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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

दक्ष द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम षष्ठ स्कन्ध अध्याय चार

21 उस पर्वत के निकट अघमर्षण नामक एक तीर्थस्थल था। वहाँ पर प्रजापति दक्ष ने सारे कर्मकांड सम्पन्न किए और भगवान हरि को प्रसन्न करने के लिए महान तपस्या में संलग्न होकर उन्हें संतुष्ट किया।

22 हे राजन! अब मैं आपसे हंसगुह्य नामक स्तुतियों की पूरी व्याख्या करूँगा जिन्हें दक्ष ने भगवान को अर्पित किया और मैं बताऊंगा कि किस तरह उन स्तुतियों से भगवान उन पर प्रसन्न हुए।23 प्रजापति दक्ष ने कहा---भगवान माया तथा उससे उत्पन्न शारीरिक कोटियों से परे हैं। उनमें अचूक ज्ञान तथा परम इच्छा शक्ति रहती है और वे जीवों तथा माया के नियंता हैं। जिन बद्धात्माओं ने इस भौतिक जगत को सर्वस्व समझ रखा है वे उन्हें नहीं देख सकते, क्योंकि वे व्यावहारिक ज्ञान के प्रमाण से परे हैं। वे स्वतः प्रकट तथा आत्म-तुष्ट हैं। वे किसी कारण द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

24 जिस तरह इंद्रियविषय (रूप, स्वाद, स्पर्श, गंध तथा ध्वनि) यह नहीं समझ सकते कि इंद्रियाँ उनकी अनुभूति किस तरह करती हैं, उसी तरह बद्ध-आत्मा यद्यपि अपने शरीर में परमात्मा के साथ-साथ निवास करता है, यह नहीं समझ सकता कि भौतिक सृष्टि के स्वामी परम आध्यात्मिक पुरुष किस तरह उसकी इंद्रियों को निर्देश देते हैं। मैं उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो परम नियंता हैं।

25 केवल पदार्थ होने के कारण शरीर, प्राणवायु, बाह्य तथा आंतरिक इंद्रियाँ, पाँच स्थूल तत्त्व, तथा सूक्ष्म इंद्रियविषय (रूप, स्वाद, स्पर्श, गंध तथा ध्वनि) अपने स्वभाव को, अन्य इंद्रियों के स्वभाव को या उनके नियंताओं के स्वभाव को नहीं जान पाते हैं। किन्तु जीव अपने आध्यात्मिक स्वभाव के कारण अपने शरीर, प्राणवायु, इंद्रियों, तत्त्वों तथा इंद्रियविषयों को जान सकता है और वह तीन गुणों को भी, जो उनके मूल में होते हैं, जान सकता है। इतने पर भी, यद्यपि जीव उनसे पूर्णतया भिज्ञ होता है, किन्तु वह परम पुरुष को, जो सर्वज्ञ तथा असीम है, देख पाने में अक्षम रहता है। इसलिए मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

26 जब मनुष्य की चेतना स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक जगत के कल्मष से पूरी तरह शुद्ध हो जाती है और कार्य करने तथा स्वप्न देखने की अवस्थाओं से विचलित नहीं होती तथा जब मन सुषुप्ति अर्थात गहरी नींद में लीन नहीं होता तो वह समाधि के पद को प्राप्त होता है। तब उसकी भौतिक दृष्टि तथा मन की स्मृतियाँ, जो नामों तथा रूपों को प्रकट करती हैं, विनष्ट हो जाती हैं। केवल ऐसी ही समाधि में भगवान प्रकट होते हैं। अतः हम उन भगवान को नमस्कार करते हैं, जो उस अकलुषित दिव्य अवस्था में देखे जाते हैं।

27-28 जिस तरह कर्मकांड तथा यज्ञ करने में निपुण प्रकांड विद्वान ब्राह्मण पंद्रह सामिधेनी मंत्रों का उच्चारण करके काष्ठ के भीतर सुप्त अग्नि को बाहर निकाल सकते हैं और इस तरह वैदिक मंत्रों की दक्षता को सिद्ध करते हैं, उसी तरह जो लोग कृष्णभावनामृत में वस्तुतः बड़े-चढ़े होते हैं---दूसरे शब्दों में, जो कृष्णभावनाभावित होते हैं---वे परमात्मा को ढूँढ सकते हैं, जो अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा हृदय के भीतर स्थित रहते हैं। हृदय प्रकृति के तीनों गुणों से तथा नौ भौतिक तत्त्वों (प्रकृति, कुल भौतिक शक्ति, अहंकार, मन तथा इंद्रिय तृप्ति के पाँचों विषय) एवं पाँच भौतिक तत्त्वों तथा दस इंद्रियों द्वारा आच्छादित रहता है। ये सत्ताईस तत्त्व मिलकर भगवान की बहिरंगा शक्ति का निर्माण करते हैं। बड़े बड़े योगी भगवान का ध्यान करते हैं, जो परमात्मा रूप में हृदय के भीतर स्थित हैं। वह परमात्मा मुझ पर प्रसन्न हों। जब कोई भौतिक जीवन की असंख्य विविधताओं से मुक्ति के लिए उत्सुक होता है, तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है। वस्तुतः उसे ऐसी मुक्ति तब मिलती है जब वह भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है और अपनी सेवा प्रवृत्ति के कारण भगवान का साक्षात्कार करता है। भगवान को उन अनेक आध्यात्मिक नामों से संबोधित किया जा सकता है, जो भौतिक इंद्रियों के लिए अकल्पनीय हैं। वे भगवान मुझ पर कब प्रसन्न होंगे?

29 भौतिक ध्वनियों द्वारा व्यक्त, भौतिक बुद्धि द्वारा सुनिश्र्चित तथा भौतिक इंद्रियों द्वारा अनुभव की गई अथवा भौतिक मन के भीतर गढ़ी गई कोई भी वस्तु भौतिक प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होती, इसलिए भगवान के असली स्वभाव से उसका किसी तरह का संबंध नहीं होता। परमेश्र्वर इस भौतिक जगत की सृष्टि के परे हैं, क्योंकि वे भौतिक गुणों तथा सृष्टि के स्रोत हैं। सभी कारणों के कारण होते हुए, वे सृष्टि के पूर्व तथा सृष्टि के पश्र्चात विद्यमान रहते हैं। मैं उन्हें सादर प्रणाम करना चाहता हूँ।

30 परब्रह्म कृष्ण प्रत्येक वस्तु के परम आश्रय तथा उद्गम हैं। हर कार्य उन्हीं के द्वारा किया जाता है, हर वस्तु उन्हीं की है और हर वस्तु उन्हीं को अर्पित की जाती है। वे ही परम लक्ष्य हैं और चाहे वे स्वयं कार्य करते हों या अन्यों से कराते हों, वे परम कर्ता हैं। वैसे उच्च तथा निम्न अनेक कारण हैं, किन्तु समस्त कारणों के कारण होने से वे परब्रह्म कहलाते हैं, जो समस्त कार्यकलापों के पहले से विद्यमान थे। वे अद्वितीय हैं और उनका कोई अन्य कारण नहीं है। मैं उनको सादर प्रणाम करता हूँ।

31 मैं उन सर्वव्यापक भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो अनंत दिव्य गुणों से युक्त हैं। वे विभिन्न मतों का प्रसार करने वाले समस्त दर्शनिकों के हृदय के भीतर से कार्य करते हुए उनसे उनकी ही आत्मा को बुलवाते हैं, कभी उनमें परस्पर मतैक्य कराते हैं, तो कभी मत भिन्नता कराते हैं। इस तरह वे इस भौतिक जगत में ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसमें वे किसी भी दार्शनिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

32 संसार में दो वर्ग हैं---आस्तिक तथा नास्तिक। परमात्मा को मानने वाला आस्तिक सम्पूर्ण योग में आध्यात्मिक कारण को पाता है। किन्तु भौतिक तत्त्वों का मात्र विश्लेषण करने वाला सांख्यधर्मी निर्विशेषवाद के निष्कर्ष को प्राप्त होता है और परम कारण को, चाहे वह भगवान हो, परमात्मा हो या ब्रह्म ही क्यों न हो, स्वीकार नहीं करता। उल्टे, वह भौतिक प्रकृति के व्यर्थ बाह्य कार्यों में व्यस्त रहता है। किन्तु अंततोगत्वा दोनों वर्ग एक परम सत्य की स्थापना करते हैं, क्योंकि विरोधी कथन करते हुए भी उनका लक्ष्य एक ही परम कारण होता है। वे दोनों ही जिस एक परब्रह्म के पास पहुँचते हैं उन्हें मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

33 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो कि अचिंत्य रूप से ऐश्वर्यवान हैं, जो सारे भौतिक नामों, रूपों तथा लीलाओं से रहित हैं तथा जो सर्वव्यापक हैं, उन भक्तों पर विशेष रूप से कृपालु रहते हैं, जो उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं। इस तरह वे विभिन्न लीलाओं सहित दिव्य रूपों तथा नामों को प्रकट करते हैं। ऐसे भगवान, जो सच्चिदानंद विग्रह हैं, मुझ पर कृपालु हों।

34 जिस तरह वायु भौतिक तत्त्वों के विविध गुण यथा फूल की गंध या वायु में धूल के मिश्रण से उत्पन्न विभिन्न रंग अपने साथ ले जाती है, उसी तरह भगवान मनुष्य की इच्छाओं के अनुसार पूजा की निम्नतर प्रणालियों के माध्यम से प्रकट होते हैं, यद्यपि वे देवताओं के रूप में प्रकट होते हैं, अपने आदि रूप में नहीं। तो इन अन्य रूपों का क्या लाभ है? ऐसे आदि भगवान मेरी इच्छाएँ परिपूर्ण करें।

35-39 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा---अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक स्नेहिल भगवान हरि, दक्ष द्वारा की गई स्तुतियों से अत्यधिक प्रसन्न हुए, अतः वे अघमर्षण नामक पवित्र स्थान पर प्रकट हुए। हे श्रेष्ठ कुरुवंशी महाराज परीक्षित! भगवान के चरणकमल उनके वाहन गरुड़ के कंधों पर रखे थे और वे अपनी आठ लंबी बलिष्ठ अतीव सुंदर भुजाओं सहित प्रकट हुए। अपने हाथों में वे चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, रस्सी तथा गदा धारण किये थे---प्रत्येक हाथ में अलग-अलग हथियार थे और सब के सब चमचमा रहे थे। उनके वस्त्र पीले थे और उनके शरीर का रंग गहरा नीला था। उनकी आँखें तथा मुख अतीव मनोहर थे और उनके गले से लेकर पाँवों तक फूलों की लंबी माला लटक रही थी। उनका वक्षस्थल कौस्तुभ मणि तथा श्रीवत्स चिन्ह से सुशोभित था। उनके सिर पर विशाल गोल मुकुट था और उनके कान मछलियों के सदृश कुंडलों से सुशोभित थे। ये सारे आभूषण असाधारण रूप से सुंदर थे। भगवान अपनी कमर में सोने की पेटी, बाहों में बीजावट, अंगुलियों में अंगूठियाँ तथा पाँवों में पायल पहने थे। इस तरह विविध आभूषणों से सुशोभित भगवान हरि, जो तीनों लोकों के जीवों को आकर्षित करने वाले हैं, पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उनके साथ नारद, नन्द जैसे महान भक्त तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र इत्यादि प्रमुख देवता एवं उच्चतर लोकों यथा सिद्धलोक, गंधर्वलोक तथा चारणलोक के निवासी थे। भगवान के दोनों ओर तथा उनके पीछे भी स्थित ये भक्त निरंतर उनकी स्तुतियाँ कर रहे थे।

समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान

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