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अध्याय चौबीस – शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान (4.24)

1-10 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: महाराज पृथु का सबसे बड़ा पुत्र विजिताश्व, जिसकी ख्याति अपने पिता की ही तरह थी, राजा बना और उसने अपने छोटे भाइयों को पृथ्वी की विभिन्न दिशाओं पर राज्य करने का अधिकार सौंप दिया, क्योंकि वह अपने भाइयों को अत्यधिक चाहता था। महाराज विजिताश्व ने संसार का पूर्वी भाग अपने भाई हर्यक्ष को, दक्षिणी भाग धूम्रकेश को, पश्चिमी भाग वृक को तथा उत्तरी भाग द्रविण को प्रदान किया। पूर्वकाल में महाराज विजिताश्व ने स्वर्ग के राजा इन्द्र को प्रसन्न करके उनसे अन्तर्धान की पदवी प्राप्त की थी। उनकी पत्नी का नाम शिखण्डिनी था जिससे उन्हें तीन उत्तम पुत्र हुए। महाराज अन्तर्धान के तीनों पुत्रों के नाम थे पावक, पवमान तथा शुचि। पूर्वकाल में ये तीनों अग्निदेव थे, परन्तु वसिष्ठ ऋषि के शाप से वे महाराज अन्तर्धान के पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए; फलतः वे अग्निदेवों के ही समान शक्तिमान थे और फिर से अग्निदेवों के रूप में स्थित होने के कारण उन्होंने योगशक्ति का पद प्राप्त किया।    महाराज अन्तर्धान के नभस्वती नामक एक दूसरी पत्नी थी जिससे उन्हें हविर्धान नामक एक अन्य पुत्र की प्राप्ति हुई। चूँकि महाराज अन्तर्धान अत्यन्त उदार थे, अतः उन्होंने यज्ञ से अपने पिता के घोड़े को चुराते हुए इन्द्रदेव को मारा नहीं। जब भी परम शक्तिशाली अन्तर्धान को प्रजा से कर लेना, प्रजा को दण्ड देना या उस पर कठोर जुर्माना लगाना होता तो ऐसा करने को उनका जी नहीं चाहता था। फलतः उन्होंने ऐसे कार्यों से मुख मोड़ लिया और वे विभिन्न प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करने में व्यस्त रहने लगे। यद्यपि महाराज अन्तर्धान यज्ञ करने में व्यस्त रहते थे, किन्तु स्वरूपसिद्ध व्यक्ति होने के नाते वे भक्तों के समस्त भय को दूर करने वाले भगवान की भक्ति भी करते रहे। इस प्रकार भगवान की पूजा करते हुए महाराज अन्तर्धान समाधि में लीन रहकर सरलतापूर्वक भगवान के ही लोक को प्राप्त हुए। महाराज अन्तर्धान के पुत्र हविर्धान की पत्नी का नाम हविर्धानी था जिसने छह पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम थे बर्हिषत, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य तथा जितव्रत। मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, हविर्धान का अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र बर्हिषत विभिन्न प्रकार के यज्ञादि, कर्मकाण्ड तथा योगाभ्यास में अत्यन्त कुशल था। अपने महान गुणों के कारण वह प्रजापति कहलाया। महाराज बर्हिषत ने संसार भर में अनेक यज्ञ किए। उन्होंने कुश घासों को बिखेर कर उनके अग्रभागों को पूर्व की ओर रखा।

11-20   महाराज बर्हिषत (आगे प्राचीनबर्हि नाम से विख्यात) को परम देवता ब्रह्माजी ने समुद्र की कन्या शतद्रुती के साथ विवाह करने का आदेश दिया था। उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सुन्दर थे और वह अत्यन्त युवा थी। वह समुचित परिधानों से अलंकृत थी। जब वह विवाह-मण्डप में आकर प्रदक्षिणा करने लगी तो अग्निदेव उस पर इतने मोहित हो गये कि उन्होंने उसे संगी बनाकर उसके साथ भोग करना चाहा जिस तरह पहले भी उन्होंने शुकी के साथ करना चाहा था ।   जब शतद्रुती का इस तरह विवाह हो रहा था, तो असुर, गन्धर्वलोक के वासी, बड़े-बड़े साधु, सिद्धलोक, पृथ्वीलोक तथा नागलोक के वासी, सभी परम विद्वान होते हुए भी उसके नूपुरों की झनकार से मोहित हो रहे थे। राजा प्राचीनबर्हि ने शतद्रुती के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये। वे सभी समान रूप से धर्मात्मा थे और प्रचेता नाम से विख्यात हुए। जब इन सभी प्रचेताओं को उनके पिता ने विवाह करके सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया तो सबों ने समुद्र में प्रवेश किया और दस हजार वर्षों तक तपस्या की। इस प्रकार उन्होंने समस्त तपस्या के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की उपासना की। जब प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रों ने तपस्या करने के उद्देश्य से घर छोड़ दिया तो उन्हें शिवजी मिले, जिन्होंने अत्यन्त कृपा करके उन्हें परम सत्य के विषय में उपदेश दिया। प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रों ने उनके उपदेशों को अत्यन्त सावधानी तथा मनोयोग से जपते तथा पूजा करते हुए उनके विषय में ध्यान किया।    विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे ब्राह्मण, प्रचेतागण रास्ते में शिवजी से क्यों मिले? कृपया मुझे बताएँ कि उनसे किस प्रकार भेंट हुई, भगवान शिव उनसे किस प्रकार इतने प्रसन्न हो गये और उन्होंने क्या उपदेश दिया? निस्सन्देह, ऐसी बातें महत्वपूर्ण हैं और मैं चाहता हूँ कि आप कृपा करके मुझसे इनका वर्णन करें। विदुर ने आगे कहा: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, देहधारियों के लिए शिवजी के साथ साक्षात सम्पर्क कर पाना अत्यन्त कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि भी जिन्हें भौतिक आसक्ति से कोई लेनदेन नहीं होता, उनका समागम पाने के लिए ही, ध्यान में लीन रहने के बावजूद भी उनका संसर्ग प्राप्त नहीं कर पाते। शिवजी जो अत्यन्त शक्तिशाली देवता हैं और वे आत्माराम हैं, जिनका नाम भगवान विष्णु के ही बाद आता है । यद्यपि उन्हें इस भौतिक जगत में किसी वस्तु की कोई आकांक्षा नहीं है, किन्तु वे संसारी लोगों के कल्याण कार्य में सदैव व्यस्त रहते हैं और अपनी घोर शक्तियों-यथा देवी काली तथा देवी दुर्गा – के साथ रहते हैं। ऋषि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, अपनी साधु प्रकृति के कारण प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रों ने अपने पिता के वचनों को शिरोधार्य किया और पिता की आज्ञा पूरी करने के उद्देश्य से वे पश्चिम दिशा की ओर चले गये। चलते-चलते प्रचेताओं ने एक विशाल जलाशय देखा जो समुद्र के समान विशाल दिखता था। इसका जल इतना शान्त था मानो किसी महापुरुष का मन हो और इसके जलचर इतने बड़े जलाशय की संरक्षण में अत्यन्त शान्त तथा प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे।

21-30  उस विशाल सरोवर में विभिन्न प्रकार के कमल पुष्प थे। कुछ नीले थे तो कुछ लाल, कुछ रात्रि में खिलने वाले थे तो कुछ दिन में और इन्दीवर जैसे कुछ कमल शाम को खिलने वाले थे। इन सब फूलों से सारा सरोवर पुष्पों की खान सा प्रतीत हो रहा था। फलस्वरूप सरोवर के तटों पर हंस, सारस, चक्रवाक, कारण्डव तथा अन्य सुन्दर जलपक्षी खड़े हुए थे। उस सरोवर के चारों ओर तरह-तरह के वृक्ष तथा लताएँ थी और उन पर मतवाले भौंरें गूँज रहे थे। भौरों की मधुर गूँज से वृक्ष अत्यन्त उल्लसित लग रहे थे और कमल पुष्पों का केसर वायु में बिखर रहा था। इस सबसे ऐसा वातावरण उत्पन्न हो रहा था मानो कोई उत्सव हो रहा हो। जब राजा के पुत्रों ने मृदंग तथा पणव के साथ-साथ अन्य राग-रागिनियों की कर्णप्रिय ध्वनि सुनी तो वे अत्यन्त विस्मित हुए।   प्रचेतागण भाग्यवान थे कि उन्होंने प्रमुख देव शिवजी को उनके पार्षदों सहित जल से बाहर आते देखा। उनकी शारीरिक कान्ति तपे हुए सोने के समान थी, उनका कण्ठ नीला था और उनके तीन नेत्र थे जिनसे वे भक्तों पर कृपादृष्टि डाल रहे थे। उनके साथ अनेक गन्धर्व गायक थे, जो उनका गुणगान कर रहे थे। ज्योंही प्रचेताओं ने शिवजी को देखा उन्होंने तुरन्त ही कौतूहलवश उन्हें नमस्कार किया और वे उनके चरणों पर गिर पड़े। शिवजी प्रचेताओं से अत्यन्त प्रसन्न हुए, क्योंकि सामान्यतः शिवजी पवित्र तथा सदाचारी पुरुषों के रक्षक हैं। राजकुमारों से अत्यन्त प्रसन्न होकर वे इस प्रकार बोले। शिवजी ने कहा: तुम सभी प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। मैं जानता हूँ कि तुम क्या करने जा रहे हो, अतः मैंने तुम पर कृपा करने के लिए ही अपना दर्शन दिया है। शिवजी ने आगे कहा: जो व्यक्ति प्रकृति तथा जीवात्मा में से प्रत्येक के अधिष्ठाता भगवान कृष्ण के शरणागत हैं, वह वास्तव में मुझे अत्यधिक प्रिय है। जो व्यक्ति अपने वर्णाश्रम धर्म को समुचित रीति से एक सौ जन्मों तक निबाहता है, वह ब्रह्मा के पद को प्राप्त करने के योग्य हो जाता है और इससे अधिक योग्य होने पर वह शिवजी के पास पहुँच सकता है। किन्तु जो व्यक्ति अनन्य भक्तिवश सीधे भगवान कृष्ण या विष्णु की शरण में जाता है, वह तुरन्त वैकुण्ठलोक में पहुँच जाता है। शिवजी तथा अन्य देवता इस संसार के संहार के बाद ही इन लोक को प्राप्त कर पाते हैं। तुम सभी भगवान के भक्त हो, अतः तुम मेरे लिए भगवान के समान पूज्य हो। इस प्रकार से मैं यह जानता हूँ कि भक्त भी मेरा आदर करते हैं और मैं उन्हें प्यारा हूँ। इस प्रकार भक्तों को मेरे समान अन्य कोई प्रिय नहीं हो सकता है।

31-40  अब मैं केवल एक मंत्र का उच्चारण करूँगा जो न केवल दिव्य, पवित्र तथा शुभ है वरन जीवन-उद्देश्य को प्राप्त करने के इच्छुक हर एक के लिए यही श्रेष्ठ स्तुति भी है। जब मैं इस मंत्र का उच्चारण करूँ तो तुम सब सावधानी से ध्यानपूर्वक सुनना। महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: भगवान नारायण के परम भक्त महापुरुष शिवजी अहैतुकी कृपावश हाथ जोड़कर खड़े हुए राजा के पुत्रों से कहते रहे। शिवजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की इस प्रकार स्तुति की: हे भगवान, आप धन्य हैं। आप सभी स्वरूपसिद्धों में महान हैं चूँकि आप उनका सदैव कल्याण करने वाले हैं, अतः आप मेरा भी कल्याण करें। आप अपने सर्वात्मक उपदेशों के कारण पूज्य हैं। आप परमात्मा हैं, अतः पुरुषोत्तम स्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ। हे भगवान, आपकी नाभि से कमल पुष्प निकलता है, इस प्रकार से आप सृष्टि के उद्गम हैं। आप इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं के नियामक हैं। आप सर्वव्यापी वासुदेव भी हैं। आप परम शान्त हैं और स्वयंप्रकाशित होने के कारण आप छह प्रकार के विकारों से विचलित नहीं होते।   हे भगवान, आप सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों के उद्गम, समस्त संघटन और संहार के स्वामी, संकर्षण नामक अधिष्ठाता तथा समस्त बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।  हे परम अधिष्ठाता अनिरुद्ध रूप भगवान, आप इन्द्रियों तथा मन के स्वामी हैं। अतः मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। आप अनन्त तथा साथ ही साथ संकर्षण कहलाते हैं, क्योंकि अपने मुख से निकलने वाली धधकती हुई अग्नि से आप सारी सृष्टि का संहार करने में समर्थ हैं। हे भगवान अनिरुद्ध, आपके आदेश से स्वर्ग तथा मोक्ष के द्वार खुलते हैं। आप निरन्तर जीवों के शुद्ध हृदय में निवास करते हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप स्वर्ण सदृश वीर्य के स्वामी हैं और इस प्रकार आप अग्नि रूप में चातुर्होत्र इत्यादि वैदिक यज्ञों में सहायता करते हैं। अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे भगवन, आप पितृलोक तथा सभी देवताओं के भी पोषक हैं। आप चन्द्रमा के प्रमुख श्रीविग्रह और तीनों वेदों के स्वामी हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आप समस्त जीवात्माओं की तृप्ति के मूल स्त्रोत हैं। हे भगवान, आप विराट स्वरूप हैं जिसमें समस्त जीवात्माओं के शरीर समाहित हैं। आप तीनों लोकों के पालक हैं, फलतः आप मन, इन्द्रियों, शरीर तथा प्राण का पालन करनेवाले हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवान, आप अपनी दिव्य वाणी (शब्दों) को प्रसारित करके प्रत्येक वस्तु का वास्तविक अर्थ प्रकट करने वाले हैं। आप भीतर-बाहर सर्वव्याप्त आकाश हैं और इस लोक में तथा इससे परे किये जाने वाले समस्त पुण्यकर्मों के परम लक्ष्य हैं। अतः मैं आपको पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।

41-50  हे भगवान, आप पुण्यकर्मों के फलों के दृष्टा हैं। आप प्रवृत्ति, निवृत्ति तथा उनके कर्म-रूपी परिणाम (फल) हैं। आप अधर्म से जनित जीवन के दुखों के कारणस्वरूप हैं, अतः आप मृत्यु हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।  हे भगवान, आप आशीर्वादों के समस्त प्रदायकों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे प्राचीन तथा समस्त भोक्ताओं में परम भोक्ता हैं। आप समस्त सांख्य योग-दर्शन के अधिष्ठाता हैं। आप समस्त कारणों के कारण भगवान कृष्ण हैं। आप सभी धर्मों में श्रेष्ठ हैं, आप परम मन हैं और आपका मस्तिष्क (बुद्धि) ऐसा है, जो कभी कुण्ठित नहीं होता। अतः मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ। हे भगवान, आप कर्ता, करण और कर्म--इन तीनों शक्तियों के नियामक हैं। अतः आप शरीर, मन तथा इन्द्रियों के परम नियन्ता हैं। आप अहंकार के परम नियन्ता रुद्र भी हैं। आप वैदिक आदेशों के ज्ञान तथा उनके अनुसार किए जाने वाले कर्मों के स्रोत हैं। हे भगवान, मैं आपको उस रूप में देखने का इच्छुक हूँ, जिस रूप में आपके अत्यन्त प्रिय भक्त आपकी पूजा करते हैं। आपके अन्य अनेक रूप हैं, किन्तु मैं तो उस रूप का दर्शन करना चाहता हूँ जो भक्तों को विशेष रूप से प्रिय है। आप मुझ पर अनुग्रह करें और मुझे वह स्वरूप दिखलाएँ, क्योंकि जिस रूप की भक्त पूजा करते हैं वही इन्द्रियों की इच्छाओं को पूरा कर सकता है।   भगवान की सुन्दरता वर्षाकालीन श्याम मेघों के समान है। उनके शारीरिक अंग वर्षा जल के समान चमकीले हैं। दरअसल, वे समस्त सौन्दर्य के समष्टि (सारसर्वस्व) हैं। भगवान की चार भुजाएँ हैं, सुन्दर मुख है और उनके नेत्र कमलदलों के तुल्य हैं। उनकी नाक उन्नत, उनकी हँसी मोहने वाली, उनका मस्तक तथा उनके कान सुन्दर और आभूषणों से सज्जित हैं। भगवान अपने मुक्त तथा दयापूर्ण हास्य तथा भक्तों पर तिरछी चितवन के कारण अनुपम सुन्दर लगते हैं। उनके बाल काले तथा घुँघराले हैं। हवा में उड़ता उनका वस्त्र कमल के फूलों में से उड़ते हुए केशर-रज के समान प्रतीत होता है। उनके झिलमलाते कुण्डल, चमचमाता मुकुट, कंकण, वनमाला, नूपुर, करधनी तथा शरीर के अन्य आभूषण शंख, चक्र, गदा तथा कमल पुष्प से मिलकर उनके वक्षस्थल पर पड़ी कौस्तुभमणि की प्राकृतिक शोभा को बढ़ाते हैं। भगवान के कंधे सिंह के समान हैं। इन पर मालाएँ, हार एवं घुँघराले बाल पड़े हैं, जो सदैव झिलमिलाते रहते हैं। इनके साथ ही साथ कौस्तुभमणि की सुन्दरता है और भगवान के श्याम वक्षस्थल पर श्रीवत्स की रेखाएँ हैं, जो लक्ष्मी के प्रतीक हैं। इन सुवर्ण रेखाओं की चमाहट सुवर्ण कसौटी पर बनी सुवर्ण लकीरों से कहीं अधिक सुन्दर है। दरअसल ऐसा सौन्दर्य सुवर्ण कसौटी को मात करने वाला है। भगवान का उदर (पेट) त्रिवली के कारण सुन्दर लगता है। गोल होने के कारण उनका उदर वटवृक्ष के पत्ते के समान जान पड़ता है और जब वे श्वास-प्रश्वास लेते हैं, तो इन सलवटों का हिलना-जुलना अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। भगवान की नाभि के भीतर की कुण्डली इतनी गहरी है मानो सारा ब्रह्माण्ड उसी में से उत्पन्न हुआ हो और पुनः उसी में समा जाना चाहता हो।

51-60 भगवान की कटि का अधोभाग श्यामल रंग का है और पीताम्बर से ढका है। उसमें सुनहली, जरीदार करधनी है। उनके एक समान चरणकमल, पिण्डलियाँ, जाँघें तथा घुटने अनुपम सुन्दर हैं। निस्सन्देह, भगवान का सम्पूर्ण शरीर अत्यन्त सुडौल प्रतीत होता है। हे भगवन, आपके दोनों चरणकमल इतने सुन्दर हैं मानो शरत ऋतु में उगने वाले कमल पुष्प के खिलते हुए दो दल हों। दरअसल आपके चरणकमलों के नाखूनों से इतना तेज निकलता है कि वह बद्ध जीव के सारे अंधकार को तुरन्त छिन्न कर देता है। हे स्वामी, मुझे आप अपना वह स्वरूप दिखलायें जो किसी भक्त के हृदय के अंधकार को नष्ट कर देता है। मेरे भगवन, आप सबों के परम गुरु हैं, अतः आप जैसे गुरु के द्वारा अज्ञान के अंधकार से आवृत सारे बद्धजीव प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। हे भगवन, जो लोग अपने जीवन को परिशुद्ध बनाना चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्त विधि से आपके चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए। जो अपने वर्ण के अनुरूप कार्य को पूरा करने की धुन में हैं और जो भय से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें भक्तियोग की इस विधि का अनुसरण करना चाहिए। हे भगवन, स्वर्ग का राजा इन्द्र भी जीवन के परम लक्ष्य – भक्ति – को प्राप्त करने का इच्छुक रहता है। इसी प्रकार जो अपने को आपसे अभिन्न मानते हैं (अहं ब्रह्मास्मि), उनके भी एकमात्र लक्ष्य आप ही हैं। किन्तु आपको प्राप्त कर पाना उनके लिए अत्यन्त कठिन है जबकि भक्त सरलता से आपको पा सकता है। हे भगवन, शुद्ध भक्ति कर पाना तो मुक्त पुरुषों के लिए भी कठिन है, किन्तु आप हैं कि एकमात्र भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः जीवन-सिद्धि का इच्छुक ऐसा कौन होगा जो आत्म-साक्षात्कार की अन्य विधियों को अपनाएगा?  उनके भृकुटि – विस्तार – मात्र से जो दुर्जेय काल तत्क्षण सारे ब्रह्माण्ड का संहार कर सकता है, वही दुर्जेय काल आपके चरणकमलों की शरण में गये भक्त के निकट तक नहीं पहुँच पाता। संयोग से भी यदि कोई क्षण भर के लिए भक्त की संगति पा जाता है, तो उसे कर्म और ज्ञान के फलों का तनिक भी आकर्षण नहीं रह जाता। तब उन देवताओं के वरदानों में उसके लिए रखा ही क्या है, जो जीवन और मृत्यु के नियमों के अधीन हैं?   हे भगवन, आपके चरणकमल समस्त कल्याण के कारण हैं और समस्त पापों के कल्मष को विनष्ट करने वाले हैं। अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे अपने भक्तों की संगति का आशीर्वाद दें, क्योंकि आपके चरणकमलों की पूजा करने से वे पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं और बद्धजीवों पर अत्यन्त कृपालु हैं। मेरी समझ में तो आपका असली आशीर्वाद यही होगा कि आप मुझे ऐसे भक्तों की संगति करने की अनुमति दें। जिसका हृदय भक्तियोग से पूर्णरूप से पवित्र हो चुका हो तथा जिस पर भक्ति देवी की कृपा हो, ऐसा भक्त कभी भी अंधकूप सदृश माया द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता। इस प्रकार समस्त भौतिक कल्मष से रहित होकर ऐसा भक्त आपके नाम, यश, स्वरूप, कार्य इत्यादि को अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक समझ सकता है। हे भगवन, निर्गुण ब्रह्म सूर्य के प्रकाश अथवा आकाश की भाँति सर्वत्र फैला हुआ है और जो सारे ब्रह्माण्ड भर में फैला है तथा जिसमें सारा ब्रह्माण्ड दिखाई देता है, वह निर्गुण ब्रह्म आप ही हैं।

61-70  हे भगवन, आपकी शक्तियाँ अनेक हैं और वे नाना रूपों में प्रकट होती हैं। आपने ऐसी ही शक्तियों से इस दृश्य जगत की उत्पत्ति की है और यद्यपि आप इसका पालन इस प्रकार करते हैं मानो यह चिरस्थायी हो, किन्तु अन्त में आप इसका संहार कर देते हैं। यद्यपि आप कभी भी ऐसे परिवर्तनों द्वारा विचलित नहीं होते, किन्तु जीवात्माएँ इनसे विचलित होती रहती हैं, इसलिए वे इस दृश्य जगत को आपसे भिन्न अथवा पृथक मानती हैं। हे भगवन, आप सर्वदा स्वतंत्र हैं और मैं तो इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। हे भगवन, आपका विराट रूप, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार (जो भौतिक हैं) तथा आपके अंश रूप सर्व नियामक परमात्मा इन सभी पाँच तत्त्वों से बना है। भक्तों के अतिरिक्त अन्य योगी-यथा कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी – अपने-अपने पदों में अपने-अपने कार्यों द्वारा आपकी पूजा करते हैं। वेदों में तथा शास्त्रों में जो वेदों के निष्कर्ष हैं, कहा गया है कि केवल आप ही पूज्य हैं। सभी वेदों का यही अभिमत है।   हे भगवन, आप कारणों के कारण एकमात्र परम पुरुष हैं। इस भौतिक जगत की सृष्टि के पूर्व आपकी भौतिक शक्ति सुप्त रहती है, किन्तु जब आपकी शक्ति गतिमान होती है, तो आपके तीनों गुण—सत्त्व, रज तथा तमो गुण – क्रिया करते हैं। फलस्वरूप समष्टि भौतिक शक्ति अर्थात अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा विभिन्न देवता एवं ऋषिगण प्रकट होते हैं। इस प्रकार भौतिक जगत की उत्पत्ति होती है। हे भगवन, आप अपनी शक्तियों के द्वारा सृष्टि कर लेने के बाद सृष्टि में चार रूपों में प्रवेश करते हैं। आप जीवों के अन्तःकरण में स्थित होने के कारण उन्हें जानते हैं और यह भी जानते हैं कि वे किस प्रकार इन्द्रिय-भोग कर रहे हैं। इस भौतिक जगत का तथाकथित सुख ठीक वैसा ही है जैसा कि शहद के छत्ते में मधु एकत्र होने के बाद मधुमक्खी द्वारा उसका आस्वाद।   हे भगवन, आपकी परम सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु संसार की गतिविधियों को देखकर कि समय आने पर सब कुछ विनष्ट हो जाता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। काल का वेग अत्यन्त प्रचण्ड है और प्रत्येक वस्तु किसी अन्य वस्तु के द्वारा विनष्ट होती जा रही है – जैसे एक पशु दूसरे पशु द्वारा निगल लिया जाता है। काल प्रत्येक वस्तु को उसी प्रकार तितर-बितर कर देता है, जिस प्रकार आकाश में बादलों को वायु छिन्न-भिन्न कर देती है। हे भगवन, इस संसार के सारे प्राणी कुछ--कुछ योजना बनाने में पागल हैं तथा यह या वह करते रहने की इच्छा से काम में जुटे रहते हैं। अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है। जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है, किन्तु आप नित्य सतर्क रहते हैं और समय आने पर आप उस पर उसी प्रकार टूट पड़ते हैं जिस प्रकार सर्प चूहे पर झपटता है और आसानी से निगल जाता है।  हे भगवन, कोई भी विद्वान पुरुष जानता है कि आपकी पूजा के बिना सारा जीवन व्यर्थ है। भला यह जानते हुए वह आपके चरणकमलों की उपासना क्यों त्यागेगा? यहाँ तक कि हमारे गुरु तथा पिता ब्रह्मा ने बिना किसी भेदभाव के आपकी आराधना की और चौदहों मनुओं ने उनका अनुसरण किया। हे भगवन, जो वास्तव में विद्वान मनुष्य हैं, वे सभी आपको परब्रह्म एवं परमात्मा के रूप में जानते हैं। यद्यपि सारा ब्रह्माण्ड भगवान रुद्र से भयभीत रहता है, क्योंकि वे अन्ततः प्रत्येक वस्तु को नष्ट करने वाले हैं, किन्तु विद्वान भक्तों के लिए आप निर्भय आश्रय हैं।   हे राजपुत्रों, तुम लोग विशुद्ध हृदय से राजाओं की भाँति अपने-अपने नियत कर्म करते रहो। भगवान के चरणकमलों पर अपने मन को स्थिर करते हुए इस स्तुति (स्तोत्र) का जप करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि इससे भगवान तुम पर अत्यधिक प्रसन्न होंगे। अतः हे राजकुमारों, भगवान सबके हृदयों में स्थित हैं। वे तुम लोगों के भी हृदयों में हैं, अतः भगवान की महिमा का जप करो और निरन्तर उसी का ध्यान करो।

71-79  हे राजपुत्रों, मैंने स्तुति के रूप में तुम्हें पवित्र नाम-जप की योगपद्धति बतला दी है। तुम सब इस स्तोत्र को अपने मनों में धारण करते हुए इस पर दृढ़ रहने का व्रत लो जिससे तुम महान मुनि बन सको। तुम्हें चाहिए कि मुनि की भाँति मौन धारण करके तथा ध्यानपूर्वक एवं आदर सहित इसका पालन करो। सर्वप्रथम समस्त प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा ने हमें यह स्तुति सुनायी थी। भृगु आदि प्रजापतियों को भी इसी स्तोत्र की शिक्षा दी गई थी, क्योंकि वे संतानोत्पत्ति करना चाह रहे थे। जब ब्रह्मा द्वारा हम सब प्रजापतियों को प्रजा उत्पन्न करने का आदेश हुआ तो हमने भगवान की प्रशंसा में इस स्तोत्र का जप किया जिससे हम समस्त अविद्या से पूरी तरह से मुक्त हो गये। इस तरह हम विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति कर पाये। भगवान कृष्ण के भक्त जिसका मन सदैव उन्हीं में लीन रहता है और जो अत्यन्त ध्यान तथा आदरपूर्वक इस स्तोत्र का जप करता है, उसे शीघ्र ही जीवन की परम सिद्धि प्राप्त होगी।   इस संसार में उपलब्धि के अनेक प्रकार हैं, किन्तु इन सबों में ज्ञान की उपलब्धि सर्वोपरि मानी जाती है, क्योंकि ज्ञान की नौका में आरूढ़ होकर ही अज्ञान के सागर को पार किया जा सकता है। अन्यथा यह सागर दुस्तर है। यद्यपि भगवान की भक्ति करना एवं उनकी पूजा करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु यदि कोई मेरे द्वारा रचित एवं गाये गये इस स्तोत्र को केवल पाठ करता है, तो वह सरलतापूर्वक भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है।  समस्त शुभ आशीर्वादों में से सर्वप्रिय वस्तु भगवान हैं। जो मनुष्य मेरे द्वारा गाये गये इस गीत को गाता है, वह भगवान को प्रसन्न कर सकता है। ऐसा भक्त भगवान की भक्ति में स्थिर होकर परमेश्वर से मनवांछित फल प्राप्त कर सकता है। जो भक्त प्रातःकाल उठकर हाथ जोड़कर शिवजी के द्वारा गाई गई इस स्तुति का जप करता है और अन्यों को सुनाता है, वह निश्चय ही समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।   हे राजकुमारों, मैंने तुम्हें जो स्तुति गाकर सुनाई वह परमात्मा स्वरूप भगवान को प्रसन्न करने के निमित्त थी। मैं तुम्हें इस स्तुति को गाने की सलाह देता हूँ, क्योंकि यह बड़ी-से-बड़ी तपस्या के समान प्रभावशाली है। इस प्रकार जब तुम सब परिपक्व हो जाओगे तो तुम्हारा जीवन सफल होगा और तुम्हें सारे अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त हो सकेंगे।

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
  • Hare krishna ! yes you can have this is in sanskrit from https://vedabase.io/en/library/sb/.
    Śrīmad-Bhāgavatam (Bhāgavata Purāṇa
  • Can we have this is sankrit as well?
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