भगवद्गीता यथारूप 108 महत्वपूर्ण श्लोक
अध्याय 2 : गीता का सार
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्चच भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्चच नानुशोचन्ति पण्डिताः ।। 11।।
श्रीभगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा;अशोच्यान्– जो शोक योग्य नहीं है;अन्वशोचः– शोक करते हो;त्वम्– तुम;प्रज्ञावादान्– पाण्डित्यपूर्ण बातें;च– भी;भाषसे– कहते हो;गत– चले गये, रहित;असून्– प्राण;अगत– नहीं गये;असून्– प्राण;च– भी;न– कभी नहीं;अनुशोचन्ति– शोक करते हैं;पण्डिताः– विद्वान लोग।
भावार्थ: श्री भगवान् ने कहा – तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं।
तात्पर्य : भगवान् ने तत्काल गुरु का पद सँभाला और अपने मित्र को अप्रत्यक्षतः मूर्ख कह कर डाँटा। उन्होंने कहा, “तुम विद्वान की तरह बातें करते हो, किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान होता है – अर्थात् जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या है – वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए, चाहे वह जीवित हो या मृत – शोक नहीं करता।” अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं दोनों के नियामक को जानना है। अर्जुन का तर्क था कि राजनीति या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्त्व मिलना चाहिए, किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ, आत्मा तथा परमेश्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। और चूँकि उसमें इस ज्ञान का अभाव था, अतः उसे विद्वान नहीं बनना चाहिए था। और चूँकि वह अत्यधिक विद्वान नहीं था इसीलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था। यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है, अतः शरीर उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है। जो इस तथ्य को जानता है वही असली विद्वान है और उसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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