अध्याय अट्ठावन – श्रीकृष्ण का पाँच राजकुमारियों से विवाह (10.58)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार परम ऐश्वर्यवान भगवान पाण्डवों को देखने के लिए इन्द्रप्रस्थ गये जो पुनः जनता के बीच प्रकट हो चुके थे। भगवान के साथ युयुधान तथा अन्य संगी थे।
2 जब पाण्डवों ने देखा कि भगवान मुकुन्द आए हैं, तो पृथा के वे वीर पुत्र एकसाथ उसी तरह उठ खड़े हुए जिस तरह इन्द्रियाँ प्राण के वापस आने पर सचेत हो उठती हैं।
3 इन वीरों ने भगवान अच्युत का आलिंगन किया और उनके शरीर के स्पर्श से उन सबके पाप दूर हो गये। उनके स्नेहिल, हँसी से युक्त मुखमण्डल को देखकर वे सब हर्ष से अभिभूत हो गये।
4 युधिष्ठिर तथा भीम के चरणों पर सादर नमस्कार करने तथा अर्जुन का प्रगाढ़ आलिंगन करने के बाद उन्होंने नकुल तथा सहदेव जुड़वाँ भाइयों का नमस्कार स्वीकार किया।
5 पाण्डवों की नवविवाहिता दोषरहित पत्नी, कुछ-कुछ लजाते हुए धीरे-धीरे भगवान कृष्ण के पास आई और उन्हें नमस्कार किया।
6 सात्यकि ने भी पाण्डवों से पूजा तथा स्वागत प्राप्त करके सम्मानजनक आसन ग्रहण किया और भगवान के अन्य संगी भी उचित सम्मान पाकर विविध स्थानों पर बैठ गये।
7 तब भगवान अपनी बुआ महारानी कुन्ती को देखने गये। वे उनके समक्ष झुके और उनका आलिंगन किया। अति स्नेह से उनकी आँखें नम हो गईं। भगवान कृष्ण ने उनसे तथा उनकी पुत्रवधू द्रौपदी से उनकी कुशलता पूछी और उन्होंने भगवान से उनके सम्बन्धियों (द्वारका) के विषय में पूछा।
8 महारानी कुन्ती प्रेम से इतनी अभिभूत हो गयी कि उनका गला रुँध गया और उनकी आँखें आँसुओं से भर गईं। उन्होंने उन तमाम कष्टों का स्मरण किया जिसे उन्होंने तथा उनके पुत्रों ने सहा था। इस तरह उन्होंने भगवान कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा जो अपने भक्तों के समक्ष उनका कष्ट भगाने के लिए प्रकट होते हैं।
9 महारानी कुन्ती ने कहा: हे कृष्ण, हमारी कुशल-मंगल तो तभी आश्वस्त हो गई जब आपने अपने सम्बन्धियों का अर्थात हमारा स्मरण किया और मेरे भाई अक्रूर को हमारे पास भेजकर हमें अपना संरक्षण प्रदान किया।
10 आप जो कि ब्रह्माण्ड के शुभचिन्तक मित्र एवं परमात्मा हैं उनके लिए "अपना" तथा "पराया" का कोई मोह नहीं रहता। तो भी, सबों के हृदयों में निवास करने वाले आप उनके कष्टों को समूल नष्ट कर देते हैं, जो निरन्तर आपका स्मरण करते हैं।
11 राजा युधिष्ठिर ने कहा: हे परम नियन्ता, मैं नहीं जानता कि हम मूर्खों ने कौन से पुण्यकर्म किये हैं कि आपका दर्शन पा रहे हैं जिसे बड़े-बड़े विरले योगेश्वर ही कर पाते हैं।
12 जब राजा ने भगवान कृष्ण को सबके साथ रहने का अनुरोध किया, तो वर्षा ऋतु के महीनों में नगर के निवासियों के नेत्रों को आनन्द प्रदान करते हुए भगवान सुखपूर्वक इन्द्रप्रस्थ में रहते रहे।
13-14 एक बार बलशाली शत्रुओं का हन्ता अर्जुन अपना कवच पहनकर हनुमान से चिन्हित ध्वजा वाले अपने रथ पर सवार होकर, धनुष तथा दो अक्षय तरकस लेकर, भगवान कृष्ण के साथ एक विशाल जंगल में शिकार खेलने गया जो हिंस्र पशुओं से परिपूर्ण था।
15 अर्जुन ने अपने बाणों से उस जंगल के बाघों, सुअरों, जंगली भैंसों, रुरुओं, शरभों, गवयों, गेंडों, श्याम हिरणों, खरगोशों तथा साहियों को बेध डाला।
16 नौकरों का एक दल मारे गये उन पशुओं को राजा युधिष्ठिर के पास ले गया जो किसी विशेष पर्व पर यज्ञ में अर्पित करने के योग्य थे। तत्पश्चात प्यासे तथा थके होने से अर्जुन यमुना नदी के तट पर गया।
17 दोनों कृष्णों ने वहाँ स्नान करने के बाद नदी का स्वच्छ जल पिया। तब दोनों महारथियों ने पास ही टहलती एक आकर्षक युवती को देखा।
18 अपने मित्र द्वारा भेजे जाने पर अर्जुन उस आकर्षक मुख वाली असाधारण युवती के पास गये और उससे पूछा।
19 अर्जुन ने कहा: हे सुन्दरी तुम कौन हो, किसकी पुत्री हो, कहाँ से आई हो और तुम यहाँ क्या कर रही हो? मैं सोच रहा हूँ कि तुम पति की आकांक्षी हो। हे सुन्दरी, मुझसे प्रत्येक बात बतला दो।
20 श्री कालिन्दी ने कहा: मैं सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं परम सुन्दर तथा वरदानी भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में चाहती हूँ और इसीलिए मैं कठोर तपस्या कर रही हूँ।
21 मैं उनको जो लक्ष्मी देवी के धाम हैं, छोड़कर अन्य कोई पति स्वीकार नहीं करूँगी। वे भगवान मुकुन्द, जो कि अनाथों के आश्रय हैं, मुझ पर प्रसन्न हों।
22 मेरा नाम कालिन्दी है और मैं अपने पिता द्वारा यमुना जल के भीतर निर्मित भवन में रहती हूँ। मैं भगवान अच्युत से भेंट होने तक यही रुकूँ गी।
23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: अर्जुन ने ये सारी बातें वासुदेव से बतलाई जो पहले से इनसे अवगत थे। तब भगवान ने कालिन्दी को अपने रथ पर चढ़ा लिया और राजा युधिष्ठिर से मिलने चले गये।
24 एक पुरानी घटना बतलाते हुए श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: पाण्डवों के अनुरोध पर भगवान कृष्ण ने एक अत्यन्त अद्भुत एवं विचित्र नगरी का निर्माण विश्वकर्मा से कराया था।
25 भगवान अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए उस नगरी में कुछ समय तक रहते रहे। श्रीकृष्ण ने अग्निदेव को दान के रूप में खाण्डव वन देना चाहा अतः वे अर्जुन के सारथी बने।
26 हे राजन, अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को धनुष, श्वेत घोड़ों की जोड़ी, रथ, कभी रिक्त न होने वाले दो तरकस तथा एक कवच दिया जिसे कोई योद्धा हथियारों से भेद नहीं सकता था।
27 जब मय दानव अपने मित्र अर्जुन द्वारा अग्नि से बचा लिया गया तो उसने उन्हें एक सभाभवन भेंट किया जिसमें आगे चलकर दुर्योधन को जल के स्थान पर ठोस फर्श का भ्रम होता है।
28 तब अर्जुन तथा अन्य शुभचिन्तक सम्बन्धियों एवं मित्रों से विदा लेकर भगवान कृष्ण सात्यकि तथा अपने अन्य परिचरों समेत द्वारका लौट गये।
29 तब परम ऐश्वर्यशाली भगवान ने कालिन्दी के साथ उस दिन विवाह कर लिया जिस दिन ऋतु, चन्द्र लग्न एवं सूर्य तथा अन्य ग्रहों की स्थिति इत्यादि सभी शुभ थे। इस तरह उन्होंने अपने भक्तों को परम आनन्द प्रदान किया।
30 विंद्य तथा अनुविंद्य जो अवन्ती के संयुक्त राजा थे, दुर्योधन के अनुयायी थे। जब स्वयंवर उत्सव में पति चुनने का अवसर आया तो उन्होंने अपनी बहिन (मित्रविन्दा) को कृष्ण का वरन करने से मना किया यद्यपि वह उनके प्रति अत्यधिक आसक्त थी।
31 हे राजन, अपनी बुआ राजाधिदेवी की पुत्री मित्रविन्दा को प्रतिद्वन्द्वी राजाओं की आँखों के सामने से भगवान कृष्ण बलपूर्वक उठा ले गये।
32 हे राजन, कौशल्य के अत्यन्त धार्मिक राजा नाग्नजित की एक सुन्दर कन्या थी जिसका नाम सत्या और नाग्नजिती भी था।
33 जो राजा ब्याहने के लिए आते थे उन्हें तब तक विवाह नहीं करने दिया जाता था जब तक वे तेज सींगों वाले सात बैलों को वश में न कर लें। ये बैल अत्यन्त दुष्ट तथा वश में न आने वाले थे और वीरों की गन्ध भी सहन नहीं कर सकते थे।
34 जब वैष्णवों के स्वामी भगवान ने उस राजकुमारी के बारे में सुना जो बैलों के विजेता द्वारा जीती जानी थी, तो वे विशाल सेना के साथ कौशल्य की राजधानी गये।
35 कोशल का राजा कृष्ण को देखकर हर्षित हुआ। उसने अपने सिंहासन से उठकर तथा प्रतिष्ठित पद एवं पर्याप्त उपहार देकर भगवान कृष्ण की पूजा की। भगवान कृष्ण ने भी राजा का आदरपूर्वक अभिवादन किया।
36 जब राजा की पुत्री ने देखा कि वह सर्वाधिक उपयुक्त दूल्हा आया है, तो उसने तुरन्त ही रमापति श्रीकृष्ण को पाने की कामना की। उसने प्रार्थना की, “वे मेरे पति बनें। यदि मैंने व्रत किये हैं, तो पवित्र अग्नि मेरी आशाओं को पूरा करे।”
37 “दैवी लक्ष्मी, ब्रह्मा, शिव तथा विभिन्न लोकों के शासक उनके चरणकमलों की धूलि को अपने सिरों पर चढ़ाते हैं और जो अपने द्वारा निर्मित धर्म-संहिता की रक्षा के लिए विभिन्न कालों में लीलावतार धारण करते हैं। भला वे भगवान मुझ पर कैसे प्रसन्न हो सकेंगे?”
38 सर्वप्रथम राजा नाग्नजित ने भगवान की समुचित पूजा की और तब उन्हें सम्बोधित किया, “हे नारायण, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप अपने आध्यात्मिक आनन्द में पूर्ण रहते हैं। अतः यह तुच्छ व्यक्ति आपके लिए क्या कर सकता है?”
39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुनन्दन, भगवान प्रसन्न थे और सुविधाजनक आसन स्वीकार करके वे मुसकाये तथा मेघ-गर्जना सदृश धीर-गम्भीर वाणी में राजा से बोले।
40 भगवान ने कहा: हे मनुष्यों के शासक, विद्वानजन धर्म में रत राजवर्ग व्यक्ति से याचना करने की निन्दा करते हैं, तथापि तुम्हारी मित्रता का इच्छुक मैं तुमसे तुम्हारी कन्या को माँग रहा हूँ यद्यपि हम बदले में कोई भेंट नहीं दे रहे।
41 राजा ने कहा: हे प्रभु, भला मेरी पुत्री के लिए आपसे बढ़कर और कौन वर हो सकता है? आप सभी दिव्य गुणों के धाम हैं। आपके शरीर पर साक्षात लक्ष्मी निवास करती हैं और वे किसी भी कारण से आपको कभी नहीं छोड़ती।
42 किन्तु हे सात्वत प्रमुख, अपनी पुत्री के लिए उपयुक्त पति सुनिश्चित करने के लिए हमने उसके सम्भावित वरों के पराक्रम की परीक्षा करने के लिए पहले से ही एक शर्त निश्चित की हुई है।
43 हे वीर, इन सातों खूँखार बैलों को वश में करना असम्भव है। इन्होंने अनेक राजकुमारों के अंगों को खण्डित करके उन्हें परास्त किया है।
44 हे यदुवंशी, यदि आप इन्हें वश में कर लें तो निश्चित रूप से, हे श्रीपति, आप ही मेरी पुत्री के उपयुक्त वर होंगे।
45 इन शर्तों को सुनकर भगवान ने अपने वस्त्र कसे, अपने आपको सात रूपों में विस्तारित किया और बड़ी आसानी से बैलों को वश में कर लिया।
46 भगवान शौरी ने उन बैलों को बाँध लिया जिनका घमण्ड तथा बल अब टूट चुका था और उन्हें रस्सियों से इस तरह खींचा जिस तरह कोई बालक खेल में लकड़ी के बने बैलों के खिलौनों को खींचता है।
47 तब प्रसन्न तथा चकित राजा नाग्नजित ने अपनी पुत्री भगवान कृष्ण को भेंट कर दी। भगवान ने इस अनुरूप राजकुमारी को वैदिक विधि के साथ स्वीकार किया।
48 राजकुमारी को भगवान के प्रिय पति के रूप में प्राप्त होने पर राजा की पत्नियों को सर्वाधिक आनन्द प्राप्त हुआ और अतीव उत्सव का भाव जाग उठा।
49 गीत तथा वाद्य संगीत और ब्राह्मणों द्वारा आशीर्वाद देने की ध्वनियों के साथ-साथ शंख, तुरही तथा ढोल बजने लगे। प्रमुदित नर-नारियों ने अपने को सुन्दर वस्त्रों तथा मालाओं से अलंकृत किया।
50-51 शक्तिशाली राजा नाग्नजित ने दहेज के रूप में दस हजार गौवें, तीन हजार युवा दासियाँ जो अपने गलों में सोने के आभूषण पहने थीं तथा सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत थीं, नौ हजार हाथी, हाथियों के एक सौ गुना रथ, रथों के एक सौ गुना घोड़े तथा घोड़ों के एक सौ गुने नौकर दिये।
52 स्नेह से द्रवीभूत हृदय से, कौशल के राजा ने वर-वधू को उनके रथ पर बैठा दिया और तब एक विशाल सेना के साथ उन्हें विदा कर दिया।
53 जब स्वयंवर में आये असहिष्णु प्रतिद्वन्द्वी राजाओं ने सारी घटना के बारे में सुना तो उन्होंने भगवान कृष्ण को, अपनी दुल्हन घर ले जाते समय मार्ग में रोकना चाहा। किन्तु जिस तरह इसके पूर्व बैलों ने राजाओं के बल को तोड़ दिया था उसी तरह अब यदु-योद्धाओं ने उनके बल को तोड़ दिया।
54 गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन अपने मित्र कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए सदैव उत्सुक रहते थे अतः उन्होंने उन सारे प्रतिद्वन्द्वियों को भगा दिया जो भगवान पर बाणों की झड़ी लगाये हुए थे। उन्होंने यह सब वैसे ही किया जिस तरह एक सिंह क्षुद्र पशुओं को खदेड़ देता है।
55 तब यदुओं के प्रधान भगवान देवकीसुत दहेज तथा सत्या को लेकर द्वारका गये और वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे।
56 भद्रा कैकेय राज्य की राजकुमारी तथा कृष्ण की बुआ श्रुतकीर्ति की पुत्री थी। जब सन्तर्दन इत्यादि उसके भाइयों ने उसे कृष्ण को भेंट किया, तो उन्होंने भद्रा से विवाह कर लिया।
57 तब भगवान ने मद्रराज की कन्या लक्ष्मणा से विवाह किया। कृष्ण अकेले ही उसके स्वयंवर समारोह में गये थे और उसे उसी तरह हर ले आये जिस तरह गरुड़ एक बार देवताओं का अमृत चुरा ले गया था।
58 भगवान कृष्ण ने इन्हीं के समान अन्य हजारों पत्नियाँ तब प्राप्त की जब उन्होंने भौमासुर को मारा और उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सुन्दरियों को छुड़ाया।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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