कृपया मेरा विनम्र प्रणाम स्वीकार करें !  

(Please accept my humble obeisances)

श्रील प्रभुपाद की जय हो !   

(All Glories to Sril Prabhupada)

श्रीमदभागवत न केवल प्रत्येक वस्तु के परम स्रोत को जानने के लिए दिव्य विज्ञान है अपितु ईश्वर से अपने सम्बन्ध को जानने और इस पूर्ण ज्ञान के आधार पर मानव समाज की पूर्णता के प्रति अपने कर्तव्य को पहचानने का दिव्य विज्ञान है।   श्रीमदभागवत का शुभारम्भ परम स्रोत की परिभाषा से होता है। यह श्रील व्यासदेव द्वारा रचे वेदान्त-सूत्र पर उन्हीं का प्रामाणिक भाष्य है, जो क्रमशः नौ स्कन्धों में विकसित होकर भगवत-साक्षात्कार की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचता है।    दिव्य ज्ञान की इस महान कृति के अध्ययन हेतु मनुष्य में जिस एकमात्र योग्यता की आवश्यकता है, वह है सावधानी के साथ एक-एक पग आगे बढ़ा जाए और किसी साधारण पुस्तक की भाँति, पढ़ने में कूद-फाँद न मचाई जाए, अपितु इसके अध्यायों को क्रमपूर्वक एक-एक करके पढ़ा जाए।   सम्पूर्ण पाठ इस प्रकार व्यवस्थित किया गया है कि जब कोई प्रथम नौ स्कन्धों को समाप्त कर ले, तो उसे निश्चय ही भगवत-साक्षात्कार हो पाए।   श्रीमदभागवत का दशम स्कन्ध प्रथम नौ स्कन्धों से भिन्न है, क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं से है। जब तक प्रथम नौ स्कन्धों को पढ़ नहीं लिया जाता, तब तक दशम स्कन्ध के प्रभावों को ग्रहण नहीं किया जा सकता। यह ग्रन्थ बारह स्कन्धों में पूरा हुआ है; इनमें से प्रत्येक स्कन्ध अपने आप में स्वतंत्र है, किन्तु सबों के लिए उत्तम होगा कि वे क्रमशः एक के पश्चात दूसरे स्कन्ध को छोटे छोटे टुकड़ों में पढ़ें।   ( आमुख श्रीमद भागवतम ) 

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कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद अभय चरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद

संस्थापकाचार्य अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (इस्कॉन)

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॥ मंगलाचरण  ॥

मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञानरूपी प्रकाश से मेरी आँखें खोल दीं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रचार योजना (मिशन) की स्थापना की है ।

मैं अपने गुरु के चरणकमलों को तथा समस्त वैष्णवों के चरणों को नमस्कार करता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके अग्रज सनातन गोस्वामी एवं साथ ही रघुनाथदास, रघुनाथभट्ट, गोपालभट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान कृष्ण-चैतन्य तथा भगवान-नित्यानन्द के साथ-साथ अद्वैत आचार्य, गदाधर, श्रीवास तथा अन्य पार्षदों को सादर प्रणाम करता हूँ। मैं श्रीमती राधारानी तथा श्रीकृष्ण को, श्री ललिता तथा श्री विशाखा सखियों सहित, को सादर नमस्कार करता हूँ।

श्रीकृष्ण के चरण-आश्रित और अत्यन्त प्रिय भक्त कृष्णकृपामूर्ति श्रील अभय चरणारविन्द भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद को, मैं अपना श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता हूँ। हे प्रभुपाद! हे सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के प्रिय शिष्य! कृपापूर्वक श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी के प्रचार के द्वारा निर्विशेषवाद, शून्यवाद पूर्ण पाश्चात्य देशों का उद्धार करने वाले, आपको मैं श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता हूँ।

हे कृष्ण! आप दुखियों के सखा तथा सृष्टि के उद्गम हैं। आप गोपियों के स्वामी तथा राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

मैं उन राधारानी को प्रणाम करता हूँ जिनकी शारीरिक कान्ति पिघले सोने के सदृश है, जो वृन्दावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं और श्रीभगवान कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं।

मैं श्रीभगवान के समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। वे कल्पवृक्ष के समान सबकी इच्छाएँ पूर्ण करने में समर्थ हैं, तथा पतित जीवात्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु हैं।

मैं श्रीकृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानन्द, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि समस्त भक्तों को सादर प्रणाम करता हूँ।

 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

हे सर्वव्यापी परमेश्वर, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

नारायणम नमस्कृत्यम नरम चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासम ततो जयम उदिरयेत (1.2.4)

विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमदभागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान नारायण को, नरोत्तम नरनारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रन्थकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे।

नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यम भागवतसेवया

भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी (1.2.18)

भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं, और उन पुण्य श्लोक भगवान में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च

नन्दगोप-कुमाराय गोविन्दाय नमो नमः (1.8.21)

मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाड़ले, नन्द के लाल तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकर आये हैं।

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ॐ  श्री गुरु गौरांग जयतः 

अध्याय एकमुनियों की जिज्ञासा (1.1)

1 हे प्रभु, हे वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रहमाण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अतः मैं उन भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।

2 यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक होते हुए सबों के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के सन्तापों को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सौन्दर्यपूर्ण भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है? जैसे जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे वैसे ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।

3 हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमदभागवत को जरा चखो तो। यह श्रील शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक रुचिकर हो गया है, यद्यपि इसका अमृत-रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।

4 एक बार नैमिषारण्य के वन में एक पवित्र स्थल पर शौनक आदि महान ऋषिगण भगवान तथा उनके भक्तों को प्रसन्न करने के लिए एक हजार वर्षों तक चलने वाले यज्ञ को सम्पन्न करने के उद्देश्य से एकत्र हुए।

5 एक दिन यज्ञाग्नि जलाकर अपने प्रातःकालीन कृत्यों से निवृत्त होकर तथा श्रील सूत गोस्वामी को आदरपूर्वक आसन अर्पण करके ऋषियों ने सम्मानपूर्वक निम्नलिखित विषयों पर प्रश्न पूछे।

6 मुनियों ने कहा: हे पूज्य सूत गोस्वामी, आप समस्त प्रकार के पापों से पूर्ण रूप से मुक्त हैं। आप धार्मिक जीवन के लिए विख्यात समस्त शास्त्रों एवं पुराणों के साथ-साथ इतिहासों में निपुण हैं, क्योंकि आपने समुचित निर्देशन में उन्हें पढ़ा है और उनकी व्याख्या भी की है।

7 हे सूत गोस्वामी, आप ज्येष्ठतम विद्वान एवं वेदान्ती होने के कारण ईश्वर के अवतार व्यासदेव के ज्ञान से अवगत हैं और आप उन अन्य मुनियों को भी जानते हैं जो सभी प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात हैं।

8 इससे भी अधिक, चूँकि आप विनीत हैं, आपके गुरुओं ने एक सौम्य शिष्य जानकर आप पर सभी तरह से अनुग्रह किया है अतः आप हमें वह सब बतायें जिसे आपने उनसे वैज्ञानिक ढंग से सीखा है।

9 अतएव, दीर्घायु की कृपा प्राप्त आप सरलता से समझ में आने वाली विधि से हमें समझाइये कि आपने जन साधारण के समग्र एवं परम कल्याण के लिए क्या निश्चय किया है?

10 हे विद्वान, कलि के इस लौह-युग में लोगों की आयु न्यून है। वे झगड़ालू, आलसी, पथभ्रष्ट, अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव विचलित रहते हैं।

11 शास्त्रों के अनेक विभाग हैं और उन सबमें नियमित कर्मों का उल्लेख है, जिनके विभिन्न प्रभागों को वर्षों तक अध्ययन करके ही सीखा जा सकता है। अतः हे साधु, कृपया आप इन समस्त शास्त्रों का सार चुनकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु समझायें, जिससे उस उपदेश से उनके हृदय पूरी तरह तुष्ट हो जाएँ।

12 हे सूत गोस्वामी, आपका कल्याण हो। आप जानते हैं कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान देवकी के गर्भ से वसुदेव के पुत्र के रूप में किस प्रयोजन से प्रकट हुए।

13 हे सूत गोस्वामी, हम भगवान तथा उनके अवतारों के विषय में जानने के लिए उत्सुक हैं। कृपया हमें पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा दिये गये उपदेशों को बताइये, क्योंकि उनके वाचन श्रवण तथा कहने सुनने दोनों से ही मनुष्य का उत्कर्ष होता है।

14 जन्म तथा मृत्यु के जाल में उलझे हुए जीव, यदि अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं, तो तुरन्त मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि साक्षात भय भी इससे (नाम से) भयभीत रहता है।

15 हे सूत गोस्वामी, जिन महान ऋषियों ने पूर्ण रूप से भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली है, वे अपने सम्पर्क में आने वालों को तुरन्त पवित्र कर देते हैं, जबकि गंगा जल दीर्घकाल तक उपयोग करने के बाद ही पवित्र कर पाता है।

16 इस कलहप्रधान युग के पापों से उद्धार पाने का इच्छुक ऐसा कौन है, जो भगवान के पुण्य यशों को सुनना नहीं चाहेगा?

17 उनके दिव्य कर्म अत्यन्त उदार तथा अनुग्रहपूर्ण हैं और नारद जैसे महान विद्वान मुनि उनका गायन करते हैं। अतः कृपया हमें उनके अपने विविध अवतारों में सम्पन्न साहसिक लीलाओं के विषय में बतायें, क्योंकि हम सुनने के लिए उत्सुक हैं।

18 हे बुद्धिमान सूतजी, कृपा करके हमसे भगवान के विविध अवतारों की दिव्य लीलाओं का वर्णन करें। परम नियन्ता भगवान के ऐसे कल्याणप्रद साहसिक कार्य तथा उनकी लीलाएँ उनकी अन्तरंगा शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं।

19 हम उन भगवान की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं, जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है। उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है, वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं।

20 भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम सहित मनुष्य की भाँति क्रीड़ाएँ कीं और इस प्रकार से प्रच्छन्न रह कर उन्होंने अनेक अलौकिक कृत्य किये।

21 यह भलीभाँति जानकर कि कलियुग का प्रारम्भ हो चुका है, हम इस पवित्र स्थल में भगवान का दिव्य सन्देश सुनने के लिए तथा इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीर्घसत्र में एकत्र हुए हैं।

22 हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें।

23 चूँकि परम सत्य, योगेश्वर, श्रीकृष्ण अपने निज धाम के लिए प्रयाण कर चुके हैं, अतएव कृपा करके हमें बताएँ कि अब धर्म ने किसका आश्रय लिया है?

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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