कालिय की पत्नियों एवं कालिय नाग द्वारा स्तुति (10.16)
33 कालिय सर्प की पत्नियों ने कहा: इस अपराधी को जो दण्ड मिला है, वह निस्सन्देह उचित ही है। आपने इस जगत में ईर्ष्यालु तथा क्रूर पुरुषों का दमन करने के लिए ही अवतार लिया है आप इतने निष्पक्ष हैं कि आप शत्रुओं तथा अपने पुत्रों को समान भाव से देखते हैं क्योंकि जब आप किसी जीव को दण्ड देते हैं, तो आप यह जानते होते हैं कि अन्ततः यह उसके हित के लिए है।
34 आपने जो कुछ यहाँ किया है, वह वास्तव में हम पर अनुग्रह है क्योंकि आप दुष्टों को जो दण्ड देते हैं वह निश्चित रूप से उनके कल्मष को दूर कर देता है। चूँकि यह बद्धजीव हमारा पति इतना पापी है कि इसने सर्प का शरीर धारण किया है अतएव आपका यह क्रोध उसके प्रति आपकी कृपा ही समझी जानी चाहिए।
35 क्या हमारे पति ने पूर्वजन्म में गर्वरहित होकर तथा अन्यों के प्रति आदरभाव से पूरित होकर सावधानी से तपस्या की थी? क्या इसीलिए आप उससे प्रसन्न हैं? अथवा क्या उसने किसी पूर्वजन्म में समस्त जीवों के प्रति दयापूर्वक धार्मिक कर्तव्य पूरा किया था और क्या इसीलिए समस्त जीवों के प्राणाधार आप अब उससे संतुष्ट हैं?
36-37 हे प्रभु, हम नहीं जानतीं कि इस कालिय नाग ने किस तरह आपके चरणकमलों की धूल को स्पर्श करने का सुअवसर प्राप्त किया। इसके लिए तो लक्ष्मीजी ने अन्य सारी इच्छाएँ त्यागकर कठोर व्रत धारण करके सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की थी। जिन्होंने आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त कर ली है वे न तो स्वर्ग का राज्य, न असीम वर्चस्व, न ब्रह्मा का पद, न ही पृथ्वी का साम्राज्य चाहते हैं। उन्हें योग की सिद्धियों अथवा मोक्ष तक में कोई रुचि नहीं रहती।
38 हे प्रभु, यद्यपि इस सर्पराज कालिय का जन्म तमोगुण में हुआ है और यह क्रोध के वशीभूत है किन्तु इसने अन्यों के लिए जो दुष्प्राप्य है उसे भी प्राप्त कर लिया है। इच्छाओं से पूर्ण होकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में भ्रमण करनेवाले देहधारी जीव आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त करने से ही अपने समक्ष सारे आशीर्वादों को प्रकट होते देख सकते हैं।
39-40 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करती हैं। यद्यपि आप सभी जीवों के हृदयों में परमात्मा रूप में स्थित हैं, तो भी आप सर्वव्यापक हैं। यद्यपि आप सभी उत्पन्न भौतिक तत्त्वों के आदि आश्रय हैं किन्तु आप उनके सृजन के पूर्व से विद्यमान हैं। यद्यपि आप हर वस्तु के कारण हैं किन्तु परमात्मा होने से आप भौतिक कार्य-कारण से परे हैं। हे परम सत्य, हम आपको नमस्कार करती हैं। आप समस्त दिव्य चेतना एवं शक्ति के आगार हैं और अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं। यद्यपि आप भौतिक गुणों एवं विकारों से पूर्णतया मुक्त हैं किन्तु आप भौतिक प्रकृति के आदि संचालक हैं।
41 हम आपको नमस्कार करती हैं। आप साक्षात काल, काल के आश्रय तथा काल की विभिन्न अवस्थाओं के साक्षी हैं। आप ब्रह्माण्ड हैं और इसके पृथक दृष्टा भी हैं। आप इसके स्रष्टा हैं और इसके समस्त कारणों के कारण हैं।
42-44 आप भौतिक तत्त्वों के, अनुभूति के सूक्ष्म आधार के, इन्द्रियों के, प्राणवायु के तथा मन, बुद्धि एवं चेतना के परमात्मा हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। आपकी ही व्यवस्था के फलस्वरूप सूक्ष्मतम चिन्मय आत्माएँ प्रकृति के तीनों गुणों के रूप में अपनी झूठी पहचान बनाती हैं। फलस्वरूप उनकी स्व की अनुभूति प्रच्छन्न हो जाती है। हे अनन्त भगवान, हे परम सूक्ष्म एवं सर्वज्ञ भगवान, हम आपको प्रणाम करती हैं, जो सदैव स्थायी दिव्यता में विद्यमान रहते हैं, विभिन्न वादों के विरोधी विचारों को स्वीकृति देते हैं और व्यक्त विचारों तथा उनको व्यक्त करनेवाले शब्दों को प्रोत्साहन देने वाली शक्ति हैं। समस्त प्रमाणों के आधार, शास्त्रों के प्रणेता तथा परम स्रोत, इन्द्रिय तृप्ति को प्रोत्साहित करनेवाले (प्रवृत्ति मार्ग) तथा भौतिक जगत से विराग उत्पन्न करनेवाले वैदिक साहित्य में अपने को प्रकट करनेवाले, आपको हम बारम्बार नमस्कार करती हैं।
45-46 हम वसुदेव के पुत्र, भगवान कृष्ण तथा भगवान राम को और भगवान पद्युम्न तथा भगवान अनिरुद्ध को सादर नमस्कार करती हैं। हम विष्णु के समस्त सन्त सदृश भक्तों के स्वामी को सादर नमस्कार करती हैं। नाना प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक गुणों को प्रकट करनेवाले, हे भगवन, आपको हमारा नमस्कार। आप अपने को भौतिक गुणों से छिपा लेते हैं किन्तु अन्ततः उन्हीं भौतिक गुणों के अन्तर्गत हो रहे कार्य आपके अस्तित्व को प्रकट कर देते हैं। आप साक्षी रूप में भौतिक गुणों से पृथक रहते हैं और एकमात्र अपने भक्तों द्वारा भलीभाँति ज्ञेय हैं।
47-48 हे इन्द्रियों के स्वामी, ऋषिकेश, हम आपको नमस्कार करती हैं क्योंकि आपकी लीलाएँ अचिन्त्य रूप से महिमामयी हैं। आपके अस्तित्व को समस्त दृश्य जगत के लिए स्रष्टा तथा प्रकाशक की आवश्यकता से समझा जा सकता है। यद्यपि आपके भक्त आपको इस रूप में समझ सकते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप आत्मलीन रहकर मौन बने रहते हैं। उत्तम तथा अधम समस्त वस्तुओं के गन्तव्य को जाननेवाले तथा समस्त जगत के अध्यक्ष नियन्ता आपको हमारा नमस्कार। आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि से पृथक हैं फिर भी आप वह मूलाधार हैं जिस पर भौतिक सृष्टि की माया का विकास होता है। आप इस माया के साक्षी भी हैं। निस्सन्देह आप अखिल जगत के मूल कारण हैं।
49-50 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, यद्यपि आपके भौतिक कर्म में फँसने का कोई कारण नहीं है, फिर भी आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार की व्यवस्था करने के लिए अपनी शाश्वत कालशक्ति के माध्यम से कर्म करते हैं। इसे आप सृजन के पूर्व सुप्त पड़े प्रकृति के प्रत्येक गुण के विशिष्ट कार्य को जाग्रत करते हुए सम्पन्न करते हैं। ब्रह्माण्ड-नियंत्रण के इन सारे कार्यों को आप खेल खेल में केवल अपनी चितवन से पूर्णतया सम्पन्न कर देते हैं। इसलिए तीनों लोकों में सारे भौतिक शरीर – जो सतोगुणी होने के कारण शान्त हैं, जो रजोगुणी होने से विक्षुब्ध हैं तथा जो तमोगुणी होने से मूर्ख हैं – आपकी ही सृष्टियाँ हैं। तो भी जिनके शरीर सतोगुणी हैं, वे आपको विशेष रूप से प्रिय हैं और उन्हीं के पालन हेतु तथा उन्हीं के धर्म की रक्षा करने के लिए ही अब आप इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं।
51 स्वामी को चाहिए कि अपनी सन्तान या प्रजा द्वारा किये गये अपराध को कम से कम एक बार तो सह ले। इसलिए हे परम शान्त आत्मन, आप हमारे इस मूर्ख पति को क्षमा कर दें जो यह नहीं समझ पाया कि आप कौन हैं।
52 हे भगवन आप हम पर कृपालु हों। साधु पुरुष को हम-जैसी स्त्रियों पर दया करना उचित है। यह सर्प अपना प्राण त्यागने ही वाला है। कृपया हमारे जीवन तथा आत्मा रूप हमारे पति को हमें वापस कर दें।
53 अब कृपा करके अपनी दासियों को बतलायें कि हम क्या करें। यह निश्चित है कि जो भी आपकी आज्ञा को श्रद्धापूर्वक पूरा करता है, वह स्वतः सारे भय से मुक्त हो जाता है।
54 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह नागपत्नियों द्वारा प्रशंसित भगवान ने उस कालिय सर्प को छोड़ दिया, जो मूर्छित होकर गिर चुका था और जिसके सिर भगवान के चरणकमलों के प्रहार से क्षत-विक्षत हो चुके थे।
55 धीरे-धीरे कालिय को अपनी जीवनी शक्ति तथा इन्द्रियों की क्रियाशीलता प्राप्त हो गई। तब कष्टपूर्वक जोर-जोर से साँस लेते हुए बेचारे सर्प ने विनीत भाव से भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित किया।
56 कालिय नाग ने कहा: सर्प के रूप में जन्म से ही हम ईर्ष्यालु, अज्ञानी तथा निरन्तर क्रुद्ध बने हुए हैं। हे नाथ, मनुष्यों के लिए अपना बद्ध स्वभाव, जिससे वे असत्य से अपनी पहचान करते हैं, छोड़ पाना अत्यन्त कठिन है।
57 हे परम विधाता, आप ही भौतिक गुणों की विविध व्यवस्था से निर्मित इस ब्रह्माण्ड के बनाने वाले हैं। इस प्रक्रिया में आप नाना प्रकार के व्यक्तित्व तथा योनियाँ, नाना प्रकार के ऐन्द्रिय तथा शारीरिक शक्तियाँ तथा भाँति भाँति की मनोवृत्तियों एवं आकृतियों वाले माता-पिताओं को प्रकट करते हैं।
58 हे भगवन, आपकी भौतिक सृष्टि में जितनी भी योनियाँ है उनमें से हम सर्पगण स्वभाव से सदैव क्रोधी हैं। इस तरह आपकी दुस्त्यज मायाशक्ति से मुग्ध होकर भला हम उस स्वभाव को अपने आप कैसे त्याग सकते हैं?
59 हे ईश्वर, ब्रह्माण्ड के सर्वज्ञ भगवान होने के कारण आप मोह से छूटने के वास्तविक कारण हैं। कृपा करके आप जो भी उचित समझें, हमारे लिए व्यवस्था करें, चाहे हम पर कृपा करें या दण्ड दें।
60 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कालिय के शब्द सुनकर मनुष्य की भूमिका सम्पन्न कर रहे भगवान ने उत्तर दिया: हे सर्प, अब तुम यहाँ और अधिक मत रुको। तुरन्त ही अपने बच्चों, पत्नियों, अन्य मित्रों तथा सम्बन्धियों समेत समुद्र में लौट जाओ। अब इस नदी को गौवों तथा मनुष्यों द्वारा भोगी जाने दो।
61 यदि कोई व्यक्ति तुम्हें दिये गये मेरे इस आदेश का (वृन्दावन छोड़कर समुद्र में जाने का) स्मरण करता है और प्रातः तथा संध्या समय इस कथा को बाँचता है, तो वह तुमसे कभी भयभीत नहीं होगा।
62-63 यदि कोई व्यक्ति मेरी क्रीड़ा के इस स्थल पर स्नान करता है और इस सरोवर का जल देवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों को अर्पित करता है अथवा यदि कोई उपवास करता है, मेरी पूजा करता है और मेरा स्मरण करता है, तो वह समस्त पापों से अवश्य छूट जाएगा। तुम गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस सरोवर में शरण लेने आये थे। किन्तु अब तुम्हारे ऊपर मेरे चरणचिन्ह अंकित होने से, गरुड़ तुम्हें खाने का प्रयास कभी नहीं करेगा।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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