अध्याय ग्यारह – परमाणु से काल की गणना (3.11)
1 भौतिक अभिव्यक्ति का अनन्तिम कण जो कि अविभाज्य है और शरीर रूप में निरूपित नहीं हुआ हो, परमाणु कहलाता है। यह सदैव अविभाज्य सत्ता के रूप में विद्यमान रहता है यहाँ तक कि समस्त स्वरूपों के विलीनीकरण (लय) के बाद भी। भौतिक देह ऐसे परमाणुओं का संयोजन ही तो है, किन्तु सामान्य मनुष्य इसे गलत ढंग से समझता है।
2 परमाणु अभिव्यक्त ब्रह्माण्ड की चरम अवस्था है। जब वे विभिन्न शरीरों का निर्माण किये बिना अपने ही रूपों में रहते हैं, तो वे असीमित एकत्व (कैवल्य) कहलाते हैं। निश्चय ही भौतिक रूपों में विभिन्न शरीर हैं, किन्तु परमाणु स्वयं में पूर्ण अभिव्यक्ति का निर्माण करते हैं।
3 काल को शरीरों के पारमाणविक संयोग की गतिशीलता के द्वारा मापा जा सकता है। काल उन सर्वशक्तिमान भगवान हरि की शक्ति है, जो समस्त भौतिक गति का नियंत्रण करते हैं यद्यपि वे भौतिक जगत में दृष्टिगोचर नहीं हैं।
4 परमाणु काल का मापन परमाणु के अवकाश विशेष को तय कर पाने के अनुसार किया जाता है। वह काल जो परमाणुओं के अव्यक्त समुच्चय को प्रच्छन्न करता है महाकाल कहलाता है।
5 स्थूल काल की गणना इस प्रकार की जाती है: दो परमाणु मिलकर एक द्विगुण परमाणु (अणु) बनाते हैं और तीन द्विगुण परमाणु (अणु) एक षट परमाणु बनाते हैं। यह षटपरमाणु उस सूर्य प्रकाश में दृष्टिगोचर होता है, जो खिड़की के परदे के छेदों से होकर प्रवेश करता है। यह आसानी से देखा जा सकता है कि षटपरमाणु आकाश की ओर ऊपर जाता है।
6 तीन त्रसरेणुओं के समुच्चयन में जितना समय लगता है, वह त्रुटि कहलाता है और एक सौ त्रुटियों का एक वेध होता है । तीन वेध मिलकर एक लव बनाते हैं ।
7 तीन लवों की कालावधि एक निमेष के तुल्य है, तीन निमेष मिलकर एक क्षण बनाते हैं, पाँच क्षण मिलकर एक काष्ठा और पन्द्रह काष्ठा मिलकर एक लघु बनाते हैं।
8 पन्द्रह लघु मिलकर एक नाडिका बनाते हैं जिसे दण्ड भी कहा जाता है। दो दण्ड से एक मुहूर्त बनता है और मानवीय गणना के अनुसार छह या सात दण्ड मिलकर दिन या रात का चतुर्थांश बनाते हैं।
9 एक नाडिका या दण्ड के मापने का पात्र छह पल भार (14 औंस) वाले ताम्र पात्र से तैयार किया जा सकता है, जिसमें चार माशा भार वाले तथा चार अंगुल लम्बे सोने की सलाई से एक छेद बनाया जाता है। जब इस पात्र को जल में रखा जाता है, तो इस पात्र को लबालब भरने में जो समय लगता है, वह एक दण्ड कहलाता है।
10 यह भी गणना की गई है कि मनुष्य के दिन में चार प्रहर या याम होते हैं और रात में भी चार प्रहर होते हैं। इसी तरह पन्द्रह दिन तथा पन्द्रह रातें पखवाड़ा कहलाती हैं और एक मास में दो पखवाड़े (पक्ष) उजाला (शुक्ल) तथा अँधियारा (कृष्ण) होते हैं ।
11 दो पक्षों को मिलाकर एक मास होता है और यह अवधि पितृलोकों का पूरा एक दिन तथा रात है। ऐसे दो मास मिलकर एक ऋतु बनाते हैं और छह मास मिलकर दक्षिण से उत्तर तक सूर्य की पूर्ण गति को बनाते हैं।
12 दो सौर गतियों से देवताओं का एक दिन तथा एक रात बनते हैं और दिन-रात का यह संयोग मनुष्य के एक पूर्ण पंचांग वर्ष के तुल्य है। मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष की है।
13 सारे ब्रह्माण्ड के प्रभावशाली नक्षत्र, ग्रह, तारे तथा परमाणु पर ब्रह्म के प्रतिनिधि दिव्य काल के निर्देशानुसार अपनी अपनी कक्षाओं में चक्कर लगाते हैं।
14 सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र तथा आकाश के तारों के पाँच भिन्न-भिन्न नाम हैं और उनमें से प्रत्येक का अपना संवत्सर है।
15 हे विदुर, सूर्य अपनी असीम ऊष्मा तथा प्रकाश से सारे जीवों को जीवन देता है। वह सारे जीवों की आयु को इसलिए कम करता है कि उन्हें भौतिक अनुरक्ति के मोह से छुड़ाया जा सके। वह स्वर्गलोक तक ऊपर जाने के मार्ग को लम्बा (प्रशस्त) बनाता है। इस तरह वह आकाश में बड़े वेग से गतिशील है, अतएव हर एक को चाहिए कि प्रत्येक पाँच वर्ष में एक बार पूजा की समस्त सामग्री के साथ उसको नमस्कार करे ।
16 विदुर ने कहा: मैं पितृलोकों, स्वर्गलोकों के निवासियों तथा मनुष्यों की आयु को समझ पाया हूँ। कृपया अब मुझे उन महान विद्वान जीवों की जीवन अवधि के विषय में बतायें जो कल्प की परिधि के परे हैं।
17 हे आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली, आप उस नित्य काल की गतियों को समझ सकते हैं, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का नियंत्रक स्वरूप है। चूँकि आप स्वरूपसिद्ध व्यक्ति हैं, अतः आप योग दृष्टि की शक्ति से हर वस्तु देख सकते हैं।
18 मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, चारों युग – सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि युग कहलाते हैं। इन सबों के कुल वर्षों का योग देवताओं के बारह हजार वर्षों के बराबर है।
19 सतयुग की अवधि देवताओं के 4800 वर्ष के तुल्य है; त्रेतायुग की अवधि 3600 दैवी वर्षों के तुल्य, द्वापर युग की 2400 वर्ष तथा कलियुग की अवधि 1200 दैवी वर्षों के तुल्य है।
20 प्रत्येक युग के पहले तथा बाद के सन्धिकाल, जो कि कुछ सौ वर्षों के होते हैं, जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, दक्ष ज्योतिर्विदों के अनुसार युग-संध्या या दो युगों के सन्धिकाल कहलाते हैं। इन अवधियों में सभी प्रकार के धार्मिक कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।
21 हे विदुर, सतयुग में मानव जाति ने उचित तथा पूर्णरूप से धर्म के सिद्धान्तों का पालन किया, किन्तु अन्य युगों में ज्यों ज्यों अधर्म प्रवेश पाता गया त्यों त्यों धर्म क्रमशः एक एक अंश घटता गया।
22 तीन लोकों (स्वर्ग, मर्त्य तथा पाताल) के बाहर चार युगों को एक हजार से गुणा करने से ब्रह्मा के लोक का एक दिन होता है। ऐसी ही अवधि की ब्रह्मा की रात होती है, जिसमें ब्रह्माण्ड का स्रष्टा सो जाता है।
23 ब्रह्मा की रात्रि के अन्त होने पर, ब्रह्मा के दिन के समय तीनों लोकों का पुनः सृजन प्रारम्भ होता है और वे एक के बाद एक लगातार चौदह मनुओं के जीवन काल तक विद्यमान रहते हैं।
24 प्रत्येक मनु चतुर्युगों के इकहत्तर से कुछ अधिक समूहों का जीवन भोग करता है।
25 प्रत्येक मनु के अवसान के बाद क्रम से अगला मनु अपने वंशजों के साथ आता है, जो विभिन्न लोकों पर शासन करते हैं। किन्तु सात विख्यात ऋषि तथा इन्द्र जैसे देवता एवं गन्धर्व जैसे उनके अनुयायी मनु के साथ साथ प्रकट होते हैं।
26 ब्रह्मा के दिन के समय सृष्टि में तीनों लोक—स्वर्ग, मर्त्य तथा पाताल लोक चक्कर लगाते हैं तथा मनुष्येतर पशु, मनुष्य, देवता तथा पितृगण समेत सारे निवासी अपने अपने सकाम कर्मों के अनुसार प्रकट तथा अप्रकट होते रहते हैं।
27 प्रत्येक मनु के बदलने के साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विभिन्न अवतारों के रूप में यथा मनु इत्यादि के रूप में अपनी अन्तरंगा शक्ति प्रकट करते हुए अवतीर्ण होते हैं। इस तरह प्राप्त हुई शक्ति से वे ब्रह्माण्ड का पालन करते हैं।
28 दिन का अन्त होने पर तमोगुण के नगण्य अंश के अन्तर्गत ब्रह्माण्ड की शक्तिशाली अभिव्यक्ति रात के अँधेरे में लीन हो जाती है। नित्यकाल के प्रभाव से असंख्य जीव उस प्रलय में लीन रहते हैं और हर वस्तु मौन रहती है।
29 जब ब्रह्मा की रात शुरू होती है, तो तीनों लोक दृष्टिगोचर नहीं होते और सूर्य तथा चन्द्रमा तेज विहीन हो जाते हैं जिस तरह कि सामान्य रात के समय होता है।
30 संकर्षण के मुख से निकलने वाली अग्नि के कारण प्रलय होता है और इस तरह भृगु इत्यादि महर्षि तथा महर्लोक के अन्य निवासी उस प्रज्ज्वलित अग्नि की ऊष्मा से, जो नीचे के तीनों लोकों में लगी रहती है, व्याकुल होकर जनलोक को चले जाते हैं।
31 प्रलय के प्रारम्भ में सारे समुद्र उमड़ आते हैं और भीषण हवाएँ उग्र रूप से चलती हैं। इस तरह समुद्र की लहरें भयावह बन जाती हैं और देखते ही देखते तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं।
32 परमेश्वर अर्थात भगवान हरि अपनी आँखें बन्द किए हुए अनन्त के आसन पर जल में लेट जाते हैं और जनलोक के निवासी हाथ जोड़ कर भगवान की महिमामयी स्तुतियाँ करते हैं।
33 इस तरह ब्रह्माजी समेत प्रत्येक जीव के लिए आयु की अवधि के क्षय की विधि विद्यमान रहती है। विभिन्न लोकों में काल के सन्दर्भ में हर किसी जीव की आयु केवल एक सौ वर्ष तक होती है।
34 ब्रह्मा के जीवन के एक सौ वर्ष दो भागों में विभक्त हैं प्रथमार्ध तथा द्वितीयार्ध या परार्ध। ब्रह्मा के जीवन का प्रथमार्ध समाप्त हो चुका है और द्वितीयार्ध अब चल रहा है।
35 ब्रह्मा के जीवन के प्रथमार्ध के प्रारम्भ में ब्राह्म-कल्प नामक कल्प था जिसमें ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। वेदों का जन्म ब्रह्मा के जन्म के साथ साथ हुआ।
36 प्रथम ब्राह्म कल्प के बाद का कल्प पाद्म कल्प कहलाता है, क्योंकि उस काल में विश्वरूप कमल का फूल भगवान हरि के नाभि रूपी जलाशय से प्रकट हुआ।
37 हे भरतवंशी, ब्रह्मा के जीवन के द्वितीयार्ध में प्रथम कल्प वाराह कल्प भी कहलाता है, क्योंकि उस कल्प में भगवान सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे।
38 जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ब्रह्मा के जीवन के दो भागों की अवधि भगवान के लिए एक निमेष (एक सेकेण्ड से भी कम) के बराबर परिगणित की जाती है। भगवान अपरिवर्तनीय तथा असीम हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त कारणों के कारण हैं।
39 नित्य काल निश्चय ही परमाणु से लेकर ब्रह्मा की आयु के परार्धों तक के विभिन्न आयामों का नियन्ता है, किन्तु तो भी इसका नियंत्रण सर्वशक्तिमान (भगवान) द्वारा होता है। काल केवल उनका नियंत्रण कर सकता है, जो सत्यलोक या ब्रह्माण्ड के अन्य उच्चतर लोकों तक में देह में अभिमान करने वाले हैं।
40 यह दृश्य भौतिक जगत चार अरब मील के व्यास तक फैला हुआ है, जिसमें आठ भौतिक तत्त्वों का मिश्रण है, जो सोलह अन्य कोटियों में, भीतर-बाहर निम्नवत रूपान्तरित हैं।
41 ब्रह्माण्डों को ढके रखने वाले तत्त्वों की परतें पिछले वाली से दस गुनी अधिक मोटी होती हैं और सारे ब्रह्माण्ड एकसाथ सम्पुञ्जित होकर परमाणुओं के विशाल संयोग जैसे प्रतीत होते हैं।
42 इसलिए भगवान श्रीकृष्ण समस्त कारणों के आदि कारण कहलाते हैं। इस प्रकार विष्णु का आध्यात्मिक धाम निस्सन्देह शाश्वत है और यह समस्त अभिव्यक्तियों के उद्गम महाविष्णु का भी धाम है।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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