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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

ध्रुव महाराज द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम चतुर्थ स्कन्ध अध्याय नौ

6 ध्रुव महाराज ने कहा: हे भगवन, आप सर्वशक्तिमान हैं। मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर आपने मेरी सभी सोई हुए इंद्रियों को---हाथों, पाँवों, स्पर्शेंद्रिय, प्राण तथा मेरी वाणी को---जागृत कर दिया है। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

7 हे भगवन आप सर्वश्रेष्ठ हैं, किन्तु आप आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में अपनी विभिन्न शक्तियों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट होते रहते हैं। आप अपनी बहिरंगा शक्ति से भौतिक जगत की समस्त शक्ति को उत्पन्न करके बाद में भौतिक जगत में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं। आप परम पुरुष हैं, और क्षणिक गुणों से अनेक प्रकार की सृष्टि करते हैं, जिस प्रकार की अग्नि विभिन्न आकार के काष्ठखंडों में प्रविष्ट होकर विविध रूपों में चमकती हुई जलती है।

8 हे स्वामी, ब्रह्मा पूर्ण रूप से आपके शरणागत हैं। आरंभ में आपने उन्हें ज्ञान दिया तो वे समस्त ब्रह्मांड को उसी तरह देख और समझ पाये जिस प्रकार कोई मनुष्य नींद से जगकर तुरंत अपने कार्य समझने लगता है। आप मुक्तिकामी समस्त पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं और आप समस्त दीन-दुखियों के मित्र हैं। अतः पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वान पुरुष आपको किस प्रकार भुला सकता है?

9 जो व्यक्ति इस चमड़े के थैले (शवतुल्य देह) की इंद्रियतृप्ति के लिए ही आपकी पूजा करते हैं, वे निश्र्चय ही आपकी माया द्वारा प्रभावित हैं। आप जैसे कल्पवृक्ष तथा जन्म-मृत्यु से मुक्ति के कारण को पार करके भी मेरे समान मूर्ख व्यक्ति आपसे इंद्रियतृप्ति हेतु वरदान चाहते हैं, जो नरक में रहनेवाले व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध हैं।

10 हे भगवन, आपके चरणकमलों के ध्यान से या शुद्ध भक्तों से आपकी महिमा का श्रवण करने से जो दिव्य आनंद प्राप्त होता है, वह उस ब्रह्मानन्द अवस्था से कहीं बढ़कर है, जिसमें मनुष्य अपने को निर्गुण ब्रह्म से तदाकार हुआ सोचता है। चूँकि ब्रह्मानन्द भी भक्ति से मिलनेवाले दिव्य आनंद से परास्त हो जाता है, अतः उस क्षणिक आनंदमयता का क्या कहना, जिसमें कोई स्वर्ग तक पहुँच जाये और जो कालरूपी तलवार के द्वारा विनष्ट हो जाता है? भले ही कोई स्वर्ग तक क्यों न उठ जाये, कालक्रम में वह नीचे गिर जाता है।

11 ध्रुव महाराज ने आगे कहा: हे अनंत भगवान, कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं उन महान भक्तों की संगति कर सकूँ जो आपकी दिव्य प्रेमा भक्ति में उसी प्रकार निरंतर लगे रहते हैं जिस प्रकार नदी की तरंगें लगातार बहती रहती हैं। ऐसे दिव्य भक्त नितांत कल्मषरहित जीवन बिताते हैं। मुझे विश्वास है कि भक्तियोग से मैं संसार रूपी अज्ञान के सागर को पार कर सकूँगा जिसमे अग्नि की लपटों के समान भयंकर संकटों की लहरें उठ रही हैं। यह मेरे लिए सरल रहेगा, क्योंकि मैं आपके दिव्य गुणों तथा लीलाओं के सुनने के लिए पागल हो रहा हूँ, जिनका अस्तित्व शाश्र्वत है।

12 हे कमलनाभ भगवान, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे भक्त की संगति करता है, जिसका हृदय सदैव आपके चरणकमलों की सुगंध में लुब्ध रहता है, तो वह न तो कभी अपने भौतिक शरीर के प्रति आसक्त रहता है और न संतति, मित्र, घर, संपत्ति तथा पत्नी के प्रति देहात्मबुद्धि रखता है, जो भौतिकतावादी पुरुषों को अत्यंत ही प्रिय है। वस्तुतः वह उसकी तनिक भी परवाह नहीं करता।

13 हे भगवन, हे परम अजन्मा, मैं जानता हूँ कि जीवात्माओं की विभिन्न योनियाँ, यथा पशु, पक्षी, रेंगनेवाले जीव, देवता तथा मनुष्य सारे ब्रह्मांड में फैली हुई हैं, जो समग्र भौतिक शक्ति से उत्पन्न हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि ये कभी प्रकट रूप में रहती है, तो कभी अप्रकट रूप में, किन्तु मैंने ऐसा परम रूप कभी नहीं देखा जैसा कि अब आप का देख रहा हूँ। अब किसी भी सिद्धान्त के बनाने की आवश्यकता नहीं रह गई है।

14 हे भगवन, प्रत्येक कल्प के अंत में भगवान गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्मांड में दिखाई पड़नेवाली प्रत्येक वस्तु को अपने उदर में समाहित कर लेते हैं। वे शेषनाग की गोद में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से एक डंठल में से सुनहला कमल-पुष्प फूट निकलता है और इस कमल-पुष्प पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं। मैं समझ सकता हूँ कि आप वही परमेश्र्वर हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

15 हे भगवन, अपनी अखंड दिव्य चितवन से आप बौद्धिक कार्यों की समस्त अवस्थाओं के परम साक्षी हैं। आप शाश्र्वत-मुक्त हैं, आप शुद्ध सत्व में विद्यमान रहते हैं और अपरिवर्तित रूप में परमात्मा में विद्यमान हैं। आप छह ऐश्वर्यों से युक्त आदि भगवान है और भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के शाश्र्वत स्वामी हैं। इस प्रकार आप सामान्य जीवात्माओं से सदैव भिन्न रहते हैं। विष्णु रूप में आप सारे ब्रह्मांड के कार्यों का लेखा-जोखा रखते हैं, तो भी आप पृथक रहते हैं और समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

16 हे भगवन, ब्रह्म के आपके निर्गुण प्राकट्य में सदैव दो विरोधी तत्त्व रहते हैं--ज्ञान तथा अविद्या। आपकी विविध शक्तियाँ निरंतर प्रकट होती हैं, किन्तु निर्गुण ब्रह्म, जो अविभाज्य, आदि, अपरिवर्तित, असीम तथा आनंदमय है, भौतिक जगत का कारण है। चूँकि आप वही निर्गुण ब्रह्म हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

17 हे भगवन, हे परमेश्र्वर, आप सभी वरों के परम साक्षात रूप हैं, अतः जो बिना किसी कामना के आपकी भक्ति पर दृढ़ रहता है, उसके लिए राजा बनने तथा राज करने की अपेक्षा आपके चरणकमलों की रज श्रेयस्कर है। आपके चरणकमल की पूजा का यही वरदान है। आप अपनी अहैतुकी कृपा से मुझ जैसे अज्ञानी भक्त के लिए पूर्ण परिपालक हैं, जिस प्रकार गाय अपने नवजात बछड़े को दूध पिलाती है और हमले से उसकी रक्षा करके उसकी देखभाल करती है।

18 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, जब सदविचारों से पूर्ण अन्तःकरण वाले ध्रुव महाराज ने अपनी प्रार्थना समाप्त की तो अपने भक्तों तथा दासों पर अत्यंत दयालु भगवान ने उन्हें बधाई दी और इस प्रकार कहा।

19 भगवान ने कहा: हे राजपुत्र ध्रुव, तुमने पवित्र व्रतों का पालन किया है और मैं तुम्हारी आंतरिक इच्छा भी जानता हूँ। यद्यपि तुम अत्यंत महत्वाकांक्षी हो और तुम्हारी इच्छा को पूरा कर पाना कठिन है, तो भी मैं उसे पूरा करूँगा। तुम्हारा कल्याण हो।

(समर्पित एवं सेवारत जे.सी.चौहान)

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