल उसके पास जाकर उसके वीरतापूर्ण कार्यों को सुनाकर, उसे जगाते हैं।  श्रुतियों ने कहा: हे अजित, आपकी जय हो, जय हो, अपने स्वभाव से आप समस्त ऐश्वर्य से परिपूर्ण हैं, अतएव आप माया की शाश्वत शक्ति को परास्त करें, जो बद्धजीवों के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न करने के लिए तीनों गुणों को अपने वश में कर लेती है। चर तथा अचर देहधारियों की समस्त शक्ति को जागृत करनेवाले, कभी-कभी जब आप अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के साथ क्रीड़ा करते हैं, तो वेद आपको पहचान लेते हैं।  इस दृश्य जगत की पहचान ब्रह्म से की जाती है, क्योंकि परब्रह्म समस्त जगत की अनन्तिम नींव है। यद्यपि समस्त उत्पन्न वस्तुएँ उनसे उद्भूत होती है और अन्त में उसी में लीन होती हैं, तो भी ब्रह्म अपरिवर्तित रहता है, जिस तरह कि मिट्टी जिससे अनेक वस्तुएँ बनाई जाती हैं और वे वस्तुएँ फिर उसी में लीन हो जाती हैं, वह अपरिवर्तित रहती है। इसीलिए सारे वैदिक ऋषि अपने विचारों, अपने शब्दों तथा अपने कर्मों को आपको ही अर्पित करते हैं। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस पृथ्वी पर मनुष्य रहते हैं, उसे उनके पैर स्पर्श न कर सकें।

16-20 अतएव हे त्रिलोकपति, बुद्धिमान लोग आपकी कथाओं के अमृतमय सागर में गहरी डुबकी लगाकर समस्त क्लेशों से छुटकारा पा लेते हैं, क्योंकि आपकी कथाएँ ब्रह्माण्ड के सारे दूषण को धो डालती हैं। तो फिर उन लोगों के बारे में क्या कहा जाय, जिन्होंने आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा अपने मनों को बुरी आदतों से और स्वयं को काल से मुक्त कर लिया है और, हे परम पुरुष, आपके असली स्वभाव की, जिसके भीतर निर्बाध आनन्द भरा है, पूजा करने में समर्थ हैं? यदि वे आपके श्रद्धालु अनुयायी बन जाते हैं, तभी वे साँस लेते हुए वास्तव में जीवित हैं, अन्यथा उनका साँस लेना धौंकनी जैसा है। यह तो आपकी एकमात्र कृपा ही है कि महत तत्त्व तथा मिथ्या अहंकार से प्रारम्भ होने वाले तत्त्वों ने इस ब्रह्माण्ड रूपी अंडे को जन्म दिया। अन्नमय इत्यादि स्वरूपों में आप ही चरम हैं, जो जीव के साथ भौतिक आवरणों में प्रवेश करके उसके ही जैसे स्वरूप ग्रहण करते हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक स्वरूपों से भिन्न, आप उन सबों में निहित वास्तविकता हैं।  बड़े बड़े ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट विधियों के अनुयायियों में से, जिनकी दृष्टि कुछ कम परिष्कृत होती है, वे ब्रह्म को उदर क्षेत्र में उपस्थित मानकर पूजा करते हैं, किन्तु आरुणिगण उसे हृदय में उपस्थित मानकर पूजा करते हैं, जो सूक्ष्म केंद्र है जहाँ से सारी प्राणिक शाखाएँ (नाड़ियाँ) निकलती है। हे अनन्त, ये पूजक अपनी चेतना को वहाँ से – उठाकर सिर की चोटी तक ले जाते हैं, जहाँ वे आपको प्रत्यक्ष देख सकते हैं। तत्पश्चात सिर की चोटी से चरम गन्तव्य की ओर बढ़ते हुए वे उस स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से पुनः इस जगत में, जो मृत्यु के मुख स्वरूप हैं, नहीं गिरेंगे। आपने जीवों की जो विविध योनियाँ उत्पन्न की हैं, उनमें प्रवेश करके, उनकी उच्च तथा निम्न अवस्थाओं के अनुसार आप अपने को प्रकट करते हैं और उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिस प्रकार अग्नि अपने द्वारा जलाये जाने वाली वस्तु के अनुसार अपने को विविध रूपों में प्रकट करती है। अतएव जो लोग भौतिक आसक्तियों से सर्वथा मुक्त हैं, ऐसे निर्मल बुद्धि वाले लोग आपके अभिन्न तथा अपरिवर्तनशील आत्मा को इन तमाम अस्थायी योनियों में स्थायी सत्य के रूप में साक्षात्कार करते हैं।  प्रत्येक जीव अपने कर्म द्वारा सृजित भौतिक शरीरों में निवास करते हुए, वास्तव में, स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ से आच्छादित हुए बिना रहता है। जैसा कि वेदों में वर्णन हुआ है, ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह समस्त शक्तियों के स्वामी, आपका ही भिन्नांश है। जीव की ऐसी स्थिति को निश्चित करके ही विद्वान मुनिजन श्रद्धा से पूरित होकर, आपके उन चरणकमलों की पूजा करते हैं, जो मुक्ति के स्रोत हैं और जिन पर इस संसार की सारी वैदिक भेंटें अर्पित की जाती हैं।

21-25  हे प्रभु, कुछ भाग्यशाली आत्माओं ने आपकी उन लीलाओं के विस्तृत अमृत सागर में गोता लगाकर भौतिक जीवन की थकान से मुक्ति पा ली है, जिन लीलाओं को आप अगाध आत्म-तत्त्व का प्रचार करने के लिए साकार रूप धारण करके सम्पन्न करते हैं। ये विरली आत्माएँ मुक्ति की भी परवाह न करके घर-बार के सुख का परित्याग कर देती हैं, क्योंकि उन्हें आपके चरणकमलों का आनन्द पाने वाले हंसों के समूह सदृश भक्तों की संगति प्राप्त हो जाती है।  जब यह मानवीय शरीर आपकी पूजा के निमित्त काम में लाया जाता है, तो यह आत्मा, मित्र तथा प्रेमी की तरह कार्य करता है। किन्तु दुर्भाग्यवश, यद्यपि आप बद्धजीवों के प्रति सदैव कृपा प्रदर्शित करते हैं और हर तरह से स्नेहपूर्वक सहायता करते हैं और यद्यपि आप उनके असली आत्मा हैं, किन्तु सामान्य लोग आप में आनन्द नहीं लेते। उल्टे वे माया की पूजा करके आध्यात्मिक आत्महत्या करते हैं। हाय! असत्य के प्रति भक्ति करके, वे निरन्तर सफलता की आशा करते हैं, किन्तु वे विविध निम्न शरीर धारण करके इस अत्यन्त भयावह जगत में निरन्तर इधर-उधर भटकते रहते हैं।   भगवान के शत्रुओं ने भी, निरन्तर मात्र उनका चिन्तन करते रहने से, उसी परम सत्य को प्राप्त किया, जिसे योगीजन अपने श्वास, अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करके योग-पूजा में स्थिर कर लेते हैं। इसी तरह हम श्रुतियाँ, जो समान्यतः आपको सर्वव्यापी देखती हैं, आपके चरणकमलों से वही अमृत प्राप्त कर सकेंगी, जिसका आनन्द आपकी प्रियतमाएँ, आपकी विशाल सर्प सदृश बाहुओं के प्रति अपने प्रेमाकर्षण के कारण प्राप्त करती हैं, क्योंकि आप हमें तथा अपनी प्रियतमाओं को एक ही तरह से देखते हैं।   इस जगत का हर व्यक्ति हाल ही में उत्पन्न हुआ है और शीघ्र ही मर जायेगा। अतएव यहाँ का कोई भी व्यक्ति, उसे कैसे जान सकता है, जो हर वस्तु के पूर्व से विद्यमान है और जिसने प्रथम विद्वान ऋषि ब्रह्मा को और उसके बाद के छोटे तथा बड़े देवताओं को जन्म दिया है? जब वह लेट जाता है और हर वस्तु को अपने भीतर समेट लेता है, तो कुछ भी नहीं बचता – न तो स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ, न ही इनसे बने शरीर, न ही काल की शक्ति और न शास्त्र ।  माने हुए विद्वान जो यह घोषित करते हैं कि पदार्थ ही जगत का उद्गम है, कि आत्मा के स्थायी गुणों को नष्ट किया जा सकता है, कि आत्मा तथा पदार्थ के पृथक पक्षों से मिलकर आत्मा बना है या कि सांसारिक व्यापारों (विपणन) से सच्चाई बनी हुई है – ऐसे विद्वान उन भ्रान्त विचारों पर अपनी शिक्षाओं को आधारित करते हैं, जो सत्य को छिपाते हैं। यह द्वैत धारणा कि जीव प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न है, अज्ञानजन्य मात्र है। ऐसी धारणा का आपमें कोई आधार नहीं है, क्योंकि आप समस्त भ्रम (मोह) से परे हैं और पूर्ण चेतना का भोग करने वाले हैं।

26-40   इस जगत में सारी वस्तुएँ – सरलतम घटना से लेकर जटिल मानव-शरीर तक – प्रकृति के तीन गुणों से बनी हैं। यद्यपि ये घटनाएँ सत्य प्रतीत होती है, किन्तु वे आध्यात्मिक सत्य की मिथ्या प्रतिबिम्ब होती हैं। जो परमात्मा को जानते हैं, वे सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि को सत्य तथा साथ ही साथ आपसे अभिन्न मानते हैं। जिस तरह स्वर्ण की बनी वस्तुओं को, इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे असली सोने की बनी हैं, उसी तरह यह जगत उन भगवान से अभिन्न है, जिसने इसे बनाया और फिर वे उसमें प्रविष्ट हो गये।  जो भक्त आपको समस्त जीवों के आश्रय रूप में पूजते हैं, वे मृत्यु की परवाह नहीं करते और उनके सिर पर आप अपना चरण रखते हैं, लेकिन आप वेदों के शब्दों से अभक्तों को पशुओं की तरह बाँध लेते हैं, भले ही वे प्रकाण्ड विद्वान क्यों न हों।  आपके स्नेहिल भक्तगण ही अपने को तथा अन्यों को शुद्ध कर सकते हैं, आपके प्रति शत्रु-भाव रखने वाले नहीं। यद्यपि आपकी भौतिक इन्द्रियाँ नहीं हैं, किन्तु आप हर एक की इन्द्रिय-शक्ति के आत्म-तेजवान धारणकर्ता हैं। देवता तथा प्रकृति स्वयं आपकी पूजा करते हैं, जबकि वे अपनी पूजा करने वालों द्वारा अर्पित भेंट का भोग भी करते हैं, जिस तरह किसी राज्य के विविध जनपदों के अधीन शासक अपने स्वामी को, जो कि पृथ्वी का चरम स्वामी होता है, भेंटें प्रदान करते हैं और साथ ही स्वयं अपनी प्रजा द्वारा प्रदत्त भेंट का भोग भी करते हैं। इस तरह आपके भय से ब्रह्माण्ड के स्रष्टा अपने नियत कार्यों को श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते हैं।  हे नित्यमुक्त दिव्य भगवान, आपकी भौतिक शक्ति विविध जड़ तथा चेतन जीव योनियों को उनकी भौतिक इच्छाएँ जगाकर प्रकट कराती है, लेकिन ऐसा तभी होता है, जब आप उस पर अल्प दृष्टि डालकर उसके साथ क्रीड़ा करते हैं। हे भगवान, आप किसी को न तो अपना घनिष्ठ मित्र मानते हैं, न ही पराया, ठीक उसी तरह जिस तरह आकाश का अनुभवगम्य गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इस मामले में आप शून्य के समान हैं।  यदि ये असंख्य जीव सर्वव्यापी होते और अपरिवर्तनशील शरीरों से युक्त होते, तो हे निर्विकल्प, आप सम्भवतः उनके परम शासक न हुए होते। लेकिन चूँकि वे आपके स्थानिक अंश हैं और उनके स्वरूप परिवर्तनशील हैं, अतएव आप उनका नियंत्रण करते हैं। निस्सन्देह, जो किसी वस्तु की उत्पत्ति के लिए अवयव की आपूर्ति करता है, वह अवश्यमेव उसका नियन्ता है, क्योंकि कोई भी उत्पाद अपने अवयव कारण से पृथक विद्यमान नहीं रहता। यदि कोई यह सोचे कि उसने भगवान को, जो अपने प्रत्येक अंश में समरूप से रहते हैं जान लिया है, तो यह मात्र उसका भ्रम है, क्योंकि मनुष्य जो भी ज्ञान भौतिक साधनों से अर्जित करता है, वह अपूर्ण होगा।  न तो प्रकृति, न ही उसका भोग करने के लिए प्रयत्नशील आत्मा कभी जन्म लेते हैं, फिर भी जब ये दोनों संयोग करते हैं, तो जीवों का जन्म होता है, जिस तरह जहाँ तहाँ जल से वायु मिलती है, वहाँ वहाँ बुलबुले बनते हैं। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलती हैं या विभिन्न फूलों का रस शहद में मिल जाता है, उसी तरह ये सारे बद्धजीव अन्ततोगत्वा अपने विविध नामों तथा गुणों समेत आप ब्रह्म में पुनः लीन हो जाते हैं।  विद्वान आत्माएँ, जो यह समझते हैं कि आपकी माया, किस तरह सारे मनुष्यों को मोहती है, वे आपकी उत्कट प्रेमाभक्ति करते हैं, क्योंकि आप जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति के स्रोत हैं। भला आपके श्रद्धावान सेवकों को भौतिक जीवन का भय कैसे सता सकता है? दूसरी ओर, आपकी कुटिल भौहें, जो कालचक्र की तिहरी-नेमि हैं बारम्बार उन्हें भयभीत बनाती हैं, जो आपकी शरण ग्रहण करने से इनकार करते हैं।  मन ऐसे उच्छृंखल घोड़े की तरह है, जिसको अपनी इन्द्रियों एवं श्वास को संयमित कर चुके व्यक्ति भी वश में नहीं कर सकते। इस संसार में वे लोग, जो अवश मन को वश में करना चाहते हैं, किन्तु अपने गुरु के चरणों का परित्याग कर देते हैं, उन्हें विविध दुखदायी विधियों के अनुशीलन में सैकड़ों बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हे अजन्मा भगवान, वे समुद्र में नाव पर बैठे उन व्यापारियों के समान हैं, जो किसी नाविक को भाड़े पर नहीं लेते। जो व्यक्ति आपकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप परमात्मा स्वरूप दिखते हैं, जो समस्त दिव्य-आनन्द स्वरूप हैं। ऐसे भक्तों के लिए अपने सेवकों, बच्चों या शरीरों, अपनी पत्नियों, धन या घरों, अपनी भूमि या स्वास्थ्य या वाहनों का क्या उपयोग रह जाता है? जो आपके विषय में सच्चाई को समझने में असफल होते हैं तथा यौन-आनन्द के पीछे भागते रहते हैं, उनके लिए इस सम्पूर्ण जगत में, जो सदैव विनाशशील है और महत्त्व से विहीन है, ऐसा क्या है, जो उन्हें असली सुख प्रदान कर सके? ऋषिगण मिथ्या गर्व से रहित होकर पवित्र तीर्थस्थानों तथा जहाँ जहाँ भगवान ने अपनी लीलाएँ प्रदर्शित की हैं, उनका भ्रमण करते हुए इस पृथ्वी पर निवास करते हैं। चूँकि ऐसे भक्त आपके चरणकमलों को अपने हृदयों में रखते हैं, अतः उनके पाँवों को धोने वाला जल सारे पापों को नष्ट कर देता है। जो कोई अपने मन को एक बार भी समस्त जगत के नित्य आनन्दमय आत्मा आपकी ओर मोड़ता है, वह घर पर ऐसे पारिवारिक जीवन के अधीन नहीं रहता, जिससे मनुष्य के अच्छे गुण छीन लिये जाते हैं।  यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि यह जगत स्थायी रूप से सत्य है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति स्थायी सत्य से हुई है, किन्तु इसका तार्किक खण्डन हो सकता है। निस्सन्देह, कभी कभी कार्य-कारण का ऊपरी अभेद सत्य नहीं सिद्ध हो पाता और कभी तो सत्य वस्तु का फल भ्रामक होता है। यही नहीं, यह जगत स्थायी रूप से सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह केवल परम सत्य के ही स्वभावों में भाग नहीं लेता, अपितु उस सत्य को छिपाने वाले भ्रम में भी लेता है। वस्तुतः इस दृश्य जगत के दृश्य रूप उन अज्ञानी पुरुषों की परम्परा द्वारा अपनाई गई काल्पनिक व्यवस्था है, जो अपने भौतिक मामलों को सुगम बनाना चाहते थे। आपके वेदों के बुद्धिमत्तापूर्ण शब्द अपने विविध अर्थों तथा अन्तर्निहित व्यवहारों से उन सारे पुरुषों को मोहित कर लेते हैं, जिनके मन यज्ञों के मंत्रोच्चारों को सुनते सुनते जड़ हो चुके हैं। चूँकि यह ब्रह्माण्ड अपनी सृष्टि के पूर्व विद्यमान नहीं था और अपने संहार के बाद विद्यमान नहीं रहेगा, अतः हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मध्यावधि में यह आपके भीतर दृश्य रूप में कल्पित होता है, जिनका आध्यात्मिक आनन्द कभी नहीं बदलता। हम इस ब्रह्माण्ड की तुलना विविध भौतिक वस्तुओं के विकारों से करते हैं। निश्चय ही, जो यह विश्वास करते हैं कि यह छोटी-सी कल्पना सत्य है, वे अल्पज्ञ है।  मोहिनी प्रकृति सूक्ष्म जीव को, उसका आलिंगन करने के लिए आकृष्ट करती है और फलस्वरूप जीव उसके गुणों से बने रूप धारण करता है। बाद में वह अपने सारे आध्यात्मिक गुण खो देता है और उसे बारम्बार मृत्यु भोगनी पड़ती है। किन्तु आप भौतिक शक्ति से अपने को उसी तरह बचाते रहते हैं, जिस तरह सर्प पुरानी केंचुल त्यागता है। आप आठ योगसिद्धियों से महिमायुक्त स्वामी हैं और असीम ऐश्वर्य का भोग करते हैं।  संन्यास-आश्रम के जो सदस्य अपने हृदय से भौतिक इच्छा को समूल उखाड़ कर फेंक नहीं देते, वे अशुद्ध बने रहते हैं और इस तरह आप उन्हें अपने को समझने नहीं देते। यद्यपि आप उनके हृदयों में विद्यमान रहते हैं, किन्तु उनके लिए आप उस मणि की तरह हैं, जिसे मनुष्य गले में पहने हुए भी भूल जाता है कि वह गले में है। हे प्रभु, जो लोग केवल इन्द्रिय-तृप्ति के लिए योगाभ्यास करते हैं, उन्हें इस जीवन में तथा अगले जीवन में भी उस मृत्यु से, जो उन्हें नहीं छोड़ेगी, दण्ड मिलना चाहिए और आपसे भी, जिनके धाम तक, वे नहीं पहुँच सकते।  जब मनुष्य आपका साक्षात्कार कर लेता है, तो वह अपने विगत पवित्र तथा पापमय कर्मों से उदित होने वाले अच्छे तथा बुरे भाग्य की परवाह नहीं करता, क्योंकि इस अच्छे तथा बुरे भाग्य को नियंत्रित करने वाले एकमात्र आप हैं। ऐसा स्वरूपसिद्ध भक्त इसकी भी परवाह नहीं करता कि सामान्य जन उसके विषय में क्या कह रहे है? वह प्रतिदिन अपने कानों को आपके यशों से भरता रहता है, जो हर युग में मनु के वंशजों की अविच्छिन्न परम्परा से गाये जाते हैं। इस तरह आप उसका चरम मोक्ष बन जाते हैं।

41-50   चूँकि आप असीम हैं, अतः न तो स्वर्ग के अधिपति, न ही स्वयं आप अपनी महिमा के छोर तक पहुँच सकते हैं। असंख्य ब्रह्माण्ड अपने अपने खोलों में लिपटे हुए कालचक्र के द्वारा आपके भीतर घूमने के लिए उसी तरह बाध्य हैं, जिस तरह कि आकाश में धूल के कण इधर-उधर उड़ते रहते हैं, श्रुतियाँ आपको अपने अन्तिम निष्कर्ष के रूप में प्रकट करके सफल बनती हैं, क्योंकि वे आपसे पृथक हर वस्तु को अपनी निरसन विधि से विलुप्त कर देती हैं। भगवान श्री नारायण ऋषि ने कहा: परमात्मा के विषय में ये आदेश सुनकर ब्रह्मा के पुत्रों को अपना चरम गन्तव्य समझ में आ गया। वे पूरी तरह संतुष्ट हो गए और उन्होंने सनन्दन की पूजा करके उनका सम्मान किया।  इस तरह उच्चतर स्वर्गलोकों में विचरण करनेवाले प्राचीन सन्तों ने सारे वेदों तथा पुराणों के इस अमृतमय तथा गुह्य रस को निचोड़ लिया। और चूँकि तुम पृथ्वी पर इच्छानुसार विचरण करते हो, अतः हे ब्रह्मापुत्र, तुम्हें आत्मविज्ञान विषयक इन उपदेशों पर श्रद्धापूर्वक ध्यान करना चाहिए, क्योंकि ये सारे मनुष्यों की भौतिक इच्छाओं को – भस्म कर देते हैं।  श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब श्री नारायण ऋषि ने उन्हें इस तरह आदेश दिया, तो आत्मवान नारद मुनि ने, जिनका व्रत वीर क्षत्रिय की तरह है, उस आदेश को दृढ़ निष्ठा के साथ स्वीकार कर लिया। हे राजन, अब अपने सारे कार्यों में सफल होकर, उन्होंने जो कुछ सुना था, उस पर विचार किया और भगवान को इस प्रकार उत्तर दिया। श्री नारद ने कहा: मैं उन निर्मल कीर्ति वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ, जो अपने सर्व-आकर्षक साकार अंशों को इसलिए प्रकट करते हैं, जिससे सारे जीव मुक्ति प्राप्त कर सकें।  श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: यह कहने के बाद नारद ने ऋषियों में अग्रणी श्री नारायण ऋषि को तथा उनके सन्त सदृश शिष्यों को भी शीश झुकाया। तब वे मेरे पिता द्वैपायन व्यास की कुटिया में लौट आये।  भगवान के अवतार व्यासदेव ने नारदमुनि का सत्कार किया और उन्हें बैठने के लिए आसन दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। तब नारद ने व्यास से वह कह सुनाया, जो उन्होंने श्री नारायण ऋषि के मुख से सुना था।  हे राजन, इस प्रकार मैंने तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर दे दिया है, जो इस विषय में तुमने मुझसे पूछा था कि – मन उस ब्रह्म तक कैसे पहुँचता है, जो भौतिक शब्दों द्वारा वर्णनीय नहीं है और भौतिक गुणों से रहित है। वह ही स्वामी है, जो इस ब्रह्माण्ड की निरन्तर निगरानी करता है, जो इसके प्रकट होने के पूर्व, उसके बीच में तथा उसके बाद विद्यमान रहता है। वह अव्यक्त भौतिक प्रकृति तथा आत्मा दोनों का स्वामी है। इस सृष्टि को उत्पन्न करके, वह इसके भीतर प्रवेश कर जाता है और प्रत्येक जीव के साथ रहता है। वहाँ पर वह भौतिक देहों की सृष्टि करता है और फिर उनके नियामक के रूप में रहने लगता है। उनकी शरण में जाकर मनुष्य माया के आलिंगन से बच सकता है, जिस तरह स्वप्न देख रहा व्यक्ति अपने शरीर को भूल जाता है। जो व्यक्ति भय से मुक्ति चाहता है, उसे चाहिए कि उस भगवान हरि का निरन्तर ध्यान धरे, जो सदैव सिद्धावस्था में रहता है और कभी भी भौतिक जन्म नहीं लेता।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9735837066?profile=RESIZE_584x

शिवजी द्वारा स्तुति (10.63)

33-38 बाणासुर की भुजाएँ कटते देखकर शिवजी को अपने भक्त के प्रति दया आ गयी अतः वे भगवान चक्रायुध (कृष्ण) के पास पहुँचे और उनसे इस प्रकार बोले। श्री रुद्र ने कहा: आप ही एकमात्र परम सत्य, परम ज्योति तथा ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यक्ति के भीतर के गुह्य रहस्य हैं। जिनके हृदय निर्मल हैं, वे आपका दर्शन कर सकते हैं क्योंकि आप आकाश की भाँति निर्मल हैं। आकाश आपकी नाभि है, अग्नि आपका मुख है, जल आपका वीर्य है और स्वर्ग आपका सिर है। दिशाएँ आपकी श्रवणेन्द्रिय (कान) हैं। औषधि-पौधे आपके शरीर के रोएँ हैं तथा जलधारक बादल आपके सिर के बाल हैं। पृथ्वी आपका पाँव है, चन्द्रमा आपका मन है तथा सूर्य आपकी दृष्टि (नेत्र) है, जबकि मैं आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका उदर है, इन्द्र आपकी भुजा है, ब्रह्मा आपकी बुद्धि है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और धर्म आपका हृदय है। निस्सन्देह आप आदि-पुरुष और समस्त लोकों के स्रष्टा हैं। हे असीम शक्ति के स्वामी, इस भौतिक जगत में आपका वर्तमान अवतार न्याय के सिद्धान्तों की रक्षा करने तथा समग्र ब्रह्माण्ड को लाभ दिलाने के निमित्त है। हममें से प्रत्येक देवता आपकी कृपा तथा सत्ता पर आश्रित है और हम सभी देवता सात लोक मण्डलों को उत्पन्न करते हैं। आप अद्वितीय, दिव्य तथा स्वयं-प्रकाश आदि-पुरुष हैं। अहैतुक होकर भी आप सबों के कारण हैं और परम नियन्ता हैं। आप पदार्थ के उन विकारों के रूप में अनुभव किये जाते हैं, जो आपकी माया द्वारा उत्पन्न हैं। आप इन विकारों की स्वीकृति इसलिए देते हैं जिससे विविध भौतिक गुण पूरी तरह प्रकट हो सकें।

39-42  हे सर्वशक्तिमान, जिस प्रकार सूर्य बादल से ढका होने पर भी बादल को तथा अन्य सारे दृश्य रूपों को भी प्रकाशित करता है उसी तरह आप भौतिक गुणों से ढके रहने पर भी स्वयं प्रकाशित बने रहते हैं और उन सारे गुणों को, उन गुणों से युक्त जीवों समेत, प्रकट करते हैं। आपकी माया से मोहित बुद्धि वाले अपने बच्चों, पत्नी, घर इत्यादि में पूरी तरह से लिप्त और भौतिक दुख के सागर में निमग्न लोग कभी ऊपर उठते हैं, तो कभी नीचे डूब जाते हैं। जिसने ईश्वर से यह मनुष्य जीवन उपहार के रूप में प्राप्त किया है किन्तु फिर भी जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने तथा आपके चरणों का आदर करने में विफल रहता है, वह सचमुच शोचनीय है क्योंकि वह अपने को ही धोखा देता है।  जो मर्त्य प्राणी अपने इन्द्रियविषयों के लिए, जिनका कि स्वभाव सर्वथा विपरीत है, आपको, अर्थात उसकी असली आत्मा, सर्वप्रिय मित्र तथा स्वामी हैं, छोड़ देता है, वह अमृत छोड़कर उसके बदले में विषपान करता है।

43-44 मैं, ब्रह्मा, अन्य देवता तथा शुद्ध मन वाले मुनिगण – सभी ने पूर्ण मनोयोग से आपकी शरण ग्रहण की है। आप हमारे प्रियतम आत्मा तथा प्रभु हैं। हे भगवन, भौतिक जीवन से मुक्त होने के लिए हम आपकी पूजा करते हैं। आप ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता, सृजन और इसके अन्त–के कारण हैं। आप समभाव तथा पूर्ण शान्त, असली मित्र, आत्मा तथा पूज्य स्वामी हैं। आप अद्वितीय हैं और समस्त जगतों तथा जीवों के आश्रय हैं।

45 यह बाणासुर मेरा अति प्रिय तथा आज्ञाकारी अनुचर है और इसे मैंने अभयदान दिया है। अतएव हे प्रभु, इसे आप उसी तरह अपनी कृपा प्रदान करें जिस तरह आपने असुर-राज प्रह्लाद पर कृपा दर्शाई थी।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9735804699?profile=RESIZE_400x

भूमिदेवी द्वारा स्तुति (10.59)

23 तब भूमिदेवी भगवान कृष्ण के पास आई और भगवान को अदिति के कुण्डल जो चमकीले सोने के बने थे और जिसमें चमकीले रत्न जड़े थे, एक वैजयन्ती माला, वरुण का छत्र तथा मन्दर पर्वत की चोटी अर्पित की ।

24 हे राजन, उनको प्रणाम करके तथा उनके समक्ष हाथ जोड़े खड़ी वह देवी भक्ति-भाव से पूरित होकर ब्रह्माण्ड के उन स्वामी की स्तुति करने लगी जिनकी पूजा श्रेष्ठ देवतागण करते हैं।

25-27 भूमिदेवी ने कहा: हे देवदेव, हे शंख, चक्र तथा गदा के धारणकर्ता, आपको नमस्कार है। हे परमात्मा, आप अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए विविध रूप धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। हे प्रभु, आपको मेरा सादर नमस्कार है। आपके उदर में कमल के फूल जैसा गड्ढा अंकित है, आप सदैव कमल के फूल की मालाओं से सुसज्जित रहते है, आपकी चितवन कमल जैसी शीतल है और आपके चरणों में कमल अंकित हैं। हे वासुदेव, हे विष्णु, हे आदि-पुरुष, हे आदि-बीज भगवान, आपको सादर नमस्कार है। हे सर्वज्ञ, आपको नमस्कार है।

28-29 हे अनन्त शक्तियों वाले, इस ब्रह्माण्ड के अजन्मा जनक ब्रह्म, आपको नमस्कार है। हे वर तथा अवर के आत्मा, हे सृजित तत्त्वों के आत्मा, हे सर्वव्यापक परमात्मा, आपको नमस्कार है। हे अजन्मा प्रभु, सृजन की इच्छा करके आप वृद्धि करते हैं और तब रजोगुण धारण करते हैं। इसी तरह जब आप ब्रह्माण्ड का संहार करना चाहते हैं, तो तमोगुण और जब इसका पालन करना चाहते हैं, तो सतोगुण धारण करते हैं। तो भी आप इन गुणों से अनाच्छादित रहते हैं। हे जगतपति! आप काल, प्रधान तथा पुरुष हैं फिर भी आप पृथक एवं भिन्न रहते हैं।

30 यह भ्रम है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, इन्द्रिय-विषय, देवता, मन, इन्द्रियाँ, मिथ्या अहंकार तथा महत तत्त्व आपसे स्वतंत्र होकर विद्यमान हैं। वास्तव में वे सब आपके भीतर हैं क्योंकि हे प्रभु आप अद्वितीय हैं।

31-32 यह भौमासुर का पुत्र है। यह भयभीत है और आपके चरणकमलों के समीप आ रहा है क्योंकि आप उन सबों के कष्टों को हर लेते हैं, जो आपकी शरण में आते हैं। कृपया इसकी रक्षा कीजिये। आप इसके सिर पर अपना कर-कमल रखें जो समस्त पापों को दूर करने वाला है। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह विनीत भक्ति के शब्दों से भूमिदेवी द्वारा प्रार्थना किये जाने पर परमेश्वर ने उसके पोते को अभय प्रदान किया और तब भौमासुर के महल में प्रवेश किया जो सभी प्रकार के ऐश्वर्य से पूर्ण था।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…


9735742882?profile=RESIZE_400x

अक्रूर द्वारा स्तुति (10.40)

1 श्री अक्रूर ने कहा: हे समस्त कारणों के कारण, आदि तथा अव्यय महापुरुष नारायण, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी नाभि से उत्पन्न कमल के कोष से ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और उनसे यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है।

2-3 पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं इसका स्रोत तथा मिथ्या अहंकार, महत-तत्त्व, समस्त भौतिक प्रकृति और उसका उद्गम तथा भगवान का पुरुष अंश, मन, इन्द्रियाँ, इन्द्रिय विषय तथा इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता ( ये सब विराट जगत के कारण ) आपके दिव्य शरीर से उत्पन्न हैं। सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति तथा ये अन्य सृजन-तत्त्व निश्चय ही आपको यथारूप में नहीं जान सकते क्योंकि ये निर्जीव पदार्थ के परिमण्डल में प्रकट होते हैं। चूँकि आप प्रकृति के गुणों से परे हैं,अतः इन गुणों से बद्ध ब्रह्माजी भी आपके असली रूप को नहीं जान पाते।

4-7 शुद्ध योगीजन आपकी अर्थात परमेश्वर की तीन रूपों में अनुभूति करते हुए पूजा करते हैं। ये तीन हैं--जीव, भौतिक तत्त्व जिनसे जीवों के शरीर बने हैं तथा इन तत्त्वों के नियंत्रक देवता (अधिदेव)। तीन पवित्र अग्नियों से सम्बद्ध नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण, तीनों वेदों से मंत्रोचार करके तथा अनेक रूपों और नामों वाले विविध देवताओं के लिए व्यापक अग्नि यज्ञ करके पूजा करते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में कुछ लोग सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर देते हैं और इस तरह शान्त होकर समस्त ज्ञान के आदि रूप आपकी पूजा करने के लिए ज्ञान-यज्ञ करते हैं। अन्य लोग जिनकी बुद्धि शुद्ध है वे आपके द्वारा लागू किये गये वैष्णव शास्त्रों के आदेशों का पालन करते हैं। वे आपके चिन्तन में अपने मन को लीन करके आपकी पूजा परमेश्वर रूप में करते हैं, जो अनेक रूपों में प्रकट होता है।

8 कुछ अन्य लोग भी हैं, जो आपकी पूजा भगवान शिव के रूप में करते हैं। वे उनके द्वारा बताये गये तथा अनेक उपदेशकों द्वारा नाना प्रकार से व्याख्यायित मार्ग का अनुसरण करते हैं।

9-10 किन्तु हे प्रभु, ये सारे लोग, यहाँ तक कि जिन्होंने आपसे अपना ध्यान मोड़ रखा है और जो अन्य देवताओं की पूजा कर रहे हैं, वे वास्तव में, हे समस्त देवमय, आपकी ही पूजा कर रहे हैं। हे प्रभो, जिस प्रकार पर्वतों से उत्पन्न तथा वर्षा से पूरित नदियाँ सभी ओर से समुद्र में आकर मिलती हैं उसी तरह ये सारे मार्ग अन्त में आप तक पहुँचते हैं।

11-12 आपकी भौतिक प्रकृति के सतो, रजो तथा तमोगुण ब्रह्मा से लेकर अचर प्राणियों तक के समस्त बद्धजीवों को पाशबद्ध किये रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, जो समस्त जीवों के परमात्मा होकर निष्पक्ष दृष्टि से हरेक की चेतना के साक्षी हैं। अज्ञान से उत्पन्न आपके भौतिक गुणों का प्रवाह उन जीवों के बीच प्रबलता के साथ प्रवाहित होता है, जो देवताओं, मनुष्यों तथा पशुओं का रूप धारण करते हैं।

13-15 अग्नि आपका मुख कही जाती है, पृथ्वी आपके पाँव हैं, सूर्य आपकी आँख है और आकाश आपकी नाभि है। दिशाएँ आपकी श्रवणेन्द्रिय हैं, प्रमुख देवता आपकी बाँहें हैं और समुद्र आपका उदर है। स्वर्ग आपका सिर समझा जाता है और वायु आपकी प्राणवायु तथा शारीरिक बल है। वृक्ष तथा जड़ी-बूटियाँ आपके शरीर के रोम हैं, बादल आपके सिर के बाल हैं तथा पर्वत आपकी अस्थियाँ तथा नाखून हैं। दिन तथा रात का गुजरना आपकी पलकों का झपकना है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और वर्षा आपका वीर्य है। अपने-अपने अधिष्ठात्र देवताओं तथा असंख्य जीवों समेत सारे जगत आप परम अविनाशी से उद्भूत हैं। ये सारे जगत मन तथा इन्द्रियों पर आधारित होकर आपके भीतर घूमते रहते हैं, जिस प्रकार समुद्र में जलचर तैरते हैं अथवा छोटे छोटे कीट गूलर (उदुम्बर) फल के भीतर छेदते रहते हैं।

16 आप अपनी लीलाओं का आनन्द लेने के लिए इस भौतिक जगत में नाना रूपों में अपने को प्रकट करते हैं और ये अवतार उन लोगों के सारे दुखों को धो डालते हैं, जो हर्षपूर्वक आपके यश का गान करते हैं।

17-18 मैं सृष्टि के कारण भगवान मत्स्य रूप आपको नमस्कार करता हूँ जो प्रलय के सागर में इधर उधर तैरते रहे। मैं मधु तथा कैटभ के संहारक हयग्रीव को, मन्दराचल को धारण करने वाले विशाल कच्छप (भगवान कूर्म) को तथा पृथ्वी को उठाने में आनन्द का अनुभव करने वाले भगवान वराह रूप आपको नमस्कार करता हूँ।

19-21 अपने सन्त भक्तों के भय को भगाने वाले अद्भुत सिंह (भगवान नृसिंह) तथा तीनों जगत को अपने पगों से नापने वाले वामन मैं आपको नमस्कार करता हूँ। घमण्डी राजाओं रूपी जंगल को काट डालने वाले भृगुपति तथा राक्षस रावण का अन्त करने वाले रघुकुल शिरोमणि भगवान राम, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। सात्वतों के स्वामी आपको नमस्कार है। आपके वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध रूपों को नमस्कार है।

22 आपके शुद्ध रूप भगवान बुद्ध को नमस्कार है, जो दैत्यों तथा दानवों को मोह लेगा। आपके कल्कि रूप को नमस्कार है, जो राजा बनने वाले मांस-भक्षकों का संहार करने वाला है।

23 हे परमेश्वर, इस जगत में सारे जीव आपकी शक्ति माया से भ्रमित हैं। वे 'मैं' तथा 'मेरा' की मिथ्या धारणाओं में फँसकर सकाम कर्मों के मार्गों पर भटकते रहने के लिए बाध्य होते रहते हैं।

24 हे शक्तिशाली विभो, मैं भी अपने शरीर, सन्तानों, घर, पत्नी, धन तथा अनुयायियों को मूर्खता से वास्तविक मानकर इस प्रकार से भ्रमित हो रहा हूँ यद्यपि ये सभी स्वप्न के समान असत्य हैं।

25-26 इस तरह नश्वर को नित्य, अपने शरीर को आत्मा तथा कष्ट के साधनों को सुख के साधन मानते हुए मैंने भौतिक द्वन्द्वों में आनन्द उठाने का प्रयत्न किया है। इस तरह अज्ञान से आवृत होकर मैं यह नहीं पहचान सका कि आप ही मेरे प्रेम के असली लक्ष्य हैं। जिस तरह कोई मूर्ख व्यक्ति जल के अन्दर उगी हुई वनस्पति से ढके हुए जल की उपेक्षा करके मृगतृष्णा के पीछे दौड़ता है उसी तरह मैंने आपसे मुख मोड़ रखा है।

27 मेरी बुद्धि इतनी कुण्ठित है कि मैं अपने मन को रोक पाने की शक्ति नहीं जुटा पा रहा जो भौतिक इच्छाओं तथा कार्यों से विचलित होता रहता है और मेरी जिद्दी इन्द्रियों द्वारा निरन्तर इधर-उधर घसीटा जाता है।

28-29 हे प्रभु, इस तरह पतित हुआ मैं आपके चरणों में शरण लेने आया हूँ, क्योंकि, यद्यपि अशुद्ध लोग आपके चरणों को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाते, तथापि मेरा विचार है कि आपकी कृपा से ही यह सम्भव हो सका है। हे कमलनाभ भगवान, जब किसी का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तभी वह आपके शुद्ध भक्तों की सेवा करके आपके प्रति चेतना उत्पन्न कर सकता है। असीम शक्तियों के स्वामी परम सत्य को नमस्कार है। वे शुद्ध दिव्य-ज्ञान स्वरूप हैं, समस्त चेतनाओं के स्रोत हैं और जीव पर शासन चलाने वाली प्रकृति की शक्तियों के अधिपति हैं।

30 हे वसुदेवपुत्र आपको नमस्कार है। आपमें सारे जीवों का निवास है। हे मन तथा इन्द्रियों के स्वामी, मैं पुनः आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु, मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9733008676?profile=RESIZE_400x

इन्द्रदेव तथा माता सुरभि द्वारा स्तुति (10.27)

4-6 राजा इन्द्र ने कहा: आपका दिव्य रूप शुद्ध सतोगुण का प्राकट्य है, यह परिवर्तन से विचलित नहीं होता, ज्ञान से चमकता रहता है और रजो तथा तमोगुणों से रहित है। आपके भीतर माया तथा अज्ञान पर आश्रित भौतिक गुणों का प्रबल प्रवाह नहीं पाया जाता। तो भला आपमें अज्ञानी व्यक्ति के लक्षण – यथा लोभ, काम, क्रोध तथा ईर्ष्या किस तरह रह सकते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति संसार में मनुष्य की पूर्व-लिप्तता के कारण होती है और ये मनुष्य को संसार में अधिकाधिक जकड़ते जाते हैं? फिर भी हे परमेश्वर, आप धर्म की रक्षा करने तथा दुष्टों का दमन करने के लिए उन्हें दण्ड देते है। आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता, आध्यात्मिक गुरु और परम नियन्ता भी हैं। आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्हीं के हित के लिए दण्ड देता है। निस्सन्देह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या दर्प दूर करते हैं, जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं।

7-9 मुझ जैसे मूर्खजन जो अपने को जगत का स्वामी मान बैठते हैं तुरन्त ही अपने मिथ्या गर्व को त्याग देते हैं और जब वे आपको काल के समक्ष भी निडर देखते हैं, तो वे तुरन्त आध्यात्मिक प्रगति करने वाले भक्तों का मार्ग ग्रहण कर लेते हैं। इस तरह आप दुष्टों को शिक्षा देने के लिये ही दण्ड देते हैं। अपनी शासन शक्ति के मद में चूर एवं आपके दिव्य प्रभाव से अनजान मैंने आपका अपमान किया है। हे प्रभु, आप मुझे क्षमा करें। मेरी बुद्धि मोहग्रस्त हो चुकी थी किन्तु अब मेरी चेतना को कभी इतनी अशुद्ध न होने दें। हे दिव्य प्रभु, आप इस जगत में उन सेनापतियों को विनष्ट करने के लिए अवतरित होते हैं, जो पृथ्वी का भार बढ़ाते हैं और अनेक भीषण उत्पात मचाते हैं। हे प्रभु, उसी के साथ साथ आप उन लोगों के कल्याण के लिये कर्म करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं।

10-11 सर्वव्यापी तथा सबों के हृदयों में निवास करने वाले हे परमात्मा, आपको मेरा नमस्कार । हे यदुकुलश्रेष्ठ, आपको मेरा नमस्कार । अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार दिव्य शरीर धारण करने वाले, शुद्ध चेतना रूप, सर्वस्व, समस्त वस्तुओं के बीज तथा समस्त प्राणियों के आत्मा रूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

12-14 हे प्रभु, जब मेरा यज्ञ भंग हो गया, तो मैं मिथ्या अहंकार के कारण बहुत क्रुद्ध हुआ। मैंने घनघोर वर्षा तथा वायु के द्वारा आपके ग्वाल समुदाय को विनष्ट कर देना चाहा। हे प्रभु, मेरे मिथ्या अहंकार को चकनाचूर करके तथा मेरे प्रयास (वृन्दावन को दण्डित करने का) को पराजित करके आपने मुझ पर दया दिखाई है। अब मैं, परमेश्वर, गुरु तथा परमात्मा रूप आपकी शरण में आया हूँ। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार इन्द्र द्वारा वन्दित होकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण हँसे और तब बादलों की गर्जना जैसी गम्भीर वाणी में उससे इस प्रकार बोले।

15 भगवान ने कहा: हे इन्द्र, मैंने तो दयावश ही तुम्हारे निमित्त होने वाले यज्ञ को रोक दिया था। तुम स्वर्ग के राजा के अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक उन्मत्त हो चुके थे और मैं चाहता था कि तुम सदैव मेरा स्मरण कर सको।

16 अपनी शक्ति तथा ऐश्वर्य के नशे में उन्मत्त मनुष्य मुझे अपने हाथ में दण्ड का डंडा लिये हुए अपने निकट नहीं देख पाता। यदि मैं उसका वास्तविक कल्याण चाहता हूँ तो मैं उसे भौतिक सौभाग्य के पद से नीचे घसीट देता हूँ।

17 हे इन्द्र, अब तुम जा सकते हो। मेरी आज्ञा का पालन करो और स्वर्ग के राज-पद पर बने रहो। किन्तु मिथ्या अभिमान से रहित होकर गम्भीर बने रहना।

18-20 तब अपनी सन्तान गौवों समेत माता सुरभि ने भगवान कृष्ण को नमस्कार किया। उनसे ध्यान देने के लिये सादर प्रार्थना करते हुए उस भद्र नारी ने भगवान को, जो उसके समक्ष ग्वालबाल के रूप में उपस्थित थे, सम्बोधित किया। माता सुरभि ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे योगियों में श्रेष्ठ, हे विश्व की आत्मा तथा उद्गम आप विश्व के स्वामी हैं और हे अच्युत, आपकी ही कृपा से हम सबों को आप जैसा स्वामी मिला है। आप हमारे आराध्य देव हैं। अतएव हे जगतपति, गौवों, ब्राह्मणों, देवताओं एवं सारे सन्त पुरुषों के लाभ हेतु आप हमारे इन्द्र बनें ।

21 ब्रह्माजी के आदेशानुसार हम इन्द्र के रूप में आपका राज्याभिषेक करेंगी। हे विश्वात्मा, आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए इस संसार में अवतरित होते हैं।

22-24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण से इस तरह याचना करने के बाद माता सुरभि ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और इन्द्र ने अदिति तथा देवताओं की अन्य माताओं से आदेश पाकर अपने हाथी ऐरावत की सूँड से आकाशगंगा के जल से भगवान का जलाभिषेक किया। इस तरह देवताओं तथा ऋषियों की संगति में इन्द्र ने दशार्ह वंशज भगवान कृष्ण का राज्याभिषेक किया और उनका नाम गोविन्द रखा। वहाँ पर तुम्बुरु, नारद तथा विद्याधरों, सिद्धों और चारणों समेत अन्य गन्धर्वगण समस्त जगत को शुद्ध करने वाले भगवान हरि के यश का गुणगान करने आये और देवताओं की पत्नियाँ हर्ष से भरकर भगवान के सम्मान में एकसाथ नाचीं।

25-27 सर्वप्रमुख देवताओं ने भगवान की प्रशंसा की और उन पर चारों ओर से फूलों की अद्भुत वर्षा की। इससे तीनों लोकों को परम सन्तोष का अनुभव हुआ और गौवों ने अपने दूध से पृथ्वी के सतह भाग को सिक्त कर दिया। नदियाँ विविध प्रकार के स्वादिष्ट द्रवों से युक्त होकर बहने लगी, वृक्षों ने मधु निकाल लिया, खाद्य पौधे बिना जोते ही परिपक्व हो उठे और पर्वतों ने अपने गर्भ में छिपी मणियों को बाहर निकाल दिया। हे कुरुनन्दन परीक्षित, भगवान श्रीकृष्ण को अभिषेक कराने के बाद सभी जीवित प्राणी यहाँ तक कि जो स्वभाव के क्रूर थे, सर्वथा शत्रुतारहित बन गये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9733001455?profile=RESIZE_400x

कालिय की पत्नियों एवं कालिय नाग द्वारा स्तुति (10.16)

33 कालिय सर्प की पत्नियों ने कहा: इस अपराधी को जो दण्ड मिला है, वह निस्सन्देह उचित ही है। आपने इस जगत में ईर्ष्यालु तथा क्रूर पुरुषों का दमन करने के लिए ही अवतार लिया है आप इतने निष्पक्ष हैं कि आप शत्रुओं तथा अपने पुत्रों को समान भाव से देखते हैं क्योंकि जब आप किसी जीव को दण्ड देते हैं, तो आप यह जानते होते हैं कि अन्ततः यह उसके हित के लिए है।

34 आपने जो कुछ यहाँ किया है, वह वास्तव में हम पर अनुग्रह है क्योंकि आप दुष्टों को जो दण्ड देते हैं वह निश्चित रूप से उनके कल्मष को दूर कर देता है। चूँकि यह बद्धजीव हमारा पति इतना पापी है कि इसने सर्प का शरीर धारण किया है अतएव आपका यह क्रोध उसके प्रति आपकी कृपा ही समझी जानी चाहिए।

35 क्या हमारे पति ने पूर्वजन्म में गर्वरहित होकर तथा अन्यों के प्रति आदरभाव से पूरित होकर सावधानी से तपस्या की थी? क्या इसीलिए आप उससे प्रसन्न हैं? अथवा क्या उसने किसी पूर्वजन्म में समस्त जीवों के प्रति दयापूर्वक धार्मिक कर्तव्य पूरा किया था और क्या इसीलिए समस्त जीवों के प्राणाधार आप अब उससे संतुष्ट हैं?

36-37 हे प्रभु, हम नहीं जानतीं कि इस कालिय नाग ने किस तरह आपके चरणकमलों की धूल को स्पर्श करने का सुअवसर प्राप्त किया। इसके लिए तो लक्ष्मीजी ने अन्य सारी इच्छाएँ त्यागकर कठोर व्रत धारण करके सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की थी। जिन्होंने आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त कर ली है वे न तो स्वर्ग का राज्य, न असीम वर्चस्व, न ब्रह्मा का पद, न ही पृथ्वी का साम्राज्य चाहते हैं। उन्हें योग की सिद्धियों अथवा मोक्ष तक में कोई रुचि नहीं रहती।

38 हे प्रभु, यद्यपि इस सर्पराज कालिय का जन्म तमोगुण में हुआ है और यह क्रोध के वशीभूत है किन्तु इसने अन्यों के लिए जो दुष्प्राप्य है उसे भी प्राप्त कर लिया है। इच्छाओं से पूर्ण होकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में भ्रमण करनेवाले देहधारी जीव आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त करने से ही अपने समक्ष सारे आशीर्वादों को प्रकट होते देख सकते हैं।

39-40 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करती हैं। यद्यपि आप सभी जीवों के हृदयों में परमात्मा रूप में स्थित हैं, तो भी आप सर्वव्यापक हैं। यद्यपि आप सभी उत्पन्न भौतिक तत्त्वों के आदि आश्रय हैं किन्तु आप उनके सृजन के पूर्व से विद्यमान हैं। यद्यपि आप हर वस्तु के कारण हैं किन्तु परमात्मा होने से आप भौतिक कार्य-कारण से परे हैं। हे परम सत्य, हम आपको नमस्कार करती हैं। आप समस्त दिव्य चेतना एवं शक्ति के आगार हैं और अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं। यद्यपि आप भौतिक गुणों एवं विकारों से पूर्णतया मुक्त हैं किन्तु आप भौतिक प्रकृति के आदि संचालक हैं।

41 हम आपको नमस्कार करती हैं। आप साक्षात काल, काल के आश्रय तथा काल की विभिन्न अवस्थाओं के साक्षी हैं। आप ब्रह्माण्ड हैं और इसके पृथक दृष्टा भी हैं। आप इसके स्रष्टा हैं और इसके समस्त कारणों के कारण हैं।

42-44 आप भौतिक तत्त्वों के, अनुभूति के सूक्ष्म आधार के, इन्द्रियों के, प्राणवायु के तथा मन, बुद्धि एवं चेतना के परमात्मा हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। आपकी ही व्यवस्था के फलस्वरूप सूक्ष्मतम चिन्मय आत्माएँ प्रकृति के तीनों गुणों के रूप में अपनी झूठी पहचान बनाती हैं। फलस्वरूप उनकी स्व की अनुभूति प्रच्छन्न हो जाती है। हे अनन्त भगवान, हे परम सूक्ष्म एवं सर्वज्ञ भगवान, हम आपको प्रणाम करती हैं, जो सदैव स्थायी दिव्यता में विद्यमान रहते हैं, विभिन्न वादों के विरोधी विचारों को स्वीकृति देते हैं और व्यक्त विचारों तथा उनको व्यक्त करनेवाले शब्दों को प्रोत्साहन देने वाली शक्ति हैं। समस्त प्रमाणों के आधार, शास्त्रों के प्रणेता तथा परम स्रोत, इन्द्रिय तृप्ति को प्रोत्साहित करनेवाले (प्रवृत्ति मार्ग) तथा भौतिक जगत से विराग उत्पन्न करनेवाले वैदिक साहित्य में अपने को प्रकट करनेवाले, आपको हम बारम्बार नमस्कार करती हैं।

45-46 हम वसुदेव के पुत्र, भगवान कृष्ण तथा भगवान राम को और भगवान पद्युम्न तथा भगवान अनिरुद्ध को सादर नमस्कार करती हैं। हम विष्णु के समस्त सन्त सदृश भक्तों के स्वामी को सादर नमस्कार करती हैं। नाना प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक गुणों को प्रकट करनेवाले, हे भगवन, आपको हमारा नमस्कार। आप अपने को भौतिक गुणों से छिपा लेते हैं किन्तु अन्ततः उन्हीं भौतिक गुणों के अन्तर्गत हो रहे कार्य आपके अस्तित्व को प्रकट कर देते हैं। आप साक्षी रूप में भौतिक गुणों से पृथक रहते हैं और एकमात्र अपने भक्तों द्वारा भलीभाँति ज्ञेय हैं।

47-48 हे इन्द्रियों के स्वामी, ऋषिकेश, हम आपको नमस्कार करती हैं क्योंकि आपकी लीलाएँ अचिन्त्य रूप से महिमामयी हैं। आपके अस्तित्व को समस्त दृश्य जगत के लिए स्रष्टा तथा प्रकाशक की आवश्यकता से समझा जा सकता है। यद्यपि आपके भक्त आपको इस रूप में समझ सकते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप आत्मलीन रहकर मौन बने रहते हैं। उत्तम तथा अधम समस्त वस्तुओं के गन्तव्य को जाननेवाले तथा समस्त जगत के अध्यक्ष नियन्ता आपको हमारा नमस्कार। आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि से पृथक हैं फिर भी आप वह मूलाधार हैं जिस पर भौतिक सृष्टि की माया का विकास होता है। आप इस माया के साक्षी भी हैं। निस्सन्देह आप अखिल जगत के मूल कारण हैं।

49-50 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, यद्यपि आपके भौतिक कर्म में फँसने का कोई कारण नहीं है, फिर भी आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार की व्यवस्था करने के लिए अपनी शाश्वत कालशक्ति के माध्यम से कर्म करते हैं। इसे आप सृजन के पूर्व सुप्त पड़े प्रकृति के प्रत्येक गुण के विशिष्ट कार्य को जाग्रत करते हुए सम्पन्न करते हैं। ब्रह्माण्ड-नियंत्रण के इन सारे कार्यों को आप खेल खेल में केवल अपनी चितवन से पूर्णतया सम्पन्न कर देते हैं। इसलिए तीनों लोकों में सारे भौतिक शरीर – जो सतोगुणी होने के कारण शान्त हैं, जो रजोगुणी होने से विक्षुब्ध हैं तथा जो तमोगुणी होने से मूर्ख हैं – आपकी ही सृष्टियाँ हैं। तो भी जिनके शरीर सतोगुणी हैं, वे आपको विशेष रूप से प्रिय हैं और उन्हीं के पालन हेतु तथा उन्हीं के धर्म की रक्षा करने के लिए ही अब आप इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं।

51 स्वामी को चाहिए कि अपनी सन्तान या प्रजा द्वारा किये गये अपराध को कम से कम एक बार तो सह ले। इसलिए हे परम शान्त आत्मन, आप हमारे इस मूर्ख पति को क्षमा कर दें जो यह नहीं समझ पाया कि आप कौन हैं।

52 हे भगवन आप हम पर कृपालु हों। साधु पुरुष को हम-जैसी स्त्रियों पर दया करना उचित है। यह सर्प अपना प्राण त्यागने ही वाला है। कृपया हमारे जीवन तथा आत्मा रूप हमारे पति को हमें वापस कर दें।

53 अब कृपा करके अपनी दासियों को बतलायें कि हम क्या करें। यह निश्चित है कि जो भी आपकी आज्ञा को श्रद्धापूर्वक पूरा करता है, वह स्वतः सारे भय से मुक्त हो जाता है।

54 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह नागपत्नियों द्वारा प्रशंसित भगवान ने उस कालिय सर्प को छोड़ दिया, जो मूर्छित होकर गिर चुका था और जिसके सिर भगवान के चरणकमलों के प्रहार से क्षत-विक्षत हो चुके थे।

55 धीरे-धीरे कालिय को अपनी जीवनी शक्ति तथा इन्द्रियों की क्रियाशीलता प्राप्त हो गई। तब कष्टपूर्वक जोर-जोर से साँस लेते हुए बेचारे सर्प ने विनीत भाव से भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित किया।

56 कालिय नाग ने कहा: सर्प के रूप में जन्म से ही हम ईर्ष्यालु, अज्ञानी तथा निरन्तर क्रुद्ध बने हुए हैं। हे नाथ, मनुष्यों के लिए अपना बद्ध स्वभाव, जिससे वे असत्य से अपनी पहचान करते हैं, छोड़ पाना अत्यन्त कठिन है।

57 हे परम विधाता, आप ही भौतिक गुणों की विविध व्यवस्था से निर्मित इस ब्रह्माण्ड के बनाने वाले हैं। इस प्रक्रिया में आप नाना प्रकार के व्यक्तित्व तथा योनियाँ, नाना प्रकार के ऐन्द्रिय तथा शारीरिक शक्तियाँ तथा भाँति भाँति की मनोवृत्तियों एवं आकृतियों वाले माता-पिताओं को प्रकट करते हैं।

58 हे भगवन, आपकी भौतिक सृष्टि में जितनी भी योनियाँ है उनमें से हम सर्पगण स्वभाव से सदैव क्रोधी हैं। इस तरह आपकी दुस्त्यज मायाशक्ति से मुग्ध होकर भला हम उस स्वभाव को अपने आप कैसे त्याग सकते हैं?

59 हे ईश्वर, ब्रह्माण्ड के सर्वज्ञ भगवान होने के कारण आप मोह से छूटने के वास्तविक कारण हैं। कृपा करके आप जो भी उचित समझें, हमारे लिए व्यवस्था करें, चाहे हम पर कृपा करें या दण्ड दें।

60 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कालिय के शब्द सुनकर मनुष्य की भूमिका सम्पन्न कर रहे भगवान ने उत्तर दिया: हे सर्प, अब तुम यहाँ और अधिक मत रुको। तुरन्त ही अपने बच्चों, पत्नियों, अन्य मित्रों तथा सम्बन्धियों समेत समुद्र में लौट जाओ। अब इस नदी को गौवों तथा मनुष्यों द्वारा भोगी जाने दो।

61 यदि कोई व्यक्ति तुम्हें दिये गये मेरे इस आदेश का (वृन्दावन छोड़कर समुद्र में जाने का) स्मरण करता है और प्रातः तथा संध्या समय इस कथा को बाँचता है, तो वह तुमसे कभी भयभीत नहीं होगा।

62-63 यदि कोई व्यक्ति मेरी क्रीड़ा के इस स्थल पर स्नान करता है और इस सरोवर का जल देवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों को अर्पित करता है अथवा यदि कोई उपवास करता है, मेरी पूजा करता है और मेरा स्मरण करता है, तो वह समस्त पापों से अवश्य छूट जाएगा। तुम गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस सरोवर में शरण लेने आये थे। किन्तु अब तुम्हारे ऊपर मेरे चरणचिन्ह अंकित होने से, गरुड़ तुम्हें खाने का प्रयास कभी नहीं करेगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9732997693?profile=RESIZE_400x

ब्रह्मा द्वारा स्तुति (10.14)

1 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, आप ही एकमात्र पूज्य भगवान हैं अतएव आपको प्रसन्न करने के लिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ और आपकी स्तुति करता हूँ। हे ग्वालनरेश पुत्र, आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान गहरा नीला है; आपके वस्त्र बिजली के समान देदीप्यमान हैं और आपके मुखमण्डल का सौन्दर्य गुञ्जा के बने कुण्डलों से तथा सिर पर लगे मोरपंख से बढ़ जाता है। अनेक वन-फूलों तथा पत्तियों की माला पहने तथा चराने की छड़ी (लकुटी), शृंग और वंशी से सज्जित आप अपने हाथ में भोजन का कौर लिए हुए सुन्दर रीति से खड़े हुए हैं।

2-3 हे प्रभु, न तो मैं, न ही अन्य कोई आपके इस दिव्य शरीर के सामर्थ्य का अनुमान लगा सकता है, जिसने मुझ पर इतनी कृपा दिखाई है। आपका शरीर आपके शुद्ध भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए प्रकट होता है। यद्यपि मेरा मन भौतिक कार्यकलापों से पूरी तरह विरत है, तो भी मैं आपके साकार रूप को नहीं समझ सकता तो भला अन्यों के विषय में क्या कहा जाय? जो लोग अपने प्रतिष्ठित सामाजिक पदों पर रहते हुए ज्ञान-विधि का तिरस्कार करते हैं और मन, वचन और कर्मों से आपके तथा आपके कार्यकलापों के गुणगान के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं और आप तथा आपके द्वारा गुंजित इन कथाओं में अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं, वे निश्चित रूप से आपको जीत लेते हैं अन्यथा आप तीनों लोकों में किसी के द्वारा भी अजेय हैं।

4 हे प्रभु, आत्म-साक्षात्कार का सर्वोत्तम मार्ग तो आपकी ही भक्ति है। यदि कोई इस मार्ग को त्याग करके ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है, तो उसे क्लेश उठाना होगा और वांछित फल भी नहीं मिल पाएगा। जिस तरह थोथी भूसी को पीटने से अन्न (गेहूँ) नहीं मिलता उसी तरह जो केवल चिन्तन करता है उसे आत्म-साक्षात्कार नहीं हो पाता। उसके हाथ केवल क्लेश लगता है।

5 हे सर्वशक्तिमान, भूतकाल में इस संसार में अनेक योगीजनों ने अपने कर्तव्य निभाते हुए तथा अपने सारे प्रयासों को आपको अर्पित करते हुए भक्तिपद प्राप्त किया है। हे अच्युत, आपके श्रवण तथा कीर्तन द्वारा सम्पन्न ऐसी भक्ति से वे आपको जान पाये और आपकी शरण में जाकर आपके परमधाम को प्राप्त कर सके।

6 किन्तु अभक्तगण आपके पूर्ण साकार रूप में आपका अनुभव नहीं कर सकते। फिर भी हृदय के अन्दर आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा वे निर्विशेष ब्रह्म के रूप में आपका अनुभव कर सकते हैं। किन्तु वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब वे अपने मन तथा इन्द्रियों को सारी भौतिक उपाधियों तथा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति से शुद्ध कर लें। केवल इस विधि से ही उन्हें आपका निर्वेशेष स्वरूप प्रकट हो सकेगा।

7 समय के साथ, विद्वान दार्शनिक या विज्ञानी, पृथ्वी के सारे परमाणु, हिम के कण या शायद सूर्य, नक्षत्र तथा ग्रहों से निकलने वाले ज्योति कणों की भी गणना करने में समर्थ हो सकते हैं किन्तु इन विद्वानो में ऐसा कौन है, जो आप में अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर में निहित असीम दिव्य गुणों का आकलन कर सके। ऐसे भगवान समस्त जीवात्माओं के कल्याण के लिए इस धरती पर अवतरित हुए हैं।

8 हे प्रभु, जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन, वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा पाने की प्रतीक्षा करता है, वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है।

9-10 हे प्रभु, मेरी अशिष्टता को जरा देखें! आपकी शक्ति की परीक्षा करने के लिए मैंने अपनी मायामयी शक्ति से आपको आच्छादित करने का प्रयत्न किया जबकि आप असीम तथा आदि परमात्मा हैं, जो मायापतियों को भी मोहित करनेवाले हैं। आपके सामने भला मैं क्या हूँ? विशाल अग्नि की उपस्थिति में, मैं छोटी चिनगारी की तरह हूँ। अतएव हे अच्युत भगवान, मेरे अपराधों को क्षमा कर दें। मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ और स्वयं को आपसे पृथक (स्वतंत्र) नियन्ता मानने के कारण मैं निरा मूर्ख हूँ। अज्ञान के अंधकार से मेरी आँखें अन्धी हो चुकी हैं जिसके कारण मैं अपने को ब्रह्माण्ड का अजन्मा स्रष्टा समझ रहा हूँ। किन्तु मुझे आप अपना सेवक मानें और अपनी दया का पात्र बना लें।

11-13 कहाँ मैं अपने हाथ के सात बालिश्तों के बराबर एक क्षुद्र प्राणी जो भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी से बने घड़े-जैसे ब्रह्माण्ड से घिरा हुआ हूँ! और कहाँ आपकी महिमा! आपके शरीर के रोमकूपों से होकर असंख्य ब्रह्माण्ड उसी प्रकार आ-जा रहे हैं जिस तरह खिड़की की जाली के छेदों से धूल कण आते-जाते रहते हैं। हे प्रभु अधोक्षज, क्या कोई माता अपने गर्भ के भीतर स्थित शिशु, द्वारा लात मारे जाने को अपराध समझती है? क्या आपके उदर के बाहर वास्तव में ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, जिसे दार्शनिक जन "है" या "नहीं है" की उपाधि प्रदान कर सकें? हे प्रभु, ऐसा कहा जाता है कि जब प्रलय के समय तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं, तो आपके अंश, नारायण, जल में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से धीरे-धीरे एक कमल का फूल निकलता है और उस फूल से ब्रह्मा का जन्म होता है। अवश्य ही ये वचन झूठे नहीं हैं। तो क्या मैं आपसे उत्पन्न नहीं हूँ?

14 हे परम नियन्ता, प्रत्येक देहधारी जीव के आत्मा तथा समस्त लोकों के शाश्वत साक्षी होने के कारण क्या आप आदि नारायण नहीं है? निस्सन्देह, भगवान नारायण आपके ही अंश हैं और वे नारायण इसलिए कहलाते हैं क्योंकि ब्रह्माण्ड के आदि जल के जनक हैं। वे सत्य हैं, आपकी माया से उत्पन्न नहीं हैं।

15 हे प्रभु, यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को शरण देने वाला आपका यह दिव्य शरीर वास्तव में जल में शयन करता है, तो फिर आप मुझे तब क्यों नहीं दिखे जब मैं आपको खोज रहा था? और तब क्यों आप सहसा प्रकट नहीं हो गये थे यद्यपि मैं अपने हृदय में आपको ठीक से देख नहीं पाया था ।

16 हे प्रभु, आपने इसी अवतार में यह सिद्ध कर दिया है कि आप माया के परम नियंत्रक हैं। यद्यपि आप अब इस ब्रह्माण्ड के भीतर हैं किन्तु सारा ब्रह्माण्ड आपके दिव्य शरीर के भीतर है – आपने इस तथ्य को माता यशोदा के समक्ष अपने उदर के भीतर ब्रह्माण्ड दिखलाकर प्रदर्शित कर दिया है।

17 जिस तरह आप समेत यह सारा ब्रह्माण्ड आपके उदर में प्रदर्शित किया गया था उसी तरह अब यह उसी रूप में यहाँ पर प्रकट हुआ है। आपकी अचिन्त्य शक्ति की व्यवस्था के बिना भला ऐसा कैसे घटित हो सकता है?

18-20 क्या आपने आज मुझे यह नहीं दिखलाया कि आप स्वयं तथा इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु आपकी अचिन्त्य शक्ति के ही प्राकट्य हैं? सर्वप्रथम आप अकेले प्रकट हुए, तत्पश्चात आप वृन्दावन के बछड़ों तथा अपने मित्र ग्वालबालों के रूप में प्रकट हुए। इसके बाद आप उतने ही चतुर्भुजी विष्णु रूपों में प्रकट हुए जो मुझ समेत समस्त जीवों द्वारा पूजे जा रहे थे। तत्पश्चात आप उतने ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के रूप में प्रकट हुए। तदनन्तर आप अद्वितीय परम ब्रह्म के अपने अनन्त रूप में वापस आ गये हैं। आपकी वास्तविक दिव्य स्थिति से अपरिचित व्यक्तियों के लिए आप इस जगत के अंश रूप में अपने को अपनी अचिन्त्य शक्ति के अंश द्वारा प्रकट करते हुए अवतरित होते हैं। इस तरह ब्रह्माण्ड के सृजन के लिए आप मेरे (ब्रह्मा) रूप में, इसके पालन के लिए अपने ही (विष्णु) रूप में तथा इसके संहार के लिए आप त्रिनेत्र (शिव) के रूप में प्रकट होते हैं। हे प्रभु, हे परम स्रष्टा एवं स्वामी, यद्यपि आप अजन्मा हैं किन्तु श्रद्धाविहीन असुरों के मिथ्या गर्व को चूर करने तथा अपने सन्त-सदृश भक्तों पर दया दिखाने के लिए आप देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों, पशुओं तथा जलचरों तक के बीच में जन्म लेते हैं।

21-22 हे भूमन, हे भगवान, हे परमात्मा, हे योगेश्वर, आपकी लीलाएँ इन तीनों लोकों में निरन्तर चलती रहती हैं किन्तु इसका अनुमान कौन लगा सकता है कि आप कहाँ, कैसे और कब अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर रहे हैं और इन असंख्य लीलाओं को सम्पन्न कर रहे हैं? इस रहस्य को कोई नहीं समझ सकता कि आपकी आध्यात्मिक शक्ति किस प्रकार से कार्य करती है। अतः यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जो कि स्वप्न के तुल्य है प्रकृति से असत है फिर भी असली (सत) प्रतीत होता है और इस तरह यह मनुष्य की चेतना को प्रच्छन्न कर लेता है और बारम्बार दुख का कारण बनता है। यह ब्रह्माण्ड सत्य इसलिए लगता है क्योंकि यह आपसे उद्भूत माया की शक्ति द्वारा प्रकट किया जाता है जिनके असंख्य दिव्य रूप– शाश्वत सुख तथा ज्ञान से पूर्ण हैं।

23 आप ही परमात्मा, आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, परम सत्य, स्वयंप्रकट, अनन्त तथा अनादि हैं। आप शाश्वत तथा अच्युत, पूर्ण, अद्वितीय तथा समस्त भौतिक उपाधियों से मुक्त हैं। न तो आपके सुख को रोका जा सकता है, न ही आपका भौतिक कल्मष से कोई नाता है। आप विनाशरहित और अमृत हैं।

24-25 जिन्होंने सूर्य जैसे आध्यात्मिक गुरु से ज्ञान की स्पष्ट दृष्टि प्राप्त कर ली है वे आपको समस्त आत्माओं की आत्मा तथा हर एक के परमात्मा के रूप में देख सकते हैं। इस तरह आपको आदि पुरुषस्वरूप समझकर वे मायारूपी भवसागर को पार कर सकते हैं। जिस व्यक्ति को रस्सी से सर्प का भ्रम हो जाता है, वह भयभीत हो उठता है किन्तु यह अनुभव करने पर कि तथाकथित सर्प तो था ही नहीं, वह अपना भय त्याग देता है। इसी प्रकार जो लोग आपको समस्त आत्माओं (जीवों) के परमात्मा के रूप में नहीं पहचान पाते उनके लिए विस्तृत मायामय संसार उत्पन्न होता है किन्तु आपका ज्ञान होने पर वह तुरन्त दूर हो जाता है।

26-27 भवबन्धन तथा मोक्ष दोनों ही अज्ञान की अभिव्यक्तियाँ हैं। सच्चे ज्ञान की सीमा के बाहर होने के कारण, इन दोनों का अस्तित्व मिट जाता है जब मनुष्य ठीक से यह समझ लेता है कि शुद्ध आत्मा, पदार्थ से भिन्न है और सदैव पूर्णतया चेतन है। उस समय बन्धन तथा मोक्ष का कोई महत्व नहीं रहता जिस तरह सूर्य के परिप्रेक्ष्य में दिन तथा रात का कोई महत्व नहीं होता। जरा उन अज्ञानी पुरुषों की मूर्खता तो देखिये जो आपको मोह की भिन्न अभिव्यक्ति मानते हैं और अपने (आत्मा) को, जो कि वास्तव में आप हैं, अन्य कुछ--भौतिक शरीर--मानते हैं। ऐसे मूर्खजन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परमात्मा की खोज परम पुरुष आप से बाहर अन्यत्र की जानी चाहिए।

28 हे अनन्त भगवान, सन्तजन आपसे भिन्न हर वस्तु का तिरस्कार करते हुए अपने ही शरीर के भीतर आपको खोज निकालते हैं। निस्सन्देह, विभेद करनेवाले व्यक्ति भला किस तरह अपने समक्ष पड़ी हुई रस्सी की असली प्रकृति को जान सकते हैं जब तक वे इस भ्रम का निराकरण नहीं कर लेते कि यह सर्प है?

29 हे प्रभु, यदि किसी पर आपके चरणकमलों की लेशमात्र भी कृपा हो जाती है, तो वह आपकी महानता को समझ सकता है। किन्तु जो लोग भगवान को समझने के लिए चिन्तन करते हैं, वे अनेक वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहने पर भी आपको नहीं जान पाते।

30 अतः हे प्रभु, मेरी प्रार्थना है कि मैं इतना भाग्यशाली बन सकूँ कि इसी जीवन में ब्रह्मा के रूप में या दूसरे जीवन में जहाँ कहीं भी जन्म लूँ, मेरी गणना आपके भक्तों में हो। मैं प्रार्थना करता हूँ कि चाहे पशु योनि में ही सही, मैं जहाँ कहीं भी होऊँ, आपके चरणकमलों की भक्ति में लग सकूँ ।

31 हे सर्वशक्तिमान भगवान, वृन्दावन की गौवें तथा स्त्रियाँ कितनी भाग्यशालिनी हैं जिनके बछड़े तथा पुत्र बनकर आपने परम प्रसन्नतापूर्वक एवं सन्तोषपूर्वक उनके स्तनपान का अमृत पिया है! अनन्तकाल से अब तक सम्पन्न किये गये सारे वैदिक यज्ञों से भी आपको उतना सन्तोष नहीं हुआ होगा।

32 नन्द महाराज, सारे ग्वाले तथा व्रजभूमि के अन्य सारे निवासी कितने भाग्यशाली हैं! उनके सौभाग्य की कोई सीमा नहीं है क्योंकि दिव्य आनन्द के स्रोत परम सत्य अर्थात सनातन परब्रह्म उनके मित्र बन चुके हैं।

33 वृन्दावन के इन वासियों की सौभाग्य सीमा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता; फिर भी विविध इन्द्रियों के ग्यारह अधिष्ठाता देवता हम, जिनमें शिवजी प्रमुख हैं, परम भाग्यशाली हैं क्योंकि वृन्दावन के इन भक्तों की इन्द्रियाँ वे प्याले हैं जिनसे हम आपके चरणकमलों का अमृत तुल्य मादक मधुपेय बारम्बार पीते हैं।

34-36 मेरा सम्भावित परम सौभाग्य यह होगा कि मैं गोकुल के इस वन में जन्म ले सकूँ और इसके निवासियों में से किसी के भी चरणकमलों से गिरी हुई धूल से अपने सिर का अभिषेक करूँ। उनका सारा जीवनसार पूर्ण पुरषोत्तम भगवान मुकुन्द हैं जिनके चरणकमलों की धूल की खोज आज भी वैदिक मंत्रों में की जा रही है। मेरा मन मोहग्रस्त हो जाता है जब मैं यह सोचने का प्रयास करता हूँ कि कहीं भी आपके अतिरिक्त अन्य कोई पुरस्कार (फल) क्या हो सकता है? आप समस्त वरदानों के साकार रूप हैं, जिन्हें आप वृन्दावन के ग्वाल जाति के निवासियों को प्रदान करते हैं। आपने पहले ही उस पूतना द्वारा भक्त का वेश बनाने के बदले में उसे तथा उसके परिवारवालों को अपने आप को दे डाला है। अतएव वृन्दावन के इन भक्तों को देने के लिए आपके पास बचा ही क्या है जिनके घर, धन, मित्रगण, प्रिय परिजन, शरीर, सन्तानें तथा प्राण और हृदय--सभी केवल आपको समर्पित हो चुके हैं? हे भगवान कृष्ण, जब तक लोग आपके भक्त नहीं बन जाते तब तक उनकी भौतिक आसक्तियाँ तथा इच्छाएँ चोर बनी रहती हैं; उनके घर बन्दीगृह बने रहते हैं और अपने परिजनों के प्रति उनकी स्नेहपूर्ण भावनाएँ पाँवों की बेड़ियाँ बनी रहती है।

37-40   हे स्वामी, यद्यपि भौतिक जगत से आपको कुछ भी लेना-देना नहीं रहता किन्तु आप इस धरा पर आकर अपने शरणागत भक्तों के लिए आनन्द-भाव की विविधताओं को विस्तृत करने के लिए भौतिक जीवन का अनुकरण करते हैं।   ऐसे लोग भी है जो यह कहते हैं कि वे कृष्ण के विषय में सब कुछ जानते हैं – वे ऐसा सोचा करें। किन्तु जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं इस विषय में कुछ अधिक नहीं कहना चाहता। हे प्रभु, मैं तो इतना ही कहूँगा कि जहाँ तक आपके ऐश्वर्यों की बात है वे मेरे मन, शरीर तथा शब्दों की पहुँच से बाहर है। हे कृष्ण, अब मैं आपसे विदा लेने की अनुमति के लिए विनीत भाव से अनुरोध करता हूँ। वास्तव में आप सारी वस्तुओं के ज्ञाता तथा दृष्टा हैं। आप समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं फिर भी मैं आपको यह एक ब्रह्माण्ड अर्पित करता हूँ। हे कृष्ण, आप कमल तुल्य वृष्णि कुल को सुख प्रदान करनेवाले हैं और पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण तथा गौवों से युक्त महासागर को बढ़ाने वाले हैं। आप अधर्म के गहन अंधकार को दूर करते हैं और इस पृथ्वी में प्रकट हुए असुरों का विरोध करते हैं। हे भगवन, जब तक यह ब्रह्माण्ड बना रहेगा, जब तक सूर्य चमकेगा मैं आपको सादर नमस्कार करता रहूँगा।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9732931874?profile=RESIZE_192X

नलकूवर तथा मणिग्रीव द्वारा स्तुति (10.10)

24-27 सर्वोच्च भक्त नारद के वचनों को सत्य बनाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण धीरे धीरे उस स्थान पर गये जहाँ दोनों अर्जुन वृक्ष खड़े थे। “यद्यपि ये दोनों युवक अत्यन्त धनी कुबेर के पुत्र हैं और उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु देवर्षि नारद मेरा अत्यन्त प्रिय तथा वत्सल भक्त है और क्योंकि उसने चाहा था कि मैं इनके समक्ष आऊँ अतएव इनकी मुक्ति के लिए मुझे ऐसा करना चाहिए।" इस तरह कहकर कृष्ण तुरन्त ही दो अर्जुन वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए जिससे वह बड़ी ओखली जिससे वे बाँधे गये थे तिरछी हो गई और उनके बीच फँस गई। अपने पेट से बँधी ओखली को बलपूर्वक अपने पीछे घसीटते हुए बालक कृष्ण ने दोनों वृक्षों को उखाड़ दिया। परम पुरुष की महान शक्ति से दोनों वृक्ष अपने तनों, पत्तों तथा टहनियों समेत बुरी तरह से हिले और तड़तड़ाते हुए भूमि पर गिर पड़े।

28-29 तत्पश्चात जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान सिद्ध पुरुष, जो साक्षात अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये। उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओर प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर निम्नलिखित शब्द कहे। हे कृष्ण, हे कृष्ण, आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है। आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आप समस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रहकर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं (सर्व खल्विदम ब्रह्म – इस वैदिक कथन के आधार पर) कि आप सर्वेसर्वा हैं और यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।

30-32 आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान हैं। आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार इन्द्रियाँ तथा काल हैं। आप परम पुरुष, अक्षय नियन्ता विष्णु हैं। आप तात्कालिक कारण और तीन गुणों – सतो, रजो तथा तमो गुणों – वाली भौतिक प्रकृति हैं। आप इस भौतिक जगत के आदि कारण हैं। आप परमात्मा हैं। अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं। हे प्रभु, आप सृष्टि के पूर्व से विद्यमान हैं। अतः इस जगत में भौतिक गुणों वाले शरीर में बन्दी रहने वाला ऐसा कौन है, जो आपको समझ सके?

33 अपनी ही शक्ति से आच्छादित महिमा वाले हे प्रभु, आप भगवान हैं। आप सृष्टि के उद्गम, संकर्षण, हैं और चतुर्व्युह के उद्गम, वासुदेव, हैं। आप सर्वस्व होने से परब्रह्म हैं अतएव हम आपको नमस्कार करते हैं।

34-35 आप मत्स्य, कूर्म, वराह जैसे शरीरों में प्रकट होकर ऐसे प्राणियों द्वारा सम्पन्न न हो सकने वाले कार्यकलाप – असामान्य, अतुलनीय, असीम शक्ति वाले दिव्य कार्य-प्रदर्शित करते है। अतएव आपके ये शरीर भौतिक तत्त्वों से नहीं बने होते अपितु आपके अवतार होते हैं। आप वही भगवान हैं, जो अब अपनी पूर्ण शक्ति के साथ इस जगत के सारे जीवों के लाभ के लिए प्रकट हुए हैं।

36-38 हे परम कल्याण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं क्योंकि आप परम शुभ हैं। हे यदुवंश के प्रसिद्ध वंशज तथा नियन्ता, हे वसुदेव-पुत्र, हे परम शान्त, हम आपके चरणकमलों में सादर नमस्कार करते हैं। हे परम रूप, हम सदैव आपके दासों के, विशेष रूप से नारदमुनि के दास हैं। अब आप हमें अपने घर जाने की अनुमति दें। यह तो नारदमुनि की कृपा है कि हम आपका साक्षात दर्शन कर सके। अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा का श्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इन्द्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यों में लगें तथा हमारे मन सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करें। हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कार करें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों के रूपों का दर्शन करें।

39-40 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह दोनों देवताओं ने भगवान की स्तुति की। यद्यपि भगवान कृष्ण सबों के स्वामी हैं और गोकुलेश्वर थे किन्तु वे गोपियों की रस्सियों द्वारा लकड़ी की ओखली से बाँध दिये गये थे इसलिए उन्होंने हँसते हुए कुबेर के पुत्रों से ये शब्द कहे। भगवान ने कहा : परम सन्त नारदमुनि अत्यन्त कृपालु हैं। उन्होंने अपने शाप से तुम दोनों पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है क्योंकि तुम दोनों भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त होकर अन्धे बन चुके थे। यद्यपि तुम दोनों स्वर्गलोक से गिरकर वृक्ष बने थे किन्तु उन्होंने तुम दोनों पर सर्वाधिक कृपा की। मैं प्रारम्भ से ही इन घटनाओं को जानता था।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9732926064?profile=RESIZE_400x

वसुदेव तथा माता देवकी द्वारा स्तुति (10.3)

13-14 वसुदेव ने कहा- हे भगवान, आप इस भौतिक जगत से परे परम पुरुष हैं और आप परमात्मा हैं। आपके स्वरूप का अनुभव उस दिव्य ज्ञान द्वारा हो सकता है, जिससे आप भगवान के रूप में समझे जा सकते हैं। अब आपकी स्थिति मेरी समझ में भलीभाँति आ गई है। हे भगवन, आप वही पुरुष हैं जिसने प्रारम्भ में अपनी बहिरंगा शक्ति से इस भौतिक जगत की सृष्टि की। तीन गुणों (सत्त्व, रजस तथा तमस) वाले इस जगत की सृष्टि के बाद ऐसा लगता है कि आपने उसके भीतर प्रवेश किया है यद्यपि यथार्थ तो यह है कि आपने प्रवेश नहीं किया।

15-17 सम्पूर्ण भौतिक शक्ति (महत तत्त्व) अविभाज्य है, किन्तु भौतिक गुणों के कारण यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश में विलग होती सी प्रतीत होती है। ये विलग हुई शक्तियाँ जीवभूत के कारण मिलकर विराट जगत को दृश्य बनाती है, किन्तु तथ्य तो यह है कि विराट जगत की सृष्टि के पहले से ही महत तत्त्व विद्यमान रहता है। अतः महत तत्त्व का वास्तव में सृष्टि में प्रवेश नहीं होता है। इसी तरह यद्यपि आप अपनी उपस्थिति के कारण हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हैं, किन्तु आप न तो हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हो पाते हैं न ही हमारे मन या वचनों द्वारा अनुभव किए जाते हैं। हम अपनी इन्द्रियों से कुछ ही वस्तुएँ देख पाते हैं, सारी वस्तुएँ नहीं। उदाहरणार्थ, हम अपनी आँखों का प्रयोग देखने के लिए कर सकते हैं, आस्वाद के लिए नहीं। फलस्वरूप आप इन्द्रियों के परे हैं। यद्यपि आप प्रकृति के तीनों गुणों से सम्बद्ध हैं, तथापि आप उनसे अप्रभावित रहते हैं। आप हर वस्तु के मूल कारण – सर्वव्यापी अविभाज्य परमात्मा हैं। अतएव आपके लिए कुछ भी बाहरी या भीतरी नहीं है। आपने कभी भी देवकी के गर्भ में प्रवेश नहीं किया प्रत्युत आप पहले से वहाँ उपस्थित थे।

18-19 जो व्यक्ति प्रकृति के तीन गुणों से बने अपने दृश्य शरीर को आत्मा से स्वतंत्र मानता है, वह अस्तित्व के आधार से ही अनजान होता है और इसलिए वह मूढ़ है। जो विद्वान हैं, वे इस निर्णय को नहीं मानते क्योंकि विवेचना द्वारा यह समझा जा सकता है कि आत्मा से निराश्रित दृश्य शरीर तथा इन्द्रियाँ सारहीन हैं। यद्यपि इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया है, किन्तु मूर्ख व्यक्ति इसे सत्य मानता है। हे प्रभु, विद्वान वैदिक पण्डित कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन एवं संहार आपके द्वारा होता है तथा आप प्रयास से मुक्त, प्रकृति के गुणों से अप्रभावित तथा अपनी दिव्य स्थिति में अपरिवर्तित रहते हैं। आप परब्रह्म हैं और आप में कोई विरोध नहीं है। प्रकृति के तीनों गुण – सतो, रजो तथा तमोगुण आपके नियंत्रण में हैं अतः सारी घटनाएँ स्वतः घटित होती हैं।

20 हे भगवन, आपका स्वरूप तीनों भौतिक गुणों से परे है फिर भी तीनों लोकों के पालन हेतु आप सतोगुणी विष्णु का श्वेत रंग धारण करते हैं, सृजन के समय जो रजोगुण से आवृत होता है आप लाल प्रतीत होते हैं और अन्त में अज्ञान से आवृत संहार के समय आप श्याम प्रतीत होते हैं।

21 हे परमेश्वर, हे समस्त सृष्टि के स्वामी, आप इस जगत की रक्षा करने की इच्छा से मेरे घर में प्रकट हुए हैं। मुझे विश्वास है कि आप क्षत्रियों का बाना धारण करने वाले राजनीतिज्ञों के नायकत्व में जो असुरों की सेनाएँ संसार भर में विचरण कर रही हैं उनका वध करेंगे। निर्दोष जनता की सुरक्षा के लिए आपके द्वारा इनका वध होना ही चाहिए।

22 हे परमेश्वर, हे देवताओं के स्वामी, यह भविष्यवाणी सुनकर कि आप हमारे घर में जन्म लेंगे और उसका वध करेंगे, इस असभ्य कंस ने आपके कई अग्रजों को मार डाला है। वह ज्योंही अपने सेनानायकों से सुनेगा कि आप प्रकट हुए हैं, वह आपको मारने के लिए हथियार समेत तुरन्त ही आ धमकेगा।

23-24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात यह देखकर कि उनके पुत्र में भगवान के सारे लक्षण हैं, कंस से अत्यधिक भयभीत तथा असामान्य रूप से विस्मित देवकी भगवान से प्रार्थना करने लगीं। श्रीमती देवकी ने कहा: हे भगवन, वेद अनेक हैं। उसमें से कुछ आपको शब्दों तथा मन द्वारा अव्यक्त बतलाते हैं फिर भी आप सम्पूर्ण विश्व के उद्गम हैं। आप ब्रह्म हैं, सभी वस्तुओं से बड़े और सूर्य के समान तेज से युक्त। आपका कोई भौतिक कारण नहीं, आप परिवर्तन तथा विचलन से मुक्त हैं और आपकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं है। इस तरह वेदों का कथन है कि आप ही सार हैं। अतः हे प्रभु, आप समस्त वैदिक कथनों के उद्गम हैं और आपको समझ लेने पर मनुष्य हर वस्तु धीरे-धीरे समझ जाता है। आप ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा से भिन्न हैं फिर भी आप उनसे भिन्न नहीं हैं। आपसे ही सब वस्तुएँ उद्भूत हैं। दरअसल आप ही समस्त कारणों के कारण हैं, आप समस्त दिव्य ज्ञान की ज्योति भगवान विष्णु हैं।

25-27 लाखों वर्षों बाद विश्व-संहार के समय जब सारी व्यक्त तथा अव्यक्त वस्तुएँ काल के वेग से नष्ट हो जाती हैं, तो पाँचों स्थूल तत्त्व सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण करते हैं और व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त बन जाती हैं। उस समय आप ही रहते हैं और आप अनन्त शेषनाग कहलाते हैं। हे भौतिक शक्ति के प्रारम्भकर्ता, यह अद्भुत सृष्टि शक्तिशाली काल के नियंत्रण में कार्य करती है, जो सेकण्ड, मिनट, घण्टा तथा वर्षों में विभाजित है। यह काल तत्त्व, जो लाखों वर्षों तक फैला हुआ है, भगवान विष्णु का ही अन्य रूप है। आप अपनी लीलाओं के लिए काल के नियंत्रक की भूमिका अदा करते हैं, किन्तु आप समस्त सौभाग्य के आगार हैं। मैं पूरी तरह आपकी शरणागत हूँ। इस भौतिक जगत में कोई भी व्यक्ति जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग – इन चार नियमों से छूट नहीं पाया भले ही वह विविध लोकों में क्यों न भाग जाए। किन्तु हे प्रभु, अब चूँकि आप प्रकट हो चुके हैं अतः मृत्यु आपके भय से दूर भाग रही है और सारे जीव आपकी दया से आपके चरणकमलों की शरण प्राप्त करके पूर्ण मानसिक शान्ति की नींद सो रहे हैं।

28 हे प्रभु, आप अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले हैं अतएव आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप कंस के विकराल भय से हमें बचाइए और हमें संरक्षण प्रदान कीजिए। योगीजन ध्यान में आपके विष्णु रूप का अनुभव करते हैं। कृपया इस रूप को उनके लिए अदृश्य बना दीजिए जो केवल भौतिक आँखों से देख सकते हैं।

29 हे मधुसूदन, आपके प्रकट होने से मैं कंस के भय से अधिकाधिक अधीर हो रही हूँ। अतः कुछ ऐसा कीजिए कि वह पापी कंस यह न समझ पाए कि आपने मेरे गर्भ से जन्म लिया है।

30-31 हे प्रभु आप सर्वव्यापी भगवान हैं और आपका यह चतुर्भुज रूप, जिसमें आप शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किए हुए हैं, इस जगत के लिए अप्राकृत है। कृपया इस रूप को समेट लीजिए और सामान्य मानवी बालक बन जाइए जिससे मैं आपको कहीं छिपाने का प्रयास कर सकूँ । संहार के समय चर तथा अचर जीवों से युक्त सारी सृष्टियाँ आपके दिव्य शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और बिना कठिनाई के वहीं ठहरी रहती हैं। किन्तु अब वही दिव्य रूप मेरे गर्भ से जन्म ले चुका है। लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे और मैं हँसी की पात्र बन जाऊँगी।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9732911075?profile=RESIZE_400xदेवताओं द्वारा गर्भस्थ कृष्ण की स्तुति (10.2)

26-27 देवताओं ने प्रार्थना की; हे प्रभो, आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा ही पूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता। सृष्टि, पालन तथा संहार – जगत की इन तीन अवस्थाओं में विद्यमान रहने से आप परम सत्य हैं। कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी न हो अतः इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते। आप सृष्टि के सारे अवयवों में असली सत्य हैं इसीलिए आप अन्तर्यामी कहलाते हैं। आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं। आप आदि सत्य हैं अतः हम नमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं। आप हमारी रक्षा करें। शरीर को अलंकारिक रूप में "आदि वृक्ष" कहा जा सकता है। यह वृक्ष भौतिक प्रकृति की भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के – सुख भोग के तथा दुख भोग के – फल लगते हैं। इसकी तीन जड़े तीन गुणों – सतो, रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष के कारणस्वरूप हैं। शारीरिक सुख रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं – धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष जो पाँच ज्ञान इन्द्रियों द्वारा छह प्रकार की परिस्थितियों – शोक, मोह, जरा, मृत्यु, भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किए जाते हैं। इस वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं – त्वचा, रक्त, पेशी, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य। इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँच स्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्म तत्त्व हैं – क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन, मन, बुद्धि तथा अहंकार। शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र (कोठर) हैं – आँखें, कान, नथुने, मुँह, गुदा तथा जननेन्द्रियाँ। इसमें दस पत्तियाँ हैं, जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं। इस शरीररूपी वृक्ष में दो पक्षी हैं – एक आत्मा तथा दूसरा परमात्मा।

28 हे प्रभु, आप ही कई रूपों में अभिव्यक्त इस भौतिक जगत रूपी मूल वृक्ष के प्रभावशाली कारणस्वरूप हैं। आप ही इस जगत के पालक भी हैं और संहार के बाद आप ही ऐसे हैं जिसमें सारी वस्तुएँ संरक्षण पाती हैं। जो लोग माया से आवृत हैं, वे इस जगत के पीछे आपका दर्शन नहीं कर पाते क्योंकि उनकी दृष्टि विद्वान भक्तों जैसी नहीं होती।

29 हे ईश्वर, आप सदैव ज्ञान से पूर्ण रहने वाले हैं और सारे जीवों का कल्याण करने के लिए आप विविध रूपों में अवतरित होते हैं, जो भौतिक सृष्टि के परे होते हैं। जब आप इन अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं, तो आप पुण्यात्माओं तथा धार्मिक भक्तों के लिए मोहक लगते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप संहारकर्ता हैं।

30 हे कमलनयन प्रभु, सम्पूर्ण सृष्टि के आगार रूप आपके चरणकमलों में अपना ध्यान एकाग्र करके तथा उन्हीं चरणकमलों को संसार-सागर को पार करने वाली नाव मानकर मनुष्य महाजनों (महान सन्तों, मुनियों तथा भक्तों) के चरणचिन्हों का अनुसरण करता है। इस सरल सी विधि से वह अज्ञान सागर को इतनी आसानी से पार कर लेता है मानो कोई बछड़े के खुर का चिन्ह पार कर रहा हो।

31 हे द्युतिपूर्ण प्रभु, आप अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए सदा तैयार रहते हैं इसीलिए आप वाँछा-कल्पतरु कहलाते हैं। जब आचार्यगण अज्ञान के भयावह भवसागर को तरने के लिए आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, तो वे अपनी वह विधि छोड़ जाते हैं जिससे वे पार करते हैं। चूँकि आप अपने अन्य भक्तों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं अतएव उनकी सहायता करने के लिए आप इस विधि को स्वीकार करते हैं।

32 (कोई कह सकता है कि भगवान के चरणकमलों की शरण खोजने वाले भक्तों के अतिरिक्त भी ऐसे लोग हैं, जो भक्त नहीं हैं किन्तु जिन्होंने मुक्ति प्राप्त करने के लिए भिन्न विधियाँ अपना रखी हैं। तो उनका क्या होता है? इसके उत्तर में ब्रह्माजी तथा अन्य देवता कहते हैं) हे कमलनयन भगवान, भले ही कठिन तपस्याओं से परम पद प्राप्त करने वाले अभक्तगण अपने को मुक्त हुआ मान लें किन्तु उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है। वे कल्पित श्रेष्ठता के अपने पद से नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि उनके मन में आपके चरणकमलों के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं होता।

33-35 हे माधव, पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, हे लक्ष्मीपति भगवान, यदि आपके प्रेमी भक्तगण कभी भक्तिमार्ग से च्युत होते हैं, तो वे अभक्तों की तरह नहीं गिरते क्योंकि आप तब भी उनकी रक्षा करते हैं। इस तरह वे निर्भय होकर अपने प्रतिद्वन्द्वियों के मस्तकों को झुका देते हैं और भक्ति में प्रगति करते रहते हैं। हे परमेश्वर, पालन करते समय आप त्रिगुणातीत दिव्य शरीर वाले अनेक अवतारों को प्रकट करते हैं। जब आप इस तरह प्रकट होते हैं, तो जीवों को वैदिक कर्म-यथा अनुष्ठान, योग, तपस्या, समाधि आपके चिन्तन में भावपूर्ण तल्लीनता – में युक्त होने की शिक्षा देकर उन्हें सौभाग्य प्रदान करते हैं। इस तरह आपकी पूजा वैदिक नियमों के अनुसार की जाती है। हे कारणों के कारण ईश्वर, यदि आपका दिव्य शरीर गुणातीत न होता तो मनुष्य पदार्थ तथा अध्यात्म के अन्तर को न समझ पाता। आपकी उपस्थिति से ही आपके दिव्य स्वभाव को जाना जा सकता है क्योंकि आप प्रकृति के नियन्ता हैं। आपके दिव्य स्वरूप की उपस्थिति से प्रभावित हुए बिना आपके दिव्य स्वभाव को समझना कठिन है।

36 हे परमेश्वर, आपके दिव्य नाम तथा स्वरूप का उन व्यक्तियों को पता नहीं लग पाता, जो केवल कल्पना के मार्ग पर चिन्तन करते हैं। आपके नाम, रूप तथा गुणों का केवल भक्ति द्वारा ही पता लगाया जा सकता है।

37 विविध कार्यों में लगे रहने पर भी जिन भक्तों के मन आपके चरणकमलों में पूरी तरह लीन रहते हैं और जो निरन्तर आपके दिव्य नामों तथा रूपों का श्रवण, कीर्तन, चिन्तन करते हैं तथा अन्यों को स्मरण कराते हैं, वे सदैव दिव्य पद पर स्थित रहते हैं और इस प्रकार से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समझ सकते हैं।

38 हे प्रभु, हम भाग्यशाली हैं कि आपके प्राकट्य से इस धरा पर असुरों के कारण जो भारी बोझ है, वह शीघ्र ही दूर हो जाता है। निस्सन्देह हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं क्योंकि हम इस धरा में तथा स्वर्गलोक में भी आपके चरणकमलों को अलंकृत करने वाले शंख, चक्र, पद्म तथा गदा के चिन्हों को देख सकेंगे।

39-40 हे परमेश्वर आप कोई सामान्य जीव नहीं जो सकाम कर्मों के अधीन इस भौतिक जगत में उत्पन्न होता है। अतः इस जगत में आपका प्राकट्य या जन्म एकमात्र ह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। इसी तरह आपके अंश रूप सारे जीवों के कष्टों – यथा जन्म, मृत्यु तथा जरा का कोई दूसरा कारण नहीं सिवाय इसके कि ये सभी आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा संचालित होते हैं। हे परम नियन्ता, आप इसके पूर्व अपनी कृपा से सारे विश्व की रक्षा करने के लिए मत्स्य, अश्व, कच्छप, नृसिंहदेव, वराह, हंस, भगवान रामचन्द्र, परशुराम का तथा देवताओं में से वामन के रूप में अवतरित हुए हैं। अब आप इस संसार के उत्पातों को कम करके अपनी कृपा से पुनः हमारी रक्षा करें। हे यदुश्रेष्ठ कृष्ण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

41-42 हे माता देवकी, आपके तथा हमारे सौभाग्य से भगवान अपने सभी स्वांशों यथा बलदेव समेत आपके गर्भ में हैं। अतएव आपको उस कंस से भयभीत नहीं होना है, जिसने भगवान के हाथों से मारे जाने की ठान ली है। आपका शाश्वत पुत्र कृष्ण सारे यदुवंश का रक्षक होगा। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की इस तरह स्तुति करने के बाद सारे देवता ब्रह्माजी तथा शिवजी को आगे करके अपने अपने स्वर्ग-आवासों को लौट गये।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

9732230659?profile=RESIZE_400x

अम्बरीष महाराज द्वारा स्तुति (9.5)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान विष्णु ने दुर्वासा मुनि को इस प्रकार सलाह दी तो सुदर्शन चक्र से अत्यधिक उत्पीड़ित मुनि तुरन्त ही महाराज अम्बरीष के पास पहुँचे। अत्यन्त दुखित होने के कारण वे राजा के समक्ष लौट गये और उनके चरणकमलों को पकड़ लिया। जब दुर्वासा मुनि ने महाराज अम्बरीष के पाँव छुए तो वे अत्यन्त लज्जित हो उठे और जब उन्होंने यह देखा कि दुर्वासा उनकी स्तुति करने का प्रयास कर रहे हैं तो वे दयावश और भी अधिक सन्तप्त हो उठे। अतः उन्होंने तुरन्त ही भगवान के महान अस्त्र की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।

3 महाराज अम्बरीष ने कहा: हे सुदर्शन चक्र, तुम अग्नि हो, तुम परम शक्तिमान सूर्य हो तथा तुम सारे नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा हो। तुम जल, पृथ्वी तथा आकाश हो, तुम पाँचों इन्द्रियविषय (ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गन्ध) हो और तुम्हीं इन्द्रियाँ भी हो।

4 हे भगवान अच्युत के परम प्रिय, तुम एक हजार अरों वाले हो। हे संसार के स्वामी, समस्त अस्त्रों के विनाशकर्ता, भगवान की आदि दृष्टि, मैं तुमको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपा करके इस ब्राह्मण को शरण दो तथा इसका कल्याण करो।

5-6 हे सुदर्शन चक्र, तुम धर्म हो, तुम सत्य हो, तुम प्रेरणाप्रद कथन हो, तुम यज्ञ हो तथा तुम्हीं यज्ञ-फल के भोक्ता हो। तुम अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हो और तुम्हीं भगवान के हाथों में परम दिव्य तेज हो। तुम भगवान की मूल दृष्टि हो; अतएव तुम सुदर्शन कहलाते हो। सभी वस्तुएँ तुम्हारे कार्यकलापों से उत्पन्न की हुई हैं, अतएव तुम सर्वव्यापी हो। हे सुदर्शन, तुम्हारी नाभि अत्यन्त शुभ है, अतएव तुम धर्म की रक्षा करने वाले हो। तुम अधार्मिक असुरों के लिए अशुभ पुच्छल तारे के समान हो। निस्सन्देह, तुम्हीं तीनों लोकों के पालक हो। तुम दिव्य तेज से पूर्ण हो, तुम मन के समान तीव्रगामी हो और अद्भुत कर्म करने वाले हो। मैं केवल नमः शब्द कहकर तुम्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

7 हे वाणी के स्वामी, धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्ण तुम्हारे तेज से संसार का अंधकार दूर हो जाता है और विद्वान पुरुषों या महात्माओं का ज्ञान प्रकट होता है। निस्सन्देह, कोई तुम्हारे तेज का पार नहीं पा सकता क्योंकि सारी वस्तुएँ, चाहे प्रकट अथवा अप्रकट हों, स्थूल अथवा सूक्ष्म हों, उच्च अथवा निम्न हों आपके तेज के द्वारा प्रकट होने वाले आपके विभिन्न रूप ही हैं।

8 हे अजित, जब तुम भगवान द्वारा दैत्यों तथा दानवों के सैनिकों के बीच प्रवेश करने के लिए भेजे जाते हो, तो तुम युद्धस्थल पर डटे रहते हो और निरन्तर उनके हाथों, पेट, जाँघों, पाँवों तथा सिर को विलग करते रहते हो।

9 हे विश्व के रक्षक, भगवान ईर्ष्यालु शत्रुओं को मारने के लिए तुमको अपने सर्वशक्तिशाली अस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। हमारे सम्पूर्ण वंश के लाभ हेतु कृपया इस दीन ब्राह्मण पर दया कीजिये। निश्चय ही यह हम सब पर कृपा होगी।

10 यदि हमारे परिवार ने सुपात्रों को दान दिया है, यदि हमने कर्मकाण्ड तथा यज्ञ सम्पन्न किये हैं, यदि हमने अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों को ठीक से पूरा किया है और यदि हम विद्वान ब्राह्मणों द्वारा मार्गदर्शन पाते रहे हैं तो मैं चाहूँगा कि उनके बदले में यह ब्राह्मण सुदर्शन चक्र के द्वारा उत्पन्न ताप से मुक्त कर दिया जाय।

11 यदि समस्त दिव्य गुणों के आगार तथा समस्त जीवों के प्राण तथा आत्मा अद्वितीय परमेश्वर हम पर प्रसन्न हैं तो हम चाहेंगे कि यह ब्राह्मण दुर्वासा मुनि दहन की पीड़ा से मुक्त हो जाय।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब राजा ने सुदर्शन चक्र एवं भगवान विष्णु की स्तुति की तो स्तुतियों के कारण सुदर्शन चक्र शान्त हुआ और उसने दुर्वासा मुनि नाम के इस ब्राह्मण को दहकाना बन्द कर दिया।

13 सुदर्शन चक्र की अग्नि से मुक्त किये जाने पर अति शक्तिशाली योगी दुर्वासा मुनि प्रसन्न हुए। तब उन्होंने महाराज अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उन्हें उत्तमोत्तम आशीष दिये।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…