अध्याय बहत्तर – जरासन्ध असुर का वध (10.72)
1-2 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक दिन जब राजा युधिष्ठिर राजसभा में प्रख्यात मुनियों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, भाइयों, गुरुओं, परिवार के बड़े-बूढ़ों, सगे-सम्बन्धियों, ससुराल वालों तथा मित्रों से घिरकर बैठे हुए थे, तो उन्होंने भगवान कृष्ण को सम्बोधित किया।
3 श्री युधिष्ठिर ने कहा: हे गोविन्द, मैं आपके शुभ ऐश्वर्यशाली अंशों की पूजा वैदिक उत्सवों के राजा, राजसूय यज्ञ द्वारा करना चाहता हूँ। हे प्रभु, हमारे इस प्रयास को सफल बनायें।
4 हे कमलनाभ, वे पवित्र व्यक्ति जो निरन्तर आपकी उन पादुकाओं की सेवा करते हैं, ध्यान करते हैं और उनका यशोगान करते हैं, जो समस्त अशुभ वस्तुओं को विनष्ट करने वाली हैं, उन्हें निश्चित रूप से इस भौतिक संसार से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। यदि वे इस जगत में किसी वस्तु की आकांक्षा करते हैं, तो वे उसे प्राप्त करते हैं, किन्तु हे प्रभु, अन्य लोग, जो आपकी शरण ग्रहण नहीं करते, कभी भी तुष्ट नहीं होते।
5 अतएव हे देव-देव, इस संसार के लोग देख लें कि आपके चरणकमलों में की गई भक्ति की शक्ति कितनी है। हे सर्वशक्तिमान, आप उन्हें उन कुरुओं तथा सृञ्जयों की शक्ति दिखला दें, जो आपकी पूजा करते हैं और उनकी भी स्थिति दिखला दें, जो पूजा नहीं करते।
6 आपके मन के भीतर "यह मेरा है और वह दूसरे का है" इस प्रकार का भेदभाव नहीं हो सकता, क्योंकि आप परम सत्य हैं, समस्त जीवों के आत्मा, सदैव समभाव रखनेवाले और अपने अन्तर में दिव्य आनन्द का भोग करनेवाले हैं। आप कल्पवृक्ष की तरह , उचित रूप से हर पूजने वाले को आशीर्वाद देते हैं और उनके द्वारा की गई सेवा के अनुपात में उन्हें इच्छित फल देते हैं। इसमें कोई भी दोष नहीं है।
7 भगवान ने कहा: हे राजन, तुम्हारा निर्णय सही है, अतएव हे शत्रुकर्शन, तुम्हारी कल्याणकारी ख्याति सभी लोकों में फैलेगी।
8 हे प्रभु निस्सन्देह महर्षियों, पितरों, देवताओं, शुभचिन्तक मित्रों और सारे जीवों के लिए इस वैदिक यज्ञों के राजा का सम्पन्न होना वांछनीय है।
9 सबसे पहले सारे राजाओं को जीतो, पृथ्वी को अपने अधीन करो और आवश्यक साज-सामग्री एकत्र करो, तब इस महान यज्ञ को सम्पन्न करो।
10 हे राजन, तुम्हारे इन भाइयों ने विभिन्न लोकपालों के अंशों के रूप में जन्म लिया है और तुम तो इतने आत्मसंयमी हो कि तुमने मुझे भी जीत लिया है, जबकि मैं उन लोगों के लिए दुर्जेय हूँ, जिनकी इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं है।
11 इस जगत में मेरे भक्त को देवता भी अपने बल, सौन्दर्य, यश या सम्पत्ति से नहीं हरा सकते, पृथ्वी के शासक की तो बात ही क्या?
12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान द्वारा इन शब्दों रूपी गायन को सुनकर युधिष्ठिर हर्षित हो उठे और उनका मुख कमल सदृश खिल गया। इस तरह उन्होंने अपने भाइयों को, जो भगवान विष्णु की शक्ति से समन्वित थे, सभी दिशाओं पर विजय के लिए भेज दिया।
13 उन्होंने सहदेव को सृञ्जय के साथ दक्षिण, नकुल को मत्स्यों के साथ पश्चिम, अर्जुन को केकयों के साथ उत्तर तथा भीम को मद्रकों के साथ पूर्व दिशा में भेज दिया।
14 हे राजन, अपने बल से अनेक राजाओं को हराकर ये वीर भाई यज्ञ करने के इच्छुक युधिष्ठिर महाराज के लिए प्रचुर धन लेते आये।
15 जब राजा युधिष्ठिर ने सुना कि जरासन्ध पराजित नहीं किया जा सका तो वे सोच-विचार में पड़ गये, तब भगवान हरि ने जरासन्ध को हराने के लिए उद्धव द्वारा सुझावित उपाय बतलाया।
16 इस तरह भीमसेन, अर्जुन तथा कृष्ण ने ब्राह्मणों का वेश बनाया और हे राजा, वे गिरिव्रज गये जहाँ बृहद्रथ का पुत्र था।
17 ब्राह्मणों का वेश धारण करके ये राजवंशी योद्धा जरासन्ध के घर पहुँचे। उन्होंने उस कर्तव्यनिष्ठ गृहस्थ के समक्ष याचना की, क्योंकि वह ब्राह्मण वर्ग का विशेष रूप से आदर करता था।
18 कृष्ण, अर्जुन तथा भीम ने कहा: हे राजा, आप हमें दीन अतिथि जाने, जो आपके पास बहुत दूर से आये हैं। हम आपका कल्याण चाहते हैं। हम जो भी चाहें, कृपया उसे हमें दें।
19 सहनशील व्यक्ति क्या नहीं सह सकता? दुष्ट क्या नहीं करेगा? उदार व्यक्ति दान में क्या नहीं दे देगा? और समदृष्टि वाले के लिए बाहरी कौन है?
20 निस्सन्देह वह निन्दनीय तथा दयनीय है, जो सक्षम होते हुए भी अपने क्षणिक शरीर से महान सन्तों द्वार गाई गई चिर ख्याति को प्राप्त करने में असफल रहता है।
21 हरिश्चंद्र, रंतिदेव, उंछवृत्ति मुदगल, शिबि, बलि, एवं अन्य अनेकों ने अपना सर्वस्व दान देकर – अविनाशी को प्राप्त किया है।
22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: उनकी आवाज, उनके शारीरिक डीलडौल तथा उनकी कलाइयों पर धनुष की डोरियों से बने चिन्हों से जरासन्ध यह जान गया कि उसके अतिथि राजन्य हैं और सोचने लगा कि इसके पूर्व मैंने उन्हें कहीं न कहीं देखा है।
23 जरासन्ध ने सोचा: ये निश्चित रूप से क्षत्रिय कुल के सदस्य हैं, जिन्होंने ब्राह्मणों का वेश बना रखा है, फिर भी मुझे इनको दान देना चाहिए भले ही वे मुझसे छोड़ने में दुष्कर मेरा शरीर ही क्यों न माँग लें।
24-25 निस्सन्देह, बलि महाराज की निष्कलंक ख्याति विश्व-भर में सुनाई पड़ती है। भगवान विष्णु, बलि से इन्द्र का ऐश्वर्य वापस लेने की इच्छा से, उसके समक्ष ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए और उसके शक्तिशाली पद से उसे नीचे गिरा दिया। यद्यपि दैत्यराज बलि इस छल से परिचित थे और अपने गुरु द्वारा मना किये जाने पर भी उन्होंने विष्णु को दान में सारी पृथ्वी दे दी।
26 उस अयोग्य क्षत्रिय से क्या लाभ जो जीवित तो रहता है, किन्तु अपने नश्वर शरीर से ब्राह्मणों के लाभार्थ कार्य करते हुए स्थायी यश प्राप्त करने में असफल रहता है?
27 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार संकल्प करके उदार जरासन्ध ने कृष्ण, अर्जुन तथा भीम से कहा– हे विद्वान ब्राह्मणों, तुम जो भी चाहो चुन सकते हो, मैं तुम्हें दूँगा, चाहे वह मेरा सिर ही क्यों न हो।
28 भगवान ने कहा: हे राजेन्द्र, यदि आप उचित समझते हों तो हमें दान के रूप में एक द्वन्द्व युद्ध दीजिये। हम राजकुमार हैं और युद्ध की भिक्षा माँगने आये हैं। हमें आपसे कोई अन्य भिक्षा नहीं चाहिए।
29 वह पृथा-पुत्र भीम और यह उसका भाई अर्जुन है। मुझे इनका ममेरा भाई और अपना शत्रु कृष्ण जानो।
30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार ललकारे जाने पर, मगधराज जोर से हँसा और उपेक्षापूर्वक बोला, “बहुत अच्छा" – मैं तुमसे द्वन्द्व युद्ध करूँगा।
31 लेकिन हे कृष्ण, मैं तुमसे युद्ध नहीं करूँगा, क्योंकि तुम कायर हो। तुम्हारे बल ने युद्ध के बीच में ही तुम्हारा साथ छोड़ दिया था और तुम अपनी ही राजधानी मथुरा से समुद्र में शरण लेने के लिए भाग गये थे।
32 जहाँ तक इस अर्जुन की बात है, वह न तो आयु में मेरे समान है न ही अत्यधिक बलशाली है। चूँकि वह मेरी जोड़ का नहीं है, अतः उसे योद्धा नहीं बनना चाहिए, किन्तु भीम मेरे ही समान बलशाली है।
33 यह कहकर जरासन्ध ने भीमसेन को एक बड़ी गदा दी और दूसरी गदा स्वयं लेकर घर के बाहर चला गया।
34 इस तरह दोनों वीर नगर के बाहर समतल अखाड़े में एक दूसरे से युद्ध करने लगे। युद्ध के क्रोध से पगलाये हुए वे एक दूसरे पर वज्र जैसी गदाओं से प्रहार करने लगे।
35 जब वे दक्षता से दाएँ तथा बाएँ चक्कर काट रहे थे, जिस तरह कि मंच पर अभिनेता नाचते हैं, तब यह युद्ध भव्य दृश्य उपस्थित कर रहा था।
36 हे राजन, जब जरासन्ध तथा भीमसेन की गदाएँ जोर-जोर से एक दूसरे से टकरातीं, तो उनसे जो ध्वनि निकलती थी, वह दो लड़ते हुए हाथियों के दाँतों की टक्कर के समान या तूफान के समय चमकने वाली बिजली के गिरने के धमाके जैसी थी।
37 वे एक-दूसरे पर इतने बल और वेग से अपनी गदाएँ चलाने लगे कि जब ये उनके कंधों, कमर, पाँवों, हाथों, जाँघों तथा हँसलियों पर चोट करतीं, तो वे गदाएँ उसी तरह चूर्ण हो जातीं, जिस तरह कि एक दूसरे पर क्रुद्ध होकर आक्रमण कर रहे दो हाथियों से मदार की टहनियाँ पीस जाती हैं।
38 जब उनकी गदाएँ विनष्ट हो गईं, तो पुरुषों में महान वे वीर क्रोधपूर्वक अपने लोहे जैसे कठोर घूँसों से एक दूसरे पर आघात करने लगे। जब वे एक दूसरे पर घूँसे मार रहे थे, तो उससे निकलने वाली ध्वनि हाथियों के परस्पर लड़ने-भिड़ने या बिजली की कठोर कड़कड़ाहट जैसी लग रही थी।
39 इस प्रकार उन दोनों के लड़ते हुए समान प्रशिक्षण, बल तथा उत्साह वाले प्रतिद्वन्द्वियों की यह प्रतियोगिता समाप्त नहीं हो रही थी। इस तरह हे राजन, वे बिना किसी ढील के लड़े जा रहे थे।
40 भगवान कृष्ण अपने शत्रु जरासन्ध के जन्म तथा मृत्यु के रहस्य के बारे में जानते थे। वे यह भी जानते थे कि किस प्रकार जरा नामक राक्षसी ने उसे जीवनदान दिया। अतः कृष्ण ने भीम को अपनी विशेष शक्ति प्रदान कर दी।
41 शत्रु को किस तरह मारा जाय इसका निश्चय करके उन अमोघ-दर्शन भगवान ने एक वृक्ष की टहनी को बीच में से चीरकर भीम को संकेत किया।
42 इस संकेत को समझकर, योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ उस बलशाली भीम ने अपने प्रतिद्वन्द्वी को भूमि पर पटक दिया।
43 भीम ने अपने पाँव से जरासन्ध के एक पाँव को दबा लिया और दूसरे पाँव को अपने हाथों से पकड़ लिया। फिर जिस तरह कोई विशाल हाथी किसी वृक्ष से एक शाखा तोड़ ले, उसी तरह भीम ने जरासन्ध को चीर डाला।
44 तब राजा की प्रजा ने उसे दो अलग-अलग खण्डों में पड़ा हुआ देखा। प्रत्येक खण्ड में एक-एक पाँव, जाँघ, अंडकोश, कमर, कंधा, बाँह, आँख, भौंह, कान तथा आधी पीठ एवं छाती थे।
45 मगधराज की मृत्यु होते ही हाहाकार होने लगा, जबकि अर्जुन तथा कृष्ण ने भीम का आलिंगन करके उसे बधाई दी।
46 समस्त जीवों के पालनकर्ता तथा हितकारी अपरिमेय भगवान ने जरासन्ध के पुत्र सहदेव का अभिषेक मगधवासियों के नवीन राजा के रूप में कर दिया। तब भगवान ने उन समस्त राजाओं को मुक्त किया, जिन्हें जरासन्ध ने बन्दी बना रखा था।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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