jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय छिहत्तर – शाल्व तथा वृष्णियों के मध्य युद्ध (10.76)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, अब उन भगवान कृष्ण द्वारा सम्पन्न एक अन्य अद्भुत कार्य सुनो, जो दिव्य लीलाओं का आनन्द लेने के लिए अपने मानव शरीर में प्रकट हुए। अब सुनो कि उन्होंने किस तरह सौभपति का वध किया।

2 शाल्व शिशुपाल का मित्र था। जब वह रुक्मिणी के विवाह में सम्मिलित हुआ था, तो यदुवीरों ने उसे जरासन्ध तथा अन्य राजाओं समेत युद्ध में परास्त कर दिया था।

3 शाल्व ने समस्त राजाओं के सामने प्रतिज्ञा की, “मैं पृथ्वी को यादवों से विहीन कर दूँगा, जरा मेरे पराक्रम को देखो।"

4 यह प्रतिज्ञा कर चुकने के बाद वह मूर्ख राजा प्रतिदिन मात्र एक मुट्ठी धूल फाँककर भगवान पशुपति (शिव) की पूजा करने लगा।

5 भगवान उमापति शीघ्र प्रसन्न होने वाले अर्थात आशुतोष कहलाते हैं, फिर भी उन्होंने अपनी शरण में आये शाल्व को एक वर्ष के बाद ही यह कहकर तुष्ट किया कि तुम जो वर चाहो माँग सकते हो।

6 शाल्व ने ऐसा यान चुना, जो न तो देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गन्धर्वों, उरगों और न ही राक्षसों द्वारा नष्ट किया जा सके और जो उसकी इच्छानुसार कहीं भी यात्रा करा सके और वृष्णियों को भयभीत कर सके।

7 शिवजी ने कहा,ऐसा ही हो।" उनके आदेश पर अपने शत्रुओं के नगरों को जीत लेने वाले मय दानव ने एक लोहे की उड़न नगरी बनाई, जिसका नाम सौभ था और लाकर शाल्व को भेंट कर दी।

8 यह दुर्दम्य यान अंधकार से पूर्ण था और कहीं भी जा सकता था। इसे प्राप्त करने पर शाल्व अपने प्रति वृष्णियों की शत्रुता स्मरण करते हुए द्वारका गया।

9-11 हे भरतश्रेष्ठ, शाल्व ने विशाल सेना के साथ नगर को घेर लिया और बाहरी वाटिकाओं तथा उद्यानों, अट्टालिकाओं समेत महलों, गोपुरों तथा चार दीवारियों के साथ-साथ सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों को भी ध्वस्त कर दिया। उसने अपने इस उत्कृष्ट यान से पत्थरों, वृक्ष के तनों, वज्रों, सर्पों, ओलों इत्यादि हथियारों की वर्षा की। एक भीषण बवण्डर उठ खड़ा हुआ और उसने धूल से सारी दिशाओं को ओझल बना दिया।

12 हे राजन, इस तरह सौभ विमान द्वारा बुरी तरह सताये जाने से कृष्ण की पुरी में अमन-चैन नहीं रहा, जिस तरह असुरों की तीन हवाई-नगरियों द्वारा आक्रमण किये जाने पर पृथ्वी अशान्त हो गई थी।

13 अपनी प्रजा को इस प्रकार सताई जाते देखकर यशस्वी तथा वीर भगवान प्रद्युम्न ने उनसे इस प्रकार कहा, “डरो मत" तथा वे अपने रथ पर सवार हो गये।

14-15 रथियों के प्रमुख सेनापति यथा सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, अक्रूर तथा उसके छोटे भाई और उनके साथ ही हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शुक तथा सारण अनेक अन्य प्रमुख धनुर्धरों के साथ कवच धारण करके तथा रथों, हाथियों और घोड़ों पर सवार सैनिकों एवं पैदल सिपाहियों की टुकड़ियों से सुरक्षित होकर नगर से बाहर आ गये।

16 तब शाल्व की सेनाओं तथा यदुओं के बीच रोंगटे खड़ा कर देने वाला भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ यह असुरों तथा देवताओं के मध्य हुए महान युद्ध के तुल्य था।

17 प्रद्युम्न ने अपने दैवी हथियारों से शाल्व की सारी माया को क्षणभर में उसी तरह नष्ट कर दिया, जिस तरह सूर्य की तप्त किरणें रात्रि के अँधेरे को दूर कर देती हैं।

18-19 प्रद्युम्न के सारे तीरों के पुछल्ले सोने के, सिरे लोहे के तथा जोड़ एकदम सपाट थे। उन्होंने पच्चीस तीरों से शाल्व के प्रधान सेनापति द्युमान को मार गिराया और एक सौ तीरों से शाल्व पर प्रहार किया, फिर शाल्व के हर अधिकारी को एक-एक तीर से, सारथियों में से प्रत्येक को दस-दस तीरों से तथा उसके घोड़ों एवं अन्य वाहनों को तीन-तीन बाणों से बेध डाला।

20 यशस्वी प्रद्युम्न को – ऐसा चकित करनेवाला तथा बलशाली कर्म करते देखकर दोनों पक्षों के सैनिकों ने उनकी प्रशंसा की।

21 मय दानव द्वारा निर्मित यह मायावी विमान एक क्षण अनेक एक जैसे रूपों में प्रकट होता और दूसरे क्षण पुनः केवल एक रूप में दिखता। कभी यह दिखता और कभी नहीं दिखता था। इस तरह शाल्व के विरोधी यह निश्चित नहीं कर पाते थे कि वह कहाँ है।

22 एक क्षण से दूसरे क्षण में सौभ विमान पृथ्वी में, आकाश में, पर्वत की चोटी पर या जल में दिखता था। घूमते हुए अग्नि-पुंज की तरह यह कभी एक स्थान पर नहीं टिकता था।

23 शाल्व जहाँ जहाँ अपने सौभ यान तथा अपनी सेना के साथ प्रकट होता, वहाँ वहाँ यदु-सेनापति अपने बाण छोड़ते।

24 अपने शत्रु के बाणों से त्रस्त हो रही अपनी सेना को देखकर शाल्व मोहग्रस्त हो गया, क्योंकि शत्रु के बाण अग्नि तथा सूर्य की तरह प्रहार कर रहे थे और सर्प-विष की तरह असह्य हो रहे थे।

25 चूँकि वृष्णि-कुल के वीरगण इस जगत में तथा अगले लोक में विजय पाने के लिए उत्सुक थे, इसलिए उन्होंने रणभूमि में अपने नियत स्थानों का परित्याग नहीं किया, यद्यपि शाल्व के सेनापतियों द्वारा चलाये गये हथियारों की वर्षा से उन्हें त्रास हो रहा था।

26 शाल्व का मंत्री द्युमान, जो इसके पूर्व भी श्री प्रद्युम्न द्वारा घायल कर दिया गया था, अब जोर से गरजता हुआ उनके पास आया और उसने उन पर काले इस्पात की बनी अपनी गदा से प्रहार किया।

27 प्रद्युम्न के सारथी दारुक-पुत्र ने सोचा कि उसके वीर स्वामी की छाती गदा से क्षत-विक्षत हो चुकी है, अतः उसने अपने धार्मिक कर्तव्य को भलीभाँति जानते हुए प्रद्युम्न को युद्धभूमि से हटा लिया।

28 तुरन्त ही होश आने पर भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न ने अपने सारथी से कहा, “हे सारथी, यह निन्दनीय है कि तुम मुझे युद्धक्षेत्र से हटा लाये हो।"

29 “मेरे अतिरिक्त यदुवंश के जन्मे किसी ने कभी युद्धभूमि का परित्याग नहीं किया। अब तो मेरी ख्याति एक सारथी द्वारा कलंकित हो चुकी है, जो एक नपुंसक की तरह सोचता है।

30 मैं अपने पिता-द्वय राम तथा केशव से क्या कहूँगा, जब युद्ध से यों ही भागकर मैं उनके पास वापस जाऊँगा? मैं उनसे क्या कह पाऊँगा, जो मेरी प्रतिष्ठा के अनुरूप हो?

31 “निश्चय ही मेरी भाभियाँ मुझ पर हँसेगी और कहेंगी, “हे वीर, हमें यह तो बताओ कि किस तरह इस संसार में तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हें युद्ध में ऐसा कायर बना दिया।"

32 सारथी ने उत्तर दिया: हे दीर्घायु, मैंने अपने निर्दिष्ट कर्तव्य को अच्छी तरह जानते हुए ही ऐसा किया है। हे प्रभु, सारथी को चाहिए कि जब उसका स्वामी संकट में हो, तो उसकी रक्षा करे और स्वामी को भी चाहिए कि वह अपने सारथी की रक्षा करे।

33 इस नियम को मन में रखते हुए मैंने आपको युद्धस्थल से हटा लिया, क्योंकि आप अपने शत्रु की गदा से आहत होकर बेहोश हो गये थे और मैंने सोचा कि आप बुरी तरह से घायल हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय पचहत्तर – दुर्योधन का मानमर्दन (10.75)

1-2 महाराज परीक्षित ने कहा: हे ब्राह्मण, मैंने आपसे जो कुछ सुना उसके अनुसार, एकमात्र दुर्योधन के अतिरिक्त, वहाँ एकत्रित समस्त राजा, ऋषि तथा देवतागण अजातशत्रु राजा के राजसूय उत्सव को देखकर परम हर्षित थे। हे प्रभु, कृपा करके मुझसे कहें कि ऐसा क्यों हुआ?

3 श्री बादरायणि ने कहा: तुम्हारे सन्त सदृश दादा के राजसूय यज्ञ में उनके प्रेम से बँधे हुए उनके पारिवारिक सदस्य उनकी ओर से विनीत सेवा कार्य में संलग्न थे।

4-7 भीम रसोई की देख-रेख कर रहे थे, दुर्योधन कोष की देखभाल कर रहा था और सहदेव अतिथियों के सादर स्वागत में लगे थे। नकुल सारी सामग्री जूटा रहे थे, अर्जुन गुरुजनों की सेवा में रत थे जबकि कृष्ण हर एक के पाँव पखार रहे थे। द्रौपदी भोजन परोस रही थीं और दानी कर्ण उपहार दे रहे थे। अन्य अनेक लोग यथा युयुधान, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा तथा बाह्लीक के अन्य पुत्र एवं सन्तर्दन भी उस विशाल यज्ञ में विविध कार्यों में स्वेच्छा से लगे हुए थे। हे राजश्रेष्ठ, उन्होंने महाराज युधिष्ठिर को प्रसन्न करने की अपनी उत्सुकता से ही ऐसा किया।

8 जब सारे पुरोहित, प्रमुख प्रतिनिधि, विद्वान सन्त तथा राजा के घनिष्ठ हितैषी मधुर शब्दों, शुभ उपहारों तथा विविध भेंटों रूपी दक्षिणा से भलीभाँति सम्मानित किये जा चुके और जब चेदिराज सात्वतों के प्रभु के चरणकमलों में प्रविष्ट हो चुका, तो दैवी नदी यमुना में अवभृथ स्नान सम्पन्न किया गया।

9 अवभृथ स्नानोत्सव के समय अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे, जिनमें मृदंग, शंख, पणव, धुंधुरी, आनक तथा गोमुख थे।

10 नर्तकियों ने अधिक मुदित होकर नृत्य किया, गायकों ने सामूहिक रूप में गाया और वीणा, वंशी तथा मंजीरे की तेज आवाज बहुत दूर स्वर्गलोक तक पहुँच गई।

11 तब सोने के हार पहने हुए सारे राजा यमुना नदी की ओर चल पड़े। उनके साथ रंग-बिरंगे झण्डे तथा पताकाएँ थीं और उनके साथ साथ पैदल सेना, शाही हाथियों, रथों तथा घोड़ों पर सवार सुसज्जित सिपाही थे।

12 जुलूस में यजमान युधिष्ठिर महाराज के पीछे पीछे चल रहीं यदुओं, सृञ्जयों, काम्बोजों, कुरुओं, केकयों तथा कोशलवासियों की समुचित सेनाओं ने धरती को हिला दिया।

13 सभासदों, पुरोहितों तथा अन्य उत्तम ब्राह्मणों ने जोर-जोर से वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया, जबकि देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा गन्धर्वों ने यशोगान किया और फूलों की वर्षा की।

14 चन्दन-लेप, पुष्प-मालाओं, आभूषण तथा उत्तम वस्त्र से सज्जित सारे पुरुषों तथा स्त्रियों ने विविध द्रवों को एक-दूसरे पर मलकर तथा छिड़क कर खूब खिलवाड़ किया।

15 पुरुषों ने वारंगनाओं के शरीरों को बहुत सारा तेल, दही, सुगन्धित जल, हल्दी तथा कुमकुम चूर्ण से पोत दिया और पलटकर उन स्त्रियों ने पुरुषों के शरीरों में वैसी ही वस्तुएँ पोत दीं।

16 इस दृश्य को देखने के लिए अपने-अपने रथों में सवार होकर तथा अंगरक्षकों से घिरकर राजा युधिष्ठिर की रानियाँ बाहर आ गई, मानों आकाश में दैवी विमानों में देवताओं की पत्नियाँ प्रकट हुई हों। जब ममेरे भाइयों तथा उनके घनिष्ठ मित्रों ने रानियों पर द्रव पदार्थ छिड़के तो उनके मुख लजीली मुसकान से खिल उठे, जिससे उनके भव्य सौंदर्य में वृद्धि हो गई।

17 जब रानियों ने अपने देवरों तथा अन्य पुरुष संगियों पर पिचकारियाँ चलाई, तो उनके वस्त्र भीग गए, जिससे उनकी बाँहें, जाँघें तथा कमर आदि अंग झलकने लगे। उल्लास में उनके जूड़े ढीले होने से उनमें बँधे फूल गिर गये। इन मनोहारी लीलाओं से उन्होंने उन लोगों को उत्तेजित कर दिया, जिनकी चेतना दूषित थी।

18 गले की सुनहरी झालरों से युक्त उत्तम घोड़ों से खींचे जाने वाले अपने रथ पर आरूढ़ सम्राट अपनी पत्नियों के संग इतने भव्य लग रहे थे, मानों तेजस्वी राजसूय यज्ञ अपने विविध कृत्यों से घिरा हुआ हो।

19 पुरोहितों ने राजा से पत्नी-संयाज तथा अवभृथ्य के अन्तिम अनुष्ठान पूर्ण कराये। तब उन्होंने राजा तथा रानी द्रौपदी से शुद्धि के लिए जल आचमन करने एवं गंगा नदी में स्नान करने के लिए कहा।

20 देवताओं की दुन्दुभियाँ तथा मनुष्यों की दुन्दुभियाँ साथ साथ बज उठीं। देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा मनुष्यों ने फूलों की वर्षा की।

21 तत्पश्चात विभिन्न वर्णों तथा आश्रमों से सम्बद्ध नागरिकों ने उस स्थान पर स्नान किया, जहाँ पर स्नान करने से बड़ा से बड़ा पापी भी पापों के फल से तुरन्त मुक्त हो जाता है।

22 इसके बाद राजा ने नये रेशमी वस्त्र धारण किये और अपने को सुन्दर आभूषणों से अलंकृत किया। तत्पश्चात उन्होंने पुरोहितों, सभा के सदस्यों, विद्वान ब्राह्मणों तथा अन्य अतिथियों को आभूषण तथा वस्त्र भेंट करके उनका सम्मान किया।

23 भगवान नारायण के प्रति पूर्णतया समर्पित राजा युधिष्ठिर अपने सम्बन्धियों, परिवार वालों, अन्य राजाओं, अपने मित्रों, शुभचिन्तकों तथा वहाँ पर उपस्थित सारे लोगों का निरन्तर सम्मान करते रहे।

24 वहाँ पर उपस्थित सारे पुरुष देवताओं जैसे चमक रहे थे। वे रत्नजटित कुण्डलों, फूल की मालाओं, पगड़ियों, अंगरखों, रेशमी धोतियों तथा कीमती मोतियों की मालाओं से सज्जित थे। स्त्रियों के सुन्दर मुखड़े उनसे मेल खा रहे कुण्डलों तथा केश-गुच्छों से सुशोभित हो रहे थे और वे सुनहरी करधनियाँ पहने थीं।

25-26 तत्पश्चात हे राजन, अत्यन्त सुसंस्कृत पुरोहितगण, महान वैदिक विशेषज्ञ, जो यज्ञ-साक्षियों के रूप में सेवा कर चुके थे, विशेष रूप से आमंत्रित राजागण, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, देवता, ऋषि, पितर, भूत-प्रेत, मुख्य लोकपाल तथा उनके अनुयायीगण – ये सारे लोग राजा युधिष्ठिर से पूजे जाने के बाद उनकी अनुमति लेकर अपने अपने घरों के लिए प्रस्थान कर गये।

27 वे उस राजर्षि तथा हरि-सेवक द्वारा सम्पन्न अद्भुत राजसूय यज्ञ की प्रशंसा करते अघा नहीं रहे थे, जिस तरह सामान्य व्यक्ति अमृत पीते नहीं अघाता।

28 उस समय राजा युधिष्ठिर ने अपने अनेक मित्रों, निकट सम्बन्धियों तथा बान्धवों को जाने से रोक लिया, जिनमें कृष्ण भी थे। प्रेम के वशीभूत युधिष्ठिर ने उन्हें जाने नहीं दिया, क्योंकि उन्हें आसन्न विरह की पीड़ा अनुभव हो रही थी।

29 हे परीक्षित, साम्ब तथा अन्य यदु-वीरों को द्वारका वापस भेजकर भगवान राजा को प्रसन्न करने के लिए कुछ काल तक वहाँ ठहर गये।

30 इस तरह धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर भगवान कृष्ण की कृपा से अपनी इच्छाओं के विशाल एवं दुर्लंघ्य समुद्र को भलीभाँति पार करके अपनी उत्कट महत्त्वाकांक्षा से मुक्त हो गये।

31 एक दिन दुर्योधन राजा युधिष्ठिर के महल के ऐश्वर्य को देखकर राजसूय यज्ञ तथा यज्ञकर्ता राजा की महानता से, जिसका जीवन तथा आत्मा अच्युत भगवान थे, अत्यधिक विचलित हुआ।

32 उस महल में मनुष्यों, दानवों, देवताओं तथा राजाओं के समस्त संचित ऐश्वर्य जगमगा रहे थे, जो मय दानव ले आया था। उस ऐश्वर्य से द्रौपदी अपने पतियों की सेवा करती थी, किन्तु कुरु-राजकुमार दुर्योधन सन्तप्त था, क्योंकि वह उसके प्रति अत्यधिक आकृष्ट था।

33 भगवान मधुपति की हजारों रानियाँ भी महल में ठहरी हुई थीं। उनके हिलते कुण्डलों तथा लहराते बालों से उनके मुखों की शोभा बढ़ रही थी।

34-35 धर्मपुत्र सम्राट युधिष्ठिर मय दानव द्वारा निर्मित सभाभवन में स्वर्ण सिंहासन पर इन्द्र के समान विराजमान थे। उनके साथ उनके परिचारक तथा परिवार वाले लोगों के अतिरिक्त उनके विशेष नेत्रस्वरूप भगवान कृष्ण भी थे। साक्षात ब्रह्मा के ऐश्वर्य को प्रदर्शित कर रहे राजा युधिष्ठिर राजकवियों द्वारा प्रशंसित हो रहे थे।

36 अभिमानी दुर्योधन अपने हाथ में तलवार लिये और मुकुट तथा हार पहने क्रोध से भरा अपने भाइयों के साथ महल में गया। हे राजन, महल में प्रवेश करते समय उसने द्वारपालों का अपमान किया।

37 मय दानव के जादू से निर्मित भ्रम से मोहग्रस्त होकर दुर्योधन ठोस फर्श को जल समझ बैठा, अतः उसने अपने वस्त्र का निचला सिरा ऊपर उठा लिया। अन्यत्र जल को ठोस फर्श समझ लेने से वह जल में गिर गया।

38 हे परीक्षित, यह देखकर भीम हँस पड़े और उसी तरह स्त्रियाँ, राजा तथा अन्य लोग भी हँसे। राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोकना चाहा, किन्तु भगवान कृष्ण ने अपनी सहमति प्रदर्शित की।

39 लज्जित एवं क्रोध से जलाभुना दुर्योधन अपना मुँह नीचा किये, बिना कुछ कहे, वहाँ से निकल गया और हस्तिनापुर चला गया। उपस्थित सन्त-पुरुष जोर-जोर से कह उठे, “हाय! हाय!” और राजा युधिष्ठिर कुछ दुखी हो गये। किन्तु भगवान, जिनकी चितवन मात्र से दुर्योधन मोहित हो गया था, मौन बैठे रहे, क्योंकि उनकी मंशा पृथ्वी के भार को हटाने की थी।

40 हे राजन, अब मैं तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ कि दुर्योधन महान राजसूय यज्ञ के अवसर पर क्यों असंतुष्ट था।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चौहत्तर राजसूय यज्ञ में शिशुपाल का उद्धार (10.74) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार जरासन्ध वध तथा सर्वशक्तिमान कृष्ण की अद्भुत शक्ति के विषय में भी सुनकर राजा युधिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान से इस प्रकार कहा।

2 श्री युधिष्ठिर ने कहा: तीनों लोकों के प्रतिष्ठित गुरु तथा विभिन्न लोकों के निवासी एवं शासक आपके आदेश को, जो विरले ही किसी को मिलता है, सिर-आँखों पर लेते हैं।

3 वही कमलनेत्र भगवान आप उन दीन मूर्खों के आदेशों को स्वीकार करते हैं, जो अपने आपको शासक मान बैठते हैं, जबकि हे सर्वव्यापी, यह आपके पक्ष में महान आडम्बर है।

4 किन्तु वस्तुतः परम सत्य, परमात्मा, अद्वितीय आदि पुरुष का तेज उनके कर्मों से न तो किसी प्रकार बढ़ता है, न घटता है, जिस प्रकार सूर्य का तेज उसकी गति से घटता-बढ़ता नहीं है।

5 हे अजित माधव, आपके भक्त तक "मैं तथा मेरा" और "तुम तथा तुम्हारा" में कोई अन्तर नहीं मानते, क्योंकि यह तो पशुओं की विकृत प्रवृत्ति है।

6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह कहकर राजा युधिष्ठिर ने तब तक प्रतीक्षा की जब तक यज्ञ का उपयुक्त समय निकट नहीं आ गया। तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ कराने के लिए उन उपयुक्त पुरोहितों का चुनाव किया, जो विद्वान थे।

7-9 उन्होंने कृष्ण-द्वैपायन, भरद्वाज, सुमन्त, गौतम तथा असित के साथ ही वसिष्ठ, च्यवन, कन्व, मैत्रेय, कवष, तथा त्रित को चुना। उन्होंने विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनी, क्रतु, पैल तथा पराशर एवं गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, भृगुवंशी, परशुराम, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन तथा अकृतव्रण को भी चुना।

10-11 हे राजन, जिन अन्य लोगों को आमंत्रित किया गया था उनमें द्रोण, भीष्म, कृप, पुत्रों सहित धृतराष्ट्र, महामति विदुर तथा यज्ञ देखने के लिए उत्सुक अन्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सम्मिलित थे। हाँ, सारे राजा दल-बल सहित वहाँ पधारे थे।

12 तत्पश्चात ब्राह्मण पुरोहितों ने यज्ञस्थली की सोने के हल से जुताई की और प्रामाणिक विद्वानों द्वारा नियत प्रथाओं के अनुसार यज्ञ के लिए राजा युधिष्ठिर को दीक्षा दी।

13-15 यज्ञ के निमित्त पात्र सोने के बने थे जिस तरह कि प्राचीनकाल में भगवान वरुण द्वारा सम्पन्न हुए यज्ञ में थे। इन्द्र, ब्रह्मा, शिव और अनेक लोकपाल, सिद्ध तथा गन्धर्व एवं उनके पार्षद, विद्याधर, महान सर्प, मुनि, यक्ष, राक्षस, दैवी पक्षी, किन्नर, चारण तथा पार्थिव राजा--सभी को आमंत्रित किया गया था और वे पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सभी दिशाओं से आये थे। वे यज्ञ के ऐश्वर्य को देखकर रंचमात्र भी चकित नहीं हुए, क्योंकि कृष्णभक्त के लिए यही सर्वथा उपयुक्त था।

16 देवताओं के सदृश शक्तिसम्पन्न पुरोहितों ने वैदिक आदेशों के अनुसार राजा युधिष्ठिर के लिए उसी तरह राजसूय यज्ञ सम्पादित किया जिस तरह पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण के लिए किया था।

17 सोमरस निकालने के दिन राजा युधिष्ठिर ने अच्छी तरह तथा बड़े ही ध्यानपूर्वक पुरोहितों की एवं सभा के श्रेष्ठ पुरुषों की पूजा की।

18 तब सभासदों ने विचार-विमर्श किया कि उनमें से किसकी सबसे पहले पूजा की जाय, क्योंकि अनेक व्यक्ति इस सम्मान के योग्य थे अतः वे निश्चय कर पाने में असमर्थ थे। अन्त में सहदेव बोल पड़े।

19 सहदेव ने कहा: निश्चय ही भगवान अच्युत तथा यादवों के प्रमुख ही इस सर्वोच्च पद के योग्य हैं। सच तो यह है कि वे यज्ञ में पूजे जाने वाले समस्त देवताओं से तथा साथ ही पूजा के पवित्र स्थान, समय तथा साज-सामान जैसे पक्षों से समन्वित हैं।

20-21 यह समस्त ब्रह्माण्ड उन्हीं पर टिका है, महान यज्ञों का सम्पन्न किया जाना, उनकी पवित्र अग्नियाँ, आहुतियाँ तथा मंत्र भी उन्हीं पर टिकी हैं। सांख्य तथा योग दोनों ही उन अद्वितीय को अपना लक्ष्य बनाते हैं। हे सभासदों, वह अजन्मा भगवान एकमात्र अपने पर निर्भर रहते हुए इस जगत को अपनी निजी शक्तियों से उत्पन्न करता है, पालता और विनष्ट करता है। इस तरह इस ब्रह्माण्ड का अस्तित्व एकमात्र उन्हीं पर निर्भर करता है।

22 वे इस जगत में विभिन्न कर्मों को उत्पन्न करते हैं और इस तरह उनकी ही कृपा से सारा संसार धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के आदर्शों के लिए प्रयत्नशील रहता है।

23 इसलिए हमें चाहिए कि भगवान कृष्ण को सर्वोच्च सम्मान दें। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम सारे जीवों का सम्मान तो करेंगे ही, साथ ही अपने आपको भी सम्मान देंगे।

24 जो भी व्यक्ति यह चाहता हो कि दिये गये सम्मान का असीम प्रतिदान मिले उसे कृष्ण का सम्मान करना चाहिए जो पूर्णतया शान्त हैं। समस्त जीवों की पूर्ण आत्मा भगवान हैं, जो किसी भी वस्तु को अपने से पृथक नहीं मानते।

25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह कहकर, भगवान कृष्ण की शक्तियों को समझने वाले सहदेव मौन हो गये और उनके शब्द सुनकर वहाँ पर उपस्थित सभी सज्जनों ने "बहुत अच्छा, बहुत अच्छा" कहकर उन्हें बधाई दी।

26 राजा ब्राह्मणों की इस घोषणा से अत्यन्त प्रसन्न हुए क्योंकि वे इससे सम्पूर्ण सभा की मनोदशा को समझ गये। उन्होंने प्रेम से विभोर होकर इन्द्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण की पूजा की।

27-28 भगवान कृष्ण के चरण पखारने के बाद महाराज युधिष्ठिर ने प्रसन्नतापूर्वक उस जल को अपने सिर पर छिड़का और उसके बाद अपनी पत्नी, भाइयों, अन्य पारिवारिक जनों तथा मंत्रियों के सिरों पर छिड़का। वह जल सारे संसार को पवित्र करने वाला है। जब उन्होंने पीले रेशमी वस्त्रों तथा बहुमूल्य रत्नजटित आभूषणों की भेंटों से भगवान को सम्मानित किया, तो राजा के अश्रुपूरित नेत्र भगवान को देख पाने में बाधक बन रहे थे।

29 कृष्ण को इस तरह सम्मानित होते देखकर वहाँ पर उपस्थित प्रायः सभी लोग सम्मान में अपने हाथ जोड़कर बोल उठे, "आपको नमस्कार, आपकी जय हो" और तब उन्हें शीश नवाया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी।

30 दमघोष का असहिष्णु पुत्र कृष्ण के दिव्यगुणों की प्रशंसा होते सुनकर क्रुद्ध हो उठा। वह अपने आसन से उठकर खड़ा हो गया और क्रोध से अपने हाथ हिलाते हुए निर्भय होकर सारी सभा के समक्ष भगवान के विरुद्ध निम्नानुसार कटु शब्द कहने लगा।

31 शिशुपाल ने कहा: वेदों का यह कथन कि समय ही सबका अनिवार्य ईश्वर है निस्सन्देह सत्य सिद्ध हुआ है, क्योंकि बुद्धिमान गुरुजनों की बुद्धि निरे बालक के शब्दों से अब चकरा गई है।

32 हे सभा-नायकों, आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि सम्मान किये जाने के लिए उपयुक्त पात्र कौन है। अतः आप लोग इस बालक के वचनों की परवाह न करें कि वह यह दावा कर रहा है कि कृष्ण पूजा के योग्य हैं।

33-34 आप लोग इस सभा के सर्वाधिक उन्नत सदस्यों को – ब्रह्म के प्रति समर्पित तपस्या की शक्ति, दैवी अन्तर्दृष्टि तथा कठोर व्रत में लगे रहने वाले, ज्ञान से पवित्र हुए तथा ब्रह्माण्ड के शासकों द्वारा भी पूजित सर्वोच्च ऋषियों को – कैसे छोड़ सकते हैं? यह ग्वालबाल, जो कि अपने कुल के लिए कलंक है, आप लोगों की पूजा के योग्य कैसे हो सकता है? क्या कौवा पवित्र प्रसाद की खीर खाने का पात्र बन सकता है?

35 जो वर्ण तथा आश्रम के या पारिवारिक शिष्टाचार के किसी भी सिद्धान्त का पालन नहीं करता, जो सारे धार्मिक कर्तव्यों से बहिष्कृत कर दिया गया है, जो मनमाना आचरण करता है तथा जिसमें कोई सद्गुण नहीं है, भला ऐसा व्यक्ति किस तरह पूजा किये जाने योग्य हो सकता है?

36 ययाति ने इन यादवों के कुल को शाप दिया था, तभी से ये लोग ईमानदार व्यक्तियों द्वारा बहिष्कृत कर दिये गये और इन्हें सुरापान की लत पड़ गई। तब भला कृष्ण पूजा के योग्य कैसे हैं?

37 इन यादवों ने ब्रह्मर्षियों द्वारा बसाई गई पवित्र भूमि को छोड़ दिया है और समुद्र में एक किले में जाकर शरण ली है, जहाँ ब्राह्मण-नियमों का पालन नहीं होता। वहाँ ये चोरों की तरह अपनी प्रजा को तंग करते है।

38 श्रील शुकदेव गोस्वामी कहते हैं: समस्त सौभाग्य से वंचित शिशुपाल ऐसे ही अन्य अपमानसूचक शब्द बोलता रहा, किन्तु भगवान ने कुछ भी नहीं कहा, जिस तरह सिंह सियार के रोदन की परवाह नहीं करता।

39 भगवान की ऐसी असह्य निन्दा सुनकर सभा के कई सदस्यों ने अपने कान बन्द कर लिये और गुस्से में चेदि-नरेश को कोसते हुए बाहर चले गये।

40 जिस स्थान पर भगवान या उनके श्रद्धावान भक्त की निन्दा होती हो, यदि मनुष्य उस स्थान को तुरन्त छोड़कर चला नहीं जाता, तो निश्चय ही वह अपने पुण्यकर्मों के फल से वंचित होकर नीचे आ गिरेगा।

41 तब पाण्डु-पुत्र क्रुद्ध हो उठे और मत्स्य, कैकय तथा सृञ्जय वंशों के योद्धाओं के साथ वे अपने अपने स्थानों पर शिशुपाल को मारने के लिए तत्पर हथियार उठाते हुए खड़े हो गये।

42 हे भारत, तब शिशुपाल ने किसी की परवाह न करते हुए वहाँ पर जुटे सारे राजाओं के बीच अपनी तलवार तथा ढाल ले ली और वह भगवान कृष्ण के पक्षधरों का अपमान करने लगा।

43 उस समय भगवान उठ खड़े हुए और उन्होंने अपने भक्तों को रोका। फिर उन्होंने क्रुद्ध होकर अपने तेज धार वाले चक्र को चलाया और आक्रमण कर रहे शत्रु का सिर काट दिया।

44 जब इस तरह शिशुपाल मार डाला गया तो भीड़ में से भारी शोर उठने लगा। इस उपद्रव का लाभ उठाकर शिशुपाल के समर्थक कुछ राजा तुरन्त ही अपने प्राणों के भय से सभा छोड़कर भाग गये।

45 शिशुपाल के शरीर से एक तेजोमय प्रकाशपुञ्ज उठा और सबके देखते देखते वह भगवान कृष्ण में उसी तरह प्रविष्ट हो गया, जिस तरह आकाश से गिरता हुआ पुच्छल तारा पृथ्वी में समा जाता है।

46 तीन जन्मों से भगवान कृष्ण के प्रति द्वेष में अभिवृद्धि से शिशुपाल को भगवान का दिव्यरूप प्राप्त हुआ। दरअसल मनुष्य की चेतना से उसका भावी जन्म निश्चित होता है।

47 सम्राट युधिष्ठिर ने यज्ञ के पुरोहितों को तथा सभासदों को उदार भाव से उपहार दिये और वेदों में संस्तुत विधि से उन सबका समुचित सम्मान किया। तत्पश्चात उन्होंने अवभृथ स्नान किया।

48 इस प्रकार योग के समस्त ईश्वरों के स्वामी श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की ओर से इस महान यज्ञ का सफल समापन करवाया। तत्पश्चात अपने घनिष्ठ मित्रों के हार्दिक अनुरोध पर वे कुछ महीनों तक वहाँ रुके रहे।

49 तब देवकी-पुत्र भगवान ने, न चाहते हुए भी, राजा से अनुमति ली और वे अपनी पत्नियों तथा मंत्रियों सहित अपनी राजधानी लौट आये।

50 मैं पहले ही तुमसे वैकुन्ठ के उन दो वासियों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ, जिन्हें ब्राह्मणों द्वारा शापित होने से भौतिक जगत में बारम्बार जन्म लेना पड़ा।

51 अन्तिम अवभृथ्य अनुष्ठान में, जो कि राजसूय यज्ञ के सफल समापन का सूचक था, पवित्र होकर राजा युधिष्ठिर एकत्र ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के बीच इस तरह चमक रहे थे, मानो साक्षात देवराज इन्द्र हों।

52 राजा द्वारा समुचित सम्मान दिये जाकर देवता, मनुष्य तथा मध्यलोक के निवासी प्रसन्नतापूर्वक कृष्ण तथा महान यज्ञ की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने लोकों के लिए रवाना हो गये।

53 पापी दुर्योधन को छोड़कर सारे लोग संतुष्ट थे, क्योंकि वह तो साक्षात कलिकाल था और कुरुवंश का रोग था। वह पाण्डु-पुत्र के वृद्धिमान ऐश्वर्य का देखना सहन नहीं कर सका।

54 जो व्यक्ति भगवान विष्णु के इन कार्यकलापों को, जिनमें शिशुपाल वध, राजाओं का मुक्त किया जाना तथा राजसूय यज्ञ का निष्पादन सम्मिलित है, सुनाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तिहत्तर – बन्दी गृह से छुड़ाये गये राजाओं को कृष्ण द्वारा आशीर्वाद (10.73)

1-6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जरासन्ध ने 20800 राजाओं को युद्ध में पराजित करके उन्हें बन्दीखाने में डाल दिया था जब ये राजा गिरिद्रोणी किले से बाहर आये, तो वे मलिन लग रहे थे और मैले वस्त्र पहने हुए थे। वे भूख के मारे दुबले हो गए थे, उनके चेहरे सूख गये थे और दीर्घकाल तक बन्दी रहने से अत्यधिक कमजोर हो गये थे। तब राजाओं ने भगवान को अपने समक्ष देखा। उनका रंग बादल के समान गहरा नीला था और वे पीले रेशम का वस्त्र पहने थे। वे अपने वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, चार विशाल भुजाओं, कमल के कोश जैसी गुलाबी रंग की आँखों, सुन्दर हँसमुख चेहरे, चमकते मकर कुण्डलों तथा हाथों में कमल, गदा, शंख तथा चक्र धारण करने से पहचाने जाते हैं। उनके शरीर में मुकुट, रत्नजटित गले की माला, सुनहरी करधनी, सुनहले कड़े तथा बाजूबन्द सुशोभित थे और वे अपने गले में चमकीली, मूल्यवान कौस्तुभ मणि तथा जंगली फूलों की माला पहने थे। सारे राजा मानो अपनी आँखों से उनके सौन्दर्य का पान कर रहे थे, जीभों से उन्हें चाट रहे थे, नथुनों से उनकी सुगन्धि का आस्वादन कर रहे थे और भुजाओं से उनका आलिंगन कर रहे थे। अब उनके विगत पापों का उन्मूलन हो चुका था। राजाओं ने भगवान हरि के चरणों पर शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया।

7 भगवान कृष्ण को देखने के आनन्द से उनके बन्दी होने की थकावट दूर हो जाने पर सारे राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गए और उन्होंने हृषिकेश की प्रशंसा की।

8 राजाओं ने कहा: हे शासनकर्ता देवताओं के स्वामी, हे शरणागत भक्तों के क्लेश को नष्ट करनेवाले, हम आपको नमस्कार करते हैं। चूँकि हमने आपकी शरण ग्रहण की है, अतः हे अव्यय कृष्ण, हमें इस विकट भौतिक जीवन से बचाईये, जिसने हमें इतना निराश बना दिया है।

9 हे प्रभु मधुसूदन, हम इस मगधराज को दोष नहीं देते क्योंकि वास्तव में यह तो आपकी कृपा है कि हे विभु, सारे राजा अपने राजपद से नीचे गिरते हैं।

10 अपने ऐश्वर्य तथा शासनशक्ति के मद से चूर राजा आत्मसंयम खो देता है और अपना असली कल्याण प्राप्त नहीं कर सकता। इस तरह आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त होकर वह अपनी क्षणिक सम्पदा को स्थायी मान बैठता है।

11 जिस तरह बालबुद्धि वाले लोग मरुस्थल में मृगतृष्णा को जलाशय मान लेते हैं, उसी तरह जो अविवेकी हैं, वे माया के विकारों को वास्तविक मान लेते हैं।

12-13 इसके पूर्व धन के मद से अन्धे होकर हमने इस पृथ्वी को जीतना चाहा था और इस तरह हम अपनी ही प्रजा को क्रूरतापूर्वक यातना देते हुए विजय पाने के लिए एक-दूसरे से लड़ते रहे। हे प्रभु, हमने दम्भ में आकर अपने समक्ष मृत्यु रूप में उपस्थित आपका अनादर किया। किन्तु हे कृष्ण, अब आपका वह शक्तिशाली स्वरूप जो काल कहलाता है और रहस्यमय ढंग से तथा दुर्दम रूप में गतिशील है उसने हमसे हमारे ऐश्वर्य छीन लिये हैं। चूँकि अब आपने दया करके हमारे गर्व को नष्ट कर दिया है, अतएव हमारी आपसे याचना है कि हम केवल आपके चरणकमलों का स्मरण करते रहें।

14 हम अब कभी भी मृगतृष्णा तुल्य ऐसे राज्य के लिए लालायित नहीं होंगे जो इस मर्त्य शरीर द्वारा सेवित हो वह शरीर जो रोग तथा कष्ट का कारण हो और प्रत्येक क्षण क्षीण होने वाले हो। हे विभु, न ही हम अगले जन्म में पुण्यकर्म के दिव्य फल भोगने की लालसा रखेंगे क्योंकि ऐसे फलों का वायदा कानों के लिए रिक्त बहलावे के समान है।

15 कृपया हमें बतलाएँ कि हम किस तरह आपके चरणकमलों का निरन्तर स्मरण कर सकें, यद्यपि हम इस संसार में जन्म-मृत्यु के चक्र में घूम रहे हैं।

16 हम वसुदेव के पुत्र भगवान कृष्ण अर्थात हरि को बारम्बार नमस्कार करते हैं। वह परमात्मा गोविन्द उन सबों के कष्टों को दूर कर देते हैं, जो उनकी शरण में जाते हैं।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह बन्धन से मुक्त हुए राजाओं ने भगवान की प्रशंसा की। तब हे परीक्षित, दयालु शरणदाता ने मधुर वाणी में उनसे कहा।

18 भगवान ने कहा: हे राजाओं, आज से तुम लोगों को मुझ परमात्मा तथा ईश्वर में दृढ़ भक्ति प्राप्त होगी। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम जैसे चाहोगे वैसे ही यह भक्ति चलती रहेगी।

19 हे राजाओं, सौभाग्यवश तुम लोगों ने सही निर्णय किया है और जो कुछ कहा है, वह सच है। मनुष्यों में आत्मसंयम के अभाव से जो कि ऐश्वर्य तथा शक्ति के मद के कारण उत्पन्न होता है, मादकता ही आती है।

20 हैहय, नहुष, वेण, रावण, नरक तथा देवताओं, पुरुषों और असुरों के अन्य अनेक शासक अपने ऊँचे पदों से इसीलिए नीचे गिरे, क्योंकि वे भौतिक ऐश्वर्य से मदोन्मत्त हो उठे थे।

21 यह समझते हुए कि यह भौतिक शरीर तथा इससे सम्बद्ध हर वस्तु का आदि तथा अन्त है, वैदिक यज्ञों के द्वारा मेरी पूजा करो और धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार विमल बुद्धि से अपनी प्रजा की रक्षा करो।

22 सन्तानों की पीढ़ियों की पीढ़ियाँ उत्पन्न करते तथा सुख-दुख, जन्म एवं मृत्यु का सामना करते तुम लोग जीवन बिताते समय सदैव अपने मन को मुझ पर स्थिर रखना।

23 शरीर तथा उससे सम्बद्ध हर वस्तु से विरक्त हो जाओ। आत्मतुष्ट रहकर अपने मन को मुझमें एकाग्र करते हुए अपने व्रतों का दृढ़ता से पालन करो। इस तरह तुम लोग अन्त में मुझ परम सत्य को प्राप्त कर सकोगे।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार राजाओं को आदेश देकर समस्त लोकों के परम स्वामी भगवान कृष्ण ने समस्त सेवकों तथा सेविकाओं को उन्हें सँवारने के काम में लगा दिया।

25 हे भारत, तब भगवान ने राजा सहदेव से वस्त्र, आभूषण, मालाएँ तथा चन्दन-लेप आदि राजोचित भेंटें दिलाकर उन राजाओं का सम्मान कराया।

26 जब वे सब भलीभाँति सज-धज गये तो भगवान कृष्ण ने उनके लिए उत्तम भोजन की व्यवस्था कराई। उन्होंने उन सबको राजोचित वस्तुएँ यथा पान इत्यादि वस्तुएँ भी भेंट कीं।

27 भगवान मुकुन्द द्वारा सम्मानित किये गये एवं कष्ट से मुक्त हुए राजागण अपने कानों के चमकते कुण्डलों सहित वैसे ही शोभायमान हुए जिस तरह वर्षा ऋतु की समाप्ति पर आकाश में चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह चमकने लगते हैं।

28 तत्पश्चात भगवान ने उन राजाओं को सुन्दर घोड़ों से खींचे जाने वाले, रत्नों एवं स्वर्ण से सुसज्जित रथों पर चढ़वाकर और मधुर शब्दों से प्रसन्न करके उन्हें उनके राज्यों में वापस भिजवा दिया।

29 इस तरह पुरुषों में महानतम कृष्ण द्वारा सारे कष्टों से मुक्त किये गये राजागण विदा हुए और जब वे जा रहे थे, तो वे एकमात्र उन ब्रह्माण्ड के स्वामी तथा उनके अद्भुत कृत्यों के विषय में ही सोच रहे थे।

30 राजाओं ने जाकर अपने मंत्रियों तथा अन्य संगियों से वे सारी बातें बतलाई जो भगवान ने कही थीं और तब उन्होंने जो आदेश दिये थे, उनका कर्मठता के साथ पालन किया।

31 भीमसेन द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर, भगवान कृष्ण ने राजा सहदेव की पूजा स्वीकार की और तब पृथा के दोनों पुत्रों के साथ विदा हुए।

32 जब वे इन्द्रप्रस्थ आ गये तो विजयी वीरों ने अपने शंख बजाये जिससे उनके शुभचिन्तक मित्रों को तो हर्ष हुआ, किन्तु उनके शत्रुओं को सन्ताप पहुँचा।

33 उस ध्वनि को सुनकर इन्द्रप्रस्थ के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए, क्योंकि वे समझ गये कि अब मगध के राजा का अन्त कर दिया गया है। राजा युधिष्ठिर ने अनुभव किया कि अब उनके मनोरथ पूरे हो गये।

34 भीम, अर्जुन तथा जनार्दन ने राजा को प्रणाम किया और जो कुछ उन्होंने किया था, वह सब उनसे कह सुनाया।

35 भगवान कृष्ण ने उन पर जो महती कृपा की थी उसका विवरण सुनकर धर्मराज ने भावातिरेक के अश्रु बहाये। उन्हें इतने प्रेम का अनुभव हुआ कि वे कुछ भी कह नहीं पाये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बहत्तर – जरासन्ध असुर का वध (10.72)

1-2 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक दिन जब राजा युधिष्ठिर राजसभा में प्रख्यात मुनियों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, भाइयों, गुरुओं, परिवार के बड़े-बूढ़ों, सगे-सम्बन्धियों, ससुराल वालों तथा मित्रों से घिरकर बैठे हुए थे, तो उन्होंने भगवान कृष्ण को सम्बोधित किया।

3 श्री युधिष्ठिर ने कहा: हे गोविन्द, मैं आपके शुभ ऐश्वर्यशाली अंशों की पूजा वैदिक उत्सवों के राजा, राजसूय यज्ञ द्वारा करना चाहता हूँ। हे प्रभु, हमारे इस प्रयास को सफल बनायें।

4 हे कमलनाभ, वे पवित्र व्यक्ति जो निरन्तर आपकी उन पादुकाओं की सेवा करते हैं, ध्यान करते हैं और उनका यशोगान करते हैं, जो समस्त अशुभ वस्तुओं को विनष्ट करने वाली हैं, उन्हें निश्चित रूप से इस भौतिक संसार से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। यदि वे इस जगत में किसी वस्तु की आकांक्षा करते हैं, तो वे उसे प्राप्त करते हैं, किन्तु हे प्रभु, अन्य लोग, जो आपकी शरण ग्रहण नहीं करते, कभी भी तुष्ट नहीं होते।

5 अतएव हे देव-देव, इस संसार के लोग देख लें कि आपके चरणकमलों में की गई भक्ति की शक्ति कितनी है। हे सर्वशक्तिमान, आप उन्हें उन कुरुओं तथा सृञ्जयों की शक्ति दिखला दें, जो आपकी पूजा करते हैं और उनकी भी स्थिति दिखला दें, जो पूजा नहीं करते।

6 आपके मन के भीतर "यह मेरा है और वह दूसरे का है" इस प्रकार का भेदभाव नहीं हो सकता, क्योंकि आप परम सत्य हैं, समस्त जीवों के आत्मा, सदैव समभाव रखनेवाले और अपने अन्तर में दिव्य आनन्द का भोग करनेवाले हैं। आप कल्पवृक्ष की तरह , उचित रूप से हर पूजने वाले को आशीर्वाद देते हैं और उनके द्वारा की गई सेवा के अनुपात में उन्हें इच्छित फल देते हैं। इसमें कोई भी दोष नहीं है।

7 भगवान ने कहा: हे राजन, तुम्हारा निर्णय सही है, अतएव हे शत्रुकर्शन, तुम्हारी कल्याणकारी ख्याति सभी लोकों में फैलेगी।

8 हे प्रभु निस्सन्देह महर्षियों, पितरों, देवताओं, शुभचिन्तक मित्रों और सारे जीवों के लिए इस वैदिक यज्ञों के राजा का सम्पन्न होना वांछनीय है।

9 सबसे पहले सारे राजाओं को जीतो, पृथ्वी को अपने अधीन करो और आवश्यक साज-सामग्री एकत्र करो, तब इस महान यज्ञ को सम्पन्न करो।

10 हे राजन, तुम्हारे इन भाइयों ने विभिन्न लोकपालों के अंशों के रूप में जन्म लिया है और तुम तो इतने आत्मसंयमी हो कि तुमने मुझे भी जीत लिया है, जबकि मैं उन लोगों के लिए दुर्जेय हूँ, जिनकी इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं है।

11 इस जगत में मेरे भक्त को देवता भी अपने बल, सौन्दर्य, यश या सम्पत्ति से नहीं हरा सकते, पृथ्वी के शासक की तो बात ही क्या?

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान द्वारा इन शब्दों रूपी गायन को सुनकर युधिष्ठिर हर्षित हो उठे और उनका मुख कमल सदृश खिल गया। इस तरह उन्होंने अपने भाइयों को, जो भगवान विष्णु की शक्ति से समन्वित थे, सभी दिशाओं पर विजय के लिए भेज दिया।

13 उन्होंने सहदेव को सृञ्जय के साथ दक्षिण, नकुल को मत्स्यों के साथ पश्चिम, अर्जुन को केकयों के साथ उत्तर तथा भीम को मद्रकों के साथ पूर्व दिशा में भेज दिया।

14 हे राजन, अपने बल से अनेक राजाओं को हराकर ये वीर भाई यज्ञ करने के इच्छुक युधिष्ठिर महाराज के लिए प्रचुर धन लेते आये।

15 जब राजा युधिष्ठिर ने सुना कि जरासन्ध पराजित नहीं किया जा सका तो वे सोच-विचार में पड़ गये, तब भगवान हरि ने जरासन्ध को हराने के लिए उद्धव द्वारा सुझावित उपाय बतलाया।

16 इस तरह भीमसेन, अर्जुन तथा कृष्ण ने ब्राह्मणों का वेश बनाया और हे राजा, वे गिरिव्रज गये जहाँ बृहद्रथ का पुत्र था।

17 ब्राह्मणों का वेश धारण करके ये राजवंशी योद्धा जरासन्ध के घर पहुँचे। उन्होंने उस कर्तव्यनिष्ठ गृहस्थ के समक्ष याचना की, क्योंकि वह ब्राह्मण वर्ग का विशेष रूप से आदर करता था।

18 कृष्ण, अर्जुन तथा भीम ने कहा: हे राजा, आप हमें दीन अतिथि जाने, जो आपके पास बहुत दूर से आये हैं। हम आपका कल्याण चाहते हैं। हम जो भी चाहें, कृपया उसे हमें दें।

19 सहनशील व्यक्ति क्या नहीं सह सकता? दुष्ट क्या नहीं करेगा? उदार व्यक्ति दान में क्या नहीं दे देगा? और समदृष्टि वाले के लिए बाहरी कौन है?

20 निस्सन्देह वह निन्दनीय तथा दयनीय है, जो सक्षम होते हुए भी अपने क्षणिक शरीर से महान सन्तों द्वार गाई गई चिर ख्याति को प्राप्त करने में असफल रहता है।

21 हरिश्चंद्र, रंतिदेव, उंछवृत्ति मुदगल, शिबि, बलि, एवं अन्य अनेकों ने अपना सर्वस्व दान देकर – अविनाशी को प्राप्त किया है।

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: उनकी आवाज, उनके शारीरिक डीलडौल तथा उनकी कलाइयों पर धनुष की डोरियों से बने चिन्हों से जरासन्ध यह जान गया कि उसके अतिथि राजन्य हैं और सोचने लगा कि इसके पूर्व मैंने उन्हें कहीं न कहीं देखा है।

23 जरासन्ध ने सोचा: ये निश्चित रूप से क्षत्रिय कुल के सदस्य हैं, जिन्होंने ब्राह्मणों का वेश बना रखा है, फिर भी मुझे इनको दान देना चाहिए भले ही वे मुझसे छोड़ने में दुष्कर मेरा शरीर ही क्यों न माँग लें।

24-25 निस्सन्देह, बलि महाराज की निष्कलंक ख्याति विश्व-भर में सुनाई पड़ती है। भगवान विष्णु, बलि से इन्द्र का ऐश्वर्य वापस लेने की इच्छा से, उसके समक्ष ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए और उसके शक्तिशाली पद से उसे नीचे गिरा दिया। यद्यपि दैत्यराज बलि इस छल से परिचित थे और अपने गुरु द्वारा मना किये जाने पर भी उन्होंने विष्णु को दान में सारी पृथ्वी दे दी।

26 उस अयोग्य क्षत्रिय से क्या लाभ जो जीवित तो रहता है, किन्तु अपने नश्वर शरीर से ब्राह्मणों के लाभार्थ कार्य करते हुए स्थायी यश प्राप्त करने में असफल रहता है?

27 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार संकल्प करके उदार जरासन्ध ने कृष्ण, अर्जुन तथा भीम से कहा– हे विद्वान ब्राह्मणों, तुम जो भी चाहो चुन सकते हो, मैं तुम्हें दूँगा, चाहे वह मेरा सिर ही क्यों न हो।

28 भगवान ने कहा: हे राजेन्द्र, यदि आप उचित समझते हों तो हमें दान के रूप में एक द्वन्द्व युद्ध दीजिये। हम राजकुमार हैं और युद्ध की भिक्षा माँगने आये हैं। हमें आपसे कोई अन्य भिक्षा नहीं चाहिए।

29 वह पृथा-पुत्र भीम और यह उसका भाई अर्जुन है। मुझे इनका ममेरा भाई और अपना शत्रु कृष्ण जानो।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार ललकारे जाने पर, मगधराज जोर से हँसा और उपेक्षापूर्वक बोला, “बहुत अच्छा" – मैं तुमसे द्वन्द्व युद्ध करूँगा।

31 लेकिन हे कृष्ण, मैं तुमसे युद्ध नहीं करूँगा, क्योंकि तुम कायर हो। तुम्हारे बल ने युद्ध के बीच में ही तुम्हारा साथ छोड़ दिया था और तुम अपनी ही राजधानी मथुरा से समुद्र में शरण लेने के लिए भाग गये थे।

32 जहाँ तक इस अर्जुन की बात है, वह न तो आयु में मेरे समान है न ही अत्यधिक बलशाली है। चूँकि वह मेरी जोड़ का नहीं है, अतः उसे योद्धा नहीं बनना चाहिए, किन्तु भीम मेरे ही समान बलशाली है।

33 यह कहकर जरासन्ध ने भीमसेन को एक बड़ी गदा दी और दूसरी गदा स्वयं लेकर घर के बाहर चला गया।

34 इस तरह दोनों वीर नगर के बाहर समतल अखाड़े में एक दूसरे से युद्ध करने लगे। युद्ध के क्रोध से पगलाये हुए वे एक दूसरे पर वज्र जैसी गदाओं से प्रहार करने लगे।

35 जब वे दक्षता से दाएँ तथा बाएँ चक्कर काट रहे थे, जिस तरह कि मंच पर अभिनेता नाचते हैं, तब यह युद्ध भव्य दृश्य उपस्थित कर रहा था।

36 हे राजन, जब जरासन्ध तथा भीमसेन की गदाएँ जोर-जोर से एक दूसरे से टकरातीं, तो उनसे जो ध्वनि निकलती थी, वह दो लड़ते हुए हाथियों के दाँतों की टक्कर के समान या तूफान के समय चमकने वाली बिजली के गिरने के धमाके जैसी थी।

37 वे एक-दूसरे पर इतने बल और वेग से अपनी गदाएँ चलाने लगे कि जब ये उनके कंधों, कमर, पाँवों, हाथों, जाँघों तथा हँसलियों पर चोट करतीं, तो वे गदाएँ उसी तरह चूर्ण हो जातीं, जिस तरह कि एक दूसरे पर क्रुद्ध होकर आक्रमण कर रहे दो हाथियों से मदार की टहनियाँ पीस जाती हैं।

38 जब उनकी गदाएँ विनष्ट हो गईं, तो पुरुषों में महान वे वीर क्रोधपूर्वक अपने लोहे जैसे कठोर घूँसों से एक दूसरे पर आघात करने लगे। जब वे एक दूसरे पर घूँसे मार रहे थे, तो उससे निकलने वाली ध्वनि हाथियों के परस्पर लड़ने-भिड़ने या बिजली की कठोर कड़कड़ाहट जैसी लग रही थी।

39 इस प्रकार उन दोनों के लड़ते हुए समान प्रशिक्षण, बल तथा उत्साह वाले प्रतिद्वन्द्वियों की यह प्रतियोगिता समाप्त नहीं हो रही थी। इस तरह हे राजन, वे बिना किसी ढील के लड़े जा रहे थे।

40 भगवान कृष्ण अपने शत्रु जरासन्ध के जन्म तथा मृत्यु के रहस्य के बारे में जानते थे। वे यह भी जानते थे कि किस प्रकार जरा नामक राक्षसी ने उसे जीवनदान दिया। अतः कृष्ण ने भीम को अपनी विशेष शक्ति प्रदान कर दी।

41 शत्रु को किस तरह मारा जाय इसका निश्चय करके उन अमोघ-दर्शन भगवान ने एक वृक्ष की टहनी को बीच में से चीरकर भीम को संकेत किया।

42 इस संकेत को समझकर, योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ उस बलशाली भीम ने अपने प्रतिद्वन्द्वी को भूमि पर पटक दिया।

43 भीम ने अपने पाँव से जरासन्ध के एक पाँव को दबा लिया और दूसरे पाँव को अपने हाथों से पकड़ लिया। फिर जिस तरह कोई विशाल हाथी किसी वृक्ष से एक शाखा तोड़ ले, उसी तरह भीम ने जरासन्ध को चीर डाला।

44 तब राजा की प्रजा ने उसे दो अलग-अलग खण्डों में पड़ा हुआ देखा। प्रत्येक खण्ड में एक-एक पाँव, जाँघ, अंडकोश, कमर, कंधा, बाँह, आँख, भौंह, कान तथा आधी पीठ एवं छाती थे।

45 मगधराज की मृत्यु होते ही हाहाकार होने लगा, जबकि अर्जुन तथा कृष्ण ने भीम का आलिंगन करके उसे बधाई दी।

46 समस्त जीवों के पालनकर्ता तथा हितकारी अपरिमेय भगवान ने जरासन्ध के पुत्र सहदेव का अभिषेक मगधवासियों के नवीन राजा के रूप में कर दिया। तब भगवान ने उन समस्त राजाओं को मुक्त किया, जिन्हें जरासन्ध ने बन्दी बना रखा था।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इकहत्तर – भगवान की इन्द्रप्रस्थ यात्रा (10.71)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह देवर्षि नारद के कथनों को सुनकर और सभाजनों तथा कृष्ण दोनों के मतों को जानकर महामति उद्धव इस प्रकार बोले।

2 उद्धव ने कहा: हे प्रभु, जैसी ऋषि ने सलाह दी है, आपको चाहिए कि आप राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने की योजना में अपने फुफेरे भाई युधिष्ठिर की सहायता करें। आपको उन राजाओं की भी रक्षा करनी चाहिए, जो आपकी शरण के लिए याचना कर रहे हैं।

3 हे सर्वशक्तिमान विभु, जिसने दिग्विजय कर ली हो, वही राजसूय यज्ञ कर सकता है। इस तरह मेरे विचार से जरासन्ध पर विजय पाने से दोनों उद्देश्य पूरे हो सकेंगे।

4 इस निर्णय से हमें प्रभूत लाभ होगा और आप राजाओं को बचा सकेंगे। इस तरह, हे गोविन्द, आपका यश बढ़ेगा।

5 दुर्जेय जरासन्ध दस हजार हाथियों जितना बलवान है। निस्सन्देह अन्य बलशाली योद्धा उसे पराजित नहीं कर सकते। केवल भीम ही बल में उसके समान है।

6 उसे एकाकी रथों की प्रतियोगिता में हराया जा सकेगा किन्तु अपनी एक सौ अक्षौहिणी सेना के साथ होने पर वह नहीं हराया जा सकता और जरासन्ध ब्राह्मण संस्कृति के प्रति इतना अनुरक्त है कि वह ब्राह्मणों की याचनाओं को कभी मना नहीं करता।

7 भीम ब्राह्मण का वेश बनाकर उसके पास जाये और दान माँगे। इस तरह उसे जरासन्ध के साथ द्वन्द्व युद्ध की प्राप्ति होगी और आपकी उपस्थिति में भीम अवश्य ही उसको मार डालेगा।

8 ब्रह्माण्ड के सृजन तथा संहार में ब्रह्मा तथा शिव भी आपके उपकरण की तरह कार्य करते हैं, जिन्हें अन्ततः आप काल के अपने अदृश्य रूप में सम्पन्न करते हैं।

9 बन्दी राजाओं की दैवी पत्नियाँ आपके नेक कार्यों का–कि आप किस तरह उनके पतियों के शत्रुओं को मारकर उनका उद्धार करेंगे–गायन करती हैं। गोपियाँ भी आपका यशोगान करती हैं कि आपने किस तरह गजेन्द्र के शत्रु को, जनक की पुत्री सीता के शत्रु को तथा अपने माता–पिता के शत्रु को मारा। इसी तरह जिन मुनियों ने आपकी शरण ले रखी है, वे हमारी ही तरह आपका यशोगान करते हैं।

10 हे कृष्ण, जरासन्ध का वध निश्चित ही उसके विगत पापों का फल है। इससे प्रभूत लाभ और आपका मनोवांछित यज्ञ सम्भव हो सकेगा।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, देवर्षि नारद, वरिष्ठ यादवजन तथा कृष्ण –सभी ने उद्धव के प्रस्ताव का स्वागत किया, जो सर्वथा शुभ तथा अच्युत था।

12 देवकीपुत्र सर्वशक्तिमान भगवान ने अपने वरिष्ठ से विदा होने की अनुमति माँगी। तत्पश्चात उन्होंने दारुक, जैत्र इत्यादि सेवकों को प्रस्थान की तैयारी करने का आदेश दिया।

13 हे शत्रुहन्ता, अपनी पत्नियों, पुत्रों तथा सामान को भेजे जाने की व्यवस्था कर देने और संकर्षण तथा राजा उग्रसेन से विदा लेने के बाद, भगवान कृष्ण अपने रथ पर चढ़ गये, जिसे उनका सारथी ले आया था। इस पर गरुड़ चिन्हित पताका फहरा रही थी।

14 ज्योंही मृदंग, भेरी, दुन्दुभी, शंख तथा गोमुख की ध्वनि-तरंगों से सारी दिशाएँ गूँजने लगीं, त्योंही भगवान कृष्ण अपनी यात्रा के लिए चल पड़े। उनके साथ में रथों, हाथियों, पैदलों तथा घुड़सवारों की सेनादलों के मुख्य अधिकारी थे और चारों ओर से वे अपने निजी रक्षकों द्वारा घिरे थे।

15 भगवान अच्युत की सती-साध्वी पत्नियाँ अपनी सन्तानों सहित सोने की पालकियों में भगवान के पीछे-पीछे चलीं, जिन्हें शक्तिशाली पुरुष उठाये ले जा रहे थे। रानियाँ सुन्दर वस्त्रों, आभूषणों, सुगन्धित तेलों तथा फूल की मालाओं से सजी थीं और चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरी थीं, जो अपने हाथों में तलवार-ढाल लिये थे।

16 उनके चारों ओर खूब सजी-धजी स्त्रियाँ--जो कि राजघराने की सेविकाएँ तथा राज-दरबारियों की पत्नियाँ थीं--चल रही थीं। वे पालकियों तथा ऊँटों, बैलों, भैसों, गधों, खच्चरों, बैलगाड़ियों तथा हाथियों पर सवार थीं। उनके वाहन घास के तम्बुओं, कम्बलों, वस्त्रों तथा यात्रा की अन्य सामग्रियों से खचाखच भरे थे।

17 भगवान की सेना राजसी छाते, चामर-पंखों तथा लहराती पताकाओं के विशाल ध्वज-दण्डों से युक्त थी। दिन के समय सूर्य की किरणें सैनिकों के उत्तम हथियारों, गहनों, किरीट तथा कवचों से परावर्तित होकर चमक रही थीं। इस तरह जय – जयकार तथा कोलाहल करती कृष्ण की सेना ऐसी लग रही थी मानों क्षुब्ध लहरों तथा तिमिंगल मछलियों से आलोकित समुद्र हो।

18 यदुओं के प्रमुख श्रीकृष्ण द्वारा सम्मानित होकर नारदमुनि ने भगवान को नमस्कार किया। भगवान कृष्ण से मिलकर नारद की सारी इन्द्रियाँ तुष्ट हो चुकी थीं। इस तरह भगवान के निर्णय को सुनकर तथा उनकी पूजा स्वीकार करके, उन्हें अपने हृदय में दृढ़ता से धारण करके, नारद आकाश से होकर चले गये।

19 राजाओं द्वारा भेजे गये दूत को भगवान ने मीठे शब्दों में सम्बोधित किया, “हे दूत, मैं तुम्हारे सौभाग्य की कामना करता हूँ। मैं मगध के राजा के वध की व्यवस्था करूँगा, डरना मत।"

20 इस प्रकार कहे जाने पर दूत चला गया और जाकर राजाओं से भगवान का सन्देश सही-सही सुना दिया। तब स्वतंत्र होने के लिए उत्सुक वे सभी भगवान कृष्ण से भेंट करने के लिए आशान्वित होकर प्रतीक्षा करने लगे।

21 आनर्त, सौवीर, मरुदेश तथा विनशन प्रदेशों से होकर यात्रा करते हुए भगवान हरि ने नदियाँ पार कीं और वे पर्वतों, नगरों, ग्रामों, चारागाहों तथा खानों से होकर गुजरे।

22 दृषदूती और सरस्वती नदियों को पार करने के पश्चात वे पंचाल तथा मत्स्य प्रदेशों में से गुजरते हुए अन्त में इन्द्रप्रस्थ पहुँचे।

23 राजा युधिष्ठिर यह सुनकर अतीव प्रसन्न हुए कि दुर्लभ दर्शन देने वाले भगवान आ चुके हैं। भगवान कृष्ण से मिलने के लिए राजा अपने पुरोहितों तथा प्रिय संगियों समेत बाहर आ गये।

24 वैदिक स्तुतियों की उच्च ध्वनि के साथ साथ गीत तथा संगीत-वाद्य गूँजने लगे और राजा बड़े ही आदर के साथ भगवान हृषीकेश से मिलने के लिए आगे बढ़े, जिस तरह इन्द्रियाँ प्राणों से मिलने आगे बढ़ती हैं।

25 जब राजा युधिष्ठिर ने अपने परमप्रिय मित्र भगवान कृष्ण को इतने दीर्घ वियोग के बाद देखा, तो उनका हृदय स्नेह से द्रवित हो उठा और उन्होंने भगवान का बारम्बार आलिंगन किया।

26 भगवान कृष्ण का नित्य स्वरूप लक्ष्मीजी का सनातन निवास है। ज्योंही युधिष्ठिर ने उनका आलिंगन किया, वे समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो गये। उन्हें तुरन्त दिव्य आनन्द की अनुभूति हुई और वे सुखसागर में निमग्न हो गये। उनकी आँखों में आँसू आ गये और भावाविष्ट होने से उनका शरीर थरथराने लगा। वे पूरी तरह से भूल गये कि वे इस भौतिक जगत में रह रहे हैं।

27 तब आँखों में आँसू भरे भीम ने अपने ममेरे भाई कृष्ण का आलिंगन किया और फिर हर्ष से हँसने लगे। अर्जुन तथा जुड़वाँ भाई--नकुल तथा सहदेव ने भी अपने सर्वाधिक प्रिय मित्र अच्युत भगवान का हर्षपूर्वक आलिंगन किया और जोर-जोर से रोने लगे।

28 जब अर्जुन उनका पुनः आलिंगन कर चुके और नकुल तथा सहदेव उन्हें नमस्कार कर चुके, तो श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों तथा उपस्थित बड़े-बूढ़ों को नमस्कार किया। इस तरह उन्होंने कुरु, सृञ्जय तथा कैकय वंशों के माननीय सदस्यों का सत्कार किया।

29 सूतों, मागधों, गन्धर्वों, वन्दीजनों, विदूषकों तथा ब्राह्मणों में से कुछ ने स्तुति करके, कुछ ने नाच-गाकर कमलनेत्र भगवान का यशोगान किया। मृदंग, शंख, दुन्दुभी, वीणा, पणव तथा गोमुख गूँजने लगे।

30 इस तरह अपने शुभचिन्तक सम्बन्धियों से घिरकर तथा चारों ओर से प्रशंसित होकर विख्यातों के शिरोमणि भगवान कृष्ण सजे सजाये नगर में प्रविष्ट हुए।

31-32 इन्द्रप्रस्थ की सड़कें हाथियों के मस्तक से निकले द्रव से सुगन्धित किये गये जल से छिड़की गई थीं। रंगबिरंगी झण्डियाँ, सुनहरे द्वार तथा पूर्ण जलघटों से नगर की भव्यता बढ़ गई थी। पुरुष तथा तरुणियाँ उत्तम नए वस्त्रों से सुन्दर ढंग से सजी थीं, फूलों की मालाओं, गहनों से अलंकृत थीं तथा सुगन्धित चन्दन-लेप से लेपित थीं। हर घर में जगमगाते दीपक दिख रहे थे और सादर भेंटे दी जा रही थीं। जालीदार खिड़कियों के छिद्रों से अगुरु का धुँआ निकल रहा था, जिससे नगर की सुन्दरता और भी बढ़ रही थी। झण्डियाँ हिल रही थीं और छतों को चाँदी के चौड़े आधारों पर रखे सुनहरे कलशों से सजाया गया था। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने कुरुराज के राजसी नगर को देखा।

33 जब नगर की युवतियों ने सुना कि मनुष्यों के नेत्रों के लिए आनन्द के आगार भगवान कृष्ण आए हैं, तो उन्हें देखने के लिए वे जल्दी जल्दी राजमार्ग तक पहुँच गई। उन्होंने अपने घर के कार्यों को त्याग दिया, उत्सुकतावश उनके बालों की गाँठें तथा वस्त्र ढीले पड़ गये।

34 राजमार्ग पर हाथियों, घोड़ों, रथों तथा पैदल सैनिकों की भीड़ थी, इसलिए स्त्रियाँ अपने घरों की छतों पर चढ़ गई, जहाँ से उन्होंने कृष्ण तथा उनकी रानियों को देखा। नगर की स्त्रियों ने भगवान पर फूल बरसाए, मन ही मन उनका आलिंगन किया और हँसीयुक्त चितवनों से हार्दिक स्वागत व्यक्त किया।

35 मार्ग पर मुकुन्द की पत्नियों को चन्द्रमा के साथ तारों की तरह गुजरते देखकर स्त्रियाँ चिल्ला उठीं, “इन स्त्रियों ने कौन-सा कर्म किया है जिससे उत्तमोत्तम व्यक्ति अपनी उदार मुसकान तथा क्रीड़ायुक्त दीर्घ चितवनों से उनके नेत्रों को सुख प्रदान कर रहे हैं?”

36 विभिन्न स्थानों पर नगरवासी अपने हाथों में कृष्ण के लिए शुभ भेंटें लेकर आये और प्रमुख व्यापारी भगवान की पूजा करने के लिए आगे बढ़े।

37 प्रफुल्ल नेत्रों से अन्तःपुर के सदस्य भगवान मुकुन्द का प्रेमपूर्वक स्वागत करने जोश से आगे बढ़े और इस तरह भगवान राजमहल में प्रविष्ट हुए।

38 जब महारानी कुन्ती ने अपने भतीजे कृष्ण को, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, देखा तो उनका हृदय प्रेम से भर गया और उन्होंने भगवान का आलिंगन किया।

39 देवताओं के परमेश्वर, भगवान गोविन्द को राजा युधिष्ठिर अपने निजी निवास स्थान में ले आये। राजा हर्ष से इतने विभोर हो गये कि उन्हें पूजा का सारा अनुष्ठान विस्मृत हो गया।

40 हे राजन, भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ तथा उनके गुरुजनों की पत्नियों को नमस्कार किया। तब द्रौपदी तथा भगवान की बहन ने उन्हें नमस्कार किया।

41-42 अपनी सास से अभिप्रेरित होकर द्रौपदी ने भगवान कृष्ण की पत्नियों-रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, शिबि की वंशजा मित्रविन्दा, सती नाग्नजिती को, वहाँ पर उपस्थित भगवान की अन्य रानियों को नमस्कार किया। द्रौपदी ने वस्त्र, फूल-मालाएँ तथा रत्नाभूषण जैसे उपहारों से उन सबों का सत्कार किया।

43 राजा युधिष्ठिर ने कृष्ण के विश्राम का प्रबन्ध किया और इसका ध्यान रखा कि जितने लोग उनके साथ आये हैं – यथा उनकी रानियाँ, सैनिक, मंत्री तथा सचिव, वे सुखपूर्वक ठहर जाँय। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि जब तक वे पाण्डवों के अतिथि रूप में रहे, प्रतिदिन उनका नया नया स्वागत हो।

44-45 राजा युधिष्ठिर को तुष्ट करने की इच्छा से भगवान कई मास इन्द्रप्रस्थ में ही रहे। अपने आवास-काल के समय उन्होंने तथा अर्जुन ने अग्निदेव को खाण्डव वन भेंट करके तुष्ट किया। उन्होंने मय दानव को बचाया जिसने बाद में राजा युधिष्ठिर के लिए दैवी सभाभवन बनाया। अर्जुन के साथ सैनिकों से घिरकर भगवान ने रथ पर सवारी करने के अवसर का आनन्द प्राप्त किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सत्तर – भगवान कृष्ण की दैनिक चर्या (10.70)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जैसे जैसे प्रभात निकट आने लगा वैसे वैसे भगवान माधव की सारी पत्नियाँ जो आलिंगित थीं, बाँग देते मुर्गों को कोसने लगीं। ये विक्षुब्ध थीं क्योंकि अब वे उनसे विलग हो जायेंगी।

2 पारिजात उद्यान से आने वाली सुगन्धित वायु से उत्पन्न भौरों की गुनगुनाहट ने पक्षियों को नींद से जगा दिया और जब ये पक्षी जोर जोर से चहचहाने लगे, तो उन्होंने भगवान कृष्ण को जगा दिया मानो दरबारी कवि उनके यश का गायन कर रहे हों।

3 अपने प्रियतम की बाहों में लेटी हुई महारानी वैदर्भी को यह परम शुभ वेला नहीं भाती थी क्योंकि इसका अर्थ यह था कि वे उनके आलिंगन से विहीन हो जायेंगी।

4-5 भगवान माधव ब्रह्म मुहूर्त में उठते और जल का स्पर्श किया करते थे। तब स्वच्छ मन से वे एकाकी, आत्म-प्रकाशित, अनन्य तथा अच्युत परम सत्य ब्रह्मरूप स्वयं का ध्यान करते – जो स्वभाव से ही सारे कल्मष को दूर करनेवाला है, जो अपनी उन निजी शक्तियों के द्वारा – जो इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन और संहार करती हैं – अपना ही शुद्ध तथा आनन्दमय स्वरूप प्रकट करता है।

6 तब पुरुषों में अत्यन्त साधु सदृश भगवान कृष्ण पवित्र जल में स्नान करते और प्रातःकालीन पूजा इत्यादि सारे नियमित कार्य सम्पन्न करते। फिर पवित्र अग्नि में आहुति देकर वे मन ही मन गायत्री मंत्र का जाप करते।

7-9 प्रतिदिन भगवान उदय होते सूर्य की पूजा करते और अपने अंशरूप देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करते। तत्पश्चात आत्म-समृद्ध भगवान अपने गुरुजनों तथा ब्राह्मणों की ध्यानपूर्वक पूजा करते। वे सुवस्त्राभूषित ब्राह्मणों को, पालतू तथा शान्त गौवों का झुण्ड दान में देते, जिनके सींग सोने से मढ़े होते और गले में मोतियों की मालाएँ रहती थीं। ये गौवें सुन्दर वस्त्रों से विभूषित रहतीं और उनके खुरों के अगले हिस्से चाँदी से मढ़े होते। ये प्रचुर दूध देने वाली, एक बार (ब्याँती) होतीं और इनके साथ इनके बछड़े होते। भगवान प्रतिदिन 13084 गौवों के अनेक झुण्ड विद्वान ब्राह्मणों को देते और साथ में मलमल, मृगचर्म तथा तिल भी दान देते।

10 भगवान कृष्ण गौवों, ब्राह्मणों तथा देवताओं, अपने वरेषुजनों तथा गुरुओं और समस्त जीवों को – जो उन परम पुरुष के ही अंशरूप हैं – नमस्कार करते। तब वे शुभ वस्तुओं का स्पर्श करते।

11 वे मानव समाज के आभूषण स्वरूप अपने शरीर को अपने विशेष वस्त्रों, रत्नों, दैवी फूल-मालाओं एवं लेपों से सजाते।

12 तब वे घी, दर्पण, गौवों तथा साँडों, ब्राह्मणों और देवताओं की ओर देखते और आश्वस्त होते कि महल के भीतर तथा नगर में रहनेवाले सभी जातियों के लोग इन उपहारों से संतुष्ट तो हैं। तत्पश्चात अपने मंत्रियों की इच्छाओं को पूरा करके उनका अभिवादन और सत्कार करते।

13 सर्वप्रथम ब्राह्मणों को पुष्प-मालाएँ, पान तथा चन्दन-लेप बाँटकर इन्हीं उपहारों को अपने मित्रों, मंत्रियों तथा पत्नियों को देते और अन्त में स्वयं इनका उपभोग करते।

14 तब तक भगवान का सारथी उनके अत्यन्त अद्भुत रथ को ले आता जिसमें सुग्रीव तथा उनके अन्य घोड़े जुते होते। तत्पश्चात उनका सारथी उन्हें नमस्कार करता और उनके समक्ष आ खड़ा होता।

15 अपने सारथी के हाथों को पकड़ कर भगवान कृष्ण सात्यकि तथा उद्धव के साथ-साथ रथ पर इस तरह चढ़ते मानो सूर्य पूर्व के पर्वत (उदयाचल) पर उदय हो रहा हो।

16 महल की स्त्रियाँ भगवान कृष्ण को लजीली प्रेममयी चितवनों से देखतीं और इस तरह वे मुश्किल से उनसे छूट पाते। तत्पश्चात वे अपने हँसीयुक्त मुख से उनके मन को चुराते हुए चल पड़ते।

17 हे राजन, भगवान समस्त वृष्णियों के साथ-साथ उस सुधर्मा सभाभवन में प्रवेश करते, जो उसमें प्रवेश करनेवालों को भौतिक जीवन की छह तरंगों से रक्षा करता है।

18 जब उस सभाभवन में सर्वशक्तिमान भगवान अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान होते तो वे अपने अद्वितीय तेज से आकाश की दिशाओं को प्रकाशित करते हुए शोभायमान होते। पुरुषों में सिंह रूप यदुओं से घिरकर वे यदुश्रेष्ठ वैसे ही प्रतीत होते जैसे कि अनेक तारों के बीच चन्द्रमा।

19 हे राजन, वहाँ पर विदूषक विविध हास्य रसों का प्रदर्शन करके भगवान का मनोरंजन करते, दक्ष नर्तक उनके लिए अभिनय करते और नर्तकियाँ ओजपूर्ण नृत्य प्रस्तुत करतीं।

20 ये अभिनयकर्ता मृदंग, वीणा, वंशी, मंजीरा तथा शंख की ध्वनि के साथ नाचते और गाते, जबकि पेशेवर कवि, मागध तथा वन्दीजन भगवान के यश का गायन करते।

21 कुछ ब्राह्मण उस सभाभवन में बैठकर वैदिक मंत्रों का सस्वर पाठ करते और कुछ पूर्वकालीन पवित्र कीर्ति वाले राजाओं की कथाएँ कह कर सुनाते।

22 हे राजन, एक बार एक व्यक्ति उस सभा में आया जो इसके पूर्व वहाँ कभी नहीं देखा गया था। द्वारपालों ने उसके आने की जानकारी भगवान को दी और तब वे उसे भीतर लेकर आये।

23 उस व्यक्ति ने भगवान कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर उनको बतलाया कि जरासन्ध द्वारा बन्दी बनाये जाने के कारण किस तरह अनेक राजा कष्ट भोग रहे हैं।

24 जिन बीस हजार राजाओं ने जरासन्ध की दिग्विजय के समय पूर्ण अधीनता स्वीकार नहीं की थी, वे उसके द्वारा बलपूर्वक गिरिव्रज नामक किले में बन्दी बना लिये गये थे।

25 दूत के द्वारा दिये गये वृत्तांत के अनुसार राजाओं ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे अप्रमेय आत्मा, हे शरणागतों के भय के विनाशक, हम पृथक-पृथक मत रखने के बावजूद संसार से भयभीत होकर आपके पास शरण लेने आये हैं।

26 इस जगत में लोग सदैव पापकर्मों में लगे रहते हैं और इस तरह वे अपने असली कर्तव्य के विषय में, जो आपके आदेशानुसार आपकी पूजा करना है, विभ्रमित रहते हैं। इस कार्य से सचमुच ही उन्हें सौभाग्य प्राप्त हो सकता है। हम सर्वशक्तिमान भगवान को नमस्कार करते हैं जो कालरूप में प्रकट होते हैं और इस जगत में दीर्घायु की प्रबल आशा को सहसा छिन्न कर देते हैं।

27 आप विश्व के अधिष्ठाता प्रभु हैं और आप इस जगत में सन्तों की रक्षा करने तथा दुष्टों का दमन करने के लिए अपनी निजी शक्ति के साथ अवतरित हुए हैं। हे प्रभु, हम यह समझ नहीं पाते कि कोई आपके नियम का उल्लंघन करने पर भी अपने कर्म के फलों को कैसे भोग सकता है?

28 हे प्रभु, इस शवतुल्य शरीर से, जो कि सदैव भय से ओतप्रोत रहता है, हम राजा लोग सुख के बोझ को स्वप्न की तरह वहन करते हैं। इस तरह हमने असली आत्म-सुख को त्याग दिया है, जो आपकी निस्वार्थ सेवा करने से प्राप्त होता है। इतने अधिक अभागे होने से हम आपकी माया के पाश के अन्तर्गत कष्ट भोग रहे हैं।

29 इसलिए आप हम बन्दियों को कर्म के बन्धनों से, जो कि मगध के राजा के रूप में प्रकट हुए हैं, मुक्त कीजिये, क्योंकि आपके चरण उन लोगों के शोक को हरने वाले हैं, जो उनकी शरण में जाते हैं। दस हजार उन्मत्त हाथियों के पराक्रम को वश में करके अकेले उसने हम सबको अपने घर में उसी तरह बन्दी कर रखा है, जिस तरह कोई सिंह भेड़ों को पकड़ लेता है।

30 हे चक्रधारी, आपकी शक्ति अथाह है और इस तरह आपने जरासन्ध को युद्ध में सत्रह बार कुचला है। किन्तु मानवीय कामकाज में लीन होने से आपने उसे आपको पराजित करने का एक बार अवसर दिया है। अब वह गर्व से इस कदर फुला हुआ है आपकी जनता रूप हम सबको सताने का दुस्साहस कर रहा है। हे अजित, आप इस स्थिति को सुधारें।

31 दूत ने आगे कहा: यह जरासन्ध के द्वारा बन्दी बनाये गये राजाओं का सन्देश है। वे सभी आपके दर्शनों के लिए लालायित हैं, क्योंकि उन्होंने स्वयं को आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। कृपा करके इन बेचारों को सौभाग्य प्रदान करें।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब राजाओं का दूत इस तरह बोल चुका, तो देवर्षि नारद सहसा प्रकट हुए। सिर पर सुनहरे रंग की जटा धारण किए परम तेजस्वी ऋषि प्रकाशमान सूर्य की तरह लग रहे थे।

33 भगवान कृष्ण जो ब्रह्मा तथा शिव जैसे लोकेश्वरों के भी पूज्य स्वामी हैं फिर भी ज्योंही उन्होंने नारदमुनि को आते देखा, तो वे अपने मंत्रियों तथा सचिवों समेत महर्षि का स्वागत करने तथा सिर झुकाकर उन्हें सादर नमस्कार करने के लिए सहर्ष खड़े हो गये।

34 जब नारद, उन्हें निवेदित किया गया आसन ग्रहण कर चुके, तो भगवान ने शास्त्रीय विधियों से मुनि का स्वागत किया और सम्मानपूर्वक तुष्ट करते हुए उनसे निम्नलिखित सत्यनिष्ठ तथा मधुर शब्द कहे।

35 भगवान कृष्ण ने कहा: यह निश्चित है कि आज तीनों लोकों ने समस्त भय से मुक्ति प्राप्त कर ली है, क्योंकि यह आप जैसे सारे लोकों में स्वच्छन्द विचरण करने वाले महापुरुष का प्रताप है।

36 ईश्वर की सृष्टि के भीतर ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो आपको ज्ञात न हो। अतएव कृपा करके हमें बतलायें कि पाण्डव क्या करना चाहते हैं?

37 श्री नारद ने कहा: हे सर्वशक्तिमान, मैं आपकी माया की दुर्लंघ्य शक्ति को, जिससे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्मा तक को आप मोहित कर लेते हैं, कई बार देख चुका हूँ। हे भूमन इसमें मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं लगता कि आप जीवों के बीच विचरण करते हुए अपने को अपनी ही शक्तियों से छिपा लेते हैं, जिस तरह अग्नि अपने ही प्रकाश को धुएँ से ढक लेती है।

38 भला आपके उद्देश्य को सही सही कौन समझ सकता है? अपनी भौतिक शक्ति से आप इस सृष्टि का विस्तार करते हैं और फिर इसे अपने में लीन कर लेते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि इसका वास्तविक अस्तित्व है। आपको नमस्कार है, जिनकी दिव्य स्थिति अचिन्त्य है।

39 जन्म तथा मृत्यु के चक्र में फँसा जीव यह नहीं जानता कि भौतिक शरीर से, जिससे उसे इतना कष्ट मिलता है, किस प्रकार छुटकारा पाया जाये। किन्तु हे परमेश्वर, आप विविध स्वरूपों में इस जगत में अवतरित होते हैं और अपनी लीलाएँ करके अपने यश की प्रज्ज्वलित मशाल से जीव के मार्ग को आलोकित कर देते हैं। इसलिए मैं आपकी शरण में जाता हूँ।

40 तो भी, मनुष्य का अभिनय कर रहे, हे परम सत्य! मैं आपको बतलाऊँगा कि आपके बुआ के पुत्र युधिष्ठिर महाराज क्या करना चाहते हैं।

41 राजा युधिष्ठिर एकछत्र सत्ता की इच्छा से राजसूय नामक महानतम यज्ञ द्वारा आपकी पूजा करना चाहते हैं। कृपा करके उनके इस प्रयास के लिए आशीर्वाद प्रदान करें।

42 हे प्रभु, आपको देखने के इच्छुक सारे श्रेष्ठ देवता तथा यशस्वी राजा उस श्रेष्ठ यज्ञ में आयेंगे।

43 हे प्रभु, आपके यश का श्रवण तथा कीर्तन करने से तथा ब्रह्मरूप आपका ध्यान करने से जाति से निकाले गये (अन्त्यज) लोग भी शुद्ध हो जाते हैं। तो फिर उनके विषय में क्या कहा जाय जो आपको देखते हैं और आपका स्पर्श करते हैं?

44 हे प्रभु, आप सभी मंगलों के प्रतीक हैं। आपका दिव्य नाम तथा यश ब्रह्माण्ड के उच्चतर, मध्य तथा अधोलोक सहित समस्त लोकों के ऊपर छत्र के समान फैला हुआ है। आपके चरणकमलों को प्रक्षालित करने वाला दिव्य जल उच्चतर लोकों में मन्दाकिनी नदी के नाम से, अधोलोक में भोगवती के नाम से और इस पृथ्वीलोक में गंगा के नाम से विख्यात है। यह पवित्र दिव्य जल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होता है और जहाँ भी जाता है, उसे पवित्र कर देता है।

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब जरासन्ध को हराने की इच्छा से भगवान के पक्षधर यादवों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, तो भगवान केशव अपने अनुचर उद्धव की ओर मुड़े और हँसते हुए उत्तम शब्दों में उनसे बोले।

46 भगवान ने कहा: निस्सन्देह तुम हमारे उत्तम नेत्र तथा घनिष्ठ मित्र हो, क्योंकि विविध प्रकार की सलाहों के आपेक्षिक मूल्य को पूर्णतः जानते हो। इसलिए तुम हमसे कहो कि इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए। हमें तुम्हारे निर्णय पर विश्वास है और तुम जैसा कहोगे हम वैसा ही करेंगे।

47 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह अपने स्वामी द्वारा अनुरोध किये जाने पर, जो कि सर्वज्ञ होते हुए भी मोहित होने का अभिनय कर रहे थे, उद्धव ने उनके इस आदेश को शिरोधार्य किया और इस प्रकार उत्तर दिया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय उनहत्तर – नारद मुनि द्वारा द्वारका में भगवान कृष्ण के महलों को देखना (10.69)

1-6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब नारदमुनि ने सुना कि भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध कर दिया है और अकेले अनेक स्त्रियों के साथ विवाह कर लिया है, तो नारदमुनि के मन में भगवान को इस स्थिति में देखने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा, “यह अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि एक ही शरीर में भगवान ने एकसाथ सोलह हजार स्त्रियों से विवाह कर लिया और वह भी अलग अलग महलों में।” इस तरह देवर्षि उत्सुकतापूर्वक द्वारका गये। यह नगर बगीचों तथा उद्यानों से युक्त था जिसके आसपास पक्षियों तथा भौंरों की ध्वनि गुंजरित थी। इसके सरोवर खिले हुए इन्दीवर, अम्भोज, कल्हार, कुमुद तथा उत्पल से भरे हुए थे और हंसों तथा सारसों की बोलियों से गुंजायमान थे। द्वारका को नौ लाख राजमहलों के होने का गर्व था। ये सारे महल स्फटिक तथा चाँदी के बने थे और विशाल मरकत मणियों से जाज्वल्यमान थे। इन महलों के भीतर साज-सामान पर सोने तथा रत्नों की सजावट थी। यातायात के लिए व्यवस्थित गलियाँ, सड़कें, चौराहे तथा बाजार थे और इस मनोहर नगर में अनेक सभाभवन तथा देवमन्दिर शोभा को बढ़ाने वाले थे। सड़कें, आँगन, व्यापारिक मार्ग तथा घरों के आँगन जल से सींचे हुए थे और लट्ठों से लहरा रहे झण्डों से सूर्य की गर्मी से छाया पा रहे थे।

7-8 द्वारका नगर में एक सुन्दर अन्तःपुर था, जो लोकपालों द्वारा पूजित था। यह प्रदेश, जहाँ विश्वकर्मा ने अपनी सारी दैवी निपुणता दिखलाई थी, भगवान हरि का निवास क्षेत्र था। अतः इसे भगवान कृष्ण की रानियों के सोलह हजार महलों से खूब सजाया गया था। नारदमुनि इन्हीं विशाल महलों में से एक में प्रविष्ट हुए।

9-12 महल को साधने वाले मूँगे के खम्भों में वैदूर्य मणि जड़े थे। दीवालों पर नीलम जड़े थे और स्थायी चमक से चमक रहे थे। उस महल में त्वष्टा ने चँदोवे बनाये थे जिनसे मोती की लड़ें लटक रही थीं। आसन तथा पलंग हाथी-दाँत तथा बहुमूल्य रत्नों से बने हुए थे। उनकी सेवा में अनेक सुवस्त्राभूषित दासियाँ थीं जो अपने गलों में लॉकेट पहने थीं। साथ ही कवचधारी रक्षक थे, जो साफा, सुन्दर वर्दी तथा रत्नजटित कुण्डल पहने थे। अनेक रत्नजटित दीपों का प्रकाश महल के अंधकार को दूर करनेवाला था। हे राजन, महल के छज्जों पर जोर-जोर से कुहक रहे मोर नाच रहे थे, जो जालीदार खिड़कियों के छेदों से निकल रहे सुगन्धित अगुरु को देखकर भ्रम से बादल समझ रहे थे।

13 उस महल में विद्वान ब्राह्मण ने सात्वत पति श्रीकृष्ण को उनकी पत्नी के साथ देखा जो सोने की मूठ वाली चामर से पंखा झल रही थीं। वे इस तरह से स्वयं उनकी सेवा कर रही थीं यद्यपि उनकी सेवा में निरन्तर एक हजार दासियाँ लगी थीं जो अपने निजी चरित्र, सौन्दर्य, तारुण्य तथा सुन्दर वेषभूषा में उन्हीं के समान थीं।

14 भगवान धर्म के सबसे बड़े धारक हैं। अतएव जब उन्होंने नारद को देखा तो वे तुरन्त श्री देवी के पलंग पर से उठ खड़े हुए, नारद के चरणों पर मुकुट युक्त सिर को नवाया और अपने हाथ जोड़कर मुनि को अपने आसन पर बिठाया।

15 भगवान ने नारद के चरण पखारे और उस जल को अपने सिर पर धारण किया। यद्यपि भगवान कृष्ण ब्रह्माण्ड के परम गुरु हैं तथा अपने भक्तों के स्वामी हैं किन्तु इस तरह से आचरण करना उनके लिए उपयुक्त था क्योंकि उनका नाम ब्रह्मण्यदेव है अर्थात “ब्राह्मणों का पक्ष लेने वाले भगवान।” इस तरह श्रीकृष्ण ने नारदमुनि के चरण पखार कर उनका सम्मान किया यद्यपि भगवान के ही चरणों को धोने वाला जल गंगा बन जाता है, जो कि परम तीर्थ हैं।

16 वैदिक आदेशों के अनुसार देवर्षि की समुचित पूजा करने के बाद, नर के मित्र आदि ऋषि नारायण, भगवान कृष्ण ने नारद से बातें कीं और भगवान की नपी-तुली वाणी अमृत की तरह मधुर थी। अन्त में भगवान ने नारद से पूछा, “हे प्रभु एवं स्वामी, हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?”

17 श्री नारद ने कहा: हे सर्वशक्तिमान, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि समस्त जगतों के शासक आप सारे लोगों से मित्रता प्रदर्शित करते हुए भी दुष्टों का दमन करते हैं। जैसा कि हम सभी लोग भलीभाँति जानते हैं आप इस ब्रह्माण्ड में इसके पालन तथा रक्षण के द्वारा परम लाभ प्रदान करने के लिए स्वेच्छा से अवतरित होते हैं।

18 अब मैंने आपके उन चरणों के दर्शन किये हैं, जो आपके भक्तों को मोक्ष प्रदान करते हैं तथा जिन्हें ब्रह्मा तथा अन्य अथाह बुद्धि वाले महापुरुष भी केवल अपने हृदयों में ध्यान कर सकते हैं किन्तु जो भवकूप में गिर चुके हैं, वे उद्धार हेतु जिनकी शरण ग्रहण करते हैं। आप मुझ पर कृपालु हों जिससे विचरण करते हुए मैं निरन्तर आपका स्मरण कर सकूँ।

19 कृपा करके मुझे शक्ति दें कि मैं आपका स्मरण कर सकूँ। हे राजन, तब नारद ने भगवान की दूसरी पत्नी के महल में प्रवेश किया।

20-22 वे योगेश्वरों के ईश्वर की आध्यात्मिक शक्ति देखने के लिए उत्सुक थे। वहाँ उन्होंने भगवान को अपनी प्रिया तथा अपने मित्र उद्धव के साथ चौसर खेलते देखा। भगवान कृष्ण ने खड़े होकर और उन्हें आसन देकर नारदजी की पूजा की और तब उनसे इस तरह पूछा मानो वे कुछ जानते ही न हों “आप कब आये? हम जैसे अपूर्ण व्यक्ति आप जैसे पूर्ण व्यक्तियों के लिए क्या कर सकते हैं? हे ब्राह्मण, जैसा भी हो, कृपा करके मेरे जीवन को शुभ बना दें।” ऐसा कहे जाने पर नारद चकित हो गए। वे चुपचाप खड़े रहे और अन्य महल में चले गये।

23 इस बार नारदजी ने देखा कि भगवान कृष्ण अपने छोटे-छोटे बच्चों को वत्सल पिता की तरह दुलार रहे थे। वहाँ से वे अन्य महल में गये और उन्होंने देखा कि भगवान कृष्ण स्नान करने के लिए तैयारी कर रहे हैं।

24 एक स्थान पर भगवान यज्ञ-अग्नियों में आहुतियाँ डाल रहे थे, दूसरे में पाँच महयज्ञों द्वारा पूजा कर रहे थे, अन्यत्र वे ब्राह्मणों को भोजन करा रहे थे, तो कहीं पर ब्राह्मणों के द्वारा छोड़े गए भोजन को खा रहे थे।

25 कहीं पर भगवान मौन रहकर तथा मन ही मन गायत्री मंत्र का जप करते हुए संध्याकालीन पूजा के लिए अनुष्ठान कर रहे थे तो कुछ स्थानों पर जो तलवार के अभ्यास के लिए नियत थे, वे तलवार-ढाल चला रहे थे।

26 एक स्थान पर भगवान गदाग्रज घोड़ों, हाथियों तथा रथों पर सवारी कर रहे थे और दूसरे स्थान पर वे अपने पलंग पर लेटे थे तथा भाट उनकी महिमा का गायन कर रहे थे।

27 कहीं वे उद्धव तथा अन्य राजमंत्रियों से सलाह-मशविरा कर रहे थे तो कहीं पर वे अनेक नृत्यांगनाओं तथा अन्य तरुणियों से घिरकर जल-क्रीड़ा कर रहे थे।

28 कहीं वे उत्तम ब्राह्मणों को भलीभाँति अलंकृत गौवें दान दे रहे थे और कहीं वे महाकाव्य के इतिहासों तथा पुराणों का शुभ वृतान्त सुन रहे थे।

29 कहीं पर भगवान कृष्ण किसी एक पत्नी के साथ हास-परिहास करते देखे गये और कहीं वे अपनी पत्नी समेत धार्मिक-अनुष्ठान के कृत्यों में व्यस्त पाये गये। कहीं कृष्ण आर्थिक विकास के मामलों में तो कहीं शास्त्रों के नियमा –नुसार गृहस्थ जीवन का भोग करते पाये गये।

30 कहीं वे अकेले बैठे हुए भौतिक प्रकृति से परे ध्यान कर रहे थे और कहीं पर वे अपने से बड़ों को इच्छित वस्तुएँ देकर तथा उनकी आदरपूर्वक पूजा करके उनकी दासोचित सेवा कर रहे थे।

31 एक स्थान पर वे अपने कुछ सलाहकारों के साथ विचार-विमर्श करके युद्ध की योजना बना रहे थे और अन्य स्थान पर वे शान्ति स्थापित कर रहे थे। कहीं पर केशव तथा बलराम मिलकर पवित्र लोगों के कल्याण के विषय में चिन्तन कर रहे थे।

32 नारद ने देखा कि भगवान कृष्ण अपने पुत्रों तथा पुत्रियों का उचित समय पर उपयुक्त वर-वधू के साथ विवाह करा रहे हैं और ये विवाहोत्सव बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हो रहे हैं।

33 नारद ने देखा कि किस तरह समस्त योगेश्वरों के स्वामी श्रीकृष्ण ने अपनी पुत्रियों तथा दामादों की विदाई की तथा पुनः महोत्सवों के अवसरों पर उनका घर में स्वागत करने की व्यवस्था की। सारे नागरिक इन उत्सवों को देखकर विस्मित थे।

34 कहीं पर वे विस्तृत यज्ञों द्वारा देवताओं को पूज रहे थे और कहीं वे जनकल्याण कार्य यथा कुएँ, उद्यान तथा मठ बनवाकर अपना धार्मिक कर्तव्य पूरा कर रहे थे।

35 अन्य स्थान पर वे आखेट पर गये थे। वे घोड़े पर सवार होकर तथा अत्यन्त वीर यदुओं के संग यज्ञ में बलि के निमित्त पशुओं का वध कर रहे थे।

36 कहीं योगेश्वर कृष्ण वेश बदलकर मंत्रियों तथा अन्य नागरिकों के घरों में यह जानने के लिए कि उनमें से हर कोई क्या सोच रहा है, इधर-उधर घूम रहे थे।

37 इस प्रकार भगवान की योगमाया का यह दृश्य देखकर नारद मुसकाये और तब उन्होंने भगवान हृषीकेश को सम्बोधित किया जो मनुष्य का आचरण कर रहे थे।

38 नारद ने कहा: हे परमात्मा, हे योगेश्वर, अब हम आपकी योग-शक्तियों को समझ सके हैं, जिन्हें बड़े बड़े योगी भी मुश्किल से समझ पाते हैं। एकमात्र आपके चरणों की सेवा करने से मैं आपकी शक्तियों का अनुभव कर सका हूँ।

39 हे प्रभु, मुझे जाने की आज्ञा दें। मैं उन लोकों में, जो आपके यश से आप्लावित हैं, ब्रह्माण्ड को पवित्र करनेवाली आपकी लीलाओं का जोर-जोर से गायन करते हुए विचरण करूँगा।

40 भगवान ने कहा: हे ब्राह्मण, मैं धर्म का उपदेशक, उसका कर्ता तथा अनुमोदनकर्ता हूँ। हे पुत्र, मैं जगत को शिक्षा देने के लिए धर्म का पालन करता हूँ, अतएव तुम विक्षुब्ध मत होना।

41 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार नारद ने हर महल में भगवान को एक ही स्वरूप में, गृहकार्यों में व्यस्त रहने वालों को शुद्ध करने वाले दिव्य धार्मिक नियमों को सम्पन्न करते देखा।

42 असीम शक्ति वाले भगवान कृष्ण के विस्तृत योग प्रदर्शन को बारम्बार देख लेने के बाद ऋषि चकित एवं आश्चर्य से पूरित हो गये।

43 भगवान कृष्ण ने नारद का अत्यधिक सम्मान किया और उन्हें श्रद्धापूर्वक आर्थिक समृद्धि, इन्द्रिय-तृप्ति तथा धार्मिक कर्तव्यों से सम्बन्धित उपहार भेंट किये। इस तरह ऋषि पूरी तरह तुष्ट होकर अनवरत भगवान का स्मरण करते हुए वहाँ से चले गये।

44 इस तरह भगवान नारायण ने सभी जीवों के लाभ हेतु अपनी दैवी शक्तियों को प्रकट करके सामान्य मनुष्यों की चाल-ढाल का अनुकरण किया। हे राजन, इस प्रकार उन्होंने उन सोलह हजार वरिष्ठ प्रेयसियों के साथ रमण किया जो अपनी लजीली स्नेहमयी चितवनों तथा मुसकान से भगवान की सेवा करती थीं।

45 भगवान हरि ही ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन तथा संहार के चरम कारण हैं। हे राजन, जो भी उनके द्वारा इस संसार में सम्पन्न अद्वितीय कार्यों के विषय में (जिनका अनुकरण करना असम्भव है) कीर्तन करता है, सुनता है या केवल प्रशंसा करता है, , वह अवश्य ही मोक्ष के प्रदाता भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न कर लेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अड़सठ – साम्ब का विवाह (10.68)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, जाम्बवती के पुत्र साम्ब ने, दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का स्वयंवर सभा से अपहरण कर लिया।

2-3 क्रुद्ध कौरवों ने कहा: साम्ब ने हमारी अविवाहित कन्या को उसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक हर कर हमारा अपमान किया है, अतः साम्ब को बन्दी बना लो। आखिर वृष्णिजन हमारा क्या कर लेंगे? वे हमारे द्वारा प्रदत्त पृथ्वी पर शासन कर रहे हैं।

4 यह सुनकर कि उनका पुत्र पकड़ा गया है यदि वृष्णिजन यहाँ आते हैं, तो हम उनके घमण्ड को तोड़ डालेंगे। वे उसी तरह दमित हो जायेंगे जिस तरह कठोर नियंत्रण के अन्तर्गत शारीरिक इन्द्रियाँ दमित हो जाती हैं।

5 यह कहकर तथा कुरुवंश के वयोवृद्ध सदस्य द्वारा इस योजना की स्वीकृति लेने पर कर्ण, शल, भूरि, यज्ञकेतु तथा सुयोधन साम्ब पर आक्रमण करने के लिए कूच कर गए।

6 दुर्योधन तथा उसके साथियों को अपनी ओर युद्ध ले लिए आतुर देखकर, महारथी साम्ब अपना धनुष धारण कर सिंह के समान खड़ा हो गया।

7 पकड़ने के लिए कृतसंकल्प, क्रुद्ध कर्ण इत्यादि धनुर्धरों ने साम्ब से कहा – ठहरो और युद्ध करो। वे उसके पास आये और उस पर बाणों की वर्षा करने लगे।

8 हे कुरुश्रेष्ठ, जिस तरह एक सिंह क्षुद्र पशुओं के आक्रमण को सहन नहीं कर पाता उसी तरह साम्ब इस अन्यायपूर्ण आक्रमण को सहन नहीं कर सका।

9-10 अपने धनुष को टनकार करके – वीर साम्ब ने बाणों से कर्ण आदि छहों योद्धाओं पर प्रहार किया। उसने छहों रथों को, चारों घोड़ों की टोली को और प्रत्येक सारथी को उतने ही बाणों से बेध डाला। इसी तरह उसने रथों की बागडोर सँभालने वाले रथी महान धनुर्धरों पर भी प्रहार किया। शत्रु योद्धाओं ने साम्ब को इस पराक्रम प्रदर्शन के लिए बधाई दी।

11 शत्रु योद्धाओं ने साम्ब को रथ से नीचे उतरने पर विवश कर दिया। इनमें से चार ने उसके चारों घोड़ों को मार दिया, एक ने उसके सारथी को मार दिया और दूसरे ने उसके धनुष को तोड़ डाला।

12 युद्ध के दौरान साम्ब को रथविहीन करके कुरु-योद्धाओं ने उसे बाँध लिया तब वे साम्ब तथा अपनी राजकुमारी को लेकर नगर में विजयी भाव से प्रविष्ट हुए।

13 हे राजन, जब यादवों ने श्री नारद से यह समाचार सुना तो वे क्रुद्ध हो उठे और राजा उग्रसेन द्वारा प्रेरित किये जाने पर कुरुओं के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर ली।

14-15 भगवान बलराम ने वृष्णि वीरों के क्रोध को शान्त किया। बलराम कुरुओं तथा वृष्णियों के बीच कलह (युद्ध) नहीं चाहते थे। अतः वे ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों के साथ हस्तिनापुर गये। सूर्य की तरह तेजोमय रथ पर सवार वे ऐसे लग रहे थे मानो प्रधान ग्रहों द्वारा घिरा हुआ चन्द्रमा हो।

16 हस्तिनापुर पहुँचकर बलराम नगर के बाहर एक बगीचे में ठहर गए और उद्धव को धृतराष्ट्र के प्रयोजन का पता लगाने के लिए भेज दिया।

17 अम्बिकापुत्र धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण, बहिल्क तथा दुर्योधन को समुचित आदर देकर उद्धव ने बताया कि भगवान बलराम आ गये है।

18 यह सुनकर कि उनके प्रिय मित्र बलराम आ चुके हैं, वे अत्यधिक प्रसन्न हुए। सर्वप्रथम उन्होंने उद्धव का आदर किया, तत्पश्चात वे अपने हाथों में शुभ भेंटे लेकर भगवान बलराम से मिलने गये।

19 गौवों तथा अर्ध्य की भेंटों से, यथोचित विधि अनुसार उनकी पूजा की। जो बलराम की शक्ति से परिचित थे, उन कुरुओं ने उन्हें दण्डवत प्रणाम किया।

20 जब दोनों पक्षों ने सुन लिया कि उनके सम्बन्धीगण कुशल-मंगल से हैं तथा स्वास्थ्य के विषय में पूछताछ कर ली तो बलराम ने कुरुओं से कहा।

21 बलरामजी ने कहा – राजा उग्रसेन हमारे स्वामी तथा राजाओं के भी शासक हैं। तुम लोग एकाग्र चित्त से सुन लो जो उन्होंने तुम लोगों को करने के लिए कहा है और उसे तुरन्त करो।

22 राजा उग्रसेन ने कहा है: यद्यपि तुममें से कई ने अधर्म का सहारा लेकर धर्म के सिद्धान्तों पर चलने वाले अकेले प्रतिद्वन्द्वी को पराजित किया है फिर भी मैं पारिवारिक सदस्यों में एकता बनाये रखने के लिए यह सब सहन कर रहा हूँ।

23 बलराम के पराक्रम, साहस एवं उनकी शक्ति के समरूप इन शब्दों को सुनकर कौरवगण क्रुद्ध हो उठे और इस प्रकार बोले।

24 कुरुनायकों ने कहा: ओह, यह कितनी विचित्र बात है! काल की गति निस्सन्देह दुर्लंघ्य है – अब पैरों की एक जूती उस सिर पर चढ़ना चाहती है, जिसमें राजमुकुट सुशोभित है।

25 ये वृष्णिजन हमसे वैवाहिक सम्बन्धों से बँधे हैं। हमने इन्हें अपनी शय्या, आसन तथा भोजन में बराबरी का पद दे रखा है और इन्हें राज-सिंहासन प्रदान किया है।

26 चूँकि हमने आशंका नहीं की इसलिए वे चमरी के पंखे तथा शंख, श्वेत छाता, सिंहासन तथा राजशय्या का भोग कर सके।

27 अब यदुओं को इससे आगे इन राजसी प्रतिकों का उपयोग न करने दिया जाय क्योंकि अब ये इसे प्रदान करनेवालों के लिए कष्टप्रद बन रहे हैं जिस तरह विषैले साँपों को पिलाया गया दूध। ये यादवगण हमारी कृपा से समृद्ध बनकर, हमें आदेश देने का दुस्साहस कर रहे हैं।

28 भला इन्द्र भी किसी वस्तु को हड़पने का दुस्साहस कैसे कर सकता है, जिसे भीष्म, द्रोण, अर्जुन या अन्य कुरुजनों ने उसे नहीं दिया है? यह तो वैसा ही है जैसे मेमना सिंह के वध की माँग करे।

29 श्री बादरायण ने कहा: हे भरतों में श्रेष्ठ, अपने उच्च जन्म तथा सम्बन्धों के ऐश्वर्य से फूलकर कुप्पा हुए घमण्डी कुरु ये कटु वचन बलराम से कहने के बाद अपने नगर को वापस चले गये।

30 कुरुओं के दुराचरण को देखकर तथा उनके दुर्वचनों को सुनकर अच्युत भगवान बलराम क्रोध से तमतमा उठे। उनके क्रोध युक्त मुखमण्डल की ओर देखना दुष्कर था, बारम्बार हँसते हुए वे इस प्रकार बोले।

31 भगवान बलराम ने कहा: स्पष्ट है कि कुरुओं की विविध वासनाओं ने इन्हें इतना दम्भी बना दिया है कि वे शान्ति चाहते ही नहीं। तो फिर इन्हें शारीरिक दण्ड द्वारा समझाना-बुझाना होगा जैसे लाठी से पशुओं को सीधा किया जाता है।

32-33 ओह! मैं धीरे-धीरे ही क्रुद्ध यदुजनों तथा कृष्ण को भी, जिन्हें क्रोध आ गया था शान्त कर सका था। मैं इन कौरवों के लिए शान्ति की कामना करते हुए यहाँ आया। किन्तु ये इतने मूर्ख, स्वभाव से कलहप्रिय तथा दुष्ट हैं कि इन्होंने बारम्बार मेरा अनादर किया है। दम्भ के कारण इन्होंने मुझसे कटु वचन कहने का दुस्साहस किया है।

34 क्या भोजों, वृष्णियों तथा अन्धकों के स्वामी राजा उग्रसेन आदेश देने योग्य नहीं है जबकि इन्द्र तथा अन्य लोकपालक उनके आदेशों का पालन करते हैं?

35 वही कृष्ण जो सुधर्मा सभाभवन के अधिकारी हैं और जिन्होंने अपने आनन्द के लिए अमर देवताओं से पारिजात वृक्ष ले लिया – क्या वही कृष्ण राजसिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हैं?

36 समस्त ब्रह्माण्ड की स्वामिनी साक्षात लक्ष्मीजी उनके पैरों की पूजा करती हैं और उन्हीं लक्ष्मीजी के पति क्या मर्त्य राजा की साजसामग्री के पात्र नहीं हैं?

37 कृष्ण के चरणकमलों की धूल, जो सभी तीर्थस्थानों के लिए पवित्रता की उद्गम है बड़े-बड़े देवताओं द्वारा पूजी जाती है। समस्त लोकों के प्रधान देवता उनकी सेवा में लगे रहते हैं और अपने मुकुटों पर कृष्ण के चरणकमलों की धूल धारण करके अपने को परम भाग्यशाली मानते हैं। ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े-बड़े देवता, यहाँ तक कि लक्ष्मीजी और मैं भी उनके दिव्य व्यक्तित्व के अंश हैं और हम भी उस धूल को बड़ी सावधानी से अपने सिरों पर धारण करते हैं। क्या इतने पर भी कृष्ण राजप्रतीकों का उपयोग करने या राजसिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हैं?

38 हम वृष्णिगण केवल उस छोटे से भूभाग का भोग करते हैं जिसकी कुरुगण हमें अनुमति देते हैं? और हम जूते हैं जबकि कुरुगण सिर हैं?

39 जरा देखो तो इन अभिमानी कुरुओं को जो सामान्य शराबियों की तरह अपने तथाकथित अधिकार से उन्मत्त हैं! ऐसा कौन वास्तविक शासक, जो आदेश देने के अधिकार से युक्त है, कौरवों के मूर्खतापूर्ण एवं बेतुके शब्दों को सह सकेगा?

40 क्रुद्ध बलराम ने घोषणा की, “आज मैं पृथ्वी को कौरवों से विहीन कर दूँगा।" यह कहकर उन्होंने अपना हलायुध ले लिया और उठ खड़े हुए मानो तीनों लोकों को स्वाहा करने जा रहे हों।

41-43 भगवान ने क्रुद्ध होकर अपने हल की नोक से हस्तिनापुर को उखाड़ा और सम्पूर्ण नगर को गंगा नदी में फेंकने ही वाले थे कि घसीटे जा रहे नगर को समुद्र में घन्नाई (नाव) की तरह डगमगाते तथा गंगा में गिरने ही वाला देखकर, सारे कौरव भयभीत हो उठे। वे अपने प्राण बचाने के लिए – परिवार सहित भगवान की शरण लेने गये। साम्ब तथा लक्ष्मणा को आगे करके उन्होंने विनयपूर्वक अपने हाथ जोड़ लिये।

44 कौरवों ने कहा: हे राम, हे सर्वाधार राम, हम आपकी शक्ति के बारे में कुछ भी नहीं जानते। कृपया हमारा अपराध क्षमा कर दें क्योंकि हम अज्ञानी हैं तथा बहकावे में आ गये थे।

45 आप अकेले जगत का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं और आपका कोई पूर्व हेतु (कारण) नहीं है। निस्सन्देह हे प्रभु! विद्वानों का कहना है कि जब आप अपनी लीलाएँ करते हैं, तो सारे लोक आपके खिलौने जैसे होते हैं।

46 हे हजार सिरों वाले अनन्त, आप अपनी लीला के रूप में इस भूमण्डल को अपने एक सिर पर धारण करते हैं। संहार के समय आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने शरीर के भीतर लीन कर लेते हैं और विश्राम करने के लिए लेट जाते हैं।

47 आपका क्रोध हर एक को शिक्षा देने के निमित्त है, यह घृणा या द्वेष की अभिव्यक्ति नहीं हैं। हे परमेश्वर, आप शुद्ध सतोगुण को धारण करते हैं और इस जगत को बनाये रखने तथा इसकी रक्षा करने के लिए ही क्रुद्ध होते हैं।

48 हे समस्त जीवों के आत्मा, हे समस्त शक्तियों को धारण करनेवाले, हे ब्रह्माण्ड के अव्यय स्रष्टा, हम आपको नमस्कार करते हैं और आपकी शरण ग्रहण करते हैं।

49 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जिन कौरवों का नगर डगमगा रहा था, जो अत्यन्त कष्ट में होने से उनकी शरण में आ गये थे, ऐसे कौरवों के द्वारा स्तुति किये जाने पर भगवान बलराम शान्त हो गये। उनके प्रति कृपालु हो गये। उन्होंने कहा "डरो मत" और उनके भय को हर लिया।

50-51 अपनी पुत्री के प्रति अत्यन्त वत्सल दुर्योधन ने उसे दहेज में 1200 साठ वर्षीय हाथी, 120000 घोड़े, 6000 सूर्य जैसे चमकते सुनहरे रथ तथा 1000 दासियाँ दीं जो रत्नजटित हार पहने थीं।

52 भगवान बलराम ने इन सारे उपहारों को स्वीकार किया और साम्ब तथा पुत्रवधू सहित वहाँ से प्रस्थान किया। शुभचिन्तकों ने उन्हें विदाई दी।

53 भगवान हलायुध अपने नगर द्वारका में प्रविष्ट हुए – अपने सम्बन्धियों से मिले जिनके हृदय उनसे अनुराग में बँधे थे। सभाभवन में उन्होंने कुरुओं के साथ हुई प्रत्येक घटना कह-सुनायी।

54 आज भी हस्तिनापुर नगर गंगा के तट पर दक्षिणी दिशा में उठा हुआ दिखता है। इस तरह यह भगवान बलराम के पराक्रम का सूचक है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सड़सठ – बलराम द्वारा द्विविद वानर का वध (10.67)

1 यशस्वी राजा परीक्षित ने कहा: मैं अनन्त तथा अपार भगवान श्रीबलराम के विषय में और आगे सुनना चाहता हूँ जिनके कार्यकलाप अतीव विस्मयकारी हैं। उन्होंने और क्या किया?

2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: द्विविद नाम का एक वानर था, जो नरकासुर का मित्र था। यह शक्तिशाली द्विविद मैन्द का भाई था और राजा सुग्रीव ने उसे प्रतिशोध का आदेश दिया था।

3 अपने मित्र नरक की मृत्यु का बदला लेने के लिए द्विविद वानर ने नगरों, गाँवों, खानों तथा ग्वालों की बस्तियों में आग लगाते हुए उन्हें जलाकर पृथ्वी को तहस-नहस कर दिया।

4 एक बार द्विविद ने अनेक पर्वतों को उखाड़ लिया और उनका प्रयोग सभी निकटवर्ती राज्यों को, विशेषतया आनर्त प्रदेश को विध्वंस करने के लिए किया जहाँ उसके मित्र को मारने वाले, भगवान हरि रहते थे।

5 दूसरे अवसर पर वह समुद्र में घुस गया और दस हजार हाथियों के बल के बराबर अपनी बाहों से उसके पानी को मथ डाला और इस तरह समुद्रतट के भागों को डुबो दिया।

6 उस दुष्ट वानर ने प्रमुख ऋषियों के आश्रमों के वृक्षों को तहस-नहस कर डाला और अपने मल-मूत्र से यज्ञ की अग्नियों को दूषित कर दिया।

7 जिस तरह भिड़-कीट छोटे छोटे कीड़ों को बन्दी बना लेता है, उसी तरह उसने ढिठाई करके पुरुषों तथा स्त्रियों को पर्वत की घाटी में गुफाओं के भीतर डाल कर इन गुफाओं को बड़े बड़े शिलाखण्डों से बन्द कर दिया।

8 एक बार जब द्विविद निकटवर्ती राज्यों को तंग करने तथा कुलीन स्त्रियों को दूषित करने में इस तरह लगा हुआ था, तो उसने रैवतक पर्वत से आती हुई अत्यन्त मधुर गायन की आवाज सुनी। अतएव वह वहाँ जा पहुँचा।

9-10 वहाँ उसने यदुओं के स्वामी श्री बलराम को देखा जो कमल-पुष्पों की माला से सुशोभित थे और जिनका हर अंग अत्यन्त आकर्षक लग रहा था। वे युवतियों के मध्य गा रहे थे और चूँकि उन्होंने वारुणी मदिरा पी रखी थी अतएव उनकी आँखें इस तरह घूम रही थीं मानो वे नशे में हों। उनका शरीर चमचमा रहा था और वे कामोन्मत्त हाथी की तरह व्यवहार कर रहे थे।

11 वह दुष्ट वानर वृक्ष की शाखा पर चढ़ गया और वृक्षों को हिलाकर तथा किलकारियाँ मारते हुए अपनी उपस्थिति जताने लगा।

12 जब बलदेव की प्रेयसियों ने वानर की ढिठाई देखी तो वे हँसने लगीं। आखिर वे तरुणियाँ चपल थीं और उन्हें हँसी-मजाक पसन्द था ।

13 बलराम के देखते हुए भी द्विविद ने उन तरुणियों को अपनी भौहों से गंदे इशारे करते हुए, सामने खड़े होकर और उन्हें अपनी गुदा (मलद्वार) दिखलाकर अपमानित किया।

14-15 सर्वश्रेष्ठ यौद्धा बलराम ने क्रुद्ध होकर उस पर एक शिला फेंकी किन्तु धूर्त वानर अपने को उस शिला से बचाकर बलराम के मदिरापात्र को उड़ा ले गया। दुष्ट द्विविद ने बलराम की हँसी उड़ाते हुए उन्हें अधिक क्रुद्ध करके उस पात्र को तोड़ डाला और तरुणियों के वस्त्र खींच कर, बलराम को और भी अधिक अपमानित किया। इस तरह मिथ्या गर्व से फूलकर बलशाली वानर श्री बलराम का अपमान करता रहा।

16 भगवान बलराम ने उस वानर के ढीठ आचरण को देखा और आसपास के राज्यों में उसके द्वारा उत्पन्न की गई विनाश-लीला (उपद्रव) का विचार किया। इस तरह बलराम ने क्रुद्ध होकर अपने शत्रु का अन्त करने का निश्चय करके अपनी गदा तथा हल उठा लिया।

17 बलशाली द्विविद भी युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। एक हाथ से शाल का वृक्ष उखाड़ कर वह बलराम की ओर दौड़ा और उनके सिर पर वृक्ष के तने से प्रहार किया।

18 किन्तु भगवान संकर्षण पर्वत की तरह अचल बने रहे और अपने सिर पर गिरते हुए लट्ठे को दबोच लिया। तब उन्होंने द्विविद पर अपनी सुनन्द गदा से प्रहार किया।

19-21 सिर पर गदा से चोट खाकर द्विविद रक्त की धार बहने से ऐसा लग रहा था मानो गेरू से पुता कोई पर्वत सुन्दर लगने लगता है। उसने घाव की परवाह न करके दूसरा वृक्ष उखाड़ा, बलपूर्वक उसकी पत्तियाँ विलग कीं और पुनः भगवान पर प्रहार किया। अब बलराम ने क्रुद्ध होकर वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर डाले। इस पर द्विविद ने दूसरा वृक्ष हाथ में लिया और फिर से बहुत ही रोषपूर्वक भगवान पर प्रहार किया। भगवान ने इस वृक्ष के भी सैकड़ों खण्ड कर डाले।

22 इस तरह भगवान से युद्ध करते द्विविद जिस भी वृक्ष से भगवान पर प्रहार करता उसके विनष्ट हो जाने पर वह चारों ओर से तब तक वृक्ष उखाड़ता रहा जब तक कि जंगल वृक्षविहीन नहीं हो गया।

23 तत्पश्चात क्रुद्ध वानर ने बलराम पर पत्थरों की वर्षा की किन्तु उन गदाधारी ने पत्थरों को चकनाचूर कर डाला।

24 सर्वाधिक शक्तिशाली वानर द्विविद अब ताड़-वृक्ष जैसे आकार वाली भुजाओं के सिरे पर मुक्के बाँध कर बलराम के समक्ष आया और उनके शरीर पर अपने मुक्के मारे।

25 तत्पश्चात क्रुद्ध यादवेन्द्र ने अपनी गदा और हल को एक ओर फेंक दिया और अपने हाथों से द्विविद की हँसली पर जोर का प्रहार किया। वह वानर रक्त वमन करता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।

26 हे कुरु-शार्दूल, जब वह गिरा तो रैवतक पर्वत अपनी चोटियों तथा वृक्षों समेत हिल उठा मानो समुद्र में वायु द्वारा हिलाई गई कोई नाव हो।

27 स्वर्ग में देवता, सिद्धगण तथा मुनिगण निनाद करने लगे, “आपकी जय हो! आपको नमस्कार है! बहुत अच्छा– बहुत अच्छा हुआ!” और भगवान पर फूल बरसाने लगे।

28 सारे संसार में उपद्रव मचाने वाले द्विविद को इस तरह मारकर भगवान अपनी राजधानी लौट आये और लोगों ने उनका यशोगान किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय छियासठ – पौण्ड्रक छद्म वासुदेव (10.66)  

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, जब बलराम नन्द के ग्राम व्रज को देखने गए हुए थे तो करुष के राजा ने मूर्खतापूर्वक यह सोचकर कि "मैं भगवान वासुदेव हूँ" भगवान कृष्ण के पास अपना दूत भेजा।

2 पौण्ड्रक मूर्ख लोगों की चापलूसी में आ गया जिन्होंने उससे कहा, “तुम भगवान वासुदेव हो और ब्रह्माण्ड के स्वामी के रूप में अब पृथ्वी पर अवतरित हुए हो।” इस तरह वह अपने आपको भगवान अच्युत मान बैठा।

3 अतएव उस मन्द बुद्धि पौण्ड्रक ने अव्यक्त भगवान कृष्ण के पास द्वारका में एक दूत भेजा। पौण्ड्रक ऐसे मूर्ख बालक की तरह आचरण कर रहा था जिसे अन्य बालक राजा मान लेते हैं।

4 द्वारका पहुँचने पर दूत ने कमलनेत्र कृष्ण को उनकी राजसभा में उपस्थित पाया। उसने राजा का सन्देश उन सर्वशक्तिमान प्रभु को कह सुनाया।

5 पौण्ड्रक की ओर से दूत ने कहा: मैं ही एकमात्र भगवान वासुदेव हूँ और दूसरा कोई नहीं है। मैं ही इस जगत में जीवों पर दया दिखलाने के लिए अवतरित हुआ हूँ। अतः तुम अपना झूठा नाम छोड़ दो।

6 हे सात्वत! तुम मेरे निजी प्रतीकों को छोड़ दो, जिन्हें धारण किये हो और आकर मेरी शरण लो। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो मुझसे युद्ध करो।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब अज्ञानी पौण्ड्रक की इस व्यर्थ की डींग को राजा उग्रसेन तथा सभा के अन्य सदस्यों ने सुना तो वे जोर-जोर से हँसने लगे।

8 सभा के हँसी-मज़ाक का आनन्द लेने के बाद भगवान ने दूत से अपने स्वामी को सूचित करने के लिए कहा, “रे मूर्ख! मैं निस्सन्देह उन हथियारों को फेंक दूँगा जिनके विषय में तुम इस तरह डींग मार रहे हो।”

9 “रे मूर्ख जब तुम मारे जाओगे और तुम्हारा मुख गीधों, चीलों तथा वट पक्षियों से ढका रहेगा तो तुम कुत्तों का आश्रय-स्थल बनोगे।”

10 जब भगवान इस तरह बोल चुके तो उनके आक्षेप को उस दूत ने अपने स्वामी के पास जाकर कह सुनाया। तब भगवान कृष्ण अपने रथ पर सवार हुए और काशी के निकट गये।

11 भगवान कृष्ण द्वारा युद्ध की तैयारी को देखते हुए बलशाली योद्धा पौण्ड्रक तुरन्त ही दो अक्षौहिणी सेना के साथ नगर के बाहर निकल आया।

12-14 हे राजन, पौण्ड्रक का मित्र काशीराज उसके पीछे गया और वह तीन अक्षौहिणी सेना समेत रक्षकों की अगुआई कर रहा था। भगवान कृष्ण ने देखा कि पौण्ड्रक भगवान के ही प्रतीक यथा – शंख, चक्र, तलवार, गदा, शार्ङ्ग धनुष तथा श्रीवत्स चिन्ह धारण किये था। वह नकली कौस्तुभ मणि भी पहने था, जंगली फूलों की माला से सुशोभित था और उत्तम पीले रेशमी वस्त्र पहने था। उसके झण्डे में गरुड़ का चिन्ह था और वह मूल्यवान मुकुट तथा चमचमाते मकराकृति वाले कुण्डल पहने था।

15 जब भगवान हरि ने देखा कि राजा ने उनके समान अपना वेश बना रखा है, जिस तरह मंच पर कोई अभिनेता करता है, तो वे खूब हँसे।

16 भगवान हरि के शत्रुओं ने उनपर त्रिशूलों, गदाओं, नैजों, शक्तियों, ऋष्टियों, प्रासों, तोमरों, तलवारों, कुल्हाड़ियों तथा बाणों से आक्रमण किया।

17 भगवान कृष्ण ने पौण्ड्रक तथा काशीराज की सेना पर भीषण वार किया, जिसमें हाथी, रथ, घोड़े तथा पैदल सम्मिलित थे। भगवान ने अपनी गदा, तलवार, सुदर्शन चक्र तथा बाणों से अपने शत्रुओं को उसी तरह रौंद दिया जिस तरह युगान्त में प्रलयाग्नि विविध प्रकार के प्राणियों को रौंदती है।

18 भगवान के चक्र द्वारा खण्ड-खण्ड किये गये रथों, घोड़ों, हाथियों, मनुष्यों, खच्चरों तथा ऊँटों से पटा हुआ युद्ध क्षेत्र उसी तरह चमक रहा था मानो भूतनाथ शिवजी का भयानक क्रीड़ास्थल हो।

19 तब भगवान कृष्ण ने पौण्ड्रक को सम्बोधित किया: रे पौण्ड्रक! तूने अपने दूत के माध्यम से जिन हथियारों के लिए कहलवाया था अब मैं उन्हीं को तुझ पर छोड़ रहा हूँ।

20 रे मूर्ख! अब मैं तुझसे अपना नाम छुड़वाकर रहूँगा जिसे तूने झूठे ही धारण कर रखा है। मैं तब अवश्य ही तेरी शरण ग्रहण करूँगा यदि मैं तुझसे युद्ध नहीं करना चाहूँगा।

21 पौण्ड्रक को इस तरह चिढ़ाकर भगवान कृष्ण ने अपने तेज बाणों से उसका रथ विनष्ट कर दिया। फिर भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर उसी तरह काट लिया जिस तरह इन्द्र अपने वज्र से पर्वत की चोटी को काट गिराता है।

22 भगवान कृष्ण ने अपने बाणों से काशीराज के सिर को काशी नगरी में जा गिराया मानो वायु द्वारा फेंका गया कमल का फूल हो।

23 इस तरह ईर्ष्यालु पौण्ड्रक तथा उसके सहयोगी का वध करने के बाद भगवान कृष्ण द्वारका लौट गये। ज्योंही वे नगर में प्रविष्ट हुए स्वर्ग के सिद्धों ने उनकी अमर अमृतमयी महिमा का गान किया।

24 निरन्तर भगवान का ध्यान करते रहने से पौण्ड्रक ने अपने सारे भौतिक बन्धनों को ध्वंस कर दिया था। हे राजन, निस्सन्देह भगवान कृष्ण के स्वरूप का अनुकरण करके अन्ततोगत्वा वह कृष्णभावनाभावित हो गया।

25 राजमहल के द्वार पर पड़े हुए कुण्डल से विभूषित सिर को देखकर वहाँ पर उपस्थित सारे लोग चकित थे। उनमें से कुछ ने पूछा, “यह क्या है?“ और दूसरों ने कहा, “यह सिर है लेकिन, यह है किसका?”

26 हे राजन, जब उन लोगों ने पहचाना कि यह उनके राजा-काशीपति का सिर है, तो उसकी रानियाँ, पुत्र, सम्बन्धी एवं नगर के निवासी "हाय! हम मारे गये! हे नाथ, हे नाथ!” कहकर रोने लगे।

27-28 जब राजा का पुत्र सुदक्षिण अपने पिता का दाह-संस्कार कर चुका तो उसने अपने मन में निश्चय किया, “मैं अपने पिता के हत्यारे का वध करके ही उसकी मृत्यु का बदला ले सकता हूँ।" इस तरह दानी सुदक्षिण अपने पुरोहितों सहित बहुत ही लगन से भगवान महेश्वर की पूजा करने लगा।

29 पूजा से संतुष्ट होकर शक्तिशाली शिवजी अविमुक्त नामक पवित्र स्थल में प्रकट हुए और सुदक्षिण को इच्छित वर माँगने को कहा। राजकुमार ने अपने पिता के वध करनेवाले की हत्या करने के साधन को ही अपने वर के रूप में चुना।

30-31 शिवजी ने कहा: तुम ब्राह्मणों के साथ अभिचार अनुष्ठान के आदेशों का पालन करते हुए आदि पुरोहित दक्षिणाग्नि की सेवा करो। तब दक्षिणाग्नि अनेक प्रमथों सहित तुम्हारी इच्छा पूरी करेगा और तुम इसे ब्राह्मणों से शत्रुता रखने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध निर्देशित कर सकोगे। इस प्रकार आदिष्ट सुदक्षिण ने अनुष्ठान व्रतों का दृढ़ता से पालन किया और कृष्ण के विरुद्ध अभिचार का आह्वान किया।

32-33 तत्पश्चात अग्निकुण्ड से अत्यन्त भयावने नंग-धड़ंग पुरुष का रूप धारण कर अग्नि बाहर निकली। इस अग्नि सरीखे प्राणी की दाढ़ी तथा चोटी पिघले ताम्बे जैसी थीं और उसकी आँखों से जलते हुए गर्म अंगारे निकल रहे थे। उसका मुख दाढ़ों तथा भयावह एवं गहरी भौंहों के साथ अत्यन्त भयावना लग रहा था। अपने मुख के कोनों को अपनी जीभ से चाटता हुआ यह असुर अपना ज्वलित त्रिशूल हिला रहा था।

34 यह दैत्य ताड़वृक्ष जैसी लम्बी टाँगों से अपने साथ भूतों को लेकर, धरती को हिलाता तथा संसार को सभी दिशाओं में जलाता हुआ द्वारका की ओर दौड़ा।

35 अभिचार अनुष्ठान से उत्पन्न अग्नि तुल्य असुर को निकट आते देखकर द्वारका के सारे निवासी उसी तरह भयभीत हो उठे जिस तरह दावाग्नि (जंगल की अग्नि) से पशु भयभीत हो उठते हैं।

36 भय से किंकर्तव्यविमूढ़ लोगों ने उस समय राज दरबार में चौसर खेल रहे भगवान के पास रो-रोकर कहा, “हे तीनों लोकों के स्वामी, नगर को जलाने वाली इस अग्नि से हमारी रक्षा कीजिये! रक्षा कीजिये!

37 जब कृष्ण ने लोगों की व्याकुलता सुनी और देखा कि वे विक्षुब्ध हैं, तो एकमात्र सर्वश्रेष्ठ शरणदाता हँस पड़े और उनसे कहा, “डरो मत, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।"

38 सबों के अन्तः और बाह्य साक्षी सर्वशक्तिमान भगवान समझ गये कि यह दैत्य शिवजी द्वारा यज्ञ-अग्नि से उत्पन्न किया गया है। इस असुर को पराजित करने के लिए कृष्ण ने निकट खड़े अपने सुदर्शन चक्र को आदेश दिया।

39 भगवान मुकुन्द का वह सुदर्शन चक्र करोड़ों सूर्यों की तरह प्रज्ज्वलित हो उठा। उसका तेज ब्रह्माण्ड की प्रलयाग्नि सदृश प्रज्ज्वलित था और अपनी गर्मी से वह आकाश, सारी दिशाओं, स्वर्ग तथा पृथ्वी एवं उस अग्नि-तुल्य असुर को भी पीड़ा देने लगा।

40 हे राजन, भगवान कृष्ण के अस्त्र की शक्ति से विचलित, तंत्र से उत्पन्न वह अग्नि-तुल्य प्राणी अपना मुँह मोड़कर चला गया। तब हिंसा के लिए उत्पन्न किया गया वह असुर वाराणसी लौट आया जहाँ उसने नगर को घेर लिया और सुदक्षिण तथा उसके पुरोहितों को जलाकर भस्म कर दिया यद्यपि सुदक्षिण ही उसका उत्पन्न करने वाला था।

41 भगवान विष्णु का चक्र, असुर का पीछा करते हुए वाराणसी नगर को भस्म करने लगा, जिसमें सभाभवन, अट्टालिकाओं से युक्त आवासीय महल, सारे बाजार, नगरद्वार, बुर्जियाँ, भण्डार, खजाने, हथसाल, घुड़साल, रथसाल तथा अन्नों के गोदाम सम्मिलित थे।

42 सम्पूर्ण वाराणसी नगरी को जलाने के बाद भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र बिना प्रयास के कर्म करनेवाले श्रीकृष्ण के पास लौट आया।

43 जो भी मर्त्य प्राणी भगवान उत्तमश्लोक की इस वीरतापूर्ण लीला को सुनाता है या केवल इसे ध्यानपूर्वक सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाएगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पैंसठ – बलराम का वृन्दावन जाना (10.65)  

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, एक बार अपने शुभचिन्तक मित्रों को देखने के लिए उत्सुक भगवान बलराम अपने रथ पर सवार हुए और उन्होंने नन्द गोकुल की यात्रा की।

2 दीर्घकाल से वियोग की चिन्ता सह चुकने के कारण गोपों तथा उनकी पत्नियों ने बलराम का आलिंगन किया। तब बलराम ने अपने माता-पिता को प्रणाम किया और उन्होंने स्तुतियों द्वारा बलराम का हर्ष के साथ सत्कार किया।

3 नन्द तथा यशोदा ने प्रार्थना की: हे दशार्ह वंशज, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, तुम तथा तुम्हारे छोटे भाई कृष्ण सदैव हमारी रक्षा करते रहो। यह कहकर उन्होंने श्री बलराम को अपनी गोद में उठा लिया, उनका आलिंगन किया और अपने प्रेमाश्रुओं से उन्हें सिक्त कर दिया।

4-6 तब बलराम ने अपने से बड़े ग्वालों के प्रति समुचित सम्मान प्रकट किया तथा जो छोटे थे उन्होंने उनका सादर-सत्कार किया। वे आयु, मैत्री की कोटी तथा पारिवारिक सम्बन्धों के अनुसार सबसे मिले। ग्वालबालों के पास जाकर किसी से बातें की – हाथ मिलाया और किसी को गले लगाया। विश्राम कर लेने के बाद उन्होंने सुखद आसन ग्रहण किया और सारे लोग उनके चारों ओर एकत्र हो गये। उनके प्रति प्रेम से रुद्ध वाणी से उन ग्वालों ने, जिन्होंने कमलनेत्र कृष्ण को सर्वस्व अर्पित कर दिया था, अपने द्वारका के प्रियजनों के स्वास्थ्य के विषय में पूछा। बदले में बलराम ने ग्वालों की कुशल-मंगल के विषय में पूछा।

7 ग्वालों ने कहा: हे राम, हमारे सारे सम्बन्धी ठीक से तो हैं न? और हे राम क्या तुम सभी लोग अपनी पत्नियों तथा पुत्रों सहित अब भी हमें याद करते हो?

8 यह हमारा परम सौभाग्य है कि पापी कंस मारा जा चुका है और हमारे प्रिय सम्बन्धी मुक्त हो चुके हैं। हमारा यह भी सौभाग्य है कि हमारे सम्बन्धियों ने अपने शत्रुओं को मार डाला है और पराजित कर दिया है तथा एक विशाल दुर्ग में पूर्ण सुरक्षा प्राप्त कर ली है।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: भगवान बलराम के साक्षात दर्शन से गौरवान्वित हुई गोपियों ने हँसते हुए उनसे पूछा, “नगर की स्त्रियों के प्राणप्रिय कृष्ण सुखपूर्वक तो हैं?”

10 क्या वे अपने परिवार वालों को, विशेषतया अपने माता-पिता को याद करते हैं? क्या आपके विचार में वे अपनी माता को एक बार भी देखने वापस आयेंगे? और क्या बलशाली भुजाओं वाले कृष्ण हमारे द्वारा की गई सेवा का स्मरण करते हैं?

11-12 हे दाशार्ह, हमने कृष्ण के लिये अपनी माता, पिता, पति, पुत्रों, भाइयों तथा बहनों का भी परित्याग कर दिया यद्यपि इन पारिवारिक सम्बन्धों का परित्याग कर पाना कठिन है। किन्तु हे प्रभु, अब उन्हीं कृष्ण ने सहसा हम सबों को त्याग कर हमारे साथ समस्त स्नेह-बन्धनों को तोड़ दिया है, वे चले गये हैं और ऐसे में कोई स्त्री उनके वादों पर कैसे विश्वास कर सकती है?

13 नगर की बुद्धिमान स्त्रियाँ ऐसे व्यक्ति के वचनों पर कैसे विश्वास कर सकती हैं जिसका हृदय इतना अस्थिर है और जो इतना कृतघ्न है? वे उन पर इसलिए विश्वास कर लेती थीं क्योंकि वे इतने अद्भुत ढंग से बोलते हैं और उनकी सुन्दर हँसी से युक्त चितवनें, उन्हें प्रेमावेश से व्याकुल कर देती हैं।

14 हे गोपियों उनके विषय में बातें करने में क्यों पड़ी हो? कृपा करके किसी अन्य विषय पर बात चलाओ। यदि कृष्ण हमसे विलग होकर अपने दिन काट सकते हैं, तो हम उनके वियोग को, क्यों सहन कर सकतीं?

15 ये शब्द कहती हुई तरुण गोपियों को भगवान शौरी की हँसी, अपने साथ उनकी मोहक बातें, उनकी आकर्षक चितवनें, उनके चलने का ढंग तथा उनके प्रेमपूर्ण आलिंगनों का स्मरण हो आया। इस तरह वे सिसकने लगीं।

16 सबों को आकृष्ट करने वाले भगवान बलराम ने, गोपियों को भगवान कृष्ण का गोपनीय सन्देश सुनाकर उन्हें धीरज बँधाया। ये सन्देश गोपियों के हृदयों को भीतर तक छू गये।

17 भगवान बलराम यमुना नदी के तट पर एक उद्यान में गोपियों के साथ विहार करते हुए गोकुल में दो मास रहे।

18 यह उद्यान पूर्ण चन्द्रमा की किरणों से नहलाया हुआ था और रात में खिली कुमुदिनियों की सुगन्ध ले जाने वाली मन्द वायु के द्वारा स्पर्शित था।

19 वरुण देव द्वारा भेजी गयी दैवी वारुणी मदिरा एक वृक्ष के खोखले छिद्र से बह निकली और अपनी मधुर गन्ध से सारे जंगल को और अधिक सुगन्धित बना दिया।

20 वायु उस मधुर पेय की धारा की सुगन्ध को बलराम के पास ले गई, जिसे सूँघकर वे वृक्ष के पास गये और उसका पान किया।

21-25 इन लीलाओं को देखकर देवताओं ने स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजाई, गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक फूलों की वर्षा की तथा मुनियों ने भगवान बलराम की महिमा का गायन किया। जब उनके कार्यों का गान हो रहा था, तो हलायुध मदोन्मत्त होकर गोपियों के साथ जंगल में घूमने लगे। हर्ष से उन्मत्त बलराम फूल-मालाओं से खेल रहे थे। इनमें सुप्रसिद्ध वैजयन्ती माला सम्मिलित थी। वे कान में एक कुण्डल पहने थे और उनके मुसकान-भरे कमल-मुख पर पसीने की बूँदें इस तरह सुशोभित थीं मानो बर्फ के कण हों। तब उन्होंने यमुना को बुलाया जिससे वे उसके जल में क्रीड़ा कर सकें किन्तु उसने उनके आदेश की उपेक्षा इसलिए कर दी क्योंकि वे मदोन्मत्त थे। इससे बलराम क्रुद्ध हो उठे और वे अपने हल की नोक से नदी को खींचने लगे।

26 बलराम ने कहा: मेरे आदेश की उपेक्षा कर तुमने मेरा अनादर किया है, अतः मैं अपने हल की नोक से सौ धाराओं के रूप में तुम्हें यहाँ ले आऊँगा।

27 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, बलराम द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर डरी हुई यमुनादेवी आईं और यदुनन्दन बलराम के चरणों पर गिर पड़ीं और काँपते हुए उसने निम्नलिखित शब्द कहे।

28 यमुनादेवी ने कहा: हे विशाल भुजाओं वाले राम, हे राम, मैं आपके पराक्रम के बारे में कुछ भी नहीं जानती। हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप अपने एक अंशमात्र से पृथ्वी को धारण किए हुए हैं।

29 हे प्रभु, आप मुझे छोड़ दें। हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, मैं भगवान के रूप में आपके पद को नहीं जानती थी किन्तु अब मैं आपकी शरण में हूँ और आप अपने भक्तों पर सदैव दयालु रहते हैं।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तब बलराम ने यमुना को छोड़ दिया और जिस तरह हाथियों का राजा अपनी हथनियों के झुण्ड के साथ जल में प्रवेश करता है उसी तरह वे अपनी संगिनियों के साथ नदी के जल में प्रविष्ट हुए।

31 इच्छानुसार जल-क्रीड़ा करने के बाद जब बलराम बाहर आये तो देवी कान्ति ने उन्हें नीले वस्त्र, मूल्यवान आभूषण तथा चमकीला गले का हार भेंट किया।

32 भगवान बलराम ने नीले वस्त्र पहने और गले में सुनहरा हार डाल लिया। सुगन्धियों से लेपित और सुन्दर ढंग से अलंकृत होकर वे इन्द्र के हाथी जैसे सुशोभित हो रहे थे।

33-34 हे राजन, आज भी यह देखा जा सकता है कि किस तरह यमुना अनेक धाराओं में होकर बहती है, जो असीम बलशाली बलराम द्वारा खींचे जाने पर बन गई थीं। इस प्रकार यमुना उनके पराक्रम को प्रदर्शित करती है। भगवान बलराम का मन व्रज गोपियों के अद्वितीय सौन्दर्य से मोहित था। अतः दो मास का समय बीत गया किन्तु उन्हें लगा कि उनके संग में मानो एक रात ही व्यतीत की।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय चौसठ – राजा नृग का उद्धार (10.64)

1 श्री बादरायणि ने कहा: हे राजा, एक दिन साम्ब, प्रद्युम्न , चारु, भानु, गद तथा यदुवंश के अन्य बालक खेलने के लिए एक छोटे से जंगल में गये।

2 देर तक खेलते रहने के बाद उन्हें प्यास लगी। जब वे पानी की तलाश कर रहे थे तो उन्होंने एक सूखे कुएँ के भीतर झाँका और उन्हें एक विचित्र सा जीव दिखा।

3 लड़के उस जीव को, जो कि छिपकली थी और पर्वत जैसी दिख रही थी, देखकर विस्मित हो गए। उन्हें उसके प्रति दया आ गई और वे उसे कुएँ से बाहर निकालने का प्रयास करने लगे।

4 उन्होंने वहाँ फँसी उस छिपकली को चमड़े की पट्टियों तथा सूत की रस्सियों से पकड़ा किन्तु फिर भी वे उसे बाहर नहीं निकाल सके। अतः वे कृष्ण के पास गये उन्हें उस जीव के विषय में बताया।

5 ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता कमलनेत्र भगवान उस कुएँ के पास गये और वहाँ छिपकली देखी। उन्होंने अपने बाएँ हाथ से उसे आसानी से बाहर निकाल लिया।

6 यशस्वी भगवान के हाथों का स्पर्श पाते ही उस जीव ने तुरन्त अपना छिपकली का रूप त्याग दिया और स्वर्ग के वासी का रूप धारण कर लिया। उसका रंग पिघले सोने जैसा सुन्दर था और वह अद्भुत गहनों, वस्त्रों तथा मालाओं से अलंकृत था।

7 यद्यपि भगवान कृष्ण जानते थे तथापि सामान्य जनों को सूचित करने के लिए उन्होंने पूछा, “हे महाभाग, आप कौन हैं? आपके उत्तम स्वरूप को देखकर मैं सोच रहा हूँ कि आप अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हैं।

8 आप किस विगत कर्म से इस दशा को प्राप्त हुए? हे महात्मन, ऐसा लगता है कि आप ऐसे भाग्य के योग्य नहीं थे। हम आपके विषय में जानना चाहते हैं अतः यदि हमें बताने का यह समय तथा स्थान उचित समझते हों तो कृपा करके अपने विषय में बतलाईये।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार अनन्त रूप कृष्ण द्वारा पूछे जाने पर सूर्य के समान चमचमाते मुकुट वाले राजा ने माधव को प्रणाम किया और वह इस प्रकार बोला।

10 राजा नृग ने कहा: मैं इक्ष्वाकु का पुत्र नृग नामक राजा हूँ। हे प्रभु, शायद आपने मेरे विषय में तब सुना होगा जब दानी पुरुषों की सूची बाँची जा रही होगी।

11 हे स्वामी, आपकी दृष्टि काल द्वारा अविचलित है। आप समस्त जीवों के मन के साक्षी हैं। निस्सन्देह आपसे अज्ञात है ही क्या? तो भी आपकी आज्ञा पाकर मैं कहूँगा।

12 मैंने दान में उतनी ही गौवें दीं–जितने पृथ्वी पर बालू के कण हैं, आकाश में तारे हैं या वर्षा की बूँदें होती हैं।

13 मैंने बछड़ों सहित गौवें दान में दीं–वे जवान, भूरी, दूध देनेवाली, सुन्दर तथा अच्छे गुणों से सम्पन्न थीं। जिन्हें ईमानदारी से अर्जित किया गया था तथा जिनके सिंग सोने से, खुर चाँदी से मढ़े थे, जो सुन्दर वस्त्रों एवं मालाओं से अलंकृत थीं।

14-15 सर्वप्रथम मैंने दान प्राप्त करनेवाले ब्राह्मणों को उत्तम आभूषणों से अलंकृत करके सम्मानित किया। वे अतीव सम्मानित ब्राह्मण जिनके परिवार कष्ट में थे, युवक थे तथा उत्तम चरित्र और गुणों से युक्त थे। वे सत्यनिष्ठ, तपस्या के लिए विख्यात, वैदिक शास्त्रों में पारंगत तथा आचरण में साधुवत थे। मैंने उन्हें गौवें, भूमि, सोना, मकान, घोड़े, हाथी तथा दासी समेत विवाह के योग्य कुमारियाँ, तिल, चाँदी, सुन्दर शय्या, वस्त्र, रत्न, गृहसज्जा-सामग्री तथा रथ दान में दिये। इसके अतिरिक्त मैंने वैदिक यज्ञ किए और अनेक पवित्र कल्याण कार्य सम्पन्न किये।

16 एकबार किसी उत्तम ब्राह्मण की गाय भटक गई और मेरे झुण्ड में आ मिली। इससे अनजान होने के कारण मैंने वह गाय किसी दूसरे ब्राह्मण को दान में दे दी।

17 जब गाय के पहले मालिक ने उसे ले जाते हुए देखा तो उसने कहा, “यह मेरी है।" दूसरे ब्राह्मण ने जिसने उसे दान के रूप में स्वीकार किया था उत्तर दिया – "नहीं, यह तो मेरी है। इसे नृग ने मुझे दिया था।"

18 दोनों ब्राह्मण झगड़ते और अपने प्रयोजन की पुरजोर कोशिश करते हुए, मेरे पास आये। उनमें से एक ने कहा – “आपने यह गाय मुझे दी" तथा दूसरे ने कहा – “किन्तु तुमने उसे मुझसे चुराया था।" यह सुनकर मैं भ्रमित हो गया।

19-20 इस स्थिति में अपने को कर्तव्य के घोर संकट में पाकर मैंने दोनों ब्राह्मणों से अनुनय-विनय की "मैं इस गाय के बदले एक लाख उत्तम गौवें दूँगा। कृपा करके उसे मुझे वापस कर दीजिये। आप अपने दास मुझ पर कृपालु हों। मैं जो कर रहा था उससे अनजान था। मुझे इस कठिन स्थिति से बचा लें अन्यथा मैं निश्चितरूप से मलिन नरक में गिरूँगा।”

21 गाय के इस मालिक ने कहा – “हे राजन, मैं इस गाय के बदले में कुछ भी नहीं चाहता” और वह चला गया। दूसरे ब्राह्मण ने घोषित किया – “मैं दस हजार अधिक गौवें भी (जितना तुम दे रहे हो उससे अधिक) नहीं चाहता” और वह भी चला गया।

22 हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, इस तरह उत्पन्न परिस्थिति से लाभ उठाकर यमराज के दूत बाद में मुझे यमराज के धाम ले गये। वहाँ स्वयं यमराज ने मुझसे पूछा।

23 यमराज ने कहा: हे राजा, सर्वप्रथम आप अपने पापों के फलों का अनुभव करना चाहते हैं या अपने पुण्य का। निस्सन्देह मुझे न तो आपके द्वारा सम्पन्न कर्तव्यपूर्ण दान का अन्त दिखता है, न ही उस दान के परिणामस्वरूप तेजपूर्ण स्वर्गलोक में आपके भोगों का।

24 मैंने कहा, हे प्रभु, पहले मुझे अपने पापों का फल भोगने दें और यमराज बोले, “तो नीचे गिरो।” मैं तुरन्त नीचे गिरा और हे स्वामी, गिरते समय मैंने देखा कि मैं छिपकली बन गया हूँ।

25 हे केशव, मैं आपके दास रूप में ब्राह्मणों का भक्त और उनके प्रति उदार था। मैं सदैव आपके दर्शन के लिए लालायित रहता था। इसीलिए आजतक मैं अपने विगत जीवन को नहीं भूल पाया।

26 हे विभु! मैं आपको अपने समक्ष कैसे देख पा रहा हूँ? आप तो परमात्मा हैं जिस पर बड़े से बड़े योगेश्वर केवल वेद रूपी दिव्य आँख के द्वारा अपने शुद्ध हृदयों के भीतर ध्यान लगा सकते है। तो हे दिव्य प्रभु, आप किस तरह मुझे प्रत्यक्ष दिख रहे हैं क्योंकि मेरी बुद्धि भौतिक जीवन के कठिन कष्टों से अन्धी हो चुकी है? जिसने इस जगत के भवबन्धनों को समाप्त कर दिया है, वही आपको देख सकता है।

27-28 हे देवदेव, हे जगन्नाथ, हे गोविन्द, हे पुरुषोत्तम, हे नारायण, हे हृषिकेश, हे पुण्यश्लोक, हे अच्युत, हे अव्यय, हे कृष्ण, कृपा करके मुझे अब देवलोक के लिए प्रस्थान करने की अनुमति दें। हे प्रभु, मैं जहाँ भी रहूँ, मेरा मन सदैव आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करे।

29 हे वसुदेवपुत्र कृष्ण, मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ आप समस्त जीवों के उद्गम हैं, परम सत्य हैं, अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं और समस्त आध्यात्मिक प्रवर्गों के स्वामी हैं।

30 इस तरह कहकर महाराज नृग ने भगवान कृष्ण की परिक्रमा की और उनके चरणों पर अपना मुकुट छुवाया तब विदाई की अनुमति पाकर वहाँ पर उपस्थित लोगों के देखते देखते राजा नृग एक अद्भुत स्वर्गिक विमान पर चढ़ गया।

31 तब देवकी पुत्र, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण जो ब्राह्मणों के प्रति विशेष रूप से अनुरक्त हैं और जो साक्षात धर्म के सार हैं अपने निजी संगियों से बोले और इस प्रकार राजसी वर्ग को शिक्षा दी।

32 भगवान कृष्ण ने कहा: निस्सन्देह एक ब्राह्मण की सम्पत्ति अपाच्य होती है! भले ही उसका रंचभर हो और अग्नि से भी अधिक तेजस्वी द्वारा उपभोग क्यों न किया जाय! तो फिर उन राजाओं के विषय में क्या कहा जाय जो अपने को स्वामी मानकर उसका भोग करना चाहते हैं।

33 मैं हालाहल को असली विष नहीं मानता क्योंकि इसका भी निराकरण हो जाता है, किन्तु ब्राह्मण की सम्पत्ति चुराये जाने को असली विष कहा जा सकता है, क्योंकि इस संसार में इसका कोई उपचार नहीं है।

34 विष केवल उसी को मारता है, जो उसे निगलता है और सामान्य अग्नि को पानी से बुझाया जा सकता है किन्तु ब्राह्मण की सम्पत्ति रूपी अरणि से उत्पन्न अग्नि चोर के समस्त परिवार को समूल नष्ट कर देती है।

35 यदि कोई व्यक्ति बिना उचित अनुमति के ब्राह्मण की सम्पत्ति का भोग करता है, तो वह सम्पत्ति उस व्यक्ति की तीन पीढ़ियों तक को नष्ट कर देती है। किन्तु यदि वह इसे बलपूर्वक या राजकीय अथवा किसी बाहरी सहायता से छीन लेता है, तो उसके पूर्वजों की दस पीढ़ियाँ तथा उसके उत्तराधिकारियों की दस पीढ़ियाँ विनष्ट हो जाती हैं।

36 राजसी ऐश्वर्य से मदान्ध राजा अपना पतन पहले से देख पाने में असमर्थ रहते हैं। वे ब्राह्मण की सम्पत्ति के लिए मूर्खतापूर्वक लालायित रहकर वास्तव में नरक जाने के लिए लालायित रहते हैं।

37-38 जिनके ऊपर आश्रित परिवार हो तथा जिनकी सम्पत्ति हड़प ली गई हो, ऐसे उदारचेता ब्राह्मणों के आँसुओं से धूल के जितने कणों का स्पर्श होता है, उतने वर्षों तक वे अनियंत्रित राजा, जो ब्राह्मण की सम्पत्ति को हड़प लेते हैं, अपने राज परिवारों के साथ कुम्भीपाक नामक नर्क में भुने जाते हैं।

39 चाहे अपना दिया दान हो या किसी अन्य का, जो व्यक्ति किसी ब्राह्मण की सम्पत्ति को चुराता है, वह साठ हजार वर्षों तक मल में कीट के रूप में जन्म लेगा।

40 मैं ब्राह्मणों की सम्पत्ति की कामना नहीं करता जो इसका लोभ करते हैं उनकी आयु क्षीण होती है और वे पराजित होते हैं, वे अपने राज्य खो देते हैं और दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाले सर्प बनते हैं।

41 हे मेरे अनुयायियों, तुम कभी भी विद्वान ब्राह्मण के साथ कठोर व्यवहार न करो, भले ही उसने पाप क्यों न किये हों। यदि वह तुम्हारे शरीर पर वार भी करे या बारम्बार तुम्हें शाप दे तो भी उसे नमस्कार करते रहो।

42 जिस तरह मैं सदैव ध्यान रखते हुए ब्राह्मणों को नमस्कार करता हूँ उसी तरह तुम सबों को चाहिए कि उन्हें नमस्कार करो। जो कोई भी अन्यथा कर्म करता है, उसे मैं दण्ड देता हूँ।

43 जब किसी ब्राह्मण की सम्पत्ति अनजाने में भी चुराई जाती है, तो उस व्यक्ति को निश्चित रूप से पतित होना पड़ता है, जिस तरह ब्राह्मण की गाय से नृग को पतित होना पड़ा।

44 इस तरह से द्वारका निवासियों को उपदेश देने के बाद, समस्त लोकों को पवित्र करने वाले भगवान मुकुन्द अपने महल में प्रविष्ट हुए।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तिरसठ – बाणासुर और भगवान कृष्ण का युद्ध (10.63)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे भारत, अनिरुद्ध के सम्बन्धी- जन उसे लौटे न देखकर शोकग्रस्त रहे और इस तरह वर्षा ऋतु के चार मास बीत गये।

2 नारद से अनिरुद्ध के कार्यों तथा उसके बन्दी होने के समाचार सुनकर, भगवान कृष्ण को अपना पूज्य देव मानने वाले वृष्णिजन शोणितपुर गये।

3-4 श्री बलराम तथा कृष्ण को आगे करके सात्वत वंश के प्रमुख – प्रद्युम्न, सात्यकि, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द, भद्र तथा अन्य लोग बारह अक्षौहिणी सेना के साथ एकत्र हुए और चारों ओर से बाणासुर की नगरी को पूरी तरह से घेर लिया।

5 उन्हें अपनी नगरी के बाहरी बगीचे, ऊँची दीवारें, मीनारें तथा प्रवेशद्वार नष्ट-भ्रष्ट करते देखकर बाणासुर क्रोध से भर उठा और वह उन्हीं के बराबर सेना लेकर उनसे मुठभेड़ करने के लिए निकल आया।

6 भगवान रुद्र अपने पुत्र कार्तिकेय तथा प्रमथों को साथ लेकर बाणासुर के पक्ष में बलराम तथा कृष्ण से लड़ने के लिए अपने बैल-वाहन नन्दी पर सवार होकर आये।

7 तत्पश्चात अत्यन्त अद्भुत, घमासान तथा रोंगटे खड़ा कर देने वाला युद्ध प्रारम्भ हुआ जिसमें भगवान कृष्ण शंकर से और प्रद्युम्न कार्तिकेय से भिड़ गये।

8 बलरामजी ने कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण से, साम्ब ने बाणपुत्र से और सात्यकि ने बाण से युद्ध किया।

9 सिद्धों, चारणों, महामुनियों, गन्धर्वों, अप्सराओं तथा यक्षों के साथ ब्रह्मा तथा अन्य शासक देवतागण अपने अपने दिव्य विमानों में चढ़कर युद्ध देखने आये।

10-11 अपने शार्ङ्ग धनुष से तेज नोक वाले बाणों को छोड़ते हुए भगवान कृष्ण ने शिवजी के विविध अनुचरों – भूतों, प्रमथों, गुह्यकों, डाकिनियों, यातुधानों, वेतालों, विनायकों समेत, प्रेतों, मातृ-पक्ष के असुरों, पिशाचों, कुष्माण्डों तथा ब्रह्म – राक्षसों को भगा दिया।

12 त्रिशूलधारी शिवजी ने शार्ङ्ग धनुषधारी कृष्ण पर अनेक हथियार चलाये। किन्तु कृष्ण तनिक भी विचलित नहीं हुए – उन्होंने उपयुक्त प्रतिअस्त्रों द्वारा इन सारे हथियारों को निष्प्रभावित कर दिया।

13 भगवान कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र का सामना दूसरे ब्रह्मास्त्र से, वायुअस्त्र का सामना पर्वत अस्त्र से, अग्नि अस्त्र का वर्षा अस्त्र से तथा शिवजी के निजी पाशुपतास्त्र का सामना अपने निजी अस्त्र नारायणास्त्र से किया।

14 जृंभणास्त्र द्वारा जम्भाई लिवाकर शिवजी को मोहित कर देने के बाद कृष्ण बाणासुर की सेना को अपनी तलवार, गदा तथा बाणों से मारने लगे।

15 कार्तिकेय चारों ओर से हो रही प्रद्युम्न के बाणों की वर्षा से व्यथित थे अतः वे अपने मोर-वाहन पर चढ़कर युद्धभूमि से भाग गये क्योंकि उनके अंग-प्रत्यंग से रक्त निकलने लगा था।

16 कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण बलराम की गदा से चोट खाकर धराशायी हो गये। जब इन दोनों असुरों के सैनिकों ने देखा कि उनके सेना-नायक मारे जा चुके हैं, तो वे सभी दिशाओं में तितर-बितर हो गये।

17 बाणासुर अपनी समूची सेना को छिन्नभिन्न होते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। सात्यकि से लड़ना छोड़कर और अपने रथ पर सवार होकर युद्धभूमि को पार करते हुए उसने कृष्ण पर आक्रमण कर दिया।

18 युद्ध करने की सनक में बहकर बाण ने एकसाथ अपने पाँच सौ धनुषों की डोरियाँ खींचकर प्रत्येक डोरी पर दो दो बाण चढ़ाये।

19 भगवान श्री हरि ने बाणासुर के सारे धनुषों को एक ही साथ काट दिया और उसके सारथी, रथ तथा घोड़ों को मार गिराया। तत्पश्चात भगवान ने अपना शंख बजाया।

20 तभी बाणासुर की माता कोटरा अपने पुत्र के प्राण बचाने की इच्छा से भगवान कृष्ण के समक्ष निर्वस्त्र तथा बाल बिखेरे खड़ी हो गई।

21 भगवान गदाग्रज ने उस स्त्री को देखे जाने से बचने के लिए अपना मुख पीछे की ओर मोड़ लिया और रथविहीन हो जाने तथा धनुष के टूट जाने से बाणासुर इस अवसर का लाभ उठाकर अपने नगर को भाग गया।

22 जब शिवजी के अनुचर भगा दिये गये, तो तीन सिर तथा तीन पैर वाला शिवज्वर कृष्ण पर आक्रमण करने के लिए लपका। ज्योंही शिवज्वर निकट पहुँचा तो ऐसा लगा कि वह दसों दिशाओं की सारी वस्तुओं को जला देगा।

23 तत्पश्चात इस अस्त्र को पास आते देखकर भगवान नारायण ने अपना निजी ज्वर अस्त्र, विष्णुज्वर, छोड़ा। इस तरह शिवज्वर तथा विष्णुज्वर एक-दूसरे से युद्ध करने लगे।

24 विष्णुज्वर से परास्त शिवज्वर पीड़ा से चिल्ला उठा। किन्तु कहीं आश्रय न पाकर भयभीत हुआ शिवज्वर इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण के पास शरण पाने की आशा से आया। इस तरह वह अपने हाथ जोड़कर उनकी प्रशंसा करने लगा।

25 शिवज्वर ने कहा: हे अनन्त शक्ति वाले, समस्त जीवों के परमात्मा भगवान, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप शुद्ध तथा पूर्ण चेतना से युक्त हैं और इस विराट ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन तथा संहार के कारण हैं आप पूर्ण शान्त हैं और आप परम सत्य (ब्रह्म) हैं जिनका प्रकारान्तर से सारे वेद उल्लेख करते हैं।

26 काल, भाग्य, कर्म, जीव तथा उसका स्वभाव, सूक्ष्म भौतिक तत्त्व, भौतिक शरीर, प्राणवायु, मिथ्या अहंकार, विभिन्न इन्द्रियाँ तथा जीव के सूक्ष्म शरीर में प्रतिबिम्बित इन सबों की समग्रता – ये सभी आपकी माया हैं, जो बीज तथा पौधे के अन्तहीन चक्र जैसे हैं। इस माया का निषेध, मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।

27 आप देवताओं, साधुओं तथा इस जगत के लिए धर्मसंहिता को बनाये रखने के लिए अनेक भावों से लीलाएँ करते हैं। इन लीलाओं से आप उनका भी वध करते हैं, जो सही मार्ग से हट जाते हैं और हिंसा द्वारा जीवन-यापन करते हैं। निस्सन्देह आपका वर्तमान अवतार पृथ्वी का भार उतारने के लिए है।

28 मैं आपके विष्णु-ज्वर अस्त्र के भयानक तेज से त्रस्त हूँ जो शीतल होकर भी ज्वल्यमान है। सारे देहधारी जीव तब तक कष्ट भोगते हैं जब तक वे भौतिक महत्वाकांक्षाओं से बँधे रहते हैं और आपके चरणकमलों की सेवा करने से दूर भागते हैं।

29 भगवान ने कहा: हे तीन सिरों वाले, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। मेरे ज्वर अस्त्र से तुम्हारा भय दूर हो और जो कोई भी हमारी इस वार्ता को सुने वह तुमसे भयभीत न हो।

30 ऐसा कहे जाने पर शिव-ज्वर ने अच्युत भगवान को प्रणाम किया और चला गया। किन्तु तभी बाणासुर अपने रथ पर सवार होकर भगवान कृष्ण से लड़ने के लिए प्रकट हुआ।

31 हे राजन, अपने एक हजार हाथों में असंख्य हथियार लिए उस अतीव क्रुद्ध असुर ने चक्रधारी भगवान कृष्ण पर अनेक बाण छोड़े।

32 जब बाण भगवान पर लगातार हथियार बरसाता रहा तो उन्होंने अपने तेज चक्र से बाणासुर की भुजाओं को काट डाला मानो वे वृक्ष की टहनियाँ हों।

33 बाणासुर की भुजाएँ कटते देखकर शिवजी को अपने भक्त के प्रति दया आ गयी अतः वे भगवान चक्रायुध (कृष्ण) के पास पहुँचे और उनसे इस प्रकार बोले।

34 श्री रुद्र ने कहा: आप ही एकमात्र परम सत्य, परम ज्योति तथा ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यक्ति के भीतर के गुह्य रहस्य हैं। जिनके हृदय निर्मल हैं, वे आपका दर्शन कर सकते हैं क्योंकि आप आकाश की भाँति निर्मल हैं।

35-36 आकाश आपकी नाभि है, अग्नि आपका मुख है, जल आपका वीर्य है और स्वर्ग आपका सिर है। दिशाएँ आपकी श्रवणेन्द्रिय (कान) हैं। औषधि-पौधे आपके शरीर के रोएँ हैं तथा जलधारक बादल आपके सिर के बाल हैं। पृथ्वी आपका पाँव है, चन्द्रमा आपका मन है तथा सूर्य आपकी दृष्टि (नेत्र) है, जबकि मैं आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका उदर है, इन्द्र आपकी भुजा है, ब्रह्मा आपकी बुद्धि है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और धर्म आपका हृदय है। निस्सन्देह आप आदि-पुरुष और समस्त लोकों के स्रष्टा हैं।

37 हे असीम शक्ति के स्वामी, इस भौतिक जगत में आपका वर्तमान अवतार न्याय के सिद्धान्तों की रक्षा करने तथा समग्र ब्रह्माण्ड को लाभ दिलाने के निमित्त है। हममें से प्रत्येक देवता आपकी कृपा तथा सत्ता पर आश्रित है और हम सभी देवता सात लोक मण्डलों को उत्पन्न करते हैं।

38 आप अद्वितीय, दिव्य तथा स्वयं-प्रकाश आदि-पुरुष हैं। अहैतुक होकर भी आप सबों के कारण हैं और परम नियन्ता हैं। आप पदार्थ के उन विकारों के रूप में अनुभव किये जाते हैं, जो आपकी माया द्वारा उत्पन्न हैं। आप इन विकारों की स्वीकृति इसलिए देते हैं जिससे विविध भौतिक गुण पूरी तरह प्रकट हो सकें।

39 हे सर्वशक्तिमान, जिस प्रकार सूर्य बादल से ढका होने पर भी बादल को तथा अन्य सारे दृश्य रूपों को भी प्रकाशित करता है उसी तरह आप भौतिक गुणों से ढके रहने पर भी स्वयं प्रकाशित बने रहते हैं और उन सारे गुणों को, उन गुणों से युक्त जीवों समेत, प्रकट करते हैं।

40 आपकी माया से मोहित बुद्धि वाले अपने बच्चों, पत्नी, घर इत्यादि में पूरी तरह से लिप्त और भौतिक दुख के सागर में निमग्न लोग कभी ऊपर उठते हैं, तो कभी नीचे डूब जाते हैं।

41 जिसने ईश्वर से यह मनुष्य जीवन उपहार के रूप में प्राप्त किया है किन्तु फिर भी जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने तथा आपके चरणों का आदर करने में विफल रहता है, वह सचमुच शोचनीय है क्योंकि वह अपने को ही धोखा देता है।

42 जो मर्त्य प्राणी अपने इन्द्रियविषयों के लिए, जिनका कि स्वभाव सर्वथा विपरीत है, आपको, अर्थात उसकी असली आत्मा, सर्वप्रिय मित्र तथा स्वामी हैं, छोड़ देता है, वह अमृत छोड़कर उसके बदले में विषपान करता है।

43 मैं, ब्रह्मा, अन्य देवता तथा शुद्ध मन वाले मुनिगण – सभी ने पूर्ण मनोयोग से आपकी शरण ग्रहण की है। आप हमारे प्रियतम आत्मा तथा प्रभु हैं।

44 हे भगवन, भौतिक जीवन से मुक्त होने के लिए हम आपकी पूजा करते हैं। आप ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता, सृजन और इसके अन्त–के कारण हैं। आप समभाव तथा पूर्ण शान्त, असली मित्र, आत्मा तथा पूज्य स्वामी हैं। आप अद्वितीय हैं और समस्त जगतों तथा जीवों के आश्रय हैं।

45 यह बाणासुर मेरा अति प्रिय तथा आज्ञाकारी अनुचर है और इसे मैंने अभयदान दिया है। अतएव हे प्रभु, इसे आप उसी तरह अपनी कृपा प्रदान करें जिस तरह आपने असुर-राज प्रह्लाद पर कृपा दर्शाई थी।

46 भगवान ने कहा: हे प्रभु, आपकी प्रसन्नता के लिए हमें अवश्य ही वह करना चाहिए जिसके लिए आपने हमसे प्रार्थना की है। मैं आपके निर्णय से पूरी तरह सहमत हूँ।

47 मैं वैरोचनि के इस असुर पुत्र को नहीं मारूँगा क्योंकि मैंने प्रह्लाद महाराज को वर दिया है कि मैं उसके किसी भी वंशज का वध नहीं करूँगा।

48 मैंने बाणासुर के मिथ्या गर्व का दमन करने के लिए ही इसकी भुजाएँ काट दी हैं और मैंने इसकी विशाल सेना का वध किया है क्योंकि वह पृथ्वी पर भार बन चुकी थी।

49 यह असुर, जिसकी अभी भी चार बाँहें हैं अजर तथा अमर होगा और आपके सेवक के रूप में सेवा करेगा। इस तरह उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा।

50 इस तरह भयमुक्त होकर बाणासुर ने अपना माथा जमीन पर टेककर भगवान कृष्ण को नमस्कार किया। तब बाण ने अनिरुद्ध तथा उसकी पत्नी को उनके रथ पर बैठाया और उन्हें कृष्ण के सामने ले आया।

51 तब भगवान कृष्ण ने अनिरुद्ध तथा उसकी पत्नी दोनों (जो सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से सजाये गये थे), को पूरी अक्षौहिणी से घेर लिया। इस तरह भगवान कृष्ण ने शिव से विदा ली और प्रस्थान किया।

52 तत्पश्चात भगवान अपनी राजधानी में प्रविष्ट हुए। नगर को झण्डियों तथा विजय तोरणों से सजाया गया था। इसकी गलियों तथा चौराहों पर पानी छिड़कवाया गया था। ज्योंही शंख, आनक तथा दुन्दुभियाँ गूँजने लगीं त्योंही भगवान के सम्बन्धी, ब्राह्मण तथा गणमान्य नागरिक उनका स्वागत करने के लिए आगे आये।

53 जो भी व्यक्ति प्रातःकाल उठकर शिव के साथ युद्ध में कृष्ण की विजय का स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होगी।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय बासठ – उषा अनिरुद्ध मिलन (10.62)

1 राजा परीक्षित ने कहा: यदुओं में श्रेष्ठ (अनिरुद्ध) ने बाणासुर की पुत्री उषा से विवाह किया। फलस्वरूप हरि तथा शंकर के बीच महान युद्ध हुआ। हे महायोगी, कृपा करके इस घटना के विषय में विस्तार से बतलाइये।

2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: बाण महान सन्त बलि महाराज के एक सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था। जब भगवान हरि वामनदेव के रूप में प्रकट हुए थे बलि महाराज ने सारी पृथ्वी उन्हें दान में दे दी थी। बलि महाराज से उत्पन्न बाणासुर शिवजी का महान भक्त हो गया। उसका आचरण सदैव सम्मानित था। वह उदार, बुद्धिमान, सत्यवादी तथा अपने व्रत का पक्का था। शोणितपुर नामक सुन्दर नगरी उसके अधीन थी। चूँकि बाणासुर को शिवजी का वरदहस्त प्राप्त था इसलिए देवता तक तुच्छ दासों की तरह उसकी सेवा में लगे रहते थे। एक बार जब शिवजी ताण्डव-नृत्य कर रहे थे तो बाण ने अपने एक हजार हाथों से वाद्य-यंत्र बजाकर उन्हें विशेष रूप से प्रसन्न कर लिया था।

3 समस्त जीवों के स्वामी, अपने भक्तों के दयामय आश्रय ने बाणासुर को उसका मनचाहा वर देकर प्रसन्न कर दिया। बाण ने शिवजी को अपनी नगरी के संरक्षक के रूप में चुना।

4 बाणासुर अपने बल से उन्मत्त था। एक दिन जब शिवजी उसके पास खड़े थे, तो बाणासुर ने अपने सूर्य जैसे चमचमाते मुकुट से उनके चरणकमलों का स्पर्श किया और उनसे इस प्रकार कहा।

5 बाणासुर ने कहा: हे महादेव, मैं समस्त लोकों के आध्यात्मिक गुरु तथा नियन्ता, आपको नमस्कार करता हूँ। आप उस स्वर्गिक-वृक्ष की तरह हैं, जो अपूर्ण इच्छाओं वाले व्यक्तियों की इच्छाएँ पूरी करता है।

6 आपके द्वारा प्रदत्त ये एक हजार भुजाएँ मेरे लिए केवल भारी बोझ बनी हुई हैं। तीनों लोकों में मुझे आपके सिवाय लड़ने के योग्य कोई व्यक्ति नहीं मिल पा रहा।

7 हे आदि-देव दिशाओं पर शासन करने वाले हाथियों से लड़ने के लिए उत्सुक मैं युद्ध के लिए खुजला रही अपनी भुजाओं से पर्वतों को चूर करते हुए आगे बढ़ता गया। यह देखकर बड़े-बड़े हाथी भी डर के मारे भाग गये।

8 यह सुनकर शिवजी क्रुद्ध हो उठे और बोले, “रे मूर्ख! जब तू मेरे समान व्यक्ति से युद्ध करेगा तो तेरी ध्वजा टूट जायेगी। उस युद्ध से तेरा दर्प नष्ट हो जायेगा।"

9 इस प्रकार उपदेश दिये जाने पर अज्ञानी बाणासुर प्रसन्न हुआ। तत्पश्चात हे राजन, शिवजी ने जो भविष्यवाणी की थी उसकी प्रतीक्षा करने (अपने पराक्रम के विनाश की प्रतीक्षा करने) वह अपने घर चला गया।

10 बाण की पुत्री कुमारी उषा ने स्वप्न में प्रद्युम्न के पुत्र के साथ रमण किया यद्यपि उसने इसके पूर्व कभी भी अपने प्रेमी को देखा या सुना नहीं था।

11 स्वप्न में उसे न देखकर उषा अपनी सखियों के बीच में यह चिल्लाते हुए अचानक उठ बैठी, “कहाँ हो मेरे प्रेमी?” वह अत्यन्त विचलित एवं हड़बड़ाई हुई थी।

12 बाणासुर का मंत्री कुम्भाण्ड था जिसकी पुत्री चित्रलेखा थी। वह उषा की सखी थी, अतः उसने उत्सुकतापूर्वक अपनी सखी से पूछा।

13 चित्रलेखा ने कहा: हे सुन्दर भौंहों वाली, तुम किसे ढूँढ रही हो? तुम यह कौन-सी इच्छा अनुभव कर रही हो? हे राजकुमारी, अभी तक मैंने किसी को तुमसे पाणिग्रहण करते नहीं देखा।

14 उषा ने कहा: मैंने सपने में एक पुरुष देखा जिसका रंग साँवला था, जिसकी आँखें कमल जैसी थीं, जिसके वस्त्र पीले थे और भुजाएँ बलिष्ठ थीं। वह ऐसा था, जो स्त्रियॉं के हृदयों को स्पर्श कर जाता है।

15 मैं उसी प्रेमी को ढूँढ रही हूँ। मुझे अपने अधरों की मधु पिलाकर वह कहीं और चला गया है और इस तरह उसने मुझे दुख के सागर में फेंक दिया है। मैं उसके लिए अत्यधिक लालायित हूँ।

16 चित्रलेखा ने कहा: मैं तुम्हारी व्याकुलता दूर कर दूँगी। यदि वह तीनों लोकों के भीतर कहीं भी मिलेगा तो मैं तुम्हारे चित्त को चुराने वाले इस भावी पति को ले आऊँगी। तुम मुझे बतला दो कि आखिर वह है कौन?

17 यह कहकर चित्रलेखा विविध देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों, चारणों, पन्नगों, विद्याधरों, यक्षों तथा मनुष्यों के सही-सही चित्र बनाती गयी।

18-19 हे राजन, चित्रलेखा ने मनुष्यों में से वृष्णियों के चित्र खींचे जिनमें शूरसेन, आनकदुन्दुभि, बलराम, तथा कृष्ण सम्मिलित थे। जब उषा ने प्रद्युम्न का चित्र देखा तो वह लजा गई और जब उसने अनिरुद्ध का चित्र देखा तो उलझन के मारे उसने अपना सिर नीचे झुका लिया। उसने हँसते हुए कहा, “यही है, यही है, वह।"

20 योगशक्ति से चित्रलेखा ने उसे कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के रूप में पहचान लिया। हे राजन, तब वह आकाश-मार्ग से द्वारका नगरी गई जो कृष्ण के संरक्षण में थी।

21 वहाँ पर उसने प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध को एक सुन्दर बिस्तर पर सोते पाया। उसे वह अपनी योगशक्ति से शोणितपुर ले गई जहाँ उसने अपनी सखी उषा को उसका प्रेमी लाकर भेंट कर दिया।

22 जब उषा ने पुरुषों में सर्वाधिक सुन्दर उस पुरुष को देखा तो प्रसन्नता के मारे उसका चेहरा खिल उठा। वह अनिरुद्ध को अपने निजी कक्ष में ले गयी जिसे मनुष्यों को देखने तक की मनाही थी और वहाँ उसके साथ रमण किया।

23-24 उषा ने अमूल्य वस्त्रों के साथ-साथ मालाएँ, सुगन्धियाँ, धूप, दीपक, आसन, पेय तथा सभी प्रकार के भोजन इत्यादि देकर श्रद्धापूर्ण सेवा द्वारा अनिरुद्ध की पूजा की। इस तरह तरुणियों के कक्ष में छिप कर रहते हुए अनिरुद्ध को समय बीतने का कोई ध्यान न रहा क्योंकि उसकी इन्द्रियाँ उषा द्वारा मोहित कर ली गई थीं। उषा का स्नेह उसके प्रति निरन्तर बढ़ता जा रहा था।

25-26 संरक्षिकाओं ने उषा में सहवास के अचूक लक्षण देखे जिसने अपना कौमार्य-व्रत भंग कर दिया था और यदुवीर द्वारा भोगी जा रही थी। ये संरक्षिकाएँ बाणासुर के पास गईं और उससे कहा, “हे राजन, हमने आपकी पुत्री में अनुचित आचरण देखा है, जो किसी तरुणी के परिवार की ख्याति को विनष्ट करनेवाला है।

27 हे स्वामी हम अपने स्थानों से कहीं नहीं हटीं और सतर्कतापूर्वक उसकी निगरानी करती रही हैं अतः यह हमारी समझ में नहीं आता कि यह कुमारी जिसे कोई पुरुष देख भी नहीं सकता महल के भीतर कैसे दूषित हो गई है।

28 अपनी पुत्री के व्यभिचार को सुनकर अत्यन्त क्षुब्ध बाणासुर तुरन्त ही कुमारियों के आवासों की ओर गया। वहाँ उसने यदुओं में विख्यात अनिरुद्ध को देखा।

29-30 बाणासुर ने अपने समक्ष अद्वितीय सौन्दर्य से युक्त, साँवले रंग का, पीतवस्त्र पहने कमल जैसे नेत्रों वाले एवं विशाल बाहुओं वाले कामदेव के आत्मज को देखा। उसका मुखमण्डल तेजोमय कुण्डलों, केश तथा हँसीली चितवनों से सुशोभित था। वह अपनी अत्यन्त मंगलमयी प्रेमिका के सम्मुख बैठा हुआ उसके साथ चौसर खेल रहा था, उसकी भुजाओं के बीच में वासन्ती चमेली की माला लटक रही थी, यह सब देखकर बाणासुर चकित था।

31 बाणासुर को अनेक सशस्त्र रक्षकों सहित घुसते हुए देखकर अनिरुद्ध ने अपनी लोहे की गदा उठाई और अपने ऊपर आक्रमण करने वाले पर प्रहार करने के लिए सन्नद्ध होकर तनकर खड़ा हो गया। वह दण्डधारी साक्षात काल की तरह लग रहा था।

32 जब रक्षकगण उसे पकड़ने के प्रयास में चारों ओर से उसकी ओर टूट पड़े तो अनिरुद्ध ने उन पर उसी तरह वार किया जिस तरह कुत्तों पर सूअरों का झुण्ड मुड़कर प्रहार करता है। उसके वारों से आहत रक्षकगण महल से अपनी जान बचाकर भाग गये। उनके सिर, जाँघें तथा बाहुएँ टूट गई थीं।

33 किन्तु जब अनिरुद्ध बाण की सेना पर प्रहार कर रहा था, तो शक्तिशाली बलि-पुत्र ने क्रोधपूर्वक उसे नागपाश से बाँध लिया। जब उषा ने अनिरुद्ध का बाँधा जाना सुना तो वह शोक तथा विषाद से अभिभूत हो गई। उसकी आँखें आँसुओं से भर आईं और वह रोने लगी।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इकसठ – बलराम द्वारा रुक्मी का वध (10.61)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण की प्रत्येक पत्नी से दस-दस पुत्र हुए जो अपने पिता से कम नहीं थे और जिनके पास अपने पिता का सारा निजी ऐश्वर्य था।

2 भगवान श्रीकृष्ण के बारे में पूरी सच्चाई न समझने के कारण उनकी प्रत्येक पत्नी यही सोचती थी कि वे उसके महल में निरन्तर रहते हैं, अतः वही उनकी प्रिय पत्नी है।

3 भगवान की पत्नियाँ उनके कमल जैसे सुन्दर मुख, लम्बी बाँहों, बड़ी बड़ी आँखों, हास्य से पूर्ण उनकी प्रेममयी चितवनों तथा मनोहर बातों से पूरी तरह मोहित थीं, किन्तु इन समस्त आकर्षणों के होते हुए भी सर्वशक्तिमान भगवान के मन को जीत नहीं पाईं।

4 इन सोलह हजार रानियों की भौहें उनके मनोभावों को लजीली हास्ययुक्त तिरछी चितवनों से माधुर्य सन्देश भेजती थीं, किन्तु अपनी भौंहों को नचाने या अन्य साधनों से भगवान कृष्ण के मन को चलायमान नहीं कर सकीं।

5 इस तरह इन सबने रमापति को अपने पति रूप में प्राप्त किया यद्यपि ब्रह्मा जैसे बड़े बड़े देवता भी उन तक पहुँचने की विधि नहीं जानते। प्रेम में निरन्तर वृद्धि के साथ, नित नवीन घनिष्ठ संग हेतु उत्सुक ये (पत्नियाँ) उनके प्रति अनुराग का अनुभव करतीं, उनसे हास्ययुक्त चितवनों का आदान-प्रदान करतीं।

6 यद्यपि भगवान की रानियों के पास सैकड़ों दासियाँ थीं, तथापि वे विनयपूर्वक भगवान के पास जाकर, आसन देकर, उत्तम सामग्री से पूजा करके, चरणों का प्रक्षालन कर तथा दबाकर, खाने के लिए पान देकर, पंखा झलकर, सुगन्धित चन्दन का लेप करके, फूल की मालाओं से सजाकर, केश सँवार कर, बिछौना ठीक करके, नहलाकर तथा नाना प्रकार की भेंटें देकर स्वयं उनकी सेवा करती थीं।

7 भगवान कृष्ण की प्रत्येक पत्नी से दस दस पुत्र हुए। उन पत्नियों में से आठ पटरानियाँ थीं, जिनका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ। अब मैं तुम्हें उन आठों रानियों के पुत्रों के नाम बतलाऊँगा जिनमें प्रद्युम्न मुख्य थे।

8-9 महारानी रुक्मिणी का प्रथम पुत्र प्रद्युम्न था। उन्हीं के पुत्रों में चारुदेष्ण, सुदेष्ण, बलशाली चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु तथा दसवाँ पुत्र चारु थे। भगवान हरि के इन पुत्रों में से कोई भी अपने पिता से कम नहीं था।

10-12 सत्यभामा से दस पुत्र थे--भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान, चन्द्रभानु, बृहदभानु, अतिभानु (आठवाँ), श्रीभान तथा प्रतिभानु। जाम्बवती के पुत्रों के नाम थे – साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, सतजित, सहस्रजित, विजय, चित्रकेतु, वासुमान, द्रविड़ तथा क्रतु। साम्ब आदि ये दसों अपने पिता के अत्यन्त लाड़ले थे।

13 नाग्नजिती के पुत्र थे वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु तथा ऐश्वर्यशाली कुन्ति।

14 श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श तथा पूर्णमास कालिन्दी के पुत्र थे। उनका सबसे छोटा पुत्र सोमक था।

15 माद्रा के पुत्र थे प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, उर्धग, महाशक्ति, सह, ओज तथा अपराजित।

16 मित्रविन्दा के पुत्रों के नाम थे वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, उन्नाद, महान्स, पावन, वह्रि, तथा क्षुधि।

17 भद्रा के पुत्र थे संग्रामजित, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयुर तथा सत्यक।

18 दीप्तिमान, ताम्रतप्त इत्यादि भगवान कृष्ण द्वारा रोहिणी से उत्पन्न किए गये पुत्र थे। भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न ने रुक्मी की पुत्री रुक्मवती के गर्भ से शक्तिशाली अनिरुद्ध को जन्म दिया।

19 हे राजन, यह सब तब हुआ जब वे भोजकट नगर में रह रहे थे। हे राजन कृष्ण के पुत्रों के पुत्रों तथा पौत्रों की संख्या करोड़ों में थी। सोलह हजार माताओं ने इस वंश को आगे बढ़ाया।

20 राजा परीक्षित ने कहा: रुक्मी ने कैसे अपने शत्रु के पुत्र को अपनी पुत्री प्रदान की? रुक्मी तो युद्ध में भगवान कृष्ण द्वारा पराजित किया गया था और उन्हें मार डालने की ताक में था। हे विद्वान, कृपा करके मुझे बतलाइये कि ये दोनों शत्रु पक्ष किस तरह विवाह के माध्यम से जुड़ सके।

21 जो अभी घटित नहीं हुआ तथा भूतकाल या वर्तमान की बातें जो इन्द्रियों के परे, सुदूर या भौतिक अवरोधों से अवरुद्ध हैं, उन्हें योगीजन भलीभाँति देख सकते हैं।

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने स्वयंवर उत्सव में रुक्मावती ने प्रद्युम्न को चुना, जो कि साक्षात कामदेव थे। तब एक ही रथ पर अकेले लड़ते हुए प्रद्युम्न ने राजाओं को युद्ध में पराजित किया और वे उसे हर ले गये।

23 यद्यपि रुक्मी कृष्ण के प्रति अपनी शत्रुता को सदैव स्मरण रखे रहा क्योंकि उन्होंने उसको अपमानित किया था किन्तु अपनी बहन को प्रसन्न करने के लिए उसने अपनी पुत्री का विवाह अपने भानजे के साथ होने की स्वीकृति प्रदान कर दी।

24 हे राजन, कृतवर्मा के पुत्र बली ने रुक्मिणी की विशाल नेत्रों वाली तरुण कन्या चारुमती से विवाह कर लिया।

25 रुक्मी ने अपनी पौत्री रोचना को अपनी कन्या के पुत्र अनिरुद्ध को दे दिया यद्यपि भगवान हरि से उसकी घोर शत्रुता थी। इस विवाह को अधार्मिक मानते हुए भी रुक्मी स्नेह-बन्धन से बँधकर अपनी बहन को प्रसन्न करने का इच्छुक था।

26 हे राजा, उस विवाह के उल्लासपूर्ण अवसर पर महारानी रुक्मिणी, बलराम, कृष्ण तथा कृष्ण के अनेक पुत्र, जिनमें साम्ब तथा प्रद्युम्न मुख्य थे, भोजकट नगर गये।

27-28 विवाह होने के पश्चात कालिंगराज इत्यादि दम्भी राजाओं की टोली ने रुक्मी से कहा, “तुम्हें चाहिए कि बलराम को चौसर में हरा दो – हे राजन, वे चौसर में पटु नहीं हैं फिर भी उन्हें इसका व्यसन है।" इस तरह उकसाये जाने पर रुक्मी ने बलराम को ललकारा और उनके साथ चौसर की बाजी खेलने लगा।

29 उस स्पर्धा में सर्वप्रथम बलराम ने एक सौ सिक्कों की बाजी स्वीकार की, फिर एक हजार की और तब दस हजार की। रुक्मी ने इस पहली पारी को जीत लिया तो कालिंगराज अपने सारे दाँत निपोर कर बलराम पर ठहाका मारकर हँसा। बलराम इसे सहन नहीं कर पाये।

30 इसके बाद रुक्मी ने एक लाख सिक्कों की बाजी लगाई जिसे बलराम ने जीत लिया। किन्तु रुक्मी ने यह घोषित करते हुए धोखा देना चाहा कि "मैं विजेता हूँ।"

31 बलराम के नेत्र क्रोध से और अधिक लाल हो रहे थे। पूर्णमासी के दिन उफनते समुद्र की भाँति–क्रुद्ध होकर उन्होंने दस करोड़ मुहरों की बाजी लगाई।

32 इस बाजी को भी बलराम ने स्पष्टतः जीत लिया किन्तु रुक्मी ने फिर से छल करके यह घोषित किया, “मैं जीता हूँ। यहाँ उपस्थित ये गवाह कहें – जो कुछ उन्होंने देखा है।"

33 तभी आकाशवाणी हुई "इस बाजी को बलराम ने न्यायपूर्वक जीता है। रुक्मी निश्चित रूप से झूठ बोल रहा है।"

34 दुष्ट राजाओं द्वारा उकसाये (प्रेरित किए) जाने से रुक्मी ने हँसी उड़ाते हुए इस दैवी वाणी की उपेक्षा कर दी। वस्तुतः साक्षात काल रुक्मी को प्रेरित कर रहा था।

35 रुक्मी ने कहा: तुम ग्वाले तो जंगलों में घूमते रहते हो चौसर के बारे में कुछ भी नहीं जानते। चौसर खेलना और बाण चलाना तो एकमात्र राजाओं के लिए हैं, तुम जैसों के लिए नहीं।

36 इस प्रकार रुक्मी द्वारा अपमानित करने तथा राजाओं द्वारा उपहास किए जाने पर बलराम का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने अपनी गदा उठाई और उस शुभ सभा में रुक्मी का वध कर दिया।

37 कालिंगराज ने, जो बलराम पर दाँत निपोरते हुए हँसा था – भागने का प्रयास किया किन्तु क्रुद्ध बलराम ने तेजी से उसे दसवें कदम में ही पकड़ लिया और उसके सारे दाँत तोड़ डाले।

38 बलराम की गदा से चोट खाकर राजाओं की बाँहें, जांघें तथा सिर टूटे थे और उनके शरीर रक्त से लथपथ थे। यह देखकर अन्य राजा भय के मारे भाग खड़े हुए।

39 हे राजन, जब भगवान कृष्ण का साला (रुक्मी) मार दिया गया तो उन्होंने न तो इसे सराहा न ही विरोध प्रकट किया, क्योंकि वे यह जानते थे कि रुक्मिणी या बलराम से स्नेह-बन्धन बिगड़ सकते हैं।

40 भगवान की कृपा से सारे कार्य पूर्ण हो गये, तब बलराम इत्यादि दशार्हो ने अनिरुद्ध तथा उसकी पत्नी को एक सुन्दर रथ में बैठा लिया और भोजकट से द्वारका के लिए प्रस्थान कर गये।

समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान 

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अध्याय साठ – रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास (10.60)

1 श्री बादरायणी ने कहा: एक दिन ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक गुरु भगवान कृष्ण शयनागार में आराम से बैठे थे। महारानी रुक्मिणी अपनी दासियों के साथ अनेक प्रकार से भगवान की सेवा कर रही थी।

2 इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाले, अजन्मे परम नियन्ता भगवान ने, धार्मिक नियमों को सुरक्षित रखने के लिए यदुवंश में जन्म लिया।

3-6 महारानी रुक्मिणीजी का महल अत्यन्त सुन्दर था। महल में स्थित कमरे में चँदोवे से मोतियों की चमकीली लड़ियों की झालरें लटक रही थीं। तेजोमय मणियों के दीपक जगमगा रहे थे। चमेली तथा अन्य फूलों की मालाएँ महक रही थी, जिनसे गुनगुनाते भौंरों के समूह आकृष्ट हो रहे थे। जालीदार झरोखों से आनेवाली चन्द्रमा की निर्मल किरणें चमक रही थी। उद्यान में पारिजात उपवन की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखों की जालियों से अगुरु की सुगन्ध बाहर निकल रही थी। दूध के फेन के समान उज्ज्वल बिछौने से युक्त सुन्दर पलंग पर एक भव्य तकिये के सहारे, भगवान श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से विराजमान थे। महारानी समस्त लोकों के परमेश्वर अपने पति की सेवा कर रही थीं।

7 देवी रुक्मिणी ने अपनी दासी के हाथ से रत्नों की डंडी वाला पंखा ले लिया और भगवान पर पंखा झलकर सेवा करने लगीं।

8 महारानी रुक्मिणी का हाथ अँगूठियों, चूड़ियों तथा चामर पंखे से सुशोभित था। वे भगवान कृष्ण के निकट खड़ी हुई अतीव सुन्दर लग रही थीं। उनके रत्नजटित पायल शब्द कर रहे थे तथा उनके गले की माला चमचमा रही थी। वे कमर में अमूल्य करधनी पहने थीं।

9 भगवान कृष्ण ने जब रुक्मिणी का लक्ष्मी के रूप में चिन्तन किया जो केवल उन्हें चाहती हैं, तो उन्हें मन्द हँसी आ गई। भगवान अपनी लीलाएँ करने के लिए नाना रूप धारण करते हैं। वे अत्यन्त प्रसन्न थे कि लक्ष्मी ने जो रूप धारण कर रखा था वह उनकी प्रेयसी होने के अनुरूप है। रुक्मिणीजी का मनोहारी मुखमण्डल घुँघराले बालों, कुण्डलों, गले में पड़े हार तथा उज्ज्वल प्रसन्न मुसकान के अमृत से सुशोभित था। तब भगवान ने उनसे इस प्रकार कहा।

10 भगवान ने कहा: हे राजकुमारी, तुम्हारे साथ लोकपालों जैसे शक्तिशाली अनेक राजा पाणिग्रहण करना चाहते थे। वे सभी राजनैतिक प्रभाव, सम्पत्ति, सौन्दर्य, उदारता तथा शारीरिक शक्ति से ऊर्जित थे।

11 जब तुम्हें तुम्हारे भाई तथा पिता ने उनको अर्पित कर दिया था, तो फिर तुमने चेदि के राजा तथा उन अन्य विवाहार्थियों को क्यों अस्वीकार कर दिया जो कामोन्मत्त हुए तुम्हारे समक्ष खड़े थे? तुमने हमें ही क्यों चुना जो तुम्हारे समान नहीं हैं?

12 हे सुन्दरी, इन राजाओं से भयभीत होकर हमने समुद्र में शरण ली। हम शक्तिशाली राजाओं के शत्रु बन गए और हमने अपने राज सिंहासन को प्रायः त्याग दिया था।

13 हे सुन्दरी, जब स्त्रियाँ ऐसे पुरुषों के साथ रहती है जिनका आचरण अनिश्चित होता है और जो समाज-सम्मत मार्ग का अनुसरण नहीं करते तो प्रायः उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है।

14 हमारे पास भौतिक सम्पत्ति नहीं है और हम उन्हें ही प्रिय हैं जिनके पास हमारी ही तरह कुछ भी नहीं होता इसलिए हे सुमध्यमे, धनी लोग शायद ही हमारी पूजा करते हों।

15 विवाह तथा मैत्री उन दो मनुष्यों के मध्य ही उचित होती है जो समान सम्पत्ति, जन्म, प्रभाव तथा आकृति वाले हों, किन्तु अपने से उत्तम या अधम के मध्य नहीं।

16 हे वैदर्भी, दूरदर्शी न होने से तुमने इसका विचार नहीं किया और इसीलिए तुमने अपने पति रूप में हमें चुना है यद्यपि हममें कोई सद्गुण नहीं है और मुग्ध भिखारी ही हमारी प्रशंसा करते हैं।

17 अब तुम्हें चाहिए कि अधिक उपयुक्त किसी उच्च कोटि के राजन्य पुरुष को स्वीकार कर लो जो तुम्हें इस जीवन तथा अगले जीवन में भी ऐसी प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करने में सहायता कर सके, जो तुम चाहती हो।

18-19 हे सुन्दरी – शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी सभी मुझसे घृणा करते हैं। इन्हीं राजाओं की उद्दण्डता को दूर करने के लिए ही, हे कल्याणी, मैं तुम्हें हर लाया क्योंकि ये सभी शक्ति के मद से अन्धे हो चले थे। मेरा उद्देश्य दुष्टों की शक्ति को चूर करना है।

20 हम स्त्रियों, बच्चों तथा सम्पत्ति की तनिक भी परवाह नहीं करते। सदैव आत्मतुष्ट रहते हुए हम शरीर तथा घर के लिए कार्य नहीं करते बल्कि प्रकाश की तरह हम केवल साक्षी रहते हैं।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: रुक्मिणी ने स्वयं को भगवान की विशिष्ट प्रिया समझ रखा था क्योंकि उन्होंने कभी भी भगवान का संग नहीं छोड़ा था। इसी गर्व को दूर करने के लिए – भगवान इस प्रकार कहकर चुप हो गये।

22 रुक्मिणीदेवी ने इसके पूर्व अपने प्रिय त्रिलोकेश-पति से ऐसी अप्रिय बातें नहीं सुनी थीं अतः वे भयभीत हो उठीं। उनके हृदय में कँपकपी शुरु हो गई और भीषण उद्विग्नता में वे रोने लगीं।

23 वे लाल-लाल चमकीले नाखूनों से युक्त अपने कोमल पाँव से भूमि कुरेदने लगीं और अपनी आँख में लगे काजल द्वारा काले हुए आँसुओं ने कुमकुम से रंगे हुए वक्षस्थल को भिगो दिया। वे मुख नीचा किये खड़ी रही और अत्यधिक शोक से उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई।

24 रुक्मिणी का मन दुख, भय तथा शोक से अभिभूत हो गया। उनकी चूड़ियाँ हाथ से सरक गईं और पंखा (चँवर) जमीन पर गिर पड़ा। वे मोहवश सहसा मूर्छित हो गई, उनके बाल बिखर गये और वे भूमि पर इस तरह गिर पड़ी जिस तरह हवा से उखड़ा हुआ केले का वृक्ष गिर पड़ता है।

25 यह देखकर कि उनकी प्रिया उनके प्रेम से इस तरह बँधी हैं, वे उनके तंग करने के पूरे आशय को नहीं समझ सकीं, दयालु भगवान कृष्ण को उन पर दया आ गई।

26 भगवान तुरन्त बिस्तर से उतर आये। चार भुजाएँ प्रकट करते हुए उन्होंने रुक्मिणी को उठाया, उनके बाल ठीक किए और कर-कमलों से उनका मुख सहलाया।

27-28 हे राजन, उनके अश्रुपूरित नेत्रों को पोंछ कर अपने भक्तों के लक्ष्य भगवान ने अपनी सती पत्नी का आलिंगन किया जो एकमात्र उन्हीं को चाह रही थीं। सान्त्वना देने की कला में पटु श्रीकृष्ण ने दयनीय रुक्मिणी को मृदुता से ढाढ़स बँधाया जिनका मन भगवान के चातुरीपूर्ण हास-परिहास से भ्रमित था और जो इस तरह कष्ट भोगने के योग्य न थीं।

29 भगवान ने कहा: हे वैदर्भी, तुम मुझसे नाराज मत होओ। मैं जानता हूँ कि तुम पूरी तरह मुझमें समर्पित हो। हे प्रिय देवी, मैंने तो ठिठोली में ऐसा कहा था क्योंकि मैं सुनना चाहता था कि तुम क्या कहोगी।

30 मैं यह भी चाहता था कि प्रणयकोप में काँपते तुम्हारे अधर, तिरछी चितवनों वाली तुम्हारी आँखों के लाल-लाल कोर तथा क्रोध से तनी तुम्हारी सुन्दर भौंहों की रेखा से युक्त तुम्हारा मुख देख सकूँ ।

31 हे भीरु एवं चंचल, संसारी गृहस्थजन घर में जो सबसे बड़ा आनन्द लूट सकते हैं, वह है अपनी प्रियतमाओं के साथ परिहास करने में बिताया जाने वाला समय।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, महारानी वैदर्भी भगवान द्वारा पूरी तरह परिशान्त कर दी गई और वे समझ गई कि भगवान ने परिहास किया है। इस तरह महारानी रुक्मिणी का यह भय जाता रहा कि कृष्ण उनका परित्याग कर देंगे।

33 हे भरतवंशी, भगवान के मुख पर अपनी आकर्षक तथा स्नेहिल चितवन डालते हुए रुक्मिणी लज्जा से हँसते हुए भगवान से इस प्रकार बोलीं।

34 श्री रुक्मिणी ने कहा: हे कमल-नयन, आपने जो कहा है वस्तुतः वह सच है। मैं सचमुच सर्वशक्तिमान भगवान के अनुपयुक्त हूँ। कहाँ तीन प्रमुख देवों के स्वामी एवं अपनी ही महिमा में मग्न रहने वाले भगवान और कहाँ मैं संसारी गुणों वाली स्त्री जिसके चरण मूर्खजन ही पकड़ते हैं?

35 हाँ, भगवान उरुक्रम, आप समुद्र के भीतर शयन करते हैं मानो भौतिक गुणों से भयभीत हों और इस तरह आप शुद्ध चेतना में हृदय के भीतर परमात्मा रूप में प्रकट होते हैं। आप निरन्तर मूर्ख इन्द्रियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहते हैं, यहाँ तक कि आपके दास भी अज्ञान के अंधकार में ले जाने वाले साम्राज्य के अवसर को दुत्कार देते हैं।

36 जब आपकी गतिविधियाँ, उन मुनियों के लिए भी अस्पष्ट हैं, जो आपके चरणकमलों के मधु का आस्वादन करते हैं, तो फिर वे निश्चय ही मनुष्यों की समझ में न आने वाली हैं, जो पशुओं जैसा आचरण करते हैं और हे सर्वशक्तिमान प्रभु, जिस तरह आपके कार्यकलाप दिव्य हैं उसी तरह आपके अनुयायियों के भी हैं।

37 आपके पास कुछ भी नहीं हैं क्योंकि आपसे परे कुछ भी नहीं है। हे परम भोक्ता – ब्रह्मा तथा अन्य देवता तक आपको नमस्कार करते हैं। जो लोग अपनी सम्पत्ति से अन्धे हुए रहते हैं और अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में लीन रहते हैं, वे काल रूप आपको नहीं पहचान पाते। देवताओं को आप उसी तरह परम प्रिय हैं जिस तरह वे आपको हैं।

38 आप समस्त मानवीय लक्ष्यों के साकार रूप हैं और आप ही जीवन के अन्तिम लक्ष्य हैं। हे सर्वशक्तिमान विभु आपको प्राप्त करने के इच्छुक बुद्धिमान व्यक्ति अन्य सारी वस्तुओं का परित्याग कर देते हैं। वे ही आपके सान्निध्य के पात्र हैं, न कि वे स्त्री तथा पुरुष जो पारस्परिक विषय-सुख से उत्पन्न सुख तथा दुख में लीन रहते हैं।

39 यह जानते हुए कि संन्यासियों का दण्ड त्यागे हुए महामुनि आपके यश का बखान करते हैं, कि आप तीनों जगतों के परमात्मा हैं और आप इतने दानी हैं कि अपने आपको भी दे डालते हैं, मैंने ब्रह्मा, शिव तथा स्वर्ग के शासकों को, जिनकी महत्वाकांक्षाएँ आपकी भृकुटी से उत्पन्न काल के वेग से नष्ट हो जाती हैं, त्याग कर आपको अपने पति रूप में चुना है। तो फिर अन्य किसी विवाहार्थी में मेरी क्या रुचि हो सकती थी?

40 हे प्रभु जिस तरह सिंह भेंट का अपना उचित भाग लेने के लिए छोटे पशुओं को भगा देता है उसी तरह आपने शार्ङ्ग धनुष की टनकार से एकत्रित राजाओं को भगा दिया और फिर मुझे अपने उचित भाग के रूप में अपना लिया। अतः हे गदाग्रज, आपके द्वारा यह कहना युक्ति-संगत नहीं है कि आपने उन राजाओं के भय से समुद्र में शरण ग्रहण की।

41 आपका सान्निध्य प्राप्त करने की अभिलाषा से अंग, वैन्य, जायन्त, नाहुष, गय तथा अन्य श्रेष्ठ राजाओं ने अपना भरा-पूरा साम्राज्य त्याग कर आपकी खोज करने के लिए जंगल में प्रवेश किया।

42 हे कमलनयन, वे राजा आपके मार्ग का अनुसरण करने में क्या किसी प्रकार का कष्ट उठा रहे हैं? आपके चरणकमलों की सुगन्ध, जिसकी महिमा बड़े बड़े सन्त गाते हैं, लोगों को मोक्ष प्रदान करती है और यही लक्ष्मीजी का धाम है। इस सुगन्ध को सूँघ कर कौन स्त्री होगी जो किसी अन्य की शरण में जायेगी? चूँकि आप दिव्य गुणों के धाम हैं अतः ऐसी कौन-सी मर्त्य स्त्री होगी जो अपने सच्चे स्वार्थ को पहचानने की अन्तर्दृष्टि से युक्त होकर उस सुगन्ध का अनादर करेगी और किसी ऐसे पर आश्रित होगी जो सदैव महान भय से आतंकित रहता हो?

43 चूँकि आप मेरे अनुरूप हैं इसलिए मैंने तीनों जगत के स्वामी तथा परमात्मा आपको ही चुना है, जो इस जीवन में तथा अगले जीवन में हमारी इच्छाओं को पूरा करते हैं। आपके चरण, जो अपने उन पूजकों के पास पहुँच कर मोह से मुक्ति दिलाते हैं – जो एक योनि से दूसरी योनि में भ्रमण करते रहे हैं – मुझे शरण प्रदान करें।

44 हे अच्युत कृष्ण, आपने जिन राजाओं के नाम लिये हैं उनमें से कोई राजा ऐसी स्त्री का पति बन जाये जिसके कानों ने कभी भी – आपकी उस महिमा का श्रवण नहीं किया जो शिव तथा ब्रह्मा की सभाओं में गाई जाती है – ऐसी स्त्रियों के घरों में ये राजा गधों, बैलों, कुत्तों, बिल्लियों तथा नौकरों की तरह रहते हैं।

45 जो स्त्री आपके चरणकमलों के मधु की सुगन्ध का आस्वादन करने से वंचित रह जाती है, वह पूरी तरह मूर्ख (मूढ़) बनकर रह जाती है और चमड़ी, मूँछ, नाखून, बाल तथा रोओं से ढके और माँस, आस्थियों, रक्त, कीट, मल, कफ, पित्त तथा वायु से भरे जीवित शव को पति या प्रेमी रूप में स्वीकार करती है।

46 हे कमल-नयन, यद्यपि आप अपने में तुष्ट रहते हैं जिससे शायद ही कभी मेरी ओर ध्यान देते हैं, तो भी कृपा करके मुझे अपने चरणकमलों के प्रति स्थायी प्रेम का आशीर्वाद दें। जब आप ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के लिए रजोगुण की प्रधानता धारण करते हैं तभी आप मुझ पर दृष्टि डालते हैं, जो निस्सन्देह मेरे ऊपर आपकी महती कृपा होती है।

47 हे मधुसूदन, मैं आपके वचनों को असत्य नहीं मानती। प्रायः अविवाहिता लड़की पुरुष के प्रति आकृष्ट हो जाती है जैसा अम्बा के साथ हुआ।

48 कुलटा स्त्री का मन सदैव नवीन प्रेमियों के लिए लालायित रहता है, चाहे वह विवाहिता क्यों न हो। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी कुलटा स्त्री को अपने साथ न रखे क्योंकि यदि वह ऐसा करेगा तो वह इस जीवन में तथा अगले जीवन में सौभाग्य से वंचित रहेगा।

49 भगवान ने कहा: हे साध्वी, हे राजकुमारी, हमने तुम्हें इसीलिए झुठलाया क्योंकि हम तुम्हें इस प्रकार बोलते हुए सुनना चाहते थे। निस्सन्देह तुमने हमारे वचनों के उत्तर में जो बातें कही हैं, वे एकदम सही हैं।

50 हे सुन्दर तथा सुशील स्त्री, तुम भौतिक इच्छाओं से मुक्त होने के लिए जिस भी वर की आशा रखती हो वे तुम्हारे हैं क्योंकि तुम मेरी अनन्य भक्त हो।

51 हे निष्पाप, अब मैंने तुम्हारा शुद्ध पति-प्रेम तथा पातिव्रत्य देख लिया है। यद्यपि तुम मेरे वचनों से विचलित थीं किन्तु तुम्हारा मन मुझसे दूर नहीं ले जाया जा सका।

52 यद्यपि मुझमें आध्यात्मिक मोक्ष प्रदान करने की शक्ति है किन्तु विषयी लोग अपने संसारी गृहस्थ जीवन के लिए मेरा आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तपस्या तथा व्रतों द्वारा मेरी पूजा करते हैं। ऐसे लोग मेरी माया-शक्ति द्वारा मोहग्रस्त रहते हैं।

53 हे मानिनी, अभागे वे हैं, जो मोक्ष तथा भौतिक सम्पदा दोनों ही के स्वामी मुझको पाकर भी, केवल भौतिक सम्पदा के लिए ही लालायित रहते हैं। ये सांसारिक लाभ तो नरक में भी पाये जा सकते हैं। चूँकि ऐसे व्यक्ति इन्द्रिय-तृप्ति में लीन रहते हैं इसलिए नरक ही उनके लिए उपयुक्त स्थान है।

54 हे गृहस्वामिनी, सौभाग्यवश तुमने मेरी श्रद्धापूर्वक भक्ति की है, जो मनुष्य को संसार से मुक्त कराती है। ईर्ष्यालु के लिए यह सेवा अत्यन्त कठिन है, विशेषतया उस स्त्री के लिए जिसके मनोभाव दूषित हैं, जो शारीरिक क्षुधा शान्त करने के लिए ही जीवित है और जो छलछद्म में लिप्त रहती है।

55 हे सर्वाधिक आदरणीया, मुझे अपने सारे आवासों में तुम जैसी प्रेम करने वाली अन्य पत्नी ढूँढे नहीं मिलती। जब तुम्हारा ब्याह होने वाला था, तो तुमसे विवाह करने के इच्छुक जितने राजा एकत्र हुए थे उनकी परवाह तुमने नहीं की और क्योंकि तुमने मेरे विषय में प्रामाणिक बातें ही सुन रखी थीं। तुमने अपना गुप्त सन्देश एक ब्राह्मण के हाथ मेरे पास भेजा।

56 जब तुम्हारा भाई युद्ध में पराजित होकर विरूप कर दिया गया और अनिरुद्ध के विवाह के दिन चौसर खेलते समय मार डाला गया तो तुम्हें असह्य दुख हुआ। फिर भी तुमने मुझसे विलग होने के भय से एक शब्द भी नहीं कहा। अपनी इस चुप्पी से तुमने मुझे जीत लिया है।

57 जब तुमने अपनी अत्यन्त गुप्त योजना के साथ अपना दूत भेजा था और तब मुझे तुम्हारे पास जाने में विलम्ब हुआ था, तो तुम्हें सारा संसार शून्य जैसा दिखने लगा था और तुम अपना वह शरीर त्यागना चाह रही थी जिसे तुम मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं दे सकती थी। तुम्हारी यह महानता सदैव तुममें बनी रहे। तुम्हारी इस भक्ति और प्रेम-भाव के लिए हम केवल अभिनन्दन करते हैं।

58 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह ब्रह्माण्ड के स्वामी आत्माराम भगवान ने उन्हें प्रेमियों की वार्ता में लगाकर मानव समाज की रीतियों का अनुकरण करते हुए लक्ष्मीजी के साथ रमण किया।

59 समस्त लोकों के गुरु सर्वशक्तिमान भगवान हरि ने इसी तरह से अपनी अन्य रानियों के महलों में गृहस्थ के धार्मिक कृत्य सम्पन्न करते हुए पारम्परिक गृहस्थ की तरह आचरण किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय उनसठ – नरकासुर का वध (10.59)

1 राजा परीक्षित ने कहा: अनेक स्त्रियों का अपहरण करने वाला भौमासुर किस तरह भगवान द्वारा मारा गया? कृपा करके भगवान शार्ङ्गधन्वा के इस शौर्य का वर्णन कीजिये।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भौम ने इन्द्र की माता के कुण्डलों के साथ-साथ वरुण का छत्र तथा मन्दार पर्वत की चोटी पर स्थित देवताओं की क्रीड़ास्थली को चुरा लिया तो इन्द्र कृष्ण के पास गया और उन्हें इन दुष्कृत्यों की सूचना दी। तब भगवान अपनी पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरुड़ पर सवार होकर प्रागज्योतिषपुर के लिए रवाना हो गये जो चारों ओर से पर्वतों, पुरुषों के बिना चलाये जाने वाले हथियारों, जल, अग्नि, वायु से और मुर पाशतारों (फन्दों) के अवरोधों से घेरा हुआ था।

4 भगवान ने अपनी गदा से चट्टानी किलेबन्दी को, बाणों से हथियारों की नाकेबन्दी को, चक्र से अग्नि, जल तथा वायु की किलेबन्दी को और तलवार से मुर पाश की तारों को नष्ट कर दिया।

5 तब गदाधर ने अपने शंख की ध्वनि से दुर्ग के जादुई तिलिस्मों को और उसी के साथ उसके वीर रक्षकों के हृदयों को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने अपनी भारी गदा से किले के मिट्टी से बने परकोटे को ढहा दिया।

6 जब पाँच सिरों वाले असुर मुर ने भगवान कृष्ण के पाञ्चजन्य शंख की ध्वनि सुनी, जो युग के अन्त में बिजली कड़क की भाँति भयावनी थी तो किले की खाई की तली में सोया हुआ असुर जाग गया और बाहर निकल आया।

7 युगान्त के समय की सूर्य की अग्नि सदृश अन्धा बना देने वाले भयंकर तेज से चमकता हुआ, मुर अपने पाँचों मुखों से तीनों लोकों को निगलता – सा प्रतीत हो रहा था। उसने अपना त्रिशूल उठाया और तार्क्ष्यपुत्र गरुड़ पर वैसे ही टूट पड़ा जैसे कि आक्रमण करता हुआ सर्प।

8 मुर ने अपना त्रिशूल घुमाया और अपने पाँचों मुखों से दहाड़ते हुए उसे गरुड़ पर बड़ी उग्रता से फेंक दिया। यह ध्वनि पृथ्वी, आकाश, सभी दिशाओं तथा बाह्य अन्तरिक्ष की सीमाओं में भरकर ब्रह्माण्ड की खोल से टकराकर प्रतिध्वनित होने लगी।

9 तब भगवान हरि ने गरुड़ की ओर फेंके गए त्रिशूल पर दो बाणों से प्रहार किया और उसे तीन भागों में खण्डित कर दिया। इसके बाद भगवान ने असुर के मुखों पर कई बाणों से प्रहार किया। असुर ने क्रुद्ध होकर भगवान पर अपनी गदा फेंकी।

10 युद्धभूमि में मुर द्वारा फेंकी गई गदा को गदाग्रज भगवान कृष्ण ने अपनी गदा से हजारों टुकड़ों में नष्ट कर दिया। मुर अपनी बाहें ऊपर उठाकर अजेय भगवान की ओर दौड़ा। तब भगवान ने अपने चक्र से उसके सिरों को सुगमता से काट गिराया।

11 प्राणविहीन मुर का सिरकटा शरीर पानी में उसी तरह गिर पड़ा जैसे किसी पर्वत की चोटी इन्द्र के वज्र की शक्ति से छिन्न हो गई हो। अपने पिता की मृत्यु से क्रुद्ध होकर असुर के सात पुत्र बदला लेने के लिए उद्यत हो गये।

12 भौमासुर का आदेश पाकर ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान तथा अरुण नामक सातों पुत्र अपने हथियार धारण किये पीठ नामक सेनापति के पीछे पीछे युद्ध क्षेत्र में आ गये।

13 इन भयानक योद्धाओं ने क्रुद्ध होकर बाणों, तलवारों, गदाओं, भालों, ऋष्टियों तथा त्रिशूलों से अजेय भगवान कृष्ण पर आक्रमण कर दिया किन्तु भगवान ने अपने अमोघ शक्ति बाणों से हथियारों के इस पर्वत को छोटे छोटे टुकड़ों में काट डाला।

14 भगवान ने पीठ इत्यादि प्रतिद्वन्द्वियों के सिर, जाँघें, बाँहें, पाँव तथा कवच काट डाले और उन सबको यमराज के लोक भेज दिया। जब पृथ्वी-पुत्र नरकासुर ने अपने सेना-नायकों का यह हाल देखा तो उसका क्रोध आपे में न रह सका। अतः वह क्षीर सागर से उत्पन्न हाथियों के साथ, जो उन्मत्तता के कारण अपने गण्डस्थल से मद चुआ रहे थे, दुर्ग से बाहर आया।

15 गरुड़ पर आसीन भगवान कृष्ण और उनकी पत्नी सूर्य को ढकने वाले बिजली से युक्त बादल जैसे प्रतीत हो रहे थे। भगवान को देखकर भौम ने उन पर अपना शतघ्नी हथियार छोड़ा। तत्पश्चात भौम के सारे सैनिकों ने एकसाथ अपने-अपने हथियारों से आक्रमण कर दिया।

16 भगवान गदाग्रज ने अपने तीक्ष्ण बाण भौमासुर की सेना पर छोड़े। नाना प्रकार के पंखों से युक्त इन बाणों ने उस सेना को शरीरों के ढेर में बदल दिया जिनकी बाँहें, जाँघें तथा गर्दनें कटी थीं। इसी तरह कृष्ण ने विपक्षी घोड़ों तथा हाथियों को मार दिया।

17-19 हे कुरुवीर, तब भगवान हरि ने उन सारे अस्त्रों तथा शस्त्रों को मार गिराया जिन्हें शत्रु-सैनिकों ने उन पर फेंका था और हर एक को तीन तेज बाणों से नष्ट कर डाला। भगवान के वाहक गरुड़ ने अपने पंखों से शत्रु के हाथियों पर प्रहार किया। ये हाथी गरुड़ के पंखों, चोंच तथा पंजों से प्रताड़ित होकर नगर की ओर भाग गए, जिससे कृष्ण का सामना करने के लिए युद्धभूमि में केवल नरकासुर बचा रहा।

20 जब भौम ने देखा कि गरुड़ द्वारा उसकी सेना खदेड़ी तथा सतायी जा रही है, तो उसने गरुड़ पर अपने उस भाले से आक्रमण किया जिससे उसने एक बार इन्द्र के वज्र को परास्त किया था। किन्तु उस शक्तिशाली हथियार से प्रहार किए जाने पर भी गरुड़ तिलमिलाये नहीं। निस्सन्देह वे फूलों की माला से प्रहार किए जाने वाले हाथी के समान थे।

21 अपने सारे प्रयासों में विफल भौम ने भगवान कृष्ण को मारने के लिए अपना त्रिशूल उठाया, किन्तु इसके पूर्व कि वह उसे चलाये, भगवान ने अपने तेज धार वाले चक्र से हाथी पर सवार उस असुर का सिर काट दिया।

22 भूमि पर गिरे हुए भौमासुर का सिर तेजी से चमक रहा था क्योंकि यह कुण्डलों तथा आकर्षक मुकुट से सज्जित था। ज्यों ही "हाय हाय" तथा "बहुत अच्छा हुआ" के क्रंदन उठने लगे, त्योंही ऋषियों तथा प्रमुख देवताओं ने फूल-मालाओं की वर्षा करते हुए भगवान मुकुन्द की पूजा की।

23 तब भूमिदेवी भगवान कृष्ण के पास आई और भगवान को अदिति के कुण्डल जो चमकीले सोने के बने थे और जिसमें चमकीले रत्न जड़े थे, एक वैजयन्ती माला, वरुण का छत्र तथा मन्दर पर्वत की चोटी अर्पित की।

24 हे राजन, उनको प्रणाम करके तथा उनके समक्ष हाथ जोड़े खड़ी वह देवी भक्ति-भाव से पूरित होकर ब्रह्माण्ड के उन स्वामी की स्तुति करने लगी जिनकी पूजा श्रेष्ठ देवतागण करते हैं।

25 भूमिदेवी ने कहा: हे देवदेव, हे शंख, चक्र तथा गदा के धारणकर्ता, आपको नमस्कार है। हे परमात्मा, आप अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए विविध रूप धारण करते हैं। आपको नमस्कार है।

26 हे प्रभु, आपको मेरा सादर नमस्कार है। आपके उदर में कमल के फूल जैसा गड्ढा अंकित है, आप सदैव कमल के फूल की मालाओं से सुसज्जित रहते है, आपकी चितवन कमल जैसी शीतल है और आपके चरणों में कमल अंकित हैं।

27 हे वासुदेव, हे विष्णु, हे आदि-पुरुष, हे आदि-बीज भगवान, आपको सादर नमस्कार है। हे सर्वज्ञ, आपको नमस्कार है।

28 हे अनन्त शक्तियों वाले, इस ब्रह्माण्ड के अजन्मा जनक ब्रह्म, आपको नमस्कार है। हे वर तथा अवर के आत्मा, हे सृजित तत्त्वों के आत्मा, हे सर्वव्यापक परमात्मा, आपको नमस्कार है।

29 हे अजन्मा प्रभु, सृजन की इच्छा करके आप वृद्धि करते हैं और तब रजोगुण धारण करते हैं। इसी तरह जब आप ब्रह्माण्ड का संहार करना चाहते हैं, तो तमोगुण और जब इसका पालन करना चाहते हैं, तो सतोगुण धारण करते हैं। तो भी आप इन गुणों से अनाच्छादित रहते हैं।

30 हे जगतपति! आप काल, प्रधान तथा पुरुष हैं फिर भी आप पृथक एवं भिन्न रहते हैं। यह भ्रम है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, इन्द्रिय-विषय, देवता, मन, इन्द्रियाँ, मिथ्या अहंकार तथा महत तत्त्व आपसे स्वतंत्र होकर विद्यमान हैं। वास्तव में वे सब आपके भीतर हैं क्योंकि हे प्रभु आप अद्वितीय हैं।

31 यह भौमासुर का पुत्र है। यह भयभीत है और आपके चरणकमलों के समीप आ रहा है क्योंकि आप उन सबों के कष्टों को हर लेते हैं, जो आपकी शरण में आते हैं। कृपया इसकी रक्षा कीजिये। आप इसके सिर पर अपना कर-कमल रखें जो समस्त पापों को दूर करने वाला है।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह विनीत भक्ति के शब्दों से भूमिदेवी द्वारा प्रार्थना किये जाने पर परमेश्वर ने उसके पोते को अभय प्रदान किया और तब भौमासुर के महल में प्रवेश किया जो सभी प्रकार के ऐश्वर्य से पूर्ण था।

33 वहाँ भगवान ने सोलह हजार से अधिक राजकुमारियाँ देखीं, जिन्हें भौम ने विभिन्न राजाओं से बलपूर्वक छीन लिया था।

34 जब स्त्रियों ने पुरुषों में सर्वोत्तम पुरुष को प्रवेश करते देखा तो वे मोहित हो गई। उन्होंने मन ही मन उन्हें, जो कि वहाँ भाग्यवश लाये गए थे, अपने अभीष्ट पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

35 हर राजकुमारी ने इस विचार से कि “विधाता इस पुरुष को मेरा पति बनने का वर दें” अपने हृदय को कृष्ण के विचार में लीन कर दिया।

36 भगवान ने राजकुमारियों को स्वच्छ, निर्मल वस्त्रों से सजवाया और फिर उन्हें रथ, घोड़े तथा अन्य मूल्यवान वस्तुओं के विशाल कोषों समेत पालकियों में द्वारका भिजवा दिया।

37 भगवान कृष्ण ने ऐरावत प्रजाति के कुल के चौंसठ तेज, सफेद एवं चार दाँतों वाले हाथी भी भिजवा दिये।

38-39 भगवान तब इन्द्र के घर गये और माता अदिति को उनके कुण्डल प्रदान किये। वहाँ इन्द्र तथा उसकी पत्नी ने कृष्ण तथा उनकी प्रिय सत्यभामा की पूजा की। फिर सत्यभामा के अनुरोध पर भगवान ने स्वर्गिक पारिजात वृक्ष उखाड़ लिया और उसे गरुड़ की पीठ पर रख दिया। इन्द्र तथा अन्य सारे देवताओं को परास्त करने के बाद कृष्ण उस पारिजात को अपनी राजधानी ले आये।

40 एक बार रोप दिये जाने पर पारिजात वृक्ष ने रानी सत्यभामा के महल में स्थित उद्यान को मनोहर बना दिया। इस वृक्ष की सुगन्ध तथा मधुर रस के लालची भौंरे स्वर्ग से ही इसका पीछा करने लगे थे।

41 भगवान अच्युत को नमस्कार करने, उनके पैरों को अपने मुकुट की नोकों से स्पर्श करने तथा अपनी इच्छा पूरी करने के लिए भगवान से याचना करने के बाद भी, उस महान देवता ने अपना काम सधवाने के बाद भगवान से झगड़ना चाहा। देवताओं में कैसा अज्ञान समाया है। धिक्कार है उनके ऐश्वर्य को।

42 तब उन अव्यय महापुरुष ने पृथक-पृथक रूप धारण करते हुए एक साथ सारी राजकुमारियों से उनके अपने-अपने भवनों में विवाह कर लिया।

43 अचिन्त्य कृत्य करने वाले भगवान निरन्तर अपनी प्रत्येक रानी के महल में रहने लगे जो अन्य किसी आवास की तुलना में अद्वितीय थे। वहाँ पर उन्होंने अपनी मनोहर पत्नियों के साथ रमण किया यद्यपि वे अपने आपमें पूर्ण तुष्ट रहते हैं और सामान्य पति की तरह अपने गृहस्थ कार्य सम्पन्न किये।

44 इस तरह उन स्त्रियों ने लक्ष्मीपति को अपने पति के रूप में प्राप्त किया यद्यपि ब्रह्मा जैसे बड़े से बड़े देवता भी उन तक पहुँचने की विधि नहीं जानते। वे उनके प्रति निरन्तर वृद्धिमान अनुराग का अनुभव करतीं, उनसे हँसीयुक्त चितवन का आदान-प्रदान करतीं और हास-परिहास तथा स्त्रियोन्वित लज्जा से पूर्ण नित नवीन घनिष्ठता का आदान-प्रदान करतीं।

45 यद्यपि भगवान की प्रत्येक रानी के पास सैकड़ों दासियाँ थीं तो भी वे भगवान के पास विनयपूर्वक जाकर, उन्हें आसन प्रदान करके, उत्तम सामग्री से उनकी पूजा करके, उनके पाँवों का प्रक्षालन करके तथा मालिश करके, उन्हें खाने के लिए पान देकर, उन्हें पंखा झलकर, उन्हें सुगन्धित चन्दन-लेप से लेपित करके, फूलों की माला से सजाकर, उनके बाल सँवारकर, उनका बिस्तर ठीक करके, उन्हें नहलाकर तथा उन्हें विविध उपहार देकर स्वयं उनकी सेवा करना पसन्द करतीं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अट्ठावन – श्रीकृष्ण का पाँच राजकुमारियों से विवाह (10.58)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार परम ऐश्वर्यवान भगवान पाण्डवों को देखने के लिए इन्द्रप्रस्थ गये जो पुनः जनता के बीच प्रकट हो चुके थे। भगवान के साथ युयुधान तथा अन्य संगी थे।

2 जब पाण्डवों ने देखा कि भगवान मुकुन्द आए हैं, तो पृथा के वे वीर पुत्र एकसाथ उसी तरह उठ खड़े हुए जिस तरह इन्द्रियाँ प्राण के वापस आने पर सचेत हो उठती हैं।

3 इन वीरों ने भगवान अच्युत का आलिंगन किया और उनके शरीर के स्पर्श से उन सबके पाप दूर हो गये। उनके स्नेहिल, हँसी से युक्त मुखमण्डल को देखकर वे सब हर्ष से अभिभूत हो गये।

4 युधिष्ठिर तथा भीम के चरणों पर सादर नमस्कार करने तथा अर्जुन का प्रगाढ़ आलिंगन करने के बाद उन्होंने नकुल तथा सहदेव जुड़वाँ भाइयों का नमस्कार स्वीकार किया।

5 पाण्डवों की नवविवाहिता दोषरहित पत्नी, कुछ-कुछ लजाते हुए धीरे-धीरे भगवान कृष्ण के पास आई और उन्हें नमस्कार किया।

6 सात्यकि ने भी पाण्डवों से पूजा तथा स्वागत प्राप्त करके सम्मानजनक आसन ग्रहण किया और भगवान के अन्य संगी भी उचित सम्मान पाकर विविध स्थानों पर बैठ गये।

7 तब भगवान अपनी बुआ महारानी कुन्ती को देखने गये। वे उनके समक्ष झुके और उनका आलिंगन किया। अति स्नेह से उनकी आँखें नम हो गईं। भगवान कृष्ण ने उनसे तथा उनकी पुत्रवधू द्रौपदी से उनकी कुशलता पूछी और उन्होंने भगवान से उनके सम्बन्धियों (द्वारका) के विषय में पूछा।

8 महारानी कुन्ती प्रेम से इतनी अभिभूत हो गयी कि उनका गला रुँध गया और उनकी आँखें आँसुओं से भर गईं। उन्होंने उन तमाम कष्टों का स्मरण किया जिसे उन्होंने तथा उनके पुत्रों ने सहा था। इस तरह उन्होंने भगवान कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा जो अपने भक्तों के समक्ष उनका कष्ट भगाने के लिए प्रकट होते हैं।

9 महारानी कुन्ती ने कहा: हे कृष्ण, हमारी कुशल-मंगल तो तभी आश्वस्त हो गई जब आपने अपने सम्बन्धियों का अर्थात हमारा स्मरण किया और मेरे भाई अक्रूर को हमारे पास भेजकर हमें अपना संरक्षण प्रदान किया।

10 आप जो कि ब्रह्माण्ड के शुभचिन्तक मित्र एवं परमात्मा हैं उनके लिए "अपना" तथा "पराया" का कोई मोह नहीं रहता। तो भी, सबों के हृदयों में निवास करने वाले आप उनके कष्टों को समूल नष्ट कर देते हैं, जो निरन्तर आपका स्मरण करते हैं।

11 राजा युधिष्ठिर ने कहा: हे परम नियन्ता, मैं नहीं जानता कि हम मूर्खों ने कौन से पुण्यकर्म किये हैं कि आपका दर्शन पा रहे हैं जिसे बड़े-बड़े विरले योगेश्वर ही कर पाते हैं।

12 जब राजा ने भगवान कृष्ण को सबके साथ रहने का अनुरोध किया, तो वर्षा ऋतु के महीनों में नगर के निवासियों के नेत्रों को आनन्द प्रदान करते हुए भगवान सुखपूर्वक इन्द्रप्रस्थ में रहते रहे।

13-14 एक बार बलशाली शत्रुओं का हन्ता अर्जुन अपना कवच पहनकर हनुमान से चिन्हित ध्वजा वाले अपने रथ पर सवार होकर, धनुष तथा दो अक्षय तरकस लेकर, भगवान कृष्ण के साथ एक विशाल जंगल में शिकार खेलने गया जो हिंस्र पशुओं से परिपूर्ण था।

15 अर्जुन ने अपने बाणों से उस जंगल के बाघों, सुअरों, जंगली भैंसों, रुरुओं, शरभों, गवयों, गेंडों, श्याम हिरणों, खरगोशों तथा साहियों को बेध डाला।

16 नौकरों का एक दल मारे गये उन पशुओं को राजा युधिष्ठिर के पास ले गया जो किसी विशेष पर्व पर यज्ञ में अर्पित करने के योग्य थे। तत्पश्चात प्यासे तथा थके होने से अर्जुन यमुना नदी के तट पर गया।

17 दोनों कृष्णों ने वहाँ स्नान करने के बाद नदी का स्वच्छ जल पिया। तब दोनों महारथियों ने पास ही टहलती एक आकर्षक युवती को देखा।

18 अपने मित्र द्वारा भेजे जाने पर अर्जुन उस आकर्षक मुख वाली असाधारण युवती के पास गये और उससे पूछा।

19 अर्जुन ने कहा: हे सुन्दरी तुम कौन हो, किसकी पुत्री हो, कहाँ से आई हो और तुम यहाँ क्या कर रही हो? मैं सोच रहा हूँ कि तुम पति की आकांक्षी हो। हे सुन्दरी, मुझसे प्रत्येक बात बतला दो।

20 श्री कालिन्दी ने कहा: मैं सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं परम सुन्दर तथा वरदानी भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में चाहती हूँ और इसीलिए मैं कठोर तपस्या कर रही हूँ।

21 मैं उनको जो लक्ष्मी देवी के धाम हैं, छोड़कर अन्य कोई पति स्वीकार नहीं करूँगी। वे भगवान मुकुन्द, जो कि अनाथों के आश्रय हैं, मुझ पर प्रसन्न हों।

22 मेरा नाम कालिन्दी है और मैं अपने पिता द्वारा यमुना जल के भीतर निर्मित भवन में रहती हूँ। मैं भगवान अच्युत से भेंट होने तक यही रुकूँ गी।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: अर्जुन ने ये सारी बातें वासुदेव से बतलाई जो पहले से इनसे अवगत थे। तब भगवान ने कालिन्दी को अपने रथ पर चढ़ा लिया और राजा युधिष्ठिर से मिलने चले गये।

24 एक पुरानी घटना बतलाते हुए श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: पाण्डवों के अनुरोध पर भगवान कृष्ण ने एक अत्यन्त अद्भुत एवं विचित्र नगरी का निर्माण विश्वकर्मा से कराया था।

25 भगवान अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए उस नगरी में कुछ समय तक रहते रहे। श्रीकृष्ण ने अग्निदेव को दान के रूप में खाण्डव वन देना चाहा अतः वे अर्जुन के सारथी बने।

26 हे राजन, अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को धनुष, श्वेत घोड़ों की जोड़ी, रथ, कभी रिक्त न होने वाले दो तरकस तथा एक कवच दिया जिसे कोई योद्धा हथियारों से भेद नहीं सकता था।

27 जब मय दानव अपने मित्र अर्जुन द्वारा अग्नि से बचा लिया गया तो उसने उन्हें एक सभाभवन भेंट किया जिसमें आगे चलकर दुर्योधन को जल के स्थान पर ठोस फर्श का भ्रम होता है।

28 तब अर्जुन तथा अन्य शुभचिन्तक सम्बन्धियों एवं मित्रों से विदा लेकर भगवान कृष्ण सात्यकि तथा अपने अन्य परिचरों समेत द्वारका लौट गये।

29 तब परम ऐश्वर्यशाली भगवान ने कालिन्दी के साथ उस दिन विवाह कर लिया जिस दिन ऋतु, चन्द्र लग्न एवं सूर्य तथा अन्य ग्रहों की स्थिति इत्यादि सभी शुभ थे। इस तरह उन्होंने अपने भक्तों को परम आनन्द प्रदान किया।

30 विंद्य तथा अनुविंद्य जो अवन्ती के संयुक्त राजा थे, दुर्योधन के अनुयायी थे। जब स्वयंवर उत्सव में पति चुनने का अवसर आया तो उन्होंने अपनी बहिन (मित्रविन्दा) को कृष्ण का वरन करने से मना किया यद्यपि वह उनके प्रति अत्यधिक आसक्त थी।

31 हे राजन, अपनी बुआ राजाधिदेवी की पुत्री मित्रविन्दा को प्रतिद्वन्द्वी राजाओं की आँखों के सामने से भगवान कृष्ण बलपूर्वक उठा ले गये।

32 हे राजन, कौशल्य के अत्यन्त धार्मिक राजा नाग्नजित की एक सुन्दर कन्या थी जिसका नाम सत्या और नाग्नजिती भी था।

33 जो राजा ब्याहने के लिए आते थे उन्हें तब तक विवाह नहीं करने दिया जाता था जब तक वे तेज सींगों वाले सात बैलों को वश में न कर लें। ये बैल अत्यन्त दुष्ट तथा वश में न आने वाले थे और वीरों की गन्ध भी सहन नहीं कर सकते थे।

34 जब वैष्णवों के स्वामी भगवान ने उस राजकुमारी के बारे में सुना जो बैलों के विजेता द्वारा जीती जानी थी, तो वे विशाल सेना के साथ कौशल्य की राजधानी गये।

35 कोशल का राजा कृष्ण को देखकर हर्षित हुआ। उसने अपने सिंहासन से उठकर तथा प्रतिष्ठित पद एवं पर्याप्त उपहार देकर भगवान कृष्ण की पूजा की। भगवान कृष्ण ने भी राजा का आदरपूर्वक अभिवादन किया।

36 जब राजा की पुत्री ने देखा कि वह सर्वाधिक उपयुक्त दूल्हा आया है, तो उसने तुरन्त ही रमापति श्रीकृष्ण को पाने की कामना की। उसने प्रार्थना की, “वे मेरे पति बनें। यदि मैंने व्रत किये हैं, तो पवित्र अग्नि मेरी आशाओं को पूरा करे।”

37 “दैवी लक्ष्मी, ब्रह्मा, शिव तथा विभिन्न लोकों के शासक उनके चरणकमलों की धूलि को अपने सिरों पर चढ़ाते हैं और जो अपने द्वारा निर्मित धर्म-संहिता की रक्षा के लिए विभिन्न कालों में लीलावतार धारण करते हैं। भला वे भगवान मुझ पर कैसे प्रसन्न हो सकेंगे?”

38 सर्वप्रथम राजा नाग्नजित ने भगवान की समुचित पूजा की और तब उन्हें सम्बोधित किया, “हे नारायण, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप अपने आध्यात्मिक आनन्द में पूर्ण रहते हैं। अतः यह तुच्छ व्यक्ति आपके लिए क्या कर सकता है?”

39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुनन्दन, भगवान प्रसन्न थे और सुविधाजनक आसन स्वीकार करके वे मुसकाये तथा मेघ-गर्जना सदृश धीर-गम्भीर वाणी में राजा से बोले।

40 भगवान ने कहा: हे मनुष्यों के शासक, विद्वानजन धर्म में रत राजवर्ग व्यक्ति से याचना करने की निन्दा करते हैं, तथापि तुम्हारी मित्रता का इच्छुक मैं तुमसे तुम्हारी कन्या को माँग रहा हूँ यद्यपि हम बदले में कोई भेंट नहीं दे रहे।

41 राजा ने कहा: हे प्रभु, भला मेरी पुत्री के लिए आपसे बढ़कर और कौन वर हो सकता है? आप सभी दिव्य गुणों के धाम हैं। आपके शरीर पर साक्षात लक्ष्मी निवास करती हैं और वे किसी भी कारण से आपको कभी नहीं छोड़ती।

42 किन्तु हे सात्वत प्रमुख, अपनी पुत्री के लिए उपयुक्त पति सुनिश्चित करने के लिए हमने उसके सम्भावित वरों के पराक्रम की परीक्षा करने के लिए पहले से ही एक शर्त निश्चित की हुई है।

43 हे वीर, इन सातों खूँखार बैलों को वश में करना असम्भव है। इन्होंने अनेक राजकुमारों के अंगों को खण्डित करके उन्हें परास्त किया है।

44 हे यदुवंशी, यदि आप इन्हें वश में कर लें तो निश्चित रूप से, हे श्रीपति, आप ही मेरी पुत्री के उपयुक्त वर होंगे।

45 इन शर्तों को सुनकर भगवान ने अपने वस्त्र कसे, अपने आपको सात रूपों में विस्तारित किया और बड़ी आसानी से बैलों को वश में कर लिया।

46 भगवान शौरी ने उन बैलों को बाँध लिया जिनका घमण्ड तथा बल अब टूट चुका था और उन्हें रस्सियों से इस तरह खींचा जिस तरह कोई बालक खेल में लकड़ी के बने बैलों के खिलौनों को खींचता है।

47 तब प्रसन्न तथा चकित राजा नाग्नजित ने अपनी पुत्री भगवान कृष्ण को भेंट कर दी। भगवान ने इस अनुरूप राजकुमारी को वैदिक विधि के साथ स्वीकार किया।

48 राजकुमारी को भगवान के प्रिय पति के रूप में प्राप्त होने पर राजा की पत्नियों को सर्वाधिक आनन्द प्राप्त हुआ और अतीव उत्सव का भाव जाग उठा।

49 गीत तथा वाद्य संगीत और ब्राह्मणों द्वारा आशीर्वाद देने की ध्वनियों के साथ-साथ शंख, तुरही तथा ढोल बजने लगे। प्रमुदित नर-नारियों ने अपने को सुन्दर वस्त्रों तथा मालाओं से अलंकृत किया।

50-51 शक्तिशाली राजा नाग्नजित ने दहेज के रूप में दस हजार गौवें, तीन हजार युवा दासियाँ जो अपने गलों में सोने के आभूषण पहने थीं तथा सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत थीं, नौ हजार हाथी, हाथियों के एक सौ गुना रथ, रथों के एक सौ गुना घोड़े तथा घोड़ों के एक सौ गुने नौकर दिये।

52 स्नेह से द्रवीभूत हृदय से, कौशल के राजा ने वर-वधू को उनके रथ पर बैठा दिया और तब एक विशाल सेना के साथ उन्हें विदा कर दिया।

53 जब स्वयंवर में आये असहिष्णु प्रतिद्वन्द्वी राजाओं ने सारी घटना के बारे में सुना तो उन्होंने भगवान कृष्ण को, अपनी दुल्हन घर ले जाते समय मार्ग में रोकना चाहा। किन्तु जिस तरह इसके पूर्व बैलों ने राजाओं के बल को तोड़ दिया था उसी तरह अब यदु-योद्धाओं ने उनके बल को तोड़ दिया।

54 गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन अपने मित्र कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए सदैव उत्सुक रहते थे अतः उन्होंने उन सारे प्रतिद्वन्द्वियों को भगा दिया जो भगवान पर बाणों की झड़ी लगाये हुए थे। उन्होंने यह सब वैसे ही किया जिस तरह एक सिंह क्षुद्र पशुओं को खदेड़ देता है।

55 तब यदुओं के प्रधान भगवान देवकीसुत दहेज तथा सत्या को लेकर द्वारका गये और वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे।

56 भद्रा कैकेय राज्य की राजकुमारी तथा कृष्ण की बुआ श्रुतकीर्ति की पुत्री थी। जब सन्तर्दन इत्यादि उसके भाइयों ने उसे कृष्ण को भेंट किया, तो उन्होंने भद्रा से विवाह कर लिया।

57 तब भगवान ने मद्रराज की कन्या लक्ष्मणा से विवाह किया। कृष्ण अकेले ही उसके स्वयंवर समारोह में गये थे और उसे उसी तरह हर ले आये जिस तरह गरुड़ एक बार देवताओं का अमृत चुरा ले गया था।

58 भगवान कृष्ण ने इन्हीं के समान अन्य हजारों पत्नियाँ तब प्राप्त की जब उन्होंने भौमासुर को मारा और उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सुन्दरियों को छुड़ाया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय सत्तावन – सत्राजित की हत्या और मणि की वापसी (10.57)

1 श्री बादरायणि ने कहा: यद्यपि जो कुछ घटित हुआ था भगवान गोविन्द उससे पूर्णतया अवगत थे, फिर भी जब उन्होंने यह समाचार सुना कि पाण्डव तथा महारानी कुन्ती जलकर मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, तो वे कुलरीति पूरा करने के उद्देश्य से बलराम के साथ कुरुओं के राज्य में गये।

2 दोनों ही विभु भीष्म, कृप, विदुर, गान्धारी तथा द्रोण से मिले। उन्हीं के समान दुख प्रकट करते हुए वे विलख उठे, “हाय! यह कितना कष्टप्रद है !”

3 इस अवसर का लाभ उठाकर, हे राजन, अक्रूर तथा कृतवर्मा शतधन्वा के पास गये और उससे कहा, “क्यों न स्यमन्तक मणि को हथिया लिया जाय?”

4 सत्राजित ने वादा करके, हमारी तिरस्कारपूर्वक अवहेलना करते हुए अपनी रत्न जैसी पुत्री हमें न देकर कृष्ण को दे दी। तो फिर सत्राजित अपने भाई के ही मार्ग का अनुगमन क्यों न करे?

5 इस तरह उसका मन उनकी सलाह से प्रभावित हो गया और दुष्ट शतधन्वा ने लोभ में आकर सत्राजित को सोते हुए मार डाला। इस तरह पापी शतधन्वा ने अपनी आयु क्षीण कर ली।

6 जब सत्राजित के महल की स्त्रियाँ चीख रही थीं और असहाय होकर रो रही थीं तब शतधन्वा ने वह मणि ले ली और वहाँ से चलता बना – जैसे पशुओं का वध करने के बाद कोई कसाई करता है।

7 जब सत्यभामा ने अपने मृत पिता को देखा तो वे शोक में डूब गई। “मेरे पिता, मेरे पिता! हाय, मैं मारी गयी“ विलाप करती हुई वे मूर्छित होकर गिर गई।

8 रानी सत्यभामा अपने पिता के शव को तेल के एक विशाल कुण्ड में रखकर हस्तिनापुर गई जहाँ उन्होंने अपने पिता की हत्या के बारे में बहुत ही शोकातुर होकर कृष्ण को बतलाया जो पहले से इस स्थिति को जान रहे थे।

9 हे राजन, जब कृष्ण तथा बलराम ने यह समाचार सुना तो वे आह भर उठे, “हाय! यह तो हमारे लिए सबसे बड़ी दुर्घटना (विपत्ति) है!” इस तरह मानव समाज की रीतियों का अनुकरण करते हुए वे शोक करने लगे और उनकी आँखें आँसुओं से डबडबा आईं।

10 भगवान अपनी पत्नी तथा बड़े भाई के साथ अपनी राजधानी लौट आये। द्वारका आकर उन्होंने शतधन्वा को मारने और उससे मणि छीन लेने की तैयारी की।

11 यह जानकर कि भगवान कृष्ण उसे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं, शतधन्वा भयभीत हो उठा। वह अपने प्राण बचाने के लिए कृतवर्मा के पास गया और उससे सहायता माँगी किन्तु कृतवर्मा ने इस प्रकार उत्तर दिया।

12-13 कृतवर्मा ने कहा: मैं भगवान कृष्ण तथा बलराम के विरुद्ध अपराध करने का दुस्साहस नहीं कर सकता। भला उन्हें कष्ट देने वाला अपनी सौभाग्य की आशा कैसे कर सकता है? कंस तथा उसके सारे अनुयायियों ने उनसे शत्रुतावश अपनी सम्पत्ति तथा प्राण गँवाये और उनसे सत्रह बार युद्ध करने के बाद जरासन्ध के पास एक भी रथ नहीं बचा।

14 याचना अस्वीकृत हो जाने पर शतधन्वा अक्रूर के पास गया और अपनी रक्षा के लिए उनसे अनुनय-विनय की। किन्तु अक्रूर ने भी उसी तरह उससे कहा: भला ऐसा कौन है, जो उन दोनों विभुओं के बल को जानते हुए, उनका विरोध करेगा?

15 यह तो परमेश्वर ही हैं, जो अपनी लीला के रूप में इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। यहाँ तक कि विश्व स्रष्टागण भी उनके प्रयोजन को नहीं समझ पाते क्योंकि वे उनकी माया द्वारा मोहग्रस्त रहते हैं।

16 सात वर्षीय एक बालक के रूप में कृष्ण ने समूचा पर्वत आसानी से ऊपर उठाये रखा जिस तरह एक बालक कुकुरमुत्ता उठा लेता है।

17 मैं उन भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जिनका हर कार्य चकित करने वाला है। वे परमात्मा, असीम स्रोत तथा समस्त जगत के स्थिर केंद्र हैं।

18 जब अक्रूर ने भी उसकी याचना अस्वीकार कर दी तो शतधन्वा ने उस अमूल्य मणि को अक्रूर के संरक्षण में रख दिया और एक घोड़े पर चढ़कर भाग गया जो एक सौ योजन (आठ सौ मील) यात्रा कर सकता था।

19 हे राजन, कृष्ण तथा बलराम, कृष्ण के रथ पर सवार हुए जिस पर गरुड़चिन्हित ध्वजा फहरा रही थी और जिसमें अत्यन्त तेज घोड़े जुते थे। वे अपने श्रेष्ठ (श्वसुर) के हत्यारे का पीछा करने लगे।

20 मिथिला के बाहर एक बगीचे में वह घोड़ा जिस पर शतधन्वा सवार था गिर गया। भयभीत होकर उसने घोड़ा वहीं छोड़ दिया और पैदल ही भागने लगा। कृष्ण क्रुद्ध होकर उसका पीछा कर रहे थे।

21 चूँकि शतधन्वा पैदल ही भागा था इसलिए भगवान ने भी पैदल ही जाते हुए अपने तेज धार वाले चक्र से उसका सिर काट लिया। तब भगवान ने स्यमन्तक मणि के लिए शतधन्वा के सभी वस्त्रों को छान मारा।

22 मणि न पाकर भगवान कृष्ण अपने बड़े भाई के पास गये और कहने लगे, “हमने व्यर्थ ही शतधन्वा को मार डाला। उसके पास वह मणि नहीं है।"

23 इस पर बलराम ने उत्तर दिया, “निस्सन्देह, शतधन्वा ने मणि को किसी के संरक्षण में रख छोड़ा होगा। तुम नगरी में लौट जाओ और उस व्यक्ति को ढूँढो।"

24 मैं विदेह के राजा से भेंट करना चाहता हूँ क्योंकि वे मेरे अत्यन्त प्रिय हैं।" हे राजन, यह कहकर, प्रिय यदुवंशी बलराम ने मिथिला नगरी में प्रवेश किया।

25 जब मिथिला के राजा ने बलराम को समीप आते देखा तो वह तुरन्त अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। राजा ने बड़े प्रेम से विशद पूजा करके परम आराध्य प्रभु का सम्मान शास्त्रीय आदेशों के अनुसार किया।

26 सर्वशक्तिमान बलराम अपने प्रिय भक्त जनक महाराज से सम्मानित होकर मिथिला में कई वर्षों तक रुके रहे। इसी समय धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने बलराम से गदा युद्ध करने की कला सीखी।

27 भगवान केशव द्वारका आये और उन्होंने शतधन्वा की मृत्यु तथा स्यमन्तक मणि को खोज पाने में अपनी असफलता का विवरण दिया। वे इस तरह बोले जिससे उनकी प्रियतमा सत्यभामा प्रसन्न हो सकें।

28 तब भगवान कृष्ण ने अपने मृत सम्बन्धी सत्राजित के लिए विविध अन्तिम संस्कार सम्पन्न कराये। भगवान – परिवार के शुभचिन्तकों के साथ शवयात्रा में सम्मिलित हुए।

29 जब अक्रूर तथा कृतवर्मा, जिन्होंने शतधन्वा को अपराध करने के लिए उकसाया था, यह सुना कि वह मारा गया है, तो वे भय के कारण द्वारका से भाग गये और उन्होंने अन्यत्र जाकर शरण ली।

30 अक्रूर की अनुपस्थिति में द्वारका में तमाम अपशकुन होने लगे और वहाँ के निवासी शारीरिक तथा मानसिक कष्टों के अतिरिक्त दैविक तथा भौतिक उत्पातों से भी त्रस्त रहने लगे।

31 कुछ लोगों ने प्रस्तावित किया कि ये विपत्तियाँ अक्रूर की अनुपस्थिति के कारण हैं किन्तु वे भगवान की उन महिमाओं को भूल गए थे, जिनका वर्णन वे प्रायः स्वयं किया करते थे। निस्सन्देह उस स्थान में विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं, जहाँ समस्त मुनियों के आश्रय रूप भगवान निवास करते हों?

32 बड़े बूढ़ों ने कहा: पूर्वकाल में जब इन्द्र ने काशी (बनारस) पर वर्षा करनी बन्द कर दी तो उस शहर के राजा ने अपनी पुत्री गान्दिनी श्वफल्क को दे दी जो उस समय उससे मिलने आया था। तब तुरन्त ही काशी राज्य में वर्षा हुई।

33 जहाँ भी इन्द्र के ही समान शक्तिशाली उसका बेटा अक्रूर ठहरता है, वहीं वह पर्याप्त वर्षा करेगा। निस्सन्देह, वह स्थान समस्त कष्टों तथा असामयिक मृत्युओं से रहित हो जायेगा।

34 वृद्धजनों से ये वचन सुनकर भगवान जनार्दन ने यह जानते हुए कि अपशकुनों का एकमात्र कारण अक्रूर की अनुपस्थिति नहीं थी, उन्हें द्वारका वापस बुलवाया और उनसे बोले।

35-36 भगवान कृष्ण ने अक्रूर का स्वागत-सत्कार – अभिवादन किया और उनसे मधुर शब्द कहे। तब हर बात जानने वाले होने के कारण भगवान, जो कि अक्रूर के हृदय से भलीभाँति अवगत थे, हँसे और उनको सम्बोधित किया, “हे दानपति, अवश्य ही वह ऐश्वर्यशाली स्यमन्तक मणि शतधन्वा तुम्हारे संरक्षण में छोड़ गया था और अब भी तुम्हारे पास है। असल में, हम इसे लगातार जानते रहे हैं।"

37 चूँकि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है, अतः उसकी पुत्री के पुत्र उसके उत्तराधिकारी होंगे। उन्हें ही श्राद्ध के निमित्त तर्पण तथा पिण्डदान करना चाहिए, अपने नाना का ऋण चुकता करना चाहिए और शेष धन अपने लिए रखना चाहिए।

38-39 तो भी, हे विश्वासपात्र अक्रूर, यह मणि तुम्हारे संरक्षण में रहना चाहिए क्योंकि अन्य कोई इसे सुरक्षित नहीं रख सकता। बस एक बार यह मणि दिखला दो क्योंकि मैंने इसके विषय में अपने अग्रज से जो कुछ कहा है वे उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं करते। इस तरह हे परम भाग्यशाली, तुम मेरे सम्बन्धियों को शान्त कर सकोगे। हर व्यक्ति जानता है कि मणि तुम्हारे पास है क्योंकि तुम इस समय लगातार सोने की बनी वेदिकाओं में यज्ञ सम्पन्न कर रहे हो।

40 इस तरह भगवान कृष्ण के समन्वयात्मक शब्दों से लज्जित होकर श्वफल्क पुत्र उस मणि को वहाँ से निकाल कर ले आया जहाँ उसने छिपा रखा था और भगवान को दे दी। यह मणि सूर्य की तरह चमक रहा था।

41 अपने सम्बन्धियों को स्यमन्तक मणि दिखला चुकने के बाद सर्वशक्तिमान भगवान ने अपने विरुद्ध लगे झूठे आक्षेपों को दूर करते हुए उसे अक्रूर को लौटा दिया।

42 यह आख्यान, जो भगवान विष्णु के पराक्रम के वर्णनों से युक्त है, पापपूर्ण फलों को दूर करता है और समस्त मंगल प्रदान करता है। जो कोई भी इसे पढ़ता, सुनता या स्मरण करता है, वह अपनी अपकीर्ति तथा पापों को भगा सकेगा और शान्ति प्राप्त करेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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