jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय पच्चीस -- भगवान अनन्त की महिमा (5.25)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा: हे राजन, पाताल लोक से 240000 मील नीचे श्रीभगवान के एक अन्य अवतार निवास करते हैं। वे भगवान अनन्त अथवा भगवान संकर्षण कहलाते हैं और भगवान विष्णु के अंश हैं। वे सदैव दिव्य पद पर आसीन हैं किन्तु तमोगुणी देवता भगवान शिव के आराध्य होने के कारण कभी-कभी तामसी कहलाते हैं। भगवान अनन्त सभी बद्धजीवों के अहं तथा तमोगुण के प्रमुख देवता हैं। जब बद्धजीव यह सोचता है कि यह संसार भोग्य है और मैं उसका भोक्ता हूँ तो यह जीवन-दृष्टि संकर्षण द्वारा प्रेरित होती है। इस प्रकार संसारी बद्धजीव स्वयं को ही परमेश्वर मानने लगता है।

2 भगवान अनन्त के सहस्र फणों में से एक फण के ऊपर रखा हुआ यह विशाल ब्रह्माण्ड श्वेत सरसों के दाने के समान प्रतीत होता है। भगवान अनन्त के फण की तुलना में यह नगण्य है।

3 प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब भगवान अनन्तदेव सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करना चाहते हैं, तो वे कुछ क्रुद्ध हो जाते हैं। तब उनकी दोनों भृकुटियों के बीच से त्रिशूल धारण किए हुए त्रिनेत्र रुद्र प्रकट होते हैं। यह रुद्र, जो संकर्षण कहलाते हैं, ग्यारह रुद्रों, अर्थात भगवान शिव के अवतारों का व्यूह होता है। वे सम्पूर्ण सृष्टि के संहार हेतु प्रकट होते हैं।

4 भगवान संकर्षण के चरणकमलों के गुलाबी तथा पारदर्शी नाखून मानो दर्पण जैसे चमकाये गए बहुमूल्य मणि हैं। जब शुद्ध भक्त तथा नागों के अधिपति अत्यन्त भक्तिभाव से उन्हें नमस्कार करते हैं, तो उनके चरण-नखों से अपने सुन्दर मुखों की छाया देखकर अत्यन्त प्रमुदित हो उठते हैं। उनके गालों पर कान की देदीप्यमान बालियाँ दमकती हैं और उनकी मुख-कान्ति अत्यन्त मोहक होती है।

5 भगवान अनन्त की आकर्षक दीर्घ भुजाएँ कंगनों से आकर्षक ढंग से अलंकृत हैं और पूर्णतया आध्यात्मिक हैं। श्वेत होने के कारण वे चाँदी के खम्भों सी प्रतीत होती हैं। जब भगवान के शुभाशीर्वाद की इच्छुक नागराजों की कुमारियाँ उनकी बाहों में अगुरु, चन्दन तथा कुमकुम का लेप लगाती हैं, तो उनके स्पर्श से उनके भीतर कामेच्छा जाग्रत हो उठती है। उनके मनोभावों को समझकर भगवान जो इन राजकुमारियों को कृपापूर्ण मुस्कान से देखते हैं, तो वे यह सोचकर लजा जाती हैं कि वे उनके मनोभावों को जानते हैं। तब वे मनोहर मुसकान सहित भगवान के मुखकमल को देखतीं हैं, जो उनके भक्तों के प्यार से प्रमुदित तथा मद-विह्वल घूमती हुई लाल-लाल आँखों से सुशोभित रहता है।

6 भगवान संकर्षण अनन्त दिव्य गुणों के सागर हैं जिससे वे अनन्तदेव कहलाते हैं। वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से अभिन्न हैं। इस जगत के समस्त जीवों के कल्याण हेतु वे अपने क्रोध तथा अपनी असहनशीलता को रोके हुए अपने धाम में निवास करते हैं।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले- देवता, असुर, उरग (सर्पदेव), सिद्ध गन्धर्व, विद्याधर तथा अनेक सिद्ध सन्तजन भगवान की निरन्तर प्रार्थना करते रहते हैं। मद के कारण भगवान विह्वल प्रतीत होते हैं और उनके नेत्र पूर्ण पुष्पित फूलों की भाँति इधर-उधर गति करते हैं। वे अपने मुख से निकली मधुर वाणी से अपने पार्षदों, देवताओं के प्रमुखों को प्रसन्न करते हैं। नीलाम्बर और कान में एक कुण्डल धारण किये हुए वे अपनी पीठ पर हल को अपने दो सुघड़ हाथों से पकड़े हुए हैं। वे इन्द्र के समान श्वेत लगते हैं, वे अपनी कटि में स्वर्णिम मेखला और गले में चिर नवीन तुलसी दलों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं। तुलसी दलों की मधु जैसी गन्ध से आकर्षित होकर मधुमक्खियाँ माला के चारों ओर मँडराती रहती हैं, जिससे माला और भी सुन्दर लगने लगती है। इस प्रकार भगवान दिव्य लीलाओं में संलग्न रहते हैं।

8 यदि भौतिक जीवन से मुक्ति पाने के इच्छुक पुरुष शिष्य परम्परा से प्राप्त गुरु के मुख से अनन्तदेव के यश को सुनते हैं और यदि वे संकर्षण का निरन्तर ध्यान धरते हैं, तो भगवान उनके अन्तःकरण में प्रवेश करते हुए प्रकृति के तीनों गुणों के सारे कल्मष को दूर कर देते हैं और हृदय की उस कठोर ग्रंथि को काट देते हैं, जो सकाम कर्मों द्वारा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने की अभिलाषा के कारण अनन्त काल से दृढ़ता से बँधी हुई है। भगवान ब्रह्मा के पुत्र नारद मुनि अपने पिता की सभा में अनन्तदेव के यश का सदैव गान करते हैं। वहाँ वे अपने द्वारा रचित शुभ श्लोकों का गान अपने तम्बुरे के साथ करते हैं।

9 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की दृष्टि फेरने से ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कारणस्वरूप, भौतिक प्रकृति के गुणों को अपने-अपने कार्य में समर्थ कर देते हैं। परमात्मा अनन्त तथा अनादि हैं और एक होते हुए भी अपने को नाना रूपों में प्रकट करते हैं। भला ऐसे परमेश्वर के कार्यों को मानव समाज कैसे जान सकता है?

10 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के भीतर स्थूल व सूक्ष्म जगत का अस्तित्व विद्यमान है। अपने भक्तों पर अहैतुकी कृपावश वे विभिन्न दिव्य रूपों को प्रदर्शित करते हैं। परमेश्वर अत्यन्त उदार हैं एवं उनमें समस्त योग शक्तियाँ हैं। अपने भक्तों के मन को जीतने तथा उनके हृदय को आनन्दित करने के लिए वे नानाविध अवतारों में प्रकट होते हैं और अनेक लीलाएँ करते हैं।

11 यदि कोई आर्त अथवा पतित व्यक्ति भी प्रामाणिक गुरु से भगवान का पवित्र नाम सुनकर उसका जप करता है, तो वह तुरन्त पवित्र हो जाता है। यदि वह हँसी में, अथवा अकस्मात भी भगवननाम का जप करता है, तो वह तथा जो उसे सुनता है समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं। अतः भौतिक बन्धनों से छुटकारा चाहने वाला व्यक्ति भगवान शेष के नाम-जप से कैसे कतरा सकता है? भला वह और किसकी शरण ग्रहण करे?

12 अपरिमित होने के कारण ईश्वर की शक्ति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अनेक विशाल पर्वतों, नदियों, सागरों, वृक्षों तथा जीवात्माओं से पूर्ण यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनके सहस्रों फणों में से एक के ऊपर अणु के समान टिका हुआ है। भला, सहस्र जिह्वाओं से भी क्या कोई उनकी महिमा का वर्णन कर सकता है?

13 उन शक्तिमान भगवान अनन्तदेव के महान एवं यशस्वी गुणों का कोई पारावार नहीं है। वास्तव में उनका शौर्य अनन्त है। स्वयं आत्मनिर्भर होते हुए भी वे प्रत्येक वस्तु के आधार हैं। वे पाताललोक में वास करते हैं और इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण किये रहते हैं।

14 हे राजन, मैंने अपने गुरु से जैसा सुना था, उसी रूप में मैंने बद्धजीवों के सकाम कर्मों एवं कामनाओं के अनुसार इस जगत की सृष्टि का पूर्ण वर्णन आपसे किया है। भौतिक कामनाओं से पूर्ण बद्धजीवों को विभिन्न लोकों में अनेक स्थान प्राप्त होते रहते हैं और इस प्रकार वे इसी भौतिक सृष्टि के भीतर रहते चले आते हैं।

15 हे राजन, इस प्रकार मैंने आपको बताया है कि प्रायः मनुष्य किस प्रकार अपनी-अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं और उसी के अनुसार उच्च या निम्न लोकों में भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं। आपने ये बातें मुझसे पूछीं थी और मैंने जो अधिकारियों से सुना है उसे आपसे बता दिया। अब आगे क्या सुनाऊँ?

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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 10876581475?profile=RESIZE_584xअध्याय चौबीस – नीचे के स्वर्गीय लोकों का वर्णन (5.24)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- हे राजन, कुछ पुराण-वाचकों का कथन है की सूर्य से 10000 योजन (80000 मील) योजन नीचे राहू नामक ग्रह है जो नक्षत्रों की भाँति घूमता है। इस ग्रह का अधिष्ठाता देवता, जो सिंहिका का पुत्र है समस्त असुरों में घृणास्पद है और इस पद के लिए सर्वथा अयोग्य होने पर भी श्रीभगवान की कृपा से उसे प्राप्त कर सका है। मैं उसके विषय में आगे कहूँगा।

2 ऊष्मा के स्रोत सूर्य के गोलक का विस्तार 10000 योजन (80000 मील) है। चन्द्रमा का 20000 योजन (160000 मील) और राहू का 30000 योजन (240000 मील) तक फैला हुआ है। अमृत वितरण के समय राहू ने सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्य आसीन होकर उनके बीच द्वेष उत्पन्न करना चाहा। राहू, सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों के प्रति शत्रुभाव रखता है। इसलिए वह सदा अमावस्या तथा पुर्णिमा के दिन उनको ढकने का प्रयत्न करता रहता है।

3 सूर्य तथा चन्द्र देवताओं से राहू के आक्रमण को सुनकर उनकी रक्षा हेतु भगवान विष्णु अपना सुदर्शन चक्र चलाते हैं। यह चक्र भगवान का अत्यन्त प्रिय भक्त और प्रिय पात्र है। अवैष्णवों के वध हेतु इसका प्रचण्ड तेज राहू के लिए असह्य है, अतः वह डरकर भाग जाता है। जब राहू चन्द्र या सूर्य को सताता है, तो ग्रहण लगता है।

4 राहू से 10000 योजन (80000 मील) नीचे सिद्धलोक, चारणलोक तथा विद्याधरलोक हैं।

5 अन्तरिक्ष में विद्याधरलोक, चारणलोक तथा सिद्धलोक के नीचे यक्षों, राक्षसों, पिशाचों, भूतों इत्यादि के भोगविलास के स्थान हैं। जहाँ तक वायु प्रवाहित होती है और आकाश में बादल तैरते हैं, वहाँ तक अन्तरिक्ष का विस्तार है। इसके ऊपर वायु नहीं है।

6 यक्षों तथा राक्षसों के आवासों के नीचे 100 योजन (800 मील) की दूरी पर पृथ्वी ग्रह है। इसकी ऊपरी सीमा उतनी ऊँचाई तक है जहाँ तक हंस, गिद्ध, बाज तथा अन्य बड़े पक्षी उड़ सकते हैं। हे राजन, पृथ्वी के नीचे सात अन्य लोक हैं, जो अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल तथा पाताल कहलाते हैं। मैं पृथ्वीलोक की स्थिति पहले ही बता चुका हूँ। इन सात निम्नलोकों की चौड़ाई तथा लम्बाई पृथ्वी के बराबर ही परिगणित की गई है।

8 बिल स्वर्ग (नीचे के स्वर्ग) कहलाने वाले इन सातों लोकों में अत्यन्त सुन्दर घर, उद्यान तथा क्रीड़ास्थलियाँ हैं, जो स्वर्गलोक से भी अधिक ऐश्वर्यशाली हैं, क्योंकि असुरों के विषय-भोग, सम्पत्ति तथा प्रभाव के मानक बहुत ऊँचे हैं। इन लोकों के वासी दैत्य, दानव तथा नाग कहलाते हैं और उनमें से बहुत से गृहस्थों की भाँति रहते हैं। उनकी पत्नियाँ, सन्तानें, मित्र तथा उनका समाज मायामय भौतिक सुख में पूरी तरह मग्न रहता है। भले ही देवताओं के ऐन्द्रिय-सुख में कभी-कभी बाधा आए, किन्तु इन लोकों के वासी अबाध जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार उन्हें मायामय सुख में अत्यधिक लिप्त माना जाता है।

9 हे राजन, कृत्रिम स्वर्ग में, जिन्हें बिल-स्वर्ग कहते हैं, मय नामक एक महादानव है जो अत्यन्त कुशल वास्तुशिल्पी है। उसने अनेक अलंकृत पुरियों का निर्माण किया है जहाँ अनेक विचित्र भवन, प्राचीर, द्वार, सभाभवन, मंदिर, आँगन तथा मंदिर-प्राचार एवं विदेशियों के रहने के होटल तथा आवास हैं। इन ग्रहों के अधिपतियों के भवनों को अत्यन्त मूल्यवान रत्नों से निर्मित किया गया है। ये भवन नागों तथा असुरों के अतिरिक्त अनेक कबूतरों, तोतों तथा अन्य पक्षियों से परिपूर्ण हैं। कुल मिलकर ये कृत्रिम स्वर्गिक पुरियाँ अत्यन्त आकर्षक ढंग से अलंकृत की गई हैं।

10 कृत्रिम स्वर्गों के बाग-बगीचे स्वर्गलोक के उद्यानों की शोभा को मात करने वाले हैं। उन उद्यानों के वृक्ष लताओं से लिपटे जाकर फलों तथा फूलों से लदी शाखाओं के भार से झुके रहते हैं, जिसके कारण वे अतीव सुन्दर लगते हैं। यह सुन्दरता किसी को भी आकृष्ट करनेवाली और मन को भोगेच्छा से प्रफुल्लित कर देने वाली है। वहाँ अनेक जलाशय एवं झीलें हैं जिनका जल निर्मल, पारदर्शी है तथा मछलियों के कूदने से उद्वेलित होता रहता है और कुमुदिनी, कुवलय, कल्हार तथा नील एवं लाल कमल के पुष्पों से सुसज्जित रहता है। झीलों में चक्रवाक के जोड़े तथा अन्य अनेक जलपक्षी विहार करते हैं और प्रसन्न होकर कलरव करते हैं जिसे सुनकर मन और इन्द्रियों को अत्यन्त आह्लाद होता है।

11 चूँकि उन अधःलोकों में सूर्य का प्रकाश नहीं जाता, अतः काल दिन तथा रात में विभाजित नहीं है, जिसके फलस्वरूप काल से उत्पन्न भय नहीं रहता।

12 वहाँ अनेक बड़े-बड़े सर्प वास करते हैं जिनके फनों की मणियों के प्रकाश से अंधकार दूर भाग जाता है।

13 चूँकि इन लोकों के निवासी जड़ी-बूटियों से बने रस तथा रसायन का पान करते हैं और उनमें स्नान करते हैं, अतः वे सभी प्रकार की चिन्ताओं और व्याधियों से मुक्त रहते हैं। न तो उनके केश सफ़ेद होते हैं, न झुर्रियाँ पड़ती हैं, न वे अशक्य होते हैं। उनकी शारीरिक कान्ति कभी मलिन नहीं पड़ती, उनके पसीने से दुर्गन्ध नहीं आती और न तो उन्हें थकान, न ही शक्ति का अथवा वृद्धावस्थाजन्य उत्साह का अभाव सताता है।

14 वे अत्यन्त कुशलपूर्वक रहते हैं और काल रूप श्रीभगवान के सुदर्शन चक्र के अतिरिक्त अन्य किसी साधन द्वारा मृत्यु से भयभीत नहीं हैं।

15 जब सुदर्शन चक्र उन प्रदेशों में पहुँचता है, तो उसके तेज के भय से असुरों की गर्भिणी स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है।

16 हे राजन, अब मैं तुमसे अतललोक से प्रारम्भ करके समस्त अधोलोकों का वर्णन करूँगा। अतललोक में मय-दानव का पुत्र बल नामक असुर है, जिसने छियानवे प्रकार की माया रच रखी है। कुछ तथाकथित योगी तथा स्वामी आज भी लोगों को ठगने के लिए इस माया का प्रयोग करते हैं। बल असुर के उबासी लेने से स्वैरिणी, कामिनी तथा पुंश्चली के नाम से तीन प्रकार की स्त्रियाँ उत्पन्न हुई हैं। स्वैरिणियाँ अपने ही पुरुष से ब्याह करना पसन्द करती हैं, कामिनियाँ किसी भी वर्ग के पुरुष से ब्याह कर लेती हैं और पुंश्चलियाँ अपना पति बदलती रहती हैं। यदि कोई पुरुष अतललोक में प्रवेश करता है, तो ये स्त्रियाँ तुरन्त ही उसे बन्दी बनाकर हाटक नामक जड़ी से बनाये गये मादक पेय को पीने के लिए बाध्य कर देती हैं। इस पेय से मनुष्य में प्रचुर काम-शक्ति जाग्रत होती है, जिसका उपयोग वे स्त्रियाँ अपने रति-सुख हेतु करती हैं। स्त्रियाँ उसे अपनी मोहक चितवन, प्रेमालाप, मन्द मुस्कान तथा आलिंगन इत्यादि के द्वारा मोह लेती हैं। पेय के पीने से मनुष्य अपने को दस हजार हाथियों से भी अधिक बलवान मानने लगता है। दरअसल मदहोशी के कारण मोहग्रस्त होकर वह सर पर खड़ी मृत्यु की अनदेखी करके अपने आपको ईश्वर समझने लगता है।

17 अतललोक के नीचे अगला ग्रह वितल है जहाँ स्वर्ण खानों के स्वामी भगवान शिव अपने गणों, भूतों तथा ऐसे ही अन्य जीवों के साथ रहते हैं। पिता-रूप शिव माता-रूप भवानी के साथ विहार करते हैं और इनके संयोग से हाटकी नामक नदी निकलती है। जब वायु द्वारा अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठती है तो वह नदी को पी जाती है और बाहर थूक देने पर हाटक नामक स्वर्ण उत्पन्न होता है। इस लोक के वासी असुर अपनी पत्नियों सहित उस स्वर्ण के बने आभूषणों से अपने को अलंकृत करते हैं और इस प्रकार वे अत्यन्त सुखपूर्वक रहते हैं।

18 वितल के नीचे सुतल नामक एक अन्य लोक है जहाँ महाराज विरोचन के पुत्र बलि महाराज रहते हैं, जो अत्यन्त पवित्र राजा के रूप में विख्यात हैं और वहाँ आज भी निवास करते हैं। स्वर्ग के राजा इन्द्र के कल्याण हेतु भगवान विष्णु अदिति के पुत्र वामन ब्रह्मचारी के रूप में प्रकट हुए और केवल तीन पग पृथ्वी माँग कर महाराज बलि को छल कर तीनों लोक प्राप्त कर लिए। सर्वस्व दान ले लेने पर बलि से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें उनका राज्य लौटा दिया और इन्द्र से भी ऐश्वर्यमान बना दिया। आज भी सुतललोक में श्रीभगवान की आराधना करते हुए बलि महाराज भक्ति करते हैं।

19 हे राजन, बलि महाराज ने श्रीभगवान को अपना सर्वस्व दान कर दिया, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अपने दान के कारण उन्हें बिल-स्वर्ग में इतना भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त हुआ। समस्त जीवात्माओं के जीवनमूल श्रीभगवान प्रत्येक व्यक्ति के अन्तस्थल में मित्र परमात्मा के रूप में निवास करते हैं और उन्हीं के आदेश से इस भौतिक संसार में आनन्द उठाते हैं या कष्ट भोगते हैं। भगवान के दिव्य गुणों पर रीझ कर बलि महाराज ने अपना सर्वस्व उनके चरणकमलों में अर्पित कर दिया। किन्तु उनका लक्ष्य भौतिक लाभ प्राप्त करना नहीं था, वे तो शुद्ध भक्त बनना चाहते थे। शुद्ध भक्त के लिए मुक्ति के द्वार स्वतः खुल जाते हैं। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि केवल अपने दान के कारण बलि महाराज को इतना ऐश्वर्य प्राप्त हो सका। जब कोई प्रेमवश शुद्ध भक्त बन जाता है, तो उसे भी भगवदिच्छा से अच्छा भौतिक स्थान प्राप्त होता है। किन्तु कभी गलती से यह नहीं समझना चाहिए कि भक्ति के परिणामस्वरूप किसी भक्त को सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त होता है। भक्ति का असली फल तो श्रीभगवान के प्रति शुद्ध प्रेम जागृत होना है जो समस्त परिस्थितियों में बना रहता है।

20 यदि भूख से व्याकुल होने, गिरने अथवा ठोकर खाने पर कोई इच्छा अथवा अनिच्छा से एक बार भी भगवान का पवित्र नाम लेता है तो वह सहसा अपने पूर्वकर्मों के प्रभावों से मुक्त हो जाता है। कर्मी लोग भौतिक कार्यों में फँसकर योग-साधना में अनेक कष्ट उठाते हैं और अन्य लोग भी वैसी ही स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

21 प्रत्येक प्राणी के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित श्रीभगवान नारदमुनि जैसे भक्तों के हाथों बिक जाते हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ऐसे ही भक्तों को प्यार करते हैं और जो उन्हें शुद्ध भाव से प्यार करते हैं। वे उनके हाथों अपने आपको सौंप देते हैं। यहाँ तक कि महान आत्म-साक्षात्कार करने वाले योगी, यथा चारों कुमार भी अपने अन्तर में परमात्मा का साक्षात्कार करके दिव्य आनन्द प्राप्त करते हैं।

22 श्रीभगवान ने बलि महाराज को भौतिक सुख तथा ऐश्वर्य प्रदान करके अपना अनुग्रह प्रदर्शित नहीं किया क्योंकि इनसे ईश्वर की प्रेमाभक्ति भूल जाती है। भौतिक ऐश्वर्य का परिणाम यह होता है कि फिर भगवान में मन नहीं लगता।

23 जब श्रीभगवान को बलि महाराज का सर्वस्व ले लेने की कोई युक्ति न सूझी तो उन्होंने भिक्षा माँगने के बहाने तीनों लोक माँग लिए। इस प्रकार उनका शरीरमात्र शेष बच रहा, किन्तु तो भी भगवान संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने बलि महाराज को वरुण पाश से बन्दी बना लिया और एक पर्वत की गुफा में ले जाकर फेंक दिया। यद्यपि बलि महाराज का सर्वस्व ले लिया गया था और उन्हें बन्दी बना कर गुफा में डाल दिया गया था, तो भी महान भक्त होने के कारण वे इस प्रकार बोले।

24 धिक! स्वर्ग का राजा इन्द्र कितना दयनीय है कि अत्यन्त विद्वान और शक्तिमान होकर तथा बृहस्पति को परामर्श हेतु अपना प्रधान बना लेने पर भी आध्यात्मिक उन्नति के विषय में सर्वथा अज्ञानी है। बृहस्पति भी बुद्धिमान नहीं है, क्योंकि उसने अपने शिष्य इन्द्र को उचित शिक्षा नहीं दी। भगवान वामनदेव इन्द्र के द्वार पर खड़े हुए थे, किन्तु उनसे इन्द्र ने दिव्य सेवा के लिए अवसर का वरदान न माँगकर उन्हें मेरे द्वार पर अपने इन्द्रिय-भोग के लिए तीन लोकों की प्राप्ति के लिए भिक्षा हेतु भेज दिया। तीनों लोकों की प्रभुता अत्यन्त महत्त्वहीन है, क्योंकि मनुष्य के पास चाहे कितना भी ऐश्वर्य क्यों न रहे वह एक मन्वन्तर तक ही चलता है, जो अनन्त काल का एक क्षुद्रांश मात्र है।

25 बलि महाराज ने कहा: मेरे पितामह प्रह्लाद महाराज ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आत्महित पहचाना। उनके पिता हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात भगवान नृसिंहदेव ने प्रह्लाद को उनके पिता का साम्राज्य प्रदान करने के साथ ही भौतिक बन्धनों से मुक्ति प्रदान करनी चाही, किन्तु प्रह्लाद ने इनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने सोचा कि मुक्ति तथा भौतिक ऐश्वर्य, भक्ति में बाधक हैं, अतः श्रीभगवान से ऐसे वरदान प्राप्त कर लेना भगवान का वास्तविक अनुग्रह नहीं है। फलस्वरूप कर्म तथा ज्ञान के फलों को न स्वीकार करते हुए प्रह्लाद महाराज ने भगवान से केवल उनके दास की भक्ति में अनुरक्त रहने का वर माँगा।

26 बलि महाराज ने कहा: हमारे जैसे पुरुष, जो अब भी भौतिक सुखों में लिप्त हैं, जो भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से दूषित हैं और जिन पर श्रीभगवान के अनुग्रह का अभाव है, वे भला ईश्वर के सिद्ध भक्त प्रह्लाद महाराज के सर्वोत्कृष्ट मार्ग का अनुसरण कैसे कर सकते हैं?

27 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- हे राजन, भला मैं बलि महाराज के चरित्र का कैसे गुणगान कर सकता हूँ? तीनों लोकों के स्वामी श्रीभगवान, जो अपने भक्त पर अत्यन्त दयालु हैं, महाराज बलि के द्वार पर गदा धारण किए खड़े रहते हैं। जब पराक्रमी असुर रावण बलि महाराज पर विजय पाने के लिए आया तो वामनदेव ने उसे अपने पैर के अँगूठे से अस्सी हजार मील दूरी पर फेंक दिया। मैं बलि महाराज के चरित्र तथा कार्यकलापों का विस्तृत वर्णन आगे (आठवें स्कन्ध में) करूँगा।

28 सुतल लोक के नीचे तलातल नामक एक और लोक है जो मय दानव द्वारा शासित है। मय इन्द्रजाल की शक्तियों से पूर्ण, समस्त मायावियों के आचार्य (स्वामी) रूप में विख्यात है। एक बार भगवान शिव ने, जिन्हें त्रिपुरारी कहा जाता है, तीनों लोकों के लाभ के लिए मय के तीनों राज्यों को जला दिया, किन्तु बाद में उससे प्रसन्न होकर उसका राज्य लौटा दिया। तब से शिवजी मय दानव की रक्षा करते हैं, इसलिए वह गलती से सोचता है कि उसे श्रीभगवान के सुदर्शन चक्र का भय नहीं करना चाहिए।

29 तलातल के नीचे का लोक महातल कहलाता है। यह सदैव क्रुद्ध रहने वाले अनेक फनों वाले कद्रू की सर्प-सन्तानों का आवास है। इन सर्पों में कुहक, तक्षक, कालिय तथा सुषेण प्रमुख हैं। महातल के सारे सर्प भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के भय से सदैव आतंकित रहते हैं, किन्तु चिन्तातुर होते हुए भी उनमें से कुछ अपनी पत्नियों, सन्तानों मित्रों तथा कुटुम्बियों के साथ-साथ क्रीड़ाएँ करते रहते हैं।

30 महातल के नीचे रसातल नामक लोक है जो दिति तथा दनु के आसुरी पुत्रों का निवास है। ये पणि, निवात-कवच, कालेय तथा हिरण्य-पुरवासी कहलाते हैं। ये देवताओं के शत्रु हैं और सर्पों की भाँति बिलों में रहते हैं। ये जन्म से ही अत्यन्त शक्तिशाली एवं क्रूर हैं और अपनी शक्ति का गर्व होने पर भी वे समस्त लोकों के अधिपति श्रीभगवान के सुदर्शन चक्र द्वारा सदैव पराजित होते हैं। जब इन्द्र की नारीरूप दूत सरमा विशेष एक विशिष्ट शाप देती है, तो महातल के असुर सर्प, इन्द्र से अत्यन्त भयभीत हो उठते हैं।

31 रसातल के नीचे पाताल अथवा नागलोक नामक एक अन्य लोक है जहाँ अनेक आसुरी सर्प तथा नागलोक के स्वामी रहते हैं, यथा शंख, कुलीक, महाशंख, श्वेत, धनंजय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कंबल, अश्वतर तथा देवदत्त। इनमें से वासुकि प्रमुख है। वे अत्यन्त क्रुद्ध रहते हैं और उनमें से कुछ के पाँच, कुछ के सात, कुछ के दस, कुछ के सौ और अन्यों के हजार फण होते हैं। इन फणों में बहुमूल्य मणियाँ सुशोभित हैं और इन मणियों से निकला प्रकाश बिल-स्वर्ग के सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय तेईस -- शिशुमार ग्रह-मण्डल (5.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, सप्तर्षि-मण्डल से 1300000 योजन (10400000 मील) ऊपर भगवान विष्णु का धाम कहा जाता है। वहाँ पर अब भी महाराज उत्तानपाद के पुत्र, परम भक्त महाराज ध्रुव वास करते हैं, जो इस सृष्टि के अन्त तक रहने वाले समस्त जीवात्माओं के प्राणाधार हैं। वहाँ पर इन्द्र, अग्नि, प्रजापति, कश्यप तथा धर्म सभी समवेत होकर उनका आदर करते हैं और नमस्कार करते हैं। वे उनके दाईं ओर रहकर उनकी प्रदक्षिणा करते है। मैं पहले ही महाराज ध्रुव के यशस्वी कार्यों का वर्णन (श्रीमदभागवत के चतुर्थ स्कन्ध में) कर चुका हूँ।

2 श्रीभगवान की परम इच्छा से स्थापित ध्रुव महाराज का लोक (ध्रुवलोक) समस्त नक्षत्रों तथा ग्रहों के मध्यवर्ती-स्तम्भ के रूप में निरन्तर प्रकाशमान रहता है। सदा जागते रहने वाला अदृश्य सर्वशक्तिमान काल इन ज्योतिर्गणों को अहर्निश ध्रुवतारे के चारों ओर घूमाता रहता है।

3 यदि बैलों को एकसाथ नाथकर उन्हें एक मध्यवर्ती आधार-स्तम्भ से बाँधकर भूसे पर घुमाया जाता है, तो वे अपनी स्थिति से हटे बिना चक्कर लगाते रहते हैं – पहला बैल स्तम्भ के निकट रहता है, दूसरा बीच में और तीसरा बाहर की ओर। इसी प्रकार सभी ग्रह तथा सैकड़ों हजारों नक्षत्र भी ध्रुवतारे के चारों ओर ऊपर तथा नीचे स्थित अपनी-अपनी कक्ष्याओं में घूमते रहते हैं। वे अपने पूर्वकर्मों के अनुसार श्रीभगवान द्वारा प्रकृति-यंत्र में बाँधे जाकर वायु द्वारा ध्रुवलोक के चारों ओर घुमाये जाते हैं और इस प्रकार कल्पान्त तक घूमते रहेंगे। ये ग्रह विशाल आकाश के भीतर वायु में वैसे ही तैरते रहते हैं, जिस प्रकार हजारों टन जल से लदे बादल वायु में तैरते रहते हैं, अथवा अपने पूर्वकर्मों के कारण बड़े-बड़े बाज आकाश में ऊँचाई तक उड़ते रहते हैं और भूमि पर कभी नहीं गिरते।

4 नक्षत्रों तथा ग्रहों से युक्त यह विराट यंत्र जल में शिशुमार (सूँस मछ्ली) के स्वरूप से समानता रखने वाले है। कभी-कभी इसे वासुदेव श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है। वास्तव में दृश्य होने के कारण बड़े-बड़े योगी वासुदेव के इस रूप का ध्यान करते हैं।

5 यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इसका सिर नीचे की ओर है। इसकी पूँछ के सिरे पर ध्रुव नामक लोक स्थित है। इसकी पूँछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र तथा धर्म नामक देवताओं के लोक स्थित हैं और पूँछ के मूल भाग में धाता और विधाता नामक देवताओं के लोक हैं। उसके कटिप्रदेश में वसिष्ठ, अंगिरा इत्यादि सातों ऋषि हैं। कुण्डलीबद्ध शिशुमार का शरीर दाहिनी ओर मुड़ता है, जिसमें अभिजित से लिकर पुनर्वसु पर्यन्त चौदह नक्षत्र स्थित हैं। इसकी बाई ओर पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ा पर्यन्त चौदह नक्षत्र हैं। इस प्रकार दोनों ओर समान संख्या में नक्षत्र होने से इसका शरीर संतुलित है। शिशुमार के पृष्ठ भाग में अजवीथी नामक नक्षत्रों का समूह है और उदर में आकाश-गंगा है।

6 शिशुमार चक्र के दाहिने तथा बाएँ कटि तटों पर पुनर्वसु तथा पुष्य नक्षत्र हैं। इसके दाएँ तथा बाएँ पैरों पर आद्रा एवं अश्लेषा, इसके दाएँ तथा बाएँ नथुनों पर क्रमशः अभिजित तथा उत्तराषाढ़ा, इसके दाएँ तथा बाएँ नेत्रों पर श्रवणा तहत पूर्वषाढ़ा और इसके दाएँ तथा बाएँ कानों पर धनिष्ठा तथा मूला स्थित हैं। मघा से अनुराधा तक दक्षिणायण के आठ नक्षत्र बाई पसलियों पर और उत्तरायण के मृगशीर्ष से पूर्वभाद्र पर्यन्त आठ नक्षत्र दाई ओर की पसलियों पर स्थित हैं। शतभीषा तथा ज्येष्ठा ये दो नक्षत्र क्रमशः दाहिने और बाएँ कंधों पर स्थित हैं।

7 शिशुमार की ऊपरी ठोड़ी पर अगस्ति, निचली ठोड़ी पर यमराज, मुँह में मंगल, उपस्थ में शनि, गर्दन (कुकुद) पर बृहस्पति, छाती पर सूर्य, हृदय के छोर में नारायण, मन में चन्द्रमा, नाभि में शुक्र तथा स्तनों में अश्विनी कुमार स्थित हैं। प्राण और अपान नामक प्राण वायु में बुध, गले में राहु तथा समस्त शरीर पर केतु और रोमों में समस्त तारागण स्थित हैं।

8 हे राजन, इस प्रकार से वर्णित शिशुमार के शरीर को भगवान श्रीविष्णु का बाह्य रूप मानना चाहिए। प्रत्येक प्रातः, दोपहर तथा सायंकाल शिशुमार चक्र के रूप में भगवान का दर्शन मौन होकर करना चाहिए और इस मंत्र से उपासना करनी चाहिए – "हे काल रूप धारण करने वाले भगवान, हे विभिन्न कक्ष्याओं में घूमने वाले ग्रहों के आश्रय, हे समस्त देवों के स्वामी, हे परम पुरुष, मैं आपको नमस्कार करता हूँ और आपका ध्यान धरता हूँ ।“

9 शिशुमार चक्र रूपी परमेश्वर विष्णु का शरीर समस्त देवताओं, नक्षत्रों तथा ग्रहों का आश्रय है। जो व्यक्ति परम पुरुष की आराधना करने हेतु नित्य तीन बार प्रातः, दोपहर तथा सायंकाल इस मंत्र का जप करता है, वह समस्त पापों के फल से अवश्य ही मुक्त हो जाता है। यदि कोई इस रूप में उनको केवल नमस्कार करे या इसे दिन में तीन बार स्मरण करे तो उसके हाल में किए हुए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बाईस – ग्रहों की कक्ष्याएँ (5.22)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे भगवान, आपने पहले ही इस सत्य की पुष्टि की है कि परम शक्तिमान सूर्यदेव ध्रुवलोक तथा सुमेरु पर्वत को अपने दाएँ रखकर ध्रुवलोक की परिक्रमा करते हैं, तो भी वे राशियों की ओर मुख किये रहते हैं और सुमेरु तथा ध्रुवलोक को अपने बाएँ भी रखते हैं, अतः हम तर्क तथा निर्णय द्वारा कैसे स्वीकारें कि हर समय सूर्यदेव, सुमेरु तथा ध्रुवलोक को दाएँ तथा बाएँ दोनों ओर रखते हुए चलते हैं?

2 श्रील शुकदेव ने उत्तर दिया- जब कुम्हार के घूमते हुए चाक पर छोटी छोटी चींटियाँ बैठी रहती हैं, तो वे उसके साथ-साथ घूमती हैं, किन्तु उनकी गति चाक की गति से भिन्न होती हैं, क्योंकि कभी वे चाक के एक भाग में दिखती हैं, तो कभी दूसरे भाग पर। इसी प्रकार राशियाँ तथा नक्षत्र सुमेरु तथा ध्रुवलोक को अपने दाईं ओर रखकर कालचक्र के साथ घूमते हैं और सूर्य तथा अन्य ग्रह चीटीं के तुल्य उनके साथ साथ घूमते हैं, तो भी वे विभिन्न कालों में विभिन्न राशियों तथा नक्षत्रों में देखे जाते हैं। इससे सूचित होता है कि उनकी गति राशियों तथा कालचक्र से सर्वथा भिन्न है।

3 विराट जगत के आदि कारण भगवान नारायण हैं। जब वैदिक ज्ञान से भलीभाँति परिचित महान साधुजनों ने परम पुरुष की स्तुति की तो वे समस्त लोकों का हित करने तथा कर्मों की शुद्धि के लिए सूर्य के रूप में इस भौतिक जगत में अवतरित हुए। उन्होंने स्वयं को बारह भागों में विभाजित करके वसन्तादि ऋतुओं की सृष्टि की। इस प्रकार उन्होंने ताप, शीत इत्यादि ऋतु सम्बन्धी गुणों की सृष्टि की।

4 चारों वर्णो तथा चारों आश्रमों के लोग सामान्य रूप से सूर्यदेव के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण की उपासना करते हैं। वे अत्यन्त श्रद्धा के साथ वेदत्रयी द्वारा प्रतिपादित अग्निहोत्र जैसे छोटे-बड़े सकाम कर्मों के अनुसार तथा योग क्रिया द्वारा परमात्मास्वरूप श्रीभगवान की आराधना करते हैं। इस प्रकार वे सुगमतापूर्वक जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

5 सूर्यदेव जो नारायण अथवा विष्णु हैं और समस्त लोकों के आत्मा हैं, वे इस ब्रह्माण्ड के ऊपरी तथा निचले भागों (पृथ्वी तथा द्युलोक) के मध्य अन्तरिक्ष में स्थित हैं। कालचक्र में स्थित होकर बारह मासों को तय करते हुए सूर्य बारह राशियों के सम्पर्क में आकर उनके अनुसार बारह भिन्न-भिन्न नाम धारण करते हैं। इन बारह मासों का योगफल संवत्सर अथवा एक पूर्ण वर्ष कहलाता है। चन्द्र गणना के अनुसार चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के दो पक्ष मिलकर एक मास बनाते हैं। पितृलोक ग्रह पर यही काल एक दिन तथा रात के तुल्य है। ज्योतिष गणना के अनुसार एक मास सवा दो नक्षत्रों के बराबर होता है। जब सूर्य दो मास यात्रा कर लेता है, तो एक ऋतु बीतती है, इसलिए ऋतु के अनुसार होने वाले परिवर्तनों को वर्ष-देह का अंग माना जाता है।

6-7 इस प्रकार आधे अन्तरिक्ष को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, वह अयन कहलाता है [उत्तर या दक्षिण दिशा में]। सूर्यदेव की तीन प्रकार की गतियाँ हैं-मन्द, तीव्र और मध्यम। इन तीनों गतियों से स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष प्रक्षेत्रों के चारों ओर पूरी यात्रा करने में जितना समय लगता है उसे विद्वद्जन संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर तथा वत्सर – इन पाँच नामों से वर्णन करते हैं। सौर पद्धति ज्योतिष गणनाओं के अनुसार प्रत्येक वर्ष कलैंडर वर्ष से छह दिन आगे तक जाता है और चन्द्र पक्षीय वर्षों में बारह दिन का अन्तर होता है। जैसे-जैसे संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर बीतते हैं, प्रत्येक पाँच वर्षों में दो अतिरिक्त मास जुड़ जाते हैं। इससे छठा संवत्सर बन जाता है, किन्तु अतिरिक्त संवत्सर होने के कारण सौर-पद्धति में संवत्सरों की उपयुक्त पाँच नामों के अनुसार गणना की जाती है।

8 सूर्य-प्रकाश की किरणों से 100000 योजन (800000 मील) ऊपर चन्द्रमा है जो सूर्य से अधिक तीव्र गति से यात्रा करता है। वह दो चन्द्र पक्षों में एक सौर संवत्सर के समान दूरी तय कर लेता है। अर्थात सवा दो दिन में सूर्य के एक मास के तुल्य और एक दिन में सूर्य के एक पक्ष के बराबर दूरी तय कर लेता है।

9 जब चन्द्रमा बढ़ता है (शुक्ल पक्ष में) तो इसका प्रकाशमय अंश प्रतिदिन बढ़ता जाता है, जिससे देवताओं के लिए दिन और पितरों के लिए रात्रि उत्पन्न होती है। किन्तु जब चन्द्रमा घटता रहता है (कृष्ण पक्ष में) तो देवताओं के लिए रात्रि और पितरों के लिए दिन उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार तीस मुहूर्तों में (पूरे एक दिन में) चन्द्रमा प्रत्येक नक्षत्र से होकर गुजरता है। चन्द्रमा अमृतमयी शीतलता प्रदान करके अन्नों की वृद्धि को प्रभावित करता है, इसलिए चन्द्रदेव को समस्त जीवात्माओं का प्राण मान जाता है। फलस्वरूप उसे इस ब्रह्माण्ड में वास करने वाला मुख्य प्राणी, जीव, कहा गया है।

10 समस्त शक्तियों से पूर्ण होने के कारण चन्द्रमा श्रीभगवान के प्रभाव का सूचक है। प्रत्येक व्यक्ति के मन का प्रमुख श्रीविग्रह होने के कारण चन्द्रमा मनोमय कहलाता है। वह अन्नमय भी कहलाता है क्योंकि वह समस्त वनस्पतियों तथा पौधों को शक्ति प्रदान करता है। समस्त जीवात्माओं का प्राणाधार होने से वह अमृतमय भी कहा जाता है। चन्द्रमा समस्त देवताओं, पितरों, मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, सरीसृपों, वृक्षों, पौधों तथा अन्य सभी जीवात्माओं को प्रसन्न करने वाला है। सभी प्राणी चन्द्रमा की उपस्थिति से संतुष्ट रहते हैं, फलतः वह "सर्वमय" भी कहलाता है।

11 चन्द्रमा से 200000 योजन (1600000 मील) ऊपर कई नक्षत्र स्थित हैं। श्रीभगवान ने उन्हें कालचक्र में संयुक्त कर रखा है, अतः वे सुमेरु पर्वत को दाईं ओर रखते हुए घूमते रहते हैं और इनकी गति सूर्य की गति से सर्वथा भिन्न होती है। अभिजित सहित कुल अट्ठाईस नक्षत्र हैं।

12 इन नक्षत्रों से लगभग 200000 योजन (1600000 मील) ऊपर शुक्र ग्रह है जो लगभग सूर्य की ही गति अर्थात तीव्र, मन्द तथा मध्यम गतियों से घूमता है। वह कभी सूर्य के पीछे, कभी सामने और कभी उसी के साथ-साथ रहता है। वह वर्षा में विघ्न डालने वाले ग्रहों को शान्त करने वाला है, अतः इसकी उपस्थिति में वर्षा होती है और इसलिए यह इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के अनुकूल माना जाता है। इसे विद्वानों ने स्वीकार किया है।

13 बुध को शुक्र के ही समान बताया है, क्योंकि यह कभी सूर्य के पीछे, कभी सामने और कभी-कभी इसके साथ-साथ घूमता है। यह शुक्र से 1600000 मील अथवा पृथ्वी से 7200000 मील ऊपर स्थित है। यह चन्द्रमा का पुत्र होने से विश्व के वासियों का मंगल करने वाला है, किन्तु जब सूर्य के साथ नहीं घूमता होता तो यह चक्रवात, अंधड़, अनियमित वर्षा तथा जलरहित बादलों की जानकारी देता है। इस प्रकार अवर्षा या अतिवर्षा के कारण यह भयावह परिस्थिति उत्पन्न करता है।

14 बुध से 1600000 मील ऊपर अथवा पृथ्वी से 8800000 मील ऊपर मंगल ग्रह है। यह वक्रगति से चलकर एक-एक राशि को तीन-तीन पक्षों में पार करता हुआ क्रमशः बारहों राशियों में से यात्रा करता है। यह प्रायः वर्षा तथा अन्य प्रभावों के रूप में प्रतिकूल अवस्थाएँ उत्पन्न करता है।

15 मंगल से 1600000 योजन अथवा पृथ्वी से 10400000 मील ऊपर बृहस्पति नामक ग्रह स्थित है जो एक परिवत्सर में एक राशि की यात्रा करता है। यदि यह वक्रगति से न चले तो यह ब्राह्मणों के लिए अत्यन्त अनुकूल रहता है।

16 बृहस्पति से 200000 योजन अर्थात 1600000 मील और पृथ्वी से 12000000 मील ऊपर शनिग्रह स्थित है जो तीस-तीस मास में प्रत्येक राशि से होकर जाता है और तीस अनुवत्सरों में सम्पूर्ण राशिवृत्त पूरा करता है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए अत्यन्त अशुभ है।

17 शनिग्रह से 1100000 योजन अर्थात 8800000 मील (अथवा पृथ्वी से 20800000 मील) ऊपर सप्तर्षि अवस्थित हैं, जो सदैव ब्रह्माण्ड के समस्त प्राणियों की मंगल-कामना करते रहते हैं। वे भगवान विष्णु के परम धाम ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा करते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय इक्कीस – सूर्य की गतियों का वर्णन (5.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, मैंने यहाँ तक आपसे विद्वानों के अनुमानों के आधार पर ब्रह्माण्ड के व्यास (पचास करोड़ योजन या चार अरब मील) तथा इसके सामान्य लक्षणों का वर्णन किया है।

2 जिस प्रकार गेहूँ के दाने को भागों में विभाजित कर देने पर निचले भाग के परिमाण (आकार) का ज्ञान होने पर ऊपरी भाग का पता लगाया जाता है उसी प्रकार भूगोलवेत्ताओं का कहना है कि इस ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग की माप को तभी समझा जा सकता है, जब निचले भाग की माप ज्ञात हो। भूलोक तथा द्युलोक के बीच का आकाश अन्तरिक्ष अथवा बाह्य-आकाश कहलाता है। यह भूलोक की चोटी तथा द्युलोक के निचले भाग को जोड़ता है।

3 उस अन्तरिक्ष के मध्य में ताप उत्पन्न करने वाले समस्त ग्रहों का राजा परम तेजवान सूर्य है जो अपने प्रकाश से समस्त ब्रह्माण्ड को तप्त करता है और उसको वास्तविक स्वरूप प्रदान करता है। यह समस्त जीवात्माओं को प्रकाश प्रदान करता है, जिससे वे देख पाते हैं। श्रीभगवान की आज्ञानुसार वह उत्तरायण, दक्षिणायण होकर या विषुवत रेखा को पार करते हुए मन्द, शीघ्र और मध्यम गतियों से घूमता हुआ समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे – नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन तथा रात को बड़ा, छोटा या समान बनाता है।

4 जब सूर्य मेष या तुला राशि पर आता है, तो दिन और रात की अवधि समान हो जाती है। जब यह वृषभ इत्यादि पाँचों राशियों पर से गुजरता है, तो दिन (कर्क तक) बढ़ता जाता है और तब प्रति मास आधा घंटा घटता रहता है, जब तक दिन तथा रात्रि पुनः (तुला में) समान नहीं हो जाते।

5 जब सूर्य वृश्चिक इत्यादि पाँच राशियों से होकर गुजरता है, तो दिन घटता है (जब तक यह मकर राशि पर नहीं आ जाता) और फिर क्रमशः मास प्रति मास बढ़ता जाता है जब तक दिन और रात समान (मेष पर) नहीं हो जाते।

6 सूर्य के दक्षिणायण होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण होने तक रातें लम्बी होती जाती है।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – हे राजन, जैसा पहले कह चुका हूँ पण्डितों का कहना है कि मानसोत्तर पर्वत के चारों ओर सूर्य का परिक्रमा-पथ 95100000 (नौ करोड़ इक्यावन लाख) योजन ( छिहत्तर करोड़ आठ लाख मील) है। मानसोत्तर पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुण की निम्लोचनी तथा उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नामक पूरियाँ स्थित हैं। इन सभी पूरियों में मेरु के चारों ओर विशिष्ट कालों के अनुसार सूर्योदय, मध्यान्ह, सूर्यास्त तथा अर्धरात्रि होती रहती है और तदनुसार समस्त जीवात्माएँ अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त अथवा निवृत्त होती रहती हैं।

8-9 सुमेरु पर्वत पर रहने वाले प्राणी मध्यान्ह के समय सदा ही अत्यन्त तप्त होते है, क्योंकि सूर्यदेव सदैव उनके सिर के ऊपर रहता है। यद्यपि सूर्य घड़ी की विपरीत दिशा में सुमेरु पर्वत को अपने बाईं ओर छोड़ता हुआ जाता है, किन्तु यह घड़ी की दिशा में भी घूमता है, जिससे पर्वत उसके दाईं ओर रहता दिखता है, क्योंकि उस पर दक्षिणावर्त पवन का प्रभाव पड़ता है। जहाँ सर्वप्रथम उदय होता सूर्य दिखता है, उसके ठीक दूसरी ओर वह अस्त होता दिखता है। उससे होकर एक सीधी रेखा खींची जाये तो इस रेखा के दूसरे सिरे के प्राणी मध्यरात्रि का अनुभव कर रहे होंगे। इसी प्रकार यदि अस्ताचल के प्राणी अपनी ठीक दूसरी ओर स्थित देशों में जायें तो उन्हें सूर्य उसी स्थिति में नहीं मिलेगा।

10 सूर्य इन्द्र की पुरी देवधानी से यमराज की पुरी संयमनी तक पन्द्रह घड़ियों (छह घंटे) में कुल मिलाकर 23775000 योजन की यात्रा करता है।

11 सूर्य यमराज की पुरी से वरुण की पुरी निम्लोचनी पहुँचता है और फिर वहाँ से चन्द्रदेव की पुरी विभावरी से होते हुए पुनः इन्द्रपुरी पहुँच जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमा अन्यत्र नक्षत्रों तथा ग्रहों सहित ज्योतिश्चक्र में उदित और अस्त होता रहता है।

12 इस प्रकार त्रयीमय अर्थात ॐ भूर्भुव: स्व: शब्दों द्वारा पूजित सूर्यदेव का रथ ऊपर वर्णित चारों पुरियों से होकर एक मुहूर्त में 3400800 योजन (27206400मील) की गति से घूमता रहता है।

13 सूर्यदेव के रथ में एक ही चक्र है, जिसे संवत्सर कहते हैं। बारहों महीने इसके बारह अरे, छह ऋतु, छह नेमियाँ (हाल) तथा तीन चातुर्मास इसके तीन भागों में विभाजित आँवने (नाभि) हैं। चक्र को धारण करने वाले धुरे का एक सिरा सुमेरु पर्वत की चोटी पर और दूसरा सिरा मानसोत्तर पर्वत पर टिका है। धुरे के बाहरी सिरे पर लगा यह पहिया कोल्हू के चक्र की भाँति निरन्तर मानसोत्तर पर्वत के चक्कर लगाता है।

14 कोल्हू के समान यह पहली धुरी एक दूसरी धुरी में लगी है जो इसकी चौथाई के बराबर लम्बी 3937500 योजन अथवा 31500000 मील है। इस द्वितीय धुरी का ऊपरी भाग वायु की रस्सी द्वारा ध्रुवलोक से जुड़ा है।

15 हे राजन, रथ का भीतरी भाग 3600000 योजन (28800000 मील) लम्बा तथा इसका एक चौथाई चौड़ा 900000 योजन है। रथ के घोड़ों के नाम गायत्री आदि वैदिक छन्दों पर रखे गए हैं और उन्हें अरुणदेव ऐसे जूएँ में जोतता है जो 900000 योजन चौड़ा है। यह रथ लगातार सूर्यदेव को लिए रहता है।

16 यद्यपि अरुणदेव सूर्यदेव के सम्मुख बैठकर रथ को हाँकते हैं तथा घोड़ों को वश में रखते हैं, तो भी वे पीछे की ओर सूर्यदेव को देखते रहते हैं।

17 अँगूठे के आकार वाले वालखिल्य नामक साठ हजार ऋषिगण सूर्य के आगे रहकर उनका स्वस्तिवाचन करते हैं।

18 इस प्रकार अन्य मुनि, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस तथा देवतागण जो संख्या में चौदह हैं, किन्तु दो-दो के जोड़े में विभाजित हैं, प्रतिमास नया नाम धारण करके अनेक नामधारी, सर्वाधिक शक्तिमान देवता सूर्य के रूप में श्रीभगवान की आराधना करने के लिए निरन्तर विभिन्न कर्मकाण्डों से उपासना करते रहते हैं।

19 हे राजन, भूमण्डल की परिक्रमा करते हुए सूर्यदेव एक क्षण में दो हजार योजन तथा दो कोस (16004 मील) की गति से 95100000 योजन (760880000 मील) की दूरी तय करता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बीस – ब्रह्माण्ड रचना का विश्लेषण (5.20)

1 महर्षि श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- इसके पश्चात मैं प्लक्षादि अन्य छह द्वीपों के आकार प्रकार, लक्षण तथा स्थिति का वर्णन करूँगा।

2 जिस प्रकार सुमेरु पर्वत चारों ओर से घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी लवण के सागर से घिरा है। जम्बूद्वीप की चौड़ाई 100000 योजन (800000 मील) है और लवण का सागर भी इतना ही चौड़ा है। जिस तरह कभी-कभी दुर्ग की खाई उपवन से घिरी रहती है उसी प्रकार जम्बूद्वीप को घेरने वाला लवण-सागर भी प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है। प्लक्षद्वीप की चौड़ाई लवण के सागर से दुगुनी अर्थात 200000 (1600000 मील) है। प्लक्षद्वीप में स्वर्ण के समान चमकीला एक वृक्ष है जो जम्बूद्वीप स्थित जम्बूवृक्ष के बराबर ऊँचा है। इस के मूल भाग में सात ज्वालाओं वाली अग्नि है। यह वृक्ष प्लक्ष का है, अतः इस द्वीप का नाम प्लक्षद्वीप पड़ा। यह द्वीप महाराज प्रियव्रत के एक पुत्र इध्मजिव्ह द्वारा शासित था। उन्होंने सातों द्वीपों के नाम अपने सात पुत्रों के नामों पर रखे और उन्हें अपने पुत्रों को देकर, सक्रिय जीवन से अवकाश प्राप्त कर वे स्वयं श्रीभगवान की सेवा में लीन रहने लगे।

3-4 इन सात वर्षों के नाम उन सातों पुत्रों के अनुसार क्रमशः शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत तथा अभय पड़े। इन सात वर्षों में सात पर्वत तथा सात नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम हैं--मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान, सुपर्ण, हिरण्यष्ठिव, तथा मेघमाल और नदियों के नाम हैं---अरुणा, नृम्णा, अंगीरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतंभरा तथा सत्यंभरा। इन नदियों के स्पर्श करने या स्नान करने से भौतिक मल तुरन्त दूर हो जाते और प्लक्षद्वीप में रहने वाली हंस, पतंग, ऊर्ध्वायन तथा सत्यांग नामक चार जातियाँ अपने को इसी प्रकार पवित्र करती हैं। इस द्वीप के वासी एक हजार वर्ष तक जीवित रहते हैं। वे देवताओं के समान सुन्दर हैं और उनकी सन्तानें भी उन्हीं के अनुरूप हैं। वे वेदों में वर्णित अनुष्ठानों को पूरा करके तथा श्रीभगवान के प्रतिनिधि स्वरूप सूर्यदेव की उपासना करके सूर्यलोक को प्राप्त होते हैं, जो स्वर्गलोक ही है।

5 [इस मंत्र के द्वारा प्लक्षद्वीप के वासी परब्रह्म की उपासना करते हैं] हम सूर्यदेवता की शरण ग्रहण करें जो परम प्रकाशित, पुराणपुरुष श्रीभगवान के प्रतिबिम्ब हैं। विष्णु ही एकमात्र आराध्य हैं। वही वेद हैं, वही धर्म हैं और वही शुभाशुभ फलों के स्रोत हैं।

6 हे राजन, प्लक्ष आदि पाँच द्वीपों में सभी वासियों में जन्म से ही आयु, मनोबल, इन्द्रिय बल, शारीरिक बल, बुद्धि और शौर्य (पराक्रम) समान रूप में प्रकट रहते हैं।

7 प्लक्षद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले इक्षुरस के समुद्र से घिरा हुआ है। इसी प्रकार उसके आगे उससे दुगुने परिमाण वाला शाल्मलीद्वीप है (400000 योजन अथवा 3200000 मील चौड़ा) जो उतने ही चौड़ाईवाले जल समूह अर्थात सुरासागर से घिरा हुआ है।

8 शाल्मलीद्वीप में शाल्मली का एक वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का यह नाम पड़ा। यह प्लक्ष वृक्ष के बराबर चौड़ा और ऊँचा है, अर्थात 100 योजन 800 मील चौड़ा तथा 1100 योजन 8800 मील ऊँचा है। विद्वानों का कथन है कि यह विशाल वृक्ष पक्षियों के राजा तथा विष्णु के वाहन गरुड़ का निवासस्थान है। यहाँ गरुड़ भगवान विष्णु की वैदिक स्तुति करता है।

9 शाल्मलीद्वीप के स्वामी महाराज प्रियव्रत के पुत्र यज्ञबाहु ने इस द्वीप को सात भागों में विभाजित करके उन्हें अपने पुत्रों को दे दिया। इन विभागों के नाम उनके पुत्रों के नामों पर हैं--सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन तथा अविज्ञात।

10 इन सातों विभागों में सात पर्वत हैं, जिनके नाम स्वरस, शत्शृंग, वामदेव, कुंद, मुकुन्द, पुष्पवर्ष तथा सहस्रश्रुति हैं। उनमें सात नदियाँ भी हैं जिनके नाम अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहु, रजनी, नन्दा तथा राका हैं। ये आज भी विद्यमान हैं।

11 इन द्वीपों के वासी श्रुतिधर, वीर्यधर, वसुन्धर तथा ईषन्धर नामों से विख्यात हैं और वे वर्णाश्रम धर्म का कठोरता से पालन करते हुए श्रीभगवान के सोम नामक अंश की, जो साक्षात चन्द्रदेव हैं, उपासना करते हैं।

12 [शाल्मलीद्वीप के वासी चन्द्रदेवता की आराधना निम्नलिखित शब्दों से करते हैं।] पितरों तथा देवताओं को अन्न देने के उद्देश्य से चन्द्रदेव ने अपनी ही किरणों से मास को शुक्ल तथा कृष्ण नामक दो पक्षों में विभाजित किया है। चन्द्र देवता काल का विभाजन करने वाला और ब्रह्माण्ड के वासियों का अधिपति है। अतः हम यह प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे अधिपति तथा पथप्रदर्शक बने रहे। हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।

13 सुरासागर के बाहर कुश-द्वीप नामक एक अन्य द्वीप है जो सुरासागर से दूना अर्थात 800000 योजन (6400000 मील) चौड़ा है। जिस प्रकार शाल्मली द्वीप सुरासागर से घिरा है उसी प्रकार कुशद्वीप अपने तुल्य विस्तार वाले घृतसागर से घिरा है। इस द्वीप में कुशघास के पौधे पाये जाते हैं, इसीलिए द्वीप का यह नाम पड़ा है। यह कुशघास परमेश्वर की इच्छा के अनुसार देवताओं द्वारा उत्पन्न की गई थी और द्वितीय अग्नि जैसी दृष्टिगोचर होती है, किन्तु इसकी ज्वालाएँ अत्यन्त मृदु तथा मनोहर हैं। इसके नव-अंकुर (शिखर) समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं।

14 हे राजन, महाराज प्रियव्रत के दूसरे पुत्र हिरण्यरेता इस द्वीप के राजा थे। उन्होंने इसके सात विभाग किये और एक-एक विभाग को उत्तराधिकारी के अनुसार अपने सातों पुत्रों वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त और वामदेव को दे दिये। राजा स्वयं गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर तप करने लगे।

15 इन सातों द्वीपों में सात सीमांत पर्वत हैं, जिनके नाम चक्र, चतु:शृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा तथा द्रविण हैं। इसी प्रकार सात नदियाँ हैं जिनके नाम रमकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविंदा, देवगर्भा, घृतच्युता तथा मंत्रमाला हैं।

16 कुशद्वीप के वासी कुशल, कोविद, अभियुक्त तथा कुलक नामों से विख्यात हैं। वे क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के सदृश हैं। उक्त नदियों के जल में स्नान करके ये सभी वासी पवित्र होते हैं। वे वैदिक शास्त्रों के अनुसार अनुष्ठानों को सम्पन्न करने में कुशल हैं। इस प्रकार वे अग्नि देवता के रूप में भगवान की उपासना करते हैं।

17 [यह वह मंत्र है, जिसके द्वारा कुशद्वीप के वासी अग्निदेव की पूजा करते हैं।] हे अग्निदेव, आप श्रीभगवान हरि के अंश रूप हैं और उन तक समस्त हवियों को पहुँचाते हैं। अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि हम देवताओं को जो भी यज्ञ-सामग्री अर्पण कर रहे हैं, उसे आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को अर्पित करें, क्योंकि परमेश्वर ही असली भोक्ता हैं।

18 घृतसागर के बाहर क्रौंचद्वीप नाम का एक अन्य द्वीप है जिसकी चौड़ाई घृतसागर से दुगुनी अर्थात 1600000 योजन (12800000 मील) है। जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसागर से घिरा हुआ है उसी प्रकार क्रौंचद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले दुग्ध-सागर (क्षीरसागर) से घिरा हुआ है। क्रौंचद्वीप में क्रौंच नामक एक विशाल पर्वत है, जिसके कारण इस द्वीप का यह नाम पड़ा।

19 यद्यपि कार्तिकेय के शस्त्र प्रहार से क्रौंच पर्वत के ढालों की वनस्पतियाँ विनष्ट हो गई थीं, किन्तु चारों ओर से क्षीरसागर द्वारा सदा सिंचित होने एवं वरुण देव के द्वारा संरक्षित होने से यह पर्वत पुनः निर्भीक हो गया है।

20 इस द्वीप के अधिपति महाराज प्रियव्रत के अन्य पुत्र थे जिनका नाम घृतपृष्ठ था और जो अत्यन्त विद्वान थे। उन्होंने भी देश को सात भागों में विभाजित करके उनके नाम अपने सातों पुत्रों के नामों के अनुसार रखे और स्वयं गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर परम कल्याणकारी, समस्त आत्माओं की आत्मा श्रीभगवान के पदारविन्दों में शरण ली। इस प्रकार वे सिद्धि को प्राप्त हुए।

21 महाराज घृतपृष्ठ के पुत्रों के नाम आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण तथा वनस्पति थे। उनके द्वीप में सात पर्वत थे, जो सात देशों की सीमाओं को सूचित करने वाले थे और सात नदियाँ भी थीं। पर्वतों के नाम हैं--शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन तथा सर्वतोभद्र। नदियों के नाम अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, रूपवती, पवित्रवती तथा शुक्ला हैं।

22 क्रौंच द्वीप के निवासी चार वर्णों में विभाजित हैं – पुरुष, ऋषभ, द्रविण तथा देवक । वे जल के स्वामी वरुण जिनका रूप जल के समान है के चरणारविन्दों पर इन पवित्र नदियों की जलांजलि अर्पित करके श्रीभगवान की पूजा करते हैं।

23 [क्रौंच द्वीप के निवासी इस मंत्र से उपासना करते हैं] हे नदियों के जल, आपको श्रीभगवान से शक्ति प्राप्त है। अतः आप भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक को पवित्र करते हैं। अपने स्वाभाविक पद के कारण आप पापों का हरण करते हैं, इसलिए हम आपका स्पर्श करते हैं। आप हमें पवित्र करते रहें।

24 क्षीर समुद्र से बाहर शाकद्वीप है, जिसकी चौड़ाई 3200000 योजन (25600000 मील) है। जिस प्रकार क्रौंचद्वीप अपने ही क्षीरसागर से घिरा है उसी प्रकार शाकद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा है। शाकद्वीप में एक विशाल शाकवृक्ष है, जिससे इस द्वीप का यह नाम पड़ा। यह वृक्ष अत्यन्त सुगन्धित है। इससे सारा द्वीप महकता रहता है।

25 इस द्वीप के स्वामी प्रियव्रत के ही पुत्र मेधातिथि थे। उन्होंने भी अपने द्वीप को सात भागों में विभाजित करके उनका नाम अपने पुत्रों के नाम पर रखा और उन्हें उन द्वीपों का राजा बना दिया। उनके इन पुत्रों के नाम हैं-पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूमरानीक, चित्ररेफ, बहुरूप तथा विश्वधार । इस द्वीप को विभाजित करके अपने पुत्रों को उनका राजा बनाकर मेधापती स्वयं विरक्त हो गए और उन्होंने अपने मन को श्रीभगवान के चरणारविन्दों में लगाने के उद्देश्य से ध्यान-योग्य एक तपोवन में प्रवेश किया।

26 इन द्वीपों में भी सात मर्यादा पर्वत तथा सात ही नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम ईशान, उरुशृंग, बलभद्र, शतकेशर, सहस्र-स्रोत देवपाल तथा महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहस्रसृति तथा निजधृति हैं।

27 उन द्वीपों के वासी भी ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत तथा अनुव्रत--इन चार वर्णों में विभक्त हैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के समान हैं। वे प्राणायाम तथा योग साधते हैं और समाधि द्वारा वायु रूप में परमेश्वर भगवान की उपासना करते हैं।

28 [शाकद्वीप के निवासी वायु रूप में श्रीभगवान की उपासना निम्नलिखित शब्दों से करते हैं] हे परम पुरुष, देह के भीतर परमात्मा रूप में स्थित आप विभिन्न वायुओं यथा प्राण की विभिन्न क्रियाओं का संचालन करने वाले तथा समस्त जीवात्माओं का पालन करने वाले हैं। हे ईश्वर, हे परमात्मा, हे विराट जगत के नियामक, आप सभी प्रकार के संकटों से हमारी रक्षा करें।

29 दधि के समुद्र से बाहर पुष्कर नाम का एक अन्य द्वीप है जो इस समुद्र से दुगुनी चौड़ाई वाले अर्थात 6400000 योजन (51200000 मील) है। यह द्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले मधुर जल के सागर से घिरा हुआ है। पुष्कर द्वीपो में अग्नि की ज्वालाओं के समान देदीप्यमान दस करोड़ स्वर्णिम पंखुड़ियों वाला विशाल कमल का पुष्प है, जो सर्वशक्तिमान तथा भगवान कहलाने वाले ब्रह्मा का आसन माना जाता है।

30 उस द्वीप के बीचोंबीच, भीतरी तथा बाहरी ओर की सीमा बनाने वाला मानसोत्तर नाम का एक पर्वत है। यह दस हजार योजन (80000 मील) ऊँचा और इतना ही चौड़ा है इसके ऊपर चारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की पूरियाँ हैं। सूर्यदेव अपने रथ में आरूढ़ होकर इस पर्वत के ऊपर संवस्तर नामक परिधि में, जो मेरु पर्वत का चक्कर लगाती है, यात्रा करते हैं। उत्तर दिशा में सूर्य का पथ उत्तरायण और दक्षिण दिशा में दक्षिणायन कहलाता है। देवताओं के लिए एक दिशा में दिन होता है तो दूसरे में रात्रि।

31 इस द्वीप का अधिपति महाराज प्रियव्रत का पुत्र वीतिहोत्र था जिसके रमणक तथा धातकी नामक दो पुत्र हुए। उसने इन दोनों पुत्रों को इस द्वीप के दोनों छोर दे दिये और स्वयं अपने अग्रज मेधतिथि के समान श्रीभगवान की सेवा में तत्पर रहने लगा।

32 इस द्वीप के वासी अपनी भौतिक कामनाओ की पूर्ति के लिए ब्रह्मा के रूप में श्रीभगवान की आराधना करते हैं। वे इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं।

33 भगवान ब्रह्मा कर्ममय कहलाते हैं, क्योंकि अनुष्ठानों को करके कोई भी उनका पद प्राप्त कर सकता है और उन्हीं से वैदिक अनुष्ठान-स्तुतियाँ प्रकट होती है। वे अविचल भाव से श्रीभगवान की भक्ति करते हैं, अतः एक प्रकार से वे भगवान से अभिन्न हैं। फिर भी उनकी उपासना एकान्तिक भाव से न करके द्वैत भाव से करनी चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि अपने को दास मानते हुए पर-ब्रह्म को ही परम आराध्य माने। अतः हम भगवान ब्रह्मा को साक्षात वेदज्ञान के रूप में नमस्कार करते हैं।

34 इसके पश्चात मृदुल जल वाले सागर के आगे तथा इसको पूरी तरह घेरने वाला लोकालोक नामक पर्वत है जो देशों को सूर्य से प्रकाशित तथा अप्रकाशित इन दो भागों में विभाजित कर देता है।

35 मृदुल जल के सागर से आगे सुमेरु पर्वत के मध्य से लेकर मानसोत्तर पर्वत की सीमा तक जितना अन्तर है उतनी भूमि है। उस भूभाग में अनेक प्राणी रहते हैं। उसके आगे लोकालोक पर्वत तक फैली हुई दूसरी भूमि है जो स्वर्णमय है। स्वर्णमय सतह के कारण यह दर्पण की तरह सूर्य प्रकाश को परवर्तित कर देती है, अतः इसमें गिरी हुई वस्तु पुनः नहीं दिखाई पड़ती। फलतः सभी प्राणियों ने इस स्वर्णमयी भूमि का परित्याग कर दिया है।

36 जीवात्माओं से युक्त तथा बिना प्राणियों वाले देशों के मध्य में एक विशाल पर्वत है जो इन दोनों को पृथक करता है, अतः लोकालोक नाम से विख्यात है।

37 श्रीकृष्ण की परमेच्छा से लोकालोक नामक पर्वत तीनों लोकों--भूर्लोक, भूवर्लोक तथा स्वर्लोक – की बाहरी सीमा के रूप में स्थापित किया गया है, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सूर्य की किरणों का नियंत्रण किया जा सके। सूर्य से लेकर ध्रुवलोक एवं सारे नक्षत्र इन तीनों लोकों में इस पर्वत के द्वारा निर्मित सीमा के अन्तर्गत अपनी किरणें बिखेरते हैं। चूँकि यह पर्वत ध्रुवलोक से भी ऊँचा है, अतः यह नक्षत्रों की किरणों को अवरुद्ध कर लेता है, जिससे वे कभी भी इससे बाहर प्रसारित नहीं हो पातीं।

38 त्रुटि, भ्रम तथा वंचना से मुक्त विद्वानो ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार लोकों का इतना ही विस्तार बतलाया है। उन्होंने विचार-विमर्श के बाद यह स्थापना की है कि सुमेरु तथा लोकालोक पर्वत की दूरी ब्रह्माण्ड के व्यास के चतुर्थांश अर्थात 125000000 (साढ़े बारह करोड़) योजन (एक अरब मील) है।

39 लोकालोक पर्वत के ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परम-गुरु भगवान ब्रह्मा के द्वारा स्थापित गजों में श्रेष्ठ चार गज-पति हैं। इन गजों के नाम हैं---ऋषभ, पुष्करचूड़, वामन तथा अपराजित। ये ब्रह्माण्ड के लोकों को धारण करते हैं।

40 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान समस्त दिव्य ऐश्वर्य तथा चिदाकाश के स्वामी हैं। वे परम पुरुष हैं अर्थात भगवान हैं, वे प्रत्येक प्राणी के परमात्मा हैं। स्वर्ग लोक के राजा इन्द्र के अधीन देवतागण इस भौतिक जगत के कार्यों का निरीक्षण करते हैं। विभिन्न लोकों के प्राणियों के लाभ हेतु, हाथियों तथा देवताओं की शक्ति को बढ़ाने के लिए भगवान स्वयं उस पर्वत की चोटी पर प्रकृति के गुणों से अदूषित दिव्य शरीर धारण करके प्रकट होते हैं। अपने निजी प्रकाश तथा विष्वक्सेन जैसे सहायकों से घिरे रहकर वे अपने पूर्ण ऐश्वर्य (यथा ज्ञान तथा धर्म) एवं अपनी शक्तियों (यथा अणिमा, लघिमा तथा महिमा) को प्रदर्शित करते हैं। वे सुअलंकृत हैं और अपनी चारों भुजाओं में विविध आयुध धारण किए हुए हैं।

41 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विविध रूप, यथा नारायण तथा विष्णु, विभिन्न आयुधों से अलंकृत हैं। श्रीभगवान अपनी योगमाया से उत्पन्न समस्त लोकों का पालन करने के लिए इन रूपों को प्रकट करते हैं।

42 हे राजन, लोकालोक पर्वत के बाहर अलोकवर्ष है जो पर्वत के भीतरी चौड़ाई के विस्तार के बराबर अर्थात 125000000 (साढ़े बारह करोड़) योजन (एक अरब मील) तक विस्तीर्ण है। अलोकवर्ष के परे भौतिक जगत के इच्छुक व्यक्तियों का गन्तव्य है। इसको प्रकृति के भौतिक गुण कलुषित नहीं कर पाते, अतः यह पूर्णतया विशुद्ध है। ब्राह्मण के पुत्रों को वापस लाते समय श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी स्थान से लेकर गये थे।

43 सूर्य इस ब्रह्माण्ड के मध्य में, भूर्लोक तथा भुवर्लोक के मध्यवर्ती भाग में स्थित है, जिसे अन्तरिक्ष कहते हैं। सूर्य तथा ब्रह्माण्ड की परिधि के बीच की दूरी पच्चीस कोटि योजन (तीन अरब मील) है।

44 सूर्यदेव वैराज अर्थात समस्त जीवात्माओं के लिए सम्पूर्ण भौतिक शरीर भी कहलाते हैं। ब्रह्माण्ड की सृष्टि के समय ब्रह्माण्ड के अंडे के भीतर प्रवेश करने के कारण वे मार्तण्ड कहलाते हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) से भौतिक शरीर प्राप्त करने के कारण वे हिरण्यगर्भ भी कहलाते हैं।

45 हे राजन, सूर्यदेव तथा सूर्यलोक ब्रह्माण्ड की समस्त दिशाओं को विभाजित करते हैं। सूर्य की उपस्थिति के ही कारण हम समझ पाते हैं कि आकाश, स्वर्गलोक, यह संसार तथा पाताललोक क्या हैं। सूर्य के ही कारण हम जान पाते हैं कि भोग या मोक्ष के स्थान कौन-कौन से हैं और कौन से नरक तथा अतल आदि लोक हैं।

46 सूर्यलोक से सूर्यदेव द्वारा प्रदान की जा रही ऊष्मा तथा प्रकाश पर ही समस्त जीवात्माएँ, जिनमें देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, रेंगनेवाले जीव, लताएँ तथा वृक्ष सम्मिलित हैं, निर्भर हैं। सूर्य की ही उपस्थिति से सभी प्राणी देख सकते हैं, इसीलिए वह दृग-ईश्वर अर्थात दृष्टि के ईश्वर कहलाते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय उन्नीस – जम्बूद्वीप का वर्णन (5.19)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले – हे राजन, किम्पुरुषवर्ष में महान भक्त हनुमान वहाँ के निवासियों सहित लक्ष्मण के अग्रज तथा सीतादेवी के पति भगवान रामचन्द्र की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं।

2 गन्धर्वों का समूह सदा ही भगवान रामचन्द्र के यशों का गान करता है। ऐसा गायन अत्यन्त मंगलकारी होता है। हनुमानजी तथा किम्पुरुषवर्ष के प्रधान पुरुष आर्ष्टिषेण अत्यन्त मनोयोग से इस यशोगान का निरन्तर श्रवण करते हैं। हनुमानजी निम्न मंत्रों का जप करते हैं ।

3 हे प्रभो, मैं ॐकार बीजमंत्र के जप से आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। मैं उन श्रीभगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो उत्तम पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप आर्यजनों के समस्त उत्तम गुणों के भण्डार हैं। आपके गुण तथा आचरण सदैव एक समान रहने वाले हैं और आप अपनी इन्द्रियों तथा मन को सदैव अपने वश में रखने वाले हैं। सामान्य व्यक्ति की भाँति आप आदर्श चरित्र प्रस्तुत करके अन्यों को आचरण करना सिखाते हैं। कसौटी केवल स्वर्ण के गुण की परीक्षा करने में समर्थ है, किन्तु आप ऐसे स्पर्श-मणि हैं, जिससे समस्त उत्तम गुणों की परीक्षा हो जाती है। आप भक्तों में अग्रणी ब्राह्मणों के द्वारा उपासित हैं। हे परम पुरुष, आप महाराजा हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

4 भगवान को, जिनका विशुद्ध रूप (सच्चिदानन्दविग्रह) भौतिक गुणों के द्वारा दूषित नहीं है, विशुद्ध चेतना के द्वारा ही देखा जा सकता है। वेदान्त में उसे अद्वितीय कहा गया है। अपने तेजवश वह भौतिक प्रकृति के कल्मष से अछूता है और दृष्टि से परे है, अतः वह अप्रभावित और दिव्य है। न तो वह कोई कर्म करता है, न उसका कोई भौतिक रूप अथवा नाम है। केवल श्रीकृष्णभावना में ही भगवान के दिव्य रूप के दर्शन किये जा सकते हैं। हमें चाहिए कि हम भगवान रामचन्द्र के चरणकमलों में दृढ़तापूर्वक स्थित होकर उनको सादर नमन करें।

5 राक्षसों के नायक रावण को यह वर प्राप्त था कि उसका वध मनुष्य ही कर सकता है, इसलिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र को मनुष्य रूप धारण करना पड़ा, किन्तु उनका उद्देश्य मात्र रावण का वध करना ही नहीं था। वे तो मर्त्य-प्राणियों को यह शिक्षा देना चाहते थे कि भोग विलास अथवा पत्नी के चारों ओर केन्द्रित भौतिक सुख समस्त दुखों का कारण है। वे स्वयं में पूर्ण हैं और उन्हें किसी भी प्रकार का पश्चाताप नहीं है। अतः भला वे माता सीता के अपहरण का क्या कष्ट भोगते?

6 चूँकि भगवान रामचन्द्र पूर्ण पुरषोत्तम भगवान वासुदेव हैं अतः वे इस भौतिक जगत से किसी प्रकार लिप्त नहीं है। वे सभी स्वरूपसिद्ध आत्माओं के परम प्रिय परमात्मा और उनके घनिष्ठ मित्र हैं। वे परम ऐश्वर्यवान हैं। अतः पत्नी-विछोह के कारण उन्होंने न तो अधिक कष्ट उठाये होंगे, न ही उन्होंने अपनी पत्नी तथा अपने लघु भ्राता लक्ष्मण का परित्याग किया। उनके लिए इन दोनों में किसी एक का भी परित्याग सर्वथा असम्भव था।

7 उच्चकुल में जन्म धारण करने, शारीरिक सौन्दर्य, वाकचातुरी, तीक्ष्ण बुद्धि या श्रेष्ठ जाति अथवा राष्ट्र जैसे भौतिक गुणों के कारण कोई चाह कर भी भगवान रामचन्द्र से मैत्री स्थापित नहीं कर सकता। उनसे मित्रता स्थापित करने के लिए इन गुणों की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा भला हम असभ्य वनवासियों को, बिना उच्च कुल में जन्म लिये तथा रूप-रंग न होते हुए और भद्र पुरुषों की भाँति बात कर सकने में सक्षम न होने पर भी अपने मित्रों के रूप में क्यों स्वीकार करते?

8 अतः चाहे सुर हो या असुर, मनुष्य हो या मनुष्येतर प्राणी जैसे पशु या पक्षी, प्रत्येक को उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र की पूजा करनी चाहिए जो इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में प्रकट होते हैं। भगवान की पूजा के लिए किसी कठोर तप या साधना की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अपने भक्त की तुच्छ सेवा को भी स्वीकार करने वाले हैं। इस प्रकार से वे तुष्ट हो जाते हैं और उनके तुष्ट होते ही भक्त सफल हो जाता है। निस्सन्देह, श्रीरामचन्द्र अयोध्या के समस्त भक्तों को वैकुण्ठ धाम वापस ले गये।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले -- श्रीभगवान की महिमा अकल्पनीय है। उन्होंने अपने भक्तों पर अनुग्रहवश उन्हें धर्म, ज्ञान, त्याग, अध्यात्म, इन्द्रिय-निग्रह तथा अहंकार से मुक्ति की शिक्षा प्रदान करने के लिए भारतवर्ष की भूमि में बदरिकाश्रम नामक स्थान पर स्वयं को नर-नारायण रूप में प्रकट किया है। वे आत्मज्ञान की सम्पदा से परिपूर्ण हैं और कल्पान्त तक तप में रत रहने वाले हैं। यही आत्म-साक्षात्कार की क्रिया है।

10 नारद पंचरात्र नामक अपने ग्रन्थ में देवर्षि नारदजी ने अत्यन्त विस्तारपूर्वक बताया है कि किस प्रकार ज्ञान तथा योगक्रिया के द्वारा जीवन के परम लक्ष्य – भक्ति को प्राप्त करने के लिए कार्य करना चाहिए। उन्होंने श्रीभगवान की महिमा का भी वर्णन किया है। महर्षि नारद ने इस दिव्य साहित्य का उपदेश सावर्णि मनु को दिया, जिससे वे भारतवर्ष के उन वासियों को भगवान की भक्ति प्राप्त करने की शिक्षा दे सकें, जो दृढ़तापूर्वक वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करते हैं। इस प्रकार नारद मुनि भारतवर्ष के अन्य निवासियों सहित नर-नारायण की सदा सेवा करते हुए निम्नलिखित मंत्र का जप करते रहते हैं।

11 मैं समस्त सन्त पुरुषों में श्रेष्ठ श्रीभगवान नर-नारायण को सादर नमस्कार करता हूँ। वे अत्यन्त आत्म-संयमित तथा आत्माराम हैं, वे झूठी प्रतिष्ठा से परे हैं और निर्धनों की एकमात्र सम्पदा हैं। वे मनुष्यों में परम सम्माननीय समस्त परमहंसों के गुरु हैं और आत्मसिद्धों के स्वामी हैं। मैं उनके चरणकमलों को पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।

12 परम शक्तिमान ऋषि नारद नर-नारायण की आराधना निम्नलिखित मंत्र का जप करके करते हैं – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान इस दृश्य जगत के सृष्टिकर्ता, पालक और संहारक हैं, तो भी वे मिथ्या अभिमान से पूर्णतया मुक्त हैं। यद्यपि मूढ़ों के लिए उन्होंने हमारे समान शरीर धारण करना स्वीकार किया प्रतीत होता है, किन्तु उन्हें भूख, प्यास तथा थकान जैसे शारीरिक कष्ट नहीं सताते। यद्यपि वे सर्वद्रष्टा हैं, किन्तु जिन वस्तुओं को वे देखते हैं उनसे उनकी इन्द्रियाँ दूषित नहीं होती। मैं ऐसे अनासक्त, जगत के साक्षी, परमात्मा-स्वरूप श्री भगवान को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

13 हे योगेश्वर, आत्माराम भगवान ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) ने योगक्रिया के विषय में जो कुछ कहा है यह उसकी व्याख्या है। मृत्यु के समय सभी योगी आपके चरणकमलों में अपना मन स्थापित करके अपने भौतिक शरीर को त्यागते हैं। यह योग सिद्धि है।

14 सामान्य रूप से भौतिकतावादी जन अपने वर्तमान तथा भावी शारीरिक सुखों में अत्यन्त लिप्त रहते हैं। अतः वे अपनी पत्नी, सन्तान तथा सम्पत्ति के विचारों में सदैव मग्न रहते हैं और इस मलमूत्र से भरे हुए शरीर को त्यागने से भयभीत रहते हैं। यदि कृष्णभक्ति में संलग्न व्यक्ति भी अपने शरीर-त्याग से भयभीत हों तो फिर शास्त्रों के अध्ययन में किये श्रम का क्या लाभ? यह केवल समय की बरबादी है।

15 अतः हे प्रभो, हे अधोक्षज, कृपा करके हमें भक्तियोग साधने की शक्ति प्रदान करें जिससे हम अपने अस्थिर मन को वश में करके आप में लगा सकें। हम सभी आपकी माया से प्रभावित हैं, अतः हम मलमूत्र से पूरित शरीर तथा इससे सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु के प्रति अत्यधिक समर्पित हैं। इस आसक्ति को त्यागने का एकमात्र उपाय भक्ति है, अतः आप हमें यह वर दें।

16 इलावृत-वर्ष की भाँति ऋक्ष गिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, ऐवतक, भारतवर्ष में भी अनेक पर्वत और नदियाँ हैं। कुछ पर्वत इस प्रकार हैं – मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकुट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेंकट, महेंद्र, वारिधारा, विंध्य, शुक्तिमान, ऋक्ष गिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, ऐवतक, ककुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील तथा कामगिरी।

17-18 इनके अतिरिक्त अनेक पहाड़ियाँ हैं जिनकी ढालों से अनेक बड़ी तथा छोटी नदियाँ निकलती हैं। नदियों में से दो नदियाँ – ब्रह्मपुत्र तथा शोण – नद अथवा महा नदियाँ कहलाती हैं। अन्य प्रमुख बड़ी नदियाँ इस प्रकार हैं – चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुंगभद्रा, कृष्णावेण्या, भीमरथी, गोदावरी, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, कौशिकी, मंदाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्र, चन्द्रभागा, मरुद्वधा, वितस्ता, असिक्नी तथा विश्वा। भारतवर्ष के वासी इन नदियों का स्मरण करने से पवित्र रहते हैं। कभी-कभी वे इन नदियों के नामों का मंत्रवत जाप करते हैं और कभी-कभी जाकर इनका स्पर्श और इनमें स्नान भी करते हैं। इस तरह भारतवर्ष के निवासी पवित्र होते रहते हैं।

19 इस भूभाग में जन्म लेने वाले व्यक्ति गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के अनुसार विभाजित हैं। इनमें से कुछ अत्यन्त महान व्यक्तियों के रूप में, कुछ सामान्य व्यक्तियों के रूप में और कुछ अत्यन्त निम्न व्यक्तियों के रूप में जन्म लेते हैं, क्योंकि भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म विगत कर्म के अनुसार होता है। यदि प्रामाणिक गुरु के द्वारा किसी भी मनुष्य की स्थिति निश्चित की जाये और यदि उसे चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) तथा चार आश्रमों (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) के अनुसार भगवान विष्णु की सेवा में रत होने का सही-सही प्रशिक्षण दिया जाये तो उसका जीवन सफल हो सकता है।

20 अनेकानेक जन्मों के पश्चात, मनुष्य को अपने पुण्यकर्मों के फलित होने पर शुद्ध भक्तों की संगति का अवसर प्राप्त होता है। तभी उसके आज्ञानरूपी बन्धन की ग्रंथि, जो उसके नाना प्रकार के सकाम कर्मों के कारण जकड़े रहती है, कट पाती है। भक्तों की संगति करने से धीरे-धीरे ऐसे भगवान वासुदेव की सेवा में मन लगने लगता है, जो दिव्य हैं, भौतिक बन्धनों से मुक्त हैं, मन एवं वाणी से परे हैं तथा परम स्वतंत्र हैं। यही भक्तियोग अर्थात भगवान वासुदेव की भक्ति ही मुक्ति का वास्तविक मार्ग है।

21 चूँकि आत्मसाक्षात्कार के लिए मनुष्य-जीवन ही परम पद है, अतः स्वर्ग के सभी देवता इस प्रकार कहते हैं – इन मनुष्यों के लिए भारतवर्ष में जन्म लेना कितना आश्चर्यजनक है। इन्होंने भूतकाल में अवश्य ही कोई तप किया होगा अथवा श्रीभगवान स्वयं इन पर प्रसन्न हुए होंगे। अन्यथा वे इस प्रकार से भक्ति में संलग्न क्योंकर होते? हम देवतागण भक्ति करने के लिए भारतवर्ष में मनुष्य जन्म धारण करने की मात्र लालसा कर सकते हैं, किन्तु ये मनुष्य पहले से भक्ति में लगे हुए हैं।

22 देवता आगे कहते हैं – वैदिक यज्ञों के करने, तप करने, व्रत रखने तथा दान देने जैसे दुष्कर कार्यों के करने के पश्चात ही हमें स्वर्ग में निवास करने का यह पद प्राप्त हुआ है। किन्तु हमारी इस सफलता का क्या महत्व है? यहाँ हम निश्चय ही भौतिक इन्द्रियतृप्ति में व्यस्त रहकर भगवान नारायण के चरणकमलों का स्मरण तक नहीं कर पाते। अत्यधिक इन्द्रिय तृप्ति के कारण हम उनके चरणकमलों को लगभग विस्मृत कर चुके हैं।

23 ब्रह्मलोक में करोड़ों-अरबों वर्ष की आयु प्राप्त करने की अपेक्षा भारतवर्ष में अल्पायु प्राप्त करना श्रेयस्कर है, क्योंकि ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेने के बाद भी बारम्बार जन्म तथा मरण के चक्र में पड़ना होता है। यद्यपि मर्त्यलोक के अन्तर्गत भारतवर्ष में जीवन अत्यन्त अल्प है, किन्तु यहाँ का वासी पूर्ण कृष्णभक्ति तक पहुँच सकता है और भगवान के चरणकमलों में समर्पित होकर इस लघु जीवन में भी परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उसे वैकुण्ठलोक प्राप्त होता है जहाँ न तो चिन्ता है, न भौतिक शरीर युक्त पुनर्जन्म।

24 जहाँ श्रीभगवान की कथा रूपी विशुद्ध गंगा प्रवाहित नहीं होती, जहाँ पवित्रता की ऐसी नदी के तट पर सेवा में तल्लीन भक्तजन नहीं रहते, अथवा श्रीभगवान को प्रसन्न करने के लिए जहाँ संकीर्तन-यज्ञ के उत्सव नहीं मनाये जाते, ऐसे स्थान बुद्धिमान पुरुषों के लिये रुचिकर नहीं होते, क्योंकि (इस युग में संकीर्तन-यज्ञ की संस्तुति की गई है)

25 भक्ति के लिए भारतवर्ष में उपयुक्त क्षेत्र तथा परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं, जिससे ज्ञान तथा कर्म के फलों से मुक्त हुआ जा सकता है। यदि कोई भारतवर्ष में मनुष्य देह धारण करके संकीर्तन-यज्ञ नहीं करता तो वह उन जंगली पशुओं तथा पक्षियों की भाँति है जो मुक्त किये जाने पर भी असावधान रहते हैं और शिकारी द्वारा पुनः बन्दी बना लिए जाते हैं।

26 भारतवर्ष में परमेश्वर द्वारा नियुक्त विभिन्न अधिकारी स्वरूप देवताओं – यथा इन्द्र, चन्द्र तथा सूर्य की पूजा उपासकों द्वारा पृथक-पृथक विधियों से की जाती है। उपासक इन देवताओं को पूर्ण ब्रह्म का अंश मानते हुए अपनी आहुतियाँ अर्पण करते हैं, फलतः श्रीभगवान इन भेंटों को स्वीकार करते हैं और क्रमश: इन उपासकों की कामनाओं तथा आकांक्षाओं को पूरा करके उन्हें शुद्ध भक्ति पद तक ऊपर उठा देते हैं। चूँकि श्रीभगवान पूर्ण हैं, अतः वे उनको मनवांछित वर देते हैं, चाहे उपासक उनके दिव्य शरीर के किसी एक अंश की ही पूजा करते हों।

27 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान उस भक्त की भौतिक कामनाओं की पूर्ति करते हैं, जो सकाम भाव से उनके पास जाता है, किन्तु वे भक्त को ऐसा वर नहीं देते जिससे वह अधिकाधिक वर माँगता रहे। फिर भी, भगवान प्रसन्नता-पूर्वक ऐसे भक्त को अपने चरणकमलों में शरण देते हैं, भले ही वह इसकी आकांक्षा न करे और शरणागत होने पर उसकी समस्त इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। यह श्रीभगवान की विशेष अनुकम्पा है।

28 यज्ञ, पुण्य कर्म, अनुष्ठान तथा वेदाध्ययन करते रहने के कारणस्वरूप हम स्वर्ग-लोक में वास कर रहे हैं, किन्तु एक दिन ऐसा आएगा जब हमारा भी अन्त हो जाएगा। हमारी प्रार्थना है कि उस समय तक यदि हमारे एक भी पुण्य शेष रहें तो हम मनुष्य रूप में भगवान के चरणकमलों का स्मरण करने के लिए भारतवर्ष में जन्म लें। श्रीभगवान इतने दयालु हैं कि वे स्वयं भारतवर्ष में आते हैं और यहाँ के वासियों को सौभाग्य प्रदान करते हैं।

29-30 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- हे राजन, कुछ ज्ञानी पुरुषों के मत के अनुसार जम्बूद्वीप के चारों ओर आठ छोटे-छोटे द्वीप हैं। जब महाराज सगर के पुत्र अपने खोये हुए घोड़े की खोज सारे संसार में कर रहे थे, तो उन्होंने पृथ्वी को खोद डाला। इस प्रकार से निकटस्थ आठ द्वीप अस्तित्व में आए। इन द्वीपों के नाम हैं – स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल तथा लंका।

31 भरत महाराज के वंशजों में श्रेष्ठ, हे राजा परीक्षित, मैंने जितना ज्ञान प्राप्त किया है, उसी के अनुसार मैंने भारतवर्ष तथा उसके निकटवर्ती द्वीपों का वर्णन किया है। ये ही जम्बूद्वीप के उपद्वीप हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय अठारह -- जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान की स्तुति (5.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- धर्मराज के पुत्र भद्रश्रवा भद्राश्ववर्ष नामक भूखण्ड में राज्य करते हैं। जिस प्रकार इलावृतवर्ष में भगवान शिव संकर्षण की पूजा करते हैं उसी प्रकार भद्रश्रवा अपने सेवकों तथा राज्य के समस्त वासियों समेत वासुदेव के स्वांश हयशीर्ष की पूजा करते हैं। हयशीर्ष भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं और वे समस्त धार्मिक विधानों के निदेशक हैं। गहन समाधि में स्थित भद्रश्रवा तथा उनके सेवक भगवान को सादर नमस्कार करते हैं और सावधानीपूर्वक उच्चारण करते हुए निम्नलिखित स्तुतियों का कीर्तन करते हैं।

2 राजा भद्रश्रवा तथा उसके घनिष्ठ सेवक इस प्रकार स्तुति करते हैं – इस भौतिक जगत में बद्धजीव के चित्त को शुद्ध करने वाले, समस्त धार्मिक विधानों के आगार भगवान को हमारा नमस्कार है। हम उन्हें बारम्बार सादर नमस्कार करते हैं।

3 अहो! कितने आश्चर्य की बात है कि मूर्ख संसारी अपने सिर पर नाचती मृत्यु की ओर भी ध्यान नहीं देता। यह जानते हुए भी कि मृत्यु अटल है, वह उसके प्रति उदासीन एवं लापरवाह रहता है। चाहे उसके पिता की मृत्यु हो, अथवा पुत्र की मृत्यु क्यों न हो वह उसकी सम्पत्ति का उपभोग करना चाहता है। प्रत्येक दशा में वह अर्जित धन से किसी की परवाह किये बिना सांसारिक सुख का उपभोग करने का प्रयत्न करता है।

4 हे अजन्मा, आत्मज्ञान में समुन्नत वेदविद अन्य तार्किकों तथा दर्शनिकों की तरह यह भलीभाँति जानते हैं कि यह भौतिक जगत नश्वर है। वे समाधि की दशा में इस जगत की वास्तविक स्थिति का अनुभव करते हैं। वे सत्य का भी उपदेश देते हैं। किन्तु कभी-कभी वे भी आपकी माया से मोहित हो जाते हैं। यह आपकी अपनी ही विचित्र लीला है, अतः मैं समझ सकता हूँ कि आपकी माया अत्यन्त विचित्र है। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

5 हे भगवन, यद्यपि आप इस भौतिक जगत की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय से सर्वथा विरत हैं और इन कार्यों से आप प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होते, तो भी वे आपके द्वारा किये गए माने जाते हैं। हमें इस पर विस्मय नहीं होता, क्योंकि सर्वात्मरूप होने से आप समस्त कारणों के कारण हैं। आप प्रत्येक वस्तु से विलग रहते हुए भी प्रत्येक वस्तु के सक्रिय तत्त्व हैं। इस प्रकार हम अनुभव करते हैं कि आपकी अचिन्त्य शक्ति के कारण ही प्रत्येक घटना घटती है।

6 कल्प के अन्त में साक्षात अज्ञान एक दैत्य का रूप धारण कर सभी वेदों को चुराकर उन्हें रसातल ले गया। किन्तु श्रीभगवान ने हयग्रीव का रूप धारण करके वेदों को पुनः प्राप्त किया और ब्रह्माजी के विनय करने पर उन्हें लाकर दे दिया। हे सत्यसंकल्प पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं – हे राजन, भगवान नृसिंह हरिवर्ष नामक भूभाग में वास करते हैं। मैं श्रीमदभागवत के सप्तम स्कन्ध में आपको बताऊँगा कि प्रह्लाद महाराज ने किस प्रकार श्रीभगवान को नृसिंह देव रूप धारण करने के लिए बाध्य किया। प्रह्लाद महाराज भगवद-भक्तों में शिरोमणि हैं और महापुरुषों के अनुरूप समस्त उत्तम गुणों के आगार हैं। उनके चरित्र और कर्म से उनके दैत्य वंश के समस्त पतित जनों का उद्धार हुआ है। उन्हें भगवान नृसिंह देव परम प्रिय हैं। इस प्रकार प्रह्लाद महाराज अपने समस्त सेवकों तथा हरिवर्ष के समस्त वासियों सहित भगवान नृसिंह देव की पूजा निम्नलिखित मंत्रोच्चार द्वारा करते हैं।

8 समस्त तेज के स्रोत भगवान नृसिंहदेव, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे वज्र के समान नख तथा दाँतों वाले प्रभु! आप इस भौतिक जगत में हमारी आसुरी सकाम कर्म-वासनाओं को मिटा दें। हमारे हृदय में प्रकट होकर हमारे अज्ञान को भगा दें, जिससे इस भौतिक जगत में हम निडर होकर जीवन के लिए संघर्ष कर सकें।

9 इस सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो और सभी ईर्ष्यालु व्यक्ति शान्त हों, सभी जीवात्माएँ भक्तियोग का अभ्यास करके प्रशान्त हों, क्योंकि भक्ति करने पर वे एक दूसरे का कल्याण-चिन्तन कर सकेंगे। अतः हम सभी भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्ति में लगकर उन्हीं के विचार में मग्न रहें।

10 हे भगवन, हमारी प्रार्थना है कि हम पारिवारिक जीवन के बन्धन जिसमें घर, स्त्री, सन्तान, मित्र, धन तथा सम्बन्धीजन इत्यादि सम्मिलित हैं, इसके प्रति कभी भी आकृष्ट न हों। यदि हम में किसी से किंचित आसक्ति हो भी तो वह भक्तों से हो जिनके लिए श्रीकृष्ण ही परम प्रिय हैं। जिस व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार हो चुका है और जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं से तुष्ट रहता है। वह अपनी इन्द्रियतुष्टि का प्रयास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति जल्दी ही कृष्ण – भावनामृत की ओर अग्रसर होता है, किन्तु जो भौतिक वस्तुओं में अत्यधिक लिप्त रहते हैं, उनके लिए ऐसा कर पाना कठिन है।

11 ऐसे व्यक्तियों की संगति करने से, जिनके लिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान मुकुन्द ही सब कुछ हैं, भगवान के यशस्वी कार्यों को सुनकर शीघ्र ही समझा जा सकता है। मुकुन्द के यशस्वी कार्य इतने सक्षम हैं कि इनको सुनकर ही भगवान की संगति प्राप्त की जा सकती है। निरन्तर उत्सुकतापूर्वक भगवान के यशस्वी कार्यों का वर्णन सुनते रहने से परम सत्य श्रीभगवान ध्वनि तरंगों के रूप में हृदय में प्रवेश करते हैं और समस्त कल्मष को दूर कर देते हैं। दूसरी ओर यद्यपि गंगास्नान से मल तथा संदूषण घटते हैं, किन्तु स्नान तथा पवित्र स्थानों के दर्शन से दीर्घकाल के अनन्तर ही हृदय स्वच्छ हो पाता है। अतः कौन ऐसा विज्ञपुरुष होगा जो जीवन की सिद्धि के लिए भक्तों की संगति नहीं करना चाहेगा?

12 जो व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव के प्रति शुद्ध भक्ति उत्पन्न कर लेता है उसके शरीर में सभी देवता तथा उनके महान गुण यथा धर्म, ज्ञान तथा त्याग प्रकट होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति भक्ति से रहित है और भौतिक कर्मों में व्यस्त रहता है उसमें कोई सद्गुण नहीं आते। भले ही कोई व्यक्ति योगाभ्यास में दक्ष क्यों न हो और अपने परिवार और सम्बन्धियों का भलीभाँति भरण-पोषण करता हो वह अपनी मनोकल्पना द्वारा भगवान की बहिरंगा-शक्ति की सेवा में तत्पर होता है। भला ऐसे पुरुष में सद्गुण कैसे आ सकते हैं?

13 जिस प्रकार जलचर प्राणी सदैव विशाल जलराशि में रहना चाहते हैं उसी प्रकार समस्त बद्धात्माएँ श्रीभगवान के अपार अस्तित्त्व में रहने की कामना करती हैं। अतः यदि भौतिक गणना के आधार पर माना गया कोई श्रेष्ठ पुरुष किन्हीं कारणों से परमात्मा की शरण न ग्रहण कर गृहस्थ जीवन में लिप्त हो जाता है, तो उसकी श्रेष्ठता निम्न श्रेणी के तरुण दम्पत्ति जैसी होती है। भौतिक जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्ति से समस्त आध्यात्मिक गुणों का लोप हो जाता है।

14 अतः, हे असुरगण, गृहस्थ जीवन के तथाकथित सुख का परित्याग करके भगवान नृसिंह देव के चरणारविन्दों की शरण ग्रहण करो । वे ही निर्भीकता की वास्तविक शरण-स्थली हैं। सांसारिक अनुरक्ति, दुर्दमनीय कामनाएँ, विषाद, क्रोध, निराशा, भय, झूठी प्रतिष्ठा की भूख इन सबका मूल कारण गृहस्थ जीवन में आसक्ति है, जिसके कारण जीवन-मरण का चक्र चलता रहता है।

15 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – केतुमालवर्ष नामक भूभाग में भगवान विष्णु अपने भक्तों के सन्तोष के लिए ही कामदेव के रूप में रहते हैं। इन भक्तों में लक्ष्मीजी, प्रजापति संवत्सर तथा संवत्सर के समस्त पुत्र तथा पुत्रियाँ सम्मिलित है। प्रजापति की पुत्रियाँ रात्रि की तथा उनके पुत्र दिन के नियामक देवता माने जाते हैं। प्रजापति की सन्तानों की संख्या 36000 है जो मनुष्य के जीवन काल के प्रत्येक दिन तथा रात की संख्या के तुल्य है। प्रत्येक वर्ष के अन्त में प्रजापति की पुत्रियाँ श्रीभगवान के चक्र को देखकर अत्यन्त उद्वेलित हो उठती हैं जिससे उन सबों का गर्भपात हो जाता है।

16 केतुमालवर्ष में भगवान कामदेव (प्रद्युम्न) अत्यन्त लालित्य पूर्ण चाल से चलते हैं। उनकी मन्द मुसकान मनोहर है और जब वे अपनी भृकुटियों को किंचित ऊपर उठाकर लीलापूर्वक देखते हैं, तो उनके मुख की सुन्दरता बढ़ जाती है और वे लक्ष्मीजी को आनन्दित करते हैं। इस प्रकार वे अपनी दिव्य इन्द्रियों का आनन्द लेते हैं।

17 लक्ष्मीजी संवत्सर की अवधि में दिन के समय प्रजापति के पुत्रों के साथ और रात्रि में उनकी पुत्रियों के साथ मिलकर परम दयालु कामदेव के रूप में भगवान की पूजा करती हैं। भक्ति में तल्लीन रहकर लक्ष्मीजी निम्नलिखित मंत्रों का जप करती हैं।

18 समस्त इन्द्रियों एवं वस्तुओं की उत्पत्ति के नियन्ता तथा स्तोत्र भगवान हृषीकेश को मेरा नमस्कार है। आप समस्त दैहिक, मानसिक तथा बौद्धिक कर्मों के अधीश्वर और उनके फलों के एकमात्र भोक्ता हैं। समस्त सोलह – (दस इन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियविषय तथा मन) – आपकी ही आंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं। आप प्रत्येक व्यक्ति जो आपसे अभिन्न है, की दैहिक और मानसिक शक्ति के कारण रूप हैं और शक्तिस्वरूप होने के कारण उनकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले हैं। समस्त वेदों का ध्येय आपकी उपासना है। अतः हम सभी आपको सविनय नमस्कार करते हैं। वे प्रभु! इस जन्म में तथा अगले जन्म में सदा हमारे अनुकूल रहें।

19 हे प्रभो, आप निश्चित रूप से समस्त इन्द्रियों के पूर्ण रूप से स्वतंत्र स्वामी हैं। अतः समस्त स्त्रियाँ जो अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए पति को पाने की कामना से संकल्पों का दृढ़पालन करके आपकी उपासना करती हैं, वे अवश्य ही मोहग्रस्त हैं। वे यह नहीं जानती कि ऐसा पति न तो उनकी और न ही उनकी सन्तानों की रक्षा कर सकता है। वह स्वयं ही काल, कर्मफल तथा प्रकृति-गुणों के अधीन है जो सब आपके अधीनस्थ हैं, अतः वह न तो सम्पत्ति की रक्षा कर सकता है और न अपनी सन्तानों की।

20 जो स्वयं निर्भय है तथा जो सभी भयभीत व्यक्तियों को शरण प्रदान करता है, केवल वही वास्तव में पति तथा रक्षक हो सकता है। अतः, हे प्रभो, आप ही एकमात्र पति हैं, कोई अन्य इस पद का भागी नहीं हो सकता। यदि आप एकमात्र पति न होते तो आप भी अन्यों से डरते। अतः वेदों के पारंगत व्यक्ति आपको ही प्रत्येक का स्वामी स्वीकार करते हैं और यह मानते हैं कि आपसे बढ़कर कोई अन्य पति एवं रक्षक नहीं है।

21 हे भगवन, जो स्त्री आपके चरणकमल की आराधना विशुद्ध प्रेमवश करती है, आप उसकी समस्त कामनाओं को पूरा करते हैं। यदि कोई स्त्री आपके चरणकमलों की पूजा किसी विशेष प्रयोजन के लिए करती हैं, तो भी आप उसकी कामनाओं को शीघ्र पूरा करते हैं, किन्तु अन्ततः वह टूटे हुए मन से पश्चाताप करती है। अतः किसी भौतिक लाभ के लिए आपके चरणकमलों की आराधना नहीं की जानी चाहिए।

22 हे अजेय परमेश्वर, मेरा आशीर्वाद पाने के लिए इन्द्रिय- सुख के अभिलाषी ब्रह्माजी तथा शिवजी आदि समस्त सुर-असुरगण घोर तपस्या करते हैं, किन्तु आपके चरणारविन्द की सेवा में संलग्न भक्त के अतिरिक्त अन्य पर मैं अनुग्रह नहीं करती चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो। चूँकि मैं निरन्तर आपको अपने हृदय में बसाये रहती हूँ इसलिए मैं भक्त के अतिरिक्त अन्य किसी पर अनुग्रह नहीं करती।

23 हे अच्युत, आपका कर-कमल सभी वरदानों का स्रोत है। आप अत्यन्त दयापूर्वक शुद्ध भक्तों के सिरों पर अपना हाथ रखते हैं, मेरी भी यही कामना है कि आप मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखें, यद्यपि आप पहले से ही अपने वक्षस्थल पर श्रीलक्ष्मीरूप में मुझे धारण करते हैं, किन्तु इस सम्मान को मैं मिथ्या प्रतिष्ठा की तरह मानती हूँ। आप अपनी वास्तविक दया भक्तों पर ही दिखाते हैं, मुझ पर नहीं। निस्सन्देह, आप सर्वसमर्थ नियन्ता हैं, आपके प्रयोजन को भला कौन समझ सकता है?

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं – रम्यकवर्ष में पिछले मन्वन्तर (चाक्षुष) के अन्त में श्रीभगवान मत्स्य रूप में प्रकट हुए, जहाँ के अधिपति वैवस्वत मनु हैं। वे आज भी मत्स्य भगवान की शुद्ध भक्ति करते हैं और निम्नलिखित मंत्र का जप करते हैं।

25 मैं सत्त्व स्वरूप श्रीभगवान को नमस्कार करता हूँ। वे प्राण, शारीरिक शक्ति, बौद्धिक शक्ति तथा ज्ञानेन्द्रिय शक्ति के मूल स्रोत हैं। समस्त अवतारों में प्रकट होने वाले वे महामत्स्यावतार हैं। मैं पुनः उनको नमस्कार करता हूँ।

26 हे ईश्वर, जिस प्रकार एक नट कठपुतलियों को तथा पति अपनी पत्नी को वश में रखता है, उसी प्रकार आप इस ब्रह्माण्ड की समस्त जीवात्माओं को, चाहे वे ब्राह्मण हों या क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र, अपने वश में रखने वाले हैं। यद्यपि आप जन-जन के हृदयों के भीतर परम साक्षी के रूप में और उनके बाहर भी निवास करते हैं, किन्तु समाज, जाति तथा देश के तथाकथित नेता आपको समझ नहीं पाते। केवल वैदिक मंत्रों की स्वरलहरियों को सुनने वाले आपको जान पाते हैं।

27 हे ईश्वर, इस ब्रह्माण्ड के बड़े से बड़े नेता, यथा ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं से लेकर इस संसार के राजनीतिक नेताओं तक, सभी आपकी सत्ता के प्रति ईर्ष्यालु हैं। किन्तु आपकी सहायता के बिना वे न तो पृथक-पृथक, न ही सम्मिलित रूप से इस ब्रह्माण्ड के असंख्य जीवों का पालन कर सकते हैं। आप समस्त मनुष्यों, पशुओं यथा-गाय तथा समस्त वनस्पतियों, रेंगने वाले जीवों, पक्षियों, पर्वतों तथा इस संसार में जो भी दिखाई पड़ता है उसके एकमात्र वास्तविक पालक हैं।

28 हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, कल्पान्त में यह पृथ्वी, जो सभी प्रकार की जड़ी बूटियों तथा वृक्षों की आगार है, जल की बाढ़ से प्रलयकारी तरंगों के नीचे डूब गई। उस समय आपने पृथ्वी सहित मेरी रक्षा की और अत्यन्त वेग से आप समुद्र में भ्रमण करते रहे। हे अजन्मा, आप इस समग्र सृष्टि के वास्तविक पालनकर्ता हैं, इसलिए आप ही सभी जीवात्माओं के कारणस्वरूप हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – हिरण्यमयवर्ष में भगवान विष्णु कच्छप रूप में निवास करते हैं। इस परम प्रिय एवं सुन्दर रूप की आराधना हिरण्यमयवर्ष के प्रमुख निवासी अर्यमा तथा उस वर्ष के अन्य वासियों द्वारा सदैव की जाती है। वे निम्नलिखित स्तुति करते हैं।

30 हे प्रभो, कच्छप स्वरूप आपको मेरा सादर नमस्कार है। आप समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। आप भौतिकता से पूर्णत: रहित तथा परम सत्त्व में स्थित हैं। आप जल में विचरण करते रहते हैं, किन्तु कोई आपका पता नहीं लगा पाता, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। अपनी दिव्य स्थिति के कारण आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य में बँधे नहीं रहते। आप सर्वत्र सर्वाधार रूप में उपस्थित रहते हैं, अतः मैं बारम्बार आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

31 हे भगवन, यह विराट दृश्य अभिव्यक्ति आपकी अपनी सृजनात्मक शक्ति का प्रदर्शन है। इसके अन्तर्गत अनन्त रूप आपकी बहिरंगा शक्ति (माया) का प्रदर्शन मात्र है, यह विराट रूप आपका वास्तविक रूप नहीं है। आपके वास्तविक रूप का दर्शन तो केवल दिव्य भावनाभावित भक्तजन कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

32 हे प्रिय प्रभु, आप अपनी विविध शक्तियाँ अनगिनत रूपों में प्रदर्शित करते हैं – जैसे कि गर्भ से, अंडे से तथा स्वेद से उत्पन्न होने वाले जीव, धरती से पौधों एवं वृक्षों के रूप में विकसित होने वाले जीव, देवता, विद्वान, ऋषि-मुनि तथा पितृओं सहित चर तथा अचर सारे जीव, बाह्यावकाश, स्वर्गलोक सहित उच्चतर ग्रहमण्डल एवं पर्वत, नदियाँ, महासागरों तथा द्वीपों सहित पृथ्वी ग्रह इत्यादि।

33 हे प्रभो, आपका नाम, रूप तथा आकृति असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होते हैं। निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि आप कितने रूपों में विद्यमान हैं, फिर भी आपके स्वयं के अवतार कपिलदेव जैसे मुनियों ने इस विराट जगत में चौबीस तत्त्व निश्चित किए हैं। अतः यदि कोई सांख्य दर्शन में रुचि रखता है तो उसे चाहिए कि विभिन्न सत्यों को वह आपसे सुने। दुर्भाग्यवश जो आपके भक्त नहीं हैं, वे केवल तत्त्वों की गणना कर पाते हैं, किन्तु आपके वास्तविक रूप से अनजान रहते हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

34 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा- हे राजन, सभी यज्ञाहुतियों को स्वीकार करने वाले श्रीभगवान वराह रूप में जम्बूद्वीप के उत्तरी भाग में निवास करते हैं। वहाँ उत्तर-कुरुवर्ष में पृथ्वी माता तथा अन्य सभी वासी निम्नलिखित उपनिषद मंत्र का बारम्बार जप करते हुए उनकी आराधना करते हैं।

35 हे प्रभो, हम विराट पुरुष के रूप में आपको सादर नमस्कार करते हैं। केवल मंत्रोच्चार से हम आपको पूर्णत: समझ सकते हैं। आप यज्ञरूप हैं, आप क्रतु हैं। अतः यज्ञ के सभी अनुष्ठान आपके दिव्य शरीर के अंशरूप हैं और केवल आप ही समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं। आपका स्वरूप दिव्य गुणों से युक्त है। आप 'त्रियुग' कहलाते हैं, क्योंकि कलियुग में आपने प्रच्छन्न अवतार लिया है और आप छहों ऋद्धियों के स्वामी हैं।

36 ऋषि तथा मुनि काष्ठ में छिपी अग्नि को अरणी के द्वारा उत्पन्न कर सकने में समर्थ हैं। हे प्रभो, परम सत्य को समझने में दक्ष ऐसे व्यक्ति आपको प्रत्येक वस्तु में, यहाँ तक कि अपने शरीर में भी देखने का प्रयास करते हैं किन्तु आप फिर भी अप्रकट रहते हैं। मानसिक या भौतिक क्रियाओं जैसी अप्रत्यक्ष विधियों से आपको नहीं समझा जा सकता। आप स्वतः प्रकट होने वाले हैं, अतः जब आप देख लेते हैं कि कोई व्यक्ति सर्वभावेन आपकी खोज में संलग्न है तभी आप अपने को प्रकट करते हैं। अतः मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

37 भौतिक सुख के साधन (शब्द, गन्ध, रूप, स्पर्श, स्वाद), ऐन्द्रिय कर्म, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता, शरीर, अनन्त काल तथा अहंकार – ये सभी आपकी माया से उत्पन्न हैं। जिन्होंने योग के द्वारा अपनी बुद्धि को स्थिर कर लिया है वे यह देख सकते हैं कि ये सभी तत्त्व आपकी माया के ही परिणाम हैं। वे आपके दिव्य रूप को भी प्रत्येक वस्तु की पृष्ठभूमि में परम आत्मा के रूप में देख सकते हैं। अतः मैं पुनः पुनः आपको नमस्कार करता हूँ।

38 हे प्रभो, आप इस भौतिक जगत की सृष्टि, पालन या संहार के इच्छुक नहीं हैं, किन्तु बद्धजीवों के लिए अपनी सृजनात्मक शक्ति के द्वारा इन क्रियाओं को निष्पादित करते हैं। जिस प्रकार चुम्बक-पत्थर के प्रभाव से लोहे का टुकड़ा घूमता है ठीक उसी प्रकार जब आप समस्त माया पर दृष्टि फेरते हैं, तो सारे जड़ पदार्थ गति करने लगते हैं।

39 हे प्रभो, इस ब्रह्माण्ड में आदि सूकर रूप में आपने हिरण्याक्ष दैत्य के साथ युद्ध करके उसका संहार किया। फिर आपने अपने दाढ़ों के अग्र भाग से पृथ्वी को गर्भोंदक सागर से उसी प्रकार ऊपर उठा लिया जैसे क्रीड़ारत गज जल में से कमल-पुष्प तोड़ लेता है। मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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गंगा-अवतरण (5.17)

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अध्याय सत्रह – गंगा-अवतरण (5.17)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, सभी यज्ञों के भोक्ता भगवान विष्णु महाराज बलि की यज्ञशाला में वामनदेव का रूप धारण करके प्रकट हुए। तब उन्होंने अपने वाम पाद को ब्रह्माण्ड के छोर तक फैला दिया और अपने पैर के अँगूठे से उसके आवरण में एक छिद्र बना दिया। कारण-समुद्र के विशुद्ध जल ने, इस छिद्र के माध्यम से गंगा नदी के रूप में इस ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया। विष्णु के चरणकमलों को, जो केशर से लेपित थे, धोने से गंगा का जल अत्यन्त मनोहर गुलाबी रंग का हो गया। गंगा के दिव्य जल के स्पर्श से क्षण भर में प्राणियों के मन के भौतिक विकार शुद्ध हो जाते हैं, इसका जल सदैव शुद्ध रहता है। चूँकि इस ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट होने के पूर्व गंगा प्रत्यक्ष रूप से विष्णुजी के चरणकमलों का स्पर्श करती है, इसलिए वह विष्णुपदी कहलाती है। बाद में उसके अन्य नाम पड़े यथा जाह्नवी तथा भागीरथी। एक हजार युगों के बाद गंगा का जल ध्रुवलोक में उतरा जो इस ब्रह्माण्ड का सर्वोपरि लोक है। इसलिए सभी सन्त तथा विद्वान ध्रुवलोक को विष्णुपद (अर्थात भगवान विष्णु के चरणकमलों में स्थित) कहते हैं।

2 महाराज उत्तानपाद के ख्याति प्राप्त पुत्र ध्रुव महाराज परम-ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ भक्त कहलाते हैं, क्योंकि उनकी भक्ति-निष्ठा दृढ़ थी। यह जानते हुए कि गंगाजल भगवान विष्णु के चरणकमल को पखारता है, वे उस जल को अपने लोक में ही रहते हुए आज तक अपने सिर पर भक्तिपूर्वक धारण करते हैं। चूँकि वे अपने अन्तस्थल (हृदय) में श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, फलतः वे अत्यन्त उत्कण्ठित रहते हैं, उनके अर्ध-निमीलीत नेत्रों से अश्रु की धारा बहती है और उनका शरीर पुलकायमान रहता है।

3 ध्रुवलोक के नीचे वाले लोकों में सप्तर्षियों (मरीचि, वसिष्ठ, अत्री इत्यादि) का वास है। गंगा जल के प्रभाव से परिचित होने के कारण वे आज भी अपने सिर की जटाओं पर उसे धारण करते हैं। अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यही परम धन, समस्त तपस्याओं की सिद्धि तथा दिव्य जीवन बिताने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की सतत भक्ति प्राप्त होने के कारण उन्होंने (धर्म, अर्थ, काम तथा परब्रह्म से तदाकार होने के लिए मोक्ष जैसे) समस्त साधनों का परित्याग कर दिया है। जिस प्रकार ज्ञानीजन यह सोचते हैं कि भगवान में तदाकार होना ही परम सत्य है उसी प्रकार सप्तर्षि भी भक्ति को जीवन की परम सिद्धि मानते हैं।

4 ध्रुवलोक के पड़ोसी सात लोकों को पावन करने के पश्चात गंगा का जल करोड़ों देवताओं के विमानों द्वारा अन्तरिक्ष को ले जाया जाता है। तब यह चन्द्रलोक को आप्लावित करता हुआ अन्ततः मेरु पर्वत पर स्थित ब्रह्मा के आवास तक पहुँच जाता है।

5 मेरु पर्वत की चोटी पर गंगा नदी चार धाराओं में विभक्त हो जाती है और प्रत्येक धारा अलग-अलग दिशाओं की ओर (पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण) वेग से प्रवाहित होती है। ये धाराएँ सीता, अलकनन्दा, चक्षु तथा भद्रा नाम से विख्यात हैं और ये सब सागर की ओर बहती हैं।

6 गंगा नदी की सीता नामक धारा मेरु पर्वत की चोटी पर स्थित ब्रह्मपुरी से होकर बहती हुई पार्श्ववर्ती केसराचल पर्वतों के शृंगों पर पहुँचती है। जो मेरु पर्वत जितने ही ऊँचे हैं। ये पर्वत मेरु पर्वत के चारों ओर तंतुगुच्छ जैसे हैं। केसराचल पर्वतों से चलकर गंगा नदी गन्धमादन पर्वत की चोटी पर गिरती है और वहाँ से भद्राश्व-वर्ष की भूमि में बहती है। अन्त में यह पश्चिम में लवण सागर में पहुँच जाती है।

7 गंगा नदी की चक्षु नामक धारा माल्यवान पर्वत की चोटी पर गिरती है और वहाँ से प्रपात के रूप में गिरकर केतुमाल वर्ष में प्रवेश करती है। अविच्छिन्न रूप से केतुमाल वर्ष से बहकर गंगा नदी पश्चिम की ओर लवण सागर तक पहुँच जाती है।

8 गंगा की भद्रा नामक धारा मेरु पर्वत की उत्तरी दिशा से होकर बहती है। इसका जल क्रमशः कुमुद, नील, श्वेत तथा शृंगवान पर्वतों की चोटियों पर गिरता है। फिर वह कुरु प्रदेश में से बहती हुई उत्तर में लवण सागर से मिलती है।

9 इसी प्रकार अलकनन्दा ब्रह्मपुरी की दक्षिण दिशा से होकर बहती है। विभिन्न प्रदेशों में पर्वतों की चोटियों को पार करती हुई यह अत्यन्त वेग से हेमकूट तथा हिमकूट पर्वतों की चोटियों पर गिरती है। इन पर्वतों की चोटियों को आप्लावित करती हुई गंगा भारतवर्ष नामक भू-भाग में गिरती है और उसे अपने जल से आपूरित करती चलती है। तत्पश्चात यह दक्षिण दिशा में लवण सागर में मिल जाती है। जो व्यक्ति इस नदी में स्नान करने आते हैं, वे भाग्यशाली हैं। उन्हें पग-पग पर राजसूय तथा अश्वमेध जैसे महान यज्ञों के करने का फल प्राप्त करना दुष्कर नहीं है।

10 मेरु पर्वत की चोटी से अन्य अनेक छोटी तथा बड़ी नदियाँ निकलती हैं। ये नदियाँ पर्वत की पुत्रियों के तुल्य हैं और वे सैकड़ों धाराओं में विभिन्न भूप्रदेशों में बहती हैं।

11 नवों वर्षों में भारतवर्ष नामक भूभाग कर्मक्षेत्र माना जाता है। विद्वान तथा सन्तजनों का कथन है कि अन्य आठ वर्ष अत्यन्त पुण्यात्माओं के निमित्त हैं। वे स्वर्गलोक से लौटकर इन आठ भूप्रदेशों में अपने शेष पुण्यकर्मों का फल भोगते हैं।

12 गणना के अनुसार इन आठ भूभागों में मानव प्राणी पृथ्वी लोक के गणना के अनुसार दस हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं। इनके सभी निवासी प्रायः देवताओं के तुल्य हैं। उनमें दस हजार हाथियों का बल होता है। दरअसल, उनके शरीर वज्र की भाँति कठोर होते हैं। उनके जीवन का यौवनकाल अत्यन्त आनन्ददायक होता है और स्त्री तथा पुरुष दीर्घकाल तक आनन्द-पूर्वक यौन-समागम करते हैं। वर्षों तक इन्द्रियसुख भोगने के पश्चात जब जीवन का एक वर्ष शेष रह जाता है, तो स्त्री गर्भवती होती है। इस प्रकार इन स्वर्गलोकों के वासी वैसा ही आनन्द उठाते हैं जैसे कि त्रेता युग के मानव प्राणी।

13 इन भूखण्डोंमें से प्रत्येक में ऋतुओं के अनुसार फूलों तथा फलों से पूरित अनेक उद्यान एवं मनोहर ढंग से अलंकृत आश्रम हैं। इन भूखण्डोंकी सीमा वाले विशाल पर्वतों के बीच निर्मल जल से पूरित विशाल सरोवर हैं जिनमें कमल के नए पुष्प खिले हुए हैं। इन कमल पुष्पों की सुगंधी से हंस, बत्तख, जलमुर्गियाँ तथा सारस जैसे जल-पक्षी अत्यन्त उत्तेजित होते हैं और भौरों के मोहक गुंजन से वायु पूरित रहती है। इन भूखण्डों के निवासी देवताओं के प्रमुख नायक हैं। अपने सेवकों से सेवित ये लोग सरोवरों के तटवर्ती उद्यानों में जीवन का आनन्द उठाते हैं। ऐसे मोहक वातावरण में देवताओं की पत्नियाँ अपने पतियों से हास-परिहास करती हैं और उन्हें बाँकी चितवन से देखती हैं। सभी देवताओं एवं उनकी पत्नियों पर उनके सेवक सदैव चन्दन तथा पुष्पमालाएँ चढ़ाते रहते हैं। इस प्रकार आठों स्वर्गिक वर्षों के रहने वाले लोग स्त्रियों की क्रियाओं से आकृष्ट होकर जीवन का आनन्द भोगते रहते हैं।

14 इन सभी नौ वर्षों में अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, जिन्हें नारायण कहा जाता है, अपने चतुर्व्युह रूपों--वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध--में विस्तार करते हैं। इस प्रकार अपने भक्तों की सेवा स्वीकार करने के लिए वे उनके निकट रहते हैं।

15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इलावृत वर्ष नामक भूखण्ड में भगवान शिव ही एकमात्र पुरुष हैं जो देवताओं में सर्वाधिक शक्तिमान है। भगवान शिव की पत्नी देवी दुर्गा नहीं चाहतीं कि उस प्रदेश में कोई भी पुरुष प्रवेश करे। यदि कोई मूर्ख पुरुष प्रवेश करने का दुस्साहस करता है, तो वे उसे तत्क्षण स्त्री में परिणत कर देती हैं। इसकी व्याख्या मैं बाद में (नवम स्कन्ध में) करूँगा।

16 इलावृत्त वर्ष में भगवान शंकर सदैव दुर्गा की सौ अरब दासियों से घिरे रहते है जो उनकी सेवा करती हैं। परमात्मा का चतुर्गुण विस्तार वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण में हुआ है। इनमें चतुर्थ विस्तार संकर्षण है जो निश्चित रूप से दिव्य है, किन्तु भौतिक जगत में उनका संहार-कार्य तमोगुणमय है, अतः वे तामसी अर्थात तमोगुणी-ईश्वर कहलाते हैं। भगवान शिव को ज्ञात है कि संकर्षण उनके अपने अस्तित्व के मूल कारण हैं, अतः वे समाधि में निम्नलिखित मंत्र का जप करते हुए उनका ध्यान करते हैं।

17 परम शक्तिमान भगवान शिव कहते हैं – हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, मैं संकर्षण के रूप में आपको प्रणाम करता हूँ। आप समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। अनन्त होकर भी आप अभक्तों के लिए अप्रकट रहते हैं।

18 हे प्रभो, आप ही एकमात्र आराध्य हैं, क्योंकि आप ही समस्त ऐश्वर्यों के आगार पूर्ण पुरषोत्तम भगवान हैं। आपके चरणकमल भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। आप भक्तों को अपने नाना रूपों द्वारा संतुष्ट करने वाले हैं। हे प्रभो, आप अपने भक्तों को भौतिक संसार के चंगुल से छुड़ाने वाले हैं। आपकी इच्छा से ही अभक्त लोग इस भौतिक संसार में उलझे रहते हैं। कृपया मुझे अपने नित्य दास के रूप में स्वीकार करें।

19 हम अपने क्रोध के वेग को रोक नहीं पाते, अतः जब हम भौतिक वस्तुओं को देखते हैं तो उनसे आकर्षित या विकर्षित हुए बिना नहीं रह पाते। किन्तु परमेश्वर इस प्रकार कभी भी प्रभावित नहीं होते। यद्यपि इस भौतिक जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार के हेतु वे इस पर दृष्टिपात करते हैं, किन्तु इससे रंचमात्र भी प्रभावित नहीं होते। अतः वह जो अपनी इन्द्रियों के वेग पर विजय प्राप्त करना चाहता है, उसे श्रीभगवान के चरणकमलों की शरण लेनी चाहिए। तभी वह विजयी होगा।

20 कुत्सित दृष्टि वाले व्यक्तियों के लिए भगवान के नेत्र मदिरा पिये हुए उन्मत्त पुरुष जैसे हैं। ऐसे अविवेकी पुरुष भगवान पर रुष्ट होते हैं और अपने रोषवश उन्हें श्रीभगवान अत्यन्त रुष्ट एवं भयावह लगते हैं। किन्तु यह माया है। जब भगवान के चरणकमलों के स्पर्श से नाग-वधुएँ उत्तेजित हुई तो वे लज्जावश उनकी और अधिक आराधना नहीं कर पाई फिर भी भगवान उनके स्पर्श से उत्तेजित नहीं हुए, क्योंकि समस्त परिस्थितियों में वे धीर बने रहते हैं। अतः ऐसा कौन होगा जो भगवान की आराधना करना नहीं चाहेगा?

21 शिवजी कहते हैं- सभी महान ऋषि भगवान को सृजक, पालक और संहारक के रूप में स्वीकार करते हैं, यद्यपि वास्तव में उनका इन कार्यों से कोई सरोकार नहीं है। इसीलिए श्रीभगवान को अनन्त कहा गया है। यद्यपि शेष अवतार के रूप में वे अपने फणों पर समस्त ब्रह्माण्डों को धारण करते हैं, किन्तु प्रत्येक ब्रह्माण्ड उन्हें सरसों के बीज से अधिक भारी नहीं लगता। अतः सिद्धि का इच्छुक ऐसा कौन पुरुष होगा जो ईश्वर की आराधना नहीं करेगा?

22-23 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से ही ब्रह्माजी प्रकट होते हैं, जिनका शरीर महत तत्त्व से निर्मित है और वह भौतिक प्रकृति के रजोगुण द्वारा प्रभावित बुद्धि का आगार है। ब्रह्माजी से मैं स्वयं मिथ्या अहंकार रूप में, जिसे रुद्र कहते हैं, उत्पन्न होता हूँ। मैं अपनी शक्ति से अन्य समस्त देवताओं, पंच तत्त्वों तथा इन्द्रियों को जन्म देता हूँ। अतः मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की आराधना करता हूँ। वे हम सबों से श्रेष्ठ हैं और सभी देवता, महत तत्त्व तथा इन्द्रियाँ, यहाँ तक कि ब्रह्माजी और स्वयं मैं उनके वश में वैसे ही हैं जिस प्रकार कि डोरी से बँधे पक्षी। केवल उन्हीं के अनुग्रह से हम इस जगत का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं। अतः मैं परमब्रह्म को सादर प्रणाम करता हूँ।

24 श्रीभगवान की माया हम समस्त बद्ध जीवात्माओं को इस भौतिक जगत से बाँधती है, अतः उनकी कृपा के बिना हम जैसे तुच्छ प्राणी माया से छूटने की विधि नहीं समझ पाते। मैं उन श्रीभगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस जगत की उत्पत्ति और लय के कारणस्वरूप हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सोलह – जम्बूद्वीप का वर्णन (5.16)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से कहा: हे ब्राह्मण, आपने मुझे पहले ही बता दिया है कि भूमण्डल की त्रिज्या वहाँ तक विस्तृत है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश और ऊष्मा पहुँचती है तथा चन्द्रमा और अन्य नक्षत्र दृष्टिगोचर होते हैं।

2 हे भगवन, महाराज प्रियव्रत के रथ के चक्रायमाण पहियों से सात गड्डे हुए, जिससे सात समुद्रों की उत्पत्ति हुई। इन सात समुद्रों के ही कारण भूमण्डल सात द्वीपों में विभक्त है। आपने इनकी माप, नाम तथा विशिष्टताओं का अत्यन्त सामान्य वर्णन मात्र किया है। मुझे विस्तार से इनके सम्बन्ध में जानने की इच्छा है। कृपया मेरी कामना पूर्ण करें।

3 जब मन प्रकृति के गुणों से निर्मित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के बाह्यरूप – स्थूल विश्व रूप--पर स्थिर हो जाता है, तो उसे शुद्ध सत्त्व की स्थिति प्राप्त होती है। उस दिव्य स्थिति में ही भगवान वासुदेव को जाना जा सकता है जो अपने सूक्ष्मरूप में स्वतः प्रकाशित और गुणातीत हैं। हे प्रभो, विस्तार से वर्णन करें कि वह रूप जो सारे विश्व में व्याप्त है किस प्रकार देखा जाता है।

4 ऋषिश्रेष्ठ श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- हे राजन, श्रीभगवान की माया के विस्तार की कोई सीमा नहीं है। यह भौतिक जगत सत्त्व, रज तथा तम इन तीन गुणों का रूपान्तर है, फिर भी ब्रह्मा के समान दीर्घ आयु पाकर भी इसकी व्याख्या कर पाना सम्भव नहीं है। इस भौतिक जगत में कोई भी पूर्ण नहीं और अपूर्ण मनुष्य सतत चिन्तन के बाद भी इस भौतिक ब्रह्माण्ड का सही वर्णन नहीं कर सका। तो भी, हे राजन, मैं भूगोलक (भूलोक) जैसे प्रमुख भूखण्डों की उनके नामों, रूपों, प्रमापों तथा विविध लक्षणों सहित व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा।

5 भूमण्डल नाम से विख्यात ग्रह कमल पुष्प के अनुरूप है और इसके सातों द्वीप पुष्प-कोश के सदृश हैं। इस कोश के मध्य में स्थित जम्बूद्वीप की लम्बाई तथा चौड़ाई दस लाख योजन (अस्सी लाख मील) है। जम्बूद्वीप कमल-पत्र के समान गोल है।

6 जम्बूद्वीप में नौ वर्ष (खण्ड) हैं जिनमें से प्रत्येक की लम्बाई 9000 योजन (72000 मील) है। इन खण्डों की सीमा अंकित करने वाले आठ पर्वत हैं, जो उन्हें भलीभाँति विलग करते हैं।

7 इन खण्डों(वर्षों) में से इलावृत नाम का एक वर्ष है जो कमल-कोश के मध्य में स्थित है। इलावृत वर्ष में ही सुवर्ण का बना हुआ सुमेरु पर्वत है। यह कमल जैसे भूमण्डल के बाह्य-आवरण की तरह है। इस पर्वत की चौड़ाई जम्बूद्वीप की चौड़ाई के तुल्य, अर्थात एक लाख योजन या आठ लाख मील है, जिसमें से 16000 योजन (128000 मील) पृथ्वी के भीतर है, जिससे पृथ्वी के ऊपर पर्वत की ऊँचाई केवल 84000 योजन (672000 मील) ही है। शीर्ष पर इस पर्वत की चौड़ाई 32000 योजन (256000 मील) और पाद भाग पर 16000 योजन है।

8 इलावृत-वर्ष के सुदूर उत्तर में क्रमशः नील, श्वेत तथा शृंगवान नामक तीन पर्वत हैं। ये तीनों रम्यक, हिरण्मय तथा कुरु इन तीन वर्षों की सीमा-रेखा बनाने वाले हैं और इनको एक दूसरे से विभक्त करने वाले हैं। इन पर्वतों की कुल चौड़ाई 2000 योजन (16000 मील) है। लम्बाई में ये पूर्व से पश्चिम की ओर लवण सागर के तट तक विस्तृत हैं। दक्षिण से उत्तर की ओर बढ्ने पर प्रत्येक पर्वत की लम्बाई अपने पूर्ववर्ती पर्वत की दशमांश होती जाती है, किन्तु इन सबकी ऊँचाई एक सी रहती है।

9 इसी प्रकार, इलावृत-वर्ष के दक्षिण में तथा पूर्व से पश्चिम को फैले हुए तीन विशाल पर्वत हैं (उत्तर से दक्षिण को) जिनके नाम हैं--निषध, हेमकूट तथा हिमालय। इनमें से प्रत्येक 10000 योजन (80000 मील) ऊँचाई है। ये हरिवर्ष, किम्पुरुष-वर्ष तथा भारतवर्ष नामक तीन वर्षों की सीमाओं के सूचक हैं।

10 इसी प्रकार से इलावृत-वर्ष के पूर्व तथा पश्चिम क्रमशः माल्यवान और गन्धमादन नामक दो विशाल पर्वत हैं। ये दोनों 2000 योजन (16000 मील) ऊँचे हैं और उत्तर में नीलपर्वत तक तथा दक्षिण में निषध तक फैले हैं। ये इलावृत-वर्ष की ओर केतुमाल तथा भद्राश्व नामक वर्षों की सीमाओं के सूचक हैं।

11 सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व तथा कुमुद नामक चार पर्वत हैं, जो इसकी मेखलाओं के सदृश हैं। ये पर्वत 10000 योजन (80000 मील) ऊँचे तथा इतने ही चौड़े हैं।

12 इन चारों पर्वतों की चोटियों पर ध्वजाओं के रूप में एक एक आम्र, जामुन, कदम्ब तथा वटवृक्ष हैं। इन वृक्षों का घेरा 100 योजन (800 मील) तथा ऊँचाई 1100 योजन (8800 मील) है। इनकी शाखाएँ 1100 योजन की त्रिज्या में फैली हैं।

13-14 भरतवंश में श्रेष्ठ, हे महाराज परीक्षित, इन चारों पर्वतों के मध्य में चार विशाल सरोवर हैं। इनमें से पहले का जल दुग्ध की तरह, दूसरे का मधु के सदृश और तीसरे का इक्षुरस की भाँति स्वादिष्ट है। चौथा सरोवर विशुद्ध जल से परिपूर्ण है। इन चारों सरोवरों की सुविधा का उपभोग सिद्ध, चारण तथा गन्धर्व जैसे अपार्थिव प्राणी, जिन्हें देवता भी कहा जाता है, करते हैं। फलस्वरूप उन्हें योग की सहज सिद्धियाँ--यथा, सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर रूप धारण करने की शक्तियाँ--प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त चार देव-उद्यान भी हैं, जिनके नाम हैं--नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक तथा सर्वतोभद्र दीर्घतर।

15 इन उद्यानों में श्रेष्ठतम देवगण अपनी-अपनी सुन्दर पत्नियों के सहित जो स्वर्गिक सौन्दर्य के आभूषणों जैसी हैं, एकत्र होकर आनन्द लेते हैं और गन्धर्व-जन उनका यशगान करते हैं।

16 मन्दर पर्वत की निचली ढलान पर एक आम्रवृक्ष है, जिसकी ऊँचाई 1100 योजन है। इस वृक्ष की चोटी से पर्वतशृंग जितने बड़े तथा अमृत तुल्य मधुर फल गिरते रहते हैं जिनका उपभोग दिव्य लोक के निवासी करते हैं।

17 इतनी ऊँचाई से गिरने के कारण वे सभी आम्रफल फट जाते हैं और उनका मधुर, सुगन्धित रस बाहर निकल आता है। यह रस अन्य सुगन्धियों से मिलकर अत्यधिक सुरभित हो जाता है। यही रस पर्वत से झरनों में जाता है और अरुणोदा नामक नदी का रूप धारण कर लेता है जो इलावृत की पूर्व दिशा से होकर बहती है।

18 यक्षों की पवित्र पत्नियाँ भगवान शंकर की अर्धांगिनी भवानी की अनुचरी हैं। अरुणोदा नदी के जल का पान करने के कारण उनके शरीर सुगन्धित हो जाते हैं। वायु उनके शरीर का स्पर्श करके उस सुगन्ध से अस्सी मील तक चारों ओर के वायुमण्डल को सुरभित कर देती है।

19 इसी प्रकार रस से भरे और अत्यन्त छोटी गुठली वाले जामुन के फल अत्यधिक ऊँचाई से गिरकर खण्ड-खण्ड हो जाते हैं। ये फल हाथी जैसे आकार वाले होते हैं और इनका रस बहकर जम्बूनदी का रूप धारण कर लेता है। यह नदी इलावृत के दक्षिण में मेरुमन्दर की चोटी से दस हजार योजन नीचे गिरकर समस्त इलावृत भूखण्ड को रस से आप्लावित करती है।

20-21 जम्बूनदी के दोनों तटों का कीचड़ जामुनफल के बहते हुए रस से सिक्त होकर और फिर वायु तथा सूर्य प्रकाश के कारण सूख कर जाम्बूनद नामक स्वर्ण की प्रचुर मात्रा उत्पन्न करता है। स्वर्ग के निवासी इस स्वर्ण का उपयोग विविध आभूषणों के लिए करते हैं। फलतः स्वर्गलोक के सभी निवासी उनकी तरुण पत्नियाँ स्वर्ण के मुकुटों, चूड़ियों तथा करधनियों से आभूषित रहती हैं। इस प्रकार वे सब जीवन का आनन्द लेते हैं।

22 सुपार्श्व पर्वत की बगल में महाकदम्ब नामक अत्यन्त प्रसिद्ध विशाल वृक्ष खड़ा है। इस वृक्ष के कोटर से मधु की पाँच नदियाँ निकलती हैं जिनमें से प्रत्येक लगभग पाँच "व्याम" (8 फुट की माप) चौड़ी है। यह प्रवाहमान मधु सुपार्श्व पर्वत की चोटी से सतत नीचे गिरता रहता है और इलावृत-वर्ष की पश्चिम दिशा से प्रारम्भ होकर उसके चारों ओर बहता रहता है। इस प्रकार सम्पूर्ण स्थल सुहावनी गन्ध से पूरित हैं।

23 इस मधु को पीने वालों के मुख से निकली वायु चारों ओर सौ योजन तक के भूभाग को सुगन्धित कर देती है।

24 इसी प्रकार कुमुद पर्वत के ऊपर एक विशाल वटवृक्ष है, जो एक सौ प्रमुख शाखाओं के कारण शतवल्श कहलाता है। इन शाखाओं से अनेक जड़े निकली हुई हैं, जिनमें से अनेक नदियाँ बहती हैं। ये नदियाँ इलावृत-वर्ष की उत्तर दिशा में स्थित पर्वत की चोटी से नीचे बहकर वहाँ के निवासियों को लाभ पहुँचाती है। इन नदियों के फलस्वरूप लोगों के पास दूध, दही, शहद, घी, राब, अन्न, वस्त्र, बिस्तर, आसन तथा आभूषण हैं, जिससे वे सभी अत्यन्त सुखी हैं।

25 इस भौतिक जगत के वासी जो इन बहती नदियों से प्राप्त पदार्थों का सेवन करते हैं, उनके शरीर में न तो झुर्रियां पड़ती है और न उनके केश सफेद होते हैं। न तो उन्हें थकान का अनुभव होता है और न पसीने से उनके शरीर से दुर्गन्ध ही आती है। उन्हें बुढ़ापा, रोग या आसामयिक मृत्यु नहीं सताती है न ही वे कड़ाके की सर्दी अथवा झुलसती गर्मी से दुखी होते हैं और न ही उनके शरीर की कान्ति लुप्त होती है। वे सभी चिन्ताओं से मुक्त मृत्युपर्यंत सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं।

26 मेरु पर्वत के तलहटी के चारों ओर अन्य पर्वत इस सुन्दर ढंग से व्यवस्थित हैं मानों कमल पुष्प की कर्णिका के चारों ओर केसर हों। इन पर्वतों के नाम हैं – कुरंग, कुरर, कुसुंभ, वैकंक, त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर तथा नारद।

27 सुमेरु पर्वत के पूर्व में जठर तथा देवकूट नामक दो पर्वत हैं, जो उत्तर तथा दक्षिण की ओर 18000 योजन (144000 मील) तक फैले हुए हैं। इसी प्रकार सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में पवन तथा पारियात्र नामक दो पर्वत हैं, जो उतनी ही दूरी तक उत्तर तथा दक्षिण में भी फैले हैं। सुमेरु के दक्षिण में कैलास तथा करवीर पर्वत हैं, जो पूर्व और पश्चिम में 18000 योजन तक फैले हुए हैं और सुमेरु की उत्तरी दिशा में त्रिशृंग तथा मकर नामक दो पर्वत पूर्व और पश्चिम में इतनी ही दूरी में विस्तृत हैं। इन समस्त पर्वतों की चौड़ाई 2000 योजन (16000 मील) है। इन आठों पर्वतों से घिरा हुआ स्वर्णनिर्मित सुमेरु पर्वत अग्नि की तरह जाज्वल्यमान है।

28 मेरु की चोटी के मध्य भाग में ब्रह्माजी की पुरी स्थित है। इसके चारों कोने समान रूप से एक करोड़ योजन (आठ करोड़ मील) तक विस्तृत हैं। यह पूरे का पूरा स्वर्ण से निर्मित है, इसीलिए विद्वतजन तथा ऋषि-मुनि इसे शातकौम्भी नाम से पुकारते हैं।

29 ब्रह्मपूरी के चारों ओर सभी दिशाओं में लोकों के आठ प्रमुख लोकपालों के निवास-स्थल हैं, जिनमें से पहला राजा इन्द्र का है। ये निवास स्थल ब्रह्मपूरी के ही समान है, किन्तु वे आकार में एक चौथाई हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय पन्द्रह – राजा प्रियव्रत के वंशजों का यश-वर्णन (5.15)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: महाराज भरत के पुत्र सुमति ने ऋषभदेव के मार्ग का अनुसरण किया, किन्तु कुछ पाखण्डी लोग उन्हें साक्षात भगवान बुद्ध मानने लगे। वस्तुतः इन पाखण्डी नास्तिक और दुश्चरित्र लोगों ने वैदिक नियमों का पालन काल्पनिक तथा अप्रसिद्ध ढंग से अपने कर्मों की पुष्टि के लिए किया। इस प्रकार इन पापात्माओं ने सुमति को भगवान बुद्धदेव के रूप में स्वीकार किया और इस मत का प्रवर्तन किया कि प्रत्येक व्यक्ति को सुमति के नियमों का पालन करना चाहिए। इस प्रकार कोरी कल्पना के कारण वे रास्ते से भटक गये।

2 सुमति की पत्नी वृद्धसेना के गर्भ से देवताजित नामक पुत्र का जन्म हुआ।

3 तत्पश्चात देवताजित की पत्नी आसुरी के गर्भ से देवद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। देवद्युम्न की पत्नी धेनुमती के गर्भ से पर्मेष्ठी नामक पुत्र का और पर्मेष्ठी की पत्नी सुवर्चला के गर्भ से प्रतीह नाम के पुत्र का जन्म हुआ।

4 राजा प्रतीह ने स्वयं आत्म-साक्षात्कार के सिद्धान्तों का प्रसार किया। इस प्रकार शुद्ध होकर वे परम पुरुष भगवान विष्णु के महान भक्त बन गये और प्रत्यक्षतः उनका दर्शन किया।

5 प्रतीह की पत्नी सुवर्चला के गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता तथा उदगाता नाम के तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ये तीनों पुत्र वैदिक अनुष्ठानों में अत्यन्त दक्ष थे। प्रतिहर्ता की भार्या स्तुती के गर्भ से अज तथा भूमा नामक दो पुत्रों का जन्म हुआ।

6 राजा भूमा की पत्नी ऋषिकुल्या के गर्भ से उद्गीथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उद्गीथ की पत्नी देवकुल्या से प्रस्ताव नामक पुत्र ने जन्म लिया और प्रस्ताव को अपनी पत्नी नियुत्सा से विभु नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। विभु की पत्नी रती के गर्भ से पृथुषेण और पृथुषेण की पत्नी आकूती के गर्भ से नक्त नामक पुत्र ने जन्म लिया। नक्त की पत्नी द्रुति हुई, जिसके गर्भ से गय नामक महान राजा उत्पन्न हुआ। गय अत्यन्त विख्यात एवं पवित्र था, वह राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ था। भगवान विष्णु तथा उनके सभी अंश विश्व की रक्षा के लिए हैं और वे सदैव दिव्य सत्त्वगुण में, जिसे विशुद्ध सत्त्व कहते हैं, विद्यमान रहते हैं। भगवान विष्णु के साक्षात अंश होने के कारण राजा गय भी विशुद्ध-सत्त्व में आसीन थे। इस कारण महाराज गय दिव्य ज्ञान से युक्त थे और इसलिए वे महापुरुष कहलाए।

7 राजा गय ने अपनी प्रजा को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जिससे अवांछित तत्त्वों के द्वारा उनकी निजी सम्पत्ति को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचे। उन्होंने इसका भी ध्यान रखा कि प्रजा को पर्याप्त भोजन प्राप्त हो (यही "पोषण" है)। कभी-कभी प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए वे दान देते थे (यह "प्रीणन" कहलाता है)। कभी-कभी वे प्रजा की सभाएँ बुलाते और मृदु वचनों से उन्हें तुष्टि प्रदान करते (यह "उपपालन" कहलाता है)। वे उन्हें उच्चकोटी के नागरिक बनने की शिक्षा देते यह अनुशासन कहलाता है। राजा गय में इस प्रकार की विलक्षणताएँ थीं। इन सबके साथ ही साथ राजा गय गृहस्थ थे और वे गृहस्थ जीवन के सभी नियमों का कड़ाई से पालन करते थे। वे यज्ञ करते थे तथा श्रीभगवान के एकनिष्ठ भक्त थे। वे महापुरुष कहे जाते थे, क्योंकि राजा के रूप में वे सभी कर्तव्यों का पालन करने वाले थे। फलस्वरूप वे अन्ततः भगवान के परम भक्त हुए। भक्त के रूप में वे सभी भक्तों का आदर करने और भगवान की सेवा करने को उद्यत रहते थे। यह भक्तियोग की प्रक्रिया है। इन दिव्य कर्मों के कारण राजा गय देहात्मबोध से सदैव मुक्त रहे। वे ब्रह्मसाक्षात्कार में लीन रहने के कारण सदैव प्रमुदित रहते थे। उन्हें भौतिक पश्चाताप का अनुभव नहीं करना पड़ा। सभी प्रकार से पूर्ण होने पर भी वे न तो गर्व करते थे, न ही राज्य करने के लिए लालायित थे।

8 हे राजा परीक्षित, पुराणों को जानने वाले विद्वान राजा गय की स्तुति और महिमागान निम्नलिखित श्लोकों से करते हैं।

9 महान राजा गय सभी प्रकार के वैदिक अनुष्ठान किया करते थे। वे अत्यन्त बुद्धिमान और सभी वैदिक शास्त्रों के अध्ययन में दक्ष थे। उन्होंने धार्मिक नियमों की रक्षा की और वे समस्त वैभव से युक्त थे। वे सज्जनों के नायक और भक्तों के सेवक थे। वे श्रीभगवान के सच्चे अर्थों में सर्वथा समर्थ अंश (कला) थे। अतः महान अनुष्ठानों (यज्ञ) को सम्पन्न करने में उनकी तुलना कौन कर सकता है?

10 महाराज दक्ष की श्रद्धा, मैत्री तथा दया जैसी पतिव्रता तथा सत्यनिष्ठ कन्याएँ जिनके आशीर्वाद सदा फलित होते थे, पवित्र जल से महाराज गय का अभिषेक करती थीं। असल में वे सभी महाराज गय से अत्यधिक संतुष्ट थीं। पृथ्वी स्वयं गौ रूप में प्रकट हुई और महाराज गय के उत्तम गुणों को देखकर दुग्ध स्रवण करने लगी, मानो गाय ने अपने वत्स को देखा हो। तात्पर्य यह है कि महाराज गय पृथ्वी के समस्त साधनों से लाभ उठा करके अपनी प्रजा की आकांक्षाओं को पूरा करते थे, फिर भी वे निस्पृह थे।

11 यद्यपि महाराज गय में इन्द्रियतृप्ति के लिए किसी प्रकार की व्यक्तिगत इच्छा नहीं थी, किन्तु वैदिक अनुष्ठानों के पूरा करने के कारण उनकी सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति होती रहती थी। जिन राजाओं से महाराज गय को युद्ध करना पड़ता, वे धर्मयुद्ध करने के लिए विवश हो जाते। वे महाराज गय के युद्ध से अत्यन्त संतुष्ट होकर उन्हें सभी प्रकार की भेंटें प्रदान करते थे। इसी प्रकार से उनके राज्य के समस्त ब्राह्मण उनके मुक्त दान से अत्यन्त संतुष्ट रहते थे। फलस्वरूप ब्राह्मणों ने राजा गय को अगले जन्म में प्राप्त होने के लिए अपने पुण्यकर्मों का छठा अंश सहर्ष प्रदान किया।

12 महाराज गय के यज्ञों में सोम नामक मादक द्रव्य का अत्यधिक प्रयोग होता था। इनमें राजा इन्द्र आया करते थे और प्रचुर मात्र में सोमरस पीकर मदान्ध हो जाते थे। भगवान श्रीविष्णु (यज्ञ पुरुष) भी आया करते थे और यज्ञ क्षेत्र में विशुद्ध भक्तिपूर्वक उनको समर्पित किये गये यज्ञफल को स्वयं स्वीकार करते थे।

13 जब परमेश्वर किसी व्यक्ति के कर्मों से प्रसन्न होते हैं, तो ब्रह्मा से लेकर समस्त देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, लताएँ, तृण तथा अन्य समस्त जीवात्माएँ स्वतः प्रसन्न हो जाती हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सबों के परमात्मा हैं और वे स्वभाव से परम प्रसन्न रहते हैं। तो भी वे महाराज गय के यज्ञ क्षेत्र में आये और उन्होंने कहा, “मैं पूर्णतया प्रसन्न हूँ।"

14-15 गयन्ती के गर्भ से महाराज गय के तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे – चित्ररथ, सुगति तथा अवरोधन। चित्ररथ की पत्नी ऊर्णा से सम्राट नाम का पुत्र प्राप्त हुआ। सम्राट की पत्नी का नाम उत्कला था जिसके गर्भ से सम्राट को मरीचि नामक पुत्र हुआ। मरीचि की पत्नी बिन्दुमति से बिन्दु नामक पुत्र हुआ। बिन्दु की पत्नी सरघा के गर्भ से मधु नामक एक पुत्र ने जन्म लिया। मधु की पत्नी सुमना से वीरव्रत और वीरव्रत की पत्नी भोजा से मंथु तथा प्रमंथु नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। मन्थु की पत्नी सत्या से भौवन नाम का पुत्र और भौवन की पत्नी दूषणा से त्वष्टा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। त्वष्टा की पत्नी विरोचना से विरज नाम का पुत्र हुआ और उसकी पत्नी विषूची के गर्भ से एक सौ पुत्र तथा एक पुत्री उत्पन्न हुई। इन सभी पुत्रों में शतजित नाम का पुत्र सर्वोपरि था।

16 राजा विरज के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध श्लोक है जिसका अर्थ है:- अपने उच्च गुणों तथा व्यापक कीर्ति के कारण राजा विरज उसी प्रकार से प्रियव्रत राजा के वंश की मणि हो गए जिस प्रकार भगवान विष्णु अपनी दिव्य शक्ति द्वारा देवताओं को विभूषित करते और उन्हें आशीष देते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय चौदह – भौतिक संसार भोग का एक विकट वन (5.14)

1 राजा परीक्षित ने जब श्रील शुकदेव गोस्वामी से भौतिक वन का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कहा तो उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया--- हे राजन, वणिक की रुचि सदैव धन उपार्जन के प्रति रहती है। कभी-कभी वह लकड़ी तथा मिट्टी जैसी कुछ अल्पमूल्य की वस्तुएँ प्राप्त करने और उन्हें ले जाकर नगर में अच्छे मूल्य में विक्रय करने की आकांक्षा से वन में प्रवेश करता है। इसी प्रकार बद्धजीव लोभवश कुछ भौतिक सुख-लाभ करने की इच्छा से इस भौतिक जगत में प्रवेश करता है। धीरे-धीरे वह वन के सघन भाग में प्रवेश करता है तथा वह यह नहीं जानता कि बाहर कैसे निकले। इस भौतिक जगत में प्रवेश करके शुद्ध जीव सांसारिकता में बँध जाता है, जो भगवान विष्णु के नियंत्रण में उनकी बहिरंगा शक्ति (माया) उत्पन्न करती है। इस प्रकार जीवात्मा बहिरंगा शक्ति दैवी माया के वशीभूत हो जाता है। स्वतंत्र होने तथा वन में भटकने के कारण वह भगवान की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले भक्तों का संग प्राप्त नहीं कर पाता। एक बार देहात्मबुद्धि के कारण वह माया के वशीभूत होकर और भौतिक गुणों (सत्त्व,रज तथा तम) के द्वारा प्रेरित होकर एक के पश्चात एक अनेक प्रकार के शरीर धारण करता है। इस प्रकार बद्धजीव कभी स्वर्गलोक तो कभी भूलोक और कभी पाताललोक तथा निम्न योनियों में प्रवेश करता है। इस प्रकार अनेक देहों के कारण वह निरन्तर कष्ट सहन करता है। ये कष्ट तथा पीड़ाएँ कभी-कभी मिश्रित रहती हैं। कभी तो ये असह्य होती हैं, तो कभी नहीं। ये शारीरिक दशाएँ बद्धजीव को मनोकल्पना के कारण प्राप्त होती हैं। वह अपने मन तथा पंचेन्द्रियों का उपयोग ज्ञान प्राप्ति के लिए करता है और इन्हीं से विभिन्न देहें तथा विभिन्न दशाएँ प्राप्त होती हैं। बहिरंगा शक्ति माया के नियंत्रण में इन इन्द्रियों का उपभोग करके जीव को दुख उठाना पड़ता है। वह वास्तव में छुटकारा पाने की खोज में रहता है, किन्तु सामान्य रूप से वह भटकता है, यद्यपि कभी-कभी अत्यन्त कठिनाई के पश्चात उसे छुटकारा मिल जाता है। इस प्रकार अस्तित्त्व के लिए संघर्षशील रहने के कारण उसे भगवान विष्णु के चरणारविन्दों में भ्रमरों के समान अनुरक्त भक्तों की शरण नहीं मिल पाती है।

2 संसार रूपी वन में अनियंत्रित इन्द्रियाँ दस्युओं के समान हैं। बद्धजीव श्रीकृष्णभावनामृत के विकास के लिए कुछ धन अर्जित कर सकता है, किन्तु दुर्भाग्यवश अनियंत्रित इन्द्रियाँ अपनी तुष्टि द्वारा इस धन को लूट लेती हैं, इन्द्रियाँ दस्यु हैं, क्योंकि वे जीव को दर्शन, घ्राण, आस्वाद, स्पर्श, श्रवण, संकल्प-विकल्प तथा कामना में अपना धन व्यर्थ व्यय करने के लिए बाध्य करती हैं। इस प्रकार बद्धजीव अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए बाध्य हो जाता है, जिससे उसका सारा धन व्यय हो जाता है। यद्यपि यह धन यथार्थतः धार्मिक कृत्यों के सम्पादन हेतु अर्जित हुआ होता है, किन्तु दस्यु-इन्द्रियाँ इसका हरण कर लेती हैं।

3 हे राजन, इस भौतिक जगत में स्त्री-पुत्रादि नाम से पुकारे जाने वाले कुटुम्बीजन वास्तव में भेड़ियों तथा शृगालों (लोमड़ी) की भाँति व्यवहार करते हैं। चरवाहा अपनी भेड़ों की रक्षा यथाशक्ति करना चाहता है, किन्तु भेड़िये तथा लोमड़ियाँ उन्हें बलपूर्वक उठा ले जाते हैं। इसी प्रकार यद्यपि कंजूस पुरुष सतर्कतापूर्वक अपने धन की चौकसी रखना चाहता है, किन्तु उसके पारिवारिक प्राणी उसकी समस्त सम्पत्तियों को उसके जागरूक रहते हुए भी बलपूर्वक छीन लेते हैं।

4 कृषक प्रतिवर्ष अपने खेत को जोतकर सारा घास-फूस निकालता रहता है, तो भी उनके बीज उसमें पड़े रहते हैं और पूरी तरह न जल पाने के कारण खेत में बोये गए पौधों के साथ पुनः उग आते हैं। घास-फूस को जोतकर पलट देने पर भी वे सघन रूप से उगकर निकल आते हैं। इसी प्रकार गृहस्थाश्रम एक कर्मक्षेत्र हैं। जब तक गृहस्थाश्रम भोगने की कामना पूरी तरह भस्म नहीं कर दी जाती, तब तक वह पुनः पुनः उदय होती रहती है। पात्र में बन्द कपूर को हटा लेने पर भी पात्र से सुगन्ध नहीं जाती। उसी तरह जब तक कामनाओं के बीज विनष्ट नहीं कर दिये जाते, तब तक सकाम कर्म का नाश नहीं होता।

5 सांसारिक सम्पत्ति एवं वैभव में आसक्त गृहस्थाश्रम में बद्धजीव को कभी डॉस तथा मच्छर, तो कभी टिड्डी, शिकारी पक्षी व चूहे सताते हैं। फिर भी वह भौतिक जगत के पथ पर चलता रहता है। अविद्या के कारण वह लोभी बन जाता है और सकाम कर्म में लग जाता है। चूँकि उसका मन इन कार्यकलापों में रमा रहता है इसलिए उसे यह भौतिक जगत नित्य लगता है, यद्यपि यह गन्धर्वनगर (हवाई महल) की भाँति अनित्य है।

6 बद्धजीव कभी-कभी इस गन्धर्वपुरी में खाता, पीता और स्त्री प्रसंग करता है। अत्यधिक लगाव के कारण इन्द्रिय सुखों के पीछे वह उसी प्रकार दौड़ता है जैसे मरुस्थल में मृगमरीचिका के पीछे हिरण।

7 कभी-कभी जीवात्मा स्वर्ण नाम से पहचाने जाने वाले पीले मल की वांछा करके उसको पाने के लिए दौड़ता है। यह स्वर्ण भौतिक वैभव एवं ईर्ष्या का साधन है और इसके कारण जीवात्मा अवैध यौन-सम्बन्ध, द्युत, मांसाहार तथा मादक द्रव्यों के सेवन में तत्पर होने में समर्थ होता है। रजोगुणी व्यक्ति स्वर्ण के रंग से उसी प्रकार आकृष्ट होते हैं जिस प्रकार वन में जाड़े से ठिठुरता मनुष्य दलदल में दिखने वाले प्रकाश को अग्नि समझ बैठता है।

8 कभी-कभी यह बद्धजीव रहने के लिए वासस्थान खोजने एवं अपने शरीर की रक्षा के लिए जल तथा धन प्राप्त करने में लगा रहता है। इन नाना प्रकार की आवश्यकताओं को जुटाने में संलग्न रहने के कारण वह सब कुछ भूल जाता है और भौतिक अस्तित्त्व के जंगल में निरन्तर इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है।

9 कभी-कभी यह बद्ध आत्मा धूल के बवण्डर से अन्धे के समान स्त्री की सुन्दरता को देखता है जिसे प्रमाद कहा जाता है। इस प्रकार से अन्धा होकर वह सुन्दर स्त्री की गोद में जा बैठता है। उस समय उसके विवेक पर भोगेच्छा विजय पाती है। वह वासना से प्रायः अन्धा हो जाता है और काम-जीवन के समस्त नियमों का उल्लंघन करने लगता है। उसे यह ज्ञान ही नहीं रह जाता कि उसके इस उल्लंघन को अनेक देवता देख रहे हैं। इस प्रकार वह भवितव्य दण्ड को देखे बिना अर्धरात्रि में अवैध यौन सुख का आनन्द लेता है।

10 बद्धजीव कभी स्वतः सांसारिक विषयों की निरर्थकता स्वीकार कर लेता है, तो कभी वह भौतिक सुखों को दुखपूर्ण मानता है। फिर भी अपनी उत्कट देहात्म-बुद्धि के कारण उसकी स्मृति विनष्ट हो जाती है और वह पुनः पुनः भौतिक सुखों के पीछे वैसे ही दौड़ता फिरता है जैसे मरुस्थल में मृग मरीचिका के पीछे मृग।

11 कभी-कभी बद्धजीव अपने शत्रुओं तथा शासन-कर्मियों की प्रताड़ना से अत्यन्त व्यथित रहता है, जो प्रत्यक्ष रूप से कटु वचन कहते रहते हैं। उस समय उसके हृदय (मन) तथा कान अतीव व्यथित एवं विषादपूर्ण हो जाते हैं। ऐसी प्रताड़ना की तुलना उलूकों तथा झींगुरों की अप्रिय झनकार से की जा सकती है।

12 पूर्वजन्मों में पवित्र कर्मों के कारण बद्ध-आत्मा को इस जीवन में भौतिक सुविधाएँ प्राप्त होती है, किन्तु इनके समाप्त हो जाने पर वह ऐसी सम्पदा तथा धन का सहारा लेता है, जो न तो इस जीवन में न ही अगले जीवन में उसके सहायक होते हैं। इसलिए वह जीवित मृत-तुल्य मनुष्यों का जिनके पास ये वस्तुएँ होती हैं, सहारा लेना चाहता है। ऐसे लोग अपवित्र वृक्षों, लताओं और विषैले कुओं के सदृश हैं।

13 कभी-कभी इस संसार में अपने कष्टों से मुक्ति पाने के लिए बद्धजीव पाखण्डियों के सस्ते आशीर्वाद प्राप्त करता है। तब उनके सम्पर्क से उसकी मति भ्रष्ट हो जाती है। यह उथली नदी में कूदने के समान ही है। इसका परिणाम यही होता है कि उसका सिर फूटता है। इस प्रकार वह गर्मी से प्राप्त दुखों को शान्त करने में समर्थ नहीं होता तथा दोनों ओर से उसकी हानि होती है। यह दिग्भ्रमित बद्धजीव तथाकथित साधुओं एवं स्वामियों की भी शरण में जाता है जो वेदविरुद्ध उपदेश देते हैं। किन्तु इनसे उसे न तो वर्तमान में और न भविष्य में ही लाभ प्राप्त होता है।

14 बद्धजीव जब अन्यों का शोषण करते रहने पर भी इस भौतिक संसार में अपना निर्वाह नहीं कर पाता, तो वह अपने पिता या पुत्र का शोषण करने का प्रयास करता है और उनकी सम्पत्ति हर लेता है भले ही वे अति महत्वहीन ही क्यों न हों। यदि वह पिता, पुत्र या किसी अन्य सम्बन्धी की सम्पत्ति प्राप्त नहीं कर पाता तो यह उन्हें सभी प्रकार के कष्ट देने के लिए उद्यत हो उठता है।

15 इस संसार में गृहस्थाश्रम दावाग्नि के तुल्य है। इसमें तनिक भी सुख नहीं है और मनुष्य क्रमशः अधिकाधिक दुख में उलझता जाता है। पारिवारिक जीवन में चिरन्तन सुख के लिए कुछ भी अनुकूल नहीं होता। गृहस्थाश्रम में रहने के कारण बद्धजीव पश्चाताप की अग्नि से सन्तप्त रहता है। कभी वह अपने को अभागा मानते हुए कोसता है, तो कभी वह कहता है कि पूर्व जीवन में शुभ कर्म न करने के कारण ही वह कष्ट का भागी बन रहा है।

16 शासन-कर्मी सदैव नरभक्षी राक्षसों के सदृश होते हैं। ये शासन-कर्मी कभी-कभी बद्धजीव से रुष्ट हो जाते हैं और उसकी सारी संचित सम्पत्ति उठा ले जाते हैं। इस प्रकार अपने जीवन भर की संचित पूँजी को खोकर बद्धजीव हतोत्साहित हो जाता है। दरअसल, यह उसके लिए प्राणान्त के समान है।

17 कभी-कभी बद्धजीव यह कल्पना करने लगता है कि उसके पिता या बाबा अपने पुत्र या पौत्र के रूप में इस संसार में पुनः आ गए। इस प्रकार उन्हें स्वप्न का सा सुख अनुभव होता है और कभी-कभी बद्धजीव को ऐसी मानसिक कल्पनाओं में सुख मिलता है।

18 गृहस्थाश्रम में नाना प्रकार के यज्ञ तथा कर्मकाण्ड (विशेष रूप से पुत्र-पुत्रियों के लिए विवाह यज्ञ और यज्ञोपवीत संस्कार) करने होते हैं। ये सभी गृहस्थ के कर्तव्य हैं। ये अत्यन्त व्यापक होते हैं और इनको सम्पन्न करना कष्टदायक होता है। इनकी उपमा एक बड़ी पहाड़ी से दी जाती है, जिसे सांसारिक कर्मों में संलग्न होने पर लाँघना ही पड़ता है। जो व्यक्ति इन अनुष्ठानों पर विजय प्राप्त करना चाहता है उसे पहाड़ी में चढ़ते समय काँटों तथा कंकड़ों के चुभने से होने वाली पीड़ा का-सा अनुभव करना होता है। इस प्रकार बद्धजीव को अनन्त यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

19 कभी-कभी शारीरिक भूख और प्यास से त्रस्त बद्धजीव इतना विचलित हो जाता है कि उसका धैर्य टूट जाता है और वह अपने ही प्रिय पुत्रों, पुत्रियों तथा पत्नी पर रुष्ट हो जाता है। इस प्रकार निष्ठुर होने पर उसकी यातना और भी बढ़ जाती है।

20 श्रील शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित से आगे कहते हैं- प्रिय राजन, निद्रा अजगर के समान है। जो मनुष्य भौतिक जीवनरूप वन में विचरण करते रहते हैं उन्हें निद्रा-अजगर अवश्य ही निगल जाता है और उसके द्वारा डसे जाने के कारण वे अज्ञान–अंधकार में खोये रहते हैं। वे सुदूर वन में मृत शरीर की भाँति फेंक दिये जाते हैं। इस प्रकार बद्धजीव समझ नहीं पाता कि जीवन में क्या हो रहा है।

21 कभी-कभी भौतिक जगत रूपी वन में बद्धजीव सर्पों तथा अन्य जन्तुओं जैसे ईर्ष्यालु शत्रुओं के द्वारा दंशित होता रहता है। शत्रु के छलावे से बद्धजीव अपने प्रतिष्ठित पद से च्युत हो जाता है। चिन्ताग्रस्त होने से उसे ठीक से नींद तक नहीं आती। इस प्रकार वह अधिकाधिक दुखी होता जाता है और क्रमशः अपना ज्ञान तथा चेतना खो बैठता है। उसकी दशा उस स्थायी अंध पुरुष के समान हो जाती है जो अज्ञान के अंधकूप में गिर गया हो।

22 कभी-कभी बद्धजीव इन्द्रिय-तृप्ति से प्राप्त होने वाले क्षणिक सुख की ओर आकर्षित होता है। फलस्वरूप वह अवैध यौन-सम्पर्क में रत होता है अथवा पराये धन को चुराता है। ऐसी अवस्था में वह राजा द्वारा बन्दी बना लिया जाता है। या फिर उस स्त्री का पति या उसका संरक्षक उसे दण्डित करता है। इस प्रकार किंचित सांसारिक तुष्टि हेतु वह नारकीय स्थिति में जा पड़ता है और बलात्कार, अपहरण, चोरी तथा इसी प्रकार के कृत्यों के लिए कारागार में डाल दिया जाता है।

23 इसीलिए विद्वतजन तथा अध्यात्मवादीगण कर्म के भौतिक मार्ग (प्रवृत्ति) की भर्त्सना करते हैं, क्योंकि इस जन्म में तथा अगले जन्म में सांसारिक दुखों का आदि स्रोत तथा उसको पल्लवित करने की आधार भूमि वही है।

24 यह बद्धजीव पराये धन को चुराकर या ठगकर किसी तरह से उसे अपने पास रखता है और दण्ड से बच जाता है। तब देवदत्त नामक एक अन्य व्यक्ति इस धन को उससे ठग लेता है। इसी प्रकार विष्णुमित्र नामक एक तीसरा व्यक्ति यह धन देवदत्त से छीन लेता है। यह धन किसी भी दशा में एक स्थान पर टिकता नहीं है। यह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता है। अन्त में इसका कोई उपभोग नहीं कर पाता और यह श्रीभगवान की सम्पत्ति बन जाता है।

25 भौतिक जगत के तापत्रय से अपनी रक्षा न कर सकने के कारण बद्धजीव अत्यन्त दुखी रहता है और शोकपूर्ण जीवन बिताता है। ये तीन प्रकार के सन्ताप हैं–देवताओं द्वारा दिये जानेवाला मानसिक ताप, (यथा हिमानी हवा तथा चिलचिलाती धूप), अन्य जीवात्माओं द्वारा प्रदत्त ताप तथा मन एवं देह से उत्पन्न होने वाले ताप।

26 जहाँ तक धन के लेन-देन का सम्बन्ध है, यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे की एक कौड़ी या इससे भी कम धन ठग लेता है, तो वे परस्पर शत्रु बन जाते हैं।

27 इस भौतिक जगत में अनेकानेक कठिनाइयाँ आती हैं और ये सभी दुर्लंघ्य हैं। इनके अतिरिक्त तथाकथित सुख, दुख, राग, द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद, उन्माद, शोक, मोह, लोभ, मत्सर, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा, पिपासा, आधि, व्याधि तथा जन्म, जरा, मरण से उत्पन्न होने वाली बाधाएँ आती हैं। ये सभी मिलकर संसारी बद्धजीव को दुख के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे पातीं।

28 कभी-कभी बद्धजीव प्रमादवश मूर्तिमान माया (अपनी पत्नी या प्रेयसी) से आकर्षित होकर स्त्री द्वारा आलिंगन किये जाने के लिए व्याकुल हो उठता है। इस प्रकार वह अपनी बुद्धि तथा जीवन-उद्देश्य के ज्ञान को खो देता है। उस समय वह आध्यात्मिक अनुशीलन का प्रयास न करके अपनी पत्नी या प्रेयसी में अत्यधिक अनुरक्त हो जाता है और उसके लिए उपयुक्त गृह आदि उपलब्ध कराने का प्रयत्न करता है, फिर वह इस घरबार में अत्यधिक व्यस्त हो जाता है और अपनी पत्नी तथा बच्चों की बातों, चितवनों तथा कार्य-कलापों में फँस जाता है। इस प्रकार वह कृष्णभावनामृत से वंचित होकर लौकिक अस्तित्व के गहन अंधकार में गिर जाता है।

29 श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त निजी आयुध हरिचक्र कहलाता है। यह चक्र कालचक्र है। यह परमाणुओं से लेकर ब्रह्मा की मृत्युपर्यन्त फैला हुआ है और यह समस्त कर्मों को नियंत्रित करने वाला है। यह निरन्तर घूमता रहता है और ब्रह्माजी से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृण तक सभी जीवात्माओं का संहार करता है। इस प्रकार प्राणी बाल्यपन से यौवन तथा प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त करते हुए जीवन के अन्त तक पहुँच जाता है। काल के इस चक्र को रोक पाना असम्भव है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का निजी आयुध होने के कारण यह अत्यन्त कठोर है। कभी-कभी बद्धजीव मृत्यु को निकट आया जानकर ऐसे व्यक्ति की पूजा करने लगता है जो उसे आसन्न संकट से उबार सके। वह ऐसे श्रीभगवान की परवाह नहीं करता जिनका आयुध अथक काल है। उल्टे वह अप्रामाणिक शास्त्रों में वर्णित मानवनिर्मित देवताओं की शरण में जाता है। ऐसे देवता बाज, गीध, बगुले तथा कौवे के तुल्य हैं। वैदिक शास्त्रों में इनका वर्णन नहीं मिलता। पास खड़ी मृत्यु शेर के आक्रमण की तरह है, जिससे न तो गीध, बाज, कौवे और न ही बगुले बच सकते हैं। जो पुरुष ऐसे अप्रामाणिक मानवनिर्मित देवताओं की शरण में जाता है उसे मृत्यु के चंगुल से नहीं छुड़ाया जा सकता।

30 ऐसे छद्म-स्वामी, योगी तथा अवतारी जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में विश्वास नहीं करते, पाखण्डी कहलाते हैं। वे स्वयं पतित होते हैं और ठगे जाते हैं, क्योंकि वे आध्यात्मिक उन्नति का वास्तविक मार्ग नहीं जानते, अतः उनके पास जो भी जाता है, वही ठगा जाता है। इस प्रकार से ठगे जाने पर वह कभी-कभी वैदिक नियमों के असली उपासकों (ब्राह्मणों अथवा कृष्णभावनामृत वालों) की शरण में जाता है, जो सबों को वेदोक्त आचार से श्रीभगवान की उपासना करना सिखाते हैं। किन्तु इन रीतियों का पालन न कर सकने के कारण ये धूर्त पुनः पतित होते हैं और शूद्रों की शरण लेते हैं, जो विषयभोग में मग्न रहने में पटु हैं। वानर जैसे ऐसे विषयासक्त व्यक्तियों को वानर की सन्तान कहा जा सकता है।

31 इस प्रकार वानरों की सन्तानें एक दूसरे से घुलती-मिलती है और सामान्य रूप से शूद्र कहलाती हैं। मुक्त भाव से वे जीवन का उद्देश्य समझे बिना स्वच्छन्द विहार करती हैं। वे एक दूसरे के मुख को देखकर ही मुग्ध होती रहती हैं, क्योंकि इससे इन्द्रिय-तुष्टि की स्मृति बनी रहती हैं। वे निरन्तर सांसारिक कर्म में लगी रहती हैं, जिसे "ग्राम्य-कर्म" कहते हैं और भौतिक लाभ के लिए कठिन श्रम करती हैं। इस प्रकार वे भूल जाती हैं कि एक दिन उनकी लघु जीवन-अवधि समाप्त हो जाएगी और वे आवागमन के चक्र में नीचे गिर जाएँगी।

32 जिस प्रकार वानर एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर कूदता रहता है, उसी प्रकार बद्धजीव एक देह से दूसरी में जाता रहता है। जब कोई शिकारी अन्ततोगत्वा वानर को बन्दी बना लेता है, तो वह छूटकर निकल नहीं पाता। उसी प्रकार यह बद्धजीव क्षणिक इन्द्रिय तृप्ति में फँसकर भिन्न-भिन्न प्रकार की देहों से आसक्त होकर गृहस्थ जीवन में बद्ध जाता है। गृहस्थ जीवन में बद्धजीव को क्षणिक इन्द्रियसुख का आनन्द प्राप्त होता है और इस प्रकार वह सांसारिक चंगुल से निकलने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है।

33 बद्धजीव इस भौतिक जगत में भगवान के साथ अपने सम्बन्ध को भूलकर तथा श्रीकृष्णभावनामृत की परवाह किये बिना अनेकानेक दुष्कर्मों एवं पापों में प्रवृत्त होने लगता है। तब उसे ताप-त्रय से पीड़ित होना पड़ता है और वह मृत्यु रूपी हाथी के भय से पर्वत की गुफा के घनान्धकार में जा गिरता है।

34 बद्धजीव को अनेक दैहिक कष्ट सहने पड़ते हैं यथा अत्यधिक ठण्ड तथा तेज हवा। वह अन्य जीवात्माओं के कार्यकलापों तथा प्राकृतिक प्रकोपों के कारण भी कष्ट उठाता है। जब वह उनका सामना करने में अक्षम होकर दयनीय अवस्था में रहता है, तो स्वभावतः वह अत्यन्त खिन्न हो उठता है, क्योंकि वह सांसारिक सुविधाओं का भोग करना चाहता है।

35 कभी-कभी बद्धजीव परस्पर आदान-प्रदान करते हैं, किन्तु कालान्तर में ठगी के कारण उनमें शत्रुता उत्पन्न हो जाती है। भले ही रंचमात्र लाभ हो, बद्धजीव परस्पर मित्र न रहकर एक दूसरे के शत्रु बन जाते हैं।

36 कभी-कभी धनाभाव के कारण बद्धजीव को पर्याप्त स्थान प्राप्त करने में कठिनाई होती है। कभी तो उसे बैठने तक के लिए स्थान नहीं मिल पाता, न ही उसे अन्य आवश्यक वस्तुएँ ही प्राप्त होती हैं। दूसरे शब्दों में, वह अभाव का अनुभव करता है और नैतिक साधनों से इन आवश्यकताओं को न प्राप्त कर पाने के कारण वह अनैतिक ढंग से दूसरों की सम्पत्ति का अपहरण करता है। जब उसे वांछित वस्तुएँ प्राप्त नहीं हो पातीं वह दूसरों से अपमान ही प्राप्त करता है, जिससे वह अत्यन्त खिन्न हो उठता है।

37 अपनी इच्छाओं की बारम्बार पूर्ति के लिए मनुष्य परस्पर शत्रु होने पर भी कभी-कभी विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। दुर्भाग्यवश ये विवाह दीर्घकाल तक नहीं चल पाते और ऐसे लोग तलाक या अन्य कारणों से पुनः विलग हो जाते हैं।

38 इस भौतिक जगत का मार्ग क्लेशमय है और बद्धजीव को अनेक कष्ट विचलित करते रहते हैं। कभी वह हारता है तो कभी जीतता है। प्रत्येक दशा में यह मार्ग विघ्नों से परिपूर्ण है। कभी बद्धजीव अपने पिता से मृत्यु होने या अन्य कारणों से विलग हो जाता है। वह उसे छोड़कर क्रमशः अन्यों से, यथा अपनी सन्तान से आसक्त हो जाता है। इस प्रकार बद्धजीव कभी-कभी भ्रमित और कभी भय के मारे जोर जोर से चीत्कार करता है। कभी वह अपने परिवार का भरण करते हुए प्रसन्न होता है, तो कभी अत्यधिक प्रसन्न हो जाता है और सुरीले गीत गाता है। इस तरह वह अनन्त काल से श्रीभगवान के विछोह को भूलकर अपने में बँधता जाता है। उसे भौतिक जगत के भयानक पथ पर चलना तो पड़ता है, किन्तु वह इस पथ पर तनिक भी सुखी नहीं होता। स्वरूप-सिद्ध मनुष्य इस भयानक पथ से छूटने के निमित्त श्रीभगवान की शरण ग्रहण करते हैं। भक्तिमार्ग को स्वीकार किये बिना भौतिक जगत के चंगुल से कोई नहीं निकल पाता। तात्पर्य यह है कि इस भौतिक जीवन में कोई भी प्रसन्न नहीं हो सकता है। उसे कृष्णभावनामृत का आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए।

39 समस्त जीवात्माओं के मित्र मुनिजन संयतात्मा होते हैं। वे अपनी इन्द्रियों एवं मन को वश में कर चुके होते हैं और उन्हें मुक्तिपथ, जो श्रीभगवान तक पहुँचने का मार्ग है, सरलतापूर्वक प्राप्त होता है। क्लेशमय भौतिक परिस्थितियों में संलग्न रहने तथा हतभाग्य होने के कारण भौतिकतावादी व्यक्ति मुनिजनों की संगति नहीं कर पाता।

40 साधु प्रकृति वाले ऐसे अनेक महान राजर्षि हो चुके हैं, जो यज्ञ अनुष्ठान में अत्यन्त प्रवीण तथा अन्य राज्यों को जीतने में परम कुशल थे, किन्तु इतनी शक्ति होने पर भी भगवान की प्रेमाभक्ति नहीं कर पाये, क्योंकि वे महान राजा, “मैं देह-स्वरूप हूँ और यह मेरी सम्पत्ति है" इस मिथ्या बोध को भी नहीं जीत पाये थे। इस प्रकार उन्होंने प्रतिद्वन्द्वी राजाओं से केवल शत्रुता मोल ली, उनसे युद्ध किया और वे जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पूरा किये बिना दिवंगत हो गए।

41 सकाम कर्म रूपी लता की शरण स्वीकार कर लेने पर बद्धजीव अपने पवित्र कार्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त हो सकता है और इस तरह नारकीय स्थिति से तो उसे मुक्ति मिल सकती है, किन्तु वह दुर्भाग्यवश वहाँ रह नहीं पाता। अपने पवित्र कार्यों का फल भोगने के बाद उसे निम्न लोकों में लौटना पड़ता है। इस प्रकार वह निरन्तर ऊपर और नीचे आता-जाता रहता है।

42 जड़भरत के उपदेशों का सार सुना चुकने के पश्चात श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: प्रिय राजा परीक्षित, जड़भरत द्वारा निर्दिष्ट पथ श्रीभगवान के वाहन गरुड़ द्वारा अनुगमन किये गए पथ के तुल्य है और सामान्य राजागण मक्खियों के समान हैं। मक्खियाँ गरुड़ के पथ पर नहीं जा सकतीं। आज तक बड़े-बड़े राजाओं तथा विजयी नेताओं में से किसी ने भी भक्ति-पथ का अनुसरण नहीं किया मानसिक रूप से भी नहीं।

43 महाराज भरत ने अपनी युवावस्था में ही सब कुछ परित्याग कर दिया, क्योंकि वे उत्तमश्लोक श्रीभगवान की सेवा करना चाहते थे। उन्होंने अपनी सुन्दर पत्नी, उत्तम सन्तान, प्रिय मित्र तथा अपने विशाल साम्राज्य का परित्याग कर दिया। यद्यपि इन वस्तुओं का त्याग कर पाना अत्यन्त कठिन होता है, किन्तु जड़भरत इतने उच्चस्थ थे कि उन्होंने इनको उस तरह से त्याग दिया जैसे मल त्याग के पश्चात विष्ठा को त्याग दिया जाता है।

44 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं – हे राजन, भरत महाराज के कार्य आश्चर्य-जनक हैं। उन्होंने अपनी प्रत्येक वस्तु का परित्याग कर दिया जो अन्यों के लिए दुष्कर है। उन्होंने अपना साम्राज्य, पत्नी तथा परिवार त्याग दिया। उनका वैभव इतना प्रभूत था कि देवताओं को भी ईर्ष्या होती थीं, किन्तु उसका भी उन्होंने परित्याग कर दिया। उनके समान महान पुरुष के लिए महान भक्त होना सर्वथा उपयुक्त था। वे प्रत्येक वस्तु का इसलिए परित्याग कर सके, क्योंकि वे भगवान श्रीकृष्ण के छ:(षट) ऐश्वर्य यथा – सम्पूर्ण सौन्दर्य, ऐश्वर्य, यश, ज्ञान, शक्ति तथा त्याग के प्रति अत्यन्त अनुरक्त थे। कृष्ण इतने आकर्षक हैं कि उनके लिए समस्त इष्ट वस्तुओं का परित्याग किया जा सकता है। जिनके चित्त भगवान की सेवा के प्रति आकृष्ट हैं, वे मुक्ति को भी तुच्छ मानते हैं।

45 मृग देह धारण करने पर भी महाराज भरत ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को विस्मृत नहीं किया, अतः जब वे मृग देह छोड़ने लगे तो उच्च स्वर से इस प्रकार प्रार्थना की, “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान साक्षात यज्ञ पुरुष हैं। वे अनुष्ठानों का फल देने वाले हैं। वे धर्म रक्षक, योगस्वरूप, सर्वज्ञानस्रोत (सांख्य के प्रतिपाद्य), सम्पूर्ण सृष्टि के नियामक तथा प्रत्येक जीवात्मा में स्थित परमात्मा हैं। वे सुन्दर तथा आकर्षक हैं। मैं उनको नमस्कार करके यह देह त्याग रहा हूँ और आशा करता हूँ कि उनकी दिव्य सेवा में अहर्निश संलग्न रहूँगा।" यह कह कर महाराज भरत ने अपना शरीर त्याग दिया।

46 श्रवण तथा कीर्तन के अनुरागी भक्त नियमित रूप से भरत महाराज के गुणों की विवेचना तथा उनके कर्मों की प्रशंसा करते हैं। यदि कोई विनीत भाव से सर्व कल्याणमय महाराज भरत के विषय में श्रवण तथा कीर्तन करता है, तो उसकी आयु तथा सांसारिक वैभव में वृद्धि होती है। वह अत्यन्त प्रसिद्ध हो सकता है और सरलता से स्वर्ग अथवा श्रीभगवान में एकाकार होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। महाराज भरत के कर्मों के श्रवण, कीर्तन तथा स्तवन मात्र से मनोवांछित फल मिलता है। इस प्रकार मनुष्य की समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। इन वस्तुओं के लिए और किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि महाराज भरत के जीवन के अध्ययन मात्र से सभी वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय तेरह - राजा रहूगण तथा जड़ भरत के बीच और आगे वार्ता (5.13)

1 ब्रह्म-साक्षात्कार प्राप्त जड़ भरत ने आगे कहा: हे राजा रहूगण, जीवात्मा इस संसार के दुर्लंघ्य पथ पर घूमता रहता है और बारम्बार जन्म तथा मृत्यु स्वीकार करता है। प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रज तथा तम) के प्रभाव से इस संसार के प्रति आकृष्ट होकर जीवात्मा प्रकृति के जादू से केवल तीन प्रकार के फल जो शुभ, अशुभ तथा शुभाशुभ होते हैं देख पाता है। इस प्रकार वह धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति की अद्वैत भावना (परमात्मा में तादात्म्य) के प्रति आसक्त हो जाता है। वह उस वणिक के समान अहर्निश कठोर श्रम करता है जो कुछ सामग्री प्राप्त करने और उससे लाभ उठाने के उद्देश्य से जंगल में प्रवेश करता है। किन्तु उसे इस संसार में वास्तविक सुख उपलब्ध नहीं हो पाता।

2 हे राजा रहूगण, इस संसार रूपी जंगल (भवाटवी) में छह अत्यन्त प्रबल लुटेरें हैं। जब बद्धजीव कुछ भौतिक लाभ के हेतु इस जंगल में प्रवेश करता है, तो ये छहों लुटेरे उसे गुमराह कर देते हैं। इस प्रकार से बद्ध वणिक (व्यापारी), यह नहीं समझ पाता कि वह अपने धन को किस प्रकार खर्चे और यह धन इन लुटेरों द्वारा छीन लिया जाता है। जिस प्रकार चौकसी में पाले मेमने को उठा ले जाने के लिए जंगल में भेड़िए, सियार तथा अन्य हिंस्र पशु रहते हैं उसी प्रकार पत्नी तथा सन्तान उस वणिक के हृदय में प्रवेश करके अनेक प्रकार से लूटते रहते हैं।

3 इस जंगल में झाड़ियों, घास तथा लताओं के झाड़-झंखाड़ से बने सघन कुन्जों में बुरी तरह से काटने वाले मच्छरों (ईर्ष्यालु पुरुषों) के होने से बद्धजीव निरन्तर परेशान रहता है। कभी कभी उसे जंगल में काल्पनिक महल (गन्धर्वपुर) दिखता है, तो कभी कभी आसमान से टूटते उल्का के समान प्रेत को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।

4 हे राजन, इस संसार रूपी जंगल के मार्ग में घर, सम्पत्ति, कुटुम्बी इत्यादि से भ्रमित बुद्धि वाला वणिक सफलता की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को दौड़ता रहता है। कभी-कभी उसकी आँखें बवंडर की धूल से ढक जाती हैं, अर्थात कामवश वह अपनी स्त्री की सुन्दरता के प्रति, मुग्ध हो जाता है। इस प्रकार अन्धा होने से उसे यह नहीं दिखाई पड़ता कि उसे कहाँ जाना है, अथवा वह क्या कर रहा है।

5 संसार रूपी जंगल में घूमते हुए बद्धजीव को कभी-कभी अदृश्य झींगुरों की तीक्ष्ण ध्वनि सुनाई पड़ती है जो उसके कानों को अत्यन्त दुखदायी लगती है। कभी-कभी उसका हृदय अपने शत्रुओं के कटु वचनों जैसी प्रतीत होने वाली उल्लुओं की ध्वनि से व्यथित (विचलित) हो उठता है। कभी वह बिना फल फूल वाले वृक्षों का आश्रय ग्रहण करता है क्योंकि वह भूखा होता है, किन्तु उसे कुछ न मिलने से कष्ट भोगना पड़ता है। उसे जल की इच्छा होती है किन्तु वह केवल मृगतृष्णा से मोहित हो जाने के कारण उसके पीछे दौड़ता है।

6 कभी-कभी बद्धजीव उथली नदी में कूद पड़ता है अथवा खाद्यान्न न होने पर ऐसे लोगों से अन्न माँगता है जो दानी नहीं, हैं ही नहीं। कभी-कभी वह गृहस्थ जीवन की अग्नि से जलने लगता है जो दावाग्नि जैसी होती है और कभी-कभी वह उस सम्पत्ति के लिए दुखी हो उठता है जो उसे प्राणों से भी प्रिय है और जिसका अपहरण राजा लोग भारी आयकर के नाम पर करते हैं।

7 कभी-कभी अपने से बड़े तथा बलवान व्यक्ति द्वारा पराजित होने अथवा लूटे जाने पर जीवात्मा की सारी सम्पत्ति चली जाती है। इससे वह दुखी हो जाता है, क्षति पर पश्चाताप करता है यहाँ तक कि कभी-कभी अचेत भी हो जाता है। कभी-कभी वह ऐसे विशाल प्रासाद की कल्पना करने लगता है, जिसमें वह अपने परिवार तथा अपने धन समेत सुखपूर्वक रह सके। यदि ऐसा हो सके तो वह अपने को अत्यन्त संतुष्ट समझता है, किन्तु ऐसा तथाकथित सुख क्षणिक होता है।

8 कभी-कभी जंगल का व्यापारी पर्वतों तथा पहाड़ियों के ऊपर चढ़ना चाहता है, किन्तु अपर्याप्त पदत्राण के कारण उसके पैरों में कंकड़ तथा काँटे गड़ जाते हैं जिससे वह अत्यन्त उदास हो जाता है। कोई व्यक्ति जो अपने परिवार के प्रति आसक्त होता है, वह कभी-कभी जब अत्यधिक भूख के मारे त्रस्त हो जाता है, तो वह अपनी दयनीय स्थिति के कारण अपने कुटुम्बियों पर विफर उठता है।

9 कभी-कभी इस भौतिक जंगल में बद्धजीवों को अजगर निगल लेते हैं या मरोड़ डालते हैं। ऐसी अवस्था में वह चेतना तथा ज्ञान शून्य होकर (मृत व्यक्ति तुल्य) जंगल में पड़ा रहता है। कभी-कभी अन्य विषैले सर्प भी आकर काट लेते हैं। अचेतन होने के कारण वह नारकीय जीवन के अन्धे कूप में गिर जाता है जहाँ से बचकर निकल पाने की कोई आशा नहीं रहती।

10 कभी-कभी थोड़े से रति-सुख के लिए मनुष्य स्त्री की खोज करता रहता है। इस प्रयास में उस स्त्री के सम्बन्धियों द्वारा उसका अपमान एवं प्रताड़न होता है। यह वैसा ही है जैसा कि मधुमक्खी के छत्ते से शहद (मधु) निकालते समय मक्खियाँ आक्रमण कर दें। कभी-कभी प्रचुर धन व्यय करने पर उसे कुछ अतिरिक्त इन्द्रिय भोग के लिए दूसरी स्त्री प्राप्त हो सकती है। किन्तु दुर्भाग्यवश इन्द्रिय सुख की सामग्री रूप वह स्त्री चली जाती है, अथवा किसी अन्य कामी द्वारा अपहरण कर ली जाती है।

11 कभी-कभी जीवात्मा बर्फीली ठण्ड, कड़ी गर्मी, तेज हवा, अति-वृष्टि इत्यादि प्राकृतिक उत्पातों का सामना करने में लगा रहता है। किन्तु जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो अत्यन्त दुखी हो जाता है। कभी-कभी वह एक के बाद एक व्यावसायिक लेन-देन में ठगा जाता है। इस प्रकार ठगे जाने पर जीवात्माएँ एक दूसरे से शत्रुता ठान लेती है।

12 संसार के जंगली मार्ग में कभी-कभी व्यक्ति धनहीन हो जाता है, जिसके कारण उसके पास न समुचित घर न बिस्तर या बैठने का स्थान होता है, न ही समुचित पारिवारिक सुख ही उपलब्ध हो पाता है। अतः वह अन्यों से धन माँगता है, किन्तु जब माँगने पर भी उसकी इच्छाएँ अपूर्ण रहती हैं, तो वह या तो उधार लेना चाहता है या फिर अन्यों की सम्पत्ति चुराना चाहता है। इस तरह वह समाज में अपमानित होता है।

13 आर्थिक लेन-देन के कारण सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न होती है, जिसका अन्त शत्रुता में होता है। कभी पति-पत्नी भौतिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं और अपने सम्बन्ध बनाये रखने के लिए वे कठोर श्रम करते हैं, तो कभी धनाभाव अथवा रुग्ण दशा के कारण वे अत्यधिक चिन्तित रहकर मरणासन्न हो जाते हैं।

14 हे राजन, भौतिक जीवन रूपी जंगल के मार्ग में मनुष्य पहले अपने पिता तथा माता को खोता है और उनकी मृत्यु के बाद वह नवजात बच्चों में आसक्त हो जाता है। इस तरह वह भौतिक प्रगति के मार्ग में घूमता रहता है और अन्त में अत्यन्त व्यथित हो जाता है। किसी को मृत्यु के क्षण तक यह पता नहीं चल पाता कि वह उससे किस प्रकार निकले।

15 ऐसे अनेक राजनैतिक तथा सामाजिक वीर पुरुष हैं और थे जिन्होंने सम-शक्ति वाले शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है, तो भी वे अज्ञानवश यह विश्वास करके कि यह भूमि उनकी है परस्पर लड़ते हैं और युद्धभूमि में अपने प्राण गँवाते हैं। वे संन्यासियों के द्वारा स्वीकृत आध्यात्मिक पथ को ग्रहण कर सकने में अक्षम रहते हैं। वीर पुरुष तथा राजनैतिक नेता होते हुए भी वे आत्म-साक्षात्कार का पथ नहीं अपना सकते हैं।

16 कभी-कभी जीवात्मा संसार रूपी जंगल में लताओं का आश्रय लेता है और उन लताओं पर बैठे पक्षियों की चहचहाहट सुनना चाहता है। जंगल के सिंहों की दहाड़ से भयभीत होकर वह बगुलों, सारसों तथा गिद्धों से मैत्री स्थापित करता है।

17 संसार रूपी जंगल में तथाकथित योगियों, स्वामियों तथा अवतारों से ठगा जाकर जीवात्मा उनकी संगति छोड़कर असली भक्तों की संगति में आने का प्रयत्न करता है, किन्तु दुर्भाग्यवश वह सद्गुरु या परम भक्त के उपदेशों का पालन नहीं कर पाता, अतः वह उनकी संगति छोड़कर पुनः बन्दरों की संगति में वापस आ जाता है जो मात्र इन्द्रिय-तृप्ति तथा स्त्रियों में रुचि रखते हैं। वह इन विषयीजनों की संगति में काम और मद्यपान में लगा रहकर तुष्ट हो लेता है। इस तरह वह काम और मद्यसेवन से अपना जीवन नष्ट कर देता है। वह अन्य विषयीजनों के मुखों को देख-देख कर भूला रहता है और मृत्यु निकट आ जाती है।

18 जब जीवात्मा एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूदने वाले बन्दर के सदृश बन जाता है, तो गृहस्थ जीवन के वृक्ष में मात्र विषय सुख के लिए रहता है। इस प्रकार वह अपनी पत्नी से वैसे ही पाद-प्रहार पाता है जैसे कि गधा गधी से। मुक्ति का साधन न पाने के कारण वह असहाय बनकर उसी अवस्था में रहता है। कभी-कभी उसे असाध्य रोग हो जाता है जो पर्वत की गुफा में गिरने जैसा है। वह इस गुफा के पीछे रहने वाले मृत्यु रूपी हाथी से भयभीत हो उठता है और लताओं की टहनियाँ पकड़े रहकर लटका रहता है।

19 हे शत्रुओं के संहारक, महाराज रहूगण, यदि बद्धजीव किसी प्रकार से इस भयानक स्थिति से उबर आता है, तो वह पुनः विषयी जीवन बिताने के लिए अपने घर को लौट जाता है, क्योंकि वही आसक्ति का मार्ग है। इस प्रकार ईश्वर की माया से वशीभूत वह संसार रूपी जंगल में घूमता रहता है। मृत्यु के निकट पहुँच कर भी उसे अपने वास्तविक हित का पता नहीं चल पाता।

20 हे राजा रहूगण, तुम भी भौतिक सुख के प्रति आकर्षण-मार्ग में स्थित होकर माया के शिकार हो। मैं तुम्हें राज पद तथा उस दण्ड का जिससे अपराधियों को दण्डित करते हो परित्याग करने की सलाह देता हूँ जिससे तुम समस्त जीवात्माओं के सुहृद (मित्र) बन सको। विषयभोगों को त्याग कर अपने हाथ में भक्ति के द्वारा धार लगायी गयी ज्ञान की तलवार को धारण करो। तब तुम माया की कठिन ग्रंथि को काट सकोगे और अज्ञानता के सागर को पार करके दूसरे छोर पर जा सकोगे।

21 राजा रहूगण ने कहा: यह मनुष्य जन्म समस्त योनियों में श्रेष्ठ है। यहाँ तक कि स्वर्ग में देवताओं के बीच जन्म लेना उतना यशपूर्ण नहीं जितना कि इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्म लेना। तो फिर देवता जैसे उच्च पद का क्या लाभ? स्वर्गलोक में अथाह भोग-सामग्री के कारण देवताओं को भक्तों की संगति का अवसर ही नहीं मिलता।

22 यह कोई विचित्र बात नहीं है कि केवल आपके चरणकमलों की धूलि से धूसरित होने से मनुष्य तुरन्त विशुद्ध भक्ति के अधोक्षज पद को प्राप्त होता है जो ब्रह्मा जैसे महान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। आपके क्षणमात्र के समागम से अब मैं समस्त तर्कों, अहंकार तथा अविवेक से मुक्त हो गया हूँ जो इस भौतिक जगत में बन्धन के मूल कारण हैं। मैं अब इन समस्त झंझटों से मुक्त हूँ।

23 मैं उन महापुरुषों को नमस्कार करता हूँ जो इस धरातल पर शिशु, तरुण बालक, अवधूत या महान ब्राह्मण के रूप में विचरण करते हैं। यदि वे विभिन्न वेशों में छिपे हुए हैं, तो भी मैं उन सबको नमस्कार करता हूँ। उनके अनुग्रह से उनका अपमान करने वाले राजवंशों का कल्याण हो।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, हे उत्तरा-पुत्र, राजा रहूगण द्वारा अपनी पालकी ढोये जाने के लिए बाध्य किये जाने से अपमानित होकर जड़ भरत के मन में असन्तोष की कुछ-कुछ लहरें थीं, किन्तु उन्होंने इनकी उपेक्षा की और उनका हृदय पुनः सागर के समान शान्त हो गया। यद्यपि राजा रहूगण ने उनका अपमान किया, किन्तु वे महान परमहंस थे। वैष्णव होने के नाते वे परम दयालु थे, अतः उन्होंने राजा को आत्मा की वास्तविक स्वाभाविक स्थिति बतलाई। तब उन्हें अपमान भूल गया, क्योंकि राजा रहूगण ने विनीत भाव से उनके चरणकमलों पर क्षमा माँग ली थी। इसके बाद वे पुनः पूर्ववत सारे विश्व का भ्रमण करने लगे।

25 परम भक्त जड़ भरत से उपदेश ग्रहण करने के पश्चात सौवीर का राजा रहूगण आत्मा की स्वाभाविक स्थिति से पूर्णतया परिचित हो गया। उसने देहात्मबुद्धि का सर्वश: परित्याग कर दिया। हे राजन, जो भी ईश्वर के भक्त के दास की शरण ग्रहण करता है, वह धन्य है, क्योंकि वह बिना कठिनाई के देहात्मबुद्धि त्याग सकता है। 

26 तब राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से कहा: हे स्वामी, हे परम भक्त साधु, आप सर्वज्ञाता हैं। आपने जंगल के वणिक के रूप में बद्धजीव की स्थिति का अत्यन्त मनोहर वर्णन किया है। इन उपदेशों से कोई भी बुद्धिमान मनुष्य समझ सकता है कि देहात्मबुद्धि वाले पुरुष की इन्द्रियाँ उस जंगल में चोर-उचक्कों सी हैं और उसकी पत्नी तथा बच्चे सियार तथा अन्य हिंस्र पशुओं के तुल्य हैं। किन्तु अल्पज्ञानियों के लिए इस आख्यान को समझ पाना सरल नहीं है क्योंकि इस रूपक का सही-सही अर्थ निकाल पाना कठिन है। अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इसका अर्थ स्पष्ट करके बताएँ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बारह – महाराज रहूगण तथा जड़ भरत की वार्ता (5.12)

1 राजा रहूगण ने कहा: हे महात्मन, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से अभिन्न है। आपके प्रभाव से शास्त्रों के समस्त विरोधाभास दूर हो गये हैं। आप ब्रह्म-बन्धु के वेश में अपने दिव्य आनन्दमय स्वरूप को छिपाए हुए हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

2 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मेरा शरीर मल से पूर्ण और मेरी दृष्टि गर्व रूपी सर्प द्वारा दंशित है। अपनी भौतिक बुद्धि के कारण मैं रुग्ण हूँ। इस प्रकार के ज्वर से पीड़ित व्यक्ति के लिए आपके अमृतमय उपदेश वैसे ही हैं जैसे की धूप (लू) से झुलसे हुए व्यक्ति के लिए शीतल जल होता है।

3 यदि किसी विशेष विषय पर मेरी शंकाएँ रह गई हैं, तो मैं उनके सम्बन्ध में आपसे बाद में पूछूँगा। किन्तु इस समय आपने आत्म-साक्षात्कार के लिए जो गूढ़ योग के उपदेश दिये हैं उनको समझ पाना कठिन है। कृपया उन्हें सरल रीति से पुनः कहें जिससे मैं उन्हें समझ सकूँ । मेरा मन अत्यन्त उत्सुक है और मैं इसे भलीभाँति समझ लेना चाहता हूँ।

4 हे योगेश्वर, आपने कहा है कि शरीर को इधर-उधर हिलाने-डुलाने से उत्पन्न थकान अनुभवगम्य हैं, किन्तु वास्तव में कोई थकान नहीं रहती। वह तो कहने के लिए होती है। ऐसे प्रश्नोत्तरों से परम सत्य के विषय में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। आपके इस कथन से मेरा मन कुछ-कुछ विचलित है।

5-6 स्वरूपसिद्ध ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा: अनेक भौतिक संयोगों में विविध रूप तथा पार्थिव रूपान्तर विद्यमान हैं। कुछ कारणवश ये पृथ्वी पर हिलते-डुलते हैं और पालकीवाहक (कहार) कहलाते हैं। इनमें से वे रूपान्तर जो गति नहीं करते वे पत्थर जैसे स्थूल पदार्थ हैं। प्रत्येक दशा में यह भौतिक देह पाँव, टखना, पिण्डली, घुटना, जाँघ, कमर, गर्दन तथा सिर के रूप में मिट्टी तथा पत्थर से बनी है। इसके कंधों के ऊपर काठ की पालकी रखी है और उसके भीतर सौवीर का राजा बैठा है। राजा का शरीर मिट्टी का अन्य रूपान्तर मात्र है, किन्तु उस शरीर के भीतर आप स्थित हैं और अहंकारवश अपने को सौवीर राज्य का राजा मान रहे हैं।

7 किन्तु यह सच है कि बेगारी में तुम्हारी पालकी ले जाने वाले ये निर्दोष व्यक्ति इस अन्याय के कारण कष्ट उठा रहे हैं। उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय है, क्योंकि तुमने अपनी पालकी ले जाने के लिए जबरन उन्हें लगा रखा है। इससे सिद्ध होता है कि तुम क्रूर तथा निर्दय हो। तो भी अहंकारवश तुम यह सोच रहे थे कि तुम प्रजा के रक्षक हो। यह हास्यास्पद है। तुम जैसे मूर्ख को ज्ञानी पुरुषों की सभा में भला कौन महान पुरुष मान सकता है।

8 हम इस पृथ्वी के ऊपर विभिन्न रूपों में जीवात्माएँ हैं। हममें से कुछ गतिशील है, तो कुछ गति नहीं करते। हम सभी उत्पन्न होते हैं, कुछ समय तक रहते हैं और नष्ट हो जाने पर पृथ्वी में पुनः मिल जाते हैं। हम सभी पृथ्वी के विभिन्न रूपान्तर (पार्थिव) हैं, विभिन्न शरीर तथा उपाधियाँ पृथ्वी के रूपान्तर मात्र हैं और नाम के लिए ही विद्यमान रहती हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु पृथ्वी से निकलती है और जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है, तो वह फिर पृथ्वी में मिल जाती है। दूसरे शब्दों में, हम केवल धूल हैं और धूल ही रहेंगे। सबों को इस पर विचार करना चाहिए।

9 कोई यह कह सकता है कि विविधता तो स्वयं पृथ्वी से उत्पन्न होती है। तथापि यह ब्रह्माण्ड भले ही थोड़े समय तक सत्य प्रतीत हो पर वास्तव में इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह पृथ्वी मूलतः सूक्ष्म कणों के संयोग से उत्पन्न हुई थी, किन्तु ये कण अस्थायी हैं। वास्तव में परमाणु ब्रह्माण्ड का कारण नहीं, यद्यपि कुछ दार्शनिक ऐसा सोचते हैं। यह सत्य नहीं है कि इस संसार में पाई जाने वाली विविधता (किस्में) परमाणुओं के उलट-पुलट या विविध संयोगों का प्रतिफल है।

10 चूँकि इस ब्रह्माण्ड का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, अतः इसके भीतर की वस्तुएँ यथा – लघुता, अन्तर, स्थूलता, कृशता, सूक्ष्मता, विशालता, परिणाम, कारण, कार्य, चेतना तथा द्रव्य-ये सब काल्पनिक हैं। ये एक ही वस्तु – मिट्टी के बने पात्र हैं, किन्तु इनके नाम भिन्न-भिन्न हैं। ये अन्तर पदार्थ, प्रकृति, आशय, काल तथा क्रिया (कर्म) द्वारा जाने जाते हैं। तुम्हें जानना चाहिए कि ये प्रकृति द्वारा उत्पन्न यांत्रिक अभिव्यक्तियाँ हैं।

11 तो फिर परम सत्य क्या है? उत्तर है अद्वैत ज्ञान जो भौतिक गुणों के कल्मष से रहित है। वह मुक्तिप्रदायक है। वह अद्वितीय, सर्वव्यापी तथा कल्पनातीत है। उस ज्ञान की प्रथम प्रतीति ब्रह्म है। फिर योगियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला परमात्मा है। जो बिना किसी कष्ट के उसे देखने का प्रयास करते हैं यह प्रतीति की दूसरी अवस्था है। अन्त में परम पुरुष में ही उसी परम ज्ञान की पूर्ण प्रतीति की जाती है। सभी विद्वान परम पुरुष को वासुदेव के रूप में वर्णन करते हैं, जो ब्रह्म, परमात्मा आदि का कारण है।

12 हे राजा रहूगण, महापुरुषों की चरणकमलों की धूलि से सम्पूर्ण शरीर को मलने के बिना परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य धारण करने, गृहस्थ जीवन के विधि-विधानों के अनुपालन, वानप्रस्थ के रूप में गृहत्याग अथवा संन्यास ग्रहण करने या शीत ऋतु में जल में घुस कर घोर तपस्या करने, या ग्रीष्म में अग्नि से घिरे रहने, झुलसती धूप में पड़े रहने जैसी कठिन तपस्याओं से परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती। परम सत्य को जानने के और भी अनेक साधन हैं, किन्तु परम सत्य उसे ही प्राप्त होता है, जिसे किसी महान भक्त का अनुग्रह प्राप्त हो।

13 यहाँ वर्णित वे शुद्ध भक्त कौन हैं? शुद्ध भक्तों की सभा में राजनीति या समाजशास्त्र जैसे सांसारिक विषयों पर चर्चा चलाने का प्रश्न ही नहीं उठता। वहाँ तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की लीलाओं, स्वरूप एवं गुणों की ही चर्चा होती है। उनकी प्रशंसा तथा उपासना पूर्ण मनोयोग से की जाती है। यहाँ तक कि विशुद्ध भक्तों की संगति से, ऐसे विषयों को लगातार आदर पूर्वक सुनने से ऐसा पुरुष जो परम सत्य में तदाकार होना चाहता है, वह भी अपने इस विचार को त्याग कर क्रमशः वासुदेव की सेवा में आसक्त हो जाता है।

14 मैं पूर्व जन्म में महाराज भरत के नाम से विख्यात था। मैंने प्रत्यक्ष अनुभव तथा वेद-ज्ञान से प्राप्त अप्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सांसारिक कार्यों से पूर्णतया विरक्त होकर सिद्धि प्राप्त की। मैं पूर्णतया भगवान की सेवा में तत्पर रहता था, किन्तु दुर्भाग्यवश मैं एक छोटे से मृग के प्रति इतना आसक्त हो उठा कि मैंने सारे आध्यात्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा कर दी। मृग के प्रति प्रगाढ़ स्नेह के कारण अगले जन्म में मुझे मृग का शरीर अंगीकार करना पड़ा।

15 हे वीर राजा, अपनी पूर्व अनन्य भगवत-भक्ति के फलस्वरूप मृग शरीर में रहकर भी मुझे पूर्वजन्म की प्रत्येक वस्तु स्मरण रही। चूँकि मैं अपने पूर्वजन्म के पतन से परीचित हूँ, अतः मैं सामान्य व्यक्तियों के संसर्ग से अपने को दूर रखता हूँ। उनकी कुसंगति से डरकर मैं अलक्षित (गुप्त) होकर अकेला घूमता फिरता हूँ।

16 उन्नत भक्तों की संगति मात्र से पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और फिर ज्ञान की तलवार से सांसारिक मोहों को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है। भक्तों की संगति से ही श्रवण तथा कीर्तन (श्रवणम कीर्तनम) द्वारा भगवान की सेवा में अनुरक्त हुआ जा सकता है। इस प्रकार से अपने सुप्त कृष्णभावनामृत को जागृत किया जा सकता है और कृष्णभावनामृत के अनुशीलन द्वारा इसी जीवन में परमधाम को वापस जाया जा सकता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय ग्यारह – जड़ भरत द्वारा राजा रहूगण को शिक्षा (5.11)

1 ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा: हे राजन, यद्यपि तुम थोड़ा भी अनुभवी नहीं हो तो भी तुम अत्यन्त अनुभवी व्यक्ति के समान बोलने का प्रयत्न कर रहे हो। अतः तुम्हें अनुभवी व्यक्ति नहीं माना जा सकता। अनुभवी व्यक्ति कभी भी तुम्हारे समान स्वामी तथा सेवक अथवा भौतिक सुखों और दुखों के सम्बन्ध में इस प्रकार से नहीं बोलता। ये तो मात्र बाह्य कार्य हैं। कोई भी महान अनुभवी व्यक्ति परम सत्य को जानते हुए इस प्रकार बातें नहीं करता।

2 हे राजन, स्वामी तथा सेवक, राजा तथा प्रजा इत्यादि के प्रसंग तो भौतिक विषय हैं। वेदों में प्रतिपादित भौतिक विषयों में रुचि रखने वाले व्यक्ति यज्ञों को करके तथा भौतिक विषयों के प्रति श्रद्धालु बने रहने पर तुले रहते हैं। ऐसे लोगों में कभी आत्म-तत्त्व प्रकट नहीं हो पाता। 

3 स्वप्न मनुष्य को स्वतः झूठा और व्यर्थ लगने लगता है। इसी प्रकार उसे इस लोक में अथवा स्वर्ग में, इसी जीवन में अथवा अगले जन्म में, भौतिक सुख की कामना तुच्छ प्रतीत होने लगती है। जब उसे इसका बोध हो जाता है, तो श्रेष्ठ साधन होने पर भी वेद सत्य का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने में अपर्याप्त लगने लगते हैं।

4 जब तक जीवात्मा का मन तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमोगुणों) से दूषित रहता है, तब तक वह स्वच्छन्द, अनियंत्रित हाथी के समान रहता है। वह इन्द्रियों का उपयोग करके शुभ तथा अशुभ कर्मों के क्षेत्र को केवल बृहत्तर बनाता है। परिणाम यह निकलता है कि जीवात्मा इस संसार में भौतिक कर्मों के कारण मात्र सुख तथा दुख का अनुभव करता है।

5 शुभ तथा अशुभ कर्मों की आकांक्षाओं में लीन रहने के कारण मन स्वभावतः काम तथा क्रोध के विकारों से ग्रस्त होता रहता है। इस प्रकार वह भौतिक इन्द्रिय-सुख के प्रति आकृष्ट होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मन सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से संचालित होता है। ग्यारह इन्द्रियों तथा पाँच तत्त्वों में से मन प्रधान है। अतः मन के ही कारण विभिन देवताओं, मनुष्यों, पशुओं तथा पक्षियों के शरीरों में जन्म लेना पड़ता है। उच्च या निम्न पद पर स्थित होने के अनुसार ही मन उच्च या निम्न भौतिक देह अंगीकार करता है।

6 सांसारिक मन जीव की आत्मा को आच्छादित करके उसे विभिन्न योनियों में ले जाता है। इसे संसृति कहते हैं। मन के ही कारण जीवात्मा को भौतिक दुख तथा सुख का बोध होता है। इस प्रकार से मोहग्रस्त यह शुभ तथा अशुभ विषयों तथा उनके कर्म को उत्पन्न करता है। इस प्रकार आत्मा बद्ध हो जाता है।

7 मन जीवात्मा को इस संसार में विभिन्न योनियों में फिराता रहता है, जिससे जीवात्मा को मनुष्यों, देवताओं, स्थूल-कृश मनुष्य इत्यादि विविध रूपों का लौकिक अनुभव होता है। विद्वानों का कथन है कि देह का रूपायन बन्धन तथा मुक्ति का कारण मन ही है।

8 जब जीवात्मा का मन सांसारिक इन्द्रिय-तृप्ति में लीन हो जाता है, तो जीवन-बन्धन तथा सांसारिक कष्ट प्राप्त होते है। किन्तु जब वह उनमें अनासक्त हो जाता है, तो वही मुक्ति का कारण बनता है। जब दीपक की बत्ती से ठीक-ठीक लौ नहीं उठती तो दीपक पर कालिख लग जाती है। किन्तु घी से भरा होने पर यह ठीक से जलता है और तीव्र प्रकाश निकलता है। इसी प्रकार जब मन इन्द्रिय-तृप्ति में संलग्न रहता है, तो इससे कष्ट प्राप्त होते हैं और जब यह उनसे विरक्त हो जाता है तो कृष्णभावनामृत का आदि प्रकाश निकलने लगता है।

9 पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। इनके साथ अहंकार भी है। इस प्रकार मन की ग्यारह प्रकार की वृत्तियाँ हैं। हे वीर, इन्द्रियों के विषय (यथा शब्द और स्पर्श), कायिक कर्म (यथा मलत्याग) तथा विभिन्न प्रकार के देह, समाज, मैत्री तथा व्यक्तित्त्व – इन सबको पण्डित लोग मन के कार्य के अन्तर्गत मानते हैं।

10 शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद (रस) तथा गन्ध – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार हैं। भाषण, स्पर्श, संचलन, मलत्याग तथा सहवास – ये कर्मेन्द्रियों के कार्य हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य धारणा है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य सोचता है कि, “यह मेरा शरीर है, यह मेरा समाज है, यह मेरा परिवार है, यह मेरा राष्ट्र है।" यह ग्यारहवाँ व्यापार मन का है और मिथ्या अहंकार कहलाता है। कुछ दार्शनिकों के अनुसार यह बारहवाँ व्यापार है और इसका कार्यक्षेत्र शरीर है।

11 भौतिक तत्त्व (द्रव्य या विषय), प्रकृति (स्वभाव), मूल कारण, संस्कार, भाग्य तथा समय (काल) – ये सब भौतिक कारण हैं। इन भौतिक कारणों से विक्षुब्ध होकर ग्यारह वृत्तियाँ पहले सैकड़ों, फिर हजारों और तब करोड़ों भेदों में रूपान्तरित हो जाती हैं। किन्तु ये सभी भेद स्वतः परस्पर मिश्रण के द्वारा घटित नहीं होते वरन वे श्रीभगवान के आदेशानुसार होते हैं।

12 कृष्णचेतना से रहित जीव के मन में माया द्वारा उत्पन्न अनेक विचार तथा वृत्तियाँ होती हैं। वे अनन्त काल से विद्यमान रहती हैं। कभी-कभी वे जागृत तथा स्वप्न अवस्था में प्रकट होती हैं, किन्तु सुषुप्तावस्था या समाधि में वे लुप्त हो जाती हैं। जो व्यक्ति इस जन्म में ही मुक्त हो चुका है, (जीवनमुक्त) इन सब व्यापारों को स्पष्ट देख सकता है।

13-14 क्षेत्रज्ञ दो प्रकार के हैं- जीवात्मा तथा श्रीभगवान। (जीवात्मा का वर्णन पीछे किया जा चुका है, यहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की विवेचना की जा रही है) श्री भगवान सृष्टि का सर्वव्यापक कारण है। वह अपने में पूर्ण है और अन्यों पर आश्रित नहीं है। वह सुनकर तथा प्रत्यक्ष अनुभव (दर्शन) से देखा जाता है। वह आत्मतेजस्वी है और उसे जन्म, मृत्यु, जरा अथवा व्याधि कुछ भी नहीं सताते। वह ब्रह्मादि समस्त देवताओं का नियन्ता है। उसका नाम नारायण है और वह संसार के प्रलय के पश्चात समस्त जीवात्माओं का आश्रय है। वह परम ऐश्वर्यमान है और समस्त भौतिक वस्तुओं का आश्रय है। अतः वह वासुदेव अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के नाम से जाना जाता है। अपनी शक्ति से ही वह समस्त जीवात्माओं के हृदयों में स्थित है, जिस प्रकार समस्त चराचर प्राणियों में वायु या जीवनीशक्ति (प्राण) रहती है। इस प्रकार वह शरीर को वश में रखता है। अपने अंश रूप में श्रीभगवान समस्त देहों में प्रवेश करके उनको नियंत्रित करता रहता है।

15 हे राजा रहूगण जब तक बद्ध-आत्मा भौतिक देह को स्वीकार करता है और भौतिक सुख के कल्मष से मुक्त नहीं हो जाता तथा जब तक अपने छह शत्रुओं को जीत कर आत्मज्ञान को जागृत करके आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक उसे इस जगत में विभिन्न स्थानों तथा नाना योनियों में घूमना पड़ता है।

16 इस संसार में आत्मा की उपाधि, यह मन, समस्त दुखों का मूल है। जब तक बद्ध जीवात्मा इस तथ्य को नहीं जानता, तब तक उसे देह की दयनीय दशा को स्वीकार करके इस ब्रह्माण्ड में विभिन्न योनियों में घूमना पड़ता है। चूँकि यह मन रोग, शोक, मोह, राग, लोभ तथा वैर से ग्रस्त रहता है इस कारण से इस भौतिक संसार में बन्धन तथा झूठी ममता उत्पन्न होती है।

17 यह अनियंत्रित मन जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु है। यदि इसकी उपेक्षा की जाती है या इसे अवसर प्रदान किया जाता है, तो यह प्रबल से प्रबलतर होकर विजयी बन सकता है। यद्यपि यह यथार्थ नहीं है, किन्तु यह अत्यधिक प्रबल होता है। यह आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को आच्छादित कर देता है। हे राजन, इस मन को गुरु के चरणारविन्द तथा भगवान की सेवा रूपी अस्त्र से जीतने का प्रयत्न कीजिये। इसे अत्यन्त सतर्कता से करें।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय दस – जड़ भरत तथा महाराज रहूगण की वार्ता (5.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – हे राजन, इसके बाद सिंधु तथा सौवीर प्रदेशों का शासक रहुगण कपिलाश्रम जा रहा था। जब राजा के मुख्य कहार (पालकीवाहक) इक्षुमती के तट पर पहुँचे तो उन्हें एक और कहार की आवश्यकता हुई। अतः वे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज करने लगे और दैववश उन्हें जड़ भरत मिल गया। उन्होंने सोचा कि यह तरुण और बलिष्ठ है और इसके अंग-प्रत्यंग सुदृढ़ हैं। यह बैलों तथा गधों के तुल्य बोझा ढोने के लिए अत्यन्त उपयुक्त है। ऐसा सोचते हुए यद्यपि महात्मा जड़ भरत ऐसे कार्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे तो भी कहारों ने बिना झिझक के पालकी ढोने के लिए उन्हें बाध्य कर दिया।

2 किन्तु अपने अहिंसक भाव के कारण जड़ भरत पालकी को ठीक से नहीं ले जा रहे थे। जैसे ही वे आगे बढ़ते, हर तीन फुट पहले वे यह देखने के लिए रुक जाते कि कहीं कोई चींटी पर पाँव तो नहीं पड़ रहा है। फलतः वे अन्य कहारों से ताल-मेल नहीं बैठा पा रहे थे। इसके कारण पालकी हिल रही थी। अतः राजा रहूगण ने तुरन्त कहारों से पूछा "तुम लोग इस पालकी को ऊँची-नीची करके क्यों लिए जा रहे हो? अच्छा हो यदि उसे ठीक से ले चलो।"

3 जब कहारों ने महाराजा रहूगण की धमकी सुनी तो वे उसके दण्ड से अत्यन्त भयभीत हो गये और उनसे इस प्रकार कहने लगे।

4 हे स्वामी, कृपया ध्यान दें कि हम अपना कार्य करने में तनिक भी असावधान नहीं हैं। हम इस पालकी को आपकी इच्छानुसार निष्ठा से ले जा रहे हैं, किन्तु यह व्यक्ति, जिसे हाल ही में काम में लगाया गया है, तेजी से नहीं चल पा रहा। अतः हम उसके साथ पालकी ले जाने में असमर्थ हैं।

5 राजा रहूगण दण्ड से भयभीत कहारों के वचन का अभिप्राय समझ रहा था। उसकी समझ में यह भी आ गया कि मात्र एक व्यक्ति के दोष के कारण पालकी ठीक से नहीं चल रही। यह सब अच्छी प्रकार जानते हुए तथा उनकी विनती सुनकर वह कुछ-कुछ क्रुद्ध हुआ, यद्यपि वह राजनीति में निपुण एवं अत्यन्त अनुभवी था। उसका यह क्रोध राजा के जन्मजात स्वभाव से उत्पन्न हुआ था। वस्तुतः राजा रहूगण का मन रजोगुण से आवृत था, अतः वह जड़ भरत से, जिनका ब्रह्मतेज राख से ढकी अग्नि के समान सुस्पष्ट नहीं था, इस प्रकार बोला।

6 राजा रहूगण ने जड़ भरत से कहा: मेरे भाई, यह कितना कष्टप्रद है! तुम निश्चित ही अत्यन्त थके लग रहे हो, क्योंकि तुम बहुत समय से और लम्बी दूरी से किसी की सहायता के बिना अकेले ही पालकी ला रहे हो। इसके अतिरिक्त, बुढ़ापे के कारण तुम अत्यधिक परेशान हो। हे मित्र, मैं देख रहा हूँ कि तुम न तो मोटे-ताजे हो, न ही हट्टे-कट्टे हो। क्या तुम्हारे साथ के कहार तुम्हें सहयोग नहीं दे रहे? इस प्रकार राजा ने जड़ भरत को ताना मारा, किन्तु इतने पर भी जड़ भरत को शरीर की सुधि नहीं थी। उसे ज्ञान था कि वह शरीर नहीं है, क्योंकि वह स्वरूपसिद्ध हो चुका था। वह न तो मोटा था, न पतला, न ही उसे पंच स्थूल भूतों तथा तीन सूक्ष्म तत्त्वों के इस स्थूल पदार्थ से कुछ लेना-देना था। उसे भौतिक शरीर तथा इसके दो हाथों तथा दो पैरों से कोई सरोकार न था। दूसरे शब्दों में, कहना चाहें तो कह सकते हैं कि वह 'अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात ब्रह्म रूप को प्राप्त हो चुका था। अतः राजा की व्यंग्य पूर्ण आलोचना का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह बिना कुछ कहे पूर्ववत पालकी को उठाये चलता रहा।

7 तत्पश्चात, जब राजा ने देखा कि उसकी पालकी अब भी पूर्ववत हिल रही थी, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और कहने लगा – अरे दुष्ट! तू क्या कर रहा है? क्या तू जीवित ही मर गया है? क्या तू नहीं जानता कि मैं तेरा स्वामी हूँ? तू मेरा अनादर कर रहा है और मेरी आज्ञा का उल्लंघन भी। इस अवज्ञा के लिए मैं अब तुझे मृत्यु के अधीक्षक यमराज के ही समान दण्ड दूँगा। मैं तेरा सही उपचार किये देता हूँ, जिससे तू होश में आ जाएगा और ठीक से काम करेगा।

8 राजा रहूगण अपने को राजा समझने के कारण देहात्मबुद्धि से ग्रस्त था और भौतिक प्रकृति के रजो तथा तमो गुणों से प्रभावित था। दम्भ के कारण उसने जड़ भरत को अशोभनीय वचनों से दुत्कारा। जड़ भरत महान भक्त और श्रीभगवान के प्रिय धाम थे। यद्यपि राजा अपने आपको बड़ा विद्वान मानता था, किन्तु वह न तो महान भक्त की स्थिति से और न उसके गुणों से परिचित था। जड़ भरत तो साक्षात भगवान के परम धाम थे और अपने हृदय में ईश्वर के स्वरूप को धारण करते थे। वे समस्त प्राणियों के प्रिय मित्र थे और किसी प्रकार की देहात्म-बुद्धि को नहीं मानते थे। अतः वे मुसकाये और इस प्रकार बोले।

9 महान ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा: हे राजन तथा वीर, आपने जो कुछ व्यंग्य में कहा है, वह सचमुच ठीक है। ये मात्र उलाहनापूर्ण शब्द नहीं हैं, क्योंकि शरीर तो वाहक (ढोने वाला) है। शरीर द्वारा ढोया जाने वाला भार मेरा नहीं है, क्योंकि मैं तो आत्मा हूँ। आपके कथनों में तनिक भी विरोधाभास नहीं हैं, क्योंकि मैं शरीर से भिन्न हूँ। मैं पालकी का ढोने वाला नहीं हूँ, वह तो शरीर है। निस्सन्देह, जैसा आपने संकेत किया है, पालकी ढोने में मैंने कोई श्रम नहीं किया है, क्योंकि मैं तो शरीर से पृथक हूँ। आपने कहा कि मैं हष्ट-पुष्ट नहीं हूँ। ये शब्द उस व्यक्ति के सर्वथा अनुरूप हैं, जो शरीर तथा आत्मा का अन्तर नहीं जानता। शरीर मोटा या दुबला हो सकता है, किन्तु कोई भी बुद्धिमान यह बात आत्मा के लिए नहीं कहेगा। जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है मैं न तो मोटा हूँ न दुबला। अतः जब आप कहते हैं कि मैं हष्ट-पुष्ट नहीं हूँ तो आप सही हैं और यदि इस यात्रा का बोझ तथा वहाँ तक जाने का मार्ग मेरे अपने होते तो मेरे लिए अनेक कठिनाइयाँ होतीं, किन्तु इनका सम्बन्ध मुझसे नहीं मेरे शरीर से है, अतः मुझे कोई कष्ट नहीं है।

10 मोटापा, दुबलापन शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, भूख, प्यास, भय, कलह, भौतिक सुख की कामना, बुढ़ापा, निद्रा, भौतिक पदार्थों में आसक्ति, क्रोध, शोक, मोह तथा देहाभिमान – ये सभी आत्मा के भौतिक आवरण के रूपान्तर हैं। जो व्यक्ति देहात्मबुद्धि में लीन रहता है, वही इनसे प्रभावित होता है, किन्तु मैं तो समस्त प्रकार की देहात्मबुद्धि से मुक्त हूँ। फलतः मैं न तो मोटा हूँ, न पतला, न ही वह सब जो आपने मेरे सम्बन्ध में कहा है।

11 हे राजन, आपने वृथा ही मुझ पर जीवित होने पर भी मृततुल्य होने का आरोप लगाया है। इस भौतिक सम्बन्ध में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि ऐसा सर्वत्र है, क्योंकि प्रत्येक भौतिक वस्तु का अपना आदि तथा अन्त होता है। आपका यह सोचना कि, “मैं राजा तथा स्वामी हूँ" और इस प्रकार आपके द्वारा मुझे आज्ञा दिया जाना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि ये पद अस्थायी हैं। आज आप राजा हैं और मैं आपका दास हूँ, किन्तु कल स्थिति बदल सकती है और आप मेरे दास हो सकते हैं, मैं आपका स्वामी। ये नियति द्वारा अस्थायी परिस्थितियाँ हैं।

12 हे राजन, यदि आप अब भी यह सोचते हैं कि आप राजा हैं और मैं आपका दास, तो आप आज्ञा दें और मुझे आपकी आज्ञा का पालन करना होगा। तो मैं यह कह सकता हूँ कि यह अन्तर क्षणिक है और व्यवहार या परम्परावश प्राप्त होता है। मुझे इसका अन्य कारण नहीं दिखाई पड़ता। उस दशा में कौन स्वामी है और कौन दास? प्रत्येक प्राणी प्रकृति के नियमों द्वारा प्रेरित होता है। अतः न तो कोई स्वामी है, न कोई दास। इतने पर भी यदि आप सोचते हैं कि मैं आपका दास हूँ और आप मेरे स्वामी हैं, तो मैं इसे स्वीकार कर लूँगा। कृपया आज्ञा दें। मैं आपकी क्या सेवा करूँ?

13 हे राजन, आपने कहा "रे दुष्ट, जड़ तथा पागल! मैं तुम्हारी चिकित्सा करने जा रहा हूँ और अब तुम होश में आ जाओगे।" इस सम्बन्ध में मुझे कहना है कि यद्यपि मैं जड़, गूँगे तथा बहरे मनुष्य की भाँति रहता हूँ, किन्तु मैं सचमुच एक स्वरूप-सिद्ध व्यक्ति हूँ। आप मुझे दण्डित करके क्या पाएँगे? यदि आपका अनुमान ठीक है और मैं पागल हूँ तो आपका यह दण्ड एक मरे हुए घोड़े को पीटने जैसा होगा। उससे कोई लाभ नहीं होगा। जब पागल को दण्डित किया जाता है, तो उसका पागलपन ठीक नहीं होता है।

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, जब राजा रहूगण ने परम भक्त जड़ भरत को अपने कटु वचनों से मर्माहत किया, तो उस शान्त मुनिवर ने सब कुछ सहन कर लिया और समुचित उत्तर दिया। अज्ञानता का कारण देहात्मबुद्धि है, किन्तु जड़ भरत उससे प्रभावित नहीं थे। अपनी स्वाभाविक विनम्रता के कारण उन्होंने अपने को कभी भी महान भक्त नहीं माना और अपने पूर्व कर्मफल को भोगना स्वीकार किया। सामान्य मनुष्य की भाँति उन्होंने सोचा कि वे पालकी ढोकर अपने पूर्व अपकृत्यों के फल को विनष्ट कर रहे हैं। ऐसा सोचकर वे पूर्ववत पालकी लेकर चलने लगे।

15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे श्रेष्ठ पाण्डुवंशी (महाराज परीक्षित), सिंधु तथा सौवीर के राजा (रहूगण) की परम सत्य की चर्चाओं में श्रद्धा थी। इस प्रकार सुयोग्य होने के कारण, उसने जड़ भरत से वह दार्शनिक उपदेश सुना जिसकी संस्तुति सभी योग साधना के ग्रन्थ करते हैं और जिससे हृदय में पड़ी गाँठ ढीली पड़ती है। इस प्रकार उसका राज-मद नष्ट हो गया। वह तुरन्त पालकी से नीचे उतर आया और जड़ भरत के चरण-कमलों में अपना सिर रखकर पृथ्वी पर दण्डवत गिर गया जिससे वह इस ब्राह्मण-श्रेष्ठ को कहे गए अपमानपूर्ण शब्दों के लिए क्षमा प्राप्त कर सके। तब उसने इस प्रकार प्रार्थना की।

16 राजा रहूगण बोले--- हे ब्राह्मण, आप इस जगत में अत्यन्त प्रच्छन्न भाव से तथा अज्ञात रूप से विचरण करते प्रतीत हो रहे हैं। आप कौन हैं? क्या आप विद्वान ब्राह्मण तथा साधु पुरुष हैं? आपने जनेउ धारण कर रखा है। कहीं आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई विद्वान तो नहीं हैं? क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप किसके शिष्य हैं? आप कहाँ रहते हैं? आप इस स्थान पर क्यों आए हैं? कहीं आप हमारे कल्याण के लिए तो यहाँ नहीं आये? कृपया बतायें कि आप कौन हैं?

17 महानुभाव, न तो मुझे इन्द्र के वज्र का भय है, न नागदंश का, न भगवान शिव के त्रिशूल का। मुझे न तो मृत्यु के अधीक्षक यमराज के दण्ड की परवाह है, न ही मैं अग्नि, तप्त सूर्य, चन्द्रमा, वायु अथवा कुबेर के अस्त्रों से भयभीत हूँ। परन्तु मैं ब्राह्मण के अपमान से डरता हूँ। मुझे इससे बहुत भय लगता है।

18 महाशय, ऐसा प्रतीत होता है कि आपका महत आध्यात्मिक ज्ञान प्रच्छन्न है। आप समस्त भौतिक संसर्ग से रहित हैं और परमात्मा के विचार में पूर्णतया तल्लीन हैं। इसलिए आपका आध्यात्मिक ज्ञान अनन्त है। कृपया बतलाने का कष्ट करें कि आप जड़वत सर्वत्र क्यों घूम रहे हैं? हे साधु, आपने योगसम्मत शब्द कहे हैं, किन्तु हमारे लिए उनको समझ पाना सम्भव नहीं है। अतः कृपा करके विस्तार से कहें।

19 मैं आपको योगशक्ति का प्रतिष्ठित स्वामी मानता हूँ। आप आत्मज्ञान से भली भाँति परिचित हैं। आप साधुओं में परम पूज्य हैं और आप समस्त मानव समाज के कल्याण के लिए अवतरित हुए हैं। आप आत्मज्ञान प्रदान करने आये हैं और ईश्वर के अवतार या ज्ञान के अंश कपिलदेव के साक्षात प्रतिनिधि हैं। अतः मैं आपसे पूछ रहा हूँ, “हे गुरु, इस संसार में सर्वाधिक सुरक्षित आश्रय कौन सा है?

20 क्या यह सच नहीं कि आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अवतार कपिल देव के साक्षात प्रतिनिधि हैं? मनुष्यों की परीक्षा लेने और यह देखने के लिए कि वास्तव में कौन मनुष्य है और कौन नहीं, आपने अपने आपको गूँगे तथा बहरे मनुष्य की भाँति प्रस्तुत किया है। क्या आप संसार भर में इसलिए नहीं इस रूप में घूम रहे? मैं तो गृहस्थ जीवन तथा सांसारिक कार्यों में अत्यधिक आसक्त हूँ और आत्मज्ञान से रहित हूँ। इतने पर भी अब मैं आपसे प्रकाश पाने के लिए आपके समक्ष उपस्थित हूँ। आप बताएँ कि मैं किस प्रकार आत्मजीवन में प्रगति कर सकता हूँ?

21 आपने कहा कि "मैं श्रम करने में थकता नहीं हूँ" यद्यपि आत्मा देह से पृथक है, किन्तु शारीरिक श्रम करने से थकान लगती है और ऐसा लगता है कि यह आत्मा की थकान है। जब आप पालकी ले जा रहे होते हैं, तो निश्चय ही आत्मा को भी कुछ श्रम करना पड़ता होगा। ऐसा मेरा अनुमान है। आपने यह भी कहा है कि स्वामी तथा सेवक का बाह्य आचरण वास्तविक नहीं है, किन्तु प्रत्यक्ष जगत में यह वास्तविकता भले न हो तो भी प्रत्यक्ष जगत पदार्थों से वस्तुएँ प्रभावित तो हो ही सकती हैं। ऐसा दृश्य तथा अनुभवगम्य है। अतः भले ही भौतिक कार्यकलाप अस्थायी हों, किन्तु उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता।

22 राजा रहूगण आगे बोला- महाशय, आपने बताया कि शारीरिक स्थूलता तथा कृशता जैसी उपाधियाँ आत्मा के लक्षण नहीं हैं। यह सही नहीं है, क्योंकि सुख तथा दुख जैसी उपाधियों का अनुभव आत्मा को अवश्य होता है। आप दूध तथा चावल को एक पात्र में भर कर अग्नि के ऊपर रखें तो दूध तथा चाँवल क्रम से स्वतः तप्त होते हैं। इसी प्रकार शारीरिक सुखों तथा दुखों से हमारी इन्द्रियाँ, मन तथा आत्मा प्रभावित होते हैं। आत्मा को इस परिवेश से सर्वथा बाहर नहीं रखा जा सकता।

23 महाशय, आपने बताया कि राजा तथा प्रजा अथवा स्वामी और सेवक के सम्बन्ध शाश्वत नहीं होते। यद्यपि ऐसे सम्बन्ध अस्थायी हैं, तो भी जब कोई व्यक्ति राजा बनता है, तो उसका कर्तव्य नागरिकों पर शासन करना और नियमों की अवज्ञा करने वालों को दण्डित करना है। उनको दण्डित करके वह नागरिकों को राज्य के नियमों का पालन करने की शिक्षा देता है। पुनः आपने कहा है कि मूक तथा बधिर को दण्ड देना चर्वित को चर्वण करना या पिसी लुगदी को फिर से पीसना है, जिसका अभिप्राय यह हुआ कि इससे कोई लाभ नहीं होता। किन्तु यदि कोई परमेश्वर द्वारा आदिष्ट अपने कर्तव्यों के पालन में लगा रहता है, तो उसके पापकर्म निश्चय ही घट जाते हैं। अतः यदि किसी को बलपूर्वक उसके कर्तव्यों में लगा दिया जाये तो उसे लाभ पहुँचता है, क्योंकि इस प्रकार उसके समस्त पाप दूर हो सकते हैं।

24 आपने जो भी कहा है उसमें मुझे विरोधाभास लगता है। हे दीनबन्धु, मैंने आपको अपमानित करके बहुत बड़ा अपराध किया है। राजा का शरीर धारण करने के कारण मैं झूठी प्रतिष्ठा से फूला हुआ था, अतः इसके लिए मैं अवश्य ही अपराधी हूँ। अब मेरी प्रार्थना है कि मुझ पर अहैतुक अनुग्रह की दृष्टि डालें। यदि आप ऐसा करें तो आपका अपमान करके मैंने जो पापकर्म किया है उससे मुक्त हो सकूँगा।

25 हे स्वामी, आप समस्त जीवात्माओं के मित्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के सखा हैं। अतः आप सबों के लिए समान हैं और देहात्म-बुद्धि से सर्वथा मुक्त हैं। यद्यपि मैंने आपकी अवमानना करके अपराध किया है, किन्तु मैं जानता हूँ कि मेरे इस तिरस्कार से आपको कोई हानि या लाभ नहीं होने वाला है। आप दृढ़संकल्प हैं जबकि मैं अपराधी हूँ। इसलिए भले ही मैं भगवान शिव के समान बलवान क्यों न होऊँ, किन्तु एक वैष्णव के चरणकमल पर अपराध करने के कारण मैं तुरन्त ही नष्ट हो जाऊँगा।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय नौ – जड़ भरत का सर्वोत्कृष्ट चरित्र (5.9)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, मृग शरीर त्याग कर भरत महाराज ने एक विशुद्ध ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया। वह ब्राह्मण अंगिरा गोत्र से सम्बन्धित था और ब्राह्मण के समस्त गुणों से सम्पन्न था। वह अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करनेवाला तथा वैदिक एवं अन्य पूरक साहित्यों का ज्ञाता था। वह दानी, संतुष्ट, सहनशील, विनम्र, पण्डित तथा किसी से ईर्ष्या न करने वाला था। वह स्वरूपसिद्ध एवं ईश्वर की सेवा में तत्पर रहने वाला था। वह सदैव समाधि में रहता था। उसकी पहली पत्नी से उसी के समान योग्य नौ पुत्र हुए और दूसरी पत्नी से जुड़वाँ भाई-बहन पैदा हुए जिनमें से लड़का सर्वोच्च भक्त तथा राजर्षियों में अग्रणी भरत महाराज के नाम से विख्यात हुआ। तो यह कथा है उसके मृग शरीर को त्याग कर पुनः जन्म लेने की।

3 भगवतकृपा से भरत महाराज को अपने पूर्वजन्म की घटनाएँ स्मरण थीं। यद्यपि उन्हें ब्राह्मण का शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु वे अपने स्वजनों तथा मित्रों से, जो भक्त नहीं थे, अत्यन्त भयभीत थे। वे ऐसी संगति से सदैव सतर्क रहते, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं पुनः पथच्युत न हो जाँय। फलतः वे जनता के समक्ष उन्मत्त (पागल), जड़, अन्धे तथा बहरे के रूप में प्रकट होते रहे जिससे दूसरे लोग उनसे बात करने की चेष्टा न करें। इस प्रकार उन्होंने कुसंगति से अपने को बचाए रखा।

4 वे अपने अन्तःकरण में सदा भगवान के चरणकमल का ध्यान धरते और उनके गुणों का जप करते रहते जो मनुष्य को कर्म-बन्धन से बचाने वाला है। इस प्रकार उन्होंने अपने को अभक्त संगियों के आक्रमण से बचाए रखा। ब्राह्मण पिता का मन अपने पुत्र जड़ भरत (भरत महाराज) के प्रति सदैव स्नेह से पूरित रहता था। उससे सदा अनुरक्त रहते थे। क्योंकि जड़ भरत गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के अयोग्य थे, अतः ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति तक ही उनके संस्कार पूरे हुए। यद्यपि जड़ भरत अपने पिता की शिक्षाओं को मानने में आनाकानी करते तो भी उस ब्राह्मण ने यह सोचकर कि पिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र को शिक्षा दे, जड़ भरत को स्वच्छ रहने तथा प्रक्षालन करने की शिक्षा दी।

5 अपने पिता द्वारा वैदिक ज्ञान की समुचित शिक्षा दिये जाने पर भी जड़ भरत उनके समक्ष मूर्ख (जड़) की भाँति आचरण करते। वे ऐसा आचरण इसलिए करते जिससे उनके पिता यह समझें की वे शिक्षा के आयोग्य हैं और इस प्रकार उसे आगे शिक्षा देना बन्द कर दें। वे सर्वथा विपरीत आचरण करते। यद्यपि शौच के बाद हाथ धोने को कहा जाता, किन्तु वे उन्हें उसके पहले ही धो लेते। तो भी उनके पिता उन्हें बसन्त तथा ग्रीष्म काल में वैदिक शिक्षा देना चाहते थे। उन्होंने उसे ओंकार तथा व्याहृति के साथ-साथ गायत्री मंत्र सिखाने का यत्न किया, किन्तु चार मास बीत जाने पर भी वे उसे सिखाने में सफल न हो सके।

6 जड़ भरत का ब्राह्मण पिता अपने पुत्र को अपनी आत्मा तथा हृदय के समान मानता, अतः वह उससे अत्यधिक अनुरक्त था। उसने अपने पुत्र को सुशिक्षित बनाना चाहा और अपने इस असफल प्रयास में उसने अपने पुत्र को ब्रह्मचारी के विधि-विधान सिखाने प्रारम्भ किये, जिनमें वैदिक अनुष्ठान, शौच, वेदाध्ययन, कर्मकाण्ड, गुरु की सेवा, अग्नि यज्ञ करने की विधि सम्मिलित थे। उसने इस प्रकार से अपने पुत्र को शिक्षा देने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु वह असफल रहा। उसने अपने अन्तःकरण में यह आशा बाँध रखी थी कि उसका पुत्र विद्वान होगा, किन्तु उसके सारे प्रयत्न निष्फल रहे। प्रत्येक प्राणी की भाँति यह ब्राह्मण भी अपने घर के प्रति आसक्त था और वह यह भूल ही गया था कि एक दिन उसे मरना है। किन्तु मृत्यु कभी भूलती नहीं। वह उचित समय पर प्रकट हुई और उसे उठा ले गई।

7 तत्पश्चात ब्राह्मण की छोटी पत्नी अपने जुड़वाँ बच्चों--एक लड़का तथा एक लड़की-- को अपनी बड़ी सौत को सौंप कर अपनी इच्छा से अपने पति के साथ मर कर पतिलोक चली गई।

8 पिता की मृत्यु के बाद जड़ भरत के नौ सौतेले भाइयों ने उसे जड़ तथा बुद्धि-हीन समझकर उसको पूर्ण शिक्षा प्रदान करने का प्रयत्न करना छोड़ दिया। जड़ भरत के ये भाई तीनों वेदों – ऋग, साम तथा यजुर्वेद में पारंगत थे, जो सकाम कर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन देते हैं। किन्तु वे नवों भाई ईश्वर की भक्तिमयसेवा से तनिक भी परिचित न थे। फलस्वरूप वे जड़ भरत की सिद्ध अवस्था को नहीं समझ सके।

9-10 नीच पुरुष पशुओं के तुल्य होते हैं। अन्तर इतना ही है कि पशुओं के चार पैर होते हैं और ऐसे मनुष्यों के केवल दो। ऐसे दो पैर वाले पाशविक पुरुष जड़ भरत को पागल, मन्द बुद्धि, बहरा तथा गूँगा कहते थे। वे उसके साथ दुर्व्यवहार करते और जड़ भरत बहरे, अन्धे या जड़ पागल की भाँति आचरण करता। न तो वह कभी प्रतिवाद करता, न ही उन्हें आश्वस्त करने का प्रयत्न करता कि वह ऐसा नहीं है। यदि कोई उससे कुछ कराना चाहता तो वह उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करता। उसे भिक्षा या मजदूरी से अथवा अपने आप जो भी भोजन मिलता-चाहे वह थोड़ा हो, स्वादु, बासी या अस्वादु-उसे ग्रहण करता और खाता। वह इन्द्रिय-तृप्ति के लिए कभी कुछ नहीं खाता था, क्योंकि वह पहले से उस देहात्म-बुद्धि से मुक्त हो गया था, जिसके वशीभूत होकर स्वादिष्ट या बेस्वाद भोजन किया जाता है। वह भक्ति की दिव्य भावना से पूर्ण था, फलतः देहात्म-बुद्धि से उठने वाले द्वन्द्वों से सर्वथा अप्रभावित रहता था। वास्तव में उसका शरीर साँड के समान बलिष्ठ था और उसके अंग-प्रत्यंग हष्ट-पुष्ट थे। उसे न तो सर्दी-गर्मी या बयार-वर्षा की परवाह थी और न ही कभी वह अपने शरीर को ढकता था। वह जमीन पर लेटा रहता। वह अपने शरीर में न तो कभी तेल लगाता, न ही कभी स्नान करता था। शरीर मलिन होने के कारण उसका ब्रह्मतेज तथा ज्ञान उसी प्रकार ढके हुए थे जिस प्रकार धूल जमने से किसी मूल्यवान मणि का तेज छिप जाता है। उसने केवल एक गन्दा कौपीन और एक यज्ञोपवीत पहन रखा था जो काला पड़ गया था। यह जानते हुए भी कि वह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न है, लोग उसे ब्रह्मबन्धु तथा अन्य नामों से पुकारते थे। इस प्रकार भौतिकता- वादी लोगों द्वारा अपमानित एवं उपेक्षित होकर वह इधर-उधर घूमता रहता था।

11 जड़ भरत केवल भोजन के लिए काम करता था। उसके सौतेले भाइयों ने इसका लाभ उठाकर उसे कुछ भोजन के बदले खेत में काम करने में लगा दिया, किन्तु उसे खेत में ठीक से काम करने की विधि ज्ञात न थी। उसे यह ज्ञात न था कि कहाँ मिट्टी डाली जाये अथवा कहाँ भूमि को समतल या ऊँचा-नीचा रखा जाये। उसके भाई उसे टूटे चावल (कना), खली, धान की भूसी, घुना अनाज तथा रसोई के बर्तनों की जली हुई खुरचन दिया करते थे, किन्तु उसे किसी प्रकार की शिकायत न रहती और वह इन सबको प्रसन्नतापूर्वक अमृत के समान स्वीकार कर खा लेता था।

12 इसी समय, पुत्र की कामना से, डाकुओं का एक सरदार जो शूद्र कुल का था, किसी पशु-तुल्य जड़ मनुष्य की भद्रकाली पर बलि चढ़ाकर उपासना करना चाहता था।

13 डाकुओं के सरदार ने बलि के लिए एक नर-पशु पकड़ा, किन्तु वह बचकर निकल भागा और सरदार ने अपने सेवकों को उसे ढूँढने के लिए आज्ञा दी। वे विभिन्न दिशाओं में दौड़े किन्तु उसे ढूँढ न सके। अर्धरात्रि के गहन अंधकार में इधर-उधर घूमते हुए, वे एक धान के खेत में पहुँचे जहाँ उन्होंने अंगिरा वंश के एक ब्राह्मणकुमार (जड़भरत) को देखा जो एक ऊँचे स्थान पर बैठकर मृग तथा जंगली सुअरों से खेत की रखवाली कर रहा था।

14 डाकू सरदार के सेवकों तथा अनुचरों ने नर-पशु के लक्षणों से युक्त जड़ भरत को बलि के लिए अत्युत्तम पाया। अतः प्रसन्नता के मारे उनके मुख चमकने लगे, उन्होंने उसे रस्सियों से बाँध लिया और देवी काली के मंदिर में ले आये।

15 इसके पश्चात चोरों ने नर-पशु बलि की काल्पनिक पद्धति के अनुसार जड़ भरत को नहलाया, नये वस्त्र पहनाए, पशु के अनुकूल आभूषणों से अलंकृत किया, उसके शरीर पर सुगन्धित लेप किया तथा तिलक, चन्दन एवं हार से सुसज्जित किया। उसे अच्छी तरह भोजन कराने के बाद वे उसे देवी काली के समक्ष ले आये और देवी को धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अंकुर, फल तथा फूल की भेंट चढ़ाई। इस प्रकार उन्होंने नर-पशु का वध करने के पूर्व गीत, स्तुति द्वारा एवं मृदंग तथा तुरही आदि बजाकर देवी की पूजा की। इसके पश्चात जड़ भरत को मूर्ति के समक्ष बैठा दिया।

16 उस समय, पुरोहित के रूप में कार्य कर रहा एक चोर भद्रकालि को पीने के लिए नर-पशु जड़-भरत का रक्त-आसव चढ़ाने के लिए तत्पर था। अतः उसने अत्यन्त भयावनी तथा पैनी तलवार निकाली और भद्रकाली के मंत्र से अभिमंत्रित करके जड़ भरत को मारने के लिए उसे उठाया।

17 जिन चोर-उचक्कों ने देवी काली के पूजन का प्रबन्ध कर रखा था वे अत्यन्त नीच थे और रजो तथा तमो गुणों से आबद्ध थे। वे धनवान बनने की कामना से ओतप्रोत थे, अतः उन्होंने वेदों के आदेशों का तिरस्कार किया। यहाँ तक कि वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न स्वरूपसिद्ध जीवात्मा जड़ भरत का वध करने के लिए उद्यत थे। द्वेषवश वे उन्हें देवी काली के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए लाये थे। ऐसे व्यक्ति सदैव ईर्ष्यालु कार्यों में रत रहते हैं, इसीलिए वे जड़ भरत को मारने का दुस्साहस कर सके।

18 जड़ भरत समस्त जीवों के परम मित्र थे। वे किसी के भी शत्रु न थे और सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के ध्यान में मग्न रहते थे। उनका जन्म उत्तम ब्राह्मण कुल में हुआ था, अतः यदि वे किसी के शत्रु होते अथवा आक्रामक होते तो भी उनका वध वर्जित था। किसी भी दशा में जड़ भरत को वध किये जाने का कोई औचित्य न था, अतः यह भद्रकाली से सहन नहीं हो सका। वे तुरन्त समझ गई कि ये पापी डाकू ईश्वर के एक परम भक्त का वध करने वाले हैं। अतः सहसा मूर्ति का शरीर विदीर्ण हो गया और साक्षात देवी काली प्रकट हुई। उनका शरीर प्रखर एवं असह्य तेज से जल रहा था। किए गये अत्याचारों को न सहन कर सकने के कारण क्रुद्ध देवी काली ने अपनी आँखेँ चमकायी और उनके कराल वक्र दाँत (दाढ़े) दिखाए। उनकी लाल-लाल आँखें दहकने लगीं और उनकी आकृति डरावनी हो गई। उन्होंने अत्यन्त भयावना रूप धारण कर लिया मानो समस्त सृष्टि का संहार करने को उद्यत हों। वे बलिवेदी से तेजी से कूदीं और तुरन्त ही उन चोर-उचक्कों के सिर उसी तलवार से काट दिए जिससे वे जड़ भरत का वध करने जा रहे थे। फिर छिन्न सिरों वाले उन उचक्कों-चोरों के गले से निकलने वाले तप्त रक्त को पीने लगीं मानो मदिरा (आसव) पान कर रही हों। दरअसल उन्होंने अपने गणों के सहित, जिनमें डाइनें तथा चुड़ैलें थीं, उस आसव का पान किया और फिर प्रमत्त होकर वे सब उच्च स्वर से गाने तथा नाचने लगीं मानो समस्त ब्रह्माण्ड का संहार कर डालेंगी। उसी समय वे उनके सिरों को गेंद के समान उछाल-उछाल कर खेलने लगीं।

19 जब कोई ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी महापुरुष के समक्ष कोई अपराध करता है,तो उसे सदैव उपर्युक्त विधि से दण्डित होना पड़ता है।

20 तब श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा: हे विष्णुदत्त, आत्मा को शरीर से पृथक मानने वाले, अजेय हृदय-ग्रंथि से मुक्त, समस्त जीवों के कल्याण कार्य में निरन्तर अनुरक्त तथा दूसरों का अहित न सोचने वाले व्यक्ति चक्रधारी तथा असुरों के लिए परम काल एवं भक्तों के रक्षक श्रीभगवान द्वारा सदैव संरक्षित होते हैं। भक्त सदैव भगवान के चरणकमल की शरण ग्रहण करते हैं। फलतः सिर कटने का अवसर आने पर भी वे सदैव अक्षुब्ध रहते हैं। यह उनके लिए तनिक भी विस्मयकारी नहीं होता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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भगवद्भक्ति में रत महाराज भरत का हिरण में आसक्त होकर शनैः शनै: अपने दैनिक यम, नियम, उपासनादि से विलग हो जाना (5.8.8)

अध्याय आठ – भरत महाराज के चरित्र का वर्णन (5.8)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन! एक दिन प्रातःकालीन नित्य-नैमित्तिक शौचादि कृत्यों से निवृत्त होकर महाराज भरत कुछ क्षणों के लिए गण्डकी नदी के तट पर बैठकर ओंकार से प्रारम्भ होनेवाले अपने मंत्र का जप करने लगे।

2 हे राजन, जब महाराज भरत नदी के तट पर बैठे हुए थे उसी समय एक प्यासी हिरणी पानी पीने आई।

3 जब वह हिरणी अगाध तृप्ति के साथ जल पी रही थी तो पास ही एक सिंह ने घोर गर्जना की। यह समस्त जीवों के लिए डरावनी थी और इसे उस मृगी ने भी सुना।

4 मृगी स्वभाव से अन्यों द्वारा वध किये जाने से डर रही थी और लगातार शंकित दृष्टि से देख रही थी। जब उसने सिंह की दहाड़ सुनी तो वह अत्यन्त उद्विग्न हो उठी। चौकन्नी दृष्टि से इधर-उधर देखकर वह मृगी अभी जल पीकर पूर्णतया तृप्त भी नहीं हुई थी कि सहसा उसने नदी पार करने के लिए छलांग लगा दी।

5 मृगी गर्भिणी थी, अतः जब डर के मारे वह कूद पड़ी तो शिशु मृग उसके गर्भ से निकल कर नदी के बहते जल में गिर गया।

6 अपने झुण्ड से विलग होने तथा गर्भपात से त्रस्त हो जाने से वह कृष्णा-मृगी नदी को पार करके अत्यन्त भयभीत हुई और एक गुफा में गिरकर वह तुरन्त मर गई।

7 नदी के तीर पर बैठे हुए महान राजा भरत ने अपनी माँ से बिछुड़े बच्चे को नदी में देखा। यह देखकर उन्हें बड़ी दया आई। उन्होंने विश्वासपात्र मित्र की भाँति उस नन्हे-शावक को लहरों से निकाल लिया और मातृहीन जानकर वे उसे अपने आश्रम में ले आये।

8 धीरे-धीरे महाराज भरत उस मृग के प्रति अत्यन्त वत्सल होते गये। वे घास खिला-खिलाकर उसका पालन करने लगे। वे बाघ तथा अन्य हिंस्र पशुओं के आक्रमण से उसकी सुरक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहते थे। जब उसे खुजली होती तो वे सहलाते और उसे आरामदेह स्थिति में रखने का प्रयत्न करते। कभी-कभी प्रेमवश उसे चूमते भी थे। इस प्रकार मृग के पालन पोषण में आसक्त हो जाने से महाराज भरत आध्यात्मिक जीवन के यम-नियम भूलते गये, यहाँ तक कि धीरे-धीरे भगवान की आराधना भी भूल गये। कुछ दिनों के बाद वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति के बारे में सब कुछ भूल गये।

9 महान राजा भरत सोचने लगे- अहो! बेचारा यह मृगशावक भगवान के प्रतिनिधि कालचक्र के वेग से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों से विलग हो गया है और मेरी शरण में आया है। यह अन्य किसी को न जानकर केवल मुझे अपने पिता, माता, भाई तथा स्वजन मानने लगा है। मेरे ही ऊपर इसकी निष्ठा है। यह मेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता, अतः मुझे ईर्ष्यावश यह नहीं सोचना चाहिए कि इस मृग के कारण मेरा अकल्याण होगा। मेरा कर्तव्य है कि मैं इसका लालन, पालन, रक्षण करूँ तथा इसे दुलारूँ – पुचकारूँ। जब इसने मेरी शरण ग्रहण कर ली है, तो भला इसे मैं कैसे दुत्कारूँ? यद्यपि इस मृग से मेरे आध्यात्मिक जीवन में व्यतिक्रम हो रहा है, किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि इस प्रकार से कोई असहाय व्यक्ति यदि शरणागत हो तो उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। तब तो यह बड़ा भारी दोष होगा।

10 भले ही कोई संन्यास ले चुका हो, किन्तु जो महान है, वह निश्चित रूप से दुखी जीवात्मा के प्रति दया का अनुभव करता है। मनुष्य को चाहिए कि शरणागत की रक्षा के हेतु अपने बड़े से बड़े स्वार्थ की परवाह न करे।

11 मृग के प्रति आसक्ति बढ़ जाने से महाराज भरत उसी मृग के साथ लेटते, टहलते, स्नान करते, यहाँ तक कि उसी के साथ खाना भी खाते। इस प्रकार उनका हृदय मृग के स्नेह में बँध गया।

12 जब महाराज भरत को कुश, फूल, लकड़ी, पत्ते, फल, कन्द तथा जल लाने के लिए जंगल में जाना होता तो उन्हें भय बना रहता कि कुत्ते, सियार, बाघ तथा अन्य हिंस्र पशु आकर मृग को मार न डालें। अतः वे जंगल में जाते समय उसे अपने साथ ले जाते।

13 जंगल के मार्ग में वह मृग अपने चपल स्वभाव के कारण महाराज भरत को अत्यन्त आकर्षक लगता। महाराज भरत उसे अपने कंधों पर चढ़ा कर स्नेहवश दूर तक ले जाते। उनका हृदय मृग-प्रेम से उतना पूरित था कि वे कभी उसे अपनी गोद में ले लेते, तो कभी सोते समय उसे अपनी छाती पर चढ़ाए रखते। इस प्रकार उस पशु को दुलारते हुए उन्हें अत्यधिक सुख का अनुभव होता था।

14 जब महाराज भरत ईश्वर की आराधना में या अन्य अनुष्ठान में व्यस्त रहते तो अनुष्ठानों को समाप्त किए बिना बीच-बीच में ही वे उठ जाते और देखने लगते कि मृग कहाँ है। इस प्रकार जब वे यह देख लेते कि वह मृग सुखपूर्वक है, तब कहीं उनके मन तथा हृदय को सन्तोष होता और तब वे उस मृग को यह कहकर आशीष देते, “हे वत्स, तुम सभी प्रकार से सुखी रहो।"

15 कभी कभी भरत महाराज यदि उस मृग को न देखते तो उनका मन अत्यन्त व्याकुल हो उठता। उनकी स्थिति उस कंजूस व्यक्ति के समान हो जाती जिसे कुछ धन प्राप्त हुआ हो, किन्तु उसके खो जाने से वह अत्यन्त दुखी हो गया हो। जब मृग चला जाता, तो उन्हें चिन्ता हो जाती और वियोग के कारण वे विलाप करने लगते। इस प्रकार मोहग्रस्त होने पर वे निम्नलिखित प्रकार से कहते।

16 भरत महाराज सोचते-- ओह! यह मृग अब असहाय है। मैं अत्यन्त अभागा हूँ और मेरा मन चतुर शिकारी की भाँति है क्योंकि यह सदैव छल तथा निष्ठुरता से पूर्ण रहता है। इस मृग ने मुझ पर उसी प्रकार विश्वास किया है, जिस प्रकार एक भद्र पुरुष धूर्त मित्र के दुराचार को भूलकर उस पर विश्वास प्रकट करता है। यद्यपि मैं अविश्वासी सिद्ध हो चुका हूँ, किन्तु क्या यह मृग मुझ पर विश्वास करके पुनः लौट आएगा ?

17 ओह! क्या ऐसा हो सकता है कि मैं इस पशु को देवताओं से रक्षित तथा हिंस्र पशुओं से निर्भय रूप में फिर देखूँ? क्या मैं उसे पुनः उद्यान में मुलायम घास चरते हुए देख सकूँ गा?

18 मुझे पता नहीं, किन्तु हो सकता है कि भेड़िये या कुत्ते अथवा झुण्डों में रहने वाले सुअर या फिर अकेले घूमने वाले बाघ ने उस मृग को खा लिया हो।

19 ओह! सूर्य के उदय होते ही सभी शुभ कार्य होने लगते हैं। दुर्भाग्यवश, मेरे लिए ऐसा नहीं हो रहा है। सूर्यदेव साक्षात वेद हैं, किन्तु मैं समस्त वैदिक नियमों से शून्य हूँ। वे सूर्यदेव अब अस्त हो रहे हैं, तो भी वह बेचारा पशु, जिसने अपनी माता की मृत्यु होने पर मुझ पर विश्वास किया था, अभी तक नहीं लौटा है।

20 वह मृग राजकुमार के तुल्य है। वह कब लौटेगा ? वह कब फिर अपनी मनोहर क्रीड़ाएँ दिखायेगा ? वह कब मेरे आहत-हृदय को पुनः शान्त करेगा ? अवश्य ही मेरे पुण्य शेष नहीं हैं, अन्यथा अब तक वह मृग अवश्य लौट आया होता।

21 ओह! जब यह छोटा सा हिरण, मेरे साथ खेलते हुए और मुझे आँखें बन्द करके झूठ-मूठ ध्यान करते देखकर, प्रेम से उत्पन्न क्रोध के कारण मेरे चारों ओर चक्कर लगाता और डरते हुए अपने मुलायम सींगों की नोकों से मुझे छूता, जो मुझे जल बिन्दुओं के समान प्रतीत होते।

22 जब मैं यज्ञ की समस्त सामग्री को कुश पर रखता तो यह मृग खेल-खेल में कुश को अपने दाँतों से छूकर अपवित्र कर देता। जब मैं मृग को दूर हटाकर डाँटता-डपटता तो वह तुरन्त डर जाता और बिना हिले डुले बैठ जाता मानो ऋषि का पुत्र हो। तब वह अपने खेल (क्रीड़ा) बन्द कर देता।

23 इस प्रकार एक पागल की भाँति बोलते हुए महाराज भरत उठे और बाहर निकल गए। धरती पर मृग के पदचिन्हों को देखकर उनकी प्रशंसा में अत्यन्त प्रेम से कहा, “अरे अभागे भरत! इस पृथ्वी के तप की तुलना में तुम्हारे तप तुच्छ हैं, क्योंकि पृथ्वी की कठोर तपस्या से ही उस पर इस मृग के छोटे-छोटे, सुन्दर अत्यन्त कल्याणकारी तथा मुलायम पदचिन्ह बने हुए हैं। पदचिन्हों की यह श्रेणी मृग-बिछोह से दुखी मुझ जैसे व्यक्ति को दिखा रही है कि वह पशु इस जंगल से होकर किस प्रकार आगे गया है और मैं उस खोई हुई सम्पत्ति को किस तरह पुनः प्राप्त कर सकता हूँ। इन पदचिन्हों के कारण यह भूमि स्वर्ग या मुक्ति की इच्छा से देवताओं के हेतु यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के लिए उत्तम स्थान बन गई है।

24 भरत महाराज उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे। अपने सिर के ऊपर उदित चन्द्रमा में मृग के सदृश काले धब्बों को देखकर उन्होंने कहा: कहीं दुखी मनुष्य पर दया करनेवाले इस चन्द्रमा ने यह जानते हुए कि मेरा मृग अपने घर से बिछुड़ गया है और मातृविहीन हो गया है, उस पर भी दया की हो? इस चन्द्रमा ने सिंह के अचानक आक्रमण से बचाने के लिए ही मृग को अपने निकट शरण दे दी हो ।

25 चाँदनी को देखकर महाराज भरत उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे। उन्होंने कहा: यह मृगछौना इतना विनम्र घुलमिल गया था और मुझे इतना प्रिय था कि इसके वियोग में मुझे अपने पुत्र जैसा वियोग हो रहा है। इसके वियोग-ताप से मुझे दावाग्नि से जल जाने जैसा कष्ट हो रहा है। मेरे हृदय-स्थल कुमुदिनी जैसा जल रहा है। मुझे इतना दुखी देखकर चन्द्रमा मेरे ऊपर चमकते हुए अमृत जैसी वर्षा कर रहा है मानो प्रखर ज्वर पीड़ित व्यक्ति पर उसका मित्र जल छिड़क रहा हो। इस प्रकार यह चन्द्रमा मुझे सुख देने वाला है।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, इस प्रकार महाराज भरत दुर्दमनीय आकांक्षा से अभिभूत हो गए जो मृग के रूप में प्रकट हुई। अपने पूर्वकर्मों के फल के कारण वे योग, तप तथा भगवान की आराधना से च्युत हो गए। यदि यह पूर्वकर्मों के कारण नहीं हुआ तो वे क्योंकर अपने पुत्र तथा परिवार को अपने आध्यात्मिक जीवन के पथ पर अवरोध समझ कर त्याग देने के बाद भी मृग से इतना आकृष्ट होते? वे मृग के लिए इतना दुर्दम्य स्नेह क्यों प्रकट करते? यह निश्चय ही उनके पूर्वकर्म का फल था। वे मृग को सहलाने तथा उसके लालन-पालन में इतने व्यस्त रहते कि वे अपनी आध्यात्मिक वृत्तियों से नीचे गिर गये। कालान्तर में, दुर्लंघ्य मृत्यु उनके समक्ष उपस्थित हो गई जिस प्रकार कोई विषधर सर्प चूहे के द्वारा निर्मित छिद्र में चुपके से घुस जाता है।

27 राजा ने देखा कि उनकी मृत्यु के समय वह मृग उनके पास बैठा था मानो उनका पुत्र हो और वह उनकी मृत्यु से शोकातुर था। वास्तव में राजा का चित्त मृग के शरीर में रमा हुआ था, फलतः कृष्णभावनामृत से रहित मनुष्यों की भाँति उन्होंने यह संसार, मृग तथा अपना भौतिक शरीर त्याग दिया और मृग का शरीर प्राप्त किया। किन्तु इससे एक लाभ हुआ। यद्यपि उन्होंने मानव शरीर त्याग कर मृग का शरीर प्राप्त किया था, किन्तु उन्हें अपने पूर्व जीवन की घटनाएँ भूल नहीं पाई थीं।

28 मृग शरीर प्राप्त करने पर भी भरत महाराज अपने पूर्वजन्म की दृढ़ भक्ति के कारण उस शरीर को धारण करने का कारण जान गये थे। अपने विगत तथा वर्तमान शरीर पर विचार करते हुए वे अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप करते हुए इस प्रकार बोले।

29 मृग के शरीर में भरत महाराज पश्चात्ताप करने लगे – कैसा दुर्भाग्य है कि मैं स्वरूपसिद्धों के पथ से गिर गया हूँ! आध्यात्मिक जीवन बिताने के लिए मैंने अपने पुत्रों, पत्नी तथा घर का परित्याग किया और वन के एकान्त पवित्र स्थान में आश्रय लिया। मैं आत्मसंयमी तथा स्वरूप-सिद्ध बना और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव की भक्ति, श्रवण, चिन्तन, कीर्तन, पूजन तथा स्मरण में निरन्तर लगा रहा। मैं अपने प्रयत्न में सफल रहा, यहाँ तक कि मेरा मन सर्वदा भक्ति में डूबा रहता था। किन्तु, अपनी मूर्खता के कारण मेरा मन पुनः आसक्त हो गया – इस बार मृग में। अब मुझे मृग शरीर प्राप्त हुआ है और मैं अपनी भक्ति-साधना से बहुत नीचे गिर चुका हूँ।

30 यद्यपि भरत महाराज को मृग शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु निरन्तर पश्चात्ताप करते रहने से वे सांसारिक वस्तुओं से पूर्णतः विरक्त हो गये थे। उन्होंने ये बातें किसी को प्रकट नहीं होने दीं। उन्होंने अपनी मृगी माता को अपने जन्मस्थान कालंजर पर्वत पर ही छोड़ दिया और स्वयं शालग्राम के वन में पुलस्त्य तथा पुलह के आश्रम में पुनः चले आये।

31 उस आश्रम में रहते हुए महाराज भरत अब कुसंगति का शिकार न होने के प्रति सतर्क रहने लगे। किसी को भी अपना विगत जीवन बताये बिना वे उस आश्रम में मात्र सुखी पत्तियाँ खाकर रहते थे। वास्तव में वे अकेले न थे क्योंकि उनके साथ परमात्मा जो थे। इस प्रकार वे इस मृग शरीर के अन्त की प्रतीक्षा करते रहे। अन्त में उस तीर्थस्थल में स्नान करते हुए उन्होंने वह शरीर छोड़ दिया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सात – राजा भरत के कार्यकलाप (5.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को और आगे बताया- हे राजन, भरत महाराज सर्वोच्च भक्त थे। अपने पिता (जिन्होंने उन्हें सिंहासन पर बैठाने का निर्णय पहले ही ले रखा था) की आज्ञा का पालन करते हुए वे तदनुसार पृथ्वी पर राज्य करने लगे। समस्त संसार पर राज्य करते हुए वे अपने पिता के आदेशों का पालन करने लगे और उन्होंने विश्वरूप की कन्या पञ्चजनी से विवाह कर लिया।

2 जिस प्रकार मिथ्या अहंकार से भूत-तन्मात्र (सूक्ष्म-इन्द्रिय विषय) उत्पन्न होते हैं, वैसे ही महाराज भरत को अपनी पत्नी पञ्चजनी के गर्भ से पाँच पुत्र प्राप्त हुए। इन पुत्रों के नाम थे-- सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण तथा धूम्रकेतु।

3 पहले इस देश का नाम अजनाभवर्ष था, किन्तु महाराज भरत के शासन काल से इसका नाम भारतवर्ष पड़ा।

4 भरत महाराज इस पृथ्वी पर अत्यन्त ज्ञानी तथा अनुभवी राजा थे। वे अपने कार्यों में संलग्न रह कर प्रजा पर अच्छी प्रकार से राज्य करते थे। वे अपनी प्रजा के प्रति उतने ही वत्सल थे जितने उनके पिता तथा पितामह रह चुके थे। उन्होंने प्रजा को अपने अपने कर्तव्यों में व्यस्त रख कर इस पृथ्वी पर शासन किया।

5 राजा भरत ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अनेक प्रकार के यज्ञ किये। इनके नाम हैं अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु-यज्ञ (जिसमें अश्व की बलि दी जाती थी) तथा सोम-यज्ञ (जिसमें सोमरस प्रयुक्त होता था)। कभी ये यज्ञ पूर्ण रूप से तो कभी आंशिक रूप में सम्पन्न किये जाते थे। प्रत्येक दशा में समस्त यज्ञों में चातुहोत्र नियमों का दृढ़ता से पालन किया जाता था। इस प्रकार भरत महाराज भगवान की उपासना करते थे।

6 विभिन्न यज्ञों के प्रारम्भिक कार्यों को कर लेने के बाद महाराज भरत यज्ञफलों को धर्म के नाम पर भगवान वासुदेव को अर्पण कर देते थे। अर्थात, वे भगवान वासुदेव कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए समस्त यज्ञ करते थे। महाराज भरत सोचते थे कि सभी देवता भगवान वासुदेव के शरीर के अंगस्वरूप हैं और वैदिक मंत्रों में जो भी वर्णित है वे उसके नियन्ता हैं। इस प्रकार से चिन्तन के फलस्वरूप महाराज भरत आसक्ति, काम तथा लोभ जैसे भौतिक कल्मष से मुक्त थे। जब पुरोहितगण अग्नि में हवि अर्पित करने वाले होते तो महाराज भरत को यह ज्ञात हो जाता था कि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली यह हवि ईश्वर के विभिन्न अवयवों (अंगों) के निमित्त है। उदाहरणार्थ, इन्द्र भगवान के बाहु स्वरूप और सूर्य उनके नेत्र हैं। इस प्रकार महाराज भरत ने विचार किया कि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली आहुतियाँ वास्तव में भगवान वासुदेव के अंग-प्रत्यंग के निमित्त हैं।

7 इस प्रकार यज्ञों से परिष्कृत महाराज भरत का हृदय सर्वथा कल्मषहीन हो गया। दिन प्रतिदिन वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति बढ़ती रही। वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण आदि भगवान हैं, जो परमात्मा के रूप में तथा निर्गुण ब्रह्म के रूप में प्रकट होते हैं। योगी लोग अपने हृदय में परमात्मा का ध्यान धरते हैं, ज्ञानी परम सत्य निर्गुण ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं और भक्तजन शास्त्रों में वर्णित दिव्य देहधारी भगवान वासुदेव की आराधना करते हैं। उनका शरीर श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि तथा पुष्पहार से सुशोभित है और वे हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये हुए हैं। नारद जैसे भक्त अपने अन्तःकरण में उनका सदा ध्यान करते हैं।

8 प्रारब्ध ने महाराज भरत के लिए भौतिक ऐश्वर्य-भोग की अवधि एक करोड़ वर्ष नियत कर दी थी। जब यह अवधि समाप्त हुई तो उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और अपने पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति को अपने पुत्रों में बाँट दिया, उन्होंने समस्त ऐश्वर्य के आगार अपने पैतृकगृह को छोड़ दिया और वे पुलहाश्रम के लिए चल पड़े जो हरद्वार में स्थित है। वहाँ शालग्राम शिलाएँ प्राप्त होती हैं।

9 पुलहाश्रम में भगवान हरि अपने भक्तों के दिव्य वात्सल्य-वश होकर दृश्य होते रहते हैं और उन सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं।

10 पुलह आश्रम में गण्डकी नदी है जो समस्त नदियों में श्रेष्ठ है। यहाँ इन समस्त स्थलों को पवित्र करने वाली शालग्राम शिलाएँ (संगमरमर की बटियाँ) हैं। इनमें ऊपर तथा नीचे दोनों और नाभि जैसे चक्र दृष्टिगोचर होते हैं।

11 पुलह आश्रम के उपवन में महाराज भरत अकेले रहकर अनेक प्रकार के फूल, किसलय तथा तुलसीदल एकत्र करने लगे। वे गण्डकी नदी का जल तथा विभिन्न प्रकार के मूल, फल तथा कन्द भी एकत्र करते। वे इन सबसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव को भोजन अर्पित करते और उनकी आराधना करते हुए संतुष्ट रहने लगे। इस प्रकार उनका हृदय अत्यन्त निष्कलुष हो गया और उन्हें भौतिक सुख के लिए लेशमात्र भी इच्छा न रही। उनकी समस्त भौतिक कामनाएँ दूर हो गई। इस स्थिर दशा में उन्हें परम सन्तोष हुआ और वे भक्ति में बने रहे।

12 इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ भक्त महाराज भरत ईश्वर की भक्ति में निरन्तर लगे रहे। स्वाभाविक रूप से वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम बढ़ता गया और अन्ततः उनका हृदय द्रवित हो उठा। फलतः धीरे-धीरे समस्त विधि-विधानों के प्रति उनकी आसक्ति जाती रही। उन्हें रोमांच होने लगा और आह्लाद के सभी शारीरिक लक्षण (भाव) प्रकट होने लगे। उनके नेत्रों से अश्रुओं की अविरल धारा बहने लगी जिससे वे कुछ भी देखने में असमर्थ हो गये। इस प्रकार वे निरन्तर ईश्वर के अरुण चरणारविन्द पर ध्यान लगाये रहते। उस समय उनका सरोवर के सदृश हृदय आनन्द-जल से पूरित हो गया। जब उनका मन इस सरोवर में निमग्न हो गया तो वे नियमपूर्वक सम्पन्न की जाने वाली भगवद पूजा भी भूल गये।

13 महाराज भरत अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। उनके शीश पर घुँघराले बालों की राशि थी जो दिन में तीन बार स्नान करने से गीली थी। वे मृगचर्म धारण करते और स्वर्णिम तेजोमय शरीर तथा सूर्य के भीतर वास करने वाले श्रीनारायण की पूजा करते। वे ऋग्वेद की रिचाओं का जप करते हुए भगवान नारायण की उपासना करते और सूर्योदय होते ही निम्नलिखित श्लोक का पाठ करते।

14 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं। वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित करते हैं और अपने भक्तों को सभी वर देते हैं। ईश्वर ने अपने दिव्य तेज से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है। वे अपनी ही इच्छा से इस ब्रह्माण्ड में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हुए और अपनी विभिन्न शक्तियों से भौतिक सुख की इच्छा रखने वाले समस्त जीवों का पालन करते हैं। ऐसे बुद्धिदायक भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय छह – भगवान ऋषभदेव के कार्यकलाप (5.6)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा-- हे भगवन, जो पूर्णरूपेण विमल हृदय हैं उन्हें भक्तियोग से ज्ञान प्राप्त होता है और सकाम कर्म के प्रति आसक्ति जलकर राख हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों में योग शक्तियाँ स्वतः उत्पन्न होती हैं। इनसे किसी प्रकार का क्लेश नहीं पहुँचता, तो फिर ऋषभदेव ने उनकी उपेक्षा क्यों की?

2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया- हे राजन, तुमने बिल्कुल सत्य कहा है। किन्तु जिस प्रकार चालाक बहेलिया पशुओं को पकड़ने के बाद उन पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि वे भाग सकते हैं। उसी प्रकार महापुरुष अपने मन पर भरोसा नहीं करते। दरअसल, वे सदा जागरूक रहते हुए मन की गति पर नजर रखे रहते हैं।

3 सभी विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं। मन स्वभाव से अत्यन्त चंचल है। मनुष्य को चाहिए कि वे इससे मित्रता न करे। यदि हम मन पर पूर्ण विश्वास करते हैं, तो यह किसी क्षण धोखा दे सकता है। यहाँ तक कि शिवजी श्रीकृष्ण के मोहिनी रूप को देखकर विचलित हो उठे और सौभरि मुनि भी योग की सिद्धावस्था से च्युत हो गये।

4 व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों के बहकावे में आसानी से आकर कभी कभी अपने पति का उनसे वध करवा देती है। यदि योगी अपने मन के ऊपर संयम नहीं रखता और उसे अवसर (छूट) प्रदान करता है, तो उसका मन एक प्रकार से काम, क्रोध तथा लोभ जैसे शत्रुओं को प्रश्रय देता है, जो निश्चय ही योगी को मार डालेंगे।

5 काम, क्रोध, मद, लोभ, पश्चाताप, मोह तथा भय का मूल कारण तो मन ही है। ये सारे मिलकर कर्म-बन्धन की रचना करते हैं। भला कौन बुद्धिमान मन पर विश्वास कर सकेगा।

6 भगवान ऋषभदेव इस ब्रह्माण्ड के समस्त राजाओं में प्रमुख थे, किन्तु अवधूत का भेष तथा उसकी भाषा स्वीकार करके वे इस प्रकार आचरण कर रहे थे मानो जड़ तथा बद्ध जीव हो। फलतः कोई उनके ईश्वरीय ऐश्वर्य को नहीं देख सका। उन्होंने योगियों को देह त्यागने की विधि सिखाने के लिए ही ऐसा आचरण किया, तो भी वे वासुदेव कृष्ण के अंश रूप बने रहे। इस दशा में रहते हुए उन्होंने इस संसार में भगवान ऋषभदेव के रूप में की गई लीलाओं को त्याग दिया। यदि कोई ऋषभदेव के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए इस सूक्ष्म देह को त्याग सकता है, तो उसे पुनः भौतिक देह नहीं धारण करनी पड़ती।

7 वास्तव में भगवान ऋषभदेव के कोई भौतिक शरीर न था, किन्तु योगमाया से वे अपने शरीर को भौतिक मान रहे थे। अतः सामान्य मनुष्य की भाँति आचरण करके उन्होंने वैसी मानसिकता का त्याग किया। वे संसार भर में घूमने लगे। घूमते-घूमते वे दक्षिण भारत के कर्णाट प्रदेश में पहुँचे जहाँ के रास्ते में कोक, वेंक तथा कुटक पड़े। इस दिशा में घूमने की उनकी कोई योजना न थी, किन्तु कुटकाचल के निकट उन्होंने एक जंगल में प्रवेश किया। उन्होंने अपने मुँह में पत्थर के टुकड़े भर लिए और जंगल में नग्न तथा बाल बिखेरे पागल की भाँति घूमने लगे।

8 जब वे भटक रहे थे तो प्रबल दावाग्नि लग गई। यह अग्नि वायु से झकझोरे गये बाँसों की रगड़ से उत्पन्न हुई थी। इस अग्नि में कुटकाचल का पूरा जंगल तथा ऋषभदेव का शरीर भस्मसात हो गए।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को आगे बताया कि हे राजन, कोक, वेंक तथा कुटक के राजा ने, जिसका नाम अर्हत था, ऋषभदेव के कार्य-कलापों के विषय में सुना और उसने ऋषभदेव के नियमों का अनुकरण करते हुए एक नवीन धर्म-पद्धति चला दी।

10 पापमय कर्मों के इस युग, कलियुग, का लाभ उठाकर मोहवश राजा अर्हत ने बाधारहित वैदिक नियमों को छोड़ दिया और वेद विरुद्ध एक नवीन धर्म-पद्धति गढ़ ली। यही जैन धर्म का शुभारम्भ था। अन्य अनेक तथाकथित धर्मों ने इस नास्तिकवाद को ग्रहण किया। अधम तथा परमेश्वर की माया से मोहित व्यक्ति मूल वर्णाश्रम धर्म तथा उसके नियमों का परित्याग कर देंगे। वे नित्य तीन बार स्नान करना और ईश्वर की आराधना करना छोड़ देंगे। वे शौच तथा परमेश्वर को त्याग कर अटपटे नियमों को ग्रहण करेंगे। नियमित स्नान न करने अथवा अपना मुख न धोने से वे सदा गंदे रहेंगे और अपने केश नुचवाएँगे। ढोंग धर्म का अनुसरण करते हुए वे फूलेंगे, फलेंगे। इस कलिकाल में लोग अधार्मिक पद्धतियों की ओर अधिक उन्मुख होंगे। फलस्वरूप वे वेद, वेदों के अनुयायी ब्राह्मणों, भगवान तथा अनेक भक्तों का उपहास करेंगे।

11 अधम लोग अपने अज्ञानवश वैदिक नियमों से हटकर चलने वाली धार्मिक प्रणाली का सूत्रपात करते हैं। वे अपने मानसिक ढोंगों के कारण स्वयं ही घोर अंधकार में गिरते हैं।

12 इस कलियुग में लोग रजो तथा तमो गुणों से भरे हुए हैं। भगवान ऋषभदेव ने इन लोगों को माया के चंगुल से छुड़ाने के लिए ही अवतार लिया था।

13 विद्वानजन भगवान ऋषभदेव के दिव्य गुणों का जाप इस प्रकार करते हैं – ”ओह! इस पृथ्वीलोक में सात समुद्र तथा अनेक द्वीप और वर्ष हैं जिनमें से भारतवर्ष सबसे अधिक पवित्र है। भारतवर्ष के लोग भगवान के कार्यकलापों का, ऋषभदेव तथा अन्य अनेक अवतारों के रूप में, गुणगान करने के अभ्यस्त हैं। ये सारे कार्य मानवता के कल्याण हेतु अत्यन्त शुभ हैं।"

14 “ओह! भला मैं प्रियव्रत के वंश के सम्बन्ध में क्या कहूँ जो इतना विमल तथा अत्यन्त विख्यात है। इसी वंश में परम पुरुष भगवान ने अवतार लिया और कर्मफलों से मुक्त करने वाले धार्मिक नियमों का आचरण किया।"

15 “भला ऐसा कौन योगी है जो अपने मन से भी भगवान ऋषभदेव के आदर्शों का पालन कर सके? उन्होंने उन समस्त योग-सिद्धियों का तिरस्कार कर दिया था जिसके लिए अन्य योगी लालायित रहते हैं। भला ऐसा कौन योगी है जो भगवान ऋषभदेव की समता कर सके?”

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा:ऋषभदेव समस्त वैदिक ज्ञान, मनुष्यों, देवताओं, गायों तथा ब्राह्मणों के स्वामी हैं। मैं पहले ही उनके विशुद्ध, दिव्य कार्य-कलापों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ जिनसे समस्त जीवात्माओं के पापकर्म मिट जाएँगे। भगवान ऋषभदेव की लीलाओं का यह वर्णन समस्त मंगल वस्तुओं का आगार है। जो भी आचार्यों का अनुसरण करते हुए इन्हें ध्यान से सुनता या कहता है उसे निश्चय ही भगवान वासुदेव के चरणकमलों की शुद्ध भक्ति प्राप्त होगी।

17 भक्तजन भौतिक संसार के विभिन्न संकटों से मुक्त होने के लिए निरन्तर भक्ति-सरिता में स्नान करते रहते हैं। इससे उन्हें परम आनन्द प्राप्त होता है और साक्षात मुक्ति उनकी सेवा करने आती है। तो भी वे उस सेवा को स्वीकार नहीं करते, भले ही भगवान स्वयं क्यों न सेवा के लिए तत्पर हों। भक्तों के लिए मुक्ति महत्त्वहीन है, क्योंकि ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाने पर उनकी प्रत्येक आकांक्षा पूरी हो गई होती है और वे समस्त भौतिक कामनाओं से ऊपर उठ चुके होते हैं।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, परम पुरुष मुकुन्द सभी पाण्डवों तथा यदुवंशियों के वास्तविक पालक हैं। वे तुम्हारे गुरु, आराध्य अर्चाविग्रह, मित्र तथा तुम्हारे कर्मों के निदेशक हैं। यही नहीं, वे कभी-कभी दूत या सेवक के रूप में भी तुम्हारे परिवार की सेवा करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे सामान्य सेवकों की तरह कार्य करते हैं। जो ईश्वर की सेवा में लगे रहकर प्रिय पात्र बनना चाहते हैं उन्हें मुक्ति सरलता से मिल जाती है, किन्तु वे (भगवान) अपनी प्रत्यक्ष सेवा करने का अवसर बहुत ही कम प्रदान करते हैं।

19 भगवान ऋषभदेव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध था, अतः वे आत्म-तुष्ट थे और उन्हें किसी बाह्य तुष्टि की आकांक्षा नहीं रह गई थी। अपने में पूर्ण होने के कारण उन्हें किसी सफलता की स्पृहा (इच्छा) नहीं थी। जो वृथा ही देहात्मबुद्धि में लगे रहते हैं और भौतिकता का परिवेश तैयार करते हैं, वे अपने वास्तविक हित को नहीं पहचानते। भगवान ऋषभदेव ने अहैतुकी कृपावश वास्तविक आत्मबुद्धि तथा जीवन लक्ष्य की शिक्षा दी। अतः हम उन भगवान ऋषभदेव को नमस्कार करते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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