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अध्याय नौ – मोहिनी-मूर्ति के रूप में भगवान का अवतार (8.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात असुर एक दूसरे के शत्रु बन गये। उन्होंने अमृत पात्र को फेंकते और छीनते हुए अपने मैत्री-सम्बन्ध तोड़ लिये। इसी बीच उन्होंने देखा कि एक अत्यन्त सुन्दर तरुणी उनकी ओर बढ़ी आ रही है।

2 उस सुन्दरी को देखकर असुरों ने कहा: ओह! इसका सौन्दर्य कितना आश्चर्यजनक है, शरीर की कान्ति कितनी अद्भुत है और इसकी तरुणावस्था का सौन्दर्य कितना उत्कृष्ट है। इस तरह कहते हुए वे उसका भोग करने की इच्छा से तेजी से उसके पास पहुँच गये और उससे तरह-तरह से प्रश्न पूछने लगे।

3 हे अद्भुत सुन्दरी बाला! तुम्हारी आँखें इतनी सुन्दर हैं कि वे कमल पुष्प की पंखड़ियों जैसी लगती हैं। तुम कौन हो, कहाँ से आई हो, यहाँ आने का तुम्हारा प्रयोजन क्या है और तुम किसकी हो? हमारे मन तुम्हारे दर्शनमात्र से ही विचलित हो रहे हैं।

4 मनुष्यों की कौन कहे, देवता, असुर, सिद्ध, गन्धर्व, चारण तथा ब्रह्माण्ड के विभिन्न निर्देशक अर्थात प्रजापति तक इसके पूर्व तुम्हारा स्पर्श नहीं कर पाये। ऐसा नहीं है कि हम तुम्हें ठीक से पहचान नहीं पा रहे हों।

5 हे सुन्दर भौंहों वाली सुन्दरी! निश्चय ही, विधाता ने अपनी अहैतुकी कृपा से तुम्हें हम लोगों की इन्द्रियों और मन को प्रसन्न करने के लिए भेजा है।

6 इस समय हम लोग एक ही बात अमृत कलश को लेकर परस्पर शत्रुता में मग्न हैं। यद्यपि हम एक ही कुल में उत्पन्न हुए हैं फिर भी हममें शत्रुता बढ़ती ही जा रही है। अतएव हे क्षीण कटि वाली सुप्रतिष्ठित सुन्दरी! हमारी आपसे प्रार्थना है कि हमारे इस झगड़े को निपटाने की कृपा करें।

7 हम सभी देवता तथा असुर दोनों ही एक ही पिता कश्यप की सन्तानें हैं और इस तरह से भाई-भाई हैं। किन्तु मतभेद के कारण हम अपना-अपना पराक्रम दिखला रहे हैं। अतएव आपसे हमारी विनती है कि हमारे झगड़े का निपटारा कर दें और इस अमृत को हममें बराबर-बराबर बाँट दें।

8 असुरों द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर सुन्दरी का रूप धारण किये हुए भगवान हँसने लगे। फिर स्त्री-सुलभ मोहक हावभाव से उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहा।

9 मोहिनी-रूप भगवान ने असुरों से कहा: हे कश्यपमुनि के पुत्रों! मैं तो एक गणिका हूँ। तुम लोग किस तरह मुझ पर इतना विश्वास कर रहे हो? विद्वान पुरुष कभी स्त्री पर विश्वास नहीं करते।

10 हे असुरों! जिस प्रकार बन्दर, सियार तथा कुत्ते अपने यौन सम्बन्धों में अस्थिर होते हैं और नित्य ही नया-नया साथी चाहते हैं उसी प्रकार जो स्त्रियाँ स्वच्छन्ध होती हैं वे नित्य नया साथी ढूँढती हैं। ऐसी स्त्री की मित्रता कभी स्थायी नहीं होती। यह विद्वानों का अभिमत है।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: मोहिनी-मूर्ति के परिहासपूर्ण शब्द सुनकर सारे असुर अत्यधिक आश्वस्त हुए। वे गम्भीर रूप से हँस पड़े और अन्ततः उन्होंने वह अमृत घट उसके हाथों में थमा दिया।

12 तत्पश्चात अमृत-पात्र को अपने हाथ में लेकर भगवान थोड़ा मुस्काये और फिर आकर्षक शब्दों में बोले। उस मोहिनी-मूर्ति ने कहा: मेरे प्रिय असुरों! मैं जो कुछ भी करूँ, चाहे वह खरा हो या खोटा, यदि तुम उसे स्वीकार करो तब मैं इस अमृत को तुम लोगों में बाँटने का उत्तरदायित्व ले सकती हूँ ।

13 असुरों के प्रधान निर्णय लेने में अधिक पटु नहीं थे। अतएव मोहिनी मूर्ति के मधुर शब्दों को सुनकर उन्होंने कहा “हाँ, आपने जो कहा है, वह बिल्कुल ठीक है।“ इस तरह असुर उसका निर्णय स्वीकार करने के लिए राजी हो गए।

14 तब असुरों तथा देवताओं ने उपवास रखा। स्नान करने के बाद उन्होंने अग्नि में घी की आहुतियाँ डाली और गायों, ब्राह्मणों तथा समाज के अन्य वर्णों--क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों--को उनकी पात्रता के अनुसार दान दिया। तत्पश्चात असुरों तथा देवों ने ब्राह्मणों के निर्देशन में अनुष्ठान सम्पन्न किये।

15 तब अपनी रुचि के अनुसार नए वस्त्र धारण किये, आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके कुश-आसनों पर बैठ गये।

16-17 हे राजन! ज्योंही देवता तथा असुर पूर्व दिशा में मुख करके उस सभा-मण्डप में बैठ गये जो फूल मालाओं तथा दीपों से पूर्णतया सजाया और धूप के धुएँ से सुगन्धित हो गया था, उसी समय अत्यन्त सुन्दर साड़ी पहने, पायलों की झनकार करती मोहिनी-मूर्ति ने मन्द गति चलते हुए सभा-मण्डप में प्रवेश किया। उसकी आँखें युवावस्था के मद से विह्वल और हाथ में अमृत-कलश लिए हुए थी।

18 उसकी आकर्षक नाक, गालों और सुनहले कुण्डलों से विभूषित कानों ने उसके मुखमण्डल को अतीव सुन्दर बना दिया था। जब वह चलती थी, उसकी साड़ी का किनारा उसके अंचल से खिसक रहा था। जब देवताओं तथा असुरों ने मोहिनी-मूर्ति के सुन्दर अंगों को देखा तो वे सब पूरी तरह मोहित हो गये क्योंकि वह उनको तिरछी नजर से देख कर मुस्काती जा रही थी।

19 असुर स्वभाव से सर्पों के समान कुटिल होते हैं। अतएव उन्हें अमृत में से हिस्सा देना तनिक भी सामान्य नहीं था क्योंकि यह सर्प को दूध पिलाने के समान घातक होता। यह सोचकर अच्युत भगवान ने असुरों को अमृत में हिस्सा नहीं दिया।

20 मोहिनी-मूर्ति रूपी ब्रह्माण्ड के स्वामी अर्थात भगवान ने देवताओं तथा असुरों को बैठने के लिए अलग-अलग पंक्तियों की व्यवस्था कर दी और उनके पद के अनुसार उन्हें बैठा दिया।

21 अपने हाथों में अमृत का कलश लिये वह सर्वप्रथम असुरों के निकट आई और अपनी मधुर वाणी से उन्हें संतुष्ट किया और इस तरह उनको अमृत के भाग से वंचित कर दिया। तब उसने दूरी पर बैठे देवताओं को अमृत पिला दिया जिससे वे अशक्तता, बुढ़ापा तथा मृत्यु से मुक्त हो सकें।

22 हे राजन! चूँकि असुरों ने वचन दिया था कि वह स्त्री जो कुछ भी करेगी, चाहे न्यायपूर्ण हो या अन्याय-पूर्ण, उसे वे स्वीकार करेंगे, अत: अब अपना वचन रखने, संतुलन दिखाने तथा स्त्री से झगड़ा करने से बचने के लिए वे मौन रहे।

23 असुरों को मोहिनी-मूर्ति से प्रेम तथा एक प्रकार का विश्वास हो गया था और उन्हें भय था कि उनके सम्बन्ध कहीं डगमगा न जाएँ। अतएव उन्होंने उसके वचनों का आदर-सम्मान किया और ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिससे उसके साथ उनकी मित्रता में बाधा पड़े।

24 सूर्य तथा चन्द्रमा को ग्रसने वाला असुर राहु – देवता के वस्त्रों से आच्छादित होकर देवताओं के समूह में प्रविष्ट हो गया और किसी के द्वारा, जाने बिना अमृत पीने लगा। राहु से सतत शत्रुता के कारण, चन्द्रमा तथा सूर्य स्थिति को भाँप गये, अतः राहु पहचान लिया गया।

25 भगवान हरि ने छुरे के समान तेज धार वाले अपने चक्र को चलाकर तुरन्त ही राहु का सिर छिन्न कर दिया। जब राहु का सिर उसके शरीर से कट गया तो वह शरीर अमृत का स्पर्श न करने के कारण जीवित नहीं रह पाया।

26 किन्तु अमृत का स्पर्श करने के कारण राहु का सिर अमर हो गया। इस प्रकार ब्रह्माजी ने राहु के सिर को एक ग्रह (लोक) के रूप में मान लिया। चूँकि राहु सूर्य तथा चन्द्रमा का शाश्वत वैरी है, अतः वह पूर्णिमा तथा अमावस्या की रात्रियों में उन पर सदैव आक्रमण करने का प्रयत्न करता है।

27 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तीनों लोकों के सर्वश्रेष्ठ मित्र तथा शुभचिन्तक हैं। जब देवताओं ने अमृत पीना समाप्त किया तब भगवान ने समस्त असुरों के समक्ष अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया।

28 यद्यपि देवताओं तथा असुरों के देश, काल, कारण, उद्देश्य, कर्म तथा अभिलाषा एक-जैसे थे, किन्तु देवताओं को एक प्रकार का फल मिला और असुरों को दूसरे प्रकार का। चूँकि देवता सदैव भगवान के चरणकमलों की धूलि की शरण में रहते हैं अतएव वे अमृत प्राप्त कर सके, किन्तु भगवान के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण नहीं करने के कारण असुर मनवांछित फल प्राप्त करने में असमर्थ रहे।

29 मानव समाज में मनुष्य के जीवन तथा धन-सम्पदा की सुरक्षा के लिए मनसावाचाकर्मणा विविध कार्य किये जाते हैं, किन्तु ये सब कार्य शरीर या इन्द्रियतृप्ति के लिए ही किये जाते हैं। ये सारे कार्य भक्ति से पृथक होने के कारण निराशाजनक होते हैं। किन्तु जब ये ही कार्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए किये जाते हैं, तो उनके लाभकारी फल सब में बाँट दिए जाते हैं जिस तरह वृक्ष की जड़ में पानी डालने से वह समूचे वृक्ष में वितरित हो जाता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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