अध्याय चार – गजेन्द्र का वैकुण्ठ गमन (8.4)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान ने गजेन्द्र का उद्धार कर दिया तो सारे ऋषियों, गन्धर्वों तथा ब्रह्मा, शिव इत्यादि देवताओं ने भगवान की प्रशंसा की और भगवान तथा गजेन्द्र दोनों के ऊपर पुष्पवर्षा की।
2 स्वर्गलोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्वलोक के वासी नाचने और गाने लगे तथा महान ऋषियों, चारणलोक एवं सिद्धलोक के निवासियों ने भगवान पुरुषोत्तम की स्तुतियाँ कीं।
3-4 गन्धर्वों में श्रेष्ठ राजा हूहू, देवल मुनि द्वारा शापित होने के बाद घड़ियाल बन गया था। अब भगवान द्वारा उद्धार किये जाने पर उसने एक सुन्दर गन्धर्व का रूप धारण कर लिया। यह समझकर कि यह सब किसकी कृपा से सम्भव हो सका, उसने तुरन्त सिर के बल प्रणाम किया और श्रेष्ठ श्लोकों से पूजित होने वाले परम नित्य भगवान के लिए वह उपयुक्त स्तुतियाँ करने लगा।
5 भगवान की अहैतुकी कृपा से अपने पूर्व रूप को पाकर राजा हूहू ने भगवान की प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। तब ब्रह्मा इत्यादि समस्त देवताओं की उपस्थिति में वह गन्धर्व लोक लौट गया। वह सारे पापफलों से मुक्त हो चुका था।
6 चूँकि भगवान ने गजेन्द्र का अपने करकमलों से प्रत्यक्ष स्पर्श किया था, अतएव वह समस्त भौतिक अज्ञान तथा बन्धन से तुरन्त मुक्त हो गया। इस प्रकार उसे सारूप्य-मुक्ति प्राप्त हुई जिसमें उसे भगवान जैसा ही शारीरिक स्वरूप प्राप्त हुआ। वह पीत वस्त्र धारण किये चार भुजाओं वाला बन गया।
7 यह गजेन्द्र पहले वैष्णव था और द्रविड़ (दक्षिण भारत) प्रान्त के पाण्डय नामक देश का राजा था। अपने पूर्व जन्म में वह इन्द्रद्युम्न महाराज कहलाता था।
8 इन्द्रद्युम्न महाराज ने गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया और मलय पर्वत चला गया जहाँ उसका आश्रम एक छोटी सी कुटिया के रूप में था। उसके सिर पर जटाएँ थीं और वह सदैव तपस्या में लगा रहता था। एक बार वह मौन व्रत धारण किये भगवान की पूजा में तल्लीन था और भगवतप्रेम के आनन्द में डूबा हुआ था।
9 जब इन्द्रद्युम्न महाराज भगवान की पूजा करते हुए ध्यान में तल्लीन थे तो अगस्त्य मुनि अपनी शिष्य-मण्डली समेत वहाँ पधारे। जब मुनि ने देखा कि राजा इन्द्रद्युम्न एकान्त स्थान में बैठकर मौन साधे हैं और उनके स्वागत के शिष्टाचार का पालन नहीं कर रहा है, तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए।
10 तब अगस्त्य मुनि ने राजा को यह शाप दे डाला – ”इन्द्रद्युम्न तनिक भी भद्र नहीं है। नीच तथा अशिक्षित होने के कारण इसने ब्राह्मण का अपमान किया है। अतएव यह अंधकार प्रदेश में प्रवेश करे और आलसी मूक हाथी का शरीर प्राप्त करे।"
11-12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, अगस्त्य मुनि राजा इन्द्रद्युम्न को इस तरह शाप देने के बाद अपने शिष्यों समेत उस स्थान से चले गये। चूँकि राजा भक्त था अतएव उसने अगस्त्य मुनि के शाप का स्वागत किया क्योंकि भगवान की ऐसी ही इच्छा थी। अतएव अगले जन्म में हाथी का शरीर प्राप्त करने पर भी भक्ति के कारण उसे यह स्मरण रहा कि भगवान की पूजा और स्तुति किस तरह की जाती है।
13 गजेन्द्र को घड़ियाल के चंगुल से अर्थात इस भौतिक जगत से छुड़ाकर भगवान ने उसे सारूप्य मुक्ति प्रदान की। भगवान के अद्भुत दिव्य कार्यकलापों का यश बखान करने वाले गन्धर्वों, सिद्धों तथा अन्य देवताओं की उपस्थिति में, भगवान अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर बैठकर अपने अद्भुत धाम को लौट गये।
14 हे राजा परीक्षित! अब मैंने तुमसे कृष्ण की अद्भुत शक्ति का वर्णन कर दिया है, जिसे भगवान ने गजेन्द्र का उद्धार कर प्रदर्शित किया था। हे कुरुश्रेष्ठ, जो लोग इस कथा को सुनते हैं, वे उच्चलोकों में जाने के योग्य बनते हैं। इस कथा के श्रवण मात्र से वे भक्त के रूप में ख्याति अर्जित करते हैं, वे कलियुग के कल्मष से अप्रभावित रहते हैं और कभी दुःस्वप्न नहीं देखते।
15 अतएव जो लोग अपना कल्याण चाहते हैं – विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य और इनमें से भी मुख्यतः ब्राह्मण वैष्णव – उन्हें प्रातःकाल बिस्तर से उठकर अपने दुःस्वप्नों के कष्टों का प्रतिकार करने के लिए इस कथा का बिना विचलित हुए यथारूप पाठ करना चाहिए।
16 हे कुरुश्रेष्ठ, इस प्रकार हर एक के परमात्मा तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने प्रसन्न होकर सबों के समक्ष गजेन्द्र को सम्बोधित किया। उन्होंने निम्नलिखित आशीष-वचन कहे।
17-24 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: समस्त पापपूर्ण कर्मों के फलों से ऐसे व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं, जो रात्रि बीतने पर प्रातःकाल ही जाग जाते हैं, अत्यन्त ध्यानपूर्वक अपने मन को मेरे रूप, तुम्हारे रूप, इस सरोवर, इस पर्वत, कन्दराओं, उपवनों, बेंत के वृक्षों, बाँस के वृक्षों, कल्पतरु, मेरे, ब्रह्मा तथा शिव के निवास स्थानों, सोना, चाँदी तथा लोहे से बनी त्रिकुट पर्वत की तीन चोटियों, मेरे सुहावने धाम (क्षीरसागर), आध्यात्मिक किरणों से नित्य चमचमाते श्वेत-द्वीप, मेरे चिन्ह श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि, मेरी वैजयन्ती माला, कौमोदकी नामक मेरी गदा, मेरे सुदर्शन चक्र, तथा पाञ्चजन्य शंख, मेरे वाहन पक्षीराज गरुड़, मेरी शय्या शेषनाग, मेरी शक्ति का अंश लक्ष्मीजी, ब्रह्मा, नारद मुनि, शिवजी, प्रह्लाद, मेरे सारे अवतारों यथा मत्स्य, कूर्म तथा वराह, मेरे अनन्त शुभ कार्यकलापों में जो सुनने वाले को पवित्रता प्रदान करते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ॐकार मंत्र, परम सत्य, समग्र भौतिक शक्तियों, गायों तथा ब्राह्मणों में, भक्ति, सोम तथा कश्यप की पत्नियों में जो राजा दक्ष की पुत्रियाँ हैं, गंगा, सरस्वती, नन्दा तथा यमुना नदियों, ऐरावत हाथी, ध्रुव महाराज, सप्तर्षि तथा पवित्र मनुओं में एकाग्र करते हैं।
25 हे प्रिय भक्त! जो लोग रात्रि बीतने पर बिस्तर से उठकर तुम्हारे द्वारा अर्पित इस स्तुति से मेरी प्रार्थना करते हैं, मैं उनके जीवन के अन्त में उन्हें वैकुण्ठ लोक में नित्य आवास प्रदान करता हूँ।
26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस उपदेश को देकर हृषिकेश कहलाने वाले भगवान ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया और इस प्रकार ब्रह्मा इत्यादि सारे देवताओं को हर्षित किया। तब वे अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर चढ़ गये।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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