10882932073?profile=RESIZE_584x

अध्याय सात – शिवजी द्वारा विषपान से ब्रह्माण्ड की रक्षा (8.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! देवों तथा असुरों ने सर्पराज वासुकि को बुलवाया और उसे वचन दिया कि वे उसे अमृत में हिस्सा देंगे। उन्होंने वासुकि को मन्दर पर्वत के चारों ओर मथने की रस्सी की भाँति लपेट दिया और क्षीरसागर के मन्थन द्वारा अमृत उत्पन्न करने का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रयत्न किया।

2 भगवान अजित ने सर्प के अगले हिस्से को पकड़ लिया और तब सारे देवताओं ने उनके पीछे होकर उसे पकड़ लिया।

3 दैत्यों के नेताओं ने पूँछ पकड़ना मूर्खतापूर्ण समझा क्योंकि यह सर्प का अशुभ अंग है। इसके स्थान पर वे अगला हिस्सा पकड़ना चाहते थे जिसे भगवान तथा देवताओं ने पकड़ रखा था क्योंकि वह भाग शुभ था। इस प्रकार असुरों ने इस दलील के साथ कि वे सभी वैदिक ज्ञान में अत्यधिक बढ़े-चढ़े हैं और अपने जन्म तथा कार्यकलापों के लिए विख्यात हैं, आपत्ति उठाई कि वे सर्प के अगले हिस्से को पकड़ना चाहते हैं।

4 इस प्रकार असुरगण देवताओं की इच्छा का विरोध करते हुए मौन रहे। भगवान असुरों के मनोभावों को ताड़ गए अतएव वे मुस्काने लगे। उन्होंने विचार-विमर्श किये बिना तुरन्त ही साँप की पूँछ पकड़ कर उनका प्रस्ताव मान लिया और सारे देवता उनके साथ हो लिये।

5 साँप को किस स्थान पर पकड़ना है, यह तय करने के पश्चात कश्यप के पुत्र देवता तथा असुर दोनों ने क्षीरसागर के मन्थन से अमृत पाने की लालसा से अपना-अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।

6 हे पाण्डुवंशी, जब क्षीरसागर में मन्दर पर्वत को इस तरह मथानी के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा था, तो उसका कोई आधार न था अतएव असुरों तथा देवताओं के बलिष्ठ हाथों द्वारा पकड़ा रहने पर भी वह जल में डूब गया।

7 चूँकि पर्वत देवी शक्ति से डूबा था अतएव देवता तथा असुरगण निराश थे और उनके चेहरे कुम्हलाये से प्रतीत होते थे।

8 भगवदिच्छा से जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी उसे देखकर असीम शक्तिशाली एवं अच्युत संकल्प वाले भगवान ने कछुए का अद्भुत रूप धारण किया और जल में प्रविष्ट होकर विशाल मन्दर पर्वत को उठा लिया।

9 जब देवताओं तथा असुरों ने देखा कि मन्दर पर्वत जो एक विशाल द्वीप की भाँति आठ लाख मील तक फैला हुआ था उठाया गया है, तो वे प्रफुल्लित हो गए और पुनः मन्थन करने के लिए प्रोत्साहित हुए। यह पर्वत कछुवे की पीठ पर टिका था।

10 हे राजन! जब देवताओं तथा असुरों ने अपने बाहुबल से अद्भुत कछुवे की पीठ पर स्थित मन्दर पर्वत को घूमा-घूमा दिया तो कछुवे ने पर्वत के इस घूमने को अपना शरीर खुजलाने का साधन मान लिया। इससे उसे अत्यन्त सुखद अनुभूति हुई।

11 तत्पश्चात भगवान विष्णु, उन सबको प्रोत्साहित करने एवं विभिन्न प्रकार से शक्ति देने के लिए, असुरों में रजोगुण के रूप में, देवताओं में सतोगुण के रूप में तथा वासुकि में तमोगुण के रूप में प्रविष्ट हो गये।

12 मन्दर पर्वत की चोटी पर भगवान ने स्वयं को हजारों भुजाओं सहित प्रकट किया और एक हाथ से मन्दर पर्वत को पकड़े रखा। वे अन्य विशाल पर्वत की भाँति लग रहे थे। ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य देवताओं ने उच्च लोकों में भगवान की स्तुति की और उन पर फूल बरसाये।

13 भगवान – देवताओं, असुरों, वासुकि, पर्वत के ऊपर, नीचे, तथा पर्वत में भी प्रविष्ट हो गए थे। इस प्रकार भगवान द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर देवता तथा असुर अमृत के लिए मानो मतवाले होकर कार्य कर रहे थे। देवताओं तथा असुरों के बल से, क्षीरसागर इतनी शक्ति के साथ विलोड़ित हो रहा था कि जल के सारे मगरमच्छ अत्यधिक विचलित हो उठे, तो भी समुद्र का मन्थन चलता रहा।

14 वासुकि के हजारों नेत्र तथा मुख थे। उसके मुख से धुँआ तथा अग्नि की लपटें निकल रही थीं जिससे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुरगण पीड़ित हो रहे थे। इस तरह सारे असुर जो जंगल की आग से जले हुए सरल वृक्ष की भाँति प्रतीत हो रहे थे धीरे-धीरे शक्तिहीन होते गए।

15 चूँकि वासुकि की दहकती साँस से देवता भी प्रभावित हुए थे अतएव उनकी शारीरिक कान्ति घट गई और उनके वस्त्र, मालाएँ, आयुध तथा मुखमण्डल धुएँ से काले पड़ गये। किन्तु भगवतकृपा से समुद्र के ऊपर बादल प्रकट होकर मूसलाधार वर्षा करने लगे। समुद्री लहरों से जल के कण लेकर मन्द समीर बहने लगे जिससे देवताओं को राहत मिल सकी।

16 जब श्रेष्ठतम देवताओं तथा असुरों के द्वारा इतना उद्यम करने पर भी क्षीरसागर से अमृत नहीं निकला तो स्वयं भगवान अजित ने समुद्र को मथना प्रारम्भ किया।

17 भगवान श्याम बादलों की भाँति दिख रहे थे। वे पीले वस्त्र पहने थे, उनके कान के कुण्डल बिजली की तरह चमक रहे थे और उनके बाल कंधों पर बिखरे हुए थे। वे फूलों की माला पहने थे और उनकी आँखें गुलाबी थीं। विश्वभर में अभय देनेवाली अपनी बलिष्ठ यशस्वी भुजाओं से उन्होंने वासुकि को पकड़ लिया और मन्दर पर्वत को मथानी बनाकर समुद्र का मन्थन करने लगे। जब वे इस प्रकार व्यस्त थे तो वे इन्द्रनील नामक सुन्दर पर्वत की भाँति प्रतीत हो रहे थे।

18 मछलियाँ, हांगर, कछुवे तथा सर्प अत्यन्त विचलित एवं क्षुब्ध थे। सारा समुद्र उत्तेजित हो उठा और व्हेल, समुद्री हाथी, घड़ियाल तथा तिमिंग्डिल मछ्ली जैसे बड़े-बड़े जलचर सतह पर आ गये। जब इस प्रकार से समुद्र-मन्थन हो रहा था, तो इससे सर्वप्रथम हालहल नाम घातक विष उत्पन्न हुआ।

19 हे राजन, जब उग्र विष ऊपर-नीचे तथा सभी दिशाओं में वेग के साथ फैलने लगा तो सारे देवता भगवान समेत – शिवजी के पास गये। अपने को असुरक्षित तथा अत्यन्त भयभीत पाकर वे सब उनकी शरण माँगने लगे।

20 देवताओं ने शिवजी को तीनों लोको के मंगलमय अभ्युदय हेतु तपस्या करते हुए अपनी पत्नी भवानी सहित कैलाश पर्वत की चोटी पर देखा। मुक्ति की कामना करने वाले मुनिगण उनकी पूजा कर रहे थे। देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और आदरपूर्वक प्रार्थना की।

21 प्रजापतियों ने कहा: हे देवश्रेष्ठ महादेव, हे समस्त जीवों के परमात्मा तथा उनकी सुख-समृद्धि के कारण! हम आपके चरणकमलों की शरण में आये हैं। अब आप तीनों लोकों में फैलने वाले इस उग्र विष से हमारी रक्षा करें।

22 हे प्रभु! आप सारे विश्व के बन्धन तथा मोक्ष के कारण हैं, क्योंकि आप इसके शासक हैं। जो लोग आध्यात्मिक चेतना में बढ़े-चढ़े हैं, वे आपकी शरण में जाते हैं। आप ही उनके कष्टों को दूर करनेवाले और उनकी मुक्ति के कारण हैं। अतएव हम आपकी पूजा करते हैं।

23 हे प्रभु! आप स्वयं-प्रकाशित तथा सर्वश्रेष्ठ हैं। आप अपनी निजी शक्ति से इस भौतिक जगत का सृजन करते हैं और जब आप सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं, तो ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के नाम अपना लेते हैं।

24 आप समस्त कारणों के कारण, आत्म-प्रकाशित, अचिन्त्य, निराकार ब्रह्म हैं, जो मूलतः परब्रह्म हैं। आप इस दृश्य जगत में विविध शक्तियों को प्रकट करते हैं।

25 हे स्वामी! आप वैदिक ज्ञान के मूल स्रोत हैं। आप भौतिक सृष्टि, प्राण, इन्द्रियों, पाँच तत्त्वों, तीन गुणों तथा महत तत्त्व के मूल कारण हैं। आप नित्य काल, संकल्प तथा सत्य और ऋत कही जानेवाली दो धार्मिक प्रणालियाँ हैं। आप तीन अक्षरों – अ, उ तथा म् वाले ॐ शब्द के आश्रय हैं।

26 हे समस्त लोकों के पिता! विद्वान लोग जानते हैं कि अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी आपके चरणकमल हैं, आप निखिल देवरूप हैं, नित्य काल आपकी गति है, सारी दिशाएँ आपके कान हैं और जल का स्वामी वरुण आपकी जीभ है।

27 हे प्रभु! आकाश आपकी नाभि है, वायु आपकी श्वसन क्रिया है, सूर्य आपकी आँखें हैं तथा जल आपका वीर्य है। आप समस्त प्रकार के उच्च तथा निम्न जीवों के आश्रय हैं। चन्द्रदेव आपका मन है। उच्चतर लोकमण्डल आपका सिर है।

28 हे प्रभु! आप साक्षात तीनों वेद हैं। सातों समुद्र आपके उदर हैं और पर्वत आपकी हड्डियाँ हैं। सारी औषधियाँ, लताएँ तथा वनस्पतियाँ आपके शरीर के रोएँ हैं। गायत्री जैसे वैदिक मंत्र आपके शरीर के सात कोश हैं और वैदिक धर्म पद्धति आपका हृदय है।

29 हे प्रभो! पाँच महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र आपके पाँच मुखों के द्योतक है जिनसे अड़तीस महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र उत्पन्न हुए हैं। आप शिव नाम से विख्यात स्वयं प्रकाशित हैं। आप परमात्मा नाम से प्रत्यक्ष परम सत्य के रूप में स्थित हैं।

30 हे भगवन! आपकी छाया अधर्म में दिखती है, जिससे नाना प्रकार की अधार्मिक सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रकृति के तीनों गुण—सत्त्व, रज तथा तमो–आपके तीन नेत्र हैं। छन्दों से युक्त सारे वैदिक ग्रंथ आपसे उद्भूत हैं क्योंकि उनके संग्रहकर्ताओं ने आपकी कृपादृष्टि प्राप्त करके ही उन शास्त्रों को लिखा।

31 हे गिरीश! चूँकि निराकार ब्रह्म-तेज सतो, रजो तथा तमो गुणों से परे है अतएव इस भौतिक जगत के विभिन्न निदेशक (लोकपाल) न तो इसकी प्रशंसा कर सकते हैं न ही यह जान सकते हैं कि वह कहाँ है। वह ब्रह्मा, विष्णु या स्वर्ग के राजा महेन्द्र द्वारा भी ज्ञेय नहीं है।

32 जब आपकी आँखों से उद्भूत लपटों तथा चिनगारियों से प्रलय होता है, तो सारी सृष्टि जलकर राख हो जाती है। तो भी आपको पता नहीं चलता कि यह कैसे होता है। अतएव आपके द्वारा दक्ष-यज्ञ, त्रिपुरासुर तथा कालकूट विष विनष्ट किये जाने के विषय में क्या कहा जा सकता है? ऐसे कार्यकलाप आपको अर्पित की जानेवाली स्तुतियों के विषय नहीं बन सकते।

33 सारे विश्व को उपदेश देनेवाले महान आत्मतुष्ट व्यक्ति अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का निरन्तर चिन्तन करते हैं, किन्तु जब आपकी तपस्या को न जानने वाले व्यक्ति आपको उमा के साथ विचरते देखते हैं, तो वे आपको भ्रमवश काफी कामी समझते हैं अथवा जब वे आपको श्मशान में घूमते हुए देखते हैं, तो भ्रमवश वे आपको अत्यन्त नृशंस तथा ईर्ष्यालु समझते हैं। निस्सन्देह, वे निर्लज्ज हैं। वे आपके कार्यकलापों को कभी नहीं समझ सकते।

34 ब्रह्माजी तथा अन्य देवतागण जैसे व्यक्ति तक आपकी स्थिति नहीं समझ सकते क्योंकि आप चर तथा अचर सृष्टि से भी परे हैं। चूँकि आपको सही रूप में कोई नहीं समझ सकता तो फिर भला कोई किस तरह आपकी स्तुति कर सकता है? यह असम्भव है। जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है, हम ब्रह्माजी की सृष्टि के प्राणी हैं। अतएव ऐसी परिस्थितियों में हम आपकी ठीक से स्तुति नहीं कर सकते, किन्तु हमने अपनी बुद्धि के अनुसार अपनी भावनाएँ व्यक्त की हैं।

35 हे महान शासक! हमारे लिए आपके असली स्वरूप को समझ पाना असम्भव है। जहाँ तक हम देख पाते हैं, आपकी उपस्थिति हर एक के लिए सुख-समृद्धि लाती है। इसके परे, कोई भी आपके कार्यकलापों को नहीं समझ सकता। हम इतना ही देख सकते हैं, इससे अधिक कुछ भी नहीं।

36 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शिवजी सारे जीवों के प्रति सदैव कल्याणकारी हैं। जब उन्होंने देखा कि सारे जीव विष के सर्वत्र फैलने के कारण अत्यधिक उद्विग्न हैं, तो वे अत्यन्त दयाद्र हो उठे। अतः उन्होंने अपनी नित्य संगिनी सती से इस प्रकार कहा।

37 शिवजी ने कहा: हे प्रिय भवानी! जरा देखो तो किस तरह ये सारे जीव क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न विष के कारण संकट में पड़ गये हैं।

38 जीवन संघर्ष में लगे समस्त जीवों को सुरक्षा प्रदान करना मेरा कर्तव्य है। निश्चय ही स्वामी का कर्तव्य है कि वह पीड़ित आश्रितों की रक्षा करे।

39 भगवान की माया से मोहग्रस्त सामान्य लोग सदैव एक दूसरे के प्रति शत्रुता में लगे रहते हैं। किन्तु भक्तगण अपने नश्वर शरीरों को भी संकट में डालकर उनकी रक्षा करने का प्रयास करते हैं।

40 हे मेरी भद्र पत्नी भवानी! जब कोई दूसरों के लिए उपकार के कार्य करता है, तो भगवान हरि अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और जब भगवान प्रसन्न होते हैं, तो मैं भी अन्य सारे प्राणियों के साथ अत्यधिक प्रसन्न होता हूँ। अतएव मुझे यह विष पीने दो जिससे सारे जीवों का कल्याण हो सके।

41 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार भवानी को सूचित करके शिवजी यह विष पीने लगे और भवानी ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे दी क्योंकि वे शिवजी की क्षमताओं को भलीभाँति जानती थीं।

42 तत्पश्चात मानवता के लिए शुभ तथा उपकारी कार्य में समर्पित शिवजी ने कृपा करके सारा विष अपनी हथेली में रखा और वे उसे पी गये।

43 अपयश के कारण क्षीरसागर से उत्पन्न विष ने मानो अपनी शक्ति का परिचय शिवजी के गले में नीली रेखा बनाकर दिया हो, किन्तु अब वही रेखा शिवजी का आभूषण मानी जाती है।

44 कहा जाता है कि सामान्य लोगों के कष्टों के कारण महापुरुष सदैव स्वेच्छा से कष्ट भोगना स्वीकार करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान को पूजने की यह सर्वोच्च विधि मानी जाती है।

45 भवानी (दक्षकन्या), ब्रह्मा, विष्णु समेत देवताओं और सामान्य लोगों ने – शरणागतों को वरदान देने वाले शिवजी के इस कार्य की भूरी-भूरी प्रशंसा की।

46 जब शिवजी विषपान कर रहे थे उस समय उनके हाथ से जो थोड़ा सा विष इधर-उधर गिर गया उसे बिच्छू, सर्प, विषैली औषधियाँ तथा अन्य पशु जिनका दंश विषैला होता है पी गए।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.